कुल पेज दृश्य

बुधवार, 26 अप्रैल 2017

दीपक बारा नाम का-(प्रश्नोत्तर)-प्रवचन-03

स्वयं का सत्य ही मुक्त करता है—(प्रवचन—तीसरा)


दिनांक 3 अक्तूबर 1980;
श्री ओशो आश्रम, पूना

पहला प्रश्न:

भगवान, शह श्लोक मुंडकोपनिषद का है:
सत्यं एक जयते नानृतम
सत्येन पन्था विततो देवयानः।
येनाक्रमन्ति ऋषियो ह्याप्तकामा
यत्र तत्र सत्सस्य परम निधानम।।
अर्थात सत्य की जय होती है, असत्य की नहीं। जिस मार्ग से आप्तकम ऋषिगण जाते हैं और जहां उस सत्य का परम निधान है, ऐसा देवों का वह मार्ग हमारे लिए सत्य के द्वारा ही खुलता है।
भगवान, क्या सत्य साध्य और साधन दोनों है? हमें दिशा बोध देने की अनुकंपा करें!

हजानंद! धर्म के सूत्रों के संबंध में एक प्राथमिक बात सदा स्मरण रखना: वे अंतर्यात्रा के सूत्र हैं, बहिर्यात्रा के नहीं। यह भूल जाए तो फिर सूत्रों की व्याख्या गलत हो जाती है।
यह सूत्र धर्म का प्राण है, लेकिन राजनीति का नहीं। धर्म में तो निश्चित ही सत्य जीतता है और असत्य हारता है, राजनीति में बात बहुत भिन है। वहां जो जीते, वह सत्य, जो हारे वह असत्य। वहां निर्णय जीत और हार से होता है, सत्य और असत्य से नहीं। राम अगर हार गये होते रावण से, तो तुम दशहरा पर राम की होली जलाते, रावण की नहीं। रावण अगर जीत गया होता, तो तुम्हारे तुलसीदासों ने रावण की स्तुति और प्रशंसा में गीत लिखे होते।
राजनीति का जगत अर्थात बहिर्यात्रा बेईमानी जीतती है, असत्य जीतता है, पाखंड जीतता है, चालबाजी जीतती है, कपट जीतता है। और फिर जो जीतता है, वह सत्य मालूम होता है। वहां सरलता हारती है। वहां सत्य पराजित होता है। वहां ईमानदारी को कोई गति नहीं है। वहां सीधा, साफ-सुथरा होना हारने के लिए पर्याप्त कारण है। वहां धोखे बाज, उनकी गति है।
यह सूत्र अंतर्यात्रा का सूत्र है। लेकिन राजनीतिज्ञ भी इसका उपयोग करते हैं। भारत ने तो अपना राष्ट्रीय घोषणापत्र ही इस सूत्र को बना लिया है: सत्यमेव जयते। सत्य की सदा विजय होती है। मगर जिसके पास भी आंखें हैं, वह देख सकता है। क्या तुम सोचते हो स्टेलिन सत्य था, इसलिए हिटलर से जीत गया? दोनों एक-दूसरे से बढ़ कर असत्य थे। हिटलर इसलिए नहीं हारा कि असत्य था और चर्चिल, रूजवेल्ट और स्टेलिन इसलिए नहीं जीते कि सत्य थे। इसलिए जीते कि ये सारे असत्य इकट्ठे हो गये थे एक असत्य के खिलाफ। एक असत्य कमजोर पड़ गया इन सारे असत्यों के मुकाबले। असत्य ही जीता।
एडोल्फ हिटलर जीत सकता था। तो सारा इतिहास और ढंग से लिखा जाता यही इतिहास जो अभी उसकी निंदा में लिख रहे हैं, उसकी प्रशंसा में लिखते
इतिहास तुम्हारा सरासर झूठ है। इतिहास का कोई संबंध तथ्यों से नहीं है। इतिहास का संबंध है लिखने वालों से। और वाले उसकी खुशामद में लिखते हैं जो जीता है। हारे को तो पूछता कौन? डूबते सूरज को तो कौन नमस्कार करता है? ऊगते सूर्यों को नमस्कार किया जाता है। अंग्रेजों ने एक ढंग का इतिहास लिखा था और जब हिंदुओं ने इतिहास लिखना शुरू किया, उन्होंने दूसरे ढंग का इतिहास लिखा। मुसलमान तीसरे ढंग का इतिहास लिखेंगे।
 पश्चिम का एक बहुत बड़ा इतिहास एडमंड बर्क मनुष्य-जाति का इतिहास लिख रहा था--पूरी मनुष्य-जाति का। उसने कोई बीस वर्ष के इस महान कार्य लिख रहा थे। और उसकी किताब करीब होने को आ रही थी, बस आखिरी अध्याय लिख रहा था और एक दिन यूं घटना घटी कि उसने अपनी बीस साल की मेहनत को आगे लगा दी। बात ऐसी हुई, उसके घर के पिछवाड़े ही एक हत्या हो गयी। दो आदमियों में झगड़ा हुआ और एक आदमी मार डाला गया--उसको गोली मार दी गयी। यह गोली कोई रात के अंधेरे में एकांत में नहीं मारी गयी थी। भरी दोपहरी में, भीड़ खड़ी थी। सारा मोहल्ला इकट्ठा था, सैकड़ों लोग मौजूद थे जब यह झगड़ा हुआ। जब एडमंड बर्क को गोली की आवाज सुनायी पड़ी, वह भागा हुआ पहुंचा भीड़ इकट्ठी थी, आदमी मरने के करीब था--लहूलुहान था--जिसने मारा था, वह भी मौजूद था। उसने अलग-अलग लोगों से पूछा, क्या हुआ? और जितने मुंह उतनी बातें। घर के पिछवाड़े हत्या हुई, अभी मरने वाला मरा भी नहीं है--मर रहा है--अभी मारने वाला भाग भी नहीं गया है--मौजूद है--चश्मदीद गवाह मौजूद हैं--एक नहीं, अनेक--सबने देखा है, लेकिन सबकी व्याख्या अलग है। जो मरने वाले के पक्षपाती हैं, वे कुछ और कह रहे हैं। जो मारने वाले के पक्षपाती हैं, वे कुछ और कह रहे हैं। जो तटस्थ हैं, वे कुछ और कह रहे हैं। एडमंड बर्क ने बहुत कोशिश की जानने की कि तथ्य क्या है, नहीं जान पाया। लौट कर उसने अपने बीस वर्षों का जो श्रम था उसमें आग लगा दी। उसने कहा, जब मैं अपने घर के पिछवाड़े अभी-अभी घटी ताजी घटना को तय नहीं कर पाता कि तथ्य क्या है, और मैं मनुष्य-जाति का इतिहास लिखने चला हूं! कि पांच हजार वर्ष पहले क्या हुआ? मैंने ये बीस वर्ष व्यर्थ ही गंवाए! मैं पानी पर लकीरें खींचता रहा।
इतिहास कौन लिखता है; कौन लिखवाता है? और फिर सदियों तक जो बात लिखी गयी, उसे हम दोहराते चले जाते हैं।
राजनीति बहिर्यात्रा है। राजनीति का अर्थ है: दूसरे पर विजय पाना। और जहां दूसरे पर विजय पाना है, वहां सत्य का क्या प्रयोजन! सत्य कोई उपयोग भी नहीं किया जा सकता दूसरे पर विजय पाने के लिए। यह बात की गलत है। दूसरे पर विजय पाने की आकांक्षा ही गलत है। इसके लिए सत्य का साधन की तरह उपयोग नहीं किया जा सकता। सत्य और दूसरे पर विजय पाना, इन दोनों के बीच क्या संबंध हो सकता है! हां, अंतर्यात्रा के जगत में यह सूत्र जरूर सत्य है। वहां सत्य ही जीतता है। सत्य ही जीत सकता है। वहां असत्य की हार सुनिश्चित है। वहां असत्य को हारना कैसे? मगर वह जीत और है। वह आत्म-विजय है। अपने पर विजय है। और अपने पर विजय में किसको धोखा देना है? और क्या सार है धोखा देने का? खुद को ही धोखा देने से मिलेगा भी क्या? और धोखा देना भी चाहोगे तो कैसे दोगे? तुम तो जानते ही रहोगे कि धोखा दे रहे हो।
तो इस भेद को ख्याल में ले लेना। इस सूत्र की व्याख्या तो बहुत बार की गयी, क्योंकि प्यारा सूत्र है, मगर यह बुनियादी भेद कभी साफ नहीं किया गया कि यह सूत्र बाहर के जगत मग लागू नहीं होता। वहां सब तरह की तिकड़म, चालबाजी, पाखंड, मुखौटे उपयोगी हैं। वहां सत्य तुम्हें हरा देगा। वहां तुम सत्य बोले कि गये। राजनीति में कहीं सत्य चल सकता है। राजनीति में तो चाणक्य का शास्त्र चलता है, मुंडकोपनिषद नहीं चलते। राजनीति में तो मेक्यावेली चलता है, बुद्ध और महावीर की वहां कोई गति नहीं है। फिर चाणक्य हों कि मेक्यावेली, इनकी आधारशिला एक है; धोखा देने की कुशलता। हां, जरूर सत्य को तो नहीं जिताया जा सकता बाहर के जगत में, लेकिन असत्य को भी जिताना हो तो सत्य की तरह प्रतिपादित करना होता है। असत्य को भी चलना हो तो सत्य का रंग-रोगन करना होता है। सत्य की कम से कम झूठी प्रतीति खड़ी करनी पड़ती है। क्योंकि लोग सत्य से प्रभावित होते हैं। फिर सत्य हो या न हो, यह और बात है। भ्रम काफी है। झूठ को भी यूं सजाना होता है कि वह सच जैसा मालूम पड़े। कम से कम मालूम पड़े। जैसे खेत में हम पशु-पक्षियों को डराने के लिए एक झूठा आदमी बना कर खड़ा कर देते हैं; एक डंडे रख देते हैं, दूसरे डंडा बांध कर हाथ बना देते हैं, फिर कुर्ता पहना दो और गांधी टोपी लगा दो; चाहो चूड़ीदार पाजामा--और मोरारजी देसाई तैयार! और चाहिए क्या? पशु-पक्षियों को भगाने के काम में कम से कम आ ही जाएंगे। और तो किसी काम के हैं भी नहीं!
खलील जिब्रान की एक प्रसिद्ध कथा है, कि मैं निकलता था एक खेत के करीब से और मैंने वहां एक धोखे के आदमी को खड़ा देखा। वर्षा हो, धूप हो, सर्दी हो, यह बेचारा सतत पहरी की तरह खड़ा रहता। न थकता, न ऊबता, न बैठता, ने सुस्ताता, न लेटता। अथक इसकी साधना है। महायोगी है। तो मैंने पूछा कि कभी थक नहीं जाते हो? कि भाई, कभी सुस्ताते भी नहीं! कि मैं पूछता हूं, ऊबते नहीं हो? यही जगह, वही काम रोज सुबह-शाम, दिन और रात, कभी तो ऊब पैदा हो जाती होगी? वह खेत में खड़ा झूठा आदमी हंसने लगा और उसने कहा कि पशु-पक्षियों का भगाने में ऐसा मजा आता है, डराने में ऐसा मजा आता है, कि ऊब का सवाल कहां उठता है?
