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मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

चेत सके तो चेत-(विविध)-प्रवचन-05

प्रवचन-पांचवा-(खोलो नये ऊर्जा द्वार)
दिनांक 11 जून सन् 1969
बडौदा-अहमदाबार, गुजरात।


कोई भी काम टेंशन पैदा कर रहा है, कोई भी काम ऊब पैदा कर रहा है। काम सवाल ही नहीं है। हम कैसे काम को लेते हैं--यह सवाल है। हमारा एटिटयूड क्या है। काम तो सब बोरिंग हैं। रोज रिपिटीटिव हैं। वही तुम्हें फिर करना पड़ेगा--चाहे दफ्तर जाओ, चाहे पढ़ाने जाओ, चाहे फैक्ट्री में जाओ, चाहे मजदूरी करो। रोज वही काम करना पड़ेगा। और एक बंधे हुए घेरे में रोज घूमना पड़ेगा। वह उबाने वाला हो ही जाएगा। पुनरुक्ति ऊबाती है, रिपीटीशन बोर्डम है। इसलिए यह तो सवाल ही नहीं है।
और रोज काम बदलोगे तो जिंदगी मुश्किल में पड़ जाएगी। और रोज-रोज काम बदला, तो बदलना भी रिपिटीटिव हो जाएगा, वह भी उबाने लगेगा। जो भी चीज दोहरने लगेगी, वह उबाने वाली हो जाएगी।

अब दो ही रास्ते हैं। एक रास्ता तो यह है कि इधर ऊबो और इधर ऊब को भुलाने के लिए कुछ करते रहो, जैसे आमतौर से आदमी करता है। दिन भर ऊबता है, शाम को पिक्चर देख लेता है। दिन भर ऊबा, रात को सितार सुन लिया। दिन भर ऊबा, नाच लिया, खेल खेल आया। इधर ऊबा, इधर कुछ कर लिया जिससे कि बैलेंस हो जाए।
मगर इससे कुछ ऊब मिटती नहीं; क्योंकि वह खेल, वह पिक्चर भी रोज नया हो, नहीं तो फिर उबाने वाला हो जाएगा। कोई भी चीज दोहराओगे, तो उबाने वाली हो जाएगी। और रोज नया कैसे करोगे? रोज नया कहां से लाओगे? इसलिए काम तो पुराना ही होगा, लेकिन तुम रोज नये हो सकते हो। तुम भी पुराने, काम भी पुराना--तो ऊब जाओगे। दो उपाय हैं। या तो काम रोज नया हो, तो तुम नहीं ऊबोगे। लेकिन रोज नया काम कैसे संभव है? असंभव है। लेकिन तुम रोज नये हो सकते हो।
इसलिए बहुत गहरे में दृष्टि की बात है। तुम जो काम करते हो, उसमें तुम्हें रोज नया होना चाहिए। हम खुद ही पुराने पड़ जाते हैं। आज तुम क्लास में पढ़ाने जाओगे--वही लड़के होंगे, वही किताब होगी, वही कमरा होगा, लेकिन तुम्हारी एप्रोच आज फिर नई हो सकती है। लेकिन तुम खुद ही नया नहीं करोगे। क्योंकि कल वाला जो तुमने पढ़ाया था, पिछले साल जो पढ़ाया था, वही पढ़ाना तुमको भी सुविधाजनक लगेगा--कि उसी तरह फिर पढ़ा दो और मामला खतम कर दो। कनवीनिएंट भी वही लगेगा--कि अपने को मालूम है, वही पढ़ा दो। तो तुम ऊब जाने वाले हो।
तुम एक कमरे में गए हो, बीस लड़कों का तुमने मुकाबला किया है, वे तुम्हारे सामने खड़े हैं। अब तुम फिर से नया शुरू करते हो।
खाना भी रोज वही खाओगे, लेकिन रोज खाते वक्त तुम नये हो सकते हो। और नये होने के दोत्तीन उपाय हैं। एक उपाय तो यह है कि बीते कल को भूल जाओ। उसको याद रखोगे, तो रिपीटीशन मालूम पड़ेगा। सुबह तुमने जो खाना खाया, सांझ को वही खाओगे। अगर सुबह का खाना भूल ही गया, अब तुम फिर खाने पर इस तरह आ गए हो कि जैसे यह बिलकुल नया है, तो रिपीटीशन का सवाल नहीं है।
दूसरी बात यह है कि जो भी तुम कर रहे हो, उसे अगर तुम पुराना ही मान कर कर रहे हो, तो उसमें रस ले ही नहीं सकते। आज फिर नई थिरक लेकर जाना चाहिए कक्षा में। पता नहीं क्या प्रश्न पूछा जाए? कौन सी बात उठे? और तैयार नहीं होना चाहिए कभी। तैयार आदमी हमेशा ऊब जाएगा। तुम अगर कक्षा में गए हो पढ़ाने, और तैयारी पहले से तुम्हारी है कि यह-यह मुझे पढ़ाना है। तुम ऊब ही जाओगे। क्योंकि जब तुम तैयार हो, तो तुम कक्षा में सिर्फ रिपीट कर रहे हो, वह जो तुमने तैयार कर लिया है।
तैयार कभी मत जाओ। जिंदगी को हमेशा अनप्रिपेअर्ड! कभी नहीं ऊबोगे, ऊबने का सवाल ही नहीं है; क्योंकि रोज नया प्रॉब्लम हो जाएगा, रोज नई मुश्किल में पड़ जाओगे, रोज नया सवाल होगा, जो हल भी नहीं हो सकता है। हो सकता है कक्षा में तुम्हें कहना पड़े कि यह तो मैं जानता ही नहीं।
लेकिन कोई शिक्षक यह कहने की हिम्मत नहीं जुटाता कि यह मैं नहीं जानता। छोटे बच्चों के सामने वह यह अकड़ लिए चला जाता है कि हम जानते हैं। ऊबेगा नहीं तो क्या करेगा! यह हो सकता है कि तुम्हें कहना पड़े कि यह तो मैं जानता ही नहीं, यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं। मैं भी सोचता हूं, तुम भी सोचो। देखें क्या होता है!
मेरा मतलब समझ रहे हो न तुम? जिंदगी की हर चीज को अगर तुम पूरे तैयार होकर जाकर तुमने मुकाबला किया, तो तुम बासा मुकाबला ही कर रहे हो। जैसे तुम मुझसे मिलने आए, और तुम घर से सवाल तैयार करके लाए, तुम घर से सोच कर लाए कि यह अपना सवाल पूछना है। तो वह सवाल तुम्हारे मन में दोहर चुका दो-चार दफा। अब आकर तुम उसे फिर यहां दोहरा रहे हो।
नहीं; तुम आ गए, तुम कोई सवाल लेकर नहीं आए, मेरे पास बैठ गए, और खोजा कि कोई सवाल है? और हुआ और कोई निकल गया। हो सकता है उसके शब्द ठीक न बनें; हो सकता है तुम समझा भी न पाओ कि यह मेरा सवाल है; लेकिन तब तुमको भी उसमें उतना ही रस होगा। जितना मेरे लिए वह नया होगा, तुम्हारे लिए भी उतना ही नया होगा। तुम भी डिस्कवर कर रहे हो अपने भीतर कि यह सवाल है। थोड़ी देर लगेगी, थोड़ी कठिनाई होगी। लेकिन बोर्डम नहीं हो सकती।
तो एक तो जिंदगी की जितनी ज्यादा परिस्थितियों में हम नये ढंग से खड़े हो सकें, पुराने हम न जाएं वहां, पुराने हम वहां न जाएं। तुमने एक गीत पढ़ा हो, जब पढ़ते थे। आज तुम फिर बच्चों को समझा रहे हो उसका अर्थ। तो तुम वही अर्थ समझा रहे हो जो तुमको पढ़ाया गया था। तो तुम ऊब ही जाने वाले हो। कोई आदमी मशीन नहीं होना चाहता। मशीन हुआ कि ऊब जाएगा। तो तुम फिर से सोचो कि यह अर्थ हो सकता है? कि कुछ और हो सकता है? तुम फिर से जूझो इससे। इसको नया सवाल बनाओ। जिंदगी को अगर हम प्रतिपल...और जिंदगी नई है। अगर हम नये होने की क्षमता रखें, तो जिंदगी प्रतिपल नई है।

हम अवैज्ञानिक हैं।

मतलब?

