ब्राह्मणत्व के शिखर—बुद्ध—(प्रवचन-एकसौउन्नीसवां)
सूत्र:
न ब्राह्मणस्सेतदकिज्चि
सेय्यो यदा निसेधो मनसो पियेहि।
यतो यतो हिंसमानो
निवत्तति ततो ततो सम्मति एव दुक्खं ।।318।।
न जटाहि न गोत्तेहि
न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्चज्च
धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो ।।319।।
किं ते जटाहि
दुम्मेध! किं ते अजिनसाटिया।
अब्भन्तरं ते
गहनं बाहिरं परिमज्जसि ।।320।।
सब्बसज्जोजनं
छेत्वा यो वे न परितस्सति।
संगातिगं विसज्जुत्तं
तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।321।।
छेत्वा नन्दिं
वरत्तज्च सन्दामं सहनुक्कमं।
उक्खित्तपलिधं
बुद्धं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।322।।
अक्कोसं बधबन्धज्व
अदुट्ठो यो तितिक्सति ।
खन्तिबलं बलानीकं
तमहं ब्रमि ब्राह्मण ।।323।।
रूह देखी है कभी, रूह को
महसूस किया है?
जागते
जीते हुए दूधिया कोहरे से लिपटकर
सांस
लेते हुए इस कोहरे को महसूस किया है?
या
शिकारे में किसी झील पे जब रात बसर हो
और
पानी के छपाकों में बजा करती हों टलिया
सुबकियां
लेती हवाओं के वह बैन सुने हैं?
चौदहवीं
रात के बरफाब—से इस चांद को जब
ढेर—से
साए जब पकड़ने के लिए भागते हैं
तुमने
साहिल पे खड़े गिरजे की दीवार से लगकर
अपनी
गहनाई हुई कोख को महसूस किया है?
जिस्म
सौ बार जले फिर भी वही मिट्टी का ढेला
रूह
इक बार जलेगी तो वह कुंदन होगी
रूह
देखी है कभी,
रूह को महसूस किया है?
जो
रूह को महसूस कर ले,
वही ब्राह्मण है। जो इस अस्तित्व की अंतरात्मा को पहचान ले, वही ब्राह्मण है। जो पदार्थ में परमात्मा को देख ले, वही ब्राह्मण है। जिसके लिए स्थूल और सूक्ष्म एक हो जाएं, वही ब्राह्मण है। बाहर और भीतर जिसके भेद न रहे, वही
ब्राह्मण है।
बुद्ध
ने बहुत—बहुत सूत्रों में ब्राह्मण की परिभाषा की है। ब्राह्मण शब्द परम दशा का
सूचक है। इसकी सूक्ष्म व्याख्या होनी जरूरी है। इसकी गलत व्याख्या होती रही है।
मनु की व्याख्या गलत है—कि जन्म से कोई ब्राह्मण होता है। महावीर की व्याख्या थोड़ी
ऊपर जाती है मनु से—कि कर्म से कोई ब्राह्मण होता है। बुद्ध की व्याख्या और भी ऊपर
जाती है—आत्म— अनुभव से। न जन्म से, न ऊपर के आचरण से, बल्कि भीतर जो छिपा है, उसके साक्षात्कार से कोई
ब्राह्मण होता है। बुद्ध ही केवल ब्राह्मण होता है। जो जाग गया अपने में, वही ब्राह्मण होता है।
बुद्ध
की भाषा में ब्राह्मण और बुद्ध पर्यायवाची हैं।
इसके
पहले कि हम सूत्रों में चलें, सूत्रों की परिस्थिति समझें।
पहला
दृश्य:
श्रावस्ती नगरवासी
बहुत से मनुष्य एकत्र होकर सारिपुत्र स्थविर के अनेक गुणों की प्रशंसा कर रहे थे।
एक बुद्ध— विरोधी ब्राह्मण भी यह सुन रहा था और ईर्ष्या और क्रोध से जला जा रहा
था। तभी भीड़ में से किसी ने कहा. हमारे आर्य ऐसे सहनशील हैं कि आक्रोशन करने वालों
या मारने वालों पर भी क्रोध नहीं करते हैं। यह बात मिथ्या— दृष्टि ब्राह्मण की आग
में घी का काम कर गयी। वह बोला उन्हें कोई क्रोधित करना जानता ही न होगा। देखो मैं
क्रोधित करता हूं।
नगरवासी
हंसे और उन्होंने कहा. यदि तुम उन्हें क्रोधित कर सकते हो तो करो। वह ब्राह्मण
दोपहर में सारिपुत्र को भिक्षाटन करते देख पीछे से जाकर लात से पीठ पर मारा।
लेकिन
स्थविर ने पीछे लौटकर देखा भी नहीं वे ध्यान में जाने ध्यान के दीए को सम्हाले चल
रहे थे सो वैसे ही चलते रहे। उलटे मन ही मन वे प्रसन्न भी हुए क्योंकि साधारणत:
ऐसी स्थिति में मन डांवाडोल हो उठे यह स्वाभाविक ही है। लेकिन मन नहीं डोला था और
ध्यान की ज्योति और भी थिर हो उठी थी। उनके भीतर इस भांति लात मारने वाले के प्रति
आभार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था।
इस
घटना ने अंधे ब्राह्मण को तो जैसे आंखें दे दीं। वह सारिपुत्र के चरणों में गिर
पड़ा। और उन्हें घर ले जाकर भोजन कराया। उसकी आंखें पश्चात्ताप के आंसुओ से भरी थीं
और वे आंसू उसके सारे कल्मष को बहाकर उसकी आत्मा को निर्मल कर रहे थे।
इस
तरह सारिपुत्र के निमित्त उस पर पहली बार बुद्ध की किरण पड़ी थी
लेकिन
भिक्षुओं को सारिपुत्र का व्यवहार नहीं जंचा। उन्होंने भगवान से कहा आयुष्मान
सारिपुत्र ने अच्छा नहीं किया जो कि मारने वाले ब्राह्मण के घर जाकर भोजन भी किया।
अब किसे वह बिना मारे छोड़ेगा। वह तो भिक्षुओं को मारने की आदत बना लेगा। अब तो वह
भिक्षुओं को मारता हुआ ही विचरण करेगा।
शास्ता
ने भिक्षुओं से कहा. भिक्षुओ! ब्राह्मण को मारने वाला ब्राह्मण नहीं है। गृहस्थ—
ब्राह्मण द्वारा श्रमण— ब्राह्मण मारा गया होगा और सारिपुत्र ने वही किया है जो कि
ब्राह्मण के योग्य है। फिर तुम्हें पता भी नहीं है कि सारिपुत्र के ध्यानपूर्ण
व्यवहार ने एक अंधे आदमी को आंखें प्रदान कर दी हैं।
और
तभी उन्होंने ये गाथाएं कहीं.
न ब्राह्मणस्सेतदकिज्चि सेय्यो यदा निसेधो
मनसो पियेहि।
यतो यतो हिंसमानो
निवत्तति ततो ततो सम्मति एव दुक्खं ।।
'ब्राह्मण के लिए यह कम श्रेयस्कर
नहीं है कि वह प्रिय पदार्थों से मन को हटा लेता है। जहां —जहां मन हिंसा से
निवृत्त होता है, वहां—वहां दुख शांत हो जाता है।’
न जटाहि न गोत्तेहि
न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्चज्च
धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो ।।
'न जटा से, न
गोत्र से, न जन्म से ब्राह्मण होता है। जिसमें सत्य और धर्म
है, वही शुचि है और वही ब्राह्मण है।’
किं ते जटाहि
दुम्मेध! किं ते अजिनसाटिया।
अब्भन्तरं ते
गहनं बाहिरं परिमज्जसि ।।
'हे दुर्बुद्धि, जटाओं से तेरा क्या बनेगा? मृगचर्म पहनने से तेरा
क्या होगा? तेरा अंतर तो विकारों से भरा है, बाहर क्या धोता है?'
सब्बसज्जोजनं
छेत्वा यो वे न परितस्सति।
संगातिगं विसज्जुत्तं
तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।
'जो सारे संयोजनों को काटकर भयरहित हो जाता है, उस
संग और आसक्ति से विरत को मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
श्रावस्ती
नगरवासी—सीधे—सादे लोग—एकत्र होकर सारिपुत्र के गुणों की प्रशंसा कर रहे थे।
सारिरपुत्र
बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में एक। जिन्होंने बुद्ध के जीते जी बुद्धत्व प्राप्त
किया—उनमें से एक। सारिपुत्र स्वयं भी कभी बहुत बड़ा पंडित था। जब पहली बार बुद्ध
के पास आया था,
तो बुद्ध से विवाद करने आया था। पाच सौ अपने शिष्यों को साथ लाया
था। लेकिन बुद्ध के पास आकर विवाद का मौका नहीं बना। विवाद के पहले हार हो गयी।
बुद्ध को देखते ही हार हो गयी।
बड़ा
संवेदनशील रहा होगा। पांडित्य तो था, लेकिन पांडित्य पर बहुत पकड़ न रही
होगी। पांडित्य तो था, लेकिन पांडित्य से हटकर देखने की
क्षमता रही होगी। इसलिए बुद्ध को देखते ही रूपांतरित हो गया। शिष्यों से अपने कहा
था, भूल जाओ विवाद की बात। यह आदमी विवाद करने योग्य नहीं
है। यह आदमी लड़ने योग्य नहीं है। यह आदमी ऐसा है, जिसके
चरणों में हम बैठें। मैं तो बुद्ध का शिष्यत्व स्वीकार करता हूं। तुम मेरे शिष्य
हो, अगर तुम मुझे समझे हो, तो मेरे साथ
झुक जाओ। खुद दीक्षित हुआ; अपने पांच सौ शिष्यों को भी
दीक्षित किया।
बुद्ध
के पास हजारों शिष्य थे,
उनमें सारिपुत्र सबसे बड़ा बौद्धिक व्यक्ति था—लेकिन बुद्धि में
सीमित नहीं। और जल्दी ही उसमें फूल खिलने शुरू हो गए। जल्दी ही उसमें सुवास आनी
शुरू हो गयी। जो झुकने को इतना तत्पर हो! आया था विवाद करने और निर्विवाद झुक गया!
जिसके पास ऐसी सरल दृष्टि हो; ऐसा सहज भाव हो, अगर जल्दी ही वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया, तो कुछ
आश्चर्य नहीं है।
श्रावस्ती
के भोले— भाले लोग,
सीधे—सादे लोग सारिपुत्र के गुणों की प्रशंसा कर रहे थे।
ऐसे
गुण थे ही सारिपुत्र में जिनकी प्रशंसा की जाए। यही देखते हो : विवाद करने आया हो
और बिना एक प्रश्न उठाए झुक जाए और शिष्यत्व स्वीकार कर ले! बड़े पांडित्य के बोझ
से दबा हो, शास्त्रों का ज्ञाता हो, और शास्त्रों को ऐसे हटा दे,
जैसे कोई दर्पण से धूल को हटा देता है! इतनी सुगमता से, इतनी सरलता से, बिना दंभ के, बिना
अहंकार के, बिना अकड़ के। न केवल खुद झुका, बल्कि अपने पांच सौ शिष्यों को भी झुका दिया।
सारिपुत्र
ने से कभी कोई प्रश्न ही नहीं पूछा फिर। आया था उत्तर देने; प्रश्न ही
नहीं पूछा। उनकी छाया हो गया। उनमें लीन हो गया।
गुण
खूब थे सारिपुत्र में;
गुणी था। गांव के लोग ठीक ही प्रशंसा करते थे। लेकिन एक
बुद्ध—विरोधी ब्राह्मण भी यह सुन रहा था और ईर्ष्या और क्रोध से जला जा रहा था।
तभी भीड में से किसी ने कहा? हमारे आर्य ऐसे सहनशील हैं कि
आक्रोशन करने वालों या मारने वालों पर भी क्रोध नहीं करते हैं। यह बात
मिथ्या—दृष्टि ब्राह्मण की आग में घी का काम कर गयी।
मिथ्या—दृष्टि
का अर्थ होता है : जिसे उलटा देखने की आदत पड़ गयी है। उलटी खोपड़ी! सीधी बात को भी
जो उलटा करके। जो सीधा देख ही नहीं सकता। जिसकी दृष्टि में बड़ी गहरी भ्रांति बैठ
गयी है,;
सारिपुत्र
की प्रशंसा हो रही है,
उसे प्रशंसा से आग लग रही है।
ऐसे
बहुत लोग हैं,
जो किसी की भी प्रशंसा नहीं सुन सकते। जो केवल निंदा सुन सकते हैं।
इसीलिए तो लोग ज्यादातर निंदा करते हैं। क्योंकि निंदा ही सुनने वाले लोग हैं।
जहां दो—चार आदमी मिले कि निंदा शुरू हो जाती है!
प्रशंसा
करना भी अपने आप में एक कविता है। क्योंकि प्रशंसा वही कर सकता है, जिसके पास
सम्यक दृष्टि हो। प्रशंसा के लिए सबसे बड़ा गुण जरूरी है कि जो अपने को हटाकर दूसरे
को देख सके। जो दूसरे के बड़प्पन में पीड़ित न हो जाए; जिसके
अहंकार को चोट न लगे, जो दूसरे की भव्य प्रतिमा को देखकर
क्रोध से न भर जाए—कि यह कौन है, जो मुझसे ज्यादा भव्य है?
