संन्यास की मंगल—वेला—प्रवचन-एकसौतैहरवां)
सूत्र:
सब्बसो नाम—रूपस्मिं
यस्स नत्थि ममयितं।
असता च न सोचति स
वे भिक्खूति वुच्चति ।।303।।
सिज्च भिक्खु! इमं नावं
सित्ता ते लहुमेस्सति।
छेत्वा रागज्च
दोसज्च निब्बाणमेहिसि ।।304।।
पज्च छिन्दे पज्च
जहे पज्च चुत्तरि भावये।
पज्च संगातिगो
भिक्खु ओधतिण्णो’ति वुच्चति ।।305।।
नत्थि झानं अपज्जस्स
पज्जानत्थि अझायतो।
यम्हि झानज्च
पज्जा च स वे निब्बाणसन्तिके ।।306।।
प्रथम दृश्य:
भगवान श्रावस्ती
में विहरते थे। श्रावस्ती में पंचग्र— दायक नामक एक ब्राह्मण था। वह खेत बोने के
पश्चात फसल तैयार होने तक पांच बार भिक्षुसंघ को दान देता था एक दिन भगवान उसके
निश्चय को देखकर भिक्षाटन करने के लिए जाते समय उसके द्वार पर जाकर खड़े हो गए। उस
समय ब्राह्मण घर में बैठकर द्वार की ओर पीठ करके भोजन कर रहा था। ब्राह्मणी ने
भगवान को देखा। वह चिंतित हुई कि यदि मेरे पति ने श्रमण गौतम को देखा तो फिर यह
निश्चय ही भोजन उन्हें दे देगा और तब मुझे फिर से पकाने की झंझट करनी पड़ेगी ऐसा
सोच वह भगवान की ओर पीठ कर उन्हें अपने पति से छिपाती हुई खड़ी हो गयी जिससे कि
ब्राह्मण उन्हें न देख सके।
उस
समय तक ब्राह्मण को भगवान की उपस्थिति की अंत—प्रज्ञा होने लगी और वह अपूर्व सुगंध
जो भगवान को सदा घेरे रहती थी उसके भी नासापुटों तक पहुंच गयी और उसका मकान भी एक
अलौकिक दीप्ति से भरने लगा। और इधर ब्राह्मणी भी भगवान को दूसरी जगह जाते न देखकर
हंस पड़ी
ब्राह्मण
ने चौककर पीछे देखा। उसे तो अपनी आंखों पर क्षणभर को भरोसा नहीं आया और उसके मुंह
से निकल गया : यह क्या। भगवान। फिर उसने भगवान के चरण छू वंदना की और अवशेष भोजन
देकर यह प्रश्न पूछा. हे गौतम! आप अपने शिष्यों को भिक्षु कहते हैं क्यों भिक्षु कहते
हैं? भिक्षु का अर्थ क्या है? और कोई भिक्षु कैसे होता है?
यह
प्रश्न उसके मन में उठा क्योंकि भगवान की इस अनायास उपस्थिति के मधुर क्षण में
उसके भीतर संन्यास की आकांक्षा का उदय हुआ। शायद भगवान उसके द्वार पर उस दिन
इसीलिए गए भी थे। और शायद ब्राह्मणी भी अचेतन में उठे किसी भय के कारण भगवान को
छिपाकर खड़ी हो गयी थी।
तब
भगवान ने इस गाथा को कहा :
सब्बसो नाम—रूपस्मिं
यस्स नत्थि ममयितं।
असता च न सोचति स
वे भिक्खूति वुच्चति ।।
'जिसकी नाम—रूप—पंच—स्कंध—में जरा
भी ममता नहीं है और जो उनके नहीं होने पर शोक नही करता, वही
भिक्षु है, उसे ही मैं भिक्षु कहता हूं।'
इसके
पहले कि इस सूत्र को समझो,
इस छोटी सी घटना में गहरे जाना जरूरी है। घटना सीधी—साफ है। लेकिन
उतरने की कला आती हो, तो सीधी—साफ घटनाओं में भी जीवन के बड़े
रहस्य छिपे मिल जाते हैं।
हीरों
की खदानें भी तो कंकड़—पत्थर और मिट्टी में ही होती हैं—खोदना आना चाहिए। जौहरी की
नजर चाहिए। तो कंकड़—पत्थर को हटाकर हीरे खोज लिए जाते है।
इन
छोटी—छोटी घटनाओं में बड़े हीरे दबे पड़े हैं। मैं यही कोशिश कर रहा हूं कि तुम्हें
थोड़ी जौहरी की नजर मिले। तुम इनकी पर्तें उघाड़ने लगो। जितने गहरे उतरोगे, उतनी बड़ी
संपदा तुम्हें मिलने लगेगी।
श्रावस्ती
में पंचग्र —दायक नामक ब्राह्मण था। वह खेत के बोने के पश्चात फसल तैयार होने तक
पांच बार भिक्षुसंघ को दान देता था। एक दिन भगवान उसके निश्चय को देखकर भिक्षाटन
करने के लिए जाते समय उसके द्वार पर जाकर खड़े हो गए।
अभी
ब्राह्मण को भी अपने निश्चय का पता नहीं है। उसके अंतस्तल में क्या उठा है, अभी
ब्राह्मण को भी अज्ञात है। अभी ब्राह्मण को खयाल नहीं है कि उसके भिक्षु होने का
क्षण आ गया।
मनुष्य
का बहुत छोटा सा मन मनुष्य को ज्ञात है। मनस्विद कहते हैं. जैसे बर्फ का टुकड़ा
पानी में तैराओ,
तो थोड़ा ऊपर रहता है, अधिक नीचे डूबा होता है।
एक खंड बाहर रहता है, नौ खंड भीतर डूबे रहते हैं। ऐसा मनुष्य
का मन है, एक खंड केवल चेतन हुआ है, नौ
खंड अंधेरे में डूबे हैं।
तुम्हारे
अंधेरे मन में क्या उठता है, तुम्हें भी पता चलने में कभी—कभी वर्षों लग
जाते हैं। जो आज तुम्हारे मन में उठेगा, हो सकता है, पहचानते—पहचानते वर्ष बीत जाएं। और अगर कभी एक बार जो तुम्हारे अचेतन में
उठा है, तुम्हारे चेतन तक भी आ जाए, तो
भी पक्का नहीं है कि तुम समझो। क्योंकि तुम्हारी नासमझी के जाल बड़े पुराने हैं।
तुम कुछ का कुछ समझो! तुम कुछ की कुछ व्याख्या कर लो। तुम कुछ का कुछ अर्थ निकाल
लो। क्योंकि अर्थ आएगा तुम्हारी स्मृतियों से, तुम्हारे अतीत
से।
तुम्हारी
स्मृतियां और तुम्हारा अतीत उसी छोटे से खंड में सीमित हैं, जो चेतन
हो गया है। और यह जो नया भाव उठ रहा है, यह तुम्हारी गहराई
से आ रहा है। इस गहराई का अर्थ तुम्हारी स्मृतियों से नहीं खोजा जा सकता। तुम्हारी
स्मृतियों को इस गहराई का कुछ पता ही नहीं है। इस गहराई के अर्थ को खोजने के लिए
तो तुम्हें जहां से यह भाव उठा है, उसी गहराई में डुबकी
लगानी पड़ेगी; तो ही अर्थ मिलेगा; नहीं
तो अर्थ नहीं मिलेगा।
कल
किसी का प्रश्न था;
इस संदर्भ में सार्थक है। नेत्रकुमारी ने पूछा है कि अब संन्यास का
भाव उठ रहा है। प्रगाढ़ता से उठ रहा है। लेकिन एक सवाल है—कि यह मेरा भावावेश तो
नहीं है? आपने सच में मुझे पुकारा है? या
यह केवल मेरी भावाविष्ट दशा है कि आपको सुन—सुनकर इस विचार में मोहित हो गयी हूं?
भाव
उठ रहा है। पुराना मन कह रहा है : यह सिर्फ भावावेश है। यह असली भाव नहीं है, भाव का
आवेश मात्र है! यह असली भाव नहीं है। यह तो सुनने के कारण, यहां
के वातावरण में, इतने गैरिक वस्त्रधारी संन्यासियों को देखकर
एक आकांक्षा का उदय हुआ है। ठहरो। घर चलो। शांति से विचार करो। कुछ दिन धैर्य रखो।
जल्दी क्या है?
घर
जाकर, शांति से विचार करके करोगे क्या? यह जो भाव की तरंग
उठी थी, इसको विनष्ट कर दोगे। इसको भावावेश कहने में ही
तुमने विनष्ट करना शुरू कर दिया। और मजा ऐसा है कि जब यह तरंग चली जाएगी, और तुम्हारे भीतर दूसरी बात उठेगी कि नहीं; संन्यास
नहीं लेना है, तब तुम क्षणभर को न सोचोगे कि यह कहीं भावावेश
तो नहीं!
यह
आदमी का अदभुत मन है! तब तुम न सोचोगे कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि वापस घर आ गए; गृहस्थों
के बीच आ गए; अब गैरिक वस्त्रधारी नहीं दिखायी पड़ते, अब ध्यान करते हुए मदमस्त लोग नहीं दिखायी पड़ते, अब
वह वाणी सुनायी नहीं पड़ती; अब वह हवा नहीं है; और यहां बाजार, और कोलाहल, और
घर, और घर—गृहस्थी की झंझटें; और सब
अपने ही जैसे लोग—कहीं इस प्रभाव में संन्यास न लूं यह भावावेश तो नहीं उठ रहा है?
फिर नहीं सोचोगे। फिर एकदम राजी हो जाओगे कि यह असली चीज हाथ आ गयी!
यह
असली चीज नहीं हाथ आ गयी। यह तुम्हारी स्मृतियों से आया। तुम्हारे अतीत से आया; तुम्हारे
अनुभव से आया। और अभी जो आ रहा है, वह तुम्हारे अनुभव से
नहीं आ रहा है, तुम्हारे अतीत से नहीं आ रहा है। वह तुम्हारी
गहराई से आ रहा है। और तुम्हारी गहराइयों का तुम्हें कुछ पता नहीं है।
पूछा
है कि यह कहीं भावावेश तो नहीं है? आपने सच में मुझे पुकारा है?
अब
समझो। अगर मैं कहूं कि ही,
सच में मैंने तुम्हें पुकारा है; तो क्या तुम
सोचते हो, और विचार नहीं उठेंगे कि पता नहीं, ऐसा मुझे समझाने के लिए ही तो नहीं कह दिया कि मैंने तुझे पुकारा है! इसकी
सचाई का प्रमाण क्या कि वस्तुत: पुकारा है? कहीं सांत्वना के
लिए तो नहीं कह दिया? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मुझे संन्यास
में दीक्षित करना था, इसलिए कह दिया हो?
विचार
की तरंगें तो उठती चली जाएंगी। उनका कोई अंत नहीं है। विचार से इसलिए कभी कोई हल
नहीं होता।
इस
कहानी का जो पहला हिस्सा है, वह यह कि एक दिन भगवान उसके निश्चय को
देखकर...।
अभी
ब्राह्मण को निश्चय का कुछ पता नहीं है। ब्राह्मण को पता होता, तो
ब्राह्मण स्वयं भगवान के पास आ गया होता। कि हे प्रभु! मेरे हृदय में भिक्षु होने
का भाव उठा है। घड़ी आ गयी। फल पक गया। अब मैं गिरना चाहता हूं। और आप में खो जाना
चाहता हूं। जैसे फल भूमि में खो जाता है, ऐसे मुझे आत्मलीन
कर लें। मुझे स्वीकार कर लें; मुझे अंगीकार कर लें।
ब्राह्मण
नहीं आया है। बुद्ध उसके द्वार पर गए हैं। और इसलिए मैं फिर से तुम्हें दोहरा दूं.
इसके पहले कि शिष्य चुने,
गुरु चुनता है। इसके पहले कि शिष्य को पता चले, गुरु को पता चलता है। शिष्य चुनेगा भी कैसे अंधेरे में भटकता हुआ! उसे कुछ
भी तो पता नहीं है। वह तो अगर कुछ चुनेगा भी, तो गलत चुनेगा।
कल
रात हालैंड से एक युवक संन्यास लेने आए। मैं देखता हूं कि निश्चय है। लेकिन उनको
अभी निश्चय का पता नहीं है। वे मुझसे कहने लगे, मैं सोचूंगा। मैं विचार करूंगा।
मैंने उनसे कहा तुम सोचोगे और विचार करोगे, तो गलत होगा।
तुम्हारा सोचा हुआ कब सही हुआ? तुम्हारा विचारा हुआ कब सही
हुआ? अब यहां आकर भी सोचोगे, विचारोगे!
तो यहां आना हुआ ही नहीं। तुमने यात्रा हालैंड से यहां तक की व्यर्थ की। अब यहां
सोचो —विचारो मत—देखो।
देखना
अलग बात है। देखना गहरे में उतरना है। सोचना—विचारना अपनी अतीत स्मृतियों में जाना
है। अतीत में गए कि चूके। क्योंकि तुम्हारा जो अचेतन है, वह अभी
मौजूद है। यहीं डुबकी मारनी है।
सोचने—विचारने
वाला आदमी ऐसा है,
जैसा कोई पानी की सतह पर तैरता है। और देखने वाला आदमी ऐसा है,
जैसे कोई पानी की गहराई में डुबकी मारता है—गोताखोर। गोताखोर बनो।
बुद्ध
भिक्षाटन को जाते थे। उस ब्राह्मण के घर जाने का अभी कोई खयाल भी न था। लेकिन
अचानक उन्हें दिखायी पड़ा कि उस ब्राह्मण के अचेतन में निश्चय हो गया है। संन्यास
की किरण पहुंच गयी है।
एक
दिन भगवान उसके निश्चय को देखकर.......।
ध्यान
रखना : बुद्ध जैसे व्यक्ति सोचते नहीं, देखते हैं। सोचना तो अंधों का काम
है। आंख वाले देखते हैं। बुद्ध को दिखायी पड़ा। जैसे तुम्हें दिखायी पड़ता है कि
वृक्ष के पत्ते हरे हैं। कि एक पीला पत्ता हो गया है, कि अब
यह गिरने के करीब है। जैसे तुम्हें दिखायी पड़ता है कि दिन है; कि रात है, कि सूरज निकला है, कि
बादल घिर गए; कि वर्षा हो रही है—ऐसे बुद्ध को चैतन्य—लोक की
स्थितियां दिखायी पड़ती हैं।
यह
निश्चय पक गया। यह आदमी संन्यस्त होने की घड़ी के करीब आ गया। इसको इस पर ही छोड़ दो, तो पक्का
नहीं है कि इसको अपने निश्चय का पता कब चले। जन्म—जन्म भी बीत जाएं। और जब चले भी,
तब भी पता नहीं कि यह क्या व्याख्या करे। किस तरह अपने को समझा ले,
बुझा ले। किस तरह वापस सो जाए, करवट ले ले।
फिर सपनों में खो जाए।
इस
परम घड़ी को बुद्ध इस ब्राह्मण पर नहीं छोड़ सकते हैं। इस ब्राह्मण का कुछ भरोसा
नहीं है। इसलिए स्वयं उसके द्वार पर जाकर रुक गए। गए तो थे भिक्षाटन को, उसके
द्वार पर जाने की बात न थी।
द्वार
पर जाकर खड़े हो गए। उस समय ब्राह्मण घर में बैठकर द्वार की ओर पीठ करके भोजन कर
रहा था।
ब्राह्मण
को तो कुछ पता ही नहीं था,
क्या होने वाला है। किस घड़ी में मैं आ गया हूं उसे कुछ पता नहीं है।
वह तो सामान्य—जैसे रोज अपने भोजन के समय भोजन करता होगा— भोजन कर रहा था। द्वार
की ओर पीठ किए था। उसे यह भी पता नहीं कि बुद्ध आ रहे हैं।
तुम्हें
भी पता नहीं कि कब बुद्ध तुम्हारे द्वार पर आते हैं। तुम्हें भी पता नहीं कि कब
तुम्हारे द्वार पर दस्तक देते हैं।
जीसस
का प्रसिद्ध वचन है : मांगो और मिलेगा। खोजो और पाओगे। खटखटाओ और द्वार खोल दिए
जाएंगे।
लेकिन
साधारण आदमी की दशा इससे ठीक उलटी है। वह कहता है दो और मैं नहीं लूंगा। आओ, मैं पीठ
कर लूंगा। द्वार खटखटाओ, मैं खोलने वाला नहीं। ब्राह्मण को
इतना भी पता नहीं कि बुद्ध का आगमन हो रहा है। नहीं तो पीठ किए बैठा होता!
इसलिए
मैं कहता हूं, इन छोटी—छोटी बातों में खयाल करना। तुममें से भी अधिक मेरी तरफ पीठ किए
बैठे हैं! इसका मतलब यह नहीं कि तुम पीठ किए बैठे हो। हो सकता है. तुम बिलकुल
सामने बैठे हो। मुझे देख रहे हो। लेकिन फिर भी मैं तुमसे कहता हूं जो मुझे देख रहे
हैं, उनमें से भी बहुत से पीठ किए बैठे हैं। जो मुझे सुन रहे
हैं, उनमें से भी बहुत से पीठ किए बैठे हैं। पीठ किए बैठे
हैं, अर्थात रक्षा कर रहे हैं अपनी। अपने को गंवाने की
तैयारी नहीं दिखा रहे हैं। अपने को विसर्जित करने की हिम्मत नहीं जुटा रहे हैं।
ब्राह्मण
द्वार की ओर पीठ किए भोजन कर रहा था। परम घड़ी आ गयी, संन्यास का क्षण करीब आ गया,
बुद्ध द्वार पर खड़े हैं। और वह एक छोटी सी प्रक्रिया में लगा था—भोजन!
यह
भी समझ लेना। भोजन का अर्थ है यह साधारण जो रोजमर्रा का जीवन है—खाना—पीना, उठना—सोना।
खाते—पीते, उठते—सोते आदमी जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा
पूरी कर लेता है। खाने—पीने में ही तो सब चला जाता है!
भोजन
कर रहा था। उसे पता नहीं कि भगवत्ता द्वार पर खड़ी है! वह भोजन कर रहा है। वह एक
छोटे से काम में लगा है। एक दैनंदिन कार्य में लगा है। कालातीत द्वार पर खड़ा है और
उसे इसकी कुछ खबर नहीं है!
आदमी
ऐसा ही सोया हुआ है। तुम्हारी राह पर भी बहुत बार बुद्ध का आगमन हुआ है। लेकिन तुम
पीठ किए रहे। ऐसा नहीं है कि तुम बुद्धों से नहीं मिले हो। मिले हो, मगर पीठ
थी, इसलिए मिलना नहीं हो पाया।
ब्राह्मणी
ने भगवान को देखा। लेकिन ब्राह्मणी के मन में तो कोई निश्चय उदय नहीं हुआ है। और
उसे देखकर पता है,
क्या चिंता पैदा हुई! आदमी कैसा क्षुद्र है! उसे एक चिंता पैदा हुई।
उसे यह नहीं दिखायी पड़ा कि भगवान द्वार पर खड़े हैं। उठूं? पांव
पखारूं, बिठाऊं! उसे फिक्र एक बात की हुई कि यदि मेरे पति ने
इस श्रमण गौतम को देखा, तो फिर यह निश्चय ही भोजन उसे दे
देगा। और मुझे फिर पकाने की झंझट करनी पड़ेगी।
आदमी
कैसी क्षुद्र बातों में विराट को खोता है! ऐसी दशा तुम्हारी भी है। इस ब्राह्मणी
पर नाराज मत होना। इस ब्राह्मणी को क्षमा करना। क्योंकि यह ब्राह्मणी तुम्हारी
प्रतीक है।
क्षुद्र
बातों में आदमी विराट को खो देता है। चिंता भी क्या उठी! तुम्हें हंसी आएगी।
क्योंकि यह तुम्हारी स्थिति नहीं है। तुम सोचते हो अपनी स्थिति नहीं है यह।
तुम्हें हंसी आएगी कि ब्राह्मणी भी कैसी मूढ़ है! लेकिन यही आम आदमी की दशा है। तुम
भी ऐसी ही क्षुद्र— क्षुद्र बातों से चूकते हो। बातें इतनी क्षुद्र होती हैं, लेकिन
उनके लिए तुम कारण खूब जुटा लेते हो!
ब्राह्मणी
को एक फिक्र पैदा हुई कि और एक झंझट द्वार पर आकर खड़ी हो गयी! अब यह श्रमण गौतम
भिक्षापात्र लिए खड़ा है।
यद्यपि
बुद्ध भिक्षा मांगने आए नहीं हैं। बुद्ध भिक्षा देने आए हैं! इस ब्राह्मण के मन
में एक संकल्प जन्म रहा है। बुद्ध उसे जन्म देने आए हैं। बुद्ध ऐसे आए हैं, जैसे कि
दाई। इसके भीतर कुछ पक रहा है। इसे सहारे की जरूरत है। जैसे गर्भ पूरा हो गया है
और बच्चा पैदा होने को है—और दाई को हम बुलाते हैं।
सुकरात
ने कहा है कि मैं दाई हूं। सभी बुद्धपुरुष दाई हैं। तुम्हारा ही जन्म होना है।
तुम्हें कम से कम पीड़ा हो,
ऐसे तुम्हारा जन्म हो जाए। कम से कम खून बहे, ऐसा
तुम्हारा जन्म हो जाए। तुम तुम्हारे ही जन्म की प्रक्रिया में बाधा न बन जाओ,
इस तरह तुम्हारा जन्म हो जाए। सरलता से, सुगमता
से तुम्हारा पुनरुज्जीवन हो जाए।
तो
बुद्ध तो इसलिए आए हैं। लेकिन यह स्त्री सोच रही है कि एक झंझट हुई। अब कहीं मुझे
फिर भोजन न बनाना पड़े! इतना फासला है आदमी और बुद्धों में! ऐसा सोच, वह भगवान
की ओर पीठ कर अपने पति को छिपाती हुई खड़ी हो गयी, जिससे कि
ब्राह्मण उन्हें देख न सके।
ऐसा
यहां रोज होता है। अगर पत्नी यहां आने में उत्सुक हो जाती है, तो पति
अपनी पत्नी को छिपाकर सुरक्षा करने लगता है। अगर पति यहां आने में उत्सुक हो जाता
है, तो पत्नी अपने पति को छिपाकर खड़ी हो जाती है, रोकने की कोशिश में लग जाती है। सौभाग्यशाली हैं वे, जो पति—पत्नी दोनों यहां आ गए हैं। नहीं तो एक बाधा डालेगा। क्योंकि उसे
डर पैदा होता है कि एक झंझट हुई! अब कहीं कुछ से कुछ न हो जाए। यह मेरी पत्नी कहीं
संन्यस्त न हो जाए! यह मेरा पति कहीं संन्यस्त न हो जाए! लोग अपने बेटों को नहीं
लाते।
मैं
ग्वालियर में कई वर्षों पहले सिंधिया परिवार में मेहमान था। विजय राजे सिंधिया ने
ही मुझे निमंत्रित किया था। लेकिन जब मैं पहुंच गया और मेरे संबंध में उसने बातें
सुनी; तो वह डर गयी।
अब
मुझे बुला लिया था,
तो सभा का आयोजन भी किया। डरते —डरते मुझे सुना भी। उसके बेटे ने भी
सुना। दूसरे दिन दोपहर वह मुझे मिलने आयी। उसने कहा कि क्षमा करें! आपसे छुपाना
नहीं चाहिए। मेरा बेटा भी आना चाहता था, लेकिन मैं उसे लायी
नहीं। मैं तो प्रौढ़ हूं, लेकिन वह भावाविष्ट हो सकता है। वह
आपकी बातों में आ सकता है। और आपकी बातें खतरनाक हैं। इसलिए मैं उसे लायी नहीं।
मैं उसे आपसे नहीं मिलने दूंगी। और मैं आपसे कहे देती हूं क्योंकि मैं आपसे छिपाना
भी नहीं चाहती।
अब
यह मां बेटे को आडू में लेकर खड़ी हो रही है। इसे पता नहीं, किस बात
से बचा रही है! और अपने को प्रौढ़ समझती है। प्रौढ़ का मतलब यह कि मैं तो बहुत जड़
हूं; मुझ पर कुछ असर होने वाला नहीं है। आप कुछ भी कहें,
मैं सुन लूंगी। मुझे कुछ खतरा नहीं है। लेकिन मेरा बेटा अभी जवान है,
अभी ताजा है। और आपकी बातों में विद्रोह है। और कहीं उसको चिनगारी न
लग जाए।
फिर
कहने लगीं. मुझे क्षमा करें, क्योंकि मेरे पति चल बसे और अब बेटा ही मेरा सब
सहारा है। जैसे कि मेरे संपर्क में आकर बेटा विकृत हो जाएगा!
यह
बड़ी हैरानी की बात है। पत्नी इतनी परेशान नहीं होती, अगर पति शराबघर चला जाए।
लेकिन सत्संग में चला जाए, तो ज्यादा परेशान होती है।
क्योंकि शराबघर कितनी ही अड़चनें ला दे; लेकिन कम से कम पत्नी
की सुरक्षा तो कायम रहेगी! पति एक बार वेश्यालय भी चला जाए, तो
पत्नी उतनी परेशान नहीं होती, जितनी साधु—संगत में बैठ जाए
तो। क्योंकि चला गया, वापस लौट आएगा। लेकिन साधु—संगत में
खतरा है। कहीं चला ही न जाए! कहीं वापस लौटने का सेतु ही न टूट जाए!
जो
हमारे मोह के जाल हैं,
और उन मोह में जो लोग ग्रस्त हैं, उन सबको भय
पैदा हो जाता है—जब तुम किसी बुद्धपुरुष के पास जाओगे। क्योंकि बुद्धपुरुषों की एक
ही तो शिक्षा है कि मोह से मुक्त हो जाओ। तो जिनका मोह में निहित स्वार्थ है,
वे सब तरह की अड़चन डालेंगे। और आदमी तरकीबें निकाल लेता है।
एक
मित्र मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि मैं तो संन्यास लेना चाहता हूं, लेकिन
मेरी पत्नी राजी नहीं है। और जब मैं घर से चलने लगा, तो उसने
तीन दफा मुझसे कसम खिलवा ली कि संन्यास नहीं लेना। मैंने कसम भी खा ली है। तो
संन्यास मैं लेना चाहता हूं लेकिन लूंगा नहीं; क्योंकि आप ही
तो कहते हैं : किसी को दुख नहीं देना चाहिए। अब पत्नी को क्या दुख देना!
मैंने
उनसे कुछ और बातें कीं,
ताकि वे यह संन्यास की बात थोड़ी देर को भूल जाएं। मैंने उनसे पूछा.
पत्नी तुम्हारी और किन—किन चीजों के खिलाफ है? वे बोले. अरे
साहब! हर चीज के खिलाफ है! सिगरेट पीता हूं तो खिलाफ। सिनेमा जाऊं, तो खिलाफ। ज्यादा किताबें मैं पढ़ने में लग जाऊं, तो
खिलाफ। तो मैंने पूछा. सिगरेट छोड़ी? उन्होंने कहा कि नहीं
छूटती। तो मैंने कहा : पत्नी को दुख दे रहे हो? और सिगरेट
पीए चले जा रहे हो! और संन्यास छोड़ने को राजी हो, क्योंकि
पत्नी को दुख नहीं देना चाहते हो! और कितने दुख पत्नी को नहीं दिए हैं?
और
सब दुख देने की तैयारी है। सिर्फ यह संन्यास के संबंध में दुख नहीं देना चाहते!
दिखायी पड़ता है न! आदमी तरकीबें निकालता है। आदमी बड़ा कुशल है। और जितनी कुशलता
आदमी बुद्धों से बचने में लगाता है, उतनी कुशलता किसी और चीज में नहीं
लगाता है।
पत्नी
घेरकर खड़ी हो गयी है। पीछे जाकर खड़ी हो गयी पति के, ताकि भूल—चूक से भी पति
कहीं पीछे न देख ले; द्वार पर खड़ा हुआ गौतम दिखायी न पड़ जाए।
उस
समय तक लेकिन भगवान की उपस्थिति की अंतःप्रज्ञा होने लगी ब्राह्मण को। वह जो भीतर
संकल्प उठा था,
उसी को सहारा देने बुद्ध वहा आकर खड़े हुए थे। खयाल रखना जिसके पास
होते हो, वैसा भाव शीघ्रता से उठ पाता है। जहां होते हो,
वहा दबे हुए भाव उठ आते हैं। तुम्हारे भीतर कामवासना पड़ी है और फिर
एक वेश्या के घर पहुंच जाओ। या वेश्या तुम्हारे घर आ जाए; तो
तत्क्षण तुम पाओगे. कामवासना जग गयी। पड़ी तो थी। वेश्या ऐसी कोई चीज पैदा नहीं कर
सकती, जो तुम्हारे भीतर पड़ी न हो। वेश्या क्या करेगी?
बुद्ध के पास पहुंच जाएगी, तो क्या होगा!
लेकिन
अगर तुम्हारे पास आ गयी,
तो कामवासना, जो दबी पड़ी थी, अवसर देखकर, सुअवसर देखकर, उमगने
लगेगी। तलहटी से उठेगी, सतह पर आ जाएगी। यही हुआ। बुद्ध वहा
आकर खड़े हो गए। अभी बोले भी नहीं। उनकी मौजूदगी, उनकी
उपस्थिति, उनका अंत—नाद, इस व्यक्ति की
चेतना को हिलाने लगा। उनकी वीणा इस व्यक्ति के भीतर भी गूंजने लगी।
उसकी
अंतःप्रज्ञा जागने लगी। उसे अचानक बुद्ध की याद आने लगी। अचानक भोजन करना रुक गया।
भोजन करने में रस न रहा। एकदम बुद्ध के भाव में डूबने लगा। और जैसे—जैसे भाव में
डूबा, वैसे—वैसे उसे वह अपूर्व सुगंध भी नासापुटों में भरने लगी, जो बुद्ध को सदा घेरे रहती थी।
और
चौंका, और गहरा डूब गया उस सुगंध में। और जैसे ही सुगंध में और गहरा डूबा,
उसने देखा कि घर उस कोमल दीप्ति से भर गया है, जैसे बुद्ध की मौजूदगी में भर जाता है
वह
पीछे लौटकर देखने ही वाला था कि मामला क्या है! और तभी पत्नी भी हंस पड़ी। पत्नी
इसलिए हंस पड़ी कि यह भी हद्द हो गयी! मैं छिपाकर खड़ी हूं इस आशा में कि यह गौतम
कहीं और चला जाए भिक्षा मांगने। मगर यह भी हद्द है कि यह भी डटकर खड़ा हुआ है। न
कुछ बोलता, न कुछ चालता। यह भी यहीं खड़ा हुआ है! यह भी जाने वाला नहीं है, दिखता है!
उसे
इस स्थिति में जोर से हंसी आ गयी। कि एक तो मैं जिद्द कर रही हूं कि फिर भोजन न
बनाना पड़े; और यह भी जिद्द किए हुए खड़ा है कि आज बनवाकर रहेगा! इसलिए ब्राह्मणी हंस
उठी।
बुद्ध
की अंतःप्रज्ञा,
उनकी सुगंध का नासापुटों में भर जाना, उनकी
दीप्ति का घर में दिखायी पड़ना, फिर पत्नी का हंसना—तो
स्वभावत: उसने पीछे लौटकर देखा। चौंककर उसने पीछे देखा। उसे तो अपनी आंखों पर
क्षणभर को भरोसा ही नहीं आया।
किसको
आएगा? जिसके पास भी आंख है, उसे भरोसा नहीं आएगा। ही,
अंधों को तो दिखायी ही नहीं पड़ेंगे। ब्राह्मणी को दिखायी नहीं पड़े
थे। ब्राह्मणी बिलकुल अंधी थी। उसके भीतर कोई दबा हुआ स्वर भी नहीं था अज्ञात का।
सत्य की खोज की कोई आकांक्षा भी नहीं थी। वह गहन तंद्रा में थी। मूर्च्छित थी।
ब्राह्मण
इतना मूर्च्छित नहीं था। आंख खुलने —खुलने के करीब थी। ब्राह्मण का ब्रह्म—मुहूर्त
आ गया था। सुबह होने के करीब थी। झपकी टूटती थी। या आधी टूट ही चुकी थी। रात जा
चुकी थी, नींद भी हो चुकी थी, भोर के पक्षियों के स्वर सुनायी
पड़ने लगे थे। ऐसी मध्य की दशा थी ब्राह्मण की।
ब्राह्मणी
तो अपनी आधी रात में थी—मध्य—रात्रि में—जब स्वप्न भी खो जाते हैं और सुषुप्ति
महान होती है,
प्रगाढ़ होती है। ब्राह्मणी की अमावस्या थी अभी। अंधेरी रात। लेकिन
ब्राह्मण की सुबह करीब आ गयी थी।
ध्यान
रखना, बाहर की सुबह तो सबके लिए एक ही समय में होती है। भीतर की सुबह सबके लिए
अलग—अलग समय में होती है। बाहर की रात तो सभी के लिए एक ही समय में होती है। लेकिन
भीतर की रात सबकी अलग—अलग होती है।
यह
हो सकता है कि तुम्हारे पड़ोस में जो बैठा है, उसकी सुबह करीब है, और तुम अभी आधी रात में हो। यह हो सकता है कि तुम्हारी सुबह आने में अभी
जन्मों—जन्मों की देर हो। और इसीलिए तो हम एक—दूसरे को समझ नहीं पाते, क्योंकि हमारी समझ के तल अलग— अलग होते हैं। कोई पहाड से बोल रहा है,
कोई घाटी में भटक रहा है। कोई आंखें खोलकर देख लिया है, किसी की आंखें सदा से बंद हैं। तो एक—दूसरे को समझना बडा मुश्किल हो जाता
है। क्योंकि सब सीढ़ी के अलग—अलग पायदानों पर खड़े हैं।
यह
तो चौंक उठा। इसे तो भरोसा नहीं आया। बुद्ध—और उसके द्वार पर आकर खड़े हैं! पहले
कभी नहीं आए थे। जब भी उसे जाना था, वह दान देने जाता था। पांच बार वह
दान देता था भिक्षुसंघ को। वह जाता था, दान कर आता था। बुद्ध
कभी नहीं आए थे, पहली बार आए हैं। कैसे भरोसा हो! भरोसा हो
तो कैसे भरोसा हो?
अनेक
बार सोचा होगा उसने,
प्राणों में संजोयी होगी यह आशा कि कभी बुद्ध मेरे घर आएं। सोचा
होगा : कभी आमंत्रित करूं। फिर डरा होगा कि मुझ गरीब ब्राह्मण का आमंत्रण स्वीकार
होगा कि नहीं होगा! भय—संकोच में शायद आमंत्रण नहीं दिया होगा। या क्यों कष्ट दूं!
क्यों वहां ले जाऊं! क्या प्रयोजन है! जब आना हो, मैं ही आ
सकता हूं; उन्हें क्यों भटकाऊं! ऐसा सोचकर रुक गया होगा।
प्रेम के कारण रुक गया होगा। संकोच के कारण रुक गया होगा। बुद्ध आज अचानक, बिना बुलाए, द्वार पर आकर खड़े हो गए हैं।
जब
जरूरत होती है,
तब सदगुरु सदा ही उपलब्ध हो जाता है। सदगुरु को बुलाने की जरूरत
नहीं पड़ती। तुम्हारी पात्रता जब भर जाएगी; जब तुम उस जगह के
करीब होओगे, जहां उसके हाथ की जरूरत है—वह निश्चित मौजूद हो
जाएगा। होना ही चाहिए।
ब्राह्मण
ने चौंककर देखा। उसे अपनी आंखों पर भरोसा नहीं आया। और उसके मुंह से निकल गया—यह
क्या! भगवान!
चकित, आश्चर्य विमुग्ध,
आंखें मीड़कर देखी होंगी। सोचा होगा. कोई सपना तो नहीं देख रहा! सोचा
होगा. सदा—सदा सोचता रहा हूं कि भगवान आएं, आएं, आएं! कहीं उसी सोचने के कारण यह मेरी ही कल्पना तो मेरे सामने खड़ी नहीं हो
गयी है!
फिर
उसने भगवान के चरण छू वंदना की। अवशेष भोजन देकर यह प्रश्न पूछा हे गौतम! आप अपने
शिष्यों को भिक्षु कहते हैं—क्यों?
उस
समय तक दो तरह के संन्यासी उपलब्ध थे भारत में। जैन संन्यासी, मुनि
कहलाता है; हिंदू संन्यासी, स्वामी
कहलाता है। बुद्ध ने पहली दफे संन्यासी को भिक्षु का नाम दिया। संन्यास को एक नयी
भाव— भंगिमा दी और एक नया आयाम दिया।
अब
उलटी दिखती हैं बातें। हिंदू संन्यासी कहलाता है—स्वामी, मालिक। और
बुद्ध ने कहा—भिक्षु, भिखारी! उलटा कर दिया। जैन मुनि मध्य
में है—न मालिक, न भिखारी। मौन है—इसलिए मुनि। इसलिए जैनों
से हिंदू उतने नाराज नहीं हैं, जितने बौद्धों से नाराज हुए।
बुद्ध ने सारी चीजें उलटी कर दीं।
जैनों
को क्षमा कर दिया है। इसलिए जैन हिंदुस्तान में बस सके। लेकिन बौद्ध नहीं बस सके।
बौद्धों को तो समाप्त कर दिया। बौद्धों को तो उखाड़ दिया। मारा भी, काटा भी,
कढाओं में जलाया भी। क्योंकि बुद्ध ने प्रक्रिया को बिलकुल उलटा कर
दिया! यह सिर्फ शब्द की ही बात नहीं है, यह बुद्ध की
अंतर्दृष्टि है कि हिंदू—विचार से उन्होंने बिलकुल एक दूसरी भावधारा को जन्म दिया।
स्वामी
शब्द प्यारा है;
कुछ बुरा नहीं है। लेकिन उसमें एक खतरा है। खतरा तो सभी शब्दों में
होता है। स्वामी शब्द में एक खतरा है कि कहीं उससे संन्यासी अहंकारी न हो जाए।
स्वामी शब्द प्यारा है। उसका मतलब होता है. अपना मालिक। और अपनी मालकियत तो चाहिए
ही। अपना स्वामित्व तो चाहिए ही।
जो
अपना मालिक नहीं है,
वही तो संसारी है। उसके हजार मालिक हैं। हजार इच्छाएं उसकी मालिक
हैं। धन उसका मालिक है; पद उसका मालिक है। उसके बहुत मालिक
हैं। वह गुलाम है।
संन्यासी
वही है, जिसने और सब तरह के मालिक हटा दिए और स्वयं अपना मालिक हो गया है। अब उसकी
इंद्रियां उस पर काबू नहीं रखतीं; कब्जा नहीं रखतीं। अब
इंद्रियां उसे नहीं चलातीं; वह अपनी इंद्रियों को चलाता है।
अब मन उसे नहीं चलाता, वह मन को अपने पीछे लेकर चलता है। मन
उसकी छाया हो गया। उसने अपने आत्म—गौरव की घोषणा कर दी।
शब्द
बड़ा प्यारा है;
अर्थपूर्ण है, लेकिन खतरा है। खतरा यह है कि
अहंकार का जन्म हो जाए। अकड़ आ जाए। और अहंकार पैदा हो जाए, तो
परमात्मा से मिलने में बाधा पड़ गयी। फिर संसार लौट आया पीछे के दरवाजे से। ज्यादा
सूक्ष्म होकर लौट आया। पहले धन की अकड़ थी, पद की अकड़ थी,
अब संन्यास की अकड़ हो जाएगी।
बुद्ध
ने इसलिए बदल दिया शब्द;
ठीक दूसरे तल पर ले गए; कहा—भिक्षु। लेकिन याद
रखना ' भिक्षु का अर्थ भिखारी नहीं है। भाषाकोश में तो है।
लेकिन बुद्ध ने भिक्षु का अर्थ किया. जो सब तरह से खाली है, भिक्षा
का पात्र हो गया है जो। जिसके पास अपना कुछ भी नहीं है; जो
अपने भीतर सिर्फ शून्य है। जिसने और सब तो छोड़ा ही छोड़ा, मैं
का भाव भी छोड़ दिया, आत्मा भी छोड़ दी, अत्ता
भी छोड़ दी। जो अनत्ता में जी रहा है; जो सिर्फ शून्य हो गया
है। ऐसा व्यक्ति भिक्षु। भिखारी नहीं। क्योंकि भिखारी तो वह है, जो अभी आशा से भरा है कि मिल जाएगा; जो माग रहा है
कि मिल जाएगा; कि पा लूंगा। किसी न किसी तरह खोज लूंगा। मांग—मांगकर
इकट्ठा कर लूंगा। लेकिन अभी इकट्ठे होने की दौड़ जारी है।
भिखारी
धनाकांक्षी है। धनाढघ नहीं है, मगर धनाकांक्षी है। धन उसके पास नहीं है,
लेकिन धन की तृष्णा तो उसके पास उतनी ही है, जितनी
किसी धनी के पास हो, शायद धनी से ज्यादा हो। क्योंकि धनी ने
तो धन का थोड़ा अनुभव भी लिया। अगर उसमें थोड़ी अकल होगी, तो
यह समझ में आ गया होगा कि धन मिलने से कुछ भी नहीं मिलता। लेकिन भिखारी को तो यह
भी नहीं हो सकता। भिखारी की तो धन की आकांक्षा बड़ी प्रगाढ़ है। उसे धन मिला भी नहीं;
धन का अनुभव भी नहीं। वह धन के पीछे दौड़ रहा है।
भिक्षु
का अर्थ है : जिसकी कोई आकांक्षा नहीं। इतना ही नहीं कि उसने वासनाएं छोड़ी, इंद्रियां
छोड़ी, उसने इंद्रियों पर जो मालकियत करने वाला भीतर का
अहंकार है, वह भी छोड़ दिया। उसने बाहर का स्वामित्व भी छोड़
दिया; उसने स्वामी को भी छोड़ दिया। वह जो भीतर स्वामी बन
सकता है, उसको भी छोड़ दिया।
बुद्ध
कहते हैं : तुम भीतर एक शून्यमात्र हो। और जब तुम शून्यमात्र हो, तभी तुम
वस्तुत: हो। यह भिक्षु की दशा।
ब्राह्मण
ने ठीक ही पूछा। ब्राह्मण है, स्वामी शब्द से परिचित रहा होगा। यह बुद्ध को
क्या हुआ कि अपने संन्यासी को भिक्षु कहते हैं!
तो
उसने पूछा. हे गौतम! आप अपने शिष्यों को भिक्षु क्यों कहते हैं?
और
यह प्रश्न, शायद वह तो सोचता हो कि दार्शनिक है। मगर बुद्ध जानते हैं कि दार्शनिक
नहीं है, अस्तित्वगत है। इसीलिए बुद्ध आए हैं। उसके भीतर भिक्षु
होने की तरंग उठ रही है। उसको भी पता नहीं है कि यह प्रश्न क्यों पूछ रहा है!
तुमको
भी पता नहीं होता कि तुम कोई प्रश्न क्यों पूछते हो। तुम्हारे चित्त में घूमता है, तुम पूछ
लेते हो। लेकिन तुम्हें उसकी जड़ों का कुछ पता नहीं होता कि कहा से आता है? क्यों आता है?
तुम्हें
अगर पता चल जाए कि तुमने प्रश्न क्यों पूछा है, तो नब्बे मौकों पर तो प्रश्न हल ही
हो जाएगा—इसी के पता चलने में कि मैंने क्यों पूछा है। करीब—करीब हल हो जाएगा। अगर
तुम अपने प्रश्न के भीतर उतर जाओ, और अपने प्रश्न की जड़ों को
पकड़ लो, तो तुम पाओगे प्रश्न के प्राण ही निकल गए। उत्तर
करीब आ गया। किसी से पूछने की जरूरत नहीं रही।
इस
ब्राह्मण को कुछ पता नहीं है कि यह भिक्षु के संबंध में क्यों प्रश्न पूछ रहा है!
अगर तुम इससे पूछते कि क्यों ऐसा पूछते हो, तो यह यही कहता कि बहुत बार सोचा
मैंने कि सदा संन्यासी को स्वामी कहा गया है, बुद्ध क्यों
भिक्षु कहते हैं! बस, जिज्ञासावश पूछ रहा हूं।
लेकिन
बुद्ध जानते हैं,
यह जिज्ञासा नहीं है। अगर यह जिज्ञासा ही होती, तो बुद्ध आते नहीं। बुद्ध तो तभी आते हैं, जब कुतूहल
गया, जिज्ञासा गयी और मुमुक्षा पैदा होती है। जब कोई वस्तुत:
उस किनारे आ गया, जहां उसे धक्के की जरूरत है। जहां वह अपने
से नहीं कूद सकेगा; क्योंकि आगे विराट शून्य है, और उस विराट शून्य के लिए साहस जुटाना कठिन है।
हे
गौतम! आप अपने शिष्यों को भिक्षु क्यों कहते हैं? और फिर कोई भिक्षु कैसे
होता है? इसकी अंतःप्रक्रिया क्या है ?
यह
प्रश्न उसके मन में उठा,
उसके चेतन तक आया— भगवान की मौजूदगी के कारण। शायद उस दिन भगवान
उसके द्वार पर आकर खड़े नहीं हुए होते, तो यह प्रश्न वर्षों
तक रुकता; या न पूछता इस जीवन में। शायद कभी न पूछता।
ठीक
घड़ी में भगवान की मौजूदगी;
उसके भीतर तरंग उठती ही उठती थी और भगवान की मौजूदगी, और भगवान की विराट तरंग उसकी छोटी सी तरंग को ले गयी उठाकर, उसके चैतन्य तक पहुंचा दिया।
यह
धक्का, यह सहारा—यही सदगुरु का अर्थ है। जो तुम्हारे भीतर धीमा— धीमा है, उसे त्वरा दे देनी। जो तुम्हारे भीतर कुनकुना—कुनकुना है, उसे इतनी गर्मी दे देनी कि भाप बनने की क्षमता आ जाए। जो तुम्हारे भीतर
सोया—सोया है, उसे उठा देना, जगा देना।
जो तुम्हारे भीतर सरक रहा है अंधेरे— अंधेरे में, उसे पकडकर
रोशनी में ला देना।
यह
मौजूदगी से ही हो जाता है,
यह सिर्फ बुद्ध जैसे व्यक्ति की उपस्थिति से हो जाता है। तुम बुद्ध
के पास जाकर ऐसे प्रश्न पूछने लगते हो, जो तुमने कभी पहले
सोचे भी नहीं थे। तुम बुद्ध के पास जाकर ऐसी भावदशाओं से भर जाते हो, जो बिलकुल अपरिचित हैं। तुम बुद्ध के पास जाकर अपनी उन भाव— भंगिमाओं से
परिचित होते हो, जिन्हें तुम जानते भी नहीं थे कि तुम्हारे
भीतर हो भी सकती हैं। बुद्ध की उस अनायास उपस्थिति के मधुर क्षण में.।
और
अनायास था, इसलिए और भी मधुर था क्षण। अगर ब्राह्मण निमंत्रण देकर लाया होता, तो इतना मधुर नहीं होता। क्योंकि इतना आघातकारी नहीं होता। अगर निमंत्रण
देकर लाया होता, तो इतनी चोट करने वाला नहीं होता, इतना अवाक नहीं करता। यह क्या! ऐसा ब्राह्मण नहीं पूछ पाता। जानता कि
बुलाकर लाया हूं इसलिए आए हैं। इसी जानकारी के कारण वंचित रह जाता, निर्दोष नहीं होता।
चूंकि
बुद्ध अनायास आ गए हैं,
ब्राह्मण को बिलकुल निर्दोष दशा में पकड़ लिया है। अनायास पकड़ लिया
है।
और
ध्यान रखना, परमात्मा सदा अनायास आता है। तुम जब बुलाते हो, तब
नहीं आता। तुम्हारे बुलाने से कभी नहीं आता। तुम्हें जब पता ही नहीं होता; तुम जब शांत बैठे हो, खाली बैठे हो, कुछ नहीं बुला रहे हो, न संसार को बुला रहे, न परमात्मा को बुला रहे, तुम्हारे भीतर कोई पुकार ही
नहीं है, तुम्हारे भीतर कोई वासना—कामना नहीं है; तुम्हारे भीतर कोई स्वप्न तरंगें नहीं ले रहा है—और अचानक! उसके पैरों की
आवाज भी नहीं सुनायी पड़ती और वह तुम्हारे सामने आकर खड़ा हो जाता है!
भगवान
सदा ही अनायास आता है। अनायास आने में ही तुम्हारा रूपांतरण है। भगवान तुम्हें सदा
जब आता है, तो चौंकाता है। विस्मयविमुग्ध कर देता है। तुम्हारी समझ में नहीं पड़ता कि
यह क्या हो गया, कैसे हो गया! तुम अबूझ दशा को उपलब्ध हो
जाते हो। क्योंकि भगवान रहस्य है। रहस्य बुलाए नहीं जा सकते, निमंत्रण नहीं दिया जा सकता।
इस
मधुर क्षण में उसके भीतर संन्यास की आकांक्षा का उदय हुआ था।
ब्राह्मण
को भी दिखायी पड़ा कि कुछ कंपता हुआ उठ रहा है, झंझावात कुछ भीतर आ रहा है। कुछ
भीतर उमग रहा है, जो पहले कभी नहीं उमगा था। कोई बीज फूटा है,
अंकुर बना है। और अंकुर तेजी से बढ़ रहा है। अचानक उसे दिखायी पड़ा
कि मैं भिक्षु होना चाहता हूं। मैं संन्यस्त होना चाहता हूं।
वह
जो निश्चय भगवान को दिखायी पड़ा था, वह ब्राह्मण को भी दिखायी पड़ गया।
भगवान की सन्निधि का परिणाम!
इसलिए
सदा से साधु—संगत का मूल्य है। साधु—संगत में कुछ बाहर से नहीं होगा। होना तो भीतर
ही है। जागनी तो तुम्हारी ही ज्योति है। लेकिन जहां बहुत ज्योतियां जगी हों, और जहां
ज्योति के जगने की बात होती हो, चर्चा होती हो, महिमा होती हो, जहां जगी हुई ज्योतियां नाचती हों—वहा
ज्यादा देर तक तुम बुझे न रह सकोगे। उस री में बह जाओगे। उस नाचती हुई ऊर्जा में
वह क्षण आ जाएगा, जब तुम भी नाचने लगोगे। तुम्हारे भीतर भी
भभककर उठ आएगी तुम्हारी सोयी हुई ज्योति। शायद भगवान उसके द्वार पर उस दिन इसलिए
ही गए थे कि जो ज्योति धीमी— धीमी सरक रही है, धुएं में दबी
पड़ी है, वह प्रज्वलित हो जाए।
और
शायद ब्राह्मणी की चेष्टा—कि भगवान दिखायी न पड़ें—उसके अचेतन में उठे किसी भय के
कारण ही संभव हुई थी। ब्राह्मणी सोच रही थी, शायद भगवान भोजन मांग लेंगे और
मुझे फिर भोजन बनाना पड़ेगा। यह उसकी व्याख्या थी। लेकिन शायद उसके भीतर भी जो भय
पैदा हुआ था, वह भोजन का ही नहीं हो सकता। क्या भोजन बनाने
में इतना भय हो सकता है? भय शायद यही रहा होगा कि कहीं आज
ब्राह्मण को ही भगवान न ले जाएं।
क्योंकि
जब भगवान बुद्ध जैसा व्यक्ति किसी के द्वार पर आता है, तो क्रांति
होगी, तो आग लगेगी, तो पुराना जलेगा;
तो नए का जन्म होगा।
लेकिन
यह ब्राह्मणी को भी साफ नहीं है कि वह क्यों जाकर ब्राह्मण को छिपाकर, पीछे खड़ी
हो गयी है। वह तो यही सोच रही है, गरीब ब्राह्मणी यही सोच
रही है कि कौन दुबारा झंझट में पड़े!
तुम
अक्सर जो कारण सोचते हो अपने कृत्यों के, वे ही कारण कारण हों, ऐसा मत सोच लेना। तुम्हारे कारण तो कल्पित होते हैं। तुम्हें मूल का तो
पता नहीं होता है। ब्राह्मणी भी भयभीत हो गयी। और ध्यान रखना, स्त्रियों के भीतर अचेतन ज्यादा सक्रिय होता है पुरुषों की बजाय। इसलिए
अक्सर स्त्रियों को उन बातों की झलक पुरुष से भी पहले मिल जाती है, जो बातें स्पष्ट नहीं हैं।
तुमने
कई बार अनुभव किया होगा। रोज ऐसा घटता है—कि स्त्री के भीतर विचार के पार पकड़ने की
कुछ ज्यादा क्षमता है। पुरुष में बुद्धि बढ़ गयी है। स्त्री में अभी भी अचेतन घना
है।
इसलिए
स्त्री अगर तुमसे कहे कि आज मत जाओ; इस हवाई जहाज से यात्रा मत करो;
तो सुन लेना। स्त्री कहे : आज...। हालांकि वह कोई जवाब नहीं दे
सकेगी; समझा नहीं सकेगी। रोएगी। कहेगी कि आज मत जाओ इस ट्रेन
से। और तुम कहोगे : क्या कारण है? क्यों न जाऊं? वह कहेगी : कारण मुझे भी कुछ पता नहीं है। या कुछ बनाया हुआ कारण बताएगी
कि मैं ज्योतिषी के पास गयी थी; वह मना करता है कि आज का दिन
खराब है; कि मुहूर्त ठीक नहीं है; कि
कल चले जाना, कि आज मुझे काम है, कि
बच्चा बीमार है। कुछ कारण खोजकर बताएगी। लेकिन अगर तुम ठीक से पूछो, सहानुभूति से पूछो, तो वह कहेगी. बस, मेरे भीतर ऐसा होता है कि आज न जाओ। मुझे भी कुछ पता नहीं है कि ऐसा क्यों
होता है। स्त्री अभी भी हृदय से ज्यादा जीती है, बजाय तर्क
के। इसलिए यह मजेदार घटना घटी।
इसके
पहले कि ब्राह्मण—जिसके लिए बुद्ध आए थे—उसके निर्णय को गति मिले, उसके पहले
ब्राह्मणी का अचेतन जाग गया। उसके पहले ब्राह्मणी खड़ी हो गयी बचाने को! खतरे के
पहले बचाने को खड़ी हो गयी। खतरा द्वार पर खड़ा है। बुद्ध का आगमन खतरनाक है।
हालाकि
ब्राह्मणी को भी पता नहीं है; उसने सोचा कि बस, भोजन
दुबारा न बनाना पड़े। यह गौतम कहां आकर खड़ा हो गया!
फिर
ब्राह्मणी हंसी। उस हंसी में भी.. ...ऊपर से तो कथा इतना ही कहती है कि वह इसलिए
हंसी कि हद हो गयी! एक मैं एक बार भोजन बनाने की झंझट से बचने के लिए पति को छिपाए
खड़ी हूं, रोके खड़ी हूं बुद्ध को। और एक यह गौतम! इसकी भी जिद्द हद हो गयी! बढ़ता
नहीं। दूसरे दरवाजे चला जाए; इतना बड़ा गाव पड़ा है! अब आज
यहीं कोई जिद्द बांधकर खड़ा है।
ब्राह्मणी
सोचती है: इसलिए मैं हंसी कि यह गौतम भी जिद्दी है। लेकिन शायद यह हंसी भी उसके
अचेतन से आयी है। शायद उसे कहीं भीतर यह भी साफ हुआ कि भोजन फिर से बनाना पड़े, इतनी सी
बात के लिए मैं रोककर खड़ी नहीं होने वाली थी। कुछ और है। और जो और की थोड़ी सी झलक
उसे मिली होगी कि कहीं यह श्रमण मेरे पति को न ले जाए; तो
हंसी होगी। यह भी कोई बात सोचने की हुई! यह क्यों ले जाएगा? मेरे
पति ने कभी संन्यस्त नहीं होना चाहा; कभी भिक्षु नहीं होना
चाहा। मेरे पति, यद्यपि इस गौतम को कभी—कभी दान देते हैं,
लेकिन अब भी ब्राह्मण हैं। अब भी पूजा करते हैं; हवन करते हैं; वेद पढ़ते हैं; शास्त्र
में लगे रहते हैं। भ्रष्ट होने की कोई आशा नहीं है। मैं भी कैसी चिंता में पड़ गयी!
इसलिए भी हंसी होगी।
उस
घड़ी भगवान ने यह गाथा कही;
और यह गाथा ब्राह्मण का संन्यास बन गयी। फिर क्षणभर नहीं रुका। फिर
बुद्ध के चरणों में समर्पित हो गया। फिर बुद्ध के पीछे चल पड़ा।
और
ब्राह्मणी भी,
जो क्षणभर पहले बुद्ध से बचाने को खड़ी हुई थी, वह भी दीक्षित हुई; वह भी संन्यस्त हुई। उसका प्रेम
अपने पति से, सिर्फ शरीर के तल का ही नहीं रहा होगा। शरीर के
ही तल का होता, तो नाराज होती। गहरा रहा होगा, थोड़ा ज्यादा गहरा रहा होगा। और अगर आज पति संन्यस्त, होता है, और दीक्षा के मार्ग पर जाता है, तो ठीक है, वह भी जाएगी। निस्संकोच, निर्भय—जो पति कर रहा है, वह वह भी करेगी।
यह
चौंकाने वाली बात है कि जो अभी क्षणभर पहले एक बार और भोजन बनाने से परेशान हो रही
थी, वह आज पति के साथ भिक्षुणी होने को तैयार हो गयी है! मनुष्य के भीतर ऐसे
द्वंद्व हैं। जो स्त्री तुम्हारे लिए जिंदगी को दूभर बना दे, वही तुम्हारे ऊपर जान भी दे सकती है। जो स्त्री तुम्हारे ऊपर अपने जीवन को
न्योछावर कर दे, क्रोध से भर जाए तो तुम्हें जहर भी पिला
सकती है।
प्रेम
के रास्ते बड़े उलझे हुए हैं! प्रेम के रास्ते बड़े जटिल हैं। प्रेम का गणित सीधा—सीधा
नहीं है। प्रेम के रास्ते सीधे —साफ नहीं हैं, पगडंडियों की तरह हैं, बड़े उलटे—सीधे जाते हैं।
एक
क्षण पहले भोजन पकाने में झिझकी थी, और एक क्षण बाद सब छोड़कर जाने में
झिझक न हुई! उस ब्राह्मणी का प्रेम बुद्ध से तो नहीं था, लेकिन
अपने पति से था। और इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि प्रेम किसी से भी हो, तो परमात्मा तक जाने का मार्ग बन सकता है।
अपने
पति से प्रेम था;
बुद्ध से कुछ लेना—देना नहीं था। उसने एक बार भी भगवान की तरह बुद्ध
को नहीं सोचा। वह कहती है, यह गौतम! यह श्रमण गौतम कहां खड़ा
हो गया है आकर! लेकिन पति के प्रति उसका मन वही होगा, जो इस
देश में सदा से सोचा गया, विचारा गया, जिसके
काव्य लिखे गए हैं, जिसके गीत गाए गए हैं। उसने अपने पति को
परमात्मा माना होगा। और जब उसका परमात्मा जाता है, तो उसके
लिए भी जाना है। जहां उसका परमात्मा जाता है, वहा उसे जाना
है। जैसे स्त्रियां इस देश में कभी पति की चिता पर चढ़कर सती होती रहीं, ऐसे इस देश में स्त्रियां कभी पति के साथ संन्यस्त भी हो गयी हैं। जिसके
साथ राग जाना, उसके साथ विराग भी जानेंगे। और जिसके साथ सुख
जाना, उसके साथ तपश्चर्या भी जानेंगे। साथ एक बार हो गया,
तो अब सुख हो कि दुख, घर—द्वार हो कि रास्ता—साथ
हो गया, तो साथ हो गया। इस देश ने साथ के बड़े अंतरंग प्रयोग
किए हैं।
बुद्ध
ने कहा 'जिसकी नाम—रूप—पंच—स्कंध—में जरा भी ममता नहीं है और जो उनके नहीं होने पर
शोक नहीं करता, वह भिक्षु कहा जाता है।
बड़ी
सीधी परिभाषा,
गणित की तरह साफ. 'जिसकी नाम—रूप में जरा भी
ममता नहीं है.....।'
नाम—रूप
का अर्थ होता है,
मानसिक और शारीरिक। मनुष्य दो अवस्थाओं का पुंज है—मन और शरीर।
सूक्ष्म पुंज मन, उसका नाम है—नाम। क्योंकि तुम्हारे सूक्ष्म
पुंज मन का जो सबसे गहरा भाव है, वह है अहंकार—मैं। और जो
स्थूल पुंज है शरीर, उसका नाम है—रूप। आदमी दो में डोलता
रहता है—नाम—रूप।
जिनको
हम बड़े—बड़े आदमी कहते हैं,
वे भी इस अर्थ में छोटे ही छोटे होते हैं। जिनको सामान्य जनता बड़े
नेता कहती है, महात्मा कहती है, वे भी
साधारणत: इन्हीं दो में बंधे होते हैं। और इन दो से जो मुक्त हो जाए, वही भिक्षु।
परसों
मैंने जयप्रकाश नारायण का एक वक्तव्य पढ़ा। उन्होंने बंबई में अपने मित्रों को
धन्यवाद देते हुए कहा—जनता को धन्यवाद देते हुए कहा—कि मैं जनता का सदा—सदा के लिए
अनुगृहीत रहूंगा,
क्योंकि मेरे देश की जनता ने ही मेरे नाम और यश को दुनिया के कोनों—कोनों
तक फैला दिया है।
जयप्रकाश
नारायण जैसा विचारशील व्यक्ति भी नाम और यश—उसमें ही बंधा रह जाता है! धन्यवाद भी
किस बात का दे रहे हो! इसलिए कि लोगों ने मेरे नाम और यश को दुनिया के कोनों—कोनों
तक फैला दिया है। क्या होगा इससे? राजनीति की लड़ाई अक्सर सिद्धांतों की लड़ाई नहीं
है। सिद्धात तो सिर्फ आड़ होते हैं। असली लड़ाई तो अहंकारों की लड़ाई है। गहरी लड़ाई
तो व्यक्तित्वों की लड़ाई है।
यह
कुछ कांग्रेस और जनता की लड़ाई कोई सिद्धांतों की लड़ाई नहीं है। यह सिर्फ
व्यक्तित्वों की लड़ाई है। कौन प्रतिष्ठित होता है! कौन पद पर बैठता है! और इसीलिए
दुश्मन तो दुश्मन होते ही हैं राजनीति में, मित्र भी दुश्मन होते हैं। क्योंकि
जो पद पर बैठा है, उसके आसपास जो मित्र इकट्ठे होते हैं,
वे भी कोशिश में लगे हैं कि कब धक्का दे दें! अब जगजीवनराम को मौका
मिले, तो मोरारजी को धक्का नहीं देंगे? कि चरणसिंह को मौका मिले, तो धक्का नहीं देंगे ? इनको धक्का नहीं देंगे, तो अपनी छाती में छुरा भुक
जाएगा!
वे
जो पास खड़े हैं,
वे भी धक्का देने को खड़े हैं। वे देख रहे हैं कि कब जरा कमजोरी का
क्षण हो कि दे दो धक्का! राजनीति में शत्रु तो शत्रु होते ही हैं, मित्र भी शत्रु होते हैं।
जयप्रकाश
नारायण ने मोरारजी को पद पर बिठाया। लेकिन अभी कुछ दिन पहले भोपाल में किसी ने
मोरारजी को पूछा कि हमने सुना है कि अब जयप्रकाश नारायण महात्मा गांधी की अवस्था
में पहुंच गए हैं! आप क्या कहते हैं? मोरारजी एकदम कहे नहीं, कोई महात्मा गांधी की अवस्था में कभी नहीं पहुंच सकता। वे अद्वितीय पुरुष
थे। और फिर जयप्रकाश नारायण ने ऐसा कोई दावा किया भी नहीं है।
जरा
इसको सूक्ष्म से देखना। जरा ऊपर की धूल को झाड़कर देखना। तुम भीतर बड़े अंगारे
पाओगे।
पहली
तो बात यह कि मोरारजी को महात्मा गांधी अद्वितीय थे या नहीं—इससे कोई प्रयोजन नहीं
है। गांधी अद्वितीय थे,
यह बात तो इसलिए कही जा रही है, ताकि जयप्रकाश
नारायण को उनकी जगह पर न रखा जाए। अब वस्तुत: तो मोरारजी चाहेंगे कि वे महात्मा
गांधी हो गए हैं—जयप्रकाश कहां बीच में आते हैं!
चीजों
को तुम सीधे देखोगे,
तो कभी नहीं समझ पाओगे।
मोरारजी
महात्मा गांधी हैं! महात्मा गांधी की सब जड़ताएं उनमें हैं। और एक जड़ता और ज्यादा
है—स्व—मूत्र का पीना। वे महात्मा गांधी से बड़े महात्मा हैं! फिर कहते हैं कि
जयप्रकाश नारायण ने इसका कोई दावा किया भी नहीं है।
अब
जरा मजा देखना. अगर जयप्रकाश नारायण दावा न करें, तो जब दावा ही नहीं किया,
तो कैसे हो सकते हैं! और अगर कल दावा करें, तो
इसीलिए फिर महात्मा गांधी नहीं हो सकते—कि कहीं दावेदार महात्मा गांधी हुए!
देखना, तर्क बड़ा
मजेदार होता है! दावा नहीं किया जयप्रकाश नारायण ने! जैसे कि महात्मा गांधी होने
का दावा करके फिर किसी अदालत से फैसला लेना होगा—कि ही, ये
महात्मा गांधी हो गए! दावा नहीं किया, इसलिए कैसे इसको मानना?
और अगर दावा करें, तो मोरारजी कहेंगे कि
दावेदार कहीं महात्मा गांधी होते हैं। महात्मा गांधी तो ऐसे विनम्र थे! विनम्रता!
और ये दावेदार!
लेकिन
असली बात कुछ और है। असली बात यह है कि मोरारजी नहीं चाहेंगे कि उनसे ऊपर कोई आदमी
प्रतिष्ठित हो। उनसे ऊपर किसी का यश हो। और महात्मा गांधी से किसको क्या लेना है!
मैंने
सुना है कि महात्मा गांधी की हत्या के पहले मोरारजी को पता चल गया था। खबर उनको दी
गयी थी। कुछ भी उन्होंने किया नहीं। वल्लभ भाई पटेल को भी, कहते हैं,
खबर मिल गयी थी, लेकिन कुछ किया नहीं।
महात्मा
गांधी के मरने के पहले वल्लभ भाई पटेल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दो सभाओं में
गांधी की आलोचना किए और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रशंसा किए। और जिस दिन गांधी
की हत्या हुई,
उसके घंटेभर पहले गांधी ने जो वल्लभ भाई पटेल से कहा था, वह वचन याद करने जैसा है।
महात्मा
गांधी ने वल्लभ भाई पटेल को कहा था—घटेभर पहले मरने के—कि सरदार! जैसा मैं तुम्हें
जानता था, अब तुम वैसे नहीं रहे। तुम बदल गए। तुम अब वही नहीं हो, जिस व्यक्ति को मैं जानता था। पद पर पहुंचकर तुम कुछ के कुछ हो गए।
फिर
गांधी की हत्या हो गयी। और इतने दिन हो गए गांधी की हत्या हुए, मोरारजी
ने एक बार भी इसके पहले नहीं कहा कि इसमें आर एस. एस का कोई हाथ नहीं है। लेकिन अब
पद पर पहुंचकर उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि आर एस एस का इसमें कोई हाथ नहीं है।
कि गोडसे तो आर एस. एस का सदस्य ही नहीं रहा था, जब उसने
हत्या की।
यह
हो सकता है कि गोडसे सदस्य न रहा हो हत्या करते वक्त, सिर्फ
इसीलिए ताकि अगर कोई अड़चन हो, तो जिम्मेदारी आर. एस एस पर न
आए। वह सिर्फ इतना ही बताती है बात कि वह आर. एस एस को बचाने की आकांक्षा रही होगी
भीतर—कि संस्था बदनाम न हो। अगर मैं पकड़ भी जाऊं, तो संस्था
पर कोई लांछन न लगे।
लेकिन
बड़े मजे की बात है! गांधी के भक्त महात्मा गांधी की समाधि पर फूल चढ़ाते हैं और
यहां अब आर एस एस. को बढ़ावा दे रहे हैं! क्योंकि आर एस. एस ने ही उनको प्रतिष्ठित
किया है, उनको पद पर बिठाया है।
इस
दुनिया में सारी खोज पद की है, यश की है, नाम की है।
किसी को और किसी बात से मतलब नहीं है। सबको एक बात से मतलब है कि मैं किसी तरह
सिद्ध करके दिखा दूं कि मैं महान हूं। और जो भी व्यक्ति सिद्ध करके दिखाना चाहता
है कि महान है, उसके भीतर हीनता की ग्रंथि है, इनफीरियारिटी काप्लेक्स है, और कुछ भी नहीं।
बुद्ध
ने कहा जिसके भीतर से नाम—रूप की ममता चली जाए; जिसे न तो यश की आकांक्षा हो,
न पद की आकांक्षा हो। जिसके भीतर सूक्ष्म—स्थूल दोनों में से किसी
के प्रति कोई लगाव न रह जाए। ऐसा जो ममता से मुक्त है, वही
भिक्षु है।’और पद—प्रतिष्ठा, नाम—रूप,
सबके खो जाने पर जो शोक न करे।'
क्योंकि
यह बहुत आसान है जब तुम पद पर होते हो, तब तुम कह सकते हो कि मुझे पद
इत्यादि की कोई चिंता नहीं है। मुझे पद चाहिए नहीं। पद पर होने वाले लोग अक्सर ऐसी
बातें कहने लगते हैं कि हमें पद से क्या! पद में क्या रखा!
पद
पर जो पहुंच जाते हैं,
वे अक्सर विनम्रता दिखाने लगते हैं। तुमने अक्सर देखा होगा. छोटे पद
पर लोग ज्यादा उपद्रवी होते हैं। बड़े पद पर लोग कम उपद्रवी हो जाते हैं। क्योंकि
अब प्रतिष्ठा हो ही गयी; अब यह मजा भी ले लो साथ में कि हम
प्रतिष्ठा से भी मुक्त हैं। हमें यश का कोई लेना—देना नहीं है।
तुमने
देखा, पुलिस वाला ज्यादा झंझट खड़ी करता है। इंस्पेक्टर थोड़ी कम। पुलिस कमिश्नर
और थोड़ी कम। जितने बड़े पद पर होता है आदमी, उतनी कम झंझट
करता है।
मैंने
सुना है : एक अंधा भिखारी राह पर बैठा है। रात है। और राजा और उसके कुछ साथी राह
भूल गए है। वे शिकार करने गए थे। उस गांव से गुजर रहे हैं। कोई और तो नहीं है, वह अंधा
बैठा है झाड़ के नीचे;अपना एकतारा बजा रहा है। और अंधे के
पास उसका एक शिष्य बैठा है। वह उससे एकतारा सीखता है, वह भी संन्यास
की मंगल—वेला भिखारी है। दोनों भिखारी हैं।
राजा
आया और उसने कहा : सूरदास जी! फलां —फलां गांव का रास्ता कहा से जाएगा? फिर वजीर
आया और उसने कहा : अंधे! फलां—फलां गांव का रास्ता कहां से जाता है? अंधे ने दोनों को रास्ता बता दिया। पीछे से सिपाही आया; उसने एक रपट लगायी अंधे को—कि ऐ बुड्डे! रास्ता किधर से जाता है? उसने उसे भी रास्ता बता दिया।
जब
वे तीनों चले गए,
तो उस अंधे ने अपने शिष्य से कहा कि पहला बादशाह था, दूसरा वजीर था; तीसरा सिपाही। वह शिष्य पूछने लगा
लेकिन आप कैसे पहचाने? आप तो अंधे हैं! उसने कहा. अंधे होने
से क्या होता है! जिसने कहा सूरदासजी, वह बड़े पद पर होना
चाहिए। उसे कोई चिंता नहीं है अपने को दिखाने की। वह प्रतिष्ठित ही है। लेकिन जो
उसके पीछे आया, उसने कहा अंधे! अभी उसे कुछ प्रतिष्ठित होना
है। और जो उसके पीछे आया, वह तो बिलकुल गया—बीता होना चाहिए।
उसने एक धप्प भी मारा। रास्ता पूछ रहा है और एक धप्प भी लगाया! वह बिलकुल गयी—बीती
हालत में होना चाहिए। वह सिपाही होगा।
आदमी
जब बड़े पदों पर पहुंच जाता है, तब तो वह यह भी मजा ले लेता है कहने का कि पद
में क्या रखा है!
इसलिए
बुद्ध कहते हैं पहले तो ममता न हो। और इसका प्रमाण क्या होगा? जब ये
चीजें छूट जाएं, तो शोक न हो। तभी असली बात पता चलेगी। दुख न
हो। ममता नहीं थी, तो दुख हो ही नहीं सकता। ममता थी, तो ही दुख हो सकता है।’ वही भिक्षु कहा जाता है।’
ब्राह्मण
ने सुना। चरणों में झुका और उसने कहा कि मुझे स्वीकार कर लें। मुझे भी इस रास्ते
पर ले चलें। ममता में रहकर मैंने देख लिया; दुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं पाया।
अब मुझे ममता के पार ले चलें।
ममता
शब्द प्यारा है,
अर्थपूर्ण है। इसका मतलब होता है मैं — भाव। ममस्ता, मम यानी मैं, चीजों में बहुत मैं— भाव रखना। यह मेरा
मकान। यह मेरी पत्नी। यह मेरी दुकान। यह मेरा धर्म। यह मेरी किताब। यह मेरा मंदिर।
यह मेरा देश। यह सब ममता है। जब मैं— भाव चला जाए..।
मकान
मकान है, मेरा क्या! और देश देश है, मेरा क्या! कुरान कुरान
है, मेरा क्या! पत्नी स्त्री है, मेरा
क्या! मेरा कुछ भी नहीं है। जब सब मेरे गिर जाते हैं, तो
अचानक तुम पाओगे एक चीज अपने आप गिर जाती है, वह है मैं। मैं
को सम्हालने के लिए मेरो के डंडे लगे हुए हैं चारों तरफ से। मैं टिक ही नहीं सकता,
बिना मेरे के। इसलिए जितना तुम चीजों को कह सकते हो मेरा, जितनी ज्यादा चीजें तुम्हारे पास हैं कहने को मेरी, उतना
तुम्हारा मैं बड़ा होता जाता है। और जब तुम्हारे पास कोई मेरा कहने को नहीं बचता,
तो मैं को खड़े रहने की जगह नहीं बचती। मैं तत्क्षण गिर जाता है।
तुम
मेरे को गिराओ,
मैं अपने से गिर जाता है। और उस मैं के गिर जाने का नाम—भिक्षु। मैं
का गिर जाना यानी शून्य हो जाना। वह जो भिक्षु के हाथ में भिक्षापात्र है, वह अगर हाथ में ही हो, तो बेकार है। वह उसकी आत्मा
में होना चाहिए, तभी सार्थक है।
द्वितीय
दृश्य :
भगवान के अग्रणी शिष्यों
में से एक महाकात्यायन के शिष्य कुटिकण्ण सोण स्थविर कुररघर से जेतवन जा भगवान का
दर्शन कर जब वापस आए तब उनकी मां ने एक दिन उनके उपदेश सुनने के लिए जिज्ञासा की
और नगर में भेरी बजवाकर सबके साथ उनके पास उपदेश सुनने गयी। जिस समय वह उपदेश सुन
रही थी उसी समय चोरों के एक बड़े गिरोह ने उसके घर में सेधं लगाकर सोना— चांदी हीरे—
जवाहरात आदि ढोना शुरू कर दिया। एक दासी ने चोरों को घर में प्रवेश किया देख
उपासिका को जाकर कहा।
उपासिका
हंसी और बोली जा चोरों की जो इच्छा हो सो ले जावें; तू उपदेश
सुनने में विध्न न डाल
चोरों
का सरदार जो कि दासी के पीछे— पीछे उपासिका की प्रतिक्रिया देखने आया था यह सुनकर
ठगा रह गया अवाक रह गया। उसने तो खतरे की अपेक्षा की थी।
वह
उपासिका बड़ी धनी थी। उस नगर की सबसे धनी व्यक्ति थी। उसके इशारे पर हजारों लोग
चोरों को घेर लेते। चोरों का भागना मुश्किल हो जाता। चोरों का सरदार तो डर के कारण
ही पीछे—पीछे गया था कि अब देखें, क्या होता है! यह उपासिका क्या
प्रतिक्रिया करती है!
और
उपासिका ने कहा देख,
जा; चोरों की जो इच्छा हो, सो ले जावें। तू उपदेश सुनने में विध्न न डाल।
स्वभावत:, चोरों का
सरदार अवाक रह गया। उसने तो खतरे की .अपेक्षा की थी। लेकिन उपासिका के वे थोड़े से
शब्द उसके जीवन को बदल गए। उन थोड़े से शब्दों से जैसे चिनगारी पड़ गयी; जैसे किसी ने उसे सोते से जगा दिया हो। जैसे एक सपना टूट गया। जैसे पहली
बार आंख खुली और सूरज के दर्शन हुए। वह जागा इस सत्य के प्रति कि सोना— चांदी हीरे—
जवाहरातों से भी ज्यादा कुछ मूल्यवान जरूर होना चाहिए। अन्यथा हम हीरे— जवाहरात ढो
रहे हैं और यह उपासिका कहती है जा चोरों को जो ले जाना हो ले जाने दे; उपदेश में विध्न मत डाल। जरूर यह कुछ पा रही है जो हीरे— जवाहरातों और
सोना— चांदी से ज्यादा मूल्यवान है। यह तो इतना सीधा गणित है।
उसने
लौटकर अपने साथियों को भी यह बात कही— कि हम कूड़ा— कर्कट ढो रहे हैं। सोना वहां
लुट रहा है! क्योंकि उपासिका ने कहा. जा ले जाने दे उनको जो ले जाना है। तू उपदेश
में विश्व मत कर। वहां कुछ अमृत बरस रहा है मित्रो! हम भी चलें। वहां कुछ मिल रहा
है उस स्त्री को जिसकी हमें कोई भी खबर नहीं है। कोई भीतरी संपदा बरसती है। कुछ
लुट रहा है वहां और हम कूड़ा— कर्कट.।
उन्हें
भी बात जंची। फिर उन्होंने चुराया हुआ सामान पुन: पूर्ववत रखा और सभी धर्म— सभा
में आकर उपदेश सुनने बैठ गए। वहां उन्होंने अमृत बरसते देखा। वहां उन्होंने अलौकिक
संपदा देखी। उसे फिर उन्होंने जी भरकर लूटा। चोर ही थे! फिर लूटने में उन्होंने
कोई कमी नहीं की। कोई दुकानदार नहीं थे कि लूटने में डरते। उन्होंने दिल भरकर
लूटा। उन्होंने दिल भरकर पीया। शायद जन्मों— जन्मों से इसी संपदा की तलाश थी
इसीलिए चोर बने घूमते थे।
फिर
सभा की समाप्ति पर वे सब उपासिका के पैरों पर गिरकर क्षमा मांगे। चोरों के सरदार
ने उपासिका से कहा. आप हमारी गुरु हैं। अब हमें अपने बेटे से प्रव्रज्या दिलवाएं।
उपासिका अपने पुत्र से प्रार्थना कर उन्हें दीक्षित करायी। वे चोर अति आनंदित थे
और संन्यस्त हो एकांत में वास करने लगे; मौन रहने लगे और ध्यान में डूबने
लगे। उन्होंने शीघ्र ही ध्यान की संपदा पायी।
भगवान
ने ये सूत्र इन्हीं भूतपूर्व और अभूतपूर्व चोरों से कहे थे।
सिज्च भिक्खु! इमं नावं
सित्ता ते लहुमेस्सति।
छेत्वा रागज्च
दोसज्च निब्बाणमेहिसि ।।
'हे भिक्षु, इस नाव को उलीचा, उलीचने पर यह तुम्हारे लिए हलकी हो
जाएगी। राग और द्वेष को छिन्न कर फिर तुम निर्वाण को प्राप्त कर लोगे।'
पज्च छिन्दे पज्च
जहे पज्च चुत्तरि भावये।
पज्च संगातिगो
भिक्खु ओधतिण्णो’ति वुच्चति ।।
'जो पांच को काट दे, पांच को छोड़े, पांच की भावना करे और पांच के संग का
अतिक्रमण कर जाए, उसी को बाढ़ को पार कर गया भिक्षु कहते हैं।'
नत्थि झानं अपज्जस्स
पज्जानत्थि अझायतो।
यम्हि झानज्च
पज्जा च स वे निब्बाणसन्तिके ।।
'प्रज्ञाहीन मनुष्य को ध्यान नहीं
होता, ध्यान न करने वाले को प्रज्ञा नहीं होती। जिसमें ध्यान
और प्रज्ञा हैं, वही निर्वाण के समीप है।’
पहले
घटना को समझें।
भगवान के अग्रणी शिष्यों
में से एक महाकात्यायन के शिष्य कुटिकण्ण सोण कुररघर से जेतवन जा भगवान का दर्शन
करके जब वापस आए,
तब उनकी मां ने एक दिन उनके उपदेश सुनने के लिए जिज्ञासा की और नगर
में भेरी बजवाकर सबके साथ उनके पास उपदेश सुनने गयी।
ऐसे
थे वे दिन! बुद्ध की तो महिमा थी ही। बुद्ध के दर्शन करके भी कोई अगर लौटता था, तो वह भी
महिमावान हो जाता था। ऐसे ही जैसे कोई फूलों से भरे बगीचे से गुजरे, तो उसके वस्त्रों में फूलों की गंध आ जाती है। ऐसे ही कोई बुद्ध के पास से
आए, तो उसमें थोड़ी सी तो गंध बुद्ध की समा ही जाती।
तो
यह कुटिकण्ण सोण अपने गांव से बुद्ध के दर्शन करने को गए। वहां से जब लौटे वापस, तो उनकी
मां ने कहा. तुम धन्यभागी हो। तुम बुद्ध के शिष्य महाकात्यायन के शिष्य हो। तुम
महाधन्यभागी हो, तुम बुद्ध के दर्शन करके लौटे। हम इतने
धन्यभागी नहीं। चलो, हमें फूल न मिले, तो
फूल की पाखुड़ी मिले। तुम जो लेकर आए हो, हमसे कहो। सूरज के
दर्शन शायद हमें न हों, तुम जो थोड़ी सी ज्योति लाए हो,
उस ज्योति के दर्शन हमें कराओ। तो उसने प्रार्थना की कि तुमने जो
सुना हो वहा, वह दोहराओ; हमसे कहो।
और
दूसरी बात. वह अकेली सुनने नहीं गयी। उसने सारे गांव में भेरी फिरवा दी और कहा कि
कुटिकण्ण बुद्ध के पास होकर आए हैं, थोड़ी सी बुद्धत्व की संपदा लेकर आए
हैं। वे बांटेंगे; सब आएं।
ऐसे
थे वे दिन! क्योंकि जब परम धन लुटता हो, बटता हो, तो
अकेले— अकेले नहीं, भेरी बजाकर, सबको
निमंत्रित करके। इस जगत की जो संपदा है, उसमें दूसरों को
निमंत्रित नहीं किया जा सकता। क्योंकि वे बांट लेंगे, तो
तुम्हारे हाथ कम पड़ेगी। उस जगत की जो संपदा है, अगर तुमने
अकेले ही उसको अपने पास रखना चाहा, तो मर जाएगी; मुर्दा हो जाएगी; सड़ जाएगी। तुम्हें मिलेगी ही नहीं।
उस जगत की संपदा उसे ही मिलती है, जो मिलने पर बांटता है। जो
मिलने पर बांटता चला जाता है। जो जितना बांटता है, उतनी
संपदा बढ़ती है।
इस
जगत की संपदा बांटने से घटती है। उस जगत की संपदा बांटने से बढ़ती है। इस सूत्र को
खयाल रखना।
तो
भेरी बजवा दी। सारे गांव को लेकर उपदेश सुनने गयी। स्वभावत:, सारा गांव
उपदेश सुनने गया। चोरों की बन आयी। गांव में कोई था ही नहीं। सारा गांव उपदेश
सुनने गांव के बाहर इकट्ठा हुआ था। चोरों ने सोचा यह अवसर चूक जाने जैसा नहीं है।
वे उपासिका के घर में पहुंच गए बड़ा गिरोह लेकर। ठीक संख्या बौद्ध—ग्रंथों में है—एक
हजार चालीस। क्योंकि उपासिका महाधनी थी। उसके पास इतना धन था कि ढोते—ढोते दिन लग
जाते, तो ही वे ले जा सकते थे।
तो
एक हजार चोर इकट्ठे उसके घर पर हमला बोल दिए। सब तरफ से दीवालें तोड़कर वे अंदर घुस
गए। सिर्फ एक दासी घर में छूटी थी। उसने इतना बड़ा गिरोह देखा, तो भागी।
वे चोर सोना—चांदी, हीरे—जवाहरात ढो—ढोकर बाहर ले जाने लगे।
दासी ने जाकर उपासिका को कहा।
दासी
घबडायी होगी। पसीना—पसीना हो रही होगी। सब लुटा जाता है! लेकिन उपासिका हंसी और
बोली : जा; चोरों की जो इच्छा हो, सो ले जावें; तू उपदेश सुनने में विध्न न डाल।
इस
देश ने एक ऐसी संपदा भी जानी है, जिसके सामने और सब संपदाएं फीकी हो जाती हैं।
इस देश को ऐसे हीरों का पता है, जिनके सामने तुम्हारे हीरे
कंकड़—पत्थर हैं। इस देश ने ध्यान का धन जाना। और जिसने ध्यान जान लिया, उसके लिए फिर और कोई धन नहीं है, सिर्फ ध्यान ही धन
है। इस देश ने समाधि जानी। और जिसने समाधि जानी, वह सम्राट
हुआ; उसे असली साम्राज्य मिला। तुम सम्राट भी हो जाओ संसार
में, तो भिखारी ही रहोगे। और तुम भीतर के जगत में भिखारी भी
हो जाओ, तो सम्राट हो जाओगे। ऐसा अदभुत नियम है।
उस
क्षण उपासिका रस—विमुग्ध थी। उसका बेटा लौटा था बुद्ध के पास होकर। बुद्ध की थोड़ी
सुवास लाया था। बुद्ध का थोड़ा रंग लाया था, बुद्ध का थोड़ा ढंग लाया था। वह जो
कह रहा था, उसमें बुद्ध के वचनों की भनक थी। वह लवलीन होकर
सुनती थी। वह पूरी डूबी थी। वह किसी और लोक की तरफ आंख खोले बैठी थी। उसे किसी
विराट सत्य के दर्शन हो रहे थे। उसे एक—एक शब्द हृदय में जा रहा था और रूपांतरित
कर रहा था। उसके भीतर बड़ी रासायनिक प्रक्रिया हो रही थी। वह देह से आत्मा की तरफ
मुड़ रही थी। वह बाहर से भीतर की तरफ मुड़ रही थी। उसने कहा जा, चोरों की जो इच्छा हो, सो ले जावें। तू उपदेश सुनने
में विध्न न डाल। ऐसा तो कोई तभी कह सकता है, जब विराट
मिलने लगे।
और
मैं तुमसे कहता हूं क्षुद्र को छोड़ना मत, विराट को पहले पाने में लगो,
क्षुद्र अपने से छूट जाएगा। तुमसे मैं नहीं कहता कि तुम घर—द्वार
छोड़ो। मैं तुमसे मंदिर तलाशने को कहता हूं। मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम धन—दौलत
छोड़ो। मैं तुमसे ध्यान खोजने को कहता हूं। जिसको ध्यान मिल जाएगा, धन—दौलत छूट ही गयी। छूटी न छूटी—अर्थहीन है बात। उसका कोई मूल्य ही न
रहा।
आमतौर
से तुमसे उलटी बात कही जाती है। तुमसे कहा गया है कि तुम पहले संसार छोड़ो, तब तुम
परमात्मा को पा सकोगे। मैं तुमसे कहना चाहता हूं : तुम संसार छोड़ोगे, तुम और दुखी हो जाओगे, जितने तुम दुखी अभी हो।
परमात्मा नहीं मिलेगा। लेकिन अगर तुम परमात्मा को पा लो, तो
संसार छूट जाएगा।
अंधेरे
से मत लड़ो, दीए को जलाओ। अंधेरे से लड़ोगे, दीया नहीं जलेगा।
अंधेरे से लड़ोगे—हारोगे, थकोगे, बड़े
परेशान हो जाओगे। ऐसे ही तो तुम्हारे सौ में से निन्यानबे महात्माओं की दशा है। और
परेशान हो गए! तुमसे ज्यादा परेशान हैं।
तुम्हें
यह बात दिखायी नहीं पड़ती—कि कभी—कभी साधारण गृहस्थ के चेहरे पर तो कुछ आनंद का भाव
भी दिखायी पड़ता है,
तुम्हारे तथाकथित साधु—संन्यासियों के चेहरे पर तो आनंद का भाव
बिलकुल खो गया है। एकदम जड़ता है। एकदम गहरी उदासी। सब जैसे मरुस्थल हो गया। क्या
कारण है?
बातें
तो करते हैं कि सब छोड़ देने से आनंद मिलेगा। मिला कहां है? तुमने
किसी जैन मुनि को नाचते देखा है? प्रसन्न देखा है? आनंदित देखा है? छोड़कर मिला क्या है?
छोड़ने
से मिलने का कोई संबंध नहीं है। बात उलटी है मिल जाए तो छूट जाता है। दीया जलाओ और
अंधेरा अपने से नष्ट हो जाता है।
ऐसी
ही घटना उस उपासिका को घट रही थी। वह तल्लीन थी। उसे धीरे— धीरे— धीरे उस रस का
स्वाद आ रहा था। इस घड़ी में यह खबर आयी कि सब धन लुटा जा रहा है। उसने कहा. ले
जाने दे उनको सब। अब कोई चिंता की बात नहीं। तू मेरी इस भावदशा में विध्न न डाल।
चोरों
का सरदार भी पीछे—पीछे चला आया था उपासिका की प्रतिक्रिया देखने। वह तो सुनकर अवाक
रह गया। वह तो ठिठक गया।
अक्सर
ऐसा हो जाता है कि पापी तुम्हारे तथाकथित पुण्यात्माओं से जल्दी रूपांतरित हो जाते
हैं। वाल्मीकि और अंगुलिमाल! और अक्सर ऐसा हो जाता है कि अपराधियों में एक तरह की
सरलता होती है,
जो तुम्हारे प्रतिष्ठित कहे जाने वाले लोगों में नहीं होती।
प्रतिष्ठित लोग तो चालाक, चालबाज, कपटी,
पाखंड़ी होते हैं। लेकिन जिनको तुम अपराधी कहते हो, उनमें कपट नहीं होता, चालबाजी नहीं होती। कपट और
चालबाजी ही होती, तो वे पकड़े ही क्यों जाते! पहली बात।
जिनमें कपट और चालबाजी है, वे तो पकड़े नहीं गए। वे तो बड़े
स्थानों में बैठे हैं, वे तो दिल्ली में विराजमान हैं।
जो
पकड़े जाते हैं,
वे सीधे—सादे लोग हैं, इसीलिए पकड़ जाते हैं।
दुनिया में छोटे अपराधी पकड़े जाते हैं। बड़े अपराधी तो प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति
बन जाते हैं। दुनिया में छोटे अपराधी जेलखानों में मिलेंगे, बड़े
अपराधियों के नाम पर इतिहास लिखे जाते हैं! नेपोलियन, और
सिकंदर, और चंगेज, और नादिर, और स्टैलिन, और हिटलर, और माओ—सब
हत्यारे हैं। लेकिन उनके नाम पर इतिहास लिखे जाते हैं। उनकी गुण—गाथाएं गायी जाती
हैं।
छोटे—मोटे
अपराधी जेलों में सड़ते हैं। बड़े अपराधी इतिहास के निर्माता हो जाते हैं। तुम्हारा
सारा इतिहास बड़े अपराधियों की कथाओं का इतिहास है, और कुछ भी नहीं। असली
इतिहास नहीं है। असली इतिहास लिखा नहीं गया। असली इतिहास लिखा जा सके, ऐसी अभी मनुष्य की चित्तदशा नहीं है।
अगर
असली इतिहास लिखा जा सके,
तो बुद्ध होंगे उस इतिहास में, महावीर होंगे,
कबीर होंगे, नानक होंगे, दादू होंगे; मीरा होगी, सहजो
होगी। क्राइस्ट, जरथुस्त्र, लाओत्सु और
च्चागत्सु—ऐसे लोग होंगे। रिंझाई, नारोपा, तिलोपा—ऐसे लोग होंगे। फ्रांसिस, इकहार्ट, थेरेसा—ऐसे लोग होंगे। मोहम्मद, राबिया, बायजीद, मंसूर—ऐसे लोग होंगे।
लेकिन
ऐसे लोगों का तो कुछ पता नहीं चलता। फुट नोट भी इतिहास में उनके लिए नहीं लिखे
जाते। उनका नाम भी लोगों को शांत नहीं है! इस पृथ्वी पर अनंत संत हुए हैं, उनका नाम
भी लोगों को ज्ञात नहीं है। और वे ही असली इतिहास हैं। वे ही असली नमक हैं पृथ्वी
के। उनके कारण ही मनुष्य में थोड़ी गरिमा और गौरव है।
चारे
आया, प्रधान था चोरों का। उसने यह बात सुनी; वह भरोसा न
कर सका! उसने तो सदा जाना कि धन सोना—चांदी, हीरे—जवाहरात
में है। तो यहां कोई और धन बंट रहा है! हम इसका सब लूटे लिए जा रहे हैं और यह कहती
है, जा—हंसकर—ले जाने दे चोरों को। कूड़ा—कर्कट है। यहां तू विध्न
मत डाल। मेरे ध्यान में खलल खड़ी न कर। मुझे चुका मत। एक शब्द भी चूक जाएगा,
तो मैं पछताऊंगी। वह सारी संपत्ति चली जाए, यह
एक शब्द सुनायी पड़ जाए, तो बहुत है। चोर ठिठक गया।
मेरे
देखे, अपराधी सदा ही सीधे—सादे लोग होते हैं। उनमें एक तरह की निर्दोषता होती है,
एक तरह का बालपन होता है। वह ठिठक गया। तो उसने कहा : फिर हम भी
क्यों न लुटें इसी धन को। तो हम कब तक वही हीरे—जवाहरात लूटते रहें! जब इसको उनकी
चिंता नहीं है, तो जरूर कुछ मामला है, कुछ
राज है। हम कुछ गलत खोज रहे हैं।
वह
भागा गया। उसने अपने साथियों को भी कहा—कि मैं तो जाता हूं सुनने, तुम आते
हो? क्योंकि वहा कुछ बटता है। मुझे समझ में नहीं आ रहा है
अभी कि क्या बंट रहा है। कुछ सूक्ष्म बरस रहा होगा वहा। अभी मेरी समझ नहीं है कि
साफ—साफ क्या हो रहा है, लेकिन एक बात पक्की है कि कुछ हो
रहा है। क्योंकि हम यह सब लिए जा रहे हैं और उपासिका कहती है ले जाने दो। लेकिन
मेरे ध्यान में बाधा मत डालो। यहां मैं सुनने बैठी हूं। धर्म— श्रवण कर रही हूं।
इसमें खलल नहीं चाहिए। तो जरूर उसके भीतर कोई संगीत बज रहा है, जो बाहर से दिखायी नहीं पड़ता। और भीतर कोई रसधार बह रही है, जो बाहर से पकड़ में नहीं आती। हम भी चलें, तुम भी
चलो। हम कब तक यह कूड़ा—कर्कट इकट्ठा करते रहेंगे! तो हमें अब तक ठीक धन का पता
नहीं था।
शायद
चोर भी ठीक धन की तलाश में ही गलत धन को इकट्ठा करता रहता है। यही मेरा कहना है।
इस दुनिया में सभी लोग असली धन को ही खोजने में लगे हैं, लेकिन कुछ
लोग गलत चीजों को असली धन समझ रहे हैं, तो उन्हीं को पकड़ते
हैं। जिस दिन उनको पता चल जाएगा कि यह असली धन नहीं है, उसी
दिन उनके जीवन में रूपांतरण, क्रांति, नए
का आविर्भाव हो जाएगा। उस दिन उन चोरों के जीवन में हुआ।
उन्होंने
सब, जो ले गए थे बाहर, जल्दी से भीतर पूर्ववत रख दिया।
भागे धर्म —सभा की ओर। सुना। पहली बार सुना। कभी धर्म—सभा में गए ही नहीं थे। धर्म—सभा
में जाने की फुर्सत कैसे मिलती! जब लोग धर्म —सभा में जाते, तब
वे चोरी करते। तो धर्म—सभा में कभी गए नहीं थे। पहली बार ये अमृत—वचन सुने।
खयाल
रखना, अगर पंडित होते, शास्त्रों के जानकार होते, तो शायद कुछ पता न चलता। तुमसे मैं फिर कहता हूं : पापी पहुंच जाते हैं और
पंडित चूक जाते हैं। क्योंकि पापी सुन सकते हैं। उनके पास बोझ नहीं है ज्ञान का।
उनके पास शब्दों की भीड़ नहीं है। उनके पास सिद्धांतों का जाल नहीं है।
पापी
इस बात को जानता है कि मैं अज्ञानी हूं, इस कारण सुन सकता है। पंडित सोचता
है मैं ज्ञानी हूं। मैं जानता ही हूं इसलिए क्या नया होगा यहां! क्या नया मुझे
बताया जा सकता है? मैंने वेद पढे। मैंने उपनिषद पढ़े। गीता
मुझे कंठस्थ है। यहां मुझे क्या नया बताया जा सकता है? इसलिए
पंडित चूक जाता है।
धन्यभागी
थे कि वे लोग पंडित नहीं थे और चोर थे। जाकर बैठ गए। अवाक होकर सुना होगा। पहले
सुना नहीं था। कुछ पूर्व —शान नहीं था, जिसके कारण मन खलल डाले।
उन्होंने
वहां अमृत बरसते देखा। वहां उन्होंने अलौकिक संपदा बंटते देखी। उन्होंने जी भरकर
उसे लूटा। चोर थे! शायद इसी को लूटने की सदा कोशिश करते रहे थे। बहुत बार लूटी थी
संपत्ति, लेकिन मिली नहीं थी। इसलिए चोरी जारी रही थी। आज पहली दफे संपत्ति के
दर्शन हुए।
फिर
सभा की समाप्ति पर वे सब उपासिका के पैरों पर गिर पड़े। क्षमा मांगी। धन्यवाद दिया।
और चोरों के सरदार ने उपासिका से कहा आप हमारी गुरु हैं। आपके वे थोड़े से शब्द—कि
जा, चोरों को ले जाने दे जो ले जाना हो। आपकी वह हंसी, और
आपका वह निर्मल भाव, और आपकी वह निर्वासना की दशा, और आपका यह कहना कि मेरे धर्म—श्रवण में बाधा न डाल—हमारे जीवन को बदल
गयी। आप हमारी गुरु हैं। अब हमें अपने बेटे से प्रव्रज्या दिलाएं। हम सीधे न
मांगेंगे संन्यास। हम आपके द्वारा मांगेंगे। आप हमारी गुरु हैं।
उपासिका
अपने पुत्र से प्रार्थना कर उन्हें दीक्षित करायी। वे चोर अति आनंदित थे। उनके
जीवन में इतना बड़ा रूपांतरण हुआ—आनंद की बात थी। जैसे कोई अंधेरे गर्त से एकदम
आकाश में उठ जाए। जैसे कोई अंधेरे खाई—खड्डों से एकदम सूर्य से मंडित शिखर पर बैठ
जाए। जैसे कोई जमीन पर सरकता—सरकता अचानक पंख पा जाए और आकाश में उड़े।
उनके
आनंद की कोई सीमा नहीं थी। क्योंकि कोई चोरी करता रहे—कितनी ही चोरी करे, और कितना
ही कुशल हो, और कितना ही सफल हो, और
कितना ही धन इकट्ठा करे—चोरी काटती है भीतर। चोरी दंश देती है। कुछ मैं बुरा कर
रहा हूं यह पीड़ा तो घनी होती है। पत्थर की तरह छाती पर बैठी रहती है।
चोर
जानता है—चोर नहीं जानेगा,
तो कौन जानेगा—कि कुछ गलत मैं कर रहा हूं। करता है; करता चला जाता है। जितना करता है, उतना ही गलत का
बोझ भी बढ़ता जाता है। आज सब बोझ उतर गया।
संन्यस्त
हुए वे; दीक्षित हुए वे। वे अति आनंदित थे। वे प्रव्रजित हो एकांत में वास करने
लगे, मौन रहने लगे; ध्यान में डूबने
लगे। संसार उन्होंने पूरी तरह देख लिया था, सब तरह देख लिया
था। बुरा करके, भला करके, सब देख लिया
था। अब करने को कुछ बचा नहीं था। अब वे न—करने में उतरने लगे।
स्वात
का अर्थ है न—करना। मौन का अर्थ है न—करना। ध्यान का अर्थ है न—करना। अब वे शांत शून्य
में डूबने लगे।
उन्होंने
शीघ्र ही ध्यान की शाश्वत संपदा पायी। बौद्ध कथा तो ऐसा कहती है कि बुद्ध को आकाश
से उड़कर जाना पड़ा। मैंने छोड़ दिया उस बात को। तुम्हें भरोसा न आएगा। नाहक तुम्हें
शंका के लिए क्यों कारण देने। लेकिन कहानी मीठी है। इसलिए एकदम छोड़ भी नहीं सकता, याद
दिलाऊगा ही।
कहानी
तो यही है कि उन चोरों ने जंगल में बैठकर..। उन्होंने बुद्ध को देखा ही नहीं।
उन्होंने तो उपासिका को गुरु मान लिया। उपासिका के माध्यम से उसके बेटे सोण से
दीक्षित हो गए। उन्होंने बुद्ध को देखा नहीं है। लेकिन उनकी प्रगाढ़ ध्यान की दशा—बुद्ध
को जाना पड़ा हो आकाश—मार्ग से तो कुछ आश्चर्य नहीं। करोगे क्या, जाना ही
पड़ेगा।
मैं
यह नहीं कह रहा हूं कि आकाश—मार्ग से गए ही होंगे। मगर जो मैं कह रहा हूं? वह यह कि
बुद्ध को जाना ही पड़ेगा। इतने ध्यान की गहराई और ऐसे साधारणजनों में, ऐसे पापियों में! बुद्ध खिंचे चले आए होंगे। आना ही पडा होगा। आकाश—मार्ग
से आने की कथा इतना ही बताती है कि बुद्ध को उड़कर आना पड़ा। इतनी जल्दी आना पड़ा कि
शायद पैदल चलकर आने में देर लगेगी, उतनी देर नहीं की जा
सकती। और। ये चोर—इसलिए कहता हूं इनको, भूतपूर्व और
अभूतपूर्व—ये चोर ऐसी महान गहराई में उतरने लगे कि बुद्ध को लगा कि और थोड़ी देर हो
गयी, तो लांछन होगा। इसलिए जाना पड़ा होगा।
उन्होंने
जाकर ये सूत्र इन चोरों से कहे थे।
सिज्च भिक्खु! इमं नावं
सित्ता ते लहुमेस्सति।
'हे भिक्षु! इस नाव को उलीचो; उलीचने पर यह तुम्हारे
लिए हलकी हो जाएगी।'
किस
नाव की बात कर रहे हैं?
यह जो मन की नाव है, इसको उलीचो। इसमें कुछ न
रह जाए। इसमें कामना न हो, वासना न हो, महत्वाकांक्षा न हो। इसमें खोज न हो, इसमें मांग न
हो, इसमें प्रार्थना न हो। इसमें विचार न हों, इसमें भाव न हों। इसमें कुछ भी न बचे। उलीचो भिक्षुओ। सिन्च भिक्खू! इस
नाव से सब उलीच दो। इस नाव को बिलकुल खाली कर लो, शून्य कर
लो। यह तुम्हारे लिए हलकी हो जाएगी।
'राग और द्वेष को छिन्न कर फिर तुम निर्वाण को प्राप्त हो जाओगे।’
यह
नाव हलकी हो जाए,
इतनी हलकी कि इसमें कोई वजन न रह जाए, तो इसी
क्षण निर्वाण उपलब्ध हो जाता है। शून्य मन का ही दूसरा नाम है—निर्वाण। जहां मन
शून्य है, वहां सब पूर्ण है। जहां मन भरा है, वहा सब अधूरा है।
'जो पांच को काट दे भिक्षुओ! पांच को छोड़ दे भिक्षुओ! पांच की भावना करे
भिक्षुओ! और पांच के संग का अतिक्रमण कर जाए भिक्षुओं! उसी को बाढ़ को पार कर गया
भिक्षु कहते हैं। वही उस पार चला गया।'
ये
पांच क्या हैं?
जो
पांच को काट दे भिक्षुओ—पञ्च छिन्दे।
पांच
चीजें बुद्ध ने काटने योग्य कही हैं : सत्काय दृष्टि—कि मैं शरीर हूं; विचिकित्सा,
संदेह, श्रद्धा का अभाव; शीलव्रत परामर्श—दूसरों को सलाह देना शील और व्रत की और स्वयं अनुगमन न
करना; काम—राग और व्यापाद—सदा कामना से भरे रहना, यह पा लूं वह पा लूं। ऐसा हो जाऊं, वैसा हो जाऊं।
व्यापाद—और सदा व्यस्त; कभी क्षणभर को विराम नहीं। ये पांच
चीजें छेद देने जैसी हैं। इनको छेद्य—पंचक कहा।
फिर
पांच को छोड़ दे जो—हेय—पंचक। रूप—राग, अरूप—राग, मान,
औद्धत्य और अविद्या।
रूप
का आकर्षण। पानी पर उठे बबूले जैसा है रूप। सुबह फूल खिला, सांझ गया।
अभी कोई सुंदर था, युवा था, अभी का हो
गया।
अरूप
राग. और ऐसा न हो कि रूप से राग छूटे, सौंदर्य से राग छूटे, तो तुम असौंदर्य से राग को बांध लो; कुरूप का राग
करने लगो। वह भी भूल हो गयी। ऐसे लोग भी हैं, जो रूप से राग
छोड़ देंगे, तो अरूप के राग में पड़ जाएंगे। वह भी छूट जाना
चाहिए।
मान—अहंकार।
औद्धत्य—जिद्द,
हठ, और अविद्या। अविद्या का अर्थ है, स्वयं को न जानना। इन पांच को हेय—पंचक।
और
फिर पांच को कहा है— भावना। इनकी भावना करनी। भाव्य—पंचक।
श्रद्धा, वीर्य,
स्मृति, समाधि और प्रज्ञा।
श्रद्धा
एक सरल भरोसा—अस्तित्व पर,
स्वयं पर, जीवन पर।
वीर्य
ऊर्जा। मंद—मंद नहीं जीना चाहिए। ऐसा जीना चाहिए, जैसे मशाल दोनों तरफ सै
जलती हो। ऊर्जा—वीर्य।
स्मृति.
होशपूर्वक जीना चाहिए। एक—एक बात को स्मरणपूर्वक करना चाहिए। समाधि. समाधान चित्त
की दशा। जहां कोई समस्या न रही, कोई प्रश्न न रहे; उत्तर
की कोई तलाश न रही। जहां सब विचारों की तरंगें शांत हो गयीं। जहां मन न रहा। मनन न
रहा, तो मन न रहा—समाधि।
और
प्रजा और जहां समाधि घटती है, वहीं तुम्हारे भीतर अंतप्रज्ञा का दीया जलता
है।
ये
पांच भावने योग्य हैं।
और
उल्लंध्य—पंचक। और पांच का अतिक्रमण कर जाना है : राग, द्वेष,
मोह, मान, मिथ्या—दृष्टि।
'प्रज्ञाहीन मनुष्य को ध्यान नहीं होता है, ध्यान न
करने वाले को प्रज्ञा नहीं होती है। जिसमें ध्यान और प्रज्ञा हैं, वही निर्वाण के समीप है।'
ये
दो शब्द बड़े बहुमूल्य हैं—ध्यान और प्रज्ञा।
ऐसा
समझो कि दीया जलाया। तो दीए का जलना तो ध्यान है। और फिर जो रोशनी दीए की चारों
तरफ फैलती है,
वह प्रज्ञा। ये संयुक्त हैं।
इसलिए
बुद्ध कहते हैं
नत्थि झानं अपज्जस्स
पज्जानत्थि अझायतो।
'प्रज्ञाहीन मनुष्य को ध्यान नहीं
होता।’
क्योंकि
ऐसी तुमने कोई ज्योति देखी,
जिसमें प्रभा न हो? बिना प्रभा के ज्योति कैसे
होगी! प्रभाहीन ज्योति नहीं होती। जहां दीया जलेगा, वहा
रोशनी भी होगी। ऐसा नहीं हो सकता कि दीया जले और रोशनी न हो। इससे उलटा भी नहीं हो
सकता कि रोशनी हो और दीया न जले।
इसलिए
बुद्ध कहते हैं
नत्थि झानं अपज्जस्स
पज्जानत्थि अझायतो।
'प्रज्ञाहीन मनुष्य को ध्यान नहीं
और ध्यान न करने वाले को प्रज्ञा नहीं।'
ध्यान
और प्रज्ञा ऐसे ही जुड़े हैं, जैसे मुरगी और अंडा। बिना मुरगी के अंडा नहीं;
बिना अंडे के मुरगी नहीं। इसलिए बुद्ध कहते हैं कि तुम यह मत पूछो
कि पहले क्या, पीछे क्या। वे दोनों साथ—साथ हैं। संयुक्त
हैं। युगपत घटते हैं।
'जिसमें ध्यान और प्रज्ञा हैं, वही निर्वाण को उपलब्ध
हो जाता है।'
निर्वाण
यानी उसका अंधेरा मिट जाता है। उसके जीवन में फिर रोशनी ही रोशनी हो जाती है।
इन
भिक्षुओं को,
जो कभी चोर थे, बुद्ध ने ये अभूतपूर्व वचन
कहे। वे करीब पहुंच रहे थे, आखिरी क्षण आ रहा था। नाव को जरा
और उलीचना था। कुछ थोड़ी सी चीजें छेदनी थीं; कुछ थोड़ी सी
चीजें छोड़नी थीं; कुछ थोड़ी सी चीजें अतिक्रमण करनी थीं,
कुछ थोड़ी सी चीजें भावना करनी थीं। उस आखिरी घड़ी में बुद्ध के सहारे
की जरूरत थी।
सदगुरु
के सहारे की जरूरत दो जगह सर्वाधिक है : पहली घड़ी में और अंतिम घड़ी में। मध्य का
मार्ग इतना कठिन नहीं है। पहली घड़ी कठिन; अंतिम घड़ी कठिन। और ये दोनों
घटनाएं दोनों के संबंध में हैं।
पहली, पहली घड़ी
के संबंध में। ब्राह्मण भोजन करने बैठा है। उसके भीतर निश्चय का उदय हो रहा है;
और बुद्ध का जाना—वह पहली घड़ी थी। वहा पहला धक्का चाहिए। एक दफा
आदमी चल पड़े, तो चलता जाता है।
और
यह दूसरी घटना आखिरी घड़ी की। वे चोर ध्यान में गहरे उतरते—उतरते समाधि के करीब
पहुंच रहे थे,
आखिरी घड़ी करीब आ रही थी। उनको आखिरी धक्का चाहिए, ताकि वे महाशून्य में, निर्वाण में विलीन हो जाएं।
इन
पर मनन करना। ये सूत्र तुम्हारे जीवन में भी ऐसी ही क्रांति ला सकते हैं।
आज इतना ही।
Good one
जवाब देंहटाएंthank you guruji
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