कुल पेज दृश्य

बुधवार, 19 अप्रैल 2017

एस धम्मो सनंतनो-(ओशो)-प्रवचन-108


दर्पण बनो—(प्रवचन-एकसौआठवां)

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न:

 भगवान बुद्ध ने ज्ञानोपलब्धि के तुरंत बाद कहा : स्वयं ही जानकर किसको गुरु कहूं और किसको सिखाऊं, किसको शिष्य बनाऊं? और फिर उन्होंने चालीस वर्षों तक लाखों लोगों को दीक्षित भी किया और सिखाया भी। लेकिन महापरिनिर्वाण के पहले उनका अंतिम उपदेश था : आत्म दीपो भव! भगवान इस पर कुछ प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।

जिसने भी जाना, सदा स्वयं से जाना।
गुरु हो, तो भी निमित्तमात्र है। गुरु न हो, तो भी चल जाएगा।
असली सवाल— ध्यान रखना—गुरु के होने, न होने का नहीं है। असली सवाल स्वयं में प्रवेश का है। कुछ साहसी लोग अकेले भी स्वयं में प्रविष्ट हो जाते हैं। कुछ को सहारे की जरूरत पड़ती है। जिनको सहारे की जरूरत पड़ती है, वे भी प्रविष्ट तो अकेले ही होते हैं। सहारा निमित्तमात्र है।
सहारा वस्तुत: सत्य के मिलने में सहयोगी नहीं है, सिर्फ तुम्हारी हिम्मत बढ़ाने में सहयोगी है।

