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शुक्रवार, 21 अप्रैल 2017

अंतर की खोज-(विविध)-प्रवचन-01

अंतर की खोज-(विविध)
ओशो
पहला-प्रवचन
एक छोटी सी घटना से मैं आज की चर्चा शुरू करूंगा।
एक गांव में एक अपरिचित फकीर का आगमन हुआ था। उस गांव के लोगों ने शुक्रवार के दिन, जो उनके धर्म का दिन था, उस फकीर को मस्जिद में बोलने के लिए आमंत्रित किया। वह फकीर बड़ी खुशी से राजी हो गया। लेकिन मस्जिद में जाने के बाद, जहां कि गांव के बहुत से लोग इकट्ठा हुए थे, उस फकीर ने मंच पर बैठ कर कहा: मेरे मित्रो, मैं जो बोलने को हूं, जिस संबंध में मैं बोलने वाला हूं, क्या तुम्हें पता है वह क्या है? बहुत से लोगों ने एक साथ कहा: नहीं, हमें कुछ भी पता नहीं है। वह फकीर मंच से नीचे उतर आया और उसने कहा: ऐसे अज्ञानियों के बीच बोलना मैं पसंद न करूंगा, जो कुछ भी नहीं जानते। जो कुछ भी नहीं जानते हैं उस विषय के संबंध में जिस पर मुझे बोलना है, उनके साथ कहां से बात शुरू की जाए? इसलिए मैं बात शुरू ही नहीं करूंगा। वह उतरा और वापस चला गया।

वह सभा, वे लोग बड़े हैरान रह गए। ऐसा बोलने वाला उन्होंने कभी देखा न था। लेकिन फिर दूसरा शुक्रवार आया और उन्होंने जाकर उस फकीर से फिर से प्रार्थना की कि आप चलिए बोलने। वह फकीर फिर से राजी हो गया और मंच पर बैठ कर उसने फिर पूछा, मेरे मित्रो, मैं जिस संबंध में बोलने को हूं, क्या तुम्हें पता है वह क्या है? उन सारे लोगों ने कहा: हां, हमें पता है। क्योंकि नहीं कह कर वे पिछली दफा भूल कर चुके थे। उस फकीर ने कहा: तब फिर मैं नहीं बोलूंगा, क्योंकि जब तुम्हें पता है तो मेरे बोलने का कोई प्रयोजन नहीं। जब तुम्हें ज्ञात ही है तो ज्ञानियों के बीच बोलना फिजूल है। वह उतरा और वापस चला गया।
उन गांव के लोगों ने बहुत सोच-विचार कर यह तय किया था कि अब कि बार "नहीं' कोई भी नहीं कहेगा, लेकिन हां भी फिजूल चली गई।
तीसरा शुक्रवार आया। वे सारे लोग फिर उस फकीर के पास गए और उन्होंने कहा कि चलें और हमें उपदेश दें, वह फकीर फिर राजी हो गया। वह मंच पर आकर बैठा और उसने पूछा, मेरे मित्रो, क्या तुम्हें पता है मैं क्या बोलने वाला हूं? उन लोगों ने कहा: कुछ को पता है और कुछ को पता नहीं है। उस फकीर ने कहा: तब जिनको पता है वे उनको बता दें जिनको पता नहीं है। मेरा क्या काम है। वह उतरा और वापस चला गया।
चौथे शुक्रवार को उस गांव के लोगों ने हिम्मत नहीं की कि उस फकीर को फिर से आमंत्रण दें। क्योंकि उनके पास चौथा कोई उत्तर ही न था। तीन उत्तर थे और तीनों समाप्त हो गए थे और तीनों व्यर्थ हो गए थे।
अगर आज मैं भी आपसे यह कहूं, तो आपके पास चौथा उत्तर है? चौथा उत्तर क्या हो सकता है? और अगर चौथा उत्तर न हो, तो एक रास्ता तो यह है कि उस फकीर की भांति मैं भी उठूं और चला जाऊं और आपसे कहूं कि बोलने का कोई मतलब नहीं है और या फिर चौथा उत्तर मैं आपको बताऊं?
मैं उस फकीर जैसा कठोर नहीं हूं, इसलिए नहीं जाऊंगा। उस संबंध में निश्चिंत रहें। और चौथा उत्तर क्या हो सकता है, उस संबंध में आज आपसे मैं बात करूंगा। यह चौथा उत्तर न केवल जो मैं कहूंगा उसे समझने के लिए जरूरी है, बल्कि जीवन को, सत्य को जानने के लिए भी वही चौथा उत्तर जरूरी है। परमात्मा की खोज में भी वही चौथा उत्तर जरूरी है। आनंद की तलाश में भी वही चौथा उत्तर जरूरी है।
काश, उस मस्जिद के लोगों ने वह चौथा उत्तर दिया होता। लेकिन जमीन पर कोई ऐसी मस्जिद और मंदिर नहीं है जहां वह चौथा उत्तर मिल सके। इसलिए वहां भी नहीं मिला।
वह चौथा उत्तर क्या है? जो कि यदि दिया गया होता, तो वह फकीर उस दिन वहां बोलता और लोगों से अपने हृदय की बातें कहता। क्या ये तीन ही उत्तर हो सकते थे? क्या यह नहीं हो सकता था कि वे सारे लोग कोई भी उत्तर न देते और चुप रह जाते? वह चौथा उत्तर होता। वे कोई भी उत्तर न देते और चुप रह जाते। वह चुप रह जाना चौथा उत्तर होता। और जो चुप रह जाने में समर्थ है, वह उस बात को भी समझ सकेगा, जो कही जा रही है। और उस जीवन को भी समझ सकेगा, जो हमारे चारों ओर मौजूद है। लेकिन हममें से चुप रहने में कोई भी समर्थ नहीं है। हम बोलने में समर्थ हैं लेकिन चुप रहने में समर्थ नहीं। हम शब्दों के साथ खेलने में समर्थ हैं लेकिन मौन रह जाने में नहीं। और इसीलिए शायद हम जीवन को गंवा देते हैं।
जो जीवन हमारे चारों तरफ मौजूद है, चाहे उसे कोई परमात्मा कहे और जो जीवन हमारे भीतर मौजूद है, चाहे कोई उसे आत्मा कहे। हम उस जीवन को जानने से वंचित रह जाते हैं क्योंकि हम चुप होने में समर्थ नहीं। जानने के लिए चाहिए साइलेंट माइंड, जानने के लिए चाहिए मौन, जानने के लिए चाहिए एक ऐसा मन जो बिलकुल चुप हो सके। लेकिन हम बोलते हैं, बोलते हैं। जागते हैं तब भी और सोते हैं तब भी। किसी से बात करते हैं तब भी और नहीं बात करते हैं तब भी हमारे भीतर बोलना चल रहा है। यह जो चैटरिंग है, यह जो निरंतर बोलना है, ये जो निरंतर शब्द ही शब्द हैं, इन शब्दों और शब्दों में हमारा मन उस सामर्थ्य को खो देता है, उस शक्ति को खो देता है, उस शांति को खो देता है, उस दर्पण को खो देता है, जिसमें कि जीवन को जाना और जीया जा सकता है। लेकिन शायद हमें इसका कोई स्मरण भी नहीं है।
क्या कभी हमें यह खयाल आया कि जैसे समुद्र लहरों से भरा हो, तूफान में हो; झील लहरों से भरी हो, आंधी आ गई हो, तो उस झील में फिर चांद दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। क्या हमारे मन भी निरंतर आंधियों से भरे हुए नहीं हैं? क्या निरंतर उनमें भी शब्दों की हवाएं और शब्दों के तूफान नहीं उठ आते? क्या कभी एक क्षण को भी वहां शांति होती है? सब मौन होता है? नहीं होता है। और इसके कारण कुछ, कुछ बात घटित हो जाती है, जो हमारे और जीवन के बीच एक दीवाल बन जाती है और हम जीवन को नहीं जान पाते। और फिर इसी मन को लेकर हम खोजने निकलते हैं। शास्त्रों में खोजते हैं। इसी मन को लेकर हम पहाड़ों पर जाते हैं। इसी मन को लेकर हम मंदिरों में जाते हैं। लेकिन मन हमारा यही है जो शब्दों से भरा हुआ है। और कभी हमें यह खयाल भी पैदा नहीं होता कि यह मन जो इतना ज्यादा भरा हुआ है, इतना ज्यादा व्यस्त, इतना आक्युपाइड है, इतना-इतना शब्दों से दबा है, इतने शोरगुल से भरा है, यह क्या जानने में समर्थ हो सकता है? जानने के लिए इसके भीतर अवकाश कहां? स्पेस कहां? जगह कहां? स्थान कहां? जहां कोई नया सत्य प्रवेश कर सके, कोई नई बात सुनी जा सके, कोई नया तथ्य देखा जा सके। जगह कहां है? मन खाली कहां है? मन है भरा हुआ।
उस फकीर ने यही उन लोगों से पूछा था और उनमें से एक भी व्यक्ति इस बात की गवाही न दे सका कि वह चुप होने में समर्थ है, मौन रह जाने में समर्थ है। और तब उस फकीर ने ठीक ही किया कि उनसे वह कुछ कहने को राजी न हुआ। उसका कहा हुआ व्यर्थ होता। वहां सुनने वाला कोई मौजूद ही नहीं था। आप यहां मौजूद हैं, लेकिन केवल वही सुन पाएगा, जो चुप होगा, मौन होगा। और जो अपने भीतर बोल रहा है, वह कैसे सुन सकेगा? और जो अपने भीतर बातें कर रहा है, उसके भीतर कोई दूसरे शब्द कैसे पहुंच पाएंगे?
