दिनांक 13 जून सन् 1969
बडौदा-अहमदाबार, गुजरात।
प्रश्न यह है कि चित्रों में, पोस्टर्स
वगैरह में अश्लील चीजें पेश की जाती हैं। तो लोग अश्लील हैं, यानी पोस्टर्स से, इनसे नहीं बदले हैं, मगर वे खुद अश्लील हैं ही। इसलिए वे जो चित्र वगैरह में ले आते हैं। तो
मेरा सवाल यह है कि यह जो कार्य-कारण संबंध है वह एकमार्गी नहीं है, द्विमार्गी है। हो सकता है कि लोग थोड़े अश्लील हों, अश्लील
चीजें पसंद करते हों। मगर ये चित्र, ये पोस्टर्स, ये फिल्म वगैरह उस अश्लीलता को और ज्यादा बढ़ाएं, कुछ
ऐसा पेश करते हैं। तो इसलिए सिर्फ लोगों की अश्लीलता यही कारण है, मगर दूसरी तरफ से वह कार्य-कारण संबंध जो है, द्विमार्गी
चलता है। इसलिए अगर कोई कहे कि फिल्म और पोस्टर बढ़ा रहे होंगे या अश्लीलता कम की
जानी चाहिए...
वे
मित्र पूछ रहे हैं कि ऐसा मैंने कहा कि लोग अश्लील हैं, उनके मन
की मांग अश्लीलता की है, इसीलिए अश्लील चित्र, फिल्में, गीत उन्हें पसंद पड़ते हैं। मित्र पूछ रहे
हैं कि यह संबंध दोहरा हो सकता है। यह हो सकता है कि अश्लील चित्रों, फिल्मों और गीतों को सुन कर उनमें अश्लीलता भी पैदा होती हो।
यदि
अश्लीलता सुन कर,
देख कर पैदा होती हो तो यह कहना पड़ेगा कि अश्लीलता अप्रकट होगी,
पोटेंशियल होगी, थोड़ी-बहुत छिपी होगी स्वयं
उनसे, जो फिल्मों और चित्रों को देख कर प्रकट हो गई है।
लेकिन चित्र और फिल्म अश्लीलता पैदा नहीं कर सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा दो बातें
हो सकती हैं। पहली तो जो मैं कहता हूं कि हमारे मन की मांग है, वे मांग की पूर्ति करते हैं।
यह
हो सकता है कि जितनी हमारे मन की मांग हो उतनी हमको भी पता न हो। बहुत सी मांग
हमारे सामने भी जाहिर न हो,
अचेतन हो, अनकांशस हो। तो जब हम नंगे चित्र को
देखें, तो जो हमें पता नहीं था, उतनी
मांग और जग जाए। लेकिन वह जगना भी हमारे भीतर ही छिपा हुआ है। वह कोई फिल्म,
नंगी फिल्म देख कर पैदा नहीं हो जाने वाला है। मनुष्य के मन में
बहुत सा उसके सामने ही प्रकट नहीं है, जो किन्हीं बहानों और
मौकों को पाकर प्रकट हो सकता है।
इसलिए
मैं कहूंगा कि फिल्म बंद करने का सवाल नहीं है और न गंदे चित्र बंद करने का सवाल
है। अगर गंदे चित्र बंद भी कर दिए, तो भी जो अश्लीलता छिपी है,
न हो प्रकट, तो भी मौजूद है। और चाहे अचेतन
में मौजूद हो, उसकी क्रिया हमारे जीवन के बहुत व्यवहारों को
आंदोलित और प्रभावित करती ही रहेगी। और हमारी खोज भी जारी रहेगी।
आकस्मिक
नहीं है अश्लील चित्रों का बन जाना। हमारी मांग की पूर्ति है। और फिर कुछ समझदार
लोग देख लेते हैं कि मांग किस बात की है। उसका व्यावसायिक फायदा भी उठाया जा सकता
है। वे उसका व्यावसायिक फायदा भी उठा रहे हैं।
पर
ऐसा मुझे नहीं दिखाई पड़ता है कि हमारे चित्त में जो छिपा न हो, मौजूद न
हो, वह कोई अश्लील किताब पढ़ कर हममें पैदा हो जाए। और यह भी
मजा है कि अगर हमारे भीतर छिपा हो, तो जो अश्लील नहीं भी है
वह भी हमें अश्लील दिखाई पड़ सकता है।
गांधी
जी की आत्मकथा तो कोई अश्लील नहीं कहेगा। लेकिन जब गांधी जी ने आत्मकथा लिखी तो
अनेक लोगों ने पत्र लिखे कि आपकी किताब अश्लील है, हमें पढ़ कर कामोत्तेजना हो
जाती है। तो कृपा करके ये-ये हिस्से अपनी आत्मकथा से अलग कर दीजिए। गांधी जी तो
बहुत हैरान हुए। और गांधी जी के आस-पास के लोग भी बहुत हैरान हुए कि गांधी जी की
आत्मकथा भी अश्लील उत्तेजना किसी को देती हो!
तो
खयाल यही पड़ा कि जिनके मन में छिपा हुआ बहुत हो, तो सामने अश्लीलता न भी हो,
थोड़ा सा इशारा भी मिल जाए, तो भी भीतर की
अश्लीलता जग जा सकती है। और अगर भीतर चित्त परिपूर्ण रूप से अश्लीलता से मुक्त हुआ
हो, तो कोई भी चित्र, नग्न स्त्री भी
बेमानी है।
तांत्रिकों
ने बहुत गहरे प्रयोग इस संबंध में किए हैं। संभवतः दुनिया में किसी और ने नहीं
किए। लेकिन उन प्रयोगों को तो हमने इस मुल्क में सब तरफ से, जड़-मूल से
काट डाला है। उनका गहरा से गहरा प्रयोग यह था कि अगर नग्न स्त्री के सामने पुरुष
चिंतन करे, ध्यान करे, तो उसके भीतर जो
नग्न स्त्री की मांग छिपी है, वह धीरे-धीरे तिरोहित हो जाती
है। और एक क्षण आ सकता है कि उसके चेतन-अचेतन में नग्न स्त्री की कोई मांग न रह
जाए। उस दिन उस आदमी के लिए कोई नग्न चित्र और नग्न गीत कोई अर्थ नहीं रखेगा।
लेकिन
हमारे सबके भीतर मांग छिपी हुई है। छिपी हुई मांग दो तरह की है--एक तो जो
थोड़ी-बहुत हमें ज्ञात होती है, और एक जो हमें भी अज्ञात होती है। नग्न चित्र
इतना काम कर सकते हैं कि जो हमें अज्ञात है, उसे भी ज्ञात कर
दें; लेकिन वे पैदा नहीं करते हैं। ऐसी मेरी समझ है। यह गलत
हो सकती है। लेकिन ऐसी मेरी समझ है कि कोई चित्र, कोई फिल्म,
कोई गीत, कोई कविता, कोई
उपन्यास, जो हममें नहीं छिपा है उसे पैदा नहीं कर दे सकता
है। कहीं हममें छिपा हुआ कोई हिस्सा उभर कर आ सकता है, प्रकट
हो सकता है।
इसलिए
मैंने कहा था कि नग्न चित्र और तस्वीरें बंद करने की जरूरत नहीं है, बल्कि
मनुष्य के मन में नग्न की मांग क्यों है, अश्लील की मांग
क्यों है--उसे हम समझें और उस मांग को मिटाने की कोशिश करें, तो शायद अपने आप व्यर्थ हो जाएं नग्न तस्वीरें।
लेकिन
हमारा जो प्यूरिटन माइंड है, वह जो हजारों साल से हमको परेशान किए हुए
है...और सच तो यह है कि उस प्यूरिटन माइंड की वजह से ही अश्लीलता हममें पैदा हुई
है। उसने जितना हमें दबाने को कहा है, जितना बदलने को कहा है,
जितना रोकने को कहा है, उतना हम अश्लील होते
चले गए हैं। वह माइंड, वह चित्त हमसे कहता है कि नहीं,
नग्न चित्र नहीं, नग्न मूर्ति नहीं, गीत नहीं, शब्द नहीं, कोई भी
नहीं। लेकिन उससे कुछ मिटता नहीं। इधर से मिटाओ, नीचे के
रास्तों से नग्न चित्र चलने शुरू हो जाते हैं। चोरी से बिकेंगे। बाथरूम में बनाए
जाएंगे, लोग वहां जाकर देखेंगे।
और
यह भी हो सकता है कि नग्न चित्रों को देखने से मन की जो रिलीज होती हो, अगर वह न
हो, तो यह भी हो सकता है कि सड़क पर चलती हुई स्त्रियों को
लोग नंगा करें। यह भी बहुत आश्चर्यजनक नहीं है, कठिन नहीं
है। अगर चित्त की मांग बहुत बढ़ जाए, तो मैं समझता हूं नंगी
फिल्म ही देखना बेहतर है। उससे रिलीज होती है। वह जो चित्त की मांग थी वह पूरी
होती है। अगर वह पूरी होना बिलकुल बंद कर दी जाए सब तरफ से, तो
यह भी संभव है कि स्त्री का जीना मुश्किल हो जाए। और हमारे जैसे समाज में जीना
वैसे भी मुश्किल है। और उसका कारण है कि मांग है, हम उसकी
कहीं से पूर्ति करेंगे।
मेरी
दृष्टि में तो,
अगर मांग है तो चित्र पैदा होने दो। सारे बंधन अलग करो चित्रों पर
से। आदमी को देखने दो। अगर मांग है तो क्या करोगे? अगर मांग
है तो क्या करें? उसे देखने दो। उसके मन को हलका होने दो। और
अगर हलका नहीं होने देते हैं, तो शायद आदमी व्यवहार ऐसे शुरू
करे जो कि हमारी कल्पना के बाहर हैं। उसका व्यवहार पैथालॉजिकल हो सकता है। अभी
उसकी पैथालॉजी, उसकी बीमारी चित्र देखने में भी निकलती है।
अभी वह एक गीत और कहानी पढ़ कर भी आइडेंटिटी करके बहुत कुछ हलका करता है अपने मन
को। एक नंगी फिल्म देख कर एक आदमी राहत से भरा हुआ घर लौटता है। थोड़ा हलका हो जाता
है। उसके टेंशन थोड़े हलके हो जाते हैं। जो उसने देखना चाहा था असलियत में नहीं सही,
फिल्म में देख लिया है। थोड़ी देर को तो असलियत मालूम पड़ी है। वह घर
ज्यादा शांत और हलका होकर आया है।
अगर
वह हम रोक देते हैं और आदमी को बदलते नहीं, जैसा कि साधु-संत समझाते हैं कि वह
रोको। और आदमी तो जैसा है वैसा रहेगा। आदमी को बदलने की जरूरत है बुनियाद में। यह
हो सकता है, जैसे कि अभी मैंने, आपने
शायद अखबारों में पढ़ा भी होगा। सिडनी में एक अमेरिकी नग्न अभिनेत्री को ले जाकर
प्रदर्शन किया एक थियेटर में। संयोजकों ने सोचा था कि लाखों रुपये कमा लेंगे।
लेकिन पूरे थियेटर में, जहां दो हजार लोग बैठ सकते थे,
केवल दो आदमी उस नग्न स्त्री को देखने आए।
थोड़ा
सोचना पड़ेगा! अगर यह अहमदाबाद में हो, तो मैं नहीं समझता कि हम सब देखने
न जाएं। जाना पड़ेगा। हम यह भी नहीं सोचते कि जो हमको समझाते हैं कि नग्न स्त्री का
देखना बुरा है, वे भी न जाएं। वे हो सकता है कपड़े बदल कर
जाएं, छिप कर जाएं, कोई उपाय खोजें।
मगर यह होगा। हमारी मांग है!
