अल्लाह बेनियाज़ है—(प्रवचन—पांचवां)
दिनांक 5 अक्तूबर 1980;
पहला प्रश्न—
भगवान, कुरान की
जो प्रार्थना है उसके तीन हिस्से हैं: पनाह, अलफातिहा और
सूरत-इ-इखलास (मैत्री)। सूरत-इ-इखलास इस प्रकार है:
बिस्मिल्लाहिर् रहमानिर्
रहीम।
कुल हुवल्लाहु अहद।
अल्लाहुस्समद।
लम् यलिद, वलम् यूलद;
व लम् यकुल्लहू कुफवन्
अहद्।।
अर्थ ऐसा है:
पहले ही पहल नाम लेता हूं
अल्लाह का,
जो निहायत रहमवाला मेहरबान है।
(ऐ पैगंबर, लोग
तुम्हें खुदा का बेटा कहते हैं और तुमसे हाल खुदा का पूछते हैं, तो तुम उनसे)
कहो कि वह अल्लाह एक है, और अल्लाह
बेनियाज़ है (उसे किसी की भी गरज नहीं), न उसका कोई बेटा है
और न वह किसी से पैदा हुआ है। और न कोई उसकी बराबरी का है।
भगवान, इसे हमारे
लिए बोधगम्य बनाने की अनुकंपा करें।
आनंद मैत्रेय!
कुरान अत्यंत सीधे-सादे हृदय का वक्तव्य है। उपनिषद, धम्मपद, गीता, ताओत्तेह-किंग, इन सब
में एक परिष्कार है। क्योंकि बुद्ध परम सुशिक्षित, सुसंस्कृत
राजघर से आए थे। मोहम्मद बेपढ़े-लिखे थे।
कृष्ण जब कुछ कहते हैं, तो उस कहने में तर्क होता है, विचार की प्रक्रिया
होती है, एक गणित होता है। मोहम्मद के वक्तव्य अत्यंत सरल
हैं। जैसे खदान से निकाला गया ताजात्ताजा हीरा। अभी उस पर जौहरी की छैनी नहीं चली।
अभी उस पर पालिश नहीं किया गया। अभी उस पर पहलू नहीं निखारे गए।
इससे एक तो लाभ है और एक हानि भी। और इसलाम
को दोनों ही बातें अनुभव करनी पड़ी हैं। लाभ तो यह है कि जैसे ग्रामीण व्यक्ति की
भाषा में एक बल होता है,
ताजगी होती है, धार होती है, क्योंकि बात सीधी-साफ होती है, समझाने की कोई जरूरत
नहीं होती। इसलिए कुरान पर टीकाएं नहीं लिखी गईं। बात सीधी-साफ है। टीका करने का
कोई उपाय नहीं है। गीता पर हजारों टीकाएं हैं।--तो हजारों अर्थ हो गए--क्योंकि बात
दुरूह है। अभिव्यक्ति का ढंग ऐसा है कि उससे बहुत अर्थ अभिव्यंजित हो सकते हैं।
एक-एक शब्द से अनेक-अनेक अर्थों की संभावना है। तो बाल की खाल खींची जा सकती है।
तर्कशास्त्री के हाथ में पड़ कर गीता का सत्य
खो जाएगा, बुद्ध का सत्य खो जाएगा, कुरान का सत्य नहीं खोएगा।
क्योंकि कुरान के साथ तर्क का कोई संबंध नहीं बैठता। कुरान को जिन्हें समझना है,
उन्हें तर्क से नहीं, अत्यंत सरलता से कुरान
के पास पहुंचना होगा। यह तो लाभ है।
लेकिन हानि भी है। हानि यह है, कि चूंकि
वक्तव्य बहुत सीधे-सादे हैं, उनमें गहराई दिखाई न पड़ेगी,
उनमें ऊंचाई दिखाई न पड़ेगी, उनमें बहुत आयाम
दिखाई न पड़ेंगे, साधारण मालूम होंगे। इसलिए उपनिषद की तुलना
में कुरान के वचन साधारण मालूम होंगे। कहां उपनिषद, उपनिषद
के ऋषि की प्रार्थना: असतो मा सदगमय, असत्य से मुझे सत्य की
ओर ले चल, हे प्रभु; तमसो मा
ज्योतिर्गमय, अंधकार से उठा मुझे प्रकाश के लोक में; मृत्योर्माऽमतं गमय, और कब तक मृत्यु में जीऊं,
अमृत के द्वार खोल! हटा दे यह स्वर्ण के पात्र से सारे ढक्कन! उठा
दे घूंघट कि मैं देख लूं अमृत को! इसमें गहराई खोजी जा सकती है। बहुत गहराई खोजी
जा सकती है!
कुरान में भी गहराई इतनी ही है, जरा भी कम
नहीं, मगर वक्तव्य मोहम्मद के सीधे-सादे हैं। मोहम्मद गैर
पढ़े-लिखे आदमी हैं। न लिख सकते थे, न पढ़ सकते थे। इसलिए जब
कुरान की आयतें पहली बार उन पर उतरनी शुरू हुईं तो वे बहुत घबड़ा गए। भीतर कोई हृदय
में जोर से कहने लगा: लिख! और मोहम्मद ने कहा कि मैं लिखना जानता नहीं, लिखूं कैसे? गा, भीतर से कोई
आवाज आने लगी। और मोहम्मद ने कहा, मैं क्या गाऊंगा! न मेरे
पास कंठ है, न गीत की कोई कला है, मैं
बिलकुल बेपढ़ा-लिखा आदमी हूं, क्या गाऊं, क्या लिखूं? कैसे गाऊं? वे
इतने घबड़ा गए कि घर भागे आ गए; पहाड़ पर बैठे थे मौन में--मौन
में ही यह परम घटना घटती है कि सत्य अवतरित होता है। और जब सत्य अवतरित होता है तो
सत्य अभिव्यक्त होना चाहता है। जैसे फूल खिलेगा तो गंध उड़ेगी; और दीया जलेगा तो प्रकाश झरेगा; और सूरज निकलेगा तो
वृक्ष जागेंगे, पक्षी गीत गाएंगे; बस
वैसे ही जब सत्य का सूर्य भीतर ऊगता है तो तुम उसे छिपा न सकोगे। उसकी अभिव्यक्ति
होगी। वह पुकारेगा: अभिव्यक्त करो!
वही पुकार थी मोहम्मद के भीतर: कहो, लिखो,
बोलो, बांटो! मगर मोहम्मद के लिए यह बात अपनी
सीमा के बहुत पार मालूम पड़ी।
यही उदघोषणा बुद्ध के जीवन में है, और बुद्ध
ने भी इनकार किया कि नहीं बोलूंगा, मगर कारण और थे। मोहम्मद
ने इनकार किया इसलिए कि कैसे बोलूं? शब्द नहीं, भाषा का धनी नहीं, तर्क नहीं--कौन मेरी सुनेगा?
लिखूं तो कैसे लिखूं? मुझे लिखना भी नहीं आता।
पढूं तो क्या पढूं? मुझे पढ़ना भी नहीं आता। ये कारण थे
मोहम्मद के।
बुद्ध को भी जब सत्य की अभिव्यक्ति हुई तो
कथा है--वह कथा तो प्रतीकात्मक है कि कोई भीतर बोला कि बोल, गा,
गुनगुना--ऐसे ही बुद्ध से देवताओं ने अवतरित होकर स्वर्ग से कहा:
अभिव्यक्ति दो, बांटो, कहो, चुप न रह जाओ! बुद्ध ने भी कारण बताए कि क्यों चुप हूं। लेकिन कारण बड़े
अलग थे। उससे दो व्यक्तित्वों का भेद पता चलता है। बुद्ध ने कहा: बोलूंगा; कौन समझेगा?
फर्क समझना।
मोहम्मद ने कहा: कैसे बोलूं, मेरी समझ
क्या? बुद्ध ने कहा: कहूंगा, मगर कौन
समझेगा? यह बात इतनी गहरी है! किससे कहूं? मोहम्मद ने कहा: कैसे कहूं? बुद्ध ने कहा: किससे
कहूं? जिससे कहूंगा वही कुछ का कुछ समझेगा। गलत समझेगा। सौ
आदमियों से कहूंगा, निन्यानबे तो समझेंगे ही नहीं, सुनेंगे ही नहीं, सुन भी लिया तो गलत समझेंगे,
लाभ के बजाय हानि होगी। और सौवां आदमी, एक
आदमी सौ में अगर ठीक भी समझा तो उसके लिए मुझे कहने की जरूरत नहीं है।
देवताओं ने पूछा: क्यों? तो बुद्ध
ने कहा: इसलिए कि जो मेरी बात को सुनते ही ठीक समझ लेगा, वह
मेरे बिना भी जान लेगा। आखिर मैंने भी बिना किसी के कहे जान लिया! जिसकी इतनी
प्रतिभा होगी, जिसके पास ऐसी मेधा होगी--क्योंकि यह तो
प्रतिभा और ध्यान की ही संभावना होगी कि मैं जो कहूं उसको वैसा ही समझ ले जैसा
मैंने कहा है--जिसके पास ऐसा निखार होगा, ऐसी तीक्ष्णता होगी,
वह क्या मेरे लिए रुका रहेगा! मेरे बिना भी पहुंच जाएगा--दिन-दो दिन
की देर हो सकती है। लेकिन उस एक के लिए बोल कर निन्यानबे के जीवन में मैं व्यर्थ
का उपद्रव खड़ा नहीं करना चाहता। इसलिए नहीं बोलूंगा।
मैं तुम्हें भेद दिखाना चाहता हूं। बुद्ध और
मोहम्मद, दोनों को एक ही सत्य का अनुभव हुआ है। मगर बुद्ध भलीभांति जानते हैं कि
मैं बोल सकता हूं, लेकिन समझेगा कौन? मोहम्मद
यह कहते ही नहीं कि समझेगा कौन? मोहम्मद कहते हैं कि मैं बोल
सकूं तो शायद कोई समझ ले, मगर मैं बोलूंगा कैसे? मैं ठहरा अत्यंत ग्रामीण, दीन-हीन; न पढ़ा, न लिखा, न मेरे कोई
संस्कार, न मेरी कोई संस्कृति।
बुद्ध को राजी कर लिया देवताओं ने, क्योंकि
वे तर्क खोज लाए--बुद्ध के लिए तर्क खोजना पड़ा। वे तर्क खोज लाए; उन्होंने सोच-विचार किया, मंत्रणा की, फिर लौटे और उन्होंने कहा, आप ठीक कहते हैं, कि जो समझ सकता है वह आपके बिना भी समझ लेगा; हम
राजी। और जो नहीं समझ सकते, उनको आप लाख समझाओ वे नहीं
समझेंगे; इससे भी हम राजी। मगर क्या आप मानते हैं कि इन
दोनों के बीच में भी कुछ लोग न होंगे? इन दोनों के मध्य में;
जो आप समझाओ तो समझ लेंगे और आप न समझाओ तो शायद सदा के लिए भटकते
रह जाएंगे। क्या आप कह सकते हैं कि इन दोनों के बीच में कोई व्यक्ति होगा ही नहीं?
