ध्यान है: अंतस—क्रांति-(पहला-प्रवचन)
दिनांक 25 फरवरी, सन् 1970
श्री रजनीश, बंम्बई,
प्रश्न :
साक्षीभाव क्या है? उसे हम जगाना चाहते हैं। क्या वह भी चित्त का एक अंश नहीं होगा? या कि चित्त से परे
होगा?
प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है, और ठीक से समझने योग्य है। साधारणत: हम जो भी जानते
हैं, जो भी करते हैं, जो भी प्रयत्न
होगा, वह सब चित्त से होगा, मन से होगा,
माइंड से होगा। अगर आप राम—राम जपते हैं, तो
जपने की क्रिया मन से होगी। अगर आप मंदिर में पूजा करते हैं, तो पूजा करने की क्रिया मन का भाव होगी। अगर आप कोई ग्रंथ पढ़ते हैं,
तो पढ़ने की क्रिया मन की होगी। और आत्मा को जानना हो, तो मन के ऊपर जाना होगा। मन की कोई क्रिया मन के ऊपर नहीं ले जा सकती है।
मन की कोई भी क्रिया मन के भीतर ही रखेगी।
स्वाभाविक
है कि मन की किसी भी क्रिया से, जो
मन के पीछे है, उससे परिचय नहीं हो सकता। यह पूछा है,
यह जो साक्षीभाव है, क्या यह भी मन की क्रिया
होगी? नहीं, अकेली एक ही क्रिया है,
जो मन की नहीं है, और वह साक्षीभाव है। इसे
थोड़ा समझना जरूरी है।
और केवल साक्षीभाव ही मनुष्य को आत्मा में प्रतिष्ठा दे सकता
है, क्योंकि वही हमारे जीवन में एक सूत्र है, जो मन का नहीं है, मांइड का नहीं है।
आप रात
को स्वप्न देखते हैं। सुबह जागकर पाते हैं कि स्वप्न था, और मैंने समझा कि सत्य है। सुबह स्वप्न तो झूठा हो
जाता है, लेकिन जिसने स्वप्न देखा था, वह
झूठा नहीं होता। उसे आप मानते हैं कि जिसने देखा था वह सत्य था, जो देखा था वह स्वप्न था। आप बच्चे थे, अब युवा हो
गये। बचपन तो चला गया, युवापन आ गया। युवावस्था भी चली
जायेगी, बुढ़ापा आ जायेगा। लेकिन जिसने बचपन को देखा, युवावस्था को देखा, बुढ़ापे को देखेगा, वह न आया, न
गया; वह मौजूद रहा। सुख आता है, सुख
चला जाता है; दुःख आता है, दुःख चला
जाता है। लेकिन जो दुःख को देखता है और सुख को देखता है, वह
मौजूद बना रहता है।
तो हमारे
भीतर दर्शन की जो क्षमता है, वह
सारी स्थितियों में मौजूद बनी रहती है। साक्षी का जो भाव है, वह हमारी जो देखने की क्षमता है, वह मौजूद बनी रहती
है। वही क्षमता हमारे भीतर अविच्छिन्न रूप से, अपरिवर्तित
रूप से मौजूद है। आप बहुत गहरी नींद में हो जाएं, तो भी सुबह
कहते हैं, रात बहुत गहरी नींद आयी, रात
बड़ी आनंदपूर्ण निद्रा हुई। आपके भीतर किसी ने उस निंद्रापूर्ण अनुभव को भी जाना।
उस आनंदपूर्ण सुषुप्ति को भी जाना। तो आपके भीतर जाननेवाला, देखनेवाला
जो साक्षी है, वह सतत मौजूद है।
मन सतत
परिवर्तनशील है, और साक्षी सतत
अपरिवर्तनशील है। इसलिए साक्षीभाव मन का हिस्सा नहीं हो सकता। और फिर, मन की जो—जो क्रियाएं हैं, उनको भी आप देखते हैं।
आपके भीतर विचार चल रहे हैं, आप शांत बैठ जायें, आपको विचारों का अनुभव होगा कि वे चल रहे हैं; आपको
दिखायी पड़ेंगे, अगर शांत भाव से देखेंगे तो विचार वैसे ही
दिखाई पड़ेंगे, जैसे रास्ते पर चलते हुए लोग दिखायी पड़ते हैं।
फिर अगर विचार शून्य हो जायेंगे, विचार शांत हो जायेंगे,
तो यह दिखायी पड़ेगा कि विचार शांत हो गये हैं, शून्य हो गये हैं; रास्ता खाली हो गया है। निश्चित
ही जो विचारों को देखता है, वह विचार से अलग होगा। वह जो
हमारे भीतर देखने वाला तत्व है, वह हमारी सारी क्रियाओं से,
सबसे भिन्न और अलग है।
जब आप
श्वास को देखेंगे, श्वास को देखते रहेंगे,
देखते—देखते श्वास शांत होने लगेगी। एक घड़ी आयेगी, आपको पता ही नहीं चलेगा कि श्वास चल भी रही है या नहीं चल रही है। जब तक
श्वास चलेगी, तब तक दिखायी पड़ेगा कि श्वास चल रही है;
और जब श्वास नहीं चलती हुई मालूम पड़ेगी, तब
दिखाई पड़ेगा कि श्वास नहीं चल रही है लेकिन दोनों स्थितियों में देखने वाला पीछे
खड़ा हुआ है।
यह जो
साक्षी है, यह जो विटनेस है, यह जो अवेयरनेस है पीछे, बोध का बिंदु है— यह बिंदु
मन के बाहर है; मन की क्रियाओं का हिस्सा नहीं है। क्योंकि
मन की क्रियाओं को भी वह जानता है। जिसको हम जानते हैं, उससे
अलग हो जाते हैं। जिसको भी आप जान सकते हैं, उससे आप अलग हो
सकते हैं; क्योंकि आप अलग हैं ही। नहीं तो उसको जान ही नहीं
सकते। जिसको आप देख रहे हैं, उससे आप अलग हो जाते हैं,
क्योंकि जो दिखायी पड़ रहा है, वह अलग होगा और
जो देख रहा है, वह अलग होगा।
साक्षी
को आप कभी नहीं देख सकते। आपके भीतर जो साक्षी है, उसको आप कभी नहीं देख सकते। उसको कौन देखेगा? जो
देखेगा, वह आप हो जायेंगे और जो दिखायी पड़ेगा, वह अलग हो जायेगा। साक्षी आपका स्वरूप है। उसे आप देख नहीं सकते। क्योंकि
देखनेवाला, आप अलग हो जायेंगे, तो फिर
वही साक्षी होगा जो देख रहा है। जो दृश्य बन जायेगा, आब्जेक्ट
