जो बोले सो हरि कथा-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक २३ जुलाई,
१९८०
पहला प्रश्न: भगवान,
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्
दुःखभाग्भवेत।।
सब सुखी हों, सब निरोग हों, सब कल्याण को प्राप्त हों, कोई भी दुखभागी न हो।
आप्तपुरुषों का यह मंगल-वचन क्या कभी सच होगा?
पूर्णानंद!
यह तुम पर निर्भर है। यह तो आशीष है, लेकिन इसे पूरा करने
के लिए भूमिका तो तुम्हें जुटानी होगी।
जिन्होंने जाना है, उन्होंने तो चाहा है कि सभी जान
लें। जिन्होंने पाया है, उन्होंने प्रार्थना की है प्रभु को
कि सब को मिले। स्वाभाविक है कि जिन्होंने आनंद को पीया है, वे
जब तुम्हें दुख में डूबा हुआ देखते हैं, तो हैरान भी होते
हैं, पीड़ित भी होते हैं। हैरान इसलिए होते हैं कि दुख का कोई
भी कारण नहीं--और तुम दुखी हो!
दुख तुम्हारे झूठ आधारों पर निर्भर है। दुख के तुम स्रष्टा हो। कोई और
उसे बनाता नहीं; तुम ही रोज सुबह से सांझ मेहनत करते हो। जिस चिता में
तुम जल रहे हो, उसकी लकड़ियां तुमने जुटाई हैं। उसमें आग भी
तुमने लगाई है।
चीखते-चिल्लाते भी हो कि कैसे इस जलन से छूटूं, लेकिन हटते भी नहीं वहां से! सरकते भी नहीं! कोई सरकाना चाहे, तो दुश्मन मालूम होता है। कोई हटाना चाहे, तो तुम
उससे झगड़ने को तैयार हो। तुम्हारी चिता है! तुम्हारी संस्कृति है! तुम्हारा धर्म
है! तुम्हारे संस्कार हैं--कैसे तुम छोड़ दोगे! तुम्हारे शास्त्र हैं, कैसे तुम छोड़ दोगे! छाती से लगाए हुए हो--अपनी मौत को। और जब मैं
कहता--अपनी मौत को--तो मेरा अर्थ है: जो भी मर चुका है, उसे
जब तक तुम छाती से लगाए हो, तब तक सड़ोगे, परेशान होओगे।
आप्तपुरुष प्रार्थना करेंगे, आशीष देंगे। यूं तो
बरसा भी होती है, लेकिन घड़ा उलटा रखा हो, तो बरसा क्या करे! मेघ तो आए थे कि भर देते, मगर घड़ा
उलटा रखा था। और घड़ा सीधा होना न चाहे! उसके उलटे होने में भी मोह-आसक्तियां बन गई
हों। उलटे होने को ही उसने जीवन-चर्या समझ लिया हो! उलटा होना ही उसकी दृष्टि हो,
उसका दर्शन हो। उसका भरोसा हो कि शीर्षासन करने से ही परमात्मा
मिलता है--तो लाख बरसा करें बादल, चमकें बिजलियां, लेकिन घड़ा खाली का खाली रहेगा।
फिर कुछ घड़े हैं, जो उलटे भी नहीं हैं, मगर फूटे हैं। और उन्होंने फूटे होने में अपने न्यस्त-स्वार्थ जोड़ रखे
हैं। फूटे होने में वे गौरव का अनुभव करते हैं! छिद्रों को वे आभूषण मानते हैं! तो
लाख बरसा करें बादल, और घड़ा सीधा भी रखा हो, लेकिन सछिद्र हो, तो कैसे भरेगा? भरता भी रहेगा और खाली भी होता रहेगा।
एक सूफी फकीर के पास एक युवक ने आकर पूछा कि मैं बहुत दार्शनिकों के
पास गया हूं, बहुत मनीषियों का सत्संग किया है, लेकिन मेरी समस्याएं सुझलती नहीं। किसी ने मुझे आपके पास भेजा है। कहा है
कि वहां सुलझ जाएं, तो सुलझ जाएं, नहीं
तो फिर समझना कि सुलझेंगी ही नहीं। क्योंकि यह आखिरी व्यक्ति है, जो सुलझा दे तो सुलझा दे।
उस फकीर ने कहा कि तेरी समस्याएं पीछे सुलझाऊंगा। अभी तो मैं कुएं पर
पानी भरने जा रहा था। मगर यह हो सकता है कि तू भी मेरे साथ चल, और कौन जाने पानी भरते-भरते ही बात बन जाए तो बन जाए! तेरी समस्याएं भी
सुलझ जाएं--मेरा पानी भी भर जाए!
युवक तो समझा कि यह आदमी पागल है! इसके पानी भरने से और मेरी समस्याओं
का क्या संबंध? लाख यह पानी भरे, मेरी समस्याएं
इसने सुनीं भी नहीं अभी; पूछी भी नहीं! मैंने अभी कुछ कहा भी
नहीं कि मेरी तकलीफ क्या है, मेरी पीड़ा क्या है! और यह पानी
भरने से हल करने लगा! मैं भी किस पागल के पास आ गया! दूर से यात्रा करके आया!
जिन्होंने भेजा है, मालूम होता है, मजाक
किया है। लगता है: थक गए होंगे मेरे प्रश्नों से, तो इस
महामूढ़ के पास भेज दिया! लेकिन अब आ ही गया हूं, तो चलो,
इतना और सही। चार कदम और सही। कुएं तक और चला चलूं।
रास्ते में उस फकीर ने कहा, लेकिन एक शर्त खयाल
रखना। जब मैं पानी भरूं, तो बीच में मत बोलना। बोलना ही मत।
अगर इतनी संवर कर सके तू, इतना संयम कर सके तो मैं पक्का
वायदा करता हूं कि तेरी सारी समस्याओं को सुलझा दूंगा। समझ कि सुलझा ही दीं। तू
फिक्र छोड़। मगर इतना संयम तू दिखाना कि जब मैं पानी भरूं, तो
बीच में मत बोलना, चाहे लाख उत्तेजना उठे। जैसे खुजली उठती
है, ऐसी उठेगी उत्तेजना!
वह युवक भी सोचने लगा कि मेरी समस्याओं का इसको पता नहीं। कहां की
खुजली; कहां का पानी! ये बातें क्या कर रहा है! पर उसने कहा,
मैं क्यों बोलूंगा; तू भर पानी!
लेकिन मुश्किल हो गया--न बोलना मुश्किल हो गया। क्योंकि जब उस फकीर ने
बालटी अपनी कुएं में डाली, तो वह देख कर दंग रह गया। बालटी में छेद ही छेद थे!
जैसे छेदों से ही मिल कर बनायी गई हो! इस बालटी में कब पानी भरेगा! अनंतकाल में भी
नहीं भरने वाला है। पक्का पागल है यह आदमी--और मुझसे कहता है: बोलना मत! अब न
बोलूं तो कैसे! मगर फिर भी उसने कहा कि थोड़ी देर तो संयम रखूं। देखूं--यह करता
क्या है!
उस फकीर ने बालटी डाली। खड़खड़ाई बहुत। आवाज की बहुत कुएं में। और कुएं
में बालटी गई, तो छेद वाली थी, तो भी भर गई।
जब पानी में डूबी रही, तो भरी हुई रही। देख ली झांक कर उसने
कि बालटी भर गई है, फिर खींचना शुरू किया। इधर बालटी ऊपर उठी
पानी से कि पानी गिरना शुरू हुआ। बड़ा शोरगुल कुएं में मचा पानी के गिरने का। ऊपर
तक आते-आते बालटी फिर खाली हो गई थी। उसने फिर बालटी डाली। जब तीसरी बार उसने
बालटी डाली, उस युवक ने कहा, ठहरिए
महानुभाव! अब बहुत हो गया। बर्दाश्त की एक सीमा होती है। इस बालटी में
जन्मों-जन्मों तक पानी भरने वाला नहीं। मैं कब तक खड़ा रहूंगा! इस बालटी में पानी
भर सकता ही नहीं!
उस फकीर ने कहा, तुमने शर्त तोड़ दी। अब तुम
रास्ते लग जाओ। अब तुम बात ही मत उठाओ। मुझे तुमसे कुछ लेना-देना नहीं। तुममें
शिष्य होने की पात्रता ही नहीं है। मैंने कहा था--चुप रहना।
उस युवक ने कहा, तो मैं भी आपको कहे देता हूं कि
अगर यह शिष्य होने की पात्रता है, तो तुम्हें जिंदगी में कोई
शिष्य नहीं मिलेगा। कब तक चुप रहते! तीन बार देख चुका अपनी आंखों से। यह तो तीस
हजार बार में भी नहीं भरने वाली! गिनती का कोई सवाल ही नहीं है। यह जन्मों-जन्मों
में नहीं भरने वाली है।
उस फकीर ने कहा, अगर इतनी अकल तुझमें है, सच में अगर इतनी अकल तुझमें है, तो मेरे पास आने की
जरूरत ही न होती। लग--अपने रास्ते लग जा।
जब उसने यह कहा--युवक चल तो पड़ा, लेकिन रास्ते में
सोचने लगा: उसने बात तो पते की कही कि अगर इतनी अकल तुझमें होती! कुछ मामले में
राज तो मालूम पड़ता है। यह आदमी पागल तो मालूम होता है, लेकिन
सुना है कि कभी-कभी परमहंसों में भी पागलों जैसी लक्षणा होती है। कौन जाने--मैं
थोड़ी देर चुप ही रहता। देखता। आखिर यह भी तो थकता। मुझे तो खड़े ही रहना था;
इसको तो भरना भी था। खींचता, फिर गिराता;
फिर खींचता, फिर गिराता। इसको पहले थकने देना
था। और यह बूढ़ा आदमी, मैं जवान आदमी; मैं
देखने में थक गया। इतनी जल्दी क्या थी! थोड़ी देर रुक ही जाता घंटे दो घंटे!
रात भर सो न सका। सुबह ही वापस फकीर के पास पहुंच गया। पैरों पर गिरा
और कहा, मुझे माफ कर दो। मेरी भूल थी। मैं संयम न रख सका। मैं
शर्त पूरी न कर सका।
फकीर ने कहा, लेकिन मुझे कुछ और कहना नहीं है। इतना ही कहना है कि
बालटी फूटी हो, तो जन्मों-जन्मों तक भी कुएं से पानी भरो,
तो नहीं भरेगा। यह तुझे दिखाई पड़ गया। अब तू अपनी बालटी की फिक्र
ले। तेरी समस्याएं क्या हैं--तेरी बालटी का फूटा होना।
यूं तो अमृत प्रतिपल बरस रहा है; परमात्मा हर घड़ी
मौजूद है; रोशनी चारों तरफ तैर रही है--और तुम अंधेरे में
खड़े हो! जरूर आंख बंद होगी! और तुम चीख-पुकार मचा रहे हो कि बड़ा अंधेरा है! आंख भी
नहीं खोलते! आंख बंद करने में तुम्हारे न्यस्त स्वार्थ हैं। अंधे होने में तुम्हें
सुविधा है कुछ। आंख खोलने में तुम्हें डर है।
मुल्ला नसरुद्दीन ट्रेन में यात्रा कर रहा था। टिकिट चेकर आया। मुल्ला
से टिकिट पूछी उसने। सूटकेस खोल डाला; बिस्तरा खोल डाला।
एक-एक सामान उलट-पलट डाला। पूरे डब्बे में सामान फैला दिया। टिकिट चेकर भी घबड़ा
गया। उसने कहा कि भई मुझे पूरी ट्रेन के यात्रियों की टिकिटें देखनी है। अगर एक-एक
यात्री इतना समय ले! ऐसा क्या छिपा कर रखा है टिकिट! मामला क्या है? सारा बिस्तर खोल डाला। तकिए की खोल खींच कर बाहर निकाल ली, जैसे उसके अंदर टिकिट हो! बिस्तर में रखे एक-एक कोट-कमीज की जेबें टटोल
डालीं! तुम कर क्या रहे हो?
सारे कपड़े देख डाले। खुद के कपड़े जो पहने हुए थे वे देख डाले। और जब
वह टिकिट कलेक्टर की जेब में हाथ डालने लगा, तो उसने कहा, ठहर! तू बिलकुल पागल है। तेरी टिकिट मेरी जेब में कहां से होगी! और तू तो
ऐसा लगता है जैसे पूरी ट्रेन के आदमियों का सामान देखेगा! भाड़ में जाने दे टिकिट।
तू जा भैया। तुझे जहां जाना हो, जा! मगर एक बात पूछना है
तुझसे। कि तूने सब देख डाला, मगर यह तेरे कोट की जो ऊपर की
जेब है, यह तूने नहीं देखी?
उसने कहा, उसकी तो तुम बात ही मत उठाना। उस जेब को मैं कभी
देखूंगा ही नहीं। जब तक मेरी सांस चलती है, मैं उस जेब को
नहीं देखूंगा!
उसने कहा, क्यों? यह...!
तब तक तो पूरा डब्बा भी उत्सुक हो गया धीरे-धीरे। भीड़ लग गई कि बात
क्या है! आखिर इस जेब की क्या बात है! इसको क्यों नहीं देखते हो! दूसरों तक की
जेबें देखने लगा। टिकिट कलेक्टर की जेब में कहां से तेरा टिकिट हो सकता है! मगर
अपनी जेब नहीं देखता!
उसने कहा, देखो जी, यह है बात निजी। यह तो
सभ्य आदमियों को पूछनी नहीं चाहिए। असभ्यता है यह। मगर अब तुम जिद्द ही किए हो,
तो कहे देता हूं। यह जेब मैं जिंदा रहते नहीं देखूंगा, इसलिए नहीं देखूंगा कि यही जेब तो अब मेरी एकमात्र आशा है कि शायद इसमें
टिकिट हो! अगर इसको भी मैंने देख लिया और टिकिट न पाई, फिर
क्या होगा! अंतिम संभावना भी गई! पहले मुझे औरों की जेबें देख लेने दो। पूरा डब्बा
छानूंगा। ट्रेन पड़ी है। अरे कहीं भी सरक गई हो; इधर-उधर हो
गई हो। किसी ने उठाकर रख ली हो। इस जेब को तो मैं बचाए रखूंगा। इसमें मेरी सारी
आशा सुरक्षित है!