दूसरों को डराने का एक मजा है! राजनीति वही मजा है। दूसरों पर हावी होने का एक मजा है! इससे तुम राजनीतिज्ञ को देखो, हमेशा प्रफुल्लित मालूम होता है। हजार उपद्रव के बीच, झंझटों के बीच ताजा लगता है। राजनीतिज्ञ लंबे जीते हैं। किसी और कारण से नहीं, दूसरों को डराने का मजा, धमकाने का मजा! मरना ही नहीं चाहते। जीते ही रहना चाहते हैं। छोड़ते नहीं बनता यह मजा! जैसे ही कोई राजनीतिज्ञ पद से उतरता है कि बस, जीवन-ऊर्जा क्षीण होने लगती है। अब तक पद पर होता है, तब तक जीवन-ऊर्जा बड़ी अभिव्यक्त होती है। ये सब झूठे आदमी हैं, खेत के आदमी हैं। अब खेत में डराने के लिए कोई असली आदमी थोड़े ही खड़ा करना जरूरी है। लेकिन असली आदमी का धोखा होना चाहिए। पशु-पक्षियों को ऐसा लगना चाहिए कि है असली। तो गांधी टोपी, खादी, का कुरता, शेरवानी, चमचमाते जूते--इतना पर्याप्त है।
राजनीति में सत्य नहीं जीता, कभी नहीं जीता। कभी जीतेगा भी नहीं। जिस दिन राजनीति में सत्य जीतने लगेगा, उस दिन राजनीति राजनीति न रह जाएगी उस दिन नीति हो जाएगी। सिर्फ नीति, शुद्ध नीति। उस दिन जगत से राजनीति विदा हो जाएगी। उस दिन धर्म ही होगा। लेकिन तब राजनीति की व्याख्या और होगी, उसकी गुणवत्ता और होगी--उसमें भगवत्ता होगी। आशा करना करीब-करीब दुराशा है; ऐसा हो नहीं पाएगा।
लेकिन भीतर के जगत में यह सूत्र बिलकुल सत्य है, सौ प्रतिशत--
सत्यं एव जयते नानृतम
सत्य जीतता है, असत्य नहीं।
असत्य का अर्थ समझ लो। जो नहीं है। जैसे अंधेरा। अब दीया जलाओगे तो क्या अंधेरा जीत सकता है? कितना ही पुराना हो, सदियों पुराना हो, तो भी यह नहीं कह सकता दीये से छोकरे, तू तो अभी-अभी जला, अभी घड़ी भी नहीं हुई तुझे और इतनी अकड़ दिखला रहा है! और हम सदियों से यहां हैं, यूं हम मिट जाएंगे क्या? इतनी पुरानी हमारी परंपरा, इस घर में हमारा अड्डा पुराना और तू अभी-अभी आया, मेहमान की तरह, और यूं इतरा है! अभी तुझे बुझा कर रख देंगे! नहीं, अंधेरा एक छोटे-से दीये को भी नहीं बुझा सकता। क्योंकि अंधेरा है नहीं, असत्य है।
असत्य का अर्थ है: जो नहीं है, जिसका अस्तित्व नहीं है; जो सिर्फ प्रतीत होता है; जो वस्तुतः अभाव है, अनुपस्थिति है। प्रकाश के अभाव का नाम अंधकार है। और सत्य के अभाव का नाम असत्य है। तो जैसे ही प्रकाश आया, फिर अभाव कैसे रह जाएगा?...मैं जब तक नहीं आया था, यह कुर्सी खाली थी। अब मैं इस कुर्सी पर आ गया, अब यह कुर्सी खाली नहीं है। मैं इस कुर्सी पर बैठा हूं, तो यह कुर्सी खाली कैसे हो सकती है? यह दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। वह जो खालीपन था, वह सिर्फ अभाव था। ऐसा अंधकार है। ऐसा असत्य है। दीया जला कि--अंधकार मिटता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि जब हम कहते हैं मिटता है, तो यह भ्रांति होती है कि रहा होगा। यह भाषा की मजबूरी है। मिटता कहना ठीक नहीं है। युक्तियुक्त नहीं है। सत्य के अनुकूल नहीं है। क्योंकि मिटती तो वह चीज है जो रही हो। और अंधकार तो था ही नहीं, तो मिटेगा कैसे? जो नहीं था, वह मिट नहीं सकता। यह कहना भी कि अंधकार चला गया, ठीक नहीं है। क्योंकि जो था ही नहीं जाएगा चल कर कहां? क्या उसके पैर हो सकते हैं? तुम दरवाजे पर खड़े हो जाओ, भीतर कोई दीया जलाए, क्या तुम सोचते हो अंधेरा दरवाजे से भागता हुआ दिखाई पड़ेगा? तुम द्वार-दरवाजे बंद कर दो, रंध्र-रंध्र गंद कर दो, जरा-सी संध न छोड़ो, तब दीया जलाओगे तो अंधकार कहां से भागेगा, कहां जाएगा भाग कर? संध भी तो नहीं है जाने को।
तो अंधकार कहीं जाता नहीं। है ही नहीं तो जाएगा कैसे? मिटता नहीं। है ही नहीं तो मिटेगा कैसे? फिर क्या हो जाता है? प्रकाश की अनुपस्थिति थी, प्रकाश आ गया, अनुपस्थित समाप्त हो गयी। उपस्थिति अनुपस्थिति को पोंछ डाली।
बस, ऐसी ही सत्य और असत्य का संबंध है। असत्य अर्थात जो नहीं है। सत्य आ जाए, तो असत्य तिरोहित हो जाता है।
सत्य कैसे आ जाए, इसलिए महत्वपूर्ण सवाल यह है। दीया कैसे जले, महत्वपूर्ण सवाल यह है।
इस सूत्र से गलती हो सकती है, वह गलती होती रही है, तुमसे न हो जाए, इसलिए सावधान करना चाहता हूं। लोग सोचते हैं, सत्य को शास्त्रों से सीखा जा सकता है। यह यूं हुआ जैसे कि कोई की तस्वीर बना ले और अंधेरे में ले जाए और दीये की तस्वीर रख दे। क्या तुम सोचते हो दीये की तस्वीर से अंधेरा मिटेगा? शास्त्रों में सिर्फ दीये की तस्वीरें हैं। दीये की तस्वीरों से अंधकार नहीं मिटेगा। या कोई दिया खूब चर्चा करने लगे, गुणगान करने लगे, दीये की स्तुति में गीत गुन-गुनाए, तो अभी अंधकार नहीं मिटेगा। दीया ही लाना होगा। ज्योति ही जलानी होगी।
इस सूत्र से यह भ्रांति भी पैदा होती है कि चूंकि असत्य जीतता नहीं, इसलिए असत्य को निकाल बाहर करो। असत्य को त्यागो यह वैसा ही हुआ जैसे कोई अंधकार को त्याग की बात करे। कैसे त्यागोगे अंधकार को? धक्के देकर निकालोगे अंधकार को? लड़ोगे अंधकार से? संघर्ष करोगे? क्योंकि यह विजय शब्द खतरनाक है। इससे ऐसा लगता है, लड़ना पड़ेगा, घूंसाबाजी होगी, पहलवानी होगी। दांव-पेंच लगेंगे, तलवारें चलेंगी, कृपाणें उठेंगी--'बोले सो निहाल, सत श्री अकाल'--कुछ उपद्रव होने वाला है; कि या-अली--या बजरंगबली, कुछ-न-कुछ--लंगोट कस कर और जूझ पड़ना है! कि दंड-बैठक लगाने होंगे! कि हाथ-पैर मजबूत करने होंगे! अंधकार से लड़ना है! असत्य से लड़ना तो है!
यह सब पागलपन की बातें हैं।
मगर इन बातों का बड़ा आकर्षण है। लोग असत्य से लड़ रहे हैं। अनाचरण से लड़ रहे हैं, दुराचरण से लड़ रहे हैं, बुराइयों से लड़ रहे हैं, अनीति से लड़ रहे हैं, दुष्चरित्रता से लड़ रहे हैं। लड़ कर खुद ही टूट जाएंगे और कुछ भी नहीं होगा। लड़ने में खुद ही आत्मघात कर लेंगे, अपनी ही शक्ति को व्यर्थ कर देंगे। यह सवाल लड़ाई का नहीं है। अंधकार के साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता। न तो तुम लड़ सकते हो, न तलवार से उसे काट सकते हो, न फौजें ला कर उसे हटा सकते हो। जो नहीं है, उसके साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता। हां, अगर उसके साथ कुछ करना हो, तो प्रत्यक्ष मार्ग नहीं है, परोक्ष मार्ग है। अंधकार के साथ कुछ करना हो तो प्रकाश के साथ कुछ करो। अगर चाहते हो अंधकार हटे, तो प्रकाश जलाओ। और अगर चाहते हो अंधकार रहे, तो प्रकाश बुझाओ करना होगा, प्रकाश के साथ। क्योंकि जो है, उसी के साथ कुछ किया जा सकता है।
इसलिए मेरा जोर आचरण पर नहीं है, मेरा जोर ध्यान पर है। ध्यान है प्रक्रिया स्वयं के भीतर प्रकाश को चला लेने की। ध्यान है प्रक्रिया स्वयं के भीतर सत्य को आमंत्रित कर लेने की। सत्य में उत्सुक हो गये तो शास्त्रों में उलझ जाओगे। ध्यान में उत्सुक होना। नहीं तो तस्वीरों में पड़े रह जाओगे। और तस्वीरें काम नहीं आती। दीये को चर्चा से कुछ नहीं होता, दीया चाहिए।
सत्यं एव जयते नानृतम
निश्चय ही सत्य जीतता है, असत्य नहीं। मगर सत्य लाओगे कहां से? ध्यान के अतिरिक्त न कभी सत्य आया है, न आ सकता है। शास्त्र से नहीं आता, सिद्धांतों से नहीं आता, सिर्फ अपने भीतर परम मौन, पूर्ण शून्यता में उतरता है। निर्विचार अवस्था में सत्य का बोध होता है। लेकिन लोग अजीब है! लोग सत्य के संबंध में विचार में लगे हैं कि सत्य क्या है! यूं वे दर्शनशास्त्र में भटक जाते हैं।
इसी जगह से दर्शन और धर्म का रास्ता अलग होता है। दर्शनशास्त्र सोचने लगता है: सत्य क्या है, सत्य को कैसे पाएं, सत्य की रूपरेखा क्या है, व्याख्या क्या है, परिभाषा क्या है, सत्य है या नहीं? और धर्म ध्यान की यात्रा पर निकल जाता है। निर्विचार की यात्रा पर। और दर्शनशास्त्र कहीं भी नहीं पहुंचा, किसी निष्पत्ति पर नहीं।
दर्शनशास्त्र से ज्यादा असफल पृथ्वी पर कोई प्रयोग नहीं हुआ है। और कितनी प्रतिभाएं डूब गयी प्रयोग में! कितने अदभुत लोग नष्ट हो गये! और ध्यानियों के पास भी बैठ कर लोग दर्शन की यात्रा पर निकल जाते हैं। सुकरात ध्यानी है, लेकिन उसका शिष्य प्लेटो भटक गया। बैठा सुकरात के पास, सुना सुकरात को, लेकिन सुन-सुन कर सोचने-विचारने में लग गया। और जब सुकरात के पास बैठ कर प्लेटो भटक गया, तो प्लेटो शिष्य अरस्तू तो और भी भटक गया! बात ही गड़बड़ हो गयी। अगर सुकरात और अरस्तू का मिलन हो जाए तो दोनों को एक-दूसरे की बात ही समझ में न आएगी। जमीन-आसमान का फर्क हो गया।
और यह करीब-करीब पृथ्वी के हर देश में हुआ है, हर परंपरा में हुआ है।
