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गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

दीपक बारा नाम का-(प्रश्नोत्तर)-प्रवचन-07

धर्म है मुक्ति का आरोहण—(प्रवचन—सातवां)
दिनांक 7 अक्तूबर 1980;
श्री ओशो आश्रम, पूना
पहला प्रश्न:

भगवान, यह सूत्र छान्दोग्य उपनिषद में उपलब्ध है:
"जो विशाल है, वही अमृत है। जो लधु है वह मर्त्य है। जो विशाल है, वही सुखरूप है। अल्प में सुख नहीं रहता। निस्संदेह विशाल ही सुख है। इसलिए विशाल का ही विशेष रूप से जानने की इच्छा करनी चाहिए।
मूलपाठ इस प्रकार है:
यो वै भूमा तदमृतम। अथ यदल्पं तन्मर्त्यम।
यो वै भूमा तत्सुख। नाल्पे सुख-मस्ति।
भूमैव सुख। भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्यः।।
भगवान, इस सूत्र को हमारे लिए सुस्पष्ट बनाने की कृपा करें।

हजानंद ! छान्दोग्य उपनिषद ऐसे है जैसे अमृत से भरा सरोवर। जैसे शुद्ध संगीत। इसलिए उसका नाम है: छान्दोग्य। "छंद' से बना है। नाम।
जीवन दो ढंग से जीया जा सकता है। एक जो जीवन का ढंग है: संगीतशून्य; आपाधापी, चिंता, विषाद, संताप, अहंकार, महत्वाकांक्षा, संघर्ष। स्वभावतः संगीत असंभव होगा।
ऐसे ही दौड़-धूप में भीतर का छंद बिखर जाता है। जैसे रात पूरे चांद की हो, पूर्णिमा हो, आकाश बादलों से रहित हो, चांद अपने पूरे सौंदर्य में प्रगट हो, फिर भी अगर झील पर लहरें हो तीन झील में चांद का प्रतिबिंब बन न पाएगा। बनेगा, लेकिन लहरों के कारण टूट-टूट जाएगा, खंड-खंड हो जाएगा, छितर-बितर हो जाएगा जैसे कोई पारे को फर्श पर गिरा दे, इकट्ठा करना मुश्किल हो जाए। ऐसे ही चांद भी पारे की तरह है--खंड-खंड होकर बिखर जाएगा। सारी झील पर चांदी फैल जाएगी। लेकिन चांद जैसा है वैसा प्रतिफलित न हो सकेगा। पर अगर झील मौन है, शांत हो, निस्तरंग हो, आंधियां न उठ रही हों, तूफान न आया हो, झील ध्यानस्थ हो, समाधिस्थ हो, तो फिर चांद जैसा है ही प्रतिफलित होगा।
एक तो मनुष्य के जीने का ढंग है विक्षिप्त झील की भांति, जहां वासनाओं की आंधियां लहरों पर लहरें उठायें चली जाती हैं; जहां मन हमेशा कंपित है, डांवाडोल है, चंचल है। इस चंचल मन में परमात्मा का प्रतिफलन नहीं बन सकता। इस चंचल मन में सब विकृत हो जाएगा। छंद टूट जाएगा। छांदोग्य का अर्थ है: छंद टूटे नहीं। यह ध्यान की पराकाष्ठा है। जहां चित्त निर्विचार होता है। जैसे ही चित्त निर्विचार हुआ कि भीतर अनाहत का संगीत बजने लगता है; हृदय की वीणा पर शाश्वत की गुनगुनाहट सुनायी पड़ती है। चित्त विक्षिप्त हो तो हम संसार को जानते हैं, और चित्त शांत हो तो हम परमात्मा को जानते हैं।
संसार और परमात्मा दो नहीं हैं। सत्य तो एक है। चांद दो नहीं है, चाहे झील में लहरें हों और चाहे झील में लहरें न हों, चांद तो वही है, जैसा है वैसा ही है। लेकिन अगर झील के पास भी सोचने वाली बुद्धि होती, तो लहरों वाली झील सोचती एक ढंग से और शांत झील सोचती दूसरे ढंग से। लहर वाली झील देखती संसार को और शांत झील देखती परमात्मा को। जिसने संसार देखा, उसने अभी कुछ भी नहीं देखा। जिसने संसार में परमात्मा देखा, उसे ही आंख मिली। और जिसने परमात्मा को देखा, वह देखते ही परमात्मा हो जाता है। कल हम मुंडकोपनिषद के सूत्र पर ही तो बात कर रहे थे कि जो उस ब्रह्म को जानता है, ब्रह्मैव भवति, वह ब्रह्म ही हो जाता है। जिसने परमात्मा को जाना, उसने यह भी जाना कि मैं उसी का अंग हूं। और जिसने परमात्मा नहीं जाना, स्वभावतः उसने इतना ही जाना कि मैं क्षुद्र हूं, अपने में बद्ध हूं, जरा-सा पोखर हूं, डबरा हूं।
अहंकार का अर्थ है: अपने को अस्तित्व से पृथक जानना। और परमात्मा के अनुभव का अर्थ है: अपने की अस्तित्व के साथ एक पाना। एकाकार। इसी अनुभूति की तरफ छांदोग्य का इशारा है--
यो वै भूमा तदमृतम--
"जो विशाल है, वही अमृत है।' लहरें तो मिटेंगी, सागर रहेगा। हम तो मिटेंगे, परमात्मा रहेगा। हम तो जन्मे हैं, तो मृत्यु भी घटेगी। यह देह बनी है, तो बिखरेगी भी। देर-अबेर। मगर कितनी ही देर हो, बहुत देर तो नहीं होगी। समय में जो भी बनता है, वह बिखरता है। यह समय का नियम है। यहां तो मृत्यु अनिवार्य है।
तुमने ध्यान दिया, हम मृत्यु को भी काल कहते हैं, और समय को भी काल कहते हैं। कारण हैं। शायद दुनिया की किसी भाषा में मृत्यु और समय के लिए एक ही शब्द उपयोग नहीं होता। सिर्फ हमने ही मृत्यु को भी काल कहा, समय को भी काल कहा। गहरे अनुभव के आधार पर ऐसा कहा। समय अर्थात मृत्यु। समय के भीतर तो मृत्यु अपरिहार्य है, उससे बचा नहीं जा सकता। वह तो घट ही चुकी है, जन्म के साथ ही घट चुकी है, जिस दिन चीज बनती है, उसी दिन बिखरनी शुरू हो जाती है। बच्चा पैदा हुआ और मरना शुरू हुआ। पहली ही घड़ी से मृत्यु आनी शुरू हो जाती है। यह और बात है कि आते-आते सत्तर वर्ष लग जाते हैं। ऐसा मत सोचना कि सत्तर वर्ष पूरे होने पर अचानक एक दिन मृत्यु तुम्हारे द्वार पर दस्तक देती है। तुम मरते ही रहे, मरते ही रहते, सत्तर वर्ष में प्रक्रिया पूरी हुई। सत्तर वर्ष में पहली बार मृत्यु तुम्हारे द्वार पर नहीं आती, सत्तर वर्ष में मृत्यु काम पूरा कर चुकी, इसलिए तुम्हारे द्वार से विदा होती है। तुम सोचते हो आती है, उन दिन मृत्यु जाती है। आती तो है जन्म के साथ--वह जन्म का दूसरा पहलू हैं।
समय के भीतर हम क्षुद्र हैं। लेकिन अगर हम समय के ऊपर उठ सकें, तो तत्क्षण सीमातीत हो जाते हैं, विशाल का अनुभव शुरू होता है। हम उतने ही असीम हो हो जाते हैं जितना असीम आकाश है। फिर आकाश भी हमारी सीमा नहीं है।
"यो वै भूमा तदमृतम।' और जिसने इस विशाल को अनुभव किया, इस विराट को अनुभव किया, इस विस्तीर्ण को अनुभव किया, वह अमृत को उपलब्ध हो गया। अब उसकी कोई मृत्यु नहीं है। कालातीत होते ही हम अमृत हो जाते हैं। काल है मृत्यु और कालातीत हो जाना है अमृत। ध्यान में पहली बार समय मिटता है, तुम्हारे कंठ को छूती है। ध्यान में पहली दफा झरोखा खुलता है। पहली बार तुम देख पाते हो कि जो वस्तुतः है, वह कभी मिटेगा नहीं; और जो मिटता है, वह था ही नहीं, तुमने मान लिया था। जैसे कोई ताश के घर बनाए, या कागज की नाव चलाए। कागज की नाव नाव-जैसी मालूम होती है, नाव नहीं है। उसका डूबना सुनिश्चित है। तुम कागज की नाव में दीये को जला कर भी नदी में तैरा दो, थोड़ी दूर तक चमकता रहेगा, झलकता रहेगा, फिर खो जाएगा।
ऐसे ही तो हम जन्म के साथ यात्रा शुरू करते हैं, कागज की नाव--देह इससे ज्यादा नहीं है--और यह विराट सागर है, इसमें कितनी दूर तक चलोगे? इसमें गिरना सुनिश्चित है। गिरने के पहले जो सजग हो जाए और समझ ले कि मेरी नाव कागज की है, मेरी नाव मृत्यु की है, उसके जीवन में क्रांति घट जाती है। क्योंकि उसके भीतर जिज्ञासा पैदा होती है। जिज्ञासा पैदा होती है उसे जानने की, जो कभी नहीं मिटेगा। और उसे बिना जाने जीवन में कैसे सुख हो कसता है? धन कितना ही हो, सुख न होगा।
तुम देखते तो हो धनी लोगों को, अक्सर तो गरीब से भी ज्यादा दुखी हो जाते हैं। गरीब को एक ही दुख होता है कि गरीब है और आशा होती है, कम से कम आशा होती है कि आज नहीं कल जब गरीबी मिट जाएगी तो जीवन में सुख होगा। और आशा के सहारे जी लेता है। अमीर की आशा भी मिट जाती है। अब अमीर गरीब तो नहीं है, इसलिए आशा क्या करे? अब धन तो पा लिया और भीतर की पीड़ा तो वैसी की वैसी है, अछूती, उसमें तो रत्ती भर भेद नहीं पड़ा! इसलिए धनी दोहरे दुख में पहुंच जाता है। धन भी मिल गया, आशा भी मर गयी और भीतर जैसा था वैसा ही है। वही पीड़ा, वही विषाद, वही संताप, वही नर्क, वही खालीपन, वही अर्थहीनता। न तो गीत जनमा, न संगीत पैदा हुआ, न फूल खिले, न चांदत्तारे ऊगे; कुछ भी न हुआ! अंधेरा और सघन हो गया। वह जो दूर टिमटिमाता-सा दीया जलता था आशा का, वह भी बुझ गया।
अंधेरी रात में जंगल में भटके राही को दूर टिमटिमाता दीया भी जिलाए रखता है। आशा बंधी रहती है: पहुंच जाऊंगा। चाहे पहुंच कर पता चले कि दीया कल्पित था। मृगमरीचिका थी; मैंने ही सपना देख लिया था; खुली आंखों का देखा सपना था। इसलिए जो पहुंच जाता है--धन पा लेता, पद पा लेता--उसकी पीड़ा बहुत सघन हो जाती है।