साइलेंस, एक शांति, चौथा उत्तर है। वह कैसे हमारे भीतर पैदा हो सकता है, उसकी मैं आज आपसे बात करूंगा।
इसके पहले कि मैं इस संबंध में कुछ कहूं कि हमारे भीतर मौन कैसे पैदा हो सकता है, जो कि सत्य को जानने का द्वार है और मार्ग है, यह जान लेना जरूरी होगा कि हमारे भीतर इतने शब्द कैसे इकट्ठे हो गए? शायद इस बात को जानने से ही, कितने शब्द हमारे भीतर कैसे इकट्ठे हो गए हों, हम उन्हें निकालने में भी समर्थ हो जाएं।
पहली बात, शब्द इकट्ठे हुए नहीं हैं, हमने उन्हें इकट्ठा किया है। क्योंकि अगर वे इकट्ठे हुए होते, तो हम उन्हें दूर भी नहीं कर सकते थे। हमने उन्हें इकट्ठा किया है। हम चौबीस घंटे उन्हें इकट्ठा कर रहे हैं। हम चौबीस घंटे सब तरफ से उनको ढूंढ कर ला रहे हैं। शायद हमें यह खयाल है कि जितने ज्यादा शब्द होंगे हमारे पास, उतना ही बड़ा हमारा ज्ञान हो जाएगा। शायद हमें खयाल है कि बहुत शब्दों का जो मालिक है, वह ज्ञान का भी मालिक हो जाता है। शायद हमें खयाल है कि शब्द जिसके पास हैं, उसके पास कोई आंतरिक संपदा हो गई है। इन्हीं शब्दों, इन्हीं शब्दों के संग्रह को हमें बताया गया है कि ज्ञान है और हमने इन्हीं शब्दों को इकट्ठा करके अपने को भी विश्वास दिला लिया है कि हम कुछ जानते हैं।
लेकिन अगर हम कुछ भी शब्दों को उठा कर देखें और खोज करें, तो हमें भ्रम दिखाई पड़ जाएगा। ईश्वर, आत्मा, मोक्ष, प्रेम, सत्य, अहिंसा, इन शब्दों में हम सभी शब्दों से परिचित हैं। लेकिन इनमें से एक भी शब्द को उठा कर उसे थोड़ा खोजें, तो हमें पता चलेगा कि उस शब्द के भीतर हमारे पास कोई अनुभव नहीं है।
ईश्वर, इस शब्द को थोड़ा सोचें। इस शब्द के साथ आपकी कौनसी अनुभूति जुड़ी है? यह कोरा शब्द है या कोई अनुभव भी पीछे है? आत्मा, इसके साथ कौनसा अनुभव है हमारा? कौनसी हमारी अपनी प्रतीति है? कौन सा एक्सपीरिएंस है? या कि एक कोरा शब्द है? जब मैं कहता हूं, मकान; जब मैं कहता हूं, वृक्ष, तब शब्द नहीं होता हमारे पास, पीछे एक अनुभूति भी होती है। जब मैं कहता हूं, घोड़ा, तो शब्द ही नहीं होता, घोड़े का एक अनुभव भी होता है। लेकिन जब मैं कहता हूं, आत्मा; जब मैं कहता हूं, ईश्वर, तब हमारे पास क्या है? हमारे पास केवल एक शब्द है थोथा और खाली, जिसमें कोई हमारा अनुभव नहीं है, जिसमें हमारा कोई जानना नहीं है।
मनुष्य के पास दो तरह के शब्द हैं। एक तो वे शब्द हैं, जो उसके अनुभव से निर्मित हुए हैं और एक वे शब्द हैं, जिनके साथ उसका कोई अनुभव नहीं है। धर्म और दर्शन और फिलासफी के संबंध में हम जो कुछ जानते हैं, वे दूसरे तरह के शब्द हैं, जिनके साथ हमारा कोई अनुभव नहीं है। और उन शब्दों के आधार पर, जो बिलकुल निष्प्राण, जो बिलकुल डेड और मुर्दा हैं--जो वैसे ही हैं, जैसे एक कवि एक समुद्र के किनारे था। वहां बड़ी सुखद हवाएं थीं, बड़ी शीतल हवाएं थीं, और वहां उसने सोचा कि उन हवाओं को वह अपनी प्रेयसी के पास भी पहुंचा दे। लेकिन उसकी प्रेयसी तो हजारों मील दूर एक अस्पताल में बीमार थी। तो उसने एक बहुत सुंदर संदूक में उस समुद्र की हवाओं को बंद किया और उस संदूक को अपनी प्रेयसी के पास पहुंचा दिया। और एक पत्र लिखा कि समुद्र के किनारे इतनी सुंदर हवाएं हैं, इतनी शीतल, इतनी आनंददायी कि मेरा मन होता है कि उन्हें तुम्हें मैं भेंट भेजूं। तो इस छोटी सी पेटी में थोड़ी सी हवाएं बंद करके भेज रहा हूं। तुम उन हवाओं को पाकर प्रसन्न हो जाओगी। लिखना मुझे, हवाएं तुम्हें कैसी लगीं? वह पेटी पहुंची। उसकी प्रेयसी ने वह पत्र पढ़ा और उस पेटी को खोला, लेकिन उसके भीतर तो कुछ भी नहीं था।
समुद्र की हवाओं को पेटियों में नहीं भरा जा सकता है। समुद्र की हवाओं को जानना हो, तो उन्हें अपने घर तक लाने का कोई उपाय नहीं है। खुद हमें ही समुद्र के किनारे जाना पड़ेगा। यह नहीं हो सकता है कि मेरा कोई मित्र पेटियों में भर कर उन्हें मेरे पास भेज दे। हां, यह हो सकता है कि मैं खुद समुद्र के किनारे जाऊं और जानूं। ताजी हवाओं को पेटियों में भरते से ही वे मुर्दा हो जाएंगी। उनकी सारी ताजगी चली जाएगी। उसके पास पेटी तो पहुंची लेकिन हवाएं नहीं पहुंचीं। उसने बहुत खोजा उस पेटी में, लेकिन वहां कोई हवाएं नहीं थीं।
हमारे पास भी शब्द पहुंच जाते हैं, अनुभूतियां नहीं पहुंचतीं। सत्य के किनारे पर जो अनुभव किया जाता है, उसे सत्य के किनारे पर ही जाकर अनुभव किया जा सकता है। कोई अनुभव करे और शब्द हमारे पास पहुंचा दे, वे शब्द हमारे पास खाली पेटियों की भांति पहुंचते हैं, उनमें कोई हवाएं नहीं होतीं। और उन्हीं शब्दों को हम इकट्ठा कर लेते हैं; और उन्हीं शब्दों के हम मालिक बन जाते हैं; और उन्हीं शब्दों के आधार पर हम जीना शुरू कर देते हैं। वे शब्द ही झूठे हो चुके हैं। हमारा जीवन भी उनके साथ झूठा हो जाता है। और उन्हीं शब्दों के आधार पर हम जीवन के प्रश्नों के उत्तर देने लगते हैं।
अगर कोई पूछे, ईश्वर है? तो हम कोई उत्तर जरूर देंगे। जैसा उस मस्जिद के लोगों ने उत्तर दिया। अगर कोई पूछे, आत्मा है? तो हम उत्तर जरूर देंगे। अगर कोई पूछे, सत्य क्या है? तो हम उत्तर जरूर देंगे। और हममें से इतना समर्थ कोई भी नहीं होगा, जो चुप रह जाए और इस बात को अनुभव करे कि मेरे पास थोथे शब्दों के सिवाय और क्या है? तो मैं कैसे उत्तर दूं? लेकिन जो आदमी चुप रह जाएगा, उसने सत्य की तरफ, जानने की तरफ, पहला कदम उठा लिया। उसने सत्य की तरफ यात्रा का पहला कदम उठा लिया, क्योंकि वह शब्दों की व्यर्थता को जान गया है। और जो शब्दों की व्यर्थता को जान जाता है, वही सत्य तक जाने की खोज कर सकता है। लेकिन जो शब्दों से तृप्त हो जाता है, उसकी तो खोज बंद हो जाती है। और हम सारे लोगों की खोज बंद है।
कोई एक तरह के शब्दों से तृप्त हो गया है; कोई दूसरे तरह के शब्दों से तृप्त हो गया है। कोई हिंदू होने से; कोई मुसलमान होने से; कोई जैन होने से। यह सब होना क्या है? यह शब्दों से तृप्त हो जाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। हमने कुछ उत्तर स्वीकार कर लिए हैं। और जो आदमी कुछ उत्तर स्वीकार कर लेता है, उसका मन मुर्दा हो जाता है, उसकी खोज बंद हो जाती है। मुर्दा मन शब्दों से भरा हुआ होता है। ताजा मन शब्दों से नहीं; जिज्ञासा से, इंक्वायरी से। मुर्दा मन का लक्षण है: उसके पास सब उत्तर बंधे हुए तैयार होते हैं। जीवित मन का लक्षण है: उसके पास प्रश्न तो होते हैं लेकिन उत्तर नहीं होते। उसके पास जिज्ञासा तो होती है, खोज की आकांक्षा और प्यास तो होती है लेकिन उत्तर नहीं होते। और जिसके पास उत्तर नहीं हैं और प्रश्न हैं, उसका मन अचानक चुप हो जाता है, मौन हो जाता है।
मौन हो जाने का पहला सूत्र है: उत्तरों से मुक्त हो जाइए। लेकिन हमारी हालत बिलकुल उलटी है। हमारे पास प्रश्न कम हैं, उत्तर ज्यादा हैं। जिसके पास प्रश्न नहीं हैं और उत्तर हैं, उस आदमी ने खोज बंद कर दी। वह तृप्त हो गया, वह रुक गया। और जीवन सतत मांग करता है आगे बढ़ो; और जीवन पुकारता है आगे आओ; और जीवन कहता है कहीं रुक मत जाना क्योंकि रुकने के सिवाय मृत्यु और कुछ भी नहीं। लेकिन जो सतत बढ़ता है और कहीं रुकता नहीं--उस सातत्य में, उस निरंतर बढ़ते जाने में ही, जीवन और उसके कदम एक साथ बढ़ने लगते हैं। और एक दिन आता है कि जीवन की जो सतत प्रवाहमान धारा है, वह जो जीवन की गंगा है, वह उसके साथ एक हो जाता है। जीवन ठहरा हुआ नहीं है, लेकिन हमारे मन ठहरे हुए हैं। जीवन तो निरंतर, सतत आगे जा रहा है, प्रतिक्षण बहा जा रहा है
