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मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)-प्रवचन-03

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)
ओशो
दिनांक 13, नवम्बर, सन् 1980

तीसरा प्रवचन-(तप, ब्रह्मचर्य और सम्यक ज्ञान)

 पहला प्रश्न: भगवान,
      सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा
           सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्।
      अंतःशरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो
             यं पश्यंति यतयः क्षीणदोषाः।।
यह आत्मा सत्य, तप, सम्यक ज्ञान और ब्रह्मचर्य से ही प्राप्त किया जा सकता है। जिसे दोषहीन यति देखते हैं, वह शुभ्र आत्मा इसी शरीर के अंदर वर्तमान है।
भगवान, मुंडकोपनिषद के इस सूत्र को हमारे लिए बोधगम्य बनाने की कृपा करें।

 शरणानंद!
यह सूत्र तो सरल है, पर हजारों वर्षों की व्याख्याओं ने इसे बहुत जटिल कर दिया है। नासमझ सुलझाने चलते हैं तो और उलझा देते हैं! नीम-हकीम से सावधान रहना जरूरी है। बीमारी इतनी खतरनाक नहीं, जितना नीम-हकीम खतरनाक सिद्ध हो सकता है।
बीमारी का तो इलाज है, लेकिन नीम-हकीम के चक्कर में पड़ जाओ, तो इलाज नहीं है। और नीम-हकीमों से दुनिया भरी हुई है।
एक आदमी को सर्दी-जुकाम था। बहुत दिनों से था।
और बार-बार लौट आता था। बड़े-बड़े चिकित्सकों के पास गया, कोई इलाज न कर पाया। फिर एक नीम-हकीम मिल गया। उसने कहा, यह भी कोई बड़ी बात है! यह तो बाएं हाथ का खेल है! चुटकी बजाते दूर कर दूंगा। इतना करो, सर्दी की रातें हैं, आधी रात में उठो। झील पर जाकर नग्न स्नान करो। झील के किनारे खड़े होकर ठंडी हवा का सेवन करो!
वह आदमी बोला, आप होश में हैं या पागल हैं! सर्द रातें हैं; बर्फीली हवाएं हैं। आधी रात को नंग-धड़ंग झील में स्नान करके खड़ा होऊंगा, हड्डी-हड्डी बज जाएगी! इससे मेरा सर्दी-जुकाम दूर होगा? नीम-हकीम ने कहा, यह मैंने कब कहा कि इससे सर्दी-जुकाम दूर होगा! इससे तुम्हें डबल निमोनिया हो जाएगा! और डबल निमोनिया का इलाज मुझे मालूम है! फिर मैं निपट लूंगा!
इस दुनिया में जीवन जटिल न होता, अगर जीवन के व्याख्याकार तुम्हें न मिल गए होते। उन्होंने सर्दी-जुकाम को डबल निमोनिया में बदल दिया है!
यह सूत्र बिलकुल सीधा-साफ है। लेकिन जब तुम इस सूत्र को पढ़ोगे, तो तुम सूत्र नहीं पढ़ रहे हो। सूत्रों के सुंदर शब्द आच्छादित हो गए हैं न मालूम कितनी व्याख्याओं से!
जैसे जब तुम पढ़ोगे सत्य, क्या समझोगे? पढ़ोगे तप, क्या समझोगे? पढ़ोगे सम्यक ज्ञान, क्या समझोगे? पढ़ोगे ब्रह्मचर्य, क्या समझोगे? शब्द तो बहुत दूर खो गए हैं जंगलों में व्याख्याओं के। तुम्हारे हाथ में व्याख्याएं रह गई हैं।
सत्य शब्द तुम्हें याद दिलाएगा शास्त्रों की, और शास्त्रों में सत्य नहीं है। क्योंकि शब्दों में ही सत्य नहीं है। सत्य है शून्य में। और तुमसे सदा कहा गया है कि सत्य बोलो। तुम्हारे भीतर सत्य में और बोलने में एक संयोग बन गया है। सत्य बोला नहीं जाता, जीया जाता है, अनुभव किया जाता है। यद्यपि जिसने सत्य का अनुभव किया, उसके आचरण में, उसके उठने-बैठने में, उसके हलन-चलन में, उसकी हर गतिविधि में सत्य की आभा होती है। उसके शब्दों में भी सत्य की प्रतिध्वनि होती है--सत्य नहीं, प्रतिध्वनि। और उस प्रतिध्वनि को वही समझ पाएगा, जिसने अपने भीतर का सत्य जाना हो।
गीता जिन्हें कंठस्थ है, कि रामायण की चौपाइयां याद किए बैठे हैं, कि बाइबिल या कुरान या धम्मपद सिर पर ढो रहे हैं--इनसे तो सत्य बहुत दूर हो गया। सत्य तो तुम्हारे जीवन का सार है। सत्य बाहर नहीं है, भीतर है। वेदों में नहीं है, पुराणों में नहीं है; तुम्हारी चेतना की सुगंध है। सत्य ध्यान में है।
लेकिन जब भी तुम सत्य शब्द को सुनते हो, तो तुम्हें लगता है, शास्त्र। याद आते हैं वेद, कुरान, बाइबिल। याद आते हैं बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट, मोहम्मद।
सत्य शब्द सुन कर कभी तुम्हें अपनी याद आती है? आनी वही चाहिए। न बुद्ध से सत्य मिलेगा, न कृष्ण से। सत्य मिलेगा तो अपने स्मरण से।
मगर व्याख्याओं का घनघोर जंगल है! इतनी सदियां बीत गई हैं तुम्हें संस्कारित होते-होते कि अब सीधी-सादी बात भी बोध में नहीं आती, विकृत हो जाती है; खंडित हो जाती है; टूट-फूट जाती है; कुछ की कुछ हो जाती है।
सत्य है ध्यान की, शून्य की, निर्विचार की अनुभूति। उस अनुभूति में न विचार होते, न कल्पना होती, न तुम होते हो। क्योंकि तुम स्वयं भी एक कल्पना हो, एक विचार हो। अहंकार विचार की एक तरंग-मात्र है, एक लहर। जहां सारी लहरें खो गईं, वहां अहंकार भी खो गया।
सत्य है निरअहंकारिता की प्रतीति, उसका साक्षात्कार। लेकिन क्या ऐसा स्मरण आता है सत्य शब्द को पढ़ कर? जब पढ़ोगे: सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा--यह आत्मा सत्य है, तप है, सम्यक ज्ञान है, ब्रह्मचर्य है। तो क्या तुम्हारे मन में विचार उठते हैं?
तप से विचार उठता है, सिर के बल खड़े हुए लोग! उपवास करते हुए लोग! सूरज से आग बरस रही है और वे अपने चारों तरफ धूनी रमाए बैठे हुए हैं! तप से तुम्हें क्या याद आता है? कांटों पर लेटे हुए लोग! सर्दियों में बर्फीली नदियों में नग्न खड़े लोग! कि गर्मियों में जलती हुई रेत पर पालथी मारे हुए बैठे हुए लोग! जटाजूटधारी! शरीर के दुश्मन! अपने को गलाने में लगे, सड़ाने में लगे! इस तरह के आत्महंताओं की याद आती है। तप शब्द को सुन कर ही याद आती है उन लोगों की जो अपने को कष्ट देने में कुशल हैं।
दुनिया में दो तरह के हिंसक हैं। एक वे, जो दूसरों को सताते हैं। ये छोटे हिंसक हैं। क्योंकि दूसरे को तुम सताओगे, तो दूसरा कम से कम आत्मरक्षा तो कर सकता है। प्रति-उत्तर तो दे सकता है। भाग तो सकता है। पैरों पर गिर कर गिड़गिड़ा तो सकता है। कोई उपाय खोज सकता है। रिश्वत दे सकता है। चापलूसी कर सकता है। सेवा कर सकता है। गुलाम हो सकता है।
और दूसरे तरह के वे आत्म-हिंसक हैं, जो खुद को सताते हैं। वहां कोई बचाव नहीं। वह हिंसा बड़ी है। अब तुम खुद ही अपने को सताओगे, तो कौन तुम्हें बचाएगा! कौन प्रतिकार करे! अपना ही हाथ अगर आग में जलाना हो, तुमने ही अगर तय किया हो आग में जल जाने का, तो फिर बचना मुश्किल है। आत्महत्या करने वाले व्यक्ति को कैसे बचाओगे? कानून नियम बनाता है, मगर बचा पाता है क्या? कानून बड़ा मूढ़तापूर्ण मालूम पड़ता है। कानून कहता है, जो आदमी आत्महत्या करेगा, उसको सजा मिलेगी।
अब यह बड़े मजे की बात है! उसने तो आत्महत्या कर ही ली, अब तुम क्या खाक सजा दोगे! सजा तुम उसको दे सकते हो, जो आत्महत्या कर रहा हो और कर न पाया हो। और जो आत्महत्या करना चाहता है, क्या इस दुनिया में उसे कुछ कमी है! इतने सरदार इतनी बसें चला रहे हैं, ट्रकें चला रहे हैं देशी ठर्रा पीए हुए! ट्रेनें चल रही हैं! मालगाड़ियां दौड़ रही हैं! झाड़ हैं, पहाड़ हैं, नदी हैं, समुद्र हैं! जिसको आत्महत्या करनी है, इस बड़े जगत में कोई उसे बचा सकता है! कैसे बचाओगे? कोई नहीं बचा सकता।
हां, पकड़ा जाता है वह व्यक्ति जो करना नहीं चाहता था, यूं ही करने का बहाना कर रहा था। करने की तरकीब कर रहा था, कि उसका कुछ प्रभाव पड़ जाए। धमका रहा था।
स्त्रियां आत्महत्या के बहुत उपाय करती हैं। दो-चार गोली खा लेंगी नींद की। मगर इतनी कभी नहीं खातीं कि मर जाएं! इतनी ही खाती हैं कि तुमको थोड़ी मुसीबत में डाल दें। कि अब डाक्टर को बुलाओ! कि अब पुलिस से छिपाओ! कि अब डरो उनसे! कि अब दुबारा, तुमने जो भूल की थी, अब न करना! अब उनकी मान कर चलना! यह उनकी तरकीब है। यह गांधीवादी तरकीब है अपने को सता कर तुम पर कब्जा पाने की।
तप से तुम्हारे मन में क्या खयाल उठता है? तप शब्द तुम्हारे भीतर कौन सी आकृतियां उभारता है? आत्म-दमन! आत्म-पीड़न! लेकिन तप से इसका कोई संबंध नहीं है।
तप का ठीक-ठीक अर्थ इतना ही होता है कि जीवन में बहुत दुख हैं, इन दुखों को सहजता से, धैर्य से, संतोष से, अहोभाव से अंगीकार करना। और दुख पैदा करने की जरूरत नहीं है। दुख क्या कुछ कम हैं! पांव-पांव पर तो पटे पड़े हैं। दुख ही दुख तो हैं चारों तरफ। लेकिन इन दुखों को भी वरदान की तरह स्वीकार करने का नाम तप है।
सुख को तो कोई भी वरदान समझ लेता है। दुख को जो वरदान समझे, वह तपस्वी है। जब बीमारी आए, उसे भी प्रभु की अनुकंपा समझे; उससे भी कुछ सीखे। जब दुर्दिन आएं, तो उनमें भी सुदिन की संभावना पाए। जब अंधेरी रात हो, तब भी सुबह को न भूले। अंधेरी से अंधेरी बदली में भी, वह जो शुभ्र बिजली कौंध जाती है, उसका विस्मरण न हो।
कुछ दुख आरोपित करने की जरूरत नहीं है, दुख क्या कम हैं! इसलिए मैं अपने संन्यासी को नहीं कहता कि संसार को छोड़ो; जंगल में जाओ; अपने को सताओ। संसार में कोई दुखों की कमी है कि तुम्हें जंगल जाना पड़े! यहां तरहत्तरह के दुख हैं। जीवन चारों तरफ संघर्ष, प्रतियोगिता, वैमनस्य,र् ईष्या, जलन, द्वेष, इन सबसे भरा है। एक दुश्मन नहीं, हजार दुश्मन हैं। जिनको तुम दोस्त कहते हो, वे भी दुश्मन हैं। कब दुश्मन हो जाएंगे, कहना मुश्किल है।
मैक्यावेली ने अपनी अदभुत किताब प्रिंस में लिखा है कि अपने दोस्तों से भी वह बात मत कहना, जो तुम अपने दुश्मनों से न कहना चाहो। क्यों? क्योंकि तुम्हारा जो आज दोस्त है, वह कल दुश्मन हो सकता है। मैक्यावेली पश्चिम का चाणक्य है। दोस्त से भी मत उघाड़ना अपने हृदय को, क्योंकि वह भी नाजायज लाभ उठाएगा किसी दिन। फिर तुम पछताओगे।
यहां तो सब तरफ कांटे ही कांटे हैं, अब और कांटों की शय्या बनाने की जरूरत क्या है? तुम जिस शय्या पर सोते हो रोज, वह कांटों की नहीं? उतने से मन नहीं भरता? पत्नी और पति तुम्हें कम दुख दे रहे हैं?
मैंने सुना, पति-पत्नी में पति के देर से घर लौटने पर झगड़ा हो रहा था।
पत्नी बोली, अगर आप आइंदा रात नौ बजे के बाद आएंगे, तो मैं आपको छोड़ कर किसी और से शादी कर लूंगी।
पति ने कहा, तब तो पड़ोस वाले गुप्ताजी से ही कर लेना!
पत्नी ने आश्चर्यचकित होते हुए पूछा, गुप्ताजी से ही क्यों?
पति ने शांति से उतर दिया, मैं उनसे बदला लेना चाहता हूं।
यहां कुछ कमी है!
एक दोस्त अपने संगी-साथी से कह रहा था, बारिश आने वाली है, मुझे बड़ा डर लग रहा है; मेरी पत्नी बाजार गई हुई है।
उसके मित्र ने कहा, इसमें डरने की क्या बात है! अरे, बारिश कुछ उसे गला तो न देगी। कोई मिट्टी की तो बनी नहीं। बहुत बारिश आ जाएगी, तो किसी दुकान में घुस कर खड़ी हो जाएगी। मित्र ने कहा, इसी का तो डर है। जिस दुकान में घुस जाती है, वहीं उधारी करके आ जाती है!
इस जिंदगी में तुम दुख तो देखो, कुछ कमी है! तप करने कहां जा रहे हो!
डाक्टर चंदूलाल से कह रहे थे, चंदूलाल, यह कोई पुरानी बीमारी है जो आपका सुख-चैन नष्ट कर रही है।
चंदूलाल मुंह पर हाथ रख कर अपनी पत्नी की तरफ इशारा करके डाक्टर से बोले, जरा धीरे डाक्टर साहब! वह इधर ही खड़ी हुई है।
एक पुरुष और एक स्त्री पार्क में बैठे बहुत जोर-जोर से बातें कर रहे थे। अचानक स्त्री उठी और पुरुष को एक चांटा मार कर गुस्से में वहां से चली गई। इतने में पास से गुजरने वाले व्यक्ति ने वहां बैठे पुरुष से पूछा, वह स्त्री क्या आपकी पत्नी थी?
इस पर पुरुष ने बड़े तैश में आकर जवाब देते हुए कहा, और नहीं तो क्या! तुम मुझे इतना बे-गैरत इंसान समझते हो कि मैं किसी ऐरी-गैरी स्त्री से चांटा खा लूंगा?
कई वर्षों के बाद कालेज के दो साथियों की मुलाकात हो गई। और बातचीत का सिलसिला हुआ--
कैसे रहे इतने वर्षों तक?
कोई खास बात नहीं हुई। कालेज छोड़ने के फौरन बाद मैंने शादी कर ली थी।
यह तो बड़ा अच्छा किया।
नहीं। मेरी पत्नी बहुत लड़ाका थी।
ओह! इससे जीवन जहर हो गया होगा?
नहीं, इतना बुरा भी नहीं हुआ। दहेज में पांच हजार रुपए मिले थे!
उससे तो बड़ा फायदा हुआ होगा।
नहीं। उस रकम से मैंने दुकान कर ली, लेकिन बिक्री ही नहीं होती थी।
तब तो बड़ी मुसीबत रही होगी?
नहीं, बुरा भी नहीं हुआ। युद्धकाल में दुकान बड़े भाव में बेच दी। दस हजार का नगद फायदा हो गया।
यह बहुत अच्छा किया तुमने!
नहीं, इतना अच्छा भी नहीं हुआ। उस रकम से मैंने एक मकान खरीद लिया और मकान में आग लग गई!
यह तो बड़ी बदकिस्मती रही!
नहीं, इतनी बदकिस्मती भी नहीं रही। मेरी पत्नी भी उसमें जल गई!
यहां जिंदगी में क्या कमी है!
तप का मेरी दृष्टि में एक ही अर्थ है। जीवन में कांटे भी हैं, फूल भी हैं; फूलों का स्वागत तो कोई भी कर लेता है; कांटों का भी जो स्वागत कर ले, वह तपस्वी है। कुछ तुम्हें कांटे ईजाद करने की आवश्यकता नहीं है। यहां दिन भी हैं और रातें भी हैं। कुछ दीए बुझाने की तुम्हें जरूरत नहीं है। दिन को तो स्वभावतः तुम प्रसन्न हो, रात का अंधेरा भी अंगीकार कर लो।
परितोष का नाम तप है। संतोष का नाम तप है। तप आत्म-हिंसा नहीं है, अपने को सताना नहीं है। सताना तो हर हाल बुरा है, किसी को भी सताओ, तुम भी उसमें सम्मिलित हो। लेकिन जो भी जीवन में आ जाए--सुख हो कि दुख, सफलता हो कि विफलता, हार मिले कि जीत--तुम्हारे भीतर कोई अंतर ही न पड़े; तुम अडिग-अकंप बने रहो; यह तपश्चर्या है।
इसलिए तप के लिए किसी हिमालय की गुफा में बैठने की जरूरत नहीं; वह तो तप से भागना है। हिमालय की गुफा में क्या खाक तप होगा! जीवन चुनौती है, प्रतिपल। और हर चुनौती छिद जाती है कटार की तरह। उसे फूल की तरह स्वीकार कर लेना तपश्चर्या है।
इसलिए न तो सिर के बल खड़े होओ, न धूनी रमाओ, न भभूत लगाओ, न जटाजूट बढ़ाओ, न उपवासे मरो। इस सब की कोई जरूरत नहीं है। परमात्मा ने जीवन में सुख और दुख को बिलकुल समतुल बनाया है। जीवन में हर चीज समतुल है। नहीं तो अस्तित्व बिखर जाए। इसमें समतुलता होनी ही चाहिए। जितना सुख, उतना दुख। जितनी रात, उतने दिन। जितनी सफलताएं, उतनी असफलताएं। तुम दोनों को सम-भाव से ले सको, तो तप।
लेकिन तुम्हारी व्याख्याओं ने बड़ी मुश्किल कर दी है! तुम्हारी व्याख्याओं ने तुम्हें न मालूम क्या-क्या सिखा रखा है।
मेरे हिसाब से तप तो जीवन की सहज साधना है, असहज नहीं। प्रत्येक वस्तु को जिस दिन तुम आशीष की तरह स्वीकार करने को राजी हो जाओगे, अहोभाव से; जीवन के लिए भी धन्यवाद दोगे परमात्मा को, मृत्यु के लिए भी; बस, उस दिन जानना कि तुम्हारे भीतर तप का आविर्भाव हुआ है। सत्य है अपने स्वयं की शून्यता का, मौन का, निर्विचार का, निर्बीज अवस्था का अनुभव। और तप है, बाहर जो जीवन फैला है, उसे सम-भाव से देखने की दृष्टि।
फिर तीसरा शब्द है, सम्यक ज्ञान। यह शब्द यूं तो हिंदू शास्त्रों में पाया जाता है, मुंडकोपनिषद में है; बौद्ध शास्त्रों में पाया जाता है; जैन शास्त्रों में पाया जाता है; लेकिन जैनों ने इस शब्द पर अपनी आधारशिला रखी है; उन्होंने इसे बहुमूल्य माना है। लेकिन अगर जैन पंडित से पूछोगे, तो सम्यक ज्ञान का अर्थ होता है, जो ज्ञान जैन शास्त्र में है वह सम्यक ज्ञान! जो ज्ञान जैन शास्त्र में नहीं, किसी और शास्त्र में है, वह असम्यक ज्ञान! जैन शास्त्र--शास्त्र; अजैन शास्त्र--कुशास्त्र! जैन गुरु--गुरु; अजैन गुरु--कुगुरु! जैन मंदिर में बैठी प्रतिमा सुदेव; किसी और मंदिर में बैठी प्रतिमा कुदेव!
इतने अदभुत शब्द को, इतने प्यारे शब्द को ऐसा बिगाड़ा, ऐसा गंदा किया!
सम्यक ज्ञान का अर्थ होता है, ठीक-ठीक जानना। सम्यक शब्द का अर्थ होता है, ठीक। जैसा है वैसा जानना। एक ही शर्त पूरी करनी जरूरी है। जैन होना जरूरी नहीं है। हिंदू या मुसलमान होना जरूरी नहीं है। एक शर्त पूरी करनी जरूरी है। और उस शर्त में--तुम बड़े चकित होओगे--तुम्हें जैन होना, बौद्ध होना, हिंदू होना, मुसलमान होना छोड़ना होगा। अगर सम्यक ज्ञान को पाना है, तो तुम्हें वे सारी धारणाएं छोड़ देनी होंगी, जो तुम्हारे ज्ञान को सम्यक नहीं होने देतीं।
जब तुम पहले से ही कोई धारणा लेकर चलते हो, तो तुम उसे कैसे देखोगे जो है! तुम तो वही देखोगे, जो तुम देखना चाहते हो। तुम्हारी आंखों पर तो एक पर्दा है। तुम्हारी आंखों में तो एक चित्र रमा है, एक चित्र बसा है, उसी चित्र के आधार से तुम यथार्थ को देखोगे। ऐसा देखना, असम्यक ज्ञान। अगर कुरान बीच में आ जाए, या गीता, महावीर या बुद्ध, तो तुम जो जानोगे वह असम्यक ज्ञान।
कोई बीच में न आए; तुम सीधा-सीधा जानो। जानने की क्षमता तुम्हारी निर्मल हो, स्वच्छ हो--किसी पूर्वाग्रह से आच्छादित नहीं, किसी पूर्व-धारणा से भरी नहीं--दर्पण की तरह हो; जो सामने आए, उसे झलका दे; जैसा है, वैसा झलका दे। यूं न कहे कि इस शक्ल को मैं न दिखाऊंगा, क्योंकि यह शक्ल सुंदर नहीं!
कहते हैं, बाबा तुलसीदास को कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया, तो उन्होंने झुकने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, मैं नहीं झुकूंगा। मैं तो धनुर्धारी राम के सामने ही झुकता हूं। कहा उन्होंने कृष्ण से, तुलसी माथ तब नवै--शर्त लगा दी कि यह तुलसीदास का जो माथा है, तब झुकेगा--धनुष-बाण लेउ हाथ। जब हाथ में धनुष-बाण लोगे, तो यह माथा झुकेगा!
इसमें छिपे हुए अहंकार को देखते हैं! यह माथा भी सशर्त झुकेगा। पहले मेरी शर्त पूरी करो। तुम्हारे लिए नहीं झुकूंगा; मेरी शर्त पूरी होगी तो झुकूंगा। और मेरी शर्त है कि धनुष-बाण हाथ लो।
कृष्ण में क्या खराबी थी? बांसुरी में क्या बुराई थी? धनुष-बाण से तो बेहतर है। धनुष-बाण से तो ज्यादा विकसित है। धनुष-बाण से तो बहुत प्यारी है।
मगर नहीं; अपनी धारणा है। और यह कुछ तुलसीदास का ही रोग नहीं है। यह पीलिया सभी की आंखों पर छाया हुआ है।
मैं छोटा था। जैन घर में मैं पैदा हुआ। मेरे संगी-साथी तो हिंदू थे। उनके साथ मैं मंदिर जाता। तो मुझसे उम्र में बड़े जो जैन लड़के थे, वे मुझसे कहते, माथा मत झुकाना! ये अपने भगवान नहीं! यह हिंदू मंदिर है। यह कोई जैन मंदिर नहीं। और जब हिंदू बच्चों के साथ मैं कभी जैन मंदिर पहुंच जाता, तो वे कोई भी सिर न झुकाते! वे कहते, ये नागा बाबा! नंग-धड़ंग बैठे हैं! इनके सामने क्या सिर झुकाना! वे हंसी-मजाक उड़ाते।
यह छोटे बच्चों की ही बात होती, तो क्षम्य थी; बड़े बच्चों में भी कुछ फर्क नहीं है। उम्र ही ज्यादा है; बच्चे वही के वही!
तुम किसी जैन मुनि को ले जाओ कृष्ण के मंदिर में, सिर नहीं झुकाएगा। कुदेव के सामने सिर झुके! तुम ले जाओ किसी हिंदू संन्यासी को, वह महावीर के सामने सिर नहीं झुकाएगा। क्योंकि महावीर तो नास्तिक! बुद्ध के सामने सिर नहीं झुकाएगा। बुद्ध तो भ्रष्ट करने वाले! इन्होंने ही तो देश को बर्बाद कर दिया! इन्होंने ही तो भ्रष्टाचार के बीज बोए!
तुम मस्जिद के सामने से गुजरते हो, तुम्हारे मन में कभी भाव उठता है कि झुक जाओ, कि जाकर दो क्षण भीतर आराधना कर लो, प्रार्थना कर लो! सवाल ही नहीं उठता। और झाड़ के नीचे किसी ने पत्थर पर लाल रंग पोत दिया है, दो फूल रख दिए हैं, एकदम घुटने टेक कर हनुमानजी का चालीसा शुरू! मुसलमान को कुछ नहीं होता वहां।
तुम्हारी अपनी धारणाएं आंखों पर छाई रहती हैं, उन्हीं से तुम देखते हो। इसलिए कुछ का कुछ देखते हो; जो है वैसा ही नहीं देखते। दर्पण की तरह जो हो जाए, वह सम्यक ज्ञान को उपलब्ध होता है। दर्पण का कोई आग्रह नहीं होता, निराग्रही होता है। दर्पण के सामने सुंदर चेहरे वाला व्यक्ति खड़ा हो तो, असुंदर खड़ा हो तो; धनुष-बाण लिए हुए राम खड़े हों तो, और बांसुरी बजाते कृष्ण खड़े हों तो, और नग्न महावीर खड़े हों तो; कोई भेद न पड़ेगा। दर्पण तीनों को झलकाएगा, सम-भाव से झलकाएगा।
सम्यक ज्ञान का अर्थ होता है, ठीक-ठीक जानना। और ठीक-ठीक जानने के लिए जरूरी है शास्त्रों से मुक्ति, सिद्धांतों से मुक्ति, धारणाओं से मुक्ति, पूर्वाग्रहों से मुक्ति। जब तुम यह सारा कचरा अलग कर दोगे--न हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन--तब तुम सम्यक ज्ञान को उपलब्ध हो सकोगे।
लेकिन सारी दुनिया अपने-अपने कचरे को पकड़े हुए है, जोर से पकड़े हुए है। मेरा कचरा सोना; तुम्हारा सोना कचरा! मेरा है, इसलिए सोना होना ही चाहिए!
सम्यक ज्ञान जैसा प्यारा शब्द अपनी सारी गरिमा खो दिया।
और ब्रह्मचर्य से तुम क्या अर्थ लेते हो? जब यह शब्द तुम्हारे कान में पड़ता है तो तुम्हारे भीतर क्या अर्थ उमगते हैं? तो ब्रह्मचर्य से तुम्हारी धारणाएं बड़ी अजीब हैं।
मेरे एक मित्र थे, लाला सुंदरलाल। उनके लिए ब्रह्मचर्य का अर्थ था, लंगोट के पक्के! वही अधिकतर लोगों का अर्थ है, लंगोट के पक्के! कस कर लंगोट बांधा, तो ब्रह्मचर्य!
तुम कितने ही कस कर लंगोट बांध लो, इससे कुछ ब्रह्मचर्य नहीं हो जाएगा! ब्रह्मचर्य सिर्फ कामवासना का दमन नहीं है, कामवासना का रूपांतरण है। और दोनों में जमीन-आसमान का भेद है। जो कामवासना को दबाएगा, वह तो रुग्ण हो जाएगा। ब्रह्मचर्य को तो क्या उपलब्ध होगा, वह तो सामान्य, नैसर्गिक वासना से भी नीचे गिर जाएगा। वह तो और भी विकृत हो जाएगा। उसके जीवन में तो हजार तरह की विकृतियां आ जाएंगी। हां, यह भी हो सकता है कि तुम उन विकृतियों को भी पूजा देने लगो! विकृतियां भी पूजी जा रही हैं!
दबाया अगर तुमने अपनी कामवासना को, तो वह उभर कर निकलेगी। हां, नए-नए ढंग से निकलेगी कि तुम पहचान न सको। नई शक्लें लेगी, नए वस्त्र पहनेगी और निकलेगी।
अभी मोरारजी देसाई ने चार-छह दिन पहले ही एक वक्तव्य में कहा कि जब मैं प्रधान मंत्री था और कैनेडा गया...। तो उनकी उम्र करीब तेरासी वर्ष थी तब। तेरासी वर्ष की उम्र में भी उनको कैनेडा में देखने योग्य चीज क्या अनुभव में आई? वह था नाइट क्लब, जहां कैबरे नृत्य होता है, स्त्रियां अपने वस्त्र उघाड़-उघाड़ कर फेंक देती हैं, धीरे-धीरे नग्न हो जाती हैं।
कारण क्या देते हैं वे? कि मैं जानना चाहता था कि नाइट क्लब में होता क्या है!
मगर जान कर तुम्हें जरूरत क्या? तेरासी वर्ष की उम्र में तुम्हें यह उत्सुकता क्या? कि वहां क्या होता है! होने दो। इतनी बड़ी दुनिया है, इतनी चीजें हो रही हैं! कैनेडा में और कुछ नहीं हो रहा था, सिर्फ नाइट क्लब ही हो रहे थे? कैनेडा में कुछ और देखने योग्य न लगा? नाइट क्लब! और वह भी चोरी से गए! चोरी से भी जाने योग्य लगा! क्योंकि पता चल जाए कि नाइट क्लब में गए हैं, कैबरे नृत्य देखने गए हैं, तो बदनामी होगी। और मोरारजी देसाई तो महात्मा समझो! ऋषि-मुनि हैं!
मगर उन्होंने यह बात अब क्यों कही? अब कही, उसके पीछे और कारण है। गुजरात विद्यापीठ के विद्यार्थियों के सामने वे अपने ब्रह्मचर्य की घोषणा कर रहे थे, उसमें यह बात भी कह गए, कि मेरा ब्रह्मचर्य वहां भी डिगा-मिगा नहीं! तेरासी वर्ष की उम्र में कैबरे नृत्य देखने गए, ब्रह्मचर्य डिगा नहीं उनका! यह तो यूं हुआ कि कब्र में कोई पड़ा हो, और चारों तरफ कैबरे नृत्य होता रहे, और कब्र में पड़ा हुआ महात्मा कहे, अरे नाचते रहो! मैं अपने ब्रह्मचर्य में पक्का, लंगोट का पक्का! ऐसा कस कर लंगोट बांधा है कि क्या तुम मुझे हिलाओगे!
तो उन्होंने बड़ा रस लेकर वर्णन किया है! कि जैसे ही मैं अंदर गया, चार सुंदर स्त्रियां, जो मुझे पहचान गईं, क्योंकि अखबारों में उन्होंने तस्वीर देखी होगी, आकर एकदम मेरे पास नाचने लगीं, हाव-भाव प्रकट करने लगीं। मगर मैं भी बिलकुल संयम साधे, नियंत्रण किए, अडिग खड़ा रहा!
अब यह संयम साधना, और यह अडिग खड़े होना, और यह नियंत्रण को बनाए रखना--यह सब किस बात का सबूत है?
अभी भी वही सब रोग भीतर छाए हुए हैं--अभी भी! कहीं कुछ भेद नहीं पड़ा! नहीं तो नियंत्रण की भी क्या जरूरत थी? यह इतना संयम बांधने की भी क्या जरूरत थी? अरे, नाचती थीं, तो नाचने देना था! बैठते और प्रसन्न होते। अगर नाच अच्छा था, तो प्रशंसा करनी थी। या कम से कम कुछ न बनता तो थोड़ा नाचते! मगर बिलकुल खड़े रहे अपने को सम्हाले हुए! कि कहीं पैर फिसल न जाए!
पैर फिसलने का डर? ये विकृतियां हैं। फिर आदमी विकृतियों से निकलता है...।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने बेटे फजलू से कहा कि देख, गांव में एक गंदी फिल्म लगी हुई है। अश्लील है। कभी देखने मत जाना। ऐसे गंदे स्थान में कभी जाना ही मत। जाएगा तो बहुत पछताएगा!
फिर फजलू मुझसे कह रहा था कि मैं गया और बहुत पछताया। पिताजी ने ठीक कहा था कि बहुत पछताएगा।
मैंने कहा, हुआ क्या?
उसने कहा, हुआ यह कि पिताजी ने जो कहा था, सब ठीक निकला। उन्होंने दो बातें कही थीं। एक तो ऐसी चीजें देखने मिलेंगी, जो नहीं देखनी चाहिए। और दूसरा कि बहुत पछताएगा। दोनों बातें हुईं।
मैंने कहा, फिर भी मैं समझूं कि क्या-क्या हुआ!
उसने कहा, पहली बात तो यह हुई कि पिताजी वहां देखने को मिले! उन्होंने कहा था कि ऐसी चीजें देखने मिलेंगी, जो नहीं देखनी चाहिए! और दूसरा, मुझे देखते ही से उन्होंने पिटाई की कि तू यहां क्यों आया! सो बहुत पछताया भी। हालांकि पिटते हुए मैंने इतना जरूर पिताजी से पूछा कि आप क्यों यहां आए? तो उन्होंने कहा, मैं तुझे देखने आया! कि कहीं फजलू गया तो नहीं है!
क्या-क्या मजे दुनिया में चलते हैं! फजलू को देखने गए थे, ये फिल्म में बैठे हुए हैं! लोग फिर बहाने खोजेंगे। फिर क्या-क्या बहाने नहीं खोजते हैं!
जैसे ही व्यक्ति दमन करेगा, वैसे ही उसके भीतर जो दमित वेग हैं, वे पीछे के दरवाजों से रास्ते बनाने लगेंगे। उस व्यक्ति के जीवन में दोहरापन पैदा हो जाएगा; या अनेकता पैदा हो जाएगी। उसके बहुत चेहरे हो जाएंगे। वह खंड-खंड हो जाएगा। कहेगा कुछ, करेगा कुछ, सोचेगा कुछ, सपने कुछ देखेगा। उसके जीवन में विकृति ही हो जाएगी। उसके जीवन की एकता खंडित हो जाएगी।
ब्रह्मचर्य का यह अर्थ नहीं है। ब्रह्मचर्य शब्द में ही अर्थ छिपा हुआ है: ब्रह्म जैसी चर्या; ईश्वरीय आचरण; दिव्य आचरण। दमित व्यक्ति का आचरण दिव्य तो हो ही नहीं सकता। अदिव्य हो जाएगा; पाशविक हो जाएगा। पशु से भी नीचे गिर जाएगा।
दिव्य आचरण तो एक ही ढंग से हो सकता है कि तुम्हारे भीतर जो काम की ऊर्जा है, वह ध्यान से जुड़ जाए। ध्यान और काम तुम्हारे भीतर जब जुड़ते हैं तो ब्रह्मचर्य फलित होता है। ब्रह्मचर्य फूल है ध्यान और काम की ऊर्जा के जुड़ जाने का। ध्यान अगर अकेला हो और उसमें काम की ऊर्जा न हो, तो फूल कुम्हलाया हुआ होगा; उसमें शक्ति न होगी। और अगर काम अकेला हो, उसमें ध्यान न हो, तो वह तुम्हें पतन के गर्त में ले जाएगा।
काश! ये दोनों जुड़ जाएं, ध्यान और काम। काम है शरीर की शक्ति और ध्यान है आत्मा की शक्ति। और जहां ध्यान और काम जुड़े, वहां आत्मा और शरीर की शक्ति जुड़ गई। फिर तुम इस महान ऊर्जा के आधार पर उस अंतिम यात्रा पर निकल सकते हो, जो ब्रह्म की यात्रा है। तब तुम्हारे जीवन में ब्रह्मचर्य होगा।
खंडित व्यक्ति की तो प्रतिभा भी नष्ट हो जाती है। इसलिए तो मोरारजी देसाई जैसे लोगों के पास प्रतिभा नाम-मात्र को नहीं है! हो ही नहीं सकती। बुद्धि से तो इनकी दुश्मनी हो जाती है। तुम्हारे तथाकथित महात्माओं को तुम देखो, इनके भीतर तुम बुद्धि न पाओगे। इनको तुम बिलकुल बुद्धू पाओगे। मगर ये तुम्हें बुद्धू दिखाई नहीं पड़ते, क्योंकि तुम्हारी धारणा यह है कि देखो, उपवास कर रहे हैं!
अब उपवास से बुद्धि का क्या संबंध? बुद्धिमान आदमी उपवास करेगा ही क्यों? जितनी जरूरत होगी, उतना भोजन करेगा। न ज्यादा भोजन करेगा, न कम भोजन करेगा। बुद्धिमान आदमी तो हमेशा समता से जीएगा। शरीर की जरूरत है, उतना भोजन देगा। ज्यादा नहीं देगा, क्योंकि ज्यादा शरीर पर बोझ होता है। कम भी नहीं देगा, क्योंकि कम शरीर की हत्या करना है। बुद्धिमान व्यक्ति उतना देगा, जितना आवश्यक है। उतना सोएगा, जितना आवश्यक है। उतना श्रम करेगा, जितना आवश्यक है। ये तो बुद्धुओं के लक्षण हैं। या तो कम खाएंगे, या ज्यादा खाएंगे! या तो कम सोएंगे, या ज्यादा सोएंगे! या तो कम श्रम करेंगे, या ज्यादा श्रम करेंगे! कभी मध्य में न हो पाएंगे।
गांव में एक प्रसिद्ध नेताजी का भाषण होने वाला था। वे सभा-स्थल पर पहुंचे तो देखा, वहां सिर्फ एक ही श्रोता बैठा था! नेताजी ने उससे पूछा, अब क्या करना चाहिए?
जैसा आप ठीक समझें, उसने उत्तर दिया। मैं एक मामूली किसान हूं और यह जानता हूं कि जब मैं बीस गायों को चारा डालने जाता हूं, और यदि वहां सिर्फ एक गाय भी हो, तो मैं उसे बिना चारा दिए लौट नहीं आता!
उसके उत्तर से प्रभावित हो नेताजी ने भाषण दिया। एक घंटे बाद जब उनका धुआंधार भाषण समाप्त हुआ, तो नेताजी ने ग्रामीण से पूछा, कहो भाई, कैसा रहा?
बहुत सुंदर, किसान बोला, लेकिन मैं तो एक मामूली किसान हूं, और सिर्फ यह जानता हूं कि बीस गायों की जगह मुझे यदि एक गाए मिले, तो मुझे उसको सब का चारा नहीं खिला देना चाहिए! और आपने यही किया कि गाय तो एक, और बीस गायों का चारा मुझ गरीब को खिला दिया! बस, भागी-भागी तबीयत रही कि कब भागूं! मगर अकेला हूं, भाग भी नहीं सकता! अब आपकी आंखें भी मुझी पर गड़ी हुई हैं! कई बहाने खोजे, मगर कोई बहाना हाथ न आए! अच्छा भी न लगे कि अब अकेला ही आदमी। मैं ही भाग जाऊं, तो फिर भाषण कैसे चलेगा! और नेताजी क्या सोचेंगे! बुरा इनके मन को न लग जाए। मगर इतना कहता हूं कि आगे जरा खयाल रखें। जब गाय एक हो, तो बीस गाय का घास उसके सामने न डालें!
एक साधारण किसान में भी ज्यादा बुद्धि होती है तुम्हारे नेताओं से। फिर चाहे वे नेता धार्मिक हों और चाहे राजनैतिक, कुछ भेद नहीं है उनमें।
तुम उनको नेता ही किसलिए कहते हो? तुम्हारे नेता कहने के भी कारण बड़े अजीब होते हैं! कोई चरखा चलाता है, हाथ की बनाई हुई खादी पहनता है, नेता हो गया! कोई उपवास करता है, दोत्तीन घंटे शीर्षासन करता है, महात्मा हो गया! इसमें बुद्धिमत्ता का कहीं भी कोई संबंध है? चरखा चलाने में कोई बहुत बुद्धिमत्ता की जरूरत है? थोड़ी-बहुत पहले रही भी हो, तो चरखा चलाते-चलाते नष्ट हो जाएगी। चरखा चलाओगे, चरखा ही हो जाओगे! बस, खोपड़ी में वही चरखा घूमता रहेगा! और कुछ तो और भी पहुंचे हुए हैं, तकली चला रहे हैं! बैठे-बैठे तकली ही घुमाते रहते हैं!
तुम जिनको धार्मिक कहते हो, जिनको तुम महात्मा कहते हो, कभी सोचो भी, इनके भीतर कहीं भी कोई प्रतिभा का लक्षण दिखाई पड़ता है? कोई मेधा दिखाई पड़ती है? और अगर मेधा ही न हो, तो ब्रह्मचर्य नहीं है, यह समझ लेना। क्योंकि ब्रह्मचर्य का और क्या सबूत हो सकता है? सबसे बड़ा सबूत होगा प्रतिभा की अभिव्यक्ति; प्रतिभा के हजार-हजार फूल खिल जाना; प्रतिभा के कमल खुल जाना; प्रतिभा की सुगंध उड़ जाना। उनके कृत्य में भी प्रतिभा होगी, उनके उठने-बैठने में, चलने-फिरने में भी। इसलिए चर्या! चलना-फिरना, उठना-बैठना, उनके जीवन के हर एक कृत्य में तुम एक धार पाओगे, एक चमक पाओगे, एक ओज पाओगे।
लेकिन तुम्हारे धार्मिक नेताओं की जिंदगी में तुम जंग लगी पाओगे। और जितनी ज्यादा जंग चढ़ी हो उन पर, उतने ही तुमको वे जंचेंगे! क्योंकि तुम्हारी धारणाएं, तुम्हारी मान्यताएं...।
अब कोई आदमी खड़ा है दस साल से। खड़ेश्री बाबा हो गए वे!
अब दस साल से खड़े हो, इससे क्या प्रतिभा का लेना-देना है? दुनिया में कौन सा सौंदर्य बढ़ रहा है तुम्हारे खड़े होने से? कौन सी संपदा बढ़ रही है? कौन सा सुख बढ़ रहा है? कौन सी शांति बढ़ रही है? मगर भक्तगणों की भीड़ लगी हुई है, भजन-कीर्तन चल रहा है, क्योंकि खड़ेश्री बाबा दस साल से खड़े हैं! दस साल से नहीं, दस हजार साल से खड़े हों, इनके खड़े होने से क्या होता है! ये खड़े-खड़े ठूंठ हो गए हों, तो भी क्या होता है!
या कोई मौन हो गया!
मेरे एक मित्र हैं; मेरे साथ एक बार कलकत्ता यात्रा पर गए। रास्ते में यूं बात कर रहे थे। एक मौनी बाबा थे, उनके वे भक्त थे। मैंने उनसे पूछा कि मौनी बाबा में तुम्हें क्या खास बात दिखाई पड़ती है?
अरे, उन्होंने कहा, खास बात! आज बीस साल से मौन हैं!
मैंने कहा, इसमें तो कुछ खास बात नहीं। मौन होने से क्या होना है? मौन होने से उनकी प्रतिभा में क्या निखार आ गया है? मौन होने से उनके जीवन में कौन से दीए जल गए हैं? अगर वे बुद्धू थे बीस साल पहले, तो मौन होने से और बुद्धू हो गए होंगे!
उन्होंने कहा, अरे, आप भी कैसी बात करते हैं! अगर वे बुद्धू होते, तो इतने लोग उनको कैसे पूजते? कोई मैं अकेले ही पूजता हूं। कितने लोग पूजते हैं!
अब, मैंने कहा, यह दूसरी बात तुम उठा रहे हो। उन दूसरों से मैं पूछूंगा तो वे कहेंगे कि कितने लोग पूजते हैं। उसमें तुम्हारी गिनती करेंगे। तो तुम दूसरों को देख कर पूज रहे हो!
मैंने कहा, तुम एक काम करो। मेरे साथ तुम कलकत्ता चल ही रहे हो, तुम तीन दिन मौन रह जाओ। और मैं देखो तुम्हारी पूजा करवा दूंगा।
उन्होंने कहा, आप क्या कहते हैं! मेरी कौन पूजा करेगा? मुझमें कुछ है ही नहीं!
मैंने कहा, तुम चुप तो रहो। तीन दिन चुप रहना। और पूरा भी नहीं कहता, रात जब सब चले जाएं, दरवाजा बंद करके, तुम्हें जो भी मुझसे कहना हो, कह लेना। क्योंकि दिन भर रुके रहोगे, घबड़ा जाओगे। दुकानदार आदमी हो, चौबीस घंटे बात करते हो। तो रात एकांत में तुम मुझसे बोलने की स्वतंत्रता रखना। मगर दिन में, लाख कुछ हो जाए, अपने को बिलकुल बांधे ही रखना। बोलना ही मत। कुछ अगर बोलना ही होगा तुम्हारे लिए, तो मैं बोल दूंगा।
कहा, जैसी आपकी मर्जी। उनको बात जंची, कि करके देख लेने जैसी है।
कलकत्ते में मैं ठहरता था सोहनलाल दूगड़ के घर पर। वे कलकत्ता के एक बड़े करोड़पति थे। जब मैं उनके घर पहुंचा, वे मुझे लेने आए, तो उन्होंने पूछा कि आपके साथ कौन हैं?
मैंने कहा, ये मौनी बाबा हैं।
मौनी बाबा! इनकी क्या खूबी है?
मैंने कहा, ये तीस साल से मौन हैं!
वे एकदम उनके पैरों पर गिरे! वे बेचारे सज्जन, जो दुकानदारी करते थे, कपड़ा बेचते थे; और कपड़ा भी कुछ खास नहीं, कटपीस की एक छोटी सी दुकान थी। सोहनलाल दूगड़ जैसा करोड़पति उनके पैरों पर गिरे! सकुचाए भी। मैंने उनको इशारा किया कि सकुचाना मत। अब जब मौनी बाबा बन गए, तो अब डरना मत। अभी तो बहुत कुछ होगा; यह तो शुरुआत है। जब सोहनलाल दूगड़ तुम्हारे पैर में गिरेंगे, तो अभी तुम कलकत्ते के सब मारवाड़ियों को गिरते देखोगे। तुम घबड़ाते क्या हो; तुम रुको जरा।
वे तो इतने घबड़ा गए कि वे मुझे हाथ से धक्का मारें कि भैया, यह बात ठीक नहीं!
घर पहुंचे। सोहनलाल ने जल्दी से अपनी पत्नी को बुलाया कि मौनी बाबा! मोहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए कि मौनी बाबा आए हैं! तीस साल से मौन हैं! और मौनी बाबा पर जो गुजर रही है, वह मैं जानूं! कि वे रात का वक्त देख रहे हैं कि कब रात आए, कि अपने दिल की मुझसे कहें!
जैसे ही रात आई, दरवाजा जल्दी से बंद करके मेरे पैरों पर गिर पड़े और कहा कि मुझे माफ करो। मुझे यह काम करना ही नहीं! मुझे जाने दो! मैं तो अभी भागे जाता हूं; रात को ही चुपचाप निकल जाऊंगा। यह क्या झंझट मेरे पीछे लगा दी! इतने-इतने बड़े लोग, जिनके घर मुझे अगर मिलने भी जाना होता, तो कोई मिलने नहीं देता। चपरासी भीतर नहीं घुसने देता। और वे मेरे पैर पर गिरते हैं तो मुझको बड़ा संकोच लगता है! और स्त्रियां उनकी, सुंदर से सुंदर स्त्रियां मेरे पैर छू रही हैं! यह क्या करवा रहे हो आप?
मैंने कहा, मैं कुछ नहीं करवा रहा हूं। यह मैं तुमको बता रहा हूं कि कैसी-कैसी बेवकूफियां इस देश में हैं। तुम भी उन्हीं बेवकूफों में हो! जिसकी तुम बीस साल से पूजा कर रहे हो...। और तुम तो अभी सिर्फ पांच-छह घंटे ही मौन रहे हो, तो यह चमत्कार! अभी तुम तीन दिन रुको तो! अभी तुम देखना, इलाज शुरू हो जाएंगे, बीमारियां ठीक होने लगेंगी।
अरे, उन्होंने कहा, आप क्या कह रहे हैं! मुझमें कुछ चमत्कार नहीं, कोई शक्ति नहीं!
तुम, मैंने कहा, फिक्र ही मत करो। सब आ जाएगा। मौन भर रहो। और दिन भर रहो मौन। मगर दिन में बोलना मत। और मुझको धक्के वगैरह भी मत मारना। क्योंकि लोगों को शक पैदा हो जाएगा कि बात क्या है! तुम तो अपना आंखें बंद कर लिए। अगर बिलकुल सहने के बाहर हो जाए, आंख बंद कर लिए। अपने भीतर ही भीतर नमोकार मंत्र पढ़ने लगे कि होने दो जो हो रहा है।
तीन दिन में तो उनकी डुंडी पिट गई! अखबारों में फोटो आ गए! रात को वे मुझे फोटो दिखाएं कि यह क्या करवा रहे हो? अगर मेरे घर पता चल गया; अगर मेरे पत्नी-बच्चों को पता चल गया; तुम तो मेरा घर लौटना तक बंद कर दोगे! ये अखबार अगर वहां पहुंच गए, तो मेरी मुसीबत हो जाएगी। और फिर मेरी दुकान की भी तो सोचो! और इधर मैं कटपीस खरीदने आया हूं; तुम नाहक रास्ते में मिल गए! अब मैं कटपीस कहां खरीदूंगा? यह कलकत्ते का बाजार तो खत्म! क्योंकि जिनके यहां से मैं कटपीस खरीदता था, वे लोग भी मेरे पैर छू रहे हैं! और कई तो मुझे गौर से देखते भी हैं कि यह शक्ल कुछ पहचानी मालूम होती है!
एक-दो आदमियों ने प्रश्न भी किया कि ये तीस साल से मौन हैं? यह शक्ल कुछ पहचानी मालूम होती है!
मैंने कहा, देखा होगा किसी पिछले जनम में! अरे, यह जनम-जनम का नाता है।
उन्होंने कहा, यह बात ठीक!
ये कोई साधारण साधक हैं! ये तो जन्मों से साधना कर रहे हैं। कई बार तुम मिले होओगे पिछले जन्मों में, इसलिए शक्ल पहचानी लगती है।
उन्होंने कहा, हां, लगती तो पहचानी सी है शक्ल। मतलब कहीं देखा है। और ऐसा भी नहीं लगता कि पिछले जन्म में देखा है; इसी जनम में देखा है।
मैंने कहा, ये बड़े पहुंचे हुए पुरुष हैं। ये एक ही साथ कई नगरों में एक साथ प्रकट हो जाते हैं!
वे मुझे हुद्दे मारें कि मत ऐसी बातें कहो! मेरी कमीज खींचें कि मत कहो भैया, ऐसी बातें मत कहो! ये बिलकुल झूठ बातें हैं।
मगर लोग मान रहे हैं! मिठाइयां आने लगीं; फल आने लगे। वे रात मुझको कहें कि क्या करवा रहे हो? इतनी मिठाइयां-फल मैं कहां ले जाऊंगा?
मैंने कहा, तुम ले जाना। घर बाल-बच्चों को, मोहल्ले में बंटवा देना।
स्टेशन पर जब उनको लोग छोड़ने आए...कटपीस तो वे खरीद ही नहीं पाए। क्योंकि अब कहां कटपीस खरीदें! और कोई देख ले कटपीस खरीदता, कि मौनी बाबा कटपीस खरीद रहे हैं!
रास्ते भर मुझ पर नाराज रहे कि और सब तो ठीक, मगर कलकत्ते का बाजार खराब करवा दिया! अब मैं कलकत्ता कभी न जा सकूंगा!
मैंने उनसे कहा, तुम घबड़ाओ मत। तुम एक काम करो, दाढ़ी बढ़ा लो। अगली बार जब कलकत्ता जाओ, दाढ़ी-मूंछ बढ़ा कर चले जाना।
हां, उन्होंने कहा, यह बात जंचती है।
मैंने कहा, फिर वे लोग कहेंगे कि देखा है कहीं! तो कहना, अरे देखना वगैरह तो चलता रहता है। कई लोगों की शक्लें एक जैसी होती हैं। और न हो, तो मैं साथ आ जाऊं।
उन्होंने कहा, नहीं, आपके तो साथ आने की कोई जरूरत ही नहीं। आपके साथ तो मैं अब कभी कहीं जाऊंगा नहीं! अगर ट्रेन में मुझे पता भी चल गया कि आप सफर कर रहे हो, तो उस ट्रेन से उतर जाऊंगा।
और मेरे पैर पकड़ कर कहने लगे, इतनी कृपा करो कि ट्रेन में किसी को खबर न हो! मतलब ये ट्रेन के लोग तो जबलपुर भी जाएंगे मेरे साथ ही। अगर वहां तक खबर पहुंच गई, तो सब चौपट समझो! मेरी पत्नी मुझे मुश्किल में डाल देगी कि तुमसे किसने कहा था कि तुम मौनी बाबा बनो? और तुम कहां से तीस साल मौनी बाबा रहे? तीन दिन के लिए घर से गए, और तीस साल मौनी बाबा हो गए!
फिर दुबारा जब मैं कलकत्ता जाता था, तो लोग उनकी जरूर पूछते थे कि मौनी बाबा नहीं आए? कब आएंगे? मैंने कहा, आएंगे! जरूर आएंगे! उनको स्वागत-सत्कार ज्यादा पसंद नहीं। वे बहुत नाराज हो गए हैं कलकत्ते से! इतना धूम-धड़ाका उनको बिलकुल पसंद नहीं। वे बहुत सीधे-सादे आदमी हैं; मौन, एकांतवास करते हैं।
तुम जिनकी पूजा करते हो, जिनको महात्मा कहते हो, उसमें तुम्हारी धारणाएं ही भर काम कर रही हैं। तुम आंख खोल कर देखते भी नहीं।
ब्रह्मचर्य घटित होगा, तो अपूर्व ज्योति प्रकट होगी। वही इस सूत्र का अर्थ है:
      "सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा
           सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्।'
यह आत्मा अभी मिल जाए, मिली ही हुई है। बस, इतना ही चाहिए कि तुम सत्य को जान लो शून्य में। जीवन के सुख-दुख में सम-भाव रखो। तप को पहचान लो। कूड़ा-करकट, उधार ज्ञान हटा दो, ताकि जो जैसा है, उसे वैसा ही देख सको। सम्यक ज्ञान फलित हो। और तुम्हारे भीतर जो शरीर की ऊर्जा है, काम-ऊर्जा, और जो तुम्हारी आत्मा की ऊर्जा है, ध्यान-ऊर्जा--काम और ध्यान का मिलन हो जाए। काम और राम का तुम्हारे भीतर मिलन हो जाए, तो बस, यह आत्मा अभी मिली, इस क्षण मिली।
"अंतःशरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो।'
तत्क्षण तुम जान सकोगे कि इसी शरीर में, इसी शरीर के भीतर वह ज्योति छिपी है, जो परम शुभ्र है।
"यं पश्यंति यतयः क्षीणदोषाः।'
ऐसा उन्होंने देखा है, जिन्होंने सारे दोषों से अपने को मुक्त कर लिया है।
और ये ही वे दोष हैं। विचार दोष है; इसके कारण तुम शून्य नहीं हो पाते। चुनाव दोष है; उसके कारण तुम सम नहीं हो पाते। उधार ज्ञान दोष है; उसके कारण तुम्हारी दृष्टि ठीक-ठीक निर्मल नहीं हो पाती। और दमन दोष है; उसके कारण तुम शरीर में छिपी हुई ऊर्जा को आत्मा का वाहन नहीं बना पाते।
नहीं तो शरीर की ऊर्जा अश्व की भांति है। तुम उस पर सवार हो जाओ, उसके मालिक हो जाओ। और तुम जान लोगे अपने भीतर छिपे हुए उस परम आलोक को, जिसका न कोई प्रारंभ है और न कोई अंत; जो शाश्वत है। उसे जिसने जाना, सब जाना। उसे जिसने जीता, उसने सब जीता।


 दूसरा प्रश्न: भगवान, आपने तो कहा कि आचार्य तुलसी एंड कंपनी की चोरी-चपाटी को क्षमा कर दें। लेकिन चोरी क्षमा भी कर दें, सीनाजोरी नहीं सही जाती। आपके ही विचार चुराते हैं और फिर आपका ही विरोध भी क्यों करते हैं?

 विनय तीर्थ!
मेरे विचार चुराएंगे तो मेरा विरोध करना ही होगा। इसमें विरोध नहीं है दोनों बातों में। ये दोनों बातें एक ही तर्क का अंग हैं। अगर मेरे विचार चुराते हैं तो उन्हें मेरा विरोध करना ही होगा, ताकि यह पता न चल सके कि मेरे विचार चुराते हैं। अगर मेरा विरोध न करें, तब तो तत्क्षण पता चल जाएगा कि मेरे विचार चुराए गए हैं। अगर मेरा समर्थन करें, तब तो तत्क्षण ही जाहिर हो जाएगी बात कि सब उधार पूंजी है।
मैं माना तुम्हारी तकलीफ कि कैसे क्षमा कर दें! लेकिन कोई और उपाय भी तो नहीं। विचार की चोरी को रोका नहीं जा सकता। और ये चोर नए नहीं हैं; यह सदियों से चल रही चोरी है। जो वे सदा से करते रहे हैं, वही वे मेरे साथ करेंगे, वही वे सबके साथ कर रहे हैं।
और इस देश के तो तुम शास्त्रों को उठा कर देखो, तुम बड़े चकित हो जाओगे। वे ही सूत्र एक शास्त्र में मिलेंगे, वे ही सूत्र सैकड़ों शास्त्रों में मिल जाएंगे। तो जरूर चोरी चलती रही है, सदियों से चलती रही है। यह हमारे जीवन का अंग हो गई है।

