जो बोले सो हरि कथा-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
प्रवचन-सातवां-(धर्म और सदगुरु)
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक २७ जुलाई,
१९८०
पहला प्रश्न: भगवान, गुरु पूर्णिमा के इस पुनीत अवसर पर हम सभी शिष्यों के अत्यंत प्रेम व
अहोभावपूर्वक दंडवत प्रमाण स्वीकार करें। साथ ही गुरु-प्रार्थना के निम्नलिखित
श्लोक में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश
तीनों का रूप बताया है, परंतु इसके आगे उसे साक्षात परब्रह्म
भी कहा है! कृपा करके गुरु के इन विविध रूपों को हमें समझाने की अनुकंपा करें।
श्लोक है:
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो
महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
सत्य वेदांत!
यह सूत्र अपूर्व है। थोड़े से शब्दों में इतने राजों को एक साथ रख देने
की कला सदियों-सदियों में निखरती है। यह सूत्र किसी एक व्यक्ति ने निर्माण किया हो, ऐसा नहीं। अनंत काल में न मालूम कितने लोगों की जीवन-चेतना से गुजर कर इस
सूत्र ने यह रूप पाया होगा। इसलिए कौन इसका रचयिता है, कहा
नहीं जा सकता।
यह सूत्र किसी एक व्यक्ति का अनुदान नहीं है, सदियों के अनुभव का निचोड़। जैसे लाखों-लाखों गुलाब के फूल से कोई इत्र की
एक बूंद निचोड़े, ऐसा यह अपूर्व, अद्वितीय
सूत्र है। सुना तुमने बहुत बार है, इसलिए शायद समझना भी भूल
गए होओगे। यह भ्रांति होती है। जिस बात को हम बहुत बार सुन लेते हैं, लगता है: समझ गए--बिना समझे!
और यह सूत्र तो कंठ-कंठ पर है। और आज तो इस देश के कोने-कोने में
दोहराया जाएगा। लेकिन अकसर लोग इन सूत्रों को बस तोतों की भांति दोहराते हैं।
तोतों से ज्यादा उनके दोहराने में अर्थ नहीं होता। तोतों को तो जो सिखा दो, वही दोहराने लगते हैं।
और इस सूत्र को समझने के लिए प्रज्ञा चाहिए, बोध चाहिए, निखार चाहिए चेतना का; ध्यान की गरिमा चाहिए। समझने की कोशिश करो।
ईसाइयत ने परमात्मा को तीन रूप वाला कहा है। पता नहीं क्यों! लेकिन
पृथ्वी के कोने-कोने में, जहां भी धर्म का कभी भी अभ्युदय हुआ है, तीन का आंकड़ा किसी न किसी कोने से उभर ही आया है।
ईसाई कहते हैं उसे ट्रिनिटि। वह पिता-रूप है, पुत्र-रूप है और दोनों के मध्य में पवित्र-आत्मा-रूप है। लेकिन तीन का
आंकड़ा तो ठीक पकड़ में आया। मगर तीन को जो शब्द दिए, वे बहुत
बचकाने हैं। जैसे छोटा-सा बच्चा परमात्मा के संबंध में सोचता हो, तो वह पिता के अर्थों में ही सोच सकता है। उसकी कल्पना उसकी मनो-चेतना से
बहुत दूर नहीं जा सकती। इसलिए ईसाइयत में थोड़ा बचकानापन है। उसकी धारणाओं में वह
परिष्कार नहीं है...।
भारत ने भी इस तीन के आंकड़े को निखारा है! सदियों-सदियों में इस पर
धार रखी है। हम परमात्मा को त्रिमूर्ति कहते हैं। उसके तीन चेहरे हैं। वह तो एक है, लेकिन उसके तीन पहलू हैं। वह तो एक है, लेकिन उसके
तीन आयाम हैं। उसके मंदिर के तीन द्वार हैं।
और त्रिमूर्ति की धारणा में और विकास नहीं किया जा सकता। वह पराकाष्ठा
है।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश--ये तीन परमात्मा
के चेहरे हैं। ब्रह्मा का अर्थ होता है, सर्जक, स्रष्टा। विष्णु का अर्थ होता है--सम्हालने वाला। और महेश का अर्थ होता
है--विध्वंसक।
यह विध्वंस की धारणा भी परमात्मा में समाविष्ट की जा सकती है, यह सिवाय इस देश के और कहीं भी घटी नहीं। स्रष्टा तो सभी संस्कृतियों ने
उसे कहा है, लेकिन विध्वंसक केवल हम कह सके। सृजन तो आधी बात
है; एक पहलू है। जो बनाएगा, वह मिटाने
में भी समर्थ होना चाहिए। सच तो यह है: जो मिटा न सके, वह
बना भी न सकेगा। जैसे कोई मूर्तिकार मूर्ति बनाए। तो मूर्ति का निर्माण ही विध्वंस
से शुरू होता है। उठाता है छेनी-हथौड़ी, तोड़ता है पत्थर को!
अगर पत्थर में प्राण होते, तो चीखता कि क्यों मुझे तोड़ते हो!
यूं टूट-टूट कर पत्थर में से प्रतिमा प्रकट होती है--बुद्ध की, महावीर की, कृष्ण की।
विध्वंस के बिना सृजन नहीं है। और जो चीज भी बनेगी, उसे मिटना भी होगा। क्योंकि बनने की घटना समय में घटती है, और समय में शाश्वत कुछ भी नहीं हो सकता। जो बना है, उसे
मिटना ही होगा।
होने में एक तरह की थकान है। हर चीज थक जाती है! यह जानकर तुम चकित
होओगे कि आधुनिक विज्ञान कहता है कि धातुएं भी थक जाती हैं। सर जगदीशचंद्र बसु की
बहुत-सी खोजों में एक खोज यह भी थी, जिन पर उनको नोबल
पुरस्कार मिला था, कि धातुएं भी थक जाती हैं। जैसे कलम से
तुम लिखते हो, तो तुम्हारा हाथ ही नहीं थकता; कलम भी थक जाती है। जगदीशचंद्र बसु ने तो इसे मापने की भी व्यवस्था खोज ली
थी। और अब तो जगदीशचंद्र को हुए काफी समय हो गया, आधी सदी
बीत गई। इस आधी सदी में बहुत परिष्कार हुआ विज्ञान का। अब तो पता चला है, हर चीज थक जाती है; मशीनें थक जाती हैं, उनको भी विश्राम चाहिए!
विध्वंस विश्राम है। जन्म एक पहलू। जीवन दूसरा पहलू। मृत्यु तीसरा
पहलू। जीवन तो थकाएगा। इसलिए मृत्यु को कभी हमने बुरे भाव से नहीं देखा। हमने यम
को भी देवता कहा। हमने उसे भी शैतान नहीं कहा। वह भी दिव्य है। मृत्यु भी दिव्य
है।
कठोपनिषद की तो प्यारी कथा है कि नचिकेता अपने पिता के पास बैठा है।
छोटा-सा बच्चा है। और पिता ने एक महान यज्ञ किया है और वह गौवें बांट रहा है। पिता
तो बूढ़ा होगा, तो बेईमान होगा! बूढ़ा आदमी--और बेईमान न हो, जरा मुश्किल! बेटा--और बेईमान हो, यह भी जरा
मुश्किल। छोटा बच्चा--अभी अनुभव ही क्या है कि बेईमान हो जाए! बेईमानी के लिए
अनुभव चाहिए। ईमानदारी के लिए अनुभव की कोई जरूरत नहीं। ईमानदारी स्वाभाविक है।
इसलिए हर बच्चा ईमानदार पैदा होता है। और धन्यभागी हैं वे, जो
मरते समय पुनः ईमानदारी को उपलब्ध हो जाते हैं। वही ऋषि हैं, वही संत हैं। वही गुरु हैं--जो पुनः बच्चे जैसी सरलता को उपलब्ध हो जाते
हैं।
ऐसी सरलता तथाकथित अनुभवी आदमी में नहीं होती। अनुभव का अर्थ ही यह
होता है कि देखीं दुनिया की चालबाजियां; पहचाने दुनिया के
ढंग। और हर ढंग से, हर पहचान से चतुरता सीखी। चतुरता का मतलब
होता है कि अब हम भी गला काटने में कुशल हो गए! यूं कटेंगे कि कानों कान पता भी न
चले! यूं काटेंगे कि जिसका गला काटें, उसे भी पता न चले!
बाप तो बूढ़ा था, सम्राट था, गौवें बांट रहा था। बेटा देख रहा था। बेटे को समझ नहीं आ रहा था! बिलकुल
मर गई सी गौवें, जिन्होंने वर्षों हो गए, तब से दूध देना बंद किया। ये क्यों बांटी जा रही हैं! तो वह पूछने लगा
अपने पिता से कि इन मुरदा गौवों को बांट रहे हो! न ये दूध देती हैं, न ये दूध देने वाली हैं! न बच्चे इनके पैदा होंगे! और जिनको तुम दे रहे हो,
इन गरीबों को तुम सोच रहे हो, दान दे रहे हो!
ये इतना पालन-पोषण करने में और दीन-हीन हो जाएंगे! ये मृत गौवें किसलिए भेंट कर
रहे हो?
छोटे बच्चों को बहुत-सी बातें दिखाई पड़ जाती हैं, जो बूढ़ों को नहीं दिखाई पड़तीं। बूढ़ों की आंख पर तो धुंध की पर्त हो जाती
है!
इसलिए जो संस्कृति, जो देश जितना बूढ़ा हो जाता है,
उतना बेईमान हो जाता है। इस देश की बेईमानी का बुनियादी आधार यही
है। हमसे पुराना कोई देश नहीं; हमसे बढ़ा कोई देश नहीं। हम
मरना ही भूल गए हैं। हम ब्रह्मा में ही अटके हैं; हमें महेश
की याद ही नहीं रही।
कितनी संस्कृतियां पैदा हुईं! बेबीलोन, असीरिया, मिश्र, रोम, एथेंस--सब खो गए!
मेरे पास भारत के एक राजनीतिज्ञ सेठ गोविंददास अकसर आते थे। तो वे अकसर
कहते थे: हमारी संस्कृति अदभुत है! सारी संस्कृतियां पैदा हुईं और मर गईं; सिर्फ हम जिंदा हैं! बहुत बार मैंने सुना। बूढ़े आदमी थे। मैंने उनसे कहा
कि इसको गौरव मत समझो। जीना जितना महत्वपूर्ण है, मरना भी
उतना ही महत्वपूर्ण है। मरना भी आना चाहिए उसकी भी कला होती है। इस देश को मरना ही
भूल गया है। और जब कोई देश मरना भूल जाए, तो थक जाता है,
ऊब जाता है, बेईमान हो जाता है। उदास हो जाता
है। उसका नृत्य खो जाता है। उसके पैरों में घूंघर नहीं बजते। उसके ओठों से बांसुरी
छिन जाती है। यौवन ही गया, तो बांसुरी कहां! घूंघर कैसे
बंधें? लाश रह जाती है, जिसमें से
सिर्फ दुर्गंध उठती है। मरना भी चाहिए, क्योंकि मरने के बाद
पुनर्जन्म है।
मृत्यु तुम्हें छुटकारा दिला देती है सब सड़े-गले से, सब बेईमानियों से, सब पाखंड से; फिर तुम्हें नया कर देती है। मृत्यु की कला यही है; मृत्यु
का वरदान यही है। मृत्यु अभिशाप नहीं है।
जरा सोचो, अगर सारे लोग मरना भूल जाएं, तो
किसी भी घर में जीना मुश्किल हो जाएगा। यूं ही हो गया है। अगर घर में बूढ़े ही बूढ़े
इकट्ठे हो जाएं, यूं तुम रोते हो पितृपक्ष में; जो मर गए, उनको तुम भेंट चढ़ा देते हो, मगर जरा सोचो कि अगर जिंदा होते, तो गरदनें काटनी
पड़तीं! एक घर में अगर हजार, दो हजार साल से कोई मरा ही न
होता, तो क्या गति हो जाती! क्या दुर्गति हो जाती! महा गौरव
नर्क पैदा हो जाता। उस घर में बच्चे तो फिर सांस ही नहीं ले सकते थे। वे तो सांस
लेते ही मर जाते। इतने बूढ़े जहां सांस ले रहे हों...!
मुल्ला नसरुद्दीन अखबार पढ़ रहा था। अखबार में खबर छपी थी। किसी
वैज्ञानिक ने हिसाब लगाया था कि जब भी तुम सांस लेते हो, उतनी देर में पृथ्वी पर पांच आदमी मर जाते हैं!
मुल्ला ने अपनी पत्नी को कहा, जो भोजन पका रही थी,
कि सुनती हो, फजलू की मां, जब भी मैं एक बार सांस लेता हूं, पांच आदमी मर जाते
हैं!
फजलू की मां ने कहा, मैंने तो कई दफे कहा कि तुम सांस
लेना बंद क्यों नहीं करते! अब कब तक सांस लेते रहोगे और लोगों को मारते रहोगे?
जिस घर में हजारों साल से बूढ़े सांस ले रहे हों, उस घर में हवाओं में जहर होगा। हमारे घर में तो यह हो गई है हालत। यहां
बूढ़े सांस ले रहे हैं; मरते ही नहीं! विदा ही नहीं होते!
हम तो अतीत को ऐसा छाती से लगाए हुए हैं। कब्रों को ढो रहे हैं।
कब्रों के नीचे दबे जा रहे हैं! लाशों को ढो रहे हैं। लाशों के नीचे जो जीवित है, वह कहां खो गया, पता लगाना मुश्किल हो गया!
हम ऐसे परंपरावादी! हम ऐसे जड़वादी!
