यह मयकदा है—(प्रवचन—दूसरा)
दिनांक 2 अक्तूबर 1980;
श्री ओशो आश्रम पूना
पहला प्रश्न:
भगवान, मुंडकोपनिषद
में यह श्लोक आता है:
नायं आत्मा प्रवचने लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यं एवैष वृणुतं तेन लभ्यस
तस्यैष आत्मा विवृणुते
स्वाम।।
अर्थात यह आत्मा वेदों के
अध्ययन से नहीं मिलता, न मेधा की बारीकी या बहुत शास्त्र सुनने से
मिलता है। यह आत्मा जिस व्यक्ति का वरण करता है उसीको इसकी प्राप्ति होती--आत्मा
उसीको अपना स्वरूप दिखाता है।
भगवान, उपनिषद के
इस सूत्र को हमारे लिए बोधगम्य बनाने की अनुकंपा करें।
सहजानंद! यह सूत्र
उन थोड़े-से सूत्रों में से एक है, जिनमें अमृत भरा है। जितना पीओ, उतना थोड़ा।
नायं आत्मा प्रवचनेन लभ्यो
यह आत्मा शब्दों से उपलब्ध नहीं। वे शब्द
फिर वेद के हों कि कुरान के हों कि बाइबिल के, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। यह आत्मा
सुनकर उपलब्ध नहीं। फिर चाहे वे वचन बुद्ध के हों, महावीर के,
लाओत्सू के, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। क्यों?
क्यों आत्मा प्रवचन सुनकर उपलब्ध नहीं हो कसता? क्योंकि आत्मा बाहर की कोई वस्तु नहीं, अंतर्तम का
अनुभव है। आत्मा अमृत का स्वाद है। जैसे अंधे को कोई लाश समझाए प्रकाश के संबंध
में, अंधा कैसे समझेगा? उसने प्रकाश
देखा नहीं; उसकी कोई प्रतीति नहीं, कोई
साक्षात्कार नहीं। कुछ का कुछ समझ लेगा।
रामकृष्ण निरंतर यह प्यारी कथा कहते थे--कि
एक अंधे मित्र को उसके साथियों ने भोजन पर आमंत्रित किया। गरीब था अंधा। खीर
परोसी। उस अंधे ने अपने पास में बैठे हुए मित्र को पूछा, बहुत
स्वादिष्ट है, यह क्या है? मित्र ने
कहा, यह खीर है। दूध की बनी है। एक मिष्ठान्न है। अंधा पूछने
लगा, दूध कैसा होता है? मित्र ने कहा,
दूध कैसा होता है! शुभ्र होता है, श्वेत होता
है। अंधे ने पूछा, उलझाओ मत पहेली को और। बात बनती नहीं,
बिगड़ती चली जाती है। मुझे खीर का पता नहीं, तुमने
दूध की बात कही। मुझे दूध का पता नहीं, तुमने श्वेत की बात
कही। मुझे श्वेत का भी कुछ पता नहीं। यह श्वेत क्या?
मित्र ने कहा, तुम समझे नहीं? अरे, कभी बगुला देखा है? जैसे
बगुला होता है, शुभ्र, श्वेत।...पुरानी
कहानी है, नहीं तो मित्र कहता, नेता
देखा है? सफेद, शुद्ध खद्दर। और बगुले
और नेता में ऐसी भी बहुत संबंध है। बगुले ही नेता होता हैं। और बगुला पुराना नेता
है, बड़ा अभ्यासी नेता है। बगुले को कभी खड़ा देखा है, सरोवर के तट पर, एक टांग पर? ऐसा
आसन साधता है! पुराना योगी है। तपस्वी है। एक ही टांग पर ,खड़ा
रहता है--बिना हिले, बिना डुले। एकाग्रचित्त से। क्योंकि
हिले-डुले तो पानी हिल-डुल जाए। पानी हिल-डुल जाए तो मछलियां सजग हो जाएं। फिर
उसके पास न आएं। यूं खड़ा रहता है कि जैसे ही नहीं। तभी मछलियां फंसती हैं। यूं ही
नेता भी खड़ा रहता है, तभी मछलियां फंसती हैं। वह धंधा एक ही
है। मगर कहानी पुरानी है रामकृष्ण के समय में अभी यह गांधीवादी नेता आया नहीं था।
अब थोड़ी रद्दोबदल कर लेनी चाहिए कहानी में; थोड़ा आधुनिक बना
लेना चाहिए।...उस मित्र ने कहा कि बगुले को देखा है? जैसा
बगुला होता है।
मित्र भी पंडित रहा होगा। पंडित यानी अंधे
से भी गया-गुजरा। नहीं तो अंधे को कोई समझाने बैठे रंग की बात! अंधे को जो रंग की
बात समझाने बैठे,
वह महा अंधा होना ही चाहिए। अंधे ने कहा, अब
मैं कुछ और पूछूं, ठीक नहीं, क्योंकि
बात दूर से दूर हुई चली जाती है। मैंने बगुला कभी देखा नहीं। कुछ इस ढंग से कहो कि
मेरी भी समझ में आ सके। मैं अंधा हूं, यह देखकर कहो। तब उसे
होश आया। उसने कहा, तो फिर ऐसा करो, यह
मेरा हाथ है, मेरे हाथ पर हाथ फेरो। उसने अपने हाथ को इस ढंग
से मोड़ा जैसे बगुले की गर्दन हो। अंधे ने हाथ पर हाथ फेरा और मित्र ने कहा,
देखते हो, इस तरह बगुले की गर्दन होती है। वह
अंधा प्रसन्न हो गया, आह्लादित हो गया, उसने कहा, धन्यवाद! तुम्हारे कष्ट के लिए बहुत
अनुगृहीत हूं। अब समझा कि खीर कैसी होती है। मुड़े हुए हाथ जैसी।
स्वाभाविक। अंधे पर हंसना उचित नहीं। अंधे
की मजबूरी समझो। और जहां तक आत्मा का संबंध है, करीब-करीब सभी अंधे हैं। क्योंकि
भीतर की आंख तो खुली नहीं है। तो जो भी आत्मा के संबंध में कहा जाएगा, वह गल समझा जाएगा। तुम तक पहुंचते-पहुंचते बुद्धों के वचन कुछ के कुछ हो
जाते हैं। बुद्ध कहते एक बात, तुम सुनते दूसरी बात। और
यह-स्वाभाविक है। क्योंकि बुद्ध जो कहते हैं, वही समझने के
लिए तुम्हें भी प्रबुद्ध होना होगा। उसी जीवन तल पर होना होगा। उसी चैतन्य की कोटि
में होगा। वही बोध, वही समाधि, वही
ध्यान। वही अंतराकाश--ज्योतिर्मय। वही आह्लाद। वही शून्यता। वही मौन। तभी तो बुद्ध
अपने स्वाद को तुम तक पहुंचा सकेंगे। मगर जिसको ऐसी अवस्था हो गयी हो, उसे समझने को ही कुछ नहीं बचा।
एक बुद्ध को तो दूसरे बुद्ध से बोलने की कोई
जरूरत नहीं होती। बिन बोले बात समझ में आ जाती है। क्योंकि दोनों ही एक जगह खड़े
होते हैं, एक ही चैतन्य की अवस्था में। दो होते ही नहीं। जहां दो बुद्ध मिलते हैं,
वहां एक ही रह जाता है। हजार बुद्ध भी मिलें तो वहां बुद्धत्व तो एक
ही होता है। जैसे हजार नदियां गिर जाएं सागर में, क्या फर्क
पड़ता है! सब जाकर सागर के साथ एक हो जाती हैं। सब खारी हो जाती हैं। सबका स्वाद
सागर का स्वाद हो जाता है। हजार बुद्ध इकट्ठे हों तो वहां हजार बुद्ध नहीं होते।
जैसे हजार दीये तुम जला दो तो रोशनी एक होती है--दीये हजार होंगे। हजार देहों में
बुद्धत्व का दीया जलेगा, मगर रोशनी एक होगी। और सबकी रोशनी
एक है। किससे कहना? क्या कहना? दो
बुद्धों के पास एक-दूसरे से कहने को कुछ भी नहीं होता।
जो बोल सकते थे, जो एक
दूसरे को समझ सकते थे, वे बोलते नहीं--बोलने को कुछ नहीं
बचता। और दो बुद्धुओं के पास बहुत बोलने को होता है, मगर
समझने को कोई भी नहीं होता वहां। दोनों बुद्धू हैं, समझने
वाला कहां कौन? इस दुनिया में कितनी बकवास चलती है! जानें
चली जाती हैं, तलवारें खिंच जाती हैं। दो बुद्धू बहुत बोलते
हैं, समझ में किसी के कुछ नहीं आता। दो बुद्ध बोलते नहीं,
समझ में सब आ जाता है।
तो न तो बुद्धों के बीच संवाद होता है न
बुद्धुओं के बीच संवाद होता है। बुद्धुओं के बीच विवाद होता है, बुद्धों
के बीच मौन होता है।
फिर बोलना कहां सार्थक है? जब कोई
बुद्धपुरुष अबुद्धों से बोलता है, बस यहीं केवल बोलने की कोई
सार्थकता है; थोड़ी-बहुत; वह भी बहुत
ज्यादा नहीं। क्योंकि यह सूत्र बहुत स्पष्ट है।
नायं आत्मा प्रवचनेन लभ्यो
नहीं मिलेगी यह आत्मा प्रवचन से। फिर बुद्ध
क्यों बोलते हैं?
फिर उपनिषद का यह ऋषि भी क्यों बोला? इतना भी
कहने की क्या बात थी? बुद्ध बोलते हैं इस आशा में--इस आशा
में हनीं कि तुम समझ पाओगे वरन इस आशा में कि शायद तुम्हारे भीतर जानने की प्यास
जग जाए, अभीप्सा पैदा हो जाए। तुम्हारे भीतर सोयी पड़ी है
अभीप्सा। आग दबी पड़ी है, जरा उकसाने की बात है। जरा राख झाड़
देने की बात है और ज्योति प्रज्वलित हो सकती है।
बुद्ध इसलिए नहीं बोलते तुमसे, इस आशा
में नहीं बोलते कि तुम समझ लोगे, इस आशा में बोलते हैं कि
शायद समझने की यात्रा पर निकल जाओ; शायद तुम्हारे जीवन में
खोज पैदा हो जाए; एक अभीप्सा जग जाए जानने की कि यह क्या है?
क्या है आत्मा? क्या है हमारे जीवन का सत्य?
हम कौन हैं, कहां से हैं, कहां जा रहे हैं? यह कौन है जो हमारे भीतर है;
बोलता है, सुनता है, जीता
है? यह जीवन क्या है?
देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना
शेवए इश्क नहीं हुस्न को रुसवा करना
देखना भी तो.
उनको यां वादे पै आ लेने दे ऐ अब्रे बहार
जिस तरह चाहना फिर बाद में बरसा करना
देखना भी तो उन्हें दूर से देख करना
शेवए इश्क नहीं हुस्न को रुसवा करना
देखना भी तो.
कुछ समझ में नहीं आता कि ये क्या है हसरत
उनसे मिलकर भी न इजहारे तमन्ना करना
देखना भी तो उन्हें दूर देखा करना
शेवए इश्क नहीं हुस्न को रुसवा करना
देखना भी तो.
बुद्ध बोलते हैं इसलिए कि तुम्हारे भीतर पड़ी
कोई सोयी याद जग जाए। अभी तो दूर से ही देखोगे। जैसे आकाश मेघाच्छादित न हो और कोई
सैकड़ों मील दूर से हिमालय के उत्तुंग को देखे। उन जमी हुई बर्फ को देखे। देखना भी
तो उन्हें दूर से देखा करना।
शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रखनी
दिन हो या रात हमें जिक्र उन्हीं का करना
देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना देखना
भी तो.