जैसे कि मेरा एक विषय है, मैं इसको समझता हूं अच्छी तरह से और मैं इसको पढ़ाए चला जाता हूं।

, , न। इसको भी तुम वैज्ञानिक बना ले सकते हो। इसको भी तुम वैज्ञानिक बना ले सकते हो। इसमें भी इतनी गहराइयों में उतर सकते हो और इतने नये अर्थ खोज ला सकते हो जिसका कि कोई सवाल नहीं है।
और दूसरा, कोई काम ऐसा नहीं है जो वैज्ञानिक है या अवैज्ञानिक है। वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक बुद्धि के प्रयोग का सवाल है। वैज्ञानिक बुद्धि का आदमी कहीं भी वैज्ञानिक ढंग से व्यवहार करना शुरू करेगा। अवैज्ञानिक बुद्धि के आदमी को तुम विज्ञान भी पढ़ाओ, तो भी अवैज्ञानिक ढंग से ही पकड़ेगा। तो तुम यह तो...
जैसे संस्कृत है...

यह सवाल नहीं है। संस्कृत को भी समझने की कोशिश करो, उसमें भी उतरने की कोशिश करो, उसके भी नये अर्थ खोजो। अर्थ कोई बंधा हुआ नहीं है कहीं, हमारी खोज पर निर्भर है।

इसी के बारे में पूछा गया था। आपने जो बताया कि रोज नई तरह से नया आदमी बन कर इस चीज को देख सकता हूं। सवाल यह है कि जब मैं पुरानी बात लेकर आता हूं तो मेरा आत्मविश्वास होता है कि मैं  इसे अच्छी तरह से जानता हूं, मैं इसे ठीक तरह से हल कर सकूंगा। यह आत्मविश्वास नहीं होता मेरे दिल में, तो नई चीज से मुझे डर लगेगा। तो सवाल तो आत्मविश्वास का है। अगर मुझे आत्मविश्वास है कि कोई भी नई चीज आए, मैं उसे हल कर सकूंगा, तो मैं  हमेशा नया रहूंगा।

, , न। यह सवाल ही नहीं है। हल कर सकूं या न कर सकूं, यह सवाल नहीं है। नहीं भी कर सकते हो, यह जरूरी नहीं है। नहीं भी कर सकते हो, यह जरूरी नहीं है। असल में इस आत्मविश्वास का खयाल रखोगे, तो तुम नये हो ही नहीं पाओगे। क्योंकि आत्मविश्वास हमेशा पुराने के साथ होता है, नये के साथ कभी हो ही नहीं सकता। नया हमेशा इनसिक्योर है ही।

लेकिन वह जब परिस्थिति होती है न। आत्मविश्वास नहीं है, समझिए मैं बिलकुल अनजानी जगह चला जाता हूं, फिर भी आदत होती है कि नई जगह पर भी गया... मैं देहात कभी नहीं गया, अभी अगर मैं जाना चाहूं, तो मुझे पुरानी आदत है, और कम से कम आत्मविश्वास की तरह जाऊंगा कि मैं अपना रास्ता खोज लूंगा, अपनी रोटी खोज लूंगा, कुछ न कुछ कर लूंगा...

हां, यह जो आत्मविश्वास है न, यह हमेशा पुराने के साथ ही होगा। क्योंकि पुराने से तुम परिचित हो, तुम कई बार कर चुके हो वही। तो तुम जानते हो, तुम कर लोगे।
अगर इस आत्मविश्वास को जोर से पकड़ा, तो तुम नये कभी हो ही नहीं सकोगे, बोर्डम आने वाली है। जानना चाहिए कि जिंदगी इनसिक्योरिटी है, वहां हार पूरी संभव है सदा। और वहां हो सकता है रास्ता खो जाए और न खोज पाऊं। कोशिश करूंगा! बस कोशिश करने का खयाल होना चाहिए। कोशिश करूंगा! हार भी सकता हूं, भटक भी सकता हूं। और अगर हमने यह पक्का कर लिया कि मुझे जीतना ही है, भटकना नहीं है, खोजना ही है, तो फिर तुम पुराने से चिपक जाओगे।

नहीं, आचार्य श्री, बात क्या होती है कि हमारा मन एक या दो स्थिति में होता है। या तो मुझे लगता है कि मैं उसे हल कर सकूंगा या तो मुझे डर होता है कि मैं हल नहीं कर सकूंगा...

कोई हर्जा नहीं । दूसरी बात बेहतर है।

फिर भी डर ही लगता है।

हां, लगने दो डर।

तो डर के मारे कुछ भी नहीं कर सकूंगा। पैरालाइज पहले ही हो जाता हूं न।

न-न, ऐसा नहीं है। डर लगता है, तो हमें जानना चाहिए कि जिंदगी का हिस्सा है डर। एक अंकुर निकल रहा है बीज से। बीज के भीतर तो बहुत सुरक्षित था। खतरे में जा रहा है। एक अंकुर, कोमल अंकुर निकल रहा है। कोई पत्थर गिर जाएगा और मर जाएगा। कोई पक्षी आकर तोड़ कर ले जाएगा। कोई बच्चा मरोड़ देगा। तूफान होंगे, हवा होगी, धूप होगी, पानी बरसेगा, ओले गिरेंगे। एक छोटा सा अंकुर उठ रहा है। भय तो पूरा है, कुछ भी तोड़ सकता है। बीज के भीतर बिलकुल सुरक्षित था।
वह तो मां के पेट से बच्चा बाहर आया कि भय की दुनिया शुरू हुई। खतरा तो पूरे ही दिन है, रोज रिस्क है। अभी लौट कर घर जाओगे, क्या पता पत्नी मिलती है कि नहीं मिलती! या जा चुकी हो! खतरा तो है ही। लेकिन हम पक्का मन में किए बैठे हैं कि नहीं, मेरी पत्नी ऐसा कभी नहीं कर सकती।
तो वह जो है वह सिर्फ हम अपना पकड़े हुए बैठे हैं। कोई पक्का भरोसा नहीं है कि तुम लौट कर जाओगे, घर बचेगा कि आग लग गई होगी। क्या पक्का है? रोज आग लगती है; रोज पत्नियां चली जाती हैं। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। यह हमें स्वीकृत होना चाहिए कि ये सब खतरे जीवन का हिस्सा हैं। खतरे से बचोगे तो मर जाओगे; क्योंकि खतरे से बचना मरने का सवाल है।
लेकिन भय से पहले से ही हम ऐसे पैरालाइज्ड होते हैं कि पांव तो रखना पड़ता है, एक कदम आगे बढ़ना पड़ता है।

एक कदम आगे बढ़ोगे तो पूरी तरह यह जानते हुए बढ़ना पड़ेगा कि भय है, खतरा है, जोखिम है। जहां पैर खड़ा था, हो सकता है वह जगह भी खो जाए, और जहां हम पैर रख रहे हैं वह जगह हो ही न! यह हेजिटेशन मौजूद रहेगा ही। और इसकी सहज स्वीकृति होनी चाहिए कि यह जिंदगी का हिस्सा है। और अगर नहीं खतरा लेना है, तो पुरानी जगह खड़े रहो। वहां ऊब जाओगे। और ध्यान रहे कि जहां जितना कम खतरा है, वहां उतनी ज्यादा ऊब होगी। इसलिए जब कोई समाज बहुत ऊब जाता है, तो खतरे की तलाश करता है। फिर डेंजर खोजता है।
अब अभी अमेरिका में, मुझे कोई कहता था, एक नया खेल चला हुआ है, कि दोनों तरफ से कारों को दौड़ाएंगे, एक-एक व्हील को एक पट्टी पर--पट्टी बना लेंगे व्हाइट, स्ट्रिप--इस कार के दो व्हील इस स्ट्रिप पर होंगे, उस कार के भी दो व्हील स्ट्रिप पर होंगे। अब टकराना निश्चित है। तो कौन पहले स्ट्रिप से नीचे उतर जाता है, वह हार गया। अब सौ मील की रफ्तार से दोनों गाड़ियां दौड़ी हुई चली आ रही हैं। वह गाड़ी चली आ रही है, यह गाड़ी चली आ रही है। अब कौन पहले हट जाता है? कौन घबड़ा जाता है पहले? जो घबड़ा गया, जो हट गया, स्ट्रिप से नीचे उतर गया, वह हार गया। लाखों रुपये का दांव लगाए हुए हैं।
अब यह खतरे की खोज चल रही है। जिंदगी इतनी बोरिंग हो गई है कि खतरे की खोज चल रही है। अगर बहुत गौर से देखो तो चांद पर जाने में, एवरेस्ट पर चढ़ने में, सब खतरे की खोज है। साधारण जिंदगी बिलकुल खतरे से मुक्त कर ली है हमने। सब इनसिक्योरिटी खतम कर दी है। सिक्योरिटी है, बैंक बैलेंस है, बीमा है, मरो तो भी खतरा नहीं है, सब इंतजाम कर लिया है पूरा का पूरा। नौकरी पक्की है। नौकरी छूटेगी तो पेंशन मिलेगी, सब पक्का कर लिया है। पत्नी बिलकुल पक्की है, कसम खिला ली है कि बस जन्म भर हमको छोड़ोगी नहीं, हम तुमको नहीं छोड़ेंगे। सब पक्का कर लिया है बिलकुल मजबूत। अब इसमें खतरा बिलकुल खतम हो गया, जोखिम बिलकुल नहीं रही। तो जिंदगी बोरिंग हो गई है।
एक जंगली आदमी की भी जिंदगी हमसे बेहतर जिंदगी थी, इस अर्थों में कि खतरा प्रतिपल था। और खतरे की सहज स्वीकृति थी। न कोई बैंक था, न कोई बीमा था, न पत्नी का भरोसा था, न घर का भरोसा था, न जिंदगी का भरोसा था। तो एक जिंदगी में पुलक थी। वह जानवर की जिंदगी में अब भी वही पुलक है। तो जानवर में जो ताजगी मालूम पड़ती है--एक हिरन को देखो तो ताजगी मालूम पड़ती है। मगर हिरन कितना चौंका हुआ है! कितना भयभीत है! जरा सा पत्ता हिलता है, और वह चौंक गया। भागने की तैयारी है।
मेरा मानना यह है कि दो ही उपाय हैं: या तो खतरे को स्वीकार करो या बोरियत को।

लेकिन स्वीकृति के पहले, खतरा आने के पहले जो पैरालिसिस जो आ जाती है न...

वह पैरालिसिस इसलिए आती है कि तुम खतरे को स्वीकार ही नहीं करना चाहते। मैं कहता हूं कि दो ही विकल्प हैं--डेंजर है या बोर्डम है। तीसरा कोई विकल्प है नहीं। तो बोर्डम से राजी हो जाओ। मेरा मतलब यह है कि फिर बोर्डम से राजी हो जाओ। बोर्डम से राजी हो नहीं सकते। बोर्डम से छूटना चाहते हो। और बोर्डम से छूट नहीं सकते जब तक खतरे को उठाओ न! मेरा मतलब समझ रहे हैं न?

हां, वही चक्कर चलता रहता है।

तो इसमें साफ हो जाना चाहिए। फिर बोर्डम को सहो। तो थोड़े दिन बोर्डम को सहो। मान लो कि भई खतरा मैं उठा नहीं सकता, बोर्डम सहेंगे। तो थोड़े दिन में पता चलेगा कि यह बोर्डम तो हम सह नहीं सकते। तो खतरा उठाओ! जिंदगी में आखिर करेंगे क्या? हम क्या चाहते हैं--न बोर्डम हो, न खतरा हो! ऐसा नहीं हो सकता। असंभव है। मेरी बात समझ रहे हैं न?

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

वह और गहरा हो, तो सेक्सुअल एक्ट सेक्सुअल रहेगा, साथ ही और भी कुछ हो जाएगा। समथिंग विल बी एडेड।

यह एडेड को भी तो जबरदस्ती लाइएगा।

नहीं, मैं तो नहीं कहता कि आप लाइए। मैं तो कहता हूं, किसी को करना हो करे, नहीं करना हो न करे। यह सवाल ही नहीं है। यानी मैं आपसे कहूं कि लाइए, तब तो सवाल है। आपको लगता हो कि यह लाने जैसा लगता है...

नहीं, मैं सोचूं कि आज्ञा-चक्र पर कनसनट्रेट करूं...

नहीं, आप सोचें क्यों? आपको लगे ऐसा कि यह मेरी एक अंतर-खोज मालूम होती है...
अंतर-खोज तो मुझे भी करनी है।

तो फिर जबरदस्ती कैसे हो रही है?

जबरदस्ती इस तरह से कि आई डोंट नो एग्जेक्टली कि इसको आज्ञा-चक्र के ऊपर कनसनट्रेट करने से क्या होगा...

यह तो करने से ही पता चलेगा।

हां, ठीक है। वहां तक तो आपकी बातों को हमें मानना पड़ेगा।

, , न। वह भी इसीलिए आप मानते हैं कि आप कुछ करना चाहते हैं उस तरफ। नहीं तो नहीं। नहीं तो सवाल नहीं है। और अगर जबरदस्ती करता हुआ मालूम पड़े, तो मत करिए।

तो जब मैं आज्ञा-चक्र के ऊपर कनसनट्रेट करूं, तो आई  डोंट फील दि एक्साइटमेंट ऑफ सेक्स एक्ट।

अभी किया कहां है आपने?

नहीं , थोड़ा सा जो किया है...

, , न। बिलकुल नहीं किया है। अभी सिर्फ किताब पढ़ी है आपने! आपने बिलकुल नहीं किया है। इसको तो थोड़ा करिए, कम से कम चार-छह महीने दस-पच्चीस प्रयोग तो करिए।

यू मे नॉट फील एक्साइटमेंट एट  आल!

वह फर्क तो पड़ने ही वाला है। क्योंकि सेक्सुअल एक्साइटमेंट तो चला जाएगा, सेक्सुअल डेप्थ पैदा होगी। एक्साइटमेंट डेप्थ की बात ही नहीं है। एक्साइटमेंट तो चला जाएगा। एक्साइटमेंट तो बहुत ऊपरी चीज है।

तो प्रॉब्लम तो साल्व नहीं होता।

, , न। मैं कहां कह रहा हूं! अगर आप सेक्स से बचना चाहते हैं और सेक्स आपका प्रॉब्लम है, तो मैं यह कह ही नहीं रहा।
मैं तो यह कह रहा हूं कि सेक्स के बाबत जो हमारी गलत दृष्टि है, वह उसको पूरी गहराई तक नहीं उपलब्ध होने देती। और पूरी गहराई तक वह उपलब्ध हो जाए, तो सेक्सुअल एक्ट बिलकुल नये मीनिंग ले लेता है, जिनका हमें कोई पता ही नहीं है। और सेक्सुअल एक्ट साथ ही मेडिटेशन का हिस्सा बन जाता है, जिसका हमें कोई पता नहीं है। और तब धीरे-धीरे सेक्स से तो मुक्त हो जाएंगे आप, कोई और नई गहराइयां शुरू हो जाएंगी।
अगर सेक्स से मुक्त होने का डर हो, तो घबड़ाहट पैदा होगी आपको, क्योंकि एक्साइटमेंट तो जाने वाला है।

आखिर में एक्ट  भी जा सकता है?

यह भी संभव है आखिर में। यह भी संभव है आखिर में।

मेरा तो प्रॉब्लम सेक्स है। मैं इससे दूर जाना चाहता हूं, पार जाना चाहता हूं। अब सवाल यह है: हाऊ टु स्टार्ट फ्रॉम देयर? मान लो कोई मुझे कहे कि जिंदगी भर सेलिबेट  रहिए। मैं कहता हूं कि यह नहीं हो सकता है।
अब यह प्रॉब्लम किस तरह से साल्व हो?

प्रॉब्लम क्या है?

इट इज़ दि प्रॉब्लम!

प्रॉब्लम क्या है सेक्स में?

इट इज़ ए डिवास्टेटिंग पैटर्न!

क्या डिवास्टेटिंग है?

फिजिकली इट इज़ डिवास्टेटिंग।

जरा भी नहीं है।

एंड इट हैज ग्रेट साइकोलॉजिकल इंप्लीकेशंस।

वे सब पैदा किए हुए हैं।

वे सब पैदा किए हुए हैं, बट दे क्रिएट प्रॉब्लम।

जरा भी नहीं। क्या प्रॉब्लम?

समझिए। आई फील सम फिजिकल अट्रैक्शन टुवर्ड्स हर। इफ आई जस्ट फालो इट, तो डंडे पड़ेंगे।

डंडे पड़ने की तैयारी रखनी चाहिए। कुछ चुकाना पड़ेगा न। कि ऐसे ही मिल जाएगा सब!

मैं मर तो सकता हूं न उसमें।

तो आपको चुनाव करना है न।

चुनाव तो मैंने कई बार किया...

तो आपकी सोसाइटी गलत है, जो आपको ऐसी दिक्कत देती है। आप ऐसी सोसाइटी बनाने की कोशिश करिए...

एज ए मैरीड मैन, आपका जो सुझाव है आज्ञा-चक्र पर कनसनट्रेट करने का, मैं प्रयोग करूंगा, लेकिन...

उसको थोड़ा प्रयोग करके देखिए। और अगर प्रयोग करने में आपको कोई तकलीफ मालूम पड़े...उसको एक चार-छह महीने प्रयोग करके देखिए। इसके पहले कुछ बात करने का बहुत मतलब हल नहीं होता है।

मैं थोड़ा सा प्रयोग करके कह रहा हूं।

नहीं, मैं यह कह रहा हूं कि चार-छह महीने प्रयोग करके देखिए। हो सकता है कि पहले एक्साइटमेंट चला जाए। एक्ट करना भी मुश्किल हो जाए, यह भी हो सकता है। लेकिन चार-छह महीने पूरा प्रयोग करके देखिए। क्योंकि है क्या मामला हमारा, हमारा माइंड जैसा है वह उससे जरा भी बदलने को राजी नहीं होता। तो माइंड की बदलाहट जिन प्रयोगों से भी हो सकती है, माइंड सब तरह से रेसिस्ट करता है। वह पच्चीस विरोध दिखलाएगा और पच्चीस गलतियां दिखलाएगा--यह नहीं हो सकता, वह नहीं हो सकता; यह ऐसा हो जाएगा, वह वैसा हो जाएगा। पच्चीस फियर खड़े करेगा। वह माइंड का हिस्सा है। यह फियर क्या है? फियर यही है कि कहीं सेक्सुअल एक्ट खतम न हो जाए!

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मैं समझा, मैं आपकी बात समझा। प्रयोग करके थोड़ा देखें। और एक किताब है एलन वाट की--नेचर, मैन एंड वुमेन। वह भी थोड़ा देख जाएं। और पूरा एक्सपेरिमेंट कर डालें।

देयर आर सो मेनी फिजियोलॉजिकल कैटेगरीज। तो किस कैटेगरी को यह एप्लाई करता है?

आप उसके लिए भी फ्रेडर, एक जर्मन विचारक की 'सेक्स परफेक्शन' पूरी किताब देख डालें, ताकि डिटेल्स में पूरा फिजियोलॉजिकल, और पूरा सारा खयाल आ जाए। ये दो किताबें आप देख जाएं।

लेकिन आपने तो कहा अपने लेक्चर में कि यू हैव टु गो थ्रू दि एक्सपीरिएंस!

, , न। वह तो मेरे एक्सपीरिएंस की बात है। लेकिन डिटेल्स में आपको समझने की बात है, वह तो बहुत लोग प्रयोग कर रहे हैं सारी दुनिया में, बहुत तलों पर प्रयोग हो रहे हैं।

लेकिन जहां तक आपके अनुभव का निष्कर्ष है...

मैं समझा। उतनी लंबी बात नहीं करना चाहता हूं, इसलिए आपको किताब सुझा रहा हूं। मैं उतनी लंबी बात नहीं करना चाहता हूं, इसलिए किताब सुझा रहा हूं कि यह पूरा देख जाएं, तो आपको डिटेल्स में पूरा खयाल आ जाए। और इन्होंने जो काम किया है, वह तो चूंकि सेक्सुओलॉजिस्ट ही है, यह फ्रेडर जो है, उसने खुद सारी प्रिमिटिव कौमों के बीच रह कर, कोई बीस आदिम ट्राइब्स के बीच रह कर बहुत से प्रयोग किए हैं।

और आपके विचारों से जुड़ता है वह।

बहुत मेल खाता है, एकदम मेल खाता है। मैं इसी खयाल से कह रहा हूं कि मेरी बात समझने में आपको बहुत सहयोगी हो जाएगा। वे दोनों आप देख लेंगे, तो बात करनी बहुत आसान हो जाएगी। वह तो खयाल में रह जाएगी। और फ्रेडर, मैं भिजवा दूंगा नाम पूरा। वह थोड़ा देख लेंगे पूरा।
हुआ क्या है असल में कि सेक्स के बाबत हमारा जानना बिलकुल ही नहीं है, बिलकुल ही नहीं है। तो नहीं जानने की वजह से पच्चीस प्रॉब्लम खड़े होते हैं, वे हमारे खयाल में ही नहीं हैं। अब जैसे हमारे खयाल में, सभी के खयाल में हिंदुस्तान में आमतौर से यह बात है कि सेक्सुअल एक्ट जो है, वह डिवास्टेटिंग है।
अब यह फिजियोलॉजिकली बिलकुल गलत है, एकदम गलत है। बल्कि सेक्सुअल इनएक्टिविटी डिवास्टेटिंग है। एक्टिविटी तो डिवास्टेटिंग नहीं है। और यह भी मजे की बात है कि कोई सोचता हो कि हम सेक्सुअल एक्ट एक्सट्रीम पर कर सकते हैं, तो वह गलती में है। बॉडी के बिलकुल ही चेक हैं। आप एक्सट्रीम पर कर ही नहीं सकते। बॉडिली चेक हैं उस पर। यानी वह प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था की है कि आप कभी अतिरिक्त शक्ति निकाल ही नहीं सकते शरीर के बाहर।

लेकिन मिसयूज तो कर सकते हैं न!

मिसयूज भी नहीं कर सकते हैं। अगर आप पूरी की पूरी समझदारी का उपयोग करें--जितना सेक्स के बाबत जाना गया है, वह यह है कि मिसयूज भी नहीं कर सकते आप। मिसयूज भी इम्पासिबल है।

तब फिर सेक्स का ही क्यों, किसी का भी मिसयूज नहीं कर सकते। इफ वी एक्सटेंड दैट वेरी आर्ग्युमेंट, यू कांट मिसयूज एनीथिंग!

न-न, बहुत सी चीजों का मिसयूज कर सकते हैं।
सेक्स का क्यों मिसयूज नहीं कर सकते? क्योंकि सेक्स की जो सारी व्यवस्था है, वह चूंकि बहुत गहरे में बायोलॉजी की है और उसके एंड्स बहुत और हैं। आपके सुख-वुख से उसका मतलब बहुत ज्यादा नहीं है। वह तो पूरी की पूरी संतति और जनन की प्रक्रिया जारी रखने की बहुत गहरी व्यवस्था है वहां। आप पर नहीं छोड़ा गया है मामला। वह तो आपके जो हार्मोन्स हैं, उनके भीतर जिसको हम कहें कि उनके भीतर प्रोग्रेम है पूरा का पूरा कि वह आपसे क्या एक्ट लेना है, और कितना लेना है, और कितना जरूरी है, और कितना आपसे लिया जा सकता है। वह सब आपका जिसको--वह जो इनर मेकेनिज्म है हार्मोन का, जो आपके पिता से मिला है, आपकी मां से मिला है, उसमें सारा प्रोग्रेम है पूरा का पूरा। वह प्रोग्रेम पूरा का पूरा कार्य करेगा। आप कुछ कर नहीं रहे हैं ज्यादा। सिर्फ आपको भ्रम पैदा होता है कि मैं कर रहा हूं। वह तो पूरा प्रोग्रेम आपके भीतर अनफोल्ड हो रहा है और उसमें सारा इंतजाम रखा हुआ है।
जैसे आप ज्यादा खाना खा सकते हैं। ज्यादा खाना आप खा सकते हैं, मिसयूज हो सकता है। आप ज्यादा शराब पी सकते हैं। आप चाहें तो तीस दिन तक बिलकुल खाना न खाएं, यह भी आप कर सकते हैं। लेकिन ये बहुत ऊपर की घटनाएं हैं। बायोलॉजी का मामला और गहरा है, और गहरा है।

पर मैं साइकोलॉजिकली मिसयूज तो कर सकता हूं न! फॉर दि मेंटल इमेजिनेशन।

यह जो मामला है न, यह सिर्फ सेक्स सप्रेशन की वजह से डायवर्शन शुरू होते हैं। ज्यादा की वजह से नहीं। चूंकि हमने जो सोसाइटी बनाई है वह सेक्स सप्रेसिव है, तो हर आदमी को सेक्स की जितनी जरूरत है, वह जो इनर प्रोग्रेम है आपकी बॉडी का, उसको पूरा नहीं होने देते हैं, तो वह सारा का सारा सप्रेस्ड सेक्स बहुत से हिस्सों में फैलना शुरू होता है, वह मेंटल बन जाता है।
वह मेंटल जो बन रहा है वह कारण यह नहीं है कि आप ज्यादा सेक्सुअल हैं, कारण यह है कि जितना सेक्सुअल होने की आपकी नीड है, उतना सोसाइटी आपको मौका नहीं दे रही है। और सोसाइटी सब तरफ से आपको बांधे हुए है। उस बंधन की वजह से सेक्स निकल नहीं पा रहा है बायोलॉजिकली, तो वह मेंटल भी हुआ जा रहा है, वह और तलों पर भी प्रवेश कर रहा है।
वह आपके कपड़ों में भी निकल रहा है, आपके उठने-बैठने के ढंग में भी जाहिर हो रहा है, आपके खाने-पीने में भी--सब तरफ; आपके मकान की बनावट में, आपके आर्किटेक्चर में--वह सब जगह घुस रहा है; आपकी पेंटिंग में, फोटोग्राफी में, सिनेमा में--वह सब जगह घुस रहा है। और उसका कुल कारण इतना है कि जहां से उसको निकलना चाहिए था, जो उसका सहज मार्ग था, वह सब तरफ से रोक दिया है। उसकी रुकावट की वजह से वह और रास्ते खोज रहा है निकलने के।
ये अगर किसी भी दिन हम एक सेक्स फ्री सोसाइटी बना लें, तो सेक्स एक्ट ऐसा साधारण एक्ट हो जाएगा, जैसे आप खाना खा लेते हैं, पानी पी लेते हैं।

ये सारी कलाएं खतम हो जाएंगी?

और दूसरे ढंग की कलाएं पैदा हो सकेंगी। ये कलाएं तो खतम हो जाएंगी, ये तो खतम हो जाएंगी, बिलकुल ही खतम हो जाएंगी। क्योंकि ये कलाएं तो सेक्स रिप्रेशन से ही पैदा हुई हैं पूरी की पूरी। लेकिन और कलाएं पैदा हो जाएंगी; क्योंकि आदमी को कला पैदा करने की एक इनर नीड है।
जैसे समझ लें, एक आदमी भूखा है। भूखे आदमी से कहो--पेंट करो! तो भूखा आदमी रोटी की पेंटिंग बना देगा। एक भूखे आदमी को कहो पेंट करो, उसको भूखा रखो और कह दो, तो वह जो पेंटिंग करेगा उसमें उसकी भूख उतर आएगी। अब एक आदमी यह कहे कि अगर इसको हमने खाना दे दिया, तो फिर पेंटिंग बंद हो जाएगी। मैं कहूंगा कि पेंटिंग बंद नहीं होगी, सिर्फ रोटी की पेंटिंग बंद हो जाएगी। पेंटिंग के बंद होने का कोई कारण नहीं आता, पेंटिंग नये तल खोजेगी, नये मार्ग खोजेगी।

सारी सेक्सुअल एनर्जी अगर सेक्स एक्ट में चली गई, तो क्या दूसरी एनर्जी बचेगी जो कला का सृजन करे?

सच बात यह है, सच बात यह है कि जितना सेक्सुअल एक्ट सरल, सहज और आनंदपूर्ण होगा, इनर किस्म का होगा, उतना तुम मुक्तमना और ज्यादा एनर्जीफुल अनुभव करोगे--उतने ही मुक्तमना और ज्यादा एनर्जीफुल। सेक्स एनर्जी नष्ट नहीं कर रहा है तुम्हारी। सेक्स एनर्जी नष्ट नहीं कर रहा है तुम्हारी।

तो यह ब्रह्मचर्य की जो परंपरा थी कि शक्ति का संचय हो, इसकी वजह से...

अत्यंत अवैज्ञानिक था।

तो संत पुरुष जो सेक्सुअल नार्मल एक्ट में अपनी एनर्जी करेगा वही अच्छा संत बन सकेगा। आज के जो संत हैं, उसमें अच्छा तो वही होगा कि नार्मल सेक्सुअल लाइफ लीड  करे।

अगर हम कभी भी सेक्स के बाबत वैज्ञानिक बुद्धि को उपलब्ध हुए, तो दुनिया में पुराने संतों से बहुत अच्छे संत पैदा हो सकेंगे।

जैसे कला में फर्क पड़ेगा, वैसे ही संतों की परंपरा में भी फर्क पड़ेगा?

हर दिशा में फर्क पड़ेगा। बहुत फर्क पड़ेगा।
असल में हमारे पुराने जो संत हैं, उनमें सौ में से नब्बे, और बल्कि निन्यानबे संत तो ऐसे हैं जो साइकोपैथ हैं। जिनकी अगर हम जांच-पड़ताल करेंगे, तो हम उनको किसी न किसी तरह का मनोरुग्ण पाएंगे। उनको स्वस्थ हम पा नहीं सकते हैं। क्योंकि उनकी सारी जो व्यवस्था है साधना की, वह जरा भी वैज्ञानिक नहीं है, सब अवैज्ञानिक है। और उसको दबाने के लिए उनको क्या-क्या करना पड़ रहा है, वह हमारे खयाल में नहीं है, वह हमको नहीं दिखाई पड़ता।
अब एक व्यक्ति को सेक्स को रिप्रेस करने के लिए उपवास करने पड़ रहे हैं। क्योंकि बॉडी में एनर्जी गई कि वह सेक्स फार्मेशन शुरू होता है। इधर सेक्स फार्मेशन उसको करना नहीं है, वह एनर्जी का। तो उसको इतने कमजोर तल पर जीना चाहिए, इतने कमजोर तल पर, कि बॉडी की पूरी नीड पूरी न हो पाएं, ताकि सेक्स एनर्जी पैदा न हो। तो उसको बेचारे को बिलकुल रुग्ण हालत में जीना पड़ रहा है। बिलकुल उस तल पर कि बस वह उठने-बैठने, बात करने में शक्ति खतम हो जाए, इतना खाना ले ले वह। इससे ज्यादा शक्ति बची, तो उसका सेक्स कनवर्शन होने वाला है। तो वह इस तल पर जीएगा बिलकुल ही। हम कहेंगे--तपश्चर्या कर रहा है!
और उसकी तकलीफ क्या है? यानी इस तल पर तो वह जी लेगा, सेक्स एनर्जी तो पैदा नहीं होगी, लेकिन सेक्सुअल माइंड कहां चला जाएगा?
सेक्स एनर्जी फिजियोलॉजिकल है। वह उसकी जो प्लानिंग और व्यवस्था है, वह सारे माइंड से जुड़ी हुई है। माइंड सेक्सुअल बना रहेगा। इस कमजोर, फीवरिश माइंड में सेक्स इमेजेज बननी शुरू होंगी। एनर्जी तो होती नहीं, एनर्जी पैदा नहीं कर रहा है वह। अब सिर्फ फीवरिश इमेजेज आनी शुरू होंगी।
जो तुम पढ़ते हो संतों-महात्माओं की कथाएं कि वे तपश्चर्या कर रहे हैं, अप्सराएं उन्हें सता रही हैं। वे अप्सराएं कहीं से आती नहीं हैं। वे उनकी इमेज हैं। और फीवरिश माइंड को इमेज इतनी सच्ची मालूम पड़ती है कि उसको लगता है कि यह औरत नंगी होकर आ गई है। कोई औरत आई-वाई नहीं है। किसी अप्सरा को कोई मतलब नहीं है किसी संत से और कोई प्रयोजन नहीं है। न कोई अप्सरा है कहीं। मगर इसका फीवरिश माइंड है। शरीर की शक्ति कम है, कमजोर है बिलकुल। जैसे बुखार में एक आदमी कई दिन भूखा पड़ा रहा है, तो उसको चीजें दिखाई पड़ने लगती हैं ढेर तरह की।
ये सारे हमले शैतान के और परियों के--वह सब इसके माइंड का खयाल है। और इस कमजोर आदमी के पास अब इतनी ही ताकत है कि यह सिर्फ इमेज देख सकता है, और कर कुछ भी नहीं सकता है।
तब फिर एक दूसरा सवाल उठता है कि ऐसा बताया गया है कि जिसमें ज्यादा सेक्सुअल एनर्जी होती है, वे कुछ न कुछ कर सकते हैं। लेकिन बहुत से लोग हैं, उसमें तो वैरायटी होगी। किसी में कम एनर्जी होगी, किसी में ज्यादा होगी, किसी में उससे भी ज्यादा होगी, सुपरमैन में और भी ज्यादा होगी। और वह जो एनर्जी सप्रेस की जाती है, उसी वजह से सुपरमैन हो सकते हैं। ऐसी जो परंपरा और विचार है...

यह अब तक की धारणा रही है। मैं नहीं मानता हूं। मैं मानता हूं सप्रेशन से कोई सुपरमैन नहीं होता है। लेकिन सुपरमैन होने के डायमेंशंस हैं। अगर वे खुल जाएं, तो जो एनर्जी सेक्स की तरफ प्रवाहित होती है, वह नये डायमेंशन में प्रवाहित होनी शुरू हो जाती है।

मेरा सवाल यह था कि कम सेक्सुअल एनर्जी है, वह भी अच्छा संत बन सकता है। और ज्यादा सेक्सुअल एनर्जी है, वह भी बन सकता है। तो सेक्स एनर्जी की वजह से कोई फर्क नहीं पड़ेगा?

न-न, फर्क पड़ेगा, फर्क पड़ेगा। फर्क पड़ने का कारण जो है वह यह है कि सामान्यतया दस आदमी हैं, असल में इसमें जो जितना ज्यादा स्वस्थ है बॉडी से, उसके पास उतनी ही सेक्सुअल एनर्जी ज्यादा होगी साधारणतया। उसमें जो जितना स्वस्थ व्यक्ति है। अगर सामान्य रूप से स्वस्थ हैं सारे लोग, तो जो जितना ज्यादा स्वस्थ है, वह उतना ज्यादा सेक्सुअल एनर्जी से भरा हुआ आदमी होगा। क्योंकि सेक्सुअल एनर्जी और कुछ नहीं है, तुम्हारे शरीर के स्वास्थ्य से निचुड़ा हुआ एक हिस्सा है। आम आदमी के पास जो एनर्जी है, प्रकृति उसका काम संतति को उत्पन्न करने में ला रही है। स्वस्थ आदमी के पास वह ज्यादा है सामान्यतया। यह जो ज्यादा होना है, यह सिर्फ स्वस्थ होने का सबूत है। स्वस्थ होने का सबूत है।
और भी किसी दिशा में कोई आदमी जाए, तो भी कमजोर आदमी की बजाय स्वस्थ आदमी ही जा सकेगा, और किसी दिशा में भी, क्योंकि ताकत सब जगह लगानी पड़ेगी। तो ज्यादा सेक्सुअल एनर्जी का आदमी सिर्फ प्रतीक है इस बात का कि वह ज्यादा स्वस्थ है। और अभी उसकी जिस तरह सेक्सुअल एनर्जी में उसका स्वास्थ्य लग रहा है, अगर कल उसका स्वास्थ्य किसी और आयाम पर, किसी और डायमेंशन में लग जाए, तो हमारे पास जो एनर्जी का सोर्स है वह सेक्सुअल नहीं है। सेक्सुअलिटी एनर्जी के सोर्स का एक द्वार है। ओरिजिनल सोर्स सिर्फ एनर्जी है। हमारे भीतर सिर्फ एनर्जी है। उसका एक दरवाजा सेक्स है, जिससे वह बहती है। अगर हमने और कोई दरवाजे नहीं खोले हैं, तो वह सेक्स के द्वार से ही बहती रहेगी। और न बहे तो बहुत खतरनाक है। क्योंकि एनर्जी इकट्ठी हो जाए तो उत्पीड़क हो जाएगी। तब वह द्वार-दरवाजे खटखटाएगी और दीवालें तोड़ेगी और बेचैनी पैदा करेगी।
तो अगर कोई और दरवाजा नहीं खुला है, तो मैं कहता हूं, सेक्स का जो नेचरल द्वार है, जो प्रकृति ने खोला हुआ है। आपको खुला हुआ मिला है। वह गिवेन डोर है। वह आपने नहीं खोला है। वह प्रकृति से मिला हुआ दरवाजा है। और दरवाजे भी इस एनर्जी के रिजर्वायर के आस-पास हैं। इन दरवाजों को जो खोलें, तो एनर्जी वही है, लेकिन अगर वह और दरवाजों से बहनी शुरू हो जाए, तो सेक्स के दरवाजे पर जाने की संभावना कम होती चली जाती है।
लेकिन अगर दरवाजे ऐसे हों, दरवाजे अगर ऐसे हों कि फिर भी सेक्स के आनंद की जरूरत शेष रह जाए...जैसे एक आदमी पेंटिंग कर रहा है, और एक दरवाजा खुला है जो हमको नहीं लगता कि दरवाजा है। एक आदमी पेंट करते वक्त उतनी ही तल्लीनता को उपलब्ध हो सकता है, जितना सेक्सुअल एक्ट में कोई हो सकता है। हमको नहीं लगता, जिनको पेंटिंग से कोई मतलब नहीं है। एक आदमी सितार बजाते वक्त घंटे भर में उसी तल्लीनता में पहुंच सकता है, जितना सेक्सुअल एक्ट में कोई पहुंचता है। हमको नहीं लगता। हमको तो सिर्फ सितार ठोंक रहा है वह आदमी। और अगर वह सिर्फ टेक्नीशियन है, तो वह नहीं पहुंचेगा। अगर वह सिर्फ शिल्प सीख लिया है सितार बजाने का, तो वह नहीं पहुंचेगा। लेकिन अगर उसका अंतर-भाव है, और सितार के साथ वह लीन हो गया है पूरा का पूरा, तो इस घंटे भर में उसकी एनर्जी का जो अपशोषण होगा, वह जो एनर्जी बहेगी, यह एनर्जी सेक्स की तरफ जाने की क्षमता को कम करेगी। और अगर वह कोई ऐसी दिशा में लगा हुआ है कि जिससे सेक्स का कोई विरोध नहीं है, या सेक्स में जो एनर्जी जो आनंद देती है, वह उसको उस मार्ग से आनंद नहीं मिल रहा है, तो वह लौट-लौट कर सेक्स पर आ जाएगा।
इसीलिए मैं कहता हूं कि ध्यान जैसा जो मार्ग है, वह ठीक डायमेट्रिकली सेक्स से उलटा खड़ा हुआ है। ध्यान का जो द्वार है, वह ठीक उलटा द्वार है। और सेक्स से ज्यादा आनंद देने वाला द्वार है। वह अगर एक दफा खुल जाए, तो तुम्हारी सारी एनर्जी वहां से बहनी शुरू हो जाती है, और सेक्स का द्वार सहज ही अनयूटिलाइज्ड पड़ा रह जाता है। तुम उसके विरोध में खड़े नहीं हो जाते, तुम उसको बंद भी नहीं करते हो, तुम चिल्ला कर उसका इनकार भी नहीं करते हो, तुम सप्रेस भी नहीं करते हो।
एनर्जी है हमारे पास। वह सेक्सुअल भी नहीं है, वह मेंटल भी नहीं है, वह बॉडिली भी नहीं है--एनर्जी एज सच। और वह सब तरफ से बहती है। बॉडिली भी वही है, मेंटल भी वही बनती है, सेक्सुअल भी वही बनती है। आमतौर से हमारे पास सेक्स का द्वार, माइंड का द्वार, बॉडी का द्वार है। ये द्वार सामान्य हैं। इनमें सेक्स का द्वार सर्वाधिक सुखद है। और सुखद होने का कारण है। नहीं तो सेक्सुअल एक्ट असंभव हो जाए। यानी अगर समझ लें कि किसी भी दिन हम ऐसा आदमी पैदा कर सकें कि सेक्सुअल एक्ट से सुख निकल जाए, सिर्फ एक्ट रह जाए, तो इस जमीन पर एक आदमी, एक औरत को सेक्सुअल एक्ट के लिए राजी नहीं किया जा सकता। क्योंकि एक्ट एज सच एब्सर्ड है। यानी एक्ट में कुछ भी नहीं है मामला। उसके साथ जो सुख का अंतर-भाव जुड़ा है, वह उसी की वजह से वह एब्सर्ड एक्ट चल पाता है। और इसीलिए जैसे ही एक्ट खतम हुआ, आदमी कुछ परेशान और चिंतित सा लौटता हुआ मालूम पड़ता है। क्योंकि सुख तो खो जाता है, पीछे एक्ट ही रह जाता है। और एक्ट में कोई मतलब नहीं है। और एक्ट ऐसा बेहूदा है कि अर्थपूर्ण नहीं मालूम पड़ता।

तो हिप्नोसिस एक्ट कराए जा रहा है।

हां, तो एक नेचरल हिप्नोसिस है पीछे। नेचरल हिप्नोसिस है, जो बहुत जोर से डाली गई है। उसी हिप्नोसिस की वजह से वह द्वार है। अगर उसमें सुख न रह जाए, तो कुछ भी मतलब नहीं मालूम पड़ता। और गहरी हिप्नोसिस न रह जाए, तो कुछ मतलब नहीं मालूम पड़ता। अगर आपको इससे बड़े सुख के द्वार मिलने शुरू हो जाएं, तो यह हिप्नोसिस टूटनी शुरू हो जाती है।

अब दूसरी बात यह है कि हमारा यह सेक्स एनर्जी शब्द का प्रयोग ही कुछ गलत हो जाता है। टोटल एनर्जी है। सेक्स एनर्जी तो उसका एक भाव हुआ, जैसे थॉट की एनर्जी या कोई भी एनर्जी। जब सेक्स एनर्जी कहते हैं, तो सारी परंपरा, यहां की और वेस्ट की, दोनों कहते हैं कि सेक्स एनर्जी कुछ अलग चीज है, और इसकी ही वजह से आप कुछ न कुछ कर सकते हैं।

नहीं, वह गलत ही धारणा है, मेरी दृष्टि में एकदम गलत धारणा है। एनर्जी टोटल है।

तो यह कहा जाए कि सेक्स एनर्जी तो एटिटयूड है, उसको प्रिजर्व करने से...