जैसे तुम डरते हो गहरे पानी में जाने में। और कोई कहता है घबड़ाओ मत, मैं किनारे पर खड़ा हूं। तुम जाओ। जरूरत होगी, तो मैं हूं। मैं कूद पड़गा। बचा लूंगा। तुम जाते हो।
जरूरत कभी पड़ती नहीं। क्योंकि वह गहराई तुम्हारी ही गहराई है। उसमें ड़बकर आदमी मिटता नहीं, पहली दफा होता है। इसलिए ड़बने में कोई खतरा ही नहीं है। न ड़बो, तो ही झंझट है। डूबगए, तब तो कोई खतरा नहीं है। डूबगए, तो पहुंच गए। लेकिन जिसने गहराई नहीं जानी, वह डरता है।
गुरु इतना ही करता है कि तुम्हारे झूठे डर को…….। तुमसे अगर वह कहे कि यह डर झूठा है, घबड़ाओ मत; कोई कभी डूबा नहीं है। या डूबभी गए जो, वे पहुंच गए ड़बकर, तो शायद तुम भाग खड़े होओगे। तुम कहोगे, क्या पक्का भरोसा कि कोई कभी डूबा नहीं! और न डूबा हो कोई, मुझे तो लगता है कि मैं डूबजाऊंगा। मैं असहाय, मैं अल्प शक्तिवान, इस विराट सागर में अकेला जाऊं—नहीं होगा। या अगर गुरु कहे तुमसे सच्ची बात—कि डूबगए, तो पहुंच गए। ड़बना सौभाग्य है। मृत्यु महाजीवन का द्वार है। तब तो तुम इस आदमी को बिलकुल ही छोड़कर भाग जाओगे। यहां रुकना भी खतरनाक है! मिटने कोई नहीं आता गुरु के पास; होने आता है। लेकिन होने की प्रक्रिया मिटना है।
तो गुरु ये बातें नहीं कहता। इन बातों को छिपाकर रखता है। यह तो तुम जानोगे, तब जानोगे। तुम्हें आश्वासन देता है. घबड़ाओ मत, मैं तो खड़ा हूं। देखते नहीं मुझे कि इतनी गहराइयों में तैरता हूं। तुम ड़बोगे, तो मैं बचा लूंगा।
यह एक झूठ को दूसरे झूठ से सहारा देकर तुम्हें हिम्मत, तुम्हें साहस देने की चेष्टा है। यह उपाय है। इस भांति तुम उतर जाते हो। उतर गए, तो तुम स्वयं जानोगे कि बचाने की कोई जरूरत न थी। बचाना तो महंगा पड़ जाता। उतरकर तो ड़बना ही है। ड़बकर गहराई हो जाना है। उसी गहराई में समाधि है, निर्वाण है।
तो गुरु को तुम्हें बचाने कभी जाना नहीं पड़ता। गुरु तो तुम्हें इस बहाने भेज रहा है —कि बचा लूंगा, घबडाओ मत, जाओ तो।
एक दफा गए, तो खुद ही स्वाद लग जाएगा। और ड़बने का स्वाद लग गया, तो राज समझ में आ गया। जब तुम पा लोगे, तब तुम कहोगे अरे! यह तो अपने से हो गया! तब तुम जानोगे भलीभांति कि गुरु को कुछ भी न करना पड़ा।
फिर भी तुम अनुग्रह मानोगे, यद्यपि गुरु ने कुछ भी नहीं किया। इतना तो किया कि तुम एक व्यर्थ की बात से डरे थे, तुम्हें सहारा दिया। उस समय सहारा बड़ा जरूरी था।
अब यह जरा जटिल मामला है। सहारा गुरु देता भी नहीं, क्योंकि सहारे की कोई जरूरत नहीं है। और देता भी है। क्योंकि तुम झूठ हो। तुम अंधेरे में खड़े हो। तुम्हें कुछ दिखायी नहीं पड़ता। तुम्हें सहारे की जरूरत है, तो तुम्हें सहारा देता है। यद्यपि सहारे की जरूरत कभी नहीं पड़ती।
तुम्हें बेसहारा छोड़ने में ही गुरु की कला है। अगर कोई गुरु तुम्हें सहारा सच में दे दे, तो तुम वंचित रह जाओगे। वही सहारा अटकाव हो जाएगा।
तो बुद्ध ठीक कहते हैं. स्वयं ही जानकर अब किसको गुरु कहूं? किसी ने जनाया नहीं। किसी ने सत्य दिया नहीं। सत्य भीतर आविष्कृत हुआ है; भीतर उमगा है। किसको गुरु कहूं?
और जब किसी को गुरु नहीं कह सकता, तो किसको शिष्य बनाऊं? वह उसका अनुसंग है। जब मैं किसी को गुरु नहीं कह सकता, तो अब किसको शिष्य बनाऊं? किसको सिखाऊं?
जानता हूं कि सिखाने की जरूरत ही नहीं। प्रत्येक व्यक्ति सत्य को लेकर ही जन्मा है। सत्य तुम्हारा स्वभाव है। कुछ करना नहीं है, सिर्फ अपने स्वभाव को पहचानना है। और यह पहचान की क्षमता भी तुममें है। सारा आयोजन है।
तुम वीणा बजाना जानते हो। तुम्हारी अंगुलियां कुशल हैं। वीणा भी रखी है। यद्यपि संगीत पैदा नहीं हो रहा है। तुम अंगुलियां वीणा पर रख नहीं रहे। तुम अपनी कुशलता वीणा पर बरसा नहीं रहे। तुम अपनी कुशलता वीणा पर बरसाओ; वीणा तुम पर संगीत बरसा दे। सब मौजूद है।
तुम्हें भोजन बनाना आता है। आटा भी है, नमक भी है, घी भी है, दाल भी है, पानी भी है, आग भी जली रखी है, और तुम भूखे बैठे हो! और तुम्हें भोजन बनाना भी आता है! कुछ कमी नहीं है। सब है। जरा तालमेल बिठाना है। जरा संयोजन जमाना है। भूखे रहने की कोई जरूरत न रह जाएगी।
इसलिए बुद्ध कहते हैं. किसको सिखाऊं? क्या सिखाऊं? सत्य सिखाया ही नहीं जा सकता। जो सिखाया जाएगा, वह सत्य नहीं होगा। सिखाने की तो बात दूर, सत्य कहा भी नहीं जा सकता।
जो भी चीज सिखायी जाएगी, वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है। सब सिखावन परभाव है। तुम जो भी सीखते हो, वह बाहर का है। अनसीखा भीतर पड़ा है, उसको सीखना नहीं है। उसके लिए तो सब सिखावन फनी है। जो—जो सीख लिया, उसे विस्मृत करना है।
असली गुरु वही, जो तुम्हें सिखाता नहीं, बल्कि तुम्हें भुलाता है। जो कहता है : भूलो। यह भी भूलो; यह भी भूलो, यह भी भूलो। यह सब कचरा है। कचरे को भूलते जाओ। यह बाहर से आया है; इसे छोड़ते जाओ, त्यागते जाओ। जब तुम्हारे पास त्यागने को कुछ भी न बचे, जब बाहर से आया हुआ सब तुमने वापस बाहर फेंक दिया, तब जो शेष रह जाएगा—धड़कता हुआ, ज्योतिर्मय—वही तुम हो, वही सत्य है।
बाहर से जो आया है, उसने तुम पर पर्तें जमा दी हैं। जैसे दर्पण पर धूल की पर्तें जम गयी हैं। गुरु कहता है : धूल को पोंछ दो। दर्पण भीतर मौजूद है। दर्पण कहीं से लाना नहीं है।
तो इसलिए बुद्ध कहते हैं : किसको सिखाऊं? किसको गुरु बनाऊं?
और तुम्हारा प्रश्न भी संगत है। तुम पूछते हो : 'फिर भी उन्होंने चालीस वर्षों तक लाखों लोगों को दीक्षित जया और सिखाया भी!'
यह भी सच है। तुम्हारा प्रश्न संगत है। और तुम्हें बड़ी उलझन में डालेगा। एक तरफ कहा कि न मेरा कोई गुरु, और न मैं सिखाऊंगा किसी को। फिर चालीस वर्षों तक लाखों लोगों को सिखाया! जितने लोगों को बुद्ध ने सिखाया, किसी दूसरे व्यक्ति ने नहीं सिखाया। सिखाया क्या? यही सिखाया कि सिखाने को कुछ भी नहीं है। दीक्षित किस बात में किया? इसी बात में दीक्षित किया कि कोई गुरु नहीं है। अप्प दीपो भव—अपने दीए खुद बनो।
यह भी सिखाना पड़ेगा, क्योंकि गलत सीख भीतर बैठ गयी है। तुमने पत्थर को हीरा मान रखा है। बुद्ध ने इतना ही सिखाया कि यह पत्थर हीरा नहीं है।
हीरे को सिखाने की जरूरत नहीं है। हीरा तुम्हारे भीतर पडा है। पत्थर से तुम्हारा छुटकारा हो जाए, तो तुम्हारी नजर हीरे पर अपने से पड जाए। लेकिन तुमने पत्थर को हीरा मान लिया। तो तुम मुट्ठी पत्थर पर बांधे हो! हीरा भीतर पड़ा है। वहां नजर जाती नहीं। क्योंकि नजर तो वहां जाती है, जहां तुमने हीरा समझा है। हीरे को तुमने छोड़ रखा है, पत्थर पर नजर टिका रखी है!
तो बुद्ध ने क्या सिखाया लोगों को चालीस वर्ष तक? यही सिखाया कि सिखाने को कुछ भी नहीं है। थोडा अन—सीखना जरूर करना है। यह पत्थर हीरा नहीं है—बस, इतना जानो। जैसे ही यह दिखायी पड़ जाएगा कि पत्थर हीरा नहीं है, तुम्हारी नजर मुक्त हो जाएगी पत्थर से। मुक्त नजर हीरे को फिर खोजने लगेगी।
और अगर तुम्हें यह समझ में आ जाए कि कहां—कहां हीरा नहीं है, बस, पर्याप्त हो गया। फिर वहां —वहां से तुम मुक्त होने लगोगे। मुक्त होते —होते एक दिन नजर उस जगह टिक जाएगी, जहां हीरा है।
असार को असार की भांति जान लेना, सार को जानने का सूत्र है। असत्य को असत्य की भांति पहचान लेना, सत्य की तरफ यात्रा है।
तो बुद्ध ने सिखाया कुछ भी नहीं, फिर भी सिखाया। तुम्हारी अड़चन भी मैं समझता हूं। बुद्ध की अड़चन भी समझो। मगर बुद्ध ठीक ही कहते हैं।
सत्य सिखाया नहीं जा सकता। लेकिन झूठ झूठ है, यह समझाया जा सकता है। और यही समझाया चालीस वर्षों तक सतत। और इसी भाव में दीक्षा दी। बुद्ध अदभुत गुरु हैं।
दुनिया में तीन तरह के गुरु संभव हैं। एक तो गुरु, जो कहता है गुरु के बिना नहीं होगा। गुरु बनाना पड़ेगा। गुरु चुनना पड़ेगा। गुरु बिन नाहीं ज्ञान।
यह सामान्य गुरु है। इसकी बडी भीड़ है। और यह जमता भी है। साधारण बुद्धि के आदमी को यह बात जमती है। क्योंकि बिना सिखाए कैसे सीखेंगे? भाषा भी सीखते, तो स्कूल जाते। गणित सीखते, तो किसी गुरु के पास सीखते। भूगोल, इतिहास, कुछ भी सीखते हैं, तो किसी से सीखते हैं। तो परमात्मा भी किसी से सीखना होगा। यह बडा सामान्य तर्क है— थोथा, ओछा, छिछला—मगर समझ में आता है आम आदमी के कि बिना सीखे कैसे सीखोगे। सीखना तो पड़ेगा ही। कोई न कोई सिखाएगा, तभी सीखोगे।
इसलिए निन्यानबे प्रतिशत लोग ऐसे गुरु के पास जाते हैं, जो कहता है, गुरु के बिना नहीं होगा। और स्वभावत: जो कहता है गुरु के बिना नहीं होगा, वह परोक्षरूप से यह कहता है मुझे गुरु बनाओ। गुरु के बिना होगा नहीं। और कोई गुरु ठीक है नहीं। तो मैं ही बचा। अब तुम मुझे गुरु बनाओ!
दूसरे तरह का गुरु भी होता है। जैसे कृष्णमूर्ति हैं। वे कहते हैं : गुरु हो ही नहीं सकता। गुरु करने में ही भूल है। जैसे एक कहता है ' गुरु बिन नाहीं ज्ञान। वैसे कृष्णमूर्ति कहते हैं. गुरु संग नाहीं ज्ञान! गुरु से बचना। गुरु से बच गए, तो ज्ञान हो जाएगा। गुरु में उलझ गए, तो ज्ञान कभी नहीं होगा।
सौ में बहुमत, निन्यानबे प्रतिशत लोगों को पहली बात जमती है। क्योंकि सीधी—साफ है। थोड़े से अल्पमत को दूसरी बात जमती है। क्योंकि अहंकार के बड़े पक्ष में है।
तो जिनको हम कहते हैं बौद्धिक लोग, इंटेलिजेन्सिया, उनको दूसरी बात जमती है। पहले सीधे —सादे लोग, सामान्यजन, उनको पहली बात जमती है। जो अत्यंत बुद्धिमान हैं, जिन्होंने खूब पढ़ा—लिखा है, सोचा है, चिंतन को निखारा—मांजा है, उन्हें दूसरी बात जमती है। क्योंकि उनको अड़चन होती है किसी को गुरु बनाने में। कोई उनसे ऊपर रहे, यह बात उन्हें कष्ट देती है।
कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्ति को सुनकर वे कहते हैं अहा! यही बात सच है। तो किसी को गुरु बनाने की कोई जरूरत नहीं है! किसी के सामने झुकने की कोई जरूरत नहीं है! उनके अहंकार को इससे पोषण मिलता है।
अब तुम फर्क समझना।
पहला जिस आदमी ने कहा कि गुरु बिन ज्ञान नाहीं; और उसने यह भी समझाया कि और सब गुरु तो मिथ्या; सदगुरु मैं। और इसी तरह, मिथ्यागुरु जिनको वह कह रहा है, वे भी कह रहे हैं कि और सब मिथ्या, ठीक मैं।
तो गुरु के बिना ज्ञान नहीं हो सकता है—इस बात का शोषण गुरुओं ने किया गुलामी पैदा करने के लिए; लोगों को गुलाम बना लेने के लिए। सारी दुनिया इस तरह गुलाम हो गयी। कोई हिंदू है; कोई मुसलमान है; कोई ईसाई है, कोई जैन है। ये सब गुलामी के नाम हैं। अलग— अलग नाम! अलग—अलग रंग—ढंग!
अलग— अलग कारागृह! मगर सब गुलामी के नाम हैं।
तो पहली बात का शोषण गुरुओं ने कर लिया। उसमें भी आधा सच था। और दूसरी बात का शोषण शिष्य कर रहे हैं, उसमें भी आधा सच है। कृष्णमूर्ति की बात में भी आधा सच है।
पहली बात में आधा सच है कि गुरु बिन नाहीं ज्ञान। क्योंकि गुरु के बिना तुम साहस न जुटा पाओगे। जाना अकेले है। पाना अकेले है। जिसे पाना है, वह मिला ही हुआ है। कोई और उसे देने वाला नहीं है। फिर भी डर बहुत है, भय बहुत है, भय के कारण कदम नहीं बढ़ता अज्ञात में।
पहली बात सच है—आधी सच है—कि गुरु के साथ सहारा चाहिए। उसका शोषण गुरुओं ने कर लिया। वह गुरुओं के हित में पड़ी बात।
दूसरी बात भी आधी सच है—कृष्णमूर्ति की। गुरु बिन नाहीं ज्ञान की बात ही मत करो, गुरु संग नाहीं ज्ञान। क्यों? क्योंकि सत्य तो मिला ही हुआ है, किसी के देने की जरूरत नहीं है। और जो देने का दावा करे, वह धोखेबाज है। सत्य तुम्हारा है, निज का है; निजात्मा में है, इसलिए उसे बाहर खोजने की बात ही गलत है। किसी के शरण जाने की कोई जरूरत नहीं है। अशरण हो रहो।
बात बिलकुल सच है, पर आधी। इसका उपयोग अहंकारी लोगों ने कर लिया, अहंकारी शिष्यों ने।
पहले का उपयोग कर लिया अहंकारी गुरुओं ने—कि गुरु के बिना ज्ञान नहीं होगा, इसलिए मुझे गुरु बनाओ। दूसरे का उपयोग कर लिया अहंकारी शिष्यों ने, उन्होंने कहा किसी को गुरु बनाने की जरूरत नहीं है। हम खुद ही गुरु हैं। हम स्वयं ही गुरु हैं। कहीं झुकने की कोई जरूरत नहीं है।
बुद्ध अदभुत गुरु हैं। बुद्ध दोनों बातें कहते हैं। कहते हैं. गुरु के संग ज्ञान नहीं होगा। और दीक्षा देते हैं! और शिष्य बनाते हैं! और कहते हैं किसको शिष्य बनाऊं? कैसे शिष्य बनाऊं? मैंने खुद भी बिना शिष्य बने पाया! तुम भी बिना शिष्य बने पाओगे। फिर भी शिष्य बनाते हैं।
बुद्ध बड़े विरोधाभासी हैं। यही उनकी महिमा है। उनके पास पूरा सत्य है। और जब भी पूरा सत्य होगा, तो पैराडाक्सिकल होगा; विरोधाभासी होगा। जब पूरा सत्य होगा, तो संगत नहीं होगा। उसमें असंगति होगी। क्योंकि पूरे सत्य में दोनों बाजुएं एक साथ होंगी।