बस में अपनी जेब कटती देख
यात्री ने शोर मचाया
जेबकतरा उसे पकड़ कर थाने लाया
और थानेदार से बोला--
हुजूर!
यह आदमी शहर में
अव्यवस्था फैलाता है
हमें शांतिपूर्वक जेब नहीं काटने देता
गंवारों की तरह चिल्लाता है!

थानेदार यात्री से बोला--
क्यों जी!
दिल्ली में नए आए हो क्या?
नए नहीं आए तो फिर
भांग खाए हो क्या?
इस शहर में कायदे-कानून नहीं जानते?
जेबकतरों से अकड़ते हो?
अपनी औकात नहीं पहचानते?
यह संभ्रांत जेबकतरा
बिना तुम्हारे शरीर को आघात पहुंचाए
अपना काम कर रहा था
इसे धन्यवाद देने की बजाय चिल्लाते हो?
गांधी के देश में
शांति और अहिंसा का मजाक उड़ाते हो?
अगर यह तुम्हें छुरा भोंक देता,
घोंट देता तुम्हारा गला,
कर लेता अपहरण,
तब क्या कर लेते तुम?
और क्या कर लेते हम?
खुद अपने ऊपर चाकू चलवाते
और दोष पुलिस को लगाते!
फिर ये पढ़े-लिखे जेबकतरे
जेब न काटें तो कहां जाएं?
क्या करें, भूखे मरें?
कुएं में पड़ें? इलेक्शन लड़ें?
डिग्रियों को चबाएं?
सब के सब तो नेता नहीं बन सकते।
भाईजान!
चिल्लाने से आपदाएं नहीं टलतीं
उन्हें आराम से सहना सीखो
शहर में आए हो तो
शहरियों की तरह रहना सीखो
मेरा मुंह क्या देख रहे हो
चलो बगल के कमरे में जाओ
और जेबकतरे जी से
चुपचाप अपनी जेब कटवाओ।