हेराक्लतु ने कोई दो हजार वर्ष पहले यूनान में कहा था: नदी में दुबारा नहीं उतर सकते। एक ही नदी में दुबारा नहीं उतर सकते। उसने जीवन की नदी के बाबत कहा था। नदी तो बही जाती है। आज उतरे हैं उसमें, कल उसी नदी में नहीं उतर सकेंगे। वह नदी आगे चली गई, दूसरे पानी ने जगह ले ली होगी। मैं तो कहता हूं, एक ही नदी में एक बार भी उतरना बहुत कठिन है। क्योंकि जब तक पैर नदी के पानी को छुएगा, नीचे का पानी बह गया। जब पानी में पैर नीचे जाएगा, तब तक ऊपर का पानी बह गया। जीवन तो बहाव है, लेकिन मनुष्य का मन ठहराव बन जाता है। और जो मन ठहर जाता है, वह जीवन से उसका संपर्क टूट जाता है, संबंध टूट जाता है। फिर वह कितना ही राम-नाम जपे और शास्त्र पढ़े, उसे कहीं परमात्मा की कोई झलक उपलब्ध न हो सकेगी, क्योंकि परमात्मा तो जीवन में व्याप्त है, जीवन का ही दूसरा नाम परमात्मा है।
जीवन से संबंध जोड़ना है, तो मुर्दा मन से संबंध तोड़ना पड़ेगा। और शब्दों से भरा हुआ मन डेड हो जाता है, मुर्दा हो जाता है। हम सबके मन मरे हुए मन हैं, जीवित मन नहीं हैं। जीवित मन के लिए चाहिए, जहां-जहां मन ठहर गया हो, वहां-वहां से हम मन को मुक्त कर लें। जहां-जहां मन रुक गया हो, वहां-वहां से हम उसे छोड़ दें। जिन-जिन किनारों को उसने जोर से पकड़ लिया हो, उन-उन किनारों को हम छोड़ दें, ताकि बहाव पैदा हो सके, ताकि मन भी एक गति पा सके, डाइनैमिक हो सके, डेड न रह जाए, परिवर्तन पा सके, प्रवाह पा सके। जितना प्रवाह मन में आएगा, उतना ही मन शांत होता जाएगा। मन की यह जो अशांति है, यह इसीलिए है कि मन को हम रोक कर बंद किए हुए हैं और सारा जीवन बहा जा रहा है। मन तड़प रहा है मुक्त होने को, लेकिन हम उसे बांधे हुए हैं। मन स्वतंत्र होने को पीड़ित है और हम उसे बांधे हुए हैं। और बांधे हुए हम किस चीज से? कोई लोहे की जंजीरें नहीं हैं, शब्दों की जंजीरें हैं। और शब्द इतनी अदभुत जंजीर बन जाते हैं कि आंखें बंद हो जाती हैं, कान बंद हो जाते हैं, हृदय बंद हो जाता है। एक शब्द सब कुछ बंद कर सकता है।
हिंदुस्तान में चार हजार, पांच हजार वर्षों से हम करोड़ों शूद्रों को सता रहे हैं, परेशान कर रहे हैं। क्यों? एक शब्द हमने ईजाद कर लिया, शूद्र। बस एक शब्द ईजाद कर लिया "शूद्र' और कुछ लोगों पर हमने चिपका दिया कि ये शूद्र हैं। फिर हमारी आंखें बंद हो गईं; फिर हम उनके कष्ट नहीं देख सके। क्योंकि शूद्र, दरवाजा बंद हो गया। फिर हम उनकी पीड़ाएं अनुभव नहीं कर सके, फिर हमारा हृदय उनके प्रति प्रेम से प्रवाहित नहीं हो सका। एक शब्द हमने चिपका दिया, शूद्र। एक ईजाद कर लिया शब्द। और उस शब्द के आधार पर हम पांच हजार साल से करोड़-करोड़ लोगों को परेशान कर रहे हैं। और हमें यह खयाल भी पैदा नहीं हुआ कि हम यह क्या कर रहे हैं? इसलिए खयाल पैदा नहीं हुआ क्योंकि जिसे हमने शूद्र कह दिया, वह हमारे लिए मनुष्य ही नहीं रह गया। उसका मनुष्यों से कोई संबंध नहीं रह गया। एक शब्द खड़ा हो गया शूद्र और मनुष्य और मनुष्य अलग हो गए। वह ठीक हमारे जैसा व्यक्ति दूसरी तरफ मनुष्यों के बाहर हो गया।
अगर उसने वेद की ऋचाएं सुन लीं, तो हमने उसके कान में शीशा पिघलवा कर भरवा दिया; क्योंकि वह सुनने का हकदार न था, वह शूद्र था। हमें यह खयाल भी न आया, उसके भीतर भी हमारे जैसी एक आत्मा है, जो सत्य की खोज करना चाहती है। और अगर उसने वेद को सुनने की हिम्मत की है, आकांक्षा की है, तो यह स्वागत के योग्य बात है। नहीं, यह हमें खयाल नहीं आया। एक शब्द काफी था कि वह शूद्र है और बात खत्म हो गई। हमारे कान बंद हो गए, हमारे प्राण बंद हो गए, हमारे हृदय बंद हो गए। हमने हजारों शब्द ईजाद कर लिए हैं और वे दीवाल की तरह खड़े हुए हैं।
मैं एक घर में मेहमान था। उस घर के लोगों ने मेरे साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया। वे मुझे बड़े प्रेम से दो दिन अपने घर में रखे। चलने के कोई दो घंटे पहले उस घर के मालिक ने मुझसे पूछा, आपकी जाति क्या है? उन्हें मेरी जाति का कोई पता नहीं था। और मेरी कोई जाति है भी नहीं, पता हो तो कैसे हो? तो मैंने उनसे मजाक में ही कहा कि आप खुद ही सोचें कि मेरी जाति क्या हो सकती है? उनके घर में एक छोटा सा बच्चा था, उसने मेरी दाढ़ी वगैरह देख कर कहा कि कहीं आप मुसलमान तो नहीं? मैंने कहा कि अगर तुम कहते हो तो यही सही, मुसलमान ही सही। उस घर में बड़ी चिंता फैल गई। उन सबका मेरे प्रति रुख बदल गया। वह दो घंटे मैं दूसरा आदमी हो गया। उसके पहले मैं दूसरा आदमी था। एक शब्द बीच में आ गया "मुसलमान' और मैं दूसरा आदमी हो गया। मैं वही था, जो दो दिन से था, लेकिन वे बीते दो घंटे भिन्न हो गए। आते वक्त उन्होंने मेरे पैर पड़े थे, जाते वक्त उस घर में किसी ने मेरे पैर नहीं पड़े। एक शब्द बीच में आ गया। आते वक्त वे खुशी से भरे थे, जाने के बाद शायद उन्होंने अपना घर साफ किया हो। किया जरूर होगा, सफाई की होगी--एक मुसलमान घर में आ गया। मैं वही था, लेकिन एक शब्द बीच में आ गया और सारी बात बदल गई।
हमने न मालूम कितने शब्द खड़े किए हुए हैं जो दीवाल की तरह एक-दूसरे मनुष्य को अलग कर रहे हैं। और मनुष्य को ही अलग नहीं कर रहे हैं, हमारी आंखों को भी अंधा कर रहे हैं, हमारे प्राणों को भी बहरा कर रहे हैं, हमारी संवेदनशीलता को तोड़ रहे हैं।
जर्मनी में हिटलर ने कोई बीस लाख यहूदियों की हत्या करवाई। कौन लोगों ने हत्या की? वे लोग कोई बहुत बुरे लोग हैं? वे हम जैसे ही लोग हैं। पांच सौ यहूदी रोज नियमित हत्या किए जाते रहे। कौन लोग हत्या कर रहे थे उनकी? वे कोई पागल हैं? उनके दिमाग खराब हैं? या कि वे कोई दैत्य हैं, राक्षस हैं? नहीं, हमारे जैसे लोग हैं। सब बातें हमारे जैसी हैं। लेकिन एक शब्द यहूदी, और उस शब्द के साथ उनके प्राण पागल हो गए और उन्होंने वह किया जो आदमी को करने में जरा भी शोभा नहीं देता।
हमने अपने मुल्क में क्या किया? हिंदुओं ने मुसलमानों के साथ क्या किया? मुसलमानों ने हिंदुओं के साथ क्या किया? छोड़ दें हिंदू-मुसलमान की बात, महाराष्ट्रियन गुजराती के साथ क्या कर सकता है? गुजराती महाराष्ट्रियन के साथ क्या कर सकता है? हिंदी बोलने वाला गैर-हिंदी बोलने वाले के साथ क्या कर सकता है? गैर-हिंदी बोलने वाला हिंदी बोलने वाले के साथ क्या कर सकता है? कुछ शब्द और उन शब्दों में जहर भरा जा सकता है और हमारे प्राण बिलकुल ही पागल हो सकते हैं। ऐसे बहुत से शब्दों की दीवाल हमने खड़ी कर ली है। इन शब्दों की दीवालों में जो घिरा है, वह आदमी कभी भी धार्मिक नहीं हो सकता।
शब्दों से मुक्त होना चाहिए। तो एक तो शब्द हैं, दीवाल की तरह मनुष्य-मनुष्य को तोड़ रहे हैं और साथ ही ये शब्द जीवन के प्रति भी हमारी आंखों को नहीं खुलने देते, वहां भी आंखों को बंद रखते हैं। हम शायद सब तरफ शब्दों को खड़ा कर लेते हैं। अपने चारों तरफ एक किला बना लेते हैं शब्दों का और उसके भीतर छिप जाते हैं। और जब भी जीवन में कोई अनहोनी और नई घटना घटती है, तो हम पुराने शब्दों से उसकी व्याख्या कर लेते हैं, और उसका नयापन समाप्त हो जाता है और खत्म हो जाता है।
यह जो हमारी स्थिति है यह हमें चुप नहीं होने देती, मौन नहीं होने देती, ताजा नहीं होने देती। वह जो मस्तिष्क है, उसको फ्रेश और नया नहीं होने देती। और नया मस्तिष्क न हो, तो कैसे जीवन से हम जुड़ सकें? कैसे जीवन को जान सकें? और शांत मन न हो, तो कैसे हम सत्य को जान सकें? और दीवालें न टूटें, तो हम कैसे मनुष्य से जुड़ सकें? दूर हैं पशु और पक्षी तो, दूर हैं पौधे, दूर है आकाश, दूर हैं आकाश के तारे, आदमी से ही हम नहीं जुड़ पा रहे हैं, तो हम परमात्मा से जुड़ने की बात कैसे करें?
