दिनांक 10 अक्तूबर 1980;
श्री ओशो आश्रम, पूना
पहला प्रश्न:
भगवान, एक पत्रकार-परिषद में भारत के भूतपूर्व प्रधान मंत्री श्री मोरारजी देसाई
ने कहा है:"आचार्य रजनीश के आश्रम में आने की अनुमति नहीं दी जा सकती है,
क्योंकि आचार्य रजनीश का आंदोलन अत्यंत खतरनाक और घातक ही नहीं,
वरन भारतीय धर्म और संस्कृति को बदनाम करने वाला भी है।' श्री देसाई ने गुजरात के मुख्यमंत्री श्री माधवसिंह सोलंकी के इस वक्तव्य
के विरुद्ध अपनी तीखी प्रतिक्रिया की है कि "किसी भी धार्मिक नेता को भारत
जैसे लोकतांत्रिक देश में कहीं भी आश्रम बनाने की स्वतंत्रता है' और उन्होंने कहा कि "बुरे कामों को बढ़ावा देने के लिए इस स्वतंत्रता
का उपयोग नहीं किया जा सकता है। मैंने तो अपने शासन-काल में आचार्य रजनीश की
गतिविधियों की जांच की भी आदेश दिया था।' श्री देसाई ने यह
भी कहा कि "आचार्य रजनीश कभी भी कच्छ में अपना आश्रम स्थापित नहीं कर सकेंगे,
यदि कच्छ की जनता इकट्ठी होकर उनका विरोध करने का साहस करे।'
और अंत में श्री
देसाई ने कहा कि "आचार्य रजनीश मुझे काम-दमित मानते हैं और मेरी आलोचना
लगातार करते रहते हैं, परंतु मैं उनकी यह आलोचना
आशीर्वाद की तरह लेता हूं।'
भगवान, क्या आप श्री मोरारजी देसाई के इस प्रलाप पर कुछ कहने की कृपा करेंगे!
सत्य
वेदांत! पहली बात, श्री मोरारजी देसाई को ऐसी भ्रांति है जैसे गुजरात
उनकी कोई बपौती है। कुछ ही दिन पहले उन्होंने कहा कि "जब तक मैं जिंदा हूं,
तब तक गुजरात में शराबबंदी के नियम को शिथिल नहीं किया जा सकता है।'
जैसे एक व्यक्ति का आग्रह सारी जनता पर थोपना अनिवार्य है! श्री
मोरारजी देसाई कौन है, जो कहें कि मुझे कच्छ में आने की
अनुमति नहीं दी जा सकती! उनसे अनुमति मांग भी कौन रहा है! अपने मुंह मियां मिट्ठू!
उनकी अनुमति की मुझे जरूरत है कच्छ आने के लिए!!
और इस तरह की भाषा बोलना शुद्ध
फैसिज्म है। यह भाषा लोकतंत्र के प्रति समादर नहीं है, स्वतंत्रता के प्रति समादर नहीं है। यह भाषा तानाशाही की भाषा है।
उन्होंने कहा कि "आचार्य रजनीश
का आंदोलन अत्यंत खतरनाक है।' यह सच है। यह आंदोलन खतरनाक है।
और इसीलिए तो दकियानूसियों की जड़े हिल गयी हैं। यह निश्चित खतरनाक है! क्योंकि
भारत की जड़ता को तोड़ने वाला और कोई आंदोलन नहीं है। यह खतरनाक है कि भारत में जो
सड़ी-गली लाशें वर्षों से इकट्ठी हो रही हैं, हजारों वर्षों से,
उनको जब तक हम जला कर राख न कर दें, तब तक
भारत में जीवन का अंकुरण नहीं हो सकता है। यह वैसे ही खतरनाक है जैसे कि व्यक्ति
को दवा देना निश्चित ही उन कीटाणुओं के लिए तो खतरनाक है जो बीमारी पैदा कर रहे
हैं। लेकिन उस व्यक्ति के लिए औषधि है। उसके जीवन की संभावना उसी औषधि में हैं।
तो भारत के धर्मगुरुओं, पोंगापंथियों, दकियानूसी परंपरावादियों--इन कीटाणुओं
के लिए जरूर मैं जो कह रहा हूं वह खतरनाक है। लेकिन यही कीटाणु तो भारत के प्राण
खाए जा रहे हैं। यही तो भारत का कैंसर हैं। उन्होंने ही तो इस देश को इतना दीन,
दुर्बल, पतित, सारे जगत
में अपमानित, अनादृत कर दिया है। और स्वभावतः वे सब एकजुट हो
कर मेरा विरोध करेंगे। उनका विरोध समझ में आता है। लेकिन वे थोड़े-से ही लोग
हैं--न्यस्त स्वार्थ, उनको खतरा है। अगर मैं सच हूं, अगर जो मैं कह रहा हूं वह है, तो निश्चित ही अंधेरे
की मौत आ गयी।
उन्होंने कहा कि "खतरनाक और घातक
ही नहीं, वरन भारतीय धर्म और संस्कृति को बदनाम करने वाला है।'
जैसे कि धर्म भी भारतीय होता है। तो अगर धर्म भारतीय होगा, तो फिर अधर्म अभारतीय होगा। तो फिर जो भारत में नहीं है, वह सब अधर्म है। और फिर जो भारत में है, वह सब धर्म
है। जैसे संस्कृति भारतीय होती है!
सभ्यता बांटी जा सकती है भूगोल में, क्योंकि सभ्यता बाह्य आचरण की व्यवस्था है। लोगों के कपड़े पहनने का ढंग,
लोगों के भोजन का ढंग, लोगों के उठने-बैठने का
सलीका, शिष्टाचार--यह "सभ्यता' शब्द
को ख्याल में रखना, उसका अर्थ होता है: सभा में बैठने की
योग्यता। दूसरों के साथ बैठने की योग्यता। इसलिए हम किसी संस्था के सदस्य को सभ्य
कहते हैं। सभ्य का अर्थ है: वह इस योग्य है कि चार लोगों के बीच बैठ सके।...सभ्यता
बाहरी नाता है। संस्कृति आत्मिक परिष्कार है।
संस्कृत व्यक्ति तो थोड़े-से ही हुए
हैं दुनिया में। बुद्ध, महावीर, कृष्ण, मुहम्मद, नानक, कबीर, जीसस, जरथुस्त्र, लाओत्सू--थोड़े-से
ही लोग सुसंस्कृत हुए हैं। अभी पृथ्वी इतनी धन्यभागी कहां हुई! हो सकती है,
मगर मोरारजी देसाई जैसे लोग बाधा हैं।
इस भेद का स्पष्ट समझ लो!
सभ्यता भौगोलिक होती है--होगी
ही!--लेकिन संस्कृति आध्यात्मिक होती है। और अध्यात्म के लिए कोई नक्शे पर बंधी
हुई रेखाएं काम नहीं आती। अध्यात्म का कोई नक्शा नहीं। अध्यात्म की कोई राजनीति
नहीं। भारत में नमस्कार करते हैं, दोनों हाथों को जोड़ कर नमस्कार
करते हैं। पश्चिम में लोग नमस्कार करते हैं, हाथ को एक-दूसरे
के पकड़ कर नमस्कार करते हैं। अफ्रीका का एक कबीला जब नमस्कार करता है तो एक-दूसरे
की जीभ मिला कर नमस्कार करते हैं। यह सभ्यता है। यह, इसका
कोई आध्यात्मिक मूल्य नहीं है कि तुम हाथ मिलाते हो, कि हाथ
हिलाते हो, कि जीभ मिलाते हो, कि नाक
रगड़ते हो--नाक रगड़ने वाले लोग भी हैं। बर्मा में एक कबीला जब मिलता है तो एक-दूसरे
के नाक रगड़ते है। इतना तय है कि जब दूसरे से हम मिलते हैं तो कहीं से बात शुरू
करनी पड़ेगी। फिर कहां से तुम तय करते हो, यह भूगोल से तय
होता है, मौसम से तय होता है, वातावरण
से तय होता है, परंपरा से तय होता है।
लेकिन संस्कृति बात और है! बुद्ध को
नानक के साथ बिठाओ, कि कबीर के साथ, कि बहाऊद्दीन
के साथ, कि संत फ्रांसिस के साथ, कि
इकहॉर्ट के साथ, वे सभी एक तरह के लोग होंगे। उन सबके भीतर
का कमल खिला है। उन सब के भीतर सुगंध उड़ रही है--एक ही परमात्मा की सुगंध। उस
सुगंध का नाम संस्कृति है। वह संस्कृति भारतीय और अभारतीय नहीं होती। और उस
संस्कृति को पाने की प्रक्रिया और विज्ञान का नाम धर्म है। इसलिए धर्म न हिंदू
होता है, न मुसलमान होता है, न ईसाई
होता है। धर्म तो सिर्फ धर्म होता है। जैसे विज्ञान सिर्फ विज्ञान होता है।
तुम सौ डिग्री पर पानी गरम करो तो
पानी भाप बनता है; यह वैज्ञानिक नियम है। इसमें कोई अपवाद नहीं है। फिर
सिक्ख करे गरम, कि जैन करे गरम, कि
बौद्ध करे गरम, इससे कुछ फर्क न पड़ेगा, पानी सौ डिग्री पर ही भाप बनेगा। ब्राह्मण करे कि शूद्र करे, कि क्षत्रिय करे कि वैश्य करे, कुछ पानी अपना नियम
नहीं बदलेगा। पानी का नियम प्राकृतिक है। वह तुम्हारी इन मूढ़ताओं में न फंसेगा,
कि तुम ब्राह्मण हो तो जरा जल्दी गरम हो जाऊं। कि ब्राह्मण देवता
गरम कर रहे हैं, कि जल्दी भाप बन जाऊं! कि शूद्र गरम कर रहा
है, क्या जल्दी पड़ी है, दो सौ डिग्री
पर भाप बनूंगा, शूद्र है, इसकी क्या
फिक्र करनी! न वेद जानता है, न उपनिषद जानता है, छूने योग्य भी नहीं है यह, इसकी मुझे क्या पड़ी! नहीं,
प्रकृति का नियम किसी के लिए अपवाद नहीं है; सबके
लिए एक जैसा है।
विज्ञान प्रकृति का नियम खोजता है और
धर्म आत्मा का नियम। जब प्रकृति का नियम भी एक होता है, तो क्या तुम सोचते हो चेतना के नियम अलग-अलग होंगे? असंभव!
जब पदार्थ का नियम तक एक होता है, तो परमात्मा का नियम
अलग-अलग होगा! हां, भाषा अलग हो सकती है। जीसस बोलेंगे तो
अरेमैक भाषा में बोलेंगे, और बुद्ध बोलेंगे तो पाली में
बोलेंगे, और महावीर बोलेंगे तो प्राकृत में, और याज्ञवल्क्य बोलेंगे तो संस्कृत में; और नानक
अपनी भाषा, कबीर अपनी भाषा, सब अपनी
भाषा में बोलेंगे। मगर जो बोला जा रहा है, वह एक है।
अंगुलियां अलग-अलग, लेकिन जिस चांद की तरफ इशारा किया जा रहा,
वह एक। इक ओंकार सतनाम। उसमें कुछ भेद नहीं है।
इसलिए ध्यान रखना, जो व्यक्ति धार्मिक है, न तो हिंदू है, न मुसलमान है, न सिक्ख है, न
ईसाई है। जो व्यक्ति धार्मिक है, उसका धार्मिक होना पर्याप्त
है। ये विशेषण व्यर्थ हो गये। वह इनके, विशेषणों के पार जा
चुका। ये विशेषण बहुत पीछे छूट गये। इनका अब कोई मूल्य नहीं रहा। ये सब बाहर
व्यवहार के नाते-रिश्ते हैं। अंतरात्मा में कौन हिंदू है, कौन
मुसलमान है, कौन ईसाई है? जब तुम समाधि
की गहराई में पहुंचोगे और तुम्हारे भीतर ध्यान का दीया जलेगा, तो उस रोशनी में क्या भारतीय बचेगा? कि जापानी बचेगा,
कि चीनी बचेगा?
मैं धर्म की बात कर रहा हूं और इसीलिए
श्री मोरारजी देसाई जैसे लोगों को खतरा मालूम होता है। क्योंकि इनकी बुद्धि तो
बाहर से बंधी है। इन्हें भीतर का तो कुछ पता नहीं। जिंदगी भर कौड़ियां जुटाने में
गंवायी है। जिंदगी भर पद-लिप्सा में भटके रहे हैं। इन्हें कुछ भीतर के परमपद का तो
कोई अनुभव नहीं है। ये क्या खाक समझेंगे धर्म! और क्या खाक समझेंगे संस्कृति! मगर
शब्दों को तो कोई भी सीख लेता है। तोते भी सीख लेते हैं! और प्यारे-प्यारे शब्द
दोहराने लगते हैं गायत्री बोलते हैं, नमोकार मंत्र बोलते
हैं। जपुजी सिखा दो! तोता तो कुछ भी बोलने लगेगा।
और ये मोरारजी देसाई एक तोते से
ज्यादा नहीं हैं। इनका कोई अनुभव नहीं है। इन्हें ध्यान का ही कोई अनुभव नहीं है।
कुछ ही दिन पहले इन्होंने स्वीकार
किया था कि मैंने आचार्य रजनीश से ध्यान की प्रक्रिया पूछी थी। प्रक्रिया वही
पूछता है जिसको ध्यान का पता नहीं है। और यह भी स्वीकार किया था अपने वक्तव्य में
कि उन्होंने जो प्रक्रिया बतायी थी, मैं कर नहीं सका,
क्योंकि अब मेरी उम्र काफी हो गयी।...प्रधानमंत्री बनने के लिए उम्र
काफी नहीं हुई है! अभी फिर से प्रधानमंत्री बनने को तैयार हैं! और ध्यान करने के
लिए उम्र काफी हो गयी। आदमी भी क्या-क्या बहाने खोजता है! कैसे-कैसे अपने को धोखा
देता है!