लेकिन
पश्चिम में मांग कम होती जा रही है।
मैंने
एक चित्र देखा था,
किसी मित्र ने मुझे भेजा, लंदन के एक रास्ते
पर एक नग्न स्त्री अंडरवियर की किसी कंपनी का प्रदर्शन करती हुई, सिर्फ अंडरवियर पहने हुए सड़क से गुजर रही है। पूरी सड़क भरी हुई है। वह
चित्र मुझे लेकर भेजा था कि उस पूरी सड़क पर उस करीब-करीब नग्न स्त्री को कोई भी
नहीं देख रहा है। पूरा चित्र भेजा था। वह अपना खड़ी है चौरस्ते के किनारे, लोग चले जा रहे हैं।
कुछ
फर्क पड़े हैं। और वह फर्क यह है कि जितना मन के सामने चीजें साफ होंगी उतना मन भी
भीतर से निर्मल होगा। मन को बदलने का सवाल है; चित्रों को बदलने का सवाल नहीं है।
यह मैंने कहा था, और यह मैं अब भी कहना चाहूंगा।
यह
बात सच है कि कार्य-कारण बहुत गुंथी हुई चीज है, इतनी सरल नहीं है। अक्सर एक
विसियस सर्किल होता है हर चीज का। हम जो करते हैं वह हमारे मन से संबंधित होता है।
फिर जो हम करते हैं वह हमारे मन से संबंधित हो जाता है। फिर जो हम करते हैं उससे
मन संबंधित होता है। सब जुड़ा हुआ होता है। यह बिलकुल ठीक है। लेकिन जो जुड़ता है,
वह भी हमारे अचेतन का ही हिस्सा प्रकट होता है। जो हममें नहीं है,
उसे प्रकट करने का उपाय भी नहीं है।
कितना
ही नंगी गाय को हमारे सामने घुमाया जाए, तो भी हमारे मन में कुछ पैदा नहीं
होता। लेकिन अगर पहले हमारे मन के अचेतन में नंगी गाय के प्रति एक भाव भर दिया जाए,
सप्रेशन कर दिया जाए--कि नंगी गाय को देखना पाप है। और जो आदमी नंगी
गाय को देखता है, बहुत बड़ा पापी है। उससे ज्यादा अनैतिक कोई
भी नहीं है। कभी नंगी गाय को मत देखना! और अगर इसे बचपन से बच्चे को सिखाया जाए,
वह अपने को दबाए, और जब भी गाय दिखे तो आंख
बंद कर ले और बच कर निकल जाए। तो नंगी गाय के भी चित्र बिकने लगेंगे बाजार में।
जिनको लोग छिप कर, गीता में रख कर देखेंगे।
वह
संभावना है। जिस चीज की मांग पैदा करनी हो, पहले उसकी अचेतन जरूरत पैदा करनी
जरूरी है। तो फिल्म जो कर रही है, साधु-संत उसकी जरूरत पैदा
कर चुके हैं। फिल्म अब उसका मार्केट, उसका फायदा उठा रही है,
उसका लाभ उठा रही है। ये दोनों हमें उलटे दिखाई पड़ते हैं। लेकिन
साधु-संत ने जो हमारे चित्त में सेक्स के प्रति विरोध और दमन पैदा किया है और
घबड़ाहट पैदा की है, उस घबड़ाहट का फायदा कोई तो उठाएगा। पहले
उपाय नहीं थे। वैसे पहले भी उठाया ही जाता रहा है। आज ज्यादा उपाय हैं, ज्यादा उपाय से उठाया जा रहा है।
फिर
भी मैं इस बात को कहना चाहूंगा कि नंगी तस्वीरें रोकने से कुछ भी नहीं रुकेगा।
पांच-छह हजार साल से हम रोकने की कोशिश कर रहे हैं, क्या रुक गया है?
लेकिन
आदमी के मन को बदलने से नंगी तस्वीरें बनना रुक सकती हैं। क्योंकि यह कोई स्वस्थ
नहीं मालूम होता। यह बहुत अस्वस्थ बात मालूम होती है। और दूसरा प्रश्न आप और दोहरा
दें या इस संबंध में कुछ हो तो।
सेक्स की मांग जो इंसान के दिल में है, और
अश्लीलता की मांग, इन दोनों में थोड़ा वैचारिक...
पहली
बात तो यह कि सेक्स की मांग अश्लील नहीं है, लेकिन जो समाज सेक्स की निंदा
करेगा उस समाज में सेक्स की अश्लील मांग शुरू हो जाएगी। सेक्स की मांग अश्लील नहीं
है, लेकिन सप्रेसिव सोसाइटी सेक्स की मांग को अश्लील रास्तों
पर ले जाएगी।
खाना
खाना कोई, खाने की मांग कोई पाप नहीं है। लेकिन मैं एक ऐसे घर में पैदा हुआ जहां
सोलह वर्ष तक मैंने कभी रात को खाना नहीं खाया था, और सोचता
था कि रात खाना खाया तो नरक गया। न कभी घर में किसी को खाते देखा था। और जो आस-पास
खाते थे, तो घर के लोगों का भाव भी देखा था कि वे सब नरक
जाने वाले हैं। सोलह साल तक घर के बाहर भी ज्यादा नहीं गया था, तो मुझे कभी रात खाने का मौका भी नहीं आया था।
एक
बार कुछ मित्रों के साथ पिकनिक पर गया, कालेज में पहुंचा तो। वे तो सब रात
को खाने वाले थे। पहाड़ पर दिन भर घूमे, थक गए। उन्होंने दिन
में तो खाने की कोई फिक्र न की, रात खाना बनाना शुरू किया।
अब मैं दिन भर का भूखा हूं, थका-मांदा हूं। उनके खाने की
सुगंध, सामने ही खाना बन रहा है। मेरा पूरा मन तो इनकार कर
रहा है कि खाना मत खाना, क्योंकि इससे बड़ा कोई पाप नहीं है।
और भूख कह रही है कि खाना खाना ही पड़ेगा, असंभव है रोकना।
फिर उनके खाने की सुगंध घेर रही है। फिर उन सबका मनाना भी आकर्षण दे रहा है--कि खा
ही लो, इससे क्या बिगड़ता है! हम सब नरक जाएंगे तो तुम भी चले
चलना। इतने लोग सब नरक जाएंगे।
उनकी
बात आखिर में मान ली। खाना खा लिया। खाना तो खा लिया, लेकिन रात
में तीन बार वॉमिट हुई। जब तक पूरा खाना नहीं निकल गया तब तक मैं रात में सो नहीं
सका।
उस
दिन मैंने यही सोचा कि यह पापपूर्ण चीज थी, इसलिए वॉमिट हो गई। आज मैं जानता
हूं, पाप-पुण्य होने से कोई संबंध न था। मेरा जो विरोध था,
मेरी जो निंदा थी, मेरे जो मन का भाव था,
मेरा जो सप्रेसिव दिमाग था--कि नहीं खाना है--उसने रिवोल्ट पैदा
किया है, उसने वॉमिट भी पैदा कर दी। अब तो बहुत बार खा रहा
हूं, अब वॉमिट नहीं होती। इतने लोग खा रहे हैं, उन्हें नहीं होती। उस दिन मैंने यही समझा था कि वॉमिट जो है, वह पाप को बाहर फेंक देने के लिए है।
सेक्स
की मांग तो स्वाभाविक है। न हो तो आदमी बीमार है। वह मांग तो स्वाभाविक है। लेकिन
उस स्वाभाविक मांग को अगर हम सब तरफ से निंदा करें और रोकने की कोशिश करें, तो मांग
अश्लील बन जाएगी, पाप-पुण्य बन जाएगी। और उस आदमी को भी लगने
लगेगा कि कोई अपराध का काम हो रहा है। वह उसे चोरी से भी करने लगेगा और ऐसे उपाय
खोजेगा जहां वह मांग भी पूरी हो जाए अश्लील, और कोई बाधा भी
न पड़े। अब दो ही उपाय हैं--या तो वह पिक्चर देख कर पूरा कर ले और या सड़कों पर चलती
स्त्रियों के वस्त्र छीन ले। एक ही उपाय है--या तो वह कविता पढ़ कर पूरी कर ले या
बाथरूम में गालियां लिख कर पूरी कर ले। वह कुछ उपाय खोजेगा और उस उपाय से एक नई
मांग पैदा होगी, एक नया बाजार पैदा होगा।
मैं
यह नहीं कह रहा हूं कि सेक्स की मांग गलत है। मैं यह कह रहा हूं कि सेक्स के संबंध
में हमारी जो धारणा है दुश्मनी की, वह गलत है। वह दुश्मनी की धारणा
अश्लीलता पैदा करती है। अश्लीलता दमन का सहज परिणाम है। और जितना स्वस्थ समाज होगा
उतना कम दमन वाला होगा, उतनी कम अश्लीलता होगी। क्योंकि
चीजों के तथ्यों को हमने स्वीकार कर लिया होगा।
एक
छोटा सा बच्चा पूछ रहा है,
एक छोटे से बच्चे के मन में भी जिज्ञासा है कि लड़की का शरीर कैसा है?
एक छोटी लड़की के मन में भी जिज्ञासा है कि लड़के का शरीर कैसा है?
और हम सबने उनके शरीर ढांके हुए हैं। और जिज्ञासा बिलकुल स्वाभाविक
है, क्योंकि लड़के को लड़की कुछ अलग मालूम पड़ती है; लड़की को लड़का कुछ अलग मालूम पड़ता है। घर के लोग अलग-अलग होने का भाव भी
पैदा करते हैं, कांशसनेस भी पैदा करते हैं--कि वह लड़का है,
वह लड़की है। लड़का गुड्डी खेल रहा हो तो इनकार करते हैं--कि यह क्या
लड़कियों जैसा काम कर रहे हो! स्वाभाविक है कि वह जानना चाहे कि फर्क क्या है?
भेद क्या है? और कभी उसको पूरा नहीं देखा है।
तो वह छिप कर देखना चाहता है। वह डाक्टरी का खेल खेल कर और लड़की के घाघरे के भीतर
घुस जाना चाहता है। वह कुछ न कुछ उपाय खोजेगा।
अब
ये उपाय अश्लील हुए चले जा रहे हैं। ये उपाय खतरनाक हुए चले जा रहे हैं। और इनका
ईजाद करने वाला बच्चा नहीं है, इनका ईजाद हम करवा रहे हैं। हम उसको रोक रहे
हैं। अगर लड़के और लड़कियां नंगे साथ खेल रहे हों, स्नान कर
रहे हों एक उम्र तक, नंगे बड़े हो रहे हों और कोई कांशसनेस न
दी जा रही हो कि यह शरीर अलग, यह शरीर अलग, वे उसके अलगपन से परिचित हो गए होंगे, वे बड़े हो गए
होंगे।
आज
भी आदिवासी समाज में शरीर के प्रति वह जुगुप्सा नहीं है जो हममें है। क्योंकि शरीर
खुले हुए हैं,
जुगुप्सा का सवाल क्या है! सीक्रेसी नहीं है तो अश्लीलता का सवाल
क्या है! एक आदिवासी को हैरानी ही होती है यह बात देख कर कि स्त्रियों के स्तनों
का इतना प्रचार विज्ञापनों में हो, फिल्मों में हो! हैरानी
ही होती है कि यह मामला क्या है? यह दिमाग खराब हो गया है
लोगों का क्या? स्त्री के स्तन हैं सो ठीक बात है, अब इसमें मामला क्या है इतना बढ़ाने का!