यहां इतने लोग बैठे हैं। हम सबके बीच में दीवालें खड़ी होंगी, न मालूम किस-किस किस्म की। और उन सब दीवालों की ईंटें शब्दों से बनी हुई हैं, कोई लोहे से नहीं बनी हुईं। उन्हें तोड़ देने में जरा भी कठिनाई नहीं है। एक हाथ का धक्का, एक हवा का झोंका काफी होगा और वे गिर जाएंगी और आप एक नये मनुष्य होकर खड़े हो जाएंगे। अपने चारों तरफ से शब्दों की दीवाल हटा देनी जरूरी है। तो शायद हमारे भीतर जानने की क्षमता पैदा हो सके, सुनने की क्षमता पैदा हो सके, और शायद हमारे द्वार खुल सकें, और हमारे जो भीतर चारों तरफ जीवन है, वह प्रवेश कर सके। अभी तो वह कहीं से भी प्रवेश नहीं कर पाता है।
ऐसे ही शब्द--सत्य और आत्मा और ईश्वर और मोक्ष हमने सीख रखे हैं और उन्हें हम तोतों की भांति रटते रहते हैं और सोचते हैं कि शायद उन्हीं के द्वारा हमारे जीवन में आनंद आ जाएगा, शायद मुक्ति आ जाएगी, शायद अमृत की उपलब्धि हो जाएगी। नहीं होगी। रटते रहें तोतों की भांति हम जीवन भर। जीवन रटने से उपलब्ध नहीं होता। बल्कि रटने वाला, रिपीट करने वाला जो मन है, वह धीरे-धीरे जड़ हो जाता है, धीरे-धीरे और ज्यादा डलनेस पैदा हो जाती है, और ज्यादा मुर्दा हो जाता है और मर जाता है।
क्या करें? कैसे यह दीवाल टूट जाए? पहली बात, इस बात का हमें स्पष्ट बोध हो जाना चाहिए कि ये शब्द दीवाल बना रहे हैं। क्योंकि अगर कोई आदमी कारागृह में बंद हो, जेल में बंद हो और उसे यह भी पता न हो कि वह जेल में बंद है, तो वह छूटने का उपाय ही नहीं करेगा। अगर उसे यह भी पता न हो कि मैं जेल के भीतर बंद हूं, तो छूटने का सवाल ही नहीं है, मुक्ति के प्रयास का प्रयत्न भी नहीं होगा, प्रश्न भी नहीं होगा। कारागृह से छूटने के लिए पहली बात तो जरूरी है कि वह जान ले कि मैं कारागृह में बंद हूं। अगर यह अनुभव में आ जाए कि मैं कारागृह में बंद हूं, तो जिन दीवालों को उसने कल तक सजाया था और चित्र लगाए थे और फूल लगाए थे, वे दीवालें उसे शत्रु की भांति मालूम होने लगेंगी। वह उनकी सजावट बंद कर देगा और उनको तोड़ने का उपाय करेगा।
हम शब्दों की दीवालों को कारागृह अगर न मानते हों, तो हम शब्दों की दीवालों को और सजावट करते हैं और उस पर फूल लगाते हैं, इत्र छिड?कते हैं। उन शब्दों की हम पूजा करते हैं और उन शब्दों का हम और स्वागत करते हैं, तो दीवाल और बड़ी होती चली जाती है। हम सब अपने-अपने कारागृह को सजाने में लगे हुए हैं, तो उससे मुक्त होने का तो सवाल ही नहीं। हिंदू या मुसलमान शब्द कारागृह हैं। लेकिन हम तो हिंदू, जैन, मुसलमान, इन शब्दों को ऊंचा उठाने में लगे हैं। हम तो इस बात में लगे हुए हैं कि दुनिया में हिंदू धर्म का झंडा गड़ जाए, या ईसाई धर्म का झंडा गड़ जाए, या जैन धर्म का झंडा गड़ जाए। और हम तो जयजयकार करने की कोशिश में लगे हैं कि हिंदू धर्म की जय हो, मुसलमान धर्म की जय हो। हमारा झंडा गड़ जाए। और हम तो इसकी घोषणा करने में लगे हैं कि हिंदू धर्म महान धर्म है और बाकी सब छोटे धर्म हैं। और इस्लाम ही असली धर्म है, बाकी सब झूठे हैं। और क्राइस्ट के सिवाय और कोई मुक्तिदाता नहीं है। इस तरह की बातें जो लोग कह रहे हैं, इस तरह की घोषणाएं जो लोग कर रहे हैं, वे तो अपने कारागृह को सजा रहे हैं, वे उसे तोड़ेंगे कैसे?
हम तो सारे लोग अपने-अपने शब्दों की पूजा करने में लगे हैं और हमने तो शब्दों के लिए मंदिर बना रखे हैं और हम लोगों को इकट्ठा कर रहे हैं उन शब्दों की रक्षा के लिए, संगठन बना रहे हैं। उन शब्दों की रक्षा के लिए हत्या करने के लिए हम तैयार हैं, उन शब्दों की रक्षा के लिए चाहे आदमी को मारना पड़े, हम मारने को राजी हैं। हमारी किताबें यह कर रही हैं। हमारे ग्रंथ यह कर रहे हैं। हमारा प्रचार यह कर रहा है। सारी दुनिया में धर्म के नाम पर शब्दों के झंडे गड़ाने की कोशिश की जा रही है, चाहे उनके आस-पास कितने ही आदमियों की हत्या हो जाए। और आज तक हत्या होती रही है, और आज भी हत्या हो रही है, और कल के लिए भी कुछ नहीं कहा जा सकता। अगर आदमी ऐसा ही रहा, तो कुछ भी हो सकता है।
पुराने शब्द फीके पड़ जाते हैं तो हम नये शब्द पकड़ लेते हैं। महावीर पर आज लड़ाई होनी बंद हो गई, शायद मोहम्मद पर भी लड़ाई होनी करीब-करीब बंद हो गई, तो नये नाम आ गए हैं। माक्र्स नया नाम है। इस पर लड़ाई शुरू हो गई। कम्युनिज्म नया शब्द है, इस्लाम-हिंदू पुराने पड़ गए, अब इस पर लड़ाई शुरू हो गई। अब सारी दुनिया में कम्युनिज्म एक शब्द है, जिस पर लड़ाई खड़ी हुई है। नई आइडियालॉजी खड़ी हो गईं, जिन पर हम लड़ेंगे और हत्या करेंगे। अमरीका नये शब्दों को पकड़े हुए बैठा है, रूस नये शब्दों को पकड़े हुए बैठा है। नये शब्दों पर लड़ाई हो रही है। और लड़ाई यहां तक पहुंच सकती है कि शायद सारी मनुष्य-जाति को समाप्त हो जाना पड़े। किस बात पर? इस बात पर कि कुछ शब्द हमको प्रिय थे, और कुछ शब्द आपको प्रिय थे और हम अपने शब्दों को छोड़ने को राजी नहीं थे और आप अपने शब्दों को छोड़ने को राजी नहीं थे।
क्या आदमी अपने इस बचकानेपन से मुक्त नहीं होगा? क्या ये बच्चों जैसी बातें और शब्दों की लड़ाइयां बंद नहीं होंगी? ये तब तक बंद नहीं होंगी, जब तक हम शब्दों को आदर और पूजा देते रहेंगे। क्योंकि जिसको हम पूजा देते हैं, उससे हम छुटकारा कैसे पा सकते हैं? छुटकारा पाने के लिए पहली बात जरूरी है, शब्द कारागृह हैं और उनका ज्ञान हमें मुक्त नहीं करता बल्कि बांधता है, यह जान लेना जरूरी है। इसको जानते ही आपके भीतर से दीवाल गिरनी शुरू हो जाएगी। वह जो शब्दों का भवन है, वह खिसकना शुरू हो जाएगा। उसकी आधारशिला खींच ली गई। वह आधारशिला हमने अपने प्रेम से रखी है, पूजा से रखी है। अगर हम अपने पूजा और प्रेम को अलग कर लेते हैं, वह गिर जाएगी। एक ऐसी दुनिया चाहिए जिसमें आदमी तो हों लेकिन हिंदू और मुसलमान न हों। ये बहुत कलंक के दाग हैं। एक ऐसी दुनिया तो चाहिए, जिसमें सोच-विचारशील लोग हों लेकिन शब्दों को पकड़ने वाले पागल नहीं। एक ऐसी दुनिया चाहिए, जहां आदमी-आदमी के बीच शब्दों की कोई दीवाल न रह जाए, तो शायद धर्म का राज्य शुरू हो सकता है। तो शायद व्यक्ति के जीवन में और समूह के जीवन में भी धर्म का अवतरण हो सकता है। उसके पहले नहीं हो सकता। उसके पहले कोई रास्ता नहीं है। इधर पांच हजार वर्षों में हमने शब्दों के जाल खड़े किए हैं और खुद उसमें फंस गए हैं। अब कौन इसको तोड़े? कुछ लोग अगर हिम्मत नहीं करेंगे, तो शायद यह शब्दों का जाल हमारी फांसी बन जाएगा और हमारा बचना मुश्किल हो जाएगा।
और कितने आश्चर्य की बात है कि पांच हजार साल का इतिहास देखने के बाद भी हम शब्दों के प्रति जागरूक नहीं हो रहे हैं कि हमने क्या किया? हमें खयाल में भी नहीं आ रहा है कि इन शब्दों ने हमारे साथ क्या किया? और हमें किस स्थिति में पहुंचा दिया? एक-एक व्यक्ति के भीतर भी यह जाल है और सबके बाहर भी यह जाल है। हरेक को अपने भीतर इस जाल को तोड़ने में लगना होगा। तो ही उसके भीतर वह साइलेंस पैदा हो सकती है, जिसकी मैं आपसे बात कर रहा हूं।
क्या करें? कैसे तोड़ें? लोग मुझसे निरंतर पूछते हैं, कैसे तोड़ें?