जवानों से कहो तो वे कहते हैं कि
ध्यान बुढ़ापे में करेंगे, क्योंकि अभी तो हम जवान है। अभी क्या ध्यान करना!
शास्त्रों में ही कहा है कि धर्म और ध्यान का समय तो चौथी अवस्था है--चौथा आश्रम।
पचहत्तर साल के बाद करेंगे। और जब मोरारजी देसाई से मेरी ध्यान के संबंध में बात
हुई थी, तो वे पचहत्तर साल के ही थे। और मैंने उनसे कहा भी
कि यही तो वक्त है। जवानों से कहता हूं तो वे बहाना खोजते हैं कि पचहत्तर साल के
बाद शास्त्रों में कहा हुआ है। पचहत्तर साल के बाद ध्यान, समाधि,
धर्म संन्यास। और आप कहते हैं कि अब मेरी उम्र न रही! बूढ़े कहते हैं,
अब हम कैसे ध्यान करें, उम्र न रही; जवान कहते हैं, अभी तो उम्र है, हम कैसे ध्यान करें? ध्यान किसी को भी नहीं करना है।
जिसको ध्यान करना है, उसके लिए उम्र का कोई सवाल ही नहीं
उठता है।
अगर मोरारजी देसाई कब्र में भी पड़े
हों और खबर आ जाए कि फिर से प्रधानमंत्री बनना है। तो उठकर खड़े हो जाएंगे। एकदम
अपना चूड़ीदार पाजामा चढ़ाने लगेंगे, गांधी टोपी सम्हालकर
लगा लेंगे, चर्खा उठा लेंगे--कि राजी हूं! लेकिन ध्यान?
तो उम्र नहीं। और जब तुमने ध्यान ही नहीं जाना, तो तुम क्या धर्म जानोगे! ध्यान का ही तो आत्यंतिक अनुभव धर्म यानी स्वयं
जीवन की आंतरिक अनुभूति। धर्म शास्त्रों में नहीं है, स्वयं
में है। धर्म है भीतर का स्वभाव। और उस स्वभाव को जिसने जान लिया, वही सुसंस्कृत है। क्योंकि जब क्रांति घट जाती है। तब उसे अपने आचरण को
सम्हालना नहीं पड़ता। तब उसका आचरण अपने से सम्हल जाता है। जब उसे सोच-सोच कर नहीं
चलना पड़ता कि क्या ठीक है और क्या गलत है। फिर तो वह जो कहता है, वही ठीक होता है। फिर उसे कभी पश्चात्ताप नहीं होता।
उपनिषद के इस वचन को समझो! तैत्तिरीय
उपनिषद में यह प्यारा वचन है--
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा
सह।
आनंद ब्रह्मणो विद्वान न बिभेति
कुतश्चन।।
एत हि वाव न तपेति "किम अहम
साधुनाकरवम।
किम अहं पापम अकरमवम' इति।।
वह लोक है धर्म का लोक जहां पहुंच
पाने से मन साथ वाणी लौट आती है। ध्यान में तो मन को छोड़ देना होता है, क्योंकि अ-मनी दशा ध्यान है। नानक का शब्द है: अ-मनी। मन के पार हट जाना
होता है, मन से ऊपर उठ जाना होता है; मन
को पीछे छोड़ देना होता है। और मन छूटा तो वाणी छूट जाती है, क्योंकि
मन की ही प्रक्रिया है वाणी। मौन आया तो ध्यान आया। न वहां मन है, न वाणी है।
लेकिन जब कोई ब्रह्म को अनुभव कर लेता
है, तो पुनः मन लौट आता है और वाणी लौट आती है। क्योंकि जब जो जाना है,
उसे दूसरों से संवादित करना होगा, निवेदन करना
होगा। फिर मन को नया काम मिलता है। फिर वाणी को नयी व्यवस्था मिलती है। फिर गीता
फूटती है, कुरान जन्मता है। फिर धम्मपद उठता है। जिस मन को
छोड़ दिया था, जिस वाणी को पीछे छोड़ दिया था, अब उसको फिर नया काम मिलता है। पहले मन मालिक था, अब
मालिक आत्मा है, मन गुलाब है। पहले वाणी तुम्हारे बस में न
थी, विचार तुम्हारे ऊपर हावी थे, तुम
कहो कि बंद हो जाओ तो बंद न होते थे, तुम कहो कि चलो तो चलते
न थे, उनकी मौज थी, वे तुम्हीं को
घसीटते थे, तुम्हारी कोई लगाम न थी, अब
तुमने अपनी मालकियत पा ली, तुम अपने स्वामी हुए। अब तुम
वापिस मन का उपयोग कर सकते हो, अब वाणी का उपयोग कर सकते हो।
लेकिन अब मन संसार बनाएगा। अब मन सत्य की उदघोषणा करेगा। अब मन उठे हुए विचार
विक्षिप्तता न लाएंगे, बल्कि तुम्हारी विमुक्ति को
गुनगुनाएंगे; तुम्हारी विमुक्ति का संदेश पहुंचाएंगे।
सूत्र प्यारा है--
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा यह।
"उस परम ज्ञान में
पहुंच जाने के बाद मन के साथ वाणी लौट आती है। उस ब्रह्म के आनंद का जो अनुभव कर
लेता है, वह किसी से डरता नहीं।" डरने का कारण ही नहीं
रह जाता।
हम डरते क्यों हैं?
हम डरते इसलिए हैं कि हमने अभी अपने
को शरीर समझा है--और शरीर की मृत्यु हो सकती है--और मृत्यु है तो डर है। अभी हमने
अपने को मन समझा है। और मन का क्या भरोसा? अपने ही मन का भरोसा
नहीं है। लाख कसम खाओ कि क्रोध न करूंगा, फिर क्रोध आ जाता
है। लाख नियम लो ब्रह्मचर्य का, नियम टूट-टूट जाता है। लाख
प्रयास के बाद भी मन फिर-फिर हावी हो जाता है। अभी न तो अपने मन पर कोई काबू है,
न अभी अनुभव है अपने भीतर किसी अमृत तत्व का। तो भय तो होगा। मौत आ
रही है! प्रतिपल आ रही है! कब आ जाए पता नहीं। और कितना ही उपाय करो, आएगी ही। कितने ही भागो, आएगी ही।
एक सूफी कहानी है प्यारी।
एक सम्राट का नौकर भागा हुआ आया। उसका
बहुत प्यारा नौकर था। उसका बड़ा स्वामिभक्त नौकर था। अपनी जान भी दे दे मालिक के
लिए। भागा हुआ आया; बाजार गया था, ऐसा घबड़ाया आया।
जवान था, स्वस्थ था, सुंदर था। अभी
बाजार गया था तो सब बात और थी। अभी लौटा तो यूं जैसे अचानक वसंत खो गया और पतझड़ आ
गयी। उसके जीवन का पता एकदम पीला पड़ गया। चेहरा पीला, जैसे
सारा रक्त निचुड़ गया हो। सम्राट ने पूछा, तुझे हुआ क्या?
उसने कहा, देरी न करें मालिक! मैं गया था
बाजार में, वहां एक काली छाया ने मेरे कंधे पर हाथ रखा।
मैंने लौटकर देखा, मैंने पूछा, तू कौन
है? उसने कहा, मैं तेरी मौत हूं। और आज
शाम को तैयार मिलना। सूरज डूबने के वक्त, ठीक सूरज डूबने के
वक्त तैयार मिलना, मैं आ रही हूं। तो मैं घबड़ा गया हूं। आज
सांझ, आज ही सांझ मौत आ रही है। क्या करूं, क्या न करूं! एक ही बात सूझती है कि आपके पास तो एक से एक तेज चलने वाले
घोड़े हैं, अपना सब से तेज घोड़ा मुझे दे दें, मालिक, मैं जितनी दूर निकल जाऊं इस नगर से उतना
अच्छा।
बात मालिक को भी समझ में आयी। बात
तर्कपूर्ण थी, अर्थपूर्ण थी। मौत यहीं आएगी। भाग जाने दो!, उसका प्यारा नौकर था। उसने अपना सबसे तेज घोड़ा दे दिया और कहा कि यह तुझे
सैकड़ों मील दूर ले जाएगा सूरज डूबते-डूबते। उस दिन उस नौकर ने न तो भोजन लिया,
न पानी पीया। रुका ही नहीं। भागता ही गया घोड़े पर, भागता ही गया घोड़े पर! और घोड़ा अदभुत था, वह सैकड़ों
मील दूर लेकर पहुंच गया।
सांझ जब सूरज डूबता था, उसने दूर एक बगीचे में जाकर घोड़े को एक वृक्ष से बांधा, घोड़े की पीठ थपथपायी और कहा, प्यारे घोड़े, तू सच में ही अदभुत है! तू तीर की
चाल से चला। तू मुझे इतने दूर ले आया। मैं तेरा धन्यवाद करता हूं
और तभी फिर वही काली मौत उसके कंधे पर
हाथ रखी और उसने कहा, धन्यवाद मैं भी करती हूं तेरे घोड़े का, तू ही नहीं। क्योंकि मैं परेशान थी; क्योंकि तेरी
मौत इस झाड़ के नीचे होनी थी और मैं चिंतित थी कि तू समय पर पहुंच पाएगा या नहीं।
लेकिन तू आ गया। घोड़ा तेज है!
कहीं भागो कितना ही तेजी से भागो, बच न पाओगे। जब तक मौत है तब तक भय है। लेकिन जिसने ब्रह्म को जाना,
उसने जाना अमृत को। अमृत को जानते ही भय विदा हो जाता है। क्योंकि
उसे इस बात का पश्चात्ताप करने का मौका ही नहीं मिलता। इसलिए भी भय विदा हो जाता
है। कि अब उसके जीवन में कोई पश्चात्ताप नहीं रह जाता।
तुम एक काम कर लेते हो, फिर पछताते हो। नहीं करते तो भी पछताते हो। तुम्हारी दुविधा बड़ी है।
तुम्हारा द्वंद्व बड़ा मुश्किल भरा है। करो तो मुसीबत, न करो
तो मुसीबत। अगर क्रोध नहीं करते हो तो पछताते हो, इसलिए
पछताते हो कि लोग क्या सोचेंगे कि उसने मुझे गाली दी और मैं जवाब भी न दिया। लोग
मुझे सोचेंगे कमजोर हूं, कायर हूं, नपुंसक
हूं। अगर जवाब देते हो, क्रोध करते हो, तो फिर ग्लानि पकड़ती है कि यह मैंने क्या किया! यह कैसा मैंने पागलपन
किया! यह कैसे मैं शूद्र व्यवहार किया! लोग क्या कहेंगे!
तुम जो भी करते हो, पश्चात्ताप आता है। लेकिन ब्रह्मज्ञानी को, जिसने
धर्म को अनुभव किया है, उसे कोई पश्चात्ताप नहीं। कोई मौका
ही नहीं पश्चात्ताप का। क्योंकि मैंने यह काम शुभ किया, यह
भी उसे ख्याल नहीं, कि मैंने यह काम अशुभ किया, यह भी उसे खयाल नहीं। कि मुझसे यह पाप हो गया, यह भी
चिंता नहीं, कि मुझसे यह पुण्य हो गया, यह भी अहंकार नहीं। असल में धर्म की उस परम ज्योति में व्यक्ति तो विलीन
हो जाता है, तिरोहित हो जाता है, मैं
भाव तो बचता नहीं, इसलिए भयभीत कौर हो? परमात्मा ही शेष रह जाता है। जब उसकी जो मर्जी, करे!
शुभ करे, अशुभ करे, मुझे क्या
लेना-देना है!
धर्म को जानने वाला व्यक्ति जो करता
है, वही आनंद से करता है; क्योंकि वह स्वयं तो करने वाला
होता ही नहीं, उसके भीतर परमात्मा ही करता है।
मोरारजी देसाई का यह कहना कि
"भारतीय धर्म और संस्कृति को मेरा काम बदनाम करने वाला है' निहायत पागलपन की बात है। उन्हें पता ही नहीं कि धर्म और संस्कृति भारतीय
नहीं होते। और जो भारतीय है, वह जितने जल्दी गिर जाए उतना
अच्छा। क्योंकि मैं चाहता हूं एक ऐसी मनुष्यता--एक ऐसी पृथ्वी, जिस पर भारत न हो, पाकिस्तान न हो, चीन न हो, जर्मनी न हो, अमेरिका
न हो। बहुत हो गया उपद्रव इन नामों पर। मैं चाहता हूं एक ऐसी मनुष्यता, जहां धार्मिकता तो हो और धर्म न हों। मैं चाहता हूं एक ऐसा आदमी, जो कुरान में भी रस ले सके और गीता में भी रस ले सके और गुरुग्रंथ में भी
रस ले सके और समभाव से रस ले सके। और समभाव से समझ सके। जो उपनिषदों को भी
आनंदमग्न होकर गुनगुनाए, जो लाओत्सु को भी समझे, जो जेन्द अवेस्ता को भी समझे। जिसके भीतर बुद्ध भी बोलें और महावीर भी
बोले और कृष्ण भी बोले और जिसके भीतर कोई विरोध न रह जाए।
तो जो भारतीय है वह तो गिर ही जाना
चाहिए। मैं कोई भारतीय का पक्षधर नहीं हूं। मैं किसी तरह के विभाजन का पक्षधर नहीं
हूं। मैं अविभाज्य मनुष्यता के पक्ष में हूं। और मैं एक पृथ्वी चाहता हूं जो अखंड
हो। जब तक पृथ्वी अखंड नहीं है तब तक आदमी परेशानी में रहेगा। आज यह युद्ध, कल वह युद्ध। आज यह जेहाद, कल वह जेहाद।
और कैसे-कैसे अदभुत लोग हैं। कच्छ के
जैन मुनि कच्छ-केसरी अचल गच्छाधिपति, उन्होंने अपने
वक्तव्य में जेहाद शब्द का प्रयोग किया है, कि मेरे खिलाफ
जेहाद छेड़ना है। जैन मुनि जेहाद की बातें कर रहा है। हां, कोई
मुसलमान मौलवी करता तो समझ में भी आ जाता। जेहाद! धर्मयुद्ध! आह्वान किया है कि
युवकों, तैयार हो जाओ रक्त बहाने के लिए। और रक्त बहाने की
बात तो तभी उठती है, जब रक्त बहाने की आकांक्षा हो, इच्छा हो। और ये जैन मुनि! "अहिंसा परमो धर्म:' की बात करते थकते नहीं! जिनका चौबीस घंटा "अहिंसा परमो धर्मः'
में गुजर रहा है! रक्त बहाने को तैयार हो जाओ! मरने-मारने के लिए
तैयारी करो! जेहाद छेड़ दो!