पूरा आदमी होगा, तो उसका बायां हाथ भी होगा, और दायां हाथ भी होगा। जिसके पास सिर्फ बायां हाथ है, वह पूरा आदमी नहीं है। उसका दायां हाथ नहीं है। हालांकि एक अर्थ में वह संगत मालूम पड़ेगा, उसकी बात में तर्क होगा।
बुद्ध की बात अतर्क्य होगी, तर्कातीत होगी, क्योंकि दो विपरीत छोरों को इकट्ठा मिला लिया है। बुद्ध ने सत्य को पूरा—पूरा देखा है। तो उनके सत्य में रात भी है, और दिन भी है। और उनके सत्य में स्त्री भी है, और पुरुष भी है। और उनके सत्य में जीवन भी है, और मृत्यु भी है। उन्होंने सत्य को इतनी समग्रता में देखा, उतनी ही समग्रता में कहा भी।
तो वे दोनों बात कहते हैं। वे कहते हैं? किसको शिष्य बनाऊं? और रोज शिष्य बनाते हैं!
बुद्ध को समझने के लिए तुम्हें दोनों तरह के गुरुओं से ऊपर उठना होगा। वे, जो कहते हैं गुरु के बिना ज्ञान हो ही नहीं सकता, उनसे ऊपर उठना होगा। और जो कहते हैं गुरु के संग ज्ञान हो ही नहीं सकता, उनसे भी ऊपर उठना होगा, तो तुम बुद्ध को समझ पाओगे। बू_द्ध की बात इतनी पूरी है, इसीलिए इतनी विपरीत, असंगत मालूम होती है।
तुम सोचते हो कि पहले तो उन्होंने कहा कि स्वयं जानकर गुरु किसको कहूं? किसको सिखाऊं? और फिर अंत में यह भी कहा मरते वक्त आत्म दीपो भव, अपने दीपक स्वयं बनो!
इन दोनों में कोई विरोध नहीं है। शिष्य बनाए। लेकिन शिष्य बनाकर यही कहा आत्म दीपो भव। यही उनका शिष्यत्व है। जो बुद्ध को स्वीकार करता है, वह यही स्वीकार कर रहा है कि कोई गुरु नहीं है, किसी की शरण नहीं जाना। सत्य बाहर से नहीं मिलने वाला। बुद्ध से भी नहीं मिलने वाला।
बुद्ध का बड़ा प्रसिद्ध वचन है कि अगर कहीं रास्ते पर मैं मिल जाऊं, तो मुझे तत्‍क्षण मार डालना। ऐसी अदभुत बात किसी ने नहीं कही है। अगर मैं रास्ते पर कहीं मिल जाऊं, अगर तुम्हारी समाधि के मार्ग पर कहीं बीच में खड़ा हो जाऊं, तो मुझे हटा डालना, मार डालना। मेरे कारण रुकना मत। मेरा मोह तुममें पैदा न हो। तुम मुझे मत पकड़ लेना। तुम मुझसे भो मुक्त हो जाना। अगर बीच में कभी मैं आड़े आने लगू; तुम्हारी समाधि में अगर मैं बाधा डालने लगू; अगर तुम्हारे मन में मेरे प्रति राग पैदा होने लगे, मोह पैदा होने लगे, तो तुम मुझे भी छोड़ देना। क्योंकि राग और मोह सब छोड़ने हैं। तुम मुझे भी क्षमा मत करना, तुम मुझे भी दो टुकड़े कर देना।
ऐसी हिम्मत की बात, जिसे परिपूर्ण सत्य दिखा हो, और जिसने परिपूर्ण सत्य जैसा है, वैसा ही कहा हों—उससे ही संभव हो सकती है।
तो मैं तुम्हें बुद्ध की बात संक्षिप्त में कह दूं। बुद्ध कहते हैं न कोई गुरु है, न कोई शिष्य है। और मैं तुम्हारा गुरु और तुम मेरे शिष्य! मेरे पास सिखाने को कुछ भी नहीं है, और आओ, मैं तुम्हें सिखाऊं। गुरु की कोई जरूरत नहीं है, और आओ, मेरा सहारा ले लो।
तुम अड़चन में पड जाओगे। तुम्हारी बुद्धि एकदम अस्तव्यस्त हो जाएगी कि अब क्या करें! इस आदमी के साथ क्या करें?
लेकिन यही पूर्ण सत्य है। यह सर्वांगीण सत्य है। क्योंकि दोनों बातें इसमें आ गयीं। इसमें गुरु—शिष्य भी आ गए; और गुरुता भी नहीं आयी, और शिष्य की जड़ता भी नहीं आयी। गुरु—शिष्य का अपूर्व नाता भी आ गया, और नाता मोह भी नहीं बना। वह अंतरंग संबंध भी निर्मित हो गया, लेकिन उस अंतरंग संबंध में कोई गांठ नहीं पड़ी, कारागृह नहीं बना।
बुद्ध को स्वीकार करते समय तुम्हें मुक्ति मिल रही है। बुद्ध को गुरु की तरह स्वीकार करते समय तुम गुरु के जाल में नहीं पड़ रहे हो। तुम सब जालों के पार जा रहे हो।
ऐसे गुरु को ही पुराने शास्त्रों ने सदगुरु कहा है। गुरु तो बहुत हैं, सदगुरु कभी—कभी कोई होता है। ध्यान रखना; सदगुरु का अर्थ यही है कि पहले तुम्हें संसार से मुक्त करवा दे और फिर अपने से भी मुक्त करवा दे। क्योंकि मुक्ति में फिर अंत में बाधा नहीं आनी चाहिए।
ऐसा ही समझो कि एक मां अपने बच्चे को चलना सिखाती है हाथ पकडकर। चलना क्या सिखाओगे बच्चे को? चलने की क्षमता उस में पड़ी है। तुम्हारे सिखाने से क्या होगा? तुम्हारे सिखाने से होता, तो किसी लंगड़े को चलाओ! किसी के पैर टूटे हों, उसको चलाओ! तब पता चल जाएगा कि नहीं, अपने वश के बाहर की बात है। तुम्हारे सिखाने से चलता हो, तो पत्थरों को चलाओ सिखाकर। और तुम पा जाओगे कि यह नहीं होने वाला है।
बच्चा चलता है, क्योंकि चल सकता है, बच्चे में चलने की क्षमता पड़ी है। लेकिन शायद हिम्मत नहीं जुटा पाता खड़े होने की। डरता है। स्वाभाविक। गिर जाऊं। कभी चला नहीं पहले, भय होगा ही। मां हाथ पकड़ लेती है। साथ—साथ चलने लगती है—कि देखो, मैं चल रही हूं। तुम भी मेरे जैसे हो। तुम्हारे भी दो पैर, मेरे भी दो पैर। आओ, मेरा हाथ पकड़ो और चलो। हाथ के सहारे बच्चा दो —चार कदम चल लेता है। और उसे भरोसा आता है।
तुमने देखा, जैसे ही बच्चा थोड़ा चलने लगता है, वह हाथ छुड़ाता है मां से। वह कहता है मेरा हाथ छोडो। अब मां थोड़ी डरती भी है कभी कि अभी गिर न जाए; अभी छोटा है। मगर वह कहता है मेरा हाथ छोड़ो। अब वह चलने का मजा खुद लेना चाहता है। और समझदार मां धीरे — धीरे हाथ छोड़ती है। नासमझ मां जबर्दस्ती हाथ को पकड़े रहती है।
तो मां की कला क्या हुई? पहले हाथ पकड़े और फिर छोड़े। पहले बच्चे को अपने पैरों पर खडा कर दे, फिर दूर हट जाए; छाया भी न पड़ने दे उस पर। कहीं ऐसा न हो कि बच्चा उसके आंचल को ही पकड़े जिंदगीभर कमजोर रह जाए!
कई दफे ऐसा हो जाता है। माताएं जरूरत से ज्यादा बच्चे को सहारा दे देती हैं। फिर वह अपने पैरों चल ही नहीं सकता।
अभी एक युवक ने मुझे आकर कहा कि वह अकेला कमरे में नहीं सो सकता।
मैंने कहा. मामला क्या है! उसने कहा कि सदा मां ने अपने ही कमरे में सुलाया। अब तो उम्र उसकी कोई सत्ताईस साल है। अकेला नहीं सो सकता कमरे में! कोई न कोई चाहिए। मां का परिपूरक कोई चाहिए। कोई कमरे में न हो, तो वह छ नहीं सोता। वह कहता है मुझे नींद ही नहीं आती।
अब यह जरा जरूरत से ज्यादा बात हो गयी। ही, छोटा बच्चा है, अकेला नहीं सो सकता, यह समझ में आता है। मां सो जाए। लेकिन जैसे ही बच्चे की क्षमता जगने लगे, वैसे ही उसे हट जाना चाहिए। अब यह बच्चा तो रुग्ण हो गया। इसको सहारा नहीं मिला, जहर हो गयी बात।
और ऐसा ही इस सूक्ष्म जगत में भी घटता है—गुरु और शिष्य के बीच। गुरु अगर कसकर हाथ पकड़ ले, जैसा गुरु पकड़ लेते हैं।... जो कसकर हाथ पकड़ ले, समझ लेना कि वह मिथ्या—गुरु है। जो तुम्हारा कसकर हाथ पकड़ रहा है, वह तुम्हें सहारा कम दे रहा है; खुद सहारा ज्यादा ले रहाहै। इस बात को खयाल में रख लेना। जो कसकर हाथ पकड़ रहा है, वह भला तुमसे कह रहा हो कि मैं तुम्हें सहारा दे रहा हूं, लेकिन वह खुद अकेला होने में डरता है। और तुम अगर उसे छोडोगे, तो वह बहुत नाराज होगा। वह बहुत क्रोध से भर जाएगा। वह तुम्हें अभिशाप देगा। वह कहेगा कि यह तो बगावत हो गयी, दगा हो गया; धोखा हो गया!
यह गुरु खुद ही कमजोर है। यह तुम्हारा हाथ पकड़कर खुद भी हिम्मत जुटा रहा था। यह किसी काम का नहीं है। यह तुम्हें क्या हिम्मत देगा? इसमें खुद भी हिम्मत नहीं है।
सदगुरु की परिभाषा है. जो तुम्हारा हाथ पकड़े, बहुत पोले—पोले पकड़े। इतना पीला पकड़े कि कभी हाथ खिसकाना पड़े, तो तुम्हें पता भी न चले। तुम्हारे हाथ पर दबाव भी न पड़े। तुम्हारे हाथ को पकड़े जाने की आदत भी न पड़े। आदत के पहले हाथ सरक जाए।
सदगुरु वही है, जो अंतत: तुम्हें तुम्हीं पर फेंक दे, ताकि तुम अपने पैरों पर खड़े हो जाओ—अपनी स्वतंत्रता में, अपनी महिमा में, ताकि तुम अपने भीतर के सत्य को जान लो।
मुक्तानंद जैसे गुरु एक काम करते हैं जोर से पकड़ लेते हैं। कृष्णग्रतइr जैसे गुरु दूसरा काम करते हैं वे पकड़ते ही नहीं। वे छिटककर दूर खड़े रहते हैं। अभी चाहे बच्चा छोटा हो, चाहे अभी घुटने सरकता हो, वे कहते हैं कि नहीं, हाथ पकड़ने में खतरा है। हाथ मैं नहीं पकड़गा। तुम खुद ही खड़े हो जाओ। तुम खुद ही चलो। वे दूर खड़े रहते हैं। वे दूर से ही कहते हैं कि चलो, खुद ही खड़े हो जाओ। अपने पैर पर खड़े हो जाओ!
यह बात भी जंचती नहीं, क्योंकि छोटा बच्चा अभी अपने पैर पर खड़ा नहीं हो सकता है। बहुत संभावना है कि यह जिंदगीभर घिसटता रहे, घुटने के बल ही चलता रहे। तो कृष्णमूर्ति के शिष्यों में एक भी उपलब्ध हुआ हो, ऐसा मालूम नहीं पड़ता। वे सब घुटने के बल ही सरक रहे हैं। यह एक भ्रांति।
दूसरी भ्रांति हैं मुक्तानंद जैसे लोग, जोर से पकड लेते हैं। फिर छोडते ही नहीं। वे कहते हैं कहां जा रहे हो? अब न छोडूंगा। अब एक दफे पकड़ लिया तो पकड़ लिया! तो तुम जवान भी हो जाते और उनका हाथ तुम्हारे ऊपर जंजीर बन जाता है। और वे तुम्हारे भीतर एक अपराध— भाव पैदा करते हैं कि अगर तुमने मुझे छोड़ा, तो यह महापाप होगा; यह धोखा होगा; यह दगा होगा।
एक सिंधी महिला ने मुझे आकर कहा—किसी सिंधी गुरु के पास जाती होगी—कि जब से आपके पास आने लगी हूं गुरु बहुत नाराज हैं। दादा गुरु का नाम होगा। कहने लगी. दादा कहते हैं कि तुमने वैसा ही धोखा किया है, जैसे कोई स्त्री अपने पति के साथ करे।
यह तो हद्द हो गयी! शिष्य किसी और के पास चला जाए, तो यह वैसा ही व्यभिचार हो गया, जैसे कोई पत्नी किसी और पति को खोज ले। जैसे पत्नी को पतिव्रता होना चाहिए; ऐसे शिष्य को गुरुव्रता होना चाहिए। वे नाराज हैं। दादा बड़े नाराज हैं।
मैंने कहा. तू निकल आयी उनके चक्कर से, अच्छा हुआ। ये दादा खतरनाक हैं। ये तेरी गरदन दबा देते। ये तुझे मार ही डालते।
बुद्ध के वचन इन अर्थों में अपूर्व हैं। बुद्ध उतने दूर तक सहारा देते हैं, जितने दूर तक लगता है कि तुम बिना सहारे न चल सकोगे। जैसे ही समझ में आया कि तुम अब बिना सहारे चलने लगोगे, वे हाथ अलग कर लेते हैं।
इसलिए बुद्ध ने दीक्षा भी दी और यह भी कहते रहे कि दीक्षा की कोई जरूरत नहीं है। शिष्य भी बनाए और यह भी निरंतर कहते रहे कि किसी को शिष्य होने की कोई जरूरत नहीं है। यह बड़ी महिमापूर्ण स्थिति है। इसे समझो। इसे समझो, तो ही तुम मेरे पास होने का अर्थ भी समझ पाओगे।
यही मेरी प्रक्रिया है। मैं चाहता हूं कि मैं तुम्हारे लिए निमित्त से ज्यादा न होऊं, इशारे से ज्यादा नहीं। इशारे से ज्यादा हुआ कि खतरा हो गया। मील का पत्थर जैसे इशारा करता है, तीर बना होता है कि आगे जाओ, दिल्ली पचास मील दूर है। मील के पत्थर को छाती से लगाकर नहीं बैठ जाना है।
मैं भी चाहता हूं : मेरा इशारा समझो और आगे बढ़ो; और पीछे लौट—लौटकर भी मत देखना। यह मत कहना कि जिस मील के पत्थर ने आगे की तरफ इशारा किया, अब उससे हम निष्ठा कैसे अलग करें! अब तो हम इसी को छाती से लगाकर बैठेंगे। या अगर हमें जाना ही है र तो हम इस पत्थर को उखाड़कर अपने कंधे पर रखकर चलेंगे।
दोनों हालत में तुम पंगु हो जाओगे। उस पत्थर को कंधे पर ढोओगे, यात्रा मुश्किल हो जाएगी। और फिर औरों की भी तो सोचो, जो रास्ते पर पीछे आते होंगे। तुम पत्थर ही उखाड़कर ले चले! और अगर तुम पत्थर के पास ही बैठ गए, तो तुम्हारी यात्रा कब पूरी होगी?
गुरु को तो ऐसा ही समझो, जैसे चांद को बतायी गयी अंगुली। चांद को देखो, अंगुली को भूल जाओ। अंगुली भूल ही जानी चाहिए। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुमने धोखा दे दिया, या दगा कर दिया। सच तो यह है कि जो अंगुली तुम्हें बिलकुल भूल जाएगी और चांद ही दिखायी पड़ता रहेगा, उस अंगुली के प्रति तुम्हारे जीवन में सदा अनुग्रह का भाव रहेगा। क्योंकि उसी ने चांद को दिखाया। और न केवल चांद को दिखाया, अपने को हटा भी लिया—चुपचाप हटा लिया। कहीं ऐसा न हो कि अंगुली के कारण बाधा बन जाए।
आंख बड़ी छोटी है। एक अंगुली भी चांद को देखने में रुकावट बन सकती है। अब मैं अगर अपनी अंगुली तुम्हारी आंख में ही रख दूर तो तुम्हें क्या चांद दिखायी पड़ेगा? दिन में तारे नजर आने लगेंगे!
हिमालय जैसा बड़ा पहाड़ भी सामने खड़ा हो और अंगुली कोई आंख में रख दे, तो फिर नहीं दिखायी पड़ेगा। जरा सी कंकरी आंख में पड़ जाती है, तो हिमालय छिप जाते हैं। आंख शुद्ध होनी चाहिए। इतनी शुद्ध होनी चाहिए कि उसमें गुरु की छाया भी न पड़े।
ऐसी अदभुत प्रक्रिया बुद्ध ने दी। बुद्ध को समझते समय तुम मुझे भी समझ ले सकते हो। मैं भी कहता हूं : गुरु की कोई जरूरत नहीं है। और फिर भी कहता हूं कि गुरु की जरूरत है। मैं भी कहता हूं : शिष्य बनने का कोई कारण नहीं है। और फिर भी कहता हूं शिष्य बने बिना नहीं होगा। और मैं भी कहता हूं सिखाने को क्या है! भूलने को है। फिर भी तुम्हें सिखाता हूं।

 दूसरा प्रश्न: पूछा है स्वामी अच्‍युत बोधिसत्व ने।

            तेरे पास बैठकर दो घड़ी, तुझे हाले—दिल है सुना लिया
मुझे अपना मान न मान तू? तुझे मैंने अपना बना लिया
कई तेजगाम भटक गए, कई बर्करौ हुए लापता
तेरे आस्तां पे जो रूक गए, उन्हें आकर मंजिल ने पा लिया
यह नजर का अपनी कसूर है, कि हिजाबे—जलवा की है खता
कोई एक किरण को तरस गया, कोई चांदनी में नहा लिया
मेरे साथ होती न बेखुदी, तो भटक गया होता मैं कहीं
मेरी लग्जिशों ने कदम—कदम, मुझे गमरही से बचा लिया

बहुत प्राचीन वचन है मिश्र के शास्त्रों में, कि इसके पहले कि गुरु को शिष्य चुने, गुरु शिष्य को चुन लेता है। मैं तुम्हें इसकी याद दिलाना चाहता हूं। तुमने कहा : 'मुझे अपना मान न मान तू? तुझे मैंने अपना बना लिया। '
इसके पहले कि तुमने मुझे अपना बनाया, मैंने तुम्हें अपना बना लिया। अन्यथा तुम मुझे अपना न बना पाते।
शिष्य तो अंधेरे में भटक रहा है। शिष्य को तो अपने आप का भी पता नहीं है, दूसरे को तो अपना कैसे बनाएगा? शिष्य को तो रोशनी का भी पता नहीं; अगर रोशनी सामने भी आ जाएगी, तो पहचान भी न पाएगा। हम पहचानते भी उसी को हैं, जिसे हमने पहले जाना हो।
रास्ते से कार गुजरी; तुमने पहचान लिया कि कार है। लेकिन एक आदिवासी को ले आओ जंगल से, जिसने कार नहीं देखी। रास्ते से कार निकलेगी। वह भी देखेगा। आंख में उसकी दिखायी पड़ेगा। आंख तो तुमसे अच्छी उसके पास होगी। साफ—सुथरी होगी। जंगल से आया होगा। धूल— धवांस भी नहीं होगी। शहर का धुआं भी नहीं होगा। स्कूल की पढ़ायी—लिखायी में चश्मा भी नहीं चढा होगा। आंख तो उसकी तुमसे बहुत बेहतर होगी; मीलों तक देखने वाली होगी। कार उसे बिलकुल साफ दिखायी पड़ेगी। लेकिन पहचान में कुछ भी न आएगा। वह यह न कह सकेगा : यह कार है।
वह चौंककर खड़ा हो जाएगा। उसको कुछ समझ में नहीं आएगा कि यह है क्या! अगर पूछेगा भी तो कुछ अजीब सा प्रश्न पूछेगा। पूछेगा कि यह कोन जानवर! यह क्या जा रहा है! और इसका मुंह भी दिखायी नहीं पड़ता; पूंछ भी दिखायी नहीं पड़ती! सींग भी नहीं है। मामला क्या है? किस तरह का जानवर? किस तरह का पशु? चौंककर घबड़ा जाएगा।
और कार के निकल जाने के बाद, अगर तुम उससे कहो कि कार का वर्णन करके बताओ, तो न बता सकेगा। हालाकि देखा उसने, लेकिन प्रत्‍यभिज्ञा नहीं हो पायी। पहचान नहीं हो पायी। वर्णन कैसे होगा?
शिष्य तो अंधेरे में जीया है, रोशनी आ भी जाए सामने, तो भी पहचान न सकेगा। रोशनी आंख के सामने खड़ी हो, तो आंखें तिलमिला जाएंगी। आंखें शायद बंद हो जाएं। अंधेरे का आदी है, रोशनी को देखकर आंख बंद करके फिर अपने अंधेरे में खो जाएगा।
नहीं; तुम ने मुझे अपना माना, वह इसीलिए संभव हो पाया कि मैंने तुम्हें, तुम्हारी समझ के पहले भी, अपना मान लिया है। तुम अगर मेरे करीब आ सके, तो सिर्फ इसीलिए आ सके हो कि मैंने तुम्हें पुकारा है। अन्यथा तुम करीब न आ सकोगे। यहां ऐसे लोग भी आ जाते हैं, जिन्हें मैंने पुकारा नहीं है। वे आते हैं और चले जाते हैं। उनके लिए यह सराय है। जिज्ञासा, कुतूहल ले आता है—कि देखें, क्या है! वे मेरी पूरी बात भी नहीं सुन पाते हैं।
रोज मैं देखता हूं दो—चार ऐसे लोग आ जाते हैं। बीच बात से उठ जाते हैं। उनकी पकड में कुछ नहीं आता। उनकी समझ में कुछ नहीं आता। उन पर कितनी ही दया करो, कुछ भी परिणाम नहीं हो सकता। उनके कान बहरे हैं और आंखें बिलकुल अंधी हैं। वे ऐसे ही आ गए हैं संयोगवशांत। रास्ते से निकलते होंगे, देखा और लोग जा रहे हैं, साथ हो लिए। या कोई मित्र आता होगा, उसने कहा, कभी तुम भी चलो। उन्होंने कहा ठीक है, आज छुट्टी भी है दफ्तर की, चलते हैं। चले चलते हैं। कहीं किताब हाथ लग गयी होगी। कुछ पढ़ा होगा। सोचा होगा. चलें, एक बार चलकर देखें कि मामला क्या है।
ऐसे लोग टिक नहीं पाते। ऐसे लोग आते हैं, चले जाते हैं। टिकते तो वही हैं, जो पुकारे गए हैं। टिकते तो वही हैं, जो चुने गए हैं। तुम्हें तो पता देर में चलता है कि तुमने मुझे चुन लिया, मुझे पता पहले चलता है कि तुम चुन लिए गए हो।
इसलिए यह तो कहो ही मत कि 'मुझे अपना मान न मान तु तुझे मैंने अपना बना लिया।'
'कई तेजगाम भटक गए, कई बर्करौ हुए लापता।'
यह सच है। क्योंकि जिंदगी सिर्फ तेज चलने से ही हल नहीं हो जाती। कई बार धीमे चलने से पहुंचना होता है। तेज चलने से ही कोई पहुंच जाता है, ऐसा नहीं है। एक बहुत पुरानी बौद्ध कथा है। दो भिक्षुओं ने नदी पार की। एक वृद्ध भिक्षु; और स्वभावत: वृद्ध है, इसलिए बड़े शास्त्रों का बोझ है। शास्त्र लिए हुए है। और एक युवा भिक्षु। दोनों नदी के तट पर उतरे और उन्होंने, जो मल्लाह उन्हें नदी के पार ले आया था, उससे पूछा कि सांझ होने के करीब है और सूरज ढलने को होने लगा, और हम पहुंचना चाहते हैं बस्ती रात हो जाने के पहले—पुराने दिनों की कहानी—रात होते ही, सूरज ढलते ही, द्वार—दरवाजा बंद हो जाएगा नगर का। फिर रातभर हमें जंगल में ही रहना पड़ेगा। और खतरनाक है। जंगली जानवर हैं। तो कोई सूक्ष्म रास्ता तुझे पता हो, करीब का रास्ता तुझे पता हो, और कितने जल्दी हम पहुंच जाएं, ऐसा मार्ग बता दे।
उस मांझी ने बडी अजीब बात कही। अदभुत आदमी रहा होगा। कथाएं कहती हैं, पहुंचा हुआ अर्हत था। उसने कहा ऐसा है, अगर तेज गए, तो भटक जाओगे। अगर धीरे गए, तो पहुंच जाओगे।
यह बात सुनकर तो दोनों संन्यासियों ने कहा, यह कोई पागल मालूम होता है! यह तो बिलकुल गणित के बाहर की बात हो गयी, गणित से उलटी हो गयी। तेज जाओगे, भटक जाओगे! धीमे गए, पहुंच जाओगे! ऐसे आदमी की बात कोन सुने। उन्होंने कहा, समय खराब मत करो इसके साथ। यह आदमी होश में नहीं है।
वे तो भागे। क्योंकि सूरज ढल रहा है, और गांव की दीवाल दूर दिखायी पड़ती है ढलते सूरज में। बीच में ऊंची—नीची पहाड़ियां हैं। पहुंच पाएंगे कि नहीं, घबडाहट है। इससे अब बात करने में समय खोना है। और इस आदमी की बात में कुछ सार होने वाला नहीं है।
दोनों भागे। जब वे भाग रहे थे, तब उस मल्लाह ने जोर से हंसकर फिर कहा. याद रखना मेरी बात। धीरे गए, तो पहुंच जाओगे। तेजी से गए, तो भटक जाओगे। तब तो वे और तेजी से भागे कि इसकी बात सुनना भी खतरे सै खाली नहीं है। और वही हुआ, जो मल्लाह ने कहा था।
का आदमी जल्दी में भागते में—सिर पर ग्रंथों का बोझ——गिर पड़ा। ऊबड़—खाबड़ रास्ता था। बूढा आदमी। ठीक से दिखता भी नहीं था। गिर पडा। दोनों पैर लहूलुहान हो गए। और सारे शास्त्र गिर गए और उनके पन्ने हवा ने उड़ा दिए। और युवक उनके पन्ने बीन रहा है।
मांझी ने अपनी नांव बाधी। बांधकर जब वह उनके पास आया; खड़े होकर हंसने लगा। उसने कहा तुमने मुझे समझा होगा कि पागल हूं। मैंने तुमसे कहा था कि धीरे जाओगे, पहुंच जाओगे। रास्ता ऊबड़—खाबड़ है, अनजान है। तुम इस पर कभी चले नहीं। मैं इस पर रोज आता—जाता हूं। तुम बूढ़े आदमी, शास्त्रों का इतना बोझ लिए! मैं जानता था कि गिर पड़ोगे। इसलिए कहा था, धीरे चलो। और तुम देखते नहीं कि मुझे अभी नाव बांधनी है। फिर मुझे भी तो गांव पहुंचना है। मैं तुम्हारे पीछे ही आ रहा हूं। अगर मैं पहुंच जाऊंगा, तो तुम भी पहुंच जाओगे।
इस छोटी सी कहानी में बडा राज है। क्षुद्र चीजों की तरफ तो शायद दौड़ो, तो चल जाए। लेकिन विराट की तरफ दौडना मत। दौड़ में अधैर्य है।
धन पाना हो, तो दौड़ना ही पड़ेगा, क्योंकि धन तो एक तरह का पागलपन है। उसमें तो तुम जितने पागल हो जाओ, उतनी आसानी से मिल जाएगा। पद पाना हो, तो दौड़ना ही पड़ेगा। पद तो एक तरह का पागलपन है। उसमें समझदार तो रस ही नहीं लेता। उसमें तो नासमझ ही उत्सुक होते हैं। उसमें तो जिनकी बुद्धि मारी गयी है, वे ही रस लेते हैं
लेकिन परमात्मा को पाना हो, तो दौड़ना मत। क्योंकि परमात्मा को पाने के लिए तो एक शांत दशा चाहिए। दौड़ने में तो ज्वर आ जाता है, शाति खो जाती है, मन अशांत हो जाता है।
तुम देखते हो पश्चिम में कितनी अशांति है! होना नहीं चाहिए क्योंकि उनके पास सब है। धन है, सुविधा है, यंत्र हैं, वितान का बड़ा विराट जाल है। सब है। पर बड़ी अशांति है।
और बडी हैरानी है कि मामला क्या है? धन भी बढ़ गया। जीवन का स्तर भी बढ़ गया। लोग राजाओं की तरह रह रहे हैं। साधारण लोग राजाओं की तरह रह रहे हैं! अच्छे मकान हैं। अच्छी चिकित्सा का उपाय है। लोग लंबे जी रहे हैं।
अस्सी—नब्बे—सौ साल की उम्र सामान्य होती जा रही है। सौ के ऊपर लोग हैं। रूस में कोई हजारों लोग हैं, जो सौ के ऊपर पहुंच गए हैं। सब सुविधा है। पर बड़ी अशांति है। अशांति का कारण क्या है? मौलिक कारण है : पश्चिम की गति में आस्था, स्पीड। हर बात में तेजी!
जब तुम बहुत तेजी में होते हो, तो तुम सदा भागे हुए होते हो। भागने में जीवन उद्विग्न हो जाता है। भागने में जीवन विक्षिप्त हो जाता है।
आहिस्ता चलो। ऐसे चलो, जैसे सुबह घूमने निकले हो, बगीचा घूमने गए हो। कहीं जाना नहीं है। तो ही तुम वृक्षों को देख पाओगे, फूलों को देख पाओगे, पक्षियों की चहचहाहट सुन पाओगे। सुबह का सार—सौंदर्य तुम्हें अनुभव में आएगा।
लेकिन पश्चिम में लोग घूमने भी जाते हैं, तो भी कार में जाते हैं! और कार भी जाती है, तो तेज रफ्तार से जाती है। बगीचे तो नहीं पहुंच पाते, कहीं दुर्घटना हो जाती है।
तुम्हें पता है, छुट्टी के दिन जितने लोग दुर्घटनाओं में मरते हैं पश्चिम में, उतने और किसी दिन नहीं मरते! क्योंकि छुट्टी के दिन सभी घूमने निकल पड़ते हैं! सब भागे जा रहे हैं। कोई पूछता भी नहीं : कहां? किसलिए? जब सारा गांव भाग रहा है, तो तुमने भी अपनी कार निकाली और तुम भी सम्मिलित हो गए। पीछे रह जाना ठीक नहीं है! पीछे रहने में दुख होता है। जहां और जा रहे हैं, वहा हम भी जा रहे हैं।
मैंने एक कहानी सुनी है. एक युवक अपनी प्रेयसी को लेकर कार चला रहा है। उसने कहा कि दूसरे गांव हम जल्दी ही पहुंच जाएंगे। लेकिन वह समय तो कभी का निकल गया। और सौ मील की रफ्तार से जा रहे हैं। उस युवती ने पूछा कि वह गांव तो आता नहीं दिखता! उसने कहा. तुम फिकर क्या करती हो? चाल देखो! कितनी तेज चाल से जा रहे हैं! अरे! गांव में क्या? पहुंचे कि नहीं पहुंचे! इससे क्या फर्क पड़ता है। मगर चाल देखो!
यह हालत ऐसी हो गयी, लक्ष्य ही भूल गया, चाल में ही मजा है। तेज जा रहे हैं। कहां जा रहे हैं—यह मत पूछो। कहा पहुंचोगे—यह मत पूछो।
और पश्चिम की यह छाया पूरब पर पड़ती जाती है। पूरब में भी तेजी आती जाती है।
मैं तुम्हें कह दूं. कुछ चीजें हैं, जो धीमे— धीमे बढती हैं। मौसमी फूल होते हैं, वे जल्दी बढते हैं। मगर जल्दी मर भी जाते हैं। दो—चार सप्ताह में आ भी जाते हैं, दो—चार सप्ताह में गए भी! उनका निज्ञान भी नहीं रह जाता।
आकाश को छूने वाले दरख्त ऐसे दों—चार सप्ताह में नहीं बढ़ते। आकाश को छूने वाले दरख्तों को समय लगता है। सैकड़ों वर्ष लगते हैं। जो दरख्त सैकडों वर्षों तक आकाश से बातें करेंगे, चांद—तारों से गुफ्तगू करेंगे, वे ऐसे ही नहीं बढ़ जाते—कि तुमने सुबह लगाया और रात देखा कि आकाश में पहुंच गए। समय लगता है। और जो वृक्ष जितने धीमे बढ़ता है, उतनी ज्यादा देर टिकता है।
तो मैं तुमसे एक और बात कह दूं शायद उस अर्हत ने जो माझी था, यही सोचकर न कहा होगा कि ये मुझे बिलकुल पागल समझेंगे। लेकिन तुम मुझे बिलकुल समझो, तो भी चलेगा। मैं तुमसे यह भी कह दूं. अगर मैं उस नाव का मांझी होता, तो उनसे मैं कहता कि अगर तेज गए, तो भटक जाओगे। अगर धीमे गए, तो पहुंच जाओगे। और अगर बिलकुल न जाओ, यहीं बैठ जाओ, तो पहुंच ही गए। अगर जाना ही छोड़ दो, तो पहुंच ही गए। मैं यह भी उससे कह देना चाहता। क्योंकि पहुंचना कहां है! जहां पहुंचना है, वह तुम्हारे भीतर मौजूद है। बैठ जाओ, तो पहुंच गए।
ठीक है।
'कई तेजगाम भटक गए, कई बर्करौ हुए लापता
तेरे आस्तां पे जो रुक गए, उन्हें आकर मंजिल ने पा लिया। '
यह सच है। परमात्मा तुम्हें पा लेगा आकर, अगर तुम रुक जाओ।
'उन्हें आकर मंजिल ने पा लिया।'
तुम राजी हो जाओ, शांत हो जाओ, ध्यानस्थ हो जाओ, परमात्मा तुम्हें खोजता चला आता है। उसकी बांह चली आती है खोजती तुम्हें। दूर आकाश से उसके हाथ तुम्हारे सिर पर पड जाते हैं।
मगर तुम बैठो तो! तुम ऐसे भागे हो, ऐसे कूद रहे हो—जैसा बुद्ध ने कहा कि बंदर वृक्षों पर कूदते हैं। परमात्मा हाथ बढ़ाता है जब तक तुम्हारे वृक्ष पर, तुम छलांग लगा गए दूसरे पर! उसका हाथ तुम्हें खोजता ही रहता है। मिलन कभी हो नहीं पाता। तुम कूद—फांद में लगे हो।
तुम एक चीज से दूसरी चीज पर जा रहे हो। तुम किसी चीज में कभी रमते नहीं। रमते नहीं, इसलिए राम से चूक जाते हो। जहां रम जाओ, वहीं राम मिल जाएगा। रम जाओ यानी रुक जाओ, ठहर जाओ, बिलकुल ठहर जाओ। कंपन भी न हो। सारी गति विलीन हो जाए। उस स्तब्ध स्थिति में, जिसको कृष्ण ने स्थितधी कहा—जिसकी बुद्धि, जिसका चैतन्य बिलकुल स्थिर हो गया है—स्थितधी। जो चलते हुए भी चलता नहीं, जो बोलते हुए भी बोलता नहीं—ऐसा जो घिर हो गया है, ऐसी थिरता में परमात्मा तुम्हें स्वयं खोज लेता है। 'उन्हें आकर मंजिल ने पा लिया।
यह नजर का अपनी कसूर है, कि हिजाबे —जलवा की है खता
कोई एक किरण को तरस गया, कोई चांदनी में नहा लिया।'
बस, दृष्टि की ही भूल है। चांदनी तो पूरे वक्त बरस रही है। आंख खोलो और देखो। खुलो चांदनी के प्रति। बस, दृष्टि का कसूर है। देखने —देखने के भेद हैं। तुम कैसा देखते हो, इस पर सब निर्भर है। इस जिंदगी में परम आनंद बरस रहा है, लेकिन अगर तुम्हारे देखने का ढंग गलत हो, तो तुम दुख देखते रहोगे।
स्वर्ग में भी नरक देख लें, ऐसे लोग हैं। नर्क में भी स्वर्ग देख लें, ऐसे लोग हैं। और जो नर्क में स्वर्ग देख ले, वही है जानकार, समझदार। जो नर्क में भी सुखी हो, उसे तुम नर्क कैसे भेज सकोगे?
एक पुरानी तिब्बती कहावत कहती है? सुखी व्यक्ति को नर्क नहीं भेजा जा सकता।
तुम सोचते हो कि सुखी व्यक्ति को स्वर्ग भेजा जाता है। तुम गलती में हो। कहीं भी भेजो, सुखी व्यक्ति स्वर्ग में होता है। सुखी व्यक्ति को स्वर्ग भेजना नहीं पड़ता। सुखी व्यक्ति स्वर्ग में होता है।
तुम अगर दुख की कला में बहुत निष्णात हो गए हो—और ऐसे लोग निष्णात हो गए हैं, उन्हें कुछ दिखायी ही नहीं पड़ता। कितने ही फूल खिले, कितने ही तारे आकाश में हों, उन्हें कुछ दिखायी नहीं पड़ता! वे जमीन में अपनी आंखें गडाए चलते चले जाते हैं।
मैंने सुना है एक कारागृह में दो कैदी बंद थे। पूर्णिमा की रात और चांद निकला। और दोनों आकर सींकचों को पकड़कर बाहर देखने लगे। एक कैदी बोला, दुष्टों ने किस जगह कारागृह बनाया है! सताने की कितनी तरकीबें निकाली हैं! यहां सींकचों को पकड़कर भी खड़े नहीं हो सकते। देखते, सामने एक डबरा भरा है! गंदगी और मच्छड़! और वह आदमी डबरे में गौर से देखने लगा। और डबरे में क्या दिखायी पड़ा कोई पुराना जूता पड़ा है। कोई पुराना टीन का कनस्तर पडा है। और वह बड़ा नाराज हो गया।
और दूसरा आदमी चांद को देख रहा है। और दूसरा आदमी बोला. धन्यभाग! कारागृह तो मैं भूल ही गया कुछ देर के लिए! सींकचे सींकचे न रहे। मैं तो खुले आकाश में उड़ गया। मेरे तो पंख फैल गए। कैसा अपूर्व चांद निकला है!
वे दोनों एक ही कारागृह में हैं। दोनों एक ही सींकचे को पकड़कर खड़े हैं। एक ने डबरा देखा; एक ने चांद देखा। जिसने जो देखा, वह वैसा हो गया। जिसने चांद देखा, वह आकाश में पंख खोलकर उड़ गया। जिसने डबरा देखा, उसे सड़े —गले जूते, कनस्तर, इत्यादि से सत्संग हो गया। सब दृष्टि की बात है। चांदनी तो पूरे वक्त बरस रही है।
'कोई एक किरण को तरस गया, कोई चांदनी में नहा लिया।'
दृष्टि की बात है। यह मत सोचना भूलकर कि तुम पर चांदनी नहीं बरस रही है। परमात्मा सब को बराबर उपलब्ध है। मगर तुम पीठ किए खड़े हो! चांदनी बरस रही है, तुम आंख बंद किए खड़े हो! चांदनी बरस रही है; तुमने घूंघट डाल रखा है। चांदनी बरस रही है, तुम घर के भीतर बंद हो।
तुम्हें एक किरण भी मिल जाए, तो किसी भूल—चूक के कारण मिल गयी। तुमसे कुछ भूल—चूक हो गयी, इसलिए मिल गयी। तुम्हारे बावजूद मिल गयी, तुम्हें एक किरण भी मिल जाए तो।
लेकिन चांदनी खूब बरस रही है। यह सारा अस्तित्व परमात्मा की वर्षा से भरा है। यहां हर बूंद में वही है; हर श्वास में वही है। जरा अपने रुख को बदलने की बात है।

 तीसरा प्रश्न

 भगवान बुद्ध ने ज्ञानोपलब्धि के पहले छह वर्षों तक जो घोर तप किया था, क्या वह सब का सब व्यर्थ गया? या उसका कुछ अंश काम भी आया? समझाने की कृपा करें।

दोनों बातें हैं। सब का सब व्यर्थ भी गया और सब का सब काम भी आया। थोड़ा जागकर समझना, तो ही समझ पाओगे। थोड़ा अपने चैतन्य को झकझोरकर समझना, तो ही समझ पाओगे।
ऐसा उत्तर नहीं है—कि कुछ काम नहीं आया। ऐसा भी उत्तर नहीं है—कि सब काम आ गया। उत्तर ऐसा है—कि कुछ भी काम नहीं आया और सब काम आ गया। क्या मैं कहना चाहता हूं इस विरोधाभास से?
पहली बात वह छह वर्ष जो उन्होंने मेहनत की, उससे कुछ भी नहीं मिला। क्योंकि मिलने का कोई संबंध मेहनत से नहीं है। बाहर है ही नहीं। तुम छह वर्ष दौडो, कि साठ वर्ष दौड़ो—मिलेगा तो रुककर। इसे खूब गहरे बैठ जाने दो। मिलेगा तो रुककर। दौड़ना जब जाएगा, तब मिलेगा।
तुम छह वर्ष दौड़े, कोई व्यक्ति बारह वर्ष दौड़ा; कोई साठ वर्ष दौड़ा—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। छह वर्ष दौड़ने वाला जब रुका, तब उसे मिला। बारह वर्ष दौड़ने वाला जब रुका, तब उसे मिला। साठ वर्ष दौड़ने वाला जब रुका, तब उसे मिला। तो दौड़ तो सब व्यर्थ गयी—इस अर्थ में। श्रम से कुछ भी नहीं हुआ। ठहरने से होता है।
मंजिल दूर नहीं है कि चलने से मिल जाए। तुम मंजिल अपने भीतर लिए हो, इसलिए चलने के कारण चूकते रहोगे। रुक जाओ, तो पा लोगे।
इसलिए कहता हूं कि सब व्यर्थ गया। और फिर यह भी तुमसे कहना चाहता हूं—कि सब काम भी आ गया। क्योंकि बिना दौड़े कोई रुक नहीं सकता। जो खूब दौड़ लेता है, वही रुकता है। नहीं तो दौड़ने की खुजलाहट बनी रहती है! दौड़कर जो थक जाता है, दौड—दौडकर पाता है कि कुछ भी नहीं पाता, वही रुकता है। रुकना कुछ आसान बात नहीं है।
तुम कहो चलो, हम रुके जाते हैं! तुम कहो कि ठीक! बुद्ध छह वर्ष के बाद रुके, हम अभी रुके जाते हैं। तुम्हें नहीं मिल जाएगा रुकने से। क्योंकि तुम्हारे रुकने में और बुद्ध के रुकने में एक बुनियादी फर्क रहेगा।
बुद्ध जानकर रुके कि दौड—दौंडकर नहीं मिलता। तुम बिना जाने, होशियारी से रुक गए कि चलो, उनको बिना दौड़े मिला, हम भी बैठ जाएंगे बगल में ही। हम भी खोज लें एक बोधिवृक्ष। बोधिवृक्ष बहुत हैं। जहां—जहां बड़ के वृक्ष हैं—कहीं भी बैठ जाओ। बोधिवृक्ष के नीचे हम भी बैठ जाएं! हम को भी मिल जाएगा!
सुबह आंख खोलकर देखोगे कि अब आखिरी तारा डूब रहा है, अब अपना तारा भीतर कब उगे?
कुछ नहीं उगेगा। थोड़ी—बहुत देर बैठकर लगेगा कि अब नाश्ते का वक्त हुआ। अब चलें ब्लू डायमंड! अब आज तो गया दिन ऐसे ही। बुद्धत्व नहीं मिला। और भूख बहुत जोर से लगी है, और रातभर सो भी नहीं पाए। और बोधिवृक्ष समाधि वगैर कहां! मच्छड़ ही मच्छड़!
तुम खयाल रखना, बोधिवृक्षों के नीचे समाधि ही नहीं है, मच्छड़ भी हैं।
रातभर सौ भी न पाए। कहा की झंझट में पड़ गए! कम से कम मच्छरदानी तो ले आते। अपने घर शाति से तो सोते थे। और रातभर डर भी लगेगा कि कहीं कोई जंगली जानवर इत्यादि न आ जाए। कोई चोर—लुटेरा न आ जाए! और रातभर तुम कई बार आंख खोल—खोलकर देखोगे कि अभी तक बुद्धत्व नहीं मिला। कब मिलता है देखें?
शक भी होगा कई बार कि अरे! पागल हुए हो। ऐसे कहीं मिलता है? ऐसे बैठे—ठाले मिलता होता, तो सभी को मिल गया होता। बैठे—ठाले कहीं बुद्धत्व मिलता है? अरे उठो! कुछ घर चलो। अपने काम में लगो। ऐसे समय मत गवाओ। मन में विचार आएंगे कि किसी फिल्म को ही देख लेते; कि किसी संगीत की मंडली में ही चले गए होते। कुछ नहीं होता तो टी? वी ही देख लिए होते। यह रात ऐसे ही गयी! पछताओगे बहुत।
तो दूसरी बात तुमसे कह दूं कि वह छह वर्ष के दौड़ने का परिणाम आया। छह वर्ष के दौड़ने से सत्य नहीं मिला; लेकिन छह वर्ष के दौड़ने से बैठने की क्षमता मिली। इसलिए दोनों बातें मैं एक साथ कहना चाहता हूं।
छह वर्ष बुद्ध न दौड़े होते, तो रुकने की कला न आती। दौड़ने वाला ही रुकना जानता है। दौड़ने की असफलता ही रुकने की पात्रता बनती है।
और फिर छह वर्ष…...। यह मत सोचना कि छह वर्ष का भी कोई संबंध है। कि चलो, छह वर्ष हम भी दौड़े। यह भी इस पर निर्भर करेगा कि तुम कितनी प्रगाढ़ता से दौड़े, कितनी परिपूर्णता से दौड़े। बुद्ध की त्वरा चाहिए, तो छह वर्ष में हो गया; नहीं तो साठ वर्ष में भी नहीं होगा।
धीरे— धीरे दौड़े, ऐसे लंगड़ाते —लंगड़ाते चले, घड़ी देखते रहे कि अब ये छह वर्ष कब पूरे होते हैं देखें। चलो, और थोड़ा चल लें। किसी तरह घसिटते रहे। तो इस घसिटने से छह वर्ष में काम पूरा नहीं होगा। छह जन्म भी लग जाएंगे। यह इस पर निर्भर है कि कितनी समग्रता से दौड़े।
सब दाव पर लगा दिया बुद्ध ने। वहीं उनका राज है। धन लगा दिया, पद लगा दिया, प्रतिष्ठा लगा दी। सब लगा दिया दाव पर। देह—मन, सब समर्पित कर दिया उसी खोज के लिए। कुछ बचाया नहीं। कंजूसी नहीं की। दौड़ आधी— आधी नहीं थी, कुनकुनी नहीं थी। सौ डिग्री पर उबले, तो भाप बने।
छह वर्ष पूरी तरह दौडकर, सब तरफ से दौड़कर, सब उपाय करके, यह दिखायी पड़ा कि मिलता तो है ही नहीं। उपाय मैंने सब कर लिए; जो —जो उपाय थे, सब कर लिए, मिलता तो है ही नहीं। इस अपूर्व निराशा में बैठ गए; हताशा में बैठ गए। अब करने को कुछ नहीं बचा।
लेकिन अगर तुमने कुनकुना—कुनकुना किया, तो करने को बहुत बचेगा। तुम सोचोगे कि ठीक है, कुछ तो किया, मगर टी. एम नहीं कर पाए, भावातीत ध्यान नहीं कर पाए। शायद उससे मिल जाता। कि योग नहीं कर पाए, शायद उससे मिल जाता। कि उपवास नहीं कर पाए, शायद उससे मिल जाता। इतना तो किया जरूर, लेकिन कुछ तो है, जो नहीं किया। कहीं उसमें न हो राज। कहीं वहा से द्वार न खुलता हो! तो तुम्हारी हताशा पूरी नहीं होगी।
हताशा पूर्ण होनी चाहिए। उस हताशा में ही तुम बैठते नहीं, तुम गिर जाते हो। बुद्ध उस रात गिर गए। दौड़—दौड़कर गिर गए। अपनी सामर्थ्य पूरी दौड़ लिए। फिर कोई सामर्थ्य न बची। गिर गए। वह गिरना अहंकार का विसर्जन होना हो गया। जब दौड़ ही न रही, तो अहंकार कहां रहे? जब करने से कुछ न हुआ, तो कर्ता मर गया। उस अकर्ता भाव में ही क्रांति घटी, सूर्योदय हुआ।
पूछा तुमने 'ज्ञानोपलब्धि से पहले बुद्ध ने छह वर्षों तक जो घोर तप किया था, क्या वह सब का सब व्यर्थ गया या उसका कुछ अंश भी काम में आया?'
पूरा का पूरा व्यर्थ गया और पूरा का पूरा काम में आया।

 चौथा प्रश्न:

 मैं निराशा डूबा हुआ हूं, मुझे आशा दें; मुझे सहारा दें।

तुम गलत जगह आ गए हो।
आशा चाहिए, तो कहीं और जाओ। आशा यानी संसार। निराशा यानी संसार व्‍यर्थ हुआ। देख लिया, यहां कुछ भी नहीं है। आशा का मतलब है फिर सपने। निराशा का अर्थ है सब सपने टूट गए, भंग हो गए। आशा का अर्थ है : फिर वासना, फिर कामना। आशा का अर्थ है आज तक तो नहीं हुआ, कल हो जाए शायद, परसों होगा। आशा का अर्थ है. भविष्य पुनरुज्जीवित हो उठा, योजनाएं बनने लगीं; सपने फिर पंख फैलाने लगे।
नहीं, तुम गलत जगह आ गए। यहां तो पंख काटे जाते हैं सपनों के। यहां तो हताशा सिखायी जाती है। यहां तो निराशा परिपूर्ण हो जाए, तो ही कुछ हो सकता है। तुम कहते हो. 'मैं निराशा में डूबा जा रहा हूं।'
डूब ही जाओ। अब अपने को बचाने की कोशिश मत करो। वही कोशिश तुम्हारी दुश्मन है। अब डूब ही जाओ। बहुत दिन तो बचाया! बचाकर पाया क्या? अब डूब ही जाओ।
आशा बहुत दिन तो रखी। कितनी सम्हाली? हाथ क्या लगा? अब आशा को मरने भी दो। अब और इसको श्वास मत दिए जाओ। अब राम—राम सत्य बोल दो। अब बांधकर इसकी अर्थी और मरघट ले जाओ। कहो आशा मर गयी। इसको अलविदा कहो। इसको जाने दो।
अब निराशा में ठहर जाओ। और तुम चकित होओगे जानकर कि अगर आशा पूरी मर जाए, तो उसी के साथ निराशा भी मर जाती है। यह तुम्हें जरा कठिन होगा, क्योंकि तुम सोचते हो कि आशा मर गयी, तो निराशा ही निराशा रहेगी। तो तुम गलत सोचते हो। तो तुम्हें जीवन का गणित आता नहीं। तो तुम्हें जीवन के तर्क का कुछ पता नहीं है। तो तुम आदमी के तर्क में जी रहे हो।
आदमी के तर्क में बडी गहराई नहीं है, बड़ा छिछला है। आदमी का तर्क कहता है आशा गयी, तो निराशा। लेकिन जीवन का गणित कुछ और कहता है। जीवन का गणित कहता है कि जब तक आशा है, तब तक निराशा है।
निराशा का मतलब क्या होता है? तुमने एक आशा की, पूरी न हुई तो निराशा। जब तुमने आशा ही छोड़ दी तो अब तुम निराश कैसे होओगे? निराश तुम्हें करेगा कोन? जब आशा ही गयी, तो उसी के साथ उसकी छाया भी गयी। छाया है निराशा आशा की।
तुम्हारे घर में कोई मेहमान आया, जब मेहमान चला गया फिर क्या तुम कहते हो. उसकी छाया रह गयी! मेहमान गया, तो छाया भी गयी। छाया रह नहीं सकती। तो तुम कहते हो 'मैं निराशा में डूबा जा रहा हूं। '
लेकिन अभी भी तुम आशा को पकड़े हो; डूब नहीं रहे हो। कहते हैं न, डूबते को तिनके का सहारा। तुमने कुछ तिनके बना रखे होंगे। तुम सोचते होओगे चलो, संसार में कुछ नहीं हुआ, धर्म के जगत में कुछ हो जाएगा। चलो, धन नहीं मिला, ध्यान मिलेगा। चलो, यह लोक नहीं, तो परलोक सम्हाल लें। अब यह तो गया। अब वहा सम्हाल लें। पुण्य कमा लें। पद तो नहीं मिला, पुण्य तो मिल जाए।
तो तुमने आशा के लिए नए क्षेत्र खोज लिए बस। फिर तुमने तिनके बना लिए। फिर तुम इन तिनकों से उलझ गए। फिर तुमने कागज की नावें चला दीं। अब फिर तुम सोचने लगे : अब पहुंचे, तब पहुंचे। फिर कागज की नावें डूबेगी, फिर निराशा होगी।
जिसने आशा छोड़ दी, उसकी निराशा भी गयी। इस सत्य को देखो। इस सत्य को खूब ध्यान करो। जिसकी आशा गयी, उसकी निराशा गयी। जिसने सुख छोड़ा, उसके दुख गए। जिसने सफलता छोड़ी, उसकी असफलता गयी। जिसने मान छोड़ा, उसका अपमान गया। जिसने जीवन छोड़ा, उसकी मृत्यु गयी।
जीवन को पकड़ो, तो मौत आती है। जितने जोर से पकड़ो, उतने जोर से आती है। सफलता के लिए दौड़ो, असफलता हाथ लगती है। बडा मजा है! और तुम इसे देखते ही नहीं, तो तुम दौड़ते ही चले जाते हो, और असफलता बढ़ती चली जाती है। और तुम सोचते हो एक न एक दिन तो सफलता मिलेगी। उसी एक न एक दिन की आशा में असफलता का अंबार लगता चला जाता है।
सफलता कभी किसी को यहां न मिली है, न मिल सकती है। असफल तो हारते ही हैं; जिनको तुम सफल कहते हो, वे और बुरी तरह हारते हैं।
तुमने देखा, जिसको धन मिल जाता है, उसकी हार देखी? जिसको धन नहीं मिलता, उसकी हार कुछ भी नहीं है—उस आदमी के मुकाबले, जिसको धन मिल जाता है। क्योंकि जिसको धन नहीं मिला, उसकी आशा अभी शेष रहती है कि कमा लूंगा। भिखमंगे से भिखमंगा भी आशा रखता है। भिखमंगे से भिखमंगा भी रोज अपने पैसे गिनता है। रोज जमीन में गड़ाता है। अब जो बहुत पढे —लिखे भिखमंगे हैं, वे तो बैंक में भी जमा करवाते हैं!
मैं एक भिखमंगे को जानता था, जो मरा तो सत्रह हजार रुपए बैंक में छोड कर मरा।
तो भिखमंगे भी आशा से भरे हैं। लेकिन जिसको सब मिल जाता है, धन पूरा मिल जाता है, जितना सोचा था, उतना मिल जाता है, उसकी तुमने असफलता देखी? उसके भीतर एकदम निर्धनता छा जाती है। वह देखता है धन का तो अंबार लग गया, और मैं जैसा गरीब था, वैसा का वैसा गरीब—वस्तुत: और भी गरीब हो गया। क्योंकि यह धन की तुलना में अब भीतर की निर्धनता और खलती है।
यह आकस्मिक नहीं है कि बुद्ध सम्राट के बेटे थे और छोड़कर चले गए। तुमने कभी भिखमंगे के बेटे को छोड़कर जाते देखा? तुमने कोई कहानी सुनी है कि भिखमंगे के बेटे ने सब भिखमंगापन छोड़ दिया और संन्यासी हो गया! तुमने ऐसी कोई कहानी सुनी है? ऐसा होता ही नहीं। क्योंकि भिखमंगे का बेटा छोड़ ही क्या सकता है! छोड़ ही कैसे सकता है? अभी तो उसे असफलता मिली ही नहीं। सफलता ही नहीं मिली, तो असफलता कैसे मिले!
बुद्ध ने छोड़ा; राजा के बेटे हैं। महावीर ने छोड़ा; राजा के बेटे हैं। जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के बेटे हैं! क्या मामला है? क्यों राजाओं के बेटों ने छोड़ा? जरूर इनको निर्धनता कुछ ऐसी दिखी, जैसी भिखमंगों को नहीं दिखती। इनको सफलता में असफलता दिखी विराजमान। इनको सुख के बीच दुख खड़ा दिखा, शिखर की तरह, पहाड़ की तरह, उतुंग, आकाश को छूता हुआ।
तुम कहते हो. 'मैं निराशा में डूबा जा रहा हूं। '
तुम डूबना नहीं चाहते। तुम चाहते हो कि मैं कुछ कागज की नावें तुम्हारे लिए तैरा दूं। ऐसा पाप मैं न करूंगा। तुम गलत जगह आ गए। तुम जाओ किन्हीं पुराने ढब के साधु —संन्यासियों के पास, जो तुम्हें आशीर्वाद दें। वे कहें घबड़ाओ मत। यह लो ताबीज। लाटरी पक्का है मिलना। एक दफा और दाव लगा दो।
'मेरे पास तो अगर लाटरी तुम्हें मिल भी रही हो, तो ऐसा आशीर्वाद दूंगा कि कभी न मिले। क्योंकि व्यर्थ के जाल में तुम उलझ जाओगे। तुम और कष्ट में पड़ जाओगे। निराशा आ रही है, अंगीकार कर लो। हृदय खुला छोड़ दो। दरवाजे बंद मत करो। स्वागत करो, बंदनवार बांधो। कहो कि आओ, विराजो!
आशा के साथ बहुत दिन रह लिए, कुछ पाया नहीं। अब निराशा से भी दोस्ती करके देखो। कोन जाने, जो आशा से नहीं हुआ, वह निराशा से हो जाए! और मैं तुमसे कहता हूं : होता है। जो आशा से नहीं होता, वह निराशा से होता है। जहां आशा हार जाती है, वहा निराशा जीत जाती है।
और क्या है जीत निराशा की? अगर तुम परिपूर्ण मन से निराशा को स्वीकार कर लो, उसका मतलब है. अब और आशा नहीं करोगे, तो उसी क्षण निराशा मर गयी। निराशा के प्राण आशा में हैं।
तुमने कहानियां पढ़ी न—बच्चों की कहानियां—कि राजा अपने प्राण तोते में रख देता है। फिर राजा को तुम कितना ही मारो, नहीं मरता, जब तक तोते को न मारो। अब तोते को कोन सोचे कि तोते में राजा के प्राण हैं। पता नहीं कहां रखे हैं? तोते में रखे कि मैना में रखे? किसमें रखे, कहां रखे? कुछ पता नहीं! लेकिन जब तक तुम तोते को न मारो, तब तक राजा न मरेगा।
ऐसे ही निराशा जीती है, आशा के सहारे। निराशा ने अपने प्राण आशा में रखे हैं। जब आशा की गरदन घुट जाएगी, तुम अचानक पाओगे ' इधर आशा मरी, उधर निराशा की लाश पड़ी है।
तुम स्वागत करो। तुम्हारे स्वागत से आशा मर जाएगी। पूरे हृदय से स्वागत करो। निराशा आ रही है, आने दो। धन्यभागी हो तुम! पूरी तरह आ जाने दो। डूबजाओ निराशा में। उसी डूबने में तुम पाओगे. उबर गए। अचानक तुम बाहर आओगे और तुम पाओगे : आशा भी गयी, निराशा भी गयी। तुम मुक्त हुए।
तुम पूछते हो, 'मुझे आशा दें, मुझे सहारा दें।'
सहारों ने ही तो तुम्हें मारा है। सहारों की वजह से ही तो तुम लंगड़े हो गए।
बैसाखियां लेकर चल रहे हो!
यहां तो काम है यही कि तुम्हारी बैसाखियां छीन ली जाएं। बैसाखियां जब पहली दफे छीनी जाती हैं, तो आदमी गिर ही पड़ेगा। वह भी मुझे पता है। क्योंकि जिंदगी हो गयी बैसाखियों पर चलते। कोई ने गीता की बैसाखी ली है। किसी ने कुरान की, किसी ने बाइबिल की, किसी ने कोई और बैसाखी ले रखी है। सब ने अपनी— अपनी बैसाखियां ले रखी हैं। सब अपनी— अपनी बैसाखियों पर लटके हैं! भूल ही गए कि अपने पास पैर भी हैं!
जैसे बच्चे पैदा हों, तभी से बैसाखियां पकड़ा दो, ऐसा हुआ है। सभी को बैसाखियां पकड़ा दी गयीं। बच्चा पैदा हुआ, हिंदू बना दिया गया, मुसलमान बना दिया गया; ईसाई बना दिया गया। बच्चा इधर पैदा हुआ कि जल्दी से बैसाखी पकड़ाते हैं हम। हम उसको चलने नहीं देते अपने पैर पर। हम उसे धर्म को स्वयं नहीं खोजने देते। हम उधार, झूठा धर्म दे देते हैं।
सब धर्म, जो दूसरा देता है, झूठा होता है। अपने से खोजा गया सच होता है। निजता से उभरा हुआ सच होता है। स्वयं के भीतर जो पकता है, वही सच होता है। इसलिए तो तुम झूठे हिंदू झूठे मुसलमान, झूठे सिक्‍ख, झूठे ईसाई, झूठे जैन देखोगे। ये सब झूठे हैं। इनका कोई कसूर नहीं है। इनका कसूर यही है कि इन्होंने बैसाखियों को स्वीकार कर लिया। इनको बैसाखियां पकड़ा दी गयीं।
तुम जरा किसी बच्चे के साथ यह प्रयोग करके देखो। जैसे ही बच्चा पैदा हो, जल्दी से छोटी सी बैसाखियां उसे पकड़ा दो। पहले बैसाखियों से खेलने दो, ताकि उनसे परिचित हो जाए। फिर जब थोडा घसिटने लगे, तब बैसाखियों पर सम्हाल दो। फिर धीरे— धीरे उसको बताओ कि इन्हीं पर चलना चाहिए। यही हमारा कुलधर्म है! हम सदा बैसाखियों पर चले हैं। रघुकुल रीति सदा चली आयी! यह हमारे बाप—दादे भी ऐसे चले; उनके बाप —दादे भी ऐसे चले, तुम भी ऐसे ही चलना। इससे कभी इधर—उधर मत जाना। ये बैसाखियां हमारी प्रतिष्ठा हैं। और बैसाखियों पर ढंग से चलने का नाम ही चलना है। और बैसाखियों पर जो अपने को प्रसादपूर्वक सम्हाल लेता है, वही कुशल है, वही निपुण है। ऐसी बातें सिखाओ।
तो बच्चा बेचारा तुम्हें देखता ही है बैसाखियों पर चलते। उसे खयाल भी नहीं आएगा कि बिना बैसाखियों के कोई चल सकता है। मां भी चलती है, पिता भी चलते हैं; बैसाखियों पर भाई भी चलते हैं। वह भी चलेगा। उसके पैर पंगु हो जाएंगे। उसे याद ही न आएगी कभी कि मैं पैर लेकर पैदा हुआ था।
और फिर अगर एक दिन अचानक कोई बैसाखी छीन ले, तो क्या तुम सोचते हो, एकदम चल पाएगा? नहीं; गिर जाएगा। मगर उसी गिरने से उठना है। बैसाखियाँ अगर छीन ही ली जाएं, तो आज नहीं कल घिसटेगा; जैसा घिसटा होता बचपन में, वह चालीस साल, पचास साल बाद घिसटेगा। मगर वह शुभ है घिसटना।
बैसाखी पर चलने की बजाय, घिसटना शुभ है। क्योंकि घसिटने में कम से कम स्वयं की निजता तो है। घुटने छिलेंगे। तुम पर नाराज भी होगा कि तुमने बैसाखियां क्यों छीन लीं! सब मजे से चल रहा था। फिर उठेगा। कई बार गिरेगा, घुटने टूटेंगे। लेकिन एक दिन पैर पुनरुज्जीवित हो उठेंगे। फिर उनमें ऊर्जा बहेगी। जैसे कि बहनी चाहिए थी पहले ही। नहीं बह पायी। क्योंकि मां —बाप, समाज, संस्कार—इन सब ने मार डाला।
यहां मेरा काम यही है कि तुम्हारी बैसाखियां छीन लूं। इसलिए जिनको बैसाखियों से बहुत मोह है, वे यहां नहीं आते। जिनको बैसाखियों से बहुत मोह है, वे तो मुझे शत्रु मानते हैं। जो बैसाखियों को ही अपने पैर समझ बैठे हैं, वे तो कहते हैं मैं बहुत खतरनाक आदमी हूं। मैं लोगों को लंगड़ा बना रहा हूं। क्योंकि बैसाखियां पैर हैं। मैं बैसाखियां छीन लेता हूं, लोग लंगड़े हो जाते हैं।
जिन्होंने चश्मों को आंख समझ रखा है, वे कहते हैं, मैं लोगों को अंधा बना रहा हूं क्योंकि मैं उनके चश्मे छीन रहा हूं। जिन्होंने शास्त्रों को सत्य समझ रखा है, वे सोचते हैं कि मैं लोगों को भटका रहा हूं, क्योंकि उनके शास्त्र छीन रहा हूं। जिनमें हिम्मत है, वही मुझे समझ पाएंगे।
आशा मत मांगो। सहारा मत मांगो। मैं तुम्हें तुम्हारे सहारे पर खड़ा करना चाहता हूं। और इसके लिए जरूरी है कि तुम सब तरह से बेसहारा हो जाओ, तभी तुम खड़े हो पाओगे। नहीं तो तुम खड़े नहीं हो पाओगे।
और एक न एक दिन निराशा आएगी ही, क्योंकि वह आशा का परिणाम है। आ गयी—अच्छा।
गगन से उतर आयी शाम
अंधेरा वन हुआ
अनचीन्ही पीड़ा से
भर गया
कोना—कोना
अंजुरी से झर गया
खिला—खिला
रूप सलोना
सुधियों ने भेजे पैगाम
सबेरा तन हुआ
कमरे में घुस आयी शाम
खड़े—खड़े गुमसुम से
सोचते से
गलियारे
गंधायित दर्पण के
धूप—रंग
धुले सारे
होने लगे स्वयं नीलाभ
अंधेरा मन हुआ
कमरे में घुस आयी शाम
एक न एक दिन शाम आएगी। जितने जल्दी आ जाए, उतना अच्छा। क्योंकि ये सबेरे जो तुम्हें दिखायी पड रहे हैं आशाओं के, सब झूठे सबेरे हैं। ये सबेरे, जिनमें तुम भरमे हो, भटके हो, सब मृग—मरीचिकाएं हैं।
तुम्हारे जीवन की संध्या आ गयी, निराशा आ गयी। तुम्हारे अंतस कक्ष में शाम घुस आयी। डरो मत। वे झूठे सबेरे बुझ जाएं, यही शुभ है। उनके बुझने के बाद तुम अचानक पाओगे, शाम भी बुझ गयी।
तुम्हें अड़चन होगी, क्योंकि अब तक तुम आशाओं के सहारे चले। आशाओं ने उत्साह दिया, उमंग दी। आशाओं ने सपने दिए, गीत दिए। आशाओं के कारण तुम्हारे जीवन में अर्थ रहा। अब तुम अचानक पाओगे : व्यर्थ हो गए। अब तुम अचानक पाओगे. सब अर्थ खो गया, रिक्त—रिक्त, खाली—खाली।
ऐसे ही जैसे कोई पत्थर को हीरा समझता था, मुट्ठी भरी थी। अब आज अचानक दिखा कि पत्थर है, मुट्ठी खाली हो गयी। और जिंदगी भर मुट्ठी भरी रही और आज खाली हो गयी! बहुत खालीपन लगेगा। बहुत रिक्तता लगेगी।

            मैं न पाती आज कुछ गा।
गान मेरे
जो कभी तट
आस्मां का चूमते थे
मौन का
कण—कण मुखर करते
हवा में
झूमते थे
जो कभी थे जागरण
जग में जगाते थे सबेरा
बन गए हैं आज वे ही
विगत सपनों का बसेरा
हो सका साकार कब संसार
सपनों का किसी का?
आज सपनों के सहारे,
मैं न पाती विश्व में छा।
मैं न पाती आज कुछ गा।
सांद्र तम है
दूर तक
फैला हुआ है
पथ विराना
आंधियों के बीच जलते
दीप का कब क्या
ठिकाना!
सजल सांसों की डगर पर
चल रही है जिंदगानी
और तारों में न जाने
बोलती किसकी कहानी?
आज तूफानी अमा में
जब न कोई साथ मेरे
खोजते फिरते न जाने,
अब सहारा प्राण किसका?
मैं न पाती आज कुछ गा।
गान मेरे
जो कभी तट —
आस्मां का चूमते थे
मौन का
कण—कण मुखर करते
हवा में
झूमते थे
जो कभी थे जागरण
जग में जगाते थे सबेरा
बन गए हैं आज वे ही
विगत सपनों का बसेरा
हो सका साकार कब संसार
सपनों का किसी का?
आज सपनों के सहारे,
मैं न पाती विश्व में छा।
मैं न पाती आज कुछ गा।

 ऐसी चित्त की दशा कष्टकर लगती है : जब तुम्हारे सब गान सूख जाते हैं; जब तुममें नयी पत्तियां नहीं उमगतीं, नए फूल नहीं खिलते। सूखे ठूंठ जैसे तुम लगोगे। तुम सहारा खोजोगे। तुम तलाश करोगे : कहीं कोई आशा मिल जाए; कहीं कोई सांत्वना मिल जाए। कहीं कोई फिर से जगा दे टूट गयी आशाओं को। फिर से संवार दे बिसर गए सपनों को। फिर से गति दे दे गीतों को। फिर से कंठ में बोल आ जाएं। फिर तुम झूमने लगो।
नहीं; यह मैं न करूंगा। तुम ऐसे ही काफी इस भ्रांति में भटक लिए। कितने —कितने तो जन्मों से तुम आशाओं के सहारे चल रहे हो, अब निराशा का सहारा लो। कितने दिन तक तो तुमने सांत्वनाएं खोजी, अब सांत्वना मत खोजो। यदि अर्थहीनता है, तो अर्थहीनता सही। अगर सूखा—रूखापन है, तो सूखा—रूखापन सही। अब तुम स्वीकार करो, जीवन जैसा है। अब और अस्वीकार मत करो।
अस्वीकार कर—करके ही तुमने जीवन को झूठ किया है। अब जीवन की सचाई जैसी है, वैसी ही अंगीकार हो। उसी अंगीकार में से नए का जन्म होगा।
और यह नयी आशा नहीं होगी, यह सत्य होगा। यह तुम्हारा सपना नहीं होगा। यह सत्य होगा। आशा—निराशा दोनों चली जाएंगी और तुम्हारे भीतर वही शेष रह जाएगा, जो वस्तुत: है।
और उसी में आनंद है, उसी में मुक्ति है।

 पाँचवाँ प्रश्‍न:

 भगवान बुद्ध ने महाप्राज्ञ को तृष्णारहित, भयरहित और परिग्रहरहित कहकर यह भी कहा है कि वह निरूक्‍त और पद का जानकार है, तथा अक्षरों को पहले—पीछे रखना जानता है। निरूक्‍त पद और अक्षर—विन्यास से प्राज्ञ का क्या संबंध है? यह समझाने की अनुकंपा करें।