मेरे अनुभव में उस पीड़ा से ही धर्म का जन्म होता है।
इसलिए गरीब समाज धार्मिक नहीं हो पाता। आशा बंधी रहती है संसार से। आशा की डोर लगी रहती है।...कमल ने कल पूछा था कि भारतीयों की इतनी अवमानना क्यों है? क्यों भारतीय की इतनी अप्रतिष्ठा है जगत में? बहुत कारण हैं। उनमें एक कारण यह भी है कि भारत जिस धर्म की बात कर रहा है, वह गरीब समाज को शोभा नहीं देता। गरीब उसकी बात करने का हकदार नहीं है। और गरीब जब उस तरह के धर्म की बात करता है, तो वह झूठी होती है, मिथ्या होती है, थोथी होती है।
मेरे पास न-मालूम कितने पत्र आते हैं। पश्चिम से पत्र आते हैं, तो उनकी जिज्ञासा और होती है। और भारतीयों के पत्र आते हैं तो उनकी जिज्ञासा बड़ी और होती है। एक मित्र ने लिखा कि मैंने सुना है कि आपके आश्रम के पास करोड़ों रुपये हैं; अगर आप असली महात्मा हैं तो कम से कम एक लाख रुपये मुझे भेज दें। तो मैं मानूंगा कि आप असली महात्मा हैं। एक मित्र ने लिखा--कल ही पत्र आया है--कि मैंने सुना कि आपके पास दो कारें हैं, और मेरे पास केवल साइकिल है, और मुझे दूर दफ्तर में काम करने साइकिल पर जाना पड़ता है, अगर आप सच में ही भगवान हैं, तो एक कार मुझे भेज दें! कोई लिखता है कि वह बीमार है। कोई लिखता है उसे नौकरी चाहिए। कोई लिखता है उसके लड़के को लिए यूरोप भिजवा दें, अमेरिका भिजवा दें, और ये सारे लोग सोचते हैं कि धार्मिक हैं! इन सारे लोगों को भ्रांति है।
पश्चिम झूठ तुम्हारे पाखंड को देख पाता है। तुम्हारे झूठ को देख पाता है।
तुम्हारा झूठ अपरिहार्य है। धर्म जब इस देश में पैदा हुआ था, तब यह देश सोने की चिड़ियां थी। तब धर्म की बात अर्थपूर्ण थी, क्योंकि हमने देख लिया था कि व्यर्थ है दौड़-धूप। उस दौड़-धूप की व्यर्थता ने हमें एक प्रामाणिकता दी थी। आशा छूट गयी थी संसार से, तो हमने परमात्मा की जिज्ञासा की थी। अभी तो आशा हमारी संसार से बंधी है, अभी तो हम परमात्मा की जिज्ञासा भी करेंगे तो इसी संसार के लिए करेंगे।
मंदिरों में जा कर लोगों की प्रार्थनाएं सुनो, वह क्या मांग रहे हैं? किस मूर्ति के सामने प्रार्थना कर रहे हैं, यह दो कौड़ी की बात है, असली बात यह है कि वे क्या मांग रहे हैं, प्रार्थना में, उससे पता चलेगा। उनके हृदय की खबर मूर्ति से नहीं मिलेगी; न मंदिर से, न मस्जिद से, न गुरुद्वारा से, न गिरजे से, उनके हृदय की खबर तो वे क्या प्रार्थना कर रहे हैं, यह सवाल नहीं है, प्रार्थना के पीछे छिपा हुआ अभिप्राय क्या है? कि पत्नी की बीमारी ठीक हो जाए, कि लड़के को नौकरी मिल जाए, कि धंधा ठीक से चल पड़े कि इस बार लाटरी मेरे नाम से खुल जाए! और मैं इसमें दोष भी नहीं देखता--गरीब का कुछ कसूर भी नहीं है। खतरा तब पैदा होता है जब ऐसा गरीब समाज उन बातों को करने लगता है या किये चला जाता है, जिनसे अब उसे जीवन का कोई संबंध नहीं रह गया। दीन-हीन को क्या अंतर्छद से संबंध होगा! रोटी-रोजी जुट जाए तो बहुत। अभी किसको पड़ी है कि अंतर में छंद जगे!
लेकिन अगर व्यक्ति बाहर के जगत को अनुभव करे, तो एक न एक दिन निराशा हाथ लगेगी। और निराशा बड़ी उपलब्धि है। क्योंकि उसी निराशा के बाद जिसको पैदा होगी। साधारण जिज्ञासा नहीं, विशेष जिज्ञासा पैदा होगी। कि मैं जानूं कि इस देह के पार भी कुछ है या नहीं? जानूं कि धन के पार भी कोई धन है या नहीं? पद के भी कोई पद है या नहीं? यह जो दिखाई पड़ता है जगत, इसके पीछे कोई छिपा हुआ राज है भी या नहीं? पाखंड पैदा होता है जब तुम चाहते तो हो कि इसी जगत की चीजें मिलें, लेकिन बातें और दूसरे जगत की करते हो--तब पाखंड पैदा हो जाता है।
सेठ चंदूलाल ने अपने गुरु स्वामी मटकानाथ ब्रह्मचारी से पूछा, "गुरुदेव, आप दूसरों को तो धूम्रपान छोड़ने के लिए कहते हैं और खुद पीते हैं!' स्वामी मटकानाथ ब्रह्मचारी ने कहा, "बच्चा, मैं खुद न पीऊं तो इसकी हानियां कैसे जानूंगा?'
सेठ चंदूलाल जा रहे थे तीर्थयात्रा पर। बड़े चिंतित थे कि दोत्तीन महीने घर  में ताला पड़ा रहेगा, चोर-उचक्के भरपूर हैं, मित्रों का भी अब कोई भरोसा नहीं, अब कोई किसी के काम आता नहीं, चाबियां साथ ले जाना भी खतरनाक है--तीन महीने में कहीं खो जाएं, चोरी चली जाएं--सो उन्होंने सोचा कि गुरुदेवता को ही दे दें। स्वामी मटकानाथ ब्रह्मचारी को जाकर उन्होंने कहा कि मैं तीर्थयात्रा पर जा रहा हूं, ये मकान की चाबियां हैं, ये आपको सौंपे जाता हूं। आजकल जरा डर बना रहता है, इसलिए चाबियां सम्हाल कर रखना। और ध्यान रखना कि कोई ताला तोड़ कर चोरी न कर जाए। ब्रह्मचारी जी ने कहा, "बच्चा, बेफिक्री से जा! अरे, ताला-वाला तोड़ने की क्या जरूरत है, चाबियां तो हैं ही। यह नौबत नहीं आएगी!'
यहां आश्रम की ही यह घटना है। एक भारतीय संन्यासी ने एक अमरीकन संन्यासी से कहा, "मित्र, मुझे बीस रुपये उधार दे दो, बहुत तंगी में हूं।'
अमरीकन संन्यासी बोला, "भाई, रुपये तो दे दूं, लेकिन कर्ज को दोस्ती की कैंची कहते हैं।' भारतीय संन्यासी हंसने लगा और बोला, "यार, तुम रुपये तो दो! यूं ही हम कहां कोई बहुत गहरे दोस्त हैं!'
एक थोथापन अनिवार्य है। क्योंकि तुम जो मानते हो, अगर वह तुम्हारा अपना जीवित अनुभव नहीं है, तो तुम व्यवहार कुछ करोगे, कहोगे कुछ। इसलिए भारतीय सारे जगत में अनादृत है। क्योंकि वह कहता कुछ है, करता कुछ है। बताता कुछ है और निकलता है भीतर से बिलकुल विपरीत। एक थोथा पांडित्य है। उपनिषद कंठस्थ हो गये हैं,...छांदोग्य भी दोहरा देगा--हालांकि भीतर कोई छंद नहीं है। और जिसके भीतर छंद नहीं है, उसकी छांदोग्य की व्याख्या झूठ है, पाखंड है, मिथ्या है; उसके जीवन में उसका कोई कहीं भी लक्षण नहीं मिलेगा।
छांदोग्य करने का वही अधिकारी है, जिसको भीतर छंद जगा हो। जिसके जीवन में संगीत हो, काव्य हो, प्रसाद हो। और तुम्हारा जीवन बताएगा। तुम्हारा जीवन कुछ और बताएगा, तुम्हारी बातें कुछ कहेंगी। तुम्हारी बातें आकाश की होंगी, और तुम्हारा जीवन जमीन पर कीड़े-मकोड़ों की तरह सरकता हुआ होगा।
एक महापंडित का हाथ, बायां हाथ मशीन में कट गया। बड़े शास्त्री थे। गीता-ज्ञान-मर्मज्ञ थे। वे मलहम-पट्टी करवाने डाक्टर के पास पहुंचे। डाक्टर ने कहा, "पंडित जी, यह तो आपकी किस्मत अच्छी थी कि मशीन में बायां हाथ आया। यदि दायां हाथ आ जाता तो आप का कोई भी काम नहीं कर सकते थे।' पंडित जी बोले, "अरे डाक्टर साहब, किस्मत काहे कि अच्छी, यह तो मेरी होशियारी है। दरअसल मेरा दाया हाथ ही मशीन में आया था, लेकिन मैंने झट से उसे पीछे खींच बायां हाथ आगे कर दिया।'
गीता-ज्ञान-मर्मज्ञ होंगे, मगर जिंदगी तो कुछ और प्रमाण देगी। जिंदगी तो मूढ़ता को बताएगी।
और भारतीय व्यक्तित्व इसलिए भी अनादृत है कि तुम्हारी बातों की चूंकि भीतर कोई जड़ें नहीं रह गयी हैं, ऊपर-ऊपर हैं, कागजी हो गयी हैं, शास्त्रीय हो गयी हैं, तुम उबाते हो लोगों को।
मैंने सुना है, जार्ज बर्नार्ड शा से एक भारतीय पंडित मिलने गया था। जार्ज बनार्ड शा को बुरी तरह उबा रहा था। बर्नाड शा संकोचवश, शिष्टाचारवश कह भी नहीं सक रहे थे कि पंडित जी, अब क्षमा करो, यह बकवास बंद करो! कोई और रास्ता न देख कर बर्नार्ड शा ने पास में ही पड़ी हुई एक पत्रिका उठा ली और पढ़ने लगे। पढ़ने तो क्या लगे, पन्ने पलटने लगे; कि पंडित इशारा समझ ले। पंडित जी ने जब यह देखा तो वे बोले बर्नार्ड शा से, मैं आपसे कुछ कहना चाहता था, पर याद नहीं आ रहा है। जार्ज बर्नार्ड शा ने कहा, शायद आप नमस्ते कहना चाहते थे। मैं याद दिलाए देता हूं।
लोग ऊब गये हैं। लोग बुरी तरह ऊब गये हैं। और ऐसा नहीं कि तुम भी नहीं ऊब गये हो अपने पंडितों से, अपने साधुओं से, अपने महात्माओं से। तुम भी ऊब गये हो। मगर तुममें इतना बल भी नहीं रह गया। कि तुम स्पष्ट कह सको कि अब बस बंद करो! तुम्हारे जीवन में छंद नहीं है, तो कम से कम छांदोग्य पर मत बोलो! तुम्हारे जीवन में गीत नहीं हैं, तो तुम्हारा गीता-ज्ञान मर्मज्ञ होना दो कौड़ी का है! जब तक तुम्हारे भीतर भगवत-गीता का जन्म न हो, जब तक क्या तुम भगवत-गीता पर बोलोगे! जब तक तुम ब्रह्म को न जाल लो, तब तक तुम कैसे वेद की कोई व्याख्या कर सकते हो!
