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मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

चेत सके तो चेत-(विविध)-प्रवचन-02

प्रवचन-दसरा-(प्राचीन से नवीन)


दिनांक 08 जून सन् 1969
बडौदा-अहमदाबार, गुजरात।

आचार्य श्री, आपकी स्पीच से, क्या करना चाहिए, ऐसा कुछ ज्यादा समझ में आता है। मगर कैसे करना चाहिए? और खासतौर से इंडिविजुअल बेस पर नहीं, मगर एज ए कम्युनिटी और एज ए सोसाइटी क्या करना चाहिए, वह जरा ज्यादा डिटेल में आप बताएं।

वह तो मैं दुबारा आऊं और दिन या दो दिन रुकूं, तो आसान पड़ेगा।
लेकिन अभी तो मुल्क के सामने करने की एक ही बात है कि कुछ भी करने की जल्दी नहीं करनी चाहिए और विचार की एक हवा फैलानी चाहिए। करने की बहुत जल्दी नहीं करनी चाहिए अभी। क्योंकि जब तक मुल्क के पास ठीक विचार न हो, हम जो भी करने की कोशिश करेंगे, उससे गलत और उपद्रव ही होने का डर ज्यादा है। तो मुल्क के पास ठीक-ठीक माइंड नहीं है, इसलिए एक्शन की बहुत जल्दी गङ्ढे में ले जाने वाली है और कहीं नहीं ले जाने वाली है।

तो मेरा कहना है, अभी एक पांच-दस साल तो मुल्क को एक माइंड क्रिएट करने की कोशिश करनी चाहिए। फिर उस माइंड के पीछे एक्शन तो आता है, जैसे छाया आपके पीछे आती है। एक्शन बहुत कीमत का है ही नहीं। एक बार स्पष्ट दिमाग हो मुल्क के पास, तो क्या करना है, वह तो बहुत आसानी से आ जाता है; कैसे करना है, वह भी बहुत आसानी से आ जाता है। लेकिन करने वाला कौन है, कैसा है, यह बहुत मुश्किल बात हो गई है! तो हमारे पास जैसा दिमाग है, उस दिमाग को लेकर--'क्या करना है? कैसे करना है?'--चिल्लाते रहो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
तो मेरी जो चेष्टा है वह तो यह है कि मेंटल रेवोल्यूशन कैसे हो जाए! और इसकी हम चिंता ही न करें कि उस मेंटल रेवोल्यूशन को किस ढांचे में ढालें--अभी। वह जल्दी हमने की तो वह बात नहीं होने वाली है। अभी तो बहुत स्वतंत्र मन से पूरा मुल्क सोचे। और हम सोचने के लिए मुल्क को मजबूर कर सकें--सोचने के लिए! सब तरफ से दबाव डाल सकें कि उसे सोचना ही पड़े, इसकी पूरी की पूरी व्यवस्था करनी चाहिए।
अब जैसे युवकों के संगठन हैं। गांव में एक आदमी ऐसा बोलते हुए नहीं जाना चाहिए कि जिसको आप पूरी तरह से सोचने को मजबूर न कर दें। गांव में कोई भी बोलने आता है, तो हजार प्रश्न होने चाहिए। और यह मुल्क के सामने स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अब हम बकवास सुनने को राजी नहीं होंगे। बोलना है तो बहुत सोच कर आओ और एक-एक चीज का जवाब लेकर आओ, नहीं तो नहीं सुनेंगे।
तो मुल्क में कोई भी कुछ बोल रहा है, वह कुछ भी कह रहा है और सारे लोग सुन रहे हैं बैठे हुए। तो हिंदुस्तान के युवक अगर इतना भी कर दें कि हिंदुस्तान के व्यर्थ बोलने वालों का मुंह बंद कर दें, और हर बोलने वाले को सोचने के लिए मजबूर कर दें, और हर सभा को एक डिसकशन में परिवर्तित कर दें। एक दो साल तक मुल्क में कोई चीज अनक्वेश्चंड न रह जाए। और हर चीज पर प्रश्न हो, हर चीज पर संदेह हो। और ऐसी एक भी बात न चल पाए मुल्क में, जिस पर कि डाउट नहीं किया गया और लड़ाई नहीं लड़ी गई। बस दो साल इतना भी अगर मुल्क के दिमाग में बात आ जाए, तो हम दो साल में बहुत साफ नतीजों पर पहुंच सकते हैं, कोई कठिनाई नहीं है।
लेकिन वही नहीं हो रहा है, वही नहीं हो पा रहा है। चिंतन जैसी चीज ही नहीं है। और जिनको हम समझते हैं चिंतक, वे सब पिटी-पिटाई बातें दोहरा रहे हैं, जिसमें कुछ चिंतन नहीं है जरा भी। और सारे युवक सुन रहे हैं, बड़ी हैरानी की बात यह है! कोई विरोध भी नहीं है उसका। व्यक्तिगत रूप से भला कोई कुछ विरोध कर रहा हो, सोच रहा हो, लेकिन सामूहिक तल पर चिंतना नहीं है।
तो कैसे एक डायलाग पैदा हो जाए पूरे मुल्क में!