और
कालिदास से लेकर और सारे कवि स्त्री के स्तनों की चर्चा कर रहे हैं। महाकवि भी वही
चर्चा कर रहा है। कालिदास भी वही कह रहे हैं। और सारे लोग वही कह रहे हैं। कालिदास
को जंगल में फल लटके दिखाई पड़ते हैं तो भी यही दिखाई पड़ता है कि स्त्री के स्तनों
जैसे फल लटके हुए हैं।
यह
कुछ न कुछ अस्वस्थ हो गई कहीं कोई बात। कहीं हमने ऐसा धक्का दिया है कि हमने
परवर्शन का उपाय पैदा कर दिया। नहीं तो फल में फल दिखाई पड़ना चाहिए। फल से स्त्री
के स्तन को देखने का क्या संबंध है? कोई मामला नहीं समझ में आता। कोई
एसोसिएशन नहीं दिखता है। लेकिन हमने जब सब तरफ से रोका है, तो
माइंड नये-नये मार्ग खोज रहा है, नई तरकीबें खोज रहा है और
नये उपाय खोज रहा है।
यह
मांग, हमारी जो शुद्धतावादी दृष्टि है उसने पैदा की है। और मजा यह है कि वह
शुद्धतावादी दृष्टि कहती है कि हम नियम इसलिए पैदा करते हैं कि आपको स्वस्थ कर
सकें। हम व्यवस्था इसलिए देते हैं कि आप गड़बड़ न हो जाएं। हम अनुशासन इसलिए बनाते
हैं कि आदमी भटक न जाए। और उसके अनुशासन, उसकी व्यवस्था,
उसके सारे नियम मिल कर, जैसा आदमी है, उसको भटका रहे हैं।
मैं
यह नहीं कहता हूं कि कोई व्यवस्था न हो, कोई नियम न हो। मैं यह कहता हूं कि
अभी जो व्यवस्था है, अवैज्ञानिक है। व्यवस्था जरूर हो,
नियम भी जरूर हों, अनुशासन भी जरूर हो--लेकिन
वैज्ञानिक हो। क्योंकि इस व्यवस्था और नियम का यह आउट-कम है, जो हमें दिखाई पड़ रहा है। और मजा यह है कि हम सोचते हैं कि इस व्यवस्था को
और मजबूत करो, तब यह रुक जाएगा।
इसको
हम जितना मजबूत करेंगे उतना ही यह बढ़ जाएगा। यह उसी से पैदा हो रहा है। यह उसी से
संबंधित है।
यह
बात ठीक है कि कोई नियम जरूरी है समाज को चलाने के लिए। लेकिन जो नियम हमने आज तक
बनाए हैं वे समाज को चलाने में कम, रोकने में ज्यादा सहायक हुए हैं।
यह भी सच है कि समाज में एक व्यवस्था, एक थिरता चाहिए। लेकिन
थिरता का मतलब जड़ता नहीं है। और व्यवस्था का मतलब मार डालना नहीं है। और आदमी की
जिंदगी को सब तरफ से अगर इतने सींकचों में बांध दिया जाए कि हिलना-डुलना मुश्किल
हो जाए, तो वह छलांग लगा कर कूद पड़े और सब तोड़ दे, यह भी मुश्किल नहीं है। यह बिलकुल आसान है, यह उसी
से पैदा होगा।
मेरी
दृष्टि में, हमारी अश्लीलता हमारी नैतिकता का फल है। सेक्स का नहीं कह रहा हूं। सेक्स
का परवर्शन हमारी नैतिकता करती है, जैसी नैतिकता हमने बना
रखी है। इसका यह भी मतलब नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि कोई नैतिकता न हो। इसका
केवल मतलब इतना है कि जो नैतिकता अब तक है वह बहुत गहरे में अनैतिक है। उसके
परिणाम अनैतिक हैं। नैतिकता पूरी बदलनी पड़ेगी। कुछ और ढंग से सोचना पड़ेगा।
अगर
बच्चे लड़कियों को नग्न देखना चाहते हैं, लड़कियां बच्चों को नग्न देखना
चाहती हैं, तो नैतिक समाज वह होगा जो इसकी सरलतम सुविधापूर्ण
व्यवस्था कर दे, कि बच्चों को खुद अपने प्राइवेट रास्ते न
खोजने पड़ें। तो शायद एक बच्चा ज्यादा स्वस्थ पैदा हो सकेगा। जिज्ञासा उसकी पूरी हो
गई, वह आगे बढ़ जाएगा। वह अटकाव नहीं रह जाएगा। वह उलझाव नहीं
रह जाएगा। वह किसी तस्वीर में नंगा देखने की आतुरता छोड़ देगा। तस्वीर का नंगा होना
अर्थहीन हो जाएगा। उसने नंगे लोगों को देख लिया है। तस्वीर में देखने की अब कोई
जरूरत नहीं है।
तस्वीर
तभी तक सार्थक है जब तक सब्स्टीटयूट है। और वह सब्स्टीटयूट रहेगी। और हम डरते हैं
कि कहीं, जब नंगी तस्वीर इतना नुकसान कर रही है तो नंगी लड़की को देखना और नुकसान कर
देगा। हमारा तर्क यह है। वह तर्क बिलकुल गलत है। नंगी तस्वीर इसीलिए नुकसान कर रही
है कि नंगी लड़की को देखना असंभव है, नंगे लड़के को देखना
असंभव है। हम एक-दूसरे के शरीर से ही परिचित नहीं हो पाते हैं, जो कि बिलकुल सहज, स्वाभाविक जिज्ञासा है। न कुछ
अश्लील है, न कुछ बुरा है।
यह
जो मांग हम पैदा कर रहे हैं, यह मांग हमारी पैदा की हुई है। फिर यह मांग का
उत्तर भी आएगा ही। और अब चूंकि हर चीज का, आदमी की भीतरी
मांग का हरेक का शोषण संभव हो गया है, तो अब हम उसका शोषण भी
करेंगे। अब हम ऐसी व्यवस्था से शोषण करेंगे कि शोषण भी जारी रहेगा, मांग मिटेगी भी नहीं।
एक
आदमी, एक समाज अगर बच्चों को नग्न रखता हो एक सीमा तक, आठ-दस
वर्ष की उम्र तक, जब तक वे नग्न बहुत अच्छी तरह परिचित हो
जाएं, और नग्नता पर कोई ऑब्सेशन और टैबू न हो, तो हम पाएंगे कि नग्नता एक अर्थ में मुक्तिदायी है, बजाय
खींचने के। नग्नता आकर्षक नहीं है। सुंदर भी बहुत नहीं है। शायद उसे देख कर
विकर्षण ही पैदा हो सकता है, आकर्षण बहुत कम। लेकिन उसे
हमने...और जब हम नंगी तस्वीर देखते हैं तो तस्वीर बहुत क्रिएटेड मामला है। उसको हम
इस सारी व्यवस्था से बनाते हैं कि वह आकर्षक हो जाती है।
फिल्म
पर जो स्त्री हम देख रहे हैं वह स्त्री असली नहीं है। वह स्त्री नब्बे प्रतिशत
आदमी की ईजाद है। उसकी सारी बनावट, उसका सारा सौंदर्य, उसके अंग का अनुपात, वह सब ईजाद है। वह सारी
व्यवस्था है। वह सब फोटोग्राफी है, वैज्ञानिक टेक्नीक है। और
एक ऐसी स्त्री हम देख रहे हैं जिसको पहले ऋषि-मुनि स्वर्ग में अप्सरा को देखा करते
थे, अब हम उसको फिल्म में देख रहे हैं। ऋषि-मुनियों को
अप्सरा देखनी पड़ती थी, क्योंकि फिल्म उपलब्ध नहीं थी। हमको
फिल्म देखने को मिल गई इसलिए अप्सरा की हमने फिक्र छोड़ दी।
लेकिन
वह जो अप्सरा जैसी स्त्री खड़ी हो गई है वह नुकसान पहुंचाएगी। क्योंकि उसका एक बिंब
हमारे मन में बनने वाला है,
बनेगा ही। हमारी मांग भी वही है। और कोई असली स्त्री उस बिंब को
पूरा नहीं कर पाएगी। तो कठिनाई हो ही जाने वाली है। कोई असली स्त्री न उतनी
सुगंधित मालूम पड़ेगी, न उतनी सुंदर मालूम पड़ेगी, न उतनी अदभुत मालूम पड़ेगी। असली स्त्री असली होगी, ठोस
होगी। शरीर होगा, शरीर में पसीना भी होगा, बदबू भी होगी। और सौंदर्य दो दिन में फीका भी पड़ जाएगा। ठीक ही है। वह
सौंदर्य न फीका पड़ता, फासले पर है, दूर
है।
तो
यह हमने जो नैतिक आरोपण से एक व्यवस्था पैदा की है, उस व्यवस्था से अश्लीलता आ
गई है। अश्लीलता से मांग आ गई है। और मांग को पूरा करना जरूरी हो गया है। लेकिन
पुराना नीतिवादी कहता है, यह मांग से जो सप्लाई पैदा हुई है
यह बंद कर दो। उसका कहना है कि सप्लाई बंद कर देने से मांग मिट जाएगी।
यह
मुझे अवैज्ञानिक मालूम पड़ता है। मांग कैसे मिट जाएगी? नई मांगें
पैदा हो जाएंगी। और खतरनाक मांगें भी हो सकती हैं। आज अगर कलकत्ते में यह हालत है
कि सड़क पर चलती हुई स्त्री का कपड़ा उतार लें, पूरी धोती उतार
लें और उसे नंगा कर दें। गहने छीनने की हमने बात सुनी थी। पूरी धोती ही उतार लें
और नंगी स्त्री को बीच सड़क पर छोड़ दें और उससे कहें कि जाओ, पास
में दुकान है, वहां से धोती खरीद लेना।
अगर
हम चित्रों में मौका और किताबों में मौका नहीं देते हैं, तो यह हो
सकता है। यह बढ़ेगा। इसकी संभावना बढ़ती चली जाएगी। स्त्री को धक्का मारना भी
रसपूर्ण हो गया है। हालांकि धक्का मारने में कोई भी रस नहीं हो सकता। एक
प्रेमपूर्ण स्पर्श में तो रस हो सकता है, लेकिन सड़क पर चलती
एक स्त्री को धक्का मार कर निकल जाने में कौन सा रस हो सकता है, यह समझ के बाहर है। लेकिन जब प्रेमपूर्ण स्पर्श का कोई उपाय न रहा हो तो
धक्का मारना भी रसपूर्ण हो सकता है। और एक लड़की पर एसिड फेंकना कौन सा अर्थ रखता
होगा या कौन सा सेक्स से संबंधित होगा, इसकी कल्पना करनी
मुश्किल है; कि लड़की पर एसिड फेंकना, सेक्स
की किसी किताब में कभी नहीं सुझाया गया है कि यह कोई सेक्स की रिलेशनशिप होगी!
लेकिन अगर लड़की से दूर-दूर रखोगे तो यह फल होने वाला है--कि जो हमें इतने जोर से
आकर्षित कर रहा है, उसके पास भी नहीं जा सकते, उसको मिटा दो। ये विकृतियां पैदा होने वाली हैं, ये
परवर्शन पैदा होने वाले हैं।
हमारी
नीति को और हमारे परवर्शंस को, हमारी विकृतियों को मैं एक ही चीज के दो हिस्से
मानता हूं। और इसलिए परवर्शंस जो मांगें पैदा कर रहे हैं उनको मिटाने का सवाल नहीं
है। परवर्शंस जहां से कॉज़ की तरह आ रहे हैं, ओरिजिनल सोर्स
जहां से है, उसे बदलने का सवाल है। मौलिक कारण हमारी नैतिक
व्यवस्था है, जहां से विकृतियां पैदा हो रही हैं। लेकिन
पुराना नीतिशास्त्री उस नैतिक व्यवस्था पर संदेह भी नहीं उठने देना चाहता।
आप
एक और बात कहे,
वह बहुत बढ़िया है, आप कहे कि डी.एच.लारेंस की
किताबों को पढ़ कर कई स्त्रियों को लगा कि हमने तो कोई सेक्सुअल ब्लिस अनुभव ही
नहीं की। और पहले उनको बिलकुल नहीं लगा था।
इसमें
थोड़ा सोचने जैसा है। पहले उनको बिलकुल न लगने का कारण यह नहीं था कि उनको आनंद मिल
गया था। जो उनको मिल रहा था, उसको ही वे आनंद समझे हुए बैठी थीं--जो मिल रहा
था। लेकिन वह आनंद लग नहीं रहा था। लेकिन किसी आनंद का कोई पता ही नहीं था,
कोई बोध ही नहीं था। लेकिन बहुत गहरे अनकांशस में मांग तो रही होगी
कि यह आनंद नहीं है। एक बोर्डम है रोज की, जो हो रहा है।
डी.एच.लारेंस को पढ़ कर उनको पहली दफा पता चला होगा, पहली दफा
कंपेरिजन पैदा हुआ होगा। और उनके पूरे चित्त ने कहा होगा कि नहीं, वह आनंद नहीं था।
मैं
नहीं कहूंगा कि डी.एच.लारेंस को पढ़ कर नुकसान हुआ। मैं कहूंगा, उनकी
चेतना का विकास हुआ और जो अचेतन था वह प्रकट हुआ। बिलकुल प्रकट हुआ। और उन
स्त्रियों को जानना चाहिए कि वह आनंद नहीं था, तो शायद
स्त्रियां वह व्यवस्था कर सकें जहां आनंद मिल सके। अधिकतम स्त्रियों को सेक्सुअल
क्लाइमेक्स कभी मिलता ही नहीं। उन्होंने कभी अनुभव नहीं किया उस चरम अनुभव का,
जो संभोग से उपलब्ध होना चाहिए। मगर उन्हें पता भी नहीं, क्योंकि दूसरा कोई सवाल भी नहीं। अंधे आदमी को अगर आंख वाले न मिलें तो
शायद वह यही समझता होगा कि यही होना स्वाभाविक है।
सिमोन
वेल ने लिखा है कि उसको तीस साल की उम्र तक सिर में दर्द बना रहा। वह कभी मिटा ही
नहीं। पर उसे पता ही नहीं था। क्योंकि वह बचपन से साथ ही चल रहा था। जब पहली दफे
मिटा, तब उसे पता चला कि मर गए, यह तीस साल तो मेरी खोपड़ी
गर्म थी! लेकिन वह तीस साल गर्म थी तो पता कैसे चलती?
जिन
स्त्रियों को डी.एच.लारेंस को पढ़ कर पता चला, वे अगर आनंद में होतीं तो पता नहीं
चल सकता था। वे शायद यही कहतीं कि ठीक है, यह आनंद हमने
पाया। या वे यह कहतीं कि डी.एच.लारेंस फिजूल की बातें कर रहा है, हम तो इससे बहुत गहरा आनंद पा ही चुके हैं। लेकिन उनको यह लगा कि हमारा सब
व्यर्थ था, वह आनंद नहीं था।
मैं
मानता हूं, वह ठीक ही लगा। अधिकतम स्त्रियों को सेक्स से कोई आनंद नहीं मिल रहा है।
इसलिए अधिकतम स्त्रियां सेक्स के प्रति एक अरुचि जाहिर करती हैं जो पुरुष जाहिर
नहीं करते। सच बात यह है कि पुरुष और स्त्री के क्लाइमेक्स में कुछ प्राकृतिक गड़बड़
है। पुरुष का क्लाइमेक्स बहुत जल्दी आ जाता है, स्त्री का
क्लाइमेक्स थोड़ी देर से आता है। पुरुष निपट जाता है, तब तक
स्त्री क्लाइमेक्स पर पहुंचती ही नहीं। और जो नीतिवादी लोग हैं, उन नीतिवादियों ने यह उपद्रव पैदा किया है। उन नीतिवादियों की वजह से
उपद्रव पैदा हुआ। उसके कारण हैं।
असल
में स्त्री के लिए,
जिसको सेक्स फोर-प्ले कहते हैं, उसकी जरूरत है
बहुत देर तक। एकदम से सीधा संभोग किसी भी स्त्री को सुख नहीं दे सकता। उसको आधा
घंटा, घंटा भर फोर-प्ले की जरूरत है कि पुरुष उसके शरीर से
खेले। सिर्फ संभोग में न चला जाए सीधा। उसके शरीर से इतना खेले कि वह करीब-करीब
सेक्सुअलिटी से भर जाए। उसका रोआं-रोआं सेक्स से भर जाए। और तब अगर संभोग हो तो वह
करीब-करीब एक साथ क्लाइमेक्स को छू सकते हैं। नहीं तो वे छू नहीं पाते हैं,
स्त्री ठंडी ही रह जाती है। लेकिन दूसरे की स्त्री के साथ तो
फोर-प्ले हो सकता है, अपनी स्त्री के साथ फोर-प्ले करने की
कौन सुविधा पाता है! कैसे सुविधा पाएगा, कौन जरूरत समझता है?
एक एक्ट है, जिसको निपटाया और खत्म किया। वह
दो-चार मिनट में निपट जाता है।
तो
स्वभावतः स्त्रियां ऊब जाती हैं और उनको लगने लगता है कि यह सब गंदगी है। और
इसीलिए तो वे साधु-संन्यासियों के पास पहुंचती हैं, जहां वे समझाते हैं कि यह
सब गंदगी है, यह सब नरक है, इसमें कुछ
सार नहीं है। और उनको जंचती है यह बात कि सार नहीं है कोई। क्योंकि सार उन्हें कभी
दिखाई नहीं पड़ा।
पुरुषों
को यह बात इतनी नहीं जंचती कि सार नहीं है। पुरुषों को कुछ सार दिखाई पड़ा। लेकिन
अगर स्त्री ठीक चरम स्थिति में न पहुंच सके, जिसको पीक एक्सपीरिएंस कहते हैं
अगर वहां तक न पहुंच सके, तो पुरुष का भी आनंद पूरा नहीं
होता, अधूरा रह जाता है। और वह आनंद जो उसे मालूम हो रहा है
वह उतना ही है जितना कि मैस्टरबेशन में भी मालूम हो सकता है। उसमें कोई बहुत फर्क
नहीं है। लेकिन स्त्री भी जब पूरे आनंद से भर जाए तब पुरुष के साथ जो आनंद की
स्थिति है, जो ब्लिस है, डी.एच.लारेंस
उसकी बात कर रहा है।
और
मैं मानता हूं कि डी.एच.लारेंस की बात अगर नहीं सुनी गई तो दुनिया को भारी नुकसान
होगा। डी.एच.लारेंस की बात जिन स्त्रियों ने न पढ़ी हो उनको भी पढ़ लेनी चाहिए। और
जिन पुरुषों ने न पढ़ी हो उनको भी पढ़ लेनी चाहिए। अगर यह खयाल आ जाए कि कहीं कुछ
गड़बड़ हो रही है,
तो गड़बड़ सुधारी भी जा सकती है। लेकिन अगर यह खयाल रहे कि यही सब ठीक
है, यही बोर्डम सब ठीक है जो चल रहा है, तो उसे सुधारा भी नहीं जा सकता।
डी.एच.लारेंस
का स्वर्ग बहुत कीमती है,
मेरी दृष्टि में। मेरी बात गलत हो सकती है। लेकिन मुझे लगता है...और
इसका कारण यह नहीं है कि डी.एच.लारेंस ने उनके भीतर फ्रस्ट्रेशन पैदा कर दिया।
फ्रस्ट्रेशन तो मौजूद था, डी.एच.लारेंस ने सिर्फ रिवील कर
दिया। पैदा कोई कैसे कर देगा? पैदा करने का कोई सवाल नहीं
है।
हां, अब आप
दूसरी बात कहते थे--अवैज्ञानिक होने की। वह कहिए!
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
बिना
एविडेंसेस के कह रहा हूं,
यह आपको लग सकता है। लेकिन मैं जो भी कह रहा हूं, बिना एविडेंसेस के नहीं कह रहा हूं। मेरे एविडेंसेस गलत हो सकते हैं,
मेरे नतीजे गलत हो सकते हैं। लेकिन मैं बिना एविडेंसेस के नहीं कह
रहा हूं। और मैं कोई हाइपोथीसिस बनाना पसंद नहीं करता, कि
उसे पहले बना लूं और फिर उसके समर्थन में सब खोजूं। अगर वैसा करूं तो वह
अवैज्ञानिक है। वह अवैज्ञानिक है। और आप तो मेरी विचार-प्रक्रिया से पूरी तरह
परिचित नहीं हैं। और मैंने कितने एविडेंसेस और कितनी सोसाइटीज को अध्ययन करने की
कोशिश की है, उससे भी परिचित नहीं हैं। हाइपोथीसिस आपने बना
ली है। अवैज्ञानिक...मेरा मतलब यह, मैं कितनी सोसाइटीज की
फिक्र से गुजरा हूं या कितनी सोसाइटीज को समझने की कोशिश की है, एक आदमी की सीमाएं होती हैं, उन सीमाओं के भीतर जो
भी संभव हो सकता है वह मैं करता हूं।
फिर
भी मेरी यह सदा मान्यता होती है कि मैं जो कहता हूं वह बिलकुल ही गलत हो सकता है।
थोड़ा-बहुत नहीं,
बिलकुल ही गलत हो सकता है। और यह भी मैं नहीं मानता हूं कि मैं कह
रहा हूं इसलिए सही हो जाएगा और आप कहेंगे तो वह गलत नहीं हो सकता, यह भी नहीं कहता हूं।
और
जो यह आप कह रहे हैं कि मैंने एक हाइपोथीसिस बना ली है कि रिप्रेशन से यह सब होता
है। हाइपोथीसिस नहीं बना ली है। यह पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास का पूरा अनुभव यह
है कि अब तक की सारी मॉरेलिटीज किसी न किसी रूप में कम-ज्यादा रिप्रेसिव रही हैं।
और जो समाज जितना ज्यादा रिप्रेसिव रहा है वहां सेक्स परवर्शंस उतने ज्यादा पैदा
हुए हैं। जो समाज जितना कम सेक्स रिप्रेसिव रहा है वहां परवर्शंस उतने कम हैं। और
जितनी सभ्यता आगे बढ़ती है,
उतना रिप्रेशन बढ़ता है, उतने परवर्शंस बढ़ते
हैं।
यह
जो आप कहते हैं,
यह बात जरूर विचारणीय है कि कुछ समाज जो सेक्स की दृष्टि से बड़े
उन्मुक्त थे, वे मिट गए, वे नहीं बच
सके। जो समाज सेक्स की दृष्टि से रिप्रेसिव थे, वे बच सके।
और यह भी बात सच है कि जो समाज सेक्स की दृष्टि से रिप्रेसिव नहीं हैं, वे बहुत शक्तिशाली नहीं हो सके। जो समाज रिप्रेसिव हैं, वे ज्यादा शक्तिशाली हो गए। ये भी विचार करने जैसी बातें हैं।
असल
में जो समाज जितना सेक्स मुक्त होगा वह समाज उतना ही कम समाज होगा। एक-एक व्यक्ति
अपने आनंद में,
अपने रस में जीएगा। समाज जैसी चीज की धारणा मुश्किल से पैदा होगी।
समाज की धारणा पैदा होती है नियमों में बंध जाने से, व्यवस्था
को स्वीकार कर लेने से, अपने से ऊपर समाज को बिठा लेने से
समाज की धारणा विकसित होती है। तो जितना समाज सेक्स फ्री है, उतने समाज में इंडिविजुअल्स होंगे; बहुत ज्यादा
होंगे तो परिवार होंगे; समाज जैसी चीज नहीं होगी। बहुत ही
होंगे तो कबीले होंगे; समाज जैसी चीज नहीं होगी; राष्ट्र जैसी चीज पैदा नहीं हो पाएगी।
यह
कारण था, यह कारण था उनके मिट जाने का कि उनके मुकाबले जो रिप्रेसिव सोसाइटीज थीं
वे बड़े पैमाने पर संगठित हो सकीं।
और
ध्यान रहे कि जो जितना समाज सेक्स फ्री होगा उतना ही उसके भीतर क्रोध, दमन कम
इकट्ठा होगा। उसको युद्ध में नहीं उतारा जा सकता। सेक्स फ्री समाज को युद्ध में
उतारना मुश्किल है। और सेक्स रिप्रेसिव समाज को हमेशा युद्ध की जरूरत है। ताकि वह
जो सेक्स में नहीं कर पाया है वह युद्ध में कर ले।
तो
जो समाज सेक्स रिप्रेसिव है वह लड़ने की तैयारी दिखाएगा। जिस आदमी का सेक्स अतृप्त
रह गया है वह झगड़े की कोशिश में रहेगा चौबीस घंटे। वह झगड़े की जो कोशिश है, सब्स्टीटयूट
है उसका। उसके भीतर एक पागलपन घूम रहा है जिसको वह निकालना चाहता है। और सेक्स
निकालने का रास्ता नहीं है तो वह लड़ने में उतरेगा।
इसीलिए
हम सैनिक को सेक्स से दूर रखने की कोशिश करते हैं। सैनिक अगर सेक्स में संयुक्त हो
तो उसके लड़ने की संभावना क्षीण हो जाती है। और अगर सैनिक को छह महीने तक
ब्रह्मचर्य की हालत में रखा जाए तो लड़ने में उसकी गति तीव्र हो जाती है। यह तो
मिलिटरी का सारा अध्ययन कहता है कि अगर सैनिकों के साथ औरतें भेज दी जाएं तो उनका
लड़ने में मन कम लगता है,
औरतों में ज्यादा लगता है। स्वाभाविक! और जब औरतें नहीं होती हैं
उनके पास तो सिवाय लड़ने के...सेक्स की पूरी एनर्जी को हम वार एनर्जी में बदलने की
तरकीब खोज लिए हैं।
तो
जो समाज सेक्स फ्री थे वे लड़ने में समर्थ नहीं हो सके दूसरों से। क्योंकि लड़ने का
उनके पास, जो लड़ाई का जो पागलपन पैदा होना चाहिए वह पैदा नहीं हो सका। जो लड़ सकते थे
वे जीत गए। जो नहीं लड़ सकते थे वे हार गए या बिखर गए या जंगलों में हट गए या दूर
हटते चले गए। लेकिन इस कारण वे गलत नहीं हो जाते हैं। इससे केवल इतना ही सिद्ध
होता है कि एक स्वस्थ आदमी और पागल आदमी को अगर लड़ाया जाए तो पागल के जीत जाने की
संभावना ज्यादा है। एक पागल से अगर लड़ा दिया जाए तो पागल के जीत जाने की संभावना
ज्यादा है।
मैं
यह कह रहा हूं कि सेक्स रिप्रेशन जो है एक सोशल मैडनेस पैदा करता है। और सोशल
मैडनेस को निकालने के हमें रास्ते खोजने पड़ते हैं, जो कि युद्ध में मिलते हैं।
और इसलिए दस-पंद्रह साल में युद्ध जरूरी हो जाता है। अगर युद्ध न हो तो हमारे भीतर
के मनोभावों को, दमन को निकालना बहुत मुश्किल है। और इसीलिए
आप देखेंगे कि युद्ध होते ही, किसी तरह का युद्ध हो, हिंदू-मुस्लिम दंगा हो, जो पहला हमला होगा वह औरत पर
होगा। यह थोड़ा सोचने जैसा है कि यह मामला क्या है? हिंदू-मुस्लिम
लड़ें, लेकिन औरत पर हमला क्यों हो जाता है? हिंदू-मुस्लिम लड़ें तो लड़ें। लेकिन औरत क्यों बीच में आ जाती है? एकदम हिंदू-मुस्लिम का दंगा हुआ, औरत बीच में फंस
जाती है फौरन, पहला हमला उस पर है। तो ऐसा मालूम पड़ता है कि
इस लड़ाई के पीछे कहीं औरत का भाव, दमन छिपा हुआ था। लड़ाई ने
खुला मौका दे दिया। अब औरत को ले लो।
तैमूरलंग, चंगीज या
सिकंदर, जितने भी लोग दुनिया में जीते, उस जीत में दो आकर्षण थे सैनिकों के लिए। एक आकर्षण था कि तुम धन लूट
सकोगे, दूसरा आकर्षण था कि तुम औरत का भोग कर सकोगे। जो औरत
मिल जाए, तुम्हारी। किसी की भी औरत मिल जाए, तुम्हारी। यह खुली बात थी कि चंगीज और तैमूरलंग के जीतने का बुनियादी कारण
यह था कि जिन लोगों को वह लाया था उनको सब औरतें मुक्त रूप से उपलब्ध हो सकेंगी।
जिस गांव को जीत लिया उसकी सारी औरतों को वे भोग सकेंगे।
औरत
पर पहला हमला होता है,
जैसे ही झगड़ा हुआ। तो झगड़े का कोई न कोई गहरा संबंध औरत से होना
चाहिए।
दूसरी
बात यह है कि अगर आप एक आदमी को सब भांति तृप्त कर दें--अच्छा भोजन मिले, अच्छी
पत्नी मिले, अच्छा मकान मिले, जीवन में
शांति मिले, संगीत मिले, जिंदगी एक
आनंद हो--आप उसे लड़ने के लिए राजी नहीं कर सकते। वह लड़ने के लिए कैसे राजी होगा?
लड़ने के लिए फ्रस्ट्रेशन चाहिए। जिंदगी में कुछ न मिले, तो वह आदमी कहता है, जीने से तो मरना ही बेहतर है या
मारना बेहतर है। इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। न जीने में कोई फर्क है, न मरने में कोई फर्क है।
आज
अमेरिका पीछे पड़ रहा है लड़ाई के मामले में। साधारण से वियतनाम से नहीं जीत पाता।
उसका कारण है। उसका कारण है: अमेरिका सेक्स फ्री सोसाइटी है; वियतनाम
सेक्स सप्रेसिव सोसाइटी है। उसका कारण है कि अमेरिका का युवक लड़ने जा रहा है,
वह आराम छोड़ कर लड़ने जा रहा है। उसको पूरे वक्त डर है कि युद्ध मेरा
सारा आराम छीन लेगा, सब मजा छीन लेगा, सारी
जिंदगी छीन लेगा। वियतनाम का जो सैनिक लड़ रहा है, लड़ने से
आराम मिल सकता है। ऐसे तो जिंदगी में कोई आराम नहीं है। वह लड़ रहा है, उसके लड़ने की ताकत में फर्क है।
हिंदुस्तान
हारता रहा निरंतर। और जिनसे हारा वे हमसे कम विकसित लोग थे। लेकिन हारने का कारण
कुल इतना था कि हम एक आराम में थे, जिस आराम में वे नहीं थे। तैमूर
आया, या तुर्क आए, या मुगल आए, वे हमसे बहुत ही ज्यादा परेशान लोग थे, हमसे बहुत
ज्यादा फ्रस्ट्रेटेड थे। हम बहुत फ्रस्ट्रेटेड हैं, लेकिन
उनका हिस्सा हमसे भी नीचे था। उनसे हमारी टक्कर हुई, हम हार
गए। हमको हारना पड़ा। लड़ना हमारे लिए मंहगा था।
अमेरिका
को लड़ना मंहगा पड़ता जा रहा है। क्योंकि अमेरिका का लड़का कह रहा है कि हम लड़ना नहीं
चाहते, हम जीना चाहते हैं। यहां जीने की सब सुविधाएं हैं, तुम
हमें कहां लड़ने भेजते हो? अमेरिका हारेगा। अमेरिका चीन के
सामने हार सकता है। क्योंकि चीन के पास लड़ने के लिए सब कुछ उपाय है। क्योंकि आदमी
मर रहा है, लड़ने में एक रस भी हो सकता है। एक संभावना भी है,
एक होप भी है, एक आशा भी कि शायद लड़ने से सुख
मिल जाए। यहां तो सुख है नहीं बिलकुल।
जब
भी कोई समाज विकसित होता है सब तरह की सुख-सुविधा में, तब वह
लड़ने में कमजोर पड़ जाता है। यानी मेरा कहना यह है कि जैसे ही कोई व्यक्ति तृप्त
हुआ, जिंदगी एक फुलफिलमेंट हुई, उसको
आप लड़ा नहीं सकते। तो सेक्स फ्री सोसाइटीज मर गईं, वे लड़
नहीं सकीं, लड़ नहीं पाईं। सेक्स सप्रेसिव सोसाइटीज जीत गईं,
क्योंकि वह लड़ने का फीवर अपने में पैदा कर सकीं। वह सेक्स एनर्जी को
लड़ाई में उतार सकीं।
फिर
मैं यह नहीं कहता कि मैं जो कहता हूं वह कोई परम सिद्धांत हो जाना चाहिए, कोई
एब्सोल्यूट ट्रुथ हो जाना चाहिए। यह मैं कहता ही नहीं। अगर मैं यह कहूं तो मैं
अवैज्ञानिक आदमी हूं। अवैज्ञानिक चित्त का लक्षण मैं यह मानता हूं कि वह जो कहता
है, मानता है कि यह एब्सोल्यूट ट्रुथ है। यह मैं कहता नहीं।
यह मेरा निवेदन है, इससे ज्यादा नहीं है। यह बिलकुल गलत हो सकता
है। और आपसे प्रार्थना यह नहीं है...
और
जो आप कहते हैं कि आप कनविंस करिए!
कनविंस
करने की बहुत फिक्र मैं नहीं करता। क्योंकि कनविंस करने की फिक्र का मतलब हमेशा यह
होता है कि ट्रुथ मुझे मिल गया है, सत्य मुझे मिल गया है, अब काम कनविंस करने का है, कनवर्ट करने का है। ईसाई
कनविंस कर रहा है, मुसलमान कनविंस कर रहा है। वे कनविंस कर
रहे हैं। क्यों? ट्रुथ तो मिल गया है, सत्य
तो पा लिया है। अब एक काम है, दूसरे को कनवर्ट करने का।
मेरा
यह कहना नहीं है। मैं आपको कनविंस नहीं कर रहा हूं, सिर्फ निवेदन कर रहा हूं।
परसुएड कर सकूं तो भी काफी है, कनविंस करना तो बहुत दूसरी
बात है। परसुएशन पर्याप्त है। और परसुएशन में हो सकता है हार जाऊं। अगर गलत हूं तो
हार जाना चाहिए, इसमें कोई सवाल नहीं है, आपको परसुएड नहीं होना चाहिए। लेकिन यह आप इतनी जल्दी अगर कह देंगे कि
मेरा चिंतन अवैज्ञानिक है, तो थोड़ी जल्दी हो जाएगी। हो सकता
है अवैज्ञानिक, इसमें कोई बहुत कठिनाई नहीं है। क्योंकि
अवैज्ञानिक होना ज्यादा आसान है वैज्ञानिक होने की बजाय। वैज्ञानिक होना बहुत
मुश्किल है।
लेकिन
निवेदन मेरा यह है कि मैं जो भी कह रहा हूं, उसमें कोई आग्रह नहीं है। सत्य का
आग्रह भी नहीं रखता, सत्याग्रह भी नहीं है मेरे मन में--कि
आपसे कहूं कि जो मैं कह रहा हूं वह सत्य है, नहीं मानेंगे तो
उपवास कर दूंगा। मैं मानता हूं यह सब कोअर्शन है। किसी भी तरह आपको कनविंस करने का
सब कोअर्शन है, सब हिंसा है। वह भी नहीं है। आपसे बात निवेदन
कर दी, खतम हो गई बात। इससे ज्यादा कोई फिक्र नहीं करता।
आपको ठीक लगी, गलत लगी, यह भी फिक्र
नहीं है। आप सोच लेंगे, आप सोचने वाले लोग हैं। ठीक लगेगी
ठीक है, नहीं लगेगी नहीं है। लेकिन जो मुझे लगता हो, कि जितना अभी मुझे ज्ञात है उसमें मुझे जो ठीक लगता हो, उसे निवेदन करने का हक तो मांगना ही चाहिए। उसको निवेदन करने के हक से
ज्यादा और कोई बात नहीं है।
तो
इतनी जल्दी न तय कर लेना कि अवैज्ञानिक चिंतन है।
असल
में चिंतन अवैज्ञानिक हो ही नहीं सकता। चिंतन न होना ही अवैज्ञानिक होना होता है।
आप सोचेंगे तो अवैज्ञानिक नहीं हो सकते। सोचेंगे तो वैज्ञानिक ही होना पड़ेगा।
सोचने की प्रोसेस,
दि वेरी प्रोसेस, आपको वैज्ञानिक बनाती है।
क्योंकि सोचने की प्रक्रिया में आपको पता चलता है--कितना कम ज्ञात है, कितना ज्यादा अज्ञात है! सोचने की प्रक्रिया में पता चलता है कि जिंदगी
कोई सरल चीज नहीं है कि एक सिद्धांत से समझाई जा सके, बहुत
जटिल है। सोचने की प्रक्रिया में पता चलता है कि सीमाएं हैं हमारी और जीवन की बहुत
असीम व्यवस्था है।
तो
मैं तो मानता हूं कि 'अवैज्ञानिक चिंतन' ऐसा शब्द भी गलत है, कंट्राडिक्ट्री है। चिंतन अवैज्ञानिक नहीं हो सकता। चिंतन न हो तो ही
अविज्ञान होता है। और चिंतन हो तो विज्ञान पीछे आना शुरू हो जाता है। और चिंतन हम
कैसे पैदा करें?
तो
हमारी जो मान्य धारणाएं हैं उन पर शक पैदा करें तो चिंतन पैदा होगा। मान्य धारणाओं
पर संदेह खड़ा करें तो चिंतन पैदा होगा। मान्य धारणाओं को हिलाएं, फिर से
पूछें, फिर से सवाल उठाएं, तो पैदा
होगा।
यह
मैं मानता हूं कि सेक्स फ्री सोसाइटीज हार गईं। लेकिन जीत कोई सफलता नहीं है। जीत
कोई सफलता नहीं है। और दुनिया अच्छी बनेगी तो सेक्स फ्री होगी, हम लड़ना
बंद करेंगे। बजाय इसके कि हम सेक्स रिप्रेशन डालें और लड़ाई जारी रखें, लड़ना बंद किया जाना चाहिए। सच तो यह है कि लड़ने के लिए, लड़ाने के लिए भी सेक्स सप्रेशन बिलकुल जरूरी है। बिलकुल जरूरी है। लड़ाया
नहीं जा सकता आदमी को उसके बिना।
और
अगर सारी दुनिया में आदमी की जरूरतें, अगर सारी जरूरतें पूरी हो जाएं,
भोजन की, कपड़े की, सेक्स
की--और उनमें उसे आनंद आ जाए, तो वह अपने में एक आइलैंड बन
जाएगा, वह आपकी फिक्र छोड़ देगा। वह अपने में मुक्त-भाव अनुभव
करेगा। वह अपने में घिर जाएगा। वह इसकी फिक्र छोड़ देगा कि दूसरा आदमी क्या कर रहा
है। नैतिक है कि अनैतिक है। दूसरे के घर में क्या हो रहा है, उसके की-होल में से झांक कर देखना चाहिए कि नहीं झांकना चाहिए। दूसरा आदमी
अच्छा है या बुरा, यह फिक्र छोड़ देगा। यह हमारी सारी फिक्र,
हमारे भीतर जो फ्रस्ट्रेशन और विषाद है, उसकी
वजह से पैदा हुई है।
फिर
भी, इतना ही मैं कहता हूं कि ये सारे प्रश्न हमें उठा कर सोच लेने चाहिए। और
अगर मुझसे प्रश्न भी उठ जाएं--उत्तर तो मैं देता ही नहीं हूं--प्रश्न भी उठ जाएं
तो काफी है। काम चल पड़ेगा, लोग सोचने लगेंगे। उत्तर भी नहीं
दे रहा हूं आपको। आप एक प्रश्न उठा रहे हैं, मैं और दस
प्रश्न उसके साथ खड़े कर रहा हूं।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
सिगमंड
फ्रायड ने कहा है कि जो दमन है, रिप्रेशन है, वह सभ्य
होने के लिए चुकाई गई कीमत है। आदमी को सभ्य होना हो तो हमें किसी न किसी मात्रा
में दमन को स्वीकार करना पड़ेगा। यह बात सच है, लेकिन अतीत के
लिए, भविष्य के लिए नहीं। सिगमंड फ्रायड जो कह रहा है वह सच
है। अतीत के मनुष्य को कुछ भी पता नहीं था कि सिवाय रिप्रेशन के आदमी को सभ्य करने
का और कोई उपाय हो सकता है। सिगमंड फ्रायड की दृष्टि अतीत के पूरे अनुभव पर खड़ी है,
भविष्य की परिकल्पना नहीं है उसमें। आदमी को पता ही नहीं था कि बिना
दमन किए हम किसी आदमी को सभ्य कैसे बनाएं!
लेकिन
बात अब बहुत बदल गई है। अब हमें बहुत कुछ पता है। बल्कि सच यह है कि अब हालत उलटी
है, कि अगर हम आदमी के रिप्रेशन को किन्हीं-किन्हीं मात्राओं में छुटकारा नहीं
दिलाते तो आदमी को बचाना ही मुश्किल है, सभ्य बनाना तो बहुत
दूर की बात है। आदमी सभ्य तो बन चुका, लेकिन जिस प्रक्रिया
से बना है उस प्रक्रिया ने उससे उसके सारे जीवन का रस छीन लिया। सभ्य तो वह हो
गया। भविष्य में हमारे पास ज्यादा महत्वपूर्ण रास्ते हो सकते हैं। और धीरे-धीरे
उनका मार्ग खुल रहा है कि हम आदमी को सभ्य बना सकते हैं बिना रिप्रेशन के।
और
यह बात भी ठीक है कि पूर्णतया रिप्रेशन से मुक्त समाज शायद कभी न बन सके। असल में
पूर्णता की बात ही नहीं करनी चाहिए किसी भी दिशा में। किसी भी दिशा में एब्सोल्यूट
की बात नहीं करनी चाहिए,
क्योंकि वह होगा ही नहीं। हमेशा बात रिलेटिव की है। ज्यादा मुक्त
समाज बन सकता है। पूर्ण मुक्त समाज कभी नहीं बनेगा। पूर्ण मुक्त व्यक्ति बन भी
सकता है। लेकिन वह भी शायद पूर्णता पूर्ण नहीं हो सकती। लेकिन समाज तो कभी पूर्ण
नहीं बन सकता। लेकिन अधिकतम पूर्णता के निकट हम उसे ले जा सकते हैं। या अपूर्णता
के निकट ले जा सकते हैं।
अतीत
के मनुष्य के पास जैसे बैलगाड़ी साधन थी कुल जमा कहीं जाने का, और वह सोच
भी नहीं सकता था कि अंतरिक्ष यान हो सकते हैं। मनुष्य के रूपांतरण में, ट्रांसफार्मेशन में भी रिप्रेशन बिलकुल बैलगाड़ी जैसा मेथड है, एकदम क्रूडेस्ट मेथड है, जो आदमी को हम सुसभ्य बनाने
के लिए उपयोग में लाएं। अगर दो सौ साल पुराने शिक्षक से पूछो कि शिक्षा का रास्ता
क्या है, तो वह डंडा बताएगा। उसकी कल्पना के बाहर है कि डंडे
के बिना भी कोई शिक्षित हो सकता है! लेकिन अब हम जानते हैं कि डंडे के द्वारा
शिक्षित करना खुद भी एक तरह की अनकल्चर्ड और अनएजुकेटेड स्थिति है। डंडे के द्वारा
शिक्षित करना भी अशिक्षित आदमी का ही लक्षण है।
लेकिन
क्या कर सकते थे,
कोई उपाय नहीं था। जो अतीत में हो गया है वह होने वाला था, वह हो गया है। लेकिन भविष्य में अब आदमी को सभ्य बनाने के दूसरे रास्ते
खोजे जा सकते हैं। और रिप्रेशन से तो आदमी अब सभ्य नहीं रह सकेगा, आत्मघात कर लेगा। दुनिया में फैलते हुए युद्ध और आदमी के पास आती हुई
ताकतें विनाश की, अगर सेक्स रिप्रेशन को आप जारी रखते हैं,
तो एटम और हाइड्रोजन बम का गिरना जरूरी है। वह उसी रिप्रेशन का इकट्ठा
रूप है।
होता
यह है कि हम पानी को गर्म करें तो निन्यानबे डिग्री तक वह भाप नहीं बनता, तब तक वह
सिर्फ गर्म होता है, सौ डिग्री पर भाप बनना शुरू होता है।
निन्यानबे डिग्री तक सिर्फ गर्म होता है, सौ डिग्री पर भाप
बनना शुरू होता है।
पांच
हजार साल में सिर्फ सभ्य बन रहा था आदमी। सौवीं डिग्री पर पता चला है कि एवोपरेट
हो जाएगा। अब सभ्यता की वह प्रोसेस काम नहीं करेगी, हमें कुछ और प्रोसेस खोजनी
पड़ेगी। अगर वही प्रोसेस सभ्यता की एकमात्र है, अल्टरनेटिव और
कोई नहीं है, तो आदमी की मृत्यु सुनिश्चित है। आदमी बच नहीं
सकता है अब आगे। या तो पूरी मनुष्यता पागल हो जाएगी, न्यूरोटिक
हो जाएगी। जैसी कि करीब-करीब हालत है। और या फिर हम कोई बड़े युद्ध में उतर जाएंगे।
और राजनीतिज्ञ हमारे बीच सबसे ज्यादा न्यूरोटिक है और उसके हाथ में सारी ताकत
इकट्ठी हो गई है। खतरा है पूरा का पूरा।
हमें
सभ्य बनाने की प्रक्रिया में भी बदलाहट करनी पड़ेगी। और अब हमारे पास इतना नया
ज्ञान है जो फ्रायड के पास भी नहीं था। फ्रायड एक अर्थ में उतना ही पुराना है
जितने मनु महाराज। समय का फासला नहीं है अब। इधर पैंतीस साल में फ्रायड के मरने के
बाद जो संभावनाएं खुली हैं,
उनका फ्रायड को सपने में पता नहीं था। फ्रायड तो मनोविज्ञान की
बिलकुल क ख ग की बात कर रहा था। तो फ्रायड की बात अब शास्त्र-वचन नहीं है। अब हमें
सोचना पड़ेगा। यह सच है कि अतीत में मनुष्य रिप्रेशन के द्वारा ही सभ्य किया गया।
लेकिन जो सभ्यता आई वह ऐसी आई कि वह न्यूरोटिक है। अब हमें आगे सोचना पड़ेगा। आदमी
सभ्य भी किया जा सके और न्यूरोटिक भी न हो। और इसके लिए उपाय खोजने पड़ेंगे। और मैं
मानता हूं कि उपाय मिलने शुरू हो गए हैं।
निश्चित
ही हर उपाय के साथ खतरा जुड़ा होता है। रिप्रेशन का एक मेथड था, उसके साथ
खतरा था न्यूरोसिस के आ जाने का, वह आ गई। अब हमारे पास नये
उपाय हैं जिनके द्वारा हम...जैसा आपने कहा, सिर्फ सवाल सेक्स
का ही नहीं है, एग्रेशन का है। लेकिन आप हैरान होंगे कि
एग्रेसिव मेंटेलिटी के पीछे पचास मौकों पर तो सेक्स होता है। यह कहना मुश्किल है
कि छुरा भोंकते वक्त आदमी को वही रस नहीं आता जो सेक्सुअल पेनिट्रेशन में आता है।
यह सोचने जैसा है कि दूसरे आदमी के शरीर में छुरा भोंकना सेक्सुअल पेनिट्रेशन से
बहुत भिन्न नहीं है। और छुरा और तलवार किसी न किसी अर्थों में जननेंद्रिय के
प्रतीक हैं जो हम दूसरे की बॉडी में घुसा देते हैं। और हो सकता है कि वह जो
रिप्रेसिव माइंड है, वह ये तरकीबें खोज रहा है दूसरे के शरीर
में प्रवेश के। आप दूसरे रास्ते नहीं दे रहे हैं। वह दूसरे रास्ते खोज रहा है। और
न्यूरोटिक हुआ चला जा रहा है।
अब
मेरा मानना है,
सेक्सुअल पेनिट्रेशन का तो एक अर्थ भी है, लेकिन
छुरा घुसाने का बिलकुल अर्थ नहीं है। एग्रेशन जो है, वह
फ्रस्ट्रेशन का फल है बहुत मौकों पर। कुछ मौके होंगे जहां बॉडिली या फिजियोलॉजिकल
कारण होंगे। अब तक फिजियोलॉजिकल कारणों को दूर करने का हमारे पास कोई उपाय नहीं
था। लेकिन साइकेडेलिक ड्रग्स ने वह उपाय हमारे सामने रख दिया है--कि हम आदमी के
फिजियोलॉजिकल और केमिकल कंस्ट्रक्शन में फर्क ला सकते हैं।
खतरे
उसके भी हैं। खतरे तो हर मेथड के साथ हैं। क्योंकि मेथड तो न्यूट्रल है। क्या हम
उपयोग कर लेंगे। अब हमारे पास वे ड्रग्स हैं कि एक आदमी को देकर हम उसका सारा
एग्रेशन छीन ले सकते हैं। तो बजाय रिप्रेशन के एक ड्रग देकर उसका एग्रेशन विसर्जित
कर देना अर्थपूर्ण मालूम पड़ता है। और पावलफ या उस तरह के जिन लोगों की खोजें इस
संबंध में गहरी हैं,
उनका तो मानना ही यह है कि यह मामला ही केमिकल है। एक खास हार्मोन
आपको एग्रेसिव बना रहा है, उसको अलग कर दो। इसके लिए न नीति
की जरूरत है, न संन्यासी को समझाने की जरूरत है, न मंदिर की जरूरत है। एक हार्मोन आपको क्रोधित कर रहा है, उसको अलग करो। और एक हार्मोन आपको क्षमा, उदारता और
सहानुभूति देता है, उसको डालो।
इसकी बहुत
संभावनाएं हैं। इसकी
बहुत संभावनाएं हैं
कि बुद्ध और
महावीर गलती में रहे हों कि साधना के कारण शांत हो गए हैं। इसकी बहुत
संभावनाएं हैं कि फिजियोलॉजिकल केमिस्ट्री उनकी भिन्न रही हो। और आज नहीं कल इस पर
सोचना पड़ेगा। इस पर सोचना पड़ेगा कि बुद्ध के शरीर की केमिस्ट्री में ही तो कहीं यह
बात नहीं है कि करुणा निकलती है। और पावलफ तो यही कहेगा कि बात यही है कि बुद्ध की
बॉडी में...और यह भी हो सकता है कि हमारे योग की सारी प्रक्रियाएं कुछ न करती हों, सिर्फ
केमिकल फर्क लाती हों। लंबा उपवास केमिकल फर्क लाता है। गहरी आक्सीजन, जोर से श्वास लेना, प्राणायाम, केमिकल फर्क लाता है। यह हो सकता है, एक आदमी जो
प्राणायाम करता हो, कम एग्रेसिव हो जाए। लेकिन इसका गहरे में
मतलब इतना ही हो सकता है कि आक्सीजन की ज्यादा मात्रा एग्रेशन कम करती है। तो
फिजूल प्राणायाम करो रोज, इसकी क्या जरूरत है? आक्सीजन तो डाली जा सकती है सरलता से।
वैज्ञानिक
चिंतन हमें वहां खड़ा कर रहा है जहां हम आदमी को एग्रेशन से मुक्त कर देंगे बिना
रिप्रेशन के। और आदमी में जिन गुणों की हमने हजारों साल से आकांक्षा की थी, क्षमा की,
दया की, मैत्री की, करुणा
की, वह तो साइकेडेलिक ड्रग्स से हो सकता है अब।
लेकिन
खतरा उसका है। खतरा यह है कि जब तक दुनिया राजनीतिज्ञों के हाथ में है, खतरा पूरा
है। कौन कह सकता है कि एक हुकूमत अपने सारे मुल्क को ड्रग्स देकर रिबेलियन के
खिलाफ ठंडा कर दे। कठिनाई नहीं है। यह हो सकता है कि आपके रिजर्वायर पर ड्रग्स
डाले जाएं, केमिकल्स डाले जाएं। रोज पानी आप पीते रहें और
आपके भीतर जो रिबेलियन, रेवोल्यूशन हो सकती है वह ठंडी हो
जाए। और मैं मानता हूं कि माओ या रूस में इसका प्रयोग होगा। इस पर काफी खोजबीन
चलती है कि हम आदमी के भीतर से विरोध कैसे खत्म कर दें?
तो
खतरे तो हर चीज के हैं। लेकिन खतरों से बच कर उनके फायदे उठाने की चेष्टा की जानी
चाहिए। और अगर दुनिया में एक हुकूमत बन जाए तो ही साइकेडेलिक ड्रग्स का हम ठीक
उपयोग कर सकेंगे,
नहीं तो बहुत मुश्किल मामला है। और इसलिए अब दुनिया में किसी तरह की
डिक्टेटरशिप के लिए कोई मौका नहीं होना चाहिए, किसी भी कीमत
पर। चाहे वह समाजवाद लाती हो, चाहे साम्यवाद लाती हो,
चाहे कितने ही सपने दिखाती हो, लेकिन किसी
कीमत पर अब डिक्टेटरशिप बरदाश्त करना खतरनाक है। क्योंकि अब डिक्टेटर्स के हाथ में
ऐसी ताकते हैं, जो दुनिया में कभी आदमी के हाथ में नहीं थीं।
हमें पता ही नहीं चलेगा कि हमारे साथ क्या किया जा रहा है! और हमारे भीतर से सारा
विरोध, सारा क्रोध, सारा रेसिस्टेंस,
सब खींच लिया जा सकता है। खतरे हैं।
लेकिन
इतना मैं आपसे निवेदन करूंगा कि इन खतरों को जान कर, इनके फायदे उठाए जा सकते
हैं। ऐसे बच्चे पैदा किए जा सकते हैं जो पैदाइश से नॉन-एग्रेसिव हों।
अहिंसा-वहिंसा सिखाने की बहुत जरूरत नहीं है। नॉन-एग्रेसिव आदमी पैदा किया जा सकता
है। असल में हमने आदमी को वैज्ञानिक ढंग से पैदा करने के संबंध में अभी सोचा ही
नहीं है। बिलकुल नहीं सोचा है। कैसा ही आदमी पैदा हो जाता है, फिर उसको सिखाने की कोशिश करते हैं।
और
मैं मानता हूं कि सिखाना करीब-करीब असफल सिद्ध हुआ है, कुछ सफल
नहीं हुआ। बुद्ध चालीस साल सिखाते रहे, एक बुद्ध पैदा नहीं
कर पाए। असफलता पक्की है। चालीस साल बुद्ध मेहनत करें और एक बुद्ध पैदा न हो पाए,
असफलता पक्की मालूम पड़ती है। और ऐसा लगता है कि कुछ इंडिविजुअल
डिफरेंस हैं भीतर, कि जो बुद्ध को संभव है वह दूसरे को संभव
नहीं हो पाए।
इसका
सबका वैज्ञानिक चिंतन हो,
तो मैं समझता हूं अब सभ्य बनाने के लिए हमें पुराने अत्यंत जड़
प्रयोग करने की जरूरत नहीं है। ज्यादा वैज्ञानिक, समुचित मार्ग
हमारे पास है। एक बहुत ही अदभुत आदमी पहली दफा पासिबिलिटी पैदा हुई है पैदा होने
की। अब तक जो पैदा होते थे, वह सब एक्सिडेंट है--चाहे बुद्ध
हों, चाहे महावीर, चाहे क्राइस्ट,
चाहे कोई भी--वह एक्सिडेंट है बिलकुल। हमारी इस गड़बड़ भीड़ में कभी
कोई एक आदमी ठीक पैदा हो जाता है, बिलकुल एक्सिडेंट है। उसको
गिनती में नहीं लेना चाहिए। लेकिन अब हम अगर थोड़ा वैज्ञानिक व्यवस्थापन दें...और
पुरानी नीति के साथ वह व्यवस्थापन नहीं चलेगा।
जैसे
कि आज सुबह ही मैं बात कर रहा था, हर आदमी को बच्चा पैदा करने का हक नहीं होना
चाहिए। नहीं हो सकता। अगर हम थोड़ा भी वैज्ञानिक विचार करें तो। बच्चे पैदा करने का
हक तो कुछ ही लोगों को हो सकता है, सबको नहीं हो सकता।
पति-पत्नी बनने का हक सबको हो सकता है। लेकिन बच्चे पैदा करने का हक नहीं हो सकता।
बाप और मां बनने का हक कुछ लोगों को ही दिया जा सकता है। और अगर हम इस सब पर विचार
करें तो एक पचास साल में हम बिलकुल ही नई रेस खड़ी कर सकते हैं जिसका पुराने आदमी
से कोई वास्ता नहीं।
लेकिन
अब इसके उपाय बनते जा रहे हैं, क्योंकि आर्टिफिशियल इनसेमिनेशन शुरू हो गया
है। जानवर के साथ तो हम करने लगे हैं। क्योंकि जानवर कुछ इनकार नहीं करता। न उसकी
कोई नीति है, न कोई शास्त्र है। आदमी के साथ कठिनाई है। उसकी
नीति, उसके शास्त्र बड़ी बाधा बनते हैं। यह मैं सोच ही नहीं
सकता कि मेरी पत्नी से और दूसरे का वीर्य उधार मांग कर बच्चा पैदा किया जाए। यह
बड़ा घबड़ाने वाला मालूम पड़ता है।
घबड़ाने
वाला कुछ भी नहीं है। जब मैं अपने बच्चे को अच्छा कपड़ा देना चाहता हूं, अच्छी
शिक्षा देना चाहता हूं, अच्छा मकान देना चाहता हूं, तो अच्छा बीज क्यों न देना चाहूं! साइंटिफिक होने का तो मतलब यही होगा कि
उसे अच्छे से अच्छा बीज उपलब्ध हो सके। इस दुनिया में जो भी श्रेष्ठतम वीर्यकण मिल
सके, वह मेरे बच्चे का आधार बने। लेकिन वह हमारी हिम्मत नहीं
जुट पाती। नहीं तो आइंस्टीन या इतने बढ़िया लोगों के वीर्यकण खोने नहीं चाहिए।
बिलकुल अवैज्ञानिक है। वेस्टेज है, सियर वेस्टेज है--कि
आइंस्टीन जैसा आदमी मर जाए और उसके सारे वीर्यकण खत्म हो जाएं! उसके सारे वीर्यकण
सारी दुनिया में अच्छी मांओं को उपलब्ध हो जाने चाहिए।
यह
उदाहरण के लिए कह रहा हूं।
हमारी
नीति बहुत दिक्कत दे रही है। क्योंकि नीति बिलकुल पुरानी है, प्रिमिटिव
है, जिसमें कुछ समझ नहीं है। और हमारे पास समझ इतनी बढ़ गई है
जिसका कोई हिसाब नहीं है। उन दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं है। जब तक नीति का
ढांचा न टूटे, हम अच्छा आदमी पैदा कर ही नहीं सकते। युद्ध
जारी रहेगा, पागलपन जारी रहेगा, बीमारी
जारी रहेगी, अपराध जारी रहेंगे, सब
जारी रहेगा। क्योंकि आदमी के साथ साइंटिफिक होने के लिए हम तैयार नहीं हैं। हम सब
चीजों में साइंटिफिक हो जाते हैं। बैलगाड़ी की जगह हम हवाई जहाज ले आते हैं। कोई
दिक्कत नहीं मालूम होती। पुराने झोपड़े की जगह अच्छा मकान बना लेते हैं। सड़क पर
पाखाना करने की बजाय हम सेप्टिक लैट्रिन बना लेते हैं। सारा विज्ञान का उपाय हम
अपने से बाहर करते हैं। सिर्फ आदमी को हम छोड़ देते हैं।
यह
बड़ी खतरनाक बात है। क्योंकि सारी दुनिया वैज्ञानिक हो गई है, सिर्फ
आदमी अवैज्ञानिक है। इसके बीच तालमेल नहीं बैठ रहा है, मुश्किल
खड़ी हो रही है। और इसीलिए तो गांधी जैसे लोग यह सुझाते हैं कि दुनिया को भी अवैज्ञानिक
करो, नहीं तो मुश्किल हो जाएगी। उसका कारण कुल इतना है कि
तालमेल टूट रहा है।
दो
ही उपाय हैं: या तो आदमी के साथ भी विज्ञान का उपयोग करो, और या फिर
बाहर भी विज्ञान का उपयोग छोड़ दो, चर्खात्तकली पर वापस लौट
जाओ, नीचे लौटो। दो ही उपाय दिखते हैं हार्मनी के भविष्य में,
कि या तो बाहर हम विज्ञान को छोड़ दें या भीतर भी विज्ञान का प्रयोग
करें।
और
बाहर छोड़ा नहीं जा सकता। बेवकूफी होगी छोड़ना। इतने हजारों वर्षों के श्रम और
प्रतिभा का फल है जो हमें उपलब्ध हुआ है। अब चर्खात्तकली पर लौट जाना ऐसी निपट
नासमझी होगी जिसका हिसाब नहीं है! हां, आदमी के साथ हमको वैज्ञानिक होने
की चेष्टा करनी चाहिए, उसके जन्म से लेकर मृत्यु तक। पूरे
विज्ञान की हमें फिक्र करनी चाहिए। और अगर यह हो सकती है, तो
पुरानी नीति का ढांचा हमें तोड़ना ही पड़ेगा। एकदम तोड़ना पड़ेगा।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
वे
मित्र पूछ रहे हैं कि विचार और दर्शन में क्या फर्क है? और
विज्ञान विचार है या दर्शन? दूसरी बात यह पूछ रहे हैं कि
सेक्स को मैं सेंट्रल एक्सपीरिएंस कह रहा हूं और उसके हल से बहुत कुछ हल होगा। यह
मुझे बाद में सूझा है कि पहले से ही खयाल में है?
पहली
तो बात यह, विचार कभी नया नहीं होता। जब हम किसी चीज के संबंध में सोचते हैं, तो जो हम जानते हैं हम उसकी ही पुनरावृत्ति करते हैं। अगर मैं आपसे कहूं,
कुर्सी के संबंध में सोचिए! तो आप क्या करेंगे? क्या प्रोसेस होगी? करेंगे क्या? कुर्सी के संबंध में जो जानते हैं, सुना है, पढ़ा है, देखा है, अनुभव किया
है, वह सारी स्मृति और सारा अनुभव दोहरना शुरू होगा कुर्सी
के आस-पास। विचार कभी मौलिक नहीं है। विचार वही है जो हमारी स्मृति का हिस्सा बन
गया है। उसी को हम दोहरा लेते हैं। विचार ठीक से समझें तो मेमोरी है। उसका
पुनरावर्तन है।
दर्शन
मैं कह रहा हूं कि एक ऐसी जगह पहुंच जाता है विचार, जहां आप आगे सोच ही नहीं
सकते। सोचने की सीमा आ जाती है। समझ लीजिए, कुर्सी के बाबत
जो भी आप जानते हैं, सब सोच लिया, और
फिर भी लगा कि कुछ हल नहीं हुआ, बात वहीं की वहीं खड़ी है।
कुर्सी उतनी ही अज्ञात और अननोन रह गई है जितनी पहले थी। और आप चुप खड़े रह गए।
विचार बंद हो गया। अब भी आप होंगे, कुर्सी होगी। अब जो
संभावना है उसको मैं दर्शन या इनटयूशन की कह रहा हूं।
और
विज्ञान भी गहरे में इनटयूशन है, विचार नहीं है। वैज्ञानिक विचार कर रहा है,
कर रहा है, कर रहा है...एक क्षण आता है कि सब
विचार असमर्थ हो जाता है, नहीं आगे सोच पाता, विचार ठहर जाता है, एक डेड स्टॉप आ गया। सिर्फ कांशस
रह जाता है। प्रॉब्लम रह जाता है, कांशसनेस रह जाती है।
थिंकिंग गई। इसी क्षण में कुछ घटना घटती है, जिसे मैं दर्शन
कह रहा हूं। टेक्नीशियन विचार कर रहा है। वैज्ञानिक दर्शन कर रहा है।
लेकिन
दर्शन को भी जब दूसरे को प्रकट करना हो तो विचार में ही करना पड़ेगा। प्रकट करने का
माध्यम विचार है। संगृहीत करने का माध्यम विचार है। लेकिन एक इनटयूटिव विज़न, चाहे
दर्शन हो धर्म का, और चाहे विज्ञान का, गहरे में मैं मानता हूं कि विज्ञान, धर्म, सारे विज़न्स आदमी को तब उपलब्ध होते हैं, जब वह सब
विचार छोड़ देता है। लेकिन विचार तभी छूटता है जब कि आप पूरे विचार से गुजर जाएं।
और उस डेड एंड पर पहुंच जाएं, जहां विचार फ्यूटाइल हो जाता
है। जहां लगता है, अब विचार आगे नहीं जाता है। छोड़ दो। अब
विचार से कुछ होता नहीं। विचार कुछ भी नहीं कर सकेगा। और पूरा मन शांत हो गया,
विचार खो गया। सिर्फ आपकी चेतना प्रॉब्लम को साक्षात्कार कर रही है।
उसको मैं दर्शन कह रहा हूं। विज्ञान भी, उसकी मौलिक खोजें,
सब दर्शन हैं।
एप्लाइड एस्पेक्ट तो ...
नहीं, एप्लाइड
एस्पेक्ट नहीं। एप्लाइड एस्पेक्ट तो विचार है। क्योंकि जब एक दफे विज़न मिल गया,
एक दृष्टि मिल गई, एक खयाल आ गया, तो अब उस खयाल को एप्लाई करना तो आपके पुराने सारे विचार का उपयोग करके
होगा। वह तो सब विचार है। एप्लाइड साइंस तो थिंकिंग है, लेकिन
प्योर साइंस इनटयूशन है। वह इनटयूटिव है।
और
इसीलिए, जैसे मैडम क्यूरी या आइंस्टीन, इन सारे लोगों का
अनुभव यही है कि हम यह नहीं कह सकते कि हमने ही सोच कर यह निकाल लिया। हम तो
सोच-सोच कर लड़खड़ाते रहे, लड़खड़ाते रहे...एकदम अचानक रिवील हो
गई है कुछ बात। वह हमारे विचार से आई है, ऐसा मालूम नहीं
पड़ता। क्योंकि हमारे विचार में कोई उससे कंटीन्युटी नहीं मालूम पड़ती। वह कहीं और
से आ गई है। यही अनुभव दुनिया के उन लोगों का भी है जो ईश्वर-साक्षात्कार की बात
कहते हैं, या समाधि की, या सत्य की।
उनका भी अनुभव यह है कि हम विचार करके नहीं पहुंच गए हैं। कहीं विचार खो गया है,
और कोई चीज उतर आई है। कवि का, पेंटर का,
सबका वही अनुभव है। जहां भी क्रिएटिव कोई एक्सपीरिएंस है, वहां इंटयूशन है, दर्शन है।
और
दूसरी जो बात आप पूछते हैं,
वह सदा से मेरे मन में रही है। लेकिन निरंतर उस पर सोचता चला जाता हूं
तो बहुत सी नई बातें जुड़ती चली जाती हैं। आप एक सवाल पूछते हैं। हो सकता है वह
सवाल मैंने कभी न पूछा हो और पहली दफा आपके साथ सोचना शुरू करता हूं। सेक्स का
खयाल मेरे सामने है, क्योंकि मैं मानता हूं कि सबसे ज्यादा
नुकसान मनुष्य के सेक्स सेंटर को पहुंचाया गया है, सबसे
ज्यादा। सब तरह से क्रिपिल्ड किया गया है उस सेंटर को। और वह सेंटर बायोलॉजिकली
केंद्रीय है, क्योंकि सारे जीवन का उदगम उससे है, जीवन की धारा उससे है। तो सेक्स के सेंटर को मनुष्य के सबसे ज्यादा नुकसान
पहुंचाया गया है। और उसी एनर्जी को दूसरे चैनल्स में डाइवर्ट करके काम लिया गया है
अब तक।
तो
इसलिए मनुष्य के सुधार में वह एक केंद्रीय स्थान रखता है। उसको अगर हम स्वस्थ नहीं
कर सकते हैं,
यानी सेक्स सेंटर जो है वह न्यूरोटिक हो गया है, उसे अगर हम हेल्दी नहीं कर लेते हैं वापस, तो आदमी
को स्वास्थ्य देना बहुत मुश्किल मामला है। इसलिए मैं उसको सेंट्रल कह रहा हूं।
और
अगर हम चारों तरफ गौर से देखें तो सारी प्रकृति में, सारे जीवन में वह सेंट्रल
है। और कुछ भी ऊंचाइयां भी अगर उपलब्ध होंगी तो उसी एनर्जी के सब्लीमेशन, उसी एनर्जी के ऊपर जाने से होंगी। वही एनर्जी किसी भी चीज में कनवर्ट होने
वाली है, ट्रांसफार्म होने वाली है। चाहे डाइवर्ट करो उसे,
चाहे उसको डिस्टार्ट करो, चाहे सब्लीमेट करो,
एनर्जी वही है।
मेरी
दृष्टि में, अगर सेक्स विकृत हो, तो पागल आदमी को पैदा करता है।
और अगर सेक्स परिपूर्ण स्वस्थ हो, तो सेक्स ट्रांसेंडेंस हो
जाता है। तो हम जिसको संत कहते हैं, महात्मा कहते हैं,
ऋषि कहते हैं, वह पैदा हो जाता है। नीचे गिर
जाए कोई आदमी सेक्स से तो अपराधी की दुनिया में पहुंच जाता है; ऊपर उठ जाए तो परमात्मा की दुनिया में पहुंच जाता है। लेकिन बीच की जो
सेंट्रल, जहां सारा काम करना जरूरी है, वह सेक्स है। और मजा यह है कि उसकी हम बात नहीं करते, उसका चिंतन नहीं करते। न विचार करते हैं, न चर्चा के
योग्य मानते हैं।
अभी
पीछे जो फ्रांस में युवकों का ढेर बगावत और आंदोलन चला, तो उसमें
सोरगुन विश्वविद्यालय में शिक्षामंत्री फ्रांस का बोलने गया यूनिवर्सिटी में लड़कों
की समस्याओं पर। उसने एक घंटे बोला। तो बेनेडिक्ट, जो उस
बगावत का नेता था, वह खड़ा हुआ और उसने कहा कि महाशय, हमने एक घंटे आपकी बकवास सुनी। लेकिन हमारा जो प्रश्न है, हमारा जो सवाल है, वह आपने छुआ भी नहीं। और आपकी छह
सौ पृष्ठों की किताब भी हम पढ़ गए। उसको पढ़ना एक तपश्चर्या थी, क्योंकि वह बिलकुल बोरिंग थी। लेकिन उसमें भी, जो
हमारा असली सवाल है, वह आपने स्पर्श भी नहीं किया। सेक्स के
बाबत आपको क्या कहना है?
यानी
मजा यह है कि हम उसको चूक कर ही बात करते हैं, उसको छोड़ ही जाते हैं। सब सवालों
की बात करेंगे, उसको भर छोड़ जाएंगे। और मजा यह है कि हमारे
बहुत सवाल उससे अंतर्संबंधित हैं, अधिकतम सवाल उससे जुड़े
हैं।
यू नो व्हाट वाज़ हिज रिप्लाई? ही सेड
दैट देअर इज़ ए स्विमिंग पूल नियर बाइ, यू गो एंड टेक ए
स्विम!
हां-हां, उसने यह
कहा, उसने यह कहा। लेकिन यह उत्तर नहीं है। अच्छा तो यह होता
कि उसको पकड़ कर स्विमिंग पूल में डुबाया होता उन्होंने। यह उत्तर अच्छा नहीं है,
जवाब नहीं है, बचाव है। जवाब क्या हुआ?
यह कोई जवाब हुआ? लड़कों का सवाल है! और मैं
मानता हूं यूथ के सारे प्रॉब्लम के केंद्र पर सेक्स है। उनकी इनडिसिप्लिन हो,
उनका मूवमेंट हो, पत्थर तोड़ना हो, बस जलाना हो, उस सबके केंद्र पर सेक्स है। लेकिन
उसको हम छूते नहीं! और नहीं छुएंगे तो कुछ हल होता नहीं।
सारे
आदमी के केंद्र पर वह सवाल खड़ा हुआ है। वह मुझे खयाल तो पहले से है, लेकिन
जैसे-जैसे बात उस पर चलती है, क्योंकि बात चलाना भी तो
मुश्किल मामला है न, बात चलाना ही मुश्किल होता है। बात
रोकने की सब चेष्टा की जाती है। तो कितने दूर तक आप राजी होते हैं, उतने दूर तक बात चलानी पड़ती है, फिर रुक जाना पड़ता
है। फिर मौका बनता है तो बात चलानी पड़ती है, लेकिन वह मुझे
खयाल सदा से है।
समाप्त
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