धर्म के नाम पर यही मूढ़ता होती रही
है। यह धार्मिकता नहीं है विक्षिप्तता है। और यह तब तक जारी रहेगी, जब तक आदमी को हम मंदिर और मस्जिद में बांटेंगे, गिरजे
में और गुरुद्वारे में बांटेंगे। गिरजा भी अपना, मंदिर भी
अपना, मस्जिद भी अपनी गुरुद्वारा भी अपना। जहां शांत हुए,
वहीं तीर्थ। जहां मौन होकर
बैठे, वहीं मंदिर। और जहां तुम्हारे प्राणों में प्रार्थना
जगी, वहीं मस्जिद। और जहां तुम मस्ती में डोलने लगे, वहीं गिरजा, वहीं गुरुद्वारा। व्यक्ति जहां चलता है
वहां तीर्थ बन जाते हैं; जहां बैठता है वही भूमि पवित्र हो
जाती है।
लेकिन हमें ये पुरानी धारणाएं छोड़नी
होंगी।
इसलिए एक अर्थ में तो उनकी बात सच है
कि मेरे आंदोलन खतरनाक है और घातक है। खतरनाक उनके लिए, जो पुरानी विक्षिप्तता को बचाना चाहते हैं; घातक
उनके लिए, जिनके स्वार्थ पुराने से जुड़े हैं। लेकिन उनके लिए
नहीं, जो मनुष्य के भविष्य को उज्जवल करना चाहते हैं;
उनके लिए नहीं जो चाहते हैं कि सुबह होए नहीं, उनके लिए जरूर घातक है, जो रात को ही बनाए रखना
चाहते हैं। उल्लुओं के लिए और उल्लू-पट्ठों के लिए घातक है, क्योंकि
उनकी रात गयी और सूरज निकला कि उनके लिए अंधेरा हो जाएगा। बाकी सबके लिए दिन होगा,
मगर कुछ उल्लू के पट्ठों को अंधेरा हो जाएगा। उनकी तो रात में ही
जिंदगी थी। उनका तो मजा रात में था, अंधेरे में था। तो जो
अंधेरे का शोषण कर रहे हैं, जो आदमी को अंधेरे में रखना
चाहते हैं, उनके लिए जरूर खतरनाक है और घातक है। अन्यथा
जिसको भी थोड़ा-सा जीवन का अनुभव होगा, वह मेरी बात सुनकर
आह्लादित होगा, आनंदित होगा। क्योंकि मैं वहीं कह रहा हूं जो
सदा जानने वालों ने कहा है। उसमें जरा भी भेद नहीं है।
"श्री देसाई ने
गुजरात के मुख्य मंत्री श्री माधवसिंह सोलंकी के इस वक्तव्य के विरुद्ध अपनी तीखी
प्रतिक्रिया की कि "किसी भी धार्मिक नेता को भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में
कहीं भी आश्रम बनाने की स्वतंत्रता है' और उन्होंने कहा कि
बुरे कामों को बढ़ावा देने के लिए इस स्वतंत्रता का उपयोग नहीं किया जा सकता।'
निर्णायक कौन होगा कि कौन-सा काम बुरा
है और कौन-सा अच्छा? श्री मोरारजी देसाई निर्णायक हैं? तो तो स्वमूत्र पीना अच्छा काम हो जाएगा। यह देखते हो मोरारजी भैया को,
कलियुगी कृष्ण कन्हैया को, स्वमूत्र-बिहारी,
गोबर-गिरधारी! तब तो इनका जो करना है, इनका जो
जीवन है, वह शुभ हो जाएगा? तब तो और सब
अशुभ हो जाएगा। इनसे कोई निर्णय होगा?!
निर्णय कौन करेगा?
जैनों से पूछे तो रात्रि-भोजन पाप है, बुरा काम है। लेकिन सारी दुनिया, जैनों को छोड़कर,
रात्रि-भोजन करती है। अगर जैनों को निर्णय करना हो तो भारत में उन
लोगों के रहने का कोई हक नहीं है जो रात्रि-भोजन करते हैं। मतलब तीस-पैंतीस लाख
जैनों को छोड़कर सत्तर करोड़ भारतवासियों को हिंद महासागर में फेंक देना चाहिए,
क्योंकि ये रात्रि-भोजन करते हैं और यह महापाप है!
निर्णय कौन करेगा? जो भी निर्णय करेगा वह अपने को ठीक मान कर चलेगा और दूसरे को गलत।
स्वतंत्रता का अर्थ ही क्या होता है फिर? स्वतंत्रता का अर्थ
यह होता है: जिन संबंधों में कोई निर्णय नहीं हो सकते, उन
संबंधों में प्रत्येक व्यक्ति को अपने ढंग से जीने की स्वतंत्रता है, जब तक वह दूसरे के ऊपर अपने को आरोपित नहीं करता।
मैं किसी के ऊपर अपने को आरोपित नहीं
करता। मैं तो अपने आश्रम के द्वार के बाहर भी नहीं निकलता। हां, जिसको उत्सुकता हो वह मुझे सुनने आता है। मैं तो किसी को सुनाने भी नहीं
जाता, आरोपण करने की तो बात दूर। मुझे तो जिसे सुनना है,
उसको भी फीस चुका कर सुनना पड़ता है। मुझे सुनने के बाद प्रसाद भी
नहीं बंटता। मुझे तो सुनने के लिए कुछ शर्तें पूरी करनी होती हैं तो तुम सुन
सकोगे। मैं किसी पर अपने को आरोपित नहीं कर रहा हूं। जिसको सुनना हो, सुन ले, और जिसको जीना हो, जी
ले!
स्वतंत्रता का अर्थ क्या है? अगर हम किसी के द्वारा निर्णय करवाएं, तो स्वतंत्रता
उसके लिए बचेगी, बाकी सब के लिए तो परतंत्रता हो जाएगी। अगर
हम मांसाहारियों से पूछे तो मांसाहार शुभ है; कुछ भी अशुभ
नहीं। क्योंकि मांसाहारियों के हिसाब से परमात्मा ने पशु-पक्षियों को बनाया ही
इसलिए कि आदमी उनको खाए। यह तो उनके धर्मशास्त्रों में लिखा हुआ है, कि मनुष्य के लिए ही परमात्मा ने सब कुछ बनाया। तो यह शुभ है, इसमें कुछ अशुभ नहीं है। तो अगर मांसाहारी सही हैं, तो
फिर गैर-मांसाहारीयों को भारत में रहने का कोई अधिकार नहीं।
जीसस तो शराब पीते थे। इसलिए ईसाइयों
में शराब पीना कोई पाप नहीं है। जब जीसस तक शराब पीते हैं शराब पीना तो पवित्र हो
गया, पुण्य हो गया। तो अगर ईसाइयों को माना जाए तो मोरारजी
देसाई को भारत में जीने का कोई हक नहीं है, क्योंकि ये
शराबबंदी के पक्ष में हैं। तो भारत में जितने लोग शराब नहीं पीते, वे सब गलत काम कर रहे हैं।
निर्णय कौन करेगा? स्वतंत्रता का अर्थ ही क्या है? स्वतंत्रता का यही
अर्थ है: जीवन में ऐसी बातें हैं, जिनका कोई निर्णय नहीं कर
सकता, कोई निर्णायक नहीं हो सकता। और इसलिए प्रत्येक व्यक्ति
को अपनी दृष्टि और अपने प्रकाश के अनुसार जीने का हक है। हां, रुकावट तब डालनी चाहिए जब वह व्यक्ति अपने को दूसरे पर आरोपित करने लगे;
जब वह दूसरे के साथ जबरदस्ती करने लगे।
और यह जबरदस्ती है। मोरारजी देसाई का
यह कहना है कि मुझे कच्छ में आने की अनुमति नहीं दी जा सकती, यह जबरदस्ती है। यह मेरे साथ जबरदस्ती है और कच्छ के लोगों के साथ
जबरदस्ती है। यह दोहरी जबरदस्ती है। क्योंकि अगर कच्छ के लोग मुझे चाहते हैं तो
मोरारजी देसाई कौन हैं? और निश्चित ही कच्छ के लोग मुझे
चाहते हैं। यह मोरारजी देसाई के वक्तव्य से ही साफ होता है। उन्होंने अपने वक्तव्य
में कहा है--चोर की दाढ़ी में तिनका है न, ऐसे उनके वक्तव्य
में तिनका है--उन्होंने कहा कि "आचार्य रजनीश कभी भी कच्छ में अपना आश्रम
स्थापित नहीं कर पाएंगे, यदि कच्छ की जनता..."यदि'
पर ध्यान देना...यदि कच्छ की जनता इकट्ठी होकर उनका विरोध करने का
साहस करे।' कच्छ की जनता इकट्ठी है और विरोध करने का साहस भी
रखती है, मगर विरोध, मोरारजी देसाई,
आपका करेगी। इसके स्पष्ट प्रमाण हैं जिसका नहीं। रोज कच्छ से लोग
यहां आ रहे हैं और मुझसे प्रार्थना कर रहे हैं कि आप जल्दी करें, हम प्रतीक्षा कर रहे हैं।
गुजरात सरकार के पास पैंसठ संस्थाओं
ने मेरा विरोध किया है और तीन सौ साठ संस्थाओं ने मेरा समर्थन किया है। तो
निर्णायक कौर है फिर? और जिन लोगों ने मेरा विरोध किया है, उनमें संस्थाएं केवल बीस हैं। उन बीस में भी अठारह जैनियों की हैं। और
बाकी जो पैंतालीस हैं, वे संस्थाएं नहीं हैं, व्यक्तियों के पत्र हैं। एक-एक व्यक्ति ने पत्र लिख दिया है। और मेरे
मित्रों ने गुजरात में जाकर और कच्छ में जाकर उन मित्रों से पूछताछ की कि तुमने यह
पत्र लिखा, तो उनमें से अनेकों ने कहा, हमें पता ही नहीं किसने हमारे नाम से पत्र लिख दिया। बंबई के पांच-सात
राजनैतिक गुंडे इस सारे काम को कर रहे हैं। और ये पांच-सात आदमी जब मांडवी पहुंचे
तो मांडवी के लोगों ने इनकी पिटाई की और इनको निकाल बाहर गांव के फेंक दिया।
कच्छ की जनता तो इकट्ठी है। मगर
मोरारजी देसाई के पक्ष में इकट्ठी नहीं है। वक्तव्य साफ है। "यदि' बता रहा है कि मामला क्या है। "यदि कच्छ की जनता इकट्ठी होकर विरोध
करने का साहस करे',...! कच्छ की जनता क्यों विरोध करे?
और जिन लोगों ने, जिन तीन सौ साठ संस्थाओं ने
मेरे पक्ष में समर्थन किया है, उनमें ऐसे भी पत्र हैं,
एक-एक पत्र में सोलह सौ लोगों के दस्तखत हैं। जिन्होंने विरोध किया,
उनमें एक आदमी का दस्तखत है--वह भी संदिग्ध है कि उस आदमी ने किया
है या नहीं!
जिस व्यक्ति ने सोलह सौ लोगों के
दस्तखत करवा के भेजे हैं, उसकी भी गिनती एक संस्था की तरह हो रही है और जिसने
एक पत्र लिखा है, एक आदमी ने, उसकी भी
गिनती एक संस्था की तरह हो रही है।
कच्छ की जनता को अगर विरोध करना है, तो कच्छ की जनता करेगी, मोरारजी देसाई को क्या पड़ी
है? मोरारजी देसाई क्यों कच्छ के आसपास चक्कर लगा रहे हैं
इधर तीन महीने से? क्या उनको बेचैनी हो रही है?
