एस धम्मो सनंतनो—(प्रवचन-एकसौबाईस्वां)
प्रश्न सार:
यह
मोह क्या है?
उससे इतना दुख पैदा होता है, फिर भी वह छूटता
क्यों नहीं है?
मनुष्य शून्य होने
की बजाय दुख से भरा होना ज्यादा पसंद करता है।
भरा
होना ज्यादा पसंद करता है। खाली होने से भयभीत है। चाहे फिर दुख से ही क्यों न भरा
हो। सुख न मिले,
तो कोई बात नहीं है। दुख ही सही। लेकिन कुछ पकड़ने को चाहिए। कोई
सहारा चाहिए।
दुख
भी न हो, तो तुम शून्य में खोने लगोगे। सुख का किनारा तो दूर मालूम पड़ता है,
दुख का किनारा पास। वहीं तुम खड़े हो। जो पास है, उसी को पकड़ लेते हो कि कहीं खो न जाओ। कहीं इस अपार में लीन न हो जाओ!
कहते
हैं न. डूबते को तिनके का सहारा। दुख तुम्हारा तिनका है।
बचाने
योग्य कुछ भी नहीं है। दुख ही पा रहे हो। लेकिन कुछ तो पा रहे हो! ना—कुछ। से कुछ
सदा बेहतर! इसलिए जान—जानकर भी आदमी दुख को पकड़ तुम जरा उस दिन की बात सोचो, जब
तुम्हारे भीतर कोई दुख न बचे, कोई चिंता न हो—तुम घबड़ा
जाओगे। तुम सह न पाओगे। तुम उद्विग्न हो उठोगे। तुम बेचैन हो जाओगे। तुम कोई न कोई
दुख रच लोगे। तुम जल्दी ही कोई दुख पैदा कर लोगे। अगर वास्तविक न होगा, तो काल्पनिक पैदा कर लोगे। बिना दुख के तुम न रह सकोगे।
इसलिए
भी कि बिना दुख के तुम होते ही नहीं। मैं ही दुख पर जीता है। जहां दुख गया, मैं गया।
अहंकार दुख का भोजन करता है। दुख ही अहंकार में खून बनकर बहता है।
हड्डी—मांस—मज्जा बनता है। जहां दुख नहीं, वहां तुम नहीं।
इसलिए भी तुम दुख को पकड़ते हो कि इसी के सहारे तो तुम हो।
तुमने
कभी खयाल किया तुम अपने दुखों को बढ़ा—चढ़ाकर कहते हो! जितने होते हैं, उनसे बहुत
बड़ा करके कहते हो। क्यों? दुख को बढाकर कहने में क्या सुख
होता होगा?
एक
सुख होता है कि बड़े दुख के साथ अहंकार बड़ा होता है। छोटी—मोटी बीमारियां छोटे
—मोटे लोगों को होती हैं। बड़ी बीमारियां बड़े लोगों को होती हैं! छोटे—मोटे दुख, दो कौड़ी
के दुख कोई भी भोग लेता है। तुम महंगे दुख भोगते हो। तुम्हारे दुख बहुत बड़े हैं।
तुम दुखों का पहाड़ ढोते हो। तुम कोई छोटे—मोटे दुख से नहीं दबे हो। तुम पर सारी
दुनिया की चिंताओं का बोझ है।
तुम
अपने दुखों को बड़ा करके बताते हो। तुम बढ़ा—चढ़ाकर बात करते हो। ओर कोई तुम्हारे दुख
को छोटा करने की कोशिश करे,
तो तुम उससे नाराज होते हो। तुम उसे कभी क्षमा नहीं करते!
आदमी
बहुत अदभुत है। तुम अपने दुख की कथा कह रहे हो और कोई उदास होकर सुने, या
उपेक्षा करे, तो तुम्हें चोट लगती है, कि
मैं अपने दुख कह रहा हूं और तुम सुन नहीं रहे हो! तुम्हें चोट इस बात से लगती है
कि तुम मेरे अहंकार को स्वीकार नहीं कर रहे हो! मैं इतने दुखों से दबा जा रहा हूं;
तुम्हें इतनी भी फुर्सत नहीं?
दुख
के द्वारा तुम दूसरों का ध्यान आकर्षित करते हो। और अक्सर यह तरकीब मन में बैठ
जाती है—गहरी बैठ जाती है—कि दुख से ध्यान आकर्षित होता है। बचपन से ही सीख लेते हैं।
छोटे—छोटे बच्चे सीख लेते हैं! जब वे चाहते हैं, मां का ध्यान मिले, पिता का ध्यान मिले, लेट जाएंगे बिस्तर पर कि सिर
में दर्द है! स्त्रियों ने तो सारी दुनिया में यह कला सीख रखी है।
मैं
अनेक घरों में मेहमान होता था। मैं चकित होकर देखता था कि पत्नी ठीक थी, प्रसन्न
थी, मुझसे ठीक—ठीक बात कर रही थी। उसके पति आए और वह लेट
गयी! उसके सिर में दर्द है! पति से ध्यान को पाने का यही उपाय है। सिर में दर्द हो
तो पति पास बैठता है। सिर में दर्द न हो, तो कौन किसके पास
बैठता है? और हजार काम हैं!
और
एक बार तुमने यह तरकीब सीख ली कि दुख से ध्यान आकर्षित होता है,तो आदमी
कुछ भी कर सकता है। तुम्हारे ऋषि—मुनि जो उपवास करके अपने को दुख दे रहे हैं,
इसी तर्क का उपयोग कर रहे हैं जो स्त्रियां हर घर में कर रही हैं;
बच्चे हर घर में कर रहे हैं।
किसी
ने तीस दिन का उपवास कर लिया है; और तुम चले दर्शन करने! उसने दुख पैदा कर लिया
है, उसने तुम्हारे ध्यान को आकर्षित कर लिया है। अब तो जाना
ही होगा! ऐसे और हजार काम थे। दुकान थी, बाजार था, लेकिन अब मुनि महाराज ने तीस दिन का उपवास कर लिया है, तो अब तो जाना ही होगा! भीड़ बढ़ने लगती है। लोग काटो पर लेटे हैं। सिर्फ
इसीलिए कि कीटों पर लेटे, तभी तुम्हारी नजरें उन पर पड़ती
हैं। लोग अपने को सता रहे हैं।
धर्म
के नाम पर लोग हजार तरह की पीड़ाएं अपने को दे रहे हैं; घाव बना
रहे हैं। जब तक तुम्हारे मुनि महाराज बिलकुल सूखकर हड्डी—हड्डी न हो जाएं, जब तक तुम्हें थोडा उन पर मांस दिखायी पड़े, तब तक
तुम्हें शक रहता है कि अभी मजा कर रहे हैं! अभी हड्डी पर मांस है। जब मांस बिलकुल
चला जाए, जब वे बिलकुल अस्थि—पंजर हो जाएं, तुम कहते हो : ही, यह है तपस्वी का रूप! जब उनका
चेहरा पीला पड़ जाए और खून बिलकुल खो जाए.।
एक
बार कुछ लोग अपने एक मुनि को मेरे पास ले आए थे। उनकी हालत खराब थी। लेकिन भक्त
मुझसे कहकर गए थे कि उनके चेहरे पर ऐसी आभा है, जैसे सोने की! वहा पीतल भी नहीं
था। वह सिर्फ पीलापन था। मैंने उनसे कहा कि तुम पागल हो। तुम इस आदमी को मार
डालोगे। इसका चेहरा सिर्फ पीला हो गया है, जर्द हो गया है।
और तुम कह रहे हो, यह आभा है अध्यात्म की! यह कोई भी भूखे
मरने वाले आदमी के चेहरे पर हो जाएगी।
दुख
जल्दी से लोगों का ध्यान आकर्षित करवाता है।
तुमने
एक बात खयाल की! अगर तुम सुखी हो, तो लोग तुमसे नाराज हो जाते हैं! तुम जब दुखी
होते हो, तब तुमसे राजी होते हैं। तुम जब सुखी हो, सब तुम्हारे दुश्मन हो जाते हैं। सुखी आदमी के सब दुश्मन। दुखी आदमी के सब
संगी—साथी। सहानुभूति प्रगट करने लगते हैं।
तुम
एक बड़ा मकान बना लो;
सारा गांव तुम्हारा दुश्मन। तुम्हारे मकान में आग लग जाए, सारा गांव तुम्हारे लिए आंसू बहाता है। तुमने यह मजा देखा! जो तुम्हारे
दुख में आंसू बहा रहे हैं, इन्होंने कभी तुम्हारे सुख में
खुशी नहीं मनायी थी। इनके आंसू झूठे हैं। ये मजा ले रहे हैं। ये कह रहे हैं चलो,
अच्छा हुआ। तो जल गया न! हम तो पहले से ही जानते थे कि यह होगा। पाप
का यह फल होता ही है।
जब
तुमने बड़ा मकान बनाया था,
इनमें से कोई नहीं आया था कहने कि हम खुश हैं; कि हम बड़े आनंदित हैं कि तुमने बड़ा मकान बना लिया।
जो
तुम्हारे सुख में सुखी नहीं हुआ, वह तुम्हारे दुख में दुखी कैसे हो सकता है?
लेकिन सहानुभूति बताने का मजा है। और सहानुभुति लेने का भी मजा है।
सहानुभूति बताने वाले को क्या मजा मिलता है? उसको मजा मिलता
है कि आज मैं उस हालत में हूं जहां सहानुभूति बताता हूं। तुम उस हालत में हो,
जहां सहानुभूति बतायी जाती है। आज तुम गिरे हो चारों खाने चित्त,
जमीन पर पड़े हो। आज मुझे मौका है कि तुम्हारे घाव सहलाऊं, मलहम—पट्टी करूं। आज मुझे मौका है कि तुम्हें बताऊं कि मेरी हालत तुमसे
बेहतर है।
जब
कोई तुम्हारे आंसू पोंछता है, तो जरा उसकी आंखों में गौर से देखना। वह खुश हो
रहा है। वह यह खुश हो रहा है कि चलो, एक तो मौका मिला। नहीं
तो अपनी ही आंखों के आंसू दूसरे पोंछते रहे जिंदगी भर। आज हम किसी और के आंसू पोंछ
रहे हैं! और कम से कम इतना अच्छा है कि हमारी आंख में आंसू नहीं हैं। किसी और की
आंखों में आंसू हैं। हम पोंछ रहे हैं!
लोग
जब दुख में सहानुभूति दिखाते हैं, तो मजा ले रहे हैं। वह मजा ले रहे है। वह
स्वस्थ—चित्त का लक्षण नहीं है। और तुम भी दुखी होकर जो सहानुभूति पाने का उपाय कर
रहे हो, वह भी रुग्ण दशा है।
यह
पृथ्वी रोगियों से भरी है;
मानसिक रोगियों से भरी है। यहां स्वस्थ आदमी खोजना मुश्किल है।
पूछा
है तुमने. 'मोह क्या है? और इतना दुख पैदा होता है, फिर भी वह छूटता नहीं है!'
पहली
तो बात. तुम्हें अभी ठीक—ठीक दिखायी नहीं पड़ा होगा कि मोह से दुख पैदा होता है।
तुमने सुन ली होगी बुद्ध की बात, कि किसी महावीर की, कि
किसी कबीर की, कि किसी मोहम्मद की। तुमने बात सुन ली होगी कि
मोह से दुख पैदा होता है। अभी तुम्हें समझ नहीं पड़ी है। सुनी जरूर है; अभी गुनी नहीं है। विचार तुम्हारे मन में पड़ गया है। विचार के कारण प्रश्न
उठने लगा है। लेकिन यह तुम्हारा अपना प्रामाणिक अनुभव नहीं है। यह तुमने अपने जीवन
की कठिनाइयों से नहीं जाना है। तुमने इसे अपने अनुभव की कसौटी पर नहीं कसा है—कि
मोह दुख लाता है। अगर तुम्हें यह दिखायी पड़ जाए, तो तुम कैसे
पकड़ोगे!
कोई
आदमी मेरे पास नहीं आता और कहता कि यह बिच्छू है, यह मेरे हाथ में काटता है।
अब मैं इसको छोडूं कैसे? कोई पूछेगा? कि
बिच्छू है; काटता है; दुख देता है,
मगर छोड़ा नहीं जाता! जैसे ही बिच्छू काटेगा, तुम
फेंक दोगे उसे। तुम पूछने नहीं जाओगे किसी से।
लेकिन
तुम पूछ रहे हो कि 'मोह दुख देता है, फिर भी छूटता क्यों नहीं?'
इसका
कारण साफ है। भीतर तो तुम जानते हो कि मोह में मजा है। ये बुद्धपुरुष हैं जो
तुम्हारे चारों तरफ शोरगुल मचाए रहते हैं, जो कहते हैं कि मोह में दुख है।
इनकी बात तुम टाल नहीं सकते। क्योंकि ये आदमी प्रामाणिक हैं। इनकी बात को तुम
इनकार नहीं कर सकते, क्योंकि इनका जीवन तुमसे बहुत ज्यादा,
अनंतगुना आनंदपूर्ण है। इनका तर्क प्रगाढ़ है। इनकी प्रतिभा वजनी है।
ये जब कुछ कहते हैं, तो उस कहने के पीछे इनका पूरा बल होता
है; इनकी पूरी जीवन—ज्योति होती है।
तो
इनकी बात को तुम इनकार नहीं कर सकते। इनकार करने की तुम्हारे पास क्षमता नहीं है, साहस नहीं
है। इनकार कैसे करोगे! तुम्हारे चेहरे पर दुख है; तुम्हारे
प्राणों में दुख है। इनके चारों तरफ आनंद की वर्षा हो रही है। इनकार तुम किस मुंह
से करोगे!