 बुद्ध का वचन तुम्हें हैरानी में डालेगा, क्योंकि वस्तुत: कोई भी संबंध नहीं है। शब्द के जानकार का, शब्द—विन्यास की कला को जानने वाले का सत्य से क्या संबंध है? और जो निरुक्त और पद का जानकार है, जो शास्त्रों का जानकार है, जो शब्द की अंतरतम व्यवस्था को समझता है, जो व्याकरण और भाषा का राज समझता है, उसका अंत: —प्रज्ञा से क्या संबंध है?
बुद्ध बड़ी अजीब सी बात कहते हैं! यह तो ठीक है कि प्रज्ञावान तृष्णारहित होगा, प्रज्ञावान भयरहित होगा, प्रज्ञावान परिग्रहरहित होगा। यह बात बिलकुल ठीक है। ये गुणवत्ताएं समझ में आती हैं। लेकिन निरुक्त और पद का जानकार है—इसका क्या अर्थ?
अगर तुम बौद्ध पंडितों से पूछो, तो वे गलत अर्थ सदियों से करते रहे हैं, वही तुम्हें बताएंगे। वे यही अर्थ करते रहे हैं. शास्त्र की जानकारी, व्याकरण की जानकारी, भाषा की जानकारी।
ऐसा हुआ, स्वामी राम अमरीका से लौटे। अमरीका में उन्हें बड़ा सम्मान मिला। सम्मान—योग्य व्यक्ति थे। बड़े प्यारे व्यक्ति थे। बडी आभा थी। जब अमरीका से लौटे, तो स्वभावत: उन्होंने सोचा जब पराए इतना समझे, तो अपने तो कितना न समझेंगे!
मगर वहीं उनसे भूल हो गयी। वहीं उनसे चूक हो गयी। उन्हें याद न रहा कि जीसस ने कहा है कि पैगंबर की अपने गांव में पूजा नहीं होती।
वे काशी में आकर ठहरे। स्वभावत: सोचा, इतने लोगों को जगाकर लौटा हूं, तो सबसे पहले काशी ही जाना चाहिए। काशी पंडितों की नगरी! उनका पहला प्रवचन काशी में हुआ।
वे संस्कृत के ताता नहीं थे। अरबी और फारसी के ज्ञाता थे, मगर संस्कृत के ज्ञाता नहीं थे। और उनकी जो जीवन—प्रेरणा थी, वह सूफी मत से आयी थी। वस्तुत: उपनिषद से नहीं आयी थी। हालांकि बात तो एक ही है। कहां से आती है, इससे क्या फर्क पड़ता है! सूफियों ने उनके हृदय का गान छेड़ा था। उसी गान को समझकर उपनिषद भी समझ में आ गए, वेद भी समझ में आ गए। मगर जो पहली तरंग उठी थी, वह सूफियाना थी।
काशी में जो होना था, वह हुआ। बोले। बीच ही में थे कि एक पंडित, काशी के बड़े पंडित, खड़े हो गए। उन्होंने पूछा कि एक सवाल पूछना है।
स्वामी राम थोड़े चौंके। वे बीच में ही हैं अभी। यह कोई सवाल पूछने की बात नहीं। पूरा हो जाने देते! लेकिन बड़े रसल सज्जन व्यक्ति थे। उन्होंने कहा, ठीक है। आपका सवाल? पंडित ने जो सवाल पूछा, वह यह था आप संस्कृत जानते हैं? व्याकरण जानते हैं? निरुक्त और पद का ज्ञान है?
स्वामी राम ने कहा संस्कृत का मैं ज्ञाता नहीं हूं। तो हंसा पंडित और पंडित के साथ सारे और पंडित हंसे।
वह काशी की विद्वत—मंडली थी, जो सुनने आयी थी। सुनने शायद कम आयी थी, परीक्षा करने आयी थी। अमरीका में जो प्रतिष्ठा मिली थी, उससे उनको ईर्ष्या पकड़ी होगी, कष्ट हुआ होगा—कि यह कोन महाज्ञानी, जिसको हम जानते भी नहीं! जो काशी में पढा भी नहीं। यह महाज्ञानी हो कैसे गया?
तो सारी भीड़ जो इकट्ठी थी पंडितों की, ब्राह्मणों की, वह भी हंसी। और उन्होंने कहा, उस पंडित ने कहा कि जब आपको संस्कृत का ज्ञान ही नहीं, तो ब्रह्मज्ञान कैसे होगा? पहले संस्कृत सीखो महाराज! फिर ब्रह्मज्ञान की चर्चा करना!
यही पंडितों की सदा से धारणा रही है। जैसे ब्रह्मज्ञान के लिए संस्कृत कोई जरूरी है! जैसे जो संस्कृत नहीं जानते, वे ब्रह्मज्ञानी नहीं हो सकते।
तो फिर जीसस ब्रह्मज्ञानी नहीं थे? और बुद्ध भी नहीं थे? और महावीर भी नहीं थे! नानक भी नहीं थे! कबीर भी नहीं थे! लाओत्सू भी नहीं थे! क्योंकि कोई भी संस्कृत के ज्ञाता नहीं हैं।
यह तो मूढ़तापूर्ण बात है। यह वैसे ही मूढ़तापूर्ण है, जैसे कोई कहे. अरबी को जाने बिना कोई परमात्मा को कैसे जानेगा? तो फिर मोहम्मद ही जान सकते हैं। फिर कृष्ण चूक गए। फिर राम चूक गए।
जैसे कोई कहे कि बिना हिब्रू को जाने कोई कैसे परमात्मा को जान सकता है? तो फिर जीसस के अलावा सब चूक गए।
यह बात मूढ़तापूर्ण है। लेकिन सभी को यह अहंकार पकड़ता है।
संस्कृत को मानने वाले कहते हैं? संस्कृत देववाणी है। बाकी सब भाषाएं आदमियों की। परमात्मा की भाषा—संस्कृत!
परमात्मा की भाषा मौन है। और कोई भाषा परमात्मा की नहीं है। सब भाषाएं आदमियों की हैं—संस्कृत हो, कि अरबी हो, कि पाली हो, कि प्राकृत हो —सब भाषाएं आदमियों की हैं। भाषा की जरूरत आदमी को है, परमात्मा को भाषा की जरूरत नहीं है। परमात्मा मौन है।
जो मौन को उपलब्ध होता है, वही उसको उपलब्ध हो जाता है। फिर तुम फारसी जानकर मौन को उपलब्ध हुए, कि संस्कृत जानकर मौन को उपलब्ध हुए—इससे क्या फर्क पड़ता है!
असली सवाल यह है कि मौन को उपलब्ध हुए। संस्कृत बाहर फेंकी, कि प्राकृत बाहर फेंकी, कि अंग्रेजी बाहर फेंकी, कि जर्मन बाहर फेंकी—इससे क्या फर्क पड़ता है? तुम शून्य हो गए, शांत हो गए—यही बात असली है।
रामतीर्थ की आंखों में तो आंसू आ गए यह बात सुनकर कि संस्कृत को जाने बिना कोई ब्रह्मज्ञानी नहीं हो सकता है। यह तो हद्द मूढ़ता की बात हो गयी।
लेकिन इस बुद्ध वचन का यही अर्थ बौद्ध पंडित करते रहे हैं। क्योंकि इस वचन में बौद्ध पंडितों के अहंकार को बड़ा सहारा मिल गया। वे निरुक्त के जानकार, पद के जानकार, और अक्षरों को पहले—पीछे रखना जानते हैं। कोन सा अक्षर कहां रखा जाना चाहिए, उसकी ठीक—ठीक जगह जानते हैं। तो इससे तो उनको एक बात पक्की हो गयी कि पांडित्य के बिना कोई प्रज्ञा को उपलब्ध नहीं होता।
हालांकि पंडित शब्द भी प्रज्ञा शब्द से ही बनता है। लेकिन फिर उसके अर्थ विकृत हो गए हैं। पंडित वह, जो शास्त्र का जानकार है। प्रज्ञावान वह, जो सत्य का जानकार है।
फिर बुद्ध ने यह वचन क्यों कहा? मैं इसका दूसरा ही अर्थ करता हूं। मेरा अर्थ ऐसा है कि भाषा को जो ठीक से जान लेगा, वही भाषा से मुक्त होता है। जो ठीक से शब्दों के जाल को पहचान लेगा, वही निःशब्द में जा सकता है। क्योंकि शब्दों के पार जाना है, शब्दों को बिना जाने शब्दों के पार जाने में अड़चन होगी। जो व्यक्ति शास्त्रों को ठीक से जान लेता है, उसके लिए शास्त्र व्यर्थ हो जाते हैं। यही शास्त्र को जानने का लाभ है।
इसलिए शास्त्रों पर मैं तुम्हारे सामने बोलता हूं, ताकि तुम ठीक से इन्हें जान लो; उसी जानने में तुम मुक्त हो जाओगे।
इसलिए बुद्ध ने कहा कि मेरा बैटा राहुल शास्त्र का जानकार है। और शास्त्र का जानकार वही है, जो शास्त्र के पार हो जाए। जो अभी शास्त्र में ही उलझा रहे, उसने अभी ठीक से जाना नहीं। क्योंकि सभी शास्त्र यही कहते हैं कि शास्त्र से नहीं मिल सकता।
अगोचर, अदृश्य, शब्दातीत है सत्य—सभी शास्त्र यही कहते हैं। उपनिषद यही कहते हैं, वेद यही कहते हैं, कुरान यही कहती है, बाइबिल यही कहती है। सभी शास्त्र यही कहते हैं कि तुम्हें शब्द से मुक्त होना पड़ेगा। क्योंकि वह अनिर्वचनीय है, अव्याख्य है। न उसकी कोई परिभाषा है, न कोई व्याख्या है।
तुम्हें सारे सिद्धात छोड़ देने होंगे। तुम्हें बिलकुल ही शांत हो जाना पड़ेगा। सिद्धात की सब धूल झाड़ देनी होगी। जब न तुम हिंदू होओगे, न मुसलमान, न ईसाई, न तुम्हारे भीतर कुरान, न वेद, न बाइबिल—तब तुम्हारे भीतर असली वेद, असली कुरान, असली बाइबिल जगेगी। तुम्हारा वेद जगेगा, तुम्हारी बाइबिल जगेगी, तुम्हारी कुरान जगेगी।
इसलिए बुद्ध ने कहा कि मेरा बेटा निरुक्त और पद का जानकार खै, तुम उसे धोखा न दे सकोगे।
कहते हैं शैतान भी शास्त्र के उल्लेख कर सकता है।
बुद्ध यही कह रहे हैं कि मेरे बेटे को मार! तूर उलझा न सकेगा। मेरा बेटा शास्त्र का जानकार है। तू शास्त्र के भी उल्लेख कर, तो भी तू उसे उलझा न सकेगा। मेरा बेटा अज्ञान के तो पार गया है, पांडित्य के भी पार गया है।
अज्ञान के पार होना—पहला चरण, फिर ज्ञान के पार होना—दूसरा चरण। और दो ही कदम में परमात्मा की यात्रा पूरी हो जाती है।
और फिर बुद्ध ने यह भी कहा कि वह अक्षरों को आगे —पीछे रखना जानता है। यह और अजीब बात! अक्षरों को आगे —पीछे रखने से क्या होता है? यह बुद्ध ने क्यों कहा!
यह सिर्फ एक मुहावरा है। इस मुहावरे का अर्थ होता है. मेरा बेटा कवि है। अक्षरों को आगे —पीछे रखना कवि की कुशलता है। कवि ही जानता है, अक्षरों को कहां रखना है। कवि ही उनको आगे —पीछे रखकर उनमें स्वर और छंद पैदा कर देता है। कवि ही शब्दों का कलाकार है।
जैसे चित्रकार रंगों को जानता है, और मूर्तिकार छैनी और रूप को जानता है, वैसे कवि शब्दों की भाव— भंगिमा जानता है, और उन्हें आगे —पीछे रखना जानता है। उनके विन्यास से काव्य का जन्म होता है।
बुद्ध ने इतना ही कहा कि मेरा बेटा कवि है। अब तुम समझो कि कवि का क्या अर्थ होता है।
पुरानी भाषा में, पुराने शास्त्रों में कवि और ऋषि में कोई भेद नहीं किया गया है। कवि और ऋषि एक ही अवस्था के नाम हैं। थोड़ा सा फर्क है, इसलिए दो शब्द उपयोग किए हैं।
ऋषि उसको कहते हैं. जिसने पूरा—पूरा जान लिया। कवि उसको कहते हैं जिसे झलकें मिलीं। कवि भी किन्हीं—किन्हीं अवस्थाओं में ऋषि हो जाता है। जैसे रवींद्रनाथ गीतांजलि को लिखते समय ऋषि हो गए हैं; कवि नहीं हैं। गीतांजलि ऐसे ही पवित्र है, जैसे उपनिषद। मगर रवींद्रनाथ की सभी कविताएं ऐसी नहीं हैं। कुछ कविताओं में वे कवि हैं, भूमि पर हैं। कुछ कविताओं में आकाश में उड़ लेते हैं।
इसलिए तुम कभी खयाल रखना, कभी—कभी ऐसा होता है तुम किसी की कविता पढ़कर एकदम आंदोलित हो उठते हो। मगर कवि को खोजने मत निकल जाना! नहीं तो कहीं बैठे होंगे होटल में, बीड़ी पी रहे होंगे। और तब तुम एकदम चौकोगे कि यह क्या हुआ! कविता तो ऐसी ऊंची थी कि एक क्षण को ऐसा लगा कि परमात्मा के पास उड़ान भरी है। एक क्षण तो ऐसा लगा कि प्रेम का द्वार खुला। और ये महाराज! आम आदमी से भी गए—बीते मालूम पड़ते हैं! हो सकता है ये गाली बक रहे हों, झगडा—फसाद कर रहे हों। या शराब पीकर किसी नाली में पड़े हों।
कविता का सौंदर्य देखकर कवि की तलाश में मत निकल जाना। नहीं तो अक्सर बड़ा विषाद होगा। ये सज्जन जो नाली में पड़े हैं शराब पीकर, गाली—गलौज बक रहे हैं, इनकी क्षमता इतनी ही है कि कभी—कभी ये छलांग लगा लेते हैं, कभी किसी क्षण में ये उठ जाते हैं। मगर वह उठना सदा नहीं टिकता। वह इनकी अंतर्दशा नहीं है। बस, क्षणभर को, जैसे बिजली कौंधती है।
कवि ऐसे, जैसे बिजली कौंधती है। ऋषि ऐसे, जैसे सूरज निकला।
तो बुद्ध कहते हैं मेरा बेटा यद्यपि अभी ऋषि नहीं हुआ है, लेकिन कवि है। उसको झलकें मिलने लगी हैं। यह अर्हत दशा के करीब पहुंच रहा है। इसको धीरे — धीरे बिजलियां कौंधने लगी हैं। सूरज भी निकलने के करीब है, जल्दी ही निकलेगा। लेकिन एकदम अंधेरे में नहीं है।
तो हे मार! हे शैतान! तू यह मत समझना कि इसे धोखा दे लेगा। मेरे बेटे ने छलांगें लगानी शुरू कर दी हैं। यह कभी—कभी आकाश में उड़ने लगा है। इसने आकाश देख लिया है। अब तू इसे लुभा न सकेगा। और इसने अपने भीतर के अमृत के भी कुछ स्वाद ले लिए हैं। इसलिए तू मृत्यु से इसे डरा भी न सकेगा। इसकी समाधि यद्यपि अभी पूरी नहीं हुई, यह ऋषि नहीं हुआ अभी, लेकिन कवि तो निश्चित हो गया है।
यह सिर्फ मुहावरा है। यह कहना कि जो शब्दों को आगे —पीछे रखना जानता है, यह सिर्फ मुहावरा है, कवि को प्रगट करने का एक ढंग है।
तो दो बातें उन्होंने कहीं पहली बात यह कही कि यह शास्त्रों का जानकार है, और जानकारी के कारण शास्त्रों से मुक्त हो गया है। और दूसरी बात कही कि यह कवि है, इसे उस परम की झलकें आने लगीं। बूंदा—बांदी होने लगी है। अभी बाढ़ नहीं आ गयी, मगर शुरुआत हो गयी है। जल्दी ही बाढ़ भी आएगी।
अब तू इसे डिगा न सकेगा। न तो काम में तू इसे उत्तेजित कर सकता है, और न भय से। न जीवन में इसका आकर्षण रह गया है और न मृत्यु में इसे कोई भय है। मेरा बेटा अमृत के द्वार पर खड़ा है, देहली पर खड़ा है। मंदिर में प्रवेश के बिलकुल करीब है।

 आखिरी प्रश्न

 मैं तो अतीत की स्मृतियों में या डूबा रहता हूं या भविष्य की कल्पनाओं में। वर्तमान तो बस, मेरे लिए एक कोरा शब्द है। मैं क्या करूं?

सी दशा तुम्हारी ही नहीं, सभी की है। यही तो मन का स्वरूप है।
मन या तो अतीत में होता है या भविष्य में। मन वर्तमान में हो ही नहीं सकता। इसलिए मन के लिए वर्तमान शब्द कोरा शब्द है।
तुम जरा जांचना, जब भी तुम सोच रहे हो, तो या तो अतीत की सोचोगे—जो हो चुका, बीत चुका। या उसका सोचोगे, जो होने वाला है। लेकिन जो है, उसको सोचने का उपाय कहां! वह तो है ही। सोचने की गुंजाइश कहां? जो है, है। तुम्हारे सोचने से क्या फर्क पड़ता है? और तुमने सोचा कि तुम चूक जाओगे। क्योंकि सोचने से व्यवधान पड़ेगा।
तुम पूछते हो. 'मैं क्या करूं?'
दर्पण बनो।
मन रहे, तो अतीत और भविष्य में डोलते रहोगे। मन ऐसे है, जैसे घड़ी का पेंड़लम। इस कोने से उस कोने डोलता रहता है। बीच में नहीं ठहरता।
दर्पण बनो। दर्पण ऐसे है, जैसे पेंड़लम बीच में ठहर गया। दर्पण में वह दिखायी पड़ता है, जो है। और मन में वह दिखायी पड़ता है—जो था, या जो होगा। दोनों नहीं हैं। जो था, वह गया। जो होगा, अभी हुआ नहीं। इसलिए मन तुम्हें भरमाता है। मन माया है।
दर्पण बनो। और दर्पण बनने की कला ही ध्यान है या साक्षी। देखो। जब मन में अतीत के विचार चलते हों, तब शांत खड़े होकर देखते रहो—कि यह अतीत जा रहा है। तुम उसके साथ जुडो मत। तुम धारा में कूदो मत। तुम तादात्म्य मत करो। तुम पार किनारे पर खड़े रहो।
नदी बह रही है, तुम किनारे पर बैठ जाओ पालथी मारकर, आसन लगाकर। देखते रहो. यह मन में अतीत बह रहा है। फिर ढंग बदलता है। नदी मोड़ लेती है। यह मन मे भविष्य बह रहा है। तुम देखते रहो। तुम सिर्फ द्रष्टा रहो। उसी द्रष्टा में तुम दर्पण हो जाओगे।
और तुम चकित होओगे. जैसे —जैसे तुम दर्पण बनने लगे, वैसे—वैसे धारा धीमी होने लगी। जैसे—जैसे तुम्हारा साक्षी जगेगा, वैसे —वैसे तुम पाओगे कि नदी की धारा, जो पहले ऐसी थी कि जैसे बरसात की नदी हो, वह ग्रीष्म की नदी हो गयी। सूखने लगी। जलधार क्षीण होने लगी। जो पहले तुम्हें डूबा देती, अब घुटने—घुटने है। तुम मजे से पार हो सकते हो।
और तुम जागते रहो, और तुम जागते रहो, और तुम देखते रहो, और एक दिन तुम पाओगे. धारा नहीं है। और जिस दिन धारा नहीं है, उसी दिन परमात्मा है।

            ओरे ओ महत्वाकांक्षी मन!
आकाश से उतर
धरती पर आ
माटी की गंधभरी आत्मा को
दुलरा
बिका नहीं करते हैं सपने
बाजार में
ओढ़ा हुआ सूनापन
उतारकर टांग दे
खूंटी पर
चिंतन की कैंची से
बखिया न काट तू
दिनों, महीनों, वर्षों की
केवल यह वर्तमान
जिसमें तू जीता है
अपना है
इधर—उधर न झांक
कुंठाओं की संकरी गलियों से
निकल
राजमार्ग पर आ
ओरे मन!
दर्पण बन।

 आज इतना ही।



1 टिप्पणी: