अंतर की खोज-(विवि
ओशो
पांचवां-प्रवचन
मेरे
प्रिय आत्मन्!
बहुत
से प्रश्न मेरे पास आए हैं। अनेक प्रश्न एक जैसे हैं, इसलिए कुछ
थोड़े से प्रश्नों में सभी प्रश्नों को बांट कर आपसे चर्चा करूंगा तो आसानी होगी।
मैंने
कल कहा: विश्वास धर्म नहीं है, वरन विचार और विवेक धर्म है। श्रद्धा अंधी है।
और जो अंधा है वह सत्य को नहीं जान सकेगा।
इस संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं और उनमें पूछा गया है
कि यदि हम श्रद्धा न रखेंगे, यदि हम विश्वास न रखेंगे, तब तो हमारा मार्ग भटक जाएगा।
यह
वैसा ही है जैसे एक अंधे आदमी को हम कहें कि तुम अपने हाथ में जो लकड़ी लिए घूमता
है, अपनी आंखों का इलाज करवा ले और इस लकड़ी को फेंक दे, तो
वह अंधा आदमी कहे, माना मैंने कि आंखों का इलाज तो मुझे करवा
लेना है लेकिन लकड़ी को अगर मैं फेंक दूंगा तो भटक जाऊंगा। बिना लकड़ी के तो मैं चल
ही नहीं पाता हूं। निश्चित ही अंधा आदमी बिना लकड़ी के नहीं चल पाता है लेकिन आंख
वाले आदमी को लकड़ी की कोई भी जरूरत नहीं है।
और जो अंधा आदमी यह आग्रह करेगा कि
मैं तो लकड़ी के बिना चलूंगा ही नहीं, वह इस बात को भूल ही
जाएगा कि आंख की जगह लकड़ी कोई सब्स्टीटयूट नहीं है, कोई
परिपूर्ति नहीं है। लेकिन यह सीधी सी बात भी हमें दिखाई नहीं पड़ती है।
एक
छोटी सी कहानी कहूं,
उससे शायद मेरी बात समझ में आए।
एक
बूढ़ा आदमी था,
उसकी उम्र कोई सत्तर पार कर गई थी तब उसकी दोनों आंखें चली गईं।
उसके आठ लड़के थे, पत्नी थी, आठ लड़कों
की बहुएं थीं। उन सबने उसे समझाया, चिकित्सक कहते थे कि
आंखें ठीक हो सकती हैं, लेकिन उस बूढ़े आदमी ने कहा, मुझे आंखों की जरूरत क्या है? आठ मेरे लड़के हैं,
उनकी सोलह आंखें; आठ मेरी बहुएं हैं, उनकी सोलह आंखें; मेरी पत्नी है, उसकी दो आंखें, ऐसे मेरे घर में चौंतीस आंखें हैं।
तो जिसके घर में चौंतीस आंखें हों उसके पास अगर दो आंखें न भी हुईं तो फर्क क्या
पड़ता है? ये चौंतीस आंखें क्या मेरा काम न कर सकेंगी?
और अब मैं मैं बूढ़ा हुआ, अब मुझे आंखों की
जरूरत भी क्या है?
वह
अपनी बात पर अड?ा रहा। आखिर समझाने वाले हार गए और बात बंद हो गई। लेकिन इसके कोई दो
महीने बाद ही उस बूढ़े आदमी के भवन में आग लग गई और तब वे चौंतीस आंखें बाहर निकल
गईं। जब आग लगी तो उनमें से किसी को भी यह खयाल न आया कि एक बूढ़ा आदमी भी घर में
है जिसके पास आंखें नहीं हैं। जब आग लगी तो अपने प्राण बचाने जरूरी हो गए। और अपनी
आंखें अपने प्राण बचाने के काम में आ गईं। जब वे सब बाहर पहुंच गए सुरक्षित तब
उन्हें खयाल आया कि घर में बूढ़ा आदमी भी है जो भीतर रह गया, लेकिन
तब तक देर हो गई थी, लपटों ने मकान घेर लिया था, धू-धू करके मकान जल रहा था, अब भीतर जाना कठिन था।
वहां भीतर वह बूढ़ा आदमी जब जलने लगा, तब उसे भी यह खयाल आया,
लेकिन तब बहुत देर हो गई थी। कि जब मकान में आग लगी हो तो अपनी
आंखों के अतिरिक्त और किसी की आंखें काम नहीं आ सकतीं। लेकिन तब बहुत देर हो गई
थी। तब मकान जल रहा था और उस बूढ़े आदमी को उसी मकान में जल जाना पड़ा।
जीवन
के मकान में तो रोज ही आग लगी है। जीवन का मकान तो प्रतिक्षण, प्रतिपल
जल रहा है, उसमें किसी दूसरे की आंख काम नहीं आ सकती। अपनी
आंख ही काम आ सकती हैं इस जीवन के जलते हुए मकान से बाहर ले जाने के लिए। लेकिन
फिर भी वह बूढ़ा आदमी तो जिन चौंतीस आंखों पर विश्वास किया था वे उसके सामने थीं,
मौजूद थीं। हम तो उन आंखों पर विश्वास किए हैं, कोई आंखें दो हजार साल पहले समाप्त हो गईं, कोई ढाई
हजार साल पहले, कोई पांच हजार साल पहले। कोई राम की आंखों पर
विश्वास किए हुए है, कोई कृष्ण की आंखों पर, कोई महावीर की, कोई बुद्ध की, कोई
क्राइस्ट की, कोई मोहम्मद की, वे कोई
भी आंखें मौजूद नहीं हैं। उन आंखों ने जरूर उन लोगों को बचा लिया होगा जिनकी वे
आंखें थीं। लेकिन इस भूल में कोई न पड़े की वे आंखें मेरे काम आ सकती हैं। मेरे काम
मेरी आंखें आ सकती हैं। मेरी जिंदगी है, मेरी मौत है,
मेरा दुख है, मेरा अज्ञान है, मेरा ही प्रकाश भी चाहिए जो उसे मिटा दे।
आपके
लिए कोई मर सकता है?
आपकी जगह कोई मर सकता है? और कोई दूसरा मर भी
जाए तो मृत्यु का आपको अनुभव हो सकता है? आपकी जगह कोई प्रेम
कर सकता है? आप किसी को अपनी जगह प्रेम करने दें और आपको
प्रेम का अनुभव हो जाए? हम जानते हैं यह नहीं हो सकता। लेकिन
जहां तक परमात्मा का संबंध है हम इस खयाल में होते हैं कि दूसरे की आंखों से उसे
देखा जा सकता है। प्रेम भी दूसरे की आंखों से नहीं किया जा सकता, तो परमात्मा कैसे दूसरे की आंखों से देखा जा सकेगा?
अपनी
आंख चाहिए। लेकिन सच्चाई यह है कि चूंकि परमात्मा का हमारे मन में कोई मूल्य नहीं
है। इसलिए हम सोचते हैं कि दूसरे की आंख से भी काम चल जाएगा। जिंदगी में हम
भलीभांति जानते हैं,
अपने पैर चलाते हैं, अपनी आंखें दिखलाती हैं।
लेकिन चूंकि परमात्मा का हमारे मन में कोई बहुत मूल्य नहीं है, इसलिए हम सोचते हैं, दूसरे की आंख से भी काम चल
जाएगा। सच यह है कि शायद हमारे भीतर गहरी प्यास नहीं है परमात्मा को जानने की।
नहीं तो यह असंभव था कि हम दूसरे पर विश्वास करके बैठे रहें। अगर प्यास गहरी होती
तो हम अपनी आंख खोजते। और जो मैंने कल आपसे कहा है उसका केवल इतना ही मतलब है।
विचार आपकी आंख है, विवेक आपकी आंख है। विश्वास आपकी आंख
नहीं किसी और की है।
जो
मेरा जोर था वह इस बात पर था कि विश्वास के द्वारा आप किसी और के माध्यम से सत्य
को देखते हैं। यह प्रक्रिया गलत है। सत्य को सीधा देखा जा सकता है। सीधा और
प्रत्यक्ष, किसी और के माध्यम से नहीं। विश्वास किसी और का सहारा लेता है, किसी और के माध्यम से देखता है। और क्या परिणाम होता है ऐसे विश्वास का?
और ऐसे विश्वास और अंधेपन में लिए गए निष्कर्ष कैसे होते हैं?
रामकृष्ण
एक कहानी कहते थे। रामकृष्ण कहते थे, एक अंधा आदमी था एक गांव में और उस
अंधे आदमी के मित्रों ने एक बार उसे दावत दी और बहुत ही स्वादिष्ट खीर बनाई। उस
अंधे ने उसे खाया और उसने पूछा, मेरे मित्रो, यह किस चीज से बनी है? उसके मित्रों ने कहा, यह दूध से बनी है। वह अंधा आदमी पूछने लगा, दूध कैसा
होता है? वे मित्र उसी तरह के नासमझ रहे होंगे जिस तरह के
उपदेशक अक्सर होते हैं। वे उसे समझाने बैठ गए कि दूध कैसा होता है। एक मित्र ने
कहा, दूध होता है शुभ्र, सफेद। उस अंधे
आदमी ने कहा, मैं समझा नहीं कि यह शुभ्र और सफेद क्या है। यह
शब्द तो मैंने सुना है, लेकिन क्या है यह शुभ्रता? यह सफेदी क्या है? कैसी होती है? तो उन मित्रों ने कहा, तुमने बगुला देखा है? बगुले के सफेद पंख देखे हैं? ठीक बगुले के पंखों
जैसी सफेदी होती है शुभ्र।
वह
अंधा आदमी बोला,
यह और मुश्किल हो गई। अभी मैं यह नहीं समझ पाया था कि दूध कैसा होता
है, अभी यह नहीं समझ पाया था कि सफेदी कैसी होती है और एक
नया प्रश्न तुमने खड़ा कर दिया यह बगुला कैसा होता है? मैं तो
जानता नहीं बगुला। कुछ इस भांति बताओ कि पहेली हल हो जाए, तुम
तो मेरी पहेली को और उलझाते चले जाते हो। पुराने प्रश्न तो पुरानी जगह खड़े हैं और
नये प्रश्न खड़े हो जाते हैं। तुम्हारा उत्तर नया प्रश्न बन जाता है। कुछ ऐसा समझाओ
कि मैं समझ सकूं।
वे
चिंता में पड़े। और एक मित्र उसके पास गया, उस अंधे मित्र के पास सरका,
उसने अपना हाथ उसके बगल में ले गया और कहा, मेरे
हाथ पर हाथ फेरो, बगुले की गर्दन इसी की भांति होती है,
झुके हुए हाथ की तरह। उस अंधे आदमी ने उस मित्र के हाथ पर हाथ फेरा,
वह खुशी से प्रसन्न हो उठा और उसने कहा, मैं
समझ गया, मैं समझ गया, दूध झुके हुए
हाथ की भांति होता है।
वे
मित्र हैरान हो गए इस नतीजे पर! लेकिन जहां तक अंधे का सवाल है क्या उसके लॉजिक
में कोई भूल है?
उसके तर्क में कोई गलती है? उसने पूछा था,
दूध कैसा होता है? कहा, सफेद।
उसने पूछा था, सफेद कैसा होता है? कहा,
बगुले की भांति। उसने पूछा, बगुला कैसा होता
है? बताया उसकी गर्दन होती है झुके हाथ की भांति। उसने नतीजा
लिया कि दूध झुके हुए हाथ की भांति होता है।
अंधे
आदमी को रंग समझाने का यही मतलब हो सकता है और क्या मतलब होगा? उसके पास
अपनी तो कोई आंख नहीं कि वह देख सके। वह तो अंधा है केवल विश्वास कर सकता है। और
जो शब्द उसे बताए जाएंगे उनका अर्थ वह क्या लेगा? उनका अर्थ
भी वह अपने अंधेपन के अनुसार ही ले सकता है।
तो
इस भ्रम में न रहें कि कृष्ण ने जो कहा है वही आपने सुन लिया होगा। इस भ्रम में भी
न रहें कि क्राइस्ट ने जो कहा है वही आप समझ गए होंगे। इस भ्रम में भी न रहें कि
महावीर को आप पहचान गए होंगे कि उन्होंने क्या कहा है। उन्होंने जो आंख से देख कर
कहा है वह हमने अपने अंधेपन में वैसा ही सुना होगा जैसा उस अंधे ने दूध के संबंध
में सुना है। और वे ही हमारे विश्वास बन गए हैं।
वे
विश्वास हमारे जीवन को कहां ले जाएंगे? अगर यह अंधा आदमी दूध की तलाश में
निकल जाए और लोगों से पूछे कि झुके हुए हाथ जैसा दूध मुझे चाहिए, तो इस जमीन पर यह कहीं खोज पाएगा? इसका सारा जीवन
इसके इस विश्वास के कारण गलत हो जाएगा। लेकिन इसमें भूल अंधे आदमी की नहीं थी,
इसमें भूल उन मित्रों की थी जिन्होंने उसे समझाया।
अगर
वे मित्र थोड़े भी समझदार होते तो उन्होंने यह समझाने की कोशिश न की होती। बल्कि
उन्होंने कोशिश की होती कि इस अंधे आदमी की आंख ठीक हो जाए। उन्होंने इसके आंख के
इलाज का उपाय किया होता। वे इसे किसी चिकित्सक के पास ले गए होते और कहते कि दूध
को हम न समझाएंगे क्योंकि समझाने का कोई रास्ता नहीं है। और दूध को हम समझा भी
देंगे तो तुम जान न सकोगे,
केवल विश्वास कर सकोगे, और विश्वास बहुत गलत
हो जाता है। तो हम तुम्हारी आंख की चिकित्सा के लिए ले चलते हैं। अगर वे मित्र
उसके साथी होते और उससे प्रेम करते होते और समझदार होते तो उन्होंने उसका उपचार
किया होता, उसे उपदेश न दिया होता।
इस
जमीन पर जो लोग जानते हैं उनके लिए धर्म एक उपदेश नहीं एक उपचार है, एक
चिकित्सा है, आंखों का खोलना है। विश्वास करना नहीं विवेक का
जगाना है। वह जो भीतर सोया हुआ विवेक है अगर वह जाग जाए तो आप देख सकेंगे कि
परमात्मा क्या है और कैसा है, सत्य क्या है और कैसा है,
जीवन का अर्थ क्या है, वह आप देख सकेंगे। और
आप देख सकें इसीलिए मैं कह रहा हूं कि आप माने नहीं, क्योंकि
जो मान लेता है उसकी खोज बंद हो जाती है।
जो
नहीं मानता और जो इस बात पर अडिग रहता है कि जब तक मैं न जान लूंगा तब तक मैं नहीं
मानूंगा, उसके प्राण आंदोलित रहते हैं, उसकी चेतना बेचैन रहती
है, उसके भीतर एक अतृप्ति, एक
डिस्कंटेंट निरंतर उसे धक्के देता रहता है कि मैं खोजूं और जानूं। लेकिन जो आदमी
मान कर बैठ जाता है उसकी यात्रा बंद हो जाती है। उसके भीतर की अतृप्ति समाप्त हो
जाती है। वह संतुष्ट हो जाता है। वह मान लेता है, ईश्वर है।
वह मान लेता है, आत्मा है। वह सब मान लेता है और चुप हो जाता
है।
जो
मान लेता है उसके भीतर की खोज का अंत हो जाता है। लेकिन जो यह समझता रहता है कि
मैं अभी नहीं जानता,
मैं अज्ञान में हूं, मुझे कुछ भी पता नहीं है,
जो इस स्थिति को ताजा रखता है कि मैं नहीं जानता हूं, मैं अज्ञान में हूं, उसका अज्ञान उसके भीतर एक
क्रांति बन जाता है, उसकी एक पीड़ा बन जाती है, उसका अज्ञान उसे धक्के देता है, उसकी आत्मा को जगाता
है। क्योंकि कोई भी आदमी अज्ञान से तृप्त नहीं हो सकता, सहमत
नहीं हो सकता, उसे बदलना चाहता है।
उसी
बदलाहट की चेष्टा में से निकलती है साधना। उसी अतृप्ति से निकलता है अन्वेषण। उसी
बेचैनी और अशांति में से पैदा होती है खोज। और वही खोज एक दिन पहुंचा देती है। वही
प्यास एक दिन प्राप्ति तक ले जाने का मार्ग बन जाती है।
इसलिए
मैं कहता हूं: विश्वास न करें, विचार करें; श्रद्धा न
करें, सोचें, जीवन की समस्या को सोचें।
अपनी तरफ से खुद, निजी खोज को जारी करें, वही खोज, वही खोज आपको व्यक्तित्व देगी, आत्मा देगी, वही खोज आपको कहीं ले जाने वाली बन सकती
है। इसलिए मैंने कल आपसे कहा कि विश्वास नहीं, विचार।
विश्वास
में तो हम सब हैं,
हजारों वर्ष से हैं। और जमीन की क्या हालत हो गई है? आदमी के समाज की क्या हालत हो गई है? विश्वास में तो
हम पाले गए हैं। दस हजार साल से आदमी विश्वास में ही पाला-पोसा गया है। परिणाम
क्या है? परिणाम आदमी की तरफ देखिए क्या है? इससे ज्यादा और कोई विकृति हो सकती है? इससे ज्यादा
और कुछ, और कुछ विनष्ट हो सकता है? इससे
ज्यादा और कोई नारकीय जिंदगी हो सकती है जो हमने बना ली है।
पृथ्वी
को हमने एक नरक में परिवर्तित कर दिया है। घृणा और हिंसा और असत्य और बेईमानी, वे सब
हमारे जीवन में घर कर गए हैं। और इन सबकी शुरुआत किस बात से होती है? शायद लोग आपको कहें कि इसकी शुरुआत नास्तिकों ने करवा दी; शायद वे आपसे कहें कि ये भौतिकवादी, ये मैटीरियलिस्ट,
वैज्ञानिक, इन सबने यह सब खराबी करवा दी है।
गलत
कहते हैं ऐसे लोग,
झूठ, सरासर झूठ कहते हैं। यह तो वैसे ही है
जैसे मेरे घर का दीया बुझ जाए और मैं जाकर कहूं कि अंधेरा आ गया और उसने मेरे दीये
को बुझा दिया। नहीं साहब, अंधेरा आकर दीये को नहीं बुझाता है,
दीया जब बुझ जाता है तभी अंधेरा आता है।
दुनिया
में जो मैटीरियलिज्म है,
उसके कारण धर्म का दीया नहीं बुझ गया है, धर्म
का दीया बुझ चुका है इसलिए मैटीरियलिज्म है, इसलिए इतनी
भौतिकता है। यह भौतिकवाद का परिणाम नहीं है कि धर्म मिट गया है, धर्म नहीं है इसलिए भौतिकवाद है। यह तो इतनी गड़बड़ और बेचैनी और दुख भरी
बात है। कोई अगर यह कहता है कि भौतिकवादियों के कारण, नास्तिकों
के कारण, वैज्ञानिकों के कारण, कम्युनिस्टों
के कारण दुनिया से धर्म मिट गया, इससे ज्यादा झूठी और बेहूदी
बात नहीं हो सकती। इसका मतलब यह है कि धर्म बहुत कमजोर है और भौतिकवाद बहुत ताकतवर
है। यह बिलकुल उलटी बात है।
भौतिकवाद
क्या धर्म के दीये को बुझाएगा? वह तो आता ही तब है जब धर्म का दीया मौजूद नहीं
होता है। वह तो अंधेरे की तरह है। घर का दीया बुझ जाए और हम अंधेरे को गालियां
देते रहें कि अंधेरा बहुत बुरा है, इसने आकर दीया बुझा दिया।
तब तो फिर दीया जलाने की कोई आशा न रह जाएगी। क्योंकि दीया जलाने के लिए जरूरी
होगा कि अंधेरे को निकाल कर हम बाहर कर दें, तब दीया जल सकता
है, नहीं तो दीया नहीं जलेगा। और अगर हम अंधेरे को निकालने
में लग गए, तो हम तो मिट जाएंगे अंधेरा नहीं निकल सकता।
अंधेरे को निकालने का कोई भी उपाय नहीं है। या अंधेरा बढ़ जाए और हम धक्के दें,
तो अंधेरा निकलेगा?