हजारों चीजें हैं जो अनक्वेश्चंड चल रही हैं हजारों साल से, जिन पर कोई सवाल ही नहीं उठाता। और कई दफे ऐसा होता है कि अगर सवाल न उठाया जाए, तो हमें पता ही नहीं रहता कि यह भी सवाल उठा सकते हैं।
अरस्तू ने अपनी किताब में लिखा हुआ है कि स्त्रियों के दांत कम होते हैं पुरुषों से। अरस्तू जैसे बुद्धिमान आदमी ने! और अरस्तू के एक हजार साल बाद तक किसी आदमी ने क्वेश्चन नहीं किया इस बात पर! और इतनी सरल सी बात है कि स्त्री के दांत गिने जा सकते हैं। लेकिन चूंकि अरस्तू के पहले से हजारों साल से यह बात यूनान में चल रही थी कि स्त्री के दांत कम होते हैं, यह मान ली गई थी! इसकी न किसी स्त्री ने फिक्र की, न किसी पुरुष ने फिक्र की! अरस्तू की खुद दो औरतें थीं--एक भी नहीं। वह किसी के भी दांत गिन सकता था बैठा कर कि दांत गिन लूं। मगर यह कोई सवाल नहीं था।
एक हजार साल बाद जब पहली दफा किसी आदमी ने औरत के दांत गिने और उसने कहा कि यह तो बड़ी गड़बड़ बात है, दांत बराबर होते हैं। तो कोई मानने को राजी नहीं हुआ कि यह हो कैसे सकता है? क्योंकि हजारों साल से अगर दांत बराबर थे, तो कोई तो गिनता! कोई तो पूछता!