करो भी क्या, विनय तीर्थ! चुपचाप जेब कटवाओ।
और ये उल्लू तो हर जगह मिलेंगे। हर शाख पे उल्लू बैठे हैं! इनसे बचा भी तो नहीं जा सकता, कोई उपाय नहीं है। इनकी जय-जयकार करो!

तेरी जय हो उल्लू भैया! तेरी जय हो उल्लू भैया!
तुम्हीं हो अपने पूज्य पिताजी, तुम्हीं हो मेरी मैया!
                          तेरी जय हो उल्लू भैया!

तुम निर्धन के हो दुश्मन, पूंजीपतियों के चाचा,
जिसने भी आंख दिखाई, झट उसको पड़ा तमाचा!
सब तेरे आगे-पीछे करते हैं तात्ता थैया!
जय हो उल्लू भैया! तेरी जय हो उल्लू भैया!

जितने भी चोर-जुआरी, सब तुम पर हैं बलिहारी
कभी-कभी तो मुझको तुम लगते हो सरकारी,
हो जाए तुम जैसा, तर जाए उसकी नैया!
              तेरी जय हो उल्लू भैया!
हम कवियों से लक्ष्मी जी रहती हैं रूठी-रूठी,
जब से आए धरती पर तब से ही किस्मत फूटी!
भिजवा दो दीवाली पर केवल दो लाख रुपैया!
                 तेरी जय हो उल्लू भैया!

हे लक्ष्मी के वाहन, तुम बहुत-बहुत गुणकारी
तेरे पट्ठों के दम से चलती है दुनिया सारी
हर शाख पे बैठे-बैठे तुम उड़ा रहे कनकैया!
               तेरी जय हो उल्लू भैया!

और करो भी क्या, विनय तीर्थ! इसलिए मैंने कहा, क्षमा करो।

आज इतना ही।



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