बुद्ध के मरते ही उनके संघ में बत्तीस दार्शनिकों के संप्रदाय पैदा हो गये। लोग चल पड़े सोचने की दुनिया में अलग-अलग। और सोचने में विवाद है। सोचने में कोई निष्कर्ष तो मिलता नहीं, लेकिन भारी आपाधापी, ऊहापोह मच जाता है। अंधे सोचने लगते हैं हाथी के संबंध में।
पांच अंधों की कहानी तुमने सुनी ही है पंचतंत्र में, कि गये थे अंधे हाथी को देखने। जिसने कान छुआ, उसने कहा कि हाथी सूप की भांति है। और जिसने पैर छुआ था, उसने कहा...अंधा क्या समझेगा और,...उसने सोचा, हाथी खंभे की भांति है, स्तंभ की भांति है। और पांचों अंधों ने अलग-अलग वक्तव्य दिये। उनमें भारी विवाद मच गया। अंधे अक्सर दार्शनिक होते हैं। दार्शनिक अक्सर अंधे होते हैं। इनमें कुछ बहुत भेद नहीं होता। अंधे ही दार्शनिक हो सकते हैं। जिनके पास आंखें नहीं हैं, वे ही सोचते हैं प्रकाश क्या है? नहीं तो सोचेंगे क्यों? जिसके पास आंख है, वह देखता है, सोचेगा क्यों?
ख्याल रखना, दार्शनिक और द्रष्टा में बड़ा भेद है। यह सूत्र द्रष्टा के लिए है, दार्शनिक के लिए नहीं। सोचने मत बैठ जाना कि सत्य क्या है। निर्विचार होना है। सोचने से मुक्त होना है। वही भूमिका है। जब तुम परिपूर्ण शून्य होते हो, तुम मंदिर हो जाते हो। तुम तीर्थ बन जाते हो। सत्य अपने से अवतरित होता है, उतरता है। क्योंकि तुम जब शून्य होते हो, तुम्हारे द्वार-दरवाजे सब खुले होते हैं--अस्तित्व तुम्हारे भीतर प्रवेश कर सकता है।
सत्यं एव जयते नानृतम
सत्य जीतता है, असत्य नहीं।
सत्येन पन्था विततो देवनानः।
और यह सत्य का जो पंथ है, यही है देवयान, यही है दिव्यमार्ग। विचार का नहीं, शास्त्र का नहीं, दिव्या का।
सत्येन पन्था विततो देवयानः।
सत्य मार्ग है। वही देवयान है।
दो यानों को समझ लो। एक को कहा है परंपरा में: पितृयान और दूसरे को कहा है: देवयान। यान का अर्थ होता है: नाव। पितृयान का अर्थ होता है: हमारे बुजुर्ग, हमारे बाप-दादे जो करते रहे, वही हम करें। पितृयान यानी परंपरा। जिससे सदियों से लोग चलते रहे, उन्हीं लकीरों पर हम भी फकीर बने रहें। और देवयान का अर्थ होता है: क्रांति। परंपरा से मुक्ति। अपनी दिव्यता की खोज। औरों के पीछे न चलना। उदघोषणा। बगावत। विद्रोह।
मैं तुम्हें देवयान दे रहा हूं। संन्यास का अर्थ है: देवयान। तुम हिंदू नहीं हो, मुसलमान नहीं हो, ईसाई नहीं हो, जैन नहीं हो, बौद्ध नहीं हो, तुम सिर्फ धार्मिक हो।
मैं अपने संन्यासी को चाहता हूं वह सारे विशेषणों से मुक्त हो जाए। क्योंकि वह सब पितृयान है। तुम्हारे पिता हिंदू थे, इसलिए तुम हिंदू हो। और तो तुम्हारे हिंदू होने का कोई कारण नहीं है। अगर बचपन से ही तुम्हें मुसलमान घर में बड़ा किया गया होता, तुम मुसलमान होते। चाहे हिंदू घर में ही पैदा हुए होते, लेकिन अगर मुसलमान मां-बाप ने बड़ा किया होता, तो मस्जिद जाते, मंदिर नहीं; कुरान पढ़ते, गीता नहीं; जरूरत पड़ जाती तो मंदिर को आग लगाते, और मस्जिद को बचाने के लिए प्राण दे देते।
यह तुम नहीं हो, यह तुम्हारे भीतर से सड़ा-गला अतीत बोल रहा है।
जो व्यक्ति अपने को हिंदू या मुसलमान या ईसाई या जैन कहता है, वह अपने व्यक्तित्व को नकार रहा है, अपनी आत्मा को इनकार कर रहा है। वह कह रहा है: मेरा कोई मूल्य नहीं है; कब्रों का मूल्य है, मुर्दों का मूल्य है।
देवयान का अर्थ होता है: अपनी दिव्यता की अनुभूति और घोषणा; परंपरा से मुक्ति; अतीत से मुक्ति और वर्तमान में जीने की कला। "सत्येन पन्था विततो देवयान;'। यह जो सत्य का मार्ग है, यह देवयान है; यह बगावत का रास्ता है; यह विद्रोह है। यह पितृयान नहीं है। तुम यह नहीं कह सकते कि मेरे पिता मानते थे, इसलिए मैं मानता हूं। नहीं, तुम्हें जानना होगा। जानना पहले। और जिसने जान लिया उसे मानने की जरूरत ही नहीं आती। और जिसने माना, उसके जीवन में जानने का सौभाग्य कभी पैदा नहीं होता। जिसने माना, वह तो मर ही गया। जिस दिन माना, उसी दिन मर गया। क्योंकि उसी दिन खोज समाप्त हो गयी, अन्वेषण बंद हो गया। मानने का अर्थ ही होता है कि अब क्या करना है, मैंने तो मान लिया। और तुम्हें यहीं सिखाया गधा है कि मानो, विश्वास करो। और इस भांति सारी पृथ्वी पर थोथे धार्मिक लोग पैदा किये गये हैं। विश्वासी हैं, मगर धार्मिक नहीं।
विश्वास थोथा ही होगा। जो तुम्हारा अपना अनुभव नहीं है, वह कैसे सत्य हो सकता है? मैं कहूं, वह मेरा अनुभव है, तुम उसे दोहराओ, तुम्हारे लिये असत्य हो गया। जिस दिन तुम भी जानोगे, अपनी निजता में, उस दिन तुम्हारे लिये सत्य होगा। और स्वयं का सत्य ही मुक्त करता है। दूसरों के सत्य बंधन बन जाते हैं, जंजीरें बन जाते हैं।
इसलिए मेरा कोई संन्यासी मेरा अनुयायी नहीं है। मेरा संगी है, मेरा साथी है, लेकिन मेरा अनुयायी नहीं है। मैं कोई सिद्धांत दे भी नहीं रहा। तुम चाहो भी मेरा अनुगमन करना तो न कर सकोगे। मैं तुम्हें सिर्फ इशारे दे रहा हूं। इशारे अंतर्यात्रा के। मैं तुम्हें कुछ सिद्धांत नहीं दे रहा कि तुम पकड़ लो और मान लो। मैं तुमसे सारे सिद्धांत छीन रहा हूं। यह देवयान की प्रक्रिया है।
सत्येन पंथा विततो देवयानः।
येनाक्रमंति ऋषयो ह्याप्तकामा
इस सत्य-मार्ग से जो जाते हैं, वे हैं आप्तकाम। जिसने सत्य को जाना, उसकी कामना मर जाती है। कामना बाहर कुछ पाने की दौड़ है। कामना राजनीति है। कामना का अर्थ है: धन मिले, प्रतिष्ठा मिले, यश मिले। कामना का अर्थ है: दूसरों पर मैं हावी हो जाऊं; दूसरों के सिरों पर बैठ जाऊं। आप्तकाम का अर्थ है: जिसने देख ली मूढ़ता इस दौड़ की; जो इस दौड़ से मुक्त हो गया; जिसको भ्रांति टूट गयी, जिसको यह बात समझ में आ गयी कि मैं अपना मालिक नहीं हूं, किसी और का मालिक कैसे हो सकूंगा? यह असंभव है। अपना ही मालिक हो जाऊं, इतना ही काफी है। काफी से ज्यादा है। क्योंकि जो अपना मालिक हुआ, उसके जीवन में भीतर के खजानों के द्वार खुल जाते हैं। इस सत्य-मार्ग से जो जाते हैं, वे ही आप्तकाम हैं। वे ही ऋषि हैं, वे ही द्रष्टा हैं।
ऋषि शब्द बड़ा प्यारा है। दुनिया की किसी भाषा में ऐसा शब्द नहीं। ऋषि का यूं तो अर्थ होता है: कवि। लेकिन, एक गुणात्मक भेद है कवि और ऋषि में। दुनिया की सभी भाषाओं में कवि के लिए शब्द हैं, लेकिन ऋषि के लिए नहीं।
कारण है।
हमने इस देश में कोई पांच हजार वर्षों से निरंतर भीतर की शोध की है। जैसे आज पश्चिम विज्ञान के शिखर पर है, ऐसे हमने धर्म के शिखर पर पहुंचने का सतत अभियान किया है। जरूर कोई सारा पश्चिम वैज्ञानिक नहीं है, लेकिन विज्ञान की एक खूबी है; अगर एक व्यक्ति ने बिजली खोज ली और बिजली का बल्ब बना लिया--जैसे एडीसन ने--तो एक दफा बिजली का बल्ब बन गया और बिजली खोज ली गयी, तो सभी उसके हकदार हो जाते हैं। फिर घर-घर में बिजली जलती है। फिर ऐसा नहीं है कि एडीसन के घर में ही बिजली जलेगी। एक दफा बात जान ली गयी, तो बाहर के जगत की सारी बातें एक बार जान। ली गयीं तो सबकी हो जाती हैं।
इससे विज्ञान में एक भ्रांति बड़े स्वाभाविक रूप से पैदा हो जाती है, वैज्ञानिक तो थोड़े ही होते हैं--कोई एडीसन, कोई आइंस्टीन, कोई रदरफोर्ड, थोड़े-से वैज्ञानिक--लेकिन एक वैज्ञानिक जो भी खोजता है, जैसे एडीसन ने एक हजार आविष्कार किये, लेकिन वे सारे आविष्कार सबके हो गये।
धर्म के संबंध में एक अड़चन है। धर्म भी थोड़े लोगों ने ही अनुभव किया--बुद्ध ने, महावीर ने, कृष्ण ने, पतंजलि ने, गोरख ने, नानक ने, कबीर ने, मीरा ने, थोड़े-से लोगों ने--मगर धर्म के साथ एक अड़चन है, जो अनुभव करता है, बस उसके ही भीतर ज्योति जगती है। इसको हर घर में नहीं जलाया जा सकता। बुद्ध ने जाना तो बुद्ध मुक्त होते हैं। मीरा ने पाया, तो मीरा नाचती है मग्न होकर; पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे! मगर तुम कैसे पद में घुंघरू बांधोगे? और तुम कैसे नाचोगे? तुमने तो पाया नहीं। और तुम नाचे तो नकल करोगे। तुम नकलची हो जाओगे। तुम कार्बन कापी हो जाओगे। और इस दुनिया में इससे बड़ा कोई पाप नहीं है: कार्बन कापी हो जाना। अपनी मौलिकता को भूल जाना जघन्य अपराध है, आत्मघात है।
थोड़े-से लोगों ने धर्म के शिखर को छुआ। लेकिन जिन्होंने धर्म के शिखर को छुआ, उन्होंने हमारी भाषा पर भी छाप छोड़ दी। हमारी भाषा को उन्होंने नया शृंगार दे दिया। हमारी भाषा को नये अर्थ, नयी अभिव्यंजनाएं दे दीं। जैसे ऋषि शब्द दिया।