अंधेरा
न तो लाया जा सकता है और न निकाला जा सकता है। क्यों? क्योंकि
वस्तुतः अंधेरा है ही नहीं। अगर होता तो हम उसे ला भी सकते थे और निकाल भी सकते
थे। वह है ही नहीं, वह केवल प्रकाश की गैर-मौजूदगी है,
एब्सेंस है। उसका अपना कोई होना नहीं, उसका
अपना कोई एक्झिस्टेंस नहीं, उसकी अपनी कोई सत्ता नहीं।
प्रकाश
हो तो अंधेरा नहीं है और प्रकाश न हो तो उस न होने का नाम ही अंधेरा है, अंधेरे की
अपनी कोई सत्ता नहीं है। इसलिए हम प्रकाश जला सकते हैं, प्रकाश
बुझा सकते हैं लेकिन न तो अंधेरा जला सकते हैं और न अंधेरा बुझा सकते हैं। अंधेरे
के साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता।
तो
भौतिकवादियों के कारण और नास्तिकों के कारण दुनिया में यह विकृति नहीं आ गई। यह
विकृति आ गई है धर्म का दीया बुझा हुआ है इसलिए। और धर्म का दीया क्यों बुझा हुआ
है? धर्म का दीया इसलिए बुझा हुआ है कि उसमें तेल की जगह पानी भर दिया है।
उसमें विचार और विवेक की जगह श्रद्धा भर दी है। विवेक का तेल होता तो दीये की
ज्योति जलती। श्रद्धा का पानी भर दिया है। असल में श्रद्धा का पानी भरना आसान है,
मुफ्त मिल जाता है, गली-कूचे में हर जगह मिल
जाता है। तेल में तो कुछ मूल्य चुकाना पड़ता है। विवेक में तो जीवन का मूल्य चुकाना
पड़ता है, श्रम करना पड़ता है। श्रद्धा मुफ्त मिल जाती है।
विश्वास मुफ्त मिल जाता है। विचार में तो श्रम और सामर्थ्य लगानी पड़ती है। इसलिए
श्रद्धा और विश्वास का पानी भर दिया है डबरों से लाकर। अब दीया बुझ न जाए तो क्या
हो? विश्वास के पानी ने धर्म का दीया बुझा दिया है। विवेक का
तेल हो तो धर्म का दीया जल सकता है।
इसलिए
मैंने कल आपसे कहा,
छोड़ें विश्वास को और जगाएं विवेक को। और ठीक से स्मरण रखें कि जो
विश्वास को छोड़ता है केवल उसका ही विवेक जग सकता है। जो विश्वास को पकड़ता है,
उसका विवेक नहीं जग सकता। क्योंकि विश्वास को पकड़ने का मतलब यह है,
अगर इसे ठीक से पहचानेंगे, विश्वास पकड़ने का
अर्थ है कि मुझे स्वयं पर विश्वास नहीं है। विश्वास आत्म-अविश्वास का नाम है। जब
मैं दूसरे पर विश्वास करता हूं, उसका मतलब है मुझे अपने पर
विश्वास नहीं है। अगर मैं राम पर विश्वास करता हूं और कृष्ण पर और महावीर पर और
बुद्ध पर, उसका मतलब क्या है? उसका
मतलब है मुझे अपने पर विश्वास नहीं है।
बुद्ध
जिस दिन मरे,
उनका एक शिष्य और प्यारा भिक्षु आनंद रोने लगा, उसकी आंखों में आंसू भर गए, बुद्ध को विदा का क्षण आ
गया था और बुद्ध ने कहा था अंतिम बात पूछनी हो तो पूछ लो। आनंद रोने लगा। तो बुद्ध
ने कहा, आनंद अपनी आंख से आंसू पोंछ ले। क्योंकि अगर तू यह
सोचता हो कि मेरे रहने से तेरे जीवन में प्रकाश था तो तू भूल में है। अपना दीया
खुद बन। अपना प्रकाश खुद बन। दूसरे का प्रकाश किसी को प्रकाशित नहीं करता है।
इसलिए मेरे विदा होने से कोई अंतर नहीं आता। तू दुखी मत हो। क्योंकि आनंद रोने लगा
और कहने लगा, अब आप चले जाएंगे तो अंधकार हो जाएगा। बुद्ध ने
कहा, तू भूल में है। अगर अंधकार है तेरे लिए तो मेरे होने से
भी अंधकार होगा और अगर प्रकाश है तेरे भीतर तो मेरे न हो जाने से भी कोई फर्क नहीं
पड़ता। और मेरी ज्योति को अपनी ज्योति समझने के भ्रम में मत रहना। खुद का दीया जला,
खुद की ज्योति जला। वही साथी है, वही है साथी।
किसी और का दीया साथी नहीं हो सकता है। इसलिए मैंने कहा कि विवेक और विचार,
विश्वास नहीं।
इस संबंध में एक प्रश्न और पूछा है।
पूछा है कि विश्वास तो सिखाना ही पड़ेगा बच्चे को। छोटे बच्चों
को अगर हम विश्वास न सिखाएंगे तो उनको कुछ भी नहीं सिखा सकेंगे।
मैंने
यह नहीं कहा है कि बच्चे को आप यह न सिखाएं कि रास्ते पर बाएं चलना चाहिए, यह मैंने
नहीं कहा है। यह मैंने नहीं कहा है कि स्वतंत्रता का यह अर्थ है कि रास्ते पर जहां
चलना हो वहां चलो, यह मैंने नहीं कहा है। रास्ते पर बाएं
चलना बिलकुल कामचलाऊ बात है, सत्य का उससे कोई संबंध नहीं है,
हम जीवन के व्यवहार मात्र की बात है। हिंदुस्तान में हम बाएं चलते
हैं और अमेरिका में दाएं चलते हैं, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
वहां की सड़कों पर लिखा है, दाएं चलो, यहां
की सड़कों की पर लिखा है, बाएं चलो। ये कामचलाऊ बातें हैं,
ये कोई सत्य नहीं है। ये जीवन के लिए उपयोगी हैं।
पूछा है कि अगर हम बच्चे को न बताएं कि कौन तुम्हारा पिता है? कौन
तुम्हारी मां है?
ये
भी कामचलाऊ बातें हैं। ये भी बाएं और दाएं चलने से ज्यादा इनका मूल्य नहीं है। अगर
एक बच्चे को बचपन से ही उसका झूठा पिता बता दिया जाए कि वह तुम्हारा पिता है, तो उससे
भी काम चल जाएगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। जीवन भर काम चल सकता है। ऐसे तो कौन
किसका पिता है, सारी बातें कामचलाऊ हैं।
बुद्ध
बारह वर्षों के बाद अपने घर वापस लौटे थे। तो उनके पिता क्रुद्ध थे, गुस्से
में थे। बारह साल पहले वह लड़का उन्हें छोड़ कर चला गया। एक ही लड़का था। बारह साल
बाद उनके लड़के की कीर्ति सब तरफ फैल गई थी। लेकिन पिता का क्रोध समाप्त नहीं हुआ
था। दूर-दूर से खबरें आने लगी थीं कि उनका लड़का कुछ और हो गया, ज्योतिर्मय हो गया, प्रबुद्ध हो गया। लाखों लोग उसे
स्वीकार किए हैं। हजारों भिक्षु उसके पीछे चल पड़े हैं। उसने एक नया रास्ता तोड़
दिया है परमात्मा तक जाने का। लेकिन ये खबरें बुद्ध के पिता के क्रोध को न तोड़
सकीं।
आखिर
बुद्ध का आगमन फिर उस गांव में हुआ जिसमें वे पैदा हुए थे। बारह साल बाद पिता उनके
गांव के बाहर उन्हें लेने गए। पूरा गांव लेने गया। पिता ने जाते से ही पहली बात
यही कही कि सिद्धार्थ तू वापस लौट आ, मेरे दरवाजे अभी भी खुले हैं,
पिता का प्रेम बहुत बड़ा है, तूने चोट तो बहुत
पहुंचाई कि तू घर छोड़ कर चला गया, मेरे बुढ़ापे में अकेला
लड़का है तू, लेकिन अभी भी वापस लौट आ, मैं
तेरी प्रतीक्षा करता हूं, आखिर मैं तेरा पिता हूं और तुझे
माफ कर दूंगा, मेरे द्वार खुले हैं, तू
वापस लौट चल। यह शोभा नहीं देता कि मेरा लड़का भिक्षा का पात्र लिए हुए सड़कों पर
चले।
बुद्ध
ने क्या कहा?
बुद्ध ने अपने पिता से कहा, मुझे ठीक से तो
देखें, जो लड़का आपके घर से गया था वही वापस लौटा है या मैं
दूसरा मनुष्य होकर आया हूं? मुझे एक बार ठीक से तो देख लें।
इन बारह वर्षों में गंगा में बहुत पानी बह गया। मैं वही नहीं हूं। लेकिन पिता तो,
क्रोध से उनकी आंखें धुंधली हो रही थीं, उन्होंने
कहा, क्या तू मुझे यह भी सिखाएगा कि मैं अपने लड़के को नहीं
पहचानता? मैंने ही तुझे पैदा किया, मेरा
ही खून तेरी नसों में है।
बुद्ध
ने कहा, भूलते हैं आप। गलती में हैं आप। मैं आपके द्वारा पैदा तो हुआ, लेकिन आप मेरे बनाने वाले नहीं हैं। मैं आपके रास्ते से दुनिया में तो आया,
लेकिन रास्ता निर्माता नहीं होता है।
मैं
जिस रास्ते से चल कर अभी इस गांव तक आया हूं अगर वह रास्ता कहने लगे कि तुम मेरे
ऊपर चले थे, मैं तुम्हें भलीभांति जानता हूं, तो जैसी भूल हो
जाएगी वैसी पिता और मां भी भूल कर जाते हैं। बच्चे उनसे होकर आते हैं लेकिन उनसे
पैदा नहीं होते। पैदा होने का सूत्र बहुत गहरा है। मां-बाप उसमें उपकरण से ज्यादा
नहीं, इंस्ट्रूमेंट से ज्यादा नहीं है। इससे कोई फर्क नहीं
पड़ता। ये कोई बड़ी सच्चाइयों की खोजें नहीं हैं। तो आप कह दें कि कौन पिता है,
कौन मां। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जिंदगी की कामचलाऊ बातों के लिए
विश्वास काम दे सकता है, क्योंकि जिंदगी खुद एक सपना है,
उसमें झूठे विश्वास काम दे सकते हैं। लेकिन जो जीवन के सत्य को
खोजने निकला हो, सत्य को खोजने निकला हो, उसके आधार विश्वास पर नहीं रखे जा सकते, क्योंकि
विश्वास असत्य है। और सत्य की खोज असत्य से शुरू नहीं की जा सकती। सत्य की खोज तो
सत्य से ही शुरू करनी होगी। और पहला सत्य यही है कि हम नहीं जानते जीवन को,
हम नहीं जानते परमात्मा को, हम नहीं जानते
आत्मा को, सुनी हुई बातें हैं ये लेकिन हमारा जानना नहीं है।
यह पहला सत्य है। इस अज्ञान का बोध पहला सत्य है। और विश्वास इस बोध को मिटा देते
हैं, जो सबसे बड़ी खतरनाक बात है। वे इस बोध को मिटा देते हैं
कि मैं नहीं जानता हूं, बल्कि इस अहंकार को पैदा कर देते हैं
कि मैं जानता हूं। पंडित में यही अहंकार तो प्रगाढ़ हो जाता है कि मैं जानता हूं।
मैं
जानता हूं। क्या जानते हैं हम? राह पर पैर के नीचे जो कंकड़-पत्थर पड़े हैं उनको
भी नहीं जानते। द्वार पर जो वृक्ष लगे हैं उनको भी नहीं जानते। आकाश में जो तारे
निकलते हैं उनको भी नहीं जानते। पास-पड़ोस में जो लोग बैठे हैं उनको भी नहीं जानते।
एक पिता अपने पुत्र को नहीं जानता। एक पति अपनी पत्नी को नहीं जानता। एक मां अपने
बेटे को नहीं जानती। एक भाई अपने भाई को नहीं जानता। क्या जानते हैं हम? जीवन है इतना रहस्यपूर्ण, कुछ भी नहीं जानते हैं हम।
लेकिन विश्वास इस भ्रम को पैदा कर देते हैं कि हम जानते हैं।
एक
आदमी ईश्वर तक के संबंध में दावे से बोलने लगता है कि मैं जानता हूं--कि उसके चार
मुंह हैं, कि दो मुंह हैं, कि कितने हाथ हैं, कहां रहता है, कहां नहीं रहता, यह सब मैं जानता हूं। एक कंकड़ को भी हम जानते नहीं। एक पत्ते को भी हम
जानते नहीं। हवा के एक झोंके को भी हम जानते नहीं। जीवन बिलकुल रहस्यपूर्ण है और
हमारा अज्ञान है गहन। लेकिन विश्वास के द्वारा, किताबों से
सीखे गए शब्दों के द्वारा यह इल्युजन पैदा हो जाता है, यह
भ्रम पैदा हो जाता है कि मैं जानता हूं। और धर्म की खोज में, सत्य की खोज में यह भ्रम सबसे बड़ी बाधा है। क्योंकि जिसे यह खयाल पैदा हो
गया कि मैं जानता हूं, उसका सीखना बंद हो गया, उसकी लघनग बंद हो गई। अब वह सीखेगा नहीं, क्योंकि वह
जानता है।
इसलिए
तथाकथित पंडित जो तोतों की भांति सारे ग्रंथों को रट लेते हैं उनका सीखना हमेशा के
लिए बंद हो जाता है। वे मर गए। अब उनकी जिंदगी में कोई सीखना नहीं है, कोई गति
नहीं है।
इसलिए
मैंने कहा कि विश्वास नहीं,
विचार। विचार करेगा मुक्त, खोलेगा द्वार,
सीखने के द्वार खोल देगा, रास्ते उन्मुक्त
करेगा। इस अहंकार को तोड़ देगा कि मैं जानता हूं और इस विनम्रता को, इस ह्यूमिलिटी को पैदा करेगा कि मैं नहीं जानता हूं।
जिस
दिन आपको यह सच में दिखाई पड़ जाए कि मैं नहीं जानता हूं, उस दिन
आपके भीतर एक धार्मिक आदमी का जन्म हो गया। क्योंकि न जानने का भाव आपको विनम्र कर
देगा। न जानने का भाव आपको निर-अहंकारी कर देगा। न जानने का भाव आपके आग्रह,
पंथ, संप्रदाय तोड़ देगा, आप खड़े हो जाएंगे और कहेंगे कि मैं तो नहीं जानता हूं। छोटे बच्चे की तरह
एक सरलता, एक इनोसेंस इस भाव के साथ पैदा होगी। और वह सरलता
इतनी बहुमूल्य है कि उसके समक्ष दूसरों के द्वारा सीखे गए विश्वास दो कौड़ी के भी
नहीं है। उस निर्दोष स्थिति में ही, उस इनोसेंस में ही,
जीवन सत्य की तरफ आंखें उठ सकती हैं। इसलिए मैंने कहा कि विश्वास
नहीं, विचार।
और कुछ दूसरे प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं।
कुछ मित्रों ने पूछा है कि अगर श्रद्धा नहीं तब तो भक्ति के लिए
भी कोई जगह नहीं रह जाएगी।
एक और मित्र ने अगस्तीन का एक उद्धरण दिया है और पूछा है:
अगस्तीन ने कहा है,
श्रद्धा का अर्थ है उन चीजों में विश्वास जो दिखाई नहीं पड़तीं,
और जो आदमी ऐसा विश्वास कर लेता है, परिणाम
में उसे वे चीजें फिर दिखाई पड़ने लगती हैं जो कि पहले दिखाई नहीं पड़ती थीं।
और भी दोत्तीन प्रश्न इस तरह श्रद्धा और भक्ति के लिए पूछे गए
हैं।
सबसे
पहली बात तो मैं आपसे यह कहूं, यह अगस्तीन का वाक्य बहुत सही है लेकिन उस
अर्थों में नहीं जिसमें अगस्तीन ने कहा होगा, बल्कि और दूसरे
अर्थों में। निश्चित ही जो चीजें नहीं दिखाई पड़तीं उनमें अगर विश्वास कर लें तो
धीरे-धीरे वे दिखाई पड़ सकती हैं। लेकिन दिखाई पड़ने से यह मत समझ लेना कि वे हैं।
आपके विश्वास ने यह भ्रम पैदा किया है उनके दिखाई पड़ने का। वे चित्त के प्रोजेक्शन
हैं। खुद मन की ही कल्पनाएं हैं। जरूर दिखाई पड़ने लगेंगी विश्वास करने से, लेकिन दिखाई पड़ने से यह मत सोच लेना कि वे हैं। वे विश्वास के द्वारा पैदा
हो गई हैं। बाहर पैदा नहीं हो गई हैं, केवल चित्त में पैदा
हो गई हैं। थोड़ी इस बात को समझें तो ये खयाल में आ सकती हैं।
जो
लोग बहुत भावप्रवण हैं,
बहुत इमोशनल हैं, उन्हें इस तरह की चीजें देख
लेना बहुत आसान है। जो लोग चित्त से बहुत कमजोर हैं, उन्हें
भी इस तरह की चीजें देख लेना बहुत आसान है। चित्त जितना कमजोर हो उतनी कल्पनाओं को
साकार रूप में देख लेना आसान है। दुनिया के कवि, चित्रकार या
इस तरह के भावप्रवण लोग ऐसी चीजें देखते रहते हैं जो आपको बिलकुल दिखाई नहीं
पड़तीं।
लियो
टाल्सटाय का नाम आपने सुना होगा। रूस के बड़े विचारशील लेखकों में से एक, बहुत
भावप्रवण। एक रात वोल्गा के किनारे दो बजे रात अंधेरे में पुलिस के द्वारा
टाल्सटाय पकड़ा गया। वोल्गा के ऊपर एक ब्रिज पर हमेशा खतरा रहता था। वह आत्महत्या
करने वालों का अड्डा था। वहां निराश और दुखी लोग जाकर कूद जाते और आत्महत्या कर
लेते। तो वहां एक पुलिस के सिपाही का हमेशा पहरा रहता था। रात थी आधी, टाल्सटाय वहां घूमता हुआ देखा गया। उस पुलिस के आदमी ने दो-चार बार देखा
फिर वह आया, उसने टाल्सटाय के कंधे पर हाथ रखा और कहा कि
महानुभाव! इरादे ठीक नहीं मालूम पड़ते हैं, यहां किसलिए इतनी
रात को आप मौजूद हैं?
टाल्सटाय
बोला, मेरे मित्र, तुम थोड़ी देर से आए जिसको कूदना था वह
कूद चुका, मैं तो केवल उसको विदा करने आया था। वह कांस्टेबल
तो घबड़ा गया। उसने कहा कि मैं मौजूद हूं, अभी तो मुझे कोई भी
दिखाई नहीं पड़ा कि कूदा हो। कौन कूदा है? तो टाल्सटाय ने कहा,
पावलोवना नाम की स्त्री, नहीं पहचानते हो?
फलां-फलां आदमी की पत्नी थीं, नहीं पता है?
फलां-फलां मोहल्ले में रहती थीं, नहीं खयाल है?
उस
आदमी ने कहा,
भाई, मेरे साथ चलो थाने और वहां जाकर सब बात
लिखा दो। वे दोनों थाने की तरफ चले। रास्ते में अचानक टाल्सटाय हंसने लगा, तो उसने पूछा, क्यों हंसते हैं? उसने कहा, बस अब रहने दो, मैं
जाता हूं। असल में थोड़ी भूल हो गई। मैं एक उपन्यास लिख रहा हूं और उसमें एक
पावलोवना नाम की स्त्री है, वह आज, जहां
तक उपन्यास पहुंचा है वहां वोल्गा में कूद कर आत्महत्या कर लेती है। और मैं इतना
अभिभूत हो गया उसकी आत्महत्या से कि घर से उठ कर ब्रिज पर चला आया। और मैं भूल गया
तुमसे कहना, अब मुझे खयाल आता है कि वह किसी सच्चे आदमी की
बात नहीं, मेरी ही कल्पना की बात है। मैं घर वापस जाता हूं।
टाल्सटाय
एक दफा सीढ़ियां चढ़ रहा था,
एक छोटी सी लाइब्रेरी जा रहा था, ऊपर संकरी
सीढ़ियां थीं, दो आदमी निकल सकते थे। वह खुद चढ़ रहा था और
उसके साथ एक औरत और चढ़ रही थी, वह भी उसके उपन्यास की एक
पात्र, जिससे वह बातचीत करता हुआ ऊपर चढ़ रहा था। कवि और पागल
अक्सर यह करते रहते हैं। उन लोगों से बातें करते हैं जो कहीं भी नहीं हैं। ऊपर चढ़
रहा था। ऊपर से एक आदमी नीचे उतर रहा था। सीढ़ियां थीं संकरी और दो ही निकल सकते थे,
तीन के लायक जगह न थी, बीच में थी औरत। और यह
उन्नीस सौ सत्रह की क्रांति के पहले की बात है। अब तो रूस में औरत को धक्का दे
सकते हैं, तब धक्का नहीं दे सकते थे। तो ऊपर से एक आदमी उतर
रहा है, कहीं धक्का न लग जाए, बीच में
औरत है, तो टाल्सटाय बचा जगह करने को और सीढ़ियों से नीचे गिर
पड़ा और टांग तोड़ ली और तीन महीने अस्पताल में रहा। वह दूसरा आदमी नीचे उतरा,
उसने कहा, बड़ी हैरानी की बात है, आप हटे क्यों? हम दो के लायक काफी जगह थी। टाल्सटाय
ने कहा, दो होते थे तो ठीक था, वहां
तीन थे, वहां एक औरत और थी। कोई औरत, कोई
औरत दिखाई नहीं पड़ रही? टाल्सटाय हंसा और उसने कहा, तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगी और अब टांग टूट जाने से मुझको भी दिखाई नहीं पड़
रही। लेकिन जब तक मैं सरका तब मेरे साथ थी और भ्रम हो गया और मैं सरक गया उसको
बचाने को और टांग टूट गई।
अगर
दुनिया के कवियों और साहित्यिकों का जीवन पढ़ेंगे, तो आपको दिखाई पड़ेगा कि
उनमें से अधिक लोग अपने पात्रों से बातचीत करते रहे हैं। वे पात्र उन्हें मौजूद
मालूम पड़ते हैं कि हैं। अगर इन कवियों को सनक सवार हो जाए और ये भक्त हो जाएं तो
इनको भगवान के दर्शन करने में देर लगेगी? इनको कोई देर न
लगेगी। ये जिस प्रकार के भगवान चाहेंगे उस प्रकार के भगवान के दर्शन कर लेंगे। बांसुरी
बजाने वाले भगवान चाहेंगे तो वे मौजूद हो जाएंगे और धनुर्धारी भगवान चाहेंगे तो वे
मौजूद हो जाएंगे और सूली पर लटके क्राइस्ट को देखना चाहेंगे तो वे मौजूद हो
जाएंगे। लेकिन जिस तरह इनके पात्र कल्पना के हैं इनके भगवान भी कल्पना के होंगे।
आज तक जितने भी भगवान देखे गए हैं वे सभी कल्पना के हैं। क्योंकि भगवान कोई
व्यक्ति नहीं है कि देखा जा सके। भगवान एक अनुभूति है, व्यक्ति
नहीं कि देखा जा सके। इसलिए जिस प्रकार का भी भगवान देखा जाएगा, वह भगवान मनुष्य की कल्पना की सृष्टि है, उसका मेंटल
क्रिएशन है। फिर अपने हाथ में है, मुरलीवालों को देखना हो
उनको देखें, और धनुर्धारी को देखना हो तो उनको देखें,
और चतुर्मुखी भगवान को देखना हो तो उनको देखें।
और
नीग्रो देखता है जिस भगवान के उसके ओंठ नीग्रो जैसे होते हैं और बाल नीग्रो जैसे
होते हैं। और चीनी देखता है जिस भगवान को उसकी हड्डियां उभरी होती हैं और रंग पीला
होता है। और हिंदू जिस भगवान को देखता है वह भारतीय शक्ल में होता है। और दुनिया
में जो अपने भगवान को देखना चाहता है अपनी शक्ल में देख लेता है। अगर गधे और घोड़े
भी भगवान को देखते होंगे तो अपनी शक्ल में देखते होंगे आदमी की शक्ल में नहीं। अगर
पशु-पक्षी भगवान को देखते होंगे तो अपनी शक्ल में देखते होंगे आपकी शक्ल में नहीं।
हमारी कल्पनाएं,
हमारा रूप, हमारा निर्मित है यह भगवान जिसको
हम श्रद्धा और भक्ति में देख लेते हैं। यह कोई साक्षात नहीं है सत्य का।
सचाई
यह है कि जब तक कुछ भी दिखाई पड़ता है चित्त में, तब तक मन काम कर रहा है। और
सत्य का या परमात्मा का, और स्मरण रखें, परमात्मा से मेरा अर्थ किसी रूप, किसी रंग से नहीं,
किसी आकार से नहीं, बल्कि समस्त जीवन, समस्त अस्तित्व, यह जो टोटल एक्झिस्टेंस है, यह जो सारी चीजों के भीतर व्याप्त प्राण हैं इसके अनुभव से है। इसका कोई
दर्शन नहीं हो सकता। इसका अनुभव हो सकता है।
एक
आदमी को प्रेम का अनुभव हो सकता है, लेकिन कोई आदमी आकर सूरत में खबर
करे कि आज रात मुझे प्रेम का दर्शन हुआ है, तो गड़बड़ हो गई
बात।
प्रेम
के दर्शन का क्या मतलब?
प्रेम कोई आदमी है जिसका दर्शन हो जाएगा? कोई
वस्तु है जिसका दर्शन हो जाएगा? प्रेम का अनुभव हो सकता है,
दर्शन नहीं। प्रेम एक जीवंत अनुभूति है, एक
एक्सपीरिएंस है। परमात्मा और भी गहरी अनुभूति है। परमात्मा का भी दर्शन नहीं हो
सकता, अनुभव हो सकता है। परमात्मा दिखाई नहीं पड़ सकता। लेकिन
परमात्मा को जाना जा सकता है। और जानने का रास्ता यह नहीं है कि आप कोई कल्पना
करें। जानने का रास्ता यह है कि सब कल्पना छोड़ दें और शून्य हो जाएं। जब तक कोई
कल्पना है तब तक उस कल्पना को जानने की कोशिश रहे, चेष्टा,
श्रम, तो वह कल्पना जानी जा सकती है। और उसको
जानने के उपाय हैं। कल्पना जानने के उपाय हैं।
सारी
दुनिया के बहुत बड़ा धार्मिक लोगों का हिस्सा, साधु-संतों का हिस्सा, गांजा, अफीम, चरस पीता रहा है।
अभी अमेरिका में मैस्कलीन और लिसर्जिक एसिड की हवा है। और उसको पीने वाले हक्सले
ने कहा, उसका इंजेक्शन लगवाने वाले लोगों ने कहा कि जो कबीर
को, मीरा को जो अनुभव हुए होंगे, वे
हमको मैस्कलीन का इंजेक्शन लगाने से होते हैं। हमको भगवान दिखाई पड़ता है।
अगर
हिंदू को मैस्कलीन का इंजेक्शन लगा दें तो कृष्ण दिखाई पड़ जाएंगे। और क्रिश्चियन
को लगा दें तो क्राइस्ट दिखाई पड़ जाएंगे। जो कल्पना भीतर बैठी है, नशे की
हालत में और जल्दी साकार हो जाती है। इसलिए दुनिया भर में साधु नशा करते रहे,
यह आकस्मिक नहीं है, यह एक्सिडेंटल नहीं है।
कल्पना को बल देने में नशा बड़ा सहयोगी है। जो लोग नशा नहीं करते रहे, वे लोग उपवास करते रहे हैं। और यह बात जान लेना जरूरी है। दो ही तरह के
वर्ग हैं दुनिया में साधुओं के, या तो नशा करने वाला या
उपवास करने वाला। और आप हैरान होंगे, जो काम नशे से होता है
वही उपवास से भी हो जाता है।
नशे
से कुछ मादक द्रव्य शरीर में पहुंच जाते हैं, जो चित्त के होश को कम कर देते
हैं। होश कम हो जाता है तो कल्पना जल्दी से साकार होने लगती है। बेहोशी में कल्पना
साफ दिखाई पड़ने लगती है। बेहोशी में विचार बिलकुल नहीं रह जाता, इसलिए यह खयाल भी नहीं उठता कि जो मैं देख रहा हूं वह सच है या झूठ,
यह विचार भी पैदा नहीं होता, जो दिखता है सच
मालूम होता है।
सपने
में रोज आप देखते हैं,
सपना कभी आपको सपने के भीतर झूठ मालूम पड़ता है? कभी आपको ऐसा लगा कि यह मैं सपना देख रहा हूं, यह
झूठ है? जागने पर लगता होगा, लेकिन
सपने के भीतर सभी सपने सच मालूम पड़ते हैं। क्योंकि विचार नहीं होता निद्रा में,
इसलिए जो दिखाई पड़ता है सच मालूम पड़ता है। विचार पूछता है कि जो है
वह सच है या झूठ? और विचार न हो तो पूछने वाली कोई चीज आपके
भीतर न रहेगी, फिर जो है वह सच है। नींद में आपका विचार सोया
हुआ है। तो जो भी सपना दिखाई पड़ता है वह मालूम होता है सच है। जागने पर जब विचार
जग आता है तब यह शक पैदा होता है कि अरे यह सपना झूठ था, लेकिन
सपने में कभी सपना झूठ नहीं होता। ऐसे ही नशे के भीतर कभी नशे में दिखाई पड़ने वाली
चीजें झूठ नहीं होतीं। नशे के द्वारा कल्पना तीव्र हो जाती है विचार मंदा हो जाता
है। तो जो सपने की स्थिति होती है वह वास्तविक जागते हुए हो जाती है। उपवास से भी
यही हो जाता है। उपवास से शरीर की शक्ति क्षीण हो जाती है। आपको गहरा बुखार आया हो
और बहुत दिन खाना न मिला हो, तो आपको पता होगा, कैसी-कैसी कल्पनाएं दिखाई पड़ने लगती हैं। खाट आसमान में उड़ती हुई मालूम पड़
सकती है। देवतागण हवा में घूमते हुए दिखाई पड़ सकते हैं। भूत-प्रेत छायाओं में
दिखाई पड़ सकते हैं।
शरीर
हो जाता है कमजोर,
चित्त हो जाता है कमजोर, कमजोर चित्त फिर
विचार करने में असमर्थ हो जाता है कि जो है वह सच है या झूठ, फिर कल्पना साकार हो जाती है।
तो
अगर तीस वर्ष तक,
बीस वर्ष तक कोई किसी भगवान के रूप को बना कर जपता रहे, जपता रहे, जपता रहे; आंख बंद
करके भगवान को देखता रहे, देखता रहे, देखता
रहे; नशा करे, उपवास करे, रोए-धोए, छाती पीटे, नाचे-गाए,
तो दस-बीस वर्षों में अगर ये भगवान दिखाई पड़ने लगें तो यह मत समझ
लेना कि ये भगवान हैं इसलिए दिखाई पड़ते हैं। यह आदमी बड़ा मेहनती है इसने भगवान
पैदा कर लिए। यह इसका श्रम है, यह इसकी कल्पना को दिया गया
बल है। सारे चित्त को लगाई गई चेष्टा है, इसमें कहीं कोई
भगवान नहीं है।
और
इसलिए यह भी हो सकता है कि अगर तुलसीदास को, मीरा को और अगस्तीन को तीनों को इस
कमरे में रात बंद कर दिया जाए, तो अगस्तीन को न राम दिखाई
पड़ेंगे न कृष्ण, दिखाई पड़ेंगे क्राइस्ट। मीरा को न क्राइस्ट
दिखाई पड़ेंगे न राम, दिखाई पड़ेंगे कृष्ण। तुलसीदास को न
दिखाई पड़ेंगे क्राइस्ट, न दिखाई पड़ेंगे कृष्ण, दिखाई पड़ेंगे राम। उसी एक कमरे में तीनों को तीन भगवान दिखाई पड़ेंगे और
बाकी के दो भगवान दिखाई नहीं पड़ेंगे और सुबह वे विवाद करेंगे आपस में कि तुम्हारे
भगवान तो थे ही नहीं, मेरे ही भगवान थे।
जो
जिसने निर्मित कर लिया है वही दिखाई पड़ सकता है। आज तक धर्म के नाम पर बहुत तरह की
कल्पनाएं प्रचलित रही हैं। और उन कल्पनाओं को अनुभव करने वाले लोग निश्चित इस खयाल
में पड़ जाते हैं कि जो अनुभव हुआ वह सत्य का अनुभव है। और उनको कोई कसूर भी नहीं
देता। जहां तक उनका संबंध है वे जो जानते हैं उनको बिलकुल ठीक मालूम पड़ता है, उसमें
उनका कोई कसूर भी नहीं। कसूर है तो एक कि वे उस विचार की फैक्लिटी को सुला देते
हैं, जो निर्णय कर सकती थी कि जो है वह सच है या झूठ।
विश्वास
इसीलिए इतने जोर से थोपा जाता है ताकि आपके भीतर का विचार सो जाए। अगर भीतर विचार
है तो फिर इस तरह की कल्पनाओं को अनुभव करना संभव नहीं है। इसलिए विचार की हत्या
की कोशिश की जाती है। जब विचार मर जाता है, सपने देखना आसान हो जाता है। और उन
सपनों में आनंद भी मिलेगा, आनंद भी आएगा। क्योंकि वे सपने
खुद के द्वारा निर्मित हैं इसलिए दुखद नहीं हो सकते, सुखद ही
होंगे। और भगवान का दर्शन हो गया है, यह बड़े आनंद की बात है।
इससे अहंकार की इतनी बड़ी तृप्ति होती है जितनी किसी और चीज से नहीं होती।
मुझे
भगवान का दर्शन हो गया,
मैंने भगवान को पा लिया, मैं भगवान को जानने
वाला हूं और कोई भी नहीं। इसलिए इन भगवान को जानने वाले लोगों से अगर पूछें कि वह
दूसरा आदमी भी कहता है कि मैं भगवान को जानने वाला हूं, वे
हंसेंगे, वे कहेंगे, गलती कहता है।
जानने वाला तो मैं ही हूं और कोई नहीं जानने वाला है। इसलिए तो दुनिया भर के
साधु-संत लड़ते हैं आपस में कि मैं जानने वाला हूं, दूसरा
जानने वाला नहीं है।
अगर
दुनिया कभी अच्छी हुई तो इस तरह के मस्तिष्क का इलाज होना चाहिए। यह मस्तिष्क
विकृत है। यह मस्तिष्क स्वस्थ नहीं है।
तो
न तो श्रद्धा और न भक्ति कहीं ले जाती है। ले जाता है सिर्फ ज्ञान। कोई और मार्ग
नहीं है, और सारे मार्ग सिर्फ दिखाई पड़ने वाले मार्ग हैं। ज्ञान के अतिरिक्त,
जागरण के अतिरिक्त, स्वयं की चेतना के पूरी
तरह विकसित होने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। बाकी मार्ग सिर्फ दिखाई पड़ते
हैं। सिर्फ दिखाई पड़ते हैं, है नहीं। और वे दिखाई पड़ने वाले
मार्ग आसान हैं, क्योंकि उन पर चलना नहीं होता केवल सपना
देखना होता है, केवल कल्पना करनी होती है।
ज्ञान
का मार्ग कठिन दिखाई पड़ता है, क्योंकि उस पर चलना होता है, जीवन को बदलना होता है, अग्नि से गुजरना होता है,
प्राण को काट-काट कर विकसित करता होता है भीतर किसी चेतना को। न तो
नींद काम दे सकती है, न नशा, न कोई
सपने काम दे सकते हैं। इसलिए श्रद्धा के छूटने से अगर भक्ति छूटती हो तो बहुत अच्छा,
वे दोनों जुड़े हैं। वह एक ही चीज का विकास है। विश्वास और श्रद्धा
जाएगा तो भक्ति के खड़े होने के लिए कोई जगह नहीं है। नींद चली जाए तो सपने के खड़े
होने को कोई जगह नहीं रह जाती। श्रद्धा की नींद में भक्ति के सपने आते हैं।
श्रद्धा की नींद न हो तो भक्ति के सपनों की कोई जगह नहीं है। और उस भांति का जो
जागरण है और उस जागरण में जो जाना और देखा गया है, वही सत्य
है।
स्मरण
रखें, जहां मैं पूरी तरह प्रबुद्ध हूं, पूरी तरह विचार और
विवेक से युक्त, और जहां मेरे मन पर कोई तंद्रा, कोई मादकता, कोई नशा, कोई
कल्पना नहीं, उस परिपूर्ण जागरण में ही मैं जो जानूंगा वही
सत्य हो सकता है और कुछ सत्य नहीं हो सकता। ऐसी परिपूर्ण जागरण की जो अवस्था है
वही ज्ञान है।
सोना
चाहते हो, बात अलग; नींद लेना चाहते हो, बात
अलग, तब भक्ति और श्रद्धा काम दे सकती है। तब भक्ति और
श्रद्धा पुराने रास्ते हो गए। मैस्कलीन और लिसर्जिक एसिड भी काम दे सकते हैं। और
भी ढंग के नशे हैं वे भी काम दे सकते हैं। नशा कर लें और सपने देखें।
लेकिन
सपनों से कोई जीवन नहीं बदलता। सपनों से कोई क्रांति नहीं आती। सपनों से कोई भीतर
बुनियादी फर्क नहीं पड़ता। आप वही के वही आदमी बने रहते हैं। यह जो, यह जो
चित्त का परिपूर्ण क्रांति है, दि टोटल म्यूटेशन जो है,
पूरी बदलाहट जो है, वह बदलाहट तो सिर्फ जागरण
से होती है। और उस जागरण का प्राथमिक सूत्र है, विवेक और
प्राथमिक शत्रु है, विश्वास। इसलिए विश्वास नहीं विवेक;
निद्रा नहीं जागरण; बेहोशी नहीं होश, ये जितने विकसित होंगे उतना जीवन सत्य के निकट पहुंचना आसान हो जाता है।
अंतिम रूप से एक छोटे प्रश्न की और चर्चा करूंगा और फिर चर्चा
बंद करूंगा।
कुछ मित्रों ने पूछा है कि मैंने कहा कि मंदिर में जाना धर्म
नहीं है,
मूर्ति की पूजा करना धर्म नहीं है, भगवान की
स्तुति करना खुशामद है, अगर ऐसा है तब तो फिर धर्म कुछ बचता
ही नहीं। विश्वास भी करना नहीं, पूजा भी करनी नहीं, प्रार्थना भी करनी नहीं, मंदिर भी जाना नहीं,
तब तो फिर धर्म बचता नहीं।
लेकिन
शायद मेरी बात समझ में नहीं आई। अगर मेरी बात समझ में आ जाए जो इन सबको छोड़ कर जो
बच रहता है वही धर्म है। नहीं समझ में आई उसके कारण हैं। पहली बात, मैंने
आपसे यह कहा कि मूर्ति को पूजना धर्म नहीं है, उसका क्या
अर्थ? उसका यह अर्थ कि जो व्यक्ति मनुष्य निर्मित मूर्तियों
से बंध जाता है वह उस परमात्मा को कभी नहीं जान सकेगा जो कि मनुष्य निर्मित नहीं
है।
यह
मूर्ति भगवान नहीं है। यह मूर्ति तो मनुष्य की बनाई हुई है। और मनुष्य क्या भगवान
को बना सकता है?
मनुष्य भगवान को बना सके तब तो बड़ा आश्चर्य पैदा हो जाए। मनुष्य
अपने को मिटा ले तो भगवान को जान सकता है लेकिन भगवान को बना ले तब तो न स्वयं को
जान सकता है और न भगवान को जान सकता है। भगवान को पाने का रास्ता भगवान बनाना नहीं
है बल्कि खुद को मिटाना है।
मनुष्य
अपने को मिटा ले उसकी हम कल सुबह बात करेंगे कि वह कैसे अपने को मिटा ले, वह न हो
जाए।
कल
संध्या मैं जहां बोलने गया था, तो मेरे सामने ही एक तख्ती पर लिखा हुआ था: गॉड
इज़ एवरीथिंग एंड मैन इज़ समथिंग। लिखा था: ईश्वर सब कुछ है और मनुष्य थोड़ा कुछ,
समथिंग। गलत है यह बात। गॉड इज़ एवरीथिंग एंड मैन इज़ नथिंग। ईश्वर सब
कुछ है, मनुष्य कुछ भी नहीं है।
यह
समथिंग जानने का जो भ्रम है कि मैं कुछ हूं, यही अस्मिता, यही अहंकार, यही ईगो, मनुष्य
कुछ है यह जानने का जो खयाल है, यह एकदम भ्रामक है। जिस दिन
मनुष्य जान पाता है कि मैं तो कुछ भी नहीं हूं, उसी क्षण वह
जान लेता है कि परमात्मा सब कुछ है। ये अनुभव एक साथ घटित होते हैं। जिस क्षण
मनुष्य जानता है मैं कुछ भी नहीं हूं, उसी क्षण, तत्क्षण जान लेता है कि परमात्मा सब कुछ है। और जब तक वह जानता है मैं कुछ
हूं, तब तक परमात्मा के द्वार बंद हैं, वे नहीं खुलेंगे। यह अहंकार बाधा बन जाएगा, रुकावट
बन जाएगा।
और
यही अहंकार बनाता है मंदिर,
यही अहंकार गढ़ता है मूर्तियां, यही अहंकार
निर्मित करता है संप्रदाय। इसीलिए तो संप्रदाय लड़ते हैं। अगर संप्रदाय धर्म होते
तो लड़ाई कैसे संभव थी? लड़ाई तो वहीं होती है जहां अहंकार
होता है, नहीं तो लड़ाई नहीं होती। जहां अहंकार है वहां युद्ध
है, वहां संघर्ष है। अहंकार लड़ाता है। मैं कुछ हूं, आप भी कुछ हैं, फिर लड़ाई होनी जरूरी है। यह सारा का
सारा खेल जो हमें दिखाई पड़ता है हम सोचते हैं धर्म है, इसलिए
डर पैदा होता है। कौन से मंदिर में धर्म है? और अगर मंदिरों
में धर्म हो तब जमीन पर बहुत धर्म होता है क्योंकि मंदिर बहुत हैं। मंदिरों की कोई
कमी है? सारी पृथ्वी मंदिर, चर्चों और
मस्जिदों से भरी है। धर्म कहां है लेकिन? अगर इनसे धर्म होता
तो और हम थोड़े मंदिर और चर्च बना लें तो धर्म बढ़ जाए, लेकिन
हालत उलटी है, जितने मंदिर बढ़ते हैं उतना अधर्म बढ़ता है।
हालत उलटी है, मंदिर और चर्चों के बढ़ने से धर्म नहीं बढ़ा।
इनमें जाने वाले लोग धार्मिक हैं? अगर इनमें जाने वाले लोग
धार्मिक हैं तो वे कौन से मुसलमान थे जिन्होंने हिंदुओं की हत्या की? और वे कौन से हिंदू हैं जो मुसलमानों की हत्या करते हैं? वे कौन से कैथेलिक हैं जो प्रोटेस्टेंट को मारते रहे हैं? वे कौन से प्रोटेस्टेंट हैं जो उनके दुश्मन हैं? इन
मंदिरों और मस्जिदों में जाने वाले लोग अगर धार्मिक हैं तो फिर ये धर्म के नाम पर
इन मंदिरों और मस्जिदों से निकली हुई हत्याओं का ब्योरा कौन देगा? कौन करेगा यह हिसाब? इतनी हत्या फिर किसके सिर जाएगी?
नहीं
साहब, यह मंदिर और मस्जिद में जाने वाला आदमी बड़ा खतरनाक है। यह किसी भी दिन आग
लगवा सकता है। क्योंकि जिस दिन यह चुनता है कि यह मंदिर धर्म का है उसी दिन यह
कहने लगता है कि दूसरा जो चर्च है और मस्जिद है वह धर्म की नहीं है। और जो धर्म का
नहीं है उसको मिटाना इसका कर्तव्य हो जाता है। जिस दिन यह चुनाव करता है कि यह
मस्जिद भगवान की है, उसी दिन यह कह देता है यह जो मंदिर है
मूर्ति वाला यह भगवान का नहीं शैतान का है। इसकी च्वाइस, इसके
चुनाव में घोषणा हो गई दूसरे के अधर्म होने की, अब लड़ाई शुरू
होगी।
और
यह जो आदमी एक मंदिर को सोचता है कि यहां जाने से मैं धार्मिक हो जाऊंगा, इससे
ज्यादा बचकानी और चाइल्डीश कोई बात हो सकती है? एक आदमी तेईस
घंटे अधार्मिक है और एक मकान की सीढ़ियां चढ़ता है और घंटे भर के लिए धार्मिक हो
सकता है? क्या चेतना ऐसी कोई चीज है? गंगा
बहती है हिमालय से और गिरती है सागर में। अगर कोई कहे कि काशी में आ कर गंगा
पवित्र हो जाती है, पहले भी अपवित्र थी और आगे भी अपवित्र,
सिर्फ काशी के घाट पर पवित्र हो जाती है। तो हम हंसेंगे कि यह पागल
है। क्योंकि जो गंगा पीछे थी वही तो काशी के घाट से भी निकलेगी। और जो काशी के घाट
से निकलेगी वही तो आगे भी जाएगी। आगे भी अपवित्र, पीछे भी
अपवित्र, तो काशी के घाट पर पवित्र हो जाती है, कैसे हो सकता है? अगर यह नहीं हो सकता तो तेईस घंटा
चेतना की जो गंगा अपवित्र थी वह एक घंटा मंदिर में पवित्र कैसे हो सकती है?
वही तो चेतना है। वही तो धारा है। वही तो गंगा है। केवल मंदिर की
सीढ़ियां चढ़ने से वह पवित्र हो जाएगी? गलती में हैं आप। यह
आदमी दूसरों को तो धोखा दे ही रहा है, खुद को भी धोखा दे रहा
है। अगर आंख बंद करके भीतर देखेगा तो पाएगा, वही चेतना चल
रही है। वही हिसाब, वही पाप, वही हिंसा,
वही हत्याओं की योजना चल रही है भीतर, वे ही
सिक्के गिने जा रहे हैं।
एक
आदमी मर रहा था एक बार। बहुत बड़ा धनपति था। बहुत बड़ा व्यवसायी था। मरणशय्या पर पड़ा
था। आखिरी क्षण थे और चिकित्सकों ने कहा, आज का सूरज अंतिम होगा। सूरज ढलने
को था। वह भी ढलने को था। उसने एकदम आंख खोली, उसकी पत्नी
उसके पैरों तले बैठी थी और उसने पूछा कि मेरा बड़ा लड़का कहां है? तो उसकी पत्नी को खयाल आया कि शायद प्रेम से भर कर वह पूछ रहा है। क्योंकि
उस आदमी ने कभी यह नहीं पूछा था कि मेरा बड़ा लड़का कहां है?
जो
पैसे के हिसाब में रहता है वह प्रेम का हिसाब कभी भी नहीं कर पाता। या तो पैसे का
हिसाब होता है या प्रेम का हिसाब होता है। ये दोनों खजाने एक साथ नहीं भरे जा
सकते। इसलिए जिसके पास जितनी पैसे की पकड़ होती है प्रेम उतना ही क्षीण हो जाता है।
और जिसका प्रेम विराट होता है उसके पैसे की पकड़ चली जाती है।
तो
जिंदगी भर उसने पैसे के हिसाब तो पूछे थे कि रुपया कहां है, लेकिन
उसने यह कभी नहीं पूछा था मेरा बड़ा लड़का कहां है? उसकी पत्नी
ने सोचा, आज शायद प्रेम से भर कर उसे खयाल आ गया, अंतिम क्षणों में शायद वह प्रेम से भर गया है। अच्छा है, धन्य भाग्य है यह कि अंतिम क्षण उसके प्रेम और प्रार्थना से भरे हुए हों।
तो उसने कहा, आप निश्चिंत रहें, आपका
बड़ा लड़का आपके बगल में ही बैठा हुआ है। और उसने पूछा, उससे
छोटा? उसकी पत्नी और भी अनुगृहीत हो गई कि वह सबकी याद कर
रहा है। उसकी पत्नी ने कहा, वह भी आपके बगल में बैठा हुआ है।
उसने पूछा, उससे छोटा? वह भी बगल में
बैठा हुआ है। उससे छोटा? उसके पांच लड़के थे, उसने पांचों के बाबत पूछा। और अंत में वह एकदम उठ कर बैठ गया और उसने कहा,
इसका क्या मतलब, फिर दुकान पर कौन बैठा हुआ है?
वह
अब भी पैसों का ही हिसाब कर रहा था। वह पत्नी गलती में थी कि वह प्रेम का
लेखा-जोखा कर रहा है अंतिम क्षणों में।
असल
में जिसने जीवन भर पैसे का हिसाब किया हो अंतिम क्षण में भी वह पैसे का ही हिसाब
करेगा। अंतिम क्षण में भी,
और जो मंदिर की सीढ़ियों के बाहर पैसों का हिसाब करता रहा, वह मंदिर के भीतर भी पैसों का हिसाब करेगा। उसकी बंद आंखें देख कर भूल में
मत पड़ जाना। उसके भीतर वही हिसाब चल रहा है जो बाहर चल रहा था। उसके चंदन और टीका
को देख कर धोखे में मत पड़ जाना। वह चंदन और टीका लगाते वक्त भी वही हिसाब चल रहा
है जो बाहर चल रहा था। यह वही आदमी है। आदमी ऐसे नहीं बदला करता। आदमी बदलता है तो
पूरा बदलता है, नहीं तो नहीं बदलता। आदमी की कोई खंड-खंड
बदलाहट नहीं होती। कोई ऐसा नहीं होता एक घड़ी को अच्छा हो जाए और दस घड़ी को बुरा हो
जाए। ऐसा नहीं होता। चेतना इकट्ठी है, वह पूरी बदलती है। तो
जिसकी चेतना पूरी बदलती है वह मंदिर नहीं जाता बल्कि वह जहां भी जाता है वहीं पाता
है कि मंदिर है। जिसकी चेतना बदल जाती है वह किसी परमात्मा की तलाश में किसी मकान
में नहीं जाता बल्कि जहां भी आंख डालता है पाता है कि परमात्मा है।
मंदिर
जाने वाला धार्मिक नहीं है,
लेकिन जो आदमी हर क्षण अपने को मंदिर में पाता है वह धार्मिक जरूर
है। भगवान की मूर्ति पूजने वाला धार्मिक नहीं है, लेकिन जो
हर मूर्ति में पाता है कि भगवान है, वह धार्मिक है। जो हर
मूर्ति में पाता है कि भगवान है। हर मूर्तिमंत जो भी आकार है उसमें उसी निराकार की
ध्वनि और संगीत उसे सुनाई पड़ता है, वह धार्मिक है। लेकिन जो
कहता है इस मूर्ति में भगवान है, इससे तो पक्का जान लेना कि
उसे अभी पता नहीं। क्योंकि वह यह कहता है इस मूर्ति में भगवान है, इसका मतलब है कि बाकी जगह और क्या है? शेष जगह और
क्या है फिर? शेष जगह भगवान नहीं है? चुनाव,
सिलेक्शन इस बात को बता देता है कि शेष जगह नहीं है। यहां है,
इसलिए मैं इतनी यात्रा करके इस मंदिर तक आता हूं। नहीं तो सब जगह
वही था।
ये
जो, ये जो हमारे चित्त के खंड-खंड हमने धर्म बनाए हुए हैं, ये अपने को धोखा देने के लिए, सेल्फ डिसेप्शन के लिए,
ताकि बिना धार्मिक हुए धार्मिक होने का मजा आ जाए। सुबह उठ कर मंदिर
हो आए, सोचा कि धार्मिक हैं।
मोहम्मद
एक दिन सुबह अपने एक मित्र को उठा कर मस्जिद ले गए। वह रोज सोया रहता था। उस दिन
उसे उठा कर लेकर मस्जिद ले गए। वह पहली दफा मस्जिद गया। जब वापस लौटते थे तो अनेक
लोग रास्तों पर अभी तक सोए हुए थे। उस मित्र ने मोहम्मद से कहा, देखते हो
हजरत, ये लोग कैसे अधार्मिक हैं अभी तक सो रहे हैं। मोहम्मद
ने हाथ जोड़े परमात्मा की तरफ आकाश में और कहा, हे परमात्मा!
क्षमा कर, मुझसे भूल हो गई इस आदमी को ले जाकर। कल तक यह
बेहतर था, कम से कम दूसरों को अधार्मिक तो नहीं समझता था। आज
और एक भूल हो गई। आज यह एक दफा मस्जिद क्या हो आया, यह कह
रहा है कि मैं धार्मिक हूं और बाकी ये सब अधार्मिक हैं। उस आदमी से कहा, ेभई, तू कल से मत आना। और तू वापस जा, मेरी नमाज खराब हो गई है, मैं फिर से जाकर नमाज पढ़
आऊं।
यह
जिसको हम धार्मिक आदमी समझते हैं, जो मंदिर हो आता है, यह
बड़ा मजा ले रहा है आपको अधार्मिक बताने का और बड़े सस्ते में। धार्मिक होना बड़ी
दूसरी बात है, इतनी सस्ती और आसान नहीं। बड़ी क्रांति की बात
है।
वह
क्रांति कैसे घटित हो सकती है, उसके दो सूत्रों की चर्चा मैंने आपसे की,
कल तीसरे सूत्र की आपसे चर्चा करूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए
बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में सभी के भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं,
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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