अप्प दीपो भव!—(प्रवचन-एकसौबीसवां)
पहला
प्रश्न:
मैं तुम्हीं से
पूछती हूं?
मुझे तुमसे प्यार क्यों है?
कभी तुम जुदा न
होओगे,
मुझे यह ऐतबार क्यों है?
पूछा है मा योग
प्रज्ञा ने।
प्रेम
के लिए कोई भी कारण नहीं होता। और जिस प्रेम का कारण बताया जा सके, वह प्रेम
नहीं है। प्रेम के साथ क्यों का कोई भी संबंध नहीं है। प्रेम कोई व्यवसाय नहीं है।
प्रेम के भीतर हेतु होता ही नहीं। प्रेम अकारण भाव—दशा है। न कोई शर्त है, न कोई सीमा है।
क्यों
का पता चल जाए,
तो प्रेम का रहस्य ही समाप्त हो गया। प्रेम का कभी भी शास्त्र नहीं
बन पाता। इसीलिए नहीं बन पाता। प्रेम के गीत हो सकते हैं। प्रेम का कोई शास्त्र
नहीं, कोई सिद्धांत नहीं।
प्रेम
मस्तिष्क की बात नहीं है। मस्तिष्क की होती, तो क्यों का उत्तर मिल जाता। प्रेम
हृदय की बात है। वहा क्यों का कभी प्रवेश ही नहीं होता।
क्यों
है मस्तिष्क का प्रश्न;
और प्रेम है हृदय का आविर्भाव। इन दोनों का कहीं मिलना नहीं होता।
इसलिए जब प्रेम होता है, तो बस होता है—बेबूझ, रहस्यपूर्ण। अज्ञात ही नहीं—अज्ञेय। ऐसा भी नहीं कि किसी दिन जान लोगे।
इसीलिए
तो जीसस ने कहा कि प्रेम परमात्मा है। इस पृथ्वी पर प्रेम एक अकेला अनुभव है, जो
परमात्मा के संबंध में थोड़े इंगित करता है। ऐसा ही परमात्मा है—अकारण, अहैतुक। ऐसा ही परमात्मा है—रहस्यपूर्ण। ऐसा ही परमात्मा है, जिसका कि हम आर—पार न पा सकेंगे। प्रेम उसकी पहली झलक है।
क्यों
पूछो ही मत। यद्यपि मैं जानता हूं क्यों उठता है। क्यों का उठना भी स्वाभाविक है।
आदमी हर चीज का कारण खोजना चाहता है। इसी से तो विज्ञान का जन्म हुआ। क्योंकि आदमी
हर चीज का कारण खोजना चाहता है कि ऐसा क्यों होता है? जब कारण
मिल जाता है, तो विज्ञान बन जाता है। और जिन चीजों का कारण
नहीं मिलता, उन्हीं से धर्म बनता है। धर्म और विज्ञान का यही
भेद है। कारण मिल गया, तो विज्ञान निर्मित हो जाएगा।
प्रेम
का विज्ञान कभी निर्मित नहीं होगा। और परमात्मा विज्ञान की प्रयोगशाला में कभी पकड़
में नहीं आएगा। जीवन में जो भी परम है—सौंदर्य, सत्य, प्रेम—उन
पर विज्ञान की कोई पहुंच नहीं है। वे विज्ञान की पहुंच के बाहर हैं। जीवन में जो
भी महत्वपूर्ण है, गरिमापूर्ण है, वह
कुछ अज्ञात लोक से उठता है। तुम्हारे भीतर से ही उठता है। लेकिन इतने अंतरतम से
आता है कि तुम्हारी परिधि उसे नहीं समझ पाती। तुम्हारे विचार करने की क्षमता परिधि
पर है। और तुम्हारे प्रेम करने की क्षमता तुम्हारे केंद्र पर है।
केंद्र
तो परिधि को समझ सकता है। लेकिन परिधि केंद्र को नहीं समझ सकती। क्षुद्र विराट को
नहीं समझ सकता;
विराट क्षुद्र को समझ सकता है। छोटा बच्चा के को नहीं समझ सकता;
का छोटे बच्चे को समझ सकता है।
प्रेम
बड़ी बात है—मस्तिष्क से बहुत बड़ी। मस्तिष्क से ही क्यों—प्रेम तुमसे भी बड़ी बात
है। इसीलिए तो तुम अवश हो जाते हो। प्रेम का झोंका जब आता है, तुम कहां
बचते हो? प्रेम का मौसम जब आता है, तुम
कहां बचते हो? प्रेम की किरण उतरती है, तुम मिट जाते हो। तुमसे भी बड़ी बात है। तो तुम कैसे समझ पाओगे? तुम तो बचते ही नहीं, जब प्रेम उतरता है। जब प्रेम
नाचता हुआ आता है तुम्हारे भीतर, तुम कहां होते हो? खुदी बेखुदी हो जाती है। आत्मा अनात्मा हो जाती है। एक शून्य रह जाता है।
उस शून्य में ही नाचती है किरण प्रेम की, प्रार्थना की,
परमात्मा की।
नहीं, उसे तुम न
समझ पाओगे। जब तुम लौटते हो, तब प्रेम जा चुका। जो समझ सकता
था, जब आता है, तो जिसे समझना था,
वह जा चुका। और जिसे समझना है, जब वह वहां
होता है तुम्हारे भीतर, तो जो समझना चाहता है, वह मौजूद नहीं होता।
कबीर
ने कहा है हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराइ। खोजने चला हूं कबीर कहते हैं;
परमात्मा को खोजने चला था। खोजते—खोजते कबीर तो खो ही गया। और जिस
क्षण कबीर खोया, उसी क्षण परमात्मा से मिलन हुआ।
यह
मिलन बड़ा विरोधाभासी है। खोजी तो चला गया, तब खोज पूरी हुई—खोजी के जाने पर।
तो मिलन कहा? पहले कबीर था; अब
परमात्मा' है। मिलन कहां? कबीर तो अब
नहीं है। जब तक कबीर था, तब तक परमात्मा नहीं था। अब
परमात्मा है, तो कबीर नहीं है। ऐसी दशा है प्रेम की।
कबीर
ने कहा है. प्रेम गली अति साकरी, ता में दो न समाय। इसका तुमने एक अर्थ तो सदा
लिया है कि प्रेमी और प्रेयसी दो एकसाथ न समा सकेंगे। उनको एक हो जाना पड़ेगा। इसका
एक और गहरा अर्थ है. प्रेम में मस्तिष्क और हृदय भी न समा सकेंगे। एक ही समा सकता
है।
क्यों
उठता है मस्तिष्क से। खुजलाहट है मस्तिष्क की। उसका कोई मूल्य भी नहीं है। उठना स्वाभाविक
है। लेकिन अब धीरे—धीरे स्वभाव से भी ऊपर उठो, ताकि परम स्वभाव मिले।
'मैं तुम्हीं से पूछती हूं मुझे तुमसे प्यार क्यों है?'
नहीं, इसका कोई
उत्तर नहीं हो सकता। वृक्ष हरे क्यों हैं? चांद—तारों में
रोशनी क्यों है? आकाश में बादल क्यों भटकते हैं? सुबह सूरज क्यों निकलता है? पक्षी प्रभात में गीत
क्यों गाते हैं?
वैज्ञानिक
से पूछोगे, कुछ न कुछ उत्तर खोज लाएगा। लेकिन उस उत्तर से भी कुछ हल नहीं होता।
वैज्ञानिक से पूछोगे, वृक्ष हरे क्यों हैं? तो कहेगा, क्योंकि क्लोरोफिल वृक्षों में है। लेकिन
इससे कुछ हल नहीं हुआ। यह कोई प्रश्न का उत्तर न हुआ; सिर्फ
प्रश्न को टालना हुआ। फिर प्रश्न खड़ा हो जाएगा कि वृक्षों में क्लोरोफिल है क्यों?
फिर अटक गयी बात।
डी
एच लारेंस ने ठीक उत्तर दिया है। एक छोटे बच्चे के साथ घूमता है लारेंस एक बगीचे
में। और जैसा बच्चे पूछते हैं, बच्चे ने पूछा. वृक्ष हरे क्यों हैं? व्हाय द ट्रीज आर ग्रीन? और डी एच लारेंस ने कहा. दे
आर ग्रीन, बिकाज दे आर ग्रीन। वृक्ष हरे हैं, क्योंकि हरे हैं। और बच्चा राज़ी हो गया। और बच्चा हंसा। और बच्चे को बात
जंची।
बच्चे
जैसे सरल हो जाओ,
तो तुम्हें मेरी बात समझ में आ जाएगी; मैं जो
कह रहा हूं। बस, प्रेम है। जैसे वृक्ष हरे हैं—अकारण।
इस
जगत में कारण नहीं है। कारण की खोज बडी क्षुद्र है। इस जगत में कारण है ही नहीं।
यह जगत इसी लिए तो लीला कहा गया है। खेल है; कारण नहीं है। तुम एक मकान बना रहे
हो; उसमें कारण होता है कि रहोगे। और एक छोटा बच्चा ताश के
पत्तों को जमाकर मकान बना रहा है; इसमें क्या कारण है?
तुम बाजार जा रहे हो। इसमें कारण है। दुकान जाना है। धंधा करना है।
पैसा कमाना है।
रोटी—रोजी
चाहिए। छप्पर चाहिए। और एक बच्चा कमरे में चक्कर लगा रहा है। इसमें क्या कारण है?
एक
आदमी सुबह घूमने निकला है। कहीं जा नहीं रहा है। इसमें कोई कारण नहीं है। कहीं से
लौट आए। कहीं बैठ जाए। न जाए, तो कोई बात नहीं है।
यह
जगत अकारण है। यहां इतना सब कुछ हो रहा है, लेकिन इस होने के पीछे कोई हेतु,
कोई व्यवसाय नहीं है। जिसने ऐसा जाना, वह
मुक्त हो गया। जिसने ऐसा पहचाना, उसके सारे बंधन गिर गए।
क्योंकि फिर क्या बंधन रहे! फिर क्या चिंता रही! चिंता तभी तक हो सकती है, जब हम कुछ करने को उतारू हैं। अगर यह जगत अपने से हो ही रहा है, तो चिंता कहां रही?
तुम्हें
चिंता पकड सकती है,
अगर तुम सोचो कि मेरे शरीर के भीतर खून बह रहा है, कहीं रुक जाए रात सोते में! न बहे। फिर क्या करूंगा? हृदय धड़क रहा है और हम तो सो गए—और न धड़के। फिर मैं क्या करूंगा? श्वास तो चल रही है; रुक जाए; फिर
मैं क्या करूंगा? तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। तो चिंता
पैदा हो जाएगी।
जब
तक श्वास चल रही है,
चल रही है। जब नहीं चल रही है, तब नहीं चल रही
है। न चलने में कोई कारण है; न न चलने में कोई कारण है। लीला
है। खेल है।
इस
तरह जीवन को देखो,
तो तुम चिंताओं के बाहर होने लगो। और जो चिंताओं के बाहर हुआ,
वही मंदिर में प्रविष्ट होता है।
'कभी तुम जुदा न होगे, मुझे यह ऐतबार क्यों है?'
यह
ऐतबार भी प्रेम का अंतरंग भाग है। जैसे फूल में सुगंध होती है, ऐसे प्रेम
में ऐतबार होता है। प्रेम में श्रद्धा का दीया जलता है। प्रेम में एक भरोसा होता
है। उस भरोसे का भी कोई कारण नहीं है। लेकिन बस, प्रेम में
वह भरोसा पाया जाता है। जैसे फूलों में सुगंध पायी जाती है। जैसे पानी नीचे की तरफ
बहता है और आग गरम है। ऐसे ही प्रेम का गुण श्रद्धा है। वह उसकी आत्मा है। प्रेम
के दीए में श्रद्धा का प्रकाश होता रहता है।
प्रश्न
प्यारा है, मगर उत्तर मत खोजो। उत्तर को जाने दो; प्रेम को
जीयो। और यह जो ऐतबार जगा है, यह जो श्रद्धा जगी है, इस पर समर्पित हो जाओ। इस पर सब न्योछावर कर दो। इसमें डुबकी मार लो।
इसमें मिट जाओ। इसमें खो जाओ। और तुम सब पा लोगे।
खोना
ही पाने का सूत्र है। जिसने बचाया, वह चूका। जिसने कंजूसी की, वह गरीब रह गया। जिसने लुटाया, उसने पाया। जो डूबा,
वह पहुंचा। मझधार में डूबने की हिम्मत चाहिए, तो
मझधार ही किनारा हो जाती है। और मझधार ही किनारा हो, तभी कुछ
मजा है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान
बुद्ध ने कहा है : अपने दीए आप बनो। तो क्या सत्य की खोज में किसी भी सहारे की कोई
जरूरत नहीं है?
वह जानने को भी तो तुम्हें बुद्ध के पास जाना पड़ेगा
न!
—अपने
दीए आप बनो। इतनी ही जरूरत है गुरु की। गुरु तुम्हारी बैसाखी नहीं बनने वाला है।
जो बैसाखी बन जाए तुम्हारी,
वह तुम्हारा दुश्मन है, गुरु नहीं है। क्योंकि
जो बैसाखी बन जाए तुम्हारी, वह तुम्हें सदा के लिए लंगड़ा कर
देगा। और अगर बैसाखी पर तुम निर्भर रहने लगे, तो तुम अपने
पैरों को कब खोजोगे? अपनी गति कब खोजोगे? अपनी ऊर्जा कब खोजोगे?
जो
तुम्हें हाथ पकड़कर चलाने लगे, वह गुरु तुम्हें अंधा रखेगा। जो कहे. मेरा तो
दीया जला है; तुम्हें दीया जलाने की क्या जरूरत? देख लो मेरी रोशनी में। चले आओ मेरे साथ। उस पर भरोसा मत करना। क्योंकि आज
नहीं कल रास्ते अलग हो जाएंगे। कब रास्ते अलग हो जाएंगे, कोई
भी नहीं जानता। कब मौत आकर बीच में दीवाल बन जाएगी, कोई भी
नहीं जानता। तब तुम एकदम घुप्प अंधेरे में छूट जाओगे। गुरु की रोशनी को अपनी रोशनी
मत समझ लेना।
ऐसी
भूल अक्सर हो जाती है।
सूफियों
की कहानी है कि दो आदमी एक रास्ते पर चल रहे हैं। एक आदमी के हाथ में लालटेन है।
और एक आदमी के हाथ में कोई लालटेन नहीं है। कुछ घंटों तक वे दोनों साथ—साथ चलते
रहे हैं। आधी रात हो गयी। मगर जिसके हाथ में लालटेन नहीं है, उसे इस
बात का खयाल भी पैदा नहीं होता कि मेरे हाथ में लालटेन नहीं है। जरूरत क्या है?
दूसरे आदमी के हाथ में लालटेन है। और रोशनी पड़ रही है। और जितना
जिसके हाथ में लालटेन है उसको रोशनी मिल रही है, उतनी उसको
भी मिल रही है जिसके हाथ में लालटेन नहीं है। दोनों मजे से गपशप करते चले जाते
हैं। फिर वह जगह आ गयी, जहां लालटेन वाले ने कहा : अब मेरा
रास्ता तुमसे अलग होता है। अलविदा। फिर घुप्प अंधेरा हो गया।
आज
नहीं कल गुरु से विदा हो जाना पड़ेगा। या गुरु विदा हो जाएगा। सदगुरु वही है, जो विदा
होने के पहले तुम्हारा दीया जलाने के लिए तुम्हें सचेत करे। इसलिए बुद्ध ने कहा है
: अप्प दीपो भव। अपने दीए खुद बनो। यह भी जिंदगीभर कहा, लेकिन
नहीं सुना लोगों ने। जिन्होंने सुन लिया, उन्होंने तो अपने
दीए जला लिए। लेकिन कुछ इसी मस्ती में रहे कि करना क्या है! बुद्ध तो हैं।
आनंद
से कही है यह बात उन्होंने। आनंद भी उन्हीं नासमझों में एक था, जो बुद्ध
की रोशनी में चालीस साल तक चलता रहा। स्वभावत:, चालीस साल तक
रोशनी मिलती रहे, तो लोग भूल ही जाएंगे कि अपने पास रोशनी
नहीं है, कि हम अंधे हैं। चालीस साल तक किसी जागे का साथ
मिलता रहे, तो स्वभावत: भूल हो जाएगी। लोग यह भरोसा ही कर
लेंगे कि हम भी पहुंच ही गए। रोशनी तो सदा रहती है। भूल—चूक होती नहीं। भटकते
नहीं। गड्डों में गिरते नहीं।
और
आनंद बुद्ध के सर्वाधिक निकट रहा। चालीस साल छाया की तरह साथ रहा। सुबह—सांझ, रात—दिन।
चालीस साल में एक दिन भी बुद्ध को छोड़कर नहीं गया। बुद्ध भिक्षा मांगने जाएं,
तो आनंद साथ जाएगा। बुद्ध सोए, तो आनंद साथ
सोएगा। बुद्ध उठें, तो आनंद साथ उठेगा। आनंद बिलकुल छाया था।
भूल ही गया होगा। उसको हम क्षमा कर सकते हैं। चालीस साल रोशनी ही रोशनी!
उठते—बैठते रोशनी। जागते—सोते रोशनी। भूल ही गया होगा।
फिर
बुद्ध का अंतिम दिन आ गया। रास्ते अलग हुए। और बुद्ध ने कहा कि अब मेरी आखिरी घड़ी
आ गयी। अब मैं विदा लूंगा। भिक्षुओ! किसी को कुछ पूछना हो, तो पूछ
लो। बस, आज मैं आखिरी सांस लूंगा।
जिन्होंने
अपने दीए जला लिए थे,
वे तो शांत अपने दीए जलाए बैठे रहे परम अनुग्रह से भरे हुए—कि न
मिलता बुद्ध का साथ, तो शायद हमें याद भी न आती कि हमारे
भीतर दीए के जलने की संभावना है। न मिलता बुद्ध का साथ, न
बुद्ध हमें चोट करते रहते बार—बार कि जागो, जागो, जलाओ अपना दीया, तो शायद हमें पता भी होता शास्त्र
से पढ़कर, कि हमारे भीतर दीए के जलने की संभावना है, तो भी हमने न जलाया होता। हमें यह भी पता होता कि संभावना है, जल भी सकता है, तो विधि मालूम नहीं थी।
आखिर
दीया बनाना हो,
तो विधि भी तो होनी चाहिए! बाती बनानी आनी चाहिए। तेल भरना आना
चाहिए। फिर दीया ऐसा होना चाहिए कि तेल बह न जाए। फिर दीए की सम्हाल भी करनी होती
है। नहीं तो कभी बाती तेल में ही गिर जाएगी और दीया बुझ जाएगा। वह साज—सम्हाल भी
आनी चाहिए; विधि भी आनी चाहिए। फिर चकमक पत्थर भी खोजने
चाहिए। फिर आग पैदा करने की कला भी होनी चाहिए।
तो
अनुग्रह से भरे थे। जिन्होंने पा लिया था, वे तो शांत, चुपचाप
बैठे रहे। गहन आनंद में, गहन अहोभाव में।
आनंद
दहाड़ मारकर रोने लगा। उसने कहा. यह आप क्या कह रहे हैं! यह कहो ही मत। मेरा क्या
होगा?
आ
गया रास्ता अलग होने का क्षण। आज उसे पता चला कि ये चालीस साल मैं तो अंधा ही था।
यह रोशनी उधार थी। यह रोशनी किसी और की थी। और यह विदाई का क्षण आ गया। और विदाई
का क्षण आज नहीं कल,
देर— अबेर आएगा ही।
तब
बुद्ध ने कहा था. आनंद! कितनी बार मैंने तुझसे कहा है, अप्प दीपो
भव! अपना दीया बन। तू सुनता नहीं। अब तू समझ। चालीस साल निरंतर कहने पर तूने नहीं
सुना, इसलिए रोना पड़ रहा है। देख उनको, जिन्होंने सुना। वे दीया बने शांत अपनी जगह बैठे हैं।
बुद्ध
के जाने से एक तरह का संवेग है। इस अपूर्व मनुष्य के साथ इतने दिन रहने का मौका
मिला। आज अलग होने का क्षण आया। तो एक तरह की उदासी है। मगर दहाडू मारकर नहीं रो
रहे हैं। क्योंकि यह डर नहीं है कि अंधेरा हो जाएगा। अपना—अपना दीया उन्होंने जला
लिया है।
तुम
पूछते हो. 'भगवान बुद्ध ने कहा है, अपने दीए आप बनो, तो क्या सत्य की खोज में किसी भी सहारे की कोई जरूरत नहीं है?'
यह
जरा नाजुक सवाल है। नाजुक इसलिए कि एक अर्थ में जरूरत है और एक अर्थ में जरूरत
नहीं है। इस अर्थ में जरूरत है कि तुम अपने से तो शायद जाग ही न सकोगे; तुम्हारी
नींद बड़ी गहरी है। कोई तुम्हें जगाए।
लेकिन
इस अर्थ में जरूरत नहीं है कि किसी दूसरे के जगाने से ही तुम जाग जाओगे। जब तक तुम
ही न जागना चाहो,
कोई तुम्हें जगा न सकेगा। और अगर तुम जागना चाहो, तो बिना किसी के जगाए भी जाग सकते हो, यह संभावना
है। बिना गुरु के भी लोग पहुंचे हैं। मगर इसको जड़ सिद्धांत मत बना लेना कि बिना
गुरु के कोई पहुंच गया, तो तुम भी पहुंच जाओगे।
मेरे
पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं आपसे एक सलाह लेनी है। अगर गुरु न बनाएं, तो हम
पहुंच सकेंगे कि नहीं? मैंने कहा कि तुम इतनी ही बात खुद
नहीं सोच सकते, इसके लिए भी तुम मेरे पास आए! तुमने गुरु तो
बना ही लिया!
गुरु
का मतलब क्या होता है?
किसी और से पूछने गए; यह भी तुम खुद न खोज
पाए!
मुझसे
लोग आकर पूछते हैं कि आपका गुरु कौन था न: हमने तो सुना कि आपका गुरु नहीं था! जब
आपने बिना गुरु के पा लिया,
तो हम क्यों न पा लेंगे? मैं उनसे कहता हूं.
मैं कभी किसी से यह भी पूछने नहीं गया कि बिना गुरु के मिलेगा कि नहीं!
तुम
जब इतनी छोटी सी बात भी खुद निर्णय नहीं कर पाते हो, तो उस विराट सत्य के निर्णय
में तुम कैसे सफल हो पाओगे?
तो
एक अर्थ में गुरु की जरूरत है। और एक अर्थ में जरूरत नहीं है। अगर तुम्हारी
अभीप्सा प्रगाढ़ हो,
तो कोई जरूरत नहीं है। लेकिन जरूरत या गैर—जरूरत, इसकी समस्या क्यों बनाते हो? जितना मिल सके किसी से
ले लो। मगर इतना ध्यान रखो कि दूसरे से लिए हुए पर थोड़े दिन काम चल जाएगा। अंततः
तो अपनी समृद्धि खुद ही खोजनी चाहिए। किसी के कंधे पर सवार होकर थोड़ी देर चल लो,
अंततः तो अपने पैरों का बल निर्मित करना ही चाहिए।
रास्ता
सीधा—साफ है। प्रबल प्यास हो, तो अकेले भी पहुंच जाओगे। रास्ता इतना सीधा—साफ
है कि इस पर किसी के भी साथ की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन अगर अकेले पहुंचने की
हिम्मत न बनती हो, तो थोड़े दिन किसी का साथ बना लेना। लेकिन
साथ को बंधन मत बना लेना। फिर ऐसा मत कहना कि बिना साथ के हम जाएंगे ही नहीं। नहीं
तो तुम कभी न पहुंचोगे। क्योंकि सत्य तक तो अंततः अकेले ही पहुंचना होगा। एकांत
में ही घटेगी घटना। उस एकांत में तुम्हारा गुरु भी तुम्हारे साथ मौजूद नहीं होगा।
गुरु
तुम्हें संसार में मुक्त होने में सहयोगी हो सकता है। लेकिन परमात्मा से मिलने में
सहयोगी नहीं हो सकता। संसार से छुड़ाने में सहयोगी हो जाएगा। संसार छूट जाए, तो फिर
तुम्हें एकांत में परमात्मा से मिलना होगा। वह मिलन भीड़— भाड़ में नहीं होता।
किस कदर सीधा सहल
साफ है यह रस्ता देखो
न किसी शाख का
साया है, न दीवार की ट्रेक
न किसी आंख की आहट, न किसी
चेहरे का शोर
न कोई दाग जहां
बैठ के सुस्ताए कोई
दूर तक कोई नहीं, कोई नहीं,
कोई नहीं
चंद कदमों के निशा, हा,
कभी मिलते हैं कहीं
साथ चलते हैं जो
कुछ दूर फकत चंद कदम
और फिर टूट के
गिरते हैं यह कहते हुए
अपनी तनहाई लिए आप
चलो, तन्हा, अकेले
साथ आए जो यहां
कोई नहीं, कोई नहीं
किस कदर सीधा सहल
साफ है यह रस्ता देखो
थोड़ी
दूर किसी के कदम के साथ चल लो, ताकि चलना आ जाए। मंजिल नहीं आती इससे, सिर्फ चलने की कला आती है। थोड़ी दूर किसी के पग—चिह्नों पर चल लो, ताकि पैरों को चलने का अभ्यास हो जाए। इससे मंजिल नहीं आती; मंजिल तो तुम्हारे ही चलने से आएगी; किसी और के चलने
से नहीं।
मेरी
आंख से तुम कैसे देखोगे?
ही, थोड़ी देर को तुम मेरी आंख में झांक सकते
हो। तुम मेरे हृदय से कैसे अनुभव करोगे? ही, थोड़ी देर किसी गहन भाव की दशा में तुम मेरे हृदय के साथ धड़क सकते हो।
निश्चित ही किसी प्रेम की घटना में थोड़ी देर को तुम्हारा हृदय और मेरा हृदय एक ही
लय में बद्ध हो सकते हैं। उस समय क्षणभर को तुम्हें रोशनी दिखेगी। उस समय क्षणभर
को आकाश खुला दिखायी पड़ेगा; सब बादल हट जाएंगे। लेकिन यह
थोड़ी ही देर को होगा। अंततः तो तुम्हें अपने हृदय का सरगम खोजना ही है।
किस कदर सीधा सहल
साफ है यह रस्ता देखो
न किसी शाख का
साया है, न दीवार की टेक
न किसी आंख की आहट, न किसी
चेहरे का शोर
न कोई दाग जहां
बैठ के सुस्ताए कोई
दूर तक कोई नहीं, कोई नहीं,
कोई नहीं
चंद कदमों के निशा, ही,
कभी मिलते हैं कहीं
साथ चलते हैं जो
कुछ दूर फकत चंद कदम
और फिर टूट के
गिरते हैं यह कहते हुए
अपनी तनहाई लिए आप
चलो, तन्हा, अकेले
साथ आए जो यहां
कोई नहीं, कोई नहीं
किस कदर सीधा सहल
साफ है यह रस्ता देखो
अच्छा
है कि तुम्हें परमात्मा तक अकेले ही पहुंचने की संभावना है। नहीं तो किसी पर
निर्भर होना पड़ता। और निर्भरता से कभी कोई मुक्ति नहीं आती। निर्भरता तो गुलामी का
ही एक अच्छा नाम है। निर्भरता तो दासता ही है। वह दासता की ही दास्तान है—नए ढंग
से लिखी गयी,
नए लस्वों में, नए शब्दों में, नए रूप—रंग से; लेकिन बात वही है।
इसलिए
कोई सदगुरु तुम्हें गुलाम नहीं बनाता। और जो गुलाम बना ले, वहां से
भाग जाना। वहां क्षणभर मत रुकना। वहां रुकना खतरनाक है। जो तुम्हें कहे कि मेरे
बिना तुम्हारा कुछ भी नहीं होगा; जो कहे कि मेरे बिना तुम
कभी भी नहीं पहुंच सकोगे; जो कहे : मेरे पीछे ही चलते रहना,
तो ही परमात्मा मिलेगा, नहीं तो चूक जाओगे—ऐसा
जो कोई कहता हो, उससे बचना। उसे स्वयं भी अभी नहीं मिला है।
क्योंकि यदि उसे स्वयं मिला होता, तो एक बात उसे साफ हो गयी
होती कि परमात्मा जब मिलता है, एकांत में मिलता है; वहां कोई नहीं होता, कोई दूसरा नहीं होता।
उसे
परमात्मा तो मिला ही नहीं है, उसने लोगों के शोषण करने का नया ढंग, नयी तरकीब ईजाद कर ली है। उसने एक जाल ईजाद कर लिया है, जिसमें दूसरों की गरदनें फंस जाएंगी। ऐसा आदमी धार्मिक नहीं है, राजनैतिक है। ऐसा आदमी गुरु नहीं है, नेता है। ऐसा
आदमी भीड— भाड़ को अपने पीछे खड़ा करके अहंकार का रस लेना चाहता है। इस आदमी से
सावधान रहना। इस आदमी से दूर—दूर रहना। इस आदमी के पास मत आना।
जो
तुमसे कहे कि मेरे बिना परमात्मा नहीं मिलेगा, वह महान से महान असत्य बोल रहा है।
क्योंकि परमात्मा उतना ही तुम्हारा है, जितना उसका। ही,
यह हो सकता है कि तुम जरा लड़खड़ाते हो। वह कम लड़खड़ाता है। या उसकी
लड़खड़ाहट मिट गयी है और वह तुम्हें चलने का ढंग, शैली सिखा
सकता है। हां, यह हो सकता है कि उसे तैरना आ गया और तुम उसे
देखकर तैरना सीख ले सकते हो। लेकिन उसके कंधों का सहारा मत लेना, अन्यथा दूसरा किनारा कभी न आएगा। उसके कंधों पर निर्भर मत हो जाना,
नहीं तो वही तुम्हारी बर्बादी का कारण होगा।
इसी
तरह तो यह देश बरबाद हुआ। यहां मिथ्या गुरुओं ने लोगों को गुलाम बना लिया। इस
मुल्क को गुलामी की आदत पड़ गयी। इस मुल्क को निर्भर रहने की आदत पड़ गयी। यह जो
हजार साल इस देश में गुलामी आयी, इसके पीछे और कोई कारण नहीं है। इसके पीछे न तो
मुसलमान हैं, न मुगल हैं, न तुर्क हैं,
न हूण हैं, न अंग्रेज हैं। इसके पीछे तुम्हारे
मिथ्या गुरुओं का जाल है।
मिथ्या
गुरुओं ने तुम्हें सदियों से यह सिखाया है निर्भर होना। उन्होंने इतना निर्भर होना
सिखा दिया कि जब कोई राजनैतिक रूप से भी तुम्हारी छाती पर सवार हो गया, तुम उसी
पर निर्भर हो गए। तुम जी—हुजूर उसी को कहने लगे। तुम उसी के सामने सिर झुकाकर खड़े
हो गए। तुम्हें आजादी का रस ही नहीं लगा; स्वाद ही नहीं लगा।
अगर
कोई मुझसे पूछे,
तो तुम्हारी गुलामी की कहानी के पीछे तुम्हारे गुरुओं का हाथ है।
उन्होंने तुम्हें मुक्ति नहीं सिखायी, स्वतंत्रता नहीं
सिखायी।
काश!
बुद्ध जैसे गुरुओं की तुमने सुनी होती, तो इस देश में गुलामी का कोई कारण
नहीं था। काश! तुमने व्यक्तित्व सीखा होता, निजता सीखी होती,
काश! तुमने यह सीखा होता कि मुझे मुझी होना है, मुझे किसी दूसरे की प्रतिलिपि नहीं होना है, और मुझे
अपना दीया खुद बनना है, तो तुम बाहर के जगत में भी पैर जमाकर
खड़े होते। यह अपमानजनक बात न घटती कि चालीस करोड़ का मुल्क मुट्ठीभर लोगों का गुलाम
हो जाए! कोई भी आ जाए और यह मुल्क गुलाम हो जाए!
जरूर
इस मुल्क की आत्मा में गुलामी की गहरी छाप पड़ गयी। किसने डाली यह छाप? किसने यह
जहर तुम्हारे खून में घोला? किसने विषाक्त की तुम्हारी आत्मा?
किसने तुम्हें अंधेरे में रहने के लिए विधियां सिखायी? तुम्हारे तथाकथित गुरुओं ने। वे गुरु नहीं थे।
गुरु
तो बुद्ध जैसे व्यक्ति ही होते हैं, जो कहते हैं, अप्प दीपो भव!
एकांत
में ही बजेगा अंतिम संगीत। एकांत में ही
उतरेगी समाधि। एकांत में ही होगा मिलन।
मुझसे इक नज्म का
वादा है, मिलेगी मुझको
डूबती नब्जों में
जब दर्द को नींद आने लगे
जर्द—सा चेहरा लिए
चांद उफक पर पहुंचे
दिन अभी पानी में
हो, रात किनारे के करीब
न अंधेरा, न उजाला
हो, न यह रात, न दिन
जिस्म जब खत्म हो
और रूह को जब सांस आए
मुझसे इक नज्म का
वादा है, मिलेगी मुझको
एक
गीत तुम्हारे भीतर घटने को है। वायदा है एक गीत का कि मैं आऊंगा; बरसूंगा
तुम पर। लेकिन कब? जब सब समाप्त हो जाए।
मुझसे इक नज्म का
वादा है, मिलेगी मुझको
डूबती नब्जों में
जब दर्द को नींद आने लगे
जब
तुम्हारे जीवन की सारी पीड़ाएं छूट जाएं; जब तुम्हारे दर्द की आदतें मिट
जाएं।
जर्द—सा चेहरा लिए
चांद उफक पर पहुंचे
दिन अभी पानी में
हो, रात किनारे के करीब
न अंधेरा, न उजाला
हो
द्वंद्व जहां मिट
जाए।
न अंधेरा, न उजाला
हो, न यह रात, न दिन
इसलिए
तो हम संध्या शब्द का उपयोग करते हैं प्रार्थना के लिए। क्यों संध्या का उपयोग
करते हैं? संध्या का अर्थ ही प्रार्थना हो गया! लोग कहते हैं : अभी वे संध्या कर रहे
हैं। संध्या का मतलब?
न अंधेरा हो, न उजाला
हो, न यह रात, न दिन
मध्य
में हो। सब द्वंद्व छूट जाएं। सब अतियां छूट जाएं। न इस तरफ, न उस तरफ।
कोई झुकाव न रह जाए, कोई चुनाव न रह जाए, कोई विकल्प न रह जाए। न जीवन, न मृत्यु। न वसंत,
न पतझड़। न सुख, न दुख। संध्या आ जाए।
दिन अभी पानी में
हो, रात किनारे के करीब
न अंधेरा, न उजाला
हो, न यह रात, न दिन
जिस्म जब खत्म
हो......
और
जिसे तुमने अब तक जाना है कि मैं हूं जिसे तुमने माना है कि मैं हूं, वह जब
मिटने लगे..।
जिस्म जब खत्म हो
और रूह को जब सांस आए
ये
जो सांसें तुमने समझी हैं,
जीवन है, यह तुम्हारी असली सांस नहीं है। इस
सांस से तो केवल देह चलती है। एक और सांस है। जब इस सांस से तुम्हारा संबंध छूट
जाता है, तब दूसरी सास पैदा होती है।
जिस्म जब खत्म हो
और रूह को जब सांस आए
मुझसे
इक नज्म का वादा है,
मिलेगी मुझको
वहीं
वह संगीत उतरता है,
जिसे समाधि कहो, सत्य कहो, सौंदर्य कहो, शिवत्व कहो, मुक्ति
कहो, मोक्ष कहो, निर्वाण कहो। लेकिन उस
परम एकांत में—जहां सब छूट गया—संसार गया,
और गए, मित्र गए, शत्रु
गए; देह भी गयी, श्वास भी गयी; दिन और रात भी गए; सब द्वंद्व चले गए; जहां बिलकुल निपट सन्नाटा रह गया, वहीं रूह को सांस
आती है। वहीं पहली दफा तुम्हारा आत्मिक जीवन शुरू होता है। वहीं तुम्हारा
पुनर्जन्म होता है।
उस
घड़ी में परमात्मा से मिलन है। वह घड़ी बड़ी स्वात की घड़ी है। दूसरा तो क्या, तुम भी
वहा नहीं होते। इतना एकांत होता है कि एक भी वहा नहीं होता। दो तो मिट ही गए होते
हैं। अंततः एक भी मिट गया होता है। सिर्फ विराट शून्य होता है। सब अनुपस्थित होता
है। उस खाली, रिक्त स्थान में ही परमात्मा का प्रवेश है।
इसलिए बुद्ध ठीक कहते हैं, अपने दीए आप बनो। इसका यह मतलब
नहीं है कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है। इसका मतलब यह भी नहीं कि गुरु के बिना कोई
पहुंच नहीं सकता।
इसलिए
मैंने कहा, नाजुक सवाल है। नाजुक इसलिए कि गुरु की जरूरत है और नहीं भी है। इतनी ही
जरूरत है कि तुम इशारे समझ लो और चल पड़ो।
सदा
गुरु के पीछे ही चलते रहने की जरूरत नहीं है। इशारा समझ में आ जाए, फिर भीतर
चलना है, फिर किसी के पीछे नहीं चलना है।
उंगलियों
को मत पकड़ लेना। उंगलियां जिस तरफ इशारा करती हैं, जिस चांद की तरफ, उसको देखना और चल पड़ना।
तीसरा प्रश्न
आप कहते हैं : मांगो मत; दो,
लुटाओ। और जीसस कहते हैं : मांगो—और मिलेगा। दो बद्धपरुषों के में
वक्तव्य इतना विरोध क्यों है?
दोनों वक्तव्य अलग—अलग घड़ियों में दिए गए वक्तव्य
हैं।
अलग—अलग
लोगों को दिए गए वक्तव्य हैं। विरोध जरा भी नहीं है।
समझो।
जीसस ने कहा है : मांगो—और मिलेगा। खटखटाओ—और द्वार खुलेंगे। खोजो—और पाओगे।
बिलकुल ठीक बात है। जो खोजेगा ही नहीं, वह कैसे पाएगा? जो मांगेगा ही नहीं, उसे कैसे मिलेगा? और जो द्वार पर दस्तक भी न देगा, उसके लिए द्वार
कैसे खुलेंगे? सीधी—साफ बात है। यह एक तल का वक्तव्य है।
जीसस
जिनसे बोल रहे थे,
जिन लोगों से बोल रहे थे, इनके लिए जरूरी था।
ऐसा ही वक्तव्य जरूरी था। इस वक्तव्य में खयाल रखना वे लोग, जिनसे
जीसस बोल रहे थे। ये ऐसे लोग थे, जिन्होंने जीसस को सूली पर
लटकाया। इन लोगों के पास अध्यात्म जैसी कोई चित्त की दशा नहीं थी। नहीं तो ये जीसस
को सूली पर लटकाते!
लाओत्सु
का वचन ठीक इससे उलटा लगेगा तुम्हें; वही मेरा वचन भी है। लाओत्सु कहता है.
मांगा—और चूक जाओगे। खोजा—और भटके। खोजो मत—और पा लो। यह कुछ और तल का वक्तव्य है।
यह किन्हीं और तरह के लोगों से कहा गया है।
लाओत्सु
पर किसी ने पत्थर भी नहीं मारा। सूली की तो बात अलग। जिनके बीच लाओत्सु रहा होगा, ये बड़े
अदभुत लोग थे।
अलग—अलग
कक्षाओं में ये बातें कही गयी थीं। पहली कक्षा में बच्चे को कहना पड़ता है. ग गणेश
का। अब विश्वविद्यालय की अंतिम कक्षा में भी अगर यही कहा जाए—ग गणेश का, तो मूढ़ता
हो जाएगी। और दोनों जरूरी हैं।
जीसस
जिनसे बोल रहे थे,
वे बिलकुल प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थी थे। और लाओत्सु जिनसे बोल
रहा था, वह आखिरी चरम कोटि की बात बोल रहा था।
मगर
फिर भी वक्तव्य विरोधी लगते हैं। तुम्हें हैरानी होगी कि मान लो यह भी ठीक है कि
पहली कक्षा में कहते हैं : ग गणेश का। तो आखिरी कक्षा में यह थोडे ही कहते हैं कि
ग गणेश का नहीं! रहता तो ग गणेश का ही है। विद्यार्थी जान गए, इसलिए अब
कहना नहीं पड़ता कि ग गणेश का।
वक्तव्य
फिर भी विरोधी लगते हैं। क्योंकि जितना फासला पहली कक्षा में और विश्वविद्यालय की
कक्षा में होता है,
वह फासला विपरीतता का नहीं है। वह एक ही श्रृंखला का है। और
सांसारिक व्यक्ति में और आध्यात्मिक व्यक्ति में जो फासला होता है, वह विपरीतता का है, एक ही श्रृंखला का नहीं है।
एक
जगह जाकर इस जगत के सारे सत्य उलटे हो जाते हैं। समझने की कोशिश करोगे, तो समझ
में आ जाएगा।
पहली
बात : जिसने कभी खोजा ही नहीं, वह कैसे खोज पाएगा। और लाओत्सु कहता है. जो
खोजता ही रहा, वह कैसे खोज पाएगा? एक
जगह आनी चाहिए, जहां खोज भी छूट जाए। नहीं तो खोज की ही
चिंता, खोज की ही आपा—धापी, खोज की ही
भाग—दौड़ मन को घेरे रहेगी।
एक
आदमी भागा चला जा रहा है। वह कहता है मंजिल पर जाना है। भाग्ता नहीं, तो कैसे
पहुंचूंगा? फिर यह मंजिल पर पहुंचकर भी भागता रहे, तो यह कैसे पहुंचेगा? तो इस आदमी को हमें उलटी बातें
कहनी पड़ेगी। इससे कहना पड़ेगा. जब मंजिल से दूर हो, तो मंजिल
की तरफ भागो। और जब मंजिल करीब आने लगे, तो दौड़ कम करने लगो।
और जब मंजिल बिलकुल आ जाए, तो रुक जाओ। अगर मंजिल पर आकर भी
भागते रहे, तो चूक जाओगे।
एक
दिन भागना पड़ता है और एक दिन रुकना भी पड़ता है। एक दिन चलना पड़ता है और एक दिन
ठहरना भी पड़ता है। इनमें विपरीतता नहीं है।
एक
दिन श्रम करो,
प्रयास करो, योग साधो। और फिर एक दिन सब साधना
को भी पानी में बहा दो। और खाली बैठे रह जाओ। तो ही पहुंचोगे। नहीं तो अक्सर यह हो
जाता है कि परमात्मा को पाने की दौड़ में तुम्हारा चित्त नया संसार बना लेता है।
फिर चित्त के भीतर हजार तरह के विचार उठने लगते हैं, तरंगें
उठने लगती हैं।
दुकान
की तरंगें हैं,
मंदिर की भी तरंगें हैं। संसार की तरंगें हैं और फिर निर्वाण की भी
तरंगें हैं! लेकिन तरंगों से तुम मुक्त हो जाओगे, तभी मिलेगा
न निर्वाण। निर्वाण का अर्थ है. निस्तरंग हो जाना। निर्वाण का अर्थ है : निर्वाण
पाने का विचार भी न रह जाए।
बुद्ध
के जीवन में यह बात बिलकुल साफ है। छह वर्ष तक कठोर तपश्चर्या की। और फिर छह वर्ष
के बाद एक दिन तपश्चर्या का त्याग कर दिया। उसी तरह जिस तरह एक दिन राजमहल का
त्याग कर दिया था,
तपश्चर्या का भी त्याग कर दिया। उसी रात बुद्धत्व फलित हुआ।
अब
यह सवाल सदियों से पूछा जाता रहा है कि बुद्ध को बुद्धत्व कैसे मिला? छह वर्ष
की तपश्चर्या के कारण मिला या तपश्चर्या के त्याग से मिला? जो
ऐसा प्रश्न पूछते हैं, उन्होंने प्रश्न को गलत ढंग दे दिया।
शुरू से ही गलत ढंग दे दिया। उनको जो भी उत्तर मिलेंगे, वे
गलत होंगे। अगर गलत प्रश्न पूछा, तो गलत उत्तर पा लोगे।
प्रश्न ठीक होना चाहिए।
जब
तुमने यह पूछ लिया कि बुद्ध को छह वर्ष की तपश्चर्या से मिला? क्योंकि
मिला छह वर्ष के बाद एक. रात। या उस सांझ को उन्होंने तपश्चर्या छोड़ दी थी,
उसी रात घटना घटी! छह वर्ष की तपश्चर्या है और उसी रात तपश्चर्या का
त्याग भी किया। मिला क्यों? मिला कैसे? क्या कारण है? तपश्चर्या कारण है या उस रात तपश्चर्या
का छोड़ देना कारण है?
मैं
तुमसे कहूंगा,
दोनों कारण हैं। तपश्चर्या न की होती, तो
छोड़ते क्या खाक! छोड़ने के पहले तपश्चर्या होनी चाहिए। जैसे कोई गरीब आदमी कहे कि
सब त्याग कर दिया। इसके त्याग का क्या अर्थ होगा? हम
पूछेंगे. तेरे पास था क्या? वह कहे. था तो मेरे पास कुछ
नहीं। लेकिन सब त्याग कर दिया। इसके त्याग का कोई मूल्य नहीं है। कोई सम्राट
त्यागे, तो मूल्य है। जब कुछ था ही नहीं, तो त्याग क्या किया है? होना चाहिए त्यागने के पहले।
बुद्ध
ने तपश्चर्या छोड़ी,
क्योंकि तपश्चर्या की थी। तुम ऐसे ही अपनी आराम कुर्सी पर लेट जाओ
और कहो कि चलो, आज हमने तपश्चर्या छोड़ दी। हो जाए बुद्धत्व
का फल! आज की रात लग जाए। फिर तुम थोड़ी देर में बैठे —बैठे थकने लगोगे कि कुछ नहीं
हो रहा है! आंख खोल—खोलकर देखोगे कि अभी तक बुद्धत्व आया नहीं! करवट बदलोगे। फिर
थोड़ी देर में सोचोगे कि अरे! यह सब बकवास है। ऐसे कुछ होने वाला नहीं है। हमें तो
पहले ही मालूम था कि कुछ होता—जाता नहीं है। फिर भी एक प्रयोग करके देख लिया।
फिर
उठकर अपना रेडियो चलाने लगोगे, या टी वी शुरू कर दोगे। या अखबार पढ़ने लगोगे।
या चले क्लब की तरफ! कि चलो, दो हाथ जुए के खेल आएं। कि शराब
ढाल लो!
वह
जो छह वर्ष की तपश्चर्या है, वह अनिवार्य हिस्सा है। उसके बिना नहीं घटता।
और मैं तुम्हें यह भी याद दिला दूं कि अगर बुद्ध उसी तपश्चर्या में लगे रहते साठ
साल तक, तो भी नहीं घटता।
एक
चरम सीमा आ जाती है करने की, जहां करने की चरम सीमा आ गयी, वहां करने को भी छोड़ देना जरूरी है। पहले कर्म को चरम सीमा तक ले आना है,
सौ डिग्री पर उबलने लगे कर्म, फिर कर्ता के
भाव को भी विदा कर देना। ये दोनों बातें सच हैं।
राबिया
के घर एक सूफी फकीर हसन ठहरा हुआ था। वह रोज सुबह प्रार्थना करता था। उसने सुना
होगा जीसस का वचन कि खटखटाओ और द्वार तुम्हारे लिए खोल दिए जाएंगे। आस्क एंड इट
शैल बी गिवेन। सीक एंड यू विल फाइड। नाक एंड द डोर शैल बी ओपड अनटु यू।
उसने
ये वचन सुने होंगे। ये वचन उसे बहुत जंच गए थे। उसने इनकी प्रार्थना बना ली थी। वह
रोज सुबह काबा की तरफ हाथ जोड़कर कहता. हे प्रभु! कितनी देर से खटखटा रहा हूं
दरवाजा खोलिए। कितनी देर हो गयी खटखटाते — खटखटाते! कब दरवाजा खुलेगा? अपना वचन
याद करो—कि खटखटाओगे और दरवाजा खुलेगा। और मैं खटखटाए जा रहा हूं! और मैं खटखटाए
जा रहा हूं! दरवाजा खुलता नहीं।
राबिया
ने एक दिन सुना,
दो दिन सुना, तीन दिन सुना.।
राबिया
बड़ी अदभुत औरत थी। थोड़ी ही स्त्रियां दुनिया में हुई हैं राबिया की कोटि की—मीरा, सहजो,
दया, लल्ला—बहुत थोड़ी सी स्त्रियां; उंगलियों पर गिनी जा सकें। राबिया उसी कोटि की स्त्री है, जिस कोटि के बुद्ध, जिस कोटि के महावीर, जिस कोटि के कृष्ण, क्राइस्ट।
एक
दिन सुबह फिर हसन वही कर रहा था। हाथ फैलाए हुए। आंसू बहे जा रहे हैं आंखों से और
कह रहा है. अब खोलो प्रभु! कब से खटखटा रहा हूं।
राबिया
पीछे से आयी और उसका सिर झंझोड़कर बोली कि बंद कर बकवास। दरवाजे खुले हैं। तू खटखटा
क्यों रहा है! दरवाजे कभी बंद ही नहीं थे नासमझ। दरवाजे सदा से खुले हैं। उसके
दरवाजे बंद कैसे हो सकते हैं! तूने यह कहां की बकवास लगा रखी है! तू जिंदगी भर यही
बकता रहेगा और दरवाजा खुला है। अब परमात्मा भी क्या करे। वह भी अचकचाकर बैठा होगा
कि करना क्या! दरवाजा खुला है। अब और क्या खोलना! और ये सज्जन यही कहे जा रहे हैं
कि दरवाजा खोलो। खटखटा रहा हूं। दरवाजा खोलो।
राबिया
ने दूसरा सत्य कहा। राबिया यह कह रही है कि बहुत खटखटा चुका। अब खटखटाना छोड़। जरा
खटखटाना छोड़कर आंख खोल। तू खटखटाने में ही उलझा है और दरवाजा खुला है! अब तू जरा
आंख खोल। खटखटाने की उलझन से मुक्त हो। छोड़ यत्न, और देख—क्या है। जो है,
वही मुक्तिदायी है।
इसलिए
एक दिन श्रम करना पड़ता है और एक दिन श्रम छोड़ना पड़ता है।
ऐसा
समझो। मैंने सुनी है एक कहानी कि कुछ लोग अमृतसर से ट्रेन में सवार हुए; हरिद्वार
जा रहे थे। एक आदमी जो उस झुंड में हरिद्वार जा रहा था, तीर्थयात्रा
को, बड़ा दार्शनिक था, बड़ा तार्किक था।
भीड़— भाड़ बहुत थी। मेले के दिन होंगे। ट्रेन लदी थी। लोग सब तरफ भरे थे। ऊपर भी
चढ़े थे। दरवाजों पर अटके थे। खिड़कियों से लोग भीतर घुसने की कोशिश में लगे थे। उस
दार्शनिक को भी उसके साथी खींच रहे थे। वह यह कहता था कि भई, मेरी बात तो सुनो! इसमें से फिर उतरना तो नहीं पड़ेगा? इतनी मेहनत से चढ़े, और फिर उतरना पडे, तो सार क्या?
मित्रों
ने कहा : तुम्हारा दर्शन बाद में। अभी गाड़ी छूटने का वक्त हुआ जा रहा है। सीटी बजी
जा रही है। उन्होंने खींच—खींचकर उसको...।
वह
पूछता ही जा रहा है कि मैं एक बात पूछना चाहता हूं। मुझे खींचो मत। इसमें से उतरना
तो नहीं पड़ेगा?
क्योंकि अगर उतरना ही हो, तो इतनी फजीहत क्या
करवानी! तो हम पहले से ही अपने प्लेटफार्म पर खड़े हैं।
मगर
उन्होंने नहीं सुना। उन्होंने खींच—खींच लिया कि यह बकवास में समय गंवा देगा। उसको
खींचकर अंदर कर लिया। उसकी कमीज भी फट गयी। और हाथ की चमड़ी भी छिल गयी।
पंजाबी
अब जानते ही हैं आप कि खींचातानी करें.।
अब
यह कोई गुजरात थोड़े ही है कि.। अमृतसर! उन्होंने ठीक से ही खींचातानी की होगी।
खींचतानकर उसे अंदर कर लिया। वह चिल्लाता भी रहा। उन्होंने उसकी फिक्र ही नहीं की।
पंजाबी और दर्शनशास्त्र की फिकर करें! बिलकुल ही गलत बात है। और ज्यादा बकवास की
होगी, तो दो—चार हाथ लगाकर उसको चुप कर दिया होगा, कि चुप
बैठ।
फिर
हरिद्वार आया। अब वह दार्शनिक उतरे नहीं! आखिर वह भी पंजाबी है! उसने कहा. जब एक
दफे चढ़ गए, तो चढ़ गए। अब उतरना क्या? मैंने पहले ही कहा था कि
मुझे चढाओ मत, अगर उतारना हो।
अब
वे फिर खींच रहे है—कि भई! हद्द हो गयी! अब हरिद्वार आ गया!
पर
उसकी बात का अर्थ यह है,
वह यह कह रहा है कि जब उतरना ही है, तो फिर
चढ़ना क्या! जब चढ़ ही गए, तो फिर उतरना क्या? वह शुद्ध तर्क की बात कह रहा है।
ऐसा
ही तुम जब मुझसे पूछते हो कि जीसस और मेरे वक्तव्य में विरोधाभास है, तो तुम भी
वही तर्क की बात कर रहे हो।
एक
दिन चढ़ना पड़ता है ट्रेन में, एक दिन उतरना पड़ता है। इनमें विरोध नहीं है। एक
बार सीढ़ी पर चढ़ना पड़ता है, फिर सीढ़ी से उतरना भी पड़ता है।
तुम छत की तरफ जा रहे हो। मैं तुमसे कहता हूं. सीढ़ियां चढ़ो। सीढ़ियों से तुम पूछते
हो : सीढ़ियों पर चढ़ने से हम छत पर पहुंच जाएंगे? मैं कहता
हूं : जरूर पहुंच जाओगे। फिर तुम आखिरी पायदान पर पहुंचकर खड़े हो गए। तुम कहते हो.
अभी तक हम छत पर नहीं पहुंचे। आखिरी पायदान पर भी छत नहीं है, यह बात सच है। जैसे छत पहले पायदान पर नहीं है, वैसे
ही आखिरी पायदान पर भी छत नहीं है। अभी तुम्हें आखिरी पायदान छोड़ना पड़ेगा, तब तुम छत पर प्रवेश कर पाओगे। लेकिन तुम कहते हो. तो फिर चढ़ाया ही क्यों?
ये सौ सीढ़ियां चढ़कर अब किसी तरह बामुश्किल तो हाफता हुआ पहुंचा। अब
आप कहते हैं, छोड़ो। इतनी मेहनत से तो चढ़ा, अब कहते हो, छोड़ो! यह तो आप बड़ी विरोधाभासी बात कह
रहे हैं!
पहली
सीढ़ी पर कहा था,
चढ़ो। जीसस पहली सीढ़ी पर बोल रहे थे। क्योंकि जीसस इस देश में आकर
संदेश लेकर गए। जीसस की उम्र के तीस वर्ष सत्य की खोज में लगे। इजिप्त, और भारत, और तिब्बत—इन सारे देशों में उन्होंने
भ्रमण किया। उस समय बुद्ध— धर्म अपनी प्रखरता में था। नालंदा जीवंत विश्वविद्यालय
था। बहुत संभावना है कि जीसस नालंदा में आकर रहे। उन्होंने यहां के परम सत्य
पहचाने, समझे, सीखे।
यही
तो अड़चन हो गयी। इसलिए तो वे कुछ ऐसी बातें कहने लगे, जो
यहूदियों को बिलकुल न जंची। क्योंकि यहूदी शास्त्रों से उनका मेल नहीं था।
जीसस
कुछ ऐसी बातें ले आए,
जो विदेशी थीं—यहूदी विचार—चिंतन धारा के संदर्भ में। यहूदियों को
बात जंची नहीं। यहूदी एक ढंग से सोचते थे। अगर जीसस ने उसी ढंग की ही बात कही होती,
उसी सिलसिले में कही होती, तो यहूदियों ने
उन्हें एक पैगंबर माना होता। उनको सूली देनी पड़ी। क्योंकि वे कुछ ऐसी बातें ले आए,
जो यहूदी कानों के लिए बिलकुल अपरिचित थीं।
खास
संदेश जो लेकर आए थे जीसस,
वह था संदेश बुद्ध के ध्यान का, जागो! इसलिए
जीसस बार—बार, हजार बार दोहराते हैं बाइबिल में—अवेक,
बी अवेयर, वेक अप, जागो,
उठो; होश सम्हालो, सावधान
हो जाओ, चेतो।
मगर
ये बातें इस देश में तो समझ में आ सकती थीं, क्योंकि बुद्ध के पहले और हजारों
बुद्धों की परंपरा इस देश में है। बुद्ध कुछ नए नहीं हैं। बुद्ध एक बड़ी लंबी धारा
के हिस्से हैं, एक श्रृंखला के हिस्से हैं, एक कड़ी हैं। उनके पहले और बहुत बुद्ध हुए हैं। यह भाषा यहां परिचित थी।
यही
भाषा जाकर यहूदियों के बीच बिलकुल अपरिचित हो गयी।
तुम
चकित होओगे यह जानकर कि जॉन द बेप्टिस्ट—जिसने जीसस को दीक्षा दी थी, जिसके
शिष्य थे जीसस—वह जेलखाने में पड़ा था। और जब जीसस की शिक्षाएं शुरू हुईं, और जेलखाने तक जॉन द बेप्टिस्ट को खबरें पहुंचीं, तो
उसे भी संदेह हुआ कि यह आदमी क्या बातें कर रहा है! किस तरह की बातें कर रहा है!
उसने एक पत्र लिखकर भेजा जीसस के पास कि मैं यह फिर से पूछना चाहता हूं कि तुम वही
हो, जिसके लिए हम यहूदी सदियों से प्रतीक्षा कर रहे थे?
या तुम कोई और हो? क्या हमें फिर प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी उस मसीहा की?
यह
पत्र क्यों जॉन द बेप्टिस्ट ने लिखा होगा जीसस को? इसलिए लिखा कि उसको भी समझ
में नहीं पड़ा कि यह आदमी कह क्या रहा है! यह कहां की बातें ले आया है! यह कुछ
बेबूझ पहेलियां ले आया है।
जीसस
इस देश से संदेश लेकर गए। स्वभावत: एक नयी जाति में, जिसने यह संदेश कभी नहीं
सुना था, उन्हें अ ब स से बात शुरू करनी पड़ी—ग गणेश का। पहली
सीढ़ी से बात शुरू करनी पड़ी। लाओत्सु या बुद्ध जब बोलते हैं, या
मैं जब तुमसे बोल रहा हूं तो आखिरी सीढ़ी की बात बोल सकता हूं। उसके लिए पृष्ठभूमि
है। जीसस के पास पृष्ठभूमि नहीं थी। मजबूरी थी।
विरोध
जरा भी नहीं है। जिस सीढ़ी पर जीसस तुम्हें चढ़ा रहे हैं, उसी सीढ़ी
पर मैं तुमसे दूसरा सत्य भी कह रहा हूं कि चढ़ना जरूर, उससे
उतरना भी है—इसे भूल मत जाना।
तो
तुमसे कहता हूं. मांगो। बिना मांगे कैसे मिलेगा! और तुमसे यह भी कहता हूं कि
मांगना छोड़ो। मांगने से कभी मिला है! तुमसे कहता हूं खटखटाओ, तो द्वार
खुलेंगे। और तुमसे यह भी कहता हूं. अब खटखटाना बहुत हो गया। अब खटखटाना रोको। देखो,
द्वार खुले ही हैं।
चौथा प्रश्न:
मैं मृत्यु से इतना नहीं डरता हूं? लेकिन
दुखों से बहुत डरता हूं। मेरे लिए क्या मार्ग है?
मृत्यु से शायद ही
कोई डरता है।
क्योंकि
जिससे परिचय ही नहीं है,
उससे डरोगे भी कैसे! जिससे मुलाकात ही नहीं हुई, उससे डरोगे कैसे? लोग दुखों से ही डरते हैं। और
मृत्यु से भी इसलिए डरते हैं कि पता नहीं किन दुखों में मृत्यु ले जाए! मृत्यु से
भी सीधा नहीं डरते। इसी तरह डरते हैं कि पता नहीं, किन दुखों
में ले जाए!
यहां
के दुख तो जाने—माने,
परिचित हैं। मृत्यु पता नहीं किन दुखों की नयी श्रृंखला की शुरुआत
हो! इसलिए डरते हैं। अन्यथा मृत्यु से डरने का कोई कारण नहीं है। पहचानी चीज से ही
लोग डरते हैं। अजनबी—अनजान से डरने का क्या कारण हो सकता है? हो सकता है : मृत्यु तुम्हें सुख में ले जाए स्वर्ग ले जाए। कौन जाने! अगर
तुम बहुत विचारशील हो, सॉक्रेटीज जैसे, तो नहीं डरोगे।
सुकरात
मर रहा है। और उसके शिष्य उससे पूछते हैं कि आप डर नहीं रहे हैं? मृत्यु आ
रही है। जहर तैयार किया जा रहा है। जल्दी जहर दिया जाएगा। आप मृत्यु से डरते नहीं?
सुकरात
ने कहा : देखो,
मैं सोचता हूं दो ही संभावनाएं हैं। या तो मैं मर ही जाऊंगा,
कुछ बचेगा नहीं, तो फिर डर क्या? जिसको डर लगना है, वही नहीं बचेगा, तो डर किसको? जन्म के पहले का मुझे कुछ पता नहीं है।
तो मुझे कोई अड़चन नहीं होती। मुझे यह बात सोचकर कोई बहुत मुश्किल नहीं पड़ती कि
जन्म के पहले मैं नहीं था। तो जब था ही नहीं, तो दुख क्या!
फिर मौत के बाद नहीं हो जाऊंगा, तो दुख क्या!
या
तो यह होगा। या यह होगा कि मैं फिर भी बचूंगा। जब बचूंगा ही, तो फिर डर
क्या? फिर देख लेंगे। यहां भी जूझ रहे थे, वहां भी जूझ लेंगे। जो होगा, मुकाबला कर लेंगे।
इसलिए मैं परेशान नहीं हूं। मैं सोच रहा हूं कि मरकर ही देखें कि बात क्या है असल
में।
बहुत
सोच—विचार वाला आदमी हो,
तो मृत्यु से भी नहीं डरेगा। डरने का कोई कारण नहीं रह गया।
लेकिन
दुख से आदमी डरता है '। दुख से तुम्हारा परिचय है। तुम जानते हो दुखों को। दुखों से तुम्हारी
खूब पहचान है। दुखों से ही पहचान है। सुख कौ तो सिर्फ आशा रही है, सपना रहा है। दुखों से मिलना हुआ है। तो स्वाभाविक है कि तुम दुख से डरते
हो।
सभी
दुख से डरते हैं। और जब तक दुख से डरेंगे, तब तक दुखी रहेंगे। क्योंकि जिससे
तुम डरोगे, उसे तुम समझ न पाओगे। और दुख मिटता है समझने से।
दुख मिटता है जागने से। दुख मिटता है दुख को पहचान लेने से।
इसीलिए
तो दुनिया दुखी है कि लोग दुख से डरते हैं और पीठ किए रहते हैं, तो दुख का
निदान नहीं हो पाता। दुख पर अंगुली रखकर नहीं देखते कि कहां है! क्या है! क्यों
है! दुख में उतरकर नहीं देखते कि कैसे पैदा हो रहा है! किस कारण हो रहा है! भय के
कारण अपने ही दुख से भागे रहते हैं।
तुम
कहीं भी भागो,
दुख से कैसे भाग पाओगे। दुख तुम्हारे जीवन की शैली में है। तुम जहां
जाओगे, वहीं पहुंच जाएगा।
मैंने
सुना है : एक आदमी को डर लगता था अपनी छाया से। और उसे बड़ा डर लगता था अपने
पदचिह्नों से। तो उसने भागना शुरू किया। भागना चाहता था कि दूर निकल जाए छाया से; और दूर
निकल जाए अपने पदचिह्नों से; दूर निकल जाए अपने से। मगर अपने
से कैसे दूर निकलोगे? जितना भाग।, उतनी
ही छाया भी उसके पीछे भागी। और जितना भागा, उतने ही पदचिह्न
बनते गए।
च्चांगत्सु
ने यह कहानी लिखी है इस पागल आदमी की। और यही पागल आदमी जमीन पर पाया जाता है। इसी
की भीड़ है।
च्चांगत्सु
ने कहा है, अभागे आदमी, अगर तू भागता न, और
किसी वृक्ष की छाया में बैठ जाता, तो छाया खो जाती। अगर तू
भागता न, तो पदचिह्न बनने बंद हो जाते। मगर तू भागता रहा।
छाया को पीछे लगाता रहा। और पदचिह्न भी बनाता रहा।
जिनसे
तुम डरते हो,
अगर उनसे भागोगे, तो यही होगा। दुख से डरे कि
दुखी रहोगे। दुख से डरे कि नर्क में पहुंच जाओगे; नर्क बना
लोगे। दुख से डरने की जरूरत नहीं है। दुख है, तो जानो,
जागो, पहचानो।
जिन्होंने
भी दुख के साथ दोस्ती बनायी और दुख को ठीक से आंख भरकर देखा, दुख का
साक्षात्कार किया, वे अपूर्व संपदा के मालिक हो गए। कई बातें
उनको समझ में आयीं।
एक
बात तो यह समझ में आयी कि दुख बाहर से नहीं आता। दुख मैं पैदा करता हूं। और जब मैं
पैदा करता हूं, तो अपने हाथ की बात हो गयी। न करना हो पैदा, तो न
करो। करना हो, तो कुशलता से करो। जितना करना हो, उतना करो। मगर फिर रोने—पछताने का कोई सवाल न रहा।
जिन्होंने
दुख को गौर से देखा,
उन्हें यह बात समझ में आ गयी कि यह मेरे ही गलत जीने का परिणाम है।
यह मेरा ही कर्म —फल है। जैसे एक आदमी दीवाल से निकलने की कोशिश करे। उसके सिर में
टक्कर लगे। और लहूलुहान हो जाए। और कहे कि यह दीवाल मुझे बड़ा दुख दे रही है।
छोटे
बच्चे अक्सर ऐसा करते हैं। मगर इस दुनिया में सब छोटे बच्चे हैं। बड़ा कोई कभी
मुश्किल से हो पाता है। प्रौढ़ता आती कहां है! छोटे बच्चे अक्सर ऐसा करते हैं। निकल
रहे थे। टेबल का धक्का लग गया। हाथ में खरोंच आ गयी। गुस्से में आ जाते हैं। उठाकर
डंडा टेबल को मारते हैं।
यही
तुम कर रहे हो। बच्चे को समझाने के लिए उसकी मां को भी आकर टेबल को मारना पड़ता है
कि टेबल बड़ी दुष्ट है। मेरे बेटे को चोट कर गयी। तब बच्चा बड़ा प्रसन्न होता है।
टेबल को पिटते देखकर बड़ा प्रसन्न होता है—कि ठीक हुआ। ठीक सजा दी गयी।
मगर
टेबल का कोई कसूर न था। और तुम यह मत सोचना कि सिर्फ बच्चे ऐसा करते हैं। तुम भी
ऐसा करते हो। तुम क्रोध में होते हो, तो दरवाजा ऐसा झटककर खोलते हो,
जैसे दरवाजे का कोई कसूर हो। क्रोध में होते हो, तो जूता ऐसा फेंकते हो निकालकर।
एक
झेन फकीर था नान—इन। उसके पास एक आदमी मिलने आया। वह बड़े क्रोध में था। घर में कुछ
झगड़ा हो गया होगा पत्नी से। क्रोध में चला आया। आकर जोर से दरवाजा खोला। इतने जोर
से कि दरवाजा दीवाल से टकराया। और क्रोध में ही जूते उतारकर रख दिए।
भीतर
गया। नान—इन को झुककर नमस्कार किया। नान—इन ने कहा कि तेरा झुकना, तेरा
नमस्कार स्वीकार नहीं है। तू पहले जाकर दरवाजे से क्षमा मांग। और जूते पर सिर रख;
अपने जूते पर सिर रख और क्षमा मांग।
उस
आदमी ने कहा आप क्या बात कर रहे हैं! दरवाजे में कोई जान है, जो क्षमा
मांगूं! जूते में कोई जान है, जो क्षमा मांग! नान—इन ने कहा
: जब इतना समझदार था, तो जूते पर क्रोध क्यों प्रगट किया?
जूते में कोई जान है, जो क्रोध प्रगट करो! तो
दरवाजे को इतने जोर से धक्का क्यों दिया? दरवाजा कोई तेरी
पत्नी है? तू जा। जब क्रोध करने के लिए तूने जान मान ली
दरवाजे में और जूते में, तो क्षमा मांगने में अब क्यों
कंजूसी करता है?
उस
आदमी को बात तो दिखायी पड़ गयी। वह गया, उसने दरवाजे से क्षमा मणी। उसने
जूते पर सिर रखा। और उस आदमी ने कहा कि इतनी शाति मुझे कभी नहीं मिली थी। जब मैंने
अपने जूते पर सिर रखा, मुझे एक बात का दर्शन हुआ कि मामला तो
मेरा ही है।
लोग
बिलकुल अप्रौढ़ हैं। बच्चों की भांति हैं।
तुम
दुख के कारण नहीं देखते। दुख के कारण, सदा तुम्हारे भीतर हैं। दुख बाहर
से नहीं आता। और नर्क पाताल में नहीं है। नर्क तुम्हारे ही अचेतन मन में है। वही
है पाताल। और स्वर्ग कहीं आकाश में नहीं है। तुम अपने अचेतन मन को साफ कर लो
कूड़े—करकट से, वहीं स्वर्ग निर्मित हो जाता है। स्वर्ग और
नर्क तुम्हारी ही भाव—दशाएं हैं। और तुम ही निर्माता हो। तुम ही मालिक हो।
तो
दुख को जो देखेगा,
उसके हाथ में दुख को खोलने की कुंजी आ जाती है। और मजे की बात है कि
दुख को जो देखेगा, सामना करेगा, वह दुख
का अनुगृहीत होगा। क्योंकि हर दुख एक चुनौती भी है। और हर दुख तुम्हें निखारने का
एक उपाय भी है। और हर दुख ऐसे है, जैसे आग। और तुम ऐसे हो,
जैसे आग में गुजरे सोना। आग से गुजरकर ही सोना कुंदन बनता है।
मैं छांव—छाव चला
था अपना बदन बचाकर
कि रूह को एक
खूबसूरत—सा जिस्म दे दूं
न कोई सिलवट, न दाग कोई
न धूप झुलसे, न चोट खाए
न जख्म छुए, न दर्द
पहुंचे
बस, एक
कुंवारी सुबह का जिस्म पहना दूं रूह को मैं
मगर तपी जब दुपहर
दर्दों की, दर्द की धूप से जो गुजरा
तो रूह को छाव मिल
गयी है
अजीब है दर्द और
तस्कीन का साझा रिश्ता
मिलेगी छांव तो बस
कहीं धूप में मिलेगी
दुख
निखारता है। दुख स्वच्छ करता है। दुख मांजता है; मींजता है और मांजता भी।
अजीब है दर्द और
तस्कीन का साझा रिश्ता
मिलेगी छाव तो बस
कहीं धूप में मिलेगी
दुखों
से भागो मत। दुखों को जीयो। दुखों से होशपूर्वक गुजरो। और तुम पाओगे. हर दुख
तुम्हें मजबूत कर गया। हर दुख तुम्हारी जड़ों को बड़ा कर गया। हर दुख तुम्हें नया
प्राण दे गया। हर दुख तुम्हें फौलाद बना गया।
दुख
का कुछ कारण है। दुख व्यर्थ नहीं है। दुख की कुछ सार्थकता है। दुख की सार्थकता यही
है कि दुख के बिना कोई आदमी आत्मवान नहीं हो पाता। पोच रह जाता है, पोचा रह
जाता है।
इसलिए
अक्सर जिनको सुख और सुविधा में ही रहने का मौका मिला है, उनमें तुम
एक तरह की पोचता पाओगे। एक तरह का छिछलापन पाओगे। सुखी आदमी में, तथाकथित सुखी आदमी में गहराई नहीं होती। उसके भीतर कोई आत्मा नहीं होती।
इसलिए
तुम अक्सर धनी घरों में मूढ़ व्यक्तियों को पैदा होते पाओगे। धनी घर के बच्चे बुद्ध
रह जाते हैं। सब सुख—सुविधा है; करना क्या है! सब वैसे ही मिला है, पाना क्या है?
संघर्ष
नहीं, तो संकल्प नहीं। और संकल्प नहीं, तो आत्मा कहा?
और संकल्प नहीं, तो समर्पण कैसे होगा! जब
कमाओगे संकल्प को, जब तुम्हारा मैं प्रगाढ़ होगा, तभी किसी दिन उसे झुकाने का मजा भी आएगा। नहीं तो क्या खाक मजा आएगा!
जिसके पास अहंकार नहीं है, वह निरअंहकारी नहीं हो सकता। इस
बात को खूब समझ लेना। जिसके पास गहन अहंकार है, वही
निरअंहकारी हो सकता है। निरअहंकारिता अहंकार की आखिरी पराकाष्ठा के बाद घटती है।
तुम
कहते हो 'मैं मृत्यु से इतना नहीं डरता हूं। लेकिन दुखों से बहुत डरता हूं।’
मृत्यु तो दूर है, दुख अभी है। शायद इसीलिए
मृत्यु से नहीं डरते कि आएगी, तब आएगी। अभी कहां! दिखा लेते
होओगे हथेली जाकर हस्तरेखाविद को .और कुंडली पढ़वा लेते होओगे ज्योतिषी से। वह
कहता होगा : अभी नहीं। कोई फिकर नहीं है। अभी तुम सत्तर साल जीओगे। तुम तो सौ साल
जीओगे। तुम तो सबको मारकर जीओगे। तुम तो मजे से रहो। अभी मौत कहां!
और
आदमी की दृष्टि बड़ी संकीर्ण है। अगर कोई बात दस साल बाद है, तो
तुम्हें दिखायी ही नहीं पड़ती। बहुत करीब हो, तो ही दिखायी
पड़ती है। आदमी दूर—दृष्टि नहीं है।
तुम
सोचो। कोई तुमसे कहे,
कल तुम्हें मरना है। तो शायद थोड़ा झटका लगे। लेकिन कोई कहे कि एक
सप्ताह बाद। तो उतना झटका नहीं लगता। और एक साल बाद। तो तुम कहते हो, देखेंगे जी। दस साल बाद। तो तुम कहते हो. छोड़ो भी, कहां
की बकवास लगा रखी है! सत्तर साल बाद। तो वह तो ऐसा लगता है कि करीब—करीब अमरता मिल
गयी! करना क्या है और! सत्तर साल कहीं पूरे होते हैं? इतना
लंबा फासला! फिर तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता।
दुख
अभी है, मृत्यु दूर है। शायद इसीलिए तुम डरते नहीं। क्योंकि जो दुख से डरता है,
वह मृत्यु के प्रति वस्तुत: अभय को उपलब्ध नहीं हो सकता है। मगर
सिर्फ दूर है, इसलिए तुम्हें अभी अड़चन नहीं है। तुम कहते हो
कि जब होगा, तब देख लेंगे। अभी तो यह सिरदर्द जान खा रहा है।
कि अभी तो यह चिंता मन को पकड़े हुए है। अभी तो इस धंधे में दाव लगा दिया है,
कहीं सब न खो जाए। अभी यह नुकसान लग गया है दुकान में। अभी यह पत्नी
छोड़कर चली गयी!
अभी
ये छोटी—छोटी बातें काटे की तरह चुभ रही हैं। और जब ये छोटी—छोटी बातें कांटे की
तरह चुभ रही हैं,
तो जब तलवार उतरेगी मृत्यु की और गरदन काटेगी, तो तुम सोचते हो, तुम सुख से मर सकोगे? असंभव है। जब काटे इतना दुख दे रहे हैं, तो तलवार,
जो बिलकुल काट जाएगी! काटे तो छोटे—छोटे हैं। तलवार तो पूरी तरह
छिन्न—भिन्न कर देगी।
नहीं; तुम्हें
पता नहीं है मौत का। अभी तुम्हें दुख का ही पता नहीं है, तो
मौत का क्या पता होगा!
तुम
दुख का साक्षात्कार करो। तुम दुख को देखना शुरू करो। इसी दुख से पहचान होती जाए, इसी दुख
से धीरे — धीरे तुम्हारे भीतर बल पैदा होता जाए, तो एक दिन
ऐसी घड़ी आएगी कि मौत भी आएगी और तुम अविचल खड़े रहोगे। मौत तुम्हें घेर लेगी,
और तुम्हारे भीतर कोई झंझावात न होगा। मौत आएगी, और तुम अछूते रह जाओगे। वह परम घड़ी।
और
मौत आनी तो निश्चित है। इस शरीर में थोड़ी देर ही बस सकते हो, ज्यादा
देर नहीं। बसने योग्य यहां ज्यादा कुछ है भी नहीं।
खड़खड़ाता है आह!
सारा बदन
खपच्चियां जैसे
बाध रक्खी हैं
खोखले बांस जोड़
रक्खे हों
कोई रस्सी कहीं से
खुल जाए
रिश्ता टूटे कहीं
से जोड़ों का
और बिखर जाए जिस्म
का पंजर
इस बदन में यह रूह
बेचारी
बांसुरी जानकर चली
आयी
समझी होगी कि सुर
मिलेंगे यहां
लेकिन सुर यहां
मिलता कहां?
इस बदन में यह रूह
बेचारी
बांसुरी जानकर चली
आयी
समझी होगी कि सुर
मिलेंगे यहां
मगर
सुर मिलता कहा है?
सुर किसको मिला यहां? यहां तो सब सुर झूठे
हैं। यहां तो बस, सब सुर क्षणभंगुर हैं। यहां तो सब सुर अभी
हैं और अभी खंडित हो जाते हैं। और सभी सुर बेस्वाद हो जाते हैं। मीठा भी यहां
जल्दी ही कडुवा हो जाता है। और यहां का अमृत भी ज्यादा देर अमृत नहीं होता।
ऊपर—ऊपर अमृत है; भीतर— भीतर जहर है।
आज
नहीं कल यह देह तो छोड़ देनी पड़ेगी। कहीं और तलाश करनी है। मगर अगर तुमने इस देह
में ठीक से तलाश न की,
तो बहुत डर है कि फिर किसी और देह को बांसुरी समझकर फिर प्रवेश कर
जाओगे। ऐसा ही तो कितनी ही बार कर चुके हो।
अगर
इस देह को ठीक से न समझा,
इसके दुख ठीक से न पहचाने, इसकी व्यर्थता ठीक
से न जानी, इसकी असारता को प्रगाढ़ता से अपने चित्त में नहीं
बिठाया, इसकी क्षणभंगुरता न पहचानी, इसका
नर्क न देखा—तो आशा लटकी रह जाएगी। सोचोगे. इस देह में नहीं हुआ, यह बांसुरी ठीक नहीं थी। चलो, न रही होगी। और भी
बांसुरिया हैं। कोई और देह धरे। किसी और गर्भ में प्रवेश करें। मरते वक्त अगर थोड़ी
भी आशा जिंदा रही, तो फिर पुनर्जन्म हो जाएगा।
मरते
वक्त अगर तुम यह देखकर और जानकर मरे कि जिंदगी असार है, और यह
असारता इतनी परिपूर्णता से तुम्हारे सामने खड़ी रही कि जरा भी आशा न उठी, जरा भी फिर जन्म लेने और फिर जीवन को देखने का भाव न उठा, तो तुम मुक्त हो जाओगे। तो तुमने जीवन भी जी लिया और मृत्यु भी जी ली। तो
जीवन से जो मिलना था, वह तुमने पा लिया—कि जीवन असार है। और
मृत्यु फिर तुमसे कुछ भी नहीं छीन सकती—अगर तुम्हीं ने जान लिया कि जीवन असार है।
क्योंकि मृत्यु जीवन ही छीनती है। तुम जान ही गए कि जीवन असार है, तो तुम मृत्यु का भी धन्यवाद करोगे।
और
जो व्यक्ति मृत्यु को धन्यवाद करते हुए मर जाता है, वही मुक्त हो जाता है। वही
आवागमन के पार हो जाता है।
पांचवां
प्रश्न:
मैं आपकी बातें बिलकुल ही नहीं
समझ पाता हूं!
या तो मेरा कसूर
होगा, या तुम्हारे पास अभी समझ ही नहीं है।
मैं
तो जो कह रहा हूं सीधा—साफ है। इसमें जरा भी उलझाव नहीं है। लेकिन मैं समझ सकता
हूं; तुम्हें उलझाव दिखते होंगे। क्योंकि तुम्हारे देखने के ढंग, तुम्हारे सोचने के ढंग में शायद बात न बैठती हो। बैठ भी नहीं सकती।
अगर
तुम्हें मेरी बात समझनी है,
तो तुम्हें सोचने के ढंग बदलने होंगे। तुम्हें सोचने की नयी शैली
सीखनी .होगी। तुम्हें तर्क की सीमाओं के बाहर आना होगा। तुम्हें शब्दों के जाल से,
शास्त्रों की रटी—रटायी बातों से थोड़ा ऊपर उठना होगा। तुम्हें आदमी
बनना होगा। तुम्हें तोते होने से थोड़ा छुटकारा लेना होगा।
समझ
के भी बहुत तल हैं। उतनी ही बात समझ में आती है, जहां तक हमारा तल होता है।
मैंने
सुना. एक डाक्टर छोटे से बच्चे से बोला—उसकी जांच करता होगा—बेटे, तुम्हें
नाक—कान से कोई शिकायत तो नहीं है? नाक से बलगम टपक रहा है।
सर्दी—जुकाम इतने जोर से है बच्चे को कि उसे कुछ ठीक से सुनायी भी नहीं पड़ता। कान
तक रुंध गए हैं। छाती घर्र—घर्र हो रही है। और डाक्टर पूछता है : बेटे, तुम्हें नाक—कान से कोई शिकायत तो नहीं है?
बच्चे
ने कहा : जी है। वे कमीज उतारते बीच में आते हैं।
अपनी—अपनी
समझ। अब बच्चे की तकलीफ यह है कि जब भी कमीज उतारता है, तो
नाक—कान बीच में आते हैं। एक तल है।
तुम्हें
शायद मेरी बात समझ में न आती हो। हो सकता है।
एक
मित्र ने मुल्ला नसरुद्दीन से कहा : मुल्ला जी! मैं विवाह इस कारण नहीं करना चाहता
हूं कि मुझे स्त्रियों से बहुत डर लगता है।
मुल्ला
ने कहा अगर ऐसी बात है,
तब तो तुम विवाह तुरंत कर डालो। मैं तुम्हें अपने अनुभव से कहता हूं
कि विवाह के बाद एक ही स्त्री का भय रह जाता है। अपना—अपना अनुभव। अपनी— अपनी समझ।
एक
बाप ने अपने बेटे से कहा : जमाना बहुत आगे बढ़ गया है। तुम खुद अपने योग्य लड़की देख
लो।
बेटा
बड़ा प्रसन्न हुआ। और तो कभी पिता के चरण न छूता था। आज उसने पिता के चरण छुए। और
पिता की आज्ञा मानकर पुत्र ने नियमित रूप से बालकनी में खड़े होकर लड़की देखना शुरू
कर दिया।
तुम
वही समझ सकते हो,
जो तुम समझ सकते हो।
अगर
तुम्हें मेरी बात समझ में नहीं आ रही है, तो दो उपाय हैं। या तो मैं ऐसी बात
कहूं जो तुम्हारी समझ में आ जाए। या तुम ऐसी समझ बनाओ कि जो मैं कहता हूं वह समझ
में आ जाए!
अगर
मैं ऐसी बात कहूं जो तुम्हें समझ में आ जाए, तो सार ही क्या होगा! वह तो
तुम्हें समझ में आती ही है। फिर मेरे पास आने का कोई प्रयोजन नहीं है।
तो
मैं तो वह बात नहीं कहूंगा,
जो तुम्हारी समझ में आ सकती है। मैं तो वही कहूंगा, जो सच है। तुम्हें समझ में न आती हो, तो समझ को थोड़ा
निखारो। थोड़ी धार रखो समझ पर। समझ को बदलो।
यही
तो शिष्यत्व का अर्थ है कि अगर समझ में नहीं आता है, तो हम समझ को बदलेंगे।
उसमें थोड़ी कठिनाई होगी। थोड़ा श्रम करना होगा। और लोग श्रम बिलकुल नहीं करना
चाहते। तो फिर तुम अटके रह जाओगे—तुम्हीं में।
या
तो मैं तुम्हारे पास आऊं या तुम मेरे पास आओ। अच्छा यही होगा कि तुम मेरे पास आओ।
उससे तुम्हारा विकास होगा। मैं तुम्हारे पास आऊं, उससे तुम्हारा कोई विकास
नहीं होगा। उसमें तो तुम और जड़बद्ध हो जाओगे, जहां हो वहीं।
तो जरूर मुझे इस ढंग से तुमसे बातें कहनी पड़ती हैं कि कुछ तो तुम्हारी समझ में आएं
और कुछ तुम्हारी समझ में न आएं।
अगर
मैं बिलकुल ऐसी बात कहूं कि तुम्हें बिलकुल ही समझ में न आए, तो
तुम्हारा मुझसे नाता टूट जाएगा। तब मैं कहीं दूर से चिल्ला रहा हूं और तुम कहीं
बहुत दूर खोए हो। वहां तक आवाज भी नहीं पहुंचेगी।
तो
कुछ तो मैं ऐसी बातें कहता हूं जो तुम्हारी समझ में आएं, ताकि नाता
बना रहे। लेकिन अगर मैं उतनी ही बातें कहता रहूं जो तुम्हारी समझ में आती हैं,
तो नाता तो बना रहेगा, लेकिन लाभ क्या होगा?
ऐसे नाते का प्रयोजन क्या?
तो
कुछ ऐसी बातें भी कहता हूं जो तुम्हारी समझ में न आएं। ताकि नाता बना रहे, सेतु जुड़ा
रहे, तुम्हें कुछ समझ में आता रहे। और कुछ जो समझ में नहीं
आता, उसे समझने के लिए तुम थोड़े हाथ ऊपर बढ़ाते रही। तुम्हारे
हाथ ऊपर बढ़ाने में ही किसी दिन आकाश को तुम छुओगे।
छठवां
प्रश्न:
प्यारे
भगवान! प्रेम। आपके सान्निध्य में तीन माह रहकर मेरा परा जीवन रूपांतरित हो गया है; पूरा जीवन
बदल गया है। मै आनंद से इतनी भर गयी हूं कि उसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाती।
अब तो जहां भी जाऊंगी, हृदय नर्तन करता रहेगा और मेरे मुंह
में आपका गुणगान होता रहेगा। मेरा अहोभाव स्वीकार करें।
पूछा है रंजना ने।
जीवन
निश्चित रूपांतरित होता है। बस, इतनी भी अगर तुम्हारी तैयारी हो कि मेरे पास
निश्चित मन से बैठ पाओ। सिर्फ पास बैठ पाओ, सिर्फ सत्संग हो
जाए, तो भी रूपांतरण होता है।
बुझा
दीया जले दीए के करीब आ जाए, तो भी जले दीए से बुझे दीए पर ज्योति कभी भी
छलांग ले सकती है।
रूपांतरण
किए—किए से नहीं हो,
कभी—कभी बिना किए हो जाता है। और असली कलाकार वही है, जो बिना किए रूपांतरण कर ले।
लेकिन
पास होना बड़ी हिम्मत की बात है। तुम यहां बैठते भी हो, तो भी
हजार तरह की दीवालें बनाए रखते हो। सुरक्षा रखते हो। सोच—सोचकर कदम उठाते हो।
सोच—सोचकर अगर कदम उठाए, तो चूकोगे। क्योंकि सोच—सोचकर कदम
उठाए, तो वे कदम कभी बहुत दूर तक जाने वाले नहीं। तुम्हारी
सोच की सीमा के भीतर होंगे।
मेरे
पास दो तरह के लोग संन्यास लेते हैं। एक, जो सोच—सोचकर संन्यास लेते हैं।
सोचने की वजह से उनका संन्यास आधा मरा हुआ हो जाता है पहले ही से। जैसे अधमरा
बच्चा पैदा हो।
दूसरे
वे, जो बिना सोचे संन्यास लेते हैं। जो सिर्फ मेरे प्रेम में पड़कर संन्यास
लेते हैं, जो पागल की तरह संन्यास लेते हैं। जो कहते हैं अब
नहीं सोचेंगे। एक नाता तो जीवन में बनाएं, जो बिना सोचे है।
इनके संन्यास में एक जीवंतता होती है, एक प्रगाढ़ता होती है।
इनके संन्यास में एक ऊर्जा होती है।
रंजना
का संन्यास वैसा ही है। बिना सोचे लिया है। हिसाब—किताब नहीं रखा है।
स्त्रियां
अक्सर बिना हिसाब—किताब के चल पाती हैं। पुरुष बहुत हिसाबी— किताबी है। वह सब तरह
के विचार कर लेता है। लाभ—हानि सब सोच लेता है। जब देखता है कि ही, हानि से
लाभ ज्यादा है, तो फिर संन्यास लेता है। हानि—लाभ दोनों
सोचने के कारण चित्त का एक हिस्सा कहता है, मत लो, एक हिस्सा कहता है, लो। तो जब लेता भी है, तब भी उसका लेना ऐसा ही होता है, जिसको हम
पार्लियामेंटरी कहते हैं। जैसे पार्लियामेंट में कोई निर्णय लिया जाता है कि बहुमत
एक तरफ हो गया, तो निर्णय हो गया।
लेकिन
बहुमत से लिए गए निर्णय का कोई बहुत भरोसा नहीं है। क्योंकि लोग पार्टी बदलते हैं।
आए राम, गए राम। लोग पार्टी बदलते हैं! तुम्हारे चित्त के हिस्से भी बदल जाते हैं।
सुबह तुम सोचते थे कि सत्तर प्रतिशत मन कह रहा है, संन्यास
ले लो। सांझ होते —होते साठ प्रतिशत कह रहा है कि संन्यास ले लो। दूसरे दिन पचास प्रतिशत
कह रहा है, लो, पचास प्रतिशत कह रहा है,
न लो। लेने के बाद पता चले कि सत्तर प्रतिशत मन कह रहा है कि गलती
कर दी कि ले लिया।
मन
एक से दूसरे में डावाडोल होता रहता है। मन का स्वभाव डांवाडोल होना है। जिसने
सोचकर लिया, उसने अधूरेपन से लिया। पार्लियामेंटरी निर्णय है। इसका कोई बहुत भरोसा
नहीं है। जिसने बिना सोचे लिया, उसने सर्वागीणता से लिया।
उसके भीतर बहुमत और अल्पमत का मतलब नहीं है। उसने सर्वमत से लिया। जो सर्वमत से
संन्यास लेगा, सहज ही रूपांतरण घटित होगा।
रंजना
को वैसा हुआ। ऐसा सबको हो सकता है। थोड़ी हिम्मत चाहिए, थोड़ा साहस
चाहिए।
और
जब ऐसा हो जाए,
तो फिर कहीं भी रहो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
जो गीत पैदा हुआ, वह जारी रहेगा। जो नाच जन्मा, वह तुम्हारे पैरों में समा गया। वह तुम्हारे प्राणों में समा गया। फिर पास
या दूर से कुछ भेद नहीं पड़ता।
बहुत
हैं, जो यहां पास होकर भी दूर हैं। और बहुत हैं, जो दूर
होकर भी पास होंगे। पास और दूर का कोई अर्थ नहीं है। असली सवाल आत्मा से आत्मा के
पास होना है।
हो गए हैं वो दीए
की रोशनी लेकर फरार
मिल गयी मिलनी थी
हमको जो सजाए—ऐतबार।
पत्थरों में फूल
खिलते हैं यहां तो आजकल
इक नयी तासीर लेकर
आयी है फस्ले—बहार।
एक भी चेहरा सही
चेहरा नजर आता नहीं
इस कदर छायी है
सारे शहर पे गदों—गुबार।
काश कोई आईने सा
आईना मिलता हमें
आईनाखाने में यूं
तो आईने हैं बेशुमार।
घोंसले में रख के
उड़ते हैं परों को आजकल
ये परिंदे कितने
ज्यादा हो गए हैं होशियार।
पक्षी
भी होशियार हो गए है! पंखों को घोंसले में ही रख जाते है कि कही रास्ते में खो न
जाएं। फिर उड़ते हैं। ऐसे होशियार झंझट में पड़ते हैं।
घोंसले में रख के
उड़ते हैं परों को आजकल
ये परिदे कितने
ज्यादहा हो गए हैं होशियार।
होशियारी
भी कभी—कभी बड़ी गहरी नासमझी होती है। और कभी—कभी नासमझी भी बडीगहरी होशियारी होती
है।
परमात्मा
के संबंध में जो पागल होने को तैयार हैं, वे ही समझदार हैं।
आखिरी
प्रश्न:
भगवान! आप अपने
शिष्यों में चुनकर एक मेरे नाम के पीछे ही जी क्यों लगाते है? और क्या यह मेरे लिए उचित नहीं होगा कि मैं इसके प्रति अपना विनम्र
विरोध प्रगट करूं?
पूछा है आनंद
मैत्रेय ने।
अलग—अलग
लोगों को चोट करने के मेरे अलग— अलग ढंग हैं मैत्रेय जी।
आज इतना ही।
thank you guruji
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