मृत्यु उपयोगी है उतनी ही, जितना जन्म। जन्म
जगाता है तुम्हें; मिट्टी में प्राण फूंक देता है। फिर थक
जाओगे--सत्तर साल, अस्सी साल, नब्बे
साल, सौ साल...! फिर वापस लौट जाना है मूलस्रोत को। हवा हवा
में मिल जाए। पानी पानी में मिल जाए। मिट्टी मिट्टी में मिल जाए। आकाश आकाश में
मिल जाए। प्राण महाप्राण में मिल जाए--मूल स्रोत में, ताकि
तुम फिर पुनरुज्जीवित हो सको, नई ऊर्जा ले कर।
ये सारी संस्कृतियां जो मर गईं, ये फिर से
पुनरुज्जीवित होती रहीं। हम मरे नहीं, तो सड़े। हम
पुनरुज्जीवित नहीं हो पाए।
मैं चाहूंगा कि भारत मरना सीखे, ताकि फिर से जीवित हो
सके; ताकि फिर से यौवन का संचरण हो; ताकि
फिर बच्चों की किलकारी सुनाई पड़े। बूढ़ों की बकवास सुनते-सुनते बहुत समय हो गया।
हम लेकिन अकेले हैं, जिन्होंने यह बात पहचानी थी कि
जीवन मूल्यवान है, जन्म मूल्यवान है--मृत्यु भी मूल्यवान है।
और इन तीनों को दिव्य कहा; परमात्मा के तीन रूप कहा--ब्रह्मा,
विष्णु, महेश।
यह जान कर तुम चकित होओगे कि भारत में, पूरे भारत में,
ब्रह्मा को समर्पित केवल एक मंदिर है! यह बात महत्वपूर्ण है।
क्योंकि ब्रह्मा का काम तो हो चुका। यह तो प्रतीकरूप से एक मंदिर समर्पित कर दिया
है; यूं ब्रह्मा का काम पूरा हो चुका।
हां, विष्णु के बहुत मंदिर हैं। सारे अवतार विष्णु के हैं।
राम, कृष्ण, बुद्ध, परशु-राम--ये सब विष्णु के अवतार हैं। इनमें कोई भी ब्रह्मा का अवतार नहीं
है। ये सम्हालने वाले हैं। जैसे घर में कोई बीमार हो, तो
डाक्टर को बुलाना पड़ता है, ऐसे आदमी बीमार है, तो जीवन के विराट स्रोत से चिकित्सक पैदा होते रहे। बुद्ध ने कहा है कि
मैं वैद्य हूं--विद्वान नहीं। और नानक ने भी कहा है कि मैं वैद्य हूं। मेरा काम है,
तुम्हारे जीवन को रोगों से मुक्त कर देना; तुम्हारे
जीवन को स्वास्थ्य दे देना; तुम्हें जीवन को जीने की जो कला
है, वह सिखा देना।
तो विष्णु के बहुत मंदिर हैं। राम का मंदिर हो, कि कृष्ण का मंदिर हो, कि बुद्ध का मंदिर हो--सब
विष्णु के मंदिर हैं। ये सब विष्णु के अवतार हैं। विष्णु का काम बड़ा है। क्योंकि
जन्म एक क्षण में घट जाता है; मृत्यु भी एक क्षण में घट जाती
है; जीवन तो वर्षों लंबा होता है!
और तीसरी बात भी खयाल रखना कि विष्णु से भी ज्यादा मंदिर शिव के हैं, महेश के हैं। इतने मंदिर हैं कि मंदिर बनाना भी हमें बंद करना पड़ा। अब तो
कहीं भी एक शंकर की पिंडी रख दी झाड़ के नीचे--मंदिर बन गया! कहीं से भी गोल-मटोल
शंकर को ढूंढ लाए; बिठा दिया; दो फूल
चढ़ा दिए! फूल भी कितने चढ़ाओगे! इसलिए शंकर पर पत्तियां ही चढ़ा देते हैं, बेल पत्री! फूल भी कहां से लाओगे! इतने शंकर के मंदिर हैं--हर झाड़ के
नीचे! गांव-गांव में! वह भी प्रतीक उपयोग है।
जन्म हो चुका; सृष्टि हो चुकी; ब्रह्मा का काम
निपट गया। जीवन चल रहा है, इसलिए विष्णु का काम जारी है।
लेकिन बड़ा काम तो होने को है, वह महेश का है; वह है जीवन को फिर से निमज्जित कर देना; असृष्टि;
जीवन को विसर्जित कर देना; महा प्रलय, जिसमें कि सब खो जाएगा, और फिर सब जागेगा--ताजा होकर
जागेगा।
हम निद्रा को भी छोटी मृत्यु कहते हैं। उसका भी कारण यही है कि प्रति
रात्रि, जब तुम गहरी निद्रा में होते हो, तो छोटी-सी मृत्यु घटती हैं; छोटी-सी आण्विक। जब
चित्त बिलकुल शून्य हो जाता है, निर्विचार, इतना निर्विचार कि स्वप्न की झलक भी नहीं रह जाती, तब
तुम कहां चले जाते हो! तब तुम मृत्यु में लीन हो जाते हो; तुम
वहीं पहुंच जाते हो, जहां मर कर लोग पहुंचते हैं।
सुषुप्ति छोटी-सी मृत्यु है, इसीलिए तो सुबह तुम
ताजे मालूम पड़ते हो। वह ताजगी, रात तुम जो मरे, उसके कारण होती है। सुबह तुम जो प्रसन्न उठते हो, प्रमुदित--चेहरे
पर जो झलक होती है, फिर जीवन में रस आ गया होता है, फिर पैरों में गति आ गई होती है, फिर तुम काम-धाम के
लिए तत्पर हो गए होते हो--वह इसीलिए कि रात तुम मर गए।
जो व्यक्ति रात स्वप्न ही स्वप्न देखता रहा है, वह सुबह थका-मांदा उठता है। वह सुबह और भी थका होता है। जितना कि रात जब
सोने गया था--उससे भी ज्यादा थका होता है क्योंकि रात भर और सपने देखे! सपनों में
जूझा। दुख-स्वप्न! पहाड़ों से पटका गया, घसीटा गया!
भूत-प्रेतों ने सताया! छाती पर राक्षस नाचे! क्या-क्या नहीं हुआ!
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात सोया है और सपना देख रहा है कि भाग रहा हूं, भाग रहा हूं, भाग रहा हूं--तेजी से भाग रहा हूं! एक
सिंह पीछे लगा हुआ है! और वह करीब आता जा रहा है! इतना करीब कि उसकी सांस पीठ पर
मालूम पड़ने लगी। तब तो मुल्ला ने सोचा कि मारे गए! अब बचना मुश्किल है। और जब सिंह
ने पंजा भी उसकी पीठ पर रख दिया, तो घबड़ाहट में उसकी नींद
खुल गई। देखा, तो और कोई नहीं--पत्नी...! हाथ उसकी पीठ पर
रखे है...!
पत्नियां नींद में भी ध्यान रखती हैं कि कहीं भाग तो नहीं गए! कहीं
पड़ोसी के घर में तो नहीं पहुंच गए!
मुल्ला ने कहा कि माई! कम से कम रात तो सो लेने दिया कर! दिन में जो
करना हो, कर। और क्या मेरी पीठ पर सांसें ले रही थीं कि मेरी
जान निकली जा रही थी! यह कोई ढंग है!
एक दिन सुबह-सुबह बैठ कर अपने मित्रों को सुना रहा था कि शेर के शिकार
को गया था। घंटों हो गए, शिकार मिले ही नहीं। सब मित्र थक गए। मैंने कहा,
मत घबड़ाओ। मुझे आवाज देनी आती है, जानवरों की।
तो मैंने सिंह की आवाज की, गर्जना की। क्या मेरी गर्जना करनी
थी कि फौरन एक गुफा में से सिंहनी निकल कर बाहर आ गई! धड़ा-धड़ हमने बंदूक मारी,
सिंहनी का फैसला किया।
मित्रों ने कहा, अरे, तो
तुम्हें इस तरह की आवाज करनी आती है! जरा यहां करके हमें बताओ तो, कैसी आवाज की थी!
मुल्ला ने कहा, भाई, यहां न करवाओ तो अच्छा।
नहीं माने मित्र कि नहीं, जरा करके जरा-सा तो
बता दो।
जोश चढ़ा दिया, तो उसने कर दी आवाज। और तत्काल उसकी पत्नी ने दरवाजा
खोला और कहा, क्यों रे, अब तुझे क्या
तकलीफ हो गई?
मुल्ला बोला, देखो! सिंहनी हाजिर! इधर आवाज दी, तुम देख लो; खुद अपनी आंखों से देख लो! पत्नी खड़ी है
विकराल रूप लिए वहां! हाथ में अभी भी बेलन उसके!
मुल्ला ने कहा, अब तो मानते हो! कि मुझे आती है जानवरों की आवाज!
रात तुम अगर ऐसे सपने देखोगे, ऐसी आवाजें बोलोगे,
ऐसी आवाजें निकालोगे...रात देखो, लोग
क्या-क्या आवाजें निकालते हैं! कभी उठकर बैठ कर निरीक्षण करने जैसा होता है!
मैं वर्षों तक सफर करता रहा, तो मुझे अकसर यह झंझट
आ जाती थी। रात एक ही डिब्बे में किसी के साथ सोना! एक बार तो यूं हुआ, चार आदमी डिब्बे में, मगर अदभुत संयोग था, चमत्कार कहना चाहिए, कि पहले आदमी ने जो गुर्राहट
शुरू की, तो मैंने कहा कि आज सोना मुश्किल। मगर उसके ऊपर की
बर्थ वाले ने जवाब दिया तो मैंने कहा, पहला तो कुछ नहीं
है--नाबालिग! दूसरा तो गजब का था! मैंने कहा, आज की रात तो
बिलकुल गई!
और उनमें ऐसे जवाब-सवाल होने लगे! संगत छिड़ गई! तीसरा थोड़ी देर चुप
रहा, जो मेरे ऊपर की बर्थ पर था, जब
उसने आवाज दी, तब तो मैं उठकर बैठ गया। मैंने कहा, अब बेकार है; अब चेष्टा ही करनी बेकार है। और उन
तीनों में क्या साज-सिंगार छिड़ा!
थोड़ी देर तक तो मैंने सुना। मैंने कहा कि यह तो मुश्किल मामला है; यह पूरी रात चलने वाला है। तो मैंने भी आंखें बंद कीं और फिर मैं भी जोर
से दहाड़ा। वे तीनों उठ कर बैठ गए! बोले कि भाईजान, अगर आप
इतनी जोर से नींद में और गुर्राएंगे, तो हम सोएंगे कैसे?
मैंने कहा, सो कौन रहा है मूरख! मैं जग रहा हूं। और तुम्हें
चेतावनी दे रहा हूं कि अगर तुमने हरकत की--न मैं सोऊंगा, न
तुम्हें सोने दूंगा। सो तुम रहे हो, मैं जग रहा हूं। मैं
बिलकुल जग कर आवाज कर रहा हूं। नींद में मैं आवाज नहीं करता। तुम सम्हल कर रहो,
नहीं तो मैं...रात भर मैं भी तुम्हें नहीं सोने दूंगा!
लोग सोते क्या हैं, रात में भी सुर-सिंगार चलता है।
और क्या जवाब-सवाल! और फिर उनके भीतर क्या चल रहा है, वह तुम
सोच सकते हो। कैसी-कैसी मुसीबतों में से गुजर रहे होंगे! फिर सुबह अगर थके-मांदे
उठें, तो आश्चर्य क्या! सोए ही नहीं।
सुषुप्ति! स्वप्नरहित निद्रा अगर सिर्फ आधा घड़ी को भी रात मिल जाए, तो पर्याप्त है; तो तुम्हें चौबीस घंटे के लिए ताजा
कर जाती है। रात वृक्ष भी सो जाते हैं, तभी तो सुबह उनके फूल
फिर खिल आते हैं, और फिर सुगंध उड़ने लगती है। रात पक्षी भी
सो जाते हैं, तभी तो सुबह फिर उनके कंठों से गीत झरने लगते
हैं। उन गीतों को मैं साधारण गीत नहीं कहता; श्रीमदभगवदगीता
कहता हूं। वे वह गीत हैं, जो कृष्ण के। उनके कंठों से कुरान
की आयतें उठने लगती हैं। लेकिन यह सारा चमत्कार घटता है, रात
छोटी-सी मृत्यु के कारण।
तुम देखते हो, जब छोटे बच्चे पैदा होते हैं, उनकी
सरलता, उनका सौंदर्य, उनकी सौम्यता,
उनका प्रसाद! यह कहां से आया! ये भी बूढ़े थे; मर
गए; फिर पुनरुज्जीवित हुए हैं।
धर्म जीते जी मरने की और पुनरुज्जीवित होने की कला है। इसलिए गुरु को
हमने तीनों नाम दिए हैं--ब्रह्मा, विष्णु, महेश।
ब्रह्मा का अर्थ है: जो बनाए। विष्णु का अर्थ है, जो
सम्हाले। महेश का अर्थ है--जो मिटाए। सदगुरु वही है, जो
तीनों कलाएं जानता हो।
तुम तो उन गुरुओं को खोजते हो, जो तुम्हें मिटाएं
ना--जो तुम्हें संवारें। मगर जिसे मिटाना नहीं आता, वह क्या
खाक संवारेगा? बिना मिटाए, इस जीवन में
कुछ निर्मित होता है?
तुम तो उन गुरुओं के पास जाते हो, जो तुम्हें सांत्वना
दें। सांत्वना यानी सम्हालें। तुम्हारी मलहम-पट्टी करें। तुम्हें इस तरह के
विश्वास दें, जिससे तुम्हारे भय कम हो जाएं, चिंताएं कम हो जाएं। ये सदगुरु नहीं हैं।
सदगुरु तो वह है, जो तुम्हें नया जन्म दे। लेकिन
नया जन्म तो तभी संभव है, जब गुरु पहले तुम्हें मारे,
मिटाए, तोड़े।
एक बहुत प्राचीन सूत्र है: आचार्यो मृत्युः। वह जो आचार्य है, वह जो गुरु है, वह मृत्यु है। जिसने भी कहा होगा,
जान कर कहा होगा, जी कर कहा होगा। पृथ्वी के
किसी और कोने में किसी ने भी गुरु को मृत्यु नहीं कहा है। हम ने गुरु को मृत्यु
कहा; मृत्यु को गुरु कहा।
नचिकेता की मैं तुमसे कहानी कह रहा था। जब उसने पिता से कहा कि क्या
इन मुरदा गौवों को तुम दे रहे हो? उसे साफ दिखाई पड़ने लगा, कि यह क्या मजाक हो रहा है! इसको दान कहा जा रहा है! और मूढ़ पुरोहित बड़ी
प्रशंसा और स्तुति कर रहे हैं उसके पिता की कि अहा, महादानी
हो तुम! महादाता हो! तुम जैसा दाता कब हुआ, कब होगा! अरे
सदियों में ऐसा आदमी होता है! और दे रहा है--मरी-मराई गौवें!
बच्चे तो जल्दी पहचान लेते हैं। उनमें अभी कोई चालबाजी नहीं है। आंख
साफ-सुथरी होती है। धुआं नहीं है अभी। अभी न विचारों का धुआं है, न धारणाओं का धुआं है। न अभी हिंदू हैं, न मुसलमान
हैं, न ईसाई हैं। अभी कुछ उपद्रव हुआ नहीं। अभी तो स्लेट
कोरी है। इसलिए साफ उन्हें दिखाई पड़ता है।
एक बच्चा अपने चाचा के घर रहता था। चाचा उसे खाना न दे। या इतना कम दे
कि बस, किसी तरह जी रहा था। फटे-पुराने कपड़े पहनाए। खरीद लाए
पुराने, चोर-बाजार से। पैजामे की टांगें लंबी, कोट के हाथ छोटे; टोपी ऐसी कि जिसकी खोपड़ी पर बिठा
दो, वही सरदार हो जाए! खोपड़ी बिलकुल बंद ही कर दे! यह कस कर
साफा बांधने से ही तो आदमी सरदार होता है। नहीं तो कोई हो सकता है! ऐसा कस कर
बांधते हैं कि भीतर कुछ बचता ही नहीं फिर!
तो बच्चा बड़ी तकलीफ में था। लेकिन अब करे क्या! बाप मर गया; मां मर गई; चाचा के पास, चाचा
के पल्ले पड़ गया।
एक दिन दोनों बैठे थे। यह गरीब बच्चा भी बैठा था और चाचा भी अखबार पढ़
रहे थे और हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। तभी एक बिलकुल मुरदा कुत्ता, बिलकुल मुरदा, खांसता-खखारता, खुजली-खुजली,
शरीर बिलकुल हड्डी-हड्डी--घर में घुस आया। चाचा ने कहा कि अरे भगा
इसको! यह मुरदा कुत्ता यहां कहां से आ गया! हड्डी-हड्डी हो रहा है!
उस बेटे कहा कि मालूम होता है, यह भी अपने चाचा के
पास रहता है! इसकी हालत तो देखो!
छोटे बच्चों को चीजें साफ दिखाई पड़ती हैं कि अब यह मामला साफ ही है!
हुक्का गुड़गुड़ा रहे हो; इसका मुरदापन दिखाई पड़ रहा है; मेरी
हालत नहीं देख रहे!
ऐसा ही नचिकेता ने अपने पिता से पूछा कि मरी हुई, मुरदा गौवों को तुम भेंट कर रहे हो, शर्म नहीं आती!
बाप को गुस्सा आ गया। बाप ही क्या, जिसको गुस्सा न आ
जाए!
उसने कहा, तू चुप रह! नहीं तो तुझको भी भेंट कर दूंगा!
तो बेटे को तो बड़ा आनंद आया। बेटे ने सोचा: यह बड़े मजे की बात है!
उसको तो मन में बड़ा कुतूहल जगा, जिज्ञासा जगी कि किसको भेंट
करेगा! सो वह पूछने लगा बार-बार कि अब फिर कब भेंट करिएगा! अब तो महोत्सव भी
समाप्त हुआ जा रहा है; मुझको कब भेंट करिएगा? मुझको किसको भेंट करिएगा?
बाप और गुस्से में आ गया! कहा कि तुझे तो मृत्यु को ही भेंट कर दूंगा।
यम को दे दूंगा तुझे।
तो उसने कहा, दे ही दो!
ऐसी यह नचिकेता की प्यारी कथा है कि बाप ने कहा, जा, दिया तुझे मृत्यु को। यह तो वह गुस्से में ही कह
रहा था। कौन किसको मृत्यु को देता है! कब नहीं मां-बाप गुस्से में आ कर बेटे से कह
देते हैं कि तू पैदा ही न होता तो अच्छा था। अरे, जा मर ही
जा! शकल मत दिखाना अब दुबारा!
मगर नचिकेता भी एक था। वह चल पड़ा मृत्यु की तलाश में, कि बाप ने तो भेंट कर दिया; मृत्यु है कहा? और कहती है कहानी कि वह पहुंच गया यम के द्वार पर। यह बाहर गए थे। फुर्सत
कहां उनको; इतने लोग मरते रहते हैं! जगह-जगह लटके हैं
अस्पतालों में! तरहत्तरह की तरकीबें कर रहे हैं--मरने की, जीने
की! भागते फिरते हैं! पुराने जमाने में तो वे भैंसे पर ही चलते थे; अब लेकिन हवाई जहाज में जाते होंगे, क्योंकि अब
तो--भैंसों पर जाओगे, तो कहां पूरा कर पाओगे! एक को ढोकर
पहुंचोगे, तब तक लाख यहां मर जाएंगे! वह पुरानी बात--भैंसे
पर चलते थे; अब नहीं! अब चलते भी होंगे तो, अगर तुमको काला ही रंग पसंद हो, और भैंसे ही
जैसा--तो रेलगाड़ी समझो! और नए ढंग की रेलगाड़ी नहीं--वही पुरानी कोयले से चलने
वाली। उसका इंजिन लगता भी यमदूत जैसा था! एकदम छाती दहलाता हुआ आता।
पहली बार तो जब रेलगाड़ी चली, तो इंग्लैंड में कोई
सवार होने को राजी नहीं था, कि लोगों ने अफवाह उड़ा दी कि यह
शैतान की ईजाद है! इसकी शकल ही देख लो! और लोग शकल देखकर भाग गए, कि अरे, बिलकुल सच कह रहे हैं। कोई आदमी ऐसी चीज
ईजाद करे, जिसकी शकल तो देखो पहले! और पादरियों ने ही यह
अफवाह उड़ा दी कि जो इसमें बैठेगा, वह समझ ले कि गया! क्योंकि
यह चलेगी, तो फिर रुकेगी नहीं! कोई बैठने को राजी नहीं था।
पहली दफे जो लोग रेल में बैठे थे, कुल बीस-पच्चीस आदमी।
रेल थी तीन सौ आदमियों को बिठालने वाली, और बीस-पच्चीस को भी
जबर्दस्ती बिठाया गया था। कुछ तो उसमें अपराधी थे, जिनको
मजिस्ट्रेटों ने कहा कि जाओ, रेल में बैठो। तुमको सजा नहीं
होगा। उन्होंने कहा, चलो मरना ही है। जेल में मरे कि इसमें
मरे! यात्रा भी हो जाएगी। चलो देखें! कुछ ऐसे थे, जिनको
देश-निकाला दिया जाने वाला था। उनसे कहा कि तुम बैठ जाओ रेलगाड़ी में, तो देश-निकाला नहीं दिया जाएगा। मतलब प्रयोग करके देखना था कि होता क्या
है!
और कुछ हिम्मतवर लोग थे, मगर उनने भी पैसा
लिया था बैठने का। कि भई, अपनी जान जोखम में डाल रहे हैं;
अगर हम मर जाएं, या रेलगाड़ी न रुके, तो हमारे पत्नी-बच्चों की कौन देख-भाल करेगा! तो उनको गारंटी लिख कर दी गई
थी कि उसकी देख-भाल की फिक्र सरकार की होगी। तब कहीं बीस-पच्चीस आदमी रेलगाड़ी में
चले। और उनके घर वाले उन्हें विदा करने आए थे, तो बिलकुल
आखिरी विदा दे गए थे, कि भैया, अब जा
ही रहे हो, अब क्या मिलना होगा! अब के बिछड़े पता नहीं कब
मिलें! जैसे किताबों में सूखे हुए गुलाब मिलें...। पता नहीं कब--अब यह कब घटना
घटेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। आखिरी नमस्कार करके चले गए थे।
रो रही थीं पत्नियां; बच्चे रो रहे थे। क्या करें!
और रेलगाड़ी जिस गांव से निकली, उस गांव से लोग भाग
गए! कि रेलगाड़ी जा रही है! बामुश्किल जब रेलगाड़ी रुक गई, तब
लोगों को भरोसा आया कि अरे, नहीं, यह
रुकना भी जानती है!
यमदूत तीन दिन बाद लौटे। भैंसे की यात्रा, और ढोते-फिरते रहे होंगे। यम की पत्नी ने बहुत समझाया नचिकेता को कि बेटा,
तू भोजन तो कर ले। उसने कहा कि मैं भोजन न करूंगा। जब तक यम से मेरा
मिलना न हो जाए, मैं ऐसा ही भूखा बैठा रहूंगा। वह बैठा ही
रहा। वह पहला सत्याग्रही था!
यमदूत थके हुए आए। भैंसे से उतरे। देखा, यह लड़का बिलकुल सूखा
जा रहा है, तीन दिन से। कहा, तुझे क्या
हुआ बेटा?
कहा, मेरे बाप ने कहा कि मौत को देता हूं, तो मैं आपकी बड़ी तलाश करके यहां तक पहुंचा। आप मिले नहीं। न मिले--तो
मैंने भोजन नहीं किया। सोचा, जब मिलेंगे तभी भोजन करूंगा।
यह बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि तू तीन वर मांग ले। तू तीन
वरदान मांग ले। धन मांग ले, पद मांग ले, प्रतिष्ठा मांग ले।
उसने कहा कि उस सब में तो कुछ सार नहीं। वह मैं पिता के पास देख चुका।
धन भी देख चुका; पद भी देख चुका; प्रतिष्ठा भी
देख चुका। उससे अक्ल भी नहीं आती, और तो क्या खाक आएगा! मुझे
तो मृत्यु का राज समझा दो। मुझे तो बता दो, यह मृत्यु क्या
है!
यम ने कहा कि यह जरा कठिन है, क्योंकि मृत्यु का
जिसने राज जान लिया, उसने अमृत का राज जान लिया! तू तो बड़ा
होशियार है! तू पूछ तो रहा है मृत्यु के लिए, लेकिन मृत्यु
की बताने में मुझे तुझे अमृत की बतानी पड़े!
लेकिन नचिकेता तो रुका ही रहा। उसने कहा, फिर मैं भोजन नहीं करूंगा। मैं यूं ही मर जाऊंगा। यहीं सत्याग्रह करता हुआ
मर जाऊंगा!
यम को बहुत दया आई। उसे मृत्यु का राज बताया। मृत्यु का राज जानते ही
उसे अमृत का सूत्र उपलब्ध हो गया।
मृत्यु को जिसने पहचान लिया, उसने अमृत को पहचान
लिया।
सदगुरु के पास मृत्यु को जानना, मृत्यु को जीना,
मृत्यु में गुजरना--यही साधना है।
हमने ये तीनों रूप सदगुरु को दिए। वह बनाता है; वह सम्हालता है, वह मिटाता है। वह मिटा ही नहीं
डालता। वह सिर्फ बना कर ही नहीं छोड़ देता। वह सिर्फ सम्हालता ही नहीं रहता। इसलिए
तो सदगुरु के पास तो सिर्फ हिम्मतवर लोग ही जा सकते हैं, जिनके
मरने की तैयारी हो, जो मिटने को राजी हों।
सांत्वना के लिए जो जाते हैं सदगुरु के पास उनको पंडित-पुरोहितों के
पास जाना चाहिए। वह उनका धंधा है। कि तुम रोते गए, उन्होंने तुम्हारे
आंसू पोंछ दिए, पीठ थपथपा दी कि मत घबड़ाओ, सब ठीक हो जाएगा! कुछ सिद्धांत पकड़ा दिए कि यह तो दुख था, कट गया। अच्छा ही हुआ। पिछले जन्म का कर्म कट गया। एक कर्म से छुटकारा हो
गया। और आगे सब ठीक ही ठीक है। और यह ले जाओ, हनुमान चालीसा
पढ़ना। और बजरंगबली प्रसन्न रहें, तो सब ठीक है! कुछ मंत्र
वगैरह पकड़ा दिया कि राम-राम जपते रहना। यह माला फेरते रहना। यह रामनाम की चदरिया
ओढ़ लो। घबड़ाओ मत। अगर मरते दम भी उसका एक दफे नाम ले लिया, तो
अजामिल जैसे पापी भी तर गए। तुमने क्या पाप किया होगा! बस, एक
दफे नाम ले लेना मरते वक्त। गंगाजल पी लेना मरते वक्त। बोतल में बंद रख लो गंगाजल
घर में। नहीं तो काशी करवट ले लेना। चले गए काशी, वहीं मर
जाना। कुछ भी न हो सके, तो मरते वक्त किसी पंडित से कान में
गायत्री पढ़वा लेना; नमोकार मंत्र पढ़वा लेना। तुमसे न कहते
बने अब, जबान लड़खड़ाए जाए, बिलकुल मौत
दरवाजे पर खड़ी हो गई हो, तो पंडित तो कान में दोहरा देगा,
वही सुन लेना। तुमने तो नहीं कहा जिंदगी में कभी कि बुद्धं शरणं
गचछामि। संघं शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। कोई तुम्हारे कान में कह देगा,
वही सुन लेना! उससे ही काम हो जाएगा!
ये सब तरकीबें हैं--बेईमानों की, बेईमानों के लिए ईजाद
की गई। ये जीवन के रूपांतरण की कीमिया नहीं हैं।
सदगुरु के पास तो मरना भी सीखना होता है, और जीना भी सीखना होता है। और जीते जी मर जाना--यही ध्यान है; यही संन्यास है। जीते जी ऐसे जीना जैसे यह जीवन खेल है, अभिनय है, इससे ज्यादा नहीं। नाटक है, इससे ज्यादा नहीं। इसको गंभीरता से न लेना।
लेकिन बड़ी अजीब दुनिया है! यहां जिनको तुम भोगी कहते हो, वे भी बड़ी गंभीरता से लिए हैं। और जिनको तुम योगी कहते हो, वे भी बड़ी गंभीरता से लिए हुए हैं! दोनों बड़े गंभीर हैं! योगी और भी गंभीर
हैं। भोगी तो कभी हंसे भी, योगी तो बिलकुल ही हंसता नहीं।
उसको तो भव-सागर से पार होना है! हंसने की फुर्सत कहां है! और जोर से हंस दे--और
भव-सागर का पानी भीतर चला जाए। तो यही खात्मा! तो वह तो बिलकुल मुंह बंद रखता है!