बुद्धों के बोलने का प्रयोजन यह नहीं है कि
तुमने सुन लिये शब्द और तुम्हें ज्ञान हो जाएगा। इतना ही है कि शायद शब्द तुम्हारे
भीतर किसी भूली-बिसरी प्यास को जगा दें। शायद बुद्धों की मौजूदगी तुम्हारे भीतर
कुतूहल बने, जिज्ञासा बने, मुमुक्षा बने। वे बोलते हैं इसलिए कि
शायद उनके वचनों की चोट तुम्हारे हृदय की वीणा को छेड़ दे। नहीं कि तुम सत्य को जान
लोगे, लेकिन सत्य को जानना है, इतना
स्मरण आ जाए तो बहुत। बस, इतना ही स्मरण आ सकता है। जागे हुए
व्यक्तियों ने सिर्फ इसीलिए बात की है गैर-जागे हुए व्यक्तियों से कि देखो,
हम जाग गये; देखो, हमारे
देख मिट गये; देखो, हमारा संताप झड़ गया;
देखो, हमारे जीवन में फूल खिल गये; देखो ये सुगंध, यह तुम्हारी भी सुगंध है! यह
तुम्हारे भी भीतर छिपा हुआ खजाना है। यह तुम्हारी भी संपदा है। जरा खोदो और पा
लोगे।
लेकिन जो मूढ़ हैं, वे केवल
शब्दों को पकड़कर बैठ जाता हैं। जैसे तोते राम-राम दोहराते रहते हैं, ऐसे ही वे भी वेदों को दोहराते हैं, उपनिषदों को
दोहराते हैं। जब यह बड़े मजे की बात है, मुंडकोपनिषद में यह
शह श्लोक है, और मैं ऐसे लोगों को जानता हूं जो जीवन भर से
मुंडकोपनिषद पढ़ रहे हैं, जिनको उसका शब्द-शब्द याद है और
जिनको जरा भी बेचैनी नहीं होती इस श्लोक को उद्धरण करने में और जिन्होंने जाना
नहीं और जिनकी आंखें खुली नहीं।
नायं आत्मा प्रवचने लभ्यो। थोड़े-से शब्दों
में कितनी बात कह दी। बूंद में जैसे सागर को समा दिया। नहीं, प्रवचन से
यह उपलब्ध नहीं है। सुनना जरूर उनको जो जानते हैं, लेकिन
उनके शब्दों को मत पकड़ लेना। बुद्ध ने कहा है: मैं जो कहता हूं, उस पर ज्यादा ध्यान मत दो, मैं जो हूं, उस पर ध्यान दो। मैं जो कहता हूं, वह उतना
महत्वपूर्ण नहीं, मैं जहां से कहता हूं, वह स्रोत महत्वपूर्ण है। और, मैं कहूं, इसलिए मत मानना। मैं कहूं, इसलिए तो केवल प्रयोग
करना जानने का। हां, जिस दिन जान लो, उस
दिन मानना।
न मेधयां न बहुना श्रुतेन।
न तो बड़ी मेधा से, प्रतिभा
से, तर्क से, बुद्धि से यह आत्मा मिलती
है। तर्क के हाथ बहुत छोटे हैं। आकाश के तारों को तर्क से नहीं छुआ जा सकता। तर्क
के लिए तो आत्मा वैसे ही है जैसे तुमने ईसप की कहानी में पढ़ा है कि लोमड़ी उछली,
कूदी, अंगूरों तक पहुंची नहीं। फिर चारों तरफ
उसने देखा कि कोई देखता तो नहीं है। और फिर यह कहती हुई कि अगर किसीने देख भी लिया
हो तो सुन ले कि अभी अंगूर कच्चे हैं, अभी अंगूर खट्टे हैं,
चल पड़ी। एक खरगोश छिपा यह देख रहा था झाड़ी में से; उसने कहा, चाची, आप पहुंच नहीं
पायीं। लेकिन लोमड़ी ने कहा, चुप, बदतमीज,
पहुंच कर करूंगी क्या, अभी अंगूर कच्चे हैं,
अभी अंगूर खट्टे हैं। पक जाने दे, फिर
पहुंचूंगी, अभी तो तोड़ने से सार क्या है! उछल कर मैंने देख
लिया कि अंगूर अभी कच्चे हैं और खट्टे हैं। अभी चखा नहीं, छुआ
भी नहीं और जान लिया कि अंगूर खट्टे हैं!
तर्क की छलांग बहुत छोटी है। इतनी छोटी।
लेकिन तर्क का अहंकार बहुत बड़ा है। तो तर्क के पास एक ही उपाय है कि वह कह दे, आत्मा
होती नहीं। अंगूर कच्चे, अंगूर खट्टे। तर्क की पकड़ में नहीं
आती आत्मा हो कैसे सकती है; इसलिए नहीं है। ऐसा इनकार करके
तर्क अपने अहंकार को बचा लेता है।
जरूर तर्क के हाथ कुछ चीजों तक पहुंचते
हैं--विज्ञान में सार्थक है तर्क, क्योंकि वस्तुओं को पकड़ लेता है, खोज लेता है। लेकिन आत्मा कोई वस्तु नहीं। आत्मा तो तर्क के पीछे है,
तर्कातीत है। तर्क के आगे जो है, उसको तर्क छू
सकता है, लेकिन तर्क के पीछे जो है, उसके
लिए तर्क क्या करे! दर्पण के सामने जो है, वह दर्पण में
दिखायी पड़ जाएगा, लेकिन दर्पण के पीछे जो है, वह दर्पण में कैसे दिखायी पड़ेगा। लेकिन अगर दर्पण का भी अहंकार हो तो
दर्पण भी कहेगा कि जो मेरे पीछे है, वह है ही नहीं।अगर होता
तो दिखायी पड़ता। जो मुझमें दिखायी न पड़े वह है ही नहीं।
तर्क के सामने संसार है और पीछे तुम हो। और
तुम्हारा होना आत्मा है। तर्क में तुम्हारा कोई प्रतिफलन नहीं बनता। इसलिए तर्क
निश्चित रूप से नास्तिक होता है।
"न मेधया'।
बुद्धि से नहीं पाया जा सकता। और बुद्धि है क्या? विचार की
शृंखला। और विचार से कभी किसीने अज्ञेय को जाना है? विचार की
तो सीमा है, ज्ञात। जो जाना है, विचार
उसी की जुगाली करता है। तुमने भैंसों को जुगाली करते देखा? बस,
विचार उतना ही करता है, जुगाली करता है। जो
सुना है, जो पढ़ा है, उसीकी जुगाली करता
है। लेकिन आत्मा को न तो जाना जा सकता है, न सुना जा सकता है,
न पढ़ा जा सकता है, उसकी जुगाली कैसे करोगे?
उसके लिए तर्कातीत होना जरूरी है। आत्मा को जानने के लिए विचार के
पार जाना जरूरी है। निर्विचार होना जरूरी है। यही तो समाधि की परिभाषा है, निर्विचार, निर्विकल्प, मनातींत।
वह जो मनातीत अवस्था है समाधि की, उसमें ही जाना जाता है
आत्मा।
न मेधया न बहुना श्रुतेन।
और बहुत सुन लोगे तुम, बहुत
जानकारी भी इकट्ठी कर लोगे, सारे शास्त्र तुम्हें कंठस्थ हो
जाएं, तो भी तुम्हारे अनुभव में कुछ न आएगा। गीता कंठस्थ है
लोगों को लेकिन इससे वे कृष्ण नहीं हो गये हैं। धम्मपद कंठस्थ है लोगों को,
इससे वे बुद्ध नहीं हो गये हैं। कितने लोग कुरान की आयातों को
दोहराते हैं, मगर इससे वह मुहम्मद नहीं हो गये हैं। काश,
इतना आसान होता! कि हम शास्त्रों को दोहरा देते यंत्रवत और
शास्त्रों में जो छिपा पड़ा है, वह हमारी संपदा हो जाता। तब
तो हम विश्वविद्यालयों में धर्म सिखा सकते थे।
मैं तुमसे कहता हूं, धर्म की
कोई शिक्षा नहीं हो सकती। लेकिन मैं हैरान होता हूं, जो लोग
मुंडकोपनिषद के इस सूत्र को उद्धरण देते हैं, वे भी धार्मिक
शिक्षा की बात करते हैं। तब मैं देखता हूं कि चूक गये वे, यह
सूत्र भी उनकी पकड़ में नहीं आया। आत्मा तो बहुत देर, आत्मा
के संबंध में यह सूत्र भी उनकी समझ में नहीं आया। धार्मिक शिक्षा होनी चाहिए!
पंडित, पुरोहित, मौलवी, पादरी, सबकी एक इच्छा है; संत
महात्मा, मुनि, सबकी एक इच्छा है:
धार्मिक शिक्षा होनी चाहिए। धर्म की शिक्षा हो सकती है--सवाल यह है!