कवि का अर्थ होता है: जिसके पास बाहर की आंखें हैं, जो बाहर के सौंदर्य को देखने में समर्थ है, जिसके पास बाहर के सौंदर्य को अनुभव करने की संवेदनशीलता है। सूर्योदय के सौंदर्य को देखता है, सूर्यास्त के सौंदर्य को देखता है; पक्षियों के गीत, फूलों के रंग, रात तारों से भरा हुआ आकाश, किसी की आंखों का सौंदर्य, किसी के चेहरे का सौंदर्य, लेकिन उसकी आंख बाहर के सौंदर्य को देखती है, वह कवि। वह इस सौंदर्य के गीत गाता है। लेकिन यह सौंदर्य कुछ भी नहीं है उस सौंदर्य के मुकाबले जो भीतर है। जिसकी भीतर की आंख खुल जाती है--प्रतीकात्मक रूप से हमने उसको तृतीय नेत्र कहा है। यह भी थोड़ा सोचने जैसा है। बाहर देखने वाली दो आंखें हैं और भीतर देखने वाली एक आंख है।
क्यों?
क्योंकि बाहर देखने का जो ढंग है वह द्वंद्व का है, द्वैत का है। वह हर चीज को दो में तोड़ देने का है। और भीतर जो देखने का ढंग है, वह हर चीज को एक में जोड़ देने का है। बाहर विश्लेषण है और भीतर संश्लेषण।
विज्ञान विश्लेषण है, क्योंकि वह बाहर की आंख है। और धर्म संश्लेषण है, क्योंकि वह भीतर की आंख है। वहां दो आंखें मिल कर एक आंख हो जाती है। वहां एक ही दृष्टि रह जाती है। वहां कोई द्वैत नहीं बचता। इसलिए हमने उसे तीसरा नेत्र कहा है। वह भीतर की आंख है। और जिसे भीतर का सौंदर्य दिखाई पड़ता है, वह ऋषि।
लेकिन भीतर का सौंदर्य तो तब दिखाई पड़ेगा जब भीतर का दीया जले। बाहर का सौंदर्य दिखाई पड़ता है, क्योंकि बाहर रोशनी है। रात के अंधेरे में तो फूलों के रंग दिखाई नहीं पड़ते! दिन के प्रकाश में फूलों के रंग दिखाई पड़ते हैं। रात में इंद्रधनुष दिखाई नहीं पड़ता--बन ही नहीं सकता, दिखाई कैसे पड़ेगा! उसके लिए सूरज तो चाहिए ही चाहिए। हां, दिन की रोशनी में कभी इंद्रधनुष बनता है। सारे रंग! अपूर्व सौंदर्य के साथ पृथ्वी और आकाश को जोड़ देता है, सेतु बन जाता है। तुम्हारे कमरे में कितनी ही सुंदर तस्वीरें टंगी हों, बड़े से बड़े चित्रकारों की--पिकासो की, डाली की, वानगाग की--मगर रात के अंधेरे में तुम उन्हें देख न पाओगे। रोशनी चाहिए। सुबह जब सूरज ऊगेगा और खिड़कियों से किरणें झांकेंगी तब तुम अचानक चकित होओगे कि कितने अदभुत कलात्मक कृतियां कमरे में मौजूद हैं। हो सकता है बुद्ध की मूर्ति रखी हो। किसी अदभुत मूर्तिकार का सृजन हो! हो सकता है माइकेल एंजिलो की जीसस की प्रतिमा रखी हो! मगर रात के अंधेरे में कैसे देखोगे?
भीतर अंधेरा है, इसलिए के सौंदर्य का तुम्हें पता नहीं। भीतर भी फूल खिलते हैं। हमने कहा कि भीतर सहस्रदल कमल खिलता है। बाहर के फूलों में क्या रखा है। क्षण भर को होते हैं; अभी हैं, अभी नहीं; आ भी नहीं पाते कि जाने की तैयारी शुरू हो जाती है; झूले में और अर्थी में बहुत भेद नहीं होता; सुबह खिला फूल, सांझ मर जाता है; सुबह झूले में था, सांझ अर्थी बंध जाती है, राम नाम सत्य हो जाता है; सुबह किस शान से उठा था, किस गरिमा और गौरव से, किस दंभ से घोषणा की थी और सांझ पंखुड़ियां बिखर गयी हैं। किसी हताशा है! मिट्टी में गिर गया है! सुबह सोचा भी न होगा कि यह अंत होगा, कि यूं खाक में पड़ जाना होगा!
बाहर का सौंदर्य क्षणभर है, पानी में बने बबूले जैसा है। कवि उसी सौंदर्य की चर्चा करता है। ऋषि उस सौंदर्य की चर्चा करता है, जो शाश्वत है। जिस एक बार जाना तो सदा के लिए जाना। वही सौंदर्य तृप्ति दे सकता है। कवि भी गीत गाता है। लेकिन कवि के गीत क्षणभंगुर की ही छाया होते हैं। ऋषि भी गीत गाता है। लेकिन ऋषि के गीत शाश्वत की अनुगूंज होते हैं, अनाहत का नाद होते हैं।
सूफी फकीर स्त्री हुई राबिया। उसके घर मेहमान था हसन। सुबह हुई, हसन बाहर गया, सूरज ऊगता था, पक्षी गति गाते थे, दूर अमराई से कोई कोयल कूकती थी, बड़ी प्यारी सुबह थी, अभी की बूंदें घास पर जमी थीं, मोतिया जैसी चमकती थी, फूलों की गंध हवा को भर रही थी, उसने आवाज दी राबिया को कि राबिया, तू भीतर झोपड़े में बैठी क्या कर रही है? बाहर आ, परमात्मा ने एक बहुत सुंदर सुबह को जन्म दिया है, इसे देखने से चूकना उचित नहीं । तू जल्दी बाहर आ! राबिया खिलखिला कर हंसी और उसने कहा, हसन, कब तक बाहर के सौंदर्य में उलझे रहोगे? मैं तुमसे कहती हूं, भीतर आओ! क्योंकि जिसने उस बाहर की सुबह को बनाया है, मैं उसे देख रही हूं। तुम सिर्फ चित्र देख रहे हो, मैं चित्रकार को देख रही हूं। तुम्हीं भीतर आ जाओ! सुनो मेरी, मानो मेरी, तुम्हीं भीतर आ जाओ!
हसन ने यह सोचा था कि बात यूं हो जाएगी। मगर ऋषियों के हाथ में कंकड़ भी पड़ जाएं तो हीरे हो जाते हैं। हसन ने तो यूं ही कहा था कि राबिया, बाहर आ! सोचा भी न था कि इसमें कुछ आध्यात्मिक संदेश राबिया दे देगी। मगर राबिया जैसे अनुभूति से भरे के जीवन में तुम कुछ भी कहो, वे उसमें से कुछ न कुछ शाश्वत का इशारा खोज लेंगे।
कल कृष्णतीर्थ ने मुझसे पूछा था कि आप जब उत्तर देते हैं किसी के प्रश्न का तो प्रश्नकर्ता महत्वपूर्ण होता है या प्रश्न महत्वपूर्ण होता है?
कृष्णतीर्थ, न तो प्रश्न महत्वपूर्ण होता है, न प्रश्नकर्ता होता है, महत्वपूर्ण तो हमेशा उत्तर देने वाला होता है, उत्तर होता है। उत्तर से भी ज्यादा उत्तर देने वाला होता है। अब हसन ने क्या पूछा था? हसन ने यह बात ही न की थी, हसन तो कुछ और ही पूछ रहा था, साधारण-सी बात कर रहा था। राबिया ने क्या मोड़ दे दिया! हालात बदल दिये! हसन को चौंका दिया! हसन के प्रश्न में तो कुछ भी न था, तुमसे अगर यह बात किसी ने कहीं होती तो तुम यह उत्तर नहीं दे सकते थे जो राबिया ने दिया। और अगर राबिया का उत्तर सुन कर देते भी तो झूठा होता। और जहां झूठा है, वहां बल नहीं होता। लचर-पचन तुमने कहां होता, हकलाते हुए कहा होता। तुम्हारी बात में प्राण न होते, श्वास न होती। लेकिन राबिया ने जिस ढंग से बात कही, हसन को भीतर खिंच कर आ जाना पड़ा। पड़ी रह गयी सुबह बाहर। पड़े रह गये फूल और कोयल की पुकार। और पड़ा रह गया सूरज और ओस की चमकती हुई बूंदें--सब पड़ा रहा गया।
हसन भीतर आया और हसन ने कहा, राबिया, यह तूने क्या कहा! राबिया ने कहा, जो कहना उचित था वही मैंने कहा। कब तक उलझे रहोगे, हसन? बहुत दिन हो गये मुझे देखते, तुम बाहर ही उलझे हो। माना कि बाहर सुंदर है जगत, मगर बनाने वाले को देखो; उस मूलस्रोत्र को देखो जहां से यह सारा सौंदर्य निकलता है, यह सौंदर्य उसके सामने कुछ भी नहीं है, बूंद भी नहीं है! जब सागर भीतर मौजूद है, तो क्यों बूंदों में अटके हो?
और हसन के जीवन में यह घटना क्रांति की हो गयी। उस दिन से हसन की आंखें बंद हो गयीं। अब तक हसन एक कवि था, अब उसके जीवन में ऋषि की यात्रा शुरू हुई।
ऋषि का अर्थ है: जो बाहर विजय करनी है, इस बात की मूढ़ता को पहचान लिया और अंतर्विजय के लिए निकल पड़ा है। और ऋषि का अर्थ है: जिसने भीतर के सौंदर्य को देखा है और उसे गाया है। वह भी कवि है, लेकिन आंख बाला; अंधा नहीं। भीतर की आंख वाला। वह भी कवि है, लेकिन उसके भीतर दीया जल रहा है। और इसलिए उसके प्रत्येक शब्द में ज्योति है। उसके शब्द-शब्द में आग है। उसके शब्द-शब्द आग्नेय हैं। और जिनके भीतर थोड़ी भी क्षमता है जागने की, वे उसके शब्दों को सुन कर जाग ही जाएंगे।
येनाक्रमंति ऋषयो ह्याप्तकामा
जहां सत्य है, वहीं परम द्वार है। और एक बार तुमने अपने सत्य को जाना कि परमात्मा दूर नहीं, निकट से भी निकट है। एक बार तुमसे अपने सत्य को जाना कि उसी सत्य के केंद्र पर विराजमान तुम परमात्मा को पाओगे। सत्य परमात्मा का द्वार है। और जिसने और परमात्मा को जाना, वही विजयी है। उसको हमने जिन कहा है। जैन दो कौड़ी के हैं, लेकिन जिन! महावीर को हमने जिन कहा। महावीर जैन नहीं हैं, ख्याल रखना, कोई भूल कर यह दावा न करे कि महावीर जैन हैं; महावीर जिन हैं।
जिन का अर्थ है: जिसने जीता, जिसने जाना। और जैन कौन है? जैन वह है, जिसने जीते हुए लोगों के शब्द तोतों की तरह रट लिये हैं, जो उनको दोहरा रहा है यंत्रवत, लेकिन उन शब्दों पर उसके हस्ताक्षर नहीं हैं, उन शब्दों पर उसके प्राणों की कोई छाप नहीं है। वे शब्द उधार हैं, बासे हैं, झूठे हैं। और गंदे हो गये हैं, क्योंकि हजारों ओठों से चल चुके हैं।
सहजानंद, यह सूत्र तो प्यारा है। मगर इतनी सारी बातों को ख्याल में रखना तो ही तुम इस सूत्र में छिपे अमृत का स्वाद ले पाओगे। सोचने-विचारने में मत पड़ जाना। जाओ! भीतर का दीया जलाओ! ध्यान की थोड़ी-सी ज्योति पर्याप्त है।