मैं उनसे कहता हूं, पहली बात, शब्दों के प्रति सारा आदर, सारी पूजा, शब्दों के प्रति सारा भक्ति-भाव छोड़ दें। शब्दों में कुछ भी नहीं है। शब्दों में कोई सत्य नहीं है। सत्य तो वहीं अनुभव होता है, जहां सारे शब्द छूट जाते हैं। इसलिए शब्दों के प्रति सारी भक्ति, सारी पूजा जानी चाहिए। यह सारा शब्दों के प्रति जितना आदर है, सम्मान है, यह जाना चाहिए। सम्मान पैदा होना चाहिए सत्य के प्रति, शब्द के प्रति नहीं। और जिसको सत्य के प्रति सम्मान पैदा होगा, वह न तो हिंदू रह जाएगा, न मुसलमान, न जैन, न बौद्ध, न ईसाई, न पारसी। और जिसे सत्य के प्रति सम्मान पैदा होगा, वह न तो भारतीय रह जाएगा, न पाकिस्तानी, न चीनी। जिसे सत्य के प्रति सम्मान पैदा होगा, उसके जीवन से सारी सीमाएं गिर जाएंगी। क्योंकि सब सीमाएं शब्दों ने पैदा की हैं। सत्य की कोई सीमा नहीं है। सत्य असीम है। सत्य की कोई सीमा नहीं है। सत्य का कोई देश, कोई जाति, कोई धर्म नहीं। सत्य का कोई मंदिर, कोई मस्जिद नहीं। सत्य तो है पूरा जीवन, विराट जीवन। सभी कुछ जो चारों तरफ मौजूद है, वह सभी सत्य है। उस विराट और असीम से मिलने के लिए भीतर भी असीम मन चाहिए। सीमित और क्षुद्र मन, यह जो नैरो-माइंड है, यह जो छोटा सा मन है, यह काम नहीं कर सकेगा। विराट को पाने के लिए इसे भी विराट होना पड़ेगा। लेकिन हम ईश्वर को खोजने निकल पड़ते हैं। इसकी बिलकुल भी खोज नहीं करते कि हमारा यह मन कितना क्षुद्र है।
एक फकीर के पास एक युवक गया और उस युवक ने कहा: मैं ईश्वर को, मैं सत्य को खोजने आया हूं, क्या आप मुझे कोई मार्ग बता सकेंगे? वह फकीर बोला, इसके पहले कि मैं तुम्हें कुछ कहूं, मेरे साथ कुएं पर आओ--वह कुएं पर पानी भरने जा रहा था। उसने हाथ में एक बाल्टी ली और एक बड़ा ढोल लिया और वह कुएं पर गया। उसने बाल्टी कुएं में डाली, खींची। और वह युवक खड़ा हुआ देखता रहा। बाल्टी खींच कर उसने उस बड़े ड्रम में जिसे वह अपने साथ लाया था, उसमें पानी डाला। लेकिन ड्रम के नीचे कोई बाट्म नहीं था, उसके नीचे कोई पेंदी नहीं थी। पानी जमीन पर बह गया। उसने दूसरी बाल्टी खींची, वह भी डाली। वह लड़के का संयम टूट गया। उसने एक, दो, तीन बाल्टियां बहते देखीं, चौथी बाल्टी पर उसने कहा: महानुभाव! आप भी आश्चर्यजनक मालूम पड़ते हैं। जिस ढोल में आप पानी भर रहे हैं, उसमें नीचे कोई पेंदी नहीं है, और पानी बहा जा रहा है। जिंदगी भर भी पानी भरते रहिए, तो भी पानी भरेगा नहीं।
उस फकीर ने कहा: मेरे मित्र! मुझे ढोल की पेंदी से क्या मतलब? मुझे पानी भरना है, तो मैं ढोल के गले पर आंखें गड़ाए हुए हूं। जब गले तक पानी आ जाएगा, तो मैं समझ लूंगा, पानी भर गया। पेंदी से मुझे क्या लेना-देना?
युवक बहुत हैरान हुआ इस उत्तर से। उस दिन चला गया। लेकिन रात उसने सोचा कि जो बात मुझे दिखाई पड़ रही थी, सीधी और साफ बात थी। अंधे आदमी को भी पता चल जाती कि उस ढोल में पेंदी नहीं थी। वह उस फकीर को नहीं दिखाई पड़ी, यह बड़े आश्चर्य की बात है। इसमें जरूर कुछ न कुछ रहस्य होना चाहिए। जो मुझे दिखाई पड़ रहा था, उसे क्यों दिखाई नहीं पड़ेगा?
वह वापस गया दूसरे दिन और उसने कहा कि मुझे माफ करें, मैंने अशिष्टता की कि मैंने आपसे कहा कि जिस ढोल में पेंदी नहीं है उसमें पानी मत भरिए। लेकिन रात मैंने सोचा तो मुझे दिखाई पड़ा कि जो बात मुझे दिखाई पड़ रही थी, मैं जो कि बिलकुल अज्ञानी हूं, तो क्या आपको दिखाई नहीं पड़ रही होगी? आपको भी दिखाई पड़ रही होगी। तब जरूर बात कुछ और है। तो मुझे कृपा करके समझाएं कि उस पेंदी से रहित ढोल में पानी भरने का क्या आशय था?
उस फकीर ने कहा: ठीक हुआ कि तुम लौट आए, क्योंकि अक्सर जो लोग सत्य खोजने आते हैं, उनके साथ पहला काम मैं यही करता हूं, पेंदी रहित ढोल में पानी भरता हूं। वे मुझे पागल समझ कर वापस लौट जाते हैं और फिर कभी नहीं आते। लेकिन तुम लौट आए। तुम पहले आदमी हो लौटने वाले। तुमसे मैं कुछ कहूंगा।
तुम्हें यह तो दिखाई पड़ गया कि जिस ढोल में पेंदी नहीं है, उसमें पानी नहीं भरा जा सकता। लेकिन तुम्हें यह दिखाई क्यों नहीं पड़ता कि तुम्हारा मन, जो इतना क्षुद्र है, उसमें आकाश जैसे विराट सत्य को नहीं भरा जा सकता? तुम्हें यह तो दिखाई पड़ गया कि जो बर्तन पानी भरने में समर्थ नहीं है, उसमें पानी नहीं भरा जा सकता? लेकिन तुम्हें यह दिखाई क्यों नहीं पड़ता कि जो मन अभी सत्य को भरने में समर्थ नहीं है, उसमें सत्य नहीं भरा जा सकता। लेकिन तुम वापस लौट आए हो, तुमसे कुछ बात हो सकती है। सत्य की खोज तो छोड़ दो। जैसा कि तुमने मुझसे कहा था कि पानी भरना बंद करो, पहले इसके भीतर पेंदी होनी चाहिए। वही मैं तुमसे कहता हूं, ईश्वर और सत्य की खोज तो छोड़ दो, पहले उस मन की फिक्र करो, जो तुम्हारे भीतर है और जो सत्य की खोज करने जा रहा है।
हम सारे लोग खोज करने निकल पड़ते हैं बिना इस बात को देखे हुए कि जो मन खोज करने जा रहा है वह कैसा है। पहली बात तो यह है कि वह मन बहुत सीमित, बहुत क्षुद्र है, शब्दों की दीवाल में बंद है, और इसलिए सत्य को नहीं पा सकेगा। दीवाल तोड़नी जरूरी है। और कोई दूसरी दीवाल नहीं है। स्मरण रखिए! मन के ऊपर शब्दों के अतिरिक्त और कोई दीवाल नहीं है। अगर शब्द अलग हो जाएं, तो मन एकदम निराकार हो जाएगा। कभी आपने सोचा, कभी अपने मन के भीतर खोजी यह बात कि अगर शब्द न हों तो वहां क्या होगा? अगर कोई भी शब्द न हो, तो भीतर क्या होगा? कोई दीवाल न होगी, कोई सीमा न होगी, मन निराकार हो जाएगा। कहीं किसी किनारे पर भी फिर मन को बांधने वाली कोई चीज न होगी। शब्द बांध रहे हैं। जितना ज्यादा शब्द बांध लेते हैं, उतना ही मन छोटा हो जाता है। जितने शब्द छूट जाते हैं, उतना ही मन बड़ा हो जाता है।
शब्दों को विदा करना है। पहली बात जो मैंने कही वह यह कि शब्द दीवाल हैं, कारागृह हैं, यह बोध होना चाहिए। दूसरी बात, इन शब्दों को विदा करना है, तो संग्रह करना बंद कर देना चाहिए। लेकिन हम तो सुबह से सांझ तक शब्दों का संग्रह करते हैं। सुबह उठते से ही हम अखबार की खोज करते हैं। फिर रेडियो को सुनते हैं। फिर मित्रों से बात करते हैं। फिर दिन भर है, फिर सांझ है और शब्द इकट्ठे हो रहे हैं। और कभी हम इस बात का खयाल नहीं रखते कि ये शब्द इकट्ठे करके आखिर में हम क्या करेंगे? ये सारे शब्द इकट्ठे हो जाएंगे। काम के, बेकाम; अर्थ के, अनर्थ, सब इकट्ठे हो जाएंगे। फिर मन उनसे क्या करेगा? लेकिन शब्दों को जितना हम इकट्ठा कर लेते हैं, एक तरह का पावर, एक तरह की ताकत हमको मिलती हुई मालूम पड़ती है। क्योंकि जो आदमी शब्दों के साथ खेलने में जितना कुशल हो जाता है, वह आदमी उतना ही लोगों पर प्रभावी हो जाता है। लोगों के ऊपर प्रभाव हो जाता है उसका। जितना शब्दों के साथ खेलने में उसकी कुशलता बढ़ जाती है, वह लोगों के साथ उतना ही कुशल हो जाता है। जितना शब्दों में कमजोर होता है, उतनी उसकी लोगों के साथ जीवन-कुशलता कम हो जाती है। शब्द कुशलता बढ़ाते हुए मालूम पड़ते हैं।
यह बात सच है। शब्द निश्चित ही कुशलता बढ़ाते हैं। जीवन के व्यवहार में एक इफिशिएंसी, एक कुशलता पैदा करते हैं। लेकिन शब्द भीतर इकट्ठे होते जाते हैं, और विचार इकट्ठे होते जाते हैं, और भीतर धूल इकट्ठी होती जाती है, कचरा इकट्ठा होता जाता है। और वे सब इतने ज्यादा भीतर इकट्ठे हो जाते हैं कि उनमें बंद मन फिर किसी तरह की उड़ान लेने में समर्थ नहीं रह जाता।
शब्दों का व्यवहार करें। शब्दों की कुशलता उपयोगी है, लेकिन शब्दों के गुलाम न बन जाएं। कोई शब्द आपको पकड़ने वाला न हो जाए। शब्द आपके हाथ के साधन हों, शब्द जीवन के साध्य न बन जाएं। इसका स्मरण रहे निरंतर, शब्द जीवन के लिए, बोलने के लिए, संबंधित होने के लिए जरूरी हैं लेकिन शब्द भीतर जंजीरें नहीं बन जाने चाहिए।
यह अगर निरंतर स्मरण हो, तो हम व्यर्थ के शब्द भी इकट्ठे नहीं करेंगे और जिन शब्दों को इकट्ठा करेंगे, उनको भी हम अपनी जंजीरें न बनने देंगे। वे हमारे प्राणों के ऊपर पत्थर बन कर नहीं बैठ जाएंगे। हम उन्हें किन्हीं भी क्षण हटा दे सकते हैं। उनके साथ हमारा कोई मोह, कोई लगाव पैदा नहीं हो जाएगा। लेकिन अभी तो अगर हम एक शब्द भी आपको हटाने को कहें, तो इतना मोह और इतना लगाव मालूम होगा कि उसे कैसे हटा सकते हैं? अगर मैं आपसे कहूं कि आप इतनी हिम्मत करें कि मैं हिंदू शब्द को हटा दूं अपने मन से, तो आप कहेंगे, यह कैसे हो सकता है? क्योंकि इस शब्द को हटाऊंगा, तो फिर मैं, मैं क्या रह जाऊंगा? वह हिंदू होना जैसे हमारी संपत्ति और हमारी आत्मा है, जैसे उसे हम हटा नहीं सकते। यहूदी होने को नहीं हटा सकते हैं। मुसलमान होने को नहीं हटा सकते हैं। वह शब्द हमारे प्राणों पर बैठा है।
अभी एक गांव में मैं था। उस गांव के मुसलमान नवाब की पत्नी मुझसे मिलने आई और उसने मुझसे कहा: आपकी बातें तो मुझे ठीक मालूम पड़ीं, लेकिन तीन रात मैं सो नहीं सकी। मैंने बहुत कोशिश की कि इस मुसलमान होने की बात को हटा दूं, लेकिन इसे हटाना ऐसा लगता है जैसे कोई अपने प्राणों को अलग कर रहा हो।
शब्द अगर इस भांति मन को पकड़ते हों, तो गुलामी पैदा होती है, तो एक स्लेवरी पैदा होती है। तो शब्दों के साथ मोह नहीं होना चाहिए। उनका उपयोग होना चाहिए, जैसे आदमी वस्त्रों का उपयोग करता है। शब्द वस्त्र से ज्यादा नहीं होने चाहिए। उनके साथ कोई मोह, कोई लगाव, कोई आसक्ति, उनके साथ प्राणों का कोई गहरा संबंध बनाना एक गुलामी को निर्मित करना है। और जब यह गुलामी निर्मित हो जाए, तो फिर हम अपने ही हाथ से पैदा किए हुए जाल में फंस जाते हैं, जिसके बाहर निकलना कठिन हो जाता है। मैंने उस महिला को कहा कि अगर तुम्हारी इतनी भी सामर्थ्य नहीं है कि तुम एक शब्द को अपने से मुक्त कर सको, तो फिर क्या तुम सोचती हो कि यह मन जो इतना कमजोर और गुलाम है, क्या यह मन ईश्वर को जान सकेगा? जिसकी इतनी साहस और इतनी हिम्मत और इतना सा साहस नहीं है कि एक शब्द से छुटकारा पा सके। यह और किस चीज से छुटकारा पा सकेगा?