मैं विश्वविद्यालय में जब प्रोफेसर था तो
दिल्ली में मंत्रालय ने भारत से कोई बीस प्रोफेसरों को आमंत्रित किया था--धार्मिक
शिक्षा के ऊपर एक संगोष्ठी आयोजित थी--भूल-चूक से
वे मुझे भी बुला बैठे। भूल-चूक से ही कहूंगा, क्योंकि उन्होंने आशा की
होगी कि मैं धार्मिक शिक्षा के संबंध में कुछ सुझाव दूंगा कि कैसे धार्मिक शिक्षा
दी जाए और मैंने मुंडकोपनिषद का यह सूत्र ही कहा--
नायं आत्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधयां न बहुना श्रुतेन।
धर्म की शिक्षा हो ही नहीं सकती। और जिसकी
शिक्षा हो सकती है,
वह धर्म नहीं है। इसलिए कोई विश्वविद्यालय कभी धर्म की शिक्षा नहीं
दे सकेगा। धर्म के संबंध में शिक्षा दे सकता है, कि हिंदू
क्या कहते हैं, मुसलमान क्या कहते हैं, ईसाई क्या कहते हैं, लेकिन कोई विश्वविद्यालय जीसस को,
महावीर को, जरथुस्त्र को पैदा नहीं कर सकेगा।
हां, गणित की शिक्षा हो सकती है। विज्ञान की शिक्षा हो सकती
है, भूगोल की, इतिहास की शिक्षा हो
सकती है, लेकिन धर्म की कोई शिक्षा नहीं हो सकती है। धर्म के
संबंध में शिक्षा हो सकती है, लेकिन स्मरण रखना भेद को: प्रेम
के संबंध कभी प्रेम नहीं किया। पुस्तकालयों में हजारों किताबें हैं। और ईश्वर के
संबंध में जानना ईश्वर को जानना नहीं है। ईश्वर के संबंध में तो कोई भी जान सकता
है। लेकिन संबंध में जानना और सत्य को जानना दो भिन्न बातें हैं। खतरा यही है कि
कहीं सूचनाओं में ही न भटक जाना, कहीं सूचनाओं में ही न अटक
जाना। बहुत लोग अटके हैं। जिनको तुम पंडित कहते हो, वे इसी
तरह के अटके हुए लोग हैं।
न मेधयां न बहुना श्रुतेन।
कितना ही श्रुति को पढ़ो, कितना ही
स्मृतियों को पढ़ो, कितने ही सुंदर-सुंदर शब्दों के संग्रह
बना लो, कितने ही सुभाषित कंठस्थ कर लो, इससे कुछ भी न होगा। तुम जितने अज्ञानी थे, उतने ही
रहोगे। हां, एक खतरा है कि तुम्हें यह भ्रांति पैदा हो सकती
है कि तुम ज्ञानी हो गया। और यह सबसे बड़ा खतरा है। अज्ञानी को भ्रांति हो जाए कि
ज्ञानी हो गया, अब इसकी जीवन-स्थिति बड़ी दयनीय हो गयी। अब
इसके सुधार का उपाय भी न रहा।
सदगुरु तुम्हें यह नहीं सिखाता कि आत्मा
क्या है, सदगुरु तुम्हें यह नहीं बताता कि परमात्मा क्या है। सदगुरु तुम्हें ज्ञान
नहीं देता, सदगुरु तुम्हें ध्यान देता है। और ध्यान का अर्थ
है: निर्विचार होना, निर्विकल्प होना; शास्त्र
से मुक्त होना, शब्द से मुक्त होना, सिद्धांत
से मुक्त होना, सूचना से मुक्त होना। ध्यान का पहला अर्थ है:
अपने अज्ञान को स्वीकार करना, अंगीकार करना। सुकरात सही है।
सुकरात कहता है, मैं बस इतना ही जानता हूं कि कुछ भी नहीं
जानता। यह ज्ञान की तरफ पहला कदम है। और जिसको यह भ्रांति है मैं जानता हूं--और
भ्रांति पैदा हो जाती है सुंदर वचनों से--वह भटक गया। ज्ञान जितने लोगों को डुबाता
है, अज्ञान नहीं डुबाता। अज्ञान ज्यादा खतरनाक है। उपनिषद का
प्रसिद्ध वचन है कि अज्ञानी तो अंधेरे में भटकते ही हैं, ज्ञानी
महा अंधकार में भटक जाते हैं। मगर मजा यह है, इस सूत्र को भी
पंडित याद कर लेते हैं। इस सूत्र का भी तोतों की तरह उद्धरण देते हैं
यं एवैष वृणुते तेन लभ्यस
यह आत्मा तो जिसका वरण करता है, उसीको
मिलता है। यह महत्वपूर्ण सूचना है, मगर इसके बड़े गलत अर्थ
किये गये हैं--होने ही थे गलत अर्थ। जितनी महत्वपूर्ण बात हो उतने गलत अर्थ होंगे।
क्योंकि जितनी महत्वपूर्ण बात हो, तुम्हारे अनुभव से उतनी ही
दूर हो जाती है। तुम्हारे और उसके बीच फासला बड़ा होता जाता है। तुम्हें वे ही
बातें समझ में आती हैं जो तुम्हारे अनुभव के करीब पड़ती है। और सत्य तो बहुत दूर।
तुम्हारे और उसके बीच तो कोई नाता ही नहीं रहा है। जन्मों से काई नाता नहीं है।
फासला बढ़ता ही गया है।
इस सूत्र का यह अर्थ किया गया है अब तक और
मैं तुमसे कहना चाहता हूं,
वह अर्थ बुनियादी रूप से गलत है। अर्थ किया गया है कि यह तो
परमात्मा की जिस पर कृपा होती है, उसको आत्मा का बोध होता
है। न तो प्रवचन से मिलती, न बुद्धि से मिलती, न जानकारी से मिलती। तो फिर कैसे मिलती है? परमात्मा
की जिस पर कृपा होती है। यह सरल अर्थ निकाल लिया लोगों ने। तो करना क्या है?
फिर करने को कुछ बचा नहीं। फिर तो परमात्मा की जब कृपा होगी तब
होगी। इस देश की काहिलता इसी तरह के अर्थों पर निर्भर है। इस देश की सुस्ती,
मुर्दगी, इस देश का मरा-मरा होना, इस देश की दयनीयता, दीनता, इस
देश की बाईस सौ वर्ष पुरानी गुलामी इसी तरह के अर्थों पर आधारित है। इसी तरह की
हमने बेवकूफियां कर ली हैं। जब पत्ता भी उसकी मर्जी है, तो
हम क्या कर सकते हैं? इसलिए अब गुलाम होना ही ठीक है। उसकी
मर्जी से राजी होना ही ठीक है।
उसकी बिना मर्जी के पत्ता नहीं हिलता तो
बीमारी कैसे हो जाएगी?
तो अब क्या कर सकते हैं? इसलिए बीमारी को
अंगीकार कर लेना ठीक है। घसीटते रहो बीमारियों को। जीते रहो किसी तरह, सड़ते रहो, कुछ करो मत--क्या कर सकते हैं हम! जब उसकी
इच्छा होगी।
यं एवैष वृणुते तेन लभ्यस। आत्मा को भी हम
तो पा नहीं सकते--शास्त्र में है नहीं, वचनों में है नहीं, ज्ञान में है नहीं, बुद्धि में है नहीं; अब क्या करें? अब तो प्रतीक्षा के सिवाय कोई रास्ता
न रहा। अब तो जब उसकी कृपा होगी!
इसका तो यह भी मतलब हुआ कि किसी पर उसकी
कृपा होती है और किसी पर उसकी कृपा नहीं होती। ज्यादा तो कृपा होती ही नहीं; कभी किसी
पर हो जाती है कृपा। मतलब यह हुआ कि परमात्मा की तरफ से भी बड़ा अन्याय चल रहा है।
किसी बुद्ध पर हो गयी कृपा, किसी महावीर पर हो गयी कृपा,
किसी याज्ञवल्क्य पर हो गयी कृपा, किसी कबीर
पर हो गयी कृपा, ठीक! बाकी लोग क्या कर सकते हैं! वे राह
देखेंगे, जब जन्मों-जन्मों में कभी उन पर भी कृपा होगी,
कभी उन पर भी नजर पड़ेगी, तो ठीक। और नहीं पड़ी
तो यूं ही घसीटना है। यूं ही मरना है, यूं ही गलना है।
नहीं, ऐसा इसका अर्थ नहीं है। ये
भाग्यवादी अर्थ इस पर थोप दिया गया। मगर अज्ञानियों के हाथ में अमृत भी पड़ जाए तो
जहर हो जाता है। इस सूत्र का बड़ा और अर्थ है: यह तो जिसका वरण करता है, उसीको मिलता है। लेकिन किसका वरण है? परमात्मा की
कृपा तो सभी पर बराबर बरसती है--बरसनी ही चाहिए। अगर परमात्मा भी भेदभाव करता हो
कि किसी पर थोड़ा ज्यादा बरसे और किसी पर थोड़ा कम बरसे; ब्राह्मण
पर थोड़ा ज्यादा और शूद्र पर थोड़ा कम; जनेऊ पहन लो तो थोड़ा
ज्यादा और जनेऊ न पहनो तो थोड़ा कम; चुटैया बढ़ा लो तो थोड़ा
ज्यादा और चुटैया कटा लो तो थोड़ा कम; अगर ऐसी मूढ़ताएं ईश्वर
को भी हों--उपवास कर लो तो थोड़ा ज्यादा और भरे पेट होओ तो थोड़ा कम; सिर के बल खड़े हो जाओ तो थोड़ा ज्यादा और पैर पर चलो, आदमी की तरह, भले आदमी की तरह तो कम। यह क्या पागलपन
हुआ कि मंदिरों में घंटियां बजाओ तो थोड़ा ज्यादा और घंटियां न बजाओ तो बस, नाराज हो गये! परमात्मा की कृपा तो सभी पर बराबर बरसती है। लेकिन कुछ
पात्र हैं जो उलटे रखे हैं। वर्षा तो होती रहती है अमृत की लेकिन पात्र खाली के
खाली रह जाते हैं।
वर्षा में कुछ भेद नहीं। तुम देखो रखकर, एक मटके
को उलटा रख दो, वर्षा हो रही हो, धुआंधार
वर्षा हो रही हो, मूसलाधार वर्षा हो रही हो और बर्तन न को
उलटा रख दो, कैसे भरेगा! वर्षा क्या करे! वर्षा की तरफ से
कोई कंजूसी नहीं है, मगर पात्र तो सीधा होना चाहिए! फिर
पात्र भी सीधा हो, लेकिन फटा हो, तो
भरता हुआ मालूम पड़ेगा लेकिन भर कभी पाएगा नहीं। इधर भरेगा उधर खाली जमाने भर की
गंदगी से भरा हो, तो वर्षा तो हो भी जाए, भर भी जाए मगर वह जल पीने योग्य नहीं होगा। वह तुम्हारे तृषा को मिटा न
सकेगा।
तो ये तीन बातें ख्याल रखनी जरूरी हैं।
पहली बात, पात्र सीधा हो। पात्र सीधा
हो, इसका अर्थ है: तुम्हारा हृदय अंगीकार करने को राजी हो।
इसको श्रद्धा कहा है। श्रद्धा का अर्थ है: अंगीकार करने की तत्परता। स्वागत,
अभिनंदन, वंदनवार। जैसे मेहमान आता है और तुम
द्वार पर खड़े होकर पलक-पांवड़े बिछाए प्रतीक्षा करते हो, राह
देखते हो। दरवाजा बंद करके नहीं बैठते, दरवाजा खुला रखते हो
कि कहीं मेहमान लौट न जाए। द्वार पर ही खड़े रहते हो कि आए तो स्वागत की आरती
उतारनी है। श्रद्धा का इतना ही अर्थ है कि तुम आओगे तो मेरे द्वार बंद न पाओगे।
पात्र सीधा हो।
संदेह से भरा हुआ व्यक्ति उलटा पात्र है।
बंद अंगीकार करने को राजी नहीं, इनकार करने को तत्पर।
फिर, छिद्र नहीं होने चाहिए। पात्र सीधा
हो और छिद्र न हों। तुम्हारे जीवन में कितने छिद्र हैं! तुम्हारी ऊर्जा कितने
छेदों से बही जा रही है! क्रोध से तुम कितनी ऊर्जा को बहाते हो! पाते क्या हो?