यह कौन है, जो मुझसे ज्यादा दिव्य है? यह कौन है, जो मुझसे ज्यादा श्रेष्ठ है? मुझसे ज्यादा श्रेष्ठ कोई भी नहीं हो सकता—ऐसी पीड़ा जिसे पैदा हो जाती है,
वह मिथ्या—दृष्टि है।
'मिथ्या—दृष्टि किसी की प्रशंसा बर्दाश्त नहीं कर सकता, क्योंकि वह किसी की प्रशंसा को अपनी निंदा मानता है। दूसरा बड़ा है,
तो मैं छोटा हो गया—यह उसका तर्क है। दूसरा सुंदर है, तो मैं कुरूप हो गया—यह उसका तर्क है। दूसरा चरित्रवान है तो फिर मेरा
क्या!
मिथ्या—दृष्टि
दूसरे की निंदा सुन सकता है। क्यों? क्योंकि दूसरे की निंदा से उसके
अहंकार को भरण—पोषण मिलता है। तो वह कहता है अच्छा! तो यह भी चरित्रहीन है! इससे
तो हम ही भुले हैं।
तुम
ध्यान रखना, निंदा का एक मनोविज्ञान है। क्यों लोग निंदा पसंद करते हैं? तुम अगर किसी से कहो कि अ नाम का आदमी संत हो गया है, कोई मानेगा नहीं। पच्चीस दलीलें लोग लाएगे—कि नहीं, संत
नहीं है। सब धोखा— घडी है। सब पाखंड है। और तुम किसी के संबंध में कहो कि फला आदमी
चोर हो गया है; तो कोई विवाद न करेगा। वह कहेगा. हमें पहले
से ही पता है। वह चोर है ही। क्या हमें बता रहे हो! वह महाचोर है। तुम्हें अब पता
चला! तुम्हारी आंखें अंधी थीं।
तुमने
कभी देखा : निंदा जब तुम किसी की करो, तो कोई प्रमाण नहीं मांगता। और
प्रशंसा जब करो, तो हजार प्रमाण मांगे जाते हैं। और, और भी एक कठिनाई है कि प्रशंसा जिन चीजों की होती है, उनके लिए प्रमाण नहीं होते। और निंदा जिन चीजों की होती है, उनके लिए प्रमाण होते हैं। क्योंकि निंदा तो क्षुद्र जगत की बात है,
उसके लिए प्रमाण हो सकते हैं।
समझो
किसी आदमी की तुम निंदा कर रहे हो कि उसने चोरी की। तो चार आदमी गवाह की तरह खड़े
किए जा सकते हैं कि इन्होंने उसे चोरी करते देखा। लेकिन तुम कहते हो कि कोई आदमी
जाग गया, प्रबुद्ध हो गया, इसके लिए कहां गवाह खोजोगे! कहां
से गवाह मौजूद करोगे? कौन कहेगा कि हां, मैंने इसको बुद्ध होते देखा! यह बात तो देखने की नहीं है। यह तो बुद्ध ही
कोई हो, तो देख सके, जो स्वयं बुद्ध हो,
वह देख सके। दूसरा तो कोई इसका गवाह नहीं हो सकता।
मजे
की बात देखना। जो प्रशंसा—योग्य तत्व हैं, उनके लिए प्रमाण नहीं होते। और
उनके लिए लोग प्रमाण पूछते हैं। और जो निंदा है, उसके लिए
हजार प्रमाण होते हैं, लेकिन कोई प्रमाण पूछता ही नहीं।
प्रमाण के बिना ही स्वीकार कर लेते हैं लोग। लोग निंदा स्वीकार करना चाहते हैं।
लोग तैयार ही हैं कि निंदा करो।
तुम्हारे
अखबार निंदा से भरे होते हैं। तुम अखबार पढ़ते ही इसीलिए हो कि आज किस—किस की बखिया
उधेडी गयी। अखबार में जिस दिन निंदा नहीं होती, उस दिन तुम उसे उदासी से सरकाकर एक
तरफ रख देते हो—कि कुछ खास बात ही नहीं है। जब अखबार में हत्या की खबर होती है,
चोरी की, किसी की स्त्री के भगाने की, तलाक की, आत्महत्या की, तब तुम
एकदम चश्मा ठीक करके एकदम अखबार पर झुक जाते हो कि एक शब्द चूक न जाए! इसलिए
बेचारा अखबार छापने वाला आदमी निंदा की तलाश में घूमता रहता है।
पत्रकारों
की दृष्टि ही मिथ्या हो जाती है, क्योंकि उनका धंधा ही खराब है। उनके धंधे का मतलब
ही यह है कि जनता जो चाहती है, वह लाओ खोजबीन कर। अच्छे से
अच्छे आदमी में कुछ बुरा खोजो। सुंदर से सुंदर में कोई दाग खोजो। चांद की फिकर
छोड़ो। चांद पर वह जो काला धब्बा है, उसकी चर्चा करो। क्योंकि
लोग धब्बे में उत्सुक हैं, चांद में उत्सुक नहीं हैं। चांद
की बात करो, तो कोई अखबार खरीदेगा ही नहीं।
इसलिए
जो पत्रकारिता है,
वह मूलत: निंदा के रस की ही कला है। कैसे खोज लो—कहीं से भी कुछ गलत
कैसे खोज लो! और जब तुम खोजने का तय ही किए बैठे हो, तो जरूर
खोज लोगे। क्योंकि जो आदमी जो खोजने निकला है, उसे मिल
जाएगी।
यह
दुनिया विराट है। इसमें अंधेरी रातें हैं और उजाले दिन हैं। इसमें गुलाब के फूल
हैं और गुलाब के काटे हैं। जो आदमी निंदा खोजने निकला है, वह कहेगा
कि दुनिया बड़ी बुरी है। यहां दो रातों के बीच में एक छोटा सा दिन है। दो अंधेरी
रातें, और बीच में छोटा सा दिन! और जो प्रशंसा खोजने निकला
है, वह कहेगा कि दुनिया बड़ी प्यारी है। परमात्मा ने कैसी गजब
की दुनिया बनायी है. दो उजाले दिन, बीच में एक अंधेरी रात!
जो
आदमी निंदा खोजने निकला है,
वह गुलाब की झाड़ी में काटो की गिनती कर लेगा। और स्वभावत: काटो की
गिनती जब तुम करोगे, तो कोई न कोई काटा हाथ में गड़ जाएगा।
तुम और क्रोधाग्नि से भर जाओगे। अगर कांटा हाथ में गड़ गया और खून निकल आया,
तो तुम्हें जो एकाध फूल खिला है झाड़ी पर, वह
दिखायी ही नहीं पड़ेगा। तुम अपनी पीड़ा से दब जाओगे। तुम गालिया देते हुए लौटोगे।
जो
आदमी फूल को देखने निकला है, वह फूल से ऐसा भर जाएगा कि उसे काटे भी प्यारे
मालूम पड़ेंगे। वह फूल से ऐसा रस—विमुग्ध हो जाएगा कि उसे यह बात दिखायी पड़ेगी कि
काटे जरूर भगवान ने इसीलिए बनाए होंगे कि फूलों की रक्षा हो सके। ये फूलों के
पहरेदार हैं।
सब
तुम पर निर्भर है,
कैसे तुम देखते हो, क्या तुम देखने चले हो।
यह
बुद्ध—विरोधी ब्राह्मण था। इसने तय ही कर रखा था। न यह कभी बुद्ध के पास गया
था.....।
यह
बड़े आश्चर्य की बात है कि विरोधी पास जाते ही नहीं। विरोधी दूर—दूर रहते हैं।
विरोध करने के लिए यह जरूरी है कि वे दूर—दूर रहें। पास आएं तो खतरा है। पास आएं
तो डर है कि कहीं ऐसा न हो कि हमारा विरोध गल जाए। तो विरोधी पीठ किए खड़ा रहता है, दूर—दूर
रहता है। सुनी—सुनायी बातों में से चुनता है। फिर उन चुनी हुई बातों को भी बिगाड़ता
है, अपना रंग देता है। फिर उनको विकृत करता है, विकृति को बढ़ाता है। फिर उस विकृति में जीता है और सोचता है कि मुझे
तथ्यों का पता है।
ध्यान
रखना, इस जगत में तथ्य होते ही नहीं। तथ्य झूठ बात है। इस जगत में सब व्याख्याएं
हैं, तथ्य नहीं होते।
एक
बड़ा इतिहासकार एडमंड बर्क विश्व का इतिहास लिख रहा था। उसने कोई तीस साल उस पर
मेहनत की थी। और वह चाहता था कि दुनिया का ऐसा इतिहास लिखे, जैसा पहले
कभी नहीं लिखा गया। तीस साल लंबा समय था। आधा जीवन उसने गंवा दिया था।
एक
दिन उसके घर के पीछे एक हत्या हो गयी। वह भागा हुआ पहुंचा। भीड़ खड़ी थी। लाश पड़ी
थी। हत्यारा पकड़ लिया गया था रंगे हाथों। उसने लोगों से पूछा कि क्या हुआ? लेकिन
जितने लोग थे, उतनी बातें! जितने मुंह, उतनी बातें! कोई हत्यारे के पक्ष में था। कोई जिसकी हत्या की गयी उसके
पक्ष में था। कोई इसका कसूर बता रहा था; कोई उसका कसूर बता
रहा था।
एडमंड
बर्क तो हैरान हो गया। उसके घर के पीछे हत्या हुई है, अभी
हत्यारा मौजूद है, अभी लाश पड़ी है, अभी
खून बह रहा है सडक पर। अभी सब ताजा है और नया है। अभी खून सूखा भी नहीं है। लोग
मौजूद हैं, जो चश्मदीद गवाह हैं। लेकिन कोई दो चश्मदीद गवाह
की बात एक सी नहीं है।
वह
लौटकर आया और उसने तीस साल में जो इतिहास लिखा था, उसको आग लगा दी। उसने कहा
कि मैं इतिहास लिखने बैठा हूं दुनिया का! बुद्ध के समय में क्या हुआ; और सिकंदर के समय में क्या हुआ; और कृष्ण के समय में
क्या हुआ? यह मैं क्या कर रहा हूं! मेरे घर के पीछे एक हत्या
हो जाए; मैं भागकर पहुंचूं। रंगे हाथ हत्यारा पकड। गया हो।
चश्मदीद गवाह मौजूद हों। और निर्णय करना मुश्किल है कि क्या हुआ! तो मैं तीन हजार
और पांच हजार साल पहले क्या हुआ—यह कैसे तय कर पाऊंगा! सब अफवाहें हैं और सब
व्याख्याएं हैं।
व्याख्या
व्याख्या की बात है। तुम कैसे व्याख्या करते हो, इस पर सब निर्भर करता है।
मेरे
एक संन्यासी ने—उमानाथ ने—नेपाल से मुझे पत्र लिखा है कि दक्षिण भारत में लोग राम
को जलाकर क्या पाएंगे?