बन जायेगा, वह फिर आत्मा नहीं रहेगी।
साक्षीभाव
जो है, वह आत्मा में प्रवेश का
उपाय है। असल में पूर्ण साक्षी स्थिति को उपलब्ध हो जाना स्वरूप को उपलब्ध हो जाना
है। साक्षी मन की कोई क्रिया नहीं है। और जो भी मन की क्रियाएं हैं, वे फिर ध्यान नहीं होंगी। इसलिए मैं जप को ध्यान नहीं कहता हूं। वह मन की
क्रिया है। किसी मंत्र को स्मरण करने को ध्यान नहीं कहता हूं, वह भी मन की क्रिया है। किसी पूजा को, किसी पाठ को
ध्यान नहीं कहता हूं; ये सब मन की क्रियाएं हैं। सिर्फ एक ही
आपके भीतर रहस्य का मार्ग है, जो मन का नहीं है—वह साक्षी का
है। जिस—जिस मात्रा में आपके भीतर साक्षी का भाव गहरा होता जायेगा, आप मन के बाहर होते जायेंगे। जिस क्षण साक्षी का भाव पूरा प्रतिष्ठित होगा,
आप पायेंगे : मन नहीं है।
भारत से
एक भिक्षु कोई चौदह सौ, पंद्रह सौ वर्ष पहले चीन
गया, नाम था बोधिधर्म। जब वह चीन गया, उसके
पहले उसकी ख्याति पहुंच गयी। सारे चीन में उसकी चर्चा हो गयी उसके पहुंचने के पहले।
वैसा व्यक्ति था, अदभुत था। चीन का जो राजा था बू नाम का,
वह उसका स्वागत करने सीमा पर दो मील चलकर आया। उसने स्वागत किया
बोधिधर्म का और बोधिधर्म से पूछा, 'मैंने बहुत विहार बनवाये,
मंदिर बनवाये, भगवान बुद्ध की हजारों—हजारों
मूर्तियां बनवायीं, धर्म का प्रचार किया, धर्मशालाएं बनवायीं, लाखों भिक्षुओं को भोजन कराता
हूं। मेरे इन सारे पुण्य कर्मों का क्या फल होगा?' बोधिधर्म
ने कहा, 'कुछ भी नहीं। ' वह बू चौंक
गया। जो भिक्षु आते थे, वे कहते थे, ऐसा
करो, इससे बहुत लाभ है, बहुत पुण्य है।
बोधिधर्म
ने कहा, 'कुछ भी नहीं। और यह भी
मत सोचना कि इनका कोई धर्म से संबंध है। ' वह बहुत हैरान हुआ।
उसने पूछा, 'फिर धर्म का किस बात से संबंध है?' तो बोधिधर्म ने कहा, 'तुमने मंदिर बनवाये, तुमने भिक्षुओं को भोजन कराया,
या तुमने धन बांटा, या मूर्तियां खड़ी कीं। जब तुम यह सब कर रहे थे, तो तुम्हारे भीतर कोई जानता है कि यह सब हो रहा है, यह
सब किया जा रहा है। वह जो साक्षी है, जो तुम्हारे भीतर जानता
है, अगर उसमें प्रतिष्ठित हो जाओ, तो
धर्म है। मंदिर बनाने में नहीं, मंदिर में पूजा करने में
नहीं। वह जो मंदिर के बनाने को भी देखता है और जानता है, और
मंदिर की पूजा को भी देखता है और जानता है...।
'कभी मंदिर में पूजा करते वक्त एकदम से खयाल करें, तो
आपको पता चलेगा, आप पूजा भी कर रहे हैं और आपके भीतर एक
बिंदु है, जो जान भी रहा है कि पूजा हो रही है, पूजा की जा रही है। रास्ते पर आप चल रहे हैं, चलते
वक्त एकदम से खयाल करें, तो दिखायी पड़ेगा कि आप चल रहे हैं
और आपके भीतर कोई जान भी रहा है कि आप चल रहे हैं। वह जो जान रहा है, वह आत्यंतिक रूप से अंतरस्थ केंद्र है। आपकी इनरमोस्ट, सबसे गहरी स्थिति है, जहां आप थे, जहां आपका स्वरूप है। बोधिधर्म ने कहा, वहां
प्रतिष्ठित हों, तो धर्म में प्रतिष्ठित हैं। बाकी सब अच्छे
काम हैं, धर्म से उनका कोई गहरा संबंध नहीं है। '
वह बू
बोला कि ' अगर ऐसी बात है, तो मेरा चित्त बहुत अशांत रहता है, उसी के लिए मैने
यह धर्म के कार्य किये। मेरा चित्त कैसे शांत हो जाये, यह
बतायें। ' बोधिधर्म ने उसे देखा और कहा, 'कल सुबह चार बजे अंधेरे में आ जाना, तो तुम्हारे
चित्त को शांत कर ही दूंगा। ' ऐसा कहने वाला कभी कोई व्यक्ति
उसे मिला नहीं था। उसने दुबारा पूछा, 'क्या मेरे चित्त को शांत
कर ही देंगे?' बोधिधर्म ने कहा, ' अब
दुबारा मत पूछो। सुबह चार बजे आ जाना। दुबारा पूछने की क्या बात है? मैंने कहा कि चित्त को शांत कर ही दूंगा। तुम जाओ।
'जब वह सीढियां उतरने लगा, तो बोधिधर्म ने कहा,
'खयाल रखना, जब आओ, तो
चित्त को साथ लेते आना। नहीं तो मैं शांत किसको करूंगा?' रास्ते
में बादशाह सोचने लगा कि यह तो बडी गड़बड़ बात है, चित्त को
साथ लेते आना! जब मैं आऊंगा, तो चित्त तो साथ आयेगा ही।
इसमें क्या बात थी कहने की, यह कैसा पागल आदमी है! चित्त को
साथ लेते आना, इसका क्या मतलब है? मैं
आऊंगा, तो चित्त साथ आयेगा ही।
सुबह वह
चार बजे क्या, तीन बजे ही आ गया। आते ही
बोधिधर्म ने पूछा, 'लाये? चित्त को ले
आये?' उसने कहा, ' आप कैसी बातें करते
हैं। मैं आया हूं तो चित्त तो आयेगा ही!' उसने कहा आंख बंद
करो, 'खोजो, चित्त कहां है। मिल जाये, तो पकड़ो और कहो, यह है। और मैं उसी वक्त शांत कर दूंगा।
'उस फकीर के साथ उस अंधेरी रात में उस बादशाह ने आंख बंद की, भीतर खोजा और आंख थोड़ी देर बाद खोली, और कहा,
'वह मिलता नहीं। ' तो बोधिधर्म ने कहा,
'जो मिलता ही नहीं, वह शांत हो गया। तुमने कभी
खोजा ही नहीं। ' और वह हैरान हुआ। बादशाह भीतर जब खोजने गया,
तो वहां सब शांत!