क्या हम मनुष्यों को इस तरह दो कोटियों में बिलकुल बांट सकते हैं कि
बीच में कोई न होगा? यह तर्क बुद्ध को स्पष्ट समझ में आया कि
जरूर कुछ लोग बीच में हो सकते हैं। हजार में एक होगा, मगर
कोई तो बीच में होगा ही। शृंखला है मनुष्यों की। ऐसा तो नहीं हो सकता कि ये दो
कोटियों में बिलकुल खंडित कर दिया जाए मनुष्यता को। इन दोनों के बीच में भी कोई
होगा, मध्य में भी कोई होगा। तभी तो एक कोटि में से कोई
दूसरी कोटि में जाता है।
बच्चा जवान होगा, तभी तो
बूढ़ा होता है। ऐसा नहीं हो सकता कि जवान हो ही न, बच्चे हों
और बूढ़े हों। बीच की सीढ़ी तो पार करनी ही होगी। वह जो एक आदमी सौवां हो गया है,
वह कभी निन्यानबे का हिस्सा था, पार करके गया
है उस सीमा को जो दोनों के बीच में है। कभी तो ऐसा रहा होगा जब बीच की सीमा पर रहा
होगा। और जरूर बहुत लोग होंगे जो बीच की सीमा पर होंगे। जो अपने से नहीं जाग
सकेंगे; जिन्हें कोई जगाने वाला मिल जाए, इशारा देने वाला मिल जाए, तो शायद चल पड़ें।
बुद्ध राजी हो गए।
मोहम्मद भी राजी हुए। लेकिन मोहम्मद को राजी
करने का ढंग यह नहीं हो सकता था, मोहम्मद को तर्क नहीं दिए जा सकते थे। भीतर की
आवाज कहती गई कि मोहम्मद, मैं तुझसे कहता हूं: बोल! तू बोल,
फिकिर छोड़! जब मैं कहता हूं तो तू बोल! तुझे बोलना ही होगा। कोई
तर्क नहीं है, सीधा आदेश है।
बुद्ध को देवताओं को कुछ कहना पड़ा तो बुद्ध
की बुद्धि से ही संबंध जोड़ना पड़ा। एक विकसित बुद्धि है। मोहम्मद के पास हृदय है, बुद्धि
नहीं। हृदय आदेश मानता है, तर्क नहीं, विचार
नहीं। तर्क और विचार व्यर्थ चले जाते हैं।
और जब आवाज इतने जोर से आई कि तुझे करना ही
होगा, तो वे कंप गए। उन्हें बुखार चढ़ गया। वे भागे घर आए। उन्हें डर लगा कि जरूर
मैं पागल हो गया हूं। घर आकर उन्होंने जो बात कही, वह बड़ी
प्यारी है।
अपनी पत्नी से उन्होंने कहा कि जल्दी से
मेरे ऊपर दुलाइयां ओढ़ा दे,
मुझे बहुत बुखार आ रहा है। पत्नी ने कहा, अभी-अभी
आप ठीक-ठाक गए थे सुबह-सुबह इतनी जल्दी इतनी तीव्रता से बुखार! और शरीर उनका जल
रहा है। तप्त है। और उनकी आंखें ऐसी हैं जैसी उसने कभी नहीं देखी थीं। ये
बुखारवाली आंखें नहीं हैं! उसने दुलाइयां ओढ़ा दीं, पूछा कि
मुझे कहो तो कि हुआ क्या? तो मोहम्मद ने कहा कि दो में से
कुछ एक बात हुई है: या तो मैं पागल हो गया हूं, या कवि।
और ये दो शब्द बड़े विचारणीय हैं।
मोहम्मद ने कहा: या तो मैं पागल हो गया हूं
या कवि। साफ नहीं है कि क्या हो गया है। विक्षिप्त हो गया हूं, लगता है।
भीतर से कुछ आवाज आ रही है, जो कभी नहीं आई थी। और या हो
सकता है कि मैं कवि हो गया हूं। क्योंकि सुना है कि कवियों को भीतर से आवाज आती है,
अंतर्वाणी उठती है। पत्नी ने कहा कि तुम्हारी आंख देख कर मैं कह
सकती हूं कि कुछ अभूतपूर्व घटा है। तुम्हारी आंखों में ऐसी चमक कभी न थी। और
तुम्हारे चेहरे पर ऐसी आभा कभी न थी। तुम घबड़ा गए हो, बेचैन
हो, इसलिए बुखार है अन्यथा तुम आविष्ट हुए हो, तुम्हारे ऊपर कोई विराट ऊर्जा उतरी है। तुम उसे पचा नहीं पा रहे हो। तुम
विश्राम करो, सब ठहर जाएगा। इस कारण मोहम्मद की पत्नी ही
उनकी पहली शिष्या थी। वही पहली मुसलमान थी। क्योंकि उसने ही पहले संदेश सुना।
फिर धीरे-धीरे उसने पूछा कि क्या तुम्हारे
भीतर हो रहा है,
मुझे कहो। जो उन्होंने कहा, वह सीधा-साफ था,
लेकिन उसमें गहराइयां भी थीं।
ये वचन भी सीधे-साफ हैं। यूं ऊपर से देखोगे
तो तुम प्रभावित न होओगे,
लेकिन जरा इनकी गहराइयों में उतरोगे--इन हीरों पर थोड़ी धार रखनी
होगी, थोड़े पहलू निखारने होंगे; इन
हीरों की थोड़ी सफाई करनी होगी और तब कुरान में भी वही गरिमा है, जो उपनिषदों में है; वही सुगंध है, जो धम्मपद में है।
"बिस्मिल्लाहिर्'। पहले ही पहल नाम लेता हूं अल्लाह का।
अल्लाह का एक नाम है: अव्वल। जो सबसे पहले
है, वही अल्लाह है। और जो सबसे बाद में बच रहेगा, वही
अल्लाह है। अल्लाह का दूसरा नाम है: आखिरी। यह सीधी-सादी बात है। पहला नाम: अव्वल;
जो प्रथम है, सर्वप्रथम है; और दूसरा नाम: आखिरी; जो सबसे अंत में है। शेष बीच
में नाटक है, अभिनय है। जैसे मंच पर कोई अभिनेता राम बनकर आ
जाता है। पर्दे के पीछे असलियत थी, पर्दे पर राम बन कर आ गया
है; खेलेगा राम का पार्ट, अभिनय अदा
करेगा, धनुष-बाण लेकर चलेगा, युद्ध
करेगा, और जैसे ही पर्दा गिरेगा, फिर वही
हो जाएगा जो था--राम नहीं रह जाएगा।
पर्दे के पहले और पर्दे के बाद असलियत है, पर्दे के
उठने और पर्दे के गिरने के बीच नाटक है।
परमात्मा ही प्रथम है और परमात्मा ही
अंतिम--और जो प्रथम है और जो अंतिम है, वही सत्य है। बीच में सब मन का खेल
है। सब तरंगें हैं विचारों की। अलग-अलग अभिनय है। कोई स्त्री बना है, कोई पुरुष बना है। कोई मस्जिद में बैठा है, कोई
मंदिर में बैठा है। कोई इस तरह से जी रहा है, कोई उस तरह से
जी रहा है। कोई संत हो गया है; कोई साधु है, कोई असाधु। लेकिन ये सब पर्दा उठने और पर्दा गिरने के बीच का खेल है।
पर्दे के पीछे न कोई साधु है, न कोई असाधु। न कोई संत,
न कोई असंत। सिर्फ परमात्मा है। वही अव्वल है, वही आखिरी है। तो पहले-पहले उसी का नाम लेता हूं--अल्लाह का। और किसका नाम
लो? क्योंकि पहले-पहले उसी का स्मरण करो, जो है। प्रार्थना उसी से शुरू हो सकती है।
"बिस्मिल्लाहिर्'। पहले-पहल नाम लेता हूं अल्लाह का।
इस्लाम में परमात्मा के सौ नाम हैं।
निन्यानबे व्यक्त और सौवां अव्यक्त। जब तुम इस्लाम की फेहरिस्त देखोगे नामों की, तो ऊपर
लिखा होता है: अल्लाह के सौ नाम; और जब तुम फेहरिस्त में
गिनती करोगे तो तुम बहुत हैरान होओगे, हमेशा निन्यानबे नाम
होते हैं, सौ नहीं होते। सौवां छोड़ा होता है। वही असली नाम
है। उसे कहा ही नहीं जा सकता। मगर कुछ तो कहना होगा। इसलिए "अल्लाह' कहते हैं।
अल्लाह पहला नाम है निन्यानबे की शृंखला
में। और जो आखिरी नाम है,
असली नाम है, उसे तो नाम भी नहीं दिया जा सकता,
वह तो अनाम है, वह तो शून्य है। बुद्ध की भाषा
में वही निर्वाण है, शून्य है, अनत्ता
है। उपनिषद उसे ब्रह्म कहते हैं।
मगर, यह प्यारी बात समझते हो! शून्य भी
तुमने कहा--हालांकि कहा: शून्य--मगर शून्य भी नाम हो गया। ज्यादा प्यारी बात है
इस्लाम की: कहा ही नहीं कुछ। खाली जगह छोड़ दी।
इस्लाम में सूफी फकीरों की परंपरा है। उनके
पास एक किताब है,
जिसे वे "किताबों की किताब' कहते हैं। वह
खाली किताब है, उसमें कुछ लिखा हुआ नहीं है। गुरु शिष्य को
देता रहा है। उस किताब को परंपरा से वह किताब मिलती रही है, बचाई
गई है। सैकड़ों वर्ष पुरानी है। कुछ भी लिखा नहीं है, खाली
पन्ने हैं, कोरे पन्ने हैं!
और वैसा ही कोरा हो जाना है। वैसा ही खाली
हो जाना है। जब तुम भी रिक्त हो जाओ, तुम्हारे भीतर भी कोई विचार की
लिखावट न रह जाए, तभी जानना सौवां नाम, असली नाम उपलब्ध हुआ।
मगर शुरुआत करने के लिए--कामचलाऊ--निन्यानबे
नाम हैं। निन्यानबे इसलिए कि तुम्हें जो प्रीतिकर लगे! दुनिया में बहुत तरह के लोग
हैं, तरहत्तरह के लोग हैं। हर एक की अपनी-अपनी प्रीति है, अपना-अपना ढंग है। इसलिए एक ही नाम सबको शायद प्यारा न भी लगे। तो सब तरह
की रुचियों के लोगों के लिए निन्यानबे नाम हैं। लेकिन याद सबको दिलाए रखनी है कि
तुम्हारा नाम कामचलाऊ है। असली नाम तो बोला नहीं जा सकता, सुना
नहीं जा सकता। असली नाम तो अनुभव में आता है। और वह अनुभव ध्वनि नहीं है, नाद नहीं है--अनाहत है। परम शून्य का संगीत है। मौन संगीत है।
इसलिए शास्त्रों को ठीक से पढ़ना हो तो
पंक्तियों के बीच में पढ़ना,
पंक्तियों में मत पढ़ना। पंक्तियों के बीच में जहां खाली जगह होती है,
वहां शास्त्र हैं। पंक्तियों में तो शब्द हैं। शब्दों के बीच में
पढ़ना, जहां रिक्त स्थान होते हैं, क्योंकि
वहीं सत्य है।
और यही अवस्था तुम्हारे अंतर की भी है। एक
विचार गया, दूसरा विचार आया, दोनों के बीच में थोड़ी जगह होती
है। उस जगह में ही झांक लो तो ध्यान हो जाए। मगर हम एक शब्द से दूसरे शब्द पर
छलांग लगाते रहते हैं, एक विचार से दूसरे विचार पर छलांग
लगाते रहते हैं, हम बीच में वह जो खाली जगह है उसको देखते ही
नहीं। उसको हम यूं ही गुजर जाने देते हैं। हम उस पर ध्यान ही नहीं देते। वह हमारा
"गेस्टाल्ट' नहीं है।
"गेस्टाल्ट' शब्द जर्मन भाषा का है। और मनोविज्ञान ने उसे स्वीकार किया है, क्योंकि किसी दूसरी भाषा में वैसा शब्द नहीं है। "गेस्टाल्ट' का अर्थ होता है: देखने का एक खास रवैया। तुमने मनोविज्ञान की किताबों में
या कभी-कभी बच्चों की किताबों में एक तस्वीर देखी होगी। एक तस्वीर बनी होती है,
जिसको दो ढंग से देखा जा सकता है। एक ढंग से देखो तो तस्वीर में
बूढ़ी स्त्री दिखाई पड़ती है। और अगर तुम देखते ही रहो, देखते
ही रहो बूढ़ी स्त्री को, तो तुम चकित होते हो कि थोड़ी देर में
बूढ़ी स्त्री तो विदा हो गई और उसकी जगह एक सुंदर युवा स्त्री दिखाई पड़ने लगी। अगर
तुम उस युवा स्त्री को देखते रहो, देखते रहो, तो थोड़ी देर में वह भी विलीन हो जाएगी, फिर बूढ़ी
स्त्री प्रकट हो जाएगी।
और मजा यह है कि जब तुमने दोनों को भी देख
लिया तस्वीर में,
तब भी तुम दोनों को साथ-साथ न देख सकोगे। क्योंकि उन दोनों को बनाने
वाली जो पंक्तियां हैं, जो लकीरें हैं, वे एक ही हैं। उन्हीं लकीरों में बूढ़ी बनी है, उन्हीं
लकीरों से जवान स्त्री बनी है। तो जब जवान स्त्री को देखोगे, बूढ़ी नहीं देख पाओगे। अगर बूढ़ी को देखोगे, जवान को
नहीं देख पाओगे। जानते हो भलीभांति कि इन्हीं लकीरों में जवान स्त्री भी छिपी है,
कई बार देख भी चुके हो, लेकिन जब फिर बूढ़ी
स्त्री का "गेस्टाल्ट' तुम्हें पकड़ लेगा, तो तुम लाख उपाय करो, जवान स्त्री दिखाई न पड़ेगी। और
तुम्हें मालूम है, तुमने देखा है, तुम
जानते हो भलीभांति कि यहीं कहीं है। मगर तुम कोशिश करो तो नहीं देख पाओगे। लेकिन
अगर तुम बूढ़ी को गौर से देखते रहो, देखते रहो, तो अचानक "गेस्टाल्ट' बदलता है। बदलाहट इसलिए
होती है कि मन थिर नहीं हो सकता। मन अथिर है, भागा हुआ है।
तुम अगर बूढ़ी को ही देखते रहोगे, देखते रहोगे, वह जल्दी ही बूढ़ी से भागने लगेगा, इधर-उधर भागेगा।
उसी भाग-दौड़ में वह जवान को खोज लेगा। अगर तुम जवान को ही देखते रहोगे, उसी भाग-दौड़ में वह फिर बूढ़ी स्त्री को खोज लेगा। वे दोनों ही स्त्रियां
उस एक ही तस्वीर में हैं। इस बदलते हुए ढांचे को "गेस्टाल्ट' कहते हैं।
अब तुम जब अपने भीतर जाते हो और विचारों को
देखते हो, तो तुम्हारा गेस्टाल्ट एक है। एक विचार गया कि तुम बीच में जो थोड़ा सा
अंतराल आता है, उसे नहीं देखते; दूसरा
विचार आया, उसको देखते हो। तुमने ध्यान ही नहीं दिया होगा जब
तुम किताब पढ़ते हो कि दो शब्दों के बीच में खाली जगह भी है, या
दो पंक्तियों के बीच में भी खाली कागज है। तुम तो बस शब्दों से छलांग लगाते चले
जाते हो।
एक छोटा बच्चा रास्ते के किनारे खड़ा है। उसे
रास्ता पार करना है। बड़ी देर से खड़ा है। एक आदमी जो उसे देख रहा है--एक
दुकानदार--उसने पूछा कि बेटा, क्या बात है, तू बहुत देर
से यहां खड़ा हुआ है! तुझे उस तरफ जाना है तो मैं पहुंचा दूं। उसने कहा, उस तरफ मुझे जाना है, लेकिन मैं देख रहा हूं कि जब,
खाली स्थान आए, तो मैं निकल जाऊं। जब खाली
स्थान मेरे सामने से गुजरे, तो मैं निकल जाऊं।
तुमने इस तरह नहीं सोचा होगा। कार गुजरी, बस गुजरी,
ट्रक गुजरा--यह तुम देखते हो; खाली स्थान
गुजरता है, ऐसा तुम नहीं देखते। जब बस नहीं गुजरती तो जो रह
जाता है खाली स्थान, तुम उसमें से गुजर जाते हो। मगर उस
बच्चे ने कहा कि जब खाली स्थान आए...! कभी तो कार आ रही है, कभी
ट्रक आ रहा है, कभी बस आ रही है, खाली
स्थान आ ही नहीं रहा! जैसे ही खाली स्थान आएगा, मैं निकल
जाऊंगा। और बिना खाली स्थान के कैसे निकल सकता हूं?
तुम्हारे भीतर विचारों की शृंखला में खाली
स्थान आ रहे हैं,
प्रतिपल आ रहे हैं, मगर उन पर तुम्हारा ध्यान
नहीं। तुम्हारा "गेस्टाल्ट' बंध गया है।
और इसीलिए साक्षी का अदभुत सूत्र है ध्यान
के लिए। तुम सिर्फ साक्षी हो कर खड़े हो जाओ किनारे और देखते रहो, देखते रहो
आंख गड़ा कर--विचारों को गुजरते हुए--और तुम चकित होओगे, देखते-देखते
ही जैसे बूढ़ी स्त्री जवान में बदल जाती है, ऐसा ही तुम्हारे
भीतर का "गेस्टाल्ट' बदलेगा। तुम अगर देखते रहो विचारों
को साक्षी हो कर, तो धीरे से तुमको एक क्षण पता चलेगा कि हर
दो विचार के बीच खाली जगह आती है। और जैसे ही तुम्हें खाली जगह दिखाई पड़ गई,
तुम दूसरा काम भी कर सकते हो--एक खाली स्थान से दूसरे खाली स्थान
में छलांग; दूसरे से तीसरे खाली स्थान में छलांग। विचारों को
छोड़ कर छलांग लगने लगती है। अभी खाली स्थान को छोड़ कर तुम छलांग लगाते हो, फिर विचारों को छोड़ कर खाली स्थान में छलांग लगाने लगते हो। वही ध्यान की
प्रक्रिया है। खाली स्थानों को जोड़ लेना अपने भीतर ध्यान है। विचार तिरस्कृत हो
गया, अनादृत हो गया। तुम विचार के प्रति उदासीन हो गए।
ध्यान है खाली अंतरालों को देखने की क्षमता।
और जैसे ही यह क्षमता आती है, पर्दा गिर गया। अब तुम्हें वह दिखाई पड़ने लगेगा,
जो अव्वल है और आखिरी है।
"पहले ही पहल नाम लेता हूं
अल्लाह का, जो निहायत रहमवाला मेहरबान है।'
सीधी-सादी बात है कि परमात्मा करुणा है।
बुद्ध भी इस बात को कहते हैं। लेकिन बुद्ध के कहने का ढंग बहुत और है। वह एक
सुसंस्कृत दार्शनिक का ढंग है। बुद्ध कहते हैं: जब ध्यान का कमल खिलता है, तब करुणा
की सुगंध उड़ती है। करुणा अंतिम उपलब्धि है समाधि की--और समाधि की कसौटी भी। जिसके
जीवन में करुणा प्रकट हो, समझना कि उसे समाधि मिली। भीतर
मिलती है समाधि, बाहर करुणा की गंध उड़ती है। भीतर जलता है
समाधि का दीया और बाहर करुणा की रोशनी फैलती है।
यही बात मोहम्मद अपने सीधे-सादे ढंग से कह
रहे हैं कि वह जो परमात्मा है, वह जो अव्वल है, वह जो
पहले है और आखिरी; जिसका कोई नाम नहीं, लेकिन फिर भी जिसको नाम देना होगा, नहीं तो हम कैसे
उसका स्मरण करें, वह निहायत रहमवाला मेहरबान है। वह महाकरुणा
है।
और इसमें इस बात की भी उदघोषणा है कि भयभीत
न होओ अपनी गल्तियों से,
उसकी करुणा तुम्हारी गल्तियों से बहुत बड़ी है! डरो न अपने पापों से,
नाहक के पश्चात्ताप में मत पड़ो तुम आदमी हो, भूल-चूक
स्वाभाविक है, लेकिन भूल-चूक को तूल मत दो, तिल का ताड़ न बनाओ!
अक्सर तथाकथित धार्मिक व्यक्ति तिल के ताड़
बना लेते हैं। छोटी सी भूल को भी बहुत गुब्बारे की तरह फुलाते चले जाते हैं। छोटी
सी भूल को भी बड़ा कर के दिखाने लगते हैं। उसमें भी अहंकार है।
अगस्तीन की प्रसिद्ध किताब है:
"कन्फेशंस'। अपने पापों का प्रायश्चित है। अगस्तीन की इस किताब के बाद एक सिलसिला
शुरू हुआ कि लोगों ने अपने पापों के प्रायश्चित लिखने शुरू कर दिए। टालस्टाय ने
लिखे, महात्मा गांधी ने लिखे। और मेरी प्रतीति है कि इन सबने
बहुत बढ़ा-चढ़ा कर लिखे। छोटे-छोटे पापों को भी खूब बढ़ा-चढ़ा कर लिखा। पीछे कारण हैं।
तुमने अकबर और बीरबल की कहानी सुनी है। अकबर
ने एक दिन दरबार में आ कर दीवाल पर एक लकीर खींच दी और अपने दरबारियों से कहा कि
एक लाख स्वर्ण-अशर्फियां उसे भेंट करूंगा जो इस लकीर को बिना छुए छोटा कर दे। अब
बिना छुए कौन लकीर छोटा करे, कैसे करे? बहुत सिर पचाया
लोगों ने, बड़ा सोचा-विचारा, पसीना-पसीना
हो गए! एक लाख स्वर्ण-अशर्फियां तो सभी चाहते थे, मगर बिना
छुए छोटी कर दो! और तब बीरबल उठा और उस लकीर के नीचे एक बड़ी लकीर खींच दी। उस लकीर
को छुआ भी नहीं और लकीर छोटी हो गई। एक लाख स्वर्ण-अशर्फियां उसने अपने बस्ते में
बंद कीं और घर की तरफ चल पड़ा, उसने धन्यवाद भी नहीं दिया
अकबर को। धन्यवाद देने की जरूरत भी नहीं थी। उसने काम कर के दिखा दिया था। लकीर को
छुआ नहीं और छोटा कर दिया।
यही राज है इन तथाकथित प्रायश्चित के नाम पर
बढ़ा-चढ़ा कर लिखे गए पापों में। पहले पाप को बड़ा कर के दिखाओ, तो फिर
तुम्हारा पुण्य भी उसी अनुपात में बड़ा हो जाता है। फिर पुण्य की लकीर खींचो। तो
छोटा पाप होगा तो पुण्य भी छोटा ही होगा। अगर बड़ा पाप होगा तो पुण्य भी बड़ा होगा।
इस गणित को समझ लेना।
तुमने अगर दो पैसे की चोरी की और चोरी का
त्याग कर दिया,
तो लोग कहेंगे, क्या खाक त्याग किया! अरे,
दो पैसे की चोरी की--पहले तो चोरी भी की तो कुछ ढंग की न की--और
त्याग भी दिया तो क्या त्याग दिया, दो ही पैसे न! दो अरब की
चोरी करते, तो दो अरब का त्याग होता। फिर त्याग बड़ा होता,
क्योंकि चोरी बड़ी होती!
इसीलिए तो जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजपुत्र
हैं। कोई गरीब तीर्थंकर नहीं हो सका। कैसे हो? क्योंकि त्याग कसौटी है।
राजपुत्रों के पास त्यागने को कुछ है, गरीबों के पास त्यागने
को क्या है? गरीब छोड़ेगा भी तो क्या छोड़ेगा! था ही क्या?
लोग पूछेंगे, एक झोपड़ा था घास-फूस का, उसे छोड़ भी दिया तो क्या छोड़ दिया! राजमहल चाहिए, स्वर्ण-महल
चाहिए, तब त्याग का कोई मूल्य है!
बुद्ध भी राजपुत्र हैं। कृष्ण और राम भी
राजपुत्र हैं। हिंदुओं के अवतार, जैनों के तीर्थंकर, बौद्धों
के बुद्ध, सब राजपुत्र हैं।
इस दृष्टि से इस्लाम ने और ईसाइयत ने एक
बहुत बड़ी क्रांति की। उस क्रांति का ठीक-ठीक मूल्यांकन नहीं हुआ है। इस्लाम और
ईसाइयत ने पहली बार दो साधारणजनों को ईश्वर का पैगंबर घोषित किया। जीसस एक बढ़ई के
बेटे थे। अत्यंत दीन-हीन वर्ग से। मोहम्मद भी गरीब घर से आए थे, भेड़-बकरियां
चराते रहे थे, चरवाहे थे।
इस्लाम ने और ईसाइयत ने दुनिया को एक तो
बहुत बड़ा दान दिया है। इन्होंने पहली बार धर्म को राजाओं के घेरे से मुक्त किया।
इन्होंने पहली बार कहा कि धर्म पर कोई बपौती नहीं है धन वालों की। गरीब भी चाहे, अभीप्सा
करे, तो परमात्मा उसका भी हो सकता है। इस्लाम और ईसाइयत का
इतना व्यापक प्रचार जो दुनिया में हुआ, उसके पीछे यही कारण
है। सर्वहारा को, दीन-हीन को यह बात रुचिकर लगी, उसके निकट की लगी।
हिंदू धारणा राजाओं से बंधी धारणा है। जैन
धारणा भी राजाओं से बंधी धारणा है। उसमें एक तरह का आभिजात्य है, "अरिस्ट्रोक्रेसी'
है। और "अरिस्ट्रोक्रेसी' के दिन लद गए,
आभिजात्य के दिन लद गए! यह तो सर्वहारा का युग है। तो अगर सारी
दुनिया में आधी दुनिया ईसाई हो गई तो कुछ आश्चर्य नहीं है। और ईसाइयत के बाद नंबर
आता है इस्लाम का। यह कोई आश्चर्य नहीं है। यह बिलकुल स्वाभाविक फिर, इनकी भाषा गरीब की भाषा है। इनकी भाषा अत्यंत दीन-हीन की भाषा है।
पश्चात्ताप को भी लोग बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं।
अहंकार बड़ा अदभुत है! अहंकार पाप भी करे तो बड़ा करता है, छोटा नहीं
करता। छोटा पाप अहंकार को जंचता नहीं। और न भी किया हो बड़ा पाप, तो कम से कम अपनी आत्मकथा में तो बड़ा पाप लिख ही सकते हो। पहले महापापी
अपने को सिद्ध करो और फिर त्याग, व्रत, उपवास...तो महात्मा हो जाओगे। लेकिन अगर महापापी नहीं हो, तो महात्मा कैसे होओगे?
इसलिए मेरे देखे अगस्तीन, टालस्टाय,
गांधी, इन तीनों की आत्मकथाओं में बहुत-सी
बातें झूठ हैं। यद्यपि महात्मा गांधी कहते हैं कि ये सत्य के प्रयोग हैं, मगर इसमें बहुत झूठ है। यह पापों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर लिखा गया है। जिन
पापों में कोई मुद्दा नहीं है, उनको यूं बढ़ाया है जिसका
हिसाब नहीं। उनको इतना बड़ा कर दिया है! क्योंकि फिर उन्हीं के अनुपात में पुण्य भी
बड़े होंगे। इतने बड़े पाप त्यागे! इस्लाम की घोषणा है: तुम्हारे पाप कितने ही बड़े
हों, परमात्मा की करुणा उससे बहुत ज्यादा बड़ी है!
"रहमानिर् रहीम'। वह निहायत रहमवाला है; रहीम है, मेहरबान है, रहमान है। तुम अपने पश्चात्तापों में न
उलझो। तुम अपने घावों को नाहक न कुरेदो! इसलिए इस्लाम पश्चात्ताप नहीं सिखाता।
ईसाइयत में पश्चात्ताप का मूल्य है, मगर इस्लाम में
पश्चात्ताप का कोई मूल्य नहीं है।
और मैं इस बात को कीमत देता हूं।
पश्चात्ताप एक तरह की रुग्ण-अवस्था है। यह
अपने घावों को कुरेदना है। और जो अपने घावों को कुरेदते रहता है, वह घावों
को भरने नहीं देता। वह उनको हरे रखता है, लहूलुहान रखता है।
फिर-फिर कुरेद लेता है। यह एक तरह की रुग्ण दशा है। अपने घाव को भरने दो! क्या
पीछे लौट-लौट कर देखना है!
इस्लाम कहता है: परमात्मा की करुणा अनंत है।
तुम उसकी करुणा का भरोसा करो।
लेकिन इस्लाम के कहने का ढंग बहुत सीधा-सादा
है।
"(ऐ पैगंबर, लोग तुम्हें खुदा का बेटा कहते हैं, और तुमसे हाल
खुदा का पूछते हैं, तो तुम उनसे) कहो कि वह अल्लाह एक है।'
हिंदुओं के तैंतीस करोड़ देवी-देवता हैं। यूं
समझो कि जितने आदमी थे,
उतने ही देवी-देवता। हर आदमी की अपनी देवी, अपना
देवता। और इसलिए कभी भी यह देश इकट्ठा नहीं हो सका। खंडित होना इसकी किस्मत हो गई।
क्योंकि इसका ईश्वर तक इकट्ठा नहीं हो सका, आदमियों की तो
बात छोड़ दो! इसके ईश्वर की धारणा भी इकट्ठी नहीं हो सकी, तो
यहां हर चीज खंडित हो गई है।
बुद्ध मरे और उनके मरने के बाद बत्तीस
संप्रदाय हो गए।
जैनों के महावीर गए कि तत्क्षण जैन खंडों
में टूट गए, छोटे-छोटे संप्रदाय बन गए। पहले दो संप्रदाय बने, फिर
दो में से बीस खड़े हो गए।
और हिंदुओं का तो कुछ हिसाब ही करना मुश्किल
है! हिंदुओं को तो एक धर्म पूज रहा है, कोई हनुमान जी को पूज रहा है,
कोई शिव जी को, कोई राम को, कोई कृष्ण को--और जिसकी जो मर्जी! कोई झाड़ों को, कोई
पत्थरों को, कोई नदियों को।
इस्लाम ने एक सीधी-साफ बात कही: परमात्मा एक
है। इस विचार का परिणाम महत्वपूर्ण हुआ। अगर परमात्मा एक है, तो उसके
मानने वालों को भी एक होने की सुविधा हो गई, खंडित होने की
वृत्ति छूट गई।
इस देश में तो खंडित होने की इतनी वृत्ति है
कि जो धर्मों के साथ हुआ,
वही अब राजनीति के साथ हो रहा है। एक-एक पार्टी खंडित होती जाती है,
छोटे-छोटे टुकड़ों में टूटती जाती है। देश प्रदेशों में टूटा हुआ है,
प्रदेश भी अपने जिलों में टूटे हुए हैं। और हर एक की अपनी जिद है,
अपना आग्रह है। यह हमारी जो धार्मिक चिंतना रही है, उस चिंतना में कहीं दोषपूर्ण बात है। यूं तो हम कहते रहे ऊंची बातें,
लेकिन उन ऊंची बातों के लिए हमने कोई बुनियादी ठोस आधार न दिए।
इस्लाम ने एक तो अनुदान दिया जगत को कि
परमात्मा एक है। इसलिए बहुत प्रतिमाओं की जरूरत नहीं है, प्रतिमाओं
की ही जरूरत नहीं है, क्योंकि तुम प्रतिमा बनाओगे तो अनेक हो
जाएंगी। फिर लोग अपने-अपने ढंग से प्रतिमा बनाएंगे। किसी के चार हाथ होंगे।
प्रतिमा बनी, परमात्मा को तुमने रूप दिया कि तुमने खंडन शुरू
कर दिया। परमात्मा निराकार है। तुम पुकारो! परमात्मा एक भाव की दशा है। तुम उस भाव
की दशा में एक हो जाओ, तल्लीन हो जाओ। परमात्मा सागर है। तुम
उसमें विलीन हो जाओ।
"(ऐ पैगंबर, लोग तुम्हें खुदा का बेटा कहते हैं और तुमसे हाल खुदा का पूछते हैं,
तो तुम उनसे) कहो कि वह अल्लाह बेनियाज़ है (उसे किसी की भी गरज
नहीं)।'
उसे किसी की भी जरूरत नहीं है। वह स्वयंभू
है। तुम उसे मानते हो या नहीं मानते हो, उससे कुछ भेद नहीं पड़ता। तुम उसके
साथ हो या उससे विपरीत हो, कुछ भेद नहीं पड़ता। तुम आस्तिक हो
या नास्तिक हो, कुछ भेद नहीं पड़ता। वह बेनियाज़ है। उसकी करुणा
तुम पर बरसती ही रहेगी। तुम साधु हो, असाधु हो, कुछ भेद नहीं पड़ता। उसकी करुणा में कोई कंजूसी नहीं होगी। वह तुम पर
निर्भर नहीं है। वह तुम्हारी पात्रता की भी पूछताछ नहीं करता। वह तुम्हारी योग्यता
का भी हिसाब नहीं रखता। अगर तुम उसे लेने को राजी हो तो वह हमेशा तुम्हारे भीतर
प्रवेश करने को तैयार है। वह तुम्हारे द्वार पर खड़ा द्वार खटखटा रहा है। तुम्हीं
उसे भीतर न बुलाओ तो तुम्हारी मर्जी अन्यथा वह हर घर में आने को राजी है।
एक सूफी फकीर को हमेशा की आदत थी कि अकेला
भोजन नहीं करता था। किसी को निमंत्रण दे देता था, बुला लाता था। मगर एक दिन
ऐसा हुआ कि बहुत खोजा लेकिन कोई मिला ही नहीं। या तो लोग भोजन कर चुके थे या लोग
भोजन करने जा रहे थे या कहीं निमंत्रित थे, कोई राजी ही न
हुआ आने को। और अकेला उसे भोजन करना नहीं। वह तो साथ में ही भोजन करेगा, बांट कर ही भोजन करेगा। तो उसने सोचा, फिर आज भूखा
ही रहना होगा। तभी द्वार पर एक बूढ़े आदमी ने दस्तक दी और उसने कहा कि मैं बहुत
भूखा हूं, क्या कुछ खाने को मिल सकेगा?
उसने कहा, मेरे धन्यभाग! आओ, मैं प्रतीक्षा ही कर रहा था। जरूर तुम्हें परमात्मा ने ही भेजा होगा। उसकी
करुणा अपरंपार है। उसने देखा होगा कि मैं भूखा...।
मेहमान को बिठाया, दस्तरखान
लगाया, भोजन रखा और मेहमान भोजन शुरू करने ही जा रहा था कि
उस फकीर ने देखा--अरे, इसने अल्लाह का नाम ही नहीं लिया।
भोजन के पहले अल्लाह का नाम तो लेना चाहिए, प्रार्थना तो
करनी चाहिए। उसने उसका हाथ पकड़ लिया इसके पहले कि कौर मुंह में जाए, उसने कहा, रुको! अल्लाह का नाम नहीं लिया?
उस आदमी ने कहा कि मैं अल्लाह इत्यादि में
भरोसा नहीं करता। कोई ईश्वर नहीं है। तो मैं क्यों नाम लूं?
तो सूफी फकीर ने कहा, फिर भोजन
न कर सकोगे!
और कहानी कहती है--तभी अल्लाह की आवाज सुनाई
पड़ी कि अरे पागल,
मैं इस आदमी को सत्तर साल से भोजन दे रहा हूं और इसने एक भी बार
मेरा नाम नहीं लिया, और तू एक ही दिन में शर्त लगाने लगा!
तुमने इसका बढ़ा हुआ हाथ पकड़ लिया! यह भूखा बूढ़ा! भोजन भी तूने शर्तबंदी से...!
भोजन में भी शर्त लगा दी! प्रेम की कोई शर्त होती है! तुझे अनुगृहीत होना चाहिए कि
यह तेरा निमंत्रण स्वीकार किया। अनुग्रह तो दूर रहा, तू इस
पर शर्त थोपने लगा! तुझसे तो यह बूढ़ा बेहतर है। यह भूखा रहने को राजी है, लेकिन अपने उसूल के खिलाफ जाने को राजी नहीं है। और जिसको मैं सत्तर साल
से भोजन करा रहा हूं, तू एक दिन उसे भोजन नहीं करा सकता?
फकीर उस बूढ़े के चरणों पर गिर पड़ा। कहा, आप भोजन
करें; मेरी भूल थी। धर्म के नाम पर शर्त नहीं लगाई जा सकती
है।
परमात्मा बेशर्त है। उसकी कृपा और करुणा
तुम्हारी किसी योग्यता के कारण नहीं होती। उसकी करुणा उसका स्वभाव है।
"बिस्मिलाहिर् रहमानिर् रहीम।'
यह उसका स्वभाव है--रहमान होना, रहमान होना,
रहीम होना। तुम्हारा सवाल नहीं है, यह उसका
स्वभाव है। गुलाब का फूल गुलाब की गंध देगा, और जुही का फूल
जुही की गंध देगा। जुही की फूल इसकी फिक्र नहीं करता कि पास से जो निकल रहा है,
वह पात्र है या नहीं। सूरज निकलेगा तो रोशनी होगी--आस्तिक के लिए भी
और नास्तिक के लिए भी; साधु के लिए भी, असाधु के लिए भी। वह सूरज का लक्षण है। वह कुछ शर्त नहीं करता कि नास्तिक
के लिए अंधेरा रहेगा और आस्तिक के लिए दिन हो जाएगा।
परमात्मा का स्वभाव है करुणा।
इस्लाम की यह बहुत बड़ी अनुभूति है। मोहम्मद
का यह मनुष्य के विकास में गहरा अनुदान है।
सदा से हमने ऐसा सोचा है, हमारे
कर्मों के फल के अनुसार उपलब्धि होती है। यह अगर ठीक से समझो तो अहंकार की ही
घोषणा है। मैं अगर अच्छे कर्म करूंगा, तो मुझे पुण्य मिलेगा;
अगर बुरे कर्म करूंगा तो पाप मिलेगा। अच्छे कर्म करूंगा तो स्वर्ग
जाऊंगा, बुरे कर्म करूंगा तो नर्क जाऊंगा। जोर "मैं'
पर है। मैं जो करूंगा! कर्ता पर जोर है। और इसका ही यह परिणाम हुआ,
इस जोर का यह अंतिम तार्किक निष्कर्ष हुआ कि जैनों ने ईश्वर को
इनकार ही कर दिया। ईश्वर की जरूरत ही क्या रही! अगर ठीक से समझो तो तो कर्म के
सिद्धांत में ईश्वर की कोई जरूरत नहीं रह जाती। हिंदुओं का दृष्टिकोण इस लिहाज से
तर्क-विरुद्ध है। या तो इस्लाम ठीक है या जैन ठीक हैं।
इस्लाम कहता है: उसकी करुणा। हमारे कृत्य का
सवाल नहीं है। हमने क्या किया, इसका हिसाब नहीं है। उसकी करुणा।
और जैन कहते हैं: हमने जो किया उसका हिसाब
है। अच्छा किया तो अच्छा,
बुरा किया तो बुरा। अच्छा बोया तो अच्छा काटेंगे, बुरा बोया तो बुरा काटेंगे। फसल हमारे कर्मों की है। इसलिए परमात्मा की
कोई जरूरत ही नहीं है। परमात्मा क्या करेगा? जिसने बुरा काम
किया है, उसको स्वर्ग नहीं भेज सकता। और जिसने अच्छा काम
किया, उसको नर्क नहीं भेज सकता। परमात्मा निहायत गैरजरूरी हो
जाता है।
और हिंदू इन दोनों के बीच में खड़े हैं। वे
कर्म का सिद्धांत भी मानते हैं और परमात्मा को भी मानते हैं। मेरे हिसाब में या तो
जैन तार्किक रूप से ठीक हैं, कि कर्म का सिद्धांत सही है तो परमात्मा की कोई
जरूरत न रही; या फिर इस्लाम सही है, कि
अगर कर्म का सिद्धांत सही नहीं है, तो ही परमात्मा है। जोर
बदल गया--"मैं' पर जोर।
इसलिए जैन मुनि को तुम जितना अहंकारी पाओगे, उतना किसी
दूसरे धर्म के साधु को नहीं पाओगे। स्वाभाविक है वह अहंकार। क्योंकि उसकी सारी
चिंतना अहंकार-केंद्रित है। मेरा कृत्य! मेरी साधना! मेरा उपवास! मेरा व्रत! मेरी
तपश्चर्या! सब के बीच में "मैं' है। और जितना तुम
विनम्र सूफी फकीर को पाओगे, उतना विनम्र तुम किसी फकीर को
कभी नहीं पाओगे। न बौद्धों के फकीर, न हिंदुओं के फकीर,
न जैनों के फकीर--किसी को तुम इतना विनम्र नहीं पाओगे जितना सूफी
फकीर को। कारण? अपना तो कुछ भी नहीं है, है तो उसकी करुणा!
तजल्ली रुए-जानां की...
तजल्ली रुए-जानां की सही भाषा में कुदरत की
किताबे हुस्न का मैंने यही उन्वान रक्खा है:
वो दोनों कुहनियां टेके हैं और चेहरा है
हाथों पर...
वो दोनों कुहनियां टेके हैं और चेहरा है
हाथों पर
कोई देखे तो समझे कि रहल पर कुर-आन रक्खा है
तेरा हुस्न मेरी निगाह में बखुदा, खुदा की
किताब है...
तेरा हुस्न मेरी निगाह में बखुदा, खुदा की
किताब है
तेरी बंदगी तो अलग रही, तुझे
देखना भी शराब है
तेरी बंदगी तो अलग रही,...
तेरी बंदगी तो अलग रही, तुझे
देखना भी शराब है
बाद में बांधा है सहरा सरफराजी के लिए
जिंदगी दुल्हन बनी है तेरे गाजी के लिए
एक ही जुनून है तू हो नजर के सामने
ऐसा करना चाहिए ऐसे नमाजी के लिए
तुझे देखना भी शराब है...
तुझे देखना भी शराब है...
तेरी बंदगी तो अलग रही, तुझे
देखना भी शराब है
तेरी आरजू है तेरा इंतकाब है...
तेरी आरजू है तेरा इंतकाब है
जिसके जमाले-नाज से हुस्न-ओ शबाब है
मैं क्यूं न अपने इश्क का हासिल कहूं
तुझे...
मैं क्यूं न अपने इश्क का हासिल कहूं तुझे
दावा है आस्मानों का तू लाजवाब है
तुझे देखना भी शराब है...
तुझे देखना भी शराब है...
तेरी बंदगी तो अलग रही, तुझे
देखना भी शराब है
रिवायत...
रिवायत मैं अभी भूला नहीं मंसूर-ओ-सरमद
की...
रिवायत मैं अभी भूला नहीं मंसूर-ओ-सरमद की
लगा रक्खा है सीने से तमन्नाए शहादत को
तरस कर रह गईं हैं मेरी नजरें तेरी सूरत
को...
तरस कर रह गईं हैं मेरी नजरें तेरी सूरत
को...
उठा दे रुख से पर्दा...
उठा दे रुख से पर्दा ये सरे जीशान हाजिर है
ये दिल हाजिर है, मैं हाजिर
हूं, मेरी जान हाजिर है...
ये दिल हाजिर है, मैं हाजिर
हूं, मेरी जान हाजिर है
उठा दे रुख से पर्दा...
उठा दे रुख से पर्दा, देख: मेरी
जान हाजिर है
उठा दे रुख से पर्दा..
मुझे मंजूर है...
मुझे मंजूर है सर मेरा देरे दार हो जाए
मगर इतनी तमन्ना है तेरा दीदार हो जाए
उठा दे रुख से पर्दा, देख: मेरी
जान हाजिर है
मुझे मंजूर है सर मेरा देरे दार हो जाए
मगर इतनी तमन्ना है तेरा दीदार हो जाए
उठा दे रुख से पर्दा...
उठा दे रुख से पर्दा...
तेरी बंदगी तो अलग रही, तुझे
देखना भी शराब है
होकर रूपोश...
होकर रूपोश न दिल तोड़ तमन्नाई का...
होकर रूपोश न दिल तोड़ तमन्नाई का...
हौसला पस्त न कर अपने तू शैदाई का
हौसला पस्त न कर...
हौसला पस्त न कर अपने तू शैदाई का
हम भी बांधेंगे तेरे इश्क में अहरामे
जुनूं...
हम भी बांधेंगे तेरे इश्क में अहरामे
जुनूं...
हम भी देखेंगे तमाशा तेरी लैलाई का
हम भी देखेंगे तमाशा तेरी लैलाई का...
होकर रूपोश न दिल तोड़ तमन्नाई का
हौसला पस्त न कर अपने तू शैदाई का
हम भी बांधेंगे तेरे इश्क में अहरामे जुनूं
हम भी देखेंगे तमाशा तेरी शैदाई का
उठा दे रुख से पर्दा...
उठा दे रुख से पर्दा...
तेरी बंदगी तो अलग रही, तुझे
देखना भी शराब है
ऐ जाने मन...
ऐ जाने मन
ऐ गुलबदन
ऐ जाने मन...
ऐ गुलबदन
ऐ रूहे-चमन
ऐ सुल्ताने मन
ऐ रहमाने मन
ऐ शाहे खूबां
ऐ जाने जानां
उठा दे रुख से पर्दा,...
उठा दे रुख से पर्दा,...
उठा दे रुख से पर्दा,...
ऐ जाने मन
ऐ गुलबदन
ऐ रूहे चमन
ऐ सुल्ताने मन
ऐ रहमाने मन
ऐ शाहे खूबां
ऐ जाने जानां
उठा दे रुख से पर्दा, तुझे
देखना भी शराब है
तेरी बंदगी तो अलग रही, तुझे
देखना भी शराब है
ऐ दोस्त...
ऐ दोस्त आ भी जा कि मेरा दिल उदास है...
ऐ दोस्त आ भी जा कि मेरा दिल उदास है
जल्वा मुझे दिखा...
जल्वा मुझे दिखा कि मेरा दिल उदास है
ऐ दिल नवाज़ प्यार की तस्वीर बन के आ...
ऐ दिल नवाज़ प्यार की तस्वीर बन के आ
उल्फत का वास्ता मेरी तकदीर बन के आ...
ऐ दिल नवाज़ प्यार की तस्वीर बन के आ
उल्फत का वास्ता मेरी तकदीर बन के आ
दामाने इश्क फैला है खैरात के लिए...
दामाने इश्क फैला है खैरात के लिए
बेचैन हूं मैं तेरी मुलाकात के लिए
उठा दे रुख से पर्दा, तुझे
देखना भी शराब है
उठा दे रुख से पर्दा,...
तेरी बंदगी तो अलग रही, तुझे
देखना भी शराब है
इतना सिला...
इतना सिला तो प्यार का ऐ दिलनवाज़ दे
हुस्ने करम से अपने मुझे भी नवाज़ दे
तू मेरे दिल के शौक का परवरदिगार है
अब आ जा कि मुझे तेरा इंतजार है
जो खफा न हो तो मैं ये कहूं...
जो खफा न हो तो मैं ये कहूं
मेरा इश्क है तेरा आइना
जिसे तू समझता है दिलबरी
वो मेरी नजर का शबाब है
यही रस्मे-राजो-नियाज है...
यही रस्मे-राजो-नियाज है
मैं खता करूं तू करम करे...
मैं खता करूं तू करम करे
न मेरी खता का जवाब है
न तेरे करम का हिसाब है
मैं खता करूं तू करम करे
न मेरी खता का जवाब है
न तेरे करम का हिसाब है
तुझे देखना भी शराब है,...
तेरी बंदगी तो अलग रही, तुझे
देखना भी शराब है
इस्लाम की देनगियों में से एक देनगी है कि न
तो मेरे पापों का कोई जवाब और न तेरे करम का; न तेरे रहम का; न तेरी करुणा का। मैं लाजवाब हूं गलतियां करने में और तू लाजवाब है क्षमा
कर देने में। इसलिए पश्चात्ताप का इस्लाम में कोई स्थान नहीं है। क्या पीछे लौट कर
देखना? क्या की गईं भूलों की बार-बार सोचना-विचारना? सच तो यह है कि जिन भूलों को तुम बार-बार पछताते हो, पछताने के कारण और उनको मजबूत कर लेते हो। क्योंकि जितनी तुम अपने चित्त
में पुनरुक्ति करते हो, उतने ही आत्म-सम्मोहित होते चले जाते
हो। तुम फिर-फिर वही करोगे। लाख तय करो कि अब क्रोध न करूंगा, और जितना तुम तय करोगे कि क्रोध न करूंगा, उतना ही
क्रोध तुम करोगे। क्योंकि तुम्हारे तय करने में अहंकार बैठा है।
और अहंकार ही क्रोध का कारण है; जरा इस
रहस्य को समझने की कोशिश करना।
क्रोध करता कौन है? तुम नहीं
करते हो, अहंकार। अहंकार क्रुद्ध हो जाता है। और अहंकार ही
पश्चात्ताप करता है। और अहंकार ही करता है--यह मैंने क्या कर लिया? और क्यों कहता है अहंकार? इसलिए कहता है कि जब पीछे
से तुम सोचते हो कि मैंने यह क्या किया, लोग क्या कहेंगे!
मेरी प्रतिष्ठा थी, एक प्रतिमा थी, खंडित
हो गई। अब तक लोग कहते थे कि मैं कितना शांत; अब तक लोग कहते
थे मैं कितना विनम्र; अब क्या कहते होंगे? यह मैंने क्या कर लिया?! जरा सी बात थी, मैंने क्यों इतनी सी बात के लिए इतना उपद्रव मचा दिया? अब तुम अहंकार को फिर से खड़ा कर रहे हो--जो गिर गया। जो प्रतिमा खंडित हो
गई, उसको फिर जोड़ रहे हो। अब तुम पश्चात्ताप करोगे। तुम
क्षमा मांगोगे। जैन-धर्म में क्षमा मांगने का बड़ा महत्व है। पर्यूषण पर्व के
बाद--"मिच्छामि दुक्कणम्'! क्षमा करो! और कुछ फर्क पड़ता
नहीं, वही के वही आदमी, वही का वही काम
फिर करेंगे, हर साल फिर क्षमा मांगेंगे। तो पिछली साल की
क्षमा का क्या हुआ? मांग ली एक दफा, बात
खतम हो गई थी, फिर दोबारा कैसे भूलें कीं? अब काहे के लिए क्षमा मांग रहे हो? और यह तो तुम
हमेशा से कर रहे हो, हर साल कर रहे हो। यह गोरख-धंधा बंद
करो! भूल करनी हो भूल करो, क्षमा मांगनी हो क्षमा मांगो,
मगर दोनों क्यों चला रहे हो!
लेकिन गहरा राज है। वह क्षमा मांगना फिर से
क्रोध करने का,
फिर से भूल करने का उपाय है। यूं जैसे कि गंगा में गए, स्नान कर लिया, पाप धुल गए, अब
फिर मजे से करो! अब क्या है डर! अब तो साफ-सुथरे, पाक हो कर
आ गए! बिलकुल पाकिस्तानी हो कर आ गए गंगा में स्नान कर के! अब क्या है, अब दिल खोल कर करो! और फिर अगली साल जा कर नहा आना! अरे, गंगा कोई भागी थोड़े ही जा रही है! और फिर जो बहुत होशियार हैं, उन्होंने और-और नदियां बना ली हैं--नर्मदा है, गोदावरी
है; कोई गंगा ही जाना जरूरी है! और जो और बहुत होशियार हैं,
वे कहते हैं: दिल चंगा तो कठौती में गंगा! अरे, कहां जा रहे हो? यहीं घर की कठौती,...हर-हर महादेव!...यहीं अपना गंगा हो गई, खत्म हो गया!
रोज अपना सुबह धो लिया; दिन भर किया, फिर
सुबह धो लिया। सो मरते वक्त जैसे कबीर कह गए, तुम भी धर देना
अपनी चदरिया: ज्यों की त्यों धरि दीन्ही चदरिया! क्योंकि रोज-रोज तो धोई, कठौती में गंगा थी!
इस्लाम में पश्चात्ताप के लिए जगह नहीं है।
क्योंकि पश्चात्ताप भी अहंकार है। पश्चात्ताप अहंकार की पुनर्स्थापना है। और जिस
अहंकार से क्रोध हुआ,
पाप हुआ, उसकी पुनर्स्थापना कर रहे हो;
उसको फिर सजावट दे रहे हो; फिर उसको इंजेक्शन
दे रहे हो दवा का कि फिर उसमें बल आ जाए,
फिर प्राण आ जाए। फिर बी विटामिन की गोलियां उसको खिला रहे हो! वह
और अकड़ कर खड़ा हो जाएगा। अब की बार और बड़ा पाप करेगा। क्योंकि उसको राज भी हाथ लग
गया कि क्षमा मांग ली, बात खतम हो जाती है। सस्ता नुस्खा!
एक देहाती पहली दफा एम. पी होकर दिल्ली
पहुंच गया, पार्लियामेंट में। सीधा-सादा देहाती आदमी...और पार्लियामेंट तो तुम हमारी
समझ ही लो, कि सब छंटे हुए पागल वहां इकट्ठे हैं...सो दृश्य
देख कर वह बहुत चौंका। उसकी समझ में ही न आया कि पार्लियामेंट में आया है या किसी
सर्कस में आ गया है, कि किसी पागलखाने में आ गया है। और एक
और मजे की बात, कि हर कोई उसे हुद्दा-हुद्दी करे! कोई भी
धक्का मार दे और धक्का मार कर कहे--"सारी'! यह भी मजा
है! जो भी धक्का मारे, कोई उसके पैर पर पैर रख दे और कह
दे--"सारी'! यह भी एक मजा है, बस
बात खतम! सो फिर उसने भी देखा आव न ताव और एक चांटा एक एम. पी. को लगाया और
कहा--"सारी'! जो देखो वही धक्का मार रहा है--और बस इतना
ही कहना पड़ता है, मामला खतम, फिर कुछ
आगे बात चलती नहीं, फिर धक्का मारने को स्वतंत्र।
तुम जरा अपनी जीवन की शैली को देखो! धक्के
भी मारे जाते हो,
क्षमा भी मांगते चले जाते हो। और क्षमा मांग कर फिर धक्का मारते हो।
इस सबके पीछे एक कारण है: तुमने अपने को कर्ता मान रखा है।
इस्लाम कहता है: कर्ता तो सिर्फ परमात्मा
है। जो वह करवा रहा है,
हम कर रहे हैं; क्या पश्चात्ताप? क्या पाप, क्या पुण्य?
ऐसा जिसने अपने को समर्पित किया हो, वही समझ
पाएगा उसकी करुणा को। समर्पण में ही उसकी करुणा से संबंध जुड़ जाता है।
"ऐ पैगंबर, लोग तुम्हें खुदा का बेटा कहते हैं..., कुल हुवल्लाह
अहद। अल्लाहुस्समद।...और वे तुमसे खुदा का हाल पूछते हैं, तो
तुम उनसे कहो कि वह अल्लाह एक है और अल्लाह बेनियाज है।' उसे
तुम्हारे मानने की कोई जरूरत नहीं है, कि तुम उस पर आस्था
करो। वह तुम्हारी आस्था पर निर्भर नहीं है। न तुम्हारे पुण्यों पर निर्भर है। न
तुम्हारी प्रार्थनाओं की उसे कोई आवश्यकता है। न तुम्हारी स्तुतियों से कुछ
प्रयोजन है। उसे किसी की कोई जरूरत नहीं है। वह स्वयंभू है।
"न उसका कोई बेटा है'।
और ध्यान रखना,...मोहम्मद
को अंतर्वाणी कह रही है कि ध्यान रखना,..."न उसका कोई
बेटा है और न वह किसी से पैदा हुआ है।' यह अस्तित्व किसी से
पैदा नहीं हुआ है। यह सदा से है और सदा होगा। यह पैदा होने की बात ही मूढ़तापूर्ण
है। यह धारणा कि कभी परमात्मा ने जगत को बनाया, एक दूसरी
गलती को जन्म देती है। तब सवाल उठने लगता है कि फिर परमात्मा को किसने बनाया?
क्योंकि जो लोग यह दलील देते हैं कि परमात्मा ने जगत को बनाया,
उनके दलील देने का कारण क्या होता है, दलील का
आधार क्या होता है? दलील का आधार यह होता है कि कोई भी चीज
बिना बनाई नहीं हो सकती, किसी ने बनाई होगी। यही तो उनकी
दलील का आधार होता है। इतना विराट अस्तित्व--किसी ने जरूर बनाया होगा--हो कैसे
सकता है! इतना जटिल, इतना सूक्ष्म, और
इतना सुसंबद्ध चल रहा है सारा व्यापार विश्व का, जरूर इसके
पीछे कोई चलाने वाला होगा!
नास्तिक कहता है, "ठीक!
स्वीकार करते हैं। फिर हम पूछते हैं कि परमात्मा ने जगत बनाया तो परमात्मा को
किसने बनाया?' तुम्हारा ही तर्क है। जब जगत तक को बनाने के
लिए परमात्मा की जरूरत है, तो परमात्मा तो और जटिल, और भी सूक्ष्म; उनको किसी ने बनाया? और वहीं तुम्हारी आस्तिकता घुटने टेक देती है और तुम को कहना पड़ता
है--"उसको किसी ने नहीं बनाया।' अगर यही बात है कि उसको
किसी ने नहीं बनाया, तो फिर अस्तित्व को ही बनाने की क्या जरूरत है? तुम्हारा तर्क ही गलत हो गया। तुम बेईमानी कर रहे हो। या तो तर्क न दो
ऐसा। और तर्क देते हो तो फिर तर्क की पूरी निष्पत्ति पर जाओ। अस्तित्व और परमात्मा
दो नहीं हैं--एक ही हैं। परमात्मा अस्तित्व का ही प्रेमपूर्ण नाम है। जिन्होंने
अस्तित्व को प्रेम की नजर से देखा है, उनके लिए
"परमात्मा', और जिन्होंने अस्तित्व को सिर्फ तर्क की
नजर से देखा है, उनके लिए "अस्तित्व'। मगर बात एक ही है। अस्तित्व तो वही है, चाहे तुम
प्रेम की नजर से देखो और चाहे तर्क की नजर से देखो। बुद्धि से देखो तो प्रकृति और
हृदय से देखो तो परमात्मा।
न तो यह किसी से पैदा हुआ है और न यह किसी
को पैदा करता है। "उसका कोई बेटा नहीं है। और न कोई उसकी बराबरी का है।' क्योंकि
उसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं, तो कोई बराबरी का कैसे होगा?
वही है। अकेला है। एक है। कोई दूजा है नहीं। तुलना का कोई उपाय नहीं
है। न उससे कोई छोटा है, न उससे कोई बड़ा है। बराबरी का भी
कोई नहीं। कोई है ही नहीं;--एक ही है। वही तुम में व्याप्त
है, वही मुझमें व्याप्त है; वही
वृक्षों में, वही फूलों में, वही
चांदत्तारों में। बस एक ही मौजूद है। इस "मौजूद जो है', इसको ही जिन्होंने जाना है, प्रेम से पहचाना है,
इस अस्तित्व की करुणा को जिन्होंने अनुभव किया है, उन्होंने इसे परमात्मा कह कर पुकारा है।
"बिस्मिल्लाहिर् रहमानिर् रहीम।
पहले-पहल नाम लेता हूं अल्लाह का, जो रहमान है, रहीम है, महाकरुणावान है!' जो
करुणा का ही दूसरा नाम है। "कुल हुवल्लाहु अहद।' ऐ
पैगंबर, तुम्हें खुदा का बेटा कहते हैं लोग, सावधान! इस भ्रांति में मत पड़ जाना। "अल्लाहुस्समद।' और वे तुमसे हाल भी पूछेंगे खुदा का, क्योंकि कहेंगे
तुम बेटे हो, इसलिए खुदा का हाल दो। तो तुम उनसे कहना:
अल्लाह एक है, और अल्लाह बेनियाज है।
"लम् यलिद, वलम् युलद;
व लम् यकुल्लहू कुफवन् अहद्।।'
"उसे किसी से कोई गरज नहीं।'
वह आप्तकाम है। उसकी कोई आकांक्षा नहीं तो गरज कैसे होगी? वह आकांक्षाओं के पार है। उसे कुछ पाना नहीं है। वह परम तृप्त है। "न
उसका कोई बेटा है, न वह किसी से पैदा हुआ है और न उसकी कोई
बराबरी का है।' क्योंकि वह एक है। दूसरा है ही नहीं।
छोटा-सा सूत्र है, सीधी-सादी
भाषा में कहा गया है। मगर समझने चलो तो जीवन के बहुत से रहस्य खोलेगा।
कुरान को पढ़ने के लिए बड़ा सीधा-सादा हृदय
चाहिए, मोहम्मद जैसा।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, आप
संन्यास और गैरिक पर बहुत बल देते हैं, लेकिन श्री जे.
कृष्णमूर्ति न तो संन्यास की दीक्षा देते हैं और न गैरिक को ही महत्व देते हैं,
वरन वे इन्हें गलत मानते
हैं। और आप कहते हैं कि कृष्णमूर्ति बुद्धपुरुष हैं। कृपया बताएं कि दो समसामयिक
बुद्धपुरुषों में संन्यास और गैरिक के प्रश्न पर कौन सही है?
पार्थ सारथी! मेरे
हिसाब में, मेरी तरफ से तो कृष्णमूर्ति सही हैं। लेकिन तुम्हारे लिए मैं सही हूं। तुम
देख ही रहे हो कि न तो मैंने गैरिक वस्त्र पहने हैं और न मैं संन्यासी हूं! लेकिन
तुम्हारे लिए कृष्णमूर्ति सही नहीं हैं। तुम्हारे लिए मैं सही हूं
सत्य की अभिव्यक्ति सापेक्ष होती है।
बुद्ध से एक व्यक्ति ने पूछा, "ईश्वर
है?' बुद्ध ने कहा।' "नहीं।'
और उसी दिन दोपहर को दूसरे व्यक्ति ने पूछा "ईश्वर है?'
और बुद्ध ने कहा, "है।' और उसी दिन सांझ को तीसरा आदमी आया और उसने पूछा, "क्या ईश्वर के संबंध में मुझे कुछ समझाएंगे?' और
बुद्ध न बोले। उन्होंने आंख बंद कर ली। वह आदमी भी आंख बंद कर के बैठा रहा। थोड़ी
देर बैठा रहा, फिर उठा, और बुद्ध के
चरण छुए और कहा कि धन्यवाद, आपके उत्तर के लिए धन्यवाद!
आनंद, जो बुद्ध के साथ छाया की तरह रहता
था, सदा चौबीस घंटे उनकी सेवा में तत्पर, उसने ये तीनों बातें सुनी थी--सुबह, दोपहर, सांझ। चकित था। उलझन में पड़ा था। सबके सामने तो कुछ पूछ नहीं सकता था,
लेकिन रात जब बुद्ध अकेले रह गये, जैसे ही
बुद्ध लेटने को हुए, आनंद ने कहा कि इसके पहले कि आप सोएं,
मुझे निश्चिंत कर दें। नहीं तो मैं रात भर सो न सकूंगा। आप मेरा भी
तो कुछ ख्याल किया करें! जिन तीन आदमियों को आप ने तीन उत्तर दिये, उनको तो यह पता नहीं है कि दूसरे को आपने क्या कहा, मुझे
तो तीनों के उत्तर पता हैं! मेरी मुसीबत तो समझें! मैं सो न पाऊंगा। कौन सही था?
किसको आपने ठीक उत्तर दिया था? और आप किसी को
गलत उत्तर क्यों देंगे, यह भी सवाल उठता है। आप और गलत क्यों
बोलेंगे!
बुद्ध ने कहा, "देख आनंद पहली तो बात
उसमें से कोई भी उतर तेरे लिए दिया नहीं गया। दूसरों से जो कहा, उसको सुनना उचित बात नहीं। यह तो यूं हुआ जैसे कोई दूसरे की चिट्ठियां खोल
कर पढ़ ले। यह बात नाजायज है।'
आनंद ने कहा, "आप भी हद करते हैं!
अरे, अब मैं वहां बैठा हूं, मेरे कान
हैं। किसी की चिट्ठी खोल कर मैंने पढ़ी नहीं, मगर कान हैं,
अब इनको बंद करने का भी उपाय नहीं। परमात्मा ने भी आंखों को बंद
करने का उपाय दिया है कि मत देखो, कान को खुला छोड़ दिया है,
बंद करने की कोई जगह नहीं! अब मैं करती भी क्या! आप बोलते थे सो मैं
सुनता था। मैंने सुनना नहीं चाहा था, मगर सुनाई पड़ गया। और
अब जो हो गया है सो हो गया है, मगर हल कर दें, ताकि मैं भी निश्चिंत हो कर सो जाऊं। दिन भर उधेड़बुन में लगा रहा। एक से
कहा कि ईश्वर है, एक से कहा नहीं है, और
तीसरे के सात चुप ही रह गये!'
बुद्ध ने कहा, सत्य सापेक्ष है। जिससे
मैंने कहा, ईश्वर है, वह नास्तिक था।
वह मानता है कि ईश्वर नहीं है। जानता नहीं है, सिर्फ मानता
है। बकवासी है, तार्किक है। उसके तर्कजाल को गिराने के लिये
मैंने कहा, ईश्वर है। क्योंकि अगर मैं उससे कहता, ईश्वर नहीं है, तो वह अपने अहंकार को और भरपूर अनुभव
कर के लौटता; वह कहता, मैं ही सही नहीं
हूं, बुद्ध भी मेरे समर्थन है, है। मैं
मुझे उसकी धारणाओं को तोड़ना पड़ा। मुझे उसकी धारणाओं को खंडित करना पड़ा। मुझे कहना
पड़ा, ईश्वर है। वह नास्तिक था, इसलिए
ही कहना पड़ा कि ईश्वर है।
और दूसरा आस्तिक था, उसने भी
जाना नहीं है, वह भी उसी हालत में था जिसमें पहला। न उसने
जाना, न इसने जाना। लेकिन यह मानता है, है। मैं इसकी अनुभूत धारणा को समर्थन नहीं दे सकता हूं। तो मुझे कहना पड़ा,
नहीं है। उसकी भी मैंने धारणा तोड़ी। मेरा काम तो वही था, दोनों के साथ, मुझे तोड़ रहा था। एक की धारणा थी
ईश्वर की, वह मैंने तोड़ी। एक की धारणा थी अनीश्वर की,
वह मैंने तोड़ी। मैंने तो दोनों पर अपनी हथौड़ी चलायी। अगर तू समझ सके
तो मैंने अलग-अलग उत्तर नहीं दिये। मेरा तो काम एक ही था कि दोनों की धारणाएं गिर
जाएं, ताकि दोनों खोज की यात्रा पर निकल जाएं धारणाएं न
गिरें तो खोज की यात्रा नहीं होती।
और फिर तीसरा जो आदमी आया था, उसकी कोई
धारणा न थी। उस पर, चोट करने का सवाल नहीं था। वह सच में ही
जिज्ञासु था। विश्वासी था, खोजी था। तो मैं आंख बंद करके चुप
हो रहा। और वह मेरा इशारा समझ गया। जिसको कोई धारणा नहीं है, वह जल्दी इशारा समझ लेता है। जिसकी धारणा है, अगर
उसके पक्ष में कहीं जाए बात तो जल्दी से छाती से लगा लेता है, और कहता--अहह! असल से वह अहह अपने लिए कह रहा है। वह यह कह रहा है,
अहह, मैं कितना ठीक था। यही तो मेरी मान्यता
है! और अगर उसकी धारणा को गलत कहा जाए, तो एक तो वह सुनता ही
नहीं, इनकार ही करता है--भीतर कहता है कि नहीं, यह गलत है--भीतर ही नहीं घुसने देता। और अगर घुसने भी दे, तो उसे अपना रंग दे देता है, अपना ढंग दे देता है;
किसी तरह तोड़-मरोड़ा कर लेता है, विकृत कर लेता
है। लेकिन इस व्यक्ति की कोई धारणा न थी जो सांझ को आया था। यह बड़ा निश्छल व्यक्ति
था। बड़ा निर्दोष। बड़ा जिज्ञासु। मैंने आंख बंद की, वह इशारा
समझ गया। उसने पूछा था ईश्वर है या नहीं? यह उसका सच्चा
प्रश्न था, प्रामाणिक प्रश्न था। कोई पूर्वाग्रह न था। तो
मैंने आंख बंद कर ली। वह इशारा समझ गया, उसने भी आंख बंद कर
ली। यह मेरा उत्तर था उसके लिए, कि मौन हो जाओ, जाल लोगे; चुप हो जाओ, जान
लोगे; ध्यान में डूब जाओ, जान लोगे। और
इसलिए जब वह गया तो तूने देखा होगा, आनंद, कि वह धन्यवाद दे कर गया, कि आपने जो उत्तर दिया
उसके लिए अनुगृहीत। हूं।
और बुद्ध ने कहा...आनंद बुद्ध का चचेरा भाई
था। दोनों साथ-साथ बड़े हुए थे। आनंद बुद्ध से उम्र में थोड़ा बड़ा भी था। और साथ ही
पढ़े थे, साथ ही खेले थे, झगड़े थे। दोनों को घुड़सवारी का शौक
था। तो बुद्ध ने कहा, "तू भूल नहीं गया होगा, आनंद, हम दोनों को घुड़सवारी का शौक था। और तू जानता
है कि घोड़े चार तरह के होते हैं। एक तो वह घोड़ा होता है कि मारो तो भी टस से मस
नहीं होता। किसी तरह मारपीट कर थोड़ा-बहुत चलाओ, फिर-फिर खड़ा
हो जाता है। बेशर्म। दूसरा वह घोड़ा होता है कि मारो तो चलता है, न मारो तो नहीं चलता। थोड़ी शर्म होती है। तीसरा वह घोड़ा होता है: मारना
नहीं पड़ता, सिर्फ कोड़े को फटकारना पड़ता है। सिर्फ कोड़े की
आवाज--चटक--पर्याप्त है और घोड़ा चलता नहीं, उसे कोड़े की छाया
भी काफी होती है। कोड़ा मौजूद है, यह भी काफी होता है। छाया
भी काफी होती है। और ऐसे ही चार तरह के आदमी होते हैं। और उन चारों के लिए मुझे
अलग-अलग ढंग से आयोजन करना होता है, अलग-अलग ढंग से उपाय
करना होता है।'
पार्थ सारथी, तुम पूछते हो: "आप
संन्यास और गैरिक पर बहुत बल देते हैं, लेकिन कृष्णमूर्ति न
तो संन्यास की दीक्षा देते हैं, न गैरिक को ही महत्व देते
हैं, वरन वे इन्हें गलत मानते हैं। और आप कहते हैं
कृष्णमूर्ति बुद्धपुरुष हैं।' निश्चित ही वे बुद्धपुरुष हैं।
"और फिर बताएं कि दो समसामयिक बुद्धपुरुषों में संन्यास और गैरिक के प्रश्न
पर कौन सही है?'
तुम्हारे लिए तो कृष्णमूर्ति गलत हैं।
सावधान रहना! मेरे लिए सही हैं। मेरे लिए इसलिए सही हैं कि मैं भी उस किनारे पर
खड़ा हूं जिस किनारे पर वे खड़े हैं--दूसरे किनारे पर। तुम इसी किनारे पर हो। मैं
तुमसे कहता हूं: नाव पकड़ लो, तो तुम भी इस किनारे आ जाओगे। नाव में बैठ जाओ!
लेकिन कृष्णमूर्ति तुमसे डरते हैं; क्योंकि कई लोगों को
उन्होंने नाव में बैठते देखा है--बैठ तो जाते हैं, फिर उतरते
नहीं। बैठे सो बैठे! और, फिर क्या उतरना! जब बैठ ही गये तो
फिर क्या उतरना!
मैंने सुना है, अमृतसर के
स्टेशन पर बड़ा झगड़ा-झांसा मचा हुआ था।...अमृतसर का स्टेशन वैसे ही झगड़ा-झांसा! कब
कृपाणें निकल आएं, कुछ कहा नहीं जा सकता।
मैं एक दफा अमृतसर गया, तो स्टेशन
पर कोई दो सौ लोग मेरे विरोध में इकट्ठे खड़े थे--डंडे लिए, काले
झंडे लिए, कि वापिस लौट जाओ! और मेरे पक्ष में भी कोई
चार-पांच सौ लोग इकट्ठे थे। झगड़ा। बिलकुल निश्चित था। पांच सौ मुझे लेने आए थे,
कि चाहे कुछ भी हो जाए, आना ही है आपको! और
उनमें तीन निहंग सिक्ख थे। वे तीनों नंगी कृपाणें लिए हुए सामने खड़े थे, कि अगर किसी ने जरा भी गड़बड़ की तो गर्दन कट जाएंगी।
मैंने कहा, इस छोटी-सी बात पर इतना
क्या उपद्रव करना! अगर इन लोगों की इच्छा है कि जाऊं, तो मैं
चला जाता हूं। क्यों तलवारें खींच ली?
उन्होंने कहा, कभी नहीं! हम आपको जाने न
देंगे। तलवारें खिंच चुकी हैं, अब म्यान के भीतर नहीं
जाएंगी। आज खून बहेगा!
मैंने कहा, तुम्हारी मर्जी! फिर कोई
बात नहीं! जब खून ही बहना है और मेरे जाने पर भी बहेगा, तो
फिर मेरे आने पर ही बह जाए--कोई बात नहीं!
तो पहले ही मौके पर मेरे सामने तीन आदमी
कृपाण लिए नंगी,
तीन मेरे पीछे कृपाण लिए, और पांच सौ आदमी
डंडे लिए। ऐसा अमृतसर की स्टेशन पर मेरा स्वागत हुआ! फिर दोबारा मैं गया नहीं!
मैंने कहा ऐसी बेवकूफी में मुझे पड़ना नहीं!
तो अमृतसर के स्टेशन की यह कहानी है कि वहां
बड़ा झगड़ा मचा हुआ था। एक सरदार जी को लोग बिठालने की कोशिश कर रहे थे डिब्बे में, वे
निकल-निकल कर बाहर आ रहे थे। आखिर मित्रों ने कहा कि भाई, चलना
है तुम्हें कि नहीं चलना है? बामुश्किल तो हम तुम्हें भीतर
कर पाते हैं, तुम बाहर निकल जाते हो!
उन्होंने कहा, एक बात पक्की हो जाए,
कि फिर उतारोगे तो नहीं? क्योंकि मैं बैठा तो
बैठा, फिर उतरूंगा नहीं।
उन्होंने कहा कि इसमें क्या है, कौन
उतारेगा, क्यों उतारेगा? उन्होंने समझा
कि यह शायद कह रहा है कि बीच में कहीं उतार न देना। तो उन्होंने कहा, बराबर, कोई नहीं उतारेगा।
दिल्ली स्टेशन पर झगड़ा फिर मचा। क्योंकि अब
दिल्ली उतरना था और मित्र उनको फिर खींचने लगे। उन्होंने कहा, मैंने
पहले ही कहा था! अरे, अब बैठ ही गये तो बैठ ही गये! अब मैं
उतरूंगा नहीं। अरे, जब उतरना ही था तो चढ़े ही क्यों!
उनका भी तर्क ठीक है--सरदारी तर्क--कि जब
उतरना ही था तो चढ़े ही क्यों! और जब चढ़ ही गये तो अब कौन उतारने वाला है? देखें,
कौन माई का लाल मुझे उतारता है! कृपाणें चल जाएंगी!
यही
तर्क है लोगों का,
पार्थ सारथी! कुछ लोग हैं जो नाव में बैठ गये हैं, अब उतरते नहीं हैं। दूसरा किनारा भी आ जाता है तो भी वे नाव में ही बैठे
हैं। दिल्ली आ गयी मगर वे गाड़ी में से नहीं उतरते। उनका नाव से मोह हो गया। वे
कहते हैं, यह नाव हमें यहां तक लायी है, इसको यूं छोड़ दें! यह प्यारी नाव--हिंदू धर्म की नाव, इस्लाम की नाव, बौद्ध-धर्म की नाव, जैन धर्म की नाव--यहां तक लायी, अरे, भवसागर तिरा दिया, अब उतर जाएं! यह तो अनुग्रह नहीं
होगा! यह तो बड़ी कृतध्नता होगी! नहीं, कभी नहीं उतरेंगे! इसी
नाव में रहेंगे। और अगर उतरेंगे भी तो नाव को सिर पर ले कर चलेंगे, क्योंकि इसने इतनी कृपा की।
कृष्णमूर्ति डरे हैं इससे कि तुम नाव पकड़ लो
तो कहीं ऐसा न हो कि फिर छोड़ने में समर्थ न रह जाओ। कृष्णमूर्ति कि भय अकारण नहीं
है। कृष्णमूर्ति ने आज से पचास-साठ साल पहले काम शुरू किया। तो कृष्णमूर्ति के
सामने जो अनुभव था--मेरे संन्यासियों का तो था नहीं। अगर मेरे संन्यासियों का
अनुभव कृष्णमूर्ति को होता तो जो वे कहते हैं, उन्होंने कभी कहा नहीं होता। और
मेरे संन्यासियों के सामने जब बोलते हैं तब भी उनकी वही संन्यासी याद आता
है--गैरिक वस्त्र! और गैरिक वस्त्र देखते ही से उनकी वही हालत हो जाती है, जो बैल के सामने लाल झंडी दिखा दो!...लाल झंडी ने इतनी तकलीफ दी है पहले!
हजारों साल का इतिहास है गैरिक वस्त्र के पीछे। इस जाल में बहुत लोग फंस गये और
नावें ढोते रहे। पकड़ गये। मुक्त होने चले थे और कैदी हो गये। तो कृष्णमूर्ति का जो
परिचय है, वह परंपरागत संन्यास से है। वे उसके विरोध में
हैं। उसके विरोध में मैं भी हूं।
लेकिन मेरी अपनी दृष्टि यह है--और वह दृष्टि, पार्थ
सारथी, कृष्णमूर्ति को मानने वालों के कारण पैदा हुई।
कृष्णमूर्ति को दृष्टि जो पैदा हुई वह शंकराचार्य और रामानुजाचार्य और
निम्बार्काचार्य और वल्लभाचार्य, इनके संन्यासियों के कारण
पैदा हुई। क्योंकि इन्होंने देखा कि ये संन्यासी तो मूढ़ हो कर रह गये हैं, मतिमंद, बिलकुल ही इनकी बुद्धि जड़ हो गयी है।
इन्होंने तो बस, गैरिक वस्त्र क्या पहन लिए, समझते हैं कि ये मुक्त हो गये। बस, इतना काफी है
जैसे! वस्त्रों में ही अटक गये। जैसे वस्त्र बदल लिए तो सब बदल गया, क्रांति हो गयी!
क्रांति आत्मिक होती है, कपड़े
बदलने से नहीं हो जाती। तो कृष्णमूर्ति ने कोशिश की कि तुम कपड़ों में न अटको,
आत्मा को बदलो। लेकिन कृष्णमूर्ति के पास जो लोग इकट्ठे हुए पचास
साल में, उनका मुझे अनुभव है। उनको देख कर मैं कहता हूं कि
कृष्णमूर्ति के पास अहंकारी इकट्ठे हो गये। यह मनुष्य-जाति का हमेशा का दुर्भाग्य
है--क्योंकि अहंकारी अपने ढंग से सोचने लगा। कृष्णमूर्ति के पास शिष्य होना नहीं
है, दीक्षा लेनी नहीं है, झुकना है
नहीं, कृष्णमूर्ति के पैर छूना नहीं, कोई
संन्यास नहीं--अहंकार को बहुत बात जंची। अहंकारी ने कहा कि यह बात बिलकुल ठीक है!
अहंकारी इसी से तो डरता है कि कहीं झुकना न पड़े, कहीं समर्पित
न होना पड़े, दीक्षित न होना पड़े किसी का शिष्य न बनना पड़े।
अहंकार को बड़े से बड़ा कष्ट यही है।
कृष्णमूर्ति ने बात तो ठीक कही थी कि नहीं
बुद्धू की तरह कपड़ों में ही न बंधे रह जाना। मगर वे बुद्धूओं के लिए तो खतरनाक थे
कपड़े, लेकिन दूसरे तरह के बुद्धू भी हैं यहां--अहंकारी। यहां तरहत्तरह के बुद्धू
हैं। बुद्धू कई प्रकार के, कई साइजों में, कई तरह के डब्बों में आते हैं! तरहत्तरह के लेबिल हैं उनके। कोई बुद्धू एक
तरह के होते हैं! अरे, जितने तरह के बुद्ध होते हैं उतने ही
तरह के बुद्धू भी होते हैं। क्योंकि बुद्धुओं में ही से तो आखिर कोई बुद्ध होता
है। तो एक तरह के बुद्धुओं से बचाया, दूसरे तरह के बुद्धुओं
ने उनको घेर लिया। उन्होंने परंपरा से बचाया, तो जो
परंपरा-विरोधी थे, उन्होंने घेर लिया। परंपरावादी भी उतना ही
अंधा था, परंपरा-विरोधी भी उतना ही अंधा है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते
हैं, हमें आपकी बात समझ में नहीं आती। कभी तो एक सूत्र का
वेद का आप समर्थन कर देते हैं, कभी दूसरे सूत्र का खंडन कर
देते हैं। वह कहता है, या तो समर्थन ही करो, या खंडन ही करो! दो में से कोई एक बात करो। अब जैसे कुरान के इस सूत्र का
मैंने समर्थन किया, लेकिन कुरान में ऐसे सैकड़ों सूत्र हैं कि
अगर तुम ले आए, तो मैं उनकी बिलकुल धज्जी उड़ा दूंगा। तब तुम
दिक्कत में पड़ोगे। तब तुम कहोगे, यह बात बड़ी बड़बड़ हो गयी। कि
अगर आप खिलाफ हो तो पूरे के खिलाफ। मगर मैं क्या करूं! मैं तो सिर्फ खिलाफ गलत के
होऊंगा! वह कहीं भी हो। कुरान में हो, वेद में हो, गीता में हो, धम्मपद में हो--कहीं भी हो। और मैं
जिसके पक्ष में हूं, वह कहीं हो, मैं
उसका पक्ष करूंगा। मैं कोई अरबी, संस्कृत, पाली और प्राकृत से मुझे लेना-देना नहीं है; मुझे
बुद्ध, महावीर और कृष्ण से भी कुछ लेना-देना नहीं है,
मुझे लेना-देना है तो सत्य से है। तो मैं सत्य को छांट लेता हूं।
परंपरा के विपरीत कृष्णमूर्ति का प्रयोग ठीक
था, लेकिन परंपरा में हीरे भी हैं, कचरा ही नहीं। माना
कि कचरा बहुत है, और माना कि हीरे बहुत कम हैं, लेकिन कचरे के पूरे ढेर में अगर एक कोहिनूर हीरा भी हो, तो भी, वह कोहिनूर हीरा एक है और कचरा बहुत है,
तो भी उसी कोहिनूर हीरे का मूल्य है। कचरे को जला डालो, कोहिनूर को बचा लो!
अंग्रेजी में कहावत है कि बच्चे को नहलाओ तो
पानी के साथ,
गंदे पानी के साथ बच्चे को मत फेंक देना। गंदे पानी को जरूर फेंकना
है, क्योंकि जब बच्चा नहा लिया तो पानी गंदा हो गया, अब उसको फेंक ही देना है। मगर कुछ लोग हैं जो कहते हैं कि ऐसा कैसे कर
सकते हैं! अरे, इसी पानी ने तो बच्चे को शुद्ध किया! इसको हम
फेंक दें! यह तो गंगाजल है! इसको तो सम्हाल कर रखेंगे। ऐसी प्यारी चीज, इतनी उपकारी चीज, इतनी कल्याणकारी चीज, मंगलदायी, इसको फेंक दें! कभी नहीं! इसको तो हम
रखेंगे सम्हाल कर!
और दूसरे लोग हैं, जो गंदा
पानी फेंकने को इतने उत्सुक हैं कि वे कहते हैं इस बच्चे को भी फेंको, यह झंझट ही मिटाओ! यह बच्चा रहेगा तो फिर गंदा करेगा।
पुराने लोगों ने बच्चे के साथ गंदा पानी बचा
लिया था और कृष्णमूर्ति ने गंदा पानी के साथ बच्चा भी फेंक दिया। मेरा कहना इतना
है, भैया, बच्चे को बचा लो, गंदे
पानी को फेंक दो! मगर तुम कहते हो, इसमें विरोधाभास आ जाता
है।
मुझे जो भी परंपरा में सुंदर है, उसे बचाना
है और जो भी असुंदर है, उसे आग लगा देना है। इससे मुझसे
दोनों तरह के लोग नाराज होंगे। परंपरावादी मुझसे नाराज होगा, क्योंकि मैं उसकी पूरी परंपरा स्वीकार नहीं करता। और परंपरा-विरोधी मुझसे
नाराज होगा, क्योंकि मैं उसकी पूरी गैर-परंपरावादी धारणा
स्वीकार नहीं करता। मैं तो सत्य को ही स्वीकार करता हूं। वह पुराना हो, नया हो, इससे क्या लेना-देना है! सत्य क्या पुराना
होता है या नया होता है?
कृष्णमूर्ति ने इन कपड़ों का विरोध किया, क्योंकि
इन कपड़ों के कारण बुद्धूओं ने इस देश की छाती पर बहुत मूंग दली है। और वह विरोध
सार्थक था। लेकिन कृष्णमूर्ति दूसरी चीज नहीं देख पाए कि उनके विरोध के कारण उनके
पास जो लोग इकट्ठे हुए, वे वस्तुतः धार्मिक लोग नहीं हैं,
अहंकारी लोग हैं; अहंकारियों की जमात है। जो
अपने को थोथे किस्म में बुद्धिवादी समझते हैं कि बड़े बुद्धिवादी हैं, उस तरह के थोथे लोगों की जमात कृष्णमूर्ति के पास इकट्ठी है। वह इसलिए
इकट्ठी नहीं है कि कृष्णमूर्ति रहे हैं परंपरा के विरोध के; उसके
लिए आधार मिल रहे हैं अहंकार को बचाने के लिए।
संन्यास है क्या? अहंकार का
विसर्जन। शिष्यत्व है क्या? किसी के चरणों के बहाने अपने को
झुकाने की तरकीब। चरण तो बहाने हैं, उनका कोई मूल्य नहीं,
निमित्त मात्र हैं। खूंटी पर जैसे कोई टांग देता है। खूंटी न हो तो
खीली पर टांग देता है। खीली न हो तो दरवाजा, खिड़की पर टांग
देता है। कहीं न हो तो कुर्सी पर टांग देता है। कहीं न कहीं टांगेगा। सवाल खूंटी
का नहीं है, सवाल कोप को टांगने का है।
तुम्हारा अहंकार जिस बहाने से भी मिट सके, मिट जाना
चाहिए। संन्यास तो सिर्फ एक उपाय है। बुद्ध ने इस उपाय का प्रयोग किया; महावीर ने इस उपाय का प्रयोग किया; शंकराचार्य ने इस
उपाय का प्रयोग किया। यह सिर्फ उपाय है। मगर खतरा तो हमेशा है, क्योंकि बुद्धुओं की भीड़ है दुनिया में, वे हर उपाय
को अपने सांचे में ढाल लेते है। उन्होंने इन वस्त्रों को जोर से पकड़ लिया। वे यह
समझने लगे कि वस्त्र गैरिक हो गये, बात खत्म हो गयी, यात्रा पूरी हो गयी।
यात्रा सिर्फ शुरू होती है वस्त्रों में; आत्मा पर
पूरी होती है।
कृष्णमूर्ति इतने परेशान हो गये इस हजारों
साल के उपद्रव से कि उन्होंने दूसरी अति पकड़ ली। उन्होंने कहा कि छोड़ो, ये वस्त्र
ही खतरनाक हैं! ये वस्त्र खतरनाक नहीं हैं। इन वस्त्रों के पीछे जो बुद्धू के पीछे
जो बुद्धू आदमी है, वह खतरनाक है। वही बुद्धू आदमी बिना
वस्त्रों के भी बुद्धूपन करेगा। कोई वस्त्रों से थोड़े ही बुद्ध होता है! बुद्धू के
हाथ जो भी पड़ जाएगा, उसी के साथ गड़बड़ करेगा। उसको
कृष्णमूर्ति की बातें सुनाई पड़ गयीं कि कोई दीक्षा की जरूरत नहीं है, संन्यास की कोई जरूरत नहीं है, शिष्यत्व की कोई
जरूरत नहीं है, किसी से समझने की कोई जरूरत नहीं, सत्य तो प्रत्येक के भीतर है।
फिर क्या तुम भाड़ झोंकते हो कृष्णमूर्ति को
सुन कर! किसलिए जाते हो सुनने? किसलिए कृष्णमूर्ति को पढ़ते हो? जब सत्य तुम्हारे भीतर है, तो ये कृष्णमूर्ति को
पचास साल से सतत सुनने वाले लोग क्या कर रहे हैं? और पचास
साल तक तुमको अभी यह समझ में नहीं आया कि सत्य तुम्हारे भीतर है; और सत्य के लिए किसी के पास जरूरत नहीं? तो
कृष्णमूर्ति के पास किसलिए जाते हो? जरूर अभी तुम्हें सत्य
नहीं मिला है। और तुम्हें किसी के पास जाना पड़ा रहा है। लेकिन तुम हो अहंकारी। तुम
चाहते हो जाना भी पड़े और यह स्वीकार भी न करना पड़े कि हम किसी के पास गये। बस,
यह अहंकार ही तुम्हें डूबा देगा।
तो मैं तुम्हारे लिए तो कहूंगा, पार्थ
सारथी, कि मैं सही हूं। तुम्हें संन्यास से गुजरना होगा। और
मैं कहता हूं, नाव को पकड़ ने की जरूरत नहीं है, नाव में बैठो! हां, उतरते वक्त धन्यवाद दे देना नाव
को, बस काफी है! न नाव को ढोने की जरूरत है, न पकड़ कर बैठ जाने की जरूरत है। सीढ़ी से चढ़ो, दूसरी
मंजिल पर पहुंच जाओ तो सीढ़ी छोड़नी ही है। सीढ़ी छोड़नी हो होगी।
जैसे-जैसे तुम्हारा ध्यान गहरा होगा, वैसे-वैसे
संन्यास की नाव का काम पूरा होने लगा। जिस दिन तुम्हारे भीतर समाधि लग जाएगी,
उस दिन तुम संन्यास से मुक्त ही हो गये। इतने मुक्त हो गये कि
तुम्हें गैरिक वस्त्र भी नहीं छोड़ने पड़ेंगे। क्योंकि छोड़ने का भी अगर आग्रह बना
रहा तो समझना कि अभी पूरे मुक्त नहीं हुए। अभी थोड़ा-सा लगाव बाकी है, नहीं तो छोड़ने की भी क्या बात है! कोई तो वस्त्र पहनोगे न! हरे पहनोगे,
नीले पहनोगे, सफेद पहनोगे, कोई तो वस्त्र पहनोगे, तो गैरिक में क्या हर्जा है!
मगर तुम्हारे भीतर से पकड़ चली जाएगी। तुम्हारे भीतर आग्रह नहीं रह जाएगा। छोड़ने की
भी अगर जिद रही, तो उसका मतलब यह हुआ कि अभी कहीं न कहीं
आग्रह शेष है।
जीवन इतना सरल नहीं है जैसा कि लोग समझते
हैं। जीवन थोड़ा जटिल है। उसमें चीजें पकड़ने पड़ती हैं और छोड़नी पड़ती हैं। तुम तर्क
से सोचो तो वही सरदारी तर्क होगा फिर, कि पकड़ेंगे तो फिर पकड़ें रहेंगे;
और जब छोड़ना ही है तो फिर पकड़ना ही क्यों!
कृष्णमूर्ति को सुन कर बहुत-से अहंकारियों
को बड़ी राहत मिली है। उनको राहत यह मिली कि हमको झुकना नहीं है। मगर इससे कुछ लाभ
भी नहीं हो गया। मेरे पास कितने कृष्णमूर्ति को मानने वाले लोग आ कर नहीं स्वीकार
किये हैं कि अब हम क्या करें, सब बात समझ में आती है, कृष्णमूर्ति
की मगर कोई लाभ तो हो नहीं रहा है, जीवन में कोई क्रांति तो
हो नहीं रही है!
तो मैं उनसे कहता हूं कि अब तुम मुश्किल में
पड़ोगे। क्योंकि जो तुम्हें उन्होंने समझाया, गलत है; अगर
मैं तुमसे कहूं ध्यान करो, तुम फौरन कृष्णमूर्ति का उद्धरण
दोगे कि वे कहते हैं ध्यान की कोई जरूरत नहीं। अगर कहूं कि दीक्षा लो, तुम कहोगे, दीक्षा की कोई जरूरत नहीं। संन्यासी बनो;
संन्यासी की कोई जरूरत नहीं। और कृष्णमूर्ति को सुन कर कोई लाभ हो
नहीं रहा है! अब तुम बड़ी विडंबना में पड़ गये; तुम
किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था में आ गये।
कृष्णमूर्ति ने किस को लाभ पहुंचाया? क्या लाभ
पहुंचा? कृष्णमूर्ति ही बुद्धपुरुष हैं लेकिन जरूरी नहीं कि
हर बुद्धपुरुष लोगों को लाभ पहुंचा सके। लाभ पहुंचाने की कला और बात है। लाभ
पहुंचाना एक अलग कला है। लोगों के लिए जगाना एक अलग कला है, खुद
जग जाना एक बात है। जो खुद जग गया है, जरूरी नहीं कि दूसरे
को जगा सके। कृष्णमूर्ति किसी को नहीं जगा सके हैं। क्योंकि जगाने की जो प्रक्रिया
है, वे उस प्रक्रिया को ही स्वीकार करने को राजी नहीं हैं।
संन्यास जगाने की प्रक्रिया है--साधन मात्र, साध्य
नहीं है। साधन की तरह उपयोग कर लो और जब जरूरत न रह जाए, तो
बात खत्म हो गयी! जिस दिन तुम समाधिस्थ हो जाओ, प्रबुद्ध हो
जाओ, उस दिन संन्यास के वस्त्र रहे कि न रहे, कोई फर्क नहीं पड़ता है। नग्न रहे कि वस्त्र रहे, कुछ
फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन जब तक वैसी घड़ी न आ जाए, तब तक नाव
का उपयोग करना जरूरी है। उस किनारे जाने के लिए नाव अत्यंत आवश्यक है।
इसलिए पुनः दोहराता हूं, पार्थ
सारथी, तुम्हारे लिए तो मैं सही हूं!
आज इतना ही।
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