इस पर तुम हंसते हो, मगर यह तुम्हारी दशा भी है। कुछ
जेबें हैं, जो तुम कभी नहीं देखते। उनमें तुम्हारी आशा
सुरक्षित है। तुम डरते हो, तुम भयभीत होते हो।
मैं विद्यार्थी था, तो मेरे एक शिक्षक थे, जो बड़े आस्तिक थे। और उनसे मेरा लगाव था। तो उनके घर मैं पहुंच जाता था और
उनकी पूजा-प्रार्थना में संदेह खड़े करता कि आप यह क्या कर रहे हैं! यह पत्थर की
मूर्ति के सामने आप बैठे घंटी बजा रहे हैं! कुछ तो होश लाओ! ऐसे आप होशियार आदमी
हैं, बुद्धिमान आदमी हैं। आपको शरम नहीं आती, एक पत्थर की मूर्ति के सामने घंटी बजा रहे हो! अरे अगर मूर्ति भी घंटी
आपके सामने बजाए, तो भी शर्म आनी चाहिए कि यह मूर्ति और मेरे
सामने घंटी बजा रही है! तो भी बरदाश्त के बाहर हो जाना चाहिए। मगर तुम तो हद्द कर
रहे हो! मूर्ति तो कुछ करती नहीं; बैठी है गुमसुम। तुम घंटी
बजा रहे हो! और जनम हो गए तुम्हें घंटी बजाते, मिला क्या है?
वे आदमी सच्चे और ईमानदार थे। उन्होंने मुझसे कहा कि मिला तो कुछ भी
नहीं है। बात तो तुम ठीक कहते हो। मगर जिंदगी भर हो गया मुझे इसी पूजा में, अब तुम मत छेड़ो यह बात। अब मेरे संदेह पुनः मत जगाओ। अब मैं बूढ़ा होने के
करीब हूं, अब यह मौत कब मेरे द्वार पर आ जाएगी, पता नहीं। तुम्हें देख कर मैं डरता हूं। तुम आते हो, तो कुछ संदेह खड़ा कर जाते हो। तुम तो फिर चले जाते हो; तुम्हें तो कुछ फिक्र नहीं पड़ी। लेकिन मुझे वह संदेह काटता है। मेरे भीतर
चिंता बन जाता है।
फिर मैं विश्वविद्यालय चला गया, तो साल में एकाध बार
ही लौटता था। जब जाता, तो उनके घर जरूर जाता। वे मुझसे एक
दिन बोले कि अब तुम मत आया करो। हालांकि मैं राह देखता हूं साल भर तुम्हारी कि कब
तुम आओगे। पता नहीं इस बार जीवित रहूंगा कि नहीं रहूंगा; तुमसे
मिल सकूंगा या नहीं! लेकिन जब तुम आते हो, तो मुझे डर लगता
है कि फिर तुम कुछ उपद्रव की बात करोगे। तुम कुछ कह जाओगे। तुम मानोगे नहीं। तुम
मेरी श्रद्धा को झकझोरे डाल रहे हो। तुमने धीरे-धीरे मेरी श्रद्धा की सब ईंटें
खींच लीं। पूरा मंदिर मेरा गिर गया है। अब मैं पूजा करता हूं, तो भी मैं जानता हूं कि मैं यह क्या मूढ़ता कर रहा हूं। रुक भी नहीं सकता,
क्योंकि जिंदगी भर पूजा की है। अब क्या मरते वक्त--अब कैसे पूजा छोड़
दूं! माना कि नहीं कुछ सार दिखाई पड़ता है, नहीं कुछ पाया है।
मगर फिर भी कहीं एक भरोसा बना हुआ है कि इतने लोग करते हैं, तो
सब गलत तो न करते होंगे! करोड़ों-करोड़ों लोग सारी दुनिया में पूजा कर रहे हैं
अलग-अलग ढंग से। तो सब पागल तो नहीं हो सकते!
मैंने उनसे कहा, वे भी यही सोचते हैं। वे भी जब
करोड़ों को गिनते हैं, तो तुम भी उसमें एक होते हो। और उनको
क्या पता कि तुम्हारी क्या हालत हो रही है! तुम भी उनको गिन रहे हो। और मैं बहुतों
को जानता हूं, जो मुझसे परिचित हैं, उनमें
से एक की पूजा भी सार्थक नहीं मैंने पाई है। और सब घबड़ाते हैं कि उनका संदेह न छेड़
देना। उनके भीतर दबी हुई शंकाएं न उठा देना। मगर अगर इन शंकाओं को नहीं जगाओगे,
तो तुम्हारी आस्था सदा झूठी रहेगी।
आखिर बार मैं गया, तो उन्होंने खबर पहुंचवाई अपने
लड़के से कि मेरी तबीयत बहुत खराब है, इसलिए कृपा करके देखने
मत आना। क्योंकि अब मैं बिलकुल मरणशैया पर पड़ा हूं। यूं मन में बड़ी इच्छा है कि एक
बार तुम्हें देख लूं, मगर नहीं, तुम
आना मत। क्योंकि मैं नहीं चाहता कि किसी नास्तिक भाव में मर जाऊं!
मैंने उनके लड़के से कहा कि एक बार तो मैं आऊंगा; मुझे कोई रोक सकता नहीं। तुम जाकर कह दो कि मैं आ रहा हूं, वे तैयारी रखें। उन्हें जितनी आस्तिकता मजबूत करनी हो, वह करके रखें। मैं आ रहा हूं। और यह मेरा आखिरी आना है, फिर मैं नहीं आऊंगा।
मैं उनके पास गया। मैंने कहा कि सोचो तो, मैं न भी आऊं, तो भी यह तुम्हारी आस्तिकता कोई
आस्तिकता है! जो इतनी भयभीत है, जो इतनी कायर है! यूं तुम
मरोगे, तो तुम नास्तिक ही मर रहे हो। क्यों धोखा ओढ़े हुए हो!
उन्होंने कहा, तुम न माने, तुम आ गए! मुझे मर
जाने दो। मुझे मेरी आस्थाओं को पकड़े मर जाने दो।
मैंने कहा, अगर वे झूठी हैं आस्थाएं, तो
क्या होगा पकड़ कर मर जाने से! कम से कम मरते वक्त इस भाव से तो मरो कि मैं किसी
झूठ को पकड़े हुए नहीं मर रहा हूं। भला मुझे सत्य न मिला हो, लेकिन
मैंने किसी झूठ को नहीं पकड़ा है। कम से कम इतनी निष्ठा तो तुम्हारी परमात्मा के
समाने रहेगी। इतना तो तुम कह सकोगे कि नहीं पा सका सत्य, मानता
हूं, लेकिन झूठ को भी नहीं पकड़ा। और जिसने झूठ को नहीं पकड़ा,
वह सत्य को पाने का हकदार हो जाता है। मरते वक्त तो कम से कम ईमान
ले आओ। और मेरे लिए तो ईमान का अर्थ यही ही होता है: सत्य में निष्ठा--झूठे
आश्वासनों में नहीं।
पूर्णानंद! तुम्हारा प्रश्न महत्वपूर्ण है। तुम कहते हो: आप्तपुरुषों
का यह मंगल-वचन क्या कभी सच होगा?
आप्तपुरुष तो आशीष ही देते हैं। उनके पास और कुछ देने को है भी नहीं।
उनसे तो फूल ही झरते हैं। वे तो तुम्हारे लिए प्रार्थनाओं से ही भरे हुए हैं। वे
तो चाहते हैं कि तुम्हारे जीवन में सुगंध उड़े, गीत जगें, नृत्य हो। तुम्हारे जीवन में हजार-हजार कलम खिलें। तुम्हारे जीवन में
रसधार बहे। लेकिन तुम बहने दो, तब ना! तुम तो हर तरह से
अड़ंगा खड़ा करते हो। और तुम्हारे बिना कोई जबर्दस्ती तुम्हें सुखी नहीं कर सकता।
यह प्रार्थना तो प्यारी है: सब सुखी हों। लेकिन तुम्हारे स्वार्थ तो
दुख से जुड़े हैं। तुम कैसे सुखी होओगे! तुम मेरी बात सुनकर शायद चौंको। लेकिन मैं
दोहरा दूं, ताकि तुम समझ लो ठीक से।
तुम्हारे स्वार्थ दुख से जुड़े हैं। तुम्हारा सारा जीवन दुख में जड़ें
जमाए बैठा है। तुम सुखी नहीं होना चाहते, हालांकि तुम कहते हो
कि मैं सुखी होना चाहता हूं। मगर तुम्हारे सुखी होना चाहने का जो ढंग है, वह भी तुम्हें सिर्फ दुखी करता है, और कुछ भी नहीं।
क्योंकि सुखी होने की पहली शर्त है: सुख को मत चाहो। अब तुम थोड़ी मुश्किल में
पड़ोगे। इस शर्त को जो पूरी करे, वही सुखी हो सकता है।
सुख को मत चाहो। क्योंकि जिसने सुख चाहा, वह दुखी हुआ। इस दुनिया में सारे लोग सुख चाहते हैं। कौन है जो सुख नहीं
चाहता! लेकिन फिर सारे लोग दुखी क्यों हैं? सुखी की चाह में
ही दुख के बीज छिपे हैं।
सुख को चाहता कौन है? पहली तो बात: दुखी आदमी चाहता
है। जो दुखी है, वह सुख चाहता है। दुखी क्यों है? यह तो कभी नहीं सोचता। लेकिन सुख चाहता है। दुखी है, तो कारण होंगे। दुखी है, तो बीज उसने नीम के बोए
होंगे; हां, चाहता है कि आम लग जाएं!
मगर उसी चाह से थोड़े ही आम लगेंगे। बीज अगर नीम के बोता है, और
चाह अगर आम की करता है, तो पागल है। तो रोज-रोज दुखी होगा।
रोज-रोज विषाद से भरेगा। क्योंकि जब भी फल लगेंगे, कड़वे नीम
के ही फल लगेंगे। बीज ही नीम के तुम बो रहे हो।
पहली तो भ्रांति यह है: समस्त बुद्धपुरुषों ने कहा है--तृष्णा दुष्पूर
है। यह समस्त धर्म की आधारशिला है: तृष्णा दुष्पूर है। जब तक तुम मांग कर रहे हो, वासना से भरे हो, तब तक तुम दुखी रहोगे। क्योंकि
तुम्हारी सारी वासना तुम्हें रोज-रोज असफलता के गङ्ढों में गिराएगी।
लाओत्सू ने कहा है: मुझे कोई दुखी तो करे! मुझे कोई दुखी नहीं कर सकता, क्योंकि मैं सुख मांगता ही नहीं। उसने यह भी कहा है: मुझे कोई हराए तो!
मुझे कोई हरा ही नहीं सकता। और तुम यह मत समझना कि लाओत्सू कोई पहलवान है। कि कोई
मोहम्मद अली है! लेकिन लाओत्सू कहता है: कोई मुझे हराए तो! मुझे कोई हरा नहीं
सकता। क्योंकि मैं विजय मांगता ही नहीं। लाओत्सू कहता है, तुम
मुझे कैसे हराओगे, अगर मैं विजय चाहता ही नहीं! अगर मैं हार
से भी राजी हूं, तो तुम मुझे कैसे हराओगे! अगर मैं हार मैं
भी आनंदित हूं, तो तुम मुझे कैसे हराओगे!
मैं छोटा था, तो मेरे पड़ोस में एक अखाड़ा था। पहले तो मैं यूं ही
चला जाता था देखने। वहां अकसर पहलवान आते रहते। आज भी उसकी तस्वीर मुझे याद है।
उसका नाम भी मुझे पता नहीं। अजनबी था। नया-नया आया था। नागपंचमी का दिन था,
उस अखाड़े में कुश्तियां हो रही थीं। मैं भी देखने पहुंचता था। उस
पहलवान को मैं नहीं भूला। पता नहीं क्या उसका नाम था, कहां
से आया था, कौन था--कुछ पता नहीं। लेकिन उसकी तस्वीर नहीं
भूलती। वह जब कुश्ती लड़ा, तो उसके लड़ने का लहजा ही कुछ और
था। ऐसे मैंने बहुत पहलवान कुश्ती लड़ते देखे थे, क्योंकि
मेरे मोहल्ले में ही अखाड़ा था और जब भी मुझे फुर्सत होती, चला
जाता। वहां चलता ही रहता कुछ न कुछ उपद्रव। वहां बैंड-बाजा बजता ही रहता। जब देखो
तब वहां अखाड़ा। जब देखो तब वहां कुश्ती! गांव में कुश्ती का शौक था और कई अखाड़े
थे। छोटा-सा गांव, लेकिन बहुत अखाड़े थे। और हर अखाड़े में
प्रतिद्वंदिता थी।
उस दिन जो मैंने कुश्ती देखी, वह आदमी इस मस्ती से
लड़ा, जिससे लड़ा वह उससे कम से कम दुगने वजन का आदमी था। उसकी
हार निश्चित थी। मगर वह इतनी प्रफुल्लता से लड़ा! हार भी गया। वह चारों खाने चित्त
पड़ा है, और वह मजबूत पहलवान उसकी छाती पर बैठा है, और सारे लोग तालियां बजा रहे हैं प्रशंसा में जो जीता है उसकी! लेकिन जो
नीचे पड़ा था, वह खिलखिला कर हंसा। उसकी खिलखिलाहट मुझे नहीं
भूलती। उसका खिलखिला कर हंसना--एक सन्नाटा छा गया! भीड़ जो ताली बजा रही थी,
वह एकदम रुक गई। हारा हुआ आदमी--और खिलखिला कर हंसे!
वह पहलवान जो उसकी छाती पर बैठा था, एक क्षण को हतप्रभ हो
गया! उसकी भी समझ के बाहर था। कुश्तियां उसने जिंदगी में बहुत लड़ी होंगी; जीता होगा, हारा होगा। हारा होगा तो रोया होगा। जीता
होगा तो हंसा होगा। मगर हारे हुए को हंसते उसने कभी नहीं देखा था! उसने पूछा कि
तुम क्यों हंस रहे हो?
वह पहलवान कहने लगा कि मैं इसलिए हंस रहा हूं कि मेरे लिए पहलवानी
सिर्फ खेल है। न हारना--न जीत। मौज है। तुम ऊपर, कि मैं ऊपर--क्या
फर्क पड़ता है!
उस व्यक्ति को कुछ सूत्र है याद। इस व्यक्ति को कैसे हराओगे! क्या
फर्क पड़ता है--कोई तो ऊपर होगा, कोई तो नीचे होगा! दो आदमी
लड़ेंगे, तो एक नीचे आएगा एक ऊपर आएगा। यह स्वाभाविक है।
दोनों तो ऊपर हो नहीं सकते! दोनों नीचे नहीं हो सकते। उसकी बात मुझे भूली ही नहीं।
और जब वर्षों बाद में लाओत्सू को पढ़ा, तो तत्क्षण मुझे उस
पहलवान की बात याद आ गई। शायद उसने लाओत्सू का नाम भी न सुना हो। लेकिन सूत्र तो
उसे याद था। वह हार में हंस सका था, क्योंकि हार और जीत सब
खेल है।
जीतने के लिए लड़ा ही नहीं था। उसके लड़ने का ढंग भी अलग था। बहुत मैंने
पहलवान लड़ते देखे, मगर उसका लड़ने का ढंग अलग था। वह पहले नाचा! पूरे
अखाड़े में नाचा। लोग चौंककर देखने लगे कि वह क्या कर रहा है! उछला-कूदा--बड़ा
प्रफुल्लित हुआ! जैसे छोटे बच्चे, वैसा ही हलका-फुलका आदमी
था। दुबला-पतला था। लड़ा भी बड़ी शानदार कुश्ती। अपने से दुगने वजनी आदमी से लड़ा।
जरा भी संकोच नहीं। हार का कोई सवाल ही नहीं, कोई डर ही नहीं,
कोई भय ही नहीं। यूं लड़ा जैसे खेल-खिलवाड़ हो। जैसे छोटे बच्चे से
उसका बाप लड़े। तो अब बच्चे को हराता थोड़े ही है बाप, जब
कुश्ती लड़ता है। खुद जल्दी से लेट जाता है। बच्चे को छाती पर चढ़ जाने देता है। और
बच्चा किलकारी मारता है छाती पर बैठ कर! और बच्चा सोचता है: जीत गए! देखो, पापा को हराया! डैडी को चारों खाने चित्त कर दिया! उसे क्या पता कि पापा
खुद ही चारों खाने चित्त हो गए हैं।
इस ढंग से लड़ा। लड़ने में एक मौज थी, एक नृत्य का भाव था।
हार कर भी हंसा। हार कर भी नाचा। जीतने वाले की जीत को मिट्टी कर दिया उसने! जीतने
वाले को लोग भूल गए! लोगों ने फूल-मालाएं उसके गले में डाल दीं। जीतने वाला यूं
खड़ा रहा किनारे पर! आंखें फाड़े देखता रहा कि यह हो क्या रहा है! कि हारे हुए आदमी
के गले में फूल-मालाएं डाली गईं। और जिन्होंने डालीं, वे कोई
बहुत बड़े ज्ञानी नहीं थे; सीधे-सादे लोग थे। मगर उनको भी यह
बात समझ में आ गई कि यह आदमी कुछ अनूठा है! यह हारना जानता ही नहीं। इसे तुम हरा
ही नहीं सकते।
और उसने सारी फूल-मालाएं ले जा कर जो जीत गया था, उसको दे दीं कि तुम ऐसे दुखी न होओ; ऐसे परेशान न
होओ। तुम तो जीते हो, तुम क्या उदास खड़े हो! अरे, जब मैं हार कर नाच रहा हूं, तो तुम भी नाचो। तुम तो
जीते हो!
मगर वह जो जीता था, क्या खाक नाचे! वह जीतकर भी न
नाच सका। वह जीतकर भी विषादग्रस्त हो गया। पछताया होगा कि कैसे आदमी से कुश्ती
लड़ी! ऐसे आदमी से लड़ा ही नहीं था।
फिर वह पहलवान गांव में कोई दस-पंद्रह दिन रहा, लेकिन कोई उससे लड़ने को राजी नहीं था। कोई लड़ा ही नहीं! मैं रोज अखाड़े
पहुंचता कि उसकी कोई कुश्ती होने वाली है! मैं उससे भी पूछता कि भई, कुश्ती तुम्हारी कब होगी? वह कहता, मैं खुद परेशान हूं। कोई लड़ता ही नहीं!
मैंने कहा, फिर मैं ही हूं! मैं बहुत छोटा था। उसने कहा, भई तू! अभी तू बहुत छोटा है! मैंने कहा, रहने दो,
क्या फिक्र पड़ती है! तुम्हें हारना ही है, मुझसे
हार जाना। तुम्हें हंसना ही है, मुझसे हार कर हंस लेना। और
तुम्हें दिल हो मुझे हराने का, तो मुझे हरा के हंस लेना!
उससे मेरी दोस्ती हो गई! वह कहने लगा, तुमसे तो मैं हारा ही
हुआ हूं। तुम फिक्र मत करो। वह जब तक रहा, रोज मुझे बुला ले
जाता था--नदी नहाने जाता, तो मुझे बुला लेता। खाना खाने कहीं
उसका निमंत्रण होता, तो मुझे बुला ले जाता। अखाड़े में घंटों
हम साथ बैठे रहते। मैं बहुत छोटा था; उसकी उम्र तो बहुत थी।
मगर एक दोस्ती हमारे बीच बन गई। एक सूत्र सध गया।
तृष्णा दुष्पूर है और इसलिए दुखों में ले जाती है। यह पा लूं, वह पा लूं; यह जीत लूं--बस, फिर
हार के तुमने बीज बोए। फिर तुमने अपने लिए संताप पैदा किया।
तो ऋषि तो कहे हैं: सब सुखी हों--सर्वे भवंतु सुखिनः--यह उनकी प्रार्थना
शुभ; ये उनके आशीष प्यारे, मगर तुम
सुखी कैसे हो सकोगे? तुम्हारे तो दुख में बहुत गहरे नियोजन
हैं। पहला तो यह कि तुम सुख चाहते हो, इसलिए सुखी न हो
सकोगे। दूसरा यह कि तुम बहुत गहरे में दुख के साथ विवाहित हो, तुम्हारे गठबंधन हो गए हैं; तुम्हारे सात फेरे पड़ गए
हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि हम प्रत्येक बच्चे को जीवन भर दुखी रहने के
लिए शिक्षा देते हैं। और यह बात सच है। बच्चा जब दुखी होता है, बीमार होता है, तो मां भी उसके पास बैठती है,
पिता भी उसके पास बैठता है। कोई उसका माथा दबाता है, कोई पैर दबाता है; दवा कोई लाता है। जब भी वह दुखी
होता है, तब उसे संवेदना मिलती है, सहानुभूति
मिलती है। और जब भी वह नाचता-कूदता है, तो डांट-फटकार मिलती
है। जब भी हंसता है, किलकारी मारता है, दौड़ता है, छलांग लगाता है, चीजें
गिरा देता है, चीजें तोड़ देता है, तब
उसको डांट-फटकारा मिलती है। जब वह प्रफुल्लित होता है, तब
डांट-फटकार; सारा घर उसका दुश्मन हो जाता है। और जब वह बीमार
होता है, मुरदा होने के करीब होता है--सब उसके मित्र हो जाते
हैं! कहीं गहरे में यह बात बैठ जाती है। ये फेरे पड़ने लगे। यह दुख के साथ विवाह
रचाया जाने लगा। यह शहनाई बजी। एक बात किसी अचेतन में उतरने लगी कि दुख में लोगों
की सहानुभूति होती है; सुख में लोगों की सहानुभूति नहीं
होती।
दुखी आदमी के प्रति लोग सदभाव से भरे होते हैं! तुम्हारे घर में आग लग
जाए, तो सारा मोहल्ला तुमसे सहानुभूति प्रकट करेगा। और तुम
एक नया मकान बना लो, तो सारे मोहल्ले में जलन औरर् ईष्या की
आग फैल जाएगी।
कोई तुम्हें सुखी नहीं देखना चाहता! तुम सुखी होते हो, तो लोग दुखी होते हैं। और इतने लोगों को दुखी करना खतरे से खाली नहीं है।
और तुम जब दुखी होते हो, तो सारे लोग तुम्हारी प्रशंसा करते
हैं, सहानुभूति देते हैं। सहानुभूति में तुम्हें रस आने लगता
है। अच्छा लगता है, प्रीतिकर लगता है। तो दुखी होने में
तुम्हारे स्वार्थ जुड़ जाते हैं
मेरे विरोध में अगर हजारों-लाखों लोग हैं, तो उसका कुल कारण इतना है कि यहां एक आनंद का तीर्थ निर्मित हो रहा है।
यहां मेरे पास आनंदमग्न लोगों की जमात इकट्ठी हो रही है। यहां मस्तों की दुनिया है,
मतवालों की दुनिया है। इससेर् ईष्या जग रही है। इससे हजार तरह कीर्
ईष्याएं पैदा हो रही हैं। इससे बहुत जलन पैदा हो रही है। अगर मैं भी लंगोटी लगाकर
और धूप में और झाड़ के नीचे बैठ जाऊं, तो बड़ी सहानुभूति पैदा
होगी। और अपने आसपास भी अगर मैं भूखे-नंगे लोगों को बिठा लूं, तो बड़ी सहानुभूति प्रकट होती है। नोबल प्राइज पक्की है!
लेकिन अभी तो मुझे सिर्फ गालियां पड़ने वाली हैं। मुझे नोबल प्राइज
चाहिए भी नहीं। मुझे गालियां ही अच्छी हैं। क्योंकि एक राज मेरी समझ में आ गया है:
अगर तुम्हें आनंदित होना है, तो तुम्हें इसकी फिक्र ही छोड़
देनी चाहिए। तुम्हें गालियां पड़ेंगी, तुम्हें पत्थर पड़ेंगे,
मगर वे खा लेने जैसे हैं। आनंद इतनी बहुमूल्य चीज है कि उसके लिए
सारीर् ईष्याएं झेल लेने जैसी हैं।
लोग, जिस भीड़ में तुम रहते हो--तुम्हें सुखी नहीं देखना
चाहते; तुम्हें दुखी देखना चाहते हैं। इस भीड़ के खिलाफ तुम
हिम्मत कर सकोगे सुखी होने की? तुम राजी हो कि लोगों की
गालियां पड़ें, तो कोई फिक्र नहीं; सहानुभूति
न मिले, तो कोई फिक्र नहीं? तुम तैयार
हो?--तो तुम्हारे जीवन में सुख का अवतरण हो सकता है। लेकिन
गहरे में तो तुम भी जुड़े हो दुख से।
स्त्रियां इतनी दुखी दिखाई पड़ती हैं; उसका कुल कारण इतना
है। नहीं तो स्त्रियां आमतौर से प्रसन्न-चित्त होती हैं, पुरुषों
से ज्यादा प्रसन्न-चित्त होती हैं। ज्यादा प्रफुल्लित होती हैं, क्योंकि ज्यादा पार्थिव होती हैं। उनमें पृथ्वी का अंश ज्यादा है। उनमें
फूल ज्यादा खिल सकते हैं। लेकिन उदास और दुखी और परेशान। और उसका कारण--क्योंकि
उनके पति की सहानुभूति मिलती ही तब उन्हें है। अगर पत्नी प्रसन्न-चित्त है,
तो पति की उसे कोई सहानुभूति नहीं मिलती। वह बीमार है, तो पति की सहानुभूति मिलती है। और हम इतने दीनहीन हो गए हैं कि हम
सहानुभूति को ही प्रेम समझ लेते हैं। सहानुभूति झूठा सिक्का है। वह प्रेम का धोखा
है। वह प्रेम नहीं है। लेकिन क्या करें! प्रेम तो मिलता नहीं, तो चलो सहानुभूति सही। न सही असली सिक्के--नकली सिक्के सही। न कुछ से तो
कुछ भी अच्छा!
तो तुम्हारे जीवन की जड़ें दुख में जमी हुई हैं। ऋषियों के आशीष बरसते
रहे हैं। उन्होंने सदा चाहा कि तुम सुखी हो जाओ। मगर तुमने यह चाहा है कि तुम्हारे
ऋषि भी दुखी रहें! तुम तपस्वियों की पूजा करते हो, अर्चना करते हो।
तपस्वी का अर्थ क्या है? तपस्वी का अर्थ है: जिसकी मूढ़ता
इतनी सघन है कि जिसे कोई दूसरा दुख नहीं दे रहा है, तो वह
मूढ़ खुद ही अपने को दुख दे रहा है! तपस्वी का और क्या अर्थ होता है! जिसको कोई दुख
देने वाला नहीं मिल रहा है, तो भी वह सुख से नहीं बैठ सकता।
वह खुद अपने लिए दुख के सारे आयोजन करेगा। गरमी होगी, अगर
बरस रही होगी, वह अंगीठी जला कर धूनी रमाएगा अपने चारों तरफ।
जैसे कि वैसे ही गरमी की कोई कमी है! कम से कम इस देश में तो धूनी रमाने की कोई
जरूरत नहीं है। मगर इस गरम देश में भी गरमी के दिनों में भी जब आग बरसती हो,
तब भी लोग धूनी रमाए बैठे हैं! और जब कोई धूनी रमाकर बैठता है कि
तुम्हें पास जाने में प्राण कंपें, और वह लपटों के बीच बैठा
है--तुम्हारा चित्त कितना आह्लादित होता है कि अहा! यह है तपस्वी! यह है महात्मा!
और तुम्हारे महात्मा कहने के कारण, तपस्वी मानने के कारण
उसके अहंकार की तृप्ति होती है। और अहंकार की तृप्ति के लिए वह सब सुख छोड़ने को
राजी है; वह हर तरह से दुखी होने को राजी है।
तुम भूखे को, उपवासी को आदर देते हो। किसी ने दस दिन का उपवास कर
लिया पर्युषण के दिनों में, तो हाथी पर जुलूस निकालो!
बैंड-बाजे बजाओ! कि इन्होंने बड़ा गजब का काम किया कि दस दिन भूखे रहे! कोई दस दिन
मस्ती से खाया-पिया इसका तुम कभी जुलूस नहीं निकालते! कि यह आदमी बड़ा मस्त है,
इसको हाथ पर बिठाएं! इसका बैंड-बाजा बजाएं। अच्छी दुनिया तो तब होगी,
जब कोई आदमी दस दिन मस्त रहा, जी भर के
खाया-पिया, खूब पैर-पसार कर सोया--और तुमने उसका जुलूस
निकाला। तब तुम थोड़ी बुद्धिमानी का सबूत दोगे। तब तुम यह सबूत दोगे कि तुम्हारे मन
में अब सुख का भी सम्मान पैदा हुआ है।
अभी तो तुम सुखी को भोगी कहते हो। और दुखी को त्यागी कहते हो। अभी दुख
को आदर देते हो; सुख को अनादर देते हो। तुम्हारे अजीब मूल्यांकन हैं!
तुम्हारी जीवन-सरिणी उलटी है! तुम्हारा तर्क कैसा है!
तो लाख आप्त-वचन बोलते हैं ऋषि, आशीष देते रहें,
क्या होगा? तुम्हारी जीवनचर्या, तुम्हारी जीवनशैली अभी दुख-निर्भर है। तुम कब सुख का सम्मान करोगे?
यह जो सूत्र है उपनिषद का, यह उन दिनों का सूत्र
है, जब अभी हमने दुख में अपने न्यस्त-स्वार्थों को बहुत नहीं
जोड़ा था। यह उन ऋषियों का सूत्र है, जो अभी अंगीठी जलाकर
नहीं बैठे थे। और जिन्होंने कांटों की सेज नहीं बिछाई थी। यह उन ऋषियों का सूत्र
है, जिन्होंने अभी तक भूखे मरने को, उपवास
को समादर नहीं दिया था। यह उन ऋषियों का सूत्र है, जो अभी
सुख को अधार्मिक नहीं मानते थे। तब तो वे प्रार्थना कर सके: सर्वे भवंतु सुखिनः।
सब के सुख के लिए प्रार्थना कर सके। नहीं तो प्रार्थना करनी थी कि हे प्रभु,
सब को तपस्वी बना--सुखी नहीं! सब के लिए कांटों की सेज बिछा! कि सब
कांटों पर सोएं! साधारण कांटे काम न देते हों, तो लोहे के
खीले!
ईसाइयों में फकीर होते हैं, जो अपनी कमर में एक
पट्टा बांधे रखते हैं, जिसमें खीले लगे होते हैं, जो उनकी कमर में अंदर धंस गए होते हैं। उन खीलों से घाव बने रहते हैं और
वे खीले घावों में पड़े रहते हैं। वे चलते हैं, हिलते हैं,
डुलते हैं, तो खीले चुभते रहते हैं। उनसे मवाद
और खून बहता रहता है! उनका बड़ा सम्मान किया जाता है।
ईसाइयों में एक संप्रदाय होता है, जिसके फकीर अपने को
कोड़े मारते हैं। सुबह से उठकर जो पहला काम है, वह है कोड़े
मारना। जो जितने ज्यादा कोड़े मारता है, वह उतना बड़ा तपस्वी!
स्वभावतः देह का दुश्मन है। देह से मुक्त हो रहा है! जूते पहनते हैं वे, जिनमें नीचे खीले अंदर लगे होते हैं, जिनसे पैर में
घाव बने रहते हैं; मवाद बहती रहती है। गैर-ईसाइयों को इसमें
दिखाई पड़ेगा कि यह तो पागलपन है। मगर ईसाइयों को नहीं दिखाई पड़ेगा। ईसाइयों को
पागलपन दिखाई पड़ता है जैन मुनियों में! कि यह क्या पागलपन है कि नंगे फिर रहे हो!
दिगंबर जैन मुनि! शरीर को सड़ा रहे हो, सुखा रहे हो! मगर
जैनों का हृदय बड़े सम्मान से भरा हुआ है, गदगद हो उठता है कि
अहो! यह है तपश्चर्या! ये हैं असली मुनि!
ये सिर्फ रुग्णचित्त लोग हैं! ये सिर्फ बीमार हैं। ये मानसिक रूप से
विक्षिप्त हैं। और चूंकि मैं सत्य को वैसा ही कह रहा हूं जैसा है, इसलिए मुझे गाली पड़ने वाली है। ईसाई गाली देंगे। जैन गाली देंगे। हिंदू
गाली देंगे। यह मैं जानता हूं कि गालियां पड़ने वाली हैं, अगर
सत्य को सत्य की तरह कहना है। मगर वक्त आ गया है कि सत्य को सत्य की तरह कहा जाए।
बहुत दिन हो गया झूठ में तुम्हें जीते हुए!
इस ऋषि की प्रार्थना को मैं भी पूरी करना चाहता हूं तुम्हारे लिए, मगर तुम पूरी नहीं होने देना चाहते। तुम कुछ न कुछ उपद्रव चाहते हो,
क्योंकि उपद्रव में लगता है: कुछ कर रहे हो--साधना, योग। शरीर को उलटा-तिरछा करना, मोड़ना-मरोड़ना--तुम
समझते हो: योग साध रहे हो तुम! तो तो फिर सर्कस में ही सिर्फ योगी होते हैं! जिनके
शरीर बिलकुल रबर जैसे हो जाते हैं! कि जैसा चाहो, वैसा मोड़ो।
सर्कस नहीं है योग। योग शब्द का अर्थ समझो। योग शब्द का अर्थ होता
है--मिलन। परमात्मा से मिलन। उसकी कला। उसकी कला प्रेम है। उसकी कला ये योगासन
नहीं हैं। यह सिर के बल खड़े होना कोई परमात्मा से नहीं मिला देगा। कोई परमात्मा
तुम जैसा घनचक्कर नहीं है! कि सिर के बल खड़े हो गए, तो बड़ा प्रसन्न हो
जाए! अगर मिलने भी आ रहा होगा, तो लौट जाएगा कि इस उलटी
खोपड़ी से क्या मिलना! पहले खोपड़ी तो सीधी करो! कम से कम आदमी की तरह खड़े होना तो
सीखो! यह तो जानवर भी नहीं करते शीर्षासन, जो तुम कर रहे हो।
और अगर परमात्मा को शीर्षासन ही करना था, तो सिर के बल ही
खड़ा करता ना! तुम्हें पैर के बल खड़ा क्यों किया है! परमात्मा ने कुछ भूल की है,
जिसमें तुम्हें सुधार करना है?
परमात्मा ने तुम्हारे भीतर आनंदमग्न होने की पूरी क्षमता दी है। मगर
तुम्हारा समादर गलत है, रुग्ण है। उस कारण सुख कैसे हो!
तुम कृपण हो, कंजूस हो। और सुखी तो वही हो सकता है, जिनको बांटने में आनंद आता हो। तुम्हें तो इकट्ठा करने में आनंद आता है!
हम तो कंजूसों को कहते हैं--सरल लोग हैं, सीधे-सादे लोग हैं!
मैं एक गांव में एक कंजूस के घर में मेहमान हुआ। महाकंजूस! मगर सारे
गांव में उसका आदर यह कि सादगी इसको कहते हैं! सादा जीवन--ऊंचे विचार! क्या ऊंचा
जीवन और ऊंचा विचार साथ-साथ नहीं हो सकता? और सादा जीवन ही जीना
हो, तो यह तिजोड़ी को काहे के लिए भर कर रखे हुए हो! मगर हर
गांव में तुम पाओगे: कंजूसों को लोग कहते हैं--सादा-जीवन! कि है लखपति, लेकिन देखो, कपड़े कैसे पहनता है!
सेठ धन्नालाल की पुत्री जब अट्ठाइस वर्ष की हो गई, और आसपास के लोग ताना देने लगे कि यह कंजूस दहेज देने के भय से अपनी बेटी
को क्वांरी रखे हुए है, तो सेठजी ने सोचा कि अब जैसे भी हो
लड़की का विवाह कर ही देना चाहिए, क्योंकि जिन लोगों के बीच
रहना है, उठना-बैठना है, धंधा-व्यापार
करना है, उनकी नजरों में गिरना ठीक नहीं। उन्होंने लड़के की
खोज शुरू कर दी। पड़ोस के ही गांव के एक मारवाड़ी धनपति का बेटा चंदूलाल उन्हें पसंद
आया। जब वे लोग सगाई करने के लिए धन्नाालाल के यहां आए तो चंदूलाल के बाप ने
पूछा--आपकी बेटी बुद्धिहीन अर्थात फिजूलखर्ची व्यक्ति नहीं हुआ है, और हम नहीं चाहते कि कोई आकर हमारी परंपरा से जुड़ती चली आ रही संपत्ति को
नष्ट करे; बाप-दादों की जमीन-जायदाद हमें जान से भी ज्यादा
प्यारी है। यह देखिए मेरी पगड़ी; मेरे बाप को मेरे दादा ने दी
थी; दादा को उनके बाप ने; उन्हें उनके
पितामह ने; और उनके पितामह ने अपने एक बजाज दोस्त से उधार
खरीदी थी। क्या आपके पास भी ऐसा फिजूलखर्ची न होने का कोई ठोस प्रमाण है?
धन्नालाल जी बोले--क्यों नहीं, क्यों नहीं। हम भी
पक्के मारवाड़ी हैं, कोई ऐरे-गैरे नत्थू खैरे नहीं। फिर
उन्होंने जोर से भीतर की ओर आवाज दे कर कहा--बेटी धन्नो, जरा
मेहमानों के लिए सुपाड़ी वगैरह तो ला।
चंद क्षणोपरांत ही धन्नालाल की बेटी सुंदर अल्युमीनियम की तश्तरी में
एक बड़ी-सी सुपाड़ी लेकर हाजिर हुई; सबसे पहले उसने अपने बाप के
सामने प्लेट की। धन्नालाल ने सुपाड़ी को उठा कर मुंह में रखा; आधे मिनट तक यहां-वहां मुंह में घुमाया, फिर सुपाड़ी
बाहर निकाल कर सावधानीपूर्वक रूमाल से पोंछकर तश्तरी में रख अपने भावी समधी की ओर
बढ़ाते हुए कहा--लीजिए, अब आप सुपाड़ी लीजिए!
चंदूलाल और उसका बाप दोनों यह देखकर ठगे से रह गए। उन्हें हतप्रभ
देखकर धन्नालाल बोले--अरे संकोच की क्या बात, अपना ही घर समझिए।
तकल्लुफ की कतई जरूरत नहीं। यह सुपाड़ी तो हमारी पारंपरिक संपदा है। पिछली चार
शताब्दियों से हमारे परिवार के लोग इसे खाते रहे हैं। मेरे बाप, मेरे बाप के बाप, मेरे बाप के दादा, मेरे दादा के दादा सभी के मुंहों में यह रखी रही है। मेरे दादा के दादा के
दादा के बादशाह अकबर के राजमहल के बाहर यह पड़ी मिली थी!
ऐसा-ऐसा सादा जीवन जीया जा रहा है! सुख हो तो कैसे हो!
सुखी होने के लिए जीवन के सारे आधार बदलने आवश्यक हैं! कृपणता में सुख
नहीं हो सकता। सुख बांटने में बढ़ता है; न बांटने से घटता है।
संकोच से मर जाता है; सिकोड़ने से समाप्त हो जाता है। फैलने
दो--बांटो। और कभी-कभी ऐसा हो सकता है कि जिनको तुम आमतौर से गलत आदमी समझते हो,
वे गलत न हों।
मेरे एक प्रोफेसर थे, डाक्टर श्रीकृष्ण सक्सेना। उनसे
मेरा बहुत प्रेम था। एक बात के कारण सारे विश्वविद्यालय में उनकी बदनामी थी और वह
थी शराब। लेकिन मैं उनके बहुत निकट रहा। उनके घर पर भी बहुत दिनों तक रहा। मैंने
उन जैसे भले आदमी बहुत मुश्किल से देखे। जब मैं उनके घर रहता, तो वे शराब न पीते। मैंने एक दिन उनको कहा कि फिर मैं आपके घर न आऊंगा।
क्योंकि जब आप मुझे घर ले आते हैं कभी, कहते हैं, अब छुट्टी है विश्वविद्यालय में एक चार दिन की, तो
चलो मेरे साथ मेरे घर पर रहना, तो मैं देखता हूं, आप शराब नहीं पीते। मेरे कारण यह बाधा आपको पड़े--ठीक नहीं।
उन्होंने कहा कि नहीं; तुम्हारा यहां होना
मुझे शराब से भी ज्यादा मस्ती देता है। इसलिए नहीं पीता। पीने की जरूरत नहीं है।
कोई कारण नहीं है।
मैंने उनसे कहा कि आपकी आदत है!
उन्होंने कहा, आदत भी नहीं है मेरी। और अकेले तो मैंने कभी जिंदगी
में पी नहीं। जब तक चार लोगों को न बुला लूं, जब तक चार पीने
वाले न हों, तब तक तो मैं पीता ही नहीं। कभी-कभी महीनों नहीं
पीता, क्योंकि जब पीने वाले ही साथ न हों, तो क्या पीने का मजा!
इनका बड़ा अपमान था सारे विश्वविद्यालय में कि ये शराबी हैं। बस, इस आदमी की एक खराबी कि यह शराब पीता था। एक खराब बात हो गई, तो अधार्मिक है! लेकिन इस आदमी के जीवन की धार्मिकता को कोई भी नहीं समझा।
जब भी वे मेरे साथ रहे, उन्होंने कभी शराब न
पी। मैंने लाख उन्हें कहा कि आप पियें, आपकी आदत है!
वे बोलते, आदत का सवाल ही नहीं। मेरी कोई आदत नहीं।
और यह मैंने जाना कि उनकी कोई आदत न थी। एक बार तो मैं दो महीने उनके
घर रहा। उन्होंने दो महीने शराब नहीं पी! और जरा भी रंचमात्र शराब की बात ही न
उठी। मैंने उनसे कहा, दो महीने हो गए, आप शराब नहीं
पीए!
उन्होंने कहा, दो साल तुम मेरे घर रहो। यह मेरी कोई आदत नहीं है।
अब मैं उस आदमी को धार्मिक कहूंगा, जो शराब भी पीता हो,
और शराब पीने की जिसे आदत न हो। आदतें तो सड़ी-सड़ी चीजों की बन जाती
हैं। शराब जैसी चीज की आदत न बनना तो बड़ी साधना की बात है।
आदतें तो ऐसी छोटी-छोटी चीज की बन जाती है, जिसका हिसाब नहीं! अगर अखबार रोज सुबह पढ़ने की आदत है, एक दिन न मिले, तो दिन भर बेचैनी होती है! अब अखबार
कोई शराब है! नहीं पढ़ा, तो नहीं पढ़ा। लेकिन बेचैनी होती है।
सुबह से ही बस एक ही धुन लग जाती है--अखबार!
और आदत तो लोगों को पूजा तक करने की हो जाती है! अगर एक दिन पूजा न
करें, तो बेचैनी! अच्छी आदतें नहीं होतीं; बुरी आदतें नहीं होतीं। सब आदतें बुरी होती हैं। आदत का मतलब--गुलामी। और
गजब का है वह आदमी, जिसको शराब भी गुलाम न बना पाए! मैं तो
धार्मिक कहूंगा।
और वे एक सुखी आदमी थे। धार्मिक आदमी सुखी होगा ही। हालांकि मेरी धर्म
की तुम परिभाषा देखोगे, तो बड़े हैरान होओगे। न वे कभी पूजा करते थे, न कभी प्रार्थना। मैंने उनसे कहा कि आप जैसा आदत से मुक्त आदमी--आप तो
बिलकुल धार्मिक हैं! लेकिन न पूजा है, न प्रार्थना है,
न आस्तिकता है! आपको कभी इन सब चीजों का खयाल नहीं उठा?
उन्होंने कहा, मैं मस्त हूं, आनंदित हूं। मैं
प्रसन्न हूं, संतुष्ट हूं। और क्या करना है! किस चीज की पूजा
करूं? क्यों करूं? अगर मेरा संतुष्ट
होना पूजा नहीं है, तो क्या पूजा होगी और?
और निश्चित ही वे संतुष्ट व्यक्ति थे। अति संतुष्ट व्यक्ति थे। मैंने
कभी उन्हें शिकायत करते न देखा। नहीं तो जिंदगी में हर आदमी शिकायत से भरा हुआ है।
और तथाकथित धार्मिक आदमी तो बहुत शिकायतों से भरे होते हैं! उनको तो हर चीज में
शिकायत दिखाई पड़ती है। और धार्मिक आदमी तो वही है, जिसके जीवन में संतोष,
संतुष्टि की सुगंध उड़ती हो। जिसे शिकायत ही न हो, न कोई शिकवा हो। जिसे इस दुनिया में कुछ बुरा ही न दिखाई पड़ता हो।
मैंने कभी उनके मुंह से किसी की निंदा नहीं सुनी। हालांकि और जितने
विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे, सब उनकी निंदा करते थे। और इस सब
का उन्हें पता था, लेकिन उन्होंने कभी किसी की निंदा नहीं
की।
किसको मैं धार्मिक कहूं! ये निंदा करने वाले लोग धार्मिक हैं? इन निंदा करने वाले लोगों में नियमित पूजा-पाठ करने वाले लोग थे। अभी-अभी
चल बसे डाक्टर रसाल; हिंदी के बड़े पुराने कवि थे। बड़े आलोचक
थे। सैकड़ों किताबों के लेखक थे। उनका शब्दकोश बहुत प्रसिद्ध है। बड़े गुणी व्यक्ति
थे। लेकिन जब मुझे मिल जाते, और मुझे अकसर मिल जाते, क्योंकि जिस हास्टल में मैं रहता था, उसके वे
सुपरिंटेंडेंट थे। तो आते-जाते निकलते--उनके दरवाजे के सामने से मुझे निकलना ही
पड़ता था, मुझे बुला लेते। और जब मुझे मिलते, तो उनका पहला काम था--डाक्टर सक्सेना की निंदा करना!
मैंने एक दिन उनसे कहा कि डाक्टर रसाल, आपको पता है कि
डाक्टर सक्सेना ने कभी आपके संबंध में एक शब्द नहीं कहा! कभी मैंने बात भी छेड़ी
जानने के लिए कि वे भी आपकी निंदा करते हैं कि नहीं! क्योंकि उनको लोग खबरें देते
हैं कि आप उनकी बहुत निंदा करते हैं कि शराबी है, पियक्कड़ है;
इसको तो विश्वविद्यालय से निकाल देना चाहिए। ऐसा आदमी भ्रष्ट करेगा
विद्यार्थियों को!
और वे निश्चित ही बड़े निष्णात धार्मिक व्यक्ति थे। सुबह से ही
पूजा-पाठ। ब्रह्ममुहूर्त में उठना। शुद्ध भोजन--शाकाहारी भोजन करना। शराब की तो
बात दूर, वे पान न खाएं, सुपाड़ी न खाएं।
सिगरेट न पीएं; शराब तो बहुत दूर! उनमें कोई लतें नहीं। हर
धार्मिक दिन पर उनके घर कभी सत्यनारायण की कथा हो रही है; कभी
अखंड रामायण चल रही है। कुछ न कुछ वहां होता ही रहे। पंडित-पुजारी इकट्ठे!
मैंने कहा, वे कभी आपकी निंदा नहीं किए और आप जब मुझे मिलते हैं,
मुझे लगता ही ऐसा है कि सिर्फ आप उनकी निंदा करने के लिए मुझे
बुलाते हैं! मैं बाहर से निकलता हूं और आप मुझे बुलाते हैं और बात तो आप कुल इतनी
करते हैं कि उनकी निंदा! आपको क्या बेचैनी है इस आदमी से! इसने आपका कुछ बिगाड़ा
नहीं। होंगे शराबी, तो आपका क्या बिगाड़ते हैं? और नर्क जाएंगे, तो वे जाएंगे; कोई आपको नहीं जाना पड़ेगा। आपका तो स्वर्ग बिलकुल निश्चित है। सीढ़ी आप लगा
रहे हैं। आपको उनमें इतना रस है! उनको तो मैंने कभी आप में कोई रस लेते नहीं देखा!
कई दफा मैंने उकसाने की भी कोशिश की है उनको, कि रसाल आपके
संबंध में ऐसा कह रहे थे; वे बात ही नहीं उठाते। वे हंस कर
टाल देते हैं। वे कहते हैं, लोग कहते रहते हैं! रसाल अच्छे
आदमी हैं, अच्छे कवि हैं, भले आदमी
हैं। उनको कोई बात न जंचती होगी, तो मेरी निंदा करते हैं।
उनको नहीं जंचती, तो अब मैं क्या करूं? लेकिन एक शब्द आपके विपरीत नहीं।
किसको मैं धार्मिक कहूं? किसको मैं आस्तिक
कहूं?
जिंदगी इतनी आसान नहीं है, जितना हम ऊपर से समझ
लेते हैं। मंदिर जो रोज जा रहा है, वह धार्मिक है! इतना कहीं
होता सिर्फ धार्मिक होना, तो सारी दुनिया धार्मिक थी। यहां
सुख ही सुख होता। यहां सुख नहीं है। सुख न होने के साफ-साफ कारण हैं।
पहली तो बात: तुम्हारे मन में दुख का आदर है। इस आदर को जड़-मूल से काट
डालो। सुख को आदर देना शुरू करो, क्योंकि तुम जिस चीज को आदर दोगे,
वही तुम्हें उपलब्ध होगा। फूलों की तरफ आंख उठाओगे, तो आंखों में फूलों के रंग छा जाएंगे। चांदत्तारों की तरफ आंख उठाओगे,
तो आंखों में चांदत्तारे झांकेंगे। मगर तुम सिर्फ कांटे गिनते हो।
अगर मैं कहूं कि फलां आदमी सुंदर बांसुरी बजाता है, तुम तत्क्षण कहोगे: अरे, वह क्या बांसुरी बजाएगा!
शराबी कहीं का। जुआरी--वह क्या बांसुरी बजाएगा! और अगर मैं किसी आदमी के संबंध में
कहूं कि वह जुआरी है, शराबी है, तो तुम
कभी यह न कहोगे कि नहीं, नहीं, शराबी
वह कैसे हो सकता है! वह कितनी प्यारी बांसुरी बजाता है! जुआरी नहीं हो सकता। और हो
तो भी क्या हर्जा; उसकी बांसुरी इतनी प्यारी है!
और परमात्मा कांटे गिनता है कि फूल? तुम्हारे हिसाब से तो
कांटे गिनता है, जैसे तुम कांटे गिनते हो। मेरे हिसाब से
नहीं। मेरे हिसाब से तो वह यह पूछेगा कि कितनी बांसुरी बजाई। यह नहीं पूछेगा कि
कितना जुआ खेला। यह पूछेगा कि कितने गीत आए। यह नहीं पूछेगा कि कितनी गालियां दीं।
जीवन को विधायक दृष्टि से देखो। आनंद को सम्मान देना शुरू करो। अगर
तुम्हारे भीतर आनंद के प्रतिर् ईष्या है--बहुत बहुत गहनर् ईष्या है। तुम आनंदित
व्यक्ति को देखकर जलन से भरते हो; प्रफुल्लित नहीं होते।
तुम्हारे जीवन की प्रक्रिया ऐसी गलत है, कि तुम सुखी नहीं हो
सकते। ऋषि लाख प्रार्थनाएं करें, उनकी प्रार्थनाएं व्यर्थ
चली जाती हैं; अब तक तो व्यर्थ गई हैं। जाहिर है: यह
प्रार्थना किए कम से कम पांच हजार साल हो चुके होंगे। सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे
संतु निरामयाः। सब निरोग हों। सब सुखी हों। सब कल्याण को प्राप्त हों। कोई भी दुख
का भागी न हो।
यह प्रार्थना पांच हजार साल हो गए किए हुए, शायद उससे भी पुरानी हो, लेकिन अब तक इसका परिणाम
नहीं हुआ। यह प्रार्थना खाली चली जाएगी। क्योंकि घड़े तुम्हारे उलटे रखे हैं।
तुमने तो जिद्द कर रखी है दुख उठाने की। तुमने तो कसम खा रखी है नर्क
निर्मित करने की!
चंदूलाल के बेटे झुम्मन ने अचानक भोजन करना बंद कर दिया। हर तरह से
प्रयत्न किए गए, मगर वह भोजन करे ही न। अंततः उसे मनोवैज्ञानिक के पास
ले जाया गया। मनोवैज्ञानिक उसे जब लगातार पांच घंटे तक समझाता रहा, तो वह भोजन करने को राजी हो गया। मनोवैज्ञानिक ने प्रसन्न होकर
पूछा--अच्छा बेटे, बताओ क्या खाओगे?
उसने मनोवैज्ञानिक को क्रोध से देखा। वह पांच घंटे में राजी ही इसलिए
हुआ था कि उसकी खोपड़ी खाए जा रहा था समझा-समझा कर। कहां-कहां की बातें समझा रहा
था! उसने सोचा: अच्छा चलो, झंझट मिटाओ। भोजन किए लेता हूं। तो उसने मनोवैज्ञानिक
की तरफ गुस्से से देखा और कहा--केंचुए खाऊंगा!
मनोवैज्ञानिक पहले तो थोड़ा झिझका, कि यह क्या सार निकला
पांच घंटे का! मगर मनोविज्ञान में नियम है कि मरीज को आहिस्ता-आहिस्ता फुसलाओ;
धीरे-धीरे राजी करो। चलो, अभी केंचुए खाने को
राजी हुआ, कम से कम कुछ खाने को तो राजी हुआ। फिर अब केंचुए
की जगह कुछ और खिलाने की व्यवस्था हो सकेगी। एकदम से मरीज को इनकार मत करो। उसे
विरोध में मत खड़ा कर दो। उससे दोस्ती बनानी जरूरी है।
तो मनोवैज्ञानिक ने किसी तरह केंचुओं की एक प्लेट का प्रबंध करवाया।
अपने माली को कहा कि बीन ला बगीचे में से जितने केंचुए मिल सकें। केंचुओं से भरी
प्लेट झुम्मन की ओर बढ़ाते हुए कहा--लो बेटे, खाओ।
सोचा उसने कि कौन खाएगा केंचुए! खुद ही कहेगा कि नहीं, केंचुए मुझे नहीं खाने। क्रोध में कह गया है, केंचुए
खाऊंगा। सोचता होगा--कौन केंचुए खिलाएगा।
लेकिन झुम्मन बोला--इन्हें भून कर लाओ! कच्चे नहीं खाऊंगा। क्या पेट
खराब करना है!
मनोवैज्ञानिक गया और किसी तरह केंचुओं को भूना। भुने हुए केंचुए लेकर
प्लेट में मनोवैज्ञानिक फिर आया और बोला, लो बेटे, अब तो खाओ!
झुम्मन बोला, मुझे केवल एक चाहिए। बाकी को फेंको। इतने मुझे नहीं
खाने। मैं कोई भोजन-भट्ट हूं! एक काफी है।
चलो, मनोवैज्ञानिक ने सोचा, यह झंझट
मिटी। कम से एक पर तो आया। अब धीरे-धीरे रास्ते पर आ रहा है। वह सारे केंचुए फेंक
आया और एक को बचा लिया। बोला, बेटा, अब
खाओ!
झुम्मन बोला, पहले आप आधा खाइए! मेरे घर में ऐसा नहीं कि हम अकेले
खा लें! पहले आपको खाना पड़ेगा। शिष्टाचार मुझे मालूम है।
अब मनोवैज्ञानिक घबड़ाया कि यह तो हद्द हो गई। अब यह आधा केंचुआ खाना पड़ेगा!
मगर मनोवैज्ञानिक भी आधे पागल तो होते ही हैं। नहीं तो मनोवैज्ञानिक ही क्यों
होते! मनोविज्ञान की तरफ जो उत्सुक होते हैं, उनके दिमाग में कुछ न
कुछ गड़बड़ होती है। पहले से ही गड़बड़ होती है, तभी वे
मनोविज्ञान की तरफ उत्सुक होते हैं।
घबड़ाया। किसी तरह जी भी मिचलाया--केंचुआ देख कर। एक तो इनको भूना
उसने। इनकी बास और...! अब यह क्या-क्या करना पड़ रहा है! मगर इसका इलाज करना ही है।
किसी तरह आधा केंचुआ खा गया। और बाकी का आधा हिस्सा झुम्मन की तरफ बढ़ा कर बोला कि
ले भैया, अब तो खा!
झुम्मन रोने लगा और बोला, मेरे हिस्से का तो
खुद खा गए; अब इसे भी खा लो! वह मेरे हिस्से का था जा तुम खा
गए। मैं तुम्हारे हिस्से का नहीं खाऊंगा।
अब क्या करोगे!
ऋषि तो कहे हैं: सर्वे भवंतु सुखिनः। मगर क्या करें तुम्हारे साथ! तुम
केंचुए खाने पर पड़े हो। और वह भी तुम खाओगे नहीं। वह भी कुछ बहाने निकाल लोगे।
तुम्हारी जिंदगी गलत ढांचों पर दौड़ रही है। तुम अपने ढांचे बदलो। तो ये आशीष पूरे
हो सकते हैं। ये आशीष यूं ही नहीं दिए गए हैं। ये कल्पना नहीं हैं आशीष। ये सत्य
बन सकते हैं। मगर सत्य इनको कौन बनाएगा?
सिर्फ आशीर्वाद से ही मत सोचना कि बात हो जाएगी। काश ऐसा होता, तो एक बुद्ध ने सारी पृथ्वी को मुक्त कर दिया होता।
ईसाई कहते हैं कि जीसस ने इसलिए जन्म लिया कि सारी पृथ्वी को मुक्त कर
देना है। वह तो ठीक कि इन्होंने इसलिए जन्म लिया, लेकिन पृथ्वी मुक्त
कहां हुई! यह कोई नहीं पूछता!
हिंदू कहते हैं कि भगवान अवतार लेते हैं। और कृष्ण ने कहा गीता में कि
आऊंगा-आऊंगा। बार-बार आऊंगा--जब-जब धर्म की हानि होगी। भैया! कब होगी? बहुत हो चुकी, अब आ जाओ! हे कृष्ण कन्हैया! अब आ
जाओ! लेकिन मजा यह है कि जब आए थे, तब कितना अधर्म मिटा पाए
थे! तो अब क्या खाक मिटा लोगे! आदमी तब से अब और होशियार हो गया है। तब नहीं मिटा
पाए, तो अब क्या मिटा पाओगे! कहते तो हो कि जब अंधकार होगा,
तो आऊंगा। जब पाप बढ़ जाएगा, तो आऊंगा। साधुओं
की रक्षा के लिए आऊंगा!
मगर सदियां-सदियां बीत गईं। साधु--सच्चे साधु सदा सताए गए; झूठे साधु सदा पूजे गए। और नहीं तुम आए! और आते भी तो क्या करते? जब आए थे, तब क्या कर लिया था? और ऐसा नहीं कि तुमने चेष्टा न की हो। वह मैं न कहूंगा। चेष्टा की थी,
मगर परिणाम महाभारत हुआ! परिणाम महायुद्ध हुआ। जिसमें भारत की रीढ़
टूट गई। उसके बाद भारत कभी खड़ा नहीं हो सका। महाभारत सच में ही भारत को इस तरह से
तोड़ गया, इसकी आत्मा को इस तरह से मरोड़ गया कि फिर उसके बाद
भारत कभी अपनी गरिमा को, गौरव को उपलब्ध नहीं हो सका। अभी तक
भी हम नहीं भर पाए, जो गङ्ढा उस समय हुआ था उसको। जो हमारे
प्राण दीनहीन हो गए थे, वे आज भी दीनहीन हैं।
तब नहीं कर पाए, अब क्या करोगे?
ये हमारी आशाएं हैं, जो हमने शास्त्रों में
प्रक्षिप्त कर दी हैं। यह हमारी आशा है कि भगवान आएंगे और सब दुखों से मुक्त करा
देंगे। यह भी तरकीब है तुम्हारे दुखी बने रहने की, कि हम
क्या करें, भगवान आते नहीं! आएं, तो
दुख से छुटकारा हो! तब तो एक-बारगी छुटकारा हो चुका होता; वह
अब तक नहीं हुआ है। आगे भी नहीं होगा।
एक बात तो समझ ही लो तुम, गांठ बांध लो,
प्राणों पर खोद कर रख लो--भूलना मत, कि
तुम्हारे बिना सहयोग के स्वयं परमात्मा भी कुछ नहीं कर सकता है। सब आशीष व्यर्थ
चले जाएंगे। तुमने अगर आंख बंद करके जिद्द कर रखी है, तो उगता
रहे सूरज, आते रहें चांदत्तारे--क्या करेंगे बेचारे! सूरज
द्वार पर दस्तक भी देता रहे, तो भी तुम कानों में सीसा पिघला
कर बैठे हुए हो। तुम सुनते नहीं।
चंदूलाल का बेटा झुम्मन एक दिन उससे कह रहा था कि पापा, वह नुक्कड़ पर जो जूतों की मरम्मत करने वाला चमार है, वह मुझसे आते-जाते अकसर कहता है कि तुम्हारे पिताजी ने जो पांच साल पहले
मुझसे जूते सुधरवाए थे, उसकी मरम्मत के दो रुपए अभी तक नहीं
चुकाए। उनसे कहो कि अब मेरे पैसे चुकाएं।
चंदूलाल झुम्मन से बोले कि उससे जाकर कहो कि भाई, इतना घबड़ाओ मत। जब उसकी बारी आएगी, तो उसके पैसे भी
चुका दिए जाएंगे। अभी तो उस दुकानदार के पैसे ही नहीं चुकाए गए, जिससे दस साल पहले ये जूते खरीदे गए थे, और यह पांच
ही साल में हायत्तौबा मचाने लगा! अरे, धैर्य भी कोई चीज है!
मनुष्य को धीरज रखना चाहिए।
लोग अपनी भूल तो देखते ही नहीं। दूसरे में भूल बताने को तत्पर हो जाते
हैं। कि पांच ही साल में हायत्तौबा मचाने लगा। धीरज तो नाममात्र को नहीं है! धैर्य
तो दुनिया से उठ गया है! अरे आएगा जब तेरा समय! पहले जूते वाले के पैसे तो चुक
जाने दो। वह दस साल हो गए। तब फिर देखा जाएगा। सुधराई के पैसे तो बाद में ही चुकेंगे
न! पहले तो जूते के पैसे चुकने चाहिए!
अपनी तो कोई भूल देखता ही नहीं। और ये प्रार्थनाएं हमने अपने लिए
तरकीबें बना ली हैं। हम भी सोचते हैं: भगवान का अवतरण होगा--ईसा आएंगे, बुद्ध आएंगे, महावीर आएंगे और हमें मुक्ति दिला
देंगे।
आज से कोई बीस साल पहले की बात है। मैं पहली दफा बंबई बोलने आया था
महावीर जयंती पर। मुझसे पहले श्री चिमनलाल चकूभाई शाह बोले। और उन्होंने एक बात
कही कि भगवान महावीर का जन्म मनुष्य जाति के कल्याण के लिए हुआ था। मैं उनके बाद
बोला। मुझे तो उनका तब तक कोई परिचय नहीं था। और वह पहली और आखिरी मुलाकात हो गई।
मेरे लिए तो बात वहां समाप्त हो गई, मगर उनके लिए अभी भी
समाप्त नहीं हुई। इन बीस सालों में जितना नुकसान वे मुझे पहुंचा सकते हैं, उन्होंने हर तरह पहुंचाने की कोशिश की। जितना मेरे खिलाफ प्रचार कर सकते
हैं, हर तरह उन्होंने करने की कोशिश की। एक गांठ बांध ली
दुश्मनी की! और दुश्मनी की गांठ बांधने का कारण क्या था--यह छोटी-सी बात थी। मैं
तो उन्हें जानता नहीं था। मैं बंबई ही पहली दफे आया था। मैंने इतना ही निवेदन किया
कि यह धारणा महावीर के संबंध में सच्ची नहीं है। यह तो हमारी आकांक्षा को महावीर
पर थोपना है। महावीर ने तो कहीं भी नहीं कहा है कि मैं तुम्हारे कल्याण के लिए
जन्म ले रहा हूं! कहीं भी नहीं कहा है। महावीर ऐसी गलत बात कह ही नहीं सकते।
और यही तो फर्क है अवतार की और तीर्थंकर की धारणा में। अवतार का अर्थ
होता है: परमात्मा ऊपर से उतरता है नीचे जो लोग भटके हैं उनको रास्ता दिखाने के
लिए। वह आता ही इसलिए है। जैसे मरीज के घर में चिकित्सक आता है। बीमार है, इसलिए आता है। लेकिन तीर्थंकर की धारणा ही और है। वही तो तीर्थंकर की
धारणा का गौरव है, गरिमा है।
तीर्थंकर की धारणा यह नहीं है कि कोई ऊपर से नीचे उतरता है। ऊपर कोई
है ही नहीं। महावीर किसी परमात्मा को मानते नहीं, जो आएगा। महावीर तो
मानते हैं कि व्यक्ति की आत्मा ही जब परम शुद्ध अवस्था को उपलब्ध हो जाती है,
तो परमात्मा है। कहीं से कोई आता नहीं; यहां
नीचे से ही उठता है, उभरता है, प्रकट
होता है।
और महावीर यह भी मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति ही अपने को मुक्त कर
सकता है। कोई दूसरा किसी को मुक्त नहीं कर सकता। कोई किसी का कल्याण नहीं कर सकता।
हां, कल्याण की कामना कर सकता है। मगर कल्याण की कामना से
कल्याण नहीं होता।
महावीर का हृदय सब की कल्याण भावना से भरा है। लेकिन इससे क्या होगा!
महावीर जीवित थे, तब भी सभी का कल्याण नहीं हो सका। सब की तो बात छोड़
दो, जो उनके निकट थे, उनका भी कल्याण
नहीं हो सका! और जिन्होंने यह आशा बांध ली थी, जैसा चिमनलाल
चकूभाई शाह ने कहा, उनका तो बिलकुल ही नहीं हो सका।
महावीर का प्रमुख शिष्य था गौतम। जिस दिन महावीर का इस पृथ्वी से
प्रयाण हुआ, जिस दिन उन्होंने देह छोड़ी, उस
दिन गौतम को उन्होंने सुबह ही पास के गांव में शिक्षा देने भेज दिया था। जब वह
सांझ को लौट रहा था, तब उसको खबर मिली कि महावीर ने प्राण
छोड़ दिए हैं। वह तो रोने लगा। जिन्होंने उसे खबर दी थी, उन्होंने
कहा, अब रोओ मत। अब क्या होता है!
गौतम ने कहा, यह भी मेरा दुर्भाग्य कि सदा तो साथ रहा और आज मृत्यु
के क्षण में पता नहीं क्यों उन्होंने मुझे दूर भेज दिया! आज के दिन मुझे भेज दिया
दूसरे गांव! मेरे लिए कोई संदेश छोड़ गए हैं? जाते वक्त मेरी
याद की थी उन्होंने?
तो उन्होंने कहा, जरूर याद की थी और संदेश भी छोड़
गए हैं।
और वह संदेश बड़ा कीमती है। वही संदेश उस दिन आज से बीस साल पहले मैंने
दोहराया था।
महावीर कह गए थे जाते वक्त कि गौतम जब लौटे, तो उससे कह देना कि तू पूरी नदी तो पार कर गया, अब
किनारे को पकड़ कर क्यों रुक गया है! तूने सारा संसार छोड़ दिया, अब मुझको पकड़ लिया है! मुझको भी छोड़ दे। नदी पार कर गया, अब किनारे को भी छोड़ दे। किनारे को पकड़े रहेगा, तो
भी नदी में ही रहेगा। अब किनारे से भी ऊपर उठ। सारा संसार छोड़ दिया, अब मुझे भी छोड़ दे। यह अपूर्व संदेश! बिलकुल मुक्त हो जा।
कोई और तुम्हारा कल्याण कर सकता है--इस धारणा में ही बंधन है। यह
सीधी-सादी बात कही थी। उनको चोट लग गई--भारी चोट लग गई! वे दुश्मनी अब तक भंजाए
जाते हैं। अभी भी कच्छ के संबंध को लेकर कल जो बंबई में मेरे खिलाफ सभा बुलाई गई, उसके पीछे वे ही सूत्र-धार हैं। अब सारे कच्छियों को इकट्ठा करने में लगे
हैं वे। कहीं मैं कच्छ न चला जाऊं! नहीं तो कच्छ का अकल्याण हो जाएगा! अब मैं
सोचता हूं: पूना का तो काफी अकल्याण कर चुका, अब कच्छ का भी
तो कुछ करूं! कि कच्छ का कोई अकल्याण करेगा ही नहीं! कि कच्छ बेचारा यूं ही पड़ा
रहेगा!
अब उनको एकदम प्राणों में पीड़ा पड़ी हुई है कि कहीं कच्छ का कोई
अकल्याण न हो जाए!
जवाब तो नहीं दे सके, क्योंकि जो मैंने कहा था--वह
सीधी-साफ बात है। मगर हम सब के भीतर यह आकांक्षा होती है कि कोई हमारा कल्याण कर
दे। यह बड़े मजे की बात है।
तुम तो गंदगी फैलाओ--और कोई आकर सफाई करे! मगर अगर तुम गंदगी फैलाने
में कुशल हो, तो वह सफा कर भी नहीं पाएगा और तुम फिर गंदगी फैला
दोगे! तुम्हारी कुशलता कहां जाएगी! गंदगी तो साफ कर भी देगा, मगर तुम्हारी कुशलता का क्या होगा? तुम फिर गंदगी
फैला लोगे।
तुमने अगर जीवन को गलत ढांचे में ढाला हुआ है, तो कोई तुम्हें ठोंक-पीट कर ठीक-ठाक कर दे; वह जा भी
नहीं पाएगा कि तुम फिर अपने ढांचे पर आ जाओगे! तुम्हें जबर्दस्ती कोई मुक्त नहीं
कर सकता है।
ऋषि ठीक कहते हैं: सर्वे भवंतु सुखिनः--सब सुखी हों। बड़े प्यारे लोग
रहे होंगे। तुम्हारे सुख के लिए कामना की है। सर्वे संतु निरामयाः--और सब
स्वास्थ्य को उपलब्ध हो जाएं। स्वास्थ्य का अर्थ सिर्फ निरोग ही नहीं होता।
स्वास्थ्य का गहरा अर्थ है। उसका ऊपरी अर्थ है कि तुम्हारा शरीर स्वस्थ हो, निरोग हो। लेकिन उसका भीतरी अर्थ है--निरामय। उसका भीतरी अर्थ है कि तुम
स्वयं में स्थित हो जाओ।
हमारा शब्द स्वास्थ्य बड़ा बहुमूल्य है। शरीर के लिए उसका अर्थ होता
है: शरीर की जो प्रकृति है, शरीर का जो धर्म है, उसमें थिर
हो जाए शरीर। जब शरीर अपनी प्रकृति से च्युत हो जाता है, तो
दुख भोगता है। जब शरीर अपनी प्रकृति में ठहर जाता है, तो सुख
भोगता है।
प्रकृति में ठहर जाने में सुख है; प्रकृति से हट जाने
में विकृति है, दुख है। यह जो विराट विश्व है, इसके साथ एक तल्लीनता सध जाए, तो सुख है! इसके साथ
टूट हो जाए, तो दुख है। और ऐसी ही बात भीतर के जगत के संबंध
में भी सच है। और तब स्वास्थ्य के बड़े गहरे अर्थ प्रकट होते हैं। दुनिया की किसी
भाषा में स्वास्थ्य का वैसा गहरा अर्थ नहीं है--स्वयं में स्थित हो जाना।
जब तुम अपनी आत्मा में ठहर जाते हो, तब निरामय हुए। अब सब
रोग गए, असली रोग गए। शरीर के रोग तो ठीक ही हैं। शरीर
है--खुद ही चला जाने वाला है। उसके रोग भी चले जाएं, तो क्या
फर्क पड़ता है! स्वस्थ शरीर भी चले जाएंगे, अस्वस्थ शरीर भी
चले जाएंगे। लेकिन तुम्हारे भीतर कुछ बैठा है और भी, जो अमृत
है; जो न आता, न जाता। उसमें जो ठहर
गया, वह परम स्वास्थ्य का भागीदार हो जाता है। उस परम
स्वास्थ्य को ही धर्म कहते हैं। स्वयं की प्रकृति में ठहर जाने का नाम धर्म है।
महावीर ने धर्म की परिभाषा की है: वत्थु सहावो धम्म--वस्तु का जो
स्वभाव है उसमें ठहर जाना धर्म है। अपूर्व परिभाषा है। न हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन,
न बौद्ध--इससे कुछ लेना-देना नहीं है धर्म का। प्रकृति में, स्वभाव में, निजता में ठहर जाने का नाम धर्म है।
स्वस्थ हो जाना धर्म है।
इसी चेष्टा में हम यहां संलग्न हैं। ध्यान उसकी ही प्रक्रिया है।
ध्यान खोना अर्थात स्वास्थ्य से हट जाना; और ध्यान में आना
जाना अर्थात वापस स्वास्थ्य में आ जाना।
सर्वे भद्राणि पश्यंतु--सब कल्याण को प्राप्त हों। बुद्ध कहते थे कि
जब तुम प्रार्थना करो, जब तुम ध्यान करो, जब तुम आनंद
में सरोबोर हो जाओ, तो तत्क्षण--भूलना मत--कभी भूलना
मत--तत्क्षण अपने आनंद को बांट देना। कहना कि यह मेरा आनंद सारी प्रकृति को मिल
जाए: पशुओं को, पक्षियों को, पौधों को,
पत्थरों को भी। यह मेरा आनंद सब को मिल जाए। उसे बांट देना; तत्क्षण बांट देना।
एक व्यक्ति बुद्ध को सुनने रोज आता था। उसने बुद्ध से एक दिन एकांत
में कहा कि आपकी बात मानता हूं, पूरा-पूरा मानता हूं। सिर्फ एक
बात आपसे आज्ञा चाहता हूं, इतनी आप आज्ञा दे दें। कि वह जो
आदमी मेरा पड़ोसी है, उसको नहीं दे सकता मैं! तो मैं आपकी बात
मान कर चलता हूं, जब आनंदित होता हूं, जब
सुबह प्रार्थना में डूबता हूं या ध्यान में उतरता हूं, और
सुख का झरना बहता है, तो मैं कहता हूं: मेरे पड़ोसी को छोड़कर
सारे जगत को मिल जाए! उस हरामजादे को नहीं दे सकता!
बुद्ध ने कहा, तो फिर तू बात को ही नहीं समझा। जिनसे कुछ लेना-देना
नहीं है, उनको दे सकता है। अब पत्थर-पहाड़--ले लो! क्या हर्जा
है! मगर यह पड़ोसी--यह तो जान पर हमेशा उपद्रव खड़े कर रखता है। इसको कैसे सुख दे
दें! बुद्ध ने कहा--जब तक तू पड़ोसी को न दे पाएगा, तब तक
तेरा सब देना बेकार है; तब तक तेरे पास देने को है भी नहीं।
तू भ्रांति में पड़ता होगा। क्योंकि ऐसे कलुषित चित्त से कैसे आनंद उठता होगा! तू
बैठता होगा ध्यान को, मगर ध्यान नहीं बैठता होगा। अगर ध्यान
बैठ जाता, तो यह सवाल ही नहीं उठना था।
जीसस ने दो वचन कहे हैं। अलग-अलग कहे हैं! मैं कभी-कभी हैरान होता हूं, क्यों अलग-अलग कहे हैं! एक वचन तो कहा है: अपने शत्रु को भी उतना ही प्रेम
करो, जितना अपने को। और दूसरा वचन कहा है: अपने पड़ोसी को भी
उतना ही प्रेम करो, जितना अपने को! मैं कभी-कभी सोचता हूं कि
जीसस से कभी मिलना होगा कहीं, तो उनसे कहूंगा कि दो बार कहने
की क्या जरूरत थी! क्योंकि पड़ोसी और दुश्मन कोई अलग-अलग थोड़े ही होते हैं। एक ही
से बात पूरी हो जाती है कि अपने को जितना प्रेम करते हो, उतना
ही पड़ोसी को करो। पड़ोसी के अलावा और कौन दुश्मन होता है? दुश्मन
होने के लिए भी पास होना जरूरी है ना! जो दूर है, वह तो
दुश्मन नहीं होता।
मित्र होना जरूरी है शत्रु बनने के पहले। तुम किसी को शत्रु बना सकते
हो--बिना मित्र बनाए? असंभव। यह तो कैसे होगा! मित्रता पहले, फिर शत्रुता बनती है। शायद लोग इसीलिए मित्र बनाते हैं कि शत्रु बना सकें!
नहीं तो शत्रु कैसे बनाएंगे? शायद इसीलिए प्रेम रचाते
हैं--कि घृणा कर सकें। शायद इसीलिए मोह बनाते हैं, ताकि
क्रोध कर सकें।
लोग बड़े अजीब हैं! उनके गणित को समझो। और मैं जब लोगों की बात कर रहा
हूं, तो खयाल रखना--तुम्हारी बात कर रहा हूं। तुम्हीं
हो--वे लोग!
यह सूत्र तो कीमती है, पूर्णानंद! लेकिन इस
आशीष को पूरा करने के लिए तुम्हें तैयारी दिखानी होगी। इस आशीष के योग्य तुम्हें
बनना होगा।
सेठ चंदूलाल जिनके माथे से खून बह रहा था, नाक छिली थी और एक आंख सूजी हुई थी, लंगड़ाते-लंगड़ाते
हाथ में एक टूटा हुआ कीमती चश्मा लिए डाक्टर के पास पहुंचे और बोले, मेरा कीमती चश्मा फूट गया है डाक्टर साहब। मैंने तो सुना है कि आजकल
ऐसी-ऐसी रासायनिक गोंदें आने लगी हैं, जिनसे कांच वगैरह भी
जुड़ जाता है। क्या आपके पास उसकी टयूब है?
डाक्टर ने घबड़ा कर चंदूलाल को कोच पर लिटाते हुए पूछा, क्या हुआ सेठजी! ये चेहरे पर इतनी चोटें कैसे आ गईं? किसी से झगड़ा हो गया क्या?
सेठजी बोले, अरे चोटों की बात छोड़ो भाई। शरीर तो आखिर शरीर ही है;
मिट्टी का नश्वर घड़ा है; आज नहीं कल फूटेगा।
तुम तो यह बताओ कि यह चश्मा जुड़ सकता है या नहीं? बहुत कीमती
चश्मा है, और नया है। अभी सन पचपन में ही तो मैंने लगाना
शुरू किया है! लेकिन अब दोष भी किसे दूं! किसी से झगड़ा नहीं हुआ। मेरी ही गलती से
फूट गया। साली किस्मत ही खराब है। यदि नई की नई चीजें इस तरह बरबाद होने लगीं,
तब तो शीघ्र ही मेरा दिवाला निकल जाएगा!
डाक्टर ने बामुश्किल हंसी रोकते हुए पूछा, जरा यह तो बताइए सेठजी, कि आपसे और भला ऐसी क्या
गलती हो गई?
चंदूलाल ने अपनी सूजी हुई आंख पर हाथ रख कर कहा, आज सुबह की ही बात है, मैं और मेरी पत्नी बाथरूम में
साथ-साथ नहा रहे थे। हम लोग सदा एक साथ नहाते हैं, फव्वारे
के नीचे खड़े होकर, इससे पानी की बचत होती है। स्नान के बाद
ऐसा हुआ कि मेरी खर्चीली पत्नी लघुशंका के लिए बैठी और उठकर उसने झट से फ्लश चला
दिया। मैंने सोचा कि फ्लश तो चल ही रहा है, लगे हाथ मैं भी
इसी में पेशाब कर दूं, वरना फिर व्यर्थ पानी बहाना पड़ेगा। बस
इसी जल्दबाजी में मैं कमोड से खिसल पड़ा और फिर जो गति हुई, वह
सब आप देख ही रहे हैं। नगद साढ़े तीन रुपए का चश्मा हाथ से गंवा बैठा, जिसे मेरे एक अभिन्न मित्र ने मुझे भेंट दिया था!
इस कथा से हमें तीन शिक्षाएं मिलती हैं:
पहली, कि जल्दबाजी कभी नहीं करनी चाहिए, इससे आर्थिक हानि होती है।
दूसरी, कि कभी-कभी बहती गंगा में हाथ धोना भी ठीक नहीं।
और तीसरी, कि गंगा में हाथ धोने जब जाएं, तो
कोई भी कीमती सामान अपने साथ न ले जाएं।
पूर्णानंद, कुछ तुम्हें करना पड़े। तुम्हारी जीवन की शैली को कहीं
बदलना पड़े। इसमें भूलें ही भूलें हैं। इसमें तुमने सब गलत आधार दे रखे हैं। इसलिए
असंभव है कि ये प्रार्थनाएं ऋषियों की पूरी हो सकें। संभव हो सकती हैं। मैं भी
प्रार्थना करता हूं कि कभी ऐसा हो सके। यह पृथ्वी आनंद से भरे।
मैं तो अपने संन्यासी को एक शिक्षा दे रहा हूं--आनंदित होने की, प्रफुल्लित होने की। मैं तो त्याग नहीं सिखा रहा; मैं
तो कह रहा हूं: धर्म परमभोग है, महासुख है। मैं तो कह रहा
हूं कि संन्यास जीवन से विरक्ति नहीं है, जीवन को भोगने की
कला है।
मेरी सारी शिक्षाओं का सार-संक्षिप्त इतना ही है: नृत्य सीखो, गीत सीखो, आनंद सीखो; बांटना
सीखो, जीना सीखो। भगोड़े मत बनो, पलायनवादी
मत बनो। अब तक तथाकथित धर्मों के नाम पर तुमने जो किया है, उससे
पृथ्वी दुख से ही भरती गई है। उससे तुम पीड़ित ही हुए हो, परेशान
ही हुए हो। मगर तुम मेरी सुनोगे, इसकी संभावना कम दिखाई पड़ती
है।
तुम्हारी अपनी धारणाएं ऐसी मजबूत हैं कि तुम टस से मस नहीं होते। तुम
बिलकुल जमकर बैठे हुए हो पत्थर की तरह। लाख दुख उठाने पड़ें, अगर तुम अपने दृष्टिकोणों को बदलोगे नहीं! और मेरे जैसे व्यक्ति अगर
तुम्हें हिलाते-डुलाते हैं, तो दुश्मन मालूम होते हैं। लगता
है कि मैं तुम्हारी संस्कृति नष्ट कर रहा हूं! जैसे दुख तुम्हारी संस्कृति है! मैं
तुम्हारा धर्म नष्ट कर रहा हूं, जैसे कि दुख तुम्हारा धर्म
है!
तुम आनंदित नहीं होना चाहते हो क्या? एक बार तय कर लो साफ।
नहीं होना है, तो तुम स्वतंत्र हो। लेकिन तब जान कर जियो कि
दुख ही हमारा जीवन का लक्ष्य है। हम तो दुखी होंगे। दुखी ही हमारी आत्यंतिक गति
है। हमें तो नर्क ही जाना है। तो कम से कम बोधपूर्वक नर्क जाओ!
लेकिन तुम्हारी अजीब हालत है। जाते नर्क की तरफ हो, बातें स्वर्ग की करते हो। बनाते दुख हो, आकांक्षा
सुख की करते हो। फिर छाती पीटते हो, रोते हो, परेशान होते हो! तुम्हें देख कर हंसी भी आती है, दया
भी आती है। तुम्हें देखकर दोनों बातें होती हैं: आंसू भी आते हैं, मुस्कुराहट भी आती है। आंसू आते हैं, यह देख कर कि
क्या दुर्दशा है आदमी की! और मुस्कुराहट इसलिए आती है कि हद्द हो गई! इतनी
मूर्खतापूर्ण दशा का भी तुम्हें बोध नहीं हो पा रहा है! यह क्या मजाक है! यह तुम
किसके साथ मजाक कर रहे हो! अपने ही साथ मजाक कर रहे हो। खुद ही केले के छिलके
फैलाते हो, फिर उन्हीं पर फिसल कर गिरते हो। रोते हो। पीड़ित
होते हो। परेशान होते हो।
तुम्हारी सारी जिंदगी एक दुख की कथा है, व्यथा है। और कोई
कसूरवार नहीं--सिवाय तुम्हारे। जिस दिन तुम यह उत्तरदायित्व समझ लोगे कि मैं ही
जिम्मेवार हूं, उस दिन यह प्रार्थना पूरी हो सकती है। होनी
तो चाहिए--सारी मनुष्य जाति के लिए। क्यों सारी मनुष्य जाति के लिए--पशुओं के लिए,
पौधों के लिए, पक्षियों के लिए, पत्थरों के लिए भी। मगर क्या पत्थरों की बात करें, अभी
तो आदमी पत्थर बना है।
मगर अब समय आ गया है कि अगर तुम न चेते, तो आदमियत नष्ट होगी।
अब बहुत दुख का घड़ा भर चुका है। या तो इसे खाली करो या यह घड़ा फूटेगा। अब आदमी
ज्यादा से ज्यादा और इस सदी के अंत तक जी सकता है खींचत्तान कर। तुम्हारे जीवन के
जितने गलत ढांचे-ढर्रे थे, वे सब अंतिम पराकाष्ठा पर पहुंच
गए हैं। उनका आखिरी परिणाम तीसरा महायुद्ध होगा, जो सारी
मनुष्य जाति को, सारे जीवन को पृथ्वी से नष्ट कर देगा।
या तो तुम चौंको, जागो--और या फिर इस महामृत्यु के
लिए तैयार हो जाओ।
इसलिए मैं सोचता हूं कि शायद तुम्हें जागने के लिए इतने बड़े खतरे की
ही जरूरत है तो ही शायद तुम चौंको। इसलिए मैं बड़ी आशा से भरा हूं। इतना महान खतरा
आदमी के सामने कभी भी नहीं था, जितना आज है। इसलिए एक आशा की
किरण है कि शायद यह खतरा तुम्हें झकझोर दे। शायद धर्म की एक नई अवतारणा हो सके।
शायद संन्यास का एक नया रूप निर्मित हो सके। शायद हम पृथ्वी को नाचते-गाते लोगों
से भर सकें।
बहुत हो चुकी उदासी; बहुत हो चुकी विरक्ति। जीवन के
रस को भोगने की कला को शायद आदमी अब सीखने के करीब आ रहा है, इतना प्रौढ़ हो रहा है। सीखना ही शायद पड़े, क्योंकि
विकल्प या तो महामृत्यु है या महाक्रांति।
दूसरा प्रश्न: भगवान, मुझे निर्विचार चेतना को उपलब्ध हुए बहुत दिन हो गए हैं। अब मुझे इस
निर्विचारता में कोई आनंद नहीं मिलता है। मुझको अब जीने की इच्छा नहीं होती है।
सिवाय आत्महत्या के कुछ भी नहीं सूझता। कृपया मुझे रास्ता दिखाएं।
महेश कुकार गिनोड़िया!
किस भ्रांति में पड़े हो? निर्विचार चेतना को
उपलब्ध हुए तुम्हें बहुत दिन हो चुके! कैसी यह निर्विचार चेतना है, जिसमें अभी आत्महत्या के विचार सूझ रहे हैं! कैसी यह निर्विचार चेतना है,
जिसमें कोई आनंद नहीं मिल रहा है! तुमने तो सब बुद्धों को हरा दिया।
तुम तो बुद्धू होकर बुद्धों को मात किए दे रहे हो! सब बुद्धों को बुद्धू सिद्ध किए
दे रहे हो! तुम तो निरपवाद हो! तुमने तो गजब कर दिया! ऐसी बात तो कभी किसी ने कही
नहीं! तुम होश में हो या पागल हो?
निर्विचार, निर्विकल्प चेतना को जो उपलब्ध हो जाता है, वह बचता ही नहीं--आत्महत्या किसकी! वह तो मर ही गया। वह तो समाप्त हुआ। यह
जो तुममें मैं बोल रहा है, यह नहीं बचता। तुम अपने प्रश्न को
फिर से देखो।
मुझे निर्विचार चेतना को उपलब्ध हुए बहुत दिन हो गए हैं। अब मुझे इस
निर्विचारता में कोई आनंद नहीं मिलता है। मुझको अब जीने की इच्छा नहीं होती है।
यह कौन बचा! निर्विचार चेतना या निर्विकल्प चेतना में मैं तो बचता ही
नहीं। और जहां मैं नहीं बचता, वहां कौन मिटेगा! क्या मिटना
चाहोगे!
और अगर आत्महत्या करने का ही विचार उठता है, तो क्या मुझसे आत्महत्या का रास्ता पूछने आए हो! तुम मुझको भी फंसाओगे!
मैं वैसे ही झंझटों में हूं! रास्ता तो मैं बताऊंगा, क्योंकि
पूछोगे, तो बताऊंगा।
मगर मुझे लगता नहीं कि तुम मरना चाहते हो। क्योंकि मरना जिसको हो, वह कोई रास्ता पूछता फिरता हो! अरे इतनी गाड़ियां चल रही हैं, किसी के भी नीचे लेट जाओ! इतने पहाड़ खड़े हैं, काहे
के लिए? कूद जाओ! सरकार इतने पुल बनाती है--किसलिए? इतना सब आयोजन करते हैं, आखिर तुम्हारे ही लिए ना!
एक आदमी आत्महत्या कर रहा था। पुल पर से कूदने ही जा रहा था कि पुलिस
वाले ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा, भाईजान, क्या कर रहे हो? सर्द रात्रि है, इतनी ठंड है, पानी बर्फ जैसा है; तुम कूदोगे, तो मुझे भी कूदना पड़ेगा, तुम्हें बचाने के लिए। अब तुम्हें तो मरना ही है; मुझे
निमोनिया वगैरह हो गया, तो मैं नाहक मारा जाऊंगा। अरे भैया,
घर जाकर फांसी क्यों नहीं लगा लेते? रस्सी
चाहिए हो, मैं दे दूं! मुझ पर कृपा करो। यह रस्सी ले लो;
घर जाकर गले में बांध लेना। लटक जाना अपने छप्पर से। कम से कम मुझे
तो न मारो!
तुम भी पूछ रहे हो कि रास्ता बताएं! अब रास्ता क्या बताना है! इतने
रास्ते तो हैं, किसी भी रास्ते पर मर सकते हो। रास्तों पर लोग जाते
काहे के लिए हैं! रोज तो लोग रास्तों पर मर रहे हैं। कहीं ट्रक की टक्कर से। कहीं
बस गिर गई। तुम्हें बसें नहीं मिल रही हैं, जो गिरती है!
आजकल कौन-सी बसें पहुंचती हैं! बस यानी बस! अब कहां आना-जाना! आवागमन से मुक्ति!
कोई भी सरकारी बस पकड़ लो।
और इतने सरदार जी ट्रक चलाए जा रहे हैं, एकदम धुआंधार ताड़ी
पीए हुए और तुम मुझसे पूछने आए हो! तुम यहां तक आ गए बच कर, यही
अदभुत हैं! रास्ते में कितने अवसर न आए होंगे! कितनी स्त्रियां कारें चलाने लगी
हैं! अरे किसी के भी सामने आ जाओ! और ज्यादा दिक्कत हो, तो
अपनी पत्नी को कार चलाना सिखा दो। वहीं घर में ही फैसला कर देगी। जैसे ही निकालेगी
गैरेज से कार, खड़े हो जाना सामने! बस, पर्याप्त
है।
मरने को तो कितने उपाय हैं! और निर्विचार आदमी को इतनी भी अकल नहीं आई
अभी तक! निर्विचार आदमी तो जीने तक के उपाय कर लेता है; तुम मरने की भी नहीं कर पा रहे हो!
यहां भी मैं मरना सिखाता हूं--मगर और तरह का। और वह तो मैं तुम्हें
कैसे सिखाऊं! तुम वैसे तो कह रहे हो कि निर्विचार को पा ही चुके; नहीं तो यहां मैं मरना ही सिखाता हूं। न हो तो तुम इन दो महिलाओं से मिलो।
रंजन ने लिखा है--भगवान, तेरी बगिया बड़ी
प्यारी! मैं तो गई मारी, आके यहां रे! अब इस रंजन से मिलो।
यह मर भी चुकी, मगर अभी भी गीत गा रही है!
और एक से तुम्हें भरोसा न आता हो, कि एक गवाही से क्या
होता है, तो तुम अमृता से मिलो। अमृता कहती है: भगवान,
आपकी अदाएं तोबा! मर गए हम तो! लोग अदाओं में मरे जा रहे हैं;
प्यारी बगिया देखकर मरे जा रहे हैं!
और यह रंजन और अमृता दोनों को दरवाजे पर रिसेप्शन पर बिठा रखा है इनको, कि जिनको भी मरना वगैरह हो, वहीं इनसे ही बात कर
लिए! यह स्वागतद्वार पर ही बिठा रखा है इन दोनों को! ये दोनों होशियार हैं। बड़ी
तरकीब से मर गईं! और अभी भी गा रही है--और मस्त हो रही हैं!
मरना हो, तो कुछ ऐसा मरो। क्या तुम निर्विचारता...कैसी
निर्विचारता साध बैठे! ताड़ी वगैरह तो नहीं पीते! क्या करते हो!
महेश कुमार गिनोड़िया! नाम भी तुम्हारा गजब है! गिनोड़िया--कि गिनोरिया!
क्या-क्या नाम खोजे हुए हैं! जैसे कोई अच्छे शब्द बचे ही न हों!
देखो, निर्विचार चेतना ऐसे नहीं होती। और कई साल पहले मिल
चुकी है तुम्हें! कई दिन हो गए हैं! पागलपन छोड़ो। ध्यान सीखो। यह वहम उतारो। इस
तरह की मूढ़ताओं से कुछ सार नहीं है। क्योंकि निर्विचार चेतना मिल जाए, तो फिर कुछ पाने को नहीं रह जाता। फिर आनंद ही आनंद है। और आनंद से कोई कभी
ऊबा है!
सुख से आदमी ऊब जाए। जिसको हम तथाकथित सुख कहते हैं, उससे आदमी ऊब जाए, मगर आनंद से कभी नहीं ऊबता। वही
तो भेद है हमारा--आनंद और सुख में। या बुद्ध ने जिसको सुख और महासुख कहा है।
महासुख वह, जिससे कोई कभी नहीं ऊबता। सुख वह जिससे ऊब जाता
है।
सुख का मतलब यह है कि यह स्त्री प्यारी लगती है। लगती ही प्यारी इसलिए
है, जब तक मिली नहीं। मिल गई--कि ऊबे। मिल गए--फिर क्या करोगे! दो-चार दिन में
नयापन चला जाएगा--तुम्हारा भी, और उसका भी। वही भिंडी की
सब्जी रोज-रोज! वही भिंडी खाते-खाते घबड़ाने ही लगोगे!
सुख से आदमी ऊब जाता है। कितना ही सुख हो...। एक ही फिल्म को देखने
कितनी बार जा सकते हो! एक फिल्म में पहली दफा अच्छा लगेगा, सुख मालूम होगा। दूसरी बार वह मजा नहीं आएगा, जो
पहली दफा आया था, क्योंकि अब कुछ उघड़ने को न रहा। सब उघड़
चुका। अब कहानी मालूम ही है। पहले से ही मालूम है। और तीसरी बार भी देखना पड़े--और
चौथी बार भी देखना पड़े, तो पगलाने लगोगे! अगर मजबूरी में ही
दिखाई जाए फिल्म रोज-रोज--वही फिल्म--तो सात दफे के बाद फिर क्या तुम्हारा होश रह
जाएगा; तब तुम पूछोगे कि आत्महत्या करने का कोई उपाय है! कि
अब यही फिल्म मैं कब तक देखता रहूं!
लेकिन निर्विचार चेतना से कोई कभी नहीं ऊबता, क्योंकि वहां देखने को कुछ नहीं बचता। वहां दृश्य नहीं बचता। चूंकि दृश्य
नहीं बचता, इसलिए कोई द्रष्टा भी नहीं बचता। न वहां दृश्य
है--न द्रष्टा। न ज्ञाता न ज्ञेय। न वहां कोई भोक्ता है, न
कुछ भोग्य। वहां कैसी ऊब!
तुम्हारी ऊब बता रही है कि तुमने आनंद नहीं जाना है। और यह
निर्विचारता का तुम जो दावा कर रहे हो, वह बिलकुल झूठा है।
हो सकता है कि तुम सोचते हो कि तुमको निर्विचारता मिल गई, मगर
वह सोचना ही है तुम्हारा। वह भी विचार है तुम्हारा! यह कोई निर्विचारता नहीं है।
यहां रहो; निर्विचारता सीखो। यहां सारी ध्यान की प्रक्रियाएं
हैं, जो तुम्हें निर्विचार करना सिखा दें। और जब आनंद का
तुम्हें स्वाद मिलेगा, तब तुम कहोगे कि इससे कैसे कोई ऊब
सकता है!
आनंद है ही वह सुख, जिससे ऊबा नहीं जा सकता। ऐसे सुख
का नाम ही आनंद है, जिससे ऊबा नहीं जा सकता। इस दुनिया में
जिनको हम सुख कहते हैं, वे तो आज सुख हैं, कल दुख हो जाते हैं। जो कल दुख था, वह आज सुख हो
जाता है। वहां सुख और दुख रूपांतरित होते रहते हैं। उनमें अदला-बदली होती रहती है।
वहां सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
हो सकता है, कोई मंत्र वगैरह पढ़ते होओ। और अगर मंत्र खूब जोर-जोर
से पढ़ते हो, जैसा तुम्हारे ढंग से दिखता है, कि कोई जिद्दी किस्म के आदमी होओगे, तो हठयोगी वगैरह
बन जाओ। लगा दी हठ एकदम--राम-राम जपने लगे। घंटों राम-राम जपते रहे, तो एक तरह का सन्नाटा आ जाएगा। खोपड़ी भनभना जाएगी और कुछ भी नहीं, तो सन्नाटा आ जाएगा! उस सन्नाटे को तुम कि समझे कि निर्विचार हो गए--तो
गलती में हो।
मंत्रों के जाप से नहीं होती निर्विचारणा। मंत्रों के जाप से तो एक
तरह की प्रसुप्ति आ जाती है, निद्रा आ जाती है। और निद्रा से
ऊब जाओगे--निश्चित ऊब जाओगे। मंत्र-जाप करने वाले आज नहीं कल एक मंत्र से ऊब
जाएंगे, उनको दूसरा मंत्र चाहिए। जैसे एक पत्नी से ऊबे,
एक पति से ऊबे, एक मकान से ऊबे, एक भोजन से ऊबे--ऐसे एक मंत्र से ऊब जाएंगे। कल उनको दूसरा मंत्र चाहिए;
परसों तीसरा मंत्र चाहिए। एक गुरु से दूसरे गुरु के पास जाते रहेंगे।
एक दूकान से दूसरी दूकान पर भटकते रहेंगे।
यहां मैं कोई मंत्र नहीं सिखाता। यहां तो निर्विचार होने की जो
एकमात्र कीमिया है, वही सिखाई जाती है--साक्षी भाव। विचारों के साक्षी
बनो। सिर्फ देखते रहो विचारों को। कोई राम-राम नहीं जपना है; कोई हरे कृष्ण नहीं जपना है। उन सबसे कुछ होने वाली संभावना नहीं है। कुछ
होने का उपाय नहीं है।
सिर्फ देखते रहो, जो विचार की प्रक्रिया तुम्हारे
भीतर चल रही है। और देखते-देखते चमत्कार घटित होता है। देखते-देखते तुम्हारे और
तुम्हारे विचार के बीच फासला पैदा हो जाता है। इतना फासला पैदा हो जाता है कि तुम
साफ देख सकते हो कि मैं विचार नहीं हूं। और जिस दिन यह दिखाई पड़ता है कि मैं विचार
नहीं हूं, उस दिन विचार गिर जाते हैं। उसी दिन--उसी क्षण। और
जहां विचार गिरे, वहां मैं गिरा, क्योंकि
मैं स्वयं एक विचार है। और जहां विचार गिरे, वहां यह भाव भी
गिरा कि क्या सुख, क्या दुख! ये भी सब विचार हैं।
निर्विचार क्या कोई हो गया, फिर कुछ बचता ही
नहीं। निर्विचार हो गया हूं--यह विचार भी नहीं बचता।
एक बौद्ध--परम बौद्ध--रिंझाई के पास एक युवक ने आकर कहा कि आप कहते थे
कि निर्विचार साध लो; साध लिया। अब बस निर्विचार ही निर्विचार रहा है।
रिंझाई ने उससे कहा, अब तू इसको भी फेंक आ। फिर आना।
उसने कहा, अब इसको कैसे फेंकूं!
तो रिंझाई ने कहा, फिर एक विचार रह गया! अभी तू
निर्विचार नहीं हुआ। अब जब सब फेंक दिया, तो एक और फेंक दे।
वही जो महावीर ने कहा कि सारी नदी पार कर गया, अब किनारा न पकड़! अब किनारा भी छोड़ दे। सब छोड़ चुका, अब मुझे क्यों पकड़ता है! मुझे भी छोड़ दे!
अब तुम इतनी कृपा करो, महेश कुमार गिनोड़िया,
कि निर्विचार का भाव भी छोड़ दो। यह विचार भी विचार ही है। इसलिए
हमने इस देश में, जिन्होंने जाना, उन्होंने,
पतंजलि ने--समाधि के दो रूप कहे: सबीज और निर्बीज। सबीज समाधि का
अर्थ है: जिसमें इतना बीज मौजूद है अभी कि मुझे समाधि मिल गई! बस इसी बीज में से
सब निकल आएगा फिर से वापस। पूरा झाड़ फिर से खड़ा हो जाएगा। इसी एक बीज में से अंकुर
निकलेंगे। फिर शाखाएं खड़ी होंगी। फिर फल लग जाएंगे, फिर फूल
लग जाएंगे। और इसी एक बीज में फिर हजारों बीज लग जाएंगे। निर्बीज होना पड़ेगा।
इसलिए समाधि का जो दूसरा आत्यंतिक रूप है, वह निर्बीज समाधि
है।
निर्बीज समाधि का अर्थ है: अब यह बीज भी न रहा कि मुझे समाधि मिल गई।
अब दोनों बातें खतम हो गईं। न संसार--न मोक्ष। सब गया। अब कैसा सुख--कैसा दुख! इस
घड़ी में ही आनंद की वर्षा है। झड़ी लग जाती है। मूसलाधार बरसता है आनंद। अंतहीन, शाश्वत, सदा-सदा के लिए। उससे कोई कभी नहीं ऊबा है।
तुम नहीं ऊब सकते। कोई ऊब ही नहीं सकता। ऊबना असंभव है।
अच्छा हुआ, तुम यहां आ गए। अगर तुम्हारा यह विचार भी टूट जाए कि
तुम निर्विचार हो गए हो, तो काफी है। और नहीं तो तुम उपद्रव
में तो पड़ ही गए। तुमने एक झूठी धारणा बना ली और इस धारणा से अब तुम परेशान हो रहे
हो। और धारणा से ऊब रहे हो। अब ऊब इतनी घनी हो रही है कि आत्महत्या तक करने का
खयाल आने लगा! महावीर को नहीं आया, बुद्ध को नहीं आया। कृष्ण
को नहीं आया, क्राइस्ट को नहीं आया। किसी ज्ञाता को नहीं आया
आत्महत्या का खयाल। तुमको आ रहा है, तो जरूर कहीं चूक हो रही
है। अपनी चूक पहचानो।
तुम ठीक समय पर यहां आ गए। और अच्छा हुआ कि बिना आत्महत्या किए आ गए!
अभी भी मौका है; अभी भी निर्विचार सध सकता है। और यहां तो सारा का
सारा विधान ही निर्विचार का है।
ध्यान पर ही मेरा एकमात्र जोर है। न आचरण पर, न चरित्र पर, न शील पर--किसी चीज पर जोर नहीं है;
सिर्फ ध्यान पर। क्योंकि मेरी दृष्टि यह है कि ध्यान सधा तो सब सधा।
इक साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
आज इतना ही।
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक २३ जुलाई,
१९८०
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