असल में
जब आप भीतर खोजने जायेंगे, तो सिर्फ साक्षी रह
जायेगा, खोजनेवाला रह जायेगा। और अगर खोजने वाला बहुत
प्रतिष्ठा से, बहुत शक्ति से अपने भीतर जाये, तो चित्त पाया ही नहीं जायेगा। चित्त हमारे सोये हुए होने का नाम है।
चित्त हमारे भीतर साक्षी जितना मूर्च्छित है, उसका नाम है।
चित्त कुछ है नहीं। साक्षी की ही मूर्च्छा का नाम चित्त है—मन। अगर साक्षी सजग हो
जाये, मन नहीं पाया जायेगा।
जो मैंने
प्रयोग कहा, वह कोई मन की क्रिया नहीं
है। वह साक्षी भाव में धीरे— धीरे प्रवेश करने का बिलकुल प्राथमिक चरण है। उस भाव
में जितने आप गहरे जायेंगे, पायेंगे कि चित्त है ही नहीं। जब
साक्षी भाव पैदा होगा, तो आप पायेंगे, मन
जैसी कोई चीज है नहीं। मात्र आत्मा है भीतर। यह साक्षीभाव मन का हिस्सा नहीं है,
मन के बाहर है। असल में साक्षीभाव के सोये हुए होने का नाम मन है।
और साक्षीभाव के जग जाने का नाम अ—मन है या आत्मा है। उस वक्त नो—माइंड है;
उस वक्त कोई मन आपके भीतर नहीं रहता है।
पूछा है, भय क्या है? और भय—मुक्ति का
उपाय क्या है? यह जो मैंने अभी कहा, साक्षी
का सोया हुआ होना मन है। इसे और हम दो—तीन बातें करेंगे, तो
समझ में आ सकेगा कि साक्षी का सोया हुआ होना क्या है? यह जो
साक्षी का सोया हुआ होना है, इससे मन पैदा हो जाता है। यानी
वह सोया हुआ होना ही मन है। यह मन बडी छाया— अस्तित्व की चीज है, बडा शैडो एक्सिस्टेंस है इसका। इसकी कोई वास्तविक स्थिति नहीं है। इसलिए
मन हमेशा मिटने से डरा रहता है। घबडाहट लगी रहती है कि कब मिट जाये! उस मिटने के
भय से, वह मिटने की जो संभावना है, आशंका
है, उससे भय पैदा होता है। फियर पैदा होता है।
पूछा है
कि भय क्या है?
जिस—जिस
चीज को आप अपना होना समझे हुए हैं, वे सभी चीजें मरणधर्मा हैं। यह भय है। जिस—जिस चीज को आप अपना होना समझे
हुए हैं कि यह मैं हूं वे सभी मरणधर्मा हैं। भीतर प्रत्येक की मृत्यु का स्पष्ट
बोध है। आप संपत्ति को समझे हुए हो कि संपत्ति मेरी है। लेकिन बहुत गहरे में हर एक
व्यक्ति जानता है, संपत्ति मेरी नहीं है। क्योंकि आप नहीं थे,
तब भी संपत्ति थी; आप नहीं होंगे, तब भी संपत्ति होगी। आप उसके मालिक हो नहीं सकते, लेकिन
मालिक बने हैं। तो मालकियत झूठी है, इसका बहुत गहरे में बोध
प्रत्येक को है। तो मालकियत खोने का डर पीछे लगा हुआ है। वह झूठी है। हर आदमी अपनी
संपत्ति की सुरक्षा के लिए डरा हुआ है कि संपत्ति कहीं छूट न जाये। जिस यश को आप
समझे हुए हैं मेरा है, बहुत गहरे में प्रत्येक व्यक्ति जानता
है, यश मेरा नहीं है, वह छूट सकता है।
किसी का दिया हुआ है, बिलकुल उधार है। अभी छीना जा सकता है।
तो यश के बचाव के लिए आप भयभीत हैं।
जिस देह
को आप समझते हैं कि यह मैं हूं रोज चारों तरफ देखते हैं कि देह मिट जाती है। आप भी
किसी तल पर जानते हैं कि देह मिट जायेगी। इसलिए देह के मिटने का भय लगा हुआ है। आप
जिन—जिन चीजों के जोड़ हैं, उन सभी चीजों के विनष्ट
होने का, उन सभी चीजों के पराये होने का, उन सभी चीजों के वास्तविक संपत्ति न होने का आपके भीतर थोड़ा—बहुत बोध है।
वही बोध आपको भयभीत किये हुए है। उस बोध के कारण ही आप भयभीत हैं। उसी से फियर
पैदा हो रहा है। जो ईडियट हो, जड़— बुद्धि हो, उसको कोई भय नहीं है। वह आग में हाथ डाल देगा। घर में आग लगी हो, वह बैठा रहेगा। तो कोई वह जड़—बुद्धि कोई परम जान को उपलब्ध नहीं हो गया है।
असल में, बोध न होने से जो—जो चीजें मरणधर्मा हैं, उनका उसे पता ही नहीं चल रहा है, इसलिए उसे कोई भय
नहीं है।
मनुष्य
सबसे भयभीत प्राणी है। और भयभीत होने का कारण है, उसे बोध है। तो जो—जो चीज गलत है, उसकी सरकती हुई
अनुभूति उसे होती रहती है कि यह गलत है। यह ठीक नहीं है, यह
छूट जायेगी।
एक
मुसलमान बादशाह हुआ। सुबह ही सुबह वह अपने दरबार में जाकर बैठा था कि एक फकीर भीतर
आया। पहरेदारों ने रोकने की कोशिश की, तो उसने कहा कि ' कौन मुझे रोक सकता है? कोई इसका मालिक नहीं है, कि मुझे रोक सके। ' वह इतना दबंग था फकीर, ऐसा प्रभावशाली था कि पहरेदार
घबड़ाकर खड़े हो गये। ऐसा कोई आदमी नहीं आया था। उसने कहा, 'हट
जाओ रास्ते से। कौन मुझे रोक सकता है? किसका है यह? यह किसी का भी नहीं। ' पहरेदारों ने खबर दी कि ऐसा
फकीर आया है, बड़ा प्रभावशाली है और वह कहता है, किसी का मकान नहीं है। कोई मुझे भीतर जाने से रोक नहीं सकता। राजा ने कहा,
'उसे ले आओ।
'फकीर लाया गया। उसने राजा से कहा कि 'मैं इस सराय
में कुछ दिन ठहरना चाहता हूं। कौन मुझे रोक सकता है?' उस
राजा ने कहा, 'बिलकुल ही अशिष्ट बात बोल रहे हो। एक तो
पहरेदारों के साथ तुमने दुर्व्यवहार किया, दूसरा अब तुम मेरे
निवास को, मेरे महल को कहते हो सराय, धर्मशाला?
शब्द वापस ले लो। ' फकीर बोला, 'मैं अपने शब्द वापस ले लूं? जो कि बिलकुल सच हैं!
नहीं, मैं तुमसे कहूंगा, अपने शब्द
वापस ले लो। क्योंकि मैं इसके पहले आया, तो तुम यहां नहीं थे;
तब कोई और था, जो इसका मालिक बना था। इस
सिंहासन पर पहले भी यही झंझट हो चुकी है। ' राजा ने कहा,
'वे कोई नहीं थे, मेरे पिता थे। ' और उसने कहा कि 'उसके पहले भी मैं आया हूं और तब भी
झंझट हो चुकी है। तब वे नहीं थे, कोई और थे। ' राजा ने कहा, 'वे उनके पिता थे। ' और फकीर ने कहा, 'ऐसा मैं बहुत बार आया हूं। जब भी यहां
आया, तो दूसरे आदमी को पाया हूं। मैं तुमसे पक्का कहता हूं
कि जब मैं दुबारा आऊंगा, तब तुम नहीं रहोगे। तो मैं इसको
सराय कहने लगा, क्योंकि यहां तो आदमी बदलते रहते हैं! यहां
मालकियत किसी की नहीं। तुम अपना शब्द वापस ले लो कि यह निवास है। यह सराय है। यहां
तुम आये हो, ठहरे हो, चले जाओगे।
'राजा ने सुना। उसने दरबारियों से कहा, 'मैं अपने
शब्द ही वापस नहीं लेता, अपना जीवन भी वापस लेता हूं। '
वह फकीर के पीछे हो गया। उसे दिखायी पड़ गया कि सराय है। वह निवास
कभी नहीं था।
लेकिन
सराय को अगर हम अपना निवास समझें, तो
फियर होगा। चाहे हम ऊपर से कितने ही समझे रहें कि यह हमारा निवास है, लेकिन आप धर्मशाला में ठहरे हुए हैं और आप यह समझे रहें कितने ही कि मेरा
मकान है, फिर भी भीतर किसी तल पर आप झुठला नहीं सकते। आप
जानते हैं कि यह मकान नहीं है। यहां ठहरा हुआ हूं। घबराहट लगी रहेगी—कब निकल जाऊं।
कब अलग कर दिया जाऊं! कब बेघर हो जाऊं! यह डर बना ही रहेगा, क्योंकि
जहा आप ठहरे हुए हैं, वह घर है ही नहीं। फियर पैदा होता है,
भय पैदा होता है। भय इसलिए पैदा होता है कि जहा घर नहीं है, वहा घर समझे हुए थे।
यह भय
बुरा नहीं है। मेरी दृष्टि से जिसमें यह भय नहीं है, वही बात बुरी है। यह भय बुरा नहीं है, क्योंकि जड़—बुद्धि
में यह भय नहीं होगा। इसलिए जितनी सतेज बुद्धि होगी, उतनी
भयभीत होगी। क्योंकि सब तरफ उसे लगेगा, जहा—जहा पैर रखे हुए
हैं, वहा जमीन है ही नहीं। उसे दिखायी पड़ेगा न, अंधा आदमी नहीं है। जिसके पास आंख है, बोध है,
उसे हर चीज भयभीत करती हुई मालूम पड़ेगी। उसका जीवन धीरे— धीरे
बिलकुल ही भय से भर जायेगा। वह कैपने लगेगा पत्ते की तरह। सब भयभीत हो जायेगा भीतर।
लेकिन, इसी भय से अभय पैदा होगा। इसी बोध से—जब कि हर एक चीज
उसे आश्वासन देने में असमर्थ हो जायेगी। जब कोई भी चीज उसे ऐसी नहीं रह जाएगी जो
अभय दे सके। जिसको दे रही है अभय, वह नासमझ है।
एक आदमी
दस लाख रुपये पकड़े बैठा है, सोचता है कि मैं फियरलेस
हो गया। अब मुझे कोई भय नहीं है। वह पागल है। लेकिन जिसके पास बोध होगा, उसके पास दस लाख क्या, दस करोड़, दस अरब भी अभय नहीं दे सकते। उसे दिखायी पड़ेगा, यह
मामला कितना ही मेरे पास हो, इससे भय मिटता नहीं है। बल्कि
जितना ही होता जाता है, यह और, इसका
होना भी नये भय का कारण हो जाता है—उसकी सुरक्षा, उसकी
व्यवस्था। फिर भी वह सुरक्षित रहने वाला नहीं है।
'भय का बोध बुद्धि का लक्षण है। इसलिए भय कोई बुरी बात नहीं है। असल में
बुरी बात इस जीवन में और जगत में कुछ भी नहीं है। और जिन—जिन को हम बुरा मानते हैं,
उनसे ही उसके लिए मार्ग मिलते हैं, जिनको शुभ
कहते हैं। अगर भय का बोध आपका पूरा हो जाये, अगर एंग्विश
टोटल हो जाये, अगर घबराहट और संताप पूरा हो जाये, तो आपके जीवन में क्रांति हो जायेगी। आप उस अग्नि से दूसरे आदमी होकर पैदा
हो जायेंगे। आपका नया जन्म हो जायेगा। क्योंकि जब आपको सब तरफ भय दिखायी पड़ने
लगेगा स्पष्ट और कोई घर घर नहीं मालूम होगा, कोई अपना अपना
नहीं मालूम होगा, कोई संपत्ति संपत्ति नहीं मालूम होगी,
पैर के नीचे कोई भूमि नहीं मालूम होगी, जब ऐसा
आप चारों तरफ भय से भर जायेंगे, उसी भय में बाहर का विश्वास
चला जाता है। और भीतर आंख मुड़ती है। उसी भय में बाहर की आस्था खो जाती है और बाहर
की निष्ठा खो जाती है। तब आप भीतर खोजते हैं कि शायद यहां घर मिल जाये।
जब तक
बाहर घर को समझते हैं कि मिल सकता है, तब तक आप भयभीत रहेंगे; क्योंकि घर कितना ही मिल
जाये, बाहर घर हो नहीं सकता, क्योंकि
है नहीं। वस्तुस्थिति ऐसी है कि बाहर कोई घर नहीं है। कितना ही खोजें, मिल सकता नहीं है। भय भीतर बना ही रहेगा। है।, लेकिन
अगर बाहर के सारे घर व्यर्थ मालूम हों, और भय पूरा हो जाये,
तो भीतर प्रवेश होगा। और वहां घर है। उसके मिलते ही अभय पैदा हो
जाता है। भीतर जो भूमि है, उस पर पैर पड़ते ही अभय पैदा हो
जाता है। उसके पहले जिनको आप समझते हैं कि जिनमें कोई फियर नहीं है, समझते हैं बड़े बहादुर हैं, बड़े हिम्मतवर हैं, वे भी सब
भयभीत हैं। उनके हाथ में तलवारें हैं। वे तलवारें भय का लक्षण हैं।
संपत्ति
को इकट्ठा कर रहे हैं, संपत्ति के बल पर कहेंगे
कि मुझे भय नहीं है, लेकिन संपत्ति को इकट्ठा करना भय का
लक्षण है।
क्राइस्ट
ने अपने शिष्यों को एक दिन कहा, 'कल
की जो चिंता करता है, वह भयभीत है। क्योंकि वह डरा हुआ है कि
कल क्या होगा। कल का डर है। ' क्राइस्ट ने कहा, 'इन फूलों की तरह हो जाओ, जो खिलते हैं, मुरझा जाते हैं, लेकिन इन्हें कोई चिंता नहीं है। '
लेकिन फूलों को चिंता न होने को मैं कोई अच्छी बात नहीं मानता। बोध
की कमी है वहां। फूल की भांति नहीं होना। यानी बोध हट जाये आपके भीतर, तो आप भी निश्चित हो जायेंगे। लेकिन उस तरह की निश्चितता अभय नहीं लायेगी।
उस तरह की निश्चितता के पीछे भय बना ही रहेगा। इसलिए बड़े से बड़े लोग जिन्होंने अपनी बडी निश्चितता कर ली,
बडी सिक्योरिटी कर ली, वे भी भीतर भयभीत बने
रहते हैं।
चंगेज जब
हिंदुस्तान को लूट—खसोटकर वापस लौट रहा था... हजारों आदमी काट दिये थे। जिस देश
में गया, वहां हजारों लोगों को काट
दिया। जिस राजधानी में गया, पहले जाकर दस हजार बच्चों के सिर
कटवा देता था और अपने सैनिकों को कहता कि उनको भालों पर लगाकर एक जुलूस निकाल दो
पूरे नगर में, ताकि लोग देख लें कि चंगेज आ गया। और समझ
जायें कि कौन आ गया। रात को जहां से फौजें निकलती थीं, बगल
के गांव में आग लगा देता था, ताकि रोशनी हो जाए; फौजों का रास्ता साफ हो जाए। लेकिन अपनी मौत से ऐसा भयभीत था कि रात—रात
भर सो नहीं सकता था। बार—बार तलवार उठा लेता था। जरा ही खटका हो कि तलवार पर हाथ
रख लेता था। रात सो नहीं सकता था, दिन में सोता था। कभी नहीं
सोया रात में। दिन में सोता था, जब चारों तरफ नंगी तलवार लिए
फौजी होते थे, तब वह सोता था। रात के अंधकार में, मान लो फौजियों को झपकी आ जाये, मान लो अंधेरे में
कोई घुस आये, इसलिए रात को नहीं सो सकता था। अंधेरे से डरता
था।
और ऐसे
ही उसकी मौत हुई थी। जब हिंदुस्तान से लौट रहा था, एक रात को उसे ऐसा लगा, सपने में लगा और जो आदमी दिन
भर हत्या करेगा, रात उसे मारे जाने का सपना देखना बहुत कठिन
नहीं है। बहुत स्वाभाविक है। उसने देखा कि दुश्मन घुस आये हैं और उसे मारने की
तलाश में हैं। वह नींद में उठा और भाग।। बाहर जो उसका टेंट था, उसकी रस्सी से उसका पैर फंस गया और वह गिर पडा और घबराहट में मर गया।
ऐसा आदमी
जिसने लाखों लोग मार दिये निर्ममता से, वह ऐसा भयभीत था। सिकंदर, नेपोलियन और हिटलर,
इन्हें कोई बहादुर आदमी मत समझना। ये भयभीत लोग हैं। असल में ये
दूसरे को मारकर अपने को यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि हम इतने लोगों को मार सकते
हैं, तो हमें कौन मार सकेगा? और कोई
बात नहीं है। इसलिए जो जितना भयभीत होता है, उतने लोगों को
मारने की कोशिश करेगा, दबाने की कोशिश करेगा। वह सेल्फ
काफिडेंस पैदा करना चाह रहा है—आत्मविश्वास, कि मैं इतने
लोगों को मार सकता हूं तो मुझे कौन मारेगा? मरने का भय है।
बहुत लोगों को मारकर, लाशों को बिछाकर वह यह विश्वास ले आता
है, यह सिक्योरिटी पैदा कर लेना चाहता है, सुरक्षा, कि मुझे कोई नहीं मार सकता है। ये सब भयभीत
लोग हैं।
इतिहास
जिन लोगों के खून—खराबों से भरा हुआ है, वे दुनिया के सबसे ज्यादा भयभीत लोग थे। उनका भय जा नहीं सकता। बाहर की
व्यवस्था से हिंसा पैदा होती है। भयभीत आदमी हिंसा करेगा, करवायेगा।
उससे उसे विश्वास आता है कि मेरे भीतर भय नहीं है। वह विश्वास अपने को दिला रहा है।
लेकिन भय भीतर बना रहता है।
आदमी
राज्य जीत ले, बड़े पदों पर पहुंच जाये, यह तीव्र
चेष्टा है। राजनीतिज्ञ बहुत भयभीत आदमी होता है। बड़े से बड़े पद पर पहुंचने की उसकी जो कोशिश है, वह इसी खयाल में है कि वहां पहुंचकर मैं निर्भय हो जाऊंगा। उसमें मुझे कोई
भय नहीं रहेगा।
निश्चित
ही, एक गांव का चपरासी है, और एक राष्ट्रपति है। सोचता है चपरासी, अगर मैं
राष्ट्रपति हो जाऊं, फिर मुझे कोई भय नहीं है। राष्ट्रपति
होने की जो कोशिश, या प्रीमियर होने की जो कोशिश, या प्रधान मंत्री होने की जो कोशिश, सत्ता को पाने
की जो कोशिश है, वह अपने भीतर भय को झुठलाने की कोशिश है।
लेकिन कितनी ही व्यवस्था कर लो, भय तो कहीं जा नहीं सकता।
बाहर की कोई व्यवस्था भय को नष्ट नहीं करती, बल्कि एक नये भय
को पैदा कर देती है कि जो व्यवस्था मिट जाती है, अब कहीं यह
छूट न जाये। तो बड़े की चेष्टा शुरू होती
है और नीचे जो पकड रखा है, उसे बचाये रखने की कोशिश शुरू
होती है। और ऐसा हम भय से घिरते जाते हैं।
लेकिन
यदि भीतर दृष्टि घूम जाये, तो अभय का स्थान मिल जाता
है। क्योंकि वहां दिखायी पडता है : जो है, उसकी कोई मृत्यु
नहीं है। वहां दिखायी पडता है : जो है, उसका कोई अंत नहीं है।
वहां दिखायी पडता है : जो है, उसे छीना नहीं जा सकता। वहां
जो संपदा मिलती है, वह नष्ट नहीं हो सकती है। यह जहां स्थिति
स्पष्ट हो जाये, वहीं अभय शुरू हो जाता है।
पूछा है
कि भय—मुक्ति का उपाय क्या है? उपाय
मत पूछें, क्योंकि उपाय सारे लोग कर रहे हैं, भय—मुक्ति के ही उपाय कर रहे हैं। धन को इकट्ठा करने वाला भी, पद को इकट्ठा करने वाला भी, तलवार इकट्ठी करनेवाला
भी, शरीर को मजबूत करनेवाला भी, ईश्वर
का भजनकीर्तन करने वाला भी—सब भय—मुक्ति के उपाय कर रहे हैं।
भय—मुक्ति
का उपाय मत पूछो, वह तो सारी दुनिया कर रही
है। भय—मुक्ति का उपाय नहीं, भय के प्रति जागरण, भय के प्रति होश, कि भय है क्यों? क्या है उसके बुनियाद में कारण? और अगर कारण दिखायी
पड जाये कि भय का कारण यह है कि अभय की जो भूमि है, उसमें
हमारा प्रवेश नहीं है; और जो भय की भूमि है, वहीं हम कोशिश कर रहे हैं कि अभय उपलब्ध हो जाये। अगर यह दिख जाये,
तो परिवर्तन शुरू हो जाये।
अगर भय
का स्पष्ट कारण दिख जाये, उसकी कॉजलिटी दिखायी पड
जाये, उसकी बुनियाद दिखायी पड जाये, तो
आप अभय में प्रवेश करना शुरू कर पायेंगे। भय को देखें और समझें कि वह क्यों है?
बिना उसे समझे भय—मुक्ति के उपाय की कोशिश मत करें। और मेरा कहना है,
जो समझ लेता है, उसे उपाय करने की कोई जरूरत
नहीं रह जाती है। जिसने समझ लिया है कि भय क्यों है, उसका भय
गया।
भय को
खोजने से भय चला जायेगा। हम भय को तो खोजते नहीं, उपाय खोजते हैं उससे बचने का! और सब उपाय व्यर्थ हो जाते हैं।
मुझे
जैसा दिखायी पडता है, वह यही है कि जीवन में किसी
चीज से बचने की कोशिश न करें, उसे जानने की कोशिश करें। भय
कुछ बुरा नहीं है, उसे जानने की कोशिश करें। उसे जानने से ही
क्रांति होती है।
दूसरा प्रश्न है :
आपने मन और विचार की गति रोकने के लिए साधना बतायी। गीता ने
आसक्तिरहित कर्म का तरीका बताया है, उसमें और इस तरीके में क्या फर्क है?
गीता को
बीच में न लायें। मैं और आप काफी हैं। क्योंकि पक्का मत समझें कि जो आप समझते हैं
गीता में लिखा है, वही गीता में लिखा हो।
गीता को कृष्य हुए बिना समझना असंभव है। अर्जुन समझता था, ऐसी
मेरी धारणा नहीं है। जिस तल पर जो बात कही जाती है, उसी तल
पर केवल समझी जा सकती है। यही वजह है कि गीता की हजारों टीकाएं हैं। कृष्य कोई
पागल तो थे नहीं कि उनकी एक ही बात में हजार—हजार मतलब रहे हों। एक ही आदमी के अगर
एक बात में हजार मतलब हों तो उसको पागल होना चाहिए। उनका मतलब तो स्पष्ट एक ही रहा
होगा। लेकिन हजारों टीकाएं हैं गीता पर। ये टीकाएं गीता पर नहीं हैं, अपने—अपने मन पर हैं। यह टीकाकार का मन है जो बोल रहा है।
और हममें
ऐसा पागलपन रहा है कि हम अपने विचार को किसी बड़े आदमी के नाम पर थोप दें, तो हमें सुख मिलता है। हमें ऐसा लगता है कि विचार तो
अब निश्चित ही ठीक होगा। हम पर तो खुद हमें विश्वास होता नहीं। हमें यह तो हम अपने
विचार को कृष्य पर थोप दें, तो फिर हमको धीरे— धीरे विश्वास
आने लगता है कि जरूर ठीक होगा क्योंकि कृष्य कह रहे हैं। कह हम ही रहे हैं।
ये सारी
टीकाएं कृष्य पर जो लिखी गयी हैं, ये
अपने—अपने मन पर लिखी टीकाएं हैं, चाहे कोई भी लिखता हो।
क्योंकि कृष्य का मतलब तो गीता है। टीका उसका मतलब है, जो
लिख रहा है। जब भी हम कोई किताब पढ़ते हैं, तो जाने—अनजाने
टीका करते हैं। वह जो टीका है, हमारा भाव है, हमारा विचार है। इसलिए मैंने कहा कि गीता को अलग कर दें, मैं और आप काफी हैं।
मैंने जो
कहा, जिस बात को मैंने सुबह
आपको कहा, कल रात कहा, फिर कहूंगा,
उसमें और अनासक्त कर्म के विचार में बुनियादी भेद है। मेरा कहना यह
है कि अनासक्त कर्म किया नहीं जा सकता है; अनासक्त कर्म होता
है। क्योंकि जब आप उसे करेंगे, तो उसमें आसक्ति आ जायेगी। जब
आप चेष्टा करेंगे, तो वह कर्म आसक्त हो जायेगा। जब आप कोशिश
करेंगे, यह कर्म मेरा अनासक्त हो, तो
क्यों कोशिश करेंगे? आखिर अनासक्त होने की वजह क्या है?
वजह है कि मोक्ष पाना है। तो आसक्त हो गया।
अगर कोई
चीज पानी है, तो वह आसक्त हो जायेगा।
तो शांति पानी है, इसलिए अनासक्त कर्म करते हैं। तो अनासक्त कहां
रहा? धन न पाना हो, यश न पाना हो,
लेकिन शांति पानी है या परमात्मा पाना है! असल में जहां भी 'पाने' का भाव है, वहां कर्म
अनासक्त नहीं होगा। तो आप सोच—सोच कर चाहें कि मैं अपने कर्म को अनासक्त कर लूं?
तो आप
गलती में हैं। सोचकर कभी कर्म अनासक्त हो ही नहीं सकता, क्योंकि सोचना तो आसक्ति का ही उपाय है। तो मैं जो कह
रहा हूं अगर चित्त शांत हो, शांत चित्त से जो कर्म निकलता है,
वह अपने आप अनासक्त होता है, वह करना नहीं
होता। अनासक्त कर्म करने से चित्त कभी शांत नहीं होता, क्योंकि
अनासक्त कर्म तो किया ही नहीं जा सकता। लेकिन चित्त यदि शांत हो जाये, तो जो कर्म निकलेगा, वह अनासक्त कर्म होगा, क्योंकि शांत चित्त से आसक्त कर्म निकल नहीं सकता।
तो सवाल
आपके कर्म का बिलकुल भी नहीं है, क्योंकि
कर्म महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण आप हो। और आप जैसे होते
हो, वैसा कर्म निकलता है। तो आप अपने को तो बदलो न, और कर्म को अनासक्त करना चाहो, तो पागलपन है;
वह तो हो ही नहीं सकता। कैसे होगा? यानी आपके
भीतर तो कोई बदलाहट न हो और कर्म को अनासक्त करने की कोशिश चले, तो कर्म निकलता कहां से है? कर्म आपसे निकलता है। आप
उसके मूल उद्गम हो। आप वही हो पुराने के पुराने और कर्म को अनासक्त करना चाहते हो,
तो हो सकता है, कर्म अनासक्त दिखने लगे,
लेकिन हो नहीं सकता। उसमें आसक्ति बनी रहेगी।
साधु भी
जो कर रहा है, उसमें आसक्ति है। वह चाहे
मोक्ष की हो, चाहे ईश्वर की हो। ये भी सब वासना के ही
एक्सटेनशंस हैं, उसके ही विस्तार हैं। एक साधु चेष्टा में
लगा है, उपवास में लगा है, सेवा कर रहा
है, या कुछ और कर रहा है, इस सारे के
पीछे एक वासना है कि चित्त शांत हो जाये, ईश्वर मिल जाये,
आत्मा मिल जाये, मोक्ष मिल जाये; यह हो जाये, वह हो जाये; आवागमन
से छुटकारा हो जाये। ये सब वासना के रूप हैं। ये सब डिजायर हैं। यह कर्म अनासक्त
कैसे होगा?
अनासक्त
कर्म तभी हो सकता है, जब भीतर चित्त इतना शांत
हो। चित्त जिस मात्रा में शांत होगा, विलीन होगा, उसी मात्रा में कर्म से आसक्ति विलीन हो जायेगी। चित्त की अशांति ही
आसक्ति का मूल उदगम है। इसलिए मैं कर्म को बदलने को नहीं कहता, कर्म को बदला ही नहीं जा सकता। वह तो ऐसा ही है कि एक आदमी वृक्ष के पास
जाये और वृक्ष को तो कुछ न करे और कहे कि फूल इसमें बड़े आने चाहिए, छोटे आने चाहिए
या ऐसा होना चाहिए या वैसा होना चाहिए। फूलों का विचार करे और वृक्ष की कोई फिक्र
न करे। तो क्या होगा? अगर जोर जबरदस्ती करे, तो ऊपर से फूल लटका सकता है वृक्ष में जाकर, लेकिन
वृक्ष में फूल ला नहीं सकता। क्योंकि वृक्ष में फूल कोई आते नहीं हैं एकदम से।
वृक्ष की आखिरी नीचे जो जड़ है, वहां से फूल का बनना शुरू
होता है। वह सारे वृक्ष की यात्रा करता है फूल, और फिर कहीं
ऊपर आकर प्रकट होता है। जहां आपको दिखाई पडता है, वह तो केवल
अभिव्यक्ति है, वह कोई निर्माण का स्थल नहीं है। निर्माण तो बड़े
अंधेरे और बड़े अज्ञात में हो रहा है।
कर्म भी
हमारे जीवन की अंतःसत्ता के फूल की भांति हैं। वहां वे बन नहीं रहे हैं; वहां तो प्रगट हो रहे हैं। बन तो बहुत गहरे में रहे
हैं, बहुत अंधेरे में, बहुत अज्ञात में,
अदृश्य में। वहां वे तैयार हो रहे हैं। वहां आपको पता भी नहीं कि वहां
क्या हो रहा है! वे प्रगट हो जाते हैं, तब आप कहते हैं,
यह हो गया। एक आदमी ने हत्या कर दी, तो आप
कहते हैं, उसने हत्या कर दी। हत्या करना इतनी आसान बात नहीं
है। हत्या पैदा हो रही थी, बन रही थी, निर्मित
हो रही थी। वर्षों से उसके भीतर तैयारी चल रही थी। उसकी चेतना उसका निर्माण कर रही
थी। फिर एक दिन वह प्रकट हुई। जब प्रकट हुई तब आपने देखा। आप समझते हैं, एक्शन वहीं हुआ। वहां नहीं हुआ; वहां प्रकट हुआ केवल।
वह पीछे से चल रहा था। हो सकता है, अनंत जन्मों से चल रहा हो।
और कर्म को बदलने की जो सोच रहा है, वह बिलकुल पागल है। वह
तो अभिव्यक्ति को बदलने की सोच रहा है, जहां कि चीजें प्रकट
हो रही हैं। वहां कुछ नहीं होगा।
एक घर
में से ऊपर छप्पर में धुआ निकल रहा हो और आप जा—जाकर खपडों पर उसके धुएं को रोकने
की कोशिश कर रहे हैं कि धुआ नहीं निकलने देना है अपने घर में से और घर में नीचे आग
जल रही हो, उसकी कोई फिक्र न हो!
उसको आप धुएं को इधर से रोकेंगे, वह दूसरी तरफ से निकलना
शुरू हो जायेगा। उसे कैसे दबायेंगे, उसे कहां भेजेंगे?
भीतर आग बुझानी चाहिए।
कर्म
महत्वपूर्ण नहीं है... अंतस, अंतःकरण!
कर्म तो केवल ऊपर निकलने वाला धुआ है। वह तो खबर देता है कि भीतर क्या है; और कुछ नहीं। तो भीतर की स्थिति बदलनी चाहिए। वह अगर बदल जाये, तो बाहर की अभिव्यक्ति अपने आप बदल जायेगी। लेकिन हम सारे लोग अभिव्यक्ति पर
जोर देने वाले हो गये। धीरे—धीरे हजारों वर्षों से हमने यही समझने की कोशिश की कि
कर्म को अच्छा करो। व्यक्ति को नहीं, कर्म को।
यह बात
बिलकुल ही गलत है। अंतस को अच्छा होना चाहिए, आचरण अपने आप अच्छा होगा। लेकिन हम कहते हैं, आचरण
अच्छा करो। हमारी यह भांति है कि आचरण अच्छा होगा, तो अंतस
अच्छा हो जायेगा। आचरण बिलकुल ऊपरी चीज है, उसका कोई मूल्य
ही नहीं है। मूल्य तो अंतस का है, वहीं से निकलता है।
तो आप
मूल को बिना बदले ऊपर के आवरण को बदलने की कोशिश में लगे हैं, तो धोखा होगा, पाखंड होगा। आचरण
आप बदल सकते हैं चेष्टा करके, अंतस वही रहा आयेगा। एक
राजनीतिक साधु हो सकता है, कोई कठिनाई नहीं है। वेश बदल लेगा।
राजनीति कैसे जायेगी? कपड़े बदल लेगा, सिर
घुटा लेगा, रंगे हुए कपड़े पहन लेगा, लेकिन
भीतर का अंतस कैसे बदलेगा? अंतस तो वही रहेगा। वह साधु हो
जायेगा, लेकिन फिर साधुओं से प्रतिस्पर्धा चलने लगेगी,
काम्पिटीशन वहां आ जायेगा। मैं एक बडा साधु हो जाऊंगा, दूसरा साधु छोटा हो जाये। फिर साधुओं से लड़ने लगेंगे।
साधुओं
को देखें करीब जाकर, तो पायेंगे कि सारे
पोलिटीशियस हैं, सब राजनीतिज्ञ हैं। उन्होंने कपड़े बदल लिए
हैं, आचरण में व्यवस्था ऊपर की कर ली है, भीतर का चित्त वही का वही है। दो राजनीतिज्ञ एक—दूसरे से मिलने को राजी हो
जायेंगे, दो साधु मिलने को राजी नहीं होते। क्योंकि यह डर
लगा रहता है कि पहले कौन नमस्कार करेगा! वे दो मिलेंगे, तो
पहले कौन नमस्कार करेगा! अगर मिल गये, तो ऊपर कौन बैठेगा, नीचे कौन बैठेगा!
यह जो
चित्त है, इसको बिना बदले सब धोखा
और पाखंड हो जाता है। सारी दुनिया में जो हिपोक्रेसी है, जो
पाखंड है, वह इसीलिए है कि हम आचरण को बदलने की कोशिश करते
हैं, अंतस की फिक्र नहीं करते। दुनिया जो पाखंड से भर गयी है,
उसका और कोई कारण नहीं है। उसका कुल कारण इतना है कि आचरण बदलने पर
हम जोर देते हैं। हम बच्चे से कहते हैं, झूठ मत बोलो। हम
उसको कह रहे हैं, अपने आचरण को बदलो, हम
बच्चे से कहते हैं : देखो बेईमानी मत करना! हम उससे कह रहे हैं, अपना कर्म ठीक रखना। यह बात ही नहीं कह रहे कि अपने अंतस को ठीक बनाना। हम
जो बता रहे हैं, वह कर्म को ठीक करने के लिए बता रहे हैं।
अंतस तो वही होगा। कर्म को बदलने से पाखंड पैदा होगा, धोखा
पैदा होगा।
और अगर
वह व्यक्ति बहुत ईमानदार हो, जिसको
कहते हैं सिसियर हो, तो वह पागल हो जायेगा। क्योंकि उसका
अंतस विपरीत, उसका आचरण विपरीत। जितनी दुनिया में सभ्यता
बढ़ती है, उतने पागल बढ़ते जाते हैं। उसका कोई और कारण नहीं है।
उसका एक ही कारण है कि अगर कोई ईमानदारी से आचरण को बदलने की कोशिश करे, बिना अंतस बदले, तो पागल होना सुनिश्चित है। बच ही
नहीं सकता। बच कैसे सकता है? क्योंकि भीतर से आयेगा धुआ और
बाहर लगायेगा फूल! भीतर से आयेगी गंदगी और बाहर से करेगा व्यवस्था सौंदर्य की,
तो कितनी दिक्कत में नहीं पड़ जायेगा? कितना
टैंशन नहीं पैदा हो जायेगा! कैसे यह चलेगा?
और
इसीलिए मेरी दृष्टि में कर्म का, आचरण
का, सिवाय सूचक होने के और कोई मूल्य नहीं है। वह खबर देता
है कि आपका अंतस कैसा है। अगर आपके आचरण में झूठ आता है, तो
झूठ को बदलने की फिक्र मत करिये। पहचानिये कि आपका अंतस झूठ को पैदा करने में
समर्थ है। अंतस को बदलने की फिक्र करिये। यह केवल खबर हुई। यह तो खबर दे दी गयी
आपके लिए।
एक आदमी
आये, मुझे खबर दे कि तुम्हारे
घर में आग लगी है और मैं उस आदमी पर पानी डालने लगू कि चलो आग को बुझा दूं! तो
मुझे लोग पागल कहेंगे। उसने केवल खबर दी है कि घर में आग लगी है, तुम उसी पर पानी डाल रहे हो! इससे आग घर की थोड़े ही बुझेगी। वह आदमी भी मर
सकता है उलटा। लेकिन यह हमें दिखता है पागलपन। कर्म जो हैं आपके, आपके अंतस की खबर देने वाले हैं कि मेरे भीतर आग लगी है। आचरण में,
कर्म में झूठ आ रहा है, बेईमानी आ रही है—खबर
ला रहा है कर्म।
मेरी
दृष्टि में कर्म जो है, संदेशवाहक है; आचरण जो है खबर देनेवाला है। उसी को हम ठंडा करने लगते हैं कि आचरण को ठीक
करो, कर्म को ठीक करो। न, वह तो गलती
हो गयी। खबर को समझकर लें और खबर के पीछे जायें कि अंतस में क्या हो रहा है,
जिससे कि झूठ आचरण तक आ रहा है। अंतस में परिवर्तन के उपाय हैं।
अंतस में परिवर्तन का उपाय धर्म है। और आचरण में परिवर्तन का उपाय नीति है।
नीति और
धर्म बुनियादी रूप से भिन्न बातें हैं। धार्मिक आदमी तो अनिवार्य रूप से नैतिक
होगा। जिसका अंतस बदला, उसका आचरण तो बदल जायेगा।
लेकिन नैतिक मनुष्य अनिवार्य रूप से धार्मिक नहीं होता है क्योंकि आचरण बदलना भी
एक बात है, अंतस का बदलना जरूरी नहीं है। इसलिए नैतिक मनुष्य
बड़े कष्ट में जीता है। सज्जन जिनको हम कहते हैं, वे इतने
कष्ट में जीते हैं, जितने दुर्जन नहीं जीते हैं। क्योंकि
सारी तकलीफ ही यह है कि अंतस उनके खुद ही विरोध में खड़ा है और आचरण उनमें विपरीत
है। भीतर मन तो झूठ बोलने का होता है, वे सच बोलना चाहते हैं,
या सच बोलने की कोशिश करते हैं। उनका जीवन एक कांफ्लिक्ट और द्वंद्व
हो जाता है। इसलिए सज्जन बड़े कष्ट में
जीता है। उससे तो दुर्जन कम कष्ट में जीता है। कम से कम उसके आचरण में और अंतस में
एक समानता होती है। दुर्जन, अपराधी शांति में जीता है। उसके
अंतस और आचरण में समानता होती है। सज्जन बड़े कष्ट में जीता है। उसके आचरण और अंतस
में विरोध होता है।
संत भी
शांति में जीता है। उसके भी अंतस में और आचरण में समानता होती है। इसलिए संतों में
और अपराधियों में एक तरह की समानता है। समानता यही है कि उन दोनों के अंतस और आचरण
समान होते हैं। अपराधी के मन में जो बुराई उठती है, उसके आचरण में प्रकट होती है। संत के मन में बुराई उठती ही नहीं, भलाई ही उठती है। वह उसके आचरण में प्रकट होती है। भेद भलाई और बुराई का
होता है। वैसे संत और अपराधी समान होते हैं।
सज्जन
बडा उपद्रव में अटका होता है। वह त्रिशंकु होता है, वह दोनों के बीच में अटका रहता है। उसके अंतस में तो अपराधी बैठा रहता है।
और आचरण में साधु बैठा रहता है। सारी गड़बड़ हो जाती है। उसके भीतर बडा टैंशन,
बडा तनाव, बडी परेशानी पैदा होती है। उस
परेशानी से बचने के दो ही उपाय होते हैं। या तो वह पाखंडी हो जाये, यानी वह दिखाये कुछ, वस्तुत: करे कुछ। तो उसके भीतर थोड़ी
शांति आती है। मतलब वह अपराधी के करीब आ जाता है। किसी भांति अपराधी के निकट पहुंच
जाता है। और या फिर वह पागल हो जाये। उसे बोध ही न रहे कि वह क्या कर रहा है,
क्या नहीं कर रहा है; और क्या हो रहा है और
क्या नहीं हो रहा है। उस हालत में वह अपराधी के करीब पहुंच जाता है। तीसरा रास्ता
यह है कि वह अंतस में क्रांति कर ले और संत के करीब पहुंच जाये।
मेरा जोर
अंतस की क्रांति पर है, ताकि आचरण की क्रांति हो
सके। आचरण की क्रांति पर मेरा जोर नहीं है, क्योंकि उससे
अनिवार्य रूपेण अंतस की क्रांति नहीं होती है। इस पर हम और गहरे से विचार कर सकते।
आज इतना
ही।
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