मुस्कुराता ही नहीं! उसकी तो जान बिलकुल अटकी है। वह तो किसी तरह राम-राम कह कर
समय गुजार रहा है कि हे प्रभु कब उठाओगे! कब इस संसार-सागर से छुटकारा होगा! कब
आवागमन बंद करवाओगे! और प्रभु भी एक है कि वह आवागमन करवाए ही जाता है! तुम्हारे
महात्माओं की सुनता ही नहीं! महात्मा लाख चिल्लाएं, वह फिर
आवागमन करवा देता है!
परमात्मा सृष्टि के विरोध में नहीं है। सृष्टि उसकी है, कैसे विरोध में हो सकता है? सृष्टि तो एक अवसर है,
मंच है, जिस पर तुम जीवन के अभिनय की कला
सीखो--और यूं जीओ, जैसे कमल के पत्ते पानी में--पानी में भी
और पानी छुए भी ना।
सदगुरु तुम्हें यही सिखाता है। और ये तीन घटनाएं सदगुरु के पास घट
जाएं, तो चौथी घटना तुम्हारे भीतर घटती है। इसलिए उस चौथे
को भी हमने सदगुरु के लिए स्मरण में कहा है।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। ये तो तीन चरण हुए।
फिर जो अनुभूति तुम्हारे भीतर इन तीन चरणों से होगी...। ये तो तीन द्वार हुए। इनसे
प्रवेश करके मंदिर की जो प्रतिमा का मिलन होगा, वह चौथा, तुरीय, चौथी अवस्था--गुरुः साक्षात परब्रह्म। तब तुम
जानोगे कि जिसके पास बैठे थे, वह कोई व्यक्ति नहीं था। जिसने
सम्हाला, मारा-पीटात्तोड़ा, जगाया--वह
कोई व्यक्ति नहीं था। वह तो था ही नहीं; उसके भीतर परमात्मा
ही था।
और जिस दिन तुम अपने गुरु के भीतर परमात्मा को देख लोगे, उस दिन अपने भीतर भी परमात्मा को देख लोगे। क्योंकि गुरु तो दर्पण है,
उसमें तुम्हें अपनी ही झलक दिखाई पड? जाएगी।
आंख निर्मल हुई कि झलक दिखाई पड़ी।
तीन चरण हैं, चौथी मंजिल है। और सदगुरु के पास चारों कदम पूरे हो
जाते हैं। तस्मै श्री गुरुवे नमः--इसलिए गुरु को नमस्कार। इसलिए गुरु को नमन।
इसलिए झुकते हैं उसके लिए।
और पूर्णिमा का दिन ही चुना है उसके लिए, सत्य वेदांत, क्योंकि हमारा जीवन दिन की तरह नहीं
है--रात की तरह है। और रात में सूरज नहीं उगा करते। रात में चांद उगता है। हम हैं
रात--अंधेरी रात। और गुरु हमारे जीवन में जब आ जाता है, तो
जैसे पूर्णिमा की रात आ गई। जैसे पूनम का चांद उतर आया।
चंद्रमा प्रतीक है बहुत-सी चीजों का। एक तो यह कि वह रात में रोशनी
देता है। और तुम अंधेरी रात हो, और तुम्हें चांद चाहिए--सूरज
नहीं। सूरज का क्या करोगे! सूरज से तो तुम्हारा मिलन ही नहीं होगा। तुम तो अंधेरी
रात हो, तुम्हें तो सूरज की कोई खबर नहीं। तुम्हें तो चांद
ही मिल सकता है।
और चांद की कई खूबियां हैं। पहली तो खूबी यह कि चांद की रोशनी चांद की
नहीं होती; सूरज की होती है। दिन भर चांद सूरज की रोशनी पीता है,
और रात भर सूरज की रोशनी को बिखेरता है। चांद की कोई अपनी रोशनी
नहीं होती। जैसे तुम एक दीया जलाओ और दर्पण में से दीया रोशनी फेंके। दर्पण की कोई
रोशनी नहीं होती; रोशनी तो दीए की है। मगर तुम्हारा दीए से
अभी मिलना नहीं हो सकता। और अभी दीए को देखोगे, तो जल पाओगे।
आंखें जल जाएंगी। अभी रोशनी को सामने से तुम सीधा देखोगे, सूरज
को, तो आंखें फूट जाएंगी। यूं ही अंधे हो--और आंखें फूट
जाएंगी!
अभी परमात्मा से तुम्हारा सीधा मिलन नहीं हो सकता। अभी तो परमात्मा का
बहुत सौम्यरूप चाहिए, जिसको तुम पचा सको। चंद्रमा सौम्य है। रोशनी तो सूरज
की ही है। गुरु में जो प्रकट हो रहा है, वह तो सूरज ही है,
परमात्मा ही है। मगर गुरु के माध्यम से सौम्य हो जाता है।
चंद्रमा की वही कला है, कीमिया है। वह उसका
जादू! कि सूरज कि रोशनी को पीकर और शीतल कर देता है। सूरज को देखोगे, तो गर्म है, उत्तप्त है; और
चांद को देखोगे, तो तुम शीतलता से भर जाओगे।
सूरज पुरुष है, पुरुष है। चंद्रमा स्त्रैण है, मधुर
है, प्रसादपूर्ण है। परमात्मा तो पुरुष है, कठोर है, सूरज जैसा है। उसको पचाना सीधा-सीधा,
आसान नहीं। उसे पचाने के लिए सदगुरु से गुजरना जरूरी है। सदगुरु
तुम्हें वही रोशनी दे देता है, लेकिन इस ढंग से कि तुम उसे पी
लो। जैसे सागर से कोई पानी पीए, तो मर जाए। हालांकि कुएं में
भी जो पानी है, है सागर का ही। मगर बदलियों में उठ कर आता
है। नदियों में झर कर आता है। पहाड़ों पर से गिर कर आता है। है तो सागर का ही। पानी
तो सब सागर का है। गंगा में हो, कि यमुना में हो, कि नर्मदा में हो, कि तुम्हारे कुएं में हो, किसी पहाड़ के झरने में हो, है तो सब सागर का। लेकिन
सागर का पानी पीओगे, तो मर जाओगे। लेकिन झरने में कुछ बात है,
कुछ राज है; उसी पानी को तुम्हारे पचाने के
योग्य बना देता है!
सदगुरु की वही कला है। उसके भीतर से परमात्मा गुजर कर सौम्य हो जाता
है; स्त्रैण हो जाता है; मधुर हो जाता है; प्रीतिकर हो जाता है। उसके भीतर से तुम्हारे पास आता है, तो तुम पचा सकते हो। और एक बार पचाने की कला आ गई, तो
गुरु बीच से हट जाता है।
गुरु तो था ही नहीं, सिर्फ यह रूपांतरण की एक
प्रक्रिया थी। जिस दिन तुमने पहचान लिया गुरु की अंतरात्मा को, उस दिन तुमने सूरज को पहचान लिया। तुमने चांद में सूरज को देख लिया;
फिर रात मिट गई, फिर दिन हो गया।
इसलिए गुरु पूर्णिमा को हमने चुना है प्रतीक की तरह। ये सारे प्रतीक
हैं। इन प्रतीकों का एक पहलू और खयाल में ले लो।
तुम जब सदगुरु के पास जाओ, तो जाने के चार ढंग
हैं। एक तो है कुतूहलवश; यूं ही जिज्ञासा से कि देखें,
क्या है! देखें क्या हो रहा है! देखें क्या कहा जा रहा है! वह सबसे
उथला पहलू है।
दूसरा पहलू विद्यार्थी का, कि कुछ सीख कर आएं;
कुछ सूचनाएं ग्रहण करें; कुछ ज्ञान संगृहीत करें।
वह थोड़ा गहरा है, मगर बहुत गहरा नहीं। चमड़ी जितनी गहरी,
बस इतना गहरा है। तुम कुछ सूचनाएं इकट्ठी करोगे और लौट जाओगे।
तीसरा पहलू है शिष्य का। जिज्ञासु को जोड़ो ब्रह्मा से। विद्यार्थी को
जोड़ो विष्णु से। शिष्य को जोड़ो महेश से।
शिष्य वह है, जो मिटने को तैयार है। विद्यार्थी वह है, जो अपने को सजाने-संवारने में लगा है। थोड़ा ज्ञान और, थोड़ी जानकारी और, थोड़ी पदवियां और, थोड़ी डिग्रियां और। थोड़े सर्टिफिकेट, थोड़े
प्रमाणपत्र, थोड़े तगमे!
जिज्ञासु तो वह है, जो अपने को संवारने में लगा है।
और जो कुतूहल से भरा है, उसने तो अभी यात्रा ही शुरू की;
अभी तो ब्रह्मा का ही काम शुरू हुआ; बीज बोया
गया। अभी सृजन की शुरुआत हुई। विद्यार्थी जरा आगे बढ़ा, उसमें
दो पत्ते टूटे; अंकुर फूटे। शिष्य वह है, जो मिटने को तैयार है, मरने को तैयार है; जो कहता कि गुरु के लिए सब कुछ समर्पित करने को तैयार हूं। उस तैयारी से
शिष्य बनता है।
सभी विद्यार्थी शिष्य नहीं होते। विद्यार्थी की उत्सुकता ज्ञान में
होती है; शिष्य की उत्सुकता ध्यान में होती है। ज्ञान से
तुम्हारा अहंकार भरता है और संवरता है। ध्यान से तुम्हारा अहंकार मरता है और मिटता
है।
और चौथी अवस्था है भक्त की। भक्त का अर्थ होता है, जो मिट ही चुका। शिष्य ने शुरुआत की; भक्त ने
पूर्णता कर दी। भक्त जान पाता है परब्रह्म की अवस्था को। जो गुरु के सामने मिट ही
गया; मिटने को भी कुछ न बचा अब; जो यह
भी नहीं कह सकता कि मैं मिटना चाहता हूं; जो इतना भी नहीं है,
वही भक्त है। और जहां भक्ति है, वहां परात्पर
ब्रह्म का साक्षात्कार है।
इसका तीसरा अर्थ भी समझ लो।
मनुष्य के जीवन की तीन अवस्थाएं हैं। एक जागरण, एक स्वप्न, एक सुषुप्ति और चौथी समाधि। जागरण का
संबंध ब्रह्मा से। क्योंकि जाग कर तुम काम-धाम में लगते हो; निर्माण
में लगते हो, सृजन में लगते हो। यह बनाना, वह बनाना, मकान बनाना, दुकान
चलाना, धन कमाना! स्वप्न में तुम संवारने में लगते हो;
जो-जो दिन में रह गया है अधूरा, स्वप्न में
तुम्हारे संवरता है। इसलिए हर आदमी के स्वप्न अलग-अलग होते हैं। मनोवैज्ञानिक
लोगों की जानकारी के लिए उनके स्वप्नों का निरीक्षण करते हैं। उनके स्वप्नों को
जानना चाहते हैं। क्योंकि स्वप्न बताते हैं, क्या-क्या अधूरा
है; कहां-कहां सम्हाल की जरूरत है!
अब जो आदमी रात-रात धन ही धन के सपने देख रहा है, वह खबर दे रहा है एक बात की कि उसकी जिंदगी में धन की कमी है। जिसकी कमी
है, उसके स्वप्न होते हैं। जिसको कोई कमी नहीं रह जाती,
उसके स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं। उसको स्वप्न बचते ही नहीं।
बुद्धपुरुष स्वप्न नहीं देखते। क्या है देखने को वहां!