यह सूत्र जिसने भी कहा होगा, जान कर कहा है। अहंकार दुख है, क्योंकि अहंकार सीमा है। और निर-अहंकारिता सुख है, क्योंकि निर-अहंकारिता असीम है। शरीर में आबद्ध होना दुख है। क्योंकि शरीर सीमा है। और मैं शरीर से मुक्त हूं, ऐसा जानना सुख है। मैं चैतन्य हूं, ऐसा जानना सुख है। जानना, मानना नहीं। ऐसा अनुभव, ऐसा सिद्धांत नहीं। ऐसी प्रतीति, ऐसा साक्षात्कार, ऐसी धारणा नहीं ये प्रश्न धारणाओं के नहीं हैं। समय में अपने को देखना मृत्यु से बंधे रहना है। कालातीत अपने को अनुभव करना अमृत का अनुभव है।
और कालातीत अपने को अनुभव करने का ध्यान के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है! कितना ही गऊ-माता का दूध पीओ, कालातीत को न जान पाओगे। खोपड़ी में गोबर ही गोबर भर जाए तो भी कालातीत को नहीं जान पाओगे। और कितना ही शीर्षासन करो, कालातीत को न जान पाओगे। उल्टा खड़े-होने से, शीर्षासन करने से कालातीत को जानने का कोई संबंध नहीं है। लाख ब्रह्ममुहूर्त में उठो, ब्रह्म को न जान लोगे। और कितना ही दोहराते रहो तोतों की तरह अपने शास्त्रों को, कुछ पाओगे नहीं, हाथ कुछ लगेगा नहीं--कौड़ियां भी हाथ नहीं लगेंगी, हीरे-जवाहरात तो दूर। ध्यान के अतिरिक्त न कभी कोई उपाय था न कभी कोई उपाय होगा।
ध्यान का अर्थ है: कालातीत होने की प्रक्रिया। समय के पार जाने की प्रक्रिया। तुम समय के स्वभाव को थोड़ा समझ लो। कुछ बातें तो तुम्हारे अनुभव में हैं, इसलिए समझना कठिन नहीं होगा। कुछ तुम्हारे अनुभव में नहीं है, लेकिन जो तुम्हारे अनुभव में हैं, उससे उस दिशा में इशारे मिल सकते हैं जो तुम्हारे अनुभव में नहीं हैं।
जब तुम दुखी होते हो, तो समय लंबा हो जाता है। जैसे, तुम्हारी मां या तुम्हारे पिता मरणशय्या पर पड़े हैं और रात-भर तुम बैठे हो, जाग रहे हो, क्योंकि डाक्टरों ने कहा है कि पता नहीं कब श्वास खो जाएगी! तो वह रात इतनी लंबी हो जाएगी कि कयामत की रात मालूम होगी। अंत ही आता न मालूम पड़ेगा। लगेगा कि अब सहर होगी, ही नहीं, सुबह होगी ही नहीं। रात इतनी लंबी हो जाएगी और घड़ी का कांटा यूं सरकेगा कि जैसे सरकना ही भूल गया! हालांकि घड़ी का कांटा पुराने ही ढंग से चल रहा है। घड़ी को क्या पड़ी है कि कौन मर रहा है, कौन जी रहा है! रात भी पुराने ढंग से ही सरक रही है। लेकिन तुम्हारे चित्त की अवस्था दुख की है। दुख में समय लंबा हो जाता है।
समय तुम यूं समझो कि जैसे रबर है। दुख में खिंच जाता है, लंबा हो जाता है। सुख में सिकुड़ जाता है।
तुम्हारी प्रेयसी तुम्हें मिलने आ गयी है, बरसों का बिछड़ा यार मिल गया है, तो घंटे यूं बीत जाते हैं जैसे पल बीते। पलक झपकते। बीत जाते हैं। रात भर मित्र से बातें करते रहते हो, बक सुबह हो गयी पता नहीं चलता। एकदम पता चलता है कि रात पूरी बीत गयी। यूं बीत गयी! कब आयी, कब गयी, पता नहीं। तुम बातों में ऐसे तल्लीन थे, बरसों बाद मित्र मिला था, न-मालूम कितनी बातें करने की थीं, हृदय उघाड़ कर रख देने में लगे थे--आनंदित थे, मस्त थे--तो समय छोटा हो गया।
यह तुम्हारा अनुभव है। इस अनुभव से इशारे ले सकते हो। दुख में समय लंबा हो जाता, सुख में छोटा हो जाता है। लेकिन महासुख में? स्वभावतः विलीन हो जाएगा। और महादुख में? स्वभावतः अनंत हो जाएगा।
बर्ट्रेंड रसल ने एक बहुत महत्वपूर्ण किताब लिखी है, ईसाइयत के खिलाफ, कि मैं ईसाई क्यों नहीं हूं? उसमें बहुत से तर्क दिये हैं, महत्वपूर्ण तर्क दिये हैं। एक तर्क जो उसने दिया है, वह ऊपर से तो महत्वपूर्ण दिखता है लेकिन ध्यान का उसे कोई अनुभव नहीं रहा होगा, इसका सबूत देता है। बहुत-से तर्क में उसने एक तर्क यह भी दिया है कि जीसस का कहना है कि जो लोग पाप करते हैं, जो लोग मूर्च्छा में जीते हैं, वे नर्क में पड़ेंगे। और ईसाइयत की धारणा है कि नर्क अनंत है। मतलब एक बार पड़े सो पड़े।
बर्ट्रेंड रसल का कहना बिलकुल तर्कयुक्त है कि मैं कितने ही पाप करूं--और ईसाइयत में एक ही जन्म होता है, अगर अनंत जन्म भी होते तो भी समझ में आ सकता था कि अनंत पाप किये होंगे अनंत-अनंत जन्मों में; चौरासी करोड़ योनियों में कितने नहीं पाप किये होंगे, तो अनंत काल तक रहना पड़ेगा--लेकिन ईसाइयत तो एक ही जन्म को मानती है; सत्तर साल का जन्म, जीवन, इसमें कितने पाप करोगे? बर्ट्रेंड रसल का कहना है कि अगर कठिन से कठिन भी कोई मजिस्ट्रेट हो, तो मुझे चार या पांच साल की सजा दे सकता है--मैंने जो पाप किये। अगर वे भी पाप जोड़ लिये जाएं जो मैंने किये नहीं सिर्फ सोचे,...कि फलाने की स्त्री ले भागूं--सिर्फ सोचा, किया भी नहीं है--अगर वह भी जोड़ लिया जाए, तो समझ लो ज्यादा से ज्यादा आठ से दस साल की मुझे सजा दी जा सकती है। वह भी कठोर से कठोर कोई न्यायाधीश हो तो। दस साल की इस सजा के लिए मुझे अनंत काल तक नर्क में रहना पड़ेगा! और फिर भी ईसाई कहते हैं कि परमात्मा न्यायपूर्ण है! यह तो महा अन्याय हो गया। अरे, सत्तर साल में कितने पाप करोगे? अगर सत्तर साल भी पाप करते रहो, सतत--और दूसरा काम ही न करो; न खाओ, न पीओ, न सांस लो, न उठो, न बैठो, न नहाओ, न धोओ, पाप ही पाप करते रहो सत्तर साल, तो भी कितने दंड दोगे? सात सौ साल का दंड दे देना और क्या करोगे? सात हजार साल का दे देना, सात लाख साल का देना, मगर अनंत! यह तो कुछ बात जंचती नहीं।
और बर्ट्रेंड रसल का कोई उत्तर ईसाई पादरी नहीं दे सके हैं, ईसाई धर्मगुरु नहीं दे सके हैं। बर्ट्रेंड रसल ने किताब लिखी थी आज से कोई साठ साल पहले--बर्ट्रेंड रसल नब्बे साल तक जीया, अभी-अभी मरा है कुछ वर्ष पहले, साठ साल प्रतीक्षा की उसने, किताब लिखी थी जब यह कोई तीस साल का था, लेकिन कोई जवाब नहीं मिल सका उसको।
जवाब मिले कैसे? न बर्ट्रेंड रसल को ध्यान का अनुभव है, न ईसाई पादरी-पुरोहित को ध्यान का कोई अनुभव है, जवाब देगा कौन? और जवाब बड़ा सीधा-सरल था, अगर ध्यान का कोई भी अनुभवी हो तो जवाब बड़ा सीधा-सरल है। अनंत का अर्थ अनंत नहीं है। अनंत का अर्थ है: नर्क अनंत मालूम पड़ेगा। क्योंकि दुख में समय लंबा जाता है। साधारण दुख में लंबा जाता है, तो नर्क तो अनंत मालूम पड़ेगा। है अनंत, ऐसा नहीं है, मालूम पड़ेगा।
और इसीलिए तो हमको प्रतीत होता है कि सुख क्षणभंगुर है। क्योंकि समय छोटा हो जाता है। दुख को नहीं कहता कोई क्षणभंगुर।
तुमने यह सुना! तुम्हारे महात्मा समझाते रहते हैं, सुख क्षणभंगुर है, लेकिन किसी महात्मा को तुमने यह कहते सुना कि दुख क्षणभंगुर है? तुमने यह वचन ही कहीं नहीं देखा होगा कि दुख क्षणभंगुर है। सुख क्षणभंगुर है। सुख क्षणभंगुर है इसलिए नहीं कि क्षणभंगुर है, बल्कि इसलिए कि सुख में समय सिकुड़ जाता है, एक क्षण हो जाता है। और दुख अनंत हो जाता है। प्रतीत होता है। एहसास होता है।