जब मैं उनका पत्र पढ़ रहा था, तब मैंने सोचा कि
जब ये उमानाथ आएंगे, तो मैं उनसे पूछूंगा. तुमने उत्तर में
रावण को जलाकर क्या पाया? उस पर संदेह नहीं है उन्हें। उत्तर
के हैं। उस पर संदेह नहीं है कि रावण को जलाने में कोई हर्जा है! रावण को तो जलाना
ही चाहिए हर साल! लेकिन ये राम के पक्ष में जिन्होंने किताबें लिखी हैं, उनकी व्याख्या है। रावण के पक्ष में किताबें लिखी जा सकती हैं, तब व्याख्या बिलकुल बदल जाएगी। घटना वही है, लेकिन
व्याख्या बदल जाएगी।
क्या
सच है—मैं नहीं कह रहा हूं। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि तथ्यों में सच होता ही
नहीं; सब व्याख्या होती है। तय ही नहीं हो पाता दुनिया में। इतने युद्ध हो गए
हैं, लेकिन कभी तय नहीं हुआ कि किसने हमला किया। तय हो ही
नहीं सकता। क्योंकि एक पक्ष कहे चला जाता है कि दूसरे ने हमला किया। दूसरा पक्ष
कहे जाता है कि उसने हमला किया। फिर जो जीत जाता है, वह
इतिहास की किताबें लिखता है। जो जीत जाता है, वह अपने पक्ष
को किताबों में डाल देता है।
जब
स्टैलिन रूस का तानाशाह बना, तो उसने सारा इतिहास बदल दिया रूस का। सारा
इतिहास बदल दिया! अपने विरोधियों की तस्वीरे निकाल दीं। अपने विरोधियों के नाम
निकाल दिए। जहां तस्वीरें खुद की नहीं थीं, वहां फोटोग्राफी
की कलाबाजी से अपनी तस्वीरें डलवा दीं। सब जगह अपना नाम डाल दिया, अपने पक्षपातियों का नाम डाल दिया।
जब
तक स्टैलिन सत्ता में रहा,
वही इतिहास रूस में चला। बच्चों ने वही पढ़ा। स्टैलिन के मरते ही बात
बदल गयी। स्टैलिन के विरोधियों ने स्टैलिन का नाम फिर पोंछ दिया।
यही
तो अभी हो रहा है दिल्ली में। कैप्शूल खोदा जा रहा है। इंदिरा ने एक कैझूल रखा था, वह एक
व्याख्या है। स्वभावत:, उसमें कुछ नाम नहीं होंगे। जैसे
सुभाष का नाम नहीं होगा। या होगा, तो कहीं टिप्पणी में होगा,
पाद—टिप्पणी में। किसी मूल्य का नहीं होगा। स्वभावत:, उसमें सरदार पटेल का नाम नहीं होगा। या होगा भी, तो
गौण होगा। और निश्चित ही उसमें मोरारजी भाई का नाम नहीं है।
उसे
निकालना पड़ेगा। निकाला जा रहा है। खोदा जा रहा है। फिर से टाइम कैप्शूल बनाया
जाएगा। उसमें इंदिरा विदा हो जाएगी। उसमें नेहरू सिकुड़कर छोटे हो जाएंगे। उसमें
वल्लभभाई फैलकर कुप्पा हो जाएंगे! उसमें मोरारजी भाई बिलकुल बीच में विराजमान हो
जाएंगे। उसमें जगजीवनराम और चरणसिह—सब बैठ जाएंगे।
लेकिन
कितनी देर यह चलेगा न: दो—चार—पाच साल बाद फिर कोई सत्ता में आएगा। फिर टाइम
कैब्लल उखाड़ना पडेगा! ऐसा सदा होता रहा है। शायद नया टाइम कैखूल जो मोरारजी भाई
बनवाएं, उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी गुण—गाथा हो। और शायद उसमें कहा जाए
कि नाधूराम गोडसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अंग नहीं था। और गांधी की हत्या में
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कोई हाथ नहीं है। उसमें चीजें बदलेंगी, क्योंकि मोरारजी भाई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बल पर खड़े हैं। टाइम
कैब्लल उसके ही बल पर लिखा जाएगा। सारा इतिहास बदलेगा।
पूना
में ऐसे लोग हैं,
जो नाधूराम गोडसे को महात्मा नाधूराम गोडसे कहते हैं! जन्म —तिथि
मनाते हैं। मिठाइयां बांटते हैं। अगर कल कभी आर. एस एस. के हाथ में इस मुल्क की
शक्ति आ गयी, तो महात्मा गांधी विदा हो जाएंगे। उनकी
मूर्तियां चौराहों से हटा ली जाएंगी, वहां गुरु गोलवलकर,
नाधूराम गोडसे—महात्मा नाश्रुराम गोडसे—की मूर्तिया खड़ी हो जाएंगी।
और तुम उससे भी राजी हो जाओगे! क्योंकि जिसके हाथ में सत्ता है, तुम उससे राजी हो जाते हो।
आदमी
तथ्यों की व्याख्याएं कर लेता है। जैसी करना चाहता है, वैसी कर
लेता है।
बुद्ध
किसको सम्यक—दृष्टि कहते हैं? किसको मिथ्या—दृष्टि कहते हैं? बुद्ध कहते हैं जो व्याख्या करता है, वह
मिथ्या—दृष्टि है। जो व्याख्या नहीं करता, जो विचारशून्य
होकर, निर्विचार होकर देखता है, वह
सम्यक—दृष्टि है। अगर विचार पहले से ही तुम्हारे भीतर है, तो
तुम तथ्य को कैसे देखोगे? तुम्हारा विचार तथ्य को रंग देगा।
तथ्य को वैसा बना देगा, जैसा तुम्हारा विचार चाहता है। तुम
वही देख लोगे, जो तुम देखना चाहते थे या जो तुमने देखने का
तय ही कर रखा था।
एक
आदमी ने एक किताब लिखी है कि तेरह का आंकड़ा बहुत बुरा है। हजार पृष्ठ की किताब है।
सारी दुनिया से उसने हजारों प्रमाण इकट्ठे किए हैं। पढ़ोगे, तो
तुम्हें भी भरोसा आ जाएगा कि तेरह का आंकड़ा खराब है।
अमरीका
में ऐसी धारणा है कि तेरह का आंकड़ा खराब है। बड़े होटलों में तेरहवीं मंजिल नहीं
होती, क्योंकि तेरहवीं पर कोई रुकना नहीं चाहता। बारहवीं के बाद सीधी चौदहवीं
मंजिल आती है। तेरहवीं मंजिल होती ही नहीं। नहीं तो कोई रुके ही नहीं तेरहवीं
मंजिल में। तेरह नंबर का कमरा लोग बरदाश्त नहीं करते। तेरह नंबर से बचते हैं। तेरह
तारीख को सम्हलकर चलते हैं।
तो
इस आदमी ने सब इकट्ठा किया है. कि तेरह तारीख को कितने लोग आत्महत्या करते हैं, तेरह
तारीख को कितने लोग पागल होते हैं; तेरहवीं मंजिल से :कितने
लोग गिरकर मर जाते हैं। तेरहवें नंबर की बस में चलने वालों में कितनी दुर्घटनाएं
होती हैं। उसने सारे आंकडे इकट्ठे किए हैं—तेरह से संबंधित सब।
एक
मित्र मेरे पास उसको लेकर आए थे। मैंने कहा उनसे कि तुम ऐसा करो कि तुम चौदह तारीख
के संबंध में खोजबीन करो। इतने ही लोग चौदह को भी मरते हैं, और
चौदहवीं मंजिल से भी गिरते हैं; और चौदह नंबर की बस भी
टकराती है। और चौदह नंबर की कार भी पहाड से गिर जाती है। तुम चौदह के पीछे पड़ जाओ,
तो तुम चौदह के लिए भी इतने ही आंकड़े जुड़ा लोगे। आंकड़े जुडाने में
कुछ अड़चन नहीं है।
जिंदगी
बहुत बड़ी है। उसमें अगर हमने कुछ तय ही कर रखा है, तो हम वही चुन लेते हैं।
तुमने अगर मान रखा है कि सुबह से इस आदमी की शक्ल देखने से सब खराब हो जाएगा,
तो खराब नहीं होता; किसी की शक्ल देखने से
क्या खराब होना है! लेकिन तुमने अगर मान रखा है और वे सज्जन सुबह से मिल गए रास्ते
पर घूमते, तुमने कहा. मारे गए! ये महाराज के दर्शन हो गए;
आज दिन खराब होगा। अब आज दिन में जो—जो खराबी होंगी, वे होने ही वाली थीं। मगर सब इन्हीं के ऊपर जाएंगी। पैर में काटा गड़ गया,
तुम कहोगे : उस दुष्ट का सुबह चेहरा देखा था। हाथ से प्याला गिरकर
टूट गया; उस दुष्ट का सुबह चेहरा देखा था!
अब
तुम दिनभर याद करते रहोगे उस दुष्ट का चेहरा, और तुम्हें पचास कारण मिल जाएंगे।
रास्ते पर केले के छिलके पर फिसलकर गिर पड़े, उस दुष्ट का
चेहरा देखा था! और तब तुम और आश्वस्त हो गए कि इस आदमी का चेहरा बड़ा खतरनाक है। अब
दुबारा इससे बचना है। कहीं दुबारा फिर न दिखायी पड़ जाए! दुबारा दिखायी पड़ेगा,
तो और अड़चन हो जाएगी। तुम्हारी धारणा मजबूत होती चली जाएगी।
यह
आदमी बुद्ध—विरोधी है। बुद्ध के पास कभी गया नहीं है। मिथ्या—दृष्टि ब्राह्मण।
इसने एक बात तय कर रखी है कि बुद्ध गलत हैं। बुद्ध गलत हैं, तो उनके
शिष्य भी गलत ही होंगे—स्वभावत:। तो सारिपुत्र गलत होना ही चाहिए।
उसने
कहा : छोड़ो बकवास। तुम कहते हो, उन्हें कोई क्रोधित नहीं कर पाता, इसमें उनकी कोई गुणवत्ता नहीं है। सच बात यह है कि उन्हें कोई क्रोधित
करना न जानता होगा; ठीक बटन दबाना न आता होगा। मुझ पर छोड़ो
यह काम। मैं उन्हें क्रुद्ध करके बता दूंगा।
देख
रहे हैं, उसकी एक दृष्टि है। वह यह मानने को तैयार ही नहीं है कि कोई आदमी ऐसा हो
सकता है, जो क्रोधित न हो। कम से कम बुद्ध का शिष्य तो ऐसा
नहीं हो सकता। तो फिर एक ही बात हो सकती है कि जिन लोगों के द्वारा सारिपुत्र
क्रोधित नहीं किए जा सके हैं, उन्हें क्रोधित करना न आता
होगा। उन्होंने ठीक रग न पकड़ी होगी। उसने कहा. मुझ पर छोड़ो यह काम। उन्हें कोई
क्रोधित करना जानता न होगा। देखो, मैं क्रोधित करता हूं।
नगरवासी
हंसे। कभी—कभी भोले— भाले लोग ज्यादा समझदार सिद्ध होते हैं, बजाय
पंडितों के। वे हंसे। उन्होंने कहा कि यह पागलपन की बात है कि तुम सारिपुत्र को
क्रोधित कर लोगे। फिर भी, तुम क्रोधित कर सको, तो करके देखो।
उस
ब्राह्मण ने दोपहर में स्थविर को भिक्षाटन करते देख पीछे से जाकर लात से पीठ पर
मारा।
इन
छोटी—छोटी कथाओं में एक—एक बात अर्थपूर्ण है। अक्सर बुद्धपुरुषों पर जो लातें मारी
जाती हैं, वे सदा पीछे से ही मारी जाती हैं। सामने से तो हिम्मत नहीं होती। सामने से
तो घबड़ाहट लगेगी। क्योंकि वे आंखें, वह चेहरा, वह प्रसाद कहीं रोक दे; कहीं झिझक आ जाए; कहीं हिचक आ जाए। इसलिए बुद्धों की जो निंदा होती है, वह पीछे से होती है, सामने से नहीं होती है।
और
ध्यान रखना, जो पीछे निंदा करता है, वह कायर है। उसे अपनी निंदा
पर भी भरोसा नहीं है, अपने पर भी भरोसा नहीं है।
इस
आदमी ने आकर पीछे से सारिपुत्र को लात मारी। लेकिन स्थविर ने पीछे लौटकर नहीं
देखा।
निष्प्रयोजन!
बुद्ध ने कहा है अपने शिष्यों को कि जिसमें प्रयोजन न हो, उसमें जरा
भी ऊर्जा मत डालना। अब कोई आदमी पीछे से लात मार रहा है, तो
इसमें प्रयोजन क्या है! पीछे देखने से सार क्या है? इसमें
उलझने की जरूरत क्या है? यह पागल होगा, कि मूढ़ होगा; कि मिथ्या—दृष्टि होगा। इसमें इतना भी
रस लेने की जरूरत नहीं है कि पीछे लौटकर देखो। क्योंकि गलत को देखना भी अनावश्यक
है। व्यर्थ को देखना भी उचित नहीं है। क्योंकि जिसे हम देखते हैं, उसकी छाप हमारी आंख पर पड़ती है।
तो
बुद्ध ने कहा है कि व्यर्थ को देखना ही मत। व्यर्थ को सुनना ही मत। व्यर्थ का
विचार ही मत करना। क्योंकि जितनी देर तुम व्यर्थ को देखने में लगाओगे, जितना समय
और जितनी शक्ति व्यर्थ पर व्यय करोगे, उतनी ही सार्थक की तरफ
जाने में रुकावट पड़ जाएगी।
तो
बुद्ध ने कहा है कि जब जाना है एक यात्रा पर, और एक मंजिल पर, तो सारी ऊर्जा उसी तरफ बहे। यहां —वहा छांटना मत, बाटना
मत।
तो
सारिपुत्र ने पीछे लौटकर भी नहीं देखा। लात तो लगी। लात तो जैसी तुम्हें लगती है, उससे
ज्यादा लगेगी सारिपुत्र को। क्योंकि जितना संवेदनशील व्यक्ति होगा, जितना जागरूक व्यक्ति होगा, उतना ही उसका बोध भी
प्रगाढ़ होता है।
शराबी
को लात मार दो,
तो शायद लगे भी नहीं। पता भी न चले। दूसरे दिन तुम पूछो कि भई,
रात तुम जा रहे थे रास्ते पर और हमने लात मारी थी। वह कहेगा : हमें
पता नहीं। कैसी रात! कैसे तुम! कैसे हम! रात का कहां किसको पता है! जरा ज्यादा पी
गए थे। शराबी को पता ही नहीं चलता, क्योंकि शराबी मूर्च्छित
है।
तुम
घर भागे आ रहे हो। किसी ने कह दिया है कि तुम्हारे घर में आग लग गयी है! और तुम
भागे हो बाजार से दुकान बंद करके बेतहाशा। और किसी ने तुम्हें पीछे से लात आकर मार
दी। तुम्हें शायद पता भी न चले। क्योंकि तुम्हारा मन तो सारा का सारा तुमसे पहले
भाग गया है। वह वहा पहुंच गया है, जहां मकान में आग लगी है। वह तो लपटों को देख
रहा है। तुम वहां हो ही नहीं। तुम करीब—करीब मूर्च्छित हो। वहा तो शरीर ही है
मात्र; तुम्हारी आत्मा तो पंख पसारकर उड़ गयी है। तुम्हें याद
भी न रहे, पता भी न चले।
लेकिन
सारिपुत्र जैसे सम्यकरूप से जाग्रत व्यक्ति को कोई लात मारे, तो
पूरा—पूरा पता चलेगा। रत्तीभर नहीं चूकेगा। लेकिन सारिपुत्र ने पीछे लौटकर नहीं
देखा। बुद्ध की अनुशासना यही थी कि व्यर्थ को मत देखना।
वे
ध्यान में जागे,
ध्यान के दीए को सम्हाले चल रहे थे।
और
बुद्ध ने कहा है कि सदा ऐसे चलो, जैसे तुम्हारे हाथ में एक दीया है, जो जरा भी कंपे तो बुझ जाएगा। जिस पर हजार हवाओं के हमले हो रहे हैं। यह
लात भी हवा का एक झोंका है। दीए को उन्होंने और सम्हाल लिया होगा कि कहीं यह लात
का झोंका दीए को बुझा न दे। कहीं दीए की लौ कैप न जाए।
जिसको
इस भीतर के दीए की लौ को सम्हालने का मजा आ गया है, जो इसमें रसलीन हो गया है,
उसे फिर सारी दुनिया की बातें व्यर्थ हैं। फिर वह फिकर नहीं करता कि
कोई लात मार गया। उसकी फिकर कुछ और है। वह भीतर की संपदा को सम्हालता है—कि कहीं
इस लात मारने से उद्विग्न न हो जाऊं। कहीं क्रोध न आ जाए। कहीं उत्तेजना में कुछ
कर न बैठूं। क्योंकि कुछ भी कर लोगे उत्तेजना में—दीए से हाथ छूट जाएगा। दीया चूक
जाएगा। और जिसको वर्षों में सम्हाला है, वह क्षण में खोया जा
सकता है।
जब
आदमी पहाड़ की ऊंचाइयों पर चढ़ता है, तो जैसे—जैसे ऊंचाई बढ़ने लगती है,
वैसे—वैसे सम्हलने लगता है, क्योंकि अब गिरने
में बहुत खतरा है। ध्यान रखना, सपाट जमीन पर चलने वाला आदमी
गिर सकता है, कोई बड़ी अड़चन नहीं है। खरोंच—वरोंच लगेगी थोड़ी।
मलहम—पट्टी कर लेगा। ठीक हो जाएगी। लेकिन जैसे—जैसे पहाड़ की ऊंचाई पर पहुंचने लगता
है।
अब
तुम गौरीशंकर के शिखर पर इस तरह नहीं चल सकते, जैसे तुम पूना की सड़क पर चलते हो।
तुम्हें एक—एक श्वास सम्हालकर लेनी पड़ेगी। और एक—एक पैर जमाकर चलना होगा। क्योंकि
वहां से गिरे, तो गए। वहां से गिरे, तो
फिर सदा को गए। खरोंच नहीं लगेगी, सब समाप्त ही हो जाएगा।
ऐसी
ही अंतरदशा ध्यान में भी आती है। ध्यान के शिखरों पर जब तुम चलने लगते हो, तब बहुत
सम्हलकर चलना होता है।
सारिपुत्र
उन ध्यान के शिखरों पर है,
जहां से गिरा हुआ आदमी बुरी तरह भटक जाता है जन्मों—जन्मों के लिए।
अब कोई लात मार गया, इसमें कुछ मूल्य ही नहीं है। इसका कोई
अर्थ ही नहीं है। ऐसी घड़ी में उद्विग्न नहीं हुआ जा सकता।
तुम
जल्दी से उद्विग्न हो जाते हो, क्योंकि तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं है। याद
रखना, तुम इसीलिए उद्विग्न हो जाते हो। तुम्हारे पास खोने को
कुछ नहीं है। उद्विग्न होने में तुम्हारा कुछ हर्जा नहीं है। खरोंच लगेगी
थोड़ी—बहुत। ठीक है। लेकिन सारिपुत्र के लिए महंगा सौदा है। खरोंच ही नहीं लगेगी;
सब खो जाएगा। जन्मों—जन्मों की संपदा खो जाएगी। हाथ आते— आते खजाना
खो जाएगा।
वे
ध्यान में जागे,
ध्यान के दीए को सम्हाले चल रहे थे, सो वैसे
ही चलते रहे। उलटे मन ही मन वे प्रसन्न भी हुए, क्योंकि
साधारणत: ऐसी स्थिति में मन डावाडोल हो उठे, यह स्वाभाविक
है। और देखा कि मन डावाडोल नहीं हुआ है। लात लगी—और नहीं लगी। चोट पड़ी—और चोट नहीं
हुई। हवा का झोंका आया और गुजर गया। अकंप थी ज्योति, अकंप ही
रही। प्रमुदित हो गए होंगे, प्रफुल्लित हो गए होंगे।
हृदय—कमल खुल गया होगा। कहा होगा अहोभाग्य!
स्वाभाविक
था—वह नहीं हुआ। जिस दिन स्वाभाविक जिसको हम कहते हैं, वह न हो,
उस दिन परम स्वभाव के द्वार खुलते हैं।
दो
तरह की स्थितियां हैं। एक : जिसको प्राकृतिक कहें। किसी को चोट की। लौटकर देखेगा।
नाराज होगा। और किसी को चोट की, और लौटकर भी न देखा, नाराज
भी न हुआ—जैसा था, वैसा रहा; जरा भी
कंपन न आया; लहर न उठी। यह दूसरी प्रकृति में प्रवेश हो गया।
एक
प्रकृति है देह की;
एक प्रकृति है आत्मा की। देह की प्रकृति में पहली बात घटेगी। आत्मा
की प्रकृति में जो उतरने लगा, उसे दूसरी बात घटेगी।
तो
प्रसन्न भी हुए। अब यह बात उलटी हो गयी। और यहीं से बुद्धत्व की शुरुआत है। दुखी
तो नहीं हुए। नाराज तो नहीं हुए। बड़े राजी हुए। बड़े प्रसन्न हुए। कि यह तो अदभुत
हुआ। मन नहीं डोला था। और ध्यान की ज्योति और भी घिर हो उठी थी।
जितनी
बड़ी चुनौती हो,
उतनी ध्यान की ज्योति थिर होती है। चूके, तो
बुरी तरह गिरोगे। नहीं चूके, तो अदभुत रूप से सम्हल जाओगे।
दोनों संभावनाएं हैं। पहाड़ से गिरे, तो गए। और पहाड़ पर थोड़े
और सम्हले, तो शिखर तुम्हारा हुआ, कि
तुम शिखर हुए।
उनके
भीतर इस भांति लात मारने वाले के लिए आभार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था।
वे
भीतर ही भीतर कह रहे होंगे धन्य है ब्राह्मण! तूने भला किया। तूने एक अवसर दिया।
मुझे पता ही नहीं था कि ज्योति इतनी भी थिर हो सकती है! तूने चुनौती दी। तू हवा का
झोंका क्या लाया,
मेरी परीक्षा ले ली। मैं तेरा अनुगृहीत हूं।
इस
घटना ने अंधे ब्राह्मण को तो जैसे आंखें दे दीं।
यह
लौटकर न देखना;
यह उसी मस्ती से चलते जाना, जैसे चल रहे थे;
जैसे कुछ हुआ ही नहीं। लात तो पीछे से मारी थी। दौड़कर आगे आया और
चरणों में गिर पड़ा।
खयाल
रखना. निंदा पीछे से की जाती है। केवल प्रशंसा करते समय ही तुम सामने खड़े हो सकते
हो। लात पीछे से मारी जा सकती है, लेकिन चरण पीछे से नहीं छुए जाते; कभी नहीं छुए जाते। चरण सामने से छूने होते हैं। जो झुक सकता है, वही ऐसे पुरुषों के सामने आ सकता है—सारिपुत्र जैसे पुरुषों के।
और
यह बड़ी अदभुत बात लगती है कि यह आदमी—ऐसा मिथ्या—दृष्टि, ऐसा
क्रोधी, ऐसा दुष्ट प्रकृति का, अकारण
लात मारी—यह इतने जल्दी बदल गया! अक्सर ऐसा होता है। जो जितना कठोर हो सकता है,
वह उतना ही कोमल भी हो सकता है। जो जितना विरोध में हो सकता है,
उतना ही पक्ष में भी हो सकता है। जो जितनी घृणा से भरा होता है,
वह उतने ही प्रेम से भी भर सकता है। बदलाहट केवल उनके ही जीवन में
नहीं होती, जो कुनकुने जीते हैं।
एक
यहूदी फकीर ने देश के सबसे बड़े धर्मगुरु को अपनी लिखी किताब भेजी। जिस शिष्य के
हाथ भेजी, उसने कहा. आप गलत कर रहे हैं। न भेजें, तो अच्छा।
क्योंकि वे आपके विरोध में हैं। वे आपको शत्रु मानते हैं।
यह
फकीर पहुंचा हुआ व्यक्ति था। लेकिन स्वभावत: धर्मगुरु इसको दुश्मन माने, यह
स्वाभाविक है। क्योंकि जब भी कोई पहुंचा हुआ फकीर होगा, तथाकथित
धर्म, तथाकथित धर्मगुरु, तथाकथित
पुरोहित—पंडे, स्थिति—स्थापक—सब उसके विरोध में हो जाएंगे।
वह
सबसे बड़ा धर्मगुरु था और उसके मन में बड़ा क्रोध था इस आदमी के प्रति, क्योंकि
यह आदमी पहुंच गया था। यही अड़चन थी। यही जलन थी।
लेकिन
फकीर ने कहा अपने शिष्य को. तू जा। तू सिर्फ देखना; ठीक—ठीक देखना कि क्या वहा
होता है और ठीक—ठीक मुझे आकर बता देना।
वह
किताब लेकर गया। फकीर का शिष्य जब पहुंचा धर्मगुरु के बगीचे में, धर्मगुरु
अपनी पत्नी के साथ बैठा बगीचे में गपशप कर रहा था। इसने किताब उसके हाथ में दी।
उसने किताब पर नाम देखा, उसी वक्त किताब को फेंक दिया। और
कहा कि तुमने मेरे हाथ अपवित्र कर दिए; मुझे स्नान करना
होगा। निकल जाओ बाहर यहां से!
शिष्य
तो जानता था—यह होगा।
तभी
पत्नी बोली. इतने कठोर होने की भी क्या जरूरत है! तुम्हारे पास इतनी किताबें हैं
तुम्हारे पुस्तकालय में,
इसको भी रख देते किसी कोने में। न पढना था, न
पढ़ते। लेकिन इतना कठोर होने की क्या जरूरत है! और फिर अगर फेंकना ही था, तो इस आदमी को चले जाने देते, फिर फेंक देते। इसी के
सामने इतना अशिष्ट व्यवहार करने की क्या जरूरत है!
शिष्य
ने यह सब सुना;
अपने गुरु को आकर कहा। कहा कि पत्नी बड़ी भली है। उसने कहा. किताब को
पुस्तकालय में रख देते। हजारों पुस्तकें हैं, यह भी पड़ी
रहती। उसने कहा कि अगर फेंकना ही था, तो जब यह आदमी चला जाता,
तब फेंक देते। इसी के सामने यह दुर्व्यवहार करने की क्या जरूरत थी!
लेकिन धर्मगुरु बड़ा दुष्ट आदमी है। उसने किताब को ऐसे फेंका, जैसे जहर हो; जैसे मैंने सांप—बिच्छू उसके हाथ में
दे दिया हो।
तुम्हें
पता है, उस यहूदी फकीर ने क्या कहा! उसने अपने शिष्य को कहा. तुझे कुछ पता नहीं
है। धर्मगुरु आज नहीं कल मेरे पक्ष में हो सकता है। लेकिन उसकी पत्नी कभी नहीं
होगी।
यह
बड़ी मनोवैज्ञानिक दृष्टि है।
पत्नी
व्यावहारिक है—न प्रेम,
न घृणा। एक तरह की उपेक्षा है—कि ठीक, पड़ी
रहती किताब। या फेंकना था, बाद में फेंक देते। उपेक्षा है। न
पक्ष है, न विपक्ष है। जो विपक्ष में ही नहीं है, वह पक्ष में कभी न हो सकेगा।
उस
यहूदी फकीर ने ठीक कहा कि पत्नी पर मेरा कोई वश नहीं चल सकेगा। यह धर्मगुरु तो आज
नहीं कल मेरे पक्ष में होगा। और यही हुआ।
जैसे
ही शिष्य चला गया,
वह धर्मगुरु थोड़ा शांत हुआ, फिर उसे भी लगा कि
उसने दुर्व्यवहार किया। आखिर फकीर ने अपनी किताब भेजी थी इतने सम्मान से, तो यह मेरी तरफ से अच्छा नहीं हुआ। उठा, किताब को
झाड़ा—पोंछा। अब पश्चात्ताप के कारण किताब को पढा—कि अब ठीक है; जो हो गयी भूल, हो गयी। लेकिन देखूं भी तो कि इसमें
क्या लिखा है!
पढा—तो
बदला। पढा—तो देखा कि ये तो परम सत्य हैं इस किताब में। वही सत्य हैं, जो सदा से
कहे गए हैं। एस धम्मो सनंतनो। वही सनातन धर्म, सदा से कहा
गया धर्म इसमें है। अभी किताब फेंकी थी; घडीभर बाद झुककर उस
किताब को नमस्कार भी किया।
उस
यहूदी फकीर ने ठीक ही कहा कि धर्मगुरु पर तो अपना वश चलेगा कभी न कभी। लेकिन उसकी
पत्नी पर अपना कोई वश नहीं है। उसकी पत्नी को हम न बदल सकेंगे।
इसलिए
अक्सर ऐसा हो जाता है। मनोविज्ञान की बड़ी जटिल राहें हैं।
इस
घटना ने अंधे को आंखें दे दीं। वह सारिपुत्र के चरणों में गिर पड़ा और प्रार्थना की
कि मेरे घर चलें। भोजन करें। मेरा स्वागत—सत्कार स्वीकार करें। उसकी आंखें
पश्चात्ताप के आंसुओ से भरी थीं। और वे आंसू उसके सारे कल्मष को बहाकर उसकी आत्मा
को निर्मल कर रहे थे।
आंखें
आंसुओ से भर जाएं,
तो और इससे बड़ी निर्मल करने वाली कोई और विधि नहीं है। पश्चात्ताप
उमड़ आए, तो सब पाप धुल जाते हैं। पश्चात्ताप सघन हो जाए,
तो तुम्हारे भीतर जो भी कूडा—करकट है, पश्चात्ताप
की सघन अग्नि में जल जाता है। इसलिए जीसस ने तो पश्चात्ताप को, रिपेंटेंस को धर्म की सबसे बड़ी कीमिया कहा है। बाइबिल में जगह—जगह वे
दोहराते हैं, रिपेंट! पश्चात्ताप करो। डूबो पश्चात्ताप में।
जितने डूब जाओगे पश्चात्ताप में, उतने ही ताजे होकर निकलोगे।
पश्चात्ताप में स्नान हो जाता है। पश्चात्ताप में पाप विसर्जित हो जाते हैं। गंगा
में नहाने से शायद न हों, लेकिन पश्चात्ताप में नहाने से
निश्चित हो जाते हैं।
उसकी
आंखें पश्चात्ताप के आंसुओ से भरी थीं। और वे आंसू उसके सारे कल्मष को बहाकर उसकी
आत्मा को निर्मल कर रहे थे।
इस
तरह सारिपुत्र के निमित्त उस पर पहली बार बुद्ध की किरण पड़ी।
जो
बुद्ध के शिष्य से मिल गया,
वह बुद्ध से भी मिल गया। बुद्ध अगर सूर्य हैं, तो उनके शिष्य सूर्य की किरणें हैं। सारिपुत्र के निमित्त यह बात घट गयी।
यह ब्राह्मण बुद्ध का हो गया। सारिपुत्र जब ऐसा है, तो बुद्ध
कैसे होंगे!
लेकिन
भिक्षुओं को सारिपुत्र का व्यवहार नहीं जंचा। उन्होंने भगवान से कहा आयुष्मान
सारिपुत्र ने अच्छा नहीं किया, जो कि मारने वाले ब्राह्मण के घर भी भोजन किया।
वह अब किसे बिना मारे छोड़ेगा! वह तो भिक्षुओं को मारते ही विचरण करेगा। यह सामान्य
आदमी का तर्क है। इस तर्क के पार जाना जरूरी है।
शास्ता
ने भिक्षुओं से कहा. भिक्षुओ! ब्राह्मण को मारने वाला ब्राह्मण नहीं हो सकता। पहली
बात। गृहस्थ—ब्राह्मण द्वारा श्रमण—ब्राह्मण मारा गया होगा। झूठे ब्राह्मण द्वारा
सच्चा ब्राह्मण मारा गया होगा। लेकिन जो मारता है अकारण, बिना कुछ
वजह के, वह ब्राह्मण नहीं हो सकता। और सारिपुत्र ने वही किया,
जो ब्राह्मण के योग्य है। फिर तुम्हें पता भी नहीं है कि सारिपुत्र
के ध्यानपूर्ण व्यवहार ने एक अंधे आदमी को आंखें प्रदान कर दी हैं।
तब
उन्होंने ये सूत्र कहे हैं।
'ब्राह्मण के लिए यह कम श्रेयस्कर नहीं है कि वह प्रिय पदार्थों को मन से
हटा लेता है। जहां—जहां मन हिंसा से निवृत्त होता है, वहां—वहां
दुख शांत होता है।’ समझना। तुम्हारे मन में हिंसा क्यों उठती
है? कब उठती है त्र' तभी उठती है,
जब तुमसे तुम्हारा कोई प्रिय पदार्थ छीना जाता है। तभी उठती है,
जब कोई तुम्हारे और तुम्हारे प्रिय पदार्थ के बीच में आ जाता है।
समझो, अगर
सारिपुत्र को अपनी देह से बहुत मोह होता, तो यह लात कारगर हो
गयी होती। ब्राह्मण जीत गया होता, मारने वाला ब्राह्मण जीत
गया होता। अगर देह से बहुत मोह होता, तो फिर असंभव था कि
बिना लौटे देखे और सारिपुत्र आगे बढ़ जाए। फिर असंभव था कि ध्यान का दीया जला रह
जाए। फिर असंभव था कि सारिपुत्र क्षुब्ध न होता। हजार तरंगें उठ आतीं। वे नहीं
उठीं। क्यों? क्योंकि देह से कोई मोह नहीं है; देह से कोई तादात्म्य नहीं है।
तुम
तभी नाराज होते हो,
जब तुमसे कोई तुम्हारी प्रिय वस्तु छीनता है या प्रिय वस्तु नष्ट
करता है।
बुद्ध
के एक शिष्य थे पूर्णकाश्यप। वे ज्ञान को उपलब्ध हो गए; बुद्धत्व
पा लिया। तो बुद्ध ने कहा. पूर्ण! अब तू बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया, अब तू जा और जो तूने पाया है, उसे बांट। अब तू
दूर—दूर जा, दूर—दूर देश। और जहां—जहां खबर पहुंचा सके,
पहुंचा।
पूर्ण
राजी हुआ। उसने कहा. आपकी आज्ञा है, तो मैं जाता हूं।
बुद्ध
ने पूछा किस तरफ जाएगा?
कहां जाएगा?
तो
उसने कहा : एक प्रदेश है बिहार का—सूखा प्रदेश, वहा कोई भिक्षु कभी नहीं गया। मुझे
आप वहीं जाने की आज्ञा दें। क्या वहां के लोग आपसे वंचित ही रह जाएंगे!
बुद्ध
ने कहा सुन पूर्ण! वहा कोई इसीलिए नहीं गया कि वहा के लोग बड़े दुष्ट हैं। तू वहा
जाएगा, तो गालिया खानी पड़ेगी। लांछन सहने पड़ेंगे। हजार तरह की निंदा। उनका
व्यवहार बडा असभ्य है।
पूर्ण
ने कहा फिर भी उनके लिए किसी की जरूरत है। उनके लिए आपकी जरूरत है। उनको भी जरूरत
है कि बुद्ध की किरण वहां पहुंचे। मैं वहा जाऊंगा। बुद्ध ने कहा. तो फिर तू कुछ
सवालों के जवाब दे दे। एक,
अगर वे गालियां देंगे, तो तुझे क्या होगा?
तो
पूर्ण ने कहा. क्यों आप पूछते हैं! आप जानते हैं, मुझे क्या होगा। मुझे वही
होगा, जो आपको होगा। क्योंकि अब मैं आपसे भिन्न नहीं हूं।
फिर भी आप पूछते हैं, तो मैं कहता हूं। मुझे ऐसा होगा कि ये
लोग कितने भले हैं। सिर्फ गालियां ही देते हैं, मारते नहीं।
मार भी सकते थे।
बुद्ध
ने कहा. दूसरा सवाल। और अगर वे मारें, तो तुझे क्या होगा?
पूर्ण
ने कहा मुझे यही होगा कि लोग बड़े भले हैं कि मारते हैं, मार ही
नहीं डालते! मार डाल भी सकते थे।
बुद्ध
ने कहा. तीसरा और आखिरी सवाल कि अगर वे मार ही डालें, तो आखिरी
क्षण में सांस टूटते वक्त तुझे क्या होगा?
पूर्ण
ने कहा. यही होगा कि लोग बड़े भले हैं, उस जीवन से छुटकारा दिलवा दिया,
जिसमें कोई भूल—चूक हो सकती थी।
'ब्राह्मण के लिए यह कम श्रेयस्कर नहीं है कि वह प्रिय पदार्थों को मन से
हटा लेता है। जहां—जहां मन हिंसा से निवृत्त होता है, वहा—वहा
दुख शांत हो जाता है।’ 'न जटा से, न
गोत्र से, न जन्म से कोई ब्राह्मण होता है। जिसमें सत्य और
धर्म है, वही शुचि और ब्राह्मण है।’
धर्म
कहने से ही काम चलना चाहिए था, लेकिन बुद्ध ने दो शब्द उपयोग किए—सत्य और
धर्म।
यम्हि सच्चज्च
धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो ।।
क्यों? धर्म सबके पास है। धर्म यानी
तुम्हारा अंतरतम स्वभाव; तुम्हारा अंतरतम; तुम जो अपनी मूल प्रकृति में हो, वही है धर्म। धर्म
सबके भीतर है। जिसे पता हो जाता है, उसके भीतर सत्य भी होता
है।
धर्म
तो सबके भीतर है। धर्म को जिसने जागकर देख लिया, वह सत्य को उपलब्ध हो गया।
ब्राह्मण
सभी हैं, लेकिन बीज में हैं। जब बीज फूटकर वृक्ष बन जाता है, तो
सत्य। स्वभाव को जान लिया, पहचान लिया भर आंख। आमने—सामने
खड़े होकर देख लिया; साक्षात कर लिया स्वभाव का, तो सत्य।
इसलिए
बुद्ध ने दो शब्दों का उपयोग किया, 'जिसमें सत्य और धर्म है……।’
धर्म
तो सबमें है। उतना ही तुममें है, जितना बुद्ध में है। लेकिन तुममें सत्य नहीं
है। तुम्हें सत्य का पता नहीं है। तुमने अभी धर्म का साक्षात्कार नहीं किया है।
धर्म को जागकर जान लेने का नाम सत्य का साक्षात्कार है। ऐसे साक्षात्कार से शुचिता
पैदा होती है, स्वच्छता पैदा होती है। वही शुचिता
ब्राह्मणत्व है।
'हे दुर्बुद्धि, जटाओं से तेरा क्या बनेगा? मृगचर्म पहनने से तेरा क्या होगा? तेरा अंतर तो
विकारों से भरा है, बाहर क्या धोता है?'
लोग
बाहर ही धोने में लगे हैं! ऐसा नहीं कि बाहर धोना कुछ बुरा है। धोना तो सदा अच्छा
है। कुछ न धोने से बाहर धोना भी अच्छा है। लेकिन बाहर धोने में ही समाप्त हो जाना
अच्छा नहीं है। भीतर भी बहुत कुछ धोने को है। जब तुम गंगा में स्नान करते हो, तो बाहर
ही साफ होते हो; भीतर नहीं हो सकते। जब तक ध्यान की गंगा में
स्नान न करो, तब तक भीतर साफ न हो सकोगे। ऊपर—ऊपर साफ कर
लोगे। बुराई कुछ नहीं है इसमें, लेकिन भलाई भी कुछ खास नहीं
है।
भीतर
कैसे कोई साफ होता है?
भीतर किस जल से कोई साफ होता है? ध्यान के जल
से। भीतर का विकार क्या है? विचार भीतर का विकार है। भीतर मल
का मूल कारण विचार है। जितने ज्यादा विचार, उतना ही भीतर
चित्त मलग्रस्त होता है। जब विचार क्षीण होते, विचार शांत हो
जाते, कोई विचार नहीं रह जाता, भीतर
सन्नाटा छा जाता है, उसी सन्नाटे का नाम है— भीतर धोना। और
जो भीतर अपने को धो लेता है, वही ब्राह्मण है।
'जो सारे संयोजनों को काटकर भयरहित हो जाता है, और
संग और आसक्ति से विरत हो जाता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता
हूं।’
'जो सारे संयोजनों को काटकर......।’
हमने
जीवन को जो बना रखा है,
वह सब संयोजन है। किसी को पत्नी मान लिया है—यह एक संयोजन है। कोई
तुम्हारी पत्नी है नहीं, न कोई तुम्हारा पति है। कैसे कोई
पति—पत्नी होगा? तुम कहते हो. नहीं, आप
भी क्या बात कहते हैं! पुरोहित के सामने, अग्नि की साक्षी
में सात फेरे लिए हैं! सात नहीं, तुम सत्तर लो, फेरे लेने से कोई पति—पत्नी होता है?
एक
सज्जन अपनी पत्नी से छूटना चाहते थे। वे मेरे पास आए थे। वे कहने लगे. कैसे छूटूं!
सात फेरे लिए हैं। मैंने कहा : उलटे सात फेरे ले लो। और क्या करोगे! छूटना ही हो
तो छूट जाओ।
फेरे
से कोई कैसे बंधेगा?
यह सब संयोजन है। यह तरकीब है। ये फेरे, यह आग,
ये मंत्र, यह पंडित, यह
पुरोहित, यह भीड़— भाड़, यह बारात,
यह घोड़े पर बैठना, ये बैंड—बाजे—ये सब तरकीबें
हैं, ये संयोजन हैं तुम्हारे मन में यह बात गहरी बिठाने के
लिए कि अब तुम पति हो गए; यह पत्नी हो गयी।
मगर
ये सब संयोजन हैं।
'जो सारे संयोजनों को काटकर भयरहित हो जाता है.।’
संयोजन
कटे, तभी कोई भयरहित होता है। नहीं तो मेरी पत्नी है, कहीं
चली न जाए; मेरा पति है, कहीं छोड़ न दे,
मेरा बेटा है, कहीं बिगड़ न जाए—तो हजार
चिंताएं और हजार भय उठते हैं। मेरा शरीर है, कहीं मौत न आ
जाए; कहीं मैं का न हो जाऊं!
यहां
कुछ भी मेरा नहीं है। जिसने सारे मेरे के संबंध तोड़ दिए, जिसने
जाना कि यहां मेरा कुछ भी नहीं है, उसे एक और बात पता चलती
है कि मैं भी नहीं हूं। मैं मेरे का जोड है। हजार मेरे को जुड़कर मैं बनता है। जैसे
छोटे—छोटे धागों को बुनते जाओ, बुनते जाओ, मोटी रस्सी बन जाती है। ऐसे मेरे के धागे जोड़ते जाओ, जोड़ते जाओ, उन्हीं धागों से मैं की मोटी रस्सी बन
जाती है।
सब
संयोजनों को जो छोड़ देता है, उसका पहले मेरे का भाव छूट जाता है, ममत्व। और एक दिन अचानक पाता है कि मैं तो अपने आप मर गया! एक—एक धागा
निकालते गए रस्सी से। रस्सी दुबली—पतली होती चली गयी।
निकालते—निकालते
एक दिन जब आखिरी धागा निकल जाएगा, रस्सी नहीं बचेगी। फिर कोई भय नहीं है। मरने के
पहले मर ही गए! फिर भय क्या? मैं हूं ही नहीं—इस भाव—अवस्था
को बुद्ध ने अनत्ता कहा है। यह जान लेना कि मैं नहीं हूं शून्य है—यही निर्वाण है।
बुद्ध
कहते हैं ऐसे निर्वाण को जो उपलब्ध हुआ—संग, आसक्ति से मुक्त, भयरहित—उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।
ब्राह्मण
की जैसी प्यारी परिभाषा बुद्ध ने की है, वैसी किसी ने भी नहीं की है।
ब्राह्मणों ने भी नहीं की है! ब्राह्मणों के शास्त्रों में भी ब्राह्मण की ऐसी
अदभुत परिभाषा नहीं है। वहा तो बड़ी क्षुद्र परिभाषा है—कि जो ब्राह्मण के घर में
पैदा हुआ!
ब्राह्मण
के घर में पैदा होने से क्या होगा? इतना आसान नहीं है ब्राह्मण होना!
ब्राह्मण होना बड़ी गहन उपलब्धि है। महान उपलब्धि है। निखार से होती है। जिंदगी को
संवारने से होती है, स्वच्छ, शुद्ध
करने से होती है। जिंदगी को आग में डालने से होती है, तपश्चर्या
से होती है, साधना से होती है। ब्राह्मणत्व सिद्धि है,
ऐसे जन्म में मुक्त नहीं मिलती है।
दूसरा
दृश्य:
राजगृह में धनंजाति नाम की एक ब्राह्मणी
स्रोतापति— फल प्राप्त करने के समय से किसी भी बहाने हो सदा नमो तस्स भगवतो अरहतो
सम्मासंबुद्धस्स कहती रहती थी।
यह
बुद्ध की प्रार्थना है। यह बुद्ध की अर्चना है। यह बुद्ध की उपासना का भाव है। नमो
तस्स भगवतो—नमस्कार हो उन भगवान को; नमस्कार हो उन अर्हत को; नमस्कार हो उन सम्यकरूप से संबोधि प्राप्त को। यह बुद्ध के प्रति नमस्कार
है। नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स।
कोई
भी बहाना मिले तो वह चूकतीं नहीं थी ब्राह्मणी धनजाति नाम की। छींक आ जाए, खांसी आ
जाए, फिसलकर गिर पड़े, तो वह तत्कण
कहती. नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स।
एक
दिन उसके घर भोज था। काम की भागा— भागी में उसका पैर फिसल गया। ब्राह्मणी थी; भोज में
सारे ब्राह्मण इकट्ठे थे सारा परिवार इकट्ठा था। पति था पति के सब भाई थे; रिश्तेदार थे। सम्हलते ही उसने तत्क्षण भगवान की वंदना की. नमो तस्स
भगवतों अरहतो सम्मासंबुद्धस्स— नमस्कार हो उन भगवान को नमस्कार हो उन अर्हत को
नमस्कार हो उन सम्मासंबुद्धस्स को।
इसे
सुनकर उसके पति के भाई भारद्वाज ने उसे बहुत डांटा नष्ट हो दुष्टा! जहां नहीं वहां
ही उस मुंडे श्रमण की प्रशंसा करती है। और फिर बोला. आज मैं तेरे उस श्रमण गौतम के
साथ शास्त्रार्थ करूंगा और सदा के लिए उसे समाप्त करूंगा; उसे हराकर
लौटूंगा।
ब्राह्मणी
हंसी और बोली. नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स। नमस्कार हो उन भगवान को
नमस्कार हो उन अर्हत को नमस्कार हो उन सम्यक संबोधि प्राप्त को। जाओ ब्राह्मण
शास्त्रार्थ करो। यद्यपि उन भगवान के साथ शास्त्रार्थ करने में कौन समर्थ है! फिर
भी तुम जाओ। इससे कुछ लाभ ही होगा। ब्राह्मण क्रोध और अहंकार और विजय की
महत्वाकांक्षा में जलता हुआ बुद्ध के पास पहुंचा। वह ऐसे था जैसे साक्षात ज्वर आया
हो। उसका सब जल रहा था। लपटें ही लपटें उसमें उठ रही थीं। लेकिन भगवान को देखते ही
शीतल वर्षा हो गयी। उनकी उपस्थिति में क्रोध बुझ गया। उनकी आंखों को देख उस
व्यक्ति को जीतने की नहीं उस व्यक्ति से हारने की आकांक्षा पैदा हो गयी। उसका मन
रूपांतरित हुआ। उसने कुछ प्रश्न पूछे— विवाद के लिए नहीं मुमुक्षा से। और भगवान के
उत्तरों को पा वह समाधान को उपलब्ध हुआ। समाधि लग गयी। फिर घर नहीं लौटा। बुद्ध का
ही हो गया। बुद्ध में ही खो गया। वह उसी दिन प्रव्रजित हुआ और उसी दिन अर्हत्व को
उपलब्ध हुआ।
ऐसी
घटना बहुत कम घटी है कि उसी दिन संन्यस्त हुआ और उसी दिन समाधिस्थ हो गया। उसी दिन
संन्यस्त हुआ और उसी दिन बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ। ऐसी घटना बहुत मुश्किल से घटती
है। जन्मों—जन्मों में भी बुद्धत्व फल जाए, तो भी जल्दी फल गया। यह तो चमत्कार
हुआ।
फिर
उसके भाई ब्राह्मणी के पति को भी बुद्ध पर भयंकर क्रोध आया जब उसे खबर लगी कि उसका
छोटा भाई संन्यस्त हो गया। वह भी भगवान को नाना प्रकार से आक्रोशन करता हुआ गाली
देता हुआ असभ्य शब्दों को बोलता हुआ वेणुवन गया। और वह भी भगवान के पास जा ऐसे बुझ
गया जैसे जलता अंगारा जल में गिरकर बुझ जाता है।
ऐसा
ही उसके दो अन्य भाइयों के साथ भी हुआ।
भिक्षु
भगवान का चमत्कार देख चकित थे वे आपस में कहने लगे. आवुसो! बुद्ध— गुण में बड़ा
चमत्कार है। ऐसे दुष्ट अहंकारी और क्रोधी व्यक्ति भी शांतचित्त हो संन्यस्त हो गए
हैं और ब्राह्मण— धर्म को छोड़ दिए हैं।
भगवान
ने यह सुना तो कहा भिक्षुओ! भूल न करो। उन्होंने ब्राह्मण धर्म नहीं छोड़ा है।
वस्तुत: पहले वे ब्राह्मण नहीं थे और अब ब्राह्मण हुए हैं।
तब
बुद्ध ने ये सूत्र कहे हैं:
छेत्वा नन्दिं वरत्तज्च सन्दामं सहनुक्कमं।
उक्खित्तपलिधं
बुद्धं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।
अक्कोसं बधबन्धज्व
अदुट्ठो यो तितिक्सति ।
खन्तिबलं बलानीकं तमहं
ब्रमि ब्राह्मण ।।
'जिसने नद्धा, रस्सी, सांकल को काटकर खूंटे को भी उखाड़ फेंका है,
उस बुद्धपुरुष को मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
'जो बिना दूषित चित्त किए गाली, वध और बंधन को सह
लेता है, क्षमा—बल ही जिसके बल का सेनापति है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
समझो
इस परिस्थिति को जिसमें इन सूत्रों का जन्म हुआ।
राजगृह
में धनजाति नाम की ब्राह्मणी स्रोतापत्ति—फल प्राप्त करने के समय से ही, किसी
बहाने हो, भगवान की वंदना किया करती थी।
स्रोतापत्ति—फल
का अर्थ होता है जो बुद्ध की धारा में प्रविष्ट हो गया, स्रोत में
आपन्न हो गया; जो बुद्ध की नदी में उतर गया। और जिसने कहा.
नदी, अब मुझे ले चल। जो बुद्ध की धारा में सम्मिलित हो गया
और बुद्ध के साथ बहने लगा, उसको कहते है—स्रोतापत्ति—फल।
और
अक्सर ऐसा हो गया है : जहां पुरुष दंभ में अकड़े खड़े रह जाते हैं, वहा
स्त्रियां छलांग लगा जाती हैं। सारा परिवार बुद्ध—विरोधी था, और यह ब्राह्मणी स्रोतापत्ति—फल को उत्पन्न हो गयी। यह गयी और बुद्ध के
चरणों में झुक गयी। क्योंकि स्त्रियां विचार से नहीं जीतीं, भाव
से जीती हैं। और भाव से संबंध जुड़ना आसान होता है, विचार की
बजाय। विचार दंभी है, अहंकारी है। भाव सदा समर्पित होने को
तत्पर है।
स्त्री
का हृदय बुद्धों से जल्दी जुड जाता है, बजाय पुरुषों के मस्तिष्क के।
पुरुष जीता है मस्तिष्क में; स्त्रियां धड़कती हैं हृदय में।
इसलिए अक्सर ऐसा हो गया है कि पुरुष अहंकार में अकड़े रहे हैं, स्त्रियां उनके पहले झुक गयी हैं।
तो
यह स्रोतापत्ति—फल को प्राप्त जिस दिन से हुई थी, उसी दिन से इसका स्मरण एक
था, इसका जाप? एक था; उठते—बैठते—सोते, हर जगह एक ही बात कहती थी : नमो
तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स।
इस
मंत्र को भी समझ लेना। नमस्कार हो उन भगवान को, उन सम्यक संबोधि प्राप्त को,
उन अर्हत को।
अर्हत
का अर्थ होता है जिसके भीतर के सारे शत्रु मर गए। काम, क्रोध,
लोभ, मोह—ये अरि कहे गए हैं। अरि यानी शत्रु।
सब अरि हत हो गए; सब अरि मर गए। जिसके भीतर अब काम, क्रोध, लोभ, मोह, कुछ भी नहीं बचे, जो निर्विकार हुआ, वह है अर्हत। अर्हत कैसे निर्विकार होता है? सम्यक
संबोधि से, ठीक—ठीक समाधि से।
ठीक—ठीक
समाधि क्या है?
तुम कहोगे समाधि भी क्या गैर—ठीक और ठीक होती है? गैर—ठीक भी होती है, और ठीक भी होती है। गैर—ठीक
समाधि का अर्थ होता है. मूर्च्छित समाधि, एक तरह की निद्रा,
एक तरह की सुषुप्ति। आदमी मूर्च्छित हो जाता है समाधि में, तो गैर—ठीक समाधि।
तुमने
सुना होगा. कोई योगी बैठ जाता है जमीन पर और महीनेभर बैठा रहता है, कि
सप्ताहभर बैठा रहता है। वह क्या करता है वहां? वह मूर्च्छित
हो जाता है। वह सांस को अवरुद्ध करके अपनी चेतना खो देता है। जितनी देर चेतना खोयी
रहती है, उतनी देर तक वह जमीन के नीचे रह सकता है।
असम्यक
समाधि है। यह जबर्दस्ती है। इस योगी में तुम कोई गुण न देखोगे। यह तुम्हें रास्ते
पर चलता मिल जाएगा,
तो तुम इसे साधारण आदमी पाओगे। और हो सकता है कि यह चमत्कार जो इसने
दिखाया, कुछ पैसे के लिए दिखा दिया हो। तुम इसमें बिलकुल
सामान्य आदमी देखोगे। इसमें कुछ विशिष्टता नहीं होगी। इसने केवल विधि सीख ली है।
इसने अपने को आत्म—सम्मोहित करना सीख लिया है। यह किसी तरह अपने को गहरी मूर्च्छा
में उतारने की कला जान गया है। इसको समाधि नहीं कहना चाहिए। मगर इसको लोग समाधि कहते
हैं।
इसलिए
बुद्ध को समाधि में भेद करना पड़ा। बुद्ध ने कहा समाधि तो वही है कि होश बढ़े, घटे नहीं।
समाधि तो वही है कि पूरी चैतन्य की अवस्था हो, अपूर्व चैतन्य
का प्रकाश हो। और उस चैतन्य के प्रकाश में ही कोई सत्य को जाने।
ऐसी
मूर्च्छा में,
गड्डे में बैठकर कोई सत्य को थोड़े ही जान लेगा। यह तो एक तरह की
मादकता है। जैसे कोई क्लोरोफार्म में पड़ जाता है। क्लोरोफार्म में पड़ जाता है,
तो फिर उसका आपरेशन करने में कठिनाई नहीं आती। क्योंकि उसे कुछ पता
नहीं चलता।
कोई
चाहे तो इसी तरह की क्लोरोफार्म की दशा योग की प्रक्रियाओं से पैदा कर सकता है।
श्वास का ठीक—ठीक अभ्यास कर लेने पर, प्राणायाम का अभ्यास कर लेने पर,
अगर कोई श्वास को बाहर रोकने में समर्थ हो जाए, तो मूर्च्छित हो जाएगा। और इस मूर्च्छा को एक विधि से चलाया जाता है। वह
कहकर मूर्च्छित होगा कि मैं सात दिन तक मूर्च्छित रहूं। तो सात दिन के बाद
मूर्च्छा अपने से टूट जाएगी।
जैसे
तुमने अगर कभी कोशिश की हो कि रात तय करके सोए कि सुबह पाच बजे नींद खुल जाए; अगर तुम
ठीक से तय करके सोए, तो सुबह पांच बजे नींद खुल जाएगी।
हां, अगर ठीक
से तय नहीं किया, तो ही अड़चन होगी। तय करते वक्त ही सोचते
रहे कि अरे! कहां खुलती है? ये सब बातें हैं। अगर ऐसे पांच
बजे कहने से नींद खुलती होती, तो फिर अलार्म घड़ी की जरूरत
क्या थी! और मेरी नींद तो ऐसी है कि अलार्म से भी नहीं खुलती। पत्नी घसीटती है,
खींचती है, तब भी नहीं खुलती। ऐसे सोचने से
कहीं खुलने वाली है! लेकिन चलो, कहते हैं, तो देखें प्रयोग करके। सोच लिया कि पांच बजे नींद खुल जाएगी। नहीं खुलेगी।
क्योंकि तुमने सोचा ही नहीं; भाव ही नहीं किया।
कभी
शुद्ध मन से,
साफ मन से भाव कर लो, तुम चकित हो जाओगे। ठीक
पांच बजे—न मिनट इधर, न मिनट उधर।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि तुम्हारे भीतर भी एक घड़ी है—बायोलाजिकल क्लाक—जो भीतर चल रही है। उसी
घड़ी के हिसाब से तो हर अट्ठाइसवें दिन स्त्री को मासिक— धर्म हो जाता है। नहीं तो
कैसे पता चले कि अट्ठाइस दिन हो गए! उसी घड़ी के अनुसार तो नौ महीने में बच्चा पैदा
हो जाता है। नहीं तो कैसे पता चले कि नौ महीने पूरे हो गए? उसी घड़ी
के अनुसार तो तुम्हें ठीक वक्त रोज भूख लग आती है, नहीं तो
पता कैसे चले कि अब बारह बज गए और भूख लगने का समय हो गया! वही घड़ी काम कर रही है।
उस घडी का तुम उपयोग सीख जाओ, तो नींद समय पर खुल जाएगी;
अलार्म की जरूरत नहीं होगी। और नींद समय पर आ जाएगी। कोई
तंत्र—मंत्र करने की जरूरत नहीं होगी। भूख समय पर लग आएगी। सब समय पर होने लगेगा।
बाहर
की घड़ी ने एक बड़ा नुकसान किया है कि भीतर की घड़ी विस्मृत हो गयी है। तुमने देखा :
गाव में, जंगलों में लोगों को—घडी नहीं है लेकिन—समय का बड़ा बोध होता है। वे चार
बजे रात उठकर बता सकते हैं कि कितनी देर और लगेगी सुबह होने में। आधी रात बता सकते
हैं कि आधी रात बीत गयी। लेकिन जो आदमी घड़ी पर निर्भर हो गया है—हाथ में बंधी घड़ी
पर—उसकी हाथ की घड़ी खो जाए, फिर उसे कुछ पता नहीं चलता कि
कितना बजा है, या क्या मामला है। भीतर की घडी धीरे—धीरे
अवरुद्ध हो गयी है।
यह
जो असम्यक समाधि है,
इसमें तीन काम हो रहे हैं। एक तो श्वास की प्रक्रिया; दूसरी सम्मोहित करने की प्रक्रिया। और तीसरी बात : भीतर की घड़ी का उपयोग।
लेकिन इससे कोई बुद्ध नहीं होता। इस तरह के हठयोगी सामान्यजन होते हैं। उनके जीवन
में कोई भेद नहीं होता तुम्हारे जीवन से।
तो
बुद्ध ने सम्यक समाधि कहा है उसको, जिसमें कोई जबर्दस्ती न हो;
बिना जबर्दस्ती थोपे, जो समझपूर्वक, बोधपूर्वक फलित हो।
इस
मंत्र का अर्थ है जिसने अपने भीतर के शत्रुओं को सम्यक संबोधि से नष्ट कर दिया है।
और ऐसे ही व्यक्ति को बुद्ध— धर्म में भगवान कहा जाता है।
तो
ये तीनों शब्द बड़े सूचक हैं। अरिहत या अरिहंत—जिसने अपने भीतर के शत्रु मार डाले।
कैसे? सम्यक संबोधि से, चैतन्य से, ध्यान
से। और जिसके'भीतर ध्यान फल गया और शत्रु मर गए, उसके भीतर जो बच रहता है, वही भगवत्ता है।
यह
प्यारा मंत्र है। और इसका स्मरण जितना हो, उतना अच्छा है। तो यह ब्राह्मणी
कोई भी मौका आए, चूकती नहीं थी। छींक आए तो; खासी आए तो, फिसलकर गिर पडे तो। कुछ भी मौका मिले,
किसी भी निमित्त स्मरण करती थी भगवान का। उसके घर भोज था। उस दिन
पैर फिसलकर गिर पड़ी भागा— भागी में। सामान लाती होगी; परसती
होगी। सम्हलते ही उसने कहा. नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स।
इसे
सुनकर उसके पति के भाई भारद्वाज ने उसे बहुत डाटा। सारा परिवार विरोधी था बुद्ध
का।
ऐसा
रोज यहां होता है। जया बैठी होगी कहीं। उसके पति ने उसे अल्टीमेटम दे दिया है कि
अगर संन्यासी रहना है,
तो मेरा घर बंद। अगर मेरे घर आना है, तो
संन्यास की बात छोड़ दो। अब कुछ भी बिगड़ता नहीं है पति का उसके संन्यस्त होने से।
लेकिन दंभ को चोट लगती होगी; अहंकार को पीड़ा होती होगी। यह
बात भी बर्दाश्त नहीं की जा सकती कि मेरी पत्नी ध्यान में मुझसे आगे जा रही है,
कि मुझसे ज्यादा शांत हो रही है।
पति
का दंभ बड़ा भयंकर होता है। पत्नी किसी भी स्थिति में पति से आगे नहीं होनी चाहिए।
इसलिए तो लोग लंबी स्त्री से शादी नहीं करते। शरीर में भी लंबी नहीं होनी चाहिए।
हद्द हो गयी! पढ़ी—लिखी स्त्री को वर नहीं मिलते। क्योंकि वह कम पढ़ी—लिखी होनी
चाहिए। पुरुष का अहंकार!
अगर
पुरुष बी. ए. है,
तो वह पीएच डी. लड़की से शादी नहीं करेगा। वह कहेगा हम चपरासी मालूम
पड़ेंगे। तो लड़की कम से कम मैट्रिक हो, तो चलेगी। इसलिए
सदियों तक आदमी ने स्त्रियों को पढ़ने नहीं दिया। और इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है कि
स्त्रियों की लंबाई नीची क्यों रह गयी है। कोई कारण नहीं है। लंबाई उनकी पुरुषों
जैसी हो सकती है। लेकिन कोई पुरुष शादी करने को राजी नहीं है लंबी स्त्री से। तो
हर पुरुष अपने से ठिगनी स्त्री खोजता है। इसका परिणाम यह होता है कि जब बेटे पैदा
होते हैं, तो वे पुरुष के अनुसार लंबे हो जाते हैं। और जब
बेटी पैदा होती है, तो वह स्त्री के अनुसार छोटी हो जाती है।
फिर उस बेटी को भी अपने से लंबा पति मिलेगा। और इसी तरह सदियों से चल रहा है। तो
धीरे— धीरे पूरी नस्ल स्त्रियों की छोटी हो गयी है। बहुत लंबी स्त्रियों को शायद
पति ही न मिले होंगे! कठिन होता है। लंबी स्त्री तुम्हारे बगल में चलती हो,
कोई पूछे कि आप कौन? तो पत्नी है, कहने में जरा घबड़ाहट होती है।
पश्चिम
में स्त्रियां इसका बदला लेने लगी हैं। इसलिए ऊंची ऐडी के जूते पहनने पड़ रहे हैं।
वह सिर्फ बदला है पुरुष से—कि तुम क्या समझते हो! चलो, कोई बात
नहीं। हम ऐसे लंबे नहीं हैं, तो हम लंबी ऐडी का जूता पहनकर
तुम्हारे बराबर ऊंचाई कर लेंगे। पश्चिम में स्त्रियों की लंबाई बढ़ने लगी है। सौ,
दो सौ वर्ष में पश्चिम में स्त्री—पुरुषों की लंबाई बराबर हो जाएगी।
हर
बात में स्त्री छोटी होनी चाहिए। अब जया के पति को क्या कष्ट हो सकता है! पत्नी
कोई शराब नहीं पीने लगी है। कोई जुआ नहीं खेलने लगी है। पत्नी सिर्फ ध्यान कर रही
है। कभी—कभी भक्ति— भाव में होकर नाचती है। जया में गुण है मीरा जैसा। खिले—तो
मीरा हो जाए। इसके नाच से तकलीफ है। इसके गीत से तकलीफ है। इसकी प्रसन्नता से अड़चन
है। तो या संन्यास,
या घर से बाहर हो जाओ। घर से बाहर निकाल दिया है उसे!
अब
संन्यास जिसको फल गया है,
छोड़ना असंभव है। मैं भी समझाऊं, तो वह राजी
नहीं होगी। मैं भी उसे कहूं कि लौट जा वापस, तो अब वह वापस
नहीं लौटेगी। क्योंकि जिसे स्वाद लग गया है, अब वह पति को
छोडने को तैयार है, घर जाने को तैयार नहीं है।
अब
समझ लेना। गाली तो मुझ पर पड़ने वाली है। क्योंकि समझा यही जाएगा कि मैंने भड़काया
होगा। मैंने कहा होगा—छोड़ो। मैंने नहीं कहा है। लेकिन पति अपने आप धक्का दे रहा
है। पति अपने आप अपने परिवार को बरबाद कर रहा है। फिर कहता फिरेगा कि मैंने परिवार
बरबाद कर दिया है। अब बच्चे हैं, पत्नी घर से चली गयी, और
जिम्मेवार खुद हैं।
ऐसे
ही उस ब्राह्मणी का परिवार विरोध में रहा होगा। छिपाते होंगे इस बात को वे कि
हमारे घर की ब्राह्मणी,
हमारे घर की स्त्री बुद्ध के धर्म में सम्मिलित हो गयी है। छिपाकर
रखते होंगे। किसी को बताते नहीं होंगे। और यह अड़चन हो गयी कि सबके सामने, मेहमानों के सामने पैर फिसलकर गिरी और उसने कह दिया : नमो तस्स भगवतो
अरहतो सम्मासंबुद्धस्स। यह तो सारी बात खुल गयी। यह तो सबको पता चल गया कि यह
ब्राह्मणी अब ब्राह्मणी नहीं रही। इसने तो बुद्ध के धर्म को अंगीकार कर लिया है।
उसके
पति का छोटा भाई एकदम क्रुद्ध हो गया। उसने कहा. नष्ट हो दुष्टा। जहां नहीं, वहा ही उस
मुंडे श्रमण की प्रशंसा करती है।
तुम
सोच रखना, लोग मुझे ही गाली देते हैं, ऐसा नहीं। वे बुद्ध को
भी गाली दे रहे थे। वे कृष्ण को भी गाली दे रहे थे। वे महावीर को भी गाली दे रहे थे।
उनका काम ही गाली देना रहा है।
और
फिर बोला आज मैं तेरे उस श्रमण गौतम के साथ शास्त्रार्थ करूंगा और उसे हराऊंगा।
ब्राह्मणी
हंसी और बोली.।
हंसी!
हंसी इसलिए कि यह अच्छा ही हुआ। चलो, इस बहाने ही तुम चले जाओ। कभी कोई
दुश्मनी के बहाने भी बुद्ध के पास आ जाए, तो भी पास तो आया।
चलो, इसी बहाने सही। शायद इसी बहाने कोई किरण पकड़ ले। कोई
गंध पकड़ ले। शायद इसी बहाने बुद्ध से पहचान हो जाए। कौन जाने।
और
कभी—कभी ऐसा होता है कि जब आदमी क्रोध से उबलता होता है, तो ऐसा
होता है जैसे कि आग से लाल हो रहा लोहा, उस पर चोट पड़े तो
जल्दी रूपांतरण हो जाता है। ठंडे लोहे को नहीं बदला जा सकता है। गरम लोहे को बदला
जाता है। इसलिए लोहार पहले लोहे को गरम करता है। गरम लोहा बदला जा सकता है।
अब
यह भारद्वाज गरम लोहे की तरह चला बुद्ध की तरफ। उबल रहा है, सौ डिग्री
पर उसका पारा है। भाप बन रही है उसके भीतर। ब्राह्मणी हंसी होगी और उसने कहा. नमो
तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स। उसने कहा धन्य हो भगवान! खूब तरकीब निकाली। खूब
मुझे गिराया और मंत्र निकलवा दिया। और अब यह मेरा देवर चला तुम्हारे चक्कर में!
अच्छा हुआ। नमस्कार हो भगवान को, नमस्कार हो अर्हत को,
नमस्कार हो सम्यक सबुद्ध को।
और
उसने कहा. जाओ ब्राह्मण,
जाओ। शास्त्रार्थ करो। यद्यपि उन भगवान के साथ शास्त्रार्थ करने में
कौन समर्थ है? फिर भी तुम जाओ, कुछ भला
होगा। चलो, इस बहाने ही सही। दुश्मन की तरह ही जाओ। दोस्त की
तरह न जा सके, अभागे हो। चलो, दुश्मन
की तरह जाओ। यह भी भाग्य का क्षण बन सकता है।
ब्राह्मण
क्रोध और अहंकार और विजय की आकांक्षा में जलता हुआ बुद्ध के पास गया। वह ऐसे था, जैसे
साक्षात ज्वर हो; उसका सब जल रहा था। लेकिन भगवान को देखते
ही कुछ हुआ; जैसे शीतल वर्षा हो गयी।
कभी—कभी
ऐसा हो जाता है। ठीक त्वरा में कोई बात प्रवेश कर जाती है। कुनकुने आदमी नहीं बदले
जा सकते। ठंडे आदमी नहीं बदले जा सकते। लेकिन गरम आदमी बदले जा सकते हैं।
जो
बुद्ध के विरोध में इतना उत्तप्त हो सकता है—बिना बुद्ध को जाने, बिना
बुद्ध को पहचाने; जिसने कभी उन आंखों में नहीं झांका;
उस प्यारी देह को भी नहीं अच्छे थे वे लोग कि कम से कम उत्तप्त होते
थे।
जीसस
को लोगों ने सूली दी। अब अगर आएं, तो शायद उपेक्षा करें। और उपेक्षा ज्यादा बड़ी
सूली हो जाएगी।
बुद्ध
को लोगों ने गालियां दीं। ठीक था। गाली देने का मतलब ही यह होता है कि तुम
उद्विग्न तो हो गए। संबंध तो जुड्ने लगा। शत्रुता का सही। शत्रुता मित्रता में बदल
सकती है। शत्रुता भी एक तरह की मित्रता है।
उसकी
खबर घर पहुंची। ब्राह्मणी के पति को भी भयंकर क्रोध आया। उसने कहा. यह तो हद्द हो
गयी! मेरा भाई भी मेरे हाथ से गया। मेरी पत्नी तो पहले ही जा चुकी थी; मेरा भाई
भी मेरे हाथ से गया!
वह
भी भगवान को नाना प्रकार के आक्रोशन करता हुआ, रास्ते पर गालियां देता हुआ,
असभ्य शब्दों को बोलता हुआ वेणुवन गया, जहां
भगवान विहरते थे। और वह भी भगवान के पास जा ऐसे बुझ गया, जैसे
जलता अंगार जल में गिरकर बुझ जाता है। ऐसा ही उसके अन्य दो भाइयों के साथ भी हुआ।
भिक्षु भगवान का चमत्कार देख चकित थे।
चमत्कार
कुछ भी नहीं है। जल में अंगारा गिरे, बुझ जाए; चमत्कार
क्या है? स्वाभाविक है। अंगार का जलना स्वाभाविक है। जल का
शीतल होना स्वाभाविक है। फिर अंगार का जल में गिरकर बुझ जाना स्वाभाविक है। सब
स्वाभाविक है। कहने लगे. आवुसो! बुद्ध—गुण में बड़ा चमत्कार है। ऐसे दुष्ट, अहंकारी, क्रोधी व्यक्ति भी शांतचित्त हो संन्यस्त
हो गए हैं और ब्राह्मण— धर्म को छोड़ दिए हैं! भगवान ने कहा : भिक्षुओ, भूल न करो। उन्होंने ब्राह्मण— धर्म नहीं छोड़ा है। वस्तुत: पहले वे
ब्राह्मण नहीं थे और अब ब्राह्मण हुए हैं।
फिर
भी बुद्ध को यह देश समझ नहीं पाया। इस देश ने यही समझा कि बुद्ध ने हिंदू — धर्म
नष्ट कर दिया। बुद्ध इस पृथ्वी के सबसे बड़े हिंदू थे। उनसे बड़ा हिंदू न पहले पैदा
हुआ, न पीछे पैदा हुआ। मगर हिंदू नासमझ थे और चूक गए। बुद्ध ने ब्राह्मणत्व को
जो महिमा दी थी, वह किसी ने भी कभी नहीं दी है।
लेकिन
अक्सर यह भूल हो जाती है। अक्सर ऐसा हो जाता है।
जीसस
सबसे बड़े यहूदी थे पृथ्वी के। उनसे बड़ा कोई यहूदी न पहले हुआ, न पीछे
हुआ। लेकिन यहूदियों ने ही छोड़ दिया। फांसी लगा दी। बुद्ध सबसे बड़े हिंदू थे। और
हिंदुओं ने ही उनका त्याग कर दिया। और हिंदुस्तान से बुद्ध— धर्म को उखाड़ फेंका।
पता नहीं मनुष्य कब समझदार होगा! कब इसकी आंखें खुलेंगी! यह अपने घर में आयी संपदा
को अस्वीकार करने की इसकी पुरानी आदत है।
जीसस
ने कहा है : पैगंबर अपने गाव में नहीं पूजा जाता, अपने लोगों के द्वारा नहीं
पूजा जाता। इससे पैगंबर की कुछ हानि होती है, सो नहीं।
पैगंबर की क्या हानि होनी है! लेकिन वे लोग, जो सर्वाधिक
लाभान्वित हो जाते, सबसे ज्यादा वंचित रह जाते हैं।
'जिसने नद्धा, रस्सी, सांकल को
काटकर खूंटे को भी उखाड़ फेंका है, उस बुद्धपुरुष को मैं
ब्राह्मण कहता हूं।’
नद्धा
अर्थात क्रोध,
सांकल अर्थात मोह, रस्सी अर्थात लोभ और खूंटा
अर्थात काम। जिसने काम, क्रोध, मोह,
लोभ—इन चार को उखाड़ फेंका है।
'जिसने नद्धा, रस्सी, सांकल को
काटकर खूंटे को भी उखाड़ फेंका है...।’ सबकी जड़ खूंटे में
है—काम में। काम के कारण ही और सब चीजें पैदा होती हैं। इसे खयाल रखना। इसलिए काम
मूल जड़ है। शेष शाखाएं हैं वृक्ष की; फूल—पत्ते हैं। असली
चीज जड़ है—काम। क्यों?
क्योंकि
जब तुम्हारे काम में कोई बाधा डालता है, तो क्रोध पैदा होता है। जब
तुम्हारा काम सफल होने लगता है, तो लोभ पैदा होता है। जब
तुम्हारा काम सफल हो जाता है, तो मोह पैदा होता है।
समझो
उदाहरण के लिए,
तुम एक स्त्री को पाना चाहते हो। और एक दूसरे सज्जन प्रतियोगिता
करने लगे। तो क्रोध पैदा होगा। तुम प्रतियोगी को मारने को उतारू हो जाओगे। भयंकर
ईर्ष्या जगेगी। आग की लपटें उठने लगेंगी। अगर तुम स्त्री को पा लो, तो तुम चाहोगे कि जो तुम्हारी हो गयी है, वह अब सदा
के लिए तुम्हारी हो। कहीं कल किसी और की न हो जाए। तो लोभ पैदा हुआ। अब तुम्हारे
भीतर स्त्री को परिग्रह बना लेने की इच्छा हो गयी कि वह मेरी हो जाए। सब तरफ
द्वार—दरवाजे बंद कर दोगे। दीवाल के भीतर उसे बिठा दोगे। एक पींजडे में बिठा दोगे
और ताला लगा दोगे कि अब किसी और की कभी न हो जाए। लोभ पैदा हुआ। फिर जिससे सुख
मिलेगा, उससे मोह पैदा होगा। फिर उसके बिना एक क्षण न रह
सकोगे। जहां जाओगे, उसी की याद आएगी। चित्त उसी के आसपास
मंडराका। और इन सबके खूंटे में क्या है? काम है।
तो
बुद्ध कहते हैं. जिसने नद्धा—क्रोध उखाड़ फेंका; सांकल तोड़ दी—मोह उखाड़ फेंका;
रस्सी तोड दी—लोभ उखाड़ फेंका। और इतना ही नहीं; जो खूंटे को भी काटकर फेंक दिया है, उखाड़कर फेंक
दिया है, उस बुद्धपुरुष को मैं ब्राह्मण कहता हूं।
जिसके
भीतर काम नहीं रहा,
उसके भीतर ही राम का आविर्भाव होता है। यह काम की ऊर्जा ही जब और
सारे विषयों से मुक्त हो जाती है, तो राम बन जाती है। राम
कुछ और ऊर्जा नहीं है, वही ऊर्जा है। हीरा जब पड़ा है
कूड़े—करकट में और मिट्टी में दबा है, तो काम। और जब हीरे को
निखारा गया, साफ—सुथरा किया गया और किसी जौहरी ने हीरे को
पहलू दिए—तो राम।
काम
और राम एक ही ऊर्जा के दो छोर हैं। काम की ही अंतिम ऊंचाई राम है। और राम का ही
सबसे नीचे गिर जाना काम है।
'जो बिना दूषित चित्त किए गाली, वध और बंधन को सह
लेता है, क्षमा—बल ही जिसके बल का सेनापति है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
छेत्त्वा
नीन्द वरतज्च सन्दाम सहनुक्कमं ।
उक्खिएत्तपत्श्घिं
बुद्ध तमह ब्रूमि ब्राह्मणं ।।
अक्कोसं बधबन्धज्च
अदुद्वो यो तितिक्सति ।
खन्तिबलं बलानीक
तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।
ऐसे
व्यक्ति को मैं बुद्ध,
ऐसे व्यक्ति को मैं ब्राह्मण कहता हूं जिसने जीवन के सारे बंधन काट
डाले हैं, जो परम स्वतंत्रता को उपलब्ध हो गया है, जिसकी ऊर्जा पर अब कोई सीमा नहीं है; जिसको पंख लग
गए हैं।
नमो
तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स—जो भगवान हो गया है, जो अर्हत
हो गया है, जो सम्यक संबोधि को प्राप्त हो गया है, वही ब्राह्मण है।
इसलिए
बुद्ध ने कहा : भिक्षुओं,
ऐसी भ्रांति मत करो कि इन्होंने ब्राह्मण— धर्म छोड़ दिया। ये पहले
ब्राह्मण थे ही नहीं। अब पहली दफा ब्राह्मण हुए हैं। अब पहली दफा ब्रह्म से परिचित
हुए हैं। अब पहली दफा बुद्धत्व का स्वाद लगा है। मैंने इन्हें ब्राह्मण बनाया है।
काश!
यह बात हिंदू समझ पाते। काश! यह बात यह देश समझ पाया होता! तो इस देश का सबसे
प्यारा बेटा इस देश से निष्कासित नहीं होता। और इस देश को जो अपूर्व संपदा मिली थी, वह दूसरों
के हाथ न पड़ती।
हजारों
लोग चीन और जापान और थाईलैंड और बर्मा और कोरिया और लंका में बुद्ध के मार्ग पर
चलकर बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं। वे हजारों लोग यहां भी उपलब्ध हो सकते थे। लेकिन
यहां एक भ्रांति पकड़ गयी कि बुद्ध ब्राह्मण— धर्म विरोधी हैं।
बुद्ध
तथाकथित ब्राह्मणों के विरोधी थे। बुद्ध तथाकथित वेद और उपनिषदों के विरोधी थे।
लेकिन असली वेद और असली उपनिषद और असली ब्राह्मण का कोई कैसे विरोधी हो सकता है!
आज इतना ही।
Gud
जवाब देंहटाएंthank you guruji
जवाब देंहटाएं