जिसके स्वप्न में स्त्रियां ही स्त्रियां तैर रही हैं, अप्सराएं उतरती हैं, उर्वशियां और मेनकाएं उतरती हैं,
उसका अर्थ है कि उसके जीवन में अभी स्त्री के अनुभव से तृप्ति नहीं
हुई, या पुरुष के अनुभव से तृप्ति नहीं हुई। अभी वहां
अतृप्ति है, वासना दमित पड़ी है, इसलिए
वासना सपने में सिर उठा रही है। सपना कहता है--यहां सम्हालो! यहां कमी है।
मनोवैज्ञानिक कहता है कि तुम्हारा सपना मैं जान लूं, तो तुम्हें जान लूं। क्योंकि तुम्हारी कमी पता चल जाए, तो मैं तुमसे कह सकूं कि कहां भरो; गङ्ढा कहां है;
कहां मुश्किल आ रही है।
और तीसरी अवस्था है सुषुप्ति। सुषुप्ति यानी महेश, मृत्यु। छोटी-सी मृत्यु रात घट जाती है, जब स्वप्न
भी खो जाते हैं, तुम भी नहीं बचते। तुम कहां चले जाते हो,
कुछ पता नहीं! होते ही नहीं। सब शून्य हो जाता है।
और चौथी अवस्था को हमने तुरीय कहा है। तुरीय का अर्थ ही होता है, सिर्फ चौथी अवस्था। उस शब्द का और कोई अर्थ नहीं होता; चौथी--इतना ही अर्थ होता है--द फोर्थ, तुरीय,
समाधि।
जो व्यक्ति सुषुप्ति में जाग जाता है, सपने चले गए, गहरी नींद आ गई, सपने बिलकुल नहीं हैं, लेकिन होश का दीया जल रहा है, उसको समाधि मिलती है।
उस चौथी अवस्था में परब्रह्म का साक्षात्कार होता है।
सदगुरु के पास तुम जब जाते हो, तो पहले तो तुम
जाग्रत अवस्था में जाते हो, जिसको तुम जागरण कहते हो। उसमें
कुतूहल होता है। अगर उसके पास रुके थोड़ी देर, तो विद्यार्थी
बने बिना नहीं लौटोगे। उसमें सपने होते हैं। ज्ञान क्या है? सिवाय
सपने के और कुछ भी नहीं है! पानी पर खींची गई लकीरें, कि
कागज पर खींची गई लकीरें। ज्ञान सिर्फ सपना है।
अगर और रुक गए, तो सब सपने मिट जाते हैं, ज्ञान
मिट जाता है; ध्यान का आविर्भाव होता है। ध्यान सुषुप्ति है।
अगर और रुके रहे, तो सुषुप्ति भी खो जाती है; फिर बोध का, बुद्धत्व का जन्म होता है। और जब
बुद्धत्व का जन्म होता है, तब तुम जान पाते हो कि जो गुरु
बाहर था, वही तुम्हारे भीतर है। जो तुम्हारे भीतर है,
वही समस्त में व्याप्त है। वही परब्रह्म फूलों में है, वही पक्षियों में है, वही पत्थरों में है, वही लोगों में है--वही सब में व्याप्त है। सारी तरंगें उसी एक सागर की
हैं। और जिन्होंने इस अनुभव को जान लिया, वे धन्यभागी हैं।
वे ही धार्मिक हैं। वे न हिंदू हैं, न मुसलमान, न ईसाई, न बौद्ध, न जैन--वे
सिर्फ धार्मिक हैं।
और मैं चाहूंगा कि जो लोग मेरे पास इकट्ठे हुए हैं, वे सिर्फ धार्मिक हों। ये हिंदू; मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी की बीमारियां विदा करो। ये सब बीमारियां हैं।
आ गए हो अगर वैद्य के पास, तो इन सारी बीमारियों
से मुक्त हो जाओ; स्वस्थ बनो। और तब तुम्हारे भीतर नमन
उठेगा--तस्मै श्री गुरुवे नमः। तब तुम्हारे भीतर पहली दहा अहोभाव में, धन्यवाद में नमन उठेगा। तुम पहली बार झुकोगे इस विश्व के प्रति, इस अस्तित्व के प्रति। तुम्हारा प्राण गदगद हो उठेगा। कृतज्ञता से,
अनुग्रह से। तुम्हारे जीवन में एक सुगंध उठेगी, जो समर्पित हो जाएगी अस्तित्व के चरणों में।
यह जीवन का चरम शिखर है। जो यहां तक बिना पहुंचे मर गया, वह यूं ही जीया, यूं ही मर गया। न जीया--न मरा!
व्यर्थ ही धक्के खाए! व्यर्थ धक्के मत खाते रहना। तुम्हारे जीवन में भी यह पूनम आ
सकती है। तुम इस पूनम के अधिकारी हो। पुकारो। आह्वान करो। यह तुम्हारा जन्म-सिद्ध
अधिकार है।
दूसरा प्रश्न: भगवान, मैं सत चित आनंद हूं! शुद्ध बुद्ध आत्मन हूं! मुझे संसार के क्रिया-कलापों
से क्या? जगत के सब व्यापार मायावी हैं। मुझे किसी की निंदा
नहीं छूती--और न स्तुति। मैं अमृत-पुत्र हूं। यह मेरी अपनी अनुभूति है, जो सदा बनी रहती है। आपके इस धर्म-चक्र-प्रवर्तन के महत कार्य में मैं
आपको सहयोग देना चाहता हूं और जगती के क्षितिज पर धर्म-ध्वज को लहराते देखना चाहता
हूं। अतः आपसे एकांत में भेंट की आकांक्षा है।
पंडित मनसाराम शास्त्री!
कमाल कर दिया! अब जब सारा जगत माया ही है, तो तुम किस जगती के क्षितिज पर धर्म-ध्वज को लहराते हुए देखना चाहते हो?
जब सारा जगत माया ही है, तो मुझसे क्या करोगे
एकांत में मिल कर? फिर क्या एकांत और क्या भीड़--सब माया है!
कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो!
मगर काशी निवासी हैं पंडित मनसाराम शास्त्री। काशी-निवासियों से और
इससे बेहतर कुछ आशा नहीं!
क्या गजब की बातें कहीं पहले, लेकिन पीछे...! ढोल
अपनी पोल खुद ही उघाड़ गया!
एक युवती मनोवैज्ञानिक के पास पहुंची और कहने लगी, मैं परेशान हो गई हूं, लोग मुझे निर्लज्ज कहते हैं!
और मैं तो कोई कारण नहीं देखती! और जहां जाओ, वहीं; जो देखो वही--मुझे निर्लज्ज बतलाता है! तो आप मुझे बताएं कि क्या मेरी
निर्लज्जता है! क्या मुझमें कमी है? मैं सुधार करने को तैयार
हूं। मेरी जिंदगी दूभर कर दी इन लोगों ने!
उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, देवी! पहले मेरी गोदी
से उतर कर सामने की कुर्सी पर बैठो। फिर आगे बात हो!
पंडित मनसाराम शास्त्री! थोड़ी तो अकल का उपयोग करो! तुम्हीं सब को
देखकर तो मैं भैंस को बड़ा कहने गला! अकल से भी बड़ी भैंस!
क्या प्यारे-प्यारे शब्द तुमने कहे--सब उधार! मैं सत चित आनंद हूं!
भैया, यहां कैसे आए, काहे के लिए आए?
काशी से यहां तक का कष्ट किया! माया में यात्रा करते शर्म नहीं आती?
माया की रेलगाड़ी में बैठे; माया की टिकिट
खरीदी! रास्ते में माया का भोजन किया होगा। तरहत्तरह की मायाएं रास्ते में पड़ी
होंगी; आंखें बंद रखनी पड़ी होंगी!
कहां काशी नगरी--त्रिलोक में न्यारी--उसको छोड़कर कहां चले आए तुम!
यहां पूना में क्या कर रहे हो? पूना में तो और सींग लग
गए--पुणे! जैसे गधे के सिर पर सींग ऊग आएं! इधर कोई सींग-वींग मार दे--सब माया
बिखर जाए! यह तुम आए कहां!
कहते, मैं सत चित आनंद हूं! अब क्या कमी रही? शुद्ध-बुद्ध आत्मन हूं। मुझे संसार के क्रिया-कलापों से क्या? जगत के सब व्यापार मायावी हैं! मुझे किसी की निंदा नहीं छूती--और न
स्तुति। मैं अमृत-पुत्र हूं!
क्या कहूं तुम्हें! पंडित मनसाराम शास्त्री कहूं--कि पंडित तोताराम
शास्त्री कहूं! और फिर पीछे से सारी बात गड़बड़ हो गई। वह हो ही जाती है। लाख छिपाओ, बात खुल ही जाती है। हाथी भी निकल जाए, तो पूछ अटक
जाती है!
एक महिला अपने बीमार पति को देखने अस्पताल गई और उसकी तबीयत का हाल
पूछा। पति ने कहा, बुखार तो टूट गया; अब टांग में
दर्द है।
पत्नी बोली, लल्लू के पापा! घबड़ाओ मत जी। अरे जब बुखार ही टूट गया,
तो टांग भी टूट जाएगी।
एक पंडित ने विवाह किया। ऐसे तो सब माया है, मगर सोचा होगा कि कम से कम माया से इस महिला को मुक्त करें! सो विवाह
किया। विवाह के बाद सुहागरात के दिन...। पांडित्य तो भरा ही हुआ था; सो चर्चा ही यूं शुरू हुई: बोले अपनी पत्नी से, प्रेम
अंधा होता है। यूं बोलते जा रहे हैं--प्रेम अंधा होता है--और कपड़े उतारते जा रहे
हैं!
पत्नी ने कहा, होता होगा जी। पर पड़ोसी तो अंधे नहीं! पहले खिड़की का
परदा तो गिरा दो!
एक युवती एक साधु के पास गई और बोली, महाराज, आपने एक प्रवचन में कहा था--अहंकार ही सबसे बड़ा पाप है। पर जब मैं शीशा
देखती हूं, तो सोचती हूं--मैं कितनी सुंदर हूं। तो मुझे बहुत
अहंकार हो जाता है। मैं क्या करूं?
साधु ने कहा, बच्चा, गलतफहमी कोई पाप नहीं!
पंडित मनसाराम शास्त्री! हे काशी-निवासी तोताराम! यह सब ज्ञान का कचरा
हटाओ। इसमें तुम्हारा कोई भी अनुभव नहीं है। रत्ती भर अनुभव नहीं है।
और नाराज मत होना। यह मेरा शिवजी वाला रूप है! ऐसे तोडूंगा। और
पंडितों को तो छोड़ता ही नहीं। उनसे मेरा प्रेम है! और प्रेम तो अंधा होता ही है!
पंडित मेरे हाथ में पड़ जाए, तो मैं उसके साथ वही व्यवहार करता हूं, जो हीरा जब जौहरी के हाथ में पड़ जाए--कि उठाई छैनी और लगे...। अच्छे आ गए।
एकांत में तो देखेंगे, पहले यहां भीड़ में तो देख लें! अगर
बचे रहे तुम, तो एकांत में भी देखेंगे!
कहां कि बातें कर रहे हो कि आपके इस धर्म-चक्र-प्रवर्तन के इस महत
कार्य में...! अरे, इस मायावी संसार में कोई महत कार्य होता है, कि कोई धर्म-चक्र-प्रवर्तन होता है? सब खेल है भैया!
मैं कोई धर्म-चक्र-प्रवर्तन वगैरह नहीं कर रहा। ऐसी झंझटों में कौन
पड़े! अब चका ही घुमाते रहो! सुदर्शन-चक्र-धारी बन जाओ! कि अब चौबीस घंटे मुरली
बजाओ--मुरली वाले बन जाओ!
सब माया है--इसमें क्या झंझट है! किसको छुटकारा दिलवाना है? किस चीज से छुटकारा दिलवाना है? कुछ बंधन हो,
तो छुटकारा हो। यहां बंधन ही नहीं है। लोग तो मुक्त हैं ही। ये सब
मुक्त-पुरुष बैठे हुए हैं! तुम किसी से भी पूछ लेना; कोई भी
कह देगा--मैं सत चित आनंद हूं! शुद्ध-बुद्ध आत्मन हूं! यहां मेरे पास बुद्धों की
जमात है! यहां कभी-कभी कोई बुद्धू काशी से आ जाता है--बात अलग! मगर वह अपवाद है!
अन्यथा यहां बुद्ध-पुरुष बैठे हैं! अब यह देखते हो, कैसे
प्रसन्न हो रहे हैं वे देखकर...!
दोहराओ मत। दोहराने से कुछ भी नहीं होगा।
किसी महिला के आठ बच्चे थे। जब भी कोई बच्चा किसी वजह से रोता, तो वह उसे मनाते हुए कहती, देखो बेटा, गलती करके रोते नहीं।
एक दिन बच्चों की शरारत से तंग आकर वह रोने लगी और कहने लगी, ऐसे बच्चों से तो बगैर बच्चे अच्छे थे!
तभी उसकी छोटी पुत्री उसे मनाती हुई बोली, देखो मम्मी! गलती कलके लोते नहीं!
सुनते-सुनते बेटी भी सीख गई ज्ञान की बातें!
अब काशी में तो ये वचन हवा में डोल रहे हैं। जहां जाओ, वहीं--बच ही नहीं सकते! मैं अमृत-पुत्र हूं। न निंदा छूती--न स्तुति! तो
क्या छूता है तुम्हें? कुछ छूता है कि नहीं? नहीं तो मेरे पास यहां एक से एक गजब की महिलाएं हैं, किसी को पीछे लगा दूं! और फौरन कहोगे, ऐ बाई दूर रह!
छूना मत! तब तुम्हें पता चल जाएगा कि निंदा-स्तुति छोड़ो, अभी
कोई बाई भी छू देगी तो बस, प्राण संकट में पड़ जाएंगे! कि यह
माया कहां पीछे लग गई! और मेरे पास इतनी देवियां हैं! छोटी-मोटी देवियां भी नहीं;
चंडीगढ़ से आई हुई चंडियां भी हैं! पीछे लगा दूंगा; काशी तक पीछा करेंगी! और जब तक पैर छूकर न कहोगे--श्री गुरुवे नमः--तब तक
पीछा नहीं छोड़ेंगी।
तोतों की तरह दोहराओ मत! आदमी की तरह बातें करो। मुझे धोखा न दे सकोगे; ये धोखे काशी में चलते हैं, क्योंकि वहां बाकी भी
तोते हैं।
प्रेम के बारे में
राधा की-सी तन्मयता पा कर
एक प्रेमिका ने प्रेमी को लिखा,
अब दशा वह हो चुकी है
कि मुझे हर आदमी में
तुम दिखाई देते हो
इसीलिए बौराई स्थिति में
मुझसे मत पूछो,
मैं क्या कर रही हूं
विवश होकर--
मैं किसी और से
विवाह कर रही हूं!
अब जब सब में कृष्ण दिखाई पड़ने लगे, तो अब क्या कृष्ण
कन्हैया का ही रास्ता देखो! यह राधा वगैरह कहती हैं कि हमको सब में कृष्ण दिखाई
पड़ते हैं बात सच नहीं है। ये गोपियां कहती थीं कि हमको दिखाई पड़ते हैं। जब कृष्ण
द्वारका चले गए, तो फिर काहे को रोआई-धोआई मचाई हुई थी! तो
कोई ग्वालों की कमी थी! अरे, कई बांसुरी बजा रहे थे; किसी को भी पकड़ लेतीं, कि हाय दैया! कहां चले गए थे!
हे भैया, बहुत दिनों बाद मिले! कि आओ, रास
रचाएं!
यह सब बातचीत है कि सब मैं कृष्ण कन्हैया ही दिखाई पड़ रहे हैं।
तुम जब तक अपने इस व्यर्थ के ज्ञान से मुक्त न होओगे, तब तक सार्थक दिशा में कोई यात्रा नहीं हो सकती।
इस जीवन में अज्ञान नहीं भटकाता लोगों को, मेरे देखे, ज्ञान भटकाता है। और तुम्हें उपनिषद का
वचन याद दिलाऊं। पंडित हो, तुमने पढ़ा होगा, मगर समझा नहीं होगा। पंडित कभी समझते ही नहीं। उनका काम पढ़ना--यंत्रवत।
उपनिषद का वचन है: अज्ञान तो भटकाता ही है, लेकिन ज्ञान महा अंधकार में भटका देता है। क्या अदभुत लोग रहे होंगे! अब
इस उपनिषद के ऋषि को अगर कच्छ जाना होता--बिलकुल नहीं जा सकता! कि यहां कहां चले आ
रहे हो! खतरा पैदा हो जाएगा संस्कृति को। इस उपनिषद के ऋषि को तुम जीने देते! जो
कह रहा है कि अज्ञान तो निश्चित ही अंधकार में भटकाता है। लेकिन ज्ञान महा अंधकार
में भटका देता है! और इससे बड़ी क्रांति की क्या बात हो सकती है!
क्यों अज्ञान से भी ज्यादा बड़ी भटकन ज्ञान से पैदा हो जाती है? अज्ञानी को कम से कम इतना बोध तो होता है कि मैं अज्ञानी हूं, तो एक विनम्रता होती है, एक सरलता होती है, एक सहजता होती है। अज्ञानी में एक भलापन होता है, निर्मलता
होती है; अकड़ नहीं होती। वह कहता है, मैं
जानता ही नहीं कुछ तो अकडूं भी क्या! ज्ञान अकड़ लाता है--और थोथी अकड़। क्योंकि
तुमने सीख लिया है; शास्त्र कंठस्थ कर लिए हैं; अब उनको दोहरा रहे हो।
एक पंडित एक तोता खरीदने गए, क्योंकि उनके विरोधी
पंडित ने अपने घर के सामने एक तोता लटका रखा था, जो गायत्री
का मंत्र बोलता था। उससे उनकी प्रतिष्ठा को धक्का लग रहा था। उनके ग्राहक छिने जा
रहे थे। ग्राहक कहते थे, महाराज, तुम्हें
क्या पता; अरे वहां देखो! वह है महा पंडित। उसके तोते भी
गायत्री बोलते हैं!
सो वे भी बेचारे गए तोते की दूकान पर कि भैया, कोई तोता दो। कुछ ऐसा तोता दो कि गायत्री को भी मात कर दे।
उसने कहा, है एक तोता मेरे पास। और ऐसा तोता कि हिंदू को भी
फांस, मुसलमान को भी फांस! अरे, ऐसे
गजब का तोता, बिलकुल गांधीवादी तोता! अल्ला-ईश्वर तेरे नाम,
सबको सन्मति दे भगवान! आधुनिक तोता। यह कहां गायत्री मंत्र लगा रखा
है!
कहा, दिखाओ, कहां है तुम्हारा तोता?
ले गया उसे अंदर। तोता बिलकुल बैठा हुआ था--खादी के कपड़े पहने हुए!
गांधीवादी टोपी लगाए हुए! पास ही एक छोटा-सा चरखा रखा हुआ था। पंडित ने भी कहा कि
श्री गुरुवे नमः! गजब का तोता है! एकदम शुद्ध खादी पहने है! और सामने ही रखा हुआ
है चरखा। इसके संबंध में कुछ और समझाओ!
उस दुकानदार ने कहा, इसके पैर में देखते हैं आप,
बाएं पैर में एक धागा बंधा है, इसको खींच दो
कि एकदम उपनिषद के सूत्रों पर सूत्र बोलने लगता है। और इसके दूसरे पैर में देख रहे
हो, दूसरा धागा बंधा हुआ है, किसी को
दिखाई भी नहीं पड़ेगा; बिलकुल महीन धागा। अगर उसको खींच
दो--एकदम कुरान की आयतें बोलता है। मुसलमान आए, तो यह खींच
देना। हिंदू आए, तो वह खींच देना। दोनों पर तुम्हारा कब्जा
हो जाएगा। हिंदू भी आएंगे, मुसलमान भी आएंगे।
तोता तो गजब का है! एक बात पूछूं? अगर दोनों धागे एक
साथ खींच दूं, तो?
तोता बोला, उल्लू के पट्ठे! अगर दोनों धागे एक साथ खींचोगे,
तो धड़ाम से नीचे न गिर पडूंगा!
तोतों में भी थोड़ी ज्यादा अकल है!
तुम भी क्या बात कर रहे हो! यहां कोई धर्म-चक्र-प्रवर्तन वगैरह नहीं
हो रहा है। यहां तो मौज है, मस्ती है। यह तो मैखाना है, मधुशाला
है। यहां तो पियक्कड़ों की जमात है। ये रिंद बैठे हैं। यहां तो अदृश्य शराब पीई जा
रही है, पिलाई जा रही है। अगर पीना हो, तो पीओ। और अगर हिम्मत हो, तो ही पी पाओगे। क्योंकि
यहां किसी परंपरा की बात नहीं हो रही है। यहां शुद्ध सत्य की बात हो रही है। यहां
किसी परंपरा का पोषण नहीं है। क्योंकि मैं मानता ही नहीं कि परंपरा और सत्य का कभी
कोई संबंध होता है। सत्य तो सदा नूतन होता है; नित नूतन होता
है--जैसे सुबह की ओस के कण--इतना ताजा होता है।
यह तुम बकवास छोड़ दो कि मैं सत चित आनंद हूं। शुद्ध-बुद्ध आत्मन हूं।
मुझे संसार के क्रिया-कलापों से क्या! अभी बहुत है तुम्हें संसार के क्रिया-कलापों
से मतलब। अभी तुम जगती के क्षिजित पर धर्म-ध्वज को लहराते देखना चाहते हो! अभी
झंडा ऊंचा रहे हमारा! तुम्हारी बुद्धि वहीं अटकी है। और झंडा-वंडा किसको ऊंचा करना
है? डंडा ऊंचा करना रहता है लोगों को; झंडा तो बहाना है।
पहले तो तुम यह कचड़ा छोड़ो। अगर मेरे पास आना है, तो इस कचड़े को छोड़ कर आओ। अज्ञानी होकर आओ; मेरे
द्वार खुले हैं। ज्ञानी होकर आओ, बिलकुल द्वार बंद है।
मैं द्वार पर इस पूरे आश्रम में एक ही आदमी को संत कहता हूं; उसको द्वार पर ही बिठा रखा है। यहां पांच हजार पियक्कड़ों में एक ही संत
है! उनको बाहर बिठा रखा है। तुम पूछोगे--क्यों? क्योंकि वे
बिलकुल अंट-शंट हैं! और अंट-शंट दूसरे अंट-शंटों को फौरन पहचान लेता है। तरबूजा
तरबूजे को पहचान लेता है! तो उनको मैं कहता हूं--संत महाराज! उनको द्वार पर बिठा
रखा है। वहीं देख लेते हैं कि आ रहा है अंट-शंट! वहीं से बिदा कर देते हैं। उनने
तुम्हें कैसे घुस आने दिया, यही आश्चर्य है! कभी-कभी भांग
वगैरह पी जाते हैं वे। अब संत ही हैं, तो संतों का क्या! संत
और भांग न पीएं? भांग वगैरह पी गए दिखता है वे, कि तुम भीतर घुस आए। नहीं तो वे पहले ही तुम्हें वहीं से विदा कर देते!
ज्ञानियों के लिए दरवाजा बंद है। अज्ञानियों के लिए द्वार खुला है
मेरा, मेरा हृदय खुला है, क्योंकि
अज्ञानियों को बदला जा सकता है; ज्ञानियों के साथ तो फिजूल
मेहनत होती है!
पश्चिम का बहुत बड़ा संगीतज्ञ वेजनर जब भी किसी को शिष्य की तरह
स्वीकार करता था, तो कहता था, पहले कहीं संगीत तो
नहीं सीखा? अगर संगीत सीखा हो, तो
रास्ता लगो! बाहर निकलो। और अगर जिद्द करोगे, तो दुगनी फीस
लूंगा। जिसने संगीत नहीं सीखा, उसको मैं सिखाता हूं।
स्वभावतः जो लोग संगीत सीखे होते, वे कहते, यह तो उलटी बात कर रहे हैं आप! हमने वर्षों मेहनत करके सीखा है। हम से तो
कम फीस लेनी चाहिए!
वह कहता, पहले भुलाना भी तो पड़ेगा। वह मेहनत कौन करेगा?
पंडित मनसाराम शास्त्री! पहले तो तुम्हारा शास्त्रीपन मिटाना पड़ेगा, पंडित-पन मिटाना पड़ेगा, तब कहीं जा कर कुछ बात बन
सकती है। अभी तुम धर्म-ध्वज वगैरह न फहराओ! अभी तो तुम्हारे जीवन में दीया जल जाए,
यही काफी है।
तीसरा प्रश्न: भगवान, ध्यान से यदि कई रोगों का इलाज हो सकता है, तो क्यों
नहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन को समझा कर इस संघ से ध्यान विधियों के प्रचार में
सहायता ली जाती है?
शील बहादुर वज्राचार्य!
ध्यान से निश्चित ही बीमारियों से छुटकारा हो जाता है, लेकिन शारीरिक बीमारियों की बात नहीं कर रहा हूं। आध्यात्मिक बीमारियों से
छुटकारा हो जाता है। शारीरिक बीमारियों से छुटकारे से ध्यान का कोई संबंध नहीं है।
परोक्ष रूप से परिणाम होगे, लेकिन सीधा-सीधा कोई संबंध नहीं
है। अन्यथा रमण महर्षि कैंसर से न मरते। न रामकृष्ण कैंसर से मरते! महावीर की
मृत्यु पेचिश की बीमारी से हुई। बुद्ध की मृत्यु विषाक्त भोजन से हुई। ध्यान शरीर
में फैलते विष को न रोक सका! और बुद्ध से बड़ा कौन ध्यानी? महावीर
का ध्यान--उतना शुक्ल ध्यान किसका कब हुआ! उतना शुद्ध ध्यान--वैसी समाधि! मगर
पेचिश की बीमारी को नहीं बदल सका। छह महीने दस्त पर दस्त लगते रहे--खून के दस्त!
अगर ध्यान से शरीर को कुछ ऐसा स्वास्थ्य मिलता होता, तो शंकराचार्य तैंतीस साल की उम्र में मर न जाते! यह भी कोई वक्त मरने का
था!
लेकिन तुमने बात कुछ गलत समझ ली होगी। निश्चित मैं कहता हूं कि ध्यान
से स्वास्थ्य मिलता है। लेकिन स्वास्थ्य से मेरा अर्थ होता है--स्वयं में स्थित
होना। स्वास्थ्य का अर्थ ही वही होता है। स्वयं में स्थित हो जाना। ध्यान से
स्वास्थ्य मिलता है।
और ऐसा नहीं है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन को मेरी बातों में उत्सुकता
न हुई हो। एक बार तो उनका एक प्रतिनिधि मंडल मेरे ध्यान-शिविर में सम्मिलित भी
हुआ। डब्ल्यू एच ओ--वह जो आर्गनाइजेशन है, विश्व स्वास्थ्य
संगठन का, उसने पांच-सात लोगों को आजोल ध्यान-शिविर में
देखने भेजा, निरीक्षण करने कि क्या हो रहा है! लेकिन
उन्होंने जो देखा, जो समझा, मुझसे जो
बात की--वे उससे इतने ज्यादा चौंके कि फिर मुझे पता ही नहीं चला कि उन्होंने क्या
रिपोर्ट दी, क्योंकि दुबारा फिर कभी उनकी तरफ से न कोई पत्र
आया, न कोई खबर आई!
लेकिन मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। यही संभावित था। ये सारे के सारे संगठन
मूलतः राजनीति के हिस्से हैं। और ध्यान पहली तो बीमारी यह छुड़ा देता है--राजनीति!
मुझसे जब ये अधिकारी मिले डब्ल्यू एच ओ के, वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन के, तो मैंने उनसे कहा,
पहला छुटकारा तो राजनीति!
उन्होंने कहा, क्या!
ध्यानी राजनीति से मुक्त हो जाता है; हो ही जाएगा। राजनीति
का अर्थ है: जमाने भर की चालबाजियां, जमाने भर की चोर
बाजारियां, जमाने भर की बेईमानियां। राजनीति का अर्थ है:
प्रतिस्पर्धा, जलन,र् ईष्या। राजनीति
का अर्थ है: दूसरे पर कब्जा करने की कोशिश। और ध्यान तो अपना मालिक है। और जो अपना
मालिक है, उसे किसी का मालिक होने की कोई आकांक्षा ही नहीं
रह जाती। उसने तो मालकियत की मालकियत पा ली।
इसलिए मेरी बातों में राजनीतिज्ञ उत्सुक नहीं हो सकते। मेरी बातों में
उनको घबड़ाहट लगेगी। मेरी बातों से पंडित घबड़ाएंगे, धर्मगुरु घबड़ाएंगे,
राजनीतिज्ञ घबड़ाएंगे, शिक्षा-शास्त्री
घबड़ाएंगे। मेरी बातों से इन सारे लोगों को घबड़ाहट पैदा हो जाएगी, क्योंकि इनके सब के जाल अगर मेरी बात सही है, तो टूट
जा सकते हैं।
तुम्हारी पूरी शिक्षा महत्वाकांक्षा पर खड़ी है। लोगों के भीतर
महत्वाकांक्षा का ज्वर पैदा करो। लोगों को दौड़ाओ--धन की तरफ, पद की तरफ। दिल्ली चलो! यह नारा हर एक की आत्मा में गूंज जाना चाहिए! बस,
यही उनका मूल मंत्र हो जाए! और जब तक प्रधानमंत्री न बन जाओ,
राष्ट्रपति न बन जाओ, तुम्हारा जीवन अकारथ है!
छोटे-छोटे बच्चों को हम यही जहर पिला रहे हैं: प्रथम आओ अपनी कक्षा
में! यह जो प्रथम की दौड़ है, हिंसा है।
जीसस का वचन है: धन्य हैं वे जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं।
क्योंकि प्रभु का राज्य उन्हीं का है। जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं! और यहां
तो सारी दौड़ प्रथम होने की है! यहां अंतिम तो कोई खड़ा होना ही नहीं चाहता!
जार्ज बर्नार्ड शा से कोई पूछा कि आप स्वर्ग जाना पसंद करेंगे कि नर्क?
उसने कहा कि जहां भी मैं प्रथम हो सकूं--वहीं! नंबर दो भी मुझे
बर्दाश्त नहीं। मैं नर्क ही चला जाऊंगा, मगर रहूंगा नंबर एक!
तुम खुद भी पूछो अपने से बहुत शांति में कि अगर नर्क में तुम्हें
राष्ट्रपति होने का मौका मिले, तो तुम नर्क जाओगे; कि स्वर्ग में जहां चपरासी होने का मौका शायद मिले? क्योंकि
वहां क्यू लगी होगी! बड़े-बड़े संत-महंत पहले से ही चपरासी होने की दरख्वास्त दिए
बैठे होंगे! सो तुम्हें लगेगा, मुझ गरीब का वहां क्या ठिकाना
लगेगा! और यहां राष्ट्रपति होने का मौका मिल रहा है। कौन चूके! नर्क है, तो नर्क सही; अरे, राष्ट्रपति
होने की बात ही और!
तुम्हारा पूरा चित्त रुग्ण है महत्वाकांक्षा से। ध्यान तुम्हें इस रोग
से मुक्त करा देगा।
तुम बीमार हो अहंकार से। तुम्हारी बीमारी क्या है? तुम्हारी छाती पर पत्थर किस बात का है? एक अहंकार
का। और तो कोई पत्थर नहीं है। ध्यान तुम्हें अहंकार से मुक्ति दिला देगा, क्योंकि ध्यान तुम्हें बताएगा कि तुम अलग नहीं हो; इस
विश्व के अनिवार्य अंग हो। जैसे समुद्र की लहर समुद्र का अंग है, ऐसे तुम इस विराट चैतन्य के अंग हो; भिन्न नहीं हो।
तुम्हारे धर्मगुरु ध्यान में उत्सुकता नहीं ले सकते, क्योंकि ध्यान तुम्हें बताएगा--कौन हिंदू, कौन
मुसलमान, कौन ईसाई! ध्यान तो बताएगा कि तुम शुद्ध चैतन्य हो।
और चेतना न हिंदू होती, न मुसलमान होती, न ईसाई होती।
क्यों मेरे खिलाफ सारे लोग हैं? ईसाई भी खिलाफ,
हिंदू भी खिलाफ, जैनी भी खिलाफ, मुसलमान भी खिलाफ! आखिर मैंने क्या इन सबका कसूर किया है? मैं तुम्हें जो सिखा रहा हूं, इनको समझ में आ रही है
बात कि उससे इनकी जड़ें कट जाएंगी।
ध्यानी तो सिर्फ ध्यानी होता है।
इसलिए अभी मैं कच्छ गया भी नहीं, और मेरे तीर कच्छ में
लोगों को लगने लगे! पहले जैन मुनि भद्रगुप्त गिरे। धड़ाम से गिरे! अभी मैं कच्छ
पहुंचा नहीं! पहुंच कर तो कितने लोग एकदम से मर ही जाएंगे, कहना
ही मुश्किल है! अभी पहुंचा ही नहीं; अभी बात ही चली। अभी एक
कदम भी नहीं उठाया। अभी दरवाजे के बाहर भी नहीं गया। अभी बात ही चल रही है। मगर इस
देश में तो बात में से बात--और फिर बतंगड़ बन जाता है।
भद्रगुप्त मुनि गिरे पहले। उन्होंने सारे जैनियों को इकट्ठा करके, सात जैनियों के संप्रदयों को इकट्ठा कर लिया और घोषणा कर दी कि चाहे जीवन
रहे कि जाए, सब कुछ कुरबानी के लिए तैयार हो जाओ, मगर इस व्यक्ति को कच्छ में नहीं घुसने देना!
मैं क्या बिगाडूंगा तुम्हारा! तुम्हें क्या तकलीफ हो गई?
फिर कल स्वामीनारायण संप्रदाय के महंत हरिदासजी गिर पड़े! चारों खाने
चित्त! कि मेरा कच्छ में आगमन कच्छ की संस्कृति पर आक्रमण है। इस आक्रमण का विरोध
करना होगा।
राजनेताओं में तो बड़ी चहल-कदमी मची हुई है। सभाएं शुरू हो गईं; प्रतिनिधि मंडल पहुंचने लगे सरकारों के पास; प्रधान
मंत्री के पास! दरख्वास्तें पहुंचने लगीं कि मुझे प्रवेश न दिया जाए। और मैं किसी
से क्या छीन रहा हूं! सिखा क्या रहा हूं तुमको? सिर्फ इतना
कि अहंकार छोड़ो। यही कि महत्वाकांक्षा छोड़ो। यही कि थोथा ज्ञान गिर जाने दो,
ताकि तुम्हारे भीतर जो चैतन्य की ऊर्जा दबी पड़ी है, वह प्रकट हो। ये चट्टानें हटाओ, ताकि झरना बहे।
इन सब को क्या बेचैनी हो रही है?
तुम पूछते हो शील बहादुर वज्राचार्य, कि क्या कारण है,
जब ध्यान से सभी रोगों का इलाज हो सकता है, तो
क्यों नहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन को समझा कर इस संघ से ध्यान विधियों के प्रचार
में सहायता ली जाती? कम से कम मैं जिसे ध्यान कहता हूं,
उसमें ये कोई लोग साथ नहीं दे सकते। असंभव। क्योंकि मैं इनकी जड़ें
काट डालूं, तब तो ध्यान बने! ये अपने हाथ से अपनी जड़ें
कटवाएंगे?
फिर मैं कुछ कहता हूं, ये तत्क्षण कुछ और
समझते हैं। क्योंकि इनके सबके न्यस्त स्वार्थ हैं। न्यस्त स्वार्थ बातों को
सीधा-सीधा नहीं समझने देते। न्यस्त स्वार्थ से भरा आदमी अपने ही हिसाब से सोचता
है!
पिछली बार तुमको दो महीने की सजा मिली थी इस अदालत से!
कैदी ने कहा, हां सरकार!
इस बार तुमको छोड? रहा हूं। गवाहों की कमजोरी के
कारण तुम बच गए। इतना सूद लेना जुर्म है। समझे!
हुजूर, आठ दिन के लिए तो भेज ही दीजिए, कैदी ने कहा।
लेकिन क्यों! न्यायाधीश चकित हुआ। यह पहला मौका था कि कोई आदमी खुद ही
प्रार्थना करे कि कम से कम आठ दिन के लिए तो भेज ही दीजिए!
कैदी ने कहा, अब आपसे क्या छिपाना। कैदियों पर मेरा पैसा उधार है,
उसकी वसूली करनी है! बस, आठ दिन के लिए भेज
दीजिए!
वह तुम जेल भेज रहे हो, वह जेल में भी वही
धंधा कर रहा है! बाहर रहेगा, तो सूद लेगा। भीतर रहेगा तो सूद
लेगा।
वह राजनीति में रहेगा महत्वाकांक्षी व्यक्ति तो शोषण करेगा; धर्म में रहेगा, तो शोषण करेगा। शोषण, महत्वाकांक्षी किए बिना नहीं रह सकता। उसके न्यस्त स्वार्थ हैं।
एक औरत सड़क पर जा रही थी। बाल-बच्चा पेट में था। एक रिक्शेवाला बोला, बहनजी, रिक्शा होगा?
बहनजी गुस्से में आकर बोलीं कि रिक्शा होगा तेरी घरवाली के; मेरे तो लड़का होगा!
अपने अपने स्वार्थ; अपनी अपनी दृष्टि; अपने अपने देखने के ढंग! कोई सुनता है, जो कहा जाता
है उसको? लोग अपने हिसाब से सुनते हैं!
पंडित जवाहरलाल नेहरू जब प्रधान मंत्री थे, वे एक पागलखाना देखने गए। पागलखाने की बड़ी सफाई की गई, सजावट की गई। यह सब देखकर एक पागल ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर कहा,
हे भगवान, उनको शीघ्र चंगा कर देना!
पंडित नेहरू ने सुना। उन्होंने कहा, यह पगला क्या कह रहा
है!
उस पगले से पूछा कि तू क्या कह रहा है?
उसने कहा, आपके लिए प्रार्थना कर रहा हूं कि हे प्रभु, इनको चंगा कर देना--जल्दी चंगा कर देना। अच्छे आदमी! देखो, इनकी वजह से पागलखाने की सजावट हो रही, सफाई हो रही
है!
पंडित नेहरू ने कहा, लेकिन क्या मैं पागल हूं?
उस पागल ने कहा, जब मैं पहली दफा तीन साल पहले
यहां आया था, तो मैं भी सोचता था कि मैं पंडित जवाहरलाल
नेहरू हूं! अरे, तीन साल यहां रहो, ठीक
हो जाओगे! ये पागलखाने के हरामजादे, ये सुपरिंटेंडेंट
इत्यादि जिसको ठीक न कर दें, सो ठीक है! वो पिटाई देते हैं
कि अगर असली जवाहरलाल नेहरू भी आ जाएं, तो भी ठीक हो जाएंगे!
पागल के सोचने का अपना ढंग है। वह बेचारा गलती नहीं कह रहा है। वह भी
जब आया था, तो जवाहरलाल नेहरू समझता था अपने को। जब जवाहरलाल
भारत में थे, तो कम से कम बीस आदमी तो जाहिर हिंदुस्तान में
ऐसे पागल थे, जो अपने को जवाहरलाल समझते थे।
जब विंस्टन चर्चिल प्रधान मंत्री था योरोप में, तो इंग्लैंड में ही ऐसे कोई दस-बारह लोग थे, जो अपने
को विन्स्टन चर्चिल समझते थे! जिनको पागलखानों में रखा गया था। मगर तुम उनको
पागलखानों में रख कर भी ठीक कर लो, इतना आसान नहीं।
बगदाद में ऐसा हुआ, एक आदमी ने घोषणा कर दी कि मैं
पैगंबर हूं। और परमात्मा ने मुझे भेजा है कि अब मोहम्मद को काफी दिन हो गए,
चौदह सौ साल पुरानी किताब हो गई कुरान, अब तू
नया संशोधित संस्करण ले जा! पाकेट एडिशन! अब लोग इतनी-इतनी मोटी किताबें नहीं पढ़
सकते! जमाना बदल गया। पेपर बैक!
उसको पकड़ कर लाया गया बगदाद के खलीफा के पास और कहा गया कि यह बदमाश
है। अपने को कह रहा है कि मैं नया पैगंबर हूं! और परमात्मा ने भेजा है!
खलीफा ने देखा, उसने कहा कि इसको बंद करो; सात
दिन इसकी अच्छी पिटाई करो। सात दिन बाद मैं देखूंगा।
सात दिन बाद खलीफा गया। उसको एक खंभे से बांध रखा था; खाना दिया नहीं था; और ऐसी पिटाई की गई थी कि
लहूलुहान था। खलीफा उसके पास पहुंचा और बोला, कहो, अब क्या विचार है हजरत! अकल आई?
वह हंसने लगा। उसने कहा कि यह तो जब मैं चलने लगा था परमात्मा के घर
से तो उन्होंने कहा था कि बड़ी मुसीबतें आएंगी! पैगंबरों पर सदा आती रहीं! अरे इससे
तो सिद्ध हो गया कि मैं पैगंबर हूं! मैं किसी वहम में नहीं था। पहले मुझे कभी-कभी
शक भी होता था कि कोई वहम तो नहीं है। अब तो अखंड विश्वास आ गया!
तभी एक आदमी जो दूसरे खंभे से बंधा था, वह चिल्लाया कि बंद
करो यह बकवास। यह आदमी सरासर झूठ बोल रहा है!
खलीफा भी चौंका; वह पगला आदमी भी चौंका।
खलीफा ने कहा, तू कैसे कहता है कि यह झूठ बोल रहा है?
वह बोला, मैंने मोहम्मद के बाद किसी को पैगंबर बना कर भेजा ही
नहीं!
वह एक महीने पहले पकड़ा गया था! वह कहता था, मैं खुदा हूं! मैं खुद खुदा हूं! और यह आदमी सरासर झूठ बोल रहा है। मैंने
इसको भेजा ही नहीं! इसको मैं सात दिन से समझा रहा हूं कि अरे, नालायक, तू पहले मेरी तरफ तो देख। मैंने तुझे कभी
भेजा ही नहीं। यह सुनता ही नहीं! मैंने तो भेज दिया आखिरी पैगंबर मोहम्मद। अब किसी
और मोहम्मद की जरूरत नहीं; न किसी और कुरान की जरूरत है।
पागलों की एक दुनिया है; वे अपनी दुनिया में
रहते हैं।
राजनीति एक तरह का पागलपन है; बड़ा सूक्ष्म पागलपन
है।
तुम समझो कि मेरा जो ध्यान का प्रयोग है, उससे कोई राजनीतिज्ञ राजी होंगे, तो तुम गलती में
हो। और जो राजी हो जाएगा, वह तत्क्षण राजनीतिज्ञ नहीं रह
जाएगा। क्योंकि राजनीति और ध्यान में कोई मेल नहीं हो सकता।
राजनीति तुम्हारी मूढ़ता का विस्तार है, तुम्हारे अज्ञान का;
तुम्हारी सब तरह की बेवकूफियों को बढ़ा-चढ़ा कर खड़ा करने का; रंग-रोगन देने का ढंग है। लेकिन ध्यान तुमसे तुम्हारे सारे झूठ, तुम्हारी सारी मूढ़ताएं, तुम्हारा सारा थोथा ज्ञान
छीन लेने की प्रक्रिया है।
कौन राजी है शून्य होने को! जो शून्य होने को राजी है, वही ध्यान में उत्सुक हो सकता है।
एक लाला जी के घर खीर पकाई गई। जब खीर थाली में परोसी गई, तो लाला जी की पत्नी से अपने लड़के की थाली में ज्यादा खीर पड़ गई। इस पर
सेठ जी नाराज हो कर अपनी सेठानी से बोले, तेरा पति मैं हूं
या यह? जिसको तू अधिक खीर देती है?
इस पर उस बच्चे को गुस्सा आया और बोला कि यह मां मेरी है या तेरी? जो तुझे ज्यादा देती?
बाप और बेटे की इस बात से आखिर सेठानी भी कैसे पीछे रह सकती थी। वह भी
कैसे चूकने वाली थी! उसने भी झुंझला कर कहा, यह मेरा लड़का है या
तेरा? जो तुम्हें ज्यादा देती?
बात बिगड़ती ही चली गई!
राजनीतिज्ञों की बातें तो तुम सुनो! इनको तुम सोचते हो ध्यान में
उत्सुकता होगी! इनको कहां ध्यान की पड़ी। इनको कहां ध्यान में रस! हां, ये जाते हैं पंडित-पुजारियों के पास, मंदिर-मस्जिदों
में भी जाते हैं--चुनाव के समय! फूल-पत्री भी चढ़ाते हैं; प्रसाद
भी ले जाते हैं; पूजा भी करते हैं; गंगा-स्नान
भी कर आते हैं; व्रत-उपवास भी कर लेते हैं! मगर चुनाव के
लिए!
इनको अगर भगवान भी मिल जाए, तो तुम सोचते हो,
ये उससे मोक्ष मांगेंगे? कभी नहीं। बैकुंठ?
कभी नहीं। ये कहेंगे कि महाराज, इस चुनाव में
टिकिट मिल जाए! कि यह एक दफे जिता दो; अरे, बस, एक दफे जिता दो! और तुम तो पतित-पावन हो। और
तुम्हारे किए क्या नहीं हो सकता! तुम तो सर्व शक्तिमान हो।
एक राजनेता चुनाव हारता गया, हारता गया, हारता गया। सात दफे चुनाव हार गया। घबड़ा गया। एक रात जा कर कूद कर
आत्महत्या करना चाहता था नदी में। जैसे ही कूदने को था कि एक बुढ़िया ने उसके कंधे
पर हाथ रखा। उसने लौट कर देखा। ऐसी भयानक औरत उसने कभी देखी नहीं थी! तिलमिला उठा।
एकदम उबकाई आने लगी कि अभी उलटी होती है! ऐसी सड़ी-गली औरत, और
ऐसी बास उठ रही है उससे! सब दांत गिरे हुए। चेहरा ऐसा कुरूप और भयंकर कि उसने कहा
कि बाई, जल्दी छोड़े। मैं वैसे ही मरने के लिए आया था;
तुझे देखकर और पक्का हो गया कि अब मर ही जाना चाहिए, अब कोई सार नहीं। छोड़ मुझे।
उसने कहा, पहले मेरी बात सुन। तुझे पता है मैं कौन हूं?
मुझे कुछ पता नहीं। मुझे कुछ पता करना भी नहीं है, उस नेता ने कहा, अब मुझे जीना ही नहीं है।
उस स्त्री ने कहा, पहले तो तू सुन ले, नहीं तो पछताएगा; मर कर पछताए; कब्र में पछताएगा। मैं एक अभिशापित अप्सरा हूं।
राजनेता थोड़ा ढीला पड़ा कि अरे, अप्सरा!
उसने कहा कि मुझ पर इंद्र नाराज हो गया और उसने मुझे अभिशाप दे दिया
और कहा कि जब तक तू किसी मरते व्यक्ति को न बचाएगी, तब तक तुझे इसी हालत
में रहना पड़ेगा। लेकिन सौदा महंगा नहीं है। तुम जो चाहो, तीन
वरदान, तीन वचन मैं देने को राजी हूं। तुम मांग लो तीन
वरदान।
राजनेता तो वहीं गिर पड़ा उसके पैरों में। फिर तो बदबू नहीं, एकदम सुगंध आने लगी! स्त्री एकदम ऐसी सुंदर दिखाई पड़ने लगी कि ऐसी सुंदर
स्त्री देखी ही नहीं थी उसने। उसने कहा, अरे, मालूम होता है, तू उर्वशी है! अप्सरा है--निश्चित है,
अप्सरा है! बस, तीन वरदान दे दे। एक तो टिकिट
मेरा मिल जाए। और इस बार चुनाव जीत जाऊं। और इस बार प्रधान मंत्री हो जाऊं।
उसने कहा, तीनों चीजें पूरी हो जाएंगी, मगर
एक शर्त--रात भर मेरे साथ प्रेम करना पड़ेगा!
राजनेता की छाती धड़की! इस बुढ़िया के साथ प्रेम करना--रात भर! एक दफा
खयाल उठा कि कूद कर मर ही जाऊं। ऐसे जिंदगी में बहुत दुख देखे; अब और यह दुख क्यों देखना। और रात भर...! मगर लालच भी पकड़ा कि जिंदगी भर
जिसमें गंवाया है, अरे, तपस्या थोड़ी-सी
कर ले। सोचा कि तपस्वी तो क्या-क्या नहीं कर गए; महात्मा तो
क्या-क्या नहीं कर गए! अरे, तू भी तो आखिर संत-महात्माओं की
संतान है। अरे, शुद्ध भारतीय है। संत-महात्माओं ने कैसे-कैसे
कष्ट नहीं झेले! धूप में अंगीठी लगा कर बैठे रहे। कांटे बिछा कर सोए। भूखे रहे
महीनों। अंगारों पर चले। उठ, हिम्मत कर! मत चूक चौहान! रात
भर की ही बात है; अरे गुजार देंगे किसी तरह। आंख बंद करके
एकदम गुजार देंगे!
कहा, ठीक है, राजी हूं।
बुढ़िया ने उसका हाथ पकड़ा और ले गई। पास ही उसका झोपड़ा था। रात भर
बुढ़िया के साथ प्रेम करना पड़ा। उसकी जो हालत हुई रात भर में, वह तुम सोच सकते हो! मर के भी वह दुर्दशा न होती, जो
सुबह उसकी हालत थी! मगर एक आशा थी कि बस, अब सुबह हुई,
अब सुबह हुई, अब सुबह हुई! रात ऐसी लंबाती गई,
लंबाती गई! पहली दफे उसको आइंस्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत समझ
में आया; कि समय लंबा हो जाता है, समय
छोटा हो जाता है। समय लचकदार, लोचपूर्ण है। कभी समझ में नहीं
आया था कि समय में कैसे लोच होती है। आज समझ में आया। बार-बार घड़ी देखे, मगर ऐसा लगे कि घड़ी ठहरी हुई है। दोत्तीन दफे बुढ़िया से पूछा भी कि यह घड़ी
चल रही है कि नहीं। सुबह होगी कि नहीं?
बुढ़िया ने कहा, होगी, सुबह भी होगी। घड़ी भी चल
रही है। घबड़ा मत।
रात भर प्रेम करने के बाद उठा बिस्तर से, प्रफुल्लित हो रहा था कि अब तीनों इच्छाएं पूरी हो जाएंगी। बुढ़िया से बोला
कि माताराम, अब सिर पर हाथ रख और वचन दे कि तीनों पूरे हो
जाएंगे!
बुढ़िया बोली कि बेटा, तू सतयुगी मालूम होता है। अरे,
कलियुग में कहां की अप्सराएं! अरे मूरख, मैं
कोई अभिशापित अप्सरा वगैरह नहीं हूं। मैं तो प्रेमी की तलाश में थी। और मैंने देखा
कि अब और कौन फंसेगा सिवाय राजनेता के! सो बेटा घर जाओ। दूध जलेबी खाओ। वरदान
वगैरह कुछ पूरा होने वाला नहीं। और मरना हो, तो मर जाओ!
उसने कहा, अब मर कर भी क्या करूंगा! अब तो जो दुख देख लिया,
इसके सामने नर्क भी फीका पड़ जाएगा।
ये आकांक्षाओं-अभीप्साओं से भरे हुए लोग, ये महत्वाकांक्षा-अहंकार से भरे हुए लोग--इनको तुम सोचते हो ध्यान सूझेगा?
नहीं वज्राचार्य, असंभव है। इनकी पूरी चेष्टा एक
ही है कि किसी तरह नाम रोशन हो जाए! इनको भीतर रोशनी चाहिए ही नहीं।
एक राजनेता अपने घर के दरवाजे पर नाम की तख्ती जड़ने के बाद उस पर
बिजली का बल्ब लगा रहा था। उसके एक मित्र ने, जो पास से गुजरा,
पूछा, भइया, यह क्या कर
रहे हो?
अपना नाम रोशन करने की कोशिश कर रहा हूं, राजनेता ने कहा।
इनको क्या पड़ी कि भीतर रोशनी हो! नाम रोशन होना चाहिए!
एक लड़के वाला
जो नेता था
अपने लड़के के लिए
लड़की देखने गया।
लड़की वाले से बोला--
व्यक्तित्व उसका ऐसा हो
जैसा इंदिरा गांधी का;
कुंवारापन अटल बिहारी जैसा;
धर्म में विश्वास मौलाना बुखारी जैसा;
विद्याभूषण जैसा भाग्य हो भाई,
धीरे-धीरे बोलती हो
जैसे मोरारजी देसाई;
तारकेश्वरी सिन्हा जैसा
शायराना अंदाज हो,
जनता पार्टी की दुल्हन जैसी लाज हो;
जार्ज फर्नान्डिस जैसे बाल हो;
जगजीवन राम के समान गाल हों,
राजनारायण जैसी चाल हो,
सादगी से ऐसी हो जैसे
हेमवती नंदन बहुगुणा...
लड़के की फर्माइश कुछ नहीं।
लड़की वाला बोला--बस बस
और सुनने की गुंजाइश नहीं
जो कुछ अब तक खाया है
उसका कर दीजिए पेमेंट
तुम्हें लड़की नहीं, चाहिए पार्लियामेंट!
राजनेताओं की बेचारों की स्थिति! इनको कहां ध्यान वगैरह से रस है!
सत्य से इन्हें कुछ लेना-देना? ये झूठ की दुनिया के सौदागर!
शाहजहां अली नाई की पत्नी
मुमताज जब बीमार पड़ी
और आ गई उसकी अंतिम घड़ी
तो
देखकर पत्नी की उखड़ती सांस
नाई आया उसके पास
और बोला
डाघलग, क्यों हो उदास?
मुमताज ने कहा
डियर वायदा करो आज
मेरे मर जाने पर
तुम भी बनवाओगे ताज
नाई ने करके वायदा
किया पत्नी का मन शांत
और कुछ देर बाद
मुमताज का हो गया देहांत
पत्नी की मृत्यु के बाद
शाहजहां अली नाई ने
एक दिन भी बरबाद नहीं किया
और फौरन
उसने अपनी दुकान का नाम
ताज महल हेयर कटिंग सैलून रख दिया!
और क्या करेंगे ये बेचारे!
नहीं। कोई राजनैतिक संगठन, वह चाहे संयुक्त
राष्ट्र संघ ही क्यों न हो, ध्यान में उत्सुक हो सकता है,
इसकी कोई संभावना नहीं है। ध्यान तो व्यक्तियों की उत्सुकता है। और
बहुत हिम्मतवर व्यक्तियों की--बहुत साहसी, दुस्साहसी
व्यक्तियों की, क्योंकि इसमें मृत्यु पहली शर्त है--अहंकार
की मृत्यु। उस मृत्यु के बाद ही पुनर्जीवन है।
सदगुरु के पास मृत्यु घट सकती है; ध्यान फल सकता है;
समाधि के फूल लग सकते हैं; मगर उनमें ही जो
तैयार हैं, उनमें ही जिनमें दम है। दम मारो दम वाला दम नहीं;
वैसे में तो दम और उखड़ जाती है!
जिनके भीतर आत्मा है, छाती है...।
मेरे पास छाती वाले लोग इकट्ठे हो रहे हैं; मैं क्या फिक्र करूं इन संगठनों की! मेरे पास लाखों हिम्मतवर लोग इकट्ठे
होने वाले हैं। यहां खड़ा करेंगे--विश्व स्वास्थ्य संगठन! यहां निर्माण करेंगे,
पहले अर्थों में, एक जागतिक भाईचारा। वह तो
संयुक्त राष्ट्र संघ भी--उन्हीं लुच्चों की भीड़ इकट्ठी है वहां, जिनकी वजह से दुनिया परेशान है! वे ही वहां इकट्ठे हैं; उनसे कुछ हल होने वाला नहीं।
तुम यहां देखो। यहां पहली दफा आदमी आदमी की तरह उपस्थित है। किसी को
पता नहीं चलता--कौन हिंदू, कौन मुसलमान, कौन ईसाई, कौन जापानी, कौन कोरियन, कौन
चीनी, कौन रूसी, कौन इटैलियन, कौन जर्मन--किसी को कुछ पता नहीं। किसी को कुछ लेना नहीं, कुछ देना नहीं। कौन यहूदी, कौन जैन, कौन बौद्ध--किसी को कोई प्रयोजन नहीं। यहां एक भाईचारा पैदा हो रहा है।
मैं ऊपर से थोपने का आदी नहीं हूं किसी चीज को। यहां हम बीज बो रहे
हैं, बगिया बना रहे हैं। और एक बीज भी अगर ठीक-ठीक काम कर
जाए, तो सारी पृथ्वी को हरा कर सकता है।
और यहां तो हम हजारों बीज बो रहे हैं। इस पृथ्वी के हरे होने की
संभावना है, आशा है।
तुम सब प्रार्थना करो उस घड़ी की, जब और-और लोग,
व्यक्ति--संगठन नहीं, संस्थाएं नहीं--व्यक्ति
ध्यान में आतुर होंगे, ध्यान में उत्सुक होंगे; सत्य की खोज में, सौंदर्य की खोज में, आनंद की खोज में निकलेंगे। निकल पड़े हैं दीवाने। और पुकार दूर-दिगंत तक
सुनाई पड़ने लगी है। कोई इस यात्रा को रोक नहीं सकेगा। यह गैरिक अग्नि सारी पृथ्वी
को घेर लेने वाली है; लेकिन व्यक्ति-व्यक्ति के द्वारा
घेरेगी। दीए से दीया जलेगा। पूरी पृथ्वी को दीवाली बनाना है। दिन होली--रात
दीवाली!
आज इतना ही।
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक २७ जुलाई,
१९८०
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