समय हमारी प्रतीति है।
तो ये चार बातें ख्याल रखो। अगर महादुख होगा तो समय अनंत मालूम होगा।...मालूम होगा, ख्याल रखना। समय तो जैसा है वैसा ही है, सिर्फ तुम्हारी प्रतीति बहुत खिंच जाएगी। अगर छोटा-मोटा दुख होगा तो समय बड़ा मालूम होगा। अगर छोटा-मोटा दुख होगा तो समय बहुत अल्प मालूम होगा। और अगर महासुख होगा तो समय विलीन हो जाएगा।
जीसस से किसी ने पूछा--बाइबिल में यह उल्लेख नहीं है, लेकिन सूफियों की परंपरा में यह वचन संगृहीत है। यह प्यारा वचन है और पी. डी. आस्पेंस्की ने अपनी महान किताब टर्शियम आर्गानम में यह वचन सबसे पहले उदधृत किया है। जैसे कि पूरी किताब इसी की व्याख्या है।--किसी ने जीसस से पूछा कि तुम्हारे प्रभु के राज्य में, जिसकी तुम निरंतर चर्चा करते हो, सबसे खास बात क्या होगी? तो जीसस ने कहा: "देयर शैल बी टाइम नो लांगर'। वहां समय नहीं होगा। पी. डी. आस्पेंस्की ने अपनी किताब के प्रथम ही इसको उल्लेख किया है, जीसस के इस वचन को कि वहां समय नहीं होगा।
यह अनुभव तो ध्यान में किसी को भी हो जाता है। क्योंकि ध्यान में हम तत्क्षण प्रभु के राज्य के हिस्से हो गये। ध्यान का अर्थ है। निर्विचार, शून्य। जहां कोई विचार न रहा, वहां कोई सीमा न रही। विचार ही बागुड़ की तरह तुम्हें घेरे हुए हैं। जहां विचार गिर गये, सारी दीवालें गिर गयीं, सारे कारागृह गिर गये, सारे कटघरे विलीन हो गये, तिरोहित हो गये--सब द्वार खुल गये। उस घड़ी में घड़ी बंद हो जाती है। समय ठहर जाता है। छांदोग्य उसी की तरफ इशारा कर रहा है। कह रहा है:
"जो विशाल है, वही अमृत है।'
यो वै भूमा तदमृतम।
भूमा शब्द बहुत अर्थ रखता है, जो विशाल शब्द में नहीं आते। विशाल केवल उसका एक पहलू है। भूमा का अर्थ होता है: सर्वव्यापी। जहां-जहां तक तुम्हारी कल्पना जा सकती है, वहां तो मौजूद है ही और जहां तुम्हारी कल्पना भी नहीं जा सकती, वहां भी मौजूद है। इतना विराट कि जहां तुम्हारी कल्पना भी थक कर गिर जाती है, जहां तुम्हारे विचार भी गति नहीं कर सकते, जहां तुम्हारे स्वप्न भी उड़ान नहीं भर सकते, इतना विराट कि तुम थक जाओ सोच-सोच कर और सोच न पाओ, अनिर्वचनीय रूप से जो विराट है।
ब्रह्म शब्द का भी भूमा ही अर्थ होता है। ब्रह्म शब्द जिस धातु से बना है, उसी से हमारा हिंदी का शब्द बना है: विस्तीर्ण।
ब्रह्म शब्द बहुत अदभुत है। अगर इसका ठीक-ठीक अनुवाद करना हो तो यूं कहना पड़े: जो सदा ही विस्तीर्ण होता चला जाता है। तुम जहां भी जाओगे, पाओगे वह अभी और आगे शेष है। तुम उसे कभी चुकता न कर सकोगे। तुम ऐसा न कह सकोगे कि बस, यह आ गया आखिरी पड़ाव, यह आ गयी मंजिल, अब इसके आगे कुछ भी नहीं--ऐसा तुम कभी न कह सकोगे। तुम जहां भी जाओगे, पाओगे वह और आगे फैला हुआ है, और आगे फैला हुआ है। तुम बढ़ते जाओगे और तुम पाओगे वह और आगे फैला हुआ है। कोई कूल-किनारा नहीं है।
ब्रह्म शब्द को उपयोग हमने किया है आज से पांच हजार साल पहले--कम से कम। जो सदा विस्तीर्ण होता चला जाता है। और आधुनिक विज्ञान ने इस सदी में आकर ठीक इसी सत्य को स्वीकार किया है। अल्बर्ट आइंस्टीन की बड़ी से बड़ी खोजों में एक खोज यह है कि जगत यह है जो सदा विस्तीर्ण हो रहा है। अल्बर्ट आइंस्टीन के पहले वैज्ञानिक मानते थे कि जगत जैसा है वैसा है, जहां तक है वहां तक है; उनकी धारणा एक थिर जगत की थी। अल्बर्ट आइंस्टीन ने धारणा को तोड़ दिया थिर जगत की। गतिमान, गत्यात्मक जगत की धारणा दी। "एक्स्पांडिंग यूनिवर्स'। विस्तीर्ण होता हुआ विश्व, फैलता हुआ विश्व। फैल ही रहा है। बड़े से बड़ा होता जा रहा है। विराट से विराट होता जा रहा है। जैसे कि कोई छोटा-सा बच्चा अपने फुग्गे में हवा भरता जाता है और फुग्गा बड़ा होता जाता है, बड़ा होता जाता है, बड़ा होता जाता है। ऐसे यह अस्तित्व विराट होता जा रहा है। यह प्रतिक्षण फैल रहा है। और बड़ी गति से फैल रहा है।
विज्ञान के हिसाब से जो गति सूर्य के प्रकाश की है, उसी गति से जगत विस्तीर्ण हो रहा है। गति बहुत है। अकल्पनीय है। प्रकाश की गति है: प्रति सेकेंड एक लाख छियासी हजार मील। इसलिए सूरज से हम तक किरण को आने में कोई साढ़े नौ मिनट लगते हैं। इस गति से आने में। एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड। इसमें साठ का गुणा करो तो एक मिनट में इतनी गति। फिर साढ़े नौ का गुणा करो तो उतनी देर में प्रकाश यहां तक आ पाता है--इतनी हमारी सूरज से दूरी है।
और सूरज कुछ बहुत दूर नहीं।
जो सबसे निकट का तारा है, उससे हम तक प्रकाश को इसी गति से आने में चार वर्ष लगते हैं। और फिर तारे हैं, जिनसे करोड़ों वर्ष लगते हैं। तारे हैं, जिनसे अरबों वर्ष लगते हैं। ऐसे तारे हैं कि जब पृथ्वी बनी थी तब उनकी किरणें चली थीं, वे अभी तक पृथ्वी पर नहीं पहुंचीं। और ऐसे तारे हैं कि शायद पृथ्वी समाप्त भी हो जाएगी और उनकी किरणें चली थीं तब जब पृथ्वी बनी न थी और जब आएंगी तब तक पृथ्वी विदा हो चुकी होगी। उन किरणों को कभी पृथ्वी मिलेगी ही नहीं। पृथ्वी को बने कोई चार अरब वर्ष हुए। तो जिस तारे से पृथ्वी की तरफ अभी तक चार अरब वर्ष में चली किरण नहीं पहुंच पायी है, उसकी दूरी की तुम कल्पना कर सकते हो--वही गति है एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड!
और इसी गति से जगत विस्तीर्ण हो रहा है।
एक महिला एक डाक्टर के पास गयी। डाक्टर होंगे हमारे अजित सरस्वती जैसे। जच्चा-बच्चा अस्पताल चलाते होंगे। उस महिला की एक ही चिंता थी--उसको गर्भ रह गया था--वह कहने लगी, यह मुझे कैसे पक्का पता चलेगा कि अब नौ महीने पूरे हो गये? क्योंकि मुझे चीजें भूल-भूल जाती हैं। मैं यही भूल जाती हूं कि सुबह जो तय किया था, वह दोपहर याद नहीं रहता। बाजार सामान लेने जाती हूं, कुछ लेने जाती हूं, कुछ खरीद कर आ जाती हूं--मेरी स्मृति बड़ी कमजोर है। तो मैं भूल ही जाऊंगी कि कब नौ महीने पूरे हुए। तो उस डाक्टर ने थोड़ा सोचा और कहा कि ठीक है, लेट! उसको लिटा दिया टेबल पर, फाउंटेन पेन उठाया और उसके पेट पर कुछ लिख दिया। उस महिला ने कहा कि इससे क्या होगा? उस डाक्टर ने कहा कि जब तू इसे साफ-साफ पढ़ने लगे, तब आ जाना। अभी कुछ तेरी पढ़ाई में आता है? उसने कहा, कुछ पढ़ाई में नहीं आता। इतने बारीक अक्षरों में लिखा है आपने कि मुझे कुछ दिखायी नहीं पड़ता कि लिखा क्या है। बस, तो उस डाक्टर ने कहा, फिकर न कर, जब तेरी साफ-साफ समझ में आने लगे--यह मेरा पता है--जब तू इसे बिलकुल ठीक-ठीक पढ़ने लगे, समझ लेना कि नौ महीने पूरी हो गये। पेट फैल रहा है, यह बड़ा होता जा रहा है, जब नौ महीने का बच्चा हो जाएगा तो अक्षर बराबर पढ़ पाएगी, कोई चिंता न कर!
यह अस्तित्व फैलता जा रहा है। इसको रहस्यदर्शियों ने स्त्री के फैलते हुए गर्भ का ही नाम दिया है। यह निरंतर विराट होता जा रहा है। यह विस्तीर्ण होता जगत है। यह प्रक्रिया सतत चल रही है। ब्रह्म शब्द का यही अर्थ है: जो सदा विस्तीर्ण होता चला जाता है। जो विराट है, ऐसा ही नहीं, जो विराट होता चला जाता है। जो एक क्षण ठहरता नहीं और विराट होता ही चला जाता है।
बुद्ध ने कहा है कि काश, हम अपनी भाषाओं से संज्ञाएं अलग कर दें और सिर्फ क्रियाएं बचा लें, तो हम सत्य के बहुत करीब पहुंच जाएंगे। क्योंकि संज्ञाएं हमें एक भ्रांति देती हैं। कि चीजें थिर हैं। और क्रियाएं हमें बोध देंगी कि चीजें गतिमान हैं। जैसे, हम कहते हैं: नदी है। लेकिन बुद्ध कहते हैं, उचित होगा कि तुम कहो: नदी हो रही है। मत कहो कि है। हम कहते हैं: वृक्ष है। बुद्ध कहते हैं कि अच्छा होगा कि तुम कहो: वृक्ष हो रहा है। क्योंकि प्रतिपल गति है। जीवन यानी गति।
भूमा का अर्थ है: जो प्रतिपल हो रहा है, विराट हो रहा है, बड़ा हो रहा है, बड़े से बड़ा हो रहा है, विराट से विराटतर होता जा रहा है। और जिसकी कोई सीमा नहीं है, कोई अंत नहीं है। जो कहीं ठहरेगा नहीं। जो ठहरना जानता ही नहीं है। जिन्होंने देखा है, अनुभव किया है, वे कहेंगे: जगत में कोई मंजिल नहीं है, यात्रा ही यात्रा है--अनंत यात्रा है।
"जो विशाल है, वही अमृत है'। और काश, तुम इस विशाल के साथ आने को एक अनुभव कर सको, फिर कैसी मृत्यु? क्षुद्र मरता है, बूंद मरती है, सागर नहीं मरता। लहर मरती है, सागर नहीं मरता। जीवन का एक रूप विदा हो जाता है, लेकिन जीवन जारी रहता है। जीवन की अभिव्यक्तियां बदल जाती हैं, रंग बदल जाते हैं, ढंग बदल जाते हैं, लेकिन जीवन जारी रहता है।
"यो वै भूमा तदमृतम'। जो विशाल है, विराट है, विराटतर हो रहा है, वही अमृत है। जो लघु है, वह मर्त्य हैं'। इसलिए लघु के साथ अपने को न जोड़ना
"अर्थ यदल्पं तन्मर्त्यम'। अल्प के साथ अपने को मत जोड़ना। और हमने अल्प के साथ ही अपने को जोड़ रखा है। शरीर के साथ जोड़ रखा है। मन के साथ जोड़ रखा है। दोनों अल्प हैं। दोनों लघु हैं। दोनों बहुत छोटे हैं। और उसके कारण हम छोटे हो गये हैं। और जब हम छोटे हो जाते हैं तो पीड़ा होती है, कि मैं छोटा, तो बड़े होने की दौड़ शुरू होती है।
अब यह तुम पागलपन समझने की कोशिश करो।
पहले हम अपने को छोटा बना लेते हैं, छोटे, के साथ अपना तादात्म्य कर लेते हैं, फिर तादात्म्य करने से हीनता की ग्रंथि पैदा होती है, फिर हीनता की ग्रंथि हमको दौड़ती है कि अब बड़े होओ, धन कमाओ, पद पर पहुंचो, प्रधानमंत्री हो जाओ, राष्ट्रपति हो जाओ, दुनिया के सबसे बड़े धनी हो जाओ, यशस्वी हो जाओ, यह करो, वह करो, दौड़ती है, दौड़ती है! और भूल कुल इतनी है कि तुम बड़े हो ही तुम से बड़ा कुछ भी नहीं है, काश, तुम्हें यह दिखाई पड़ जाए तो दौड़ सब बंद हो जाती है। इसलिए मैं नहीं कहता कि संसार छोड़ो, पद छोड़ो धन छोड़ो--छोड़ने ने से कुछ भी न होगा--ध्यान जानो! ध्यान को जाना कि यह जो दौड़ है, यह अपने-आप क्षीण होने लगती है। फिर तुम जहां हो, संतुष्ट हो। क्योंकि वह हीनता की ग्रंथि ही गल गयी।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सभी राजनीतिज्ञ हीनता की ग्रंथि से पीड़ित होते हैं। हीनता की ग्रंथि न हो तो राजनीति समाप्त हो जाए। भीतर लगता है कि मैं इतना छोटा, तो किसी तरह बड़ा होकर दिखा दूं। अब बड़े होने की एक ही समझ आती है--या तो धन हो, या पद हो, प्रतिष्ठा हो, यश हो; किसी भी तरह बड़ा होकर दिखा दूं। इससे आदमी अहंकार के नये-नये सोपान चढ़ता है, नयी-नयी सीढ़ियां चढ़ता है। और मजा यह है, बिडंबना यह है कि वही अहंकार तुम्हारे छोटे होने का कारण है। जो तुम्हारे छोटे होने का कारण है, उसी की मान कर तुम बड़े होने की चेष्टा कर रहे हो। उसको जब तक मानते रहोगे, बड़े होने न पाओगे। जिस दिन उसे छोड़ दोगे, उसी दिन छोटापन छूट जाएगा। और जहां छोटापन नहीं रह गया, अल्प के साथ संबंध नहीं रह गया, वहां सब दौड़ समाप्त हो गयी। फिर व्यक्ति जीता है। जब दौड़ता नहीं तब जीता है।
और जब कोई मृत्यु नहीं रह जाती, तो जीवन ही जीवन बचता है। शरीर के साथ अपने को एक माना कि मुश्किलें खड़ी हुई। शरीर के साथ एक माना तो अभी जवान हो, डर लगेगा कि अब बुढ़ापा करीब आता है। ये बात सफेद हुए, ये चमड़ी पर झुर्रियां पड़ने लगीं, ये पैर कंपने लगे--अब यह बुढ़ापा आया! अब घबड़ाए! अब परेशान हुए! अब बुढ़ापा आ रहा है। तो मौत भी आती ही होगी। कदम-कदम, रफ्ता-रफ्ता सरकने लगे कब्र की तरफ। लाख कब्रिस्तानों को गांव के बाहर बनाओ--छिपाने के लिए हम गांव के बाहर बनाते हैं, ताकि मौत भूली रहे--मगर कैसे भूलोगे मौत को? जब तक अहंकार के साथ जुड़े हो, मौत याद आएगी। वृक्ष से पीला पत्ता गिरेगा और मौत याद आएगी। सुबह की धूप में ओस का कण वाष्पीभूत होगा और मौत याद आएगी। रास्ते पर चलते बूढ़े को देखोगे, मौत याद आएगी। कोई की अर्थी निकलेगी--और निकलेगी ही किसी की अर्थी--और मौत याद आएगी। जब तक अहंकार से जुड़े हो, मौत से छूट नहीं सकते। मौत का भय तुम्हें कंपाए रखेगा। और जब तक अहंकार से जुड़े हो, छोटे हो। इसलिए मन में ये आकांक्षाएं प्रबल होती रहेंगी कि किस तरह धन पाऊं, किस तरह पद पाऊं, कैसे सिकंदर हो जाऊं? हालांकि सिकंदर होकर भी कोई कुछ हुआ नहीं सिकंदर भी खाली हाथ मरता है।
हमारी तरफ से...
हमारी तरफ से सलाम उनको देना...
हमारी तरफ से सलाम उनको देना
तो कह देना कासिद सलाम आखिरी है
तो कह देना कासिद...
तो कह देना कासिद सलाम आखिरी है
हमारी तरफ से सलाम उनको देना
तो कह देना कासिद सलाम आखिरी है
मुलाकात हमसे...
मुलाकात हमसे न अब हो सकेगी।
ये बीमारी-गम का...
ये बीमारे-गम का पयाम आखिरी है
हमारी तरफ से सलाम उनका देना
तो कह देना कासिद सलाम आखिरी है
मुलाकात हमसे न अब हो सकेगी
ये बीमारी-गम का पयाम आखिरी है
सरे-शाम तुम जब जुदा हो रहे हो...
सरे-शाम तुम जब जुदा हो रहे हो
जुदा रूह गोया कि होती है तनसे
मुझे ऐसा मालूम होता है जैसे
मेरी जिंदगी की ये शाम आखिरी है
हमारी तरफ से सलाम उनको देना
तो कह देना कासिद सलाम आखिरी है
जवानी के नशे में...
जवानी के नशे में बदमस्त होकर...
जवानी के नशे में बदमस्त होकर...
जवानी के नशे में बदमस्त होकर
न चल...
न चल टूटी कब्रों को ठुकरा के जालिम
जवानी के नशे में बदमस्त होकर
न चल टूटी कब्रों को ठुकरा के जालिम
तुझे भी यहीं...
तुझे भी यहीं मरके आना है इक दिन
ये दुनिया में सबका मकाम आखिरी है
ये दुनिया में सबका मकाम आखिरी है...
जवानी के नशे में बदमस्त होकर
न चल टूटी कब्रों को ठुकरा के जालिम
तुझे भी यहीं मरके आना है इक दिन
ये दुनिया में सबका मकाम आखिरी है
हमारी तरफ से सलाम उनको देना
तो कह देना कासिद सलाम आखिरी है
मुंह देख लिया आईने में और दाग न देखे सीने में...
मुंह देख लिया आईने में और दाग न देखे सीने में
जी कैसा लगा है जीने में, मरने को भी इंशा भूल गये
मुंह देख लिया आईने में और दाग न देखे सीने में
जी कैसा लगा है जीने में, मरने को भी इंशा भूल गये
ये आदमी का जिस्म क्या है जिसपै शैदा है जहां
एक मिट्टी की इमारत एक मिट्टी का मकाम
खून का गारा बनाया, इट इसमें हड्डियां
चंद साधों पर खड़ा है ये खयाली आसमान
मौत की पुरजोर आंधी जब इसे टकरायेंगी
तो टूट कर ये इमारतें खाक में मिल जायेगी
ये आदमी का जिस्म क्या है?
ये आदमी का जिस्म क्या है जिसपै शैदा है जहां
एक मिट्टी की इमारत एक मिट्टी का मकाम
खून का गारा बनाया, ईंट इसमें हड्डियां
चंद साधों पर खड़ा है ये खयाली आसमान
चंद ख्वाबों पर खड़ा है ये खयाली आसमान
मौत की पुरजोर आंधी जब इसे टकरायेंगी...
मौत की पुरजोर आंधी जब इसे टकरायेंगी
ये इमारत: पैर में लालो-गुहर क्या चीज है
दौलते-ईमां के आगे मालो-जर क्या चीज है
बेनवां, मुफलिस नवां, खुशहाल पूछे जायेंगे...
बेनवां, मुफलिस नवां, खुशहाल पूछे जायेंगे
माल के बदले फकत आमाल पूछे जायेंगे
जवानी के नशे में बदमस्त होकर...
जवानी के नशे में बदहोश होकर
न चल टूटी कब्रों को ठुकराके जालिम
तुझे भी यहीं मरके आना है इक दिन
ये दुनिया में सबका मकाम आखिरी है
हमारी तरफ से सलाम उनको देना
तो कह देना कासिद सलाम आखिरी है
सुबूते वफा...
सुबूते वफा कर रहा हूं मुकम्मल
सुबूते वफा कर रहा हूं मुकम्मल
दिया था...
दिया था जिन्हें मैंने दिल रोजे-अव्वल...
दिया था जिन्हें मैंने दिल रोजे-अव्वल
कूए जान भी आज देने चला हूं
कूए जान भी आज देने चला हूं...
मुहब्बत में पुरनम...
मुहब्बत में पुरनम ये काम आखिरी है
सुबूते वफा कर रहा हूं मुकम्मल
दिया था जिन्हें मैंने दिल रोजे-अव्वल
कूए जान थी आज देने चला हूं
मुहब्बत में पुरनम ये काम आखिरी है
हमारी तरफ से सलाम उनको देना
तो कह देना कासिद सलाम आखिरी है
समय में मौत निश्चित है। मत चलो अकड़ कर! मत जीओ अकड़ कर! लेकिन अहंकार अकड़ कर जीने की तमन्ना का ही नाम है। अहंकार को हम कितने सहारे देते हैं--धन के, पद के, प्रतिष्ठा के--फिर भी गिर जाता है, फिर भी बिखर जाता है। बिखरना ही बदा है उसकी किस्मत में। झूठ है; झूठ को कितना खींचोगे? ज्यादा नहीं खींचा जा सकता। आज नहीं कल, कल नहीं परसों झूठ का यह गुब्बारा फूटेगा ही। यह झूठ का बबूला टूटेगा ही। इसके पहले कि यह टूटे, तुम लघु से अपने को मुक्त कर लो।
अथ यदल्पं तन्मर्त्यम।।
इतना जान लो कि जो लघु है, वह मृत्यु के घेरे में है। तुम लघु के पार हो चलो।
ध्यान नेति-नेति की प्रक्रिया है। न मैं शरीर हूं, न मैं मत हूं, न मैं हृदय हूं, फिर जो शेष रह जाता है, वही मैं हूं। और जो शेष रह जाता है, उसकी फिर कोई सीमा नहीं है।
शरीर स्थूल सीमा है। मन थोड़ी सूक्ष्म। हृदय और सूक्ष्मातिसूक्ष्म। लेकिन सब सीमाएं हैं। इन तीन परकोटों के भीतर हम हैं। और वह जो हमारा चैतन्य इन तीन परकोटों के भीतर है, उसकी कोई सीमा नहीं है। वह आकाश जैसा विराट है। उसको जान लेना ही सुख है।
यो वे भूमा तत्सुख।
जिसने उस भूमा को पहचान लिया, उसके जीवन में महासुख की वर्षा हो जाती है। कमल खिल जाते हैं। सुगंध बिखर जाती है। दीये जल जाते हैं। और ऐसे दीये जो बुझते नहीं। और ऐसे कमल जो मुरझाते नहीं। और ऐसी गंध जो उड़ नहीं जाती है।
नाल्पे सुखमस्ति।
अल्प में सुख कहां! जाओ, अल्प में सुख कहां! अगर हम अल्प में अकड़े हुए हैं। हम अल्प में ऐसे अकड़े हुए हैं कि जिसका हिसाब नहीं।
जवानी के नशे में बदमस्तर होकर
न चल टूटी कब्रों को ठुकराके जालिम
तुझे भी यहीं मरके आना है इक दिन
ये दुनिया में सबका मकाम आखिरी है
जिसने मृत्यु के आने के पहले मृत्यु को पहचान लिया, जान लिया, उसे छूटने में अड़चन नहीं होती मैं संन्यास कहता हूं इसी समझ को। जीते-जी मृत्यु को पहचान लेना संन्यास है। संसार का त्याग नहीं, मृत्यु का बोध संन्यास है। फिर संसार में रहो, संसार के बाहर रहो, कुछ भेद नहीं पड़ता। शरीर से बंधे हुए न रहो। मन से बंधे हुए न रहो। बंधे हुए ही न रहो किसी से। निर्बंध। निर्ग्रंथ। मुक्त। यूं तैरो जैसे कमल के पत्ते झील पर तैरते हैं। झील में होते हैं और झील उन्हें छूती नहीं। पानी उन्हें छूता नहीं। ओस की बूंदें भी जम जाती हैं कमल के पत्तों पर, तो भी कमल के पत्तों को भीगा नहीं पातीं। वे अनभीगे ही रह जाते हैं। ऐसे जीने का नाम संन्यास है।
भूमैव सुख।
और फिर सुख ही सुख है। क्योंकि जो कहीं बंधा नहीं, जिस पर कोई जंजीर नहीं, कोई बेड़ी नहीं, उसके लिए दुख कैसे हो सकता है? परतंत्रता दुख है। स्वतंत्रता सुख है।
भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्यः।।
और, यही भूमा अभीप्सा करने योग्य है। यही भूमा अन्वेषण करने योग्य है। इसी भूमा की तलाश करो! यही भूमा, यही अमृत, यही सत्य, यही विराट, निरंतर फैलता हुआ, विराट, इसकी खोज ही धर्म है।
लेकिन तुमने तो धर्म के नाम पर भी कैसे पाखंड खड़े कर लिए। तुमने तो धर्म के नाम पर भी जंजीरें गढ़ ली हैं। धर्म है मुक्ति का आरोहण। लेकिन बन गये कारागृह में, कोई गिरजे में। कोई ईसाई होकर बंद है, कोई हिंदू बंद है, कोई जैन होकर बंद है। जमीन पागलों से भरी मालूम पड़ती है। हमें स्वतंत्रता भी दी जाए तो हम स्वतंत्रता से भी जंजीरें और बेड़ियां गढ़ लेते हैं। अजीब लोग हैं! हम स्वतंत्र होना जैसा चाहते ही नहीं। हमें अगर वीणा भी थमा दी जाए, तो हम संगीत पैदा नहीं करते, हम उससे शोरगुल पैदा करते हैं। मुहल्ले वालों की नींद हराम करते हैं; खुद की नींद हराम करते हैं।
चंदूलाल के दुश्मन ने--और दुश्मन यानी पड़ोसी; यह हमेशा एक ही तरह के व्यक्ति का नाम है, उसको दुश्मन कहो कि पड़ोसी कहो--चंदूलाल के बेटे को उसके जन्मदिन पर एक ढोल भेंट कर दिया। बेटे को ढोल क्या मिला--अब जैसे बंदर को ढोल मिल जाए!--सो वह वक्त-बेवक्त ढोल बजाता रहे। उसने चंदूलाल की नींद हराम कर दी, चंदूलाल की पत्नी की नींद हराम कर दी। आधी रात उठ आए ढोल बजा दे! अब जब तक रोको तब तक नींद ही टूट गयी। बहुत परेशान हो गये चंदूलाल। चंदूलाल की पत्नी परेशान हो गयी। यह दुष्ट ने ढोल क्या भेंट कर दिया है। इतने परेशान हो गये कि जब दूसरा जन्मदिन आया और बेटे ने मां-बाप के पैर छुए, तो दोनों के ने मुंह से एकदम निकल गया: जीओ और जीने दो!
चंदूलाल मुझसे पूछते थे, क्या करूं? यह ढोल हमें मारे डाल रहा है! मैंने कहा, तुम भी पागल हो! मैंने चंदूलाल को एक चाकू दे दिया। मैंने कहा, यह चाकू ले जाओ, अपने बेटे को भेंट कर दो। इससे क्या होगा? मैंने कहा, तुम बेटे को भेंट तो करो और फिर उसकी जिज्ञासा जगा देना कि अरे, इस ढोल के भीतर भी तो देख कि क्या है। इतना पर्याप्त है। तबसे ढोल खतम हो गये। क्योंकि बेटे ने जिज्ञासा की, ढोल में चाकू डाल दिया; भीतर तो कुछ न निकला--ढोल के भीतर तो पोल ही होती है--मगर ढोल खतम हो गया।
अब किसी बंदर के हाथ में ढोल जाए तो उपद्रव ही होने वाला है!
स्वतंत्रता तुम्हें देने बुद्धों ने क्या-क्या नहीं किया, मगर तुम उस स्वतंत्रता से जंजीरें ढोल देते हो! संगीत पैदा नहीं होता है तुम्हारे जीवन में, और विसंगीत पैदा हो जाता है। हिंदू-मुसलमान लड़ते हैं! यह तो विसंगीत हो गया। इससे तो अच्छा था कि न इस्लाम होता दुनिया में, न हिंदू धर्म होता, न ईसाइयत होती, न जैन धर्म होता। कम से कम आदमी शांति से तो जीता। कम से कम धर्म के नाम पर तो हत्याएं न होती खून न बहाया जाता। जितना धर्म के नाम पर अनाचार हुआ है, किसी और चीज के नाम पर नहीं हुआ है।
आदमी को होश नहीं है। उसकी बेहोशी में तुम उसे हीरे भी दो, तो कुछ न कुछ नुकसान करेगा। संपदा को भी विपदा बना लेगा।
डाक्टर ने मुल्ला नसरुद्दीन से कहा, आप ठीक तो हो जाएंगे किन्तु आपको नियम से रहना पड़ेगा। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, नियम से? आप भी क्या बात कर रहे डाक्टर साहिब, मैं तो हमेशा नियम से रहता हूं। डाक्टर ने कहा कि तुम्हें शर्म नहीं आती मुझसे यह कहते हुए! यह बात बिलकुल झूठ है। तुम किसी और को धोखा देना। अभी कल ही तो मैंने तुमको शराब पीते हुए देखा था। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, उससे क्या फर्क पड़ता है? यह तो मेरा रोज का नियम है।
अब देखते हैं नियम का क्या अर्थ! रोज शराब पीता हूं, नियम से पीता हूं। क्या बातें कर रहे हैं आप! एक दिन चूक नहीं होती। कभी नियम का भंग नहीं होता। जो यम-नियम दे गये तुम्हें, अपना सिर फोड़ते होंगे! कि नियम से भी क्या अर्थ निकाले!
 सेठ चंदूलाल तरहत्तरह की दवाइयां बेचते हैं। उन्होंने दवा के एक पैकेट पर छपा रखा था: "फोड़े-फुन्सियों की सर्वोत्तम दवा। फायदा न होने पर दाम वापिस।' एम सज्जन दवा का पैकेट वापस लाकर चंदूलाल से कहने लगे: "सेठ साहब, मैंने एक माह तक आपकी दवा का इस्तेमाल किया, लेकिन मुझे कुछ भी फायदा न हुआ, मुझे दाम वापिस चाहिए।' चंदूलाल ने कहा, "फायदा न होने पर दाम वापिस किये जाते हैं। आपको न हुआ हो, हमको तो हर पैकेट पर आठ आने का फायदा होता है।'
मतलब देखते हैं! आपको हो या न हो, इससे क्या मतलब है; साफ लिखा है कि फायदा न होने पर दाम वापिस, हमको तो फायदा हो रहा है! तुम्हारी बात ही किसने की है!
मां अपने बेटे से बोली, फिर से लड़ते देख कर, "कि अरे, तुम लोग फिर लड़ने लगे?' उसके एक बेटे ने कहा, "नहीं, मम्मी, यह तो वही पहले वाली लड़ाई है!' फिर से नहीं लड़ रहे, वही चल रही है।
चंदूलाल कह रहे थे मुल्ला नसरुद्दीन से: "आप कब उठते हैं?' मुल्ला ने कहा: "जब सूरज की किरणें मेरे कमरे में प्रवेश करते हैं।' चंदूलाल ने कहा: "तब तो आप काफी जल्दी उठ जाते हैं, ब्रह्ममुहूर्त में। मुसलमान होकर और ब्रह्ममुहूर्त में! मैं भी इतना संयम नहीं पाल पाता। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: "गलत न समझिये, मेरे कमरे का रुख पश्चिम की और है।'
मुल्ला नसरुद्दीन की बेटी फरीदा स्कूल से लेट आयी। नसरुद्दीन ने कारण पूछा तो फरीदा ने कहा, "पिता जी, एक दुष्ट लड़का मेरे पीछे पड़ गया था। बिलकुल लफंगा था। लुच्चा था। इसलिए लेट हो गयी।' मुल्ला बोला, "पर बेटी, इससे लेट होने का क्या संबंध है?' फरीदा बोली, पापा, मेरे भोले पापा, कुछ समझा भी करो न! भला मैं करती भी क्या, वह बहुत धीरे-चल रहा था।'
लफंगा पीछे पड़ा था, मगर बहुत धीरे-धीरे चल रहा था तो बिचारी फरीदा को भी धीरे-धीरे चलना पड़ा!
जिंदगी के लिए सूत्र तो बहुत बार दिये गये हैं, लेकिन हर सूत्र से तुमने अपनी फांसी लगा ली है। तुम हर शास्त्र से अपनी आत्महत्या का उपाय कर लिया है।
यह प्यारा सूत्र है छांदोग्य का: जो विराट है, विशाल है, जो अनंत है, असीम है, वही अमृत है। और तुम भी वही हो। अमृतत्स पुत्रः। तुम अमृत के पुत्र हो। "हो लघु है वह मर्त्य है।' और नाहक लघु बन कर बैठ गये हो। सिवाय तुम्हारी भूल के और कोई जिम्मेवारी किसी की नहीं है। जो विशाल है, वही आनंद है। और तुम्हारा दुख कह रहा है कि तुम्हें आनंद की कोई खबर ही नहीं मिली। तुम्हारा जीवन, तुम्हारी उदासी पर्याप्त प्रमाण हैं कि तुमने कुछ गलत कर लिया है। जीवन के उत्सव को तुमने क्या मातमी रंग दे दिया है! तुम ऐसे जी रहे हो जैसे बोझ ढो रहे हो। दबे जा रहे हो--और फिर भी जागते नहीं! और बात कुल जागने की है।
निःसंदेह विशाल में ही आनंद है। इसलिए विशेष को ही जानने की अभीप्सा करो!
यो वै भूमा तदमृतम। अथ यदल्पं तन्मर्त्यम।। यो वै भूमा तत्सुख। नाल्पे सुखमस्ति। भूमैव सुख। भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्यः।।
जिज्ञासा करो, अभीप्सा करो, मुमुक्षा करो मगर विराट की। और विराट कहीं दूर तुमसे बाहर नहीं, तुम्हारे भीतर छिपा है। तुम्हारा अंतस्तल है। तुम्हारी अंतरात्मा है। इसलिए कहीं जाना नहीं है, अपने भीतर आना है। न काबा जाना है, न काशी, न कैलाश, अपने भीतर आना है। मत इस शरीर के साथ अपने को इतना बांधो! और ध्यान रखना, मैं कोई शरीर का दुश्मन नहीं हूं। मैं नहीं कह रहा हूं कि शरीर को सताओ। क्योंकि सताते वे ही हैं, जिन्हें यह बोध नहीं हुआ कि हम शरीर नहीं हैं। तुम भलीभांति जानते हो कि तुम जिस मकान में रहते हो, तुम वह मकान नहीं हो। इसका यह मतलब नहीं है कि तुम उस मकान की ईंटे गिराने लगते हो, कि उसका पलस्तर उखाड़ने लगते हो, कि उसका छप्पर गिराने लगते हो, जानते हो भलीभांति कि तुम मकान नहीं, लेकिन वर्षा आती है तो छप्पर को ठीक करते हो, खपड़ों को ठीक से जमाते हो। और जानते हो कि मैं मकान नहीं हूं, लेकिन मकान में रहता हूं तो मकान को सुंदर रखते हो, सजा कर रखते हो। आखिर रहना तुम्हें हैं।
दुनिया में दो तरह के पागल हैं। एक, जो शरीर को समझ रहे हैं कि मैं शरीर हूं और उस कारण दुख भोग रहे हैं। और दूसरा पागल, जो कहते हैं कि हम शरीर नहीं है, इसलिए शरीर को सता रहे हैं। उपवासे मर रहे हैं। शरीर को गला रहे हैं। क्योंकि वे कहते हैं, हम शरीर नहीं हैं। तुम शरीर नहीं हो तो शरीर को सता किसलिए रहे हो? यह तो एक अति से दूसरी अति पर जाना हो गया। एक अति थी कि शरीर के द्वारा भोगेंगे, और दूसरी अति है कि अब शरीर को सताएंगे, परेशान करेंगे। दोनों में ही तुमने शरीर के साथ अपना तादात्म्य किया हुआ है। और दोनों अतियों के मध्य में संगीत है, छंद है--छांदोग्य है।
बुद्ध के पास एक राजकुमार, श्रोण ने दीक्षा ली। वह महाभोगी था। जीवन भर उसने भोग के अतिरिक्त कुछ भी न जाना था। शराब पीना, खाना, स्त्रियां, मौज-मजा--वह बिलकुल चार्वाकवादी था। न कोई आत्मा है, न कोई परमात्मा है, न कोई सत्य है, न कोई मोक्ष है, ऐसी उसकी धारणा थी। अगर कब तक भोगोगे? भोग-भोग कर थक गया। भोग-भोग कर ऊब गया। जो भोगता है, वह ऊब ही जाने वाला है। खतरा उनका है जा भोगते नहीं और भोग को जबरदस्ती छोड़ कर खड़े रहते हैं। वे कभी नहीं ऊबते। ऊबेंगे कैसे? जो स्त्रियों को छोड़ कर भागे हैं, उनके मन में स्त्रियों प्रति रस बना ही रहेगा। बैठेंगे हिमालय की गुफा में, उन्हें राम याद नहीं आएगा, काम याद आएगा। बातें ब्रह्मचर्य की करेंगे, सपने उनके अब्रह्मचर्य से भरे होंगे। यह बिलकुल अनिवार्य है। यह बिलकुल वैज्ञानिक है। जो धन को छोड़ कर भोगा है, उसके पीछे धन भूत की तरह लगा रहेगा। तुम कितना ही भागो, कहावत है न: "भागते भूत की लंगोटी ही भली', वह धन जिसे तुम छोड़ कर भोगे हो वह तुम्हारी लंगोटी पकड़े रखेगा। तुम जितना भागोगे, कुछ फर्क नहीं पड़ता, लंगोटी उसके हाथ में रहेगी।
जिससे तुम भयभीत हुए हो, तुम उससे मुक्त नहीं हो सकते।
लेकिन थक गया। इतना भोग था। अभी जवान ही था, कुल पैंतीस वर्ष उसकी उम्र थी, लेकिन थक गया। इतना भोग लिया जितना कि आदमी तीन-चार जन्मों में भोगे वह उसने एक ही जन्म में भोग कर दिखा दिया। लेकिन ऊब गया। स्त्रियां बेमानी हो गयीं। शराब व्यर्थ हो गयी, भोजन में स्वाद न रहा--सब व्यर्थ दिखायी पड़ने लगा। और तब बुद्ध का गांव में आगमन हुआ। श्रोण उनके पास गया। उन्हें देखा--सुना भी नहीं, सिर्फ देखा! एक परिपक्व अवस्था थी उसकी; भोग से ऊब गया था। त्यागी तो गांव में बहुत आए थे, लेकिन त्यागियों में उसे कोई रस नहीं आया था। त्यागी दिखते थे उदास--उससे भी ज्यादा। त्यागी दिखते थे मुर्दा--उससे भी ज्यादा मुर्दा। न उनकी आंखों में ज्योति थी, न उनके जीवन में कोई आनंद की झलक थी, न कोई प्रकाश की किरणें थीं, न कोई प्रसाद था उनके आसपास, न कोई सौंदर्य था--श्रोण कैसे प्रभावित होता?
लेकिन बुद्ध को देखा--सुना भी नहीं अभी, बुद्ध से बोला भी नहीं, बुद्ध ने एक शब्द भी नहीं कहा--और श्रोण उनके चरणों में गिरा और उसने कहा कि मुझे दीक्षा दें। मैं भिक्षु होने की तैयार हूं। बुद्ध ने कहा, न तूने मुझे सुना, न तूने मुझे समझा, अभी मैं गांव में आया ही आया हूं, तू अभी-अभी मेरे पास आया, हालांकि तेरे बाबत कहानियां मेरे पास आ चुकी हैं, अनेक लोगों ने कहा कि आप श्रोण की नगरी जा रहे हैं, वह महाभोगी है, महा लंपट है, वह शायद आपके दर्शन को भी न आए; लेकिन तू आया है और आते ही से भिक्षु होना चाहता है! उसने कहा, आपको देख कर सब समझ में आ गया। एक मैं हूं कि भोग के सिर्फ कांटों से बिंध गया हूं। और मैंने त्यागी भी देखे हैं, उनको भी मैंने कांटों में बिंधा हुआ पाया। आपके जीवन में कुछ नयी बात देखता हूं। न आप योगी मालूम पड़ते हैं, न आप भोगी मालूम पड़ते हैं। अगर आपकी यह प्रफुल्लित मुद्रा, आपके यह व्यक्तित्व की आभा, आपकी आंखों से झरता यह अमृत, काफी है, बस काफी है, आपकी उपस्थिति का बोध काफी है। मुझे दीक्षा दें! मैं एक क्षण भी नहीं गंवाना चाहता। क्योंकि कल का क्या पता है? मुझसे मत कहना आप के सोच ले, विचार ले। सोचने-विचारने को कुछ बचा नहीं, मैं सब भोग कर देख लिया हूं।
बुद्ध ने उसे दीक्षा दे दी। और जिस बात का डर था, वही हुआ। दीक्षा लेने के बाद वह तत्क्षण दूसरी अति पर चला गया, जो कि मनुष्य के मन की साधारण प्रक्रिया है। मनुष्य का मन यूं चलता है जैसे घड़ी का पेंडुलम। बायें से दायें, दायें से बायें। और एक ख्याल रखना पेंडुलम के संबंध में, एक बात ध्यान में रखना, जब पेंडुलम बायीं तरफ जाता है तो दिखाई तो पड़ता है बायीं तरफ जा रहा है, लेकिन वह दायें तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी करता होता है। बायां जाता है और दायें तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी करता है। जब दायें जाता है तब बायें जाने की शक्ति इकट्ठी करता है। दिखाई एक बात पड़ती है, भीतर कुछ और बात हो रही है।
और यही स्थिति तुम्हारे तथाकथित भोगियों की और त्यागियों की है। जाते त्याग में हैं, लेकिन तैयारी भोग की हो रही है। फिर चाहे भोग स्वर्ग में हो। और वही हालत तुम्हारे भोगियों की है। जाते हैं भोग में, लेकिन तैयारी त्याग की हो रही है। मगर अतियों के बीच डोलने से कुछ क्रांति नहीं होती। एक अति दूसरे पर ले जाती हैदूसरी फिर थका देती है और पहले पर ले जाती है। और जन्मों-जन्मों तक यह पेंडुलम ऐसा ही घूमता रहता है।
और वही हुआ। श्रोण ने अति करनी शुरू कर दी। अति उसकी पुरानी आदत थी। भोग में अति की थी, अब वह त्याग में अति करने लगा। बौद्ध भिक्षु दिन में एक ही बार भोजन करते थे--क्योंकि बुद्ध का कहना था: पर्याप्त है--श्रोण...जिंदगी भर की पुरानी आदत, सबसे आगे होने की आदत, अगर दूसरे राजाओं के पास हजार स्त्रियां थीं तो उसने दो हजार इकट्ठी करके दिखा दी थीं; अगर दूसरे राजाओं के पास महल थे, तो उसने दुगुने बड़े महल बना कर दिखाई दिये थे--वह भिक्षुओं में भी पीछे नहीं रह सकता था; वही अहंकार। बुद्ध से आंदोलित हो गया था, प्रभावित हो गया था, लेकिन प्रभावित होते से ही तो क्रांति नहीं हो जाती। क्रांति करने के लिए तो फिर रफ्ता-रफ्ता, एक-एक इंच जीवन को बदलना होता है। प्रभावित होना तो बहुत आसान है, क्रांति लंबी प्रक्रिया है, वह आग से गुजरना है। पुरानी आदतें एकदम से नहीं चली जातीं। लौट-लौट कर आ जाती हैं, पीछे के दरवाजे से आ जाती हैं। एक दरवाजे से फेंको, दूसरा दरवाजा खोज लेती हैं।...वह दो दिल में एक बार भोजन करता था।
उसने सब भिक्षुओं को मात कर दिया।
और भिक्षु रास्तों पर चलते थे, वह हमेशा रास्ते के नीचे से चलता था; जहां कांटे होते, कंकड़-पत्थर होते। उसके पैर लहूलुहान हो गये। और भिक्षु तीन वस्त्र रखते थे, वह सिर्फ एक लंगोटी रखता था। उसने सब भिक्षुओं को मात कर दिया। वही पुराना श्रोण! उसने यहां भी अपना कब्जा जमा दिया। और सब साधारण रह गये, वह एकदम असाधारण हो गया। सुंदर उसकी देह थी, फूल जैसी कोमल उसकी देह थी, बहुत सुख में पला था, बहुत सुख में जीया था, उसने देह को बिलकुल ही जला डाला धूप में। काला पड़ गया। सूख गया। पैरों में घाव हो गये। रात सोता तो भी कंकड़ों-पत्थरों में सोता, बाहर सोता।
बुद्ध को खबरें आने लगीं कि उसकी हालत बिगड़ती जा रही है। हालांकि लोग उससे प्रभावित भी हो रहे थे।...लोग अजीब-अजीब तरह की चीजों से प्रभावित होते हैं।...वह फिर अहंकार में मजा लेने लगा था।
बुद्ध एक रात उसके झाड़ के पास गये जहां वह लेटा था और कहा: श्रोण, एक प्रश्न तुझे मुझसे पूछना है। और उसके पहले कि तू मुझसे प्रश्न पूछे, शायद तेरे सामने अभी साफ भी नहीं है प्रश्न, मैं मुझसे एक प्रश्न पूछता हूं, फिर तू भी शायद पूछ सकेगा। मैं राह देखता रहा कि तू पूछे। लेकिन लगता है कि तू प्रश्न को साफ नहीं कर पा रहा है, इसलिए पहले मैं पूछता हूं। मैं तुझसे पूछता हूं कि जब तू सम्राट था, तो सुना है मैंने कि तू अदभुत वीणा बजाता था, तेरा वीणावादन अपूर्व था। श्रोण को भूली-बिसरी यादें आयीं। उसने कहा, आप ठीक याद दिलाते हैं, मैं तो सब भूल-भाल गया हूं; हां, वीणा में मुझे रस था। और वीणा बजाने में मेरी कुशलता थी। और दूर-दूर के संगीतज्ञ भी उसकी प्रशंसा करते थे। बुद्ध ने कहा: यह मुझे पूछना है कि तू इतना वीणा का कुशल वादक था, तुझे तो अच्छी तरह पता होगा कि वीणा के तार अगर बहुत ढीले हों, तो क्या होगा? श्रोण ने कहा, तार ढीले हों,तो संगीत पैदा नहीं होता है। और बुद्ध ने कहा: अगर बहुत कसे हों? तो, श्रोण ने कहा, तो तारे खींचोगे, टूट जाएंगे; संगीत फिर पैदा नहीं होगा। बुद्ध ने कहा: बस। तुझे कुछ पूछना है?
तू अपने जीवन पर पुनर्विचार कर ले। पहले तेरे तार बहुत ढीले थे, जब संगीत पैदा नहीं हुआ। अब तूने तार बहुत कस लिये हैं, अब तार टूटने के करीब हैं, अब भी संगीत पैदा नहीं हो रहा है। मुझे देख, मैं वीणा बजाना नहीं जानता, लेकिन जीवन की वीणा बजाना जानता हूं। और मैं तुझसे कहता हूं: जो वीणा बजाने का नियम है, वही जीवन की वीणा को बजाने नियम भी है। न तार बहुत ढीले होने चाहिए, न बहुत कसे। एक ऐसी भी व्यवस्था है तारों की, जब न तो कह सकते हैं हम कि वे कसे हैं और न कह सकते हैं कि ढीले हैं; वह मध्य की अवस्था, वह समता की अवस्था, वह सम्यकत्व वह समतुलता की अवस्था जहां दोनों अतियों के बीच में तार होते हैं, वहीं संगीत पैदा होता है। और वीणा बजाना तो आसान है, लेकिन वीणा को ठीक समतुल अवस्था में लाना किसी उस्ताद को ही आता है।
श्रोण फिर पैरों पर गिरा दुबारा। एक दफा गिरा था जब भोगी की तरह आया था, आज गिरा योगी की तरह, त्यागी की तरह। उसने कहा, आपने मुझे ठीक समय पर सचेत कर दिया। जरूर मुझसे वहीं भूल हो गयी। तार ढीले थे, मैंने जरूरत से ज्यादा कस लिये। मैं भी सोच रहा था कि आनंद पैदा क्यों नहीं हो रहा है? सब तो मैं कर रहा हूं, दूसरे कर रहे हैं उससे दुगुना कर रहा हूं, फिर आनंद क्यों पैदा नहीं हो रहा है? बुद्ध ने कहा: वह दुगुना करने के कारण ही पैदा नहीं हो रहा है। जीवन में एक सम्यकत्व चाहिए, तो छंद पैदा होता है, तो छांदोग्य पैदा होता है।
शरीर से बहुत बंधने की जरूरत नहीं है, शरीर के दुश्मन होने की भी जरूरत नहीं है। शरीर सुंदर घर है, रहो, शरीर को देखभाल करो, अपने को शरीर ही न मान लो। मन भी प्यारा है। उसका भी उपयोग करो। उसकी भी जरूरत है। और हृदय तो और भी प्यारा है। उसमें भी जीओ। मगर, ध्यान बना रहे कि मैं साक्षी हूं।
और जिसे सतत स्मरण है कि मैं साक्षी हूं, उसकी क्रांति सुनिश्चित है। जिसे स्मरण है कि मैं साक्षी हूं, वह भूमा को उपलब्ध हो जाता है।
तुम सिर्फ साक्षी हो, वह तुम्हारा स्वरूप है। न तुम कर्ता हो--शरीर से कर्म होते हैं--न तुम विचारक हो--मन से विचार होते हैं--न तुम भावुक हो--हृदय से भावनाएं होती है--तुम साक्षी हो--भावों के, विचारों के, कृत्यों के। ये तुम्हारी तीन अभिव्यक्तियां हैं। और इन तीनों के बीच में तुम्हारा साक्षी है। उस साक्षी के सूत्र को पकड़ लो।
साक्षी के सूत्र को पकड़ते ही संन्यास का फूल खिल जाता है। जो कली की तरह रहा है जन्मों-जन्मों से, तत्क्षण उसकी पंखुड़ियां खुल जाती हैं। और वह फूल ऐसा नहीं जो कुम्हलाए, वह फूल अमृत है। वह फूल ऐसा नहीं जो मरे, वह भूमा है, असीम है। वह फूल आनंद का फूल है। वह फूल ही मोक्ष है।

आज इतना ही।




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