यह स्मरण रखना जरूरी है कि ये शब्द आते हैं, जाते हैं। इनके साथ कोई प्राणों का संबंध बांध लेना ठीक नहीं। तब चित्त एक निरंतर सतत मुक्ति की अवस्था में, सतत प्रवाह की अवस्था में हो सकता है। उत्तर पकड़ लिए जाते हैं। फिर उन उत्तरों के लिए हम मोहाविष्ट हो जाते हैं कि यही सत्य होना चाहिए। सत्य को बिना जाने मोहाविष्ट हो जाना कि यही सत्य होना चाहिए, बहुत खतरनाक है, गुलामी है। स्वतंत्रता चाहिए चित्त की। तभी तो चित्त शांत भी हो सकेगा, नहीं तो नहीं हो सकेगा। गुलाम चित्त कैसे शांत हो सकता है? गुलाम चित्त कमजोर चित्त है। यह स्मरण, यह प्रतीति, यह बोध कि शब्द जो मैं इकट्ठे कर रहा हूं वे मेरी गुलामी तो नहीं बन रहे हैं? यह निरंतर अगर खयाल हो, तो कोई कारण नहीं है कि कोई शब्द हमारी गुलामी बन जाए और कोई शब्द बाधा बन जाए।
निरंतर आपने देखा होगा। अगर हम किसी से कुछ बात करते हैं और विवाद करते हैं, तो विवाद सत्य के लिए नहीं होता, निरंतर शब्दों के लिए होता है। हम एक शब्द पकड़ लेते हैं, दूसरा आदमी दूसरा शब्द पकड़ लेता है और हम विवाद में पड़ जाते हैं। इसीलिए तो किसी विवाद, किसी आर्ग्युमेंट से कभी कोई निष्पत्ति नहीं निकलती, कोई कनक्लूजन नहीं निकलता। अगर शब्दों की पकड़ न हो, तो दो आदमी जो विवाद करेंगे और विचार करेंगे, वह विचार उन्हें कहीं ले जाएगा। किसी निष्पत्ति पर, किसी निष्कर्ष पर, किसी समाधान पर। लेकिन हम सब शब्दों को पकड़ लेते हैं। मेरा शब्द महत्वपूर्ण हो जाता है आपके शब्द से, क्योंकि वह मेरा है। और जो आपका है, वह आपका है। और जब हम विवाद करते हैं, तो यह सवाल नहीं होता कि सत्य क्या है, सवाल यह होता है कि मेरा क्या है? जो शब्द मेरा है वह जीतना चाहिए, क्योंकि उसकी जीत में मेरे अहंकार की जीत है।
शब्दों की जो गुलामी है, वह मेरे शब्दों के कारण पैदा होती है। जो शब्द मेरे हैं, उनका मैं गुलाम हो जाता हूं। कोई शब्द किसी का नहीं है। अगर गुलामी से मुक्त होना है, तो यह जानना चाहिए, शब्द कोई भी मेरा नहीं है। और तब चित्त अनप्रिज्युडिस्ड, निष्पक्ष हो जाएगा। तब किसी शब्द के लिए कोई लड़ाई नहीं है। तब हम किसी भी शब्द के लिए निष्पक्ष विचार करने को तत्पर हैं, उत्सुक हैं, खोज के लिए तैयार हैं। तो शायद इस दुनिया में फिर कोई विवाद न हो, अगर लोग शब्दों के साथ मेरे होने का मोह छोड़ें।
कौनसा शब्द आपका है? सिवाय इसके कि एक शब्द बचपन से आपके कान में बार-बार दोहराया गया है, और आपका उसमें क्या है? कौनसा शब्द आपका है? कौनसा सिद्धांत आपका है? कौनसा विचार आपका है? कोई भी तो आपका नहीं है। कोई भी विचार बार-बार दोहरा दिया जाए आपके मन में, वह आपको लगने लगेगा मेरा है। जो लोग बहुत कुशल होते हैं दूसरे लोगों को समझाने में, जीतने में, वे हमेशा एक तरकीब का उपयोग करते रहे हैं।
अब्राहिम लिंकन से एक बार उसके किसी मित्र ने पूछा कि आप हमेशा विवाद करने में विजयी क्यों हो जाते हैं? उसने कहा: मैं दूसरे आदमी को इस भांति का विश्वास दिलाने की कोशिश करता हूं कि जो मेरी मर्जी है, वह उसकी ही मर्जी है। जो बात मुझे उसे मनवानी होती है, जिस बात के लिए मुझे उसे कनविंस करवाना होता है, मैं इस भांति की कोशिश करता हूं जैसे कि वह उसकी ही मर्जी है। और जैसे ही उसे यह खयाल पकड़ जाता है कि यह उसकी मर्जी है, मैं जीत जाता हूं, वह हार जाता है। हालांकि उसे लगता है कि वह जीता।
अब्राहिम लिंकन ने कहा कि मेरा एक मित्र एक मामले में बिलकुल जिद्द पकड़े हुए था। मैंने आठ-दस दिन के लिए बात उस संबंध में करनी बंद कर ली। एक दिन रास्ते में चलते हुए मैंने उससे कहा कि मुझे ऐसा खयाल आता है, एक दिन तुमने ऐसी कोई बात कही थी--वह बात वही थी जो मुझे मनवानी थी, और यह बात बिलकुल झूठ थी कि उसने कभी मुझसे उस बात को कहा हो--लेकिन मैंने उससे कहा कि मुझे खयाल आता है कि कभी तुमने ऐसी कोई बात मुझसे कही थी। उसने कहा: मुझे तो खयाल नहीं आता। लेकिन मैंने उसे खयाल दिलाने की कोशिश की कि एक दिन बातचीत के दौर में तुमने ऐसा कुछ कहा था। और वह धीरे-धीरे सहमत हुआ और राजी हो गया। उस बात पर राजी हो गया जिस पर आठ दिन पहले वह विवाद करने को तैयार था। कौनसी कमजोरी इस लिंकन ने उस आदमी की पकड़ ली? एक कमजोरी पकड़ ली, उसे यह खयाल आ जाए कि यह बात मेरी है, तो बात पूरी हो गई।
दुनिया में जो बड़े नेता हैं, वे जनता को यह विश्वास दिलाया करते हैं कि आप जो कहते हो वही हम कह रहे हैं। जो आपकी मर्जी, वही हमारा विचार है। और लोग ऐसी मूर्खतापूर्ण बातों के लिए भी राजी हो जाते हैं जिनका कोई हिसाब नहीं। एक दफा उन्हें विश्वास आ जाए कि वह विचार उनका है, मेरा है। बस फिर, फिर कुछ भी करवाया जा सकता है। हिंदू धर्म मेरा है, तो फिर मेरी हत्या करवाई जा सकती है। मुसलमान धर्म मेरा है, तो फिर मैं अपनी गर्दन कटवा सकता हूं। वह जो मेरा है, वह बहुत बलवान है और वह मेरे मन को पकड़ लेता है।
यह जो शब्द और विचारों की सारी गुलामी है, यह मेरे की वजह से पैदा हुई है। इसको अगर तोड़ना है, तो एक बात जान लेनी है, कोई शब्द मेरा नहीं है, कोई विचार मेरा नहीं है। सब विचार उधार हैं और सब विचार किसी खास तरह के प्रोपेगेंडा का परिणाम हैं। मैं हिंदू घर में पैदा हुआ हूं, तो हिंदू प्रोपेगेंडा के भीतर पला हूं। बचपन से मुझे कहा गया है कि कृष्ण जो हैं भगवान हैं, और गीता जो है भगवान की किताब है। मुझे बचपन से यह बात कही गई है। मैंने बार-बार इसे सुना है। धीरे-धीरे मुझे यह अहसास आ गया है कि यह मेरा खयाल है कि कृष्ण जो हैं भगवान हैं, गीता जो है भगवान की किताब है। यह मेरा खयाल है। यह बीस-पच्चीस वर्ष, पचास वर्ष तक निरंतर दोहराने का परिणाम है कि मुझे लगता है यह मेरा खयाल है। इसमें मेरा क्या है? अगर मुझे मुसलमान घर में रखा गया होता, तो मेरा खयाल यह होता कि कुरान जो है वह भगवान की किताब है। और अगर मुझे ईसाई घर में रखा गया होता, तो मेरा खयाल यह होता कि बाइबिल जो है वह ईश्वर की किताब है।
बचपन से जो प्रोपेगेंडा है, प्रचार है, उसका परिणाम है कि लगता है कि ये मेरे शब्द, यह मेरा धर्म है, यह मेरा देश, यह मेरी जाति, ये शब्द मेरे हैं और वे शब्द मेरे नहीं हैं। फिर गुलामी खड़ी हो जाती है। आज तक हम बच्चों के मन गुलाम बनाते रहे हैं। एक अच्छी दुनिया पैदा नहीं हो सकी, क्योंकि मां-बाप ने निरंतर यह कोशिश की है कि जिस गुलामी में वे कैद हैं, उनका बच्चा उस गुलामी के बाहर न हो जाए, वह भी उसी कारागृह में बड़ा हो। हर बाप, हर मां की यह कोशिश रही है आज तक कि जिस गुलामी में वे हैं, बच्चा उस गुलामी के बाहर न हो जाए।
शायद एक डर था इसमें और वह केवल यह था कि अगर वह मेरी गुलामी से बाहर हुआ, तो वह किसी दूसरे की गुलामी में पड़ जाएगा। अगर वह हिंदू घेरे के बाहर हुआ तो पता नहीं मुसलमान हो जाए, ईसाई हो जाए। इसके पहले कि वह ईसाई या मुसलमान हो, उसे हिंदू बना देना जरूरी है। और दुनिया में जितने धर्म हैं, वे चूंकि सभी एक न एक तरह की गुलामियां हैं। इसलिए हर बाप परेशान है और डरा हुआ है कि मेरा बच्चा कहीं इस गुलामी को छोड़ कर उस गुलामी में न चला जाए। क्योंकि अपनी गुलामी फिर भी अपनी है, पराई तो नहीं है। अपनी अकेली नहीं है, बाप-दादाओं से, हजारों वर्षों से है, परंपरागत है। जो अपनी है, वह गुलामी हो, तो भी अच्छी मालूम पड़ती है। इस वजह से आज तक दुनिया में स्वतंत्र मन पैदा नहीं हो सका। इस वजह से अब तक हम स्वतंत्र मनुष्य को जन्म नहीं दे पाए। और गुलाम मनुष्य की जो तकलीफें हैं वे हम सबको झेलनी पड़ रही हैं और हम झेलते रहेंगे। लेकिन क्या यह हमेशा ही चलाए जाइएगा? क्या कोई रास्ता नहीं खोजना है कि बदलाहट हो सके? क्या कोई फिक्र नहीं करनी है कि क्रांति आ सके और हम स्वतंत्र मनुष्य को जन्म दे सकें?
लेकिन आप अपने बच्चों के लिए स्वतंत्रता के मार्गद्रष्टा तभी हो सकेंगे, जब आप स्वतंत्र हो जाएं। और स्वतंत्र होने के लिए जरूरी है पहली बात, अपने मन से यह खयाल अलग कर दें कि कोई विचार मेरा है। यह मेरे का खयाल टूट जाए और आप पाएंगे, आप एकदम निष्पक्ष हो गए, एकदम मुक्त हो गए, सारी जंजीरें जैसे टूट गईं, सारी प्रिज्युडिस, सारे पक्ष गिर गए। और अगर आप अपने बच्चों को भी इस निष्पक्ष चित्तता में विकसित कर सकें और उन्हें समझा सकें कि जो तुमने नहीं जाना है, वह तुम्हारा नहीं है। चाहे मैं कहूं, चाहे कोई भी कहे, चाहे हजारों साल की परंपरा कहे, लेकिन तुम किसी शब्द के और सिद्धांत के गुलाम मत हो जाना। तुम खोजना, तुम खुद खोज करना, तुम इंक्वायरी करना, अपने मन को ताजा रखना हमेशा खोजने के लिए। तो शायद बच्चे आने वाली दुनिया में एक स्वतंत्र मनुष्य की जाति को जन्म देने में समर्थ हो जाएं।
लेकिन उसके पहले उन सारे लोगों को स्वतंत्र होना होगा--हम सारे लोगों को, मुझे, आपको। दूसरी बात है, मेरे का खयाल छोड़ देना आवश्यक है। और तीसरी बात, पहली बात तो यह बोध कि शब्द कारागृह हैं, दूसरी बात कि शब्द मेरे नहीं हैं और तीसरी बात, शब्द के साक्षी होने की सामर्थ्य पैदा करनी चाहिए, विटनेस होने की सामर्थ्य पैदा करनी चाहिए।
मन में शब्द घूम रहे हैं, घूम रहे हैं। थोड़ी देर को कभी एकांत में बैठ कर केवल उनके साक्षी हो जाना चाहिए। जैसे रास्ता चल रहा हो और लोग निकल रहे हों और कोई बैठ जाए और सिर्फ साक्षी हो जाए और लोगों को निकलने दे। ऐसे ही विचार को भी निकलने देना चाहिए, शब्द को भी निकलने देना चाहिए और दूर खड़े होकर देखना चाहिए।
क्या होगा दूर खड़े होकर देखने से? जैसे ही दूर खड़े होकर कोई शब्दों के जुलूस को देखेगा, एक प्रोसेशन है जो चल रहा है पूरे वक्त मन में, दूर खड़े होकर जो भी शब्दों के इस प्रोसेशन को, इस जुलूस को देखेगा, उसे एक बात तो यह पता चलेगी कि मैं अलग हूं और शब्द अलग हैं। और दूसरी बात उसे यह पता चलेगी एक शब्द के जाने और दूसरे के आने के बीच में इंटरवल है, अंतराल है, खाली जगह है। हर दो शब्दों के बीच में थोड़ा गैप है। जो व्यक्ति अपने भीतर थोड़ा दूर खड़े होकर शब्दों की चलती हुई धारा को देखेगा, उसे दो बातें दिखाई पड़ेंगी। पहली, शब्द अलग हैं, मैं अलग हूं। दूसरी बात, हर शब्द के जाने और दूसरे के आने के बीच में गैप है, खाली जगह है। उसी खाली जगह में साइलेंस का अनुभव होगा। शब्दों के बीच खाली जगह है।
हम यहां इतने लोग बैठे हैं, अगर कोई हवाई जहाज से देखे, तो उसे हमारे बीच में खाली जगह दिखाई नहीं पड़ेगी। लेकिन वह धीरे-धीरे करीब आए। एक जंगल को आप हवाई जहाज से देखें तो दरख्तों के बीच खाली जगह दिखाई नहीं पड़ेगी। नीचे आएं, तो धीरे-धीरे एक दरख्त और दूसरे दरख्त के बीच में खाली जगह का पता चलेगा।
अभी आप यहां बैठे हैं, मैं इतने दूर से देखता हूं, आपके बीच की खाली जगह मुझे पता नहीं चलती। लेकिन आपके करीब आऊं, तो आपके पास खाली जगह है। अगर खाली जगह न हो, तो आप बैठ ही नहीं सकते थे। दो आदमियों के बीच खाली जगह जरूरी है। दो शब्दों के बीच भी खाली जगह है। नहीं तो एक शब्द दूसरे शब्द के ऊपर चढ़ जाएगा। मैं अभी बोल रहा हूं, कितने हजारों शब्द बोले। हर शब्द और दूसरे शब्द के बीच में खाली जगह है, नहीं तो आप कुछ समझ नहीं सकेंगे।
हमारे मन के भीतर भी जो विचार चल रहे हैं, शब्द और शब्द के बीच में खाली जगह है। लेकिन हमने कभी ठहर कर इसे देखा नहीं। हम इसे ठहर कर देखेंगे निकट जाकर, तो ये इंटरवल्स हमें दिखाई पड़ेंगे। और ये जो इंटरवल्स हैं, ये जो शब्दों के बीच में खाली जगह हैं, वहीं से आपको पहली दफे साइलेंस का अनुभव होगा, शांति का अनुभव होगा, मौन का अनुभव होगा। और जैसे ही आपको शांति का अनुभव होगा, वैसे ही आपको पता चलेगा, शब्दों में कारागृह था, शांति में मुक्ति है। शब्दों में जेल थी, शांति में स्वतंत्रता है। यह आपको पता चलेगा। यह मेरे कहने से पता नहीं चल सकता। यह किसी और के कहने से पता नहीं चल सकता। यह तो उस शांति का जैसे ही अनुभव होगा, जैसे शब्दों के बीच में खाली जगह मिलेगी और आप उसमें डूब जाएंगे तो आप पाएंगे, शब्द बंधन हैं, शून्य स्वतंत्रता है; शब्द कारागृह हैं, शून्य मोक्ष है। और एक बार भी इस साइलेंस का अहसास शुरू हो जाए, तो कोई भी आदमी शब्दों से भरा न रहना चाहेगा।
एक बच्चा पत्थर बीन रहा हो नदी के किनारे और उसे कोई हीरे-जवाहरात देने वाला मिल जाए, तो वह पत्थर फेंक देगा और हीरे-जवाहरात पकड़ लेगा। आपको पता ही नहीं है कि साइलेंस क्या है, इसीलिए शब्दों से उलझे हुए हैं और परेशान हैं। एक बार पता चल जाए, एक बार यह पता चल जाए कि क्या है शांति? क्या है मौन? तो फिर आप शब्दों को पकड़ने वाले न रह जाएंगे। उसी दिन से आपकी जिंदगी में क्रांति हो जाएगी। आप दूसरे आदमी हो जाएंगे। लेकिन पता ही नहीं है। और कठिनाई यह है कि कोई दूसरा आपको बता नहीं सकता। खुद ही जानना होगा, खुद ही पहुंचना होगा।
तीन सूत्र मैंने आपसे कहे। पहली बात, शब्द कारागृह हैं, इसका अनुभव। दूसरी बात, शब्द मेरे नहीं हैं, इसका अनुभव। तीसरी बात, शब्दों के बीच में खाली जगह है, इसका अनुभव। यह तीसरी बात सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। पहली दो बातें उसकी भूमिका है, तीसरी बात महत्वपूर्ण है।
थोड़ी देर कभी रात बिस्तर पर पड़े हुए शब्दों के साक्षी मात्र रह जाएं। मन में चल रही हैं उनकी धाराएं, चुपचाप आंख बंद करके अंधेरे में उनको देखते रहें--क्या हो रहा है? कौन से विचार चल रहे हैं? उन्हें जाने दें, रोकना नहीं है, छेड़ना नहीं है, चलने दें, सिर्फ देखें। दूर जैसे खड़े हैं और देख रहे हैं। अपने आप बीच की खाली जगह दिखाई पड़नी शुरू हो जाएगी। और रोज-रोज जितना यह साक्षी होने का क्रम गहरा होगा, खाली जगह बड़ी होती जाएगी। जैसे-जैसे आप देखने में समर्थ हो जाएंगे अपने भीतर, उतने-उतने बड़े गैप्स, उतनी-उतनी खाली जगह पैदा हो जाएगी। एक क्षण आएगा शब्द नहीं होगा, फिर शब्द आएगा, धीरे-धीरे कई क्षण बीत जाएंगे शब्द नहीं होंगे। धीरे-धीरे वक्त आएगा, घड़ियां बीत जाएंगी और शब्द नहीं होंगे। और जब शब्द नहीं होंगे तो कौन होगा? क्या होगा? जब शब्द नहीं होंगे तो मन की सारी क्षुद्रता टूट जाएगी, सारी दीवालें टूट जाएंगी। रह जाएगा मन, जिसकी कोई सीमा नहीं है। उसी मन का नाम आत्मा है जिसकी कोई सीमा नहीं है। रह जाएगा मन, जिस पर कोई दीवाल नहीं है। उसी मन का नाम परमात्मा है जिसकी कोई दीवाल नहीं है। रह जाएगा एक विराट चैतन्य, जो मुझमें सीमित नहीं है, जो सबमें व्याप्त है और सबमें फैला हुआ है। उसकी जो प्रतीति है वही आनंद है, वही सत्य है, वही अमृत है।