इस मुल्क में तो ऐसी हजारों बातें बिना पूछे चली आ रही हैं, कि हम उनको सुनते हुए पैदा होते हैं, वे हमारे खून में मिल जाती हैं। सुनते हुए मर जाते हैं। हम कभी पूछते ही नहीं! मुल्क ने पूछना ही बंद कर दिया है।
तो मेरी तो अभी सारी कोशिश यह है कि मुल्क में एक प्रश्न और एक डायलाग... और सब मसलों पर, छोटे से लेकर बड़े मसले तक। हम किसी चीज को अंधे होकर विश्वास करने को राजी न हों। बड़ी तकलीफ होगी पहले, क्योंकि सब अस्तव्यस्त हो जाएगा। और जो भी निश्चित हो गया है, वह सब डांवाडोल हो जाएगा। लेकिन उसको डांवाडोल कर देना जरूरी है। और इस क्वेस्ट से, इस चिंतना और विचार से जो हवा पैदा होगी, तो एक नया माइंड मुल्क में पैदा होगा जो सोच-विचारशील होगा। और उस माइंड से फिर एक्शन करवाना बहुत कठिन नहीं है। एक दफा यह साफ हो जाए कि क्या करना है, कैसे करना है। लेकिन यह साफ उस माइंड को होगा जो पूछता हो, सोचता हो, खोजता हो। न हम सोचते हैं, न पूछते हैं, न खोजते हैं।
तो मेरा कोई बहुत ब्योरे में काम करने पर, अभी तो मेरा कोई जोर नहीं है। अभी तो मेरा जोर यह है कि मैं आपको किसी तरह हिला दूं और सोचने के लिए मजबूर कर दूं। और अभी इसकी भी बहुत फिक्र नहीं है कि मैं आपको क्या सोचने की दिशा में ले जाऊं। क्योंकि जैसे ही मैंने यह फिक्र की कि आपको क्या सोचने की दिशा में ले जाऊं, वैसे ही मैं भी नहीं चाहूंगा कि आप पूरी तरह सोचें। फिर मैं यही चाहूंगा कि जो मैं चाहता हूं वही आप सोचें। और फिर बंधन शुरू हो जाता है। तो अगर मेरा कोई आइडिया हो एक कि इस तरफ सारे लोगों को ले जाना है, तो फिर मैं भी नहीं चाहूंगा कि ये सब लोग सोचें। फिर मैं यही चाहूंगा, इतना सोचें जितने से वे मेरे साथ चलने को राजी हो जाएं। और इतना न सोचें कि मुझ पर संदेह करने लगें।
इसलिए दुनिया में जो आइडियालॉजिस्ट होते हैं, वे कभी चिंतन को गति नहीं दे पाते। और जो इज्म के मानने वाले होते हैं, वादी होते हैं, वे भी कभी विचार को गति नहीं देते। क्योंकि उनका मूल आग्रह भीतर यह होता है कि उतना सोचो जितने से तुम मुझसे राजी हो जाओ, उससे ज्यादा मत सोचना। कहीं तुम मुझ पर ही न संदेह करने लगो।
तो मेरा कहना है कि न मेरा कोई इज्म है, न कोई विचार है, न कोई विचारधारा है। मेरी एक ही चिंतना है कि विचार कैसे पैदा हो? कोई विचारधारा का मुझे कोई खयाल नहीं है। यह पैदा करने में युवक और युवकों के सारे संगठन बड़े काम के साबित हो सकते हैं। तो तीव्र डिसकशन पूरे मुल्क में हो जाना चाहिए।
अभी मैं सेक्स पर बोला। तो मुझे हजारों पत्र आए। और वे पत्र ये थे कि आपसे हम चाहे राजी हों या न राजी हों, लेकिन हम इसके लिए आपको धन्यवाद देते हैं कि आपने इस विषय पर चर्चा शुरू की।
लेकिन वह भी चलती नहीं बहुत, जितने जोर से चलनी चाहिए। मेरे खिलाफ जिनको लिखना है, वे तो जोर से लिख देते हैं। मेरे पक्ष में सैकड़ों सोचने वाले लोग हैं, वे कुछ लिखते ही नहीं! वे सोचते हैं कि ठीक है, अच्छा लगा, बात खतम हो गई। तो चलेगा नहीं। मैं यह नहीं कहता कि मेरे पक्ष में लिखा जाए, मैं यह कहता हूं कि सब तरफ से लिखा जाए। और इतने जोर से विवाद चलाए जाएं कि कोई एक मसला पूरे मुल्क में मंथन का कारण बन जाए। वह नहीं बनता है। कोई मसला नहीं बनता है।
और हम किसी मसले को उठाना भी नहीं चाहते और डरते भी हैं, क्योंकि उठाया मसला तो पता नहीं क्या नतीजे निकलें उसके विवाद के। और हिंदुस्तान के नेता तो बिलकुल नहीं चाहते कि कोई विवाद मुल्क में हो, कोई चिंतना हो, कुछ  विचार हो, वे कुछ नहीं चाहते। हिंदुस्तान के धर्मगुरु भी नहीं चाहते। हिंदुस्तान का कोई भी वेस्टेड इंट्रेस्ट यह नहीं चाहता कि कोई भी क्वेश्चनिंग शुरू हो जाए। न बाप चाहता है, न स्कूल का शिक्षक चाहता है, न वाइसचांसलर चाहता है, कोई नहीं चाहता। सब वेस्टेड इंट्रेस्ट यह चाहते हैं कि जो चल रहा है वह ठीक है, 'स्टेटस को' जारी रहना चाहिए। और वह तभी जारी रह सकता है, जब आप कुछ न पूछो, चुपचाप मानते चले जाओ। उन सबकी चेष्टा यह है। और उन सबकी चेष्टा बड़ी घातक हो गई है।
इधर तो मैं यह कहता हूं--जैसे साक्रेटीज ने यूनान और एथेंस की गली-गली, कूचे-कूचे में क्वेश्चनिंग खड़ी कर दी। सड़क पर निकलना मुश्किल कर दिया लोगों का। कि अगर आप जा रहे हो और साक्रेटीज दिख गया, तो आप दूसरी गली से निकल जाओगे। क्योंकि वह मिल गया तो वह कुछ न कुछ पूछेगा और भीड़ खड़ी हो जाएगी। और आपको ऐसी स्थिति में डाल देगा कि आप कोई जवाब न दे सकोगे। उसी से एथेंस गुस्से से भर गया उस आदमी पर।
इस वक्त मुल्क को सैकड़ों साक्रेटीज की जरूरत है। वे कुछ न करें, वे गांव-गांव में क्वेश्चनिंग खड़ी कर दें और ऐसी हालत पैदा कर दें कि कोई भी निस्संदिग्ध भाव से खड़े होकर न कह सके कि यह सच है। और इस तरह न कह सके कि हमें पता है, हम जानते हैं, और तुम्हें मानने की जरूरत है।
तो इससे बिलकुल नई लीडरशिप पैदा होगी। और पुरानी लीडरशिप को और किसी तरह से बदला नहीं जा सकता। क्योंकि पुरानी लीडरशिप को अगर बदलते हो आप, तो या तो पुरानी लीडरशिप के हथकंडे ही उपयोग करो। तब आप बदलते में वही हो जाते हो जिसको आपने बदला है।
इस वक्त यही हो रहा है, कि अगर कांग्रेस की लीडरशिप को बदलती है कोई दूसरी पार्टी, तो उन्हीं सारे हथकंडों का उपयोग करती है जो कांग्रेस कर रही है। और उनको बदलते-बदलते वह उसी शक्ल में हो जाती है जो कि कांग्रेस थी, बल्कि उससे बदतर। क्योंकि उससे भी ज्यादा उसको हथकंडे उपयोग करना पड़ते हैं। अगर कांग्रेस लड़ रही है और वह भड़का रही है मुसलमान को और हिंदू को वोट करवाने के लिए या भंगी को और चमार को कि इसको वोट करो--जातिवाद का उपयोग कर रही है, तो विरोधी भी वही उपयोग कर रहा है। अगर वह पैसे बांट रही है, तो विरोधी भी पैसे बांट रहा है। और आखिर में उससे लड़ते-लड़ते आप वही के वही हो जाते हो।
सब क्षेत्रों में यह हो रहा है कि पुरानी लीडरशिप को किसी भी क्षेत्र से बदलने में नई लीडरशिप जो लड़ाई लेती है, वह आखिर में वही की वही हो जाती है।
इसलिए मेरा कहना है, पुराने लीडर को बदलने की फिक्र ही मत करो। न पुरानी सिस्टम को बदलने की फिक्र करो। पुरानी सिस्टम और पुराने लीडर को जिस माइंड से सहारा मिलता है, तुम उस माइंड से सीधी लड़ाई लो और उसकी जड़ें हिला दो! और तुम पाओगे कि एक दस-पंद्रह साल की तीव्र अराजकता चित्त में पैदा हो जाए मुल्क के, तो इस अपहीवल में जो लोग ऊपर आ जाएंगे, वे बिलकुल और तरह के लोग होंगे। और उनसे एक्शन भी आएगा, उनसे कुछ काम भी होगा। नहीं तो नहीं होने वाला।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

यह, सरोजिनी जी, आपको शायद खयाल न हो कि रूस में लेनिन और ट्राटस्की, इनके पहले निहिलिस्टों का एक बड़ा आंदोलन चला। और निहिलिस्टों ने और कुछ नहीं किया, क्योंकि निहिलिस्ट का मानना ही यह है कि वह एक तरह का अराजकवादी है। वह कहता है, हम यह भी नहीं मानते और वह भी नहीं मानते; हम कुछ नहीं मानते हैं। हम कुछ मानते ही नहीं!
तो निहिलिस्टों का उन्नीस सौ से लेकर एक तीव्र आंदोलन चला, और पंद्रह-बीस साल में उसने पूरे मुल्क के चित्त को पुरानी जड़ों से शिथिल कर दिया। और उसके पीछे नई लीडरशिप आ गई और उसकी पूरी भूमिका जो थी वह निहिलिस्टों ने खड़ी की।
हिंदुस्तान में कोई समाजवादी, कोई साम्यवादी आंदोलन कभी सफल नहीं हो सकता, क्योंकि हिंदुस्तान के पास निहिलिस्टों जैसा कोई आंदोलन नहीं है जो पुरानी जड़ों को हिला दे। और जब पुरानी जड़ें हिल जाती हैं, तो वृक्ष नई जड़ों की मांग करता है, नहीं तो वह मांग ही नहीं करता। इसलिए मेरी समझ में यहां क्या हो रहा है कि अगर यहां का समाजवादी भी है, तो भी हथकंडे उसके बिलकुल पूंजीवादी हैं। यहां कुछ भी कोई करे तो वह करेगा वही जो हो रहा है। और उससे कोई हल नहीं होता है।
तो इधर मैं चिंता ही नहीं करता हूं कि क्या करना अभी और कैसे करना। अभी मैं एक ही चिंता करता हूं कि मुल्क के चित्त को पूरी तरह अस्तव्यस्त कैसे कर देना। सब मसलों पर संदेह कैसे पैदा हो जाए। सब सवालों पर हम कैसे पूछने लगें फिर से कि ठीक है, पुराने हल हल नहीं हैं। अब हम क्या, कौन सा हल है? अभी मैं हल नहीं देने की कोई बात करता हूं। अभी मैं कहता हूं कि इतना ही पूछना खड़ा हो जाए मुल्क के सामने, तो इसी चिंतना से हल खोजने वाले भी आ जाएंगे, नया चिंतन देने वाले लोग भी आ जाएंगे और नई लीडरशिप, नया नेतृत्व--धर्म में, समाज में, राजनीति में--सब तरफ खड़ा हो जाएगा। और अगर हमने जल्दी की...
और जल्दी हम क्यों करते हैं, वह हमें कभी खयाल नहीं आता। हम अक्सर...मुझे रोज लोग पूछते हैं कि आप यह कह देते हैं, हम समझते हैं, लेकिन हम करें क्या? और क्या आपकी योजना है, वह पूरी हमें बताइए, तो वह हम करें।
वे इतनी जल्दी क्यों करते हैं? उसका कारण है। जब मैं उनको हिला देता हूं तो उनकी पुरानी योजना और दृष्टि तो हिल जाती है, तो वे कहते हैं, जल्दी से हमें कोई नई योजना बताओ तो हम उसको पकड़ लें। लेकिन वह जो पकड़ने वाला चित्त है, वह कायम रहेगा। मैं कहता हूं कि पकड़ने की इतनी जल्दी मत करो, तुम कुछ दिन हिले हुए भी तो रह जाओ। मत फिक्र करो पकड़ने की कि नया क्या होगा, या क्या हम करेंगे। सोचने को ही राजी हो जाओ। मेरा खयाल समझ में आता है न?
तो इधर मेरी तो एक तरह की निगेटिव दृष्टि है अभी। मानता हूं मैं कि उससे पाजिटिविटी पैदा होगी। लेकिन उसकी मैं बहुत चिंता नहीं करता हूं। क्योंकि वह कोई दस-पंद्रह साल तो मुल्क को इतने जोर से हिलाने की सब तरफ से जरूरत है। और ऐसे मित्र चाहिए जो सब तरफ चोट कर सकें और गांव-गांव में ऐसी हालत पैदा कर दें कि पूरा गांव संदिग्ध हो जाए कि अब कुछ मामला तय नहीं रहा। हमने अब तक जो तय माना था, वह तय नहीं है। जो हम अब तक सत्य समझे थे, वह सत्य नहीं है। जो किताब हमने किताब मानी थी, वह किताब नहीं है। जिसको गुरु कहा था, वह गुरु नहीं है। तो इस चिंतना से अपने आप ही वह सब पैदा होगा।
यह जो पश्चिम में दोत्तीन सौ वर्षों में इतना विज्ञान पैदा हो सका, उसके पीछे थोड़े से लोगों का हाथ था, जो वैज्ञानिक नहीं थे। जिन लोगों ने फ्रेंच क्रांति में, एनसाइक्लोपेडिट्स जो थे थोड़े से, जिन्होंने बहुत संदेह पैदा किया था सारी चीजों पर, वे मौलिक रूप से जन्मदाता बने। एक दफा संदेह पैदा हो गया तो कई लोग संदेह करने लगे। और जब संदेह पैदा होता है तो कई चीजों पर हो जाता है। जब एक दफा यह संदेह पैदा हो गया, किसी भी चीज के संबंध में...
गैलीलियो को पकड़ कर जो चर्च ने कहा, चर्च ने यह कहा गैलीलियो से, प्राइवेट में, चर्च के अधिकारियों ने प्राइवेट में गैलीलियो से यह कहा कि तुम्हारी बात ठीक भी हो सकती है, लेकिन हम उसे मानने को इसलिए राजी नहीं हैं कि बाइबिल की अगर एक बात गलत हो गई, तो बाकी सब चीजों पर संदेह पैदा हो जाएगा। गैलीलियो से प्राइवेट में यह कहा कि तुम्हारी बात ठीक भी हो सकती है, लेकिन हम उसे मानने को सिर्फ इसलिए राजी नहीं हो सकते हैं कि अगर बाइबिल की एक बात गलत होती है, तो लोगों को शक पैदा हो जाएगा कि दूसरी भी गलत हो सकती है। और फिर उसको सम्हालना मुश्किल हो जाएगा। तो गैलीलियो को जबरदस्ती बुलाया अदालत में और कहा कि लिखित माफी मांगो!
बूढ़ा आदमी था। उसने लिखित माफी मांगी। लेकिन उसने जो लिखा है वह बहुत अदभुत है! उसने लिखा कि तुम कहते हो कि पृथ्वी का चक्कर सूरज लगाता है, तो मैं माने लेता हूं और मैं क्षमा मांगता हूं कि मैंने ऐसा कहा कि पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है। लेकिन मेरे क्षमा मांगने से कुछ भी नहीं होता; पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है। इसमें मैं कुछ नहीं कर सकता हूं, मेरा कोई वश नहीं है। यह मेरा कसूर ही नहीं है कि पृथ्वी लगाती है। मैंने कहा, उसके लिए मैं क्षमा मांगे लेता हूं। लेकिन लगाती पृथ्वी सूरज का चक्कर है और सूरज पृथ्वी का चक्कर नहीं लगाता।
पर गैलीलियो की इस बात ने इतने संदेह उठा दिए कि सब गड़बड़ हो गया पूरा का पूरा। यह एक आदमी पूरी बाइबिल का भवन गिरा गया नीचे से ऊपर तक। और फिर जब लोग कहने लगे, एक शक हो सकता है, तो दूसरा शक भी हो सकता है।
हिंदुस्तान के साथ कठिनाई यह है कि तुम यह जान कर हैरान होओगे कि हिंदुस्तान के युवकों ने गीता में एक संदेह नहीं उठाया है तीन हजार साल से! यह मुल्क मरेगा नहीं तो क्या होगा? वेद में एक संदेह नहीं उठाया है हिंदुस्तान के युवकों ने। महावीर और बुद्ध में एक शक पैदा नहीं किया है कि यह आदमी गलत भी हो सकता है इस बात में! यह बड़ी आश्चर्यजनक बात है न! इतनी आश्चर्यजनक बात है कि तीन हजार साल की संस्कृति में हम युवक एक संदेह नहीं उठा सकते?
तो दो ही अर्थ हो सकते हैं: या तो सर्वज्ञ हो चुके, जो सब सही कह गए। या फिर दूसरा यह हो सकता है कि हम यह भूल ही गए कि प्रश्न उठाना भी एक कला है। और वह नहीं उठाया जाए तो मुश्किल हो जाती है। और जब तक हिंदुस्तान के युवक गीता में, कृष्ण में और बुद्ध में और महावीर में और राम में और गांधी में, इन सब में संदेह नहीं उठाएंगे...
और मैं तुमसे यह कहता हूं कि अगर एक-एक संदेह भी एक-एक में उठा दो, तो नींव गिर जाएगी। एक-एक संदेह! कोई ऐसा नहीं कि तुम पूरे संदेह को...बस एक तुम उठाओ; दूसरा दूसरा उठाएगा। और दस साल में तुम देखोगे कि हजारों संदेह उठ गए, जो कभी नहीं उठ रहे थे। बस एक सिलसिला चाहिए। और एक दफा पता चल जाए कि कृष्ण एक जगह पर गलती कर गए, तो हमें यह तो हो जाता है न कि कृष्ण और गलती भी कर सकते हैं! तो कोई ठेका नहीं ले लिया है किसी ने ठीक होने का।
तो मेरी तो अभी कोशिश यह है। और अकेला आदमी और कर भी नहीं सकता कुछ। क्योंकि मैं संगठन में विश्वास नहीं करता। क्योंकि मेरा मानना है कि सब संगठन विचार को रोकने वाले होते हैं। संप्रदाय में विश्वास नहीं करता, क्योंकि संप्रदाय रोकने वाले होते हैं। तो मेरा विश्वास तो व्यक्ति की चिंतना, साहस और हिम्मत में है। तो उसको कैसे जगाना, उस कोशिश में लगा हूं। उस जागने से कुछ लोगों को लगेगा कि कुछ करने योग्य आ गया, वे कुछ करेंगे और मुझसे पूछेंगे, तो मैं हमेशा राजी हूं उनसे कि मुझे क्या सूझता है, वह मैं कहूं।
लेकिन वे लोग तो आ जाएं, तभी कुछ कहना ठीक है। और नहीं तो एक नया वर्ग पैदा हो जाएगा। अगर मैं कोई योजना देता हूं कि यह करना है, तो मुझमें विश्वास करने वाला एक छोटा सा वर्ग खड़ा हो जाएगा। और वह मुझसे कहने लगेगा कि अब आप ये शक और संदेह की बातें मत करिए, क्योंकि हमारा सब काम गड़बड़ होता है।
तो अभी मैं उसकी बात ही नहीं करता। अभी तो मैं मुझ पर भी संदेह करने की पूरी चेष्टा करवाता हूं। पूरी चेष्टा करवाता हूं कि मैं भी संदिग्ध हो जाऊं, मुझ पर भी सोचो। और अब हिंदुस्तान में कोई आदमी असंदिग्ध न हो, सब आदमी संदिग्ध हों और सब विचार संदिग्ध हों। ताकि हम रोज सोच सकें और रोज आगे से आगे जा सकें।

फिर आता हूं कभी दो दिन के लिए--दो दिन या तीन दिन के लिए कुछ ऐसा करो, ताकि काफी जोर से सारे मुद्दे पर बातें हो सकें।



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