लेकिन अनजाने भी सत्य निकल जाते हैं।
एक ईसाई पादरी--वर्षा नहीं हुई थी और
गांव भर के किसानों ने उससे प्रार्थना की कि वर्षा के लिए अब कुछ करो, तो उसने एक रविवार को प्रार्थना का आयोजन किया। सारे गांव के लोग इकट्ठे
हों और परमात्मा से प्रार्थना की जाए, जरूर वर्षा होगी। सारे
गांव के लोग इकट्ठे हुए। सिर्फ एक छोटा-सा बच्चा छाता लिए हुए पहुंचा। जो मिला उसे
रास्ते में, उसी ने कहा, अरे मूर्ख,
छाता किसलिए ले जा रहा है? वर्षा तो हो नहीं
रही, आकाश में बादलों का पता नहीं, और
तू छाता लेकर निकला है! और छाता कहीं गंवा मत देना रास्ते में! उसके मां-बाप ने भी
कहा कि छाता किसलिए ले जा रहा है? और जब पादरी रास्ते में
मिला तो उसने भी कहा कि अरे, तू छाता किसलिए लाया? उस लड़के ने कहा, बड़ी मुश्किल! मैं तो सोचा जब
प्रार्थना होगी तो वर्षा होगी! तो आप प्रार्थना करवाने जा रहे हैं और बाकी लोग
प्रार्थना करने जा रहे हैं, मगर किसी को विश्वास नहीं कि
वर्षा होगी। तो भाड़ में जाए ऐसी प्रार्थना, मैं अपने घर चला!
सार ही क्या, एक आदमी छाता नहीं लाया, पादरी
खुद ही छाता नहीं लाया, पादरी ही पूछ रहा है इस लड़के से कि
छोकरे, यह छाता किसलिए ले जा रहा है? किसी
को भरोसा नहीं है वर्षा का! वह छाते की गैर-मौजूदगी बता रही है कि करने जा रहे हैं
प्रार्थना, लेकिन सब जानते हैं कि कुछ होना है क्या!
अगर कच्छ की जनता को विरोध करना है तो
कच्छ की जनता विरोध करेगी--मोरारजी देसाई कोई कच्छी नहीं हैं। इनको क्या पड़ी है? इनको क्या परेशानी हो रही है? इनके क्यों प्राण निकले
जा रहे हैं?
और कच्छ की जनता को क्या कायर समझते
हो? क्योंकि जो उन्होंने गुजराती में शब्द उपयोग किया है, वह यह है कि अगर कच्छ की जनता में "दम' हो,...मतलब भड़काने की कोशिश है। दम मारो दम!...कच्छ की जनता में अगर दम हो तो
विरोध करे। कोई विरोध कर नहीं रहा है, तो अब जबरदस्ती विरोध
को खड़ा करने की कोशिश की जा रही है।
क्यों कच्छ की जनता के पीछे पड़े हो? तुम्हीं विरोध करो न! तुम तो अनशन करने में कुशल हो। मेरे खिलाफ अनशन करो
तो तुमको पता चलेगा! मैं कोई गांधीवादी नहीं हूं कि तुम्हारे अनशन से कुछ परेशान
हो जाऊंगा। मेरे खिलाफ आमरण अनशन करो! और मर जाओगे तो हम उत्सव मनाएंगे। कोई मेरी
तरफ से नहीं कहने आएगा कि अनशन तोड़ो। कोई संतरे का जूस लेकर तुम्हारे पास हाजिर
नहीं होगा। ठीक है, जिसको मरना है उसको मरने की स्वतंत्रता
है। जिसको उपवास करके मरना है वह उपवास करके मरे।
यह गांधीवादियों ने खूब इस देश में
उपद्रव कर रखा है! एक गांधीवादी आमरण अनशन कर देता है, दूसरा गांधीवादी संतरे का रस ले कर पहुंच जाता है। यह षडयंत्र चलता रहा
है। दोत्तीन दिन उपवास हो गया, अखबारों में चर्चा हो गयी,
अखबारों में फोटो छप गये, फिर संतरे का रस तो
तैयार ही है! कोई मरता ही नहीं आमरण अनशन कितने होते हैं, कोई
मरता ही नहीं।
मेरे खिलाफ आमरण अनशन करो तो तुमको
पता चलेगा, कि मैं आशीर्वाद दूंगा कि तुम्हारा अनशन जरूर पूरा
हो! अरे, सभी का काम पूरा होना चाहिए! तथास्तु! और मैं
देखूंगा कौन तुम्हें रस पिलाता है? क्योंकि में रस पिलाने
वालों का विरोध करूंगा। क्योंकि रस पिलाने वाले बेईमान हैं। वे तुम्हारे ही
चट्टे-बट्टे हैं, जो पहले ही से रस निकाल कर तैयार रखते हैं।
अनशन शुरू होता है, उसके पहले ही रस तैयार हो जाता है। मैं
रस भी नहीं पीने दूंगा। मेरे संन्यासियों का जत्था भी तुम्हारे चारों तरफ
भजन-कीर्तन करेगा कि कोई रस रात को अंधेरे में एकांत में पिला न जाए। और ग्लूकोज
भी पानी में पिला कर पीने नहीं दूंगा। महात्मा गांधी भी ग्लूकोज पीते रहे पानी में
मिला कर। वह कोई उपवास है! किसको धोखा दे रहे हो?
कच्छ की जनता की दम फिक्र छोड़ो, मोरारजी देसाई, तुम में कुछ दम हो तो आमरण अनशन कर
लो! यूं भी अब मरने के करीब हो, नाम रह जाएगा कि आमरण अनशन
में मर गये!
और उन्होंने कहा कि मैंने तो अपने
शासन-काल में आचार्य रजनीश की गति विधियों की जांच का आदेश दिया था। वह ।तो तुमने
दिया था और मुझे पर बहुत मुकदमे भी तुमने चला रखे थे, परिणाम क्या हुआ, यह सवाल है! तुम्हारी जांच-पड़ताल
से मिला क्या? तुम्हें हाथ क्या लगा? तीन
साल तुम सत्ता में थे, देश के प्रधान मंत्री थे और तीन साल
तुमने जी-जान तोड़ कोशिश की कि तुम्हें कुछ मिल जाए, तुम्हें
कुछ भी तो हाथ नहीं लगा। जांच-पड़ताल का आदेश देने से क्या होता है? यह तो किसी के भी खिलाफ दे सकते हो। जिसके हाथ में सत्ता हो, वह किसी के भी खिलाफ जांच-पड़ताल का आदेश दे सकता है। तुम्हें मिला क्या
जांच-पड़ताल से?
और मैं तो सत्ता में नहीं हूं। लेकिन
मैं तुमसे कहता हूं कि मैंने बिना जांच-पड़ताल के तुम्हारे बाबत बहुत-सी बातें पता
लगा रखी हैं। कि तुम्हारा एक मुसलमान औरत से नाजायज संबंध रहा है। सिद्ध करो कि
नहीं रहा। हालांकि मैं इसको कुछ बुरी बात नहीं मानता। यह तो हिंदू-मुसलिम एकता!
अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम! यही तो गांधी जी का संदेश है! और उसने नाजायज बच्चा भी
पैदा हुआ, उससे लड़का भी पैदा हुआ। और उसको पाकिस्तान भगाया। और
जब मोरारजी देसाई सत्ता में थे, तो बेगम आयी भी थी घूमने
भारत। उसको भारत के सब सर्किट हाउसों में ठहराने की व्यवस्था की गयी थी। दिल्ली
में भी विशेष जहां सरकारी मेहमान ठहरते हैं वहां ठहराया गया था। किसी पाकिस्तानी
को सभी जगह जाने की आज्ञा नहीं होती। उसको सीमा होती है कि वह एक जगह जाए या तो दो
जगह जाए, उससे ज्यादा कहीं जा नहीं सकता। लेकिन इस बेगम को
खुला पासपोर्ट दिया गया था।
उस नाजायज बच्चे को स्वीकार करो! और
अच्छा लक्षण है! हिंदू-मुसलमान के मेल से जो पैदा हो..."सन्मति मोरारजी
देसाई!' "सबको सन्मति दे भगवान!'...। ऐसा उसका कुछ नाम रखो! या "अल्लाह-ईश्वर', दोनों
मिला कर नाम रख लो।
तुम्हें मिला क्या मेरे खिलाफ
जांच-पड़ताल करवाने से? तीन साल मैं प्रधान मंत्री रहूं तो तुम्हारी बखिया
उधेड़ दूं! तुम्हारी खटिया खड़ी कर दूं! तुमने कर क्या लिया? तीन
साल कोशिश करते रहे कि किसी तरह मुझे अदालत में खींच कर खड़ा कर दो, वह भी तुम न कर पाए!
और अंत में श्री देसाई ने कहा कि
आचार्य रजनीश मुझे काम-दमित मानते हैं और मेरी आलोचना लगातार करते रहे हैं, परंतु मैं उनकी यह आलोचना आशीर्वाद की तरह लेता हूं। झूठ बोलने में भी
थोड़ा संकोच तो होना चाहिए। इतने सस्ते में संत न हो जाओगे। न महात्मा हो जाओगे।
अगर सच में इसमें ईमानदारी है कि तुम मेरी आलोचना में आशीर्वाद लेते हो, तो फिर मेरा विरोध क्यों कर रहे हो कच्छ आने का? अरे,
आशीर्वाद देने वाले व्यक्ति का तो स्वागत करना चाहिए! पलक-पांवड़े
बिछा कर स्वागत करना चाहिए! अरे, फूल नहीं तो फूल की
पांखुरी--जैसे गुजराती कहते हैं। तुम्हें स्वागत के लिए झंडा ले कर खड़ा होना
चाहिए--अगर मैं आशीर्वाद दे रहा हूं और तुम्हें आशीर्वाद मिल रहे हैं।
मगर यहां सस्ते में संत हो जाने की
चेष्टा चलती है। यह वे अपनी बहादुरी दिखला रहे हैं, संतत्व दिखला रहे
हैं। मुझको तुम धोखा न दे सकोगे! अगर मेरी बातों में आशीर्वाद लगता है, तब तो फिर मुझे गुजरात ही बुला लेना चाहिए। मेरे लिए फिक्र करो कि मैं
जल्दी से जल्दी वहां आ जाऊं; जितने पास रहूंगा उतने ज्यादा
आशीर्वाद दूंगा। और यहां आ कर बैठो तो रोज आशीर्वाद दूं।
लेकिन थोथी बातें! अच्छी बातों के नाम
पर थोथी बातें चलती हैं।
और काम-दमित तो आप हो ही; इसमें आलोचना कुछ भी नहीं है। मैं तो सिर्फ तथ्य की बात करता हूं, आलोचना में मुझे क्या रस? और मोरारजी देसाई की
आलोचना करके मुझे क्या लेना! मैं तो दो कौड़ी भी मूल्य नहीं मानता इस तरह के लोगों
का। लेकिन तथ्य को मैं तथ्य की तरह कह देना चाहता हूं।
एक राजनेता ने कुम्हार को डांटा।
क्योंकि कुम्हार अपने गधे को इस तरह कसकर पकड़े हुए खड़ा था रास्ते पर कि गधा तड़फ
रहा था। कुम्हार भी पसीने-पसीने हो रहा था। राजनेता ने कहा, गधे को तुमने इस तरह कसकर पकड़ रखा है, अरे नालायक,
उसे छोड़ता क्यों नहीं? इस तरह तो वह रास्ता भी
पार नहीं कर सकता है। तू बिलकुल गधा मालूम होता है--कुम्हार से कहा राजनेता
ने--अरे, अपने भाई का कुछ तो ख्याल रख! कुम्हार बोला,
हुजूर, मैंने इसको इसलिए कसकर पकड़ रखा है कि
कहीं राजनीति में भरती न हो जाए। आप जो निकल रहे हैं! आपके डर से इसको कसकर पकड?
रखा है। क्योंकि सत्संग का असर तो होता ही है। और गधा गधा ही है!
बुद्धि कहां है उसमें! हो जाए राजनीति में भरती! बाकी सब गधे हो ही गये हैं। गधों
की कमी पड़ रही है, क्योंकि सब गधे दिल्ली चले गये हैं। और
मेरा कुम्हार का धंधा मिट जा रहा है।
इन गधों की आलोचना करके मुझे करना
क्या है?
आलोचना नहीं, मैं जो सत्य है उसे वैसा ही कह देता हूं।
एक राजनेता नदी में डूब रहा था।
मुल्ला नसरुद्दीन ने उसे बड़ी मुश्किल से बचाया। बड़ी अपनी जान भी जोखम में डाली।
बाहर आकर राजनेता ने बड़ी हिम्मत करके दो रुपये का नोट निकालकर दिया और कहा कि भइया, एक रुपया तू रख ले मुझे बचाने का और एक रुपया मुझे वापिस लौटा दे। मुल्ला
नसरुद्दीन ने कहा, नेताजी, यहां तो कोई
दूकान भी नहीं कि नोट कहीं भुनाया जाए, आप इसे अपने पास ही
रख लीजिए, जब आप दुबारा डूबें तो मुझे दो का नोट दे दीजिए।
वैसे अगर मुझसे पूछें तो आपकी कीमत आठ आने से ज्यादा नहीं। इसलिए मैं तो आपको दो
रुपये में चार बार भी बचा सकता हूं?