एक द्वार है, एक द्वार है। और जिन्होंने प्रिजर्व करने की बात कही है, वे भी उसी भूल में हैं। वे भी मानते हैं कि दूसरा कोई द्वार नहीं है।
तो आखिर कौन सी एनर्जी प्रिजर्व करनी चाहिए?

एनर्जी प्रिजर्व करनी चाहिए। लेकिन अकेली एनर्जी प्रिजर्व करना भी मीनिंगलेस है। यानी असल में एनर्जी प्रिजर्व करके भी क्या करोगे? एनर्जी क्रिएटिव करनी चाहिए। एनर्जी क्रिएटिव होती चली जाए।

जैसे कोई खाने जैसी बात होती--यानी भूख है तब तक खाऊं, उससे ज्यादा खाया तो सिर्फ बदहजमी या तकलीफ होगी। तो मतलब यह रोकने की बात हुई न! सारी एनर्जी को...

कोई एनर्जी रोकने की बात नहीं है। इतना ही ध्यान रखने की बात है कि एनर्जी कैसे श्रेष्ठ से श्रेष्ठ मार्ग, सुंदर से सुंदर मार्ग, अधिकतम ब्लिसफुल, अधिकतम आनंदपूर्ण मार्ग खोजती चली जाए। और एक क्षण हमारी एनर्जी ऐसा मार्ग खोज ले, जो हिप्नोटिक नहीं है, यानी जिसमें सुख सिर्फ कल्पना नहीं है, जिसमें सुख एक सत्य है। हमारी एनर्जी एक ऐसा मार्ग खोज रही है, और ऐसा मार्ग खोजने में सफल हो जाए, जहां कि आनंद वास्तविक है, सिर्फ काल्पनिक नहीं है और किसी हिप्नोसिस की वजह से मालूम नहीं पड़ रहा है, है! तो हमारी सारी खोज वही चल रही है। उस खोज में बहुत द्वार हमारे बंद हैं। यानी मनुष्य का व्यक्तित्व बहुत से पोटेंशियल डोर्स लिए हुए है, जो खुले हुए नहीं हैं।

जैसे कि सेक्स एक्ट के बारे में यह नेचरल हिप्नोसिस हो गया है। सेक्सुअल एनर्जी के बारे में सोशल हिप्नोसिस हो गया है कि सारी एनर्जी तो सेक्स...

यह तो गलत ही बात है।

इसमें ब्रह्मचर्य शब्द भी इतना निकम्मा हो जाएगा...

, , , निकम्मा शब्द नहीं हो जाएगा, निकम्मी ब्रह्मचर्य की पुरानी धारणा हो जाएगी।

इसके सेक्स एनर्जी के साथ जो संबंध हैं...

कोई भी संबंध नहीं हैं। कोई भी संबंध नहीं हैं।
तो हम सिर्फ एनर्जी की बात करें। सेक्स की बात नहीं करें।

करनी ही नहीं चाहिए। लेकिन हमारी जो धारणाएं बंधी हुई हैं, उनसे लड़ते वक्त सारी बात करनी जरूरी हो जाती है। ब्रह्मचर्य की धारणा और अर्थ ले लेगी।
मेरे मन में ब्रह्मचर्य की धारणा का इतना ही अर्थ है--वैसे ब्रह्मचर्य शब्द का भी वही मतलब है--उसका मतलब ही यह है कि ब्रह्म जैसी चर्या, ईश्वर जैसा आचरण। अगर कहीं कोई ब्रह्म है, तो वह जैसा आचरण करता हो, ऐसा आचरण, उस शब्द का अर्थ है। उसका वीर्य इत्यादि से कोई संबंध ही नहीं है, शब्द का भी। और मौलिक धारणा का भी कोई संबंध नहीं है। लेकिन होता क्या है, बड़ी से बड़ी धारणा, लोकमानस में अत्यंत छोटे अर्थ लेकर प्रकट होती है।

वीर्य  ही एनर्जी है, ऐसा कहते हैं। तो ऐसा कुछ भी नहीं है?

हां, कुछ भी नहीं है, कुछ भी नहीं है। हमारी एनर्जी का एक डायवर्शन वह है। और प्रकृति के लिए बिलकुल जरूरी है, इसलिए प्रकृति उसको फोर्सफुली उपयोग करती है। यानी अगर आप प्रकृति के खिलाफ लड़ोगे, तो वह आपको तोड़ डालेगी। वह आपको तोड़ डालेगी, हिला देगी। वह आपसे जबरदस्ती काम ले ही लेगी। और प्रकृति की जरूरत है कि वह आपको खतम नहीं करना चाहती। आप मर जाओ, कोई फिक्र नहीं है। लेकिन जो जीवन-धारा है, वह बनी रहे। वह जीवन-धारा सूख न जाए, इसलिए गहरी हिप्नोसिस उसके साथ जुड़ी हुई है।
एक ही स्थिति में व्यक्ति मुक्त होता है इस बात से--और प्रकृति उसको मुक्त कर देती है एकदम--कि जीवन-धारा किसी और बड़े तल पर संक्रमित हो जाए शरीर के तल से। तो उस व्यक्ति के भीतर जो सेक्स की कशिश है, ग्रेविटेशन है, वह एकदम विलीन हो जाता है, एकदम विलीन हो जाता है। उसको मैं ब्रह्मचर्य कहता हूं।
मैं ब्रह्मचर्य का मतलब यह नहीं मानता हूं कि किसी ने सेक्स को रोक लिया है तो ब्रह्मचारी हो गया। वह सिर्फ रुका हुआ सेक्सुअल है। सिर्फ रुका हुआ सेक्सुअल है। यानी वह काम-शक्ति अवरुद्ध और काम-शक्ति बही हुई--ऐसे दो रूप हैं। और अवरुद्ध काम-शक्ति ज्यादा खतरनाक है बजाय बहे हुए के। यह बहा हुआ कम से कम प्राकृतिक है, अवरुद्ध बिलकुल अप्राकृतिक है। एक तीसरी दशा है--अवरुद्ध नहीं है, नया द्वार बहने का मिला है। तो जिस दिन ब्रह्म की तरफ सारी शक्ति बहने लगे, जिस दिन वह ब्रह्म की तरफ सारी शक्ति प्रवाहित हो जाए, उस दिन फिर कहीं वह प्रवाहित नहीं होती, कारण नहीं रह जाता है। लेकिन इसमें कोई सप्रेशन नहीं है, न खयाल है, न विचार है।

नहीं, यह तो सोशल हिप्नोसिस है न। मगर यह सेक्स एनर्जी ही सेक्सुअल है, ऐसा कुछ खयाल सारी किताबों में रहा है--आयुर्वेद का खयाल, वैदिक का खयाल...

सभी का यह खयाल रहा है। वह बिलकुल गलत है।

यह बात आपकी उनसे बिलकुल उलटी है--कि एनर्जी ही है।

एकदम ही उलटी है। एनर्जी ही है हमारे पास।

तब तो फिर ये सारे सवाल ही टूट जाएंगे। यह सारी बात फिर से समझनी पड़े।

पूरी बात करनी पड़े न। असल में एक दफा ऐसा करें, अगली दफा ब्रह्मचर्य पर ही पूरी सीरीज रख लें, पूरी सीरीज ही। चार लेक्चर और चार क्वेश्चन-आंसर पूरे हो सकें।

आज इतना ही।



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