तो
इनकार तो नहीं कर पाते कि आप गलत कहते हैं। मानना तो पड़ता है सिर झुकाकर, कि आप ठीक
कहते होंगे। क्योंकि हम दुखी हैं और आप आनंदित हैं। लेकिन भीतर तुम्हारा गहरे से
गहरा मन यही कहे चला जाता है कि छोड़ो, इन बातों में पड़ना मत।
संसार में बड़ा सुख पड़ा है। शायद अभी नहीं मिला है, तो कल
मिलेगा। आज तक नहीं मिला है, तो कल भी नहीं मिलेगा—यह कौन कह
सकता है? खोदो थोड़ा और। शायद जलस्रोत मिल जाए। थोड़ी मेहनत
और। जल्दी थको मत। दिल्ली ज्यादा दूर नहीं है। थोड़े और चलो। इतने चले हो, थोड़ा और चल लो। इतनी जिंदगी गंवायी है, थोड़ी और दाव
पर लगाकर देख लो। और फिर नहीं होगा कुछ, तो अंत में तो धर्म
है ही। लेकिन तुम धर्म को हमेशा अंत में रखते हो। तुम कहते हो. नहीं होगा कुछ,
तो अंततः तो परमात्मा का स्मरण करेंगे ही। मगर जब तक जीवन है,
चेष्टा तो कर लें। इतने लोग दौड़ते हैं, तो गलत
तो न दौड़ते होंगे!
अब
एक दूसरी बात खयाल में लेना। जब तुम बुद्धपुरुषों के पास होते हो, तो उनकी
आंखें, उनका व्यक्तित्व, उनकी भाव—
भंगिमा, उनके जीवन का प्रसाद, उनका
संगीत—सब प्रमाण देता है कि वे ठीक हैं, तुम गलत हो।
लेकिन
बुद्धपुरुष कितने हैं?
कभी—कभी उनसे मिलना होता है। और मिलकर भी कितने लोग उन्हें देख पाते
हैं और पहचान पाते हैं? सुनकर भी कितने लोग उन्हें सुन पाते
हैं? आंखें कहां हैं जो उन्हें देखें? और
कान कहां हैं जो उन्हें सुनें? और हृदय कहां हैं, जो उन्हें अनुभव करें? और कभी—कभी विरल उनसे मिलना
होता है।
जिनसे
तुम्हारा रोज मिलना होता है सुबह से सांझ तक—करोड़ो—करोड़ो लोग—वें सब तुम जैसे ही
दुखी हैं। और वे सब संसार में भागे जा रहे हैं; तृष्णा में दौड़े जा रहे हैं,
मोह में, लोभ में। इनकी भीड़ भी प्रमाण बनती है
कि जब इतने लोग जा रहे हैं इस संसार की तरफ, जब सब दिल्ली जा
रहे हैं, तो गलती कैसे हो सकती है? इतने
लोग गलत हो सकते हैं? इतने लोग नहीं गलत हो सकते।
अधिकतम
लोग गलत होंगे?
और इक्का—दुक्का आदमी कभी सही हो जाता है! यह बात जंचती नहीं।
इनमें
बहुत समझदार हैं। पढ़े—लिखे हैं। बुद्धिमान हैं। प्रतिष्ठित हैं। इनमें सब तरह के
लोग हैं। गरीब हैं,
अमीर हैं। सब भागे जा रहे .हैं! इतनी बड़ी भीड़ जब जा रही हो,
तो फिर भीतर के स्वर सुगबुगाने लगते हैं। वे कहते हैं. एक कोशिश और
कर लो। जहां सब जा रहे हैं, वहां कुछ होगा। नहीं तो इतने लोग
अनंत—अनंत काल से उस तरफ जाते क्यों? अब तक रुक न जाते?
तो
बुद्धपुरुष फिर.. .....तुम्हारे भीतर उनका स्वर धीमा पड़ जाता है। भीड़ की आवाज फिर
वजनी हो जाती है। और भीड़ की आवाज इसलिए वजनी हो जाती है कि अंतस्तल में तुम भीड़ से
ही राजी हो, क्योंकि तुम भीड़ के हिस्से हो; तुम भीड़ हो।
बुद्धपुरुषों से तो तुम किसी—किसी क्षण में राजी होते हो। कभी। बड़ी मुश्किल से। एक
क्षणभर को तालमेल बैठ जाता है। उनकी वीणा का छोटा सा स्वर तुम्हारे कानों में गज
जाता है। मगर यह जो नक्कारखाना है, जिसमें भयंकर शोरगुल मच
रहा है, यह तुम्हें चौबीस घंटे सुनायी पड़ता है।
तुम्हारे
पिता मोह से भरे हैं;
तुम्हारी मां मोह से भरी है, तुम्हारे भाई,
तुम्हारी बहन, तुम्हारे शिक्षक, तुम्हारे धर्मगुरु—सब मोह से भरे हैं। सबको पकड़ है कि कुछ मिल जाए। और जो
मिल जाता है, उसे पकड़कर रख लें। और जो नहीं मिला है, उसे भी खोज लें
मोह
का अर्थ क्या होता है? मोह का अर्थ होता है—मेरा, ममत्व; जो मुझे मिल गया है, वह छूट न जाए। लोभ का क्या अर्थ
होता है? लोभ का अर्थ होता है. जो मुझे अभी नहीं मिला है,
वह मिले। और मोह का अर्थ होता है. जो मुझे मिल गया है, वह मेरे पास टिके। ये दोनों एक ही पक्षी के दो पंख हैं। उस पक्षी का नाम
है तृष्णा, वासना, कामना।
इन
दो पंखों पर तृष्णा उड़ती है। जो है, उसे पकड़ रखूं; वह छूट न जाए। और जो नहीं है, वह भी मेरी पकड़ में आ
जाए। एक हाथ में, जो है, उसे सम्हाले
रखूं; और एक हाथ उस पर फैलाता रहूं, जो
मेरे पास नहीं है।
मोह
लोभ की छाया है। क्योंकि अगर उसे पाना है, जो तुम्हें नहीं मिला है, तो उसको तो पकड़कर रखना ही होगा, जो तुम्हें मिल गया
है। समझो कि तुम्हारे पास पांच लाख रुपये हैं और तुम पचास लाख चाहते हो। अब पचास
लाख अगर चाहिए, तो ये पांच लाख खोने नहीं चाहिए। क्योंकि
इन्हीं के सहारे पचास लाख मिल सकते हैं।
अगर
ये खो गए, तो फिर पचास लाख का फैलाव नहीं हो सकेगा। धन धन को खींचता है। पद पद को
खींचता है। जो तुम्हारे पास है, उसमें बढ़ती हो सकती है।
लेकिन अगर इसमें कमती होती चली जाए, तो फिर जो तुम्हें नहीं
मिला है, उसको पाने की आशा टूटने लगती है।
तो
जो है, उस पर जमाकर पैर खड़े रहो। और जो नहीं है, उसकी तरफ
हाथों को बढाते रहो। इन्हीं दो के बीच आदमी खिंचा—खिंचा मर जाता है। ये दो पंख
वासना के हैं, और ये ही दो पंख तुम्हें नर्क में उतार देते
हैं। वासना तो उड़ती है इनके द्वारा, तुम भ्रष्ट हो जाते हो।
तुम नष्ट हो जाते हो।
लेकिन
यह अनुभव तुम्हारा अपना होना चाहिए। मैं क्या कहता हूं इसकी फिकर मत करो। तुम्हारा
अनुभव क्या कहता है—कुरेदो अपने अनुभव को। जब भी तुमने कुछ पकड़ना चाहा, तभी तुम
दुखी हुए हो।
क्यों
दुख आता है पकड़ने से?
क्योंकि इस संसार में सब क्षणभंगुर है। पकड़ा कुछ जा नहीं सकता। और
तुम पकड़ना चाहते हो। तुम प्रकृति के विपरीत चलते हो, हारते
हो। हारने में दुख है। जैसे कोई आदमी नदी के धार के विपरीत तैरने लगे। तो शायद हाथ
दो हाथ तैर भी जाए। लेकिन कितना तैर सकेगा? थके—गा। टूटेगा।
विपरीत धार में कितनी देर तैरेगा? धार इस तरफ जा रही है,
वह उलटा जा रहा है। थोड़ी ही देर में धार की विराट शक्ति उसकी शक्ति
को छिन्न—भिन्न कर देगी। थके—गा। हारेगा। और जब थके—गा, हारेगा
और 'पैर उखड़ने लगेंगे और नीचे की तरफ बहने लगेगा, तब विषाद घेरेगा कि हार गया, पराजित हो गया। जो
चाहिए था, नहीं पा सका। जो मिलना था, नहीं
मिल सका। तब चित्त में बड़ी ग्लानि होगी। आत्मघात के भाव उठेंगे। दुख गहन होगा।
जो
जानता है, वह नदी की धार के साथ बहता है। वह कभी हारता ही नहीं, दुख हो क्यों! वह नदी की धार को शत्रु नहीं मानता, मैत्री
साधता है।
बुद्धत्व
आता कैसे है?
बुद्धत्व आता है स्वभाव के साथ मैत्री साधने से। जैसा है, जैसा होता है, उससे विपरीत की आकांक्षा मत करना,
अन्यथा दुख होगा।
जानकर
हम विपरीत की आकांक्षा करते हैं! तुम सोचते हो, जो मुझे मिला.। समझो कि तुम जवान
हो, तो तुम सोचते हो, सदा जवान रह
जाऊं। तुम क्या कह रहे हो? थोड़ा आंख उठाकर देखो। ऐसा हो सकता
होता, तो सभी जवान रह गए होते। ऐसा हो सकता होता., तो कौन का हुआ होता—जानकर, सोचकर, विचारकर, राजी होकर?
हर
जवान रुक जाना चाहता है—कि का न हो जाऊं। लेकिन हर एक को का होना पड़ेगा। धार बही
जाती है। यह पानी के बबूलों जैसा जीवन रोज बदलता जाता है। यहां कुछ भी घिर नहीं
है। तो जब बुढापा आएगा,
और उसके पहले कदम तुम सुनोगे, दुख होगा—कि हार
गया। हारे इत्यादि कुछ भी नहीं। जीत की आकांक्षा के कारण हार का खयाल पैदा हो रहा
है। यह भ्रांति इसलिए बन रही है, क्योंकि तुम जवान रहना
चाहते थे और प्रकृति किसी चीज को ठहरने नहीं देती। प्रकृति बहाव है। और तुमने
प्रकृति के विपरीत कुछ चाहा था, जो संभव नहीं है, संभव नहीं हो सकता है। न हुआ है, न कभी होगा।
जो
संभव नहीं हो सकता,
उसकी आकांक्षा में दुख है। फिर तुम के हो जाओगे, तब भी नहीं समझोगे। अब तुम मरना नहीं चाहते! पहले जवानी पकड़ी थी, अब बुढ़ापे को पकड़ते हो। तो कुछ सीखे नहीं!
देखा
कि बचपन था, वह भी गया। जवानी थी, वह भी गयी। बुढ़ापा भी जाएगा।
जीवन भी जाएगा; मौत भी आएगी। और जब जीवन ही चला गया, तो मौत भी जाएगी। घबड़ाओ मत। सब बह रहा है। यहां न जीवन रुकता है, न मौत रुकती है।
इस
प्रवाह को जो सहज भाव से स्वीकार कर लेता है, जो रत्तीभर भी इससे संघर्ष नहीं
करता, जो कहता है. जो हो, मैं उससे
राजी हूं; जैसा हो, उससे मैं राजी हूं।
कभी धन हो, तो धन से राजी हूं। और कभी दरिद्रता आ जाए,
तो दरिद्रता से राजी हूं। कभी महल मिल जाएं, तो
महल में रह लूंगा। कभी महल खो जाएं, तो उनके लिए रोता नहीं
रहूंगा; लौटकर पीछे देखूंगा नहीं। जो होगा, जैसा होगा, उससे अन्यथा मेरे भीतर कोई कामना न
करूंगा। फिर कैसा दुख! फिर दुख असंभव है।
आज
तुम एक स्त्री से मिले;
प्रेम में पड़ गए; विवाह कर लिया। अब तुम सोचते
हो : यह स्त्री खो न जाए। एक दिन पहले यह तुम्हारी स्त्री नहीं थी। कहीं यह खो न
जाए! कहीं यह प्रेम टूट न जाए! कहीं यह संबंध बिखर न जाए!
जो
बना है, बिखरेगा। बनती ही चीजें बिखरने को हैं। यहां कुछ भी शाश्वत नहीं है। यहां
सिर्फ झूठी और मुर्दा चीजें शाश्वत होती हैं। कागज का फूल देर तक टिक सकता है।
असली फूल देर तक नहीं टिकता।
इसी
डर से कि कहीं प्रेम खो न जाए, लोगों ने प्रेम करना बंद कर दिया और विवाह करना
शुरू किया। विवाह कागज का फूल है। प्लास्टिक का फूल है। प्रेम गुलाब का फूल है,
सुबह खिला, सांझ मुर्झा जाएगा। कुछ पक्का नहीं
है।
जो
जीवंत है, वह जीवंत ही इसलिए है कि बह रहा है। बहने में जीवन है। जीवन में बहाव है।
जो ठहरा हुआ है..। एक पत्थर पड़ा है गुलाब के फूल के पास; वह
सुबह भी पड़ा था, सांझ भी पड़ा होगा। कल भी पड़ा होगा, परसों भी पड़ा होगा। सदियां बीत गयीं और सदियों तक पड़ा रहेगा। और यह गुलाब
का फूल सुबह खिला और सांझ मुर्झा गया।
यह
सोचकर कि यह गुलाब का फूल मुर्झा जाएगा, तुमने पत्थर की पूजा करनी शुरू कर
दी। आदमी खूब अदभुत है। पत्थर की मूर्तियों पर फूलों को चढ़ाता है! फूलों की
मूर्तियों पर पत्थर को चढ़ाओ, तो समझ में आता है।
लेकिन
पत्थर की मूर्ति में थिरता मालूम होती है, स्थिरता मालूम होती है। असली बुद्ध
तो एक दिन थे, फिर एक दिन नहीं हो गए। लेकिन नकली बुद्ध—वह
जो पत्थर की मूर्ति है—उसे तुम सदा पकड़े बैठे रह सकते हो।
आदमी
इस भय से कि कहीं दुख न झेलना पड़े, धीरे — धीरे जीवंत वस्तुओं से ही
संबंध तोड़ लेता है। मुर्दा वस्तुओं से संबंध जोड़ लेता है। उससे भी दुख होगा,
क्योंकि मुर्दा वस्तुओं से कहां सुख की संभावना!
सुख
का एक ही उपाय है—तरलता,
तथाता।
तुमने
पूछा : 'मोह क्या है?'
मोह
है ठहरने की वृत्ति। जहां कुछ भी नहीं ठहरता, वहां सब ठहरा हुआ रहे—ऐसी भावदशा,
ऐसी भांति। इससे दुख पैदा होगा। तुम खुद ही दुख पैदा कर रहे हो। फिर
इस दुख से, तुम कहते हो कि छूटना कैसे हो?
यह
छूटता भी नहीं। यह छूटता इसलिए नहीं कि इसको छोड़ो, तो तुम एकदम खाली हो जाते
हो। फिर तुम क्या हो! दुख की कथा हो तुम। दुख का अंबार हो तुम। दुख ही दुख जमे
हैं। इन सबको छोड़ दो, तो शून्य हो गए।
शून्य
से घबड़ाहट लगती है। कि चलो,
कुछ नहीं, सिरदर्द तो है! चलो, कुछ नहीं, कोई तकलीफ तो है, कोई
तकलीफ से भरे तो हैं। कुछ उलझाव, कुछ व्यस्तता बनी है। तो
आदमी इसलिए दुख नहीं छोड़ता।
प्रश्न
पूछने वाले का खयाल ऐसा है कि जब दुख है, तो छूटता क्यों नहीं! इसीलिए नहीं
छूटता कि यही तो है तुम्हारे पास। दुख की संपदा के अतिरिक्त तुम्हारे पास है क्या?
इसको ही छोड़ दोगे, तो बचता क्या है भू:
एक
दिन हिसाब लगाना बैठकर। एक कागज पर लिखना कि क्या—क्या दुख है जीवन में। कंजूसी मत
करना। सारी फेहरिश्ते लिख डालना। और फिर सोचना कि यह. सब छूट जाए, तो मेरे
पास क्या बचता है?
तुम
एकदम घबड़ा जाओगे। क्योंकि इसके अतिरिक्त तुम्हारे पास कुछ भी नहीं बचता। यही
चिंताएं, यही विषाद, यही फिक्रें, यही
स्मृतियां, यही कामनाएं, यही वासनाएं,
यही सपने—इनके अतिरिक्त तुम्हारे पास क्या है? यही आपाधापी, यही रोज का संघर्ष—इसके अतिरिक्त
तुम्हारे पास क्या है?
तुम्हें
पता है, छुट्टी का दिन लोगों का मुश्किल से कटता है! काटे नहीं कटता। तरकीबें
खोजनी पड़ती हैं नए दुख की, कि चलो, पिकनिक
को चलें। कोई नया दुख उठाएं। काटे नहीं कटता। खाली बैठ नहीं सकते। क्योंकि खाली
बैठें, तो खाली मालूम होते हैं। दफ्तर की याद आती है! बड़ा
मजा है। दफ्तर में छह दिन सोचते हैं, कब छुट्टी हो। और जिस
दिन छुट्टी होती है, उस दिन सोचते हैं कि कब सोमवार आ जाए और
दफ्तर खुल जाए! फिर चलें।
रविवार
के दिन पश्चिम के मुल्कों में सर्वाधिक दुर्घटनाएं होती हैं। क्योंकि रविवार के
दिन सारे लोग खुल्ले छूट गए। जैसे सब जंगली जानवर खुले छोड़ दिए। अब उनको कुछ सूझ
नहीं रहा है कि करना क्या है! सबके पास कारें हैं। अपनी— अपनी लेकर निकल पड़े!
तुमने चित्र देखे हैं पश्चिम के समुद्र तटों के! वहां लोग इकट्ठे हैं। इतनी भीड़—
भाड़ मालूम होती है। खड़े होने की जगह नहीं है! इससे अपने घर में ही थोड़ी ज्यादा जगह
थी।
चले!
मीलों तक कारें एक—दूसरे से लगी चल रही हैं। चार—छह घंटे कार ड्राइव करके पहुंचे।
फिर चार—छह घंटे कार ड्राइव करके लौटे। और वहां वही भीड़ थी, जिस भीड़
से बचने निकले थे। वे सारे लोग वहीं पहुंच गए थे। सभी को जाना है! भीड़ से बचना है!
सारी भीड़ वहीं पहुंच गयी! घर में भी इससे ज्यादा आराम था। अगर घर ही रुक गए होते,
तो आज शाति होती। क्योंकि सारा गांव तो गया था। लेकिन घर कौन रुके!
खालीपन—घबड़ाहट होती है। बेचैनी होती है। कुछ करने को चाहिए।
तुमने
कभी खाली एक दिन गुजारा?
एक दिन सुबह छह बजे से सांझ छह बजे तक कुछ न किया हो। पड़े रहे।
अखबार भी न पढ़ा हो। रेडियो भी न खोला हो। पत्नी से भी नहीं झगड़े हो। पड़ोसियों से
भी जाकर गपशप न की हो। एक दिन तुमने कभी ऐसा किया है कि कुछ न किया हो! तुम्हें
याद न आएगा ऐसा जिंदगी में कोई दिन, जिस दिन तुमने कुछ न
किया हो।
क्या
कारण होगा कि कभी तुमने इतना विश्राम भी न जाना?
खाली
होने में डर लगता है। खाली होने में भय लगता है कि यह भीतर अगर मैं गया खालीपन में
और वहा कुछ न पाया तो!
मुल्ला
नसरुद्दीन एक ट्रेन में सफर कर रहा था। टिकिट कलेक्टर आया। टिकिट पूछी। मुल्ला
बहुत से खीसे बना रखा है। कमीज में भी, कोट में भी, अचकन
में भी—सब में कई खीसे और उनमें चीजें भरी रखता है। एक खीसा उलटा, दूसरा उलटा—सब खीसे उलटा। मगर एक कोट के खीसे को नहीं छू रहा है। सब में
देख लिया, टिकिट नहीं मिल रही है।
आखिर
उस टिकिट कलेक्टर ने कहा कि महानुभाव! आप इस खीसे को नहीं देख रहे हैं कोट के।
उसने कहा. उसको नहीं देख सकता। अगर उसमें न मिली, तो फिर? फिर मारे गए! वही तो एक आशा है कि शायद वहा हो। उस खीसे की तो बात ही मत
उठाना।
फिर
अपने दूसरे खीसों में टटोलने लगा।
तुम
बाहर टटोलते रहते हो,
क्योंकि तुम डरते हो कि अगर भीतर खोजा और वहा भी न पाया—फिर?
फिर क्या होगा? फिर गए काम से! इसलिए आदमी
बाहर दौड़ता है। खूब दौड़— धूप करता है।
मोह
यानी बाहर—बाहर—बाहर। व्यस्तता अर्थात बाहर।
अव्यस्त
हुए, खाली हुए विराम आया, तो भीतर जाना पड़ेगा। और तो जाने
को कोई जगह नहीं बचती। बाहर से ऊर्जा उलझी थी; सुलझ गयी,
तो कहां जाएगी? लौटेगी अपने घर पर। जैसे पंछी
उड़ा—उड़ा—और थक गया, तो लौट आता है अपने नीड़ में। ऐसे ही तुम
अगर बाहर कोई उलझन न पाओगे, तो कहां जाओगे? लौट आओगे अपने नीड़ में। और डर लगता है कि वहा अगर सन्नाटा हुआ, वहां अगर कोई न मिला, अगर वहा कुछ भी न हुआ.!
सुनते
हैं कि वहा परमात्मा का वास है। जरूर होगा। मानते हैं कि होगा। मगर देखते नहीं।
अगर न हुआ तो?
सुनते हैं, वहा परम आनंद की वर्षा हो रही है।
सुनते हैं, मगर देखा नहीं कभी।
क्योंकि
देखा, और अगर न हुआ, तो फिर तो जीवन बिलकुल ही निराश हो
जाएगा। बाहर तो है ही नहीं; और अब भीतर भी नहीं है। फिर तो
जीने का क्या कारण रह जाएगा 2: फिर तो आत्मघात के सिवाय कुछ भी न सूझेगा।
इस
घबड़ाहट से आदमी उलझा रहता है। पुराने मोह कट जाते हैं, नए मोह
बना लेता है। पुरानी झंझटें छूट जाती हैं, नयी झंझटें बना
लेता है। पुरानी खतम ही नहीं हो पातीं, उसके पहले ही नए के
बीज बो देता है कि कहीं ऐसा न हो कि कुछ ऐसी घड़ी आ जाए कि खाली छूट जाऊं। पुरानी
झंझट खतम, नयी है नहीं। अब क्या करूं?
और
आश्चर्य तुम्हें होगा यह जानकर कि जो इस भीतर की शून्यता को जानता है, वही सुख
को जानता है। और तो सब दुख ही दुख है। जो इस शून्य होने को राजी है, वही पूर्ण हो पाता है। और तो सब खाली के खाली रह जाते हैं।
यह
तुम्हें बड़ा उलटा लगेगा। जो खाली होने को राजी है, वह भर जाता है। और जो खाली
होने को राजी नहीं है, वह सदा के लिए खाली रह जाता है।
जीसस
ने कहा है : धन्य हैं वे,
जो खोके; क्योंकि जिन्होंने खोया, उन्होंने पाया। और जिन्होंने बचाया, उन्होंने सब
गंवाया।
इसलिए
तुम दुख नहीं छोड़ते। कुछ तो है मुट्ठी में। दुख ही सही। मुट्ठी तो बंधी है। भांति
तो बनी है।
बुद्ध
का सारा संदेश यही है। सारे बुद्धों का संदेश यही है कि खोलो मुट्ठी। बंधी मुट्ठी
खाली है। संसारी तो उलटी बात कहते हैं। वे कहते हैं. बंधी मुट्ठी लाख की, खुली कि
खाक की! और बुद्ध कहते हैं. खोलो मुट्ठी। बंधी मुट्ठी खाक की, खोलो तो लाख की! खोलो मुट्ठी। सब खोल डालो। और एक बार आर—पार झांक लो। कुछ
बंद मत रखो। कोई जेब डर के कारण छोड़ो मत। सब ही देख लो। चुकता देख लो। पूरा देख
लो। उसी देखने में, उसी देखते —देखते तुम्हारा जीवन रूपातरित
हो जाता है।
जिसने
अपने भीतर के शून्य का साक्षात्कार कर लिया, उसने पूर्ण का साक्षात्कार कर
लिया। क्योंकि शून्य और पूर्ण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो एक तरफ से शून्य
मालूम होता है, वही दूसरी तरफ से पूर्ण है।
शून्य
मालूम होता है,
क्योंकि तुम संसार को पकड़े हो। तुम एक तरह का ही भराव जानते
हो—सांसारिक भराव। वह वहा नहीं है, इसलिए तुम्हें भांति होती
है कि भीतर शून्य है। जब तुमने सांसारिक भराव छोड़ दिया और तुमने भीतर झांका,
तब तुम्हें दूसरी बात पता चलेगी कि यह शून्य नहीं है। यह मेरी
सांसारिक पकड़ के कारण शून्य मालूम होता था। यहां संसार नहीं है, इसलिए शून्य मालूम होता था। यहां परमात्मा है।
मैं
एक बहुत बड़े अमीर के घर में मेहमान हुआ। अमीर थे, और जैसे अक्सर अमीर होते
हैं, कोई सौंदर्य—बोध नहीं था। जो नया दुनिया में मिलता
है—सारी दुनिया में यात्रा करते रहते थे—सब खरीद लाए थे। जहां जो मिले, वह ले आते थे। उनका घर एक कबाड़खाना था। जिस कमरे में मुझे ठहराया, उसमें सम्हलकर चलना पड़ता था, इतनी चीजें उसमें भर
रखी थीं। सब कुछ था उसमें!
मैंने
उनसे कहा कि मुझे यहां सात दिन रुकना होगा; आप मुझ पर अगर थोड़ी कृपा करें,
तो ये सब चीजें यहां से हटा दें। वे बोले. लेकिन कमरा खाली हो
जाएगा! मैंने उनसे कहा : कमरा खाली नहीं हो जाएगा। कमरा कमरा हो जाएगा। अभी यह
कमरा है ही नहीं। अभी यहां से चलना भी पड़ता है, तो सम्हलकर
निकलना पड़ता है। यह कोई कमरा है! इसमें स्थान ही नहीं है। इसमें रहने की जगह नहीं
है। इसमें अवकाश नहीं है। कमरे का तो मतलब होता है जहां अवकाश हो, जहां रहने की जगह हो, जहां रहा जा सके। कमरे का मतलब
होता है जहां रहा जा सके। यहां तो रह ही नहीं सकता कोई। यहां रिक्तता तो बिलकुल
नहीं है। और रिक्तता के बिना कैसे रहोगे?
रिक्तता
में ही रहा जाता है। इसलिए तो सारा अस्तित्व आकाश में रहता है। क्योंकि आकाश यानी
शून्य। आकाश यानी अवकाश। जगह देता है। पृथ्वी हो, चांद हो, तारा हो, सूरज हो, लोग हों,
वृक्ष हों—सबको जगह देता है। आकाश शून्य नहीं है। आकाश पूर्ण है।
लेकिन उसकी पूर्णता और ढंग की है।
खैर
मैं उनका मेहमान था। राजी तो वे बहुत नहीं थे, लेकिन अब मुझे वहा सात दिन रहना
था। मैं भी राजी नहीं था, उस कबाड़खाने में रहने को। तो
उन्हें मजबूरी में सब निकालना पड़ा। बड़े बेमन से उन्होंने निकाला। निकाल—निकालकर
पूछते थे कि अब इतना रहने दें? मैं कहता. इसको भी ले जाओ।
रेडियो रहने दें? टेलीविजन रहने दें? मैंने
कहा : सब तुम ले जाओ। तुम बस मुझे छोड़ दो। और तुम भी ज्यादा यहां मत आना जाना।
ले
गए बेमन से। उनको बड़ी उदासी लग रही थी। वे बड़े सोच भी रहे होंगे कि मैं भी कैसा
नासमझ आदमी आ गया घर में! उन्होंने शायद मेरे आने की वजह से और चीजें वहा रख दी
होंगी। उन्होंने तैयारी की थी।
जब
सब निकल गया,
वहा कुछ भी न बचा, तो उन्होंने आकर बड़ी उदासी
से चारों तरफ देखा और कहा. मैंने कहा था आपसे कि बिलकुल खाली हो जाएगा! उनकी आंखों
में करीब—करीब आंसू थे कि सब खाली हो गया।
मैंने
उनसे कहा कि आप फिकर न करें। मुझे खाली में रहने का आनंद है। मुझे खाली में रहने
का रस है। अब यह जगह बनी। अब यह कमरा भरा—पूरा है, कमरेपन से। स्थान से भरा
है। आकाश से भरा है। मगर यह और ढंग का भराव है। फर्नीचर से भरना, एक भरना है। आकाश से भरना, दूसरा भरना है।
ठीक
ऐसा ही तुम्हारे भीतर भी घटता है। कूड़ा—करकट से भरे हो अपने को। छोड़ते भी नहीं, क्योंकि
खाली न हो जाओ। छोड़ोगे, तभी तुम पहचानोगे कि तुम्हारे खाली
करते—करते ही, जो उतर आता है आकाश तुम्हारे भीतर, वही तुम्हारी वास्तविकता है। उसे निर्वाण कहो, परमात्मा
कहो—जो नाम देना हो, वह नाम दो।
दूसरा प्रश्न:
तुम्हें
अपना बनाना चाहता हूं
मुकद्दर आजमाना
चाहता हूं
मुझे बस प्यार का
एक जाम दे दे
मैं सब कुछ भूल
जाना चाहता हूं।
फिर तुम गलत जगह आ
गए।
'तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं।’
यहां
सारी चेष्टा यही चल रही है कि अब तुम अपना और न बनाओ। अपना बनाना यानी मोह, मेरे का
विस्तार। मैं तुम्हें कोई तरह से भी सहयोगी नहीं हो सकता अपने को बढ़ाने में।
काफी
दुख नहीं झेल लिया है अपनों से! अब तो छोड़ो। मुझसे तुम इस तरह का संबंध बनाओ, जिसमें
मेरा—तेरा हो ही नहीं। नहीं तो वह संबंध भी सांसारिक हो जाएगा। जहां मेरा आया,
वहा संसार आया।
क्या
तुम बिना मेरे—तेरे को उठाए संबंध नहीं बना सकते? क्या यह संबंध मेरे—तेरे की
भीड़ से मुक्त नहीं हो सकता? तुम वहा, मैं
यहां; क्या बीच में मेरे—तेरे का शोरगुल होना ही चाहिए?
सन्नाटे में यह बात नहीं हो सकेगी?
तुम
शून्य बनो—बजाय मेरे का फैलाव करने के—तो तुम मुझसे जुडोगे। मैं शून्य हूं; तुम शून्य
बनो, तो तुम मुझसे जुड़ोगे। मैंने मेरे का भाव छोड़ा है,
तुम भी मेरे का भाव छोडो, तो मुझसे जुडोगे।
मुझसे जुड्ने का एक ही उपाय है. मुझ जैसे हो जाओ, तो मुझसे
जुडोगे।
अब
तुम कहते हो कि 'तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं।’
तुमने
कितने दरवाजों पर दस्तक दी! कितने लोगों को अपना बनाना चाहा! सब जगह से ठोकर खाकर
लौटे; सब जगह से अपमानित हुए; अभी भी होश नहीं आया?
फिर वही पुराना राग?
लोग
विषय बदल लेते हैं,
गीत वही गाए चले जाते हैं! लोग वाद्य बदल लेते हैं, सुर वही उठाए चले जाते हैं। कभी कहते हैं : मेरा धन। कभी कहते हैं. मेरा
मकान। फिर कभी कहने लगते हैं. मेरा गुरु; मेरा भगवान;
कि मेरा मोक्ष, कि मेरा शास्त्र! क्या फर्क
पड़ता है, तुम मेरा शास्त्र कहो कि मेरी दुकान कहो, सब बराबर है। जहां मेरा है, वहा दुकान है। और इसीलिए
तो मंदिरों पर भी झगड़े हो जाते हैं, क्योंकि जहां मेरा है,
वहां झगड़ा है। जहां मेरा है, वहां उपद्रव है।
मैं
एक गांव में गया। एक ही जैन मंदिर है। थोड़े से घर हैं उस गांव में। कुछ
श्वेताबरियों के घर हैं और कुछ दिगबरियो के घर हैं। और एक ही मंदिर है। मंदिर पर
ताला पड़ा है पुलिस का! मैंने पूछा. मामला क्या है? उन्होंने कहा : श्वेतांबर
और दिगंबर में झगड़ा हो गया। मंदिर एक ही है। कई दिनों से दोनों उसमें पूजा करते
थे। सब ठीक चलता था। समय बांट रखा था। कि बारह बजे तक एक पूजा करेगा, बारह बजे के बाद दूसरे का हो जाएगा मंदिर।
कभी—कभी
अड़चन आ जाती थी कि बारह बजे; समय हो गया। और कोई श्वेताबंरी है कि अभी पूजा
किए ही चला जा रहा है! कोई उपद्रवी लोग होते हैं! कोई पूजा से मतलब नहीं है। पूजा
करनी हो, तो क्या मतलब है यहां आने का, कहीं भी हो सकती है। उपद्रवी लोग। देख लिया कि बारह बज गए हैं, लेकिन उपद्रव! खींचे गए पूजा को। साढ़े बारह बजा दिया। दिगंबरी आ गए लट्ठ
लेकर—कि हटो।
वे
उनके महावीर स्वामी खड़े देख रहे हैं बेचारे कि यह! वहां लट्ठ चल गया। बारह के बाद
मंदिर मेरा है। न ये जो लट्ठ लेकर आए हैं, इनको पूजा से प्रयोजन है। क्योंकि
पूजा करने वाले को लह लेकर आने की क्या जरूरत थी?
श्वेताबंरी
और दिगंबरी में कुछ बड़े भेद नहीं हैं। मगर मेरा! अड़चन आ जाती है। एक ही महावीर के
शिष्य; एक की ही पूजा है। लेकिन उसमें भी थोड़े— थोड़े हिसाब लगा लिए हैं। जरा—जरा
से हिसाब!
अब
महावीर में ज्यादा हिसाब लगाने की सुविधा भी नहीं है। नग्न खड़े हैं! अब इसमें तुम
फर्क भी क्या करोगे?
लंगोटी भी नहीं लगा सकते! तो एक छोटा सा हिसाब बना लिया। दिगंबरी
पूजा करते हैं महावीर की बंद—आंख—अवस्था में। और श्वेताबंरी पूजा करते हैं खुली—
आंख—अवस्था में।
अब
पत्थर की मूर्ति है,
ऐसा आंख खोलना, बंद होना तो हो नहीं सकता। तो
श्वेताबंरी एक नकली आंख चिपका देते हैं ऊपर से—खुली आंख! रहे आओ भीतर बंद किए! वह
मूर्ति भीतर बंद आंख की है, ऊपर से खुली आंख चिपका दी! और
पूजा कर ली। क्योंकि वे खुली आंख भगवान की पूजा करते हैं!
दिगंबरी
आते हैं, वे जल्दी से निकाल आंख अलग कर देते हैं! महावीर से तो कुछ लेना—देना नहीं
है।
तुमने
कहानी सुनी! एक गुरु के दो शिष्य थे। एक भरी दुपहरी, गर्मी के दिन, और दोनों पैर दाब रहे थे। एक बायां, एक दायां। बांट
लिया था उन्होंने आधा—आधा।
और
दोनों को सेवा करनी है!
गुरु
ने कहा भाई, झगड़ा मत करो। सेवा करो। बांट लो।
गुरु
तो सो गया। उसको थोड़ी झपकी आ गयी। करवट ले ली; तो बायां पैर दाएं पैर पर पड़ गया।
तो जिसको दायां पैर मिला था, उसने दूसरे से कहा, हटा ले अपने पैर को। यह मेरे बरदाश्त के बाहर है। देख, हटा ले।
दूसरा
भी. .उसने कहा. कौन है मेरे पैर को हटाने वाला? यहीं रहेगा।
वे
दोनों डंडे ले आए। आवाज सुनकर गुरु की नींद खुल गयी। उसने कहा जरा रुको।
गुरु
को मारने को डंडे ले आए,
क्योंकि वह पैर! वह जिसके पैर पर पैर पड़ गया था, वह दूसरे पैर को हटा देना चाहता था। वह डंडा ले आया था कि अगर ऐसे नहीं
होगा, तो डंडे से हटा दिया जाएगा।
गुरु
ने कहा. जरा ठहरो! पैर मेरे हैं। दोनों पैर मेरे हैं।
मगर
विभाजन मेरे—तेरे का झंझट लाता है।
तुमने
जिंदगी में इतनी बार मेरा बनाया और हर बार उजड़ा। अब तुम यहां तो मेरा मत बनाओ।
यहां तो मेरा लाओ भी मत।
'तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं।'
तुम
फर्क समझो। अगर तुम्हारे भीतर समझ हो, तो तुम मेरे बनना चाहोगे, न कि मुझे अपना बनाना चाहोगे! तुम कहोगे कि मैं राज़ी हूं; मुझे अपना बनालें। तुम कहोगे कि मैं समर्पित होने को राज़ी हूं। मैं अपने
को छोड़ने को राज़ी हूं। मुझे अपने में लीन कर लें।
लेकिन
तुम कह रहे हो. 'तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं।'
मुझे
तुम अपनी मुट्ठी में लेना चाहते हो! नहीं; मैं ऐसी कोई सुविधा नहीं देता। मैं
किसी की मुट्ठी में नहीं हूं।
इसलिए
बहुत से लोग मुझसे नाराज होकर चले गए हैं। क्योंकि उनकी मुट्ठी में मैं नहीं आता।
वे चाहते थे कि उनकी मुट्ठी में रहूं। वे जैसा कहें, वैसा करूं। जैसा कहें,
वैसा बोलूं। वे जैसा कहें, वैसे उठू—बैठूं। ये
सब मुट्ठी फैलाने के ढंग हैं।
अजीब
लोग हैं! किसी के घर में ठहर जाता था, तो वे समझे कि उनके घर में ठहरा हूं
तोवे मुझे यह भी बता देते कि आज आप बोलने जा रहे हैं, यह बात
जरूर बोलना। मैं अगर बोलने भी जा रहा था, तो खतम। अब नहीं
बोलूंगा।
कि
लौट कर मेरे साथ मुझे गाड़ी में लेकर आते, तो रास्ते में कहते कि यह बात आप न
कहते तो अच्छा था। इससे कई लोगों को धक्का लग गया होगा। दुबारा आप यह बात मत कहना!
लोग
ऐसे मूढ़ हैं कि उन्हें पता नहीं कि वे क्या कह रहे हैं, किससे कह
रहे हैं! उन्हें होश ही नहीं है।
'तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं
मुकद्दर
आजमाना चाहता हूं।’
मुकद्दर
तुम्हारा अभी तक फूटा नहीं?
कितने जन्मों से आजमा रहे हो। खोपड़ी सब जगह से पिट गयी है। अभी भी
मुकद्दर आजमाना चाहते हो! अब छोड़ो।
यह
मुकद्दर आजमाना बचकानी बात है। यह भी अहंकार का ही फैलाव है। इसमें भी दुनिया को
कुछ करके दिखाने का भाव है कि कुछ करके दिखा दूं; कुछ होकर दिखा दूं।
'मुझे बस प्यार का एक जाम दे दे।’
देखो, जिसे
प्यार चाहिए हो, उसे प्यार देना सीखना चाहिए, मांगना नहीं। मांगने से प्यार नहीं मिलता। जो मांगने से मिलता है, वह प्यार होता ही नहीं।
प्रेम
के मिलने की एक ही कला है कि दो। तुम मांग—मांगकर भिखारी होने की वजह से तो चूके, आज तक
मिला नहीं। जहां गए, भिखारी की तरह खड़े हो गए। प्रेम मिलता
है सम्राटों को, भिखारियों को नहीं। भिखारी को भिक्षा मिलती
है, प्रेम नहीं मिलता। और भिक्षा कभी प्रेम नहीं है, सहानुभूति है। और सहानुभूति में क्या रखा है! दया। दया में क्या रखा है?
मांगोगे, तो जो मिलेगा, वह
दया होगी। और दया बड़ी लचर चीज है। दोगे, तो जो मिलेगा,
प्रेम होगा।
प्रेम
उसी मात्रा में मिलता है,
जितना दिया जाता है। जो अपना पूरा हृदय उंडेल देता है, उसे खूब मिलता है, खूब मिलता है। चारों तरफ से बरसकर
मिलता है। प्रेम पाने के लिए जुआरी चाहिए, भिखारी नहीं। सब
दाव पर लगाने की हिम्मत होनी चाहिए।
और
क्या एक जाम मांगते हो! एक जाम से क्या होगा?
तुम्हारे ओठों पर लगेगा मुश्किल से। पूरा सागर उपलब्ध हो और तुम जाम मांगो!
मगर
कंजूसी की ऐसी वृत्ति हो गयी है! देने की हिम्मत नहीं रही है, तो लेने
की हिम्मत भी खो गयी है। जो देना नहीं जानता, वह लेना भी
नहीं जानता है। क्योंकि वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उनमें भेद नहीं है।
यहां
तो भिक्षा मत मांगो! इसलिए मैंने जानकर बुद्ध के प्यारे शब्द भिक्षु को अपने
संन्यासी के लिए नहीं चुना। जानकर। नहीं तो बुद्ध से मेरा लगाव गहरा है। मैंने
स्वामी शब्द को चुना। क्योंकि मैं तुम्हें मालिक बनाना चाहता हूं।
मैं
चाहता हूं तुम सम्राट बनो। तुम भिक्षा की आदत छोड़ो। तुम मांगना ही बंद करो।
मांग—मांगकर ही तो तुम्हारी यह दुर्दशा हो गयी है। अब मांगो ही मत। अब जो मिल जाए, उससे
राजी। जो न मिले, उससे राजी। अब तुम्हारे राजीपन में कोई
फर्क ही नहीं पड़ना चाहिए—मिले, न मिले। और तुम पाओगे कि इतना
मिलता है, इतना मिलता है कि सम्हाले नहीं सम्हलता। तुम्हारी
झोली छोटी पड़ जाएगी। तुम छोटे पड जाओगे।
मगर
कला, गणित समझ लेना। देना गणित है, दो!
करीब—करीब
लोग जानते ही नहीं कि प्रेम देना यानी क्या। मेरे पास इतने लोग आते हैं, उनमें से
अधिक की शिकायत यही होती है कि प्रेम नहीं मिलता। मगर कोई यह शिकायत करने नहीं आता
कि मैं प्रेम नहीं दे पाता!
तब
मैं सोचता हूं कि जब किसी को प्रेम नहीं मिल रहा है, तो किससे ये माग रहे हैं!
यही तो देने वाले हैं; यही लेने वाले हैं! पति भी मुझसे आकर
कह जाता है कि मुझे प्रेम नहीं मिलता पत्नी से। पत्नी भी मुझसे आकर कह जाती है कि मुझे
प्रेम नहीं मिलता पति से।
दोनों
लेने पर उतारू हैं। देने को कोई राजी नहीं है। मिले कैसे? यह सौदा
हो तो हो कैसे? यह बात बने तो बने कैसे? दोनों एक—दूसरे पर नजर लगाए बैठे हैं कि दो। और कोई देना नहीं चाहता।
दूसरा भी यही नजर लगाए बैठा है कि दो। दोनों की मांग एक ही है, पूर्ति कैसे हो? मूर्ति तो तब हो सकती है, जब दोनों दें। तो दोनों को मिले।
इस
जगत से तुम्हें बहुत कम प्रेम मिलता है, क्योंकि तुम देते ही नहीं। नहीं तो
यह जगत चारों तरफ से प्रेम से भरा है। यहां फूल—फूल, पत्ती—पत्ती
पर प्रेम का संदेश है। यहां कण—कण, रत्ती—रत्ती पर प्रेम की
पाती है।
परमात्मा
तुम्हें बहुत तरह से पातिया भेज रहा है। मगर तुम्हें देने की कला नहीं आती, इसलिए तुम
लेने से चूक जाते हो।
'मुकद्दर आजमाना चाहता हूं
मुझे
बस प्यार का एक जाम दे दे
मैं
सब कुछ भूल जाना चाहता हूं।’
यहां
मैं शराब निश्चित बांटता हूं। मगर वह शराब ऐसी नहीं कि तुम भूल जाओ। वह शराब ऐसी
है, जो होश लाए। वह होश लाने वाली शराब है। बेहोशी लाने वाली शराबें तो सब तरफ
मिल रही हैं। बेहोशी लाने वाली शराब में कितना मूल्य है? थोड़ी
देर को भूल जाओगे, फिर याद आएगी। और घनी होकर आएगी। थोडी देर
को भूल जाओगे, तब भी भीतर तो सरकती ही रहेगी।
चिंता
से भरा आदमी शराब पी लेता है। चलो, रात गुजर गयी। सुबह फिर चिंताएं
वहीं की वहीं खड़ी हैं। और बड़ी होकर खड़ी हैं। क्योंकि रात हल कर ली होतीं, तो उनकी उम्र कम थी। अब रातभर और गुजर गयी। उनकी उम्र ज्यादा हो गयी। वे
और मजबूत हो गयीं। उनकी जड़ें और फैल गयीं। फिर शराब पी ली। ऐसे दो—चार—दस दिन
गुजार दिए, तो चिंताएं तुम्हारे भीतर गहरी, मजबूती से जड़ जमा लेंगी। उनको हल करना रोज—रोज कठिन हो जाएगा।
बेहोशी
से कुछ लाभ नहीं है। और तुम संगीत में भी बेहोशी खोजते हो। और तुम सुंदरी में भी
बेहोशी खोजते हो। और तुम संपत्ति में भी बेहोशी खोजते हो। और तुम सम्मान में भी
बेहोशी खोजते हो। तुम बेहोशी ही खोजते हो।
यहां
तो कम से कम बेहोशी खोजने न आओ। यहां होश खोजो। यहां जागो। निश्चित ही यह जागना भी
एक ऐसी अदभुत कीमिया है कि इससे तुम जागोगे भी और मस्त भी हो जाओगे। इसलिए मैं
इसको शराब भी कहता हूं। तुम जागोगे भी और डोलोगे भी।
मगर
डोलना अगर बेहोशी में हो,
तो कुछ मजा न रहा। वह तो नींद का डोलना है। जागकर डोलो। होश से भरे
नाचो। होश भी हो और नाच भी हो। होश भी हो और रसधार भी बहे। भीतर होश का दीया जले
और बाहर मस्ती हो।
मैं
चाहता हूं तुम ऐसे संन्यासी हो जाओ कि जिसके भीतर बुद्ध जैसा दीया जलता हो और
जिसके बाहर मीरा जैसी मस्ती हो। तुम ऐसा जोड़ बनो। इस जोड़ पर कोशिश नहीं की गयी है।
यह जोड़ अब तक संभव नहीं हुआ है। इसलिए अतीत में संन्यास अधूरा— अधूरा रह गया है; आधा—आधा
रह गया है। पूरा संन्यासी होश से भरा होगा और मदमस्त भी होगा। दीया भी जला होगा
ध्यान का और प्रेम की धारा भी बहती होगी।
पूर्ण
संन्यासी बनो। एक अपूर्व अवसर तुम्हें मिला है, इसे चूकना मत। चूकने की संभावना
सदा ज्यादा है। अगर न चूके तो तुम कुछ ऐसा जान लोगे, तुम कुछ
ऐसे हो जाओगे, जैसा कि इसके पहले संभव नहीं था।
एकांगी
ढंग के संन्यासी हुए हैं। स्थली ढंग का संन्यास भी सुंदर है। संसार से तो बहुत
सुंदर है। लेकिन बहुआयामी संन्यास के सामने फीका है। जैसे हीरे पर देखा न, बहुत पहलू
होते हैं। जितने पहलू होते हैं, उतनी हीरे की चमक बढ़ती जाती
है। ऐसे ही जितने तुम्हारे संन्यास में पहलू होंगे, उतनी चमक
बढ़ती जाएगी, उतनी गरिमा बढ़ती जाएगी। उतनी ही तुमसे ज्यादा
किरणें प्रगट होंगी।
और
ये दो पहलू तो होने ही चाहिए कि तुम्हारे भीतर होश का दीया हो, और
तुम्हारे भीतर होश के दीए के साथ—साथ मस्ती की लहर हो। होश का दीया ऐसा न हो कि
तुम्हें सुखा जाए, रेगिस्तान बना जाए।
तुममें
फूल भी खिले। और तुममें फूल ही खिले, इतना ही नहीं है। क्योंकि अगर फूल
ही खिले और भीतर बेहोशी रहे, तो मजा न रहा। भीतर दीए की
ज्योति भी फूलों पर पड़ती हो।
फूल
अंधेरे में खिले,
तो मजा नहीं है। और दीया रेगिस्तान में जले, तो
मजा नहीं है। बगिया में जले दीया। फूल भी खिले और दीए में दिखॉयी भी पड़े। मस्ती भी
हो और होश में मस्ती दिखायी भी पड़ती रहे। मस्ती बेहोश न हो। और होश गैर—मस्त न हो।
इस
नए संन्यास को ही जन्म दे रहा हूं। तुम एक महान प्रयोग में सहभागी हो रहे हो।
तुम्हें शायद पता हो अपने सौभाग्य का या न पता हो।
तीसरा प्रश्न.
औजार
कोई तरकीब कोई
न जाने कहां क्या
अटका है,
न जाने कहां क्या
जाम हुआ
यह रात कि बंद
होती ही नहीं,
यह दिन कि उफ
खुलता ही नहीं
औजार कोई तरकीब
कोई!
एक एक बहुत बड़ा जादूगर हुआ—हूदनी। उसकी सबसे बड़ी कला
यह थी कि कैसी ही जंजीरों में उसे कस दिया जाए, वह क्षणों में खोलकर बाहर आ जाता
था। जंजीरों में कसकर, पेटियों में बंद करके, पेटियों पर ताले डालकर उसे समुद्र में फेंका गया। वहां से भी वह मिनटों के
भीतर बाहर आ गया।
दुनिया
के सभी कारागृहों में उस पर प्रयोग किए गए; सभी तरह के पुलिस ने अपने इंतजाम
किए—इंग्लैंड में, अमेरिका में, फ्रांस
में, जर्मनी में। उसको कारागृह की कोठरी में डाल देते। तालों
पर ताले जड़ देते। हाथों में जंजीरें, पैरों में जंजीरें और
मिनटें भी नहीं बीतती.। तीन मिनट से ज्यादा उसको कभी नहीं लगे थे जीवन में किसी भी
स्थिति से बाहर आ जाने में। बड़ी चौंकाने वाली उसकी कला थी।
लेकिन
इटली में वह हार गया। इटली में जाकर बड़ी बुरी तरह हारा। घंटेभर तक न निकल सका। तीन
घंटे लगे। जो भीड़ इकट्ठी हो गयी थी हजारों लोगों की, वे तो घबडा गए कि मर गया
ऊनी या क्या हुआ!
यह
तो किसी को भरोसा ही नहीं था। तीन मिनट तो आखिरी सीमा थी। सेकेंडों में निकल आता
था। यह हुआ क्या?
और
जब तीन घंटे बाद हूदनी निकला, तो उसकी हालत बड़ी खस्ता थी। पसीना—पसीना था।
माथे की नसें चिंता से फूल गयी थीं। आंखें लाल हो गयी थीं। बाहर आया, तो हांफ रहा था।
पूछा
गया कि हुआ क्या! इतनी देर कैसे लगी? उसने कहा कि मेरे साथ बड़ा धोखा
किया गया। दरवाजे पर ताला नहीं था। और वह बेचारा कोशिश करता रहा खोलने की कि कहां
से खोले। ताला हो तो खोले! एक मजाक काम कर गया।
ताला
होता तो खोल ही लेता वह। ताला खोलने में तो उसके पास कला थी। ऐसा तो कोई ताला नहीं
था, जो वह नहीं खोल लेता। मगर ताला था नहीं। दरवाजा सिर्फ अटका था। सांकल भी
नहीं चढ़ी थी। सांकल भी चढ़ी होती, तो खोल लेता। न सांकल थी,
न ताला था। भीतर कुछ था ही नहीं।
वह
बड़ा घबड़ाया। उसने सब तरफ खोजा होगा। कोई उपाय न दिखे। पहली दफा हारा। तीन घंटे बाद, लोगों ने
पूछा, फिर कैसे निकले? उसने कहा : ऐसे
निकले कि जब तीन घंटे के बाद बिलकुल थक गया और गिर पड़ा, दरवाजे
को धक्का लगा और दरवाजा खुल गया। सोच लिया कि आज तो प्रतिष्ठा पानी में मिल गयी।
तुम पूछते हो.
'औजार कोई
तरकीब कोई
न जाने कहां क्या
अटका है,
न जाने कहां क्या
जाम हुआ
यह रात कि बंद
होती ही नहीं,
यह दिन कि उफ
खुलता ही नहीं
औजार कोई तरकीब
कोई!'
न
कोई औजार है,
न कोई तरकीब है। दरवाजा बंद नहीं है। तुम खोलने की कोशिश में परेशान
हो रहे हो! तुम खोलने की कोशिश छोड़ो।
यहां
तुमने जीवन को समस्या की तरह लिया कि तुम चूकते चले जाओगे। जीवन कोई समस्या नहीं
है, जिसको सुलझाना है। न जीवन कोई प्रश्न है, जिसका
उत्तर कहीं से पाना है। जीवन एक रहस्य है, जिसको जीना है।
फर्क
समझ लेना समस्या और रहस्य का। समस्या का अर्थ होता है, जिसका
समाधान हो। रहस्य का अर्थ होता है, जिसका समाधान हो ही न।
रहस्य का अर्थ होता है, जिसका उत्तर है ही नहीं। रहस्य का
अर्थ होता है तुम खोजे जाओ। खोजते—खोजते तुम खो जाओगे, लेकिन
खोज जारी रहेगी। अंतहीन है खोज।
इसलिए
तो हम परमात्मा को असीम कहते हैं। असीम का अर्थ होता है, जिसकी कभी
कोई सीमा न आएगी। इसलिए तो परमात्मा को हम अज्ञेय कहते हैं, जिसे
हम जान—जानकर भी न जान पाएंगे।
इसीलिए
तो पंडित हार जाता है और भोले— भाले लोग जान लेते हैं। पंडित और भोले — भाले लोगों
की वही हालत है,
जो हूदनी की हुई। पहले वह पंडित था। तीन घंटे तक पंडित रहा। —तब तक
नहीं खुला दरवाजा। क्योंकि वह सोच रहा था. ताला होना चाहिए। ताला होता, तो पांडित्य काम कर जाता। लेकिन ताला था ही नहीं, तो
पांडित्य करे क्या!
समस्या
है नहीं जीवन में कोई;
पांडित्य करे क्या? होती समस्या, पांडित्य हल कर लेता। बुद्धि करे क्या! बुद्धि नपुंसक है। तर्क करे क्या!
तर्क का बस नहीं चलता। समस्या होती, तो बस चल जाता। जिंदगी
एक रहस्य है।
जब
गिर पड़ा हारकर हूदनी,
उसी धक्के में दरवाजा खुल गया। जो खोले—खोले न खुला, वह अपने से खुल गया। वह बंद था ही नहीं।
इसलिए
जीसस ने कहा है जो बच्चों की भांति भोले— भाले हैं, वे ही मेरे प्रभु के राज्य
में प्रवेश पा सकेंगे।
क्यों
बच्चों की भांति भोले— भाले लोग पा सकेंगे? क्योंकि बच्चे ही रहस्य को जीना
जानते हैं।
तुमने
छोटे बच्चे देखे! चारों तरफ उन्हें विमुग्ध करने वाला जगत दिखायी पड़ता है। हर चीज
उन्हें आकर्षित करती है। एक तितली उड़ी जाती है, भागने लगते हैं। तुम कहते हो. कहां
भाग रहा है पागल! क्योंकि तुम्हें तितली में कुछ नहीं दिखता। तुम अंधे हो। तुम
अंधे हो गए हो। तुम्हारी आंख पर धूल जम गयी है। समय ने तुम्हारी आंख को खराब कर
दिया है। स्कूल ने, शिक्षकों ने, माता—पिताओं
ने, संस्कारों ने तुम्हारी आंख को श्रइमल कर दिया है।
तुम्हारे आश्चर्य की हत्या कर दी है। और जिस आदमी के भीतर आश्चर्य मर गया, उस आदमी के भीतर आत्मा मर गयी।
तुम
अब चकित होने की क्षमता खो दिए हो। चकित होने जैसी बात है। तितली का होना असंभव
जैसा होना है। होना नहीं चाहिए। इतनी सुंदर तितली! इतनी रंग—बिरंगी तितली! यूं उड़ी
जाती है। बच्चा चकित है,
विमुग्ध है। भागा। तुम उसका हाथ खींचते हो। कहते हो : कहां जाते हो?
बच्चा
घास में खिले एक फूल को देखकर विमुग्ध हो जाता है। रसलीन हो जाता है। कंकड़—पत्थर
बीनने लगता है समुद्र के तट पर। रंग—बिरंगे कंकड़—पत्थर! तुम कहते हो यह तू क्या कर
रहा है? फिजूल ये चीजें कहां ले जा रहा है? तुमसे बचाकर भी
बच्चा अपने खीसों में कंकड़—पत्थर भर लाता है। रात उसकी मा को उसके बिस्तर में से
कंकड़—पत्थर निकालकर अलग करने पडते हैं।
इन
कंकड़—पत्थरों में बच्चे को अभी उतना दिख रहा है, जितना बाद में तुम्हें
हीरों में भी नहीं दिखेगा। इस बच्चे के पास अभी गहरी आंख है।
यहां
हर चीज रहस्यमय है। छोटे से कंकड़ में भी तो परमात्मा विराजमान है। हर कंकड़ हीरा
है। होना ही चाहिए। क्योंकि हर कंकड़ पर उसी के हस्ताक्षर हैं। होना ही चाहिए। हर
पत्ती पर वेद है। हर फूल में उपनिषद है। हर पक्षी की आवाज में कुरान की आयत है।
होनी ही चाहिए। क्योंकि वही तो बोलता है। क्योंकि वही तो खिलता है। क्योंकि वही तो
उड़ता है। वही है।
बच्चा
रोमांचित हो जाता है छोटी—छोटी बात से। एक तोता उड़ जाता है और बच्चा रोमाचित हो
जाता है।
जिस
दिन तुम बच्चे जैसे होओगे.। फिर से तुम्हें बच्चा होना पड़ेगा। फिर से तुम्हें धूल
झाड़नी होगी। समय ने,
समाज ने, संस्कारों ने तुम्हारे मन में जो
विकृतियां डाल दी हैं—विकृतियां यानी शान—वह जो शान डाल दिया है, वह जो पांडित्य डाल दिया है, तुम्हें भ्रम दे दिया
है कि मैं जानता हूं; उस भ्रम को छोडना होगा। न तो कोई औजार
है, न कोई तरकीब है। क्योंकि यहां कोई ताला ही नहीं है,
जिसको तोड़ना हो। औजार की कोई जरूरत ही नहीं है। ताला लगा ही नहीं है,
सब दरवाजे खुले हैं। सिर्फ तुम्हारी आंखें बंद हैं। अब आंखें खोलने
के लिए तो औजार इत्यादि थोडे ही होते हैं।
मैंने
सुना. एक डाक्टर एक मरीज को देखने आया। एक स्त्री बीमार थी। गर्भवती थी। नौ महीने
पूरे हो गए थे। पति बड़ा बेचैन था। बाहर खड़ा है—पदें के बाहर। डाक्टर भीतर गया।
भीतर से डाक्टर बाहर झांका खिड़की में से और बोला कि हथौड़ी होगी? थोड़ा डरा
पति कि हथौड़ी! पत्नी गर्भवती है, हथौडी की क्या जरूरत! मगर
उसने कहा, होगी कोई जरूरत। उसने हथौड़ी लाकर दे दी।
फिर
थोड़ी देर बाद डाक्टर बोला. स्कू ड्राइवर? अब मार डाला इस आदमी ने। यह डाक्टर
है कि कोई मैकेनिक आ गया, कि क्या मामला है? मगर अब मांगता है तो उसको स्कू ड्राइवर दे दिया। थोड़ी देर में बोला. आरा।
तब उसने कहा : अब जरूरत से ज्यादा हो गयी बात। हद्द हो गयी! मामला क्या है?
मेरी पत्नी को हुआ क्या? उसने कहा. पत्नी की
बकवास मत करो। अभी मेरी पेटी ही नहीं खुली है! तुम पत्नी की लगा रहे हो।
तुम
औजार मांग रहे हो! यहां परमात्मा के ऊपर कोई दरवाजे नहीं हैं। परमात्मा खुला है; प्रगट है।
तुम आंख से ओझल किए बैठे हो। तुम आंख पर पर्दा डाले बैठे हो। तुम्हारी आंख बंद है।
अब आंख खोलने के लिए कोई स्कू ड्राइवर या हथौड़ी या कोई आरे की थोड़े ही जरूरत है।
जब खोलना चाहो, तब खोल लो। तुम्हारी मर्जी की बात है।
खोलने
के लिए प्रयास भी क्या करना है! खोलना चाहो अभी खोल लो; और अभी
विमुक्त हो जाओ। और अभी ये फूल—पत्तियों का राज बदल जाए। और अभी ये हवाएं कुछ और
संदेश लाने लगें। और ये सूरज की नाचती किरणें अभी परमात्मा का नृत्य बन जाएं। और
ये लोग जो तुम्हारे चारों तरफ बैठे हैं, इनके भीतर वही छिपा
है। तुम्हारे भीतर वही छिपा है। खोजने जाते कहा हो। खोजने वाले में भी वही छिपा
है।
न
कोई विधि है,
न कोई विधान। समझ चाहिए। बस समझ चाहिए और समझ यानी दर्पण जैसा चित्त
चाहिए।
समझ
शब्द से तुम मत समझ लेना,
समझदारों की समझ। समझदार तो बड़े नासमझ हैं। नासमझों की समझ से मेरा
मतलब है।
सुकरात
ने कहा है. जब मैं जानता था, तब कुछ भी नहीं जानता था। और जब से सब जानना
छूट गया है, क्या जानने को बचा! सब जान लिया।
लाओत्सु
ने कहा है : जो कहे जानता हूं समझ लेना कि नहीं जानता। जानने वाले कैसे कहेंगे कि
जानते हैं? क्योंकि जानने को है क्या? सिर्फ रहस्य है। रहस्य को
जाना कैसे जा सकता है?
जाना
जाता है जब रहस्य,
तो यही जाना जाता है कि जानने को कुछ भी नहीं है। और क्या जाना जाता
है! एक आश्चर्यविमुग्ध भाव घेर लेता है। एक अहोभाव घेर लेता है। तुम फिर दौड़ने
लगते हो अस्तित्व के पीछे, जैसा बच्चा तितली के पीछे दौड़ता
है। तुम फिर से समुद्र के तट पर, जीवन के समुद्र तट पर
शंख—सीप बीनने लगते हो। फिर तुम्हारे जीवन में अहर्निश आनंद की वर्षा शुरू हो जाती
है।
चौथा प्रश्न
मनोमंथन करने पर पता चलता है कि सांसारिक
वासनाएं तो नहीं हैं, जो मृत्यु के समय बंधन बनें। लेकिन सत्य पाने
की वासना ही बनती जाती है, सो क्या करूं? कृपाकर मार्ग—दर्शन करें।
वह भी रोक लेगी। वासना मात्र रोकती है। इससे कुछ भेद
नहीं पड़ता कि वासना किस चीज की। विषय—वस्तु से कोई भेद नहीं पड़ता। तुम धन चाहो कि
ध्यान चाहो, चाह का स्वरूप एक है। और चाह रोकती है।
तुम
पद चाहो कि परमात्मा चाहो,
चाह की भांति एक है।
चाह
का अर्थ क्या होता है?
यह समझ लो। चाह का अर्थ होता है जैसा मैं हूं वैसा ठीक नहीं हूं।
कुछ और होना चाहिए। थोडा और धन, थोड़ा और पद, थोड़ा और ध्यान, थोड़ा और सत्य, थोड़ा
और परमात्मा। लेकिन थोड़ा और होना चाहिए। जैसा मैं हूं उससे मैं संतुष्ट नहीं। चाह
का अर्थ है—असंतोष। फिर चाह किस बात की है, इससे क्या फर्क
पड़ेगा? असंतोष तो रहेगा ही।
तुम
गए; एक शांत झील में कंकड़ फेंका—कंकड़, साधारण सा कंकड—तो
लहर उठती है। तुम सोचते हो, कोहिनूर हीरा फेंकोगे, तो लहर नहीं उठेगी! कोहिनूर हीरा फेंको—पानी को क्या फर्क पड़ता है?
तुमने कंकड़ फेंका कि कोहिनूर, पानी को तो कोई
भी भेद नहीं है। कोहिनूर पत्थर है, और पत्थर कोहिनूर है। फिर
भी लहरें उठेंगी। और लहरें उठ जाएंगी तो चांद का जो प्रतिबिंब बन रहा है, वह भ्रष्ट हो जाएगा।
चाह
पत्थर की तरह गिरती है तुम्हारे भीतर। फिर चाह सोने की हो कि स्वर्ग की—इससे कोई
फर्क नहीं पड़ता। फिर चाह संसार की हो कि परलोक की—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
चाह
पत्थर की तरह गिरती है तुम्हारे चित्त में और चित्त कैप जाता है। और चित्त के कंपन
के कारण सत्य खो जाता है। सत्य को चाहना हो, तो सत्य को चाह मत बनाना। चाह से
जो मुक्त हो जाता है, उसे सत्य मिलता है।
यह
तुम्हें जरा कठिन लगेगा। लेकिन धैर्यपूर्वक समझोगे, तो सीधी—सीधी बात है। चाह
के कारण तनाव पैदा होता है। तनाव भरे चित्त में परमात्मा की छबि नहीं बनती। चाह के
कारण तरंगें उठ आती हैं। तरंगों के कारण सब कंपन पैदा हो जाता है। कंपते हुए मन
में परमात्मा की छबि नहीं बनती।
ठीक
से समझो, तो कंपता हुआ मन ही संसार है।
पूछा
है तुमने कि 'मनोमंथन करने पर पता चला कि सांसारिक वासनाएं तो नहीं हैं।’
लेकिन
वासना संसार है। सांसारिक वासनाएं और पारलौकिक वासनाएं, ऐसी दो
वासनाएं थोड़े ही होती हैं।
तुम्हें
पंडित—पुरोहितों ने बड़ी गलत बातें समझायी हैं। उन्होंने समझाया है कि संसार की
वासना छोड़ो और परलोक की वासना करो। लेकिन ज्ञानियों ने कुछ और कहा है। बुद्धों ने
कुछ और कहा है। उन्होंने कहा है. वासना छोड़ो, क्योंकि वासना संसार है। और जहां
वासना नहीं है, वहा परलोक है। जहां वासना है, वहा यही लोक रहा आएगा। धोखे में मत पड़ना। मन बहुत चालबाज है।
मन
कहता है कि यह तो मच्छी वासना है। अच्छी वासना होती ही नहीं। वासना मात्र बुरी
होती है। मन कहेगा यह तो धार्मिक वासना है! यह तो आध्यात्मिक वासना है। इसको तो
खूब करना चाहिए। हां,
धन थोड़े ही चाहते हैं हम; हम तो ध्यान चाहते
हैं।
मगर
चाहने में ही तो उपद्रव है। चाहते, तो मतलब तन गए। चाहते, तो मतलब अशांत हो गए। चाहते, तो मतलब. यहां न रहे,
इस क्षण में न रहे। भविष्य में चले गए। धन भी कल मिलेगा, और ध्यान भी कल मिलेगा। तो कल में चले गए। आज चूक गया। पद भी कल और परलोक
भी कल।
और
जो है, वह अभी है और यहीं है, इसी क्षण है। समझो। जागो।
अगर
इसी क्षण तुम्हारे भीतर कोई वासना नहीं है, मुझे समझने की भी वासना नहीं है;
शांत बैठे हो, कोई वासना नहीं है। चित्त
निस्तरंग है। क्या पाने को बचा? उस निस्तरंग चित्त में क्या
कमी है?
वही
निस्तरंग चित्त तो आप्तकाम है। वही निस्तरंग चित्त तो ब्राह्मण है। उसी को मैं
ब्राह्मण कहता हूं;
निस्तरंग चित्त; अकंपित।
ब्रह्म
की चाह भी रह गयी,
तो ब्राह्मण नहीं। ब्रह्म हो गए, तो ब्राह्मण।
और ब्रह्म होने के लिए देर क्या है? ब्रह्म तुम हो। मगर
तुम्हारी चाहत ने तुम्हें चुकाया है। तुम जो खोज रहे हो, वह
तुम्हारे भीतर मौजूद है। मगर खोज की वजह से तुम इतने उद्विग्न हो गए हो...।
हूदनी
की कहानी फिर याद करो। दरवाजा खुला था, अटका था। मगर वह ताला खोज रहा था!
ताला था नहीं। मुश्किल में पड़ गया। तीन घंटे लग गए। अगर पहले ही दरवाजा खोल दिया
होता, इतना सोच लिया होता। सोचा नहीं होगा। क्योंकि कैसे
सोचता! जिंदगीभर ताले ही खोले थे। और जब लोग उसे बंद करते थे, तो तालों में ही बंद करते थे। ताले खुलवाने के लिए ही तो बंद करते थे।
मगर
ये इटैलियन बाजी मार ले गए। हूदनी को बुरा हराया। खूब गहरा मजाक किया।
स्वभावत:, तुम भी
हूदनी की जगह होते, तो ताला ही खोजते रहते। और जिसको तीन मिनट
में बाहर निकलना हो, उसकी बेचैनी! स्वभावत:, पसीना—पसीना हो गया होगा। तीन मिनट की तो बात—घंटा बीत गया! बार—बार घड़ी
देखता होगा। घंटा बीत गया। प्रतिष्ठा गयी! जीवनभर की कमायी गयी! लोग क्या कहेंगे?
कि हूदनी गए! हार गए! पुलिस वालों से हार गए! आज लग गया ताला तुम
पर! जिंदगी भर की प्रतिष्ठा थी; मिट्टी हुई जा रही है!
जैसे
—जैसे समय बीता होगा,
वैसे—वैसे बेचैनी बढ़ी होगी, वैसे—वैसे घबडाहट
बढ़ी होगी। रक्तचाप बढ़ा होगा। हृदय की धड़कन बढ़ी होगी। पसीना —पसीना हुआ जा रहा
होगा। और जितना पसीना हुआ होगा, जितना रक्तचाप बढ़ा होगा,
जितनी घबड़ाहट बढ़ी होगी, उतनी ही तेजी से ताला
खोजता होगा! जितना ताला खोजता होगा, उतनी ही बुद्धि खो गयी,
उतना ही बोध खो गया।
यह
बात तो उठे भी कैसे कि शायद दरवाजा खुला हो! दरवाजा खुला है। लेकिन चाहत के कारण
नहीं खुल पा रहा है। चाह छोड़ो।
और
जब मैं कहता हूं, चाह छोड़ो, तो बेशर्त कह रहा हूं। यह नहीं कह रहा
हूं कि संसार की चाह छोडो।
फिर
दोहरा दूं. चाह संसार है। संसार की कोई चाह नहीं होती और परमात्मा की कोई चाह नहीं
होती। जहां चाह है,
वहां संसार है। अगर तुम परमात्मा चाहते हो, तो
तुम अभी भी सांसारिक हो।
इसलिए
तो मैं कहता हूं. तुम्हारे ऋषि—मुनि जो मंदिरों में और गुफाओं में बैठे है—सब
संसारी हैं; तुम जैसे संसारी है, जरा भेद नहीं है। स्वर्ग चाह
रहे हैं! स्वर्ग में क्या चाह रहे हैं? वही अप्सराएं,
जिनको तुम यहां चाह रहे हो। तुम फिल्म अभिनेत्रियों में देख रहे हो;
तुम जरा आधुनिक हो, वे जरा प्राचीन हैं। वे
जरा उर्वशी इत्यादि की सोच रहे हैं! वे पुरानी फिल्म अभिनेत्रियां! वे सोच रहे हैं
वहां मिलेगा।
तुम
सोचते हो यहीं चले जाएं बाजार में और दो कुल्हड़ पी लें। और वे सोचते हैं कि वहां
पीएंगे बहिश्त में,
जहां झरने बह रहे हैं शराब के। यहां क्या पीना! फिर मुफ्त मिलती है
वहां। कोई पाबंदी भी नहीं है। असली शराब मिलती है वहां। ऐसा कोई देशी ठर्रा नहीं।
वहां कोई स्वदेशी की झंझट नहीं है। विदेशी शराब के झरने बह रहे हैं! नहाओ, धोओ, डुबकी लगाओ। पीओ, पिलाओ।
या
वहा कल्पवृक्ष हैं,
जिनके नीचे बैठो और जो चाहो, तत्क्षण पूरा हो
जाए। तत्थण—चाहा कि पूरा हो जाए।
स्वर्ग
के चाहने वाले,
तुम सोचते हो, आध्यात्मिक हैं? या कि तुम सोचते हो, मोक्ष को चाहने वाले आध्यात्मिक
हैं? मोक्ष में भी क्या चाह रहे हो? यही
कि शाति मिले, आनंद मिले, दुख से
छुटकारा हो, पीड़ा न रहे।
मगर
यही तो सांसारिक आदमी भी चाह रहा है। वह भी इसीलिए तो धन कमा रहा है कि दुख न रहे।
इसीलिए तो चाहता है बड़ा मकान बना ले कि थोड़ी सुविधा हो। तुम्हारी और उसकी चाह में
कोई मौलिक भेद नहीं है। भेद होगा अगर तो परिमाण का होगा, गुण का
नहीं है।
तुम
भला उससे कह सकते हो कि तेरी चाह क्षणभंगुर है, हमारी चाह शाश्वत की है। लेकिन
इसका तो मतलब यही हुआ कि तुम उससे भी बड़े संसारी हो। उसकी चाह क्षणभंगुर की है;
उसकी चाह छोटी है। तुम्हारी चाह बड़ी भयंकर है; सनातन की है; शाश्वत की है! तुम क्षणभंगुर से राजी
नहीं होते। तुम्हारा लोभ बहुत बड़ा है। तुम भयंकर संसारी हो!
फिर
मैं किसको आध्यात्मिक कहता हूं—जिसकी कोई चाह नहीं; जो बिना चाह जीता है। जो
कहता है : यहीं जीएंगे, अभी जीएंगे। जिसके लिए वर्तमान
कल्पवृक्ष है। जिसके लिए, जैसा है, वैसा
होना स्वर्ग है। जहां है, वहीं मोक्ष। ऐसा व्यक्ति आध्यात्मिक
है। जिसके पास अन्यथा की कोई मांग नहीं है। कल जो आएगा, आएगा।
अभी जो है, उसे भोगता है। अभी जो है, उसे
बड़े आनंद से भोगता है, बड़े अनुग्रह से भोगता है।
पांचवां प्रश्न.
भगवान, एक संत से आपके बारे में
बातचीत होती थी। मैंने कहा : मेरे भगवान श्री स्वयं सभी प्रश्नों के उत्तर हैं।
उन्होंने कहा : नहीं; उत्तर तो बहुत हैं। मगर रजनीश तो सभी
उत्तरों के लिए एक प्रश्न बन गया है! भगवान, कृपया बताएं कि
आप प्रश्न हैं या उत्तर?
जो सभी उत्तरों के लिए एक प्रश्न बन गया हो, वही सभी
प्रश्नों का उत्तर हो सकता है। संत ने ठीक ही कहा।
अब
उनसे मिलो, तो मेरी तरफ से उनसे यह कह देना—कि जो सभी उत्तरों के लिए प्रश्न बन गया
हो, वही सभी प्रश्नों का उत्तर हो सकता है।
छठवां
प्रश्न:
संसार
ने बडी क्रूरता से मेरी सारी आशाओं पर पानी फेर दिया है। मैं संसार को क्षमा करूं
भी तो कैसे करूं!
संसार तुम्हारी
आशाओं पर न तो पानी फेर रहा है, न सोना फेर रहा है।
संसार
को तुम्हारी आशाओं का पता ही नहीं है। तुम्हारी आशाओं का बस, तुम्हीं
को पता है।
और
जब तुम्हें लगता है कि संसार ने तुम्हारी आशा पर पानी फेरा, तो इतना
ही समझना कि तुमने प्रकृति के प्रतिकूल कुछ करने की कोशिश की होगी। संसार ने कुछ
नहीं किया है, तुम ही उलटे गए होओगे।
अब
तुम वृक्ष पर से गिर पड़ो और कहो कि गुरुत्वाकर्षण ने मेरी टाग तोड़ दी!
गुरुत्वाकर्षण को इससे क्या लेना—देना है! गुरुत्वाकर्षण को तुम्हारी टाग का पता
भी नहीं है। तुम्हारी टल इतनी महत्वपूर्ण भी नहीं है कि गुरुत्वाकर्षण इसे तोड़ने
के लिए कोई विशेष आयोजन करे। आप ही चूककर गिर गए हैं!
तुम्हारी
आशाएं व्यक्तिगत हैं। और तुम्हारी व्यक्तिगत आशाओं के कारण ही उन पर पानी फिर जाता
है। समष्टि की भाषा में सोचो। समष्टि के साथ सोचो, विपरीत नहीं। धारा में बहो,
धारा से लड़ो मत। फिर तुम्हारी किसी आशा पर कभी पानी न फिरेगा।
और
अगर तुम ठीक से समझे,
तो मतलब क्या हुआ? मतलब यह हुआ कि जब तुम
समष्टि के साथ बहोगे, तो तुम अलग से आशा ही कैसे करोगे! जो
समष्टि की नियति है, वही तुम्हारी नियति है। अलग से आशा करने
की जरूरत क्या है? समझदार आदमी अलग से झंझटें नहीं लेता।
इतना
विराट जिस सहारे चल रहा है,
मैं, छोटा सा, उसके
सहारे चल लूंगा। चांद—तारे नहीं चूकते! इतना विराट विश्व इतनी सुविधा और इतनी
संगीतबद्धता से चल रहा है; एक मैं ही क्यों चिंता करूं! जो
इस सबको चलाता है, मुझे भी चला लेगा। और जो मुझे न चला पाएगा,
वह इतने विराट को कहां चला पाएगा!
इस
भावदशा का नाम ही धार्मिकता है कि मैं अलग से निजी आशाएं न करूं; मैं निजी
कामनाएं न करूं, मैं इस विराट के साथ तल्लीन होना सीखूं। इस
तल्लीनता में प्रार्थना उमगती है।
पूछते
हो : 'संसार ने बड़ी क्रूरतापूर्वक...।’
किसको
उत्सुकता है! बड़ी क्रूरतापूर्वक तुम्हारी टल तोड़ दी गुरुत्वाकर्षण ने! तुम्हीं
गिरे होओगे; तुम्हीं ऐसे ढंग से गिरे होओगे!
तुमने
देखा, कभी—कभी ऐसा हो जाता है। एक बैलगाड़ी में एक शराबी चलता हो और एक होश वाला
चलता हो। गाड़ी उलट जाए। होश वाले को चोट लग जाती है, शराबी
को चोट नहीं लगती। मामला क्या है?
तुम
शराबी को रोज देखते हो,
सड़क पर पडे हुए। तुम जरा दों—चार दफे वैसे गिरकर देखो! तुम सदा
अस्पताल में ही रहोगे फिर। और शराबी रोज गिरता है! नाली में गिरता है, सड़क पर गिरता है, इस कोने, उस
कोने। और सुबह तुम देखो, वे फिर मजे से चले जा रहे हैं
दफ्तर। सब ठीक—ठाक है। कहीं कोई अड़चन नहीं है।
शराबी
का गिरने का ढंग......। जब शराबी गिरता है, तो उसे पता नहीं होता कि मैं गिर
रहा हूं। इसलिए गिरने से बचने के कोई उपाय नहीं करता। उपाय न करने के कारण गुरुत्वाकर्षण
उसके विपरीत नहीं पड़ता।
तुम
जब गिरते हो,
तो गिरते वक्त तुम एकदम सम्हल जाते हो। सम्हलने की कोशिश करते हो।
सम्हलने की जितनी कोशिश करते हो, उतनी तुम्हारी हड्डियां
सख्त हो जाती हैं, तनाव से भर जाती हैं। सम्हलते —सम्हलते
गिरते हो, इसलिए चोट खाते हो। छोटे बच्चे रोज गिरते हैं
तुम्हारे घर में; कोई ऐसी खास चोट नहीं खा जाते।
पश्चिम
के एक वैज्ञानिक ने एक प्रयोग किया। एक विश्वविद्यालय में उसने यह प्रयोग किया।
उसके घर में बच्चा पैदा हुआ था, बच्चे का अध्ययन करता था। वह यह सोचकर हैरान
होने लगा कि बच्चा दिनभर में इतना काम करता है, हालांकि सब
बेकाम काम करता है, उसके हिसाब से। मगर इधर दौड़ा; उधर गया। कूदा—फादा। झाडू पर चढ़ा। नाचा। करता ही रहता है कुछ न कुछ।
गुड्डा—गुड्डी यहां से वहा ढोता रहता! इतना काम करता है, इतनी
शक्ति इस छोटे से बच्चे में आती कहां से है?
उसने
एक प्रयोग किया। उसने विश्वविद्यालय में जो पहलवानी में प्रथम आया था युवक, उसको कहा
कि एक प्रयोग मैं करना चाहता हूं, अगर तुम साथ दो। तुम एक
दिन सुबह से लेकर सांझ तक, मेरा बच्चा जो करे, वह करो। बस, इसके पीछे चलो।
वह
सबसे मजबूत आदमी था विश्वविद्यालय में। वह चार घंटे में चारों खाने चित्त होकर पड़
गया! उसने कहा. यह बच्चा तुम्हारा मार डालेगा। सांझ तक मैं बचूंगा नहीं।
और
बच्चे को आ गया मजा! आज कोई आदमी उसके पीछे —पीछे चल रहा है, तो वह और
उछला, और कूदा। उसने देखा कि जो मैं करता हूं, वही यह भी करता है, तब तो उसकी हद्द हो गयी मजे की!
झाड़ पर चढ़ा। टीन पर चढ़ गया। टीन पर से कूद पड़ा। झाडू से कूदा। हजार तरह की कवायदें
करने लगा। उसने चार घंटे में उस पहलवान को पस्त कर दिया।
उसने
कहा, तुम्हारा बच्चा मेरी जान ले लेगा। शाम तक यह प्रयोग नहीं चल सकता। मुझे
क्षमा करो। चार घंटा बहुत है।
बच्चे
में इतनी ऊर्जा कहां से है?
इतने छोटे प्राण, इतनी ऊर्जा! बच्चा अभी तक लड़
नहीं रहा है प्रकृति से; अभी प्रकृति के साथ है।
जब
तक तुम प्रकृति के साथ हो,
तब तक तुम्हारे लिए अपूर्व ऊर्जा मिलती रहेगी। जैसे ही तुम प्रकृति
से अपने को भिन्न समझे, अलग समझे, जैसे
ही अहंकार का जन्म हुआ, बस, वैसे ही
अड़चन है। तुम्हारे अहंकार ने तुम्हारी दुर्दशा की है। यह मत कहो कि 'संसार ने मुझे क्रूरतापूर्वक, बड़ी कठोरता से मेरी
आशाओं पर पानी फेर दिया है।’
तुमने
आशाएं ही ऐसी की होंगी कि कोई उपाय नहीं था; पानी उन पर फिरा ही होगा। और हर एक
आदमी बड़ी आशाएं करता है! आशाएं करने में कोई कंजूस होता ही नहीं। तुम जिससे
पूछो—उसकी आशाएं जरा पूछो—कि दिल खोलकर अपनी आशाएं कहो। तो वह ऐसी आशाएं बताएगा कि
तुम चकित होओगे। सभी की ये पूरी भी कैसे हो सकती हैं!
हिंदुस्तान
में ऐसा कोई आदमी है,
जो प्रधानमंत्री नहीं होना चाहता? कहे,
न कहे; चाहे ऊपर से विनम्रतावश कहे कि
नहीं—नहीं! मगर भीतर गुदगुदी आ जाएगी कि आप पूछ रहे हैं—क्या विचार है! क्या गजब
का विचार है! कैसे पहचाना आपने! यही तो मेरे भीतर उठता रहता है! अपने को किसी तरह
सम्हालकर रखता हूं कि कहीं यह जोर से न पकड़ ले।
अब
यह आदमी अंततः कहेगा एक दिन कि मेरी सारी आशाओं पर पानी फिर गया। कितने लोग
प्रधानमंत्री हो सकते हैं?
और अगर सभी प्रधानमंत्री हो सकें, तो
प्रधानमंत्री कौन होना चाहेगा—यह भी सवाल है!
अगर
मेरा वश चले,
तो मैं एक कानून बना दूं कि सभी प्रधानमंत्री हैं। बात खतम! झगड़ा
खतम! मगर तब कोई नहीं होना चाहेगा। तब लोग कहेंगे : अब इस प्रधानमंत्री होने से
कैसे छूटें! क्योंकि यह सामान्य हो गया। प्रधानमंत्री होने का मजा यह है कि साठ
करोड़ के मुल्क में एक आदमी हो सकता है। साठ करोड़ को हराकर...। उसी हराने में मजा
है।
अब
साठ करोड़ लोग प्रधानमंत्री नहीं हो सकते। तो एक को छोड़कर बाकी दुखी होने वाले
हैं। और कहेंगे,
हमारी आशाओं पर पानी फेर दिया! और तुम यह मत सोचना कि जो
प्रधानमंत्री हो गया, वह सुखी होने वाला है। वह प्रधानमंत्री
होते ही कुछ और सोचने लगता है; कि मैं सारी दुनिया जीत लूं।
कि हिंदुस्तान से क्या होगा। अखंड भारत बना लूं। पाकिस्तान को तो कम से कम हड़प ही
लूं। कि बंगलादेश को तो पी ही जाऊं। कि सिक्किम तो गया; अब
नेपाल; कि अब भूटान। कि कहीं थोड़े हाथ—पैर फैलाऊं। उसकी
आशाओं पर भी पानी फिरने वाला है। वह भी दुखी मरेगा। वह भी सोचेगा : सब आशाओं पर
पानी फिर गया! दुनिया नहीं जीत पाया।
सिकंदर
जैसा आदमी भी दुखी मरता है।
और
यहां कुछ लोग जरूर आनंद से जीते हैं और आनंद से विदा होते हैं। वे बुद्ध जैसे लोग
हैं। वे कोई आशा ही नहीं करते। वे कहते हैं, जो हो जाए, सो
ठीक है। जो न हो, बिलकुल ठीक है। उनको तुम कैसे तोड़ोगे?
उन पर तुम कैसे पानी फेरोगे?
खयाल
रखना, यहां तो हर एक आशाओं से भरा है—हर एक! कल मैं एक गीत पढ़ता था:
खेत के सब्जे में
बेसुध पड़ी है दुबकी
एक पगडंडी की
कुचली हुई अधमुई—सी लाश
तेज कदमों के तले
दर्द से कराहती है
दो किनारों पे जवा
सिट्टों के चेहरे तक कर
चुप—सी रह जाती है
यह सोच के बस
यूं मेरी कोख कुचल
देते न रहगीर अगर
मेरे बेटे भी जवा
हो गए होते अब तक
मेरी बेटी भी तो
व्याहने के काबिल होती।
पगडंडी!
मगर यह बात मुझे प्यारी लगी।
खेत के सब्जे में
बेसुध पड़ी है दुबकी
एक पगडंडी की
कुचली हुई अधमुई—सी लाश
लेकिन
पगडंडी भी ऐसी आशाएं रखती है! सभी रखते हैं।
तेज कदमों के तले
दर्द से कराहती है
दो किनारों पे जवा
सिट्टों के चहरे तक कर
चुप—सी रह जाती है
यह सोच के बस
यूं मेरी कोख कुचल
देते न रहगीर अगर
अगर
राह चलने वालों ने मेरी कोख को कुचल न डाला होता चल—चलकर!
मेरे बेटे भी जवा
हो गए होते अब तक
मेरी बेटी भी तो
व्याहने के काबिल होती।
सभी
के भीतर हजार—हजार कामनाएं हैं, वासनाएं हैं, वे पूरी
नहीं होतीं। पूरी भी हो जाएं, तो कुछ हल नहीं होता। एक पूरी
होती है, तो दस पैदा हो जाती हैं। इस व्यर्थता से जागने का
नाम ही संन्यास है।
और
फिर जब तुम बिना आशा के जीते हो, बुद्ध ने कहा है, जब तुम
निराशा के साथ जीते हो, तभी तुम पहली दफा आनंद से जीते हो।
मगर
निराशा का अर्थ समझ लेना। बुद्ध की निराशा का वही अर्थ नहीं, जो
तुम्हारा होता है। तुम्हारा तो निराशा का अर्थ यह होता है : आशा टूट गयी। बुद्ध की
निराशा का अर्थ है, आशा से मुक्ति हो गयी।
बुद्ध
की निराशा में आशा भी नहीं है, निराशा भी नहीं है। आशा के भाव से छा छुटकारा
हो गया। अब कोई मांग ही नहीं बची। और जब कोई मांग नहीं बचती, तब तुम्हारे भीतर परमात्मा प्रगट होता है। जब कोई प्रार्थना नहीं बचती,
तब परमात्मा प्रगट होता है।
छोड़ो
भिखमंगापन, सम्राट होने की घोषणा करो।
विराट
के साथ एक होकर चलो। विराट के साथ नाचो। इस विराट की रासलीला में सम्मिलित होओ।
अलग— थलग खयाल न रखो। अलग— थलग न चलो। वृक्ष और नदियां और पहाड़ और चांद—तारे
जिसमें जी रहे हैं,
उसमें तुम भी जीओ। तुम भी हरे हो जाओगे। तुम्हारी लाली भी फूल बनकर
प्रगट होगी। तुम्हारा सोना भी प्रगट होगा।
तुम्हारे
जीवन की महिमा निश्चित प्रगट हो सकती है, मगर तुम अपना आपा छोड़ो; मैं — भाव छोड़ो।
इसलिए
बुद्ध ने कहा है : जो अनत्ता को उपलब्ध हो जाए, जो जान ले कि मैं नहीं हूं वही
ब्राह्मण है।
एस
धम्मो सनंतनो।
आज
इतना ही।
ओशो
इति........
thank you guruji
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