इनकी कीमत क्या है? इनकी आलोचना करने से मुझे प्रयोजन क्या है? लेकिन
मैं तथ्य जरूर देश के सामने रख देना चाहता हूं। क्योंकि दो कौड़ी के राजनीतिज्ञ देश
की छाती पर सवार हो गये हैं, मूंग दल रहे हैं, देश को बरबाद कर रहे हैं! इनकी मूढ़ताओं के कारण इस देश के जीवन में कोई क्रांति
नहीं हो पा रही है। क्योंकि ये देश की पूरी की पूरी चित्तदशा को व्यर्थ की बातों
में उलझाए रखते हैं। जीवन की कोई समस्या सुलझने नहीं देते। सुलझे कैसे?, ऐसी समस्याएं खड़ी कर देते हैं जो समस्याएं ही नहीं हैं। और उन पर लोगों का
ध्यान बंटाते हैं। व्यर्थ की बातें खड़ी कर देते हैं। शराबबंदी होनी चाहिए। जैसे
शराबबंदी होने से देश की गरीबी मिट जाएगी। जैसे शराबबंदी होने से देश में धन बरस
जाएगा। जैसे शराबबंदी हो जाने से देश में एकदम सोने की खदानें खुल जाएंगी। मगर
लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए व्यर्थ की कोई भी बकवास! कि शराबबंदी हो जाए।
कि लोगों को चरखा चलाना चाहिए। कि लोगों को खादी पहनना चाहिए।
जीवन की असली समस्याओं से बचने के लिए
क्या-क्या तरकीबें निकालते हैं! जिनसे कुछ भी हल होने वाला नहीं है।
जीवन को विज्ञान दो!--अगर बाहर की
समृद्धि लानी है तो। और धर्म दो अगर भीतर की समृद्धि लानी है तो। मैं दोनों का
पक्षपाती हूं। बाहर के जीवन के लिए विज्ञान चाहिए, भीतर के जीवन के लिए
धर्म चाहिए। तुम विज्ञान से भी वंचित कर रहे हो देश को--अवैज्ञानिक और व्यर्थ की
बातें सिखाकर,...
अभी कुछ दिन पहले मोरारजी देसाई ने
कहा, चिकित्सकों की एक कांफ्रेंस में, कि कैंसर का इलाज छः सप्ताह के भीतर सिर्फ अंगूर का रस लेने से हो सकता
है। चिकित्सक भी थोड़े चौके! उन्होंने कहा कि जरा विस्तार से समझाए। अगर आप कैंसर
का मामला हल कर दें, जब तो गजब हो जाए। और छः ही सप्ताह का
मामला है। और अभी तक हम तो कोई खोज नहीं पाए कि कैंसर का कैसे इलाज हो।
तो मोरारजी देसाई ने कहा कि छः
सप्ताह--पानी भी नहीं पीना है, सिर्फ अंगूर का रस। तो उन्होंने
कहा कि ठीक है, यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। छः सप्ताह
अंगूर के रस पर रखा जा सकता है; फिर मरीज बचेगा? तो उन्होंने कहा, नहीं, बचेगा
तो नहीं, मगर बड़ी शांति से मरेगा।
वह मरेगा ही शांति से! छः सप्ताह में
ऐसे ही मर जाएगा। क्या गजब के लोग हैं! क्या-क्या समाधान बता रहे हैं! शांति से
मरेगा! अरे, शांति के लायक शक्ति भी बचेगी छः सप्ताह में? एक तो कैंसर मार रहा है और तुम पानी न पीने दोगे, भोजन
न करने दोगे, दवा न लेने दोगे; अंगूर
का रस पीला-पीला कर कुछ बचा-खुचा होगा तो वह भी मार डालोगे। छः सप्ताह में अपने-आप
शांत हो जाएगा--ठंडा हो ही जाएगा। क्या गजब का इलाज बताया।
चिकित्सक तो पहले सोचे थे कि इलाज मिल
गया। तब अपना सिर ठोंक लिया होगा! कि मरेगा तो निश्चित ही, बचाया तो जा नहीं सकता, तो फिर इलाज कैसा है यह?
बात ऐसी की थी जैसे इलाज खोज लिया। और परिणाम क्या निकला?
इस देश के नेताओं की अगर बातें तुम
सुनो, तो पहाड़ खोदो और चूहा भी नहीं निकलता। पहाड़ खोद कर
तुम्हें खतम हो जाओगे, चूहा वगैरह कुछ नहीं निकलेगा। यह
देखा--छः सप्ताह अंगूर का रस! कैंसर का इलाज खोज लिया इन्होंने! फिर होश आया होगा
कि इसमें तो फंसेंगे कि छः सप्ताह में, कोई बड़ी बात तो है
नहीं, छः सप्ताह अंगूर के रस पर आदमी को रखा जा सकता है--और
कैंसर ठीक न हुआ तो फिर क्या होगा! तब तत्क्षण उन्होंने बदल दिया। दांव बदल दिया।
अरे, राजनेता को बदलने में क्या देर लगती है! वह तो मौसम की
तरह बदलता है--गिरगिट की तरह बदलता है। "मरेगा तो मरीज जरूर, लेकिन शांतिपूर्वक मरेगा। उसकी मौत बड़ी शांत होगी।'
क्या-क्या दलीलें लोग खोज लेते हैं!
सर्कस के एक मैनेजर से एक दर्शक ने
पूछा, "आप कैसे कह सकते हैं कि आपके सर्कस का बौना
संसार का सबसे छोटा बौना है?'
"वह तो है'--मैनेजर बोला--"जब उसके पांव में दर्द होता है तो वह समझता है कि सिर
में दर्द हो रहा है।'
देखते हैं, क्या गजब के लोग! अरे, कितना ही बौना हो, बिलकुल चींटी भी हो, तो भी पैर में दर्द होगा तो सिर
में दर्द थोड़े ही समझ लेगा!
एक लड़का झूठ बोल रहा था। उसके राजनेता
पिता ने कहा, "देख बेटा, झूठ मत बोल।
बंद कर झूठ बोलना, नहीं तो तेरे सिर पर सींग निकल आएंगे।'
लड़का बोला, "ओह बापू, मुझे झूठ से डराने के लिए आपको कितना बड़ा
झूठ बोलना पड़ रहा है! और आपके अभी तक सींग नहीं निकले! राजनीति में रह कर और सींग
नहीं निकले! अरे, मैं जरा-सा झूठ बोलूंगा और सींग निकल
आएंगे!'
एक बेटा लौटा स्कूल से। एकदम भागा आया, हड़बड़ाया। अपने राजनेता पिता से उसने कहा, "बापू,
रास्ते में एक शेर मिल गया। अरे, शेर बबर! बड़ा
भयानक शेर! और मेरे पीछे पड़ गया।'
बाप ने कहा कि देख तुझसे मैं
अरबों-खरबों बार कह चुका हूं कि झूठ मत बोल।...अरबों-खरबों बार!...कि झूठ मत बोल, अतिशयोक्ति मत कर! सड़क पर कहां का शेर बबर मिल जाएगा! कहां है वह शेर बबर?
उस लड़के ने कहा, है, वह बाहर खड़ा है। खिड़की में से आप खुद ही देख लो।'
देखा, एक मरियल कुत्ता कि
अब मरा तब मरा, वह खड़ा था। बाप ने कहा, "मुझे पता ही था। तू जा ऊपर और भगवान से प्रार्थना कर, क्षमा मांग, कि अब अतिशयोक्ति कभी नहीं करूंगा;
झूठ नहीं बोलूंगा।'
लड़का ऊपर गया। मगर राजनीतिज्ञ का बेटा, पहले ही से गणित सीखना शुरू कर देता है। अब जब यह बाप ही खुद कह रहा है कि
अरबों-खरबों बार तुझसे कह चुका! अरबों-खरबों बार कहने का मतलब कम से कम लाख बार
रोज कहो, तब कभी अरबों-खरबों बार हो सके। अभी बेटे की उम्र
ही कितनी है! खुद ही अतिशयोक्ति कर रहा है। खुद ही झूठ बोल रहा है।
बेटा थोड़ी देर में वापिस आया। बाप ने
कहा, "तूने प्रार्थना की परमात्मा से?
क्षमा मांगी?'
उसने कहा, "मैंने मांगी, मगर परमात्मा क्या बोला, आपको मालूम? "बाप और चौंका, बोला कि अब परमात्मा भी बोला! "क्या बोला?' "परमात्मा ने कहा,--बेटा कहने लगा--'कि तू चिंता मत कर। तेरी कोई भूल नहीं। अरे, पहले जब
मैंने कुत्ते को देखा था तो मैं भी यही समझा था कि शेर बबर है। वह तो जब मेरे बाप
ने मुझे डांटा, तब मैं समझा कि कुत्ता है। तेरी कोई गलती
नहीं। मुझे भी धोखा हो गया था।'
झूठ में तो फिर पंख लगते जाते हैं। एक
झूठ से दूसरा झूठ निकलता आता है।
अब मोरारजी देसाई सत्य बात को छुपाने
के लिए झूठ पर झूठ बोल जाते हैं। सत्य बात कुल इतनी है कि मेरा गुजरात आना, गुजरात में जो किसी तरह की ठेकेदारी लिए बैठे हैं--चाहे धर्म की ठेकेदारी
हो, चाहे राजनीति की--उनके प्राण खलबली में पड़ गये हैं।
क्योंकि मैं वहां आऊं तो उन्हें पक्का पता है कि उनकी पुरानी ठेकेदारी उखड़ जाएगी।
वह बात तो कहेंगे नहीं। संस्कृति और धर्म को खतरा है! और जनता को उकसाने की कोशिश,
भड़काने की कोशिश! यह गुंडागर्दी है सीधी और कुछ भी नहीं। चाहे इसको
गांधीवादी गुंडागर्दी कहो--कुछ फर्क नहीं पड़ता--मगर सब गुंडागर्दी है। अगर तुम
सत्य हो तो इतना क्या डर है तुम्हें? मैं आऊंगा, आमना-सामना हो लेगा। तुम अपना सत्य लोगों को कह देना, मैं अपना सत्य लोगों को कहूंगा। और मैं तो कहीं घूम कर कहूंगा भी नहीं।
मैं तो अपनी जगह बैठ कर कहूंगा, जिसको सुनना होगा, आएगा। तुम घूम-घूम कर लोगों को समझाना। अगर तुम्हारी बात में कुछ बल होगा
तो लोग जरूर मान लेंगे। क्या इतने घबड़ाते हो? मैं तो तुमसे
नहीं घबड़ाया। मैं तो तुमसे नहीं डरा हुआ हूं। मुझे तो किसी का कोई भय नहीं है।
मुझे जो कहना है, वही कह रहा हूं। और वही कहता रहूंगा।
और क्या तुम सोचते हो, पूना भारत के बाहर है, कच्छ भारत के भीतर है?
पूना ही से बरबाद कर दूंगा तुम्हारी संस्कृति को। अरे, बरबाद ही करना है तो कहीं से भी कर दूंगा। और तुम्हारे धर्म को उखाड़ ही
फेंकना है तो यहीं से उखाड़ फेंकूंगा। उसके लिए कच्छ आने की खास क्या जरूरत है!
लेकिन सब ठेकेदार अपने-अपने अड्डे बांधे हुए हैं। उनकी सीमा के भीतर उनको डर लगता
है। बाहर उन्हें क्या प्रयोजन है? गुजरात मैं न आ जाऊं,
वह भय है!
और उनको इस बात का भी भय है कि गुजरात
के पास इस देश की प्रबुद्धतम जनता है।...मैं सारे देश में घूमा हूं। मुझे गुजरात
से निश्चित रूप से प्रेम है। और मेरे प्रेम का कारण है, कि गुजरात में मैंने सबसे ज्यादा विचारशील वर्ग देखा। और इसलिए मैं जानता
हूं कि मेरा वहां पहुंचना गुजरात में एक हवा पैदा करेगा, एक
क्रांति ले आने वाला है। और ये सब झूठे सिक्के एकदम चलने के बाहर हो जाएंगे। उस
बात को छिपाने के लिए क्या-क्या ऊंची बातें हो रही हैं। सीधी बात कहो न कि
तुम्हारे झूठे सिक्कों को घबड़ाहट हो रही है कि कहीं चलन के बाहर न हो जाएं! और
एकाध को ही नहीं हो रही, इस तरह के लोग भी हैं। एक तरफ
राजनेता हैं, दूसरी तरफ धर्मगुरु हैं।
यह दूसरा प्रश्न
इस बात को स्पष्ट करेगा--
भगवान, एक समाचार में श्री शंभु महाराज ने आप को चुनौती दी है कि आप गुजरात आ कर
मेरे साथ खुला विवाद करें। आप जनता के सामने बाहर क्यों नहीं आते? उन्होंने कहा कि जैसी हालत दुखी और भूखी गायों की है, वैसी ही भारत की साठ प्रतिशत जनता की है। तो क्या रजनीश जी के सिद्धांत के
अनुसार गायों की तरह जनता की भी हत्या कर देनी चाहिए?
श्री शंभु
महाराज ने यह भी कहा कि गीता भारती आश्रम में उनका सात दिन तक प्रवचन हो रहा था तो
आप अहमदाबाद आए थे और स्वामी अतुलानंद की अगवानी में अहमदाबाद में साधु-संत इकट्ठे
हुए थे और उन्होंने आपको चर्चा करने के लिए आमंत्रण दिया था, तब आप चर्चा करने के लिए नहीं आए। इसलिए शंभु महाराज का कहना है कि रजनीश
जी में ज्ञान का घमंड होने के कारण पागलपन दिखायी देता है। राजा रावण का भी ज्ञान
घमंड के कारण सर्वनाश हुआ था। जिसका पतन होने वाला होता है उसे ऐसी ही दुर्बुद्धि
घेर लेती है।
उन्होंने यह भी
कहा कि संत विनोबा भावे ने गोवध बंद करने के लिए अनशन किया था तो क्या वे मूढ़ हैं?
भगवान, निवेदन है कि श्री शंभु महाराज के इस वक्तव्य पर कुछ कहें।
चैतन्य
सागर!
पहली तो बात, जो चुनौती दे, उसे आना चाहिए। अगर शंभु महाराज मुझे
चुनौती देते हैं तो उन्हें आना चाहिए। यह तो सीधा चुनौती का नियम है। मैं क्यों
आऊं? चुनौती वे दें और जाने का कष्ट मैं लूं! चुनौती दी है
तो आने की हिम्मत करो! यह तो चुनौती की सामान्य प्रक्रिया है। शंकराचार्य ने चुनौती
दी थी तो सारे देश में घूमकर उनको जिन-जिन को चुनौती दी थी, उनसे
विवाद करने जाना पड़ा था। अगर मुझे चुनौती देते हैं तो मैं तैयार हूं! जरूर आ जाएं,
स्वागत है! मजा आ जाएगा!
और वे कहते हैं, "आप जनता के सामने बाहर क्यों नहीं आते?" मैं
कोई राजनेता नहीं हूं। जनता से मुझे क्या लेना-देना है? जिसको
मुझसे कुछ लेना-देना हो, वह मेरे पास आए। मैं क्यों किसी के
पास जाऊं? कुआं प्यासे के पास नहीं जाता, जिसको प्यास लगी हो वह कुएं के पास आता है। जिसको प्यास लगी हो, वह मेरे पास आए। मेरे जाने का कोई सवाल नहीं उठता। और जनता को कोई मैं
मूल्य नहीं देता हूं। जनता का अर्थ होता है: भेड़ों की भीड़।
मेरे लिए मूल्य है व्यक्ति का, जनता का नहीं। मेरे लिए मूल्य है आत्मा का, भीड़ का
नहीं। एक-एक व्यक्ति का मेरे मन में सम्मान है, लेकिन भीड़ का
मेरे मन में कोई सम्मान नहीं है। भीड़ इकट्ठी ही होती है उनकी जिनके पास व्यक्तित्व
नहीं होता। जिनके पास अपनी निजता नहीं होती, वही भीड़ में खड़े
होते हैं। सिंहों के नहीं लेहड़े। पुरानी कहावत है कि सिंह कोई भीड़-भाड़ में नहीं
चलते; भेड़ें चलती हैं। और भेड़ें क्यों चलती हैं, भीड़-भाड़ में? क्योंकि अकेले में उनको डर लगता है,
भय लगता है।
एक स्कूल में एक शिक्षक ने अपने एक
विद्यार्थी से पूछा कि तेरे घर में तो भेड़ें हैं, एक सवाल का जवाब दे।
अगर बाड़े में दस भेड़ें बंद हो और एक भेड़ बाड़े के बाहर निकल जाए, तो कितनी पीछे बचेगी? उस लड़के ने कहा, एक भी नहीं बचेगी। उसने कहा, तू कुछ होश की बातें
कर! मैं कह रहा हूं एक भेड़ बाहर निकले और दस भेड़ें बंद हैं! तूने प्रश्न सुना कि
नहीं.उसने कहा, मैंने प्रश्न सुना। तो उसके शिक्षक ने कहा,
तुझे गणित आता है कि नहीं फिर? इतना भी गणित
नहीं आता सीधा-सा कि जब एक भेड़ बाहर निकलेगी तो कितनी पीछे बचेंगी? उसने कहा, गणित की फिक्र करूं कि भेड़ों की फिक्र
करूं! मेरे घर में भेड़ें हैं। यह प्रश्न आप किसी से पूछना जिसके घर में भेड़ें न
हों; तो वह कहेगा, नौ बचेंगी; क्योंकि वह सिर्फ गणित को समझ कर चलेगा। मेरी मजबूरी यह है कि मैं भेड़ों
को जानता हूं। अगर एक बाहर कूद गयी, तो बाकी नौ भी कूद
जाएंगी। भेड़े तो अंधी होती हैं, भीड़ में चलती हैं। एक भेड़ चल
गयी कि बाकी भेड़ें चल पड़ीं।
जनता भेड़ों से भरी हुई है। जनता से
मुझे क्या लेना-देना है! मुझे व्यक्तियों से संबंध है। भेड़ क्या समझेगी? भीड़ क्या समझेगी? वह भीड़ तो दकियानूसी है, वह तो पुरातनपंथी है। उसे तो बंधी-बंधायी बातें ही समझ में आने वाली हैं।
एक दूसरे वक्तव्य में उन्होंने कहा है
कि मैं आचार्य रजनीश को अपना गुरु स्वीकार कर सकता हूं, अगर वे स्वयं को गोपाल सिद्ध करें, कृष्ण सिद्ध
करें। उनको शायद पता नहीं है कि वे क्या कह रहे हैं। हां, जनता
भी प्रसन्न होगी, क्योंकि भेड़ें हैं, उनको
कुछ समझ में नहीं...इनको भी कुछ समझ नहीं कि क्या कह रहे हैं! कृष्ण की सोलह हजार
पत्नियां थीं और दूसरों की विवाहित स्त्रियों को भगा लाए थे। क्या शंभु महाराज तब
मुझे अपना गुरु स्वीकार करेंगे जब मैं दूसरों की स्त्रियां भगा कर सोलह हजार
स्त्रियां इकट्ठी खड़ी कर दूं? सिर्फ शंभु महाराज को शिष्य
बनाने के लिए इतना उपद्रव करूं! अरे, एक ही स्त्री तो नर्क
ले जाने के लिए काफी है, सोलह हजार! और वे भी दूसरों की
भगायी गयी स्त्रियां; जिनसे उनका विवाह भी नहीं हुआ था!
और इस दुराचरण को जनता तो माने चली
जाती है। इसको कहती है, यह भगवान की लीला! और अभी कोई यह लीला करे, तो फौरन उसको कारागृह में डालो। क्या तुम चाहते हो शंभु महाराज कि मैं
झाड़ों पर बैठ कर स्त्रियों के कपड़े चुराकर और लीला करूं! तब तुम मेरे शिष्य बनोगे?
एक शिष्य बनाने के लिए क्या-क्या उपद्रव मुझे करने पड़ेंगे! और
तुम्हें शिष्य बना कर क्या करूंगा? फिर तुमसे भी मुझे यह काम
लेना पड़ेगा--अरे, जो गुरु करेगा, वही
शिष्य से करवाएगा--कि भइया जाओ, स्त्रियों के कपड़े चुराओ!
अगर गुरु ने सोलह हजार भगायी, तो तुम कम से कम थोड़ी तो भगाओ,
सोलह सौ सही! करोगे क्या? तुम्हें रख कर क्या
करूंगा और?
कृष्ण ने इस देश में महाभारत का युद्ध
करवाया। जो लोग शास्त्रों का हिसाब-किताब लगाते हैं, वे कहते हैं कोई एक
अरब से ले कर सवा अरब लोगों की हत्या हुई। और ये शंभु महाराज, गो-हत्या बंद होनी चाहिए, इसका आंदोलन चलाते हैं।
मेरे खिलाफ हैं वे इसीलिए की उन्होंने मुझसे कहा था कि मैं आपका शिष्य हो सकता हूं
अगर आप भी गो-हत्या बंद हो, इसका आंदोलन चलाएं। मैं भी इनकी
मूढ़ताओं में सम्मिलित होऊं तो मैं इनका गुरु होऊं!
मेरे सामने बड़े सवाल हैं। गो-हत्या हो
या न हो, यह कोई सवाल नहीं है।
और तुम कौन हो? तुम लोगों को समझाओ कि मत खाओ गो-मांस, यह बात समझ
में आती है। लेकिन सरकार जबरदस्ती करे लोगों के साथ कि गो-मांस मत खाओ, यह बात समझ में नहीं आती। अगर तुम्हारी बात सच है तो फैलाओ, समझाओ; लोगों के मन को बदलो। लेकिन वह तो बनता नहीं!
क्योंकि कौन मुसलमान तुमसे राजी होगा?
और भारत में तुम क्या सोचते हो सब
शाकाहारी हैं? यह भ्रांति छोड़ दे! यह मुश्किल से दोत्तीन प्रतिशत
लोग शाकाहारी हैं। अधिकतर लोग मांसाहारी हैं। सारी दुनिया मांसाहार पर जी रही है।
अगर मांसाहारी सारी दुनिया में बंद हो जाए तो आदमी की मौत हो जाए।
कृष्ण ने एक अरब से ले कर सवा अरब
लोगों की हत्या करवा दी--और अर्जुन को दलील क्या दी थी? और ये मुझसे कहते हैं, अगर मैं गोपाल हो जाऊं तो ये
मेरे शिष्य हो जाएंगे। एक अरब, सवा अरब लोगों की हत्या
करवाऊं, तब ये मेरे शिष्य होंगे! और दलील क्या थी उनकी,
उस दलील को तो सोचो! दलील यह थी कि गौ के शरीर के मरने से गौ की
आत्मा नहीं मरती, बात खत्म हो गयी, गीता
तुम्हें समझ में आ गयी। जब आदमी के शरीर के मरने से आत्मा नहीं मरती, तो गो-वध कैसा?
फिर किसको बचाने में लगे हो?
और कृष्ण ने गीता में यह भी
कहा--जिसके ये भक्त हैं; और ये जगह-जगह श्रीमदभगवत सप्ताह करवाते फिरते
हैं--कृष्ण ने यह भी कहा कि परमात्मा जिसको मारना चाहता है, उसको
मार ही चुका है, अर्जुन, तू तो निमित्त
मात्र है। तो बेचारे ये कसाई, जो जगह-जगह गो-हत्या कर रहे
हैं, ये भी निमित्त मात्र हैं। जब परमात्मा नहीं मारना
चाहेगा, तो ये मार सकेंगे? ये ही तो
शंभु महाराज जैसे लोग कहते हैं कि परमात्मा की बिना मर्जी के पत्ता नहीं हिलता। और
गो-हत्या हो रही है! जरूर उसका इरादा होगा हत्या करवाने का। नहीं तो कैसे पत्ता
हिलेगा?
और कृष्ण से पूछो! कृष्ण तो कहते हैं, जिनको उसे मारना है वह मार ही चुका, अर्जुन, तू फिक्र मत कर। तू तो निमित्त मात्र है। ये तो मर ही चुके हैं, धक्का दे दे, गिर जाएंगे। तू सोच ही मत कि तूने
मारा।
यही गीता तो ये कसाई पढ़े बैठे हैं।
पहले तो इस गीता को बदलो, अगर तुम्हें गो-हत्या बंद करवानी है। और तुम मुझसे
चाहते हो कि मैं भी गोपाल जैसा हो जाऊं, कृष्ण जैसा हो जाऊं,
तब तुम मेरे शिष्य बनोगे!
और जनता में मेरा कोई रस नहीं है। मैं
उन लोगों में से नहीं हूं जो जनता को जनार्दन मानते हैं। ये सब राजनैतिक
चालबाजियां हैं जनता के फुसलाने की; उनसे मत इकट्ठे करने
की चालबाजियां हैं। मैं तो अपने सत्य को, जो मैंने जाना है
और जीया है, उसको कहना चाहता हूं। और सिर्फ उनसे कहना चाहता
हूं, जिनके पास इतनी प्रतिभा है कि समझ सकें। भीड़-भाड़ से
मुझे कोई प्रयोजन नहीं है।
और चुनौती तुम दो और मैं गुजरात आऊं!
और ऐसे मैं गुजरात आ ही रहा हूं, तो उसका विरोध क्या है फिर?
फिर वही चुनौती भी निपट लेंगे। मैं गुजरात आ ही रहा हूं, बिलकुल ही आ रहा हूं, वहीं टिकूंगा। फिर तुम आ जाना
मेरे कम्यून में और तुम्हें जो विवाद करना हो कर लेना।
मगर इस तरह के लोग क्या-क्या फिजूल की
बातें करते हैं। क्या दलील निकाली उन्होंने, कि "जैसे दुखी
और भूखी गायों की हालत है, वैसी ही भारत की साठ प्रतिशत जनता
की है। तो क्या रजनीश जी के सिद्धांत के अनुसार गायों की तरह जनता की भी हत्या कर
देनी चाहिए?' अगर यह दलील ठीक से लागू करनी हो, तब तो मच्छरों को भी नहीं मारना चाहिए, खटमलों को भी
नहीं मारना चाहिए, चूहों को भी नहीं मारना चाहिए। और जब
बीमारी हो जाए--टी. बी. हो जाए, मलेरिया हो जाए, तो इंजेक्शन नहीं लेने चाहिए, दवा नहीं खानी चाहिए,
क्योंकि कीटाणु मरेंगे। सच तो यह है, श्वास ही
नहीं लेनी चाहिए, शंभु महाराज! क्योंकि हर श्वास में कोई एक
लाख जीवाणु मर जाते हैं। इससे बड़ा और क्या कसाईपन होगा? एक-एक
श्वास में एक लाख जीवाणु मर जाते हैं। तुम्हारे शरीर में कोई सात अरब जीवाणु हैं
और प्रतिदिन उन में से लाखों जीवाणु मर रहे हैं। वे ही तो तुम्हारे बाल और नाखून
बन कर निकलते हैं। वे ही मल-मूत्र बनकर निकलते हैं। तुम दवा लेना बंद कर दो। दवाओं
का विरोध करो, क्योंकि इससे जीवाणु मर जाते हैं। सांस का
विरोध करो कि कोई सांस न ले, क्योंकि इससे जीवाणु मर जाते
हैं। जीने का ही विरोध करो, क्योंकि कोई जीएगा तो कोई मरेगा।
मैं तो चंडीदास के वचन में भरोसा करता
हूं--"साबार ऊपर मानुस सत्य, ताहार ऊपर नहीं।' सबसे ऊपर मनुष्य का सत्य है, उसके ऊपर कोई और सत्य
नहीं। इसलिए अगर मनुष्य को बचाने की जरूरत हो, तो कीटाणुओं
को भी मारना पड़े तो मारना पड़ेगा। अगर मनुष्य को बचाने की जरूरत हो, चूहों को मारना पड़े तो मारना पड़ेगा; खटमलों को मारना
पड़े तो मारना पड़ेगा; मच्छरों को मारना पड़े तो मारना पड़ेगा।
क्योंकि मनुष्य इस जगत इस जगत में चैतन्य का सबसे ऊंचा। आविष्कार है। निश्चित ही
श्रेष्ठ को बचाने के लिए निकृष्ट को विदा करना होगा। हां, अगर
निकृष्ट भी बच सकता हो श्रेष्ठ को बिना हानि पहुंचाए, तो
मुझे कोई एतराज नहीं है।
भारत अकेला देश है जो गो-भक्त है।
भारत भी पूरा नहीं, सिर्फ हिंदू। न ईसाई, न सिक्ख,
न जैन, न मुसलमान, न
पारसी--इन सब को छोड़ दो। सिर्फ हिंदू। और हिंदू ही सिर्फ भारत नहीं हैं, हिंदुओं की संख्या तो बीस करोड़ है, बाकी पचास करोड़
लोग और भी इस देश में हैं। यह हिंदुओं की धारणा को बाकी पचास करोड़ लोगों के ऊपर
थोपने का किसको अधिकार है?
और विनोबा भावे ने जो अनशन किया था, उसको मैं हिंसा मानता हूं। वह जबरदस्ती है। वह हिंदुओं की जबरदस्ती है।
फिर जिन्ना ठीक ही कहता था कि अगर भारत एक रहा, तो हिंदू
जबरदस्ती करेंगे। वह जबरदस्ती दिखाई पड़ती है। फिर तो जिन्ना ठीक था और गांधी गलते
थे। अच्छा किया उसने कि पाकिस्तान तोड़ लिया। फिर तो सिक्ख भी ठीक हैं, उनकी भी कहना चाहिए हमें ईसाइस्तान अलग कर दो। और जैनियों को अपना
जैनिस्तान अलग कर लेना चाहिए। और पारसियों को कहना चाहिए--बंबई हमारी। फिर हिंदू
अपनी गो-रक्षा करें, जो उनको करना हो! सब गौवों को ले जाएं
और रक्षा करें, जो उन्हें करना है, करें!
यह देश सबका है, इसमें हिंदू धारणाओं को जबरदस्ती नहीं थोपा जा सकता। हिंदू धारणा थोपनी है,
मगर बातें ऊंची कर रहे हैं। बातें अहिंसा की कर रहे हैं और हिंसा
करने का आग्रह है। यह क्या विनोबा का अनशन करना कि मैं मर जाऊंगा अगर गो-हत्या पर
निषेध नहीं लगाया गया? वह हिंसा की धमकी है। किसी को मारने
की धमकी दो या मरने की धमकी दो, बात तो एक ही है। किसी की
छाती पर छुरा रख दो या अपनी छाती पर छुरा रख लो और कहो कि मैं मर जाऊंगा--यह बात
तो एक ही है, इसमें कुछ भेद नहीं हैं; इसमें
कुछ अहिंसा नहीं है। यह शुद्ध हिंसा है और जबरदस्ती है। और एक आदमी जबरदस्ती करे
और सारे देश पर अपने इरादे को थोप देना चाहे, यह कैसा
लोकतंत्र है?
हिंदू को गऊ बचानी है, बचाएं! कौन मना करता है? कल मुसलमान कहने लगेंगे
सबका खतना होना चाहिए। वे भी खतने के लिए आधार खोज सकते हैं। यहूदियों ने खोज लिए
हैं, शंभु महाराज! यहूदियों ने किताबें लिखी हैं कि खतने के
बड़े फायदे हैं। उन फायदों में एक फायदा उन्होंने यह गिनाया है कि जब व्यक्ति का
खतना किया जाता है तो उसकी बुद्धि विकसित होती है। और उनके दावे हैं कि दुनिया में
सब से ज्यादा नोबल प्राइज यहूदियों को मिलती है, क्यों?
क्योंकि उनके खतने होते हैं। और खतना जल्दी करना चाहिए--जितनी जल्दी
हो उतना फायदा। इसलिए मुसलमान का खतना तो जरा देर से होता है, उसको यहूदी नहीं मानते। यहूदी तो मानते हैं, बच्चा
पैदा हो, जितनी जल्दी खतना हो उतना अच्छा। क्योंकि उसकी
ऊर्जा जननेंद्रिय से हटकर एकदम मस्तिष्क में प्रवेश हो जाती है। क्योंकि जब उसकी
जननेंद्रिय की चमड़ी काटी जाती है तो ऊर्जा एकदम सरक जाती है जननेंद्रिय से
मस्तिष्क में और प्रतिभा पैदा हो जाती है।
अगर इस तरह की बेवकूफियों को एक-दूसरे
पर थोपने का आग्रह शुरू हो जाए, तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
गो-हत्या नहीं होनी चाहिए। क्यों? क्योंकि जीव-दया! तो मच्छर क्यों मारते हो? और यह
कैसी जीव-दया है? दया करनी हो तो मच्छर पर करो, तो कुछ पता चले! क्योंकि गऊ का तो तुम शोषण करते हो। उसके बछड़ों के लिए तो
दूध है, वह खुद पीते हो। और कहते हो कि गऊ-भक्त हूं मैं। गऊ
को माता कहते हो और उसके असली बेटों को वंचित करते हे, उसके
असली बेटों को भूखा मारते हो! शंभु महाराज दूध पी रहे हैं और नंदी महाराज भूखे
बैठे हैं! और असली बेटा नंदी महाराज है, शंभु महाराज नहीं।
नंदी महाराज बैठे देख रहे हैं कि यह क्या हो रहा है! जरा नदियों से तो पूछो;
तो वे कहेंगे कि बाबा, यह दूध हमारे लिए है!
अगर तुम्हारी गऊ-भक्ति इतनी बड़ी है तो अपनी स्त्रियों का दूध बछड़ों को पिलाओ,
तो समझ में आएगी गऊ-भक्ति है। यह कैसी गऊ-भक्ति कि दूध पी रहे हैं
उनका, चूस रहे गऊओं को और बातें कर रहे गऊ-भक्ति की!
फिर तुम मच्छड़ों की भक्ति करो; मच्छड़-भक्त हो जाओ! क्योंकि मच्छड़ तुम्हारा खून चूसते हैं--तब पता चलेगा
भक्ति का! लेट जाओ खाटों पर नंग-धड़ंग, चूसने दो मच्छरों को,
खटमलों को पिलाओ खून और कहो कि ये...तब मैं कहूंगा कि यह भक्ति है
क्योंकि भक्ति में कुछ तुम दो तो भक्ति है। यह कैसी भक्ति है कि उल्टा ले रहे हो!
गउओं से तो पूछो कि तुमने उनकी क्या
गति कर दी है। सारी दुनिया में गउओं की हालत बेहतर है, भारत को छोड़कर। भारत अकेला देश है जहां गउओं की सबसे दयनीय दशा है।
हड्डी-हड्डी हो रही है; मांस सूख गया है और लोग दूध खींचे जा
रहे हैं, निचोड़े जा रहे हैं। निकलता भी नहीं कुछ दो पाव निकल
आए तो बहुत सेर भर निकल आए तो गजब!
स्वीडन में एक गाय उतना दूध देती है
जितना भारत में चालीस गायें देती हैं। और स्वीडन में कोई लोग गऊ-भक्त नहीं है।
स्विटजरलैंड में कोई गऊ-भक्त नहीं हैं।
अब यहां मेरे पास संन्यासी हैं, सारी दुनिया से आए हुए। "विवेक' मुझसे बार-बार
कहती है कि अगर आप एक दफा पश्चिम की गाय का दूध पी लें तो फिर गाय का दूध, भारत का दूध तो पीने जैसा ही नहीं है। न इसमें स्वाद है। क्योंकि वह मुझे
कह रही थी कि हमने तो कभी सुना ही नहीं था पश्चिम में कि दूध में और शक्कर मिलायी जाती
है। दूध खुद ही इतना मीठा होता है। उसमें शक्कर मिलाने की बात ही बेहूदी है और दूध
इतना गाढ़ा होता है, इतना पौष्टिक होता है! और ये कोई गऊ-भक्त
देश नहीं हैं! लेकिन कारण है उसका। उतनी ही गउएं बचाते हैं वे, जितनी गउओं को ठीक पोषण दिया जा सके, ठीक जीवन दिया
जा सके, सुविधा दी जा सके।
तुम गउओं को क्या दे रहे हो? और तुम बातें दया की कर रहे हो! यह ज्यादा दयापूर्ण होगा कि ये मरती हुए
गउओं को सड़कों पर सड़ने के बजाय, "पिंजड़ा पोलों' में सड़ने के बजाय मुक्त कर दो, इनकी सड़-गली देह से
इनको मुक्त कर दो! यही मैंने कहा था। उससे, उनको अड़चन हो गयी
है, बेचैनी हो गयी है। मैंने इतना ही कहा था कि भारत उतनी ही
गऊएं बचा ले जितनी गऊएं बचा सकते हैं हम। जब ज्यादा बचा सकेंगे तो ज्यादा बचा
लेंगे। यह दया का काम होगा।
लेकिन उन्होंने क्या तरकीब निकाली!
उन्होंने यह तरकीब निकाली: "इसका तो मतलब यह हुआ कि भारत में फिर चालीस
प्रतिशत लोगों को छोड़ कर साठ प्रतिशत तो दीन-हीन हैं, तो इनकी भी हत्या कर दी जाए?' मैं नहीं कहूंगा कि
इनकी हत्या कर दी जाए। लेकिन अगर तुमको गऊएं बचानी हैं तो इनकी हत्या हो जाएगी।
तुम इसके लिए जिम्मेवार होओगे। अगर भारत में थोड़ी वैज्ञानिक बुद्धि का उपयोग किया
जाए तो भारत की साठ प्रतिशत जनता भी सुखी हो सकती हैं, आनंदित
हो सकती है।
और अगर मेरी बात सुनी गयी और शंभु
महाराज जैसे लोगों की बातें सुनी गयी, तो वह साठ प्रतिशत
जनता--मैं तो नहीं कहता कि मारी जाए--लेकिन प्रकृति मार डालेगी। अकाल में मरेगी,
भूख में मरेगी, बाढ़ में मरेगी, बीमारियों में मरेगी। इस सदी के अंत में तुम देख लेना, इस सदी के पूरे होते-होते भारत में दुनिया का सबसे बड़ा अकाल पड़ने वाला है।
सारी दुनिया के वैज्ञानिक घोषणा कर रहे हैं। क्योंकि इस सदी के पूरे होते-होते
भारत की संख्या चीन से आगे निकल जाएगी, एक अरब का आंकड़ा पार
कर जाएगी। और एक अरब का आंकड़ा पार करते ही तुम्हारी हालत होगी! अभी ही तुम अधमरी
हालत में हो, एक अरब का आंकड़ा पूरा हुआ कि भारत में महाभयंकर
बीमारियां और अकाल फैलने वाला है। प्रकृति मारेगी। मुझे मारने की कोई जरूरत नहीं,
मुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं, परमात्मा
मारेगा।
अगर उस घटना के पहले कुछ कर सकते हो, तो समझने की कोशिश करो। भारत के मन को व्यर्थ की उलझनों में उलझाओ! कि
गऊ-हत्या बचानी है, और शराबबंदी करवानी है, और चरखा चलवाना है; इन पागलपन की बातों में न उलझो!
बड़े उद्योग बनाओ। विज्ञान ने पूरे साधन खोज दिये हैं, उन
साधनों को लाओ। चरखे में मत अटके रहो। उतनी ही गऊएं बचा लो जितनी तुम अभी बचा सकते
हो। हां, कल जब हम ज्यादा बचा सकेंगे तो ज्यादा बचाएंगे।
पहले आदमी को बचाओ, फिर दूसरी बात है। साबार ऊपर मानुस सत्य,
ताहार ऊपर नाहीं। सबसे ऊपर मनुष्य का सत्य है, उसके ऊपर कुछ भी नहीं। अगर मनुष्य को बचाने के लिए और सब भी नष्ट करना पड़े
तो मैं करने को तैयार हूं। लेकिन मनुष्य को बचाना जरूरी है। क्योंकि मनुष्य बच जाए
तो शेष सबको फिर से पुनरुज्जीवित किया जा सकता है। लेकिन अगर मनुष्य मर जाए,
तो कौन तुम्हारी गऊएं बचाएगा और कौन तुम्हारी भैंस बचाएगा? और कौन तुम्हारी धर्म और संस्कृति और महानतम बातों को बचाएगा? कौन तुम्हारे वेद, उपनिषद, गुरुग्रंथ
को बचाएगा? ये पागलपन की बातें छोड़ो। ये पागलपन की बातों को
मैं सीधा पागलपन की बातें कह देता हूं, इससे उनको एकदम आग लग
जाती है!
फिर झूठ बोलने में भी इन लोगों को कोई
लाज-शर्म नहीं! अब यह बात सरासर झूठ है। मैंने तीन महीने के पहले तो कभी शंभु
महाराज का नाम ही नहीं सुना था। यह तीन महीने में ही नाम सुना, क्योंकि वे मेरे कच्छ आने का विरोध करने लगे, तो
मुझे पता चला कि यह सज्जन भी कहीं हैं। नहीं तो मैंने इनका कभी नाम ही नहीं सुना
था। और जिन अतुलानंद का उन्होंने नाम लिया है, यह तो पहली
दफे मैंने सुना है--उनके वक्तव्य में। मुझे कभी कोई निमंत्रण नहीं मिला अतुलानंद
या शंभु महाराज की तरफ से अहमदाबाद में। और यह बिलकुल सरासर झूठ बात कह रहे हैं कि
"अतुलानंद की अगवानी में साधु-संत इकट्ठे हुए थे और उन्होंने आपको चर्चा करने
के लिए आमंत्रण दिया, तब आप चर्चा के लिए क्यों नहीं,
आए थे?' न मुझे कभी आमंत्रण मिला। मैंने इनका
नाम ही नहीं सुना इन लोगों का। लेकिन झूठ भी बोलने में इन तथाकथित धार्मिक आदमियों
को कुछ भी नहीं लगता।
"इसलिए शंभु
महाराज का कहना है कि रजनीश जी में ज्ञान का घमंड होने के कारण पागलपन दिखायी पड़ता
है।' ज्ञान तो मुझमें है ही नहीं, घमंड
कैसे होगा? मैं तो महा अज्ञानी हूं। तब तो देखो ऐसी-ऐसी
अज्ञान की बातें कर पाता हूं! कोई ज्ञानी कहेगा? शंभु महाराज
कहें! मोरारजी देसाई कहें! ये कौन हैं श्री अतुलानंद, ये
कहें! करपात्री महाराज कहें! पुरी के शंकराचार्य कहें! कोई ज्ञानी कहे तो! मैं तो
अज्ञानी हूं, इसलिए ऐसी बातें कह पाता हूं।
ज्ञान के घमंड को तो कोई सवाल ही नहीं
उठता। मैंने तो ज्ञान को कचरा समझ कर छोड़ दिया। अब क्या उसका घमंड मरूंगा? कचरे का कोई घमंड करता है! मैं तो महा अज्ञानी हूं, जैसे
सुकरात ने कहा कि मैं इतना ही जानता हूं कि कुछ भी नहीं जानता। बस इतना ही मैं भी
जानता हूं कि कुछ भी नहीं जानता। इसीलिए तो जी खोल कर जो दिल में आता है, कहता हूं। अरे, जब कुछ जानता ही नहीं हूं तो अब अड़चन
क्या है!
और तुमने उपनिषद का वचन देखा अभी? "जिसने स्वयं को जान लिया, उसके लिए फिर न कुछ ठीक है,
न कुछ गलत हैं' मुझे भी कुछ न ठीक है न गलत
है। मैं हूं ही नहीं तो कौन पश्चात्ताप करे? कौन फिक्र करे?
परमात्मा को जो बोलना हो, बुलवा ले; जो करना हो, करवा ले; जहां
उलझाना हो, उलझा दे। मैं तो गया--जमाना हो गया तब से गया! अब
कौन है यहां घमंड करने को?
और वे कहते हैं कि राजा रावण का भी
ज्ञान के घमंड के कारण सर्वनाश हुआ था। मेरा तो सर्वनाश हो चुका! अब क्या होगा! मैं
तो उस दिन मर गया जिस दिन अहंकार मरा। उस दिन के बाद तो परमात्मा है; अगर सर्वनाश उसका ही होना हो, वह जाने! उस दिन के
बाद में हूं नहीं। पच्चीस साल हो गये मुझे मरे हुए। अब तो मैं सिर्फ बांस की
पोंगरी हूं, जो गीत उसे गाना हो गा ले। फिल्मी धुन बजानी हो,
फिल्मी बजाए; और भगवदगीता गानी हो, भगवदगीता गाए; मैं कौन हूं जो बीच में बाधा दूं?
मैं तो जा चुका।
और राजा रावण का किसलिए हुआ था
सर्वनाश, मुझे कुछ पता नहीं। मैं कोई ज्ञानी होता तो पता होता।
अज्ञान की कहो तो कुछ बातें कह दूं! राजा रावण का सर्वनाश इसलिए हुआ--गद्दार
विभीषण के कारण। और किसी कारण नहीं। और चूंकि राम उस गद्दार के कारण जीते, उस गद्दार को उन्होंने पुरस्कार भी खूब दिया। लंका का पूरा राज्य दे दिया।
और तुम देखते हो, ये राम के भक्तों में से एक ने भी नहीं कहा
कि विभीषण ने गद्दारी की। अपने भाई को धोखा दिया। इससे बड़ा गद्दार दुनिया में
दूसरा नहीं हुआ। अगर रावण जीत गया होता तो विभीषण की निंदा सदियों तक होती। लेकिन
चूंकि राम जीत गये--उसकी गद्दारी के कारण जीते; क्योंकि जब
भाई ने ही सूत्र दे दिये, राज बता दिया, तो रावण की हार सुनिश्चित थी।
और रावण अहंकारी नहीं था। यह भ्रांति
भी छोड़ दो। यह ख्याल गलत है! रावण के साथ धोखा राम ने किया। क्योंकि जब सीता का
स्वयंवर रचा जा रहा था, तो यह बात जाहिर थी कि रावण इतना शक्तिशाली है कि वह
सीता को ले जाएगा। और वह शिव का भक्त था और शिव का धनुष तोड़ना था। वह उसका हकदार
था वहां शुरू होती है, बेईमानी वहां शुरू होती है, राजनीति वहां शुरू होती है।...इसमें राम जिम्मेवार हैं इस सारे उपद्रव में,
रावण नहीं। चालबाजी यह की गयी कि झूठी खबर दी गयी उसे कि रावण,
तेरी लंका में आग लग गयी है। तुझे जल्दी बुलावा आया है। तू भाग!
तेरी लंका जल रही है, सोने की लंका जल रही है।
रावण भागा। अब जब लंका में आग लगी हो
तो कोई स्वयंवर में रुका रहे! कोई विवाह के लिए तैयार करे! वह कोई समय है? वह भागा लंका गया। यह झूठ थी बात। लंका में आग नहीं लगी थी। जब तक वह लौटा,
तब तक स्वयंवर समाप्त हो चुका था। तब तक राम ने सीता को वरण कर लिया
था। इसका ही बदला देने के लिए--और इसका बदला देना जरूरी था, क्योंकि
यह बेईमानी की गयी थी, यह सीधा षडयंत्र था--इसका बदला देने
के लिए उसने सीता को चुराया। मगर सीता के साथ उसने जो सदव्यवहार किया, वह राम ने भी कभी नहीं किया। सीता को तीन साल तक कारागृह में रख कर भी
उसने सारी सुविधाएं दी थीं। जंगल में नहीं रख दिया था, किसी
जेलखाने में नहीं बंद कर दिया था, उसके पास सुंदरतम वाटिका
थी--सुंदरतम बगीचा था अशोकवाटिका, वहां रखा था। और उसने कभी
भी कोई जबरदस्ती नहीं की, कोई बलात्कार नहीं किया। सीता को
छुआ भी नहीं, स्पर्श भी नहीं किया। तो वह आदमी अपने किस्म का
प्रामाणिक आदमी था, ईमानदार आदमी था। और राम से बदला लेना था,
सीता से क्या बदला लेना था! सीता का तो कोई कसूर था नहीं। इसलिए
सीता को उसने कोई परेशानी नहीं दी।
राम ने सीता के साथ दर्ुव्यवहार किया।
पहले तो उसकी अग्नि-परीक्षा ली। जिस पति को अपनी पत्नी पर संदेह है, उसको प्रेम नहीं। संदेह तो तभी उठता है जब प्रेम न हो। जहां प्रेम है वहां
कैसा संदेह? जहां प्रेम है वहां भरोसा है, श्रद्धा है, आदर है, सम्मान
है। पहला तो अपमान यह किया कि सीता की अग्नि-परीक्षा ली।
और बेईमानी देखो।
खुद भी अग्नि-परीक्षा दे देनी थी, तो भी समझ में आता; तो दोहरे मापदंड न हो पाते।
क्योंकि तुम भी तीन साल अलग रहे थे। और ऐसे शोधकर्ता हैं, जिनका
कहना है कि राम का शबरी से प्रेम था। तुम शोधकर्ताओं की किताबें खोज कर देखो।
रामलीला में तुमने शबरी को देखा होगा, वह झूठ है बात कि शबरी
हमेशा बूढ़ी औरत दिखायी जाती है। वह सिर्फ बताने के लिए बुढ़ापा दिखाया जाता है।
उसका। शबरी जवान स्त्री थी। और जंगल की सुंदरतम स्त्री थी।
प्रोफेसर नावलेकर ने एक अदभुत किताब
लिखी है--"न्यू एप्रोच टू रामायणा।' रामायण के प्रति एक
नया दृष्टिकोण। और उसमें उन्होंने सिद्ध करने की कोशिश की है कि शबरी जवान थी,
सुंदर थी--अतिसुंदर थी और राम उसके प्रेम में थे। असल में प्रेम ही
एक-दूसरे की झूठी चीजें खा सकते हैं। और कोई खा भी नहीं सकता। तुम जरा किसी की
झूठी चीज तो खाओ! कोई ऐसा बेर काट कर मुंह में तुमको दे, तुम
एकदम थ-थ कर दोगे कि पागल हो गये हो तुम? वह तो प्रेम के
पागलपन में चल जाता है। प्रेम के पागलपन में क्या नहीं चल जाता! प्रेयसी अगर जूठा
करके दे दे तो अहा, अमृत है! हालांकि थूक कोई अमृत नहीं
होता।
शबरी से राम का प्रेम था, यह नावलेकर ने सिद्ध करने की कोशिश की है। और मजबूत दलीलें दी हैं।
तो राम को भी परीक्षा दे देनी थी।
दोनों साथ ही गुजर जाते अग्नि-परीक्षा से। और मेरा मानना है कि अगर अग्नि-परीक्षा
से दोनों गुजरते, तो राम जलते, सीता बाहर निकलती।
सीता। तो बाहर निकली ही। मगर शक फिर भी न गया। और स्त्री के प्रति अपमान फिर भी न
गया। और फिर भी सीता को किसी धोबी के कहने पर वनवास दे दिया।
रावण ने जो दर्ुव्यवहार नहीं किया था, वह राम ने किया है।
अब मैं किस जनता को समझाने जाऊं, तुम थोड़ा सोचो! और मेरी बात तुम्हारी भीड़ को समझ में पड़ेगी? सुन सकेंगे वे? उनकी आंखें अंधी हैं पक्षपातों से।
वे पुनर्विचार कर सकेंगे शांतिपूर्वक?
रावण में मुझे कोई भ्रांति नहीं
दिखायी पड़ती, कोई भूल नहीं दिखाई पड़ती। रावण बहुत सीधा-साधा आदमी
है। राम मुझे चालबाज दिखाई पड़ते हैं। और राम के जो वशिष्ठ वगैरह, ऋषि-मुनि जिनको तुम कहते हो, वे सब एजेंट थे। जैसे
ईसाई मिशनरी एजेंट होते हैं न। नाम तो लेते हैं बाइबिल का, आते
हैं इरादा कुछ और रख कर। वे राम के एजेंट थे। वे जो ऋषि-मुनि दक्षिण में जाकर
उपद्रव खड़ा कर रहे थे। उन्हीं एजेंट को बचाने के लिए सारा आयोजन किया गया था।
और इस गद्दार विभीषण को सम्मान देना, और इसको वापिस राज्य दे देना--गद्दारी का सम्मान हो गया, धोखेधड़ी का सम्मान हो गया। और सीता जैसी निष्कलुष स्त्री को, गर्भवती स्त्री को जंगल में छुड़वा देना, बिना कहें
कि कहां भेजा जा रहा है उसे--यह स्त्री-जाति का बड़ा से बड़ा अपमान हो गया।
और राम ने शंबूक नाम के शूद्र के
कानों में सीसा पिघलवा कर भरवा दिया था, क्योंकि उसने वेद के
मंत्र सुन लिए थे।
मैं राम को भगवान का अवतार नहीं मान
सकता हूं। क्योंकि भगवान के अवतार को क्या शूद्र और क्या ब्राह्मण? भगवान के अवतार को इतनी भी दृष्टि नहीं है कि वह देख सके कि सीता पवित्र
है! इतनी भी दृष्टि नहीं है कि देख सके कि धोबी गलत है। और अगर यह भी था कि धोबी
ने जो बातें कही थी, हो सकता है वह और लोग भी कह रहे हो,
तो फिर खुद भी राज्य छोड़ देना था। तो चले जाते वे भी सीता के साथ
जंगल में। भी चौदह साल रहने के अभ्यासी थे, कोई नयी बात थी नहीं।
फिर जंगल में साथ ही चले जाते। लेकिन राज्य को तो बचा लिया, पत्नी
को छोड़ दिया। पद को बचा लिया, पत्नी को छोड़ दिया। पद प्रेम
से बड़ा साबित हुआ।
राम राजनैतिक पुरुष है। मेरे लिए कोई
धार्मिकता उनमें दिखायी नहीं पड़ती।
"और उन्होंने कहा
कि जिसका पतन होने वाला होता है, उसे ऐसी ही दुर्बुद्धि घेर
लेती है।' मैं तो हूं ही नहीं तो पतन क्या होगा? मैं तो हूं ही नहीं, दुर्बुद्धि क्या घेरेगी?
और आना हो शंभु महाराज को तो स्वागत
है! लेकिन यहां आना होगा। मैं तो कहीं आता-जाता नहीं हूं। मुझे कोई रस नहीं है--न
शंभु महाराज में, न गउओं में। मैं कोई गो-भक्त नहीं हूं, और न मैं गोपाल होने के लिए उत्सुक हूं। मैं तो अपने होने से पूरी तरह
राजी हूं--जैसा हूं, परम आनंदित हूं।
आज इतना ही।
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