पाते कुछ भी नहीं, गंवाते बहुत हो। कमाते क्या
हो? क्रोध करके कभी किसीने कुछ कमाया है? हजार तरह की वासनाएं तुम्हारे छिद्र हैं। कोई धन के पीछे दौड़ रहा है,
कोई पद के पीछे दौड़ रहा है, सभी मृगमरीचिकाओं
के पीछे दौड़ रहे हैं, लेकिन दौड़ने में ऊर्जा समाप्त होती है।
दौड़ने में तुम्हारी शक्ति क्षीण होती है। और जिन चीजों के पीछे भाग रहे हो वहां
कुछ पाने को नहीं; सिर्फ मौत मिलेगी। हर आदमी अपनी कब्र में
गिर जाता है जाकर। कहीं से जाओ, किसी दिशा में भागो--पद चाहो
कि यश चाहो कि धन चाहो--एक दिन पहुंच जाओगे कब्र में। और कहीं तो पहुंचने को नहीं
है।
इसके पहले कि कब्र तुम्हें अपने में समा ले, इन
छिद्रों को बंद करो। ये आपाधापी छोड़ो। किसने धन को पाकर पाया है? बड़े से बड़े धनी से भी पूछो तो वह निर्धन है। भीतर अभी रो रहा है। बाहर तो
अंबार लग गया धन का, लेकिन भीतर? भीतर
तो सब खाली का खाली है। बाहर का धन भीतर के खालीपन को नहीं भर सकता। और बाहर का धन
तो मौत छीन लेगी। तुम खाली हाथ आए और खाली हाथ जाओगे। आए थे तब कम से कम मुट्ठी
बंधी थी, जाओगे तब मुट्ठी भी खुल जाएगी।...बच्चे आते हैं तो
मुट्ठी बंधी होती है, और बूढ़े मरते हैं तो मुट्ठी भी खुल गयी
होती है। और भद्द हो गयी होती है! मुट्ठी कम से कम बंद होती है तो पता तो लगता है
कि कुछ होगा भीतर। हो या न हो। बंधी मुट्ठी लाख की--समझदार लोग कहते हैं--खुली तो
खाक की। बच्चा कम से कम आशाएं लेकर तो आता है, संभावनाएं
लेकर आता है, इसलिए मुट्ठी बंद होती है। अभी जिंदगी में हीरे
बरस सकते हैं, इसलिए मुट्ठी बंद होती है। बूढ़ा तो सब गंवाकर
जाता है, कुछ बरसा नहीं; कुछ हाथ न लगा;
उसके हाथ खाली होते हैं; उसके हाथ उसके जीवन
की कथा कहते हैं, उसके जीवन की व्यथा कहते हैं।
छिद्र नहीं होने चाहिए। वासनाएं छिद्र हैं।
और फिर छिद्र भी न हों और भीतर अगर गंदगी भरी
हो--घड़ा खाली होना चाहिए;
घड़ा पहले ही से भरा हो, कूड़ा-करकट से भरा हो,
तो भी फिर जलधार बरसती रहेगी मगर तुम खाली के खाली रह जाओगे। और
तुम्हारे भीतर कितना कूड़ा-करकट भरा है!--कभी सोचो तो, कभी
विचारो तो, कभी एकांत में बैठकर एक खाली कागज लेकर सिर्फ
लिखते चले जाओ जो भी तुम्हारे मन में उठ रहा हो--जो भी। किसी को बताना तो है नहीं,
दरवाजा बंद कर देना, ताला लगा देना, कि कोई झांक न ले; किसी को बताना नहीं है, इसलिए ईमानदारी बरतना; ईमान से लिख डालना, और फिर आग लगाकर जला देना ताकि किसी को पता भी न चले, अगर तुम्हें तो कम से कम साफ हो जाएगा; दस मिनट
लिखने बैठोगे और तुम चकित हो जाओगे कि कौन-सा कचरा तुम्हारी खोपड़ी में भरा हुआ है।
क्या-क्या चल रहा है! और कहां-कहां से चला आ रहा है! संगत-असंगत, प्रासंगिक-अप्रासंगिक; एक कड़ी भजन की आती है,
दूसरी कड़ी किसी फिल्मी गीत की आ जाती है; पड़ोस
में कुत्ता भौंकता है, उसके भौंकने को सुनकर तुम्हें अपनी
प्रेयसी की याद आ जाती है जिसके पास एक कुत्ता था। अब चले! और प्रेयसी को याद आती
है तो पत्नी की याद आ जाती है, कि इसी दुष्ट ने तो सब गड़बड़
करवा दिया! अब लगे कोसने अपने को कि किस दुर्दिन में...
मैंने मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा कि
स्त्रियां आपको नमस्कार करती हैं, आप जवाब क्यों नहीं देते? उन्होंने कहा, बीस साल पहले एक स्त्री को जवाब दिया
था, उसका फल तो अभी तक भोग रहा हूं। अब नहीं! अब जवाब नहीं
देता! एक दफा भूल कर ली, वही बहुत है! अब उससे तो किसी तरह
बच जाऊं तो काफी है! दिखती नहीं, कोई आशा नहीं! यह मेरी
पत्नी मुझे मारकर ही मरेगी!
स्त्रियां जीती भी पुरुषों से पांच साल
ज्यादा हैं। उनकी औसत उम्र ज्यादा है--सारी दुनिया में। परमात्मा ने भी क्या
इंतजाम किया है! कि तुम आशा ही करते रहो, आशा ही करते रहो!
मुल्ला नसरुद्दीन रास्ते पर कोई भी ट्रक
देखता, बस देखता, एकदम कंपने लगता। पसीना-पसीना हो जाता,
चाहे सर्द सुबह ही क्यों न हो! मैंने उससे पूछा कि क्या बात है,
कुछ दिन से तुम जब भी कोई बस निकलती है या ट्रक निकलता है, एकदम पसीना-पसीना हो जाते हो, तुम्हें घबड़ाहट किस
बात की होती है? तुम अपने रास्ते चल रहे हो, ट्रक बीच में जा रहा है--अलग, तुमसे इतने दूर क्या
घबड़ाहट है! उसने कहा घबड़ाहट की बात यह है कि मेरी पत्नी एक ट्रक ड्राइवर के साथ
भाग गयी है, तो मुझे डर गलता है कहीं लौट न आ रही हो! बस,
ट्रक देखता हूं कि बस, फिर मैं होश में नहीं
रह जाता, है प्रभु, कहीं फिर न आ जाएं!
आती ही होगी!
जरा बैठो दस मिनट और तुम्हारे मन में
क्या-क्या आएगा,
उसे लिखते जाना। और जैसा आए वैसा ही लिखना, सुधारना
मत! बनावट न लाना, पाखंड मत करना! नहीं तो बैठकर अच्छे-अच्छे
सूत्र लिखने लगे! यदा यदा हि धर्मस्य...! क्योंकि लोग दूसरों को ही धोखा नहीं देते,
अपने को भी धोखा देते हैं। अल्लाह ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान--ऐसे कुछ सूत्र मत लिखने लगना! जो सच्चा-सच्चा आए,
वही लिखना। जैसा आए वैसा ही लिखना, भेद ही न
करना। और तब तुम देखोगे कि भीतर कैसा कचरा भरा है! क्या-क्या उपद्रव भीतर चल रहा
है!
इस कचरे से भरे हुए मन में तुम चाहते हो, परमात्मा
का प्रवेश हो जाए, उसका अमृत आ जाए! तुम किस आशा पर बैठ हो?
इस सारे कचरे को बाहर फेंक देना जरूरी है। इसको बाहर फेंकने की
प्रक्रिया, इसको उलीचने की प्रक्रिया का नाम ही ध्यान है। मगर
ध्यान के नाम से लोग और कचरा भरते हैं। कोई नमोकार मंत्र पढ़ रहा है, कोई गायत्री मंत्र पढ़ रहा है--ध्यान के नाम से!--कोई जय जगदीश हरे घोंटे
चला जा रहे! कोई हनुमान चालीसा ही दोहरा रहा है। इससे कुछ भी न होगा। कचरा वैसे ही
काफी है, उसमें और कचरा बढ़ा रहे हो--धार्मिक कचरा सही! मगर
कचरा कचरा है, धार्मिक हो कि गैरधार्मिक, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। खाली करना है। ध्यान: रिक्त होना। सब कचरा बाहर
फेंक दो।
बाहर फेंकने की प्रक्रिया सुगम है, सरल
है--साक्षीभाव। जो भीतर कचरा चल रहा है, उसको देखते रहो।
मात्र देखते रहो। तादात्म्य तोड़ लो। मेरा है, भाव छोड़ दो।
मैं तो द्रष्टा हूं और जो भी मेरे आमने-सामने आ-जा रहा है, वह
सब दृश्य है। मैं दृश्य नहीं हूं। बस, इस भाव में अपने को
थिर करते जाओ और तुम धीरे-धीरे पाओगे, कचरा अपने से जा चुका।
जिस दिन तुम बिलकुल खाली हो जाओगे, उस दिन--
यं एवैष वृणुते तेन लभ्यमस
--उसी क्षण तुम वर लिये गये; वरण कर लिये गये। परमात्मा तुम्हारा आलिंगन कर लेगा। आत्मा का अनुभव
तुम्हारे भीतर सुलग उठेगा।
तस्यैष आत्मा विवृणुते स्वाम।
और तभी तुम जान सकोगे आत्मा के रहस्य; उदघाटित
होंगे वे सारे रहस्य। जान सकोगे आत्मा का स्वरूप।
यह सूत्र प्यारा है। विचारना ही मत, इसे जीने
की कोशिश करना। सहजानंद! ऐसे प्यारे-प्यारे सूत्र बिखरे पड़े हैं! हीरे-जवाहरात
इनके सामने कुछ भी नहीं! मगर गलत लोगों के हाथ में हीरे-जवाहरात भी पड़ जाएं तो
क्या होगा। क्या करेंगे वे? कैसे पहचानेंगे? वे तो इन सूत्रों पर भी अपनी धारणाएं थोप देते हैं। जो सूत्र उनके लिए
मुक्तिदायी हो सकते थे, वे उनसे भी अपने लिए नयी जंजीरें खड़ी
कर लेते हैं। ऐसी ही जंजीरों में तो हिंदू बंधे है, मुसलमान
बंधे हैं, ईसाई बंधे हैं, जैन बंधे
हैं। अगर इनमें से किसी ने भी अपने ही सूत्रों को समझा होता, तो उसे दूसरों के सूत्र भी समझ में आ गये होते।
मैं तुम्हें अनुभव से अपने कह रहा हूं कि
जिसने भी किसी एक धर्म की मूल आधारशिला को समझ लिया, उसने सारे धर्मों की मूल
आधारशिला को समझ लिया। क्योंकि वह आधारशिला एक ही है, अलग हो
ही नहीं सकती। इसलिए जो सच में हिंदू है, वह हिंदू नहीं रह
जाएगा। जो झूठा है, वही हिंदू रहेगा। जो सच में मुसलमान है,
मुसलमान नहीं हर जाएगा। कैसे मुसलमान रहेगा? जो
सच में जैन है, जैन नहीं रह जाएगा! जो झूठे हैं, थोथे हैं, पाखंडी हैं, वे ही
जैन होंगे। जिसने सच में महावीर या बुद्ध या कृष्ण को पी लिया, एक को तुमने क्या पीआ--किस घाट से पीआ, क्या फर्क
पड़ता है--तुम्हें स्वाद मिल गया! और स्वाद तो सारे सागर का एक है। बुद्ध ने कहा है,
तुम सागर को कही से भी चखो, उसका स्वाद एक है।
किस घाट से चखते हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता है। कुछ घाटों के
कारण सागर का स्वाद नहीं बदलता है।
धार्मिक व्यक्ति तो सिर्फ धार्मिक होगा, न हिंदू
होगा, न मुसलमान, न ईसाई, न बौद्ध न सिक्ख, न पारसी। सिर्फ धार्मिक होगा। और
मैं उसी धार्मिक व्यक्ति की तलाश में हूं। उसी धार्मिक व्यक्ति को यहां आमंत्रित
कर रहा हूं। इसलिए मुझसे हिंदू नाराज होंगे, ईसाई नाराज
होंगे, जैन नाराज होंगे, मुसलमान नाराज
होंगे। स्वभावतः। उनकी नाराजगी में समझ सकता हूं। लेकिन सच में धर्म की प्यास है,
वे आह्लादित होंगे। वे यहां आकर मस्त होंगे, सरोबोर
होंगे। वे यहां आकर गीले हो उठेंगे। उनकी आंखें आनंद के आंसुओं से भर जाएंगी;
उनके प्राणों में गीत उठेंगे, गंध उठेगी;
उनका जीवन एक तीर्थ; काबा और कैलाश फीके पड़
जाएंगे उनके जीवन के सामने। वे जहां बैठेंगे वहां काबा है, जहां
उठेंगे वहां कैलाश है। जहां चलेंगे वहां तीर्थ बन जाएंगे।
स्वभावतः बहुत अधिक लोग मेरे पास नहीं आ
सकते हैं। क्योंकि लोग तो पिटी-पिटायी धारणाओं में बंधे हुए हैं। और मैं तुम्हें
सारी धारणाओं से मुक्त करना चाहता हूं। सारे शास्त्रों से।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, भारत
धर्मप्राण देश है। इसका एक सबूत यह है कि यहां के अदना गुरु भी अपनी शिष्य-संख्या
लाख से नीची नहीं रखते हैं। लेकिन आश्चर्य है कि आपके जैसे सूर्य के समान तेजस्वी
गुरु के भारतीय शिष्य इतने थोड़े हैं।
इस बात पर कुछ प्रकाश
डालने की कृपा करें।
रामानंद अग्निहोत्री, कोई देश
धर्मप्राण नहीं है! न भारत, न चीन, न
जापान, न ईरान, न पाकिस्तान--कोई देश
धर्मप्राण नहीं है। देश धर्म प्राण हो ही नहीं सकते। देश तो राजनैतिक इकाइयां हैं,
इनका क्या धर्मप्राण होने से संबंध हो सकता है! देश के पास कोई
प्राण होते हैं! जब प्राण ही नहीं होते तो धर्मप्राण कैसे हो जाएगा।
व्यक्ति धर्मप्राण होते हैं, देश नहीं।
जातियां नहीं, समूह नहीं, संगठन नहीं,
सिर्फ व्यक्ति। यह तो व्यक्ति की गरिमा है। तुमको कभी विचार नहीं
उठा कि पहले प्राण तो होने ही चाहिए। कम से कम प्राण तो हों, धार्मिक हों, अधार्मिक हों मगर प्राण तो हों। देशों
के पास कोई प्राण होते हैं! ये तो राजनैतिक झूठ हैं। ये तो राजनीति की चालें हैं।
पाकिस्तान कुछ दिन पहले, उन्नीस सौ
सैंतालीस के पहले भारत था, अब भारत नहीं है। क्या कहते तुम?
अब पाकिस्तान धर्मप्राण है या नहीं? उन्नीस सौ
सैंतालीस के पहले था। अब? अब धर्मप्राण नहीं है। बंगलादेश
पहले धर्मप्राण था, क्योंकि भारत का हिस्सा था, अब धर्मप्राण नहीं है।
ये तो नक्शे पर खींची गयी लकीरें हैं। ये तो
राजनेताओं की चालबाजियां हैं। ये तो राजनीति चलाए रखने के नुस्खे हैं। क्योंकि
दुनिया से राष्ट्र मिट जाएं तो राजनीति मिट जाए। दुनिया अगर एक हो जाए तो
राजनेताओं की क्या जगह बचती है! न झगड़ा होगा, न फसाद होगा, तो ये राजनैतिक गुंडे और दादाओं की क्या जरूरत रह जाएगी! इनकी कौन कीमत रह
जाएगी? इनकी कीमत इसीलिए है कि हमेशा खतरा है--ये हमेशा खतरा
बनाए रखते हैं युद्ध का। ये कभी तुम्हें शांति से नहीं बैठने देंगे, क्योंकि तुम शांति से अगर बैठ गये तो इनकी मौत हो जाएगी। ये तुमको भड़काए
ही रखते हैं। कभी हिंदू-मुस्लिम दंगा है, कभी गुजराती और
मराठी लड़ रहे हैं और कभी हिंदू बोलनेवाले-गैरहिंदी बोलनेवाले लड़ रहे हैं। ये
तुम्हें लड़ाए ही रखेंगे। लड़ाने पर इनकी सारी दारोमदार है। भारत को पाकिस्तान से
लड़ाए रखेंगे; ईराक को ईराक से लड़ाकर रखेंगे;...अब दोनों मुसलमान देश हैं--दोनों धर्मप्राण देश हैं--क्या हो गया इनको!
राजनीति इस सबकी फिकर नहीं करती। राजनीति तो एक फिकर रखती है कि किसी तरह दुनिया
में झगड़े बने रहें। झगड़े न मिट जाएं।
तुम कहते हो, "भारत धर्मप्राण देश
है'। इस भ्रांति को छोड़ो! कोई देश धर्मप्राण नहीं है। न कभी
था, न कभी होगा। हो ही नहीं सकता। व्यक्ति धर्मप्राण होते
हैं। और उसी के कारण हमको भ्रांति हो जाती है। हम व्यक्तियों की आभा में सोचने
लगते हैं कि हमारी आभा है।
सूफियों की एक कहानी है।
एक सूफी फकीर रात के अंधेरे में लालटेन लिए
चल रहा है। रास्ते पर किसी और आदमी से उसका मिलना हो गया, दोनों एक
ही तरफ जा रहे हैं तो दोनों साथ हो लिए। जो आदमी साथ चलने लगा, वह यह भूल गया कि मेरे साथ में लालटेन नहीं है। क्योंकि जिसके हाथ में
लालटेन थी, उसकी रोशनी दोनों को काम दे रही थी। दो मील तक
दोनों साथ चले, फिर वह जगह आ गयी जहां उनको अलग-अलग हो जाना
था; चौराहा आ गया, जहां सूफी फकीर को
एक रास्ते पर जाना था और दूसरे को दूसरे रास्ते पर। जैसे ही रास्ते मुड़े वैसे ही
उस आदमी को पता चला कि अरे, एकदम अंधकार हो गया! तब उसे याद
आयी कि मेरे हाथ में तो लालटेन है ही नहीं। वह तो लालटेन दूसरे की थी। उसकी उधार
ज्योति को मैं अपनी समझता रहा। यह दो मील तक तो मैं भूल ही गया था कि अमावस की रात
है।
यह उधार ज्योति से भ्रांति में मत पड़ो! हां, बुद्ध
धार्मिक थे, महावीर धार्मिक थे, कृष्ण
धार्मिक थे, कबीर धार्मिक थे, नानक
धार्मिक थे, मीरा धार्मिक थी, सहजो
धार्मिक थी--कुछ धार्मिक लोग हुए इस देश में! ऐसे धार्मिक लोग हर देश में हुए। यह
अहंकार भी मत पालो कि तुम्हारे ही देश में हुए। ऐसा कोई देश नहीं है जहां कुछ
धार्मिक लोग नहीं हुए। बस, उनकी गिनती लेकिन अंगुलियों पर की
जा सकती है। लेकिन कठिनाई क्या है कि तुम्हें अपने देश में हुए धार्मिक व्यक्तियों
के नाम तो पता होते हैं और दूसरे देशों में पैदा हुए धार्मिक व्यक्तियों के नाम
पता नहीं होते। जैसे चीन में तुम किसी से पूछो दादू के संबंध में, रैदास के संबंध में, गोरा कुम्हार के संबंध में,
किसी को कुछ पता नहीं होगा। वे कहेंगे, किनकी
बातें कर रहे हो! या तुमसे कोई पूछे, लीहत्जू, कोसुआन, तो तुम भी चौंकोगे कि यह कौन की बातें कर
रहे हैं आप! तुमसे कोई पूछे, रिंझाई, बोकोजू,
तो तुम कहोगे--किसकी बातें कर रहे हैं आप? ये
जापानी नाम तुम्हें पहचाने हुए नहीं हैं। ये चीनी नाम तुम्हारे पहचाने हुए नहीं
हैं। मगर यही हालत चीन में हैं। चीन को अपने नाम पता हैं, तुमको
अपने नाम पता हैं, जापानियों को अपने नाम पता हैं। दुनिया
में ऐसा कोई देश नहीं हुआ जहां कुछ धार्मिक लोग न हुए हों। और दुनिया में कोई ऐसा
देश नहीं है जिसको यह भ्रांति न हो कि हम श्रेष्ठ हैं। फिर वह भ्रांति किसी ढंग से
भी पाली जाए। सभी यह सोचते हैं कि हमसे ज्यादा पवित्र और कोई भी नहीं; हमसे ज्यादा महान और कोई भी नहीं।
यह सिर्फ भारतीय अहंकार है कि भारत
धर्मप्राण देश है। ऐसा कुछ भी नहीं है। कभी कोई एकाध, आदमी
धार्मिक होता है, उसके कारण तुम अपने को धार्मिक मत समझ लो।
क्योंकि तुमने अगर ऐसे अपने को धार्मिक समझ लिया तो फिर तुम कभी धार्मिक हो न
पाओगे। धार्मिक होना हो तो पहली तो बात समझ लो कि तुम धार्मिक नहीं हो मैं भारत का
सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही पाता हूं कि भारत को यह भ्रांति ऐसी गहन हो गयी है धार्मिक
होने की कि अब किसी को धार्मिक होने की जरूरत ही नहीं है। करना ही क्या है जब हम
धार्मिक हैं ही--हम तो पैदा पैदाइश से इस धार्मिक हैं। हमारा तो खून, हड्डी, मांस-मज्जा धार्मिक है।
और तुम्हारी धार्मिकता क्या है! किस आधार पर
तुम धार्मिक हो! मैं तो कोई कारण नहीं देखता तुम्हारे धार्मिक होने का। धन पर
तुम्हारी वैसी ही पकड़ है जैसी किसी और की होगी। सच पूछो तो ज्यादा पकड़ है। होनी भी
चाहिए ज्यादा। क्योंकि जब धन है ही नहीं, तो पकड़ बहुत होती है।
ख्याल रखना, जिसका अभाव होता है,
उसी को हम पकड़ते हैं। अमरीका की धन पर सबसे कम पकड़ है, क्योंकि धन बहुत है; पकड़ हो क्यों; पकड़ की क्या जरूरत है! पकड़ का कोई कारण नहीं है। यहां एक-एक पैसे की पकड़
है। और बातें धर्म की हैं! और बातें हैं अपरिग्रह की, अलोभ
की। मगर तुमसे ज्यादा लोभी और कोई भी नहीं है। यह बात है कि तुम्हारे पास परिग्रह
करने योग्य कुछ नहीं है। इससे अंगूर खट्टे वाली कहानी में मत पड़ जाना। यह मत समझ
लेना कि तुम अपरिग्रही हो। तुम सिर्फ गरीब हो। गरीब होने से कोई अपरिग्रही नहीं
होता। अपरिग्रही होने के लिए कुछ परिग्रह तो हो! यह मत सोच लेना कि तुम त्यागी हो,
तुम व्रती हो। त्याग करने के लिए भी तो कुछ होना चाहिए। वह भी नहीं
है। तो फिर हम भ्रांतियां पालने लगते हैं।
अजीब-अजीब भ्रांतियां हैं इस देश में। इस
देश में लोगों को ख्याल है कि लोग बड़े ब्रह्मचर्य, संयम इत्यादि को पालते हैं।
सरासर झूठी बकवास है। यहां भारतीय मित्र आते हैं, तो यह
पश्चिम से आयी हुई संन्यासिनियों की रोज मुझे शिकायत होती है कि भारतीयों का यहां
भीतर न आने दिया जाए। क्योंकि वे धक्के मारते हैं; च्यूंटी
ले देते हैं। और ऐसा नहीं कि गैरपढ़े-लिखे लोग।...
अभी बंबई की एम्बेसेडर हॉटेल के तीन मैनेजर
आश्रम देखने आए। और उनका जो खास मैनेजर था, उसने पद्मा को, जो आश्रम की वस्त्रों की डिजाइन करती है, वह अपने
कमरे में बैठी डिजाइन कर रही थी, उसकी डिजाइन दिखाने ले जाया
गया था तीनों को, जब डिजाइन वह दिखा चुकी तो दो तो बाहर हो
गये, तीसरा धीरे-धीरे बाहर निकलता था, दो
तो बाहर हो गये और जैसे ही उसने पाया कि पद्मा अकेली है, तत्क्षण
उसके स्तन पकड़ लिये। और यही आदमी आकर आश्रम में पहली बात यही पूछा कि यहां भारतीय
लोग कम क्यों दिखायी पड़ते हैं? फिर उसको पकड़ा गया और शीला से,
जिससे उसने पूछा था कि यहां भारतीय लोग कम क्यों दिखायी पड़ते हैं,
उसने कहां, अब कहिये? समझे
आप कि भारतीय लोग यहां क्यों कम दिखायी पड़ते हैं? अब हमें
मजबूरी में आपको बाहर फेंकना पड़ रहा है। तब सिर झुका कर खड़ा हो गया।
एक पुलिस अफसर ने, जिनसे आशा
की जानी चाहिए कि वह लोगों के जीवन की रक्षा करेंगे, एक लड़की,
सोलह साल की लड़की को, वह अपना पासपोर्ट बदलाने
गयी थी, उसके साथ बलात्कार करने की कोशिश की। रंगे हाथ वे
पकड़े गये।
एक एस. डी. ओ. आश्रम को देखने आया था। उसको
जो महिला आश्रम दिखाने ले गयी, एकांत पाकर बस उसने जल्दी से उसके शरीर को दबोच
लिया।
बंबई के एक उद्योगपति, रंजन
उन्हें आश्रम दिखाकर लौटने लगी, तो उससे उन्होंने कहा,
एक "किस' चाहिए। रंजन ने कहा, क्या?! तो बिचारे एकदम घबड़ा गये, बोले, एक कैसेट चाहिए। सो रंजन ने उन्हें एक कैसेट
बेच दिया। मैंने कहा तू ख्याल रखना, जब भी "किस'
कहे, फौरन पूछना--क्या?! और एक कैसेट बेचना। यह तो तूने कैसेट बेचने की तरकीब खोज ली।
और तुम कहते हो यह बड़ा धर्मप्राण देश है!
जितने बलात्कार यहां होते हैं, जितनी आगजनी यहां होती है, जितने उपद्रव यहां होते हैं, कहीं दुनिया के किसी
देश में होते हैं! हरिजनों के साथ तुम क्या कर रहे हो पांच हजार सालों से? और देश में होते हैं! और फिर भी शर्म नहीं आती यह कहते हुए कि तुम
धर्मप्राण हो! स्त्रियों के साथ तुमने क्या किया है हज्जारों साल से? और फिर भी संकोच नहीं लगता यह कहते कि और तुम पूछते हो, "इसका सबूत यह है कि यहां के अदना गुरु भी अपने शिष्य-संख्या लाख के नीचे
नहीं रखते हैं।' अगर लाखों में संख्या चाहिए हो शिष्यों की,
तो अदना होना बिलकुल जरूरी है। अदना गुरुओं की ही लाखों में संख्या
हो सकती है शिष्यों की। क्योंकि अदना गुरु तुम्हारी अपेक्षा के अनुसार होता है।
मुक्तानंद, अखंडानंद, साई बाबा,
इनकी संख्या लाखों में होगी। क्योंकि ये तुम्हारे अनुकूल हैं।
मेरे पास सैकड़ों पत्र आते हैं, किसी को
कैंसर है, किसी को टी. बी. है, किसी को
कोई और बीमारी है, किसी की आंखें खराब हो गयी हैं, आप ठीक कर दें। मैं कोई डाक्टर नहीं हूं! मैं भीतर की आंख ठीक कर सकता हूं,
बाहर की आंख ठीक करने का मेरा कोई ठेका नहीं है, न कोई जिम्मा है। न मैं बाहर की आंख के संबंध में कुछ जानता हूं। बाहर की
तो मेरी भी आंख बिगड़ जाए तो मुझे आंख के चिकित्सक को ही पूछना होगा।
लेकिन इस तरह के लोग कैसे मेरे पास आएं? जब उनको
यह जवाब मिलता है कि चिकित्सक को दिखाओ! यह तुम्हारी शारीरिक बीमारी है, इसके लिए तुम मेरे पास किसलिए आना चाहते हो? अगर
तुम्हारी कोई आत्मिक परेशानी हो तो जरूर मेरे पास आओ।
लेकिन इस देश में किसी की आत्मिक परेशानी तो
है ही नहीं, आत्मा को तो सभी जानते हैं, सवाल है शारीरिक परेशानियों
का। तो सत्य साई बाबा के पास भीड़ इकट्ठी हो सकती है। इसलिए भीड़ इकट्ठी हो सकती है
कि यह भ्रांति पैदा की जा रही है, मदारीगीरी से, कि हाथ से राख झाड़ कर दिखा दी--जो कि कोई भी मदारी, सड़क-छाप
मदारी कर देता है, जिसमें कोई कीमत की बात नहीं है--मगर
मूढ़ों को यह जंचती है कि जो आदमी हाथ से
राख निकाल देता है, स्विसमेड घड़ियां निकालता है,
जरूर इस आदमी के पास कुछ ताकत है! और यह चाहेगा तो हमारा कैंसर भी
ठीक हो जाएगा। और हमारी टी. बी. ठीक हो जाएगी।
न इनका कैंसर ठीक होता है, न इनकी
टी. बी. ठीक होती है, ये सड़ते हैं, मरते
हैं। इलाज से शायद कुछ हो भी सकता था। मैं तो सत्य साई बाबा जैसे लोगों को महान
अपराधी मानता हूं, क्योंकि इन्होंने इन लोगों को इलाज करवाने
से वंचित करवा दिया। शायद इलाज से इनको कुछ लाभ भी हो सकता, लेकिन
ये राख के भरोसे बैठे हैं! और सत्य साई बाबा बीमार पड़ते हैं तो अपेंडिक्स का
आपरेशन करवाने के लिए चोरी से गोवा के अस्पताल में भर्ती होते हैं। मुक्तानंद
बीमार पड़ते हैं तो बंबई के एक चोरी-छिपे अस्पताल में भर्ती होते हैं। और किसी को
पता लग जाता है तो वह वहां पहुंचता है, तो उनके शिष्य कहते
हैं कि देश पर एक बड़ी मुसीबत आ रही थी, बाबा ने उसे अपने ऊपर
ले लिया। तो देश की मुसीबत टालने के लिए बाबा कष्ट झेल रहे हैं।
क्या-क्या बेईमानियां हैं!
मगर ये बेईमानियां तुम्हारी बुद्धि के
अनुकूल पड़ती हैं;
बातें तुम्हें जंचती हैं कि वाह, अहह, क्या धर्मप्राण देश है! और अकाल पड़ते हैं और बाबा कुछ नहीं करते; और भूकंप आते हैं, बाबा कुछ नहीं करते; और बाढ़ आती है तब बाबा कुछ नहीं करते। एक-एक बाबा एक-एक बाढ़ भी बचाकर मर
जाए तो झंझट मिटे! बाढ़ भी जाए, बाबा भी जाएं! तब यह किसी काम
नहीं आते।
ये पहले खुद की बीमारियां तो ठीक कर लें! और
बीमारियां ठीक करते के लिए तो अब पूरा विज्ञान मौजूद है, क्या
जरूरत है इन मूढ़ताओं में पड़ने की? लेकिन भारत इन्हें मूढ़ताओं
में जीता है।
मेरे पास कैसे लोग इकट्ठे हो सकते हैं! मैं
तुम्हारी किसी मूढ़ता को अंगीकार नहीं करता। मैं तो जितनी गहरी चोट कर सकता हूं, करता हूं।
लोग तिलमिला जाते हैं। मेरे पास तो केवल वे ही लोग इकट्ठे हो सकते हैं--चाहे भारत
के हों, चाहे भारत के बाहर के हों--जिनमें इतना साहस है
समझने का, मनन का; जिनमें सुनने की
क्षमता है; जिनके पास छाती है सत्य को अंगीकार करने की--और
सत्य कड़वा होगा। क्योंकि तुम झूठ की मिठाइयां खाते-खाते ऐसे आदी हो गये हो कि सत्य
कड़वा होगा। और सत्य की कड़वाहट झेलने की क्षमता सभी की नहीं होती।
मेरे पास तो सिर्फ प्रतिभाशाली लोगों का ही
जमघट हो सकता है। यहां भीड़-भाड़ इकट्ठी नहीं हो सकती। भेड़चाल चलनेवाले लोगों की
यहां कोई जगह नहीं है। मेरी शिष्य-संख्या भारत में लाखों नहीं हो सकती। सारी
दुनिया में लाखों होगी,
मगर भारत में लाखों नहीं हो सकती। भारत तो प्रतिभा की दृष्टि से
बहुत दयनीय हो गया है। और कारण हैं तुम्हारे धार्मिक गुरु। वे ही गुरु जिनकी
शिष्य-संख्या लाखों में है। क्योंकि वे तुम्हें ऐसी-ऐसी मूढ़तापूर्ण बातें सिखा रहे
हैं कि जिसका चुकता परिणाम तुम भोग रहे हो मगर फिर भी बोध नहीं है। तुम्हें
उन्होंने सिखाया है कि भाग्य से सब होता है। इसलिए पुरुषार्थ क्या करना; प्रारब्ध असली चीज है! हवन करो, यज्ञ करो, ताकि प्रारब्ध कटे।
बीसवीं सदी और लोग हवन में लाखों रुपये फूंक
रहे हैं। करोड़ों फूंक रहे हैं। कि वायुमंडल शुद्ध हो जाएगा। वर्षा हो जाएगी। न
वर्षा होती है--या होती है तो इतनी होती है कि बाढ़ आती है। लगता है हवन कुछ ज्यादा
हो गया! जंतर-मंतर कुछ ज्यादा हो गये! कि पुरोहितों ने कुछ जोर से पुकार मचा दी और
परमात्मा ने एकदम से घबड़ाहट में ज्यादा पानी गिरा दिया।
और तुम कितनी सदियों से यज्ञ-हवन कर रहे हो!
यहां कोई यज्ञ नहीं हो सकता है, कोई हवन
नहीं हो सकता है।...अब तुम्हारा तो नाम ही अग्निहोत्री है!
ब्राह्मणों का एक जाल है इस देश पर। खूब
चूसा है उन्होंने इस देश को। धर्म के नाम पर इस देश की मिट्टी पलीद कर दी है। तो
मुझसे तो वे कैसे...न ब्राह्मण राजी हो सकते, न साधु-महात्मा राजी हो सकते,
न जैन मुनि राजी हो सकते; वे तो सब मुझसे
घबड़ाएंगे, परेशान होंगे। उनकी सारी धारणाओं पर मैं चोट कर
रहा हूं। अगर में सच हूं तो वे सब गलत हैं।
मेरे पास तो सिर्फ प्रतिभाशाली लोग आ सकते
हैं। मगर उनकी ही जरूरत है। क्योंकि वे ही नमक हैं। अगर उनको बदला जा सका तो हम
सारे मुल्क के मूल आधार बदलने में सफल हो जाएंगे। और मुल्क पर ही मेरी दृष्टि नहीं
है, मेरी दृष्टि पूरी मनुष्यता पर है। क्योंकि मैं कोई भारतीय नहीं हूं। यह
संयोग की बात है कि यहां पैदा हुआ। यह संयोग की बात होती कि यूनान में पैदा होता।
यूनान है कि यहां पैदा हुआ। यह संयोग की बात होती कि यूनान में पैदा होता। यूनान
में पैदा होता तो यूनानी नहीं होता। और रूस में पैदा होता रूसी नहीं होता भारत में
पैदा हुआ इसलिए भारतीय नहीं हूं। यह सारी पृथ्वी मेरी है। मैं कोई राजनैतिक सीमा
नहीं मानता। मैं चाहता हूं सारी पृथ्वी एक हो, सारी मनुष्यता
एक हो।
इसलिए न पंडितो मुझसे राजी होगा, न पुरोहित,
न राजनेता।
तुम कहते हो, अदना गुरु भी अपनी
शिष्य-संख्या लाख से नीचे नहीं रखते। करोड़ भी रख सकते हैं। कोई अड़चन नहीं है।
जितना मूढ़ गुरु होगा इस देश में, उतनी ही भीड़-भाड़ उसके पास
इकट्ठी होगी। मूढ़ों की भीड़ को मूढ़ों की भाषा समझ में आती है। उनके बीच तालमेल बैठ
जाता है।
और, इस देश में प्रत्येक की अपनी
अपेक्षा है। वह अपेक्षा पूरी होनी चाहिए। जैसे अगर कोई जैन स्थानकवासी या तेरापंथी
यहां आए, तो उसकी अपेक्षा है कि मेरे मुंह पर मुंहपट्टी होनी
चाहिए। अगर मुंहपट्टी नहीं तो मैं संत नहीं। उसकी अपेक्षा में पूरी करूं तो जरूर
उसके लिए संत हूं। फिर वह मेरे चरण छूने को राजी है। फिर दूसरे लोग हैं, उन सबकी अपनी अपेक्षाएं हैं। अगर दिगंबर जैन आए, तो
मुझे नग्न होना चाहिए। अगर नग्न हूं, तो, तो ही मुझे ज्ञान हुआ।
मैं चांदा में एक घर में मेहमान था। एक
वृद्धजन, कोई अस्सी वर्ष की उम्र, जैन, वे
मुझे मिलने आए। उन्होंने मेरी एक किताब "साधना-पथ' पढ़ी
थी। और बहुत प्रभावित थे। और मुझसे कहने लगे कि आप तो ऐसे हैं जैसे बीसवीं सदी के
तीर्थंकर। यूं बात चलती रही, तभी घर की गृहिणी ने आकर कहा कि
अब आप भोजन कर लें, सांझ का वक्त हो गया। मैंने कहा कि ये
वृद्ध दूर से चल कर आए हैं, पहले इनसे बात कर लूं, भोजन पीछे हो जाएगा। सूरज डूब रहा था। वृद्ध ने कहा, पीछे हो जाएगा! अरे, सूर्यास्त हो रहा है! क्या आप
सूरज के डूबने के बाद भोजन करेंगे? मैंने कहा कि यह ज्यादा
महत्वपूर्ण है कि आप कोई बीस मील से चलकर आए हैं, वृद्ध हैं,
और मुझे पता है कि आप वर्षों से कहीं नहीं गये, मुझे मिलने आए हैं, तो पहले आप से बात हो ले,
भोजन का क्या है, घंटे बाद हो जाएगा। और फिर
बिजली की रोशनी में क्या चिंता है? और यह जो घर में मैं ठहरा
हुआ हूं, पूरा एअरकंडीशंड है, न यहां
कोई मक्खी है, न कोई मच्छर है; तो आप
चिंता न करें, न मक्खी मरेंगी, न मच्छर
मरेगा।
बस, वह तो उठकर खड़े हो गये। कहा,
तो फिर मुझे क्षमा करें। तो मैंने जो शब्द आपसे कहे कि आप तीर्थंकर
जैसे हैं, मैं वापिस लेता हूं। अरे, आपको
अभी इतना भी बोध नहीं कि रात्रि भोजन करना चाहिए। मैंने कहा, अच्छा ही हुआ कि बात साफ हो गयी। नहीं तो आप इस भ्रांति में रहते कि मैं
तीर्थंकर हूं। मैं तीर्थंकर नहीं हूं, मैं रात्रि भोजन करता
हूं।
वे तो फिर मुझसे बात ही नहीं किये। एकदम
भन्नाए और वापिस चले गये
अपेक्षा उनकी पूरी होनी चाहिए थी, तो मैं
तीर्थंकर था। जरा-सी में बात खतम हो गयी जरा-सी बात में तीर्थंकर गैरत्तीर्थंकर हो
गया! घंटे भर के फासले में। सूरज की रोशनी में भोजन कर लेता तो तीर्थंकर था। और यह
मैंने जानकर कहा उस गृहिणी को कि रुक जा, जल्दी मत कर। इन
सज्जन को याद दिलानी थी कि तुम भांति में न पड़ो, मैं कोई
तीर्थंकर नहीं हूं; तुम मेरे ऊपर कोई अपेक्षाएं न लादो।
मैं किसी की अपेक्षाएं पूरी नहीं करूंगा।
मैं अपने ढंग से जीयूंगा। जो मेरे साथ राजी होने को है राजी, बस,
वही मेरे साथ हो सकता है। मैं किसी की अपेक्षाएं पूरी करके किसी को
साथ करना नहीं चाहता। और इस देश में हर एक की अपेक्षाएं हैं। इस देश में ऐसा आदमी
खोजना मुश्किल है जिसकी अपेक्षाएं न हों।
कल ही एक मित्र ने पत्र लिखा कि मध्य प्रदेश
के भूतपूर्व मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह से मैं मिला, तो
उन्होंने कहा कि तुम अपने गुरु को भगवान कहते हो, शास्त्रों
में भगवान के छह लक्षण हैं, क्या वे लक्षण पूरे करते हैं?
तो उन मित्र ने कहा कि मुझे पता नहीं कौन से छह लक्षण हैं, और मुझे पता नहीं कि शास्त्र क्या कहते हैं, लेकिन
मैं छह हजार लक्षण गिना सकता हूं--शास्त्र में हो या न हों। उन्होंने कहा, छह हजार का सवाल नहीं है, छह लक्षण होने चाहिए। जब
तक छह लक्षण न हों, कोई भगवान नहीं।
उनके छह लक्षण मैं पूरे कर दूं तो वे भगवान
मानने राजी हैं। मगर किसको पड़ी है कि तुम मुझे भगवान मानो। गोविंद नारायण सिंह को
भगवान मनवाकर
फिर मैं किस-किसकी अपेक्षाएं पूरी करूं? उनके छह
लक्षण तो पूरे हो जाएं, तो जैन नाराज हो जाएं। अगर जैनों के
तीर्थंकर के लक्षण पूरे कर दूं तो बौद्ध नाराज हो जाएं। अगर बुद्ध के लक्षण पूरे
कर दूं तो मुसलमान नाराज हो जाएं।
और मैं क्यों किसी के लक्षण पूरे करूं? मुझे किसी
का वोट लेना है, मत लेना है! मैं अपनी सहजता से जी रहा हूं,
अगर तुम्हारे शास्त्र से मेल खा जाए मेरी सहजता तो तुम्हारे शास्त्र
का सौभाग्य, न खाए तो तुम्हारे शास्त्र की बदकिस्मती,
मैं क्या कर सकता हूं!
इसलिए मेरे पास भीड़ नहीं हो सकती। मेरे पास
तो बस चुनिंदा लोग हो सकते हैं। और धर्म सदा से चुनिंदा लोगों की बात है, भीड़ की
बात नहीं। भीड़ क्या खाक धार्मिक होगी!
और क्या करूंगा इकट्ठा करके इन लोगों को जो गणेश
जी के जुलूस में लाखों की तरह इकट्ठे हैं--इनको इकट्ठा करके करूंगा क्या? मैं कोई
गणेश जी हूं! ये जो हनुमान के मंदिर में बैठकर आरती उतारते हैं, इनको यहां करूंगा क्या!--मैं कोई हनुमान हूं! किस-किस की अपेक्षाएं यहां
पूरी करोगे? मैं इनमें से कोई भी नहीं हूं। मैं तो मैं ही
हूं।
और मेरी यह अनुभूति है कि प्रत्येक व्यक्ति
को स्वयं होना है,
किसी की अनुकृति नहीं। जो अनुकृति होता है, वह
कार्बन कापी है, उसने अपनी आत्मा को गंवा दिया, बेच दिया, सस्ते में बेच दिया। मैं अपनी आत्मा को
किसी कीमत पर बेचने को राजी नहीं हूं। एक भी भारतीय यहां न हो तो चलेगा। मेरा क्या
बिगड़ता है! लेकिन जो थोड़े-से लोग यहां होंगे, उनके जीवन में
धन्यता आ सकती है।
मेरे पास जिन्हें आना हो वे यह सोचकर आएं कि
मेरे साथ उन्हें राजी होना है, मैं उनके साथ राजी नहीं होऊंगा। और जो तुम्हारे
साथ राजी हो रहे हैं वे क्या खाक तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे! तुम्हीं उनका
मार्गदर्शन कर रहे हो। तुम्हीं उनको बताते हो, कैसे उठो,
कैसे बैठो। मैंने धीरे-धीरे उन सारे लोगों का साथ छोड़ दिया है। वे
शायद यही सोचते हैं कि उन्होंने मेरा साथ छोड़ दिया। वे गलती में हैं। वे भ्रांति
में हैं। मैं इस ढंग से साथ छोड़ता हूं कि तुम्हें यह पता नहीं चलता कि मैं साथ छोड़
रहा हूं या तुम साथ छोड़ रहे हो। तुम्हें मैं यही भ्रांति रहने देता हूं कि तुम्हीं
साथ छोड़ रहे हो। क्योंकि तुम्हें क्या कष्ट देना! मारे को क्या मारना! तुम जाओ!
मगर मैं इस तरकीब से तुम्हें विदा कर देता हूं। मैं तुम्हारी अपेक्षा पूरी नहीं
करता।
जिन्होंने भी मुझे कभी सलाह दी है, उनसे मेरा
साथ तत्क्षण छूट गया। क्योंकि दो बातों में से एक तय हो जाना चाहिए कि तुम मुझसे
यहां कुछ सीखने आए हो या मुझे कुछ सिखाने आए हो। अगर तुम मुझे कुछ सिखाने आए हो तो
व्यर्थ समय खराब न करो। मुझे कुछ सिखना नहीं है। मेरा काम पूरा हो चुका। जो मुझे
सीखना था सीख लिया, जो जानना था जान लिया। मुझे यहां दुबारा
लौटकर नहीं आना है, मेरा मामला पूरा हो गया। यह पाठ पूरा हो
गया। मुझे सिखाने की फिकिर न करो। हां जो मुझे सलाह देने आएगा, वह गलती में पड़ रहा है। उस तरह के लोगों को मैंने छांट दिया है।
ऐसे-ऐसे लोग हैं वे मुझे सलाह देते हैं: आप
क्या बोलें, क्या न बोलें! किस तरह बोलें कि किसी को चोट न लग जाए। इस बात को तो आप न
ही कहते तो अच्छा था। क्योंकि इससे उपद्रव खड़ा हो जाएगा। वे समझते हैं कि मेरे बड़े
हिताकांक्षी हैं। मगर तुम अपने अज्ञान में, अपनी मूढ़ता में,
अपनी बेहोशी में क्या मेरी हिताकांक्षा करोगे!
अगर जीसस ने इन लोगों की बातें मान ली होती
तो सूली न लगती,
यह पक्का था। क्योंकि उन्होंने कुछ बात न कहीं होती जिनकी वजह से
खतरा पैदा हुआ। मगर बिना सूली के जीसस के जीवन में कुछ अधूरा रह जाता। कुछ कमी रह
जाती। जो इन दो कौड़ी के लोगों की बात मान लेते, उनके जीवन
में क्या सार हो सकता था! जरूर इन्होंने अगर बुद्ध को समझाया होता और बुद्ध ने
इनकी बात मान ली होती, तो शायद भीड़-भाड़ उनके पास इकट्ठी होती।
लेकिन उन्होंने नहीं माना। नहीं माना, अच्छा किया।
बुद्ध-धर्म भारत से उखड़ गया, कोई हर्ज नहीं, लेकिन बुद्ध को जैसे जीना था वैसे जीए, जो कहना था
वह कहा। उससे सारे जगत की प्रतिभा को रोशनी मिली।
तुम यह ख्याल रखना कि तुम्हारे राम, तुम्हारे
कृष्ण, तुम्हारे परशुराम, तुम्हारे और
जितने ईश्वर के अवतार हैं, दुनिया की नजरों में बुद्ध के
मुकाबले उनमें से किसी को कोई कीमत नहीं है। तुमने भले बुद्ध को उखाड़ फेंका हो
क्योंकि तुम्हारी अपेक्षाएं बुद्ध ने पूरी नहीं की, लेकिन
बुद्ध के कारण ही सारे जगत में एक रोशनी है। और बुद्ध ने तुम्हारी बात नहीं मानी,
अच्छा किया। तुम्हारी बात मानता ही वह है जो तुमसे भी गया-बीता है।
जिससे तुम अपनी बात मनवा लेते हो, जाहिर है कि उसकी कोई
आकांक्षा है तुमसे पूरा करवा लेने की। यह सौदा है। मैं कोई सौदा करने को राजी
नहीं।
इसलिए यहां तो भारतीय लोगों की भीड़ नहीं हो
सकती--किसी की भीड़ नहीं हो सकती। यहां दुनिया के सारे देशों से लोग इकट्ठे हैं, किसी देश
की भीड़ नहीं है। और जरूर भारत में वे लोग जिनको जीवन में क्रांति का आनंद लेना है,
आ तो रहे हैं।
और भीड़-भाड़ इकट्ठी करके काम खराब करना है!
यह जीवन का नाजुक से नाजुक काम है--ध्यान--इससे नाजुक कोई सर्जरी नहीं, इससे
ज्यादा कीमती और बहुमूल्य कोई अन्वेषण नहीं, यहां तमाशा करना
है! यहां भीड़ इकट्ठी करनी है--काहिलों की, सुस्तों की,
आलसियों की! क्या करेंगे? यहां कोई कुंभ का
मेला भरना है!
मुझे कोई उत्सुकता नहीं है लाखों में। मुझे
गिनती के लोगों में उत्सुकता है, जिनमें प्रखर, प्रतिभा हो
और जिनमें क्षमता हो चुनौती स्वीकार करने की। सत्य का निमंत्रण जो लेने को तैयार
हैं, बस उनमें मेरी उत्सुकता है। वे भारतीय हों, अभारतीय हों, हिंदू हों, मुसलमान
हों, ईसाई हों, मुझे कुछ भेद नहीं पड़ता।
मैं तो एक ही तरह के आदमी में रस लेता हूं--जिसको परमात्मा की तलाश है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान,
मयकदे में साकी को हमने
रोते देखा।
रिन्दों को सबसे रजनीशी
होते देखा।।
दिनेश भारती! मयकदे
तो खाली हो जाएंगे! क्योंकि असली पियक्कड़ यहां इकट्ठे हो रहे हैं। यह मयकदा है।
यहां शराब ही पी जा रही है। मगर साधारण शराब नहीं।
रात को पी दिन को तोबा कर ली
रिन्द के रिन्द रहे हाथ से जन्नत न गयी
मैंने नजरों से पी, पी नहीं
जाम से
ये नशा वो नहीं जो उतर जाएगा
आज नजरों से नजरें अगर न मिलीं
तेरा आशिक तेरे दर पै मर जाएगा
मैंने नजरों से पी, पी नहीं
जाम से
ये नशा वो नहीं जो उतर जाएगा
केश उलझा के आओ जरा बाम पर
जान-ओ-सर भी कुर्बा हैं इस जाम पर
रूखे महताब की इक झलक देख लूं
बख्त बाकी नशे में गुजर जाएगा
मैंने नजरों से पी, पी नहीं
जाम से
ये नशा वो नहीं जो उतर जाएगा
तोबा की, फिर तोबा, की,
फिर तोबा की, फिर तोड़ दी
मेरी तोबा पर तो तोबा, तोबा तोबा
कर उठी
ये वो मय है जिसमें कुदरत नहीं
और मय की रही अब जुर्रत नहीं
इक नजर देख तेरा बिगड़ता है क्या
मेरा बिगड़ा मुकद्दर सम्हल जाएगा
मैंने नजरों से पी, पी नहीं
जाम से
ये नशा वो नहीं जो उतर जाएगा
सर पै साइल खड़ा कर रहा है सदा
कुछ तो खैरात दे दे सलामते खुदा
मयकदा तेरा साकी तलामत रहे
नाम लेगा ये दीवाना जिधर जाएगा
मैंने नजरों से पी, पी नहीं
जाम से
ये नशा वो नहीं जो उतर जाएगा
जो पीनेवाले हैं आते हैं होश में पीकर...
जो पीनेवाले हैं आते हैं होश में पीकर
मय हराम नहीं सब कुसूर अपना है
तेरे गम में अगर हम हो जाएं खतम
साथ मेरे दर्दे-जिगर जाएगा
आज नजरों से नजरें अगर न मिलीं
तेरा आशिक तेरे दर पै मर जाएगा
मैंने नजरों से पी, पी नहीं
जाम से
ये नशा वो नहीं जो उतर जाएगा
जरूर यहां भी पीना और पिलाना चल रहा है।
मयकदे खाली हो ही जाने चाहिए। मयकदों के साकियों को रोना ही होगा। जब कोई भीतर की
शराब पीने लगता है तो बाहर की शराब अपने से व्यर्थ हो जाती है। यह मेरा अनेक-अनेक
लोगों के निरीक्षण से लिया गया निष्कर्ष है।
मेरे पास शराबी आ जाते हैं और वे बिचारे
संकोच करते हैं। वे कहते हैं कि हम शराबी हैं, क्या हम भी संन्यास के पात्र हैं?
मैं कहता हूं, फिकिर छोड़ो! शराब ही किसलिए
पीते हो? वह भी संन्यास की ही कोई छिपी हुई आकांक्षा है।
अपने को भूल जाना चाहते हो। संन्यास अपने को मिटा देना है। यह और एक कदम आगे की
बात है। भूलने से कोई भूल है? फिर याद आएगी। अरे, मिटा ही दो!
बात ही खतम कर दो! न रहेगा बांस न बजेगी
बांसुरी।
ऋग्वेद से लेकर आज तक लाख उपाय किये गये हैं
कि दुनिया में शराब बंद हो जाए, नशे बंद हो जाएं, लेकिन
बंद नहीं हो सकते--बंद नहीं होंगे, जब तक कि जिस शराब की मैं
बात कर रहा हूं, अधिकतम लोग उसे न पीने लगें। क्योंकि शराब
की तलाश वस्तुतः से छुटकारे के लिए ही है। अहंकार इतना भारी हो जाता है, मस्तिष्क इतना बोझिल हो जाता है, व्यर्थ की धारणाएं
चित्त को इस तरह चिंतित करने लगी हैं--मथ डालती हैं--कि आदमी चाहता है थोड़ी देर के
लिए छुटकारा हो जाए। थोड़ी देर के लिए ही सही कम से कम आज तो विश्राम मिल जाए,
कल की कल देखेंगे। मगर कल आता है, फिर वही
चिंताएं हैं, फिर वही संताप है--और भी ज्यादा बड़े होकर।
क्योंकि तुम जब शराब पीए रहे तब चिंताएं बड़ी होती रहीं, बढ़ती
रहीं। जैसे पौधे बढ़ते हैं ऐसे चिंताएं बढ़ती हैं। तुम तो सोते रहे, इससे कुछ चिंताएं कम नहीं हो जाएंगी! दूसरे दिन फिर चिंताएं खड़ी हैं।
चिंताओं से मुक्त होने का उपाय एक है और वह
है: ऐसी शराब पीओ कि जिसे पीकर होश आ जाए।
जो पीने वाले हैं आते हैं होश में पीकर...
ऐसी शराब ही तुम्हें पिला रहा हूं। और जहां
होश आया, वहां अहंकार गया। जहां होश आया वहां मन गया। और जहां मन नहीं है, वहां कैसी चिंता! भुलाने को ही कुछ नहीं बचता।
तो मैं शराबियों को भी संन्यास देता हूं। और
उनसे कहता हूं,
बेफिक्री से लो! पंडितों से तो तुम बेहतर हो। कम से कम विनम्र तो
हो। कम से कम यह तो पूछते हो सिर झुकाकर कि क्या मैं भी पात्र हूं? क्या मेरी भी योग्यता है? क्या आप मुझे भी अंगीकार
करेंगे? वह तो तिलकधारी पंडित है, वह
सिर नहीं झुकाता, वह अकड़ कर खड़ा है। वह तो पात्र है ही! वह
तो सुपात्र है! वह तो ब्राह्मण के घर में पैदा हुआ है! वह तो जन्म से ही ब्रह्म को
जानता पैदा हुआ है!
शराबी उससे लाख दर्जा बेहतर है। कम से कम
सिर तो झुकाए है,
विनम्र तो है। अपने पात्रता का दावा तो नहीं कर रहो है। अहंकार तो
नहीं है, अस्मिता तो नहीं है। मैं उसे अंगीकार करता हूं। और
यह मेरे अनुभव में आया है कि जैसे ही व्यक्ति ध्यान में उतरना शुरू करता है,
शराब छूटनी शुरू हो जाती है।
मैं शराबबंदी का पक्षपाती नहीं हूं। मैं तो
चाहता हूं कि लोगों को असली शराब पिलायी जाए तो वे अपने-आप झूठी शराब पीना बंद कर
देंगे। ऐसी शराब पिलायी जाए कि एक दफा पी ली तो पी ला, फिर जिसका
नशा उतरता नहीं।
और यह रोज-रोज हो रहा है। आनंद स्वभाव ने
लिखा है--
अजां हो चुकी है, पिला जल्द
साकी
अजां हो चुकी है, पिला जल्द
साकी
इबादत करूंगा मैं आज मखमूर होकर
और स्वामी अक्षय विवेक ने लिखा है--
भगवान,
चलते चलते मुसकरा कर थम गये।
होशमंदो लो सम्हालो हम गये।
तुमने दी जो बख्शीशों की शुक्रिया
मेरे सर से वो जहां के गम गये।
बेखबर मुझको न जाने क्या हुआ
मुस्कुराते आए थे पर जम गये।
आह! तूने कैसी नजरें डाल दीं।
दोनों आलम चलते-चलते थम गये।
और आनंद ऊषा ने लिखा है--
भगवान,
तेरी मय वो मय--जिसने मैं को भुला दिया
तेरी निगाहों में डूबकर खुद को पा लिया
है
क्या गजब की निगाह तेरी कि कब्र में दिल हिला दिया
चैन से सो रही थी मैं तुमने मुझे जगा दिया।
और स्वामी आनंद मुहम्मद ने लिखा है--
मौत से यारी न थी
जिंदगी से बेजारी न थी
उस सफर चल दिया हम,
जिसकी तैयारी न थी।
अब तो यूं लगता है
सदियों की तनाबें खिंच गई
इससे पहले तो ये
वक्त की तेज रफ्तारी न थी।
अब शिकस्ता दिल है
बाइसे तस्कीने दिल
इससे पहले तो ये
कैफियत तारी न थी
इससे पहले तो ये
कैफियत तारी न थी
यह बेहोशी, यह अदभुत बेहोशी इसके पहले
तो नहीं थी। तारी शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। यह उस बेहोशी का नाम है जो परमात्मा को
पीकर ही उपलब्ध होती है। तारी लग जाती है। तार जुड़ जाते हैं। फिर टूटते ही नहीं।
फिर एक अनाहत संगीत भीतर बजने लगता है। यह शराब नहीं है जो अंगूरों से ढलती है,
यह वह शराब है जो आत्मा में ढलती है। उस आत्मा में, जिस को पाने के लिए--
नायं आत्मा प्रवचनेन लभ्यो
जिसे पाने के लिए प्रवचन किसी काम नहीं आते।
न मेधया न बहुन श्रुतेन।
और न बुद्धि काम आती, न शास्त्र
काम आते।
यं एवैष वृणुते तेन लभ्यस
उन्हें मिलती है यह, जिन्हें
परमात्मा वरण करता है।
तस्यैष आत्मा विवृणुते स्वाम।।
और यह आत्मा अपने रहस्य उनके सामने खोल देती
है।
मगर परमात्मा किसको वरण करता है? पियक्कड़ों
को, रिन्दों को।
तोड़ दो तोबा और जी भर कर पीओ।
आज इतना ही।
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