दूसरा प्रश्न:

भगवान, क्या मैं बिना संन्यास के आपका शिष्य नहीं हो सकता हूं?

नारायण तिवारी, विद्यार्थी हो सकते हो, शिष्य नहीं हो सकते हो। और विद्यार्थी और शिष्य में उतना ही अंतर है, जितना कवि में और ऋषि में। उससे कम नहीं। विद्यार्थी का मतलब है; जो कुछ सूचनाएं लेकर चला जाएगा। जो थोड़ा-सा ज्ञान का कचरा इकट्ठा कर लेगा। जिसकी स्मृति थोड़ी और भर जाएगी। जो कुछ और अच्छी-अच्छी बातें दोहराना सीख लेगा। शिष्य नहीं हो सकते हो बिना संन्यस्त हुए। क्योंकि शिष्य की पहली शर्त है: कुतूहल को छोड़ना। कुतूहल को ही नहीं छोड़ना, जिज्ञासा को भी छोड़ना। मुमुक्षा को धारण करना।
मुमुक्षा क्या है?
कुतूहल बचकानी चीज है, छोटे-छोटे बच्चों में होता है, पूछे ही चले जाते हैं। ऐसा क्यों है, वैसा क्यों है? खोपड़ी खा जाते हैं। जिसने पीछे पड़ जाएं, उसकी मुसीबत खड़ी कर देते हैं। क्योंकि एक प्रश्न खतम नहीं होता कि वे दूसरा प्रश्न खड़ा कर देते हैं। उनको सुनने की कोई बहुत इच्छा भी नहीं होती कि प्रश्न का तुम उत्तर दो, वे तुम्हारे उत्तर को सुनने भी नहीं, उनको मजा पूछने का होता है। वह पूछे ही चले जाते हैं। तुमने क्या उत्तर दिया, इससे भी प्रयोजन नहीं है। तुमने दिया या नहीं, इससे भी प्रयोजन नहीं है। तुम जब उत्तर दे रहे हो तब वे दूसरा प्रश्न तैयार कर रहे हैं। फुर्सत किसको है तुम्हारे उत्तर सुनने की? कुतूहल बचकानी चीज है।
जिज्ञासा व्यक्ति को विद्यार्थी बनाती है। विद्यार्थी का मतलब यह है, मैं अपने को बदलने को राजी हूं, लेकिन हां, कुछ ज्ञान की बातें अगर मिल जाएं तो जरूर संगृहीत कर लूंगा, संजो कर रख लूंगा अपनी मंजूषा में। वक्त पड़े शायद काम आएं। और अपने काम न आयीं तो कोई हर्ज नहीं, दूसरों को सलाह देने के काम आएंगी। इस तरह पंडित पैदा होता है। पंडित विद्यार्थी का चरम निष्कर्ष है।
मुमुक्षा का अर्थ है: जानकारी से क्या करूंगा? जीवन चाहिए! अनुभव चाहिए! नहीं जानना चाहता हूं परमात्मा के संबंध में, परमात्मा को ही पीना चाहता हूं। बिना पीये यह नहीं हो सकता है। और पीने के लिए, नदी बर रही हो और तुम प्यासे अगर खड़े रहो तट पर तो भी प्यास नहीं बुझेगी। तुम नदी के तट पर खड़े हो कर सोच-विचार करते रहो कि पानी कैसे बनता है, इसका रासायनिक फार्मूला क्या है--एच. टू. ओ.--तो भी प्यास नहीं बुझेगी। तुम्हें नदी में उतरना पड़ेगा। उतर जाने से भी प्यास नहीं बुझेगी, तुम्हें दोनों हाथों को बांध कर अंजुली बनानी होगी। अंजुली बना लेने से भी प्यास नहीं बुझेगी, तुम्हें फिर झुकना होगा ताकि तुम अपनी अंजुली में नदी के जल को भर सको। बिना झुके तुम अंजुली को भर न पाओगे। और झुकोगे तो पी सकोगे। और पीओगे तो तृप्ति है।
संन्यास का कुछ और अर्थ नहीं है। झुकना! समर्पण! अंजुली बांधना! प्रेम से पीने की तैयारी!
कोई समझेगा क्या राजे-गुलशन...
कोई समझेगा क्या राजे-गुलशन
जब तक उलझे न कांटों से दामन
कोई समझेगा क्या राजे-गुलशन
कोई समझेगा क्या राजे-गुलशन
अज्मते आशियाना बनाये
बर्क को दोस्त समझूं या दुश्मन
कोई समझेगा क्या राजे-गुलशन
हुस्न यूं है परीशां-परीशां...
हुस्न यूं है परीशां-परीशां
लुट गया हो काई जैसे रहजन
कोई समझेगा क्या राजे-गुलशन
जब तक उलझे न कांटों से दामन
कोई समझेगा क्या राजे-गुलशन
इक-ब-इक सामने आना-जाना...
इक-ब-इक...
इक-ब-इक सामने आना-जाना
रुक न जाये कहीं दिल की धड़कन
रुक न जाये कहीं दिल की धड़कन...
जब तक उलझे न कांटों से दामन
कोई समझेगा क्या राजे-गुलशन
गुल तो क्या खार तक चुन लिये हैं...
गुल तो क्या...
गुल तो क्या खार तक चुन लिये हैं
फिर भी खाली है गुलचीं का दामन
फिर भी खाली है गुलचीं का दामन
कोई समझेगा क्या राजे-गुलशन
जब तक उलझे न कांटों से दामन
काई समझेगा क्या राजे-गुलशन
ऐ फना...
ऐ फना इश्क में मिट के तूने...
ऐ फना इश्क में मिट के तूने
कर दिया हुस्न का नाम रोशन...
ऐ फना इश्क में मिट के तूने
कर दिया हुस्न का नाम रोशन
कोई समझेगा क्या राजे-गुलशन
जब तक उलझे न कांटों से दामन
कोई समझेगा क्या राजे-गुलशन...
कोई समझेगा क्या...
कोई समझेगा क्या राजे-गुलशन
जब तक उलझे न कांटों से दामन
कोई समझेगा क्या राजे-गुलशन
यह राज समझ में न आएगा। तुम बचना चाहते हो, नारायणदास तिवारी, कि कहीं कांटे न चुभ जाएं। कहीं दामन में कुछ न चुभ जाएं। मगर बिना कांटे चुभे कुछ समझ में आने वाला नहीं। उतना साहस तो करना ही होगा। मिटने की तैयारी है संन्यास
ऐ फना इश्क में मिट के तूने
कर दिया हुस्न का नाम रोशन
संन्यास मृत्यु है अहंकार की। और जहां अहंकार मरा, वहां एक नये जन्म की शुरुआत है, एक नये जीवन का प्रारंभ है। संन्यास है द्विज बनने की प्रक्रिया, दुबारा जन्म लेने की प्रक्रिया। और तुम पूछते हो, भगवान, क्या मैं बिना संन्यास के आपका शिष्य नहीं हो सकता हूं? विद्यार्थी हो सकते हो, शिष्य नहीं हो सकते हो! और तुम विद्यार्थी रहे, तो मैं शिक्षक रह जाऊंगा तुम्हारे लिए। तुम्हारे लिए शिक्षक रह जाऊंगा। तुम शिष्य हुए, तो तुम्हारे लिए मैं गुरु हूं। तुम जितने करीब आओगे, उतना ही तुम मुझे समझ पाओगे। संन्यास बिना लिये तुम दूर-दूर खड़े रहोगे, किनारे-किनारे, पानी में उतरोगे ही नहीं। तो दूर-दूर से देख सकते हो, सुन सकते हो, कुछ शब्द इकट्ठे कर लोगे, मगर इससे कुछ बात बनेगी नहीं। इससे कुछ जीवन में मुक्ति का द्वार खुलेगा नहीं।
संन्यस्त हुए बिना कोई मार्ग नहीं है।
मगर ख्याल रख लेना, संन्यास का मतलब क्या होता है? इतना ही मतलब होता है कि तुम झुकने को तैयार हो; तुम मिटने को तैयार हो; तुम दांव पर सब लगाने को तैयार हो। यह जुआरी का रास्ता है। यह शराबी का रास्ता है। यह कमजोरों के लिए नहीं है। यह सिर्फ हिम्मतवरों के लिए है। यह उनके लिए है जिनके पास छाती है।