एक छोटी सी कहानी और मैं अपनी चर्चा को पूरा करूंगा।
एक बहुत पुराने देश में और बहुत पुराने दिनों में एक राजा ने एक अदभुत दान उस देश के सौ ब्राह्मणों को दिया था। उसने कहा था कि मेरे पास एक बड़ी भूमि है, तुम इस भूमि में से जितनी घेर लोगे तुम्हारी हो जाएगी। बहुमूल्य भूमि थी, राजा ने अपने जन्म-दिन के उत्सव में देश के सौ बड़े ब्राह्मणों को बांट देनी चाही थी। वे ब्राह्मण तो खुशी से नाच उठे। एक ही शर्त थी, जो जितनी उस जमीन को घेर लेगा, जितनी बड़ी दीवाल बना लेगा जमीन पर, वह जमीन उसकी हो जाएगी। अब सवाल यही था कि कौन कितनी बड़ी बना ले? ब्राह्मणों ने अपने घर-द्वार बेच दिए, अपने कपड़े भी बेच दिए, एक-एक लंगोटियां भर बचा लीं, क्योंकि सस्ते में बहुत बहुमूल्य जमीन मिलती थी। और उन्होंने दीवालें बनाईं। और जितनी जो जमीन घेर सकता था उसने घेर ली। इस घेरने में एक और आकर्षण था, राजा ने यह भी कहा था कि जो सबसे ज्यादा जमीन घेरेगा उसे मैं राजगुरु बना दूंगा।
तो एक तो जमीन घेरने का फायदा था, बहुमूल्य जमीन मुफ्त, सिर्फ घेरने के मूल्य पर मिलती थी। और दूसरा, सबसे ज्यादा घिर जाए तो राजा के राजगुरु होने का भी सौभाग्य मिलता था।
छह महीने का वक्त दिया था। फिर छह महीने के बाद राजा गया और उन ब्राह्मणों से कहा: मैं खुश हूं कि तुमने काफी जमीनें घेरी हैं, अब मैं पूछने आया हूं कि सबसे ज्यादा जमीन का घेरा किसका है?
एक ब्राह्मण खड़ा हुआ और उसने कहा कि इसके पहले कि कोई कुछ कहे, मैं दावा करता हूं कि मेरा ही घेरा सबसे बड़ा है।
सारे ब्राह्मण हंसने लगे, राजा भी हंसा, क्योंकि वह गांव का दरिद्रतम ब्राह्मण था और किसी को भी यह आशा नहीं थी कि उसने बड़ा घेरा बनाया होगा। और ब्राह्मणों को तो भलीभांति पता था कि उसने छोटा सा घेरा बनाया है, कुछ थोड़ी सी लकड़ी-वगैरह लगा कर, थोड़ी सी जमीन घेरी है। लेकिन जब दावा किया गया था तो निरीक्षण के लिए राजा को जाना पड़ा। वे सौ ब्राह्मण भी गए। वहां जाकर, पहले ही सबको शक हुआ था कि मालूम होता है उसका दिमाग खराब हो गया है। क्योंकि लोगों ने तो मीलों लंबे जमीन के टुकड़े घेर लिए थे। वहां जाकर तो निश्चय हो गया कि वह पागल हो गया है। उसने थोड़ा सा जमीन का टुकड़ा घेरा था, कुछ लकड़ियां बांधी थीं, लेकिन रात, मालूम होता था उसमें भी उसने आग लगा दी थी। अब वहां कोई घेरा नहीं था। सारी लकड़ियां जली हुई पड़ी थीं। राजा ने कहा: मैं समझ नहीं पा रहा, आपकी दीवाल कहां है?
उस ब्राह्मण ने कहा: मैंने दीवाल बनाई थी, मैंने लकड़ियां लगाई थीं, लेकिन फिर रात मुझे खयाल आया कि चाहे मैं कितनी ही बड़ी जमीन घेर लूं, जो जमीन घिरी हुई है वह छोटी ही होगी, बड़ी नहीं हो सकती। आखिर जो चीज घिरी है वह छोटी ही होगी, बड़ी नहीं हो सकती। तो रात मैंने अपने घेरे में आग लगा दी। अब मेरी जमीन पर कोई घेरा नहीं है। इसलिए मैं दावा करता हूं कि मैंने सर्वाधिक जमीन घेरी है। कोई घेरा नहीं मेरी जमीन पर।
राजा उसके पैरों पर गिर पड़ा और उसने कहा: तुम अकेले ही ब्राह्मण हो, बाकी सभी वैश्य हैं। वे निन्यानबे लोगों ने जमीन घेरी है, गणित का हिसाब रखा है, नाप-जोख की है। तुम अकेले आदमी ब्राह्मण हो। तुम्हारा जो घेरा था वह भी तुमने तोड़ दिया। जिसका कोई घेरा नहीं है वही तो ब्रह्म को जान पाता है, वही तो ब्राह्मण हो जाता है।
वह ब्राह्मण राजगुरु बना दिया गया। उसने एक अदभुत साहस किया, घेरा तोड़ देने का साहस। और घेरा तोड़ते ही सब कुछ उसका हो गया।
यह कहानी अंत में इसलिए कह रहा हूं, मन पर घेरे हैं और मन के घेरे को जो तोड़ देगा वह ब्रह्म को जान लेता है। मन के नाप-जोख हैं, इंच-इंच, फीट-फीट बना कर हमने दीवाल खड़ी की है, उसी दीवाल में हम जिंदा रहने के आदी हो गए हैं, उसी से हम पीड़ित और परेशान हैं, और उसी के कारण हम क्षुद्र हो गए हैं। और विराट, जो कि निरंतर मौजूद है परमात्मा, उससे हमारा कोई संबंध नहीं रह गया है। उससे संबंध हो सकता है। लेकिन जो उस ब्राह्मण ने किया था उस रात, किसी रात आपको भी वही करना पड़ेगा। उसने जो घेरा बनाया था, आग लगा दी थी। जिस दिन, जिस रात आप भी अपने घेरे में आग लगाने को राजी हो जाएंगे, उस दिन परमात्मा और आपके बीच फिर कोई दीवाल नहीं और कोई रोकने वाला नहीं। और उस सत्य को जान कर ही--जो ऐसा घेरे से मुक्त मन जान पाता है--जान सकेंगे जीवन के आनंद को, जीवन के सौंदर्य को, जीवन के प्रेम को, उसके पहले सब दुख है और सब नरक है। उसके पहले सब अंधकार है। उसके पहले सब पीड़ा और मृत्यु है। उसके बाद न पीड़ा है, न मृत्यु; उसके बाद न दुख है, न दैन्य; उसके बाद जो भी है वह परम आनंद है और परम शांति है। उसे जान लेना ही, उसे पा लेना ही जीवन का लक्ष्य है। और जो उसे पाने से वंचित रह जाता है उसका जीवन व्यर्थ ही चला जाता है। वह कंकड़-पत्थर बीनने में गंवा देता है और हीरे-जवाहरातों के ढेर उसके निकट थे उनको नहीं देख पाता। वह मिट्टी को बांधने में गंवा देता है, सोने की खदानें उसके पास थीं, उनको नहीं देख पाता। वह क्षुद्र को कमाने में विराट की संपदा को पाने से वंचित रह जाता है।
आज की संध्या थोड़ी सी बात मैंने आपसे कही, शब्द के घेरों और दीवाल से मुक्त हो जाने की। इस संदर्भ में बहुत प्रश्न उठे होंगे, क्योंकि जिसको प्रश्न न उठे हों, वह तो आज की रात ही अपने घेरे में आग लगाने में समर्थ हो सकता है। लेकिन नहीं, प्रश्न उठे होंगे। मैं जब बोलता था तब आपके भीतर बहुत से शब्द चल रहे होंगे। तो उन प्रश्नों के, उन प्रश्नों की हत्या के लिए कल का समय निश्चित है। तो जो-जो प्रश्न उठे हों, वे कल पूछे जा सकते हैं। इस खयाल से नहीं कि मैं उनके उत्तर दूंगा, बल्कि इस खयाल से कि उनकी हत्या में आपका सहयोगी हो सकूं। उत्तर देने वाला मैं कौन हूं? और मेरा तो कहना ही यह है कि उत्तर इकट्ठे मत करना। फिर भी कल इस संबंध में जो भी पूछने का खयाल आया हो उसकी बात करूंगा।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना। तो यह आशा करता हूं कि किसी न किसी दिन वह अदभुत क्षण आपके जीवन में उतरेगा, जब आप अपनी क्षुद्रता को तोड़ने में समर्थ हो जाएंगे। जिस दिन अपनी क्षुद्रता को तोड़ लेंगे मन की, उसी दिन परमात्मा आपका है। वह परमात्मा तो भीतर मौजूद है, लेकिन हम उसे अपनी दीवाल के कारण अनुभव नहीं कर पाते। वह परमात्मा जो आपके भीतर कैद है उसके प्रति मैं प्रणाम करता हूं, अंत में मेरे प्रणाम स्वीकार करें।



1 टिप्पणी:

  1. ओशो को जितना सुना जाए, गुना जाए उतना ही भीतर में आनंद का बहाव चलता हुआ प्रतीत होता है । अद्भुत है , शब्दातीत है

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