तीसरा प्रश्न:

भगवान, मैंने सुना है कि बचपन में आप छड़ी लेकर नेताओं की टोपियां उछाला करते थे।

सुभाष! वही तो अभी भी कर रहा हूं! कुछ फर्क तो पड़ा नहीं! असल में गांधी टोपी देख कर किसको उछालने की तबियत नहीं होती? और गांधी टोपी उछालने का मजा इतना है कि अगर एक बार बुद्धत्व कहां जाता है, शाश्वत है; पहले टोपी उछालना है, बुद्धत्व तो अपना है ही। उसे खोया ही नहीं जा सकता। लेकिन यह टोपी वाला आदमी फिर मिले, न मिले।
और तो नेताओं का कोई उपयोग भी नहीं है। इतना ही तो उपयोग है। थोड़ा-सा मनोरंजन।
एक नेता की पुस्तक छपी। तो उसने दूसरे नेता से पूछा "तुम्हें मेरी पुस्तक कैसी लगी?'
"बहुत अच्छी थी। तुमने किससे लिखवायी थी?'
पहले ने कहा, "पहले तुम यह बताओ कि तुमने किससे पढ़वायी थी?'
एक नेता ने बड़े जोश से अपने भाषण में कहां, "पूंजीवाद में एक आदमी दूसरे आदमी का खून पीता है, परंतु साम्यवाद में ठीक इसका उलटा है।'
एक नेता जी बस में यात्रा कर रहे थे। पास बैठी सुंदर महिला निहायत उम्दा सेंट लगाये महक रही थी। अब महिला का सेंट और उसका सौंदर्य और तुम नेता की तकलीफ समझ सकते हो! नेता धीरे-धीरे पास सरकने लगे।...अरे, नेता ही क्या जो धीरे-धीरे पास न सरके और ऐसा अवसर खो दे! नेता तो वही जो अवसर न खोये। इसीलिए तो नेता को अवसरवादी होना पड़ता है। अवसर खोता ही नहीं!...सरकता आया, सरकता आया, महिला को करीब-करीब दबोच ही दिया। मगर नेता था तो महिला भी क्या करें! फिर गांधीवादी नेता था। चरखा भी रखे हुए था बगल में। और गांधी टोपी और शुद्ध खद्दर, कहे भी तो क्या कहे! जब बिलकुल महिला के शरीर को चिपकाने ही लगा और महिला घबड़ाने लगी, तब बात को थोड़ा आसान बनाने के लिए नेता ने कहा, "क्षमा करें, यह कौन-सा सेंट है? मैं अपनी पत्नी के लिए खरीदना चाहता हूं। "ऐसा कह कर नेता जी ने उस स्त्री का हाथ भी अपने हाथ में ले लिया। उस स्त्री ने कहा, "जो गलती मैंने की है, उसे दोहराना ठीक नहीं। क्या आप पसंद करेंगे कि अन्य लोग आपकी पत्नी के इतने करीब सरक जाएं, शरीर सटा कर हाथ में हाथ ले कर पूछे कि आपने यह सेंट कौन-सा उपयोग किया है; मैं भी अपनी पत्नी के लिए खरीदना चाहता हूं ?
इन नेताओं का करो भी क्या? किसी मतलब के नहीं, किसी मकसद के नहीं; दो कौड़ी के हैं।
एक नेता जी भाषण दे रहे थे--"मित्रो, सिर्फ परिवार का रिश्ता ही रिश्ता नहीं होता, धर्म तथा समाज का रिश्ता उससे भी बड़ा होता है। सभी भाई मेरे धर्म-भाई हैं, सभी बहने मेरी धर्म-बहने हैं।' तभी सभापति ने कहा, "बस यही समाप्त कर दो, आगे मत बढ़ना! गनीमत है कि तुम यह नहीं कह रहे कि सभी पत्नियां मेरी धर्म-पत्नियां हैं।'
एक साहब ने अपने होने वाले राजनेता दामाद से पूछा, "शराब पीते हो?' राजनेता ने कुछ देर सोचने के बाद कहा, "पहले यह बताइये कि यह प्रश्न है या निमंत्रण?'
बिन तिकड़म नेता नहीं, बिन पत्नी नहीं सास,
बिन चमचा, मंत्री नहीं, बिना क्लर्क नहीं बास।
सज्जन बनी-बनी जब मुआ नेता भया न कोय
बस दो आखर "झूठ' के पढ़े सो नेता होय।
नेता चमचा राखिये बिन चमचा सब सून
बिना चमचा नहिं मिल सकै कुर्सी, बंगला, फून।
नेता जग में आय के कर लीजे दो काम
देने को भाषण भल्यो, लीज्यो वोट तमाम।

जब एक मंत्री ने समाचार सुना
कि सूखाग्रस्त क्षेत्र की
एक औरत
आठ आने में अपनी अस्मत
बेच आयी
तो उन्होंने आह भर कर कहा--
हे भगवान!
इतना सस्तापन!
और यह जनता चिल्लाती है--
महंगाई, महंगाई, महंगाई!
विद्यालय में आ गये इंस्पेक्टर-स्कूल,
छठी क्लास में पढ़ रहा विद्यार्थी हरफूल।
विद्यार्थी हरफूल, प्रश्न उससे कर बैठे,
किसने तोड़ा शिव का धनुष बताओ बेटे!
छात्र सिटपिटा गया बिचारा, धीरज छोड़ा,
हाथ जोड़ कर बोला, सर! मैंने ना तोड़ा!
यह उत्तर सुन आ गया सर के सर को ताव,
फौरन बुलावाए गये हेडमास्टर सा'ब।
हेडमास्टर सा'ब पढ़ाते हो क्या इनको,
किसने तोड़ा धनुष नहीं मालूम है जिनको।
हेडमास्टर भन्नाया--फिर तोड़ा किसने?
झूठ बोलता है, जरूर तोड़ा है इसने।
इंस्पेक्टर अब क्या कहे, मन ही मन मुसकात,
आफिसा में आकर हुई मैनेजर से बात।
मैनेजर से बात, छात्र में जितनी भी है,
उससे दुगनी बुद्धि हेडमास्टर जी की है।
मैनेजर बोला, जी हम चंदा कर लेंगे,
नया धनुष, उससे भी अच्छा बनवा देंगे।
शिक्षा-मंत्री तक गये जब उनके जजबात,
माननीय गदगद हुए, बहुत खुशी की बात।
बहुत खुशी की बात, धन्य हैं ऐसे बच्चे,
अध्यापक, मैनेजर भी हैं कितने सच्चे।
कह दो उनसे, चंदा कुछ ज्यादा कर लेना,
जो बैलेन्स बचे वह हमको भिजवा देना।
इन नेताओं का करो भी क्या, सुभाष! किसी और उपयोग के नहीं हैं। जैसे सर्कस में जोकर होता है न, वही अवस्था तुम्हारे इन नेताओं की है। थोड़ा मनोरंजन कर जाते, बस।
जो जब भी मैं गांधीवादी टोपी देखता हूं, तो उछाल ने का मन होता है। तुम भी ऐसा अक्सर चूका मत करो! इससे अच्छी कोई फुटबाल नहीं। और वालीबाल की नहीं कह रहा हूं, फुटबाल कह रहा हूं, ख्याल रखना!

आखिरी प्रश्न :

भगवान, परमात्मा मेरी पुकार कब सुनेगा?

साधना! परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है जो तुम्हारी पुकार सुने, तुम्हारी पुकार पूरी करे। यह परमात्मा के संबंध में व्यक्ति होने की धारणा बिलकुल छोड़ दो! इसी मूढ़तापूर्ण धारणा के कारण जमाने के कारण जमाने भरके अंधविश्वास पैदा हुए हैं। मनुष्य-जाति की सारी अंधविश्वासी परंपराओं की बुनियाद में यह धारणा है कि परमात्मा एक व्यक्ति है। इसलिए मूर्तियां बनीं और मूर्तियों के सामने लोग बैठे हैं, आरती के थाल सजाए, दिये जलाये आरती उतार रहे हैं, भोग लगा रहे हैं। समय बर्बाद कर रहे हैं। खुद की बनायी हुई मूर्तियों के सामने आदमी आरती उतार रहा है! इससे तो अच्छा हो कि एक आईना रख लो और उसमें अपनी तस्वीर देखो, उसकी आरती उतारो। क्योंकि तुम्हारी प्रतिमाएं तुम्हारी ही तस्वीरें हैं।
बाइबिल कहती है: ईश्वर ने मनुष्य को अपनी शक्ल में बनाया। बात कुछ उलटी है। मनुष्यों ने ईश्वर को अपनी शक्ल में बनाया हुआ है। और मैं हैरोडोटस से राजी हूं। वह यूनान का एक बहुत महत्वपूर्ण विचारक और इतिहासविद हुआ। उसने लिखा है, अगर गधे परमात्मा की तस्वीर बनाएं, तो निश्चित ही वह तस्वीर गधों की होगी। सुंदरतम गधे की होगी, मगर वह गधे की होने वाली है। इतना तो पक्का है कि गधे अगर परमात्मा की तस्वीर बनाएंगे तो आदमी की तस्वीर नहीं बना सकते। आदमी ने गधों के साथ जो सलूक किया है, वह कुछ ऐसा नहीं है कि इनकी तस्वीर वे परमात्मा की तरह पूजें । ये गधों पर कब से सवार हैं! गधों को इन्होंने मौका ही नहीं दिया कि कभी वे भी सवारी कर लें। कभी छुट्टी भी दे दें, कि चलो रविवार के दिन तुम सवारी, करो, छह दिन हम। इनकी क्या पूजा गधे करेंगे?
और अगर पूजा करेंगे, तो पूजा के दूसरे अर्थ में। अगर मौका मिल जाए गधों को तो ठीक से पूजा कर देंगे। मराठी भाषा में जिसको "शिक्षा' कहते हैं। ऐसी "शिक्षा' देंगे कि छठी का दूध याद आ जाए! गधे क्या आदमी की तस्वीर बना कर उसकी पूजा करेंगे!
और आदमी ने भी जो तस्वीरें बनायी हैं, वे गौर करो। नीग्रो जो प्रतिमा बनाता है, उसके ओठ नीग्रो के होते हैं। उसके बाल घुंघराले, निग्रो के बाल होते हैं। चीनी जो परमात्मा की प्रतिमा बनाता है, उसमें जो दाढ़ी होती है, उसमें बस पांच-सात बाल होते हैं। जैसे चीनियों के होते हैं। मूंछ भी बिलकुल पतली, दो-चार बाल। आंख की भौंहें नदारद। आंख भी जरा-सी खुली!...बड़ी मुश्किल से देखते होंगे। कैसे देख लेते हैं! मगर चीनी चेहरे का ढंग वह है। गाल की हड्डियां निकली हुई। और अगर कोई चपटी नाक वाले लोग परमात्मा की प्रतिमा बनाते हैं तो चपटी नाक होती है।
तुमने राम की और कृष्ण की जो प्रतिमाएं बनायी हैं, वह तुम्हारी धारणा है कि आदमी कैसा होना चाहिए सुंदरतम। इस भ्रांति में मत पड़ना कि राम ऐसे थे। यह तुम्हारी कल्पना है कि आदमी को कैसा होना चाहिए सुंदरतम। भारतीय कल्पना के अनुसार। इसलिए बुद्ध की प्रतिमा अलग-अलग देशों में बनी, अलग-अलग ढंग से बनी।
भारतीय प्रतिमा जो बुद्ध की है, वह बनी है यूनानी प्रभाव में। बुद्ध के मरने के बाद एकदम प्रतिमाएं नहीं बनीं। बुद्ध के मरने के पांच सो साल बाद प्रतिमाएं बनीं। और बुद्ध के मरने के तीन सौ साल बाद अलेक्जेंडर भारत आया। और उसके साथ यूनानी सैनिक आए, सेनापति आए। और यूनानी सौंदर्य भारत के मन को भा गया, खूब भा गया। तो जब पांच सौ साल बाद बुद्ध की प्रतिमाएं बननी शुरू हुई, तो उनमें यूनानी सौंदर्य की छाप पड़ गयी। वह बुद्ध की प्रतिमा नहीं है। सच तो यह है कि बुद्ध नेपाली थे। और कहां नेपाली और कहां यूनानी!
बुद्ध पैदा हुए भारत और नेपाल की सीमा पर। असल में वह नेपाल का ही हिस्सा था, जहां बुद्ध पैदा हुए। वह नेपाली थे--भारतीय से ज्यादा। शायद चपटी नाक रही थी। ठिगने रहे होंगे। जैसे नेपाली होता है--गोरखा। सिकंदर जैसे तो नहीं हो सकते। कोई उपाय नहीं वैसा होने का। लेकिन जब प्रतिमा भारतीयों ने बनायी, तो उस समय सिकंदर की छाप बड़ी गहरी थी। और सिकंदर अपने पीछे सेनापति छोड़ गया था भारत में हुकूमत करने को, मीनांदर, उस समय मौजूद था जब बुद्ध की पहली प्रतिमाएं बनीं। उसमें मीनांदर की छाप भी है। और खुद मीनांदर भी बुद्ध से प्रभावित हुआ था। उसने बुद्ध के बहुत प्रसिद्ध भिक्षु नागसेन को बुला कर अपने राजदरबार में स्वागत किया था और उनसे प्रश्न किये थे। "मिलिंद प्रश्न' नाम की अदभुत किताब है बौद्धों की, जिसमें मिलिंद--मीनांदर का भारतीय रूपांतरण है मिलिंद--प्रश्न पूछता और नागसेन जवाब देते हैं। बुद्ध की जो प्रतिमा बनी, वह प्रतिमा अलेक्जेंडर से अनुप्राणित है। और बुद्ध के बाद फिर महावीर की प्रतिमाएं बनीं, उन पर भी वही छाप है। इसलिए तो कोई भी जैन-मुनि महावीर जैसी शरीर नहीं बता पाता। कहां से बताएगा? कोई बौद्ध भिक्षु बुद्ध जैसा दिखाई नहीं पड़ता है। कैसे दिखाई पड़ेगा? चीन में भी बुद्ध की प्रतिमाएं हैं। वहां हालत बदल गयी। वहां चीनियों ने अपने ढंग से बनायी उनको। और जापान में भी बुद्ध की प्रतिमाएं हैं। और जब तो और हालत बदल गयी। क्योंकि जापानियों ने अपने ढंग से बनायी हैं।
जापान में सदियों से श्वास की जो प्रक्रिया है, पतंजलि के योग से बिलकुल उलटी है। और मेरे हिसाब में ज्यादा वैज्ञानिक है। पतंजलि से कहीं ज्यादा वैज्ञानिक है। और पतंजलि से कहीं ज्यादा विश्राम में ले जाने वाली है और ध्यान में ले जाने वाली है। जापान की जो प्रक्रिया है, वह ताओ-परंपरा से आयी हुई है। लाओत्सू उसका जन्मदाता है। उस प्रक्रिया में श्वास को सीने से नहीं लेना है, पेट से लेना है। तो जब श्वास भीतर जाए, पेट ऊपर उठे और जब श्वास बाहर जाए तो पेट नीचे गिरे। ध्यान पेट पर होना चाहिए। उस प्रक्रिया को जो भी करेगा, उठती छाती तो भीतर बैठ जाएगी और पेट बड़ा हो जाएगा। स्वभावतः।
बुद्ध की जो प्रतिमा हमने बनायी है, वह पतंजलि के अनुपात से बनायी है। उसमें छाती बड़ी है, पेट बिलकुल भीतर सिकुड़ा हुआ है। क्योंकि पतंजलि के प्रयोग में श्वास लेनी है छाती से, फेफड़ों को भर लेना है श्वास से। और जब श्वास लो, तो पेट को भीतर खींच लेना है, ताकि पेट अनुपात में बना रहे। पेट भीतर हो। तो बुद्ध या महावीर की प्रतिमाएं ऐसी लगती हैं जैसे गामा की हों, पहलवानों की हों। यह बात जापानियों को नहीं जंची। यह बात ही गलत है उनके हिसाब से। तो जापान में जो बुद्ध की प्रतिमाएं हैं, वे तुम्हें न जंचेंगी। उसमें बुद्ध का पेट बड़ा है। जैसे गर्भवती स्त्री का पेट। और छाती छोटी है। भारतीय जो प्रतिमा है बुद्ध की, उसमें चेहरा बड़ा गंभीर है--गुरुगंभीर है। और जापानी जो प्रतिमा है, चेहरा मुस्कुराता हुआ है। अब जिसकी तोंद बड़ी हो, वह मुस्कुराए नहीं तो क्या करें! और जिसने पेट को भीतर खींचा हो, वह मुस्कुराए कैसे? अगर मुस्कुराए तो कहीं पेट न छूट जाए।
प्रत्येक जाति ने अपने ढंग से प्रतिमाएं बनायी हैं। वह इनका परमात्मा से कुछ लेना-देना नहीं है।
अब राम की तुमने प्रेमिका बनायी है--धनुर्धारी राम। उस समय धनुष-बाण ही एकमात्र औजार था। उस समय वही बड़ी भारी बात थी। अब तो सिर्फ कोल-भील धनुर्धारी होते हैं। और वे भी हमेशा धनुष धारण नहीं करते। जब गणतंत्र-दिवस आता है तो दिल्ली पहुंच जाते हैं धनुष-बाण धारण करके। सिर्फ प्रदर्शन करने। उनको भी अब कोई कोई धनुष-बाण को क्या करेंगे? पीएंगे? चाटेंगे? क्या करेंगे धनुष-बाण को? कोई शक्कर का शिकार करेंगे? कि घासलेट के तेल को मारेंगे? क्या करेंगे धनुष-बाण का? और धनुष-बाण टांग कर क्या शक्कर की दुकान पर "क्यू' लगा कर खड़े होओगे? बेचारे आदिवासी की फिक्र यह है कि नमक कहां से मिले? घासलेट का तेल कहां से मिले? यह उसकी दो खास जरूरतें हैं।
धनुष-बाण क्या करेगा! गये वे दिन, लद गये वे दिन। उन दिनों बात महत्त्वपूर्ण थी, वहीं सबसे बड़ी बात थी। अब आज तो अगर कोई राम की प्रतिमा बनाए तो कम से कम उनको संगीन तो पकड़ा ही दो--बंदूक। बंदूकधारी राम। वे जरा जंचेंगे। आधुनिक मालूम होंगे कम से कम। समय बदलता है, हमारी धारणा बदलती चली जाती है, परमात्मा का रूप बदलता चला जाता है।
उसके पहले, राम के भी पहले परशुराम हो गये। फरसा वाले राम। वे फरसा लिये रहते थे। उन्होंने इतनी हत्या की जितनी दुनिया में किसी आदमी ने नहीं की। कहते हैं उन्होंने पृथ्वी को अठारह बाद क्षत्रियों से शून्य कर दिया। सारे क्षत्रिय मार डाले। वह तो कृपा हो ऋषियों की,...क्योंकि उन दिनों ऋषियों का वहीं उपयोग था, जो आजकल सांडों का है। ऋषि-मुनियों को लोग पालते इसलिए थे कि जब जरूरत पड़ जाए। प्रक्रिया थी उन दिनों एक धार्मिक, जिसका नाम है: निरोध अब तो निरोध नाम है संतति-निग्रह का। अजीब लोग हैं, इतने प्यारे शब्द को खराब कर दिया। मैं गुजरात जब भी जाता था तो "निरोध वापरो', "निरोध वापरो'--हर बस के पीछे लगा है: "निरोध वापरो'! उन दिनों, आज से तीन हजार साल पहले निरोध का अर्थ था कि कोई भी स्त्री जा कर किसी ऋषि-मुनि से कह सकती है कि चूंकि मेरा पति मर गया और मुझे बच्चे की आकांक्षा है, इसलिए निरोध वापरो। मतलब मेरे साथ संभोग करो, बच्चा पैदा करो। निरोध का वह मतलब होता था। उलटा ही हो गया अब मामला सब!
निरोध का मतलब था: संतति पैदा करवा लेना। और ऋषि-मुनि से ही करवायी जा सकती हैं, क्योंकि गऊ-भक्त होते थे, दूध ही दूध पीते। सांड हो गये थे! और तो उनको कोई उपयोग भी नहीं था। और इनको पालता था समाज तो काम भी लेता था।
यह परशुराम खाली करते रहे पृथ्वी को क्षत्रियों से--लेकिन स्त्रियों को तो मार नहीं सकते थे।...स्त्रियों को क्या मारना मर्द बच्चा होकर!...सो पुरुषों को मार आते थे और स्त्रियां ऋषि-मुनियों से जाकर निरोध करवा आती थीं। फिर बच्चे पैदा हो जाते। ऐसे अठारह बार--एकाध बार नहीं। अठारह बार उन्होंने पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली कर दिया। फिर भी क्षत्रिय वहीं के वहीं मौजूद हैं। इसलिए तो कहते हैं: ऋषि-मुनियों की संतान। जरा सोच-सच कर कहा करें कि हम भारतवासी ऋषि-मुनियों की संतान हैं। इसमें जरा सोच-समझ लिया करें कि इसका मतलब क्या होता है: ऋषि-मुनियों की संतान!
समय जब बदल जाता है,...आज तुम यह कल्पना नहीं कर सकते किसी की कि वह लाखों को मार डाले और उसको तुम भगवान का अवतार कहो नहीं तो एडोल्फ हिटलर में फिर भगवान के अवतार होने की क्षमता आ जाती है। और जोसेफ स्टेलिन तो और भी एक कदम आगे है। अंदाजन एक करोड़ आदमी जोसेफ स्टेलिन ने रूस में मारे हैं। इससे कम नहीं पक्के आंकड़े तो बहुत मुश्किल हैं मिलने, लेकिन इतने करीब-करीब मारे हैं। ज्यादा मारे हों भला। माओत्से तुंग ने लाखों लोग मारे हैं।
परशुराम! यह लाखों लोगों को मारने वाला व्यक्ति और अवतार बन गया! उन दिनों जिसकी लाठी उसकी भैंस, इसका बड़ा बल था। और परशुराम ने दिखा दिया लोगों को कि मैं कौन हूं! मेरे पास ईश्वरीय शक्ति है। यह देखो, इतने लोग काट डाले! आज अगर ऐसा कोई करे तो वह जघन्य अपराधी होगा। आज एडोल्फ हिटलर या जोसेफ स्टेलिन को सम्मान देने वाली बात समाप्त हो गयी। आज आदमी कहीं ज्यादा प्रौढ़ हो गया है।
ईश्वर की कल्पना बदलती चली जाती है। तुम जैसे विकसित होते हो वैसे तुम्हारी ईश्वर की धारणा बदलती चली जाती है।
पहली बात, साधना, ख्याल रखो, परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा उस परम ऊर्जा का नाम है, जो सबमें व्याप्त है। उसे पुकारने की जरूरत नहीं है, उसे अपने भीतर अनुभव करने की जरूरत है। पुकार का मतलब: प्रार्थना और अनुभव करने का अर्थ है: ध्यान। और लोग पुकार ही रहे हैं! गुंबजों पर चढ़-चढ़ कर पुकार रहे हैं! मीनारों पर चढ़-चढ़ कर पुकार रहे हैं! कि शायद मीनार ऊंची है! मस्जिदों के किनारे मीनारें खड़ी हैं, वहां से चढ़-चढ़ कर पुकार रहे हैं कि शायद यहां से सुनायी पड़ जाए। इन सबको न्यूयार्क चले जाना चाहिए, जहां सौ,सवा सौ मंजिल ऊंचा मकान होता है, उसके ऊपर छत पर खड़े हो कर पुकारो, वहां से शायद सुनायी पड़ जाए। क्योंकि परमात्मा निश्चित वहां से करीब होगा--थोड़ा करीब तो होगा ही! और खुश भी होगा कि वाह भक्त, इतनी करीब आ गया, बिलकुल बादलों के करीब!...कभी-कभी तो बादल इन मकानों के नीचे पड़ जाते हैं। बरसात के दिनों में जब बादल घने होते हैं तो मकानों के नीचे पड़ जाते हैं। हवाई जहाज जा कर इन मकानों से टकरा जाते हैं।
ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है, पुकारना व्यर्थ है, साधना! और तेरा इतना प्यारा नाम है: "साधना'! साधना में पुकार वगैरह नहीं होती। साधना में तो जागरण की प्रक्रिया है, ध्यान है। जागो! तू कहती है, "परमात्मा मेरी पुकार कब सुनेगा'!
और ध्यान से भी प्रार्थना उठती है निश्चित, लेकिन वह प्रार्थना सिर्फ धन्यवाद की होती है। और धन्यवाद भी किसी के प्रति नहीं होता, समस्त के प्रति होता है। वृक्षों के प्रति, चांदत्तारों के प्रति, बदलियों के प्रति, सूरज के प्रति, लोगों के प्रति, पृथ्वी के प्रति, पशुओं के, पक्षियों के प्रति; यह जो सारा अस्तित्व है, यह जो अखंड विस्तार है, इस सबके प्रति धन्यवाद होता है। इस सबने कितना दिया है। सूरज ने किरणें दी हैं, उसके बिना जी न सकोगे। हवा ने श्वास दी है, उसके बिना जी न सकोगे। जमीन ने भोजन दिया है, उसके बिना जी न सकोगे। सबका अनुदान है।
एक छोटे-से घास के फूल को भी सारे अस्तित्व ने मिल कर बनाया है। कहीं से रंग, कहीं से प्राण, कहीं से आकृति--सारे जगत का अनुदान है।
इसलिए महाकवि टेनिसन का यह वचन ठीक है कि अगर में एक फूल को भी पूरा-पूरा समझ लूं, तो सारा अस्तित्व मेरी समझ में आ जाएगा। आ ही जाएगा। क्योंकि एक फूल को पूरा-पूरा समझने का अर्थ होगा, इसके सारे उन स्रोतों को भी समझ लेना जहां से इस फूल को जीवन मिला है।
सारा अस्तित्व संयुक्त है। इस संयुक्तता का नाम परमात्मा है। पुकारो मत, ध्याओ! ध्यान में डूबो! मौन-पुकार तो तुम्हारा उपद्रव ही रहेगी। पुकार कौन करेगा? मन ही करेगा। और मन शोरगुल से भरा है। मांगेगा क्या? धन मांगेगा पद मांगेगा, प्रतिष्ठा मांगेगा। मन तो भिखमंगा है, मांगना ही उनका धंधा है। और परमात्मा भिखमंगों से नहीं संबंधित हो पाता। उससे संबंधित होना हो, सम्राट होना चाहिए।
मांग छोड़ो! और अपने भीतर के आनंद में मस्त होओ, लीन होओ, तल्लीन होओ! उसी मस्ती में अचानक तुम पाओगे, जिसे इतने दिन पुकारा और नहीं मिला, वह बिना पुकारे आ गया है। व्यक्ति की तरह नहीं आता, एक ऊर्जा की तरह आता है। एक विस्फोट की तरह आता है। तुम्हारे भीतर एक क्रांति की तरह आता है, एक झंझावात की तरह। झाड़ ले जाता है सब कूड़ा-करकट। एक बाढ़ की तरह आता है। स्वच्छ कर जाता है तुम्हारे तटों को, कूल-किनारों को। और तुम्हारे प्राणों को एक नयी ताजगी से भरा जाता है। ऐसी ताजगी जो फिर खोती नहीं। फिर धन्यवाद उठ सकता है, फिर प्रार्थना उठ सकती है। मगर उस प्रार्थना में कोई मांग नहीं होगी। यह भी सवाल नहीं होगा कि वह सुनेगा! किसी को सुनानी थोड़ी है!
यह आग्रह भी वासना है कि परमात्मा सुने। यह तो परमात्मा को भी अपने काबू में लाने की कोशिश है। तो भक्तगण रो रहे हैं मंदिरों में, छाती पीट रहे हैं, हुसेन-हुसेन चिल्ला रहे हैं कोई, कोई कुछ और कर रहे हैं, इस आशा में कि इस भांति मजबूर कर देंगे उसको सुनने के लिए। यह तो चालबाजी हुई, राजनीति हुई; तुम परमात्मा के भी मालिक होना चाहते हो। क्या करना है सुना कर उसको? और वहां कोई सुनने वाला है भी नहीं।
जरूर एक प्रार्थना है, मगर वह ध्यान की सुरभि है। ध्यान में जब आनंद फलता है और जब रस झरता है और जब अमृत का स्वाद प्राणों में फैलता है, तो स्वभावतः उस मौन में एक धन्यवाद होता है। कहां भी जाता, बस होता है। आंसू भी बह सकते हैं, मगर बहाए नहीं जाते। छाती पीटी नहीं जाती। सहज, स्व-स्फूर्त।
मैंने खामोश निगाहों से तुम्हें पूजा है...
मैंने खामोश निगाहों से तुम्हें पूजा है।
अपने अरमानों की खुश्बू को बिखेरा भी नहीं...
अपने अरमानों की खुश्बू को बिखेरा भी नहीं
दिल में जज्बात का तूफान छिपाने के लिए
तजकरा प्यार का मैंने कभी छेड़ा भी नहीं
मैंने खामोश निगाहों से तुम्हें पूजा है

मैंने वो ख्वाब तुम्हारे जो कभी देखे थे...
मैंने वो ख्वाब तुम्हारे जो कभी देखे थे
उनकी ताबीर मेरे दिल की तकदीर नहीं
मेरी चाहत का तो अंदाज जुदागाना था...
मेरी चाहत का तो अंदाज जुदागाना था।
गर मिलन हो न सका प्यार की तहकीर नहीं
मैंने खामोश निगाहो से तुम्हें पूजा है

दिल में गुजरे हुए लम्हों की कसम बाकी है...
दिल में गुजरे हुए लम्हों की कसम बाकी है
जिंदगी के लिए इक यह भी सहारा होगा
तुमको पाने की तमन्ना ने तो दम तोड़ दिया
तुमको पाने की तमन्ना ने तो दम तोड़ दिया
तुमसे पाया जो ये गम तो हमारा होगा
मैंने खामोश निगाहों से तुझे पूजा है
अपने अरमानों की खुशबू को बिखेरा भी नहीं
दिल में जज्बात का तूफान छिपाने के लिए
तजकरा प्यार का मैंने कभी छेड़ा भी नहीं
मैंने खामोश निगाहों से तुम्हें पूजा है
ध्यान से एक खामोश प्रार्थना उठती है। कुछ कहा नहीं जाता, कुछ बोला नहीं जाता, बस चुपचाप ही एक निवेदन हो जाता है निःशब्द। और तभी प्रार्थना सत्य है। और जब प्रार्थना में अपूर्व प्रसाद है। अनहद नाद है। असीम आनंद है।

आज इतना ही।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें