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मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)-प्रवचन-07

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)
ओशो
दिनांक 17, नवम्बर, सन् 1980

सातवां प्रवचन-(गुरु तीर्थ हैं)

 पहला प्रश्न: भगवान,
      बलं वाव विज्ञानाद् भूयः;
      अपि ह शतं विज्ञानवतां
      एको बलवान आकंपयते।
      स यदा बली भवति, अथोत्थाता भवति, उत्तिष्ठन परिचारिता भवति,
      परिचरन उपसत्ता भवति, उपसीदन द्रष्टा भवति,
      श्रोता भवति, मन्ता भवति,
      बुद्धा भवति,र् कत्ता भवति, विज्ञाता भवति।।
विज्ञान से बल श्रेष्ठ है, क्योंकि एक बलवान मनुष्य सौ विद्वानों को डराता है। बलवान होने पर ही मनुष्य उठ कर खड़ा होता है; उठने पर वह गुरु की सेवा करता है; सेवा करने से वह गुरु के पास बैठने लायक बनता है; पास बैठने से द्रष्टा बनता है, श्रोता बनता है, मनन करने वाला बनता है, बुद्ध बनता है, कर्ता बनता है, विज्ञानी बनता है।
भगवान, छांदोग्य उपनिषद के इस अजीब से सूत्र का आशय क्या है, यह हमें विशद रूप से समझाने की अनुकंपा करें।

 सहजानंद!

यह सूत्र निश्चय ही अजीब सा मालूम होता है, अजीब है नहीं। है तो बहुत प्यारा, है तो बहुत अनूठा, अद्वितीय। छांदोग्य उपनिषद का जैसे सारा छंद इसमें समा गया है। जैसे सारा, हजार-हजार फूलों से निचोड़ कर कोई इत्र इकट्ठा करे, ऐसा यह सूत्र है।
पर अजीब सा लगेगा, क्योंकि सत्य भाषा में आते-आते अजीब सा ही हो जाता है। और हमारे पास कोई सत्य का अनुभव नहीं हो, तो शब्द ही हमारे हाथ लगते हैं। और शब्दों में बड़ा खतरा है। शब्द से ज्यादा खतरनाक कोई और चीज नहीं। समझे तो पहुंचे; चूके तो गिरे। खड्ग की धार पर चलने जैसा है।
तुम्हारी बात मैं समझा सहजानंद! क्योंकि सूत्र शुरू होता है: बलं वाव विज्ञानाद् भूयः--विज्ञान से बल श्रेष्ठ है। और सूत्र अंत होता है: विज्ञाता भवति--विज्ञानी बनता है। विज्ञान से बल श्रेष्ठ है, ऐसा प्रारंभ; फिर बल की महिमा और चर्चा। और अंततः बल लाता कहां है? विज्ञाता बनाता है! सो तुम उलझे होओगे। सोचा होगा, यह कैसी बात!
फिर और भी बहुत बातें हैं, जो चिंता पैदा करें।
"क्योंकि एक बलवान मनुष्य सौ विद्वानों को डराता है।'
विद्वान तो हम उसे कहते हैं, जो जानता है। और बलवान, वह तो कोई बड़ी महत्ता की बात नहीं। कोई गामा पहलवान को बुद्ध के साथ तुलना करने बैठ जाए! तो यूं तो ठीक है कि एक गामा पहलवान सौ बुद्धों को हरा दे। मगर वह हराना ऐसे ही होगा, जैसे एक चट्टान गुलाब के फूल को दबा दे। इससे चट्टान कुछ गुलाब का फूल नहीं हो जाती, और न ही गुलाब के फूल पर जीत जाती है।
फिर बल की महिमा छांदोग्य उपनिषद गाता चलता है: "बलवान होने पर मनुष्य उठ कर खड़ा होता है। उठने पर गुरु की सेवा। सेवा से गुरु के पास बैठने की योग्यता। पास बैठने से द्रष्टा बनता है।' तब एक मोड़ आया। चले थे विज्ञान के विपरीत बल की प्रशंसा में, और बात कुछ और होने लगी! "द्रष्टा बनता, श्रोता बनता, मनन करने वाला बनता, बुद्ध बनता, कर्ता बनता'--और तब वर्तुल पूरा होता है कि--"बलवान विज्ञानी बनता है।'
तो स्वभावतः लगेगा कि बात बेबूझ है। तर्क से बेबूझ लगेगी। तर्क कुछ भी सुलझाता नहीं, उलझाता है। तर्क को थोड़ा हटा कर सहानुभूति से इस सूत्र को समझने की कोशिश करो। एक-एक शब्द को बहुत ध्यानपूर्वक लेना, क्योंकि बारीक भेद हैं, जो ऊपर से दिखाई नहीं पड़ते। और इसलिए सदियों-सदियों तक भूलें चलती रहती हैं।
विज्ञान और विज्ञाता एक सा अर्थ देते मालूम होते हैं, मगर उनमें एक सा अर्थ नहीं है, विपरीत अर्थ है। विज्ञान है बहिर्यात्रा, और विज्ञाता होना है अंतर्यात्रा। विज्ञान का अर्थ है वस्तु को जानना, और विज्ञाता का अर्थ है जानने वाले को जानना!
विज्ञान तो पदार्थ का होता है; और विज्ञाता होना आत्मबोध है, परमात्म-अनुभव है, सत्य-साक्षात है। इसलिए विज्ञान और विज्ञाता शब्द को सबसे पहले स्पष्ट अलग-अलग कर लो। एक ही धातु से बनते हैं दोनों। भाषाकोश में एक ही अर्थ है दोनों का। इसलिए भूल हो सकती है। लेकिन यह सूत्र जिन्होंने कहा होगा, वे कुछ भाषा के जानकार ही नहीं; अनुभव, रससिक्त, उस परम विज्ञान की, विज्ञाता की अवस्था में रहे हुए व्यक्ति रहे होंगे।
तो पहला भेद: विज्ञान अर्थात साइंस, और विज्ञाता अर्थात धर्म। विज्ञान विचार पर निर्भर होता है, और विज्ञाता निर्विचार पर। विज्ञान में सोचना होता है; विज्ञाता होने में सोचने का अतिक्रमण करना होता है।
जब तक सोच-विचार है, तब तक मन में उपद्रव है, तब तक झंझावात, आंधियां, तूफान; नाव डांवाडोल! किनारा मिलेगा कि नहीं मिलेगा! कि मझधार में ही डूब जाना होगा! यूं ही चिंता में क्षण बीतते। ऐसे ही संताप में समय गुजरता। अब डूबे, तब डूबे की हालत होती।
विज्ञाता का अर्थ है, किनारा मिल गया, आंधियां समाप्त हुईं। आंधियां ही नहीं, अब तो झील पर लहरें भी नहीं उठतीं। अब तो झील दर्पण बनी। ऐसी शांत, ऐसी मौन, कि सारा आकाश वैसा ही प्रतिफलित होता है जैसा है।
विज्ञाता पंडित नहीं है, प्रबुद्ध है। विज्ञानी पंडित है, प्रबुद्ध नहीं। अल्बर्ट आइंस्टीन और गौतम बुद्ध का जो भेद है...। यूं तो अल्बर्ट आइंस्टीन पदार्थ के संबंध में जितना जानता है, गौतम बुद्ध नहीं जानते। अगर पदार्थ के ज्ञान के संबंध में ही परीक्षण होना हो, तो आइंस्टीन ही जीतेगा। लेकिन अगर स्वयं के बोध के संबंध में कोई तुलना करनी हो, तो आइंस्टीन कहीं भी तराजू पर नहीं बैठेगा। और अंततः वही निर्णायक है।
मरते समय, आइंस्टीन ने दो दिन पूर्व ही कहा कि मेरा जीवन अकारथ गया। मैं व्यर्थ में उलझा रहा। मैंने उसे नहीं जाना, जिसे जानना था।
क्या जानना था? जानने वाले को पहले जानना था। अपने को ही न जाना, और सब जानते रहे! घर में ही अंधेरा रहा, और सारी दुनिया में दीवाली मनाते फिरे! घर में ही उत्सव न हुआ, और बाहर गुलाल उड़ाई, रंग उड़ाए! सब थोथा हो गया।
जब तक भीतर उत्सव न हो, तब तक बाहर के वसंत का क्या मूल्य है! और जब तक भीतर के फूल न खिलें, तब तक आए मधुमास कि जाए, सब बराबर है। फूल खिलें कि झरें, क्या करोगे! भीतर ही प्रकाश न हो, तो सूरज ऊगे कि डूबे, तुम तो अंधेरे में ही हो। ऊगता है सूरज तब भी, डूबता है तब भी! अंधेरी रात, तो भी अमावस। पूर्णिमा की रात, तो भी अमावस। तुम्हारे भीतर तो अमावस ही बनी रहती!
और मृत्यु के क्षण में अल्बर्ट आइंस्टीन को यह दिखाई पड़ना शुरू हुआ कि काश, मैंने इतनी ही ऊर्जा अपने को जानने में लगाई होती, तो आज मृत्यु के पार भी मेरे भीतर कुछ है, शायद उसे पहचान लिया होता। आज मृत्यु का भय न पकड़ता। आज मृत्यु का अतिक्रमण करने की मेरी क्षमता होती!
मरते समय एक ही भाव अल्बर्ट आइंस्टीन को था कि अगर फिर कभी जीवन मिले, तो उस सारे जीवन को अब धर्म की, रहस्य की खोज में लगा दूंगा। और सबसे बड़ा रहस्यों का रहस्य स्वयं के भीतर है। होगा भी। होना भी चाहिए। जानने वाले को जानने में ही परम रहस्य है। इस भेद को तुम ठीक से समझ लो, तो सूत्र साफ होना शुरू हो जाएगा।
"बलं वाव विज्ञानाद् भूयः।'
ठीक कहता है छांदोग्य उपनिषद का ऋषि, "विज्ञान से बल श्रेष्ठ है।'
विज्ञान, पदार्थ की जानकारी। बल किसे कह रहा है वह? बल से भी तुम किसी पहलवान के बल को मत समझ लेना। बल से भी उपनिषद के ऋषि का अर्थ होता है अंतर-ऊर्जा।
साधारण आदमी ऐसा है, जैसे छेद वाला घड़ा। कितना ही भरो, भरता नहीं। भरो, और खाली हो जाता है। कुछ रुकता नहीं, कुछ टिकता नहीं।
एक सूफी फकीर के पास एक युवक ने आकर कहा कि बहुत-बहुत संतों के पास गया हूं, लेकिन जिसकी तलाश है वह नहीं मिलता। अब आखिरी आपके द्वार पर दस्तक दी है। बस, हताश हो गया हूं! बहुत लोगों ने आपकी तरफ इशारा किया। बड़ी लंबी यात्रा करके, बड़े दूर देश से आता हूं। निराश न भेज देना। और यह मेरा अंतिम प्रयास है। कुछ होना हो तो हो जाए, न होना हो तो न हो। बस, मैं हार गया हूं।
उस फकीर ने कहा, जरूर होगा। क्यों नहीं होगा! लेकिन एक छोटी सी शर्त पूरी करनी पड़ेगी। शर्त बहुत छोटी है।
उस युवक ने कहा, मैंने बड़ी-बड़ी शर्तें पूरी कीं। किसी ने योग सिखाया, सिर के बल खड़ा किया, तो खड़ा रहा। किसी ने मंत्र पढ़वाए, तो वर्षों मंत्र दोहराता रहा। किसी ने उपवास करवाए, तो उपवास किए, भूखा मरा। जिसने जो कहा, वही किया। ऐसी कौन सी शर्त होगी जो मैंने पूरी नहीं की! तुम भी अपनी छोटी शर्त कह दो। जरूर पूरी करूंगा।
उस फकीर ने कहा, ये सब बड़ी-बड़ी बातें हैं। ये मुझे नहीं करनी हैं। बहुत छोटी शर्त है। अभी मैं कुएं पर पानी भरने जा रहा हूं। बस, तू इतना करना कि जब मैं पानी भरूं, तो बीच में बोलना मत, चुपचाप खड़े रहना। इतना अगर संयम तूने रख लिया, तो बस बहुत है। फिर आगे का काम मैं सम्हाल लूंगा। इतना तू कर ले।
उस युवक ने सोचा कि मैं भी किस आदमी के पास आ गया हूं! बड़े तंत्र साधे, मंत्र साधे, यंत्र साधे। और यह पागल मालूम होता है। यह कुएं पर पानी भरेगा, तो भर मजे से! मेरा क्या बनता-बिगड़ता है! मैं क्यों बोलूंगा?
लेकिन उसे पता न था। कुएं पर पानी भरना तो दूर, जब फकीर ने अपनी बालटी उठाई और रस्सी उठाई, तभी उसके भीतर बड़े झंझावात उठने लगे। लेकिन अपने को सम्हाला। याद रखा कि उसने कहा है कि बोलना ही मत। मगर न रहा जाए!
फिर भी अपने पर संयम रखा। पुराना संयमी था। लंबा अभ्यासी था। अपनी जबान को कस कर पकड़े रहा। ओंठों को बंद रखा। इधर-उधर देखा, कि देखो ही मत। न देखोगे, न प्रश्न उठेगा। और थोड़ी ही देर की बात है।
कुएं पर फकीर पहुंचा। उसने बालटी में रस्सी बांधी। युवक यहां-वहां देखे। फकीर ने कहा, यहां-वहां देखने की जरूरत नहीं। जो मैं कर रहा हूं उसको देख और चुपचाप खड़ा रह। बोलना मत। प्रश्न उठाना मत। इतनी शर्त तू पूरी कर देना, बाकी मैं सब कर लूंगा।
युवक को देखना पड़ा। मगर उसकी बेचैनी तुम नहीं समझ सकते। उसकी मुसीबत तुम नहीं समझ सकते। जो देख रहा था, उसे देख कर बिना बोले रहा न जाता था।
फकीर ने रस्सी बांधी। बालटी कुएं में डाली। बड़ा हिलाया-डुलाया बालटी को। बड़ा शोरगुल मचाया कुएं में। पानी में डूबी रही बालटी तो भरी हुई मालूम पड़ी, फिर खींची तो खाली की खाली आई! फिर दुबारा डाली। संयम टूटने लगा युवक का। जब तीसरी बार बालटी डाली, युवक ने कहा, ठहरो! भाड़ में गया ब्रह्मज्ञान। इस बालटी में पेंदी ही नहीं है, और तुम पानी भरने चले हो! आखिर संयम की भी एक हद्द होती है! कब तक साधूं? और यह संयम तो ऐसा है कि जन्म-जन्म बीत जाएंगे, पानी भरने वाला नहीं। यह बालटी खाली रहने वाली है। और तुमने मुझसे वचन लिया है कि जब तक पानी न भर लूं, बोलना मत। मैं तो बोलूंगा। और तुमसे कहे देता हूं कि तुमसे क्या खाक मुझे मिलेगा! अभी तुम्हें खुद ही यह पता नहीं है कि बिना पेंदी की बालटी में पानी भरने चले हो! तुम क्या मुझे ब्रह्मज्ञान दोगे!
फकीर ने कहा, बात खतम हो गई। नाता-रिश्ता टूट गया। शर्त ही खतम हो गई। जब तू छोटा सा भी काम पूरा न कर सका...। अरे बस, यह आखिरी बार था। तीन बार का मैंने तय किया था। मगर तू चूक गया। तीन ही बार पूरे न हो पाए और तूने संयम छोड़ दिया। रास्ते पर लग अपने! ऐसे आदमी से क्या होगा जिसमें इतना धीरज नहीं! भाग। यह तो मुझे भी पता है कि बालटी में पेंदी नहीं है। मैं कोई अंधा हूं! बालटी में पानी नहीं भरेगा, यह भी मुझे पता है। यह तो तेरे धीरज की परीक्षा थी। मगर तू असफल हो गया। अब मैं जानता हूं कि क्यों तू अब तक हताश है। तू सदा हताश रहेगा। एक छोटा सा काम न कर सका! भाग जा। अब यह शक्ल मुझे मत दिखा।
युवक चला तो, लेकिन अब बड़ी बेचैनी में पड़ गया। बात तो ठीक थी। फकीर पागल नहीं था। कुछ बेबूझ था। सो फकीर सदा हुए हैं। फकीर और बेबूझ न हो, तो क्या खाक फकीर! फकीर और कुछ रहस्यपूर्ण न हो, तो क्या खाक फकीर! पंडित होते हैं तर्क-शुद्ध; फकीर तो तर्क-शुद्ध नहीं होते, रहस्यमय होते हैं; पहेली की तरह होते हैं।
मैंने भी क्या चूक कर दी! जरा सी देर और रुक जाता; जरा सी देर की बात थी! और पता नहीं यह आदमी क्या जानता हो! जानता जरूर होगा। क्योंकि ऐसी परीक्षा मेरी किसी ने कभी ली भी न थी। रात भर सो न सका। सुबह ही उठ कर पहुंच गया। अंधेरे-अंधेरे पहुंच गया। फकीर के द्वार पर सिर पटक कर पड़ रहा और कहा कि मैं हटूंगा नहीं यहां से। मुझसे भूल हो गई, मुझे क्षमा कर दो। एक अवसर और दो।
तो फकीर ने कहा, क्या भूल हो गई? उसने कहा, यही कि मुझे क्या लेना था! दिखता था मुझे कि बिना पेंदी की बालटी में पानी भरेगा नहीं। मुझे बोलना नहीं था। चुप खड़ा रहता। वायदा किया था, पूरा करना था। मैं वायदे से च्युत हुआ।
फकीर ने कहा, अगर इतना तुझे दिखाई पड़ गया कि बिना पेंदी की बालटी में पानी नहीं भरता, तो मैं तुझसे यह कहना चाहता हूं कि तेरे भीतर भी पेंदी नहीं है, इसलिए ऊर्जा इकट्ठी नहीं होती। ऊर्जा इकट्ठी न हो, तो तू कैसे ब्रह्म को जानेगा? ब्रह्म को जानने के लिए ऊर्जा चाहिए! ऐसी ऊर्जा कि ऊपर से बह उठे! अतिरेक चाहिए।
ऊर्जा के अतिरेक को बल कहा है छांदोग्य उपनिषद ने। ऐसी ऊर्जा चाहिए कि तुम सम्हाल न सको; तुम्हारे ऊपर से बहने लगे। इतनी ही ऊर्जा हो, तो ही सत्य को जाना जा सकता है। निर्वीर्य सत्य को नहीं जान सकते। तुमने कभी सुना न होगा कि कोई नपुंसक, और ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध हुआ हो! वीर्यवान, ऊर्जा से भरे हुए लोग...।
वृक्ष पर फूल कब खिलते हैं? जब वृक्ष के पास इतनी ऊर्जा होती है कि अब उमंग में लुटा सकता है, तब फूल खिलते हैं। अगर वृक्ष को ठीक खाद न मिले, ठीक जल न मिले, रोशनी न मिले, फूल न आएंगे। फूल तो विलास है, वैभव है, ऐश्वर्य है। और इसलिए मुझे ईश्वर शब्द प्यारा है। ईश्वर शब्द ऐश्वर्य से ही बना है। ईश्वर को वे ही लोग जान पाते हैं, जिनके भीतर इतनी ऊर्जा होती है कि जैसे वृक्षों की ऊर्जा फूल बन जाती है। ऊर्जा जब न्यूनतम होगी, तो फूल तो दूर, पत्ते भी मुश्किल से पैदा होंगे। फूल तो बहुत दूर, पत्ते भी कुम्हलाए-कुम्हलाए होंगे। ऊर्जा अतिरेक होनी चाहिए।
पश्चिम के बहुत बड़े रहस्यवादी कवि विलियम ब्लैक का वचन महत्वपूर्ण है; उपनिषद के सूत्रों जैसा है। विलियम ब्लैक आदमी था भी कि उसे कवि नहीं, ऋषि ही कहना चाहिए। उसका सूत्र है: एनर्जी इज़ डिलाइट--ऊर्जा ही आनंद है।
पते की बात कही। ऊर्जा ही आनंद है। ऊर्जा की कमी ही दुख है। ऊर्जा की दीनता और क्षीणता ही पीड़ा है, नर्क है। क्योंकि फूल खिलते नहीं, सुगंध बिखरती नहीं। जैसे दीए में तेल चुक जाए, तो बाती बुझ जाए। दीए में तेल चाहिए, बाती चाहिए, तो ज्योति जले। और जितना तेल हो, उतनी ही प्रगाढ़ता से ज्योति जले।
और तुमने एक खूबी की बात देखी: हवा आती, अंधड़ आता, छोटे-मोटे दीए बुझ जाते हैं; जंगल में लगी आग और भी धू-धू करके जल उठती है। छोटे दीए बुझ जाते हैं; हवा का झोंका आया, कि गए! लेकिन बड़ी आग और बड़ी हो जाती है! तुम्हारे भीतर ऊर्जा हो, तो परमात्मा की ऊर्जा भी तुम्हारी ऊर्जा में संयुक्त हो जाती है। तुम्हारे जीवन में यूं आग लग जाती है, जैसे जंगल में आग लगी हो। छोटा-मोटा दीया हो, तो जरा सा हवा का झोंका और उसे बुझा जाता है। इसे स्मरण रखना। क्षुद्र ऊर्जा से नहीं चलेगा; विराट ऊर्जा चाहिए। आकाश की यात्रा पर निकले हो, ईंधन तो चाहिए ही चाहिए। पंखों में बल चाहिए।
इसलिए छांदोग्य ठीक कहता है: "बलं वाव विज्ञानाद् भूयः। विज्ञान से बल श्रेष्ठ है।'
क्या करोगे जान कर गणित, भूगोल, इतिहास? क्या करोगे जान कर भौतिकी, रसायन? इससे ज्यादा श्रेष्ठ है अपनी जीवन-ऊर्जा को संगृहीत करना; जीवन-ऊर्जा को ऐसे संगृहीत करना कि तुम एक सरोवर हो जाओ, लबालब भरे हुए। तुममें कोई छिद्र न हो; जिससे ऊर्जा बहे न। तुम्हारा घड़ा जब पूरा भरा हो, ऐश्वर्य से भरा हो, तो ईश्वर को जानने की क्षमता है।
मेरी बात लोगों को अखरती है, क्योंकि लोग समझते नहीं। लेकिन मैं तुमसे फिर दोहरा कर कहना चाहता हूं कि ईश्वर को जानना इस जगत में सबसे बड़ा विलास है। यह धन का विलास कुछ भी नहीं। यह पद का विलास कुछ भी नहीं। ईश्वर को जानना सबसे बड़ा विलास है, क्योंकि वह परम ऐश्वर्य की अनुभूति है। और उस परम ऐश्वर्य की अनुभूति के लिए पहले तुम्हें ऊर्जा को बचाना होगा, संगृहीत करना होगा।
और तुम व्यर्थ गंवा रहे हो! तुम्हारी निन्यानबे प्रतिशत ऊर्जा कचरेघर में जा रही है। फूल उगें तो कैसे उगें? ज्योति जगे तो कैसे जगे? नृत्य हो तो कहां से हो? थके-मांदे तुम क्या नाचोगे? टूटे-फूटे तुम क्या नाचोगे? और जब नाच नहीं पाते, तो बहाने खोजते हो। कहते हो, आंगन टेढ़ा! नाच न आवे आंगन टेढ़ा! अब आंगन के टेढ़े होने से कुछ नाचने में बाधा पड़ सकती है? अरे, जिसको नाचना है, आंगन टेढ़ा हो कि सीधा हो, नाचेगा। अगर नाच है, तो आंगन को ही सीधा होना पड़ेगा। नाचने वाले की ऊर्जा आंगन को सीधा कर देगी। आंगन का तिरछा होना कहीं नाचने वाले को रोक सकता है? लेकिन क्या-क्या बहाने हम खोजते हैं!
ऊर्जा की कमी है; पूछते फिरते हैं कि जीवन में दुख क्यों है? दुख का कारण सिर्फ इतना है कि सुख होता है ऊर्जा के अतिरेक से; महाअतिरेक से आनंद होता है। और तुम्हारे जीवन में बूंद-बूंद कर सब चुका जा रहा है। और खयाल रखना, बूंद-बूंद गिरता है, लेकिन गागर ही नहीं, सागर भी खाली हो जाता है। बूंद-बूंद गिरता रहे, तुमसे अलग होता रहे; बूंद-बूंद टपकती रहे, तो गागर तो खाली होगी ही, सागर भी खाली हो जाता है।
और तुम किस-किस तरह से अपनी ऊर्जा को व्यर्थ कर रहे हो! तुम्हारे पास जितनी इंद्रियां हैं, उन सबसे तुम दो तरह के काम ले सकते हो। एक तो ऊर्जा को भीतर ले जाने का; और दूसरा ऊर्जा को बाहर फेंकने का। यही अंतर्मुखी और बहिर्मुखी का भेद है। बहिर्मुखी मूढ़ है।
दरवाजा तो एक ही होता है। उसी दरवाजे पर एक तरफ लिखा होता है: प्रवेश, एन्टें्रस; उसी दरवाजे पर दूसरी तरफ लिखा होता है: एक्झिट। उसी से तुम भीतर आते, उसी से बाहर जाते। कोई दो दरवाजों की जरूरत नहीं होती। एक ही दरवाजा काफी होता है। तुम्हारी आंख से तुम्हारे देखने की ऊर्जा बाहर भी जाती है और भीतर भी आती है। जो समझदार है, वह आंख से ऊर्जा को इकट्ठा करता है। और जो नासमझ है, वह गंवाता है। जो नासमझ है, आंख उसके लिए छेद हो जाती है। और जो समझदार है, आंख उसके लिए संग्राहक हो जाती है।
बुद्ध ने कहा है, राह पर चलो तो चार कदम से ज्यादा मत देखना।
क्यों? क्योंकि ज्यादा की क्या जरूरत है! चलना है, तो चार कदम देखना पर्याप्त है। जब चार कदम चल लोगे, तो चार कदम आगे दिखाई पड़ने लगेगा। चार कदम देखते-देखते तो हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाएगी।
लेकिन तुम? चार कदम छोड़ कर सब देखते हो! वे चार कदम भर नहीं दिखते, जो चलने हैं। दीवाल पर लिखा है, डोंगरे का बालामृत; पढ़ो! इधर फिल्म का पोस्टर लगा है; पढ़ो! इधर कोई खोंमचे वाला खड़ा है। उधर कोई स्त्री गुजर गई। इधर किसी छैल-छबीले ने कोई फिल्मी धुन छेड़ दी। क्या-क्या हो रहा है चारों तरफ! तुम करो भी क्या! आंखें भागी फिर रही हैं; सब तरफ भटक रही हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि आंख से मनुष्य की अस्सी प्रतिशत ऊर्जा बाहर जाती है।
फिर कान भी वही कर रहे हैं। तुम क्या सुनते हो? गलत हो तो जल्दी सुनते हो, ठीक हो तो सुनते ही नहीं। अरे, ठीक में क्या रखा है! ठीक में कोई समाचार होता है! गलत में समाचार होता है। किसकी स्त्री किसके साथ भाग गई, इसमें कुछ समाचार होता है। मजा आ जाता है! पास सरक आते हैं लोग, जब ऐसी बातें होने लगती हैं। गुफ्तगू होने लगती है। फुसफुसा कर बातें करने लगते हैं। और जब दो आदमी फुसफुसा कर बातें करें, तो जितने आदमी हैं, सब सुनने लगते हैं! क्योंकि जब बात फुसफुसा कर हो रही है, तो जरा गहरी हो रही है। कोई बात गहरी हो रही है!
जिस बात को सबको सुनाना हो, फुसफुसा कर कहना; किसी के कान में कह देना। और उससे यह भी कह देना कि भैया, किसी को बताना मत; कि कसम है तुम्हें मेरी, अगर किसी को बताओ। बस वह बात पूरे गांव में पहुंच जाएगी। वह हरेक के कान में पहुंच जाएगी!
कचरा सुन रहे हो। कचरा देख रहे हो। कचरा पढ़ रहे हो। और फिर कहते हो, दुख क्यों है? कचरा खा रहे हो। कचरा पी रहे हो। तुमसे शुद्ध जल न पीया जाएगा, कोकाकोला चाहिए! अब यह कभी सोचोगे ही नहीं, यह कोकाकोला है क्या? इसमें है क्या? मगर सारी दुनिया पी रही है। और अखबारों में बड़े-बड़े पोस्टर छपे हुए हैं। अखबार पढ़ रहे हो, लोग कोकाकोला पी रहे हैं। लोग अखबार पढ़ रहे हैं; फिल्में देख रहे हैं; रेडियो पर सुन रहे हैं। और सब जगह एक ही चर्चा है कि अगर जिंदगी का मजा लेना है, तो कोकाकोला के बिना नहीं! लिव्वा लिटिल हाट, सिप्पा गोल्ड स्पाट! नहीं तो जिंदगी बेकार गई। किसी काम न आई।
लोग क्या खाते हैं? क्या पीते हैं? क्या सुनते हैं? क्या देखते हैं? अगर तुम जरा हिसाब रखो, तो तुम्हें साफ दिखाई पड़ेगा, तुम क्यों दुखी हो।
जो सुनने योग्य हो अगर वही सुना जाए, और जो देखने योग्य हो अगर वही देखा जाए, तो तुम्हारे जीवन की नब्बे प्रतिशत ऊर्जा तो अपने आप सुरक्षित हो जाएगी--अपने आप! तुम्हारे घर में कोई कचरा डाले, तो तुम इनकार करोगे। लेकिन तुम्हारी खोपड़ी में कोई कचरा डाले, तुम कहते हो: आइए, विराजिए, पधारिए! बड़ी कृपा की। ऐसे ही आया करते रहिए। कैसी-कैसी प्यारी खबरें ले आए हैं! धन्यभाग कि आप पधारे। कृतकृत्य हो गए, कृतार्थ हुए!
फिल्में देखने जा रहे हो, जिनमें सिवाय हंगामे के और कुछ भी नहीं! पैसे भी खर्च करोगे; टिकट खरीदने में धक्के-मुक्के भी खाओगे; पिटोगे-कुटोगे भी। मगर लोगों ने तय ही कर रखा है, सौ-सौ जूते खाएं तमाशा घुस कर देखें। और मजा यह है कि जब तुम सौ-सौ जूते खा रहे हो, तब तमाशा दूसरे देख रहे हैं! और तमाशा ही क्या है? जब तुम पर जूते पड़ रहे हैं, वे तमाशा देख रहे हैं; जब उन पर जूते पड़ रहे हैं, तुम तमाशा देख रहे हो! और तमाशा ही क्या है?
छांदोग्य जिस बल की बात कर रहा है, वह वही ऊर्जा है, जिसको ब्लैक ने कहा, अतिरेक ऊर्जा का आनंद है। जिसको बुद्ध ने कहा, ऊर्जावान बनो। शक्ति को भीतर सरोवर बनने दो। यह खाली घड़ा शोभा नहीं देता। इस खाली घड़े को लेकर तुम परमात्मा के द्वार पर भी जाओगे, तो क्या मुंह दिखाओगे! कम से कम घड़ा तो भरा हो। इसलिए हमारे देश में पूर्ण-कलश स्वागत का प्रतीक बना, भरा हुआ कलश स्वागत का प्रतीक हो गया। लेकिन यह भीतर के भरे कलश की ही सूचना है।
"बलं वाव विज्ञानाद् भूयः। विज्ञान से बल श्रेष्ठ है। अपि ह शतं विज्ञानवतां एको बलवान आकंपयते। क्योंकि एक बलवान मनुष्य, एक ऊर्जावान व्यक्ति सौ विद्वानों को डराता है।'
यह कोई पहलवान के लिए नहीं कहा गया है। एक ऊर्जावान व्यक्ति सौ पंडितों को डराता है। विद्वान यानी पंडित, जिन्होंने उधार ज्ञान इकट्ठा कर रखा है। इसलिए तो पंडित सदा ही ज्ञानी के दुश्मन होते हैं। होंगे ही। क्योंकि ज्ञानी उनके धंधे को जड़ से ही काटे डालता है।
पंडितों का धंधा क्या है? पंडितों का सिक्का चलता है अंधों में। और ज्ञानी लोगों को आंखें देने लगता है। अब जिनका धंधा ही अंधों में चलता हो, वे कैसे बरदाश्त करें कि कोई लोगों की आंखों की चिकित्सा करने लगे! आंखों की चिकित्सा हो गई तो उनका धंधा कैसे चलेगा? ये झूठे सिक्के कैसे चलेंगे?
इसलिए जीसस को पंडितों ने सूली लगाई। वे रबाई थे, यहूदी पंडित थे, जिन्होंने जीसस को सूली लगाई। लगानी पड़ी, क्योंकि उस एक व्यक्ति ने सारे यहूदियों के पंडितों को कंपा दिया। सुकरात को एथेंस के पंडितों ने सूली लगाई, क्योंकि उस एक व्यक्ति ने पूरे एथेंस के सारे तथाकथित थोथे ज्ञानियों के प्राण संकट में डाल दिए। बुद्ध को तुमने पत्थर मारे। महावीर के कानों में तुमने सींकचे ठोंके। तुम्हारा पंडित सदा से ही प्रबुद्धजनों का दुश्मन रहा है। रहेगा। सदा रहेगा। क्योंकि उन दोनों का धंधा साथ चल नहीं सकता।
सुकरात को अदालत ने कहा था, अगर तुम सत्य बोलना बंद कर दो, तुम चुप हो जाओ, तो हमें कोई एतराज नहीं। तुम जीओ, मजे से जीओ। लेकिन सुकरात ने कहा कि अगर मैं चुप हो जाऊं, तो फिर जीकर भी क्या करूंगा! सत्य बोलना ही तो मेरा धंधा है।
अब यह धंधा बड़ा खतरनाक है। ठीक धंधे शब्द का ही उपयोग किया है सुकरात ने। यह सत्य बोलना ही मेरा धंधा है। अगर सत्य बोलना ही सुकरात का धंधा है, तो जो असत्य पर जी रहे हैं--और असत्य पर बहुत जी रहे हैं--वे स्वभावतः सुकरात को जिंदा न रहने देंगे। जब उनके जीवन पर बन आएगी, उनकी आजीविका पर बन आएगी, तो इस आदमी को हटाना ही होगा। यह रास्ते का रोड़ा है। यह खतरनाक है। यह तो लोगों को बिगाड़ रहा है।
सुकरात पर जुर्म क्या थे? वे ही जुर्म, जो मुझ पर हैं! वही के वही जुर्म हैं सदा। क्योंकि बात वहीं की वहीं है। आदमी बदलता ही नहीं। आदमी सीखता ही नहीं। आदमी हर बार घूम कर वहीं आ जाता है। सुकरात पर जो जुर्म थे...पहला जुर्म यह था कि सुकरात ऐसे सत्य बोलता है, जो परंपरा के विपरीत हैं।
अब सत्य ने कोई कसम खाई है परंपरा के अनुकूल होने की? परंपरा दो कौड़ी की चीज है। सत्य को क्या पड़ी है कि परंपरा के अनुकूल हो! अगर परंपरा को कुछ पड़ी हो तो सत्य के अनुकूल हो जाए। लेकिन सत्य किसी के अनुकूल नहीं हो सकता। सत्य तो सिर्फ अपने अनुकूल होता है। सत्य का तो अपना छंद होता है। सत्य स्वच्छंद होता है।
यह छांदोग्य उपनिषद शब्द बड़ा प्यारा है। जिन्होंने अपने छंद को पा लिया है, उनके वचन इसमें संगृहीत हैं। सत्य तो स्वतंत्र होता है, उसका अपना ही तंत्र होता है। उस पर किसी और का शासन नहीं। वह अनुशासित नहीं होता किसी से, आत्मानुशासित होता है।
तो पहला जुर्म था सुकरात पर कि तुम सत्य बोलते हो जो परंपरा के विपरीत है।
सुकरात ने कहा, लेकिन सत्य सदा परंपरा के विपरीत रहेगा। इसमें मेरा कसूर नहीं है। कसूर परंपरा का है।
परंपरा होती है सड़ी-गली; परंपरा होती है अतीत की, मुर्दा। परंपरा होती है पंडितों के हाथ में, पुरोहितों के हाथ में। और सत्य होता है प्रबुद्धजनों के हाथ में। प्रबुद्ध तो कभी कोई एकाध होता है। पंडितों का तो व्यवसाय है--परंपरागत, वंशानुगत।
दूसरा जुर्म था सुकरात पर कि तुम युवकों को बिगाड़ते हो!
निश्चित ही, सुकरात जैसे व्यक्तियों की बातें युवकों को ही जम सकती हैं। क्योंकि युवकों में ही थोड़ी अभी ऊर्जा होती है, थोड़ी शक्ति होती है, थोड़ी क्षमता होती है, थोड़ा कुछ कर गुजरने का अभी साहस होता है। थोड़ा अभियान, थोड़े अज्ञात की यात्रा अभी उनके लिए पुकारती है, चुनौती देती है। जैसे-जैसे आदमी बूढ़ा होने लगता है, शक्ति क्षीण होने लगती है, दीन होने लगता है, मृत्यु करीब आने लगती है, तो परंपरा के अनुकूल होने लगता है।
अक्सर नास्तिक मरते-मरते आस्तिक हो जाते हैं। इससे तुम यह मत समझना कि जीवन के अनुभव ने उन्हें आस्तिक बना दिया। मरते-मरते आस्तिक होने लगते हैं, क्योंकि मरते-मरते पैर डगमगाने लगते हैं। जवानी में नास्तिकता बड़ी सहज है, क्योंकि अभी पैरों में बल होता है। बुढ़ापे में मौत दरवाजे पर दस्तक देने लगती है। भय पकड़ने लगता है। लगता है, हो न हो परमात्मा हो! कौन जाने परमात्मा हो! मैं इनकार करता रहा, पीछे किसी मुसीबत में न पडूं। अभी भी कुछ देर नहीं हुई। सुबह का भूला सांझ भी घर आ जाए, तो भूला नहीं। अभी भी याद कर लूं। माफी मांग लूं। क्षमा मांग लूं। मरते-मरते गंगास्नान कर आऊं! काशी हो आऊं, कि काबा हो आऊं, हाजी हो जाऊं, मरते-मरते हाजी हो जाऊं! कुछ कर लूं। अगर परमात्मा होगा तो ठीक, न हुआ तो कोई हर्जा नहीं, क्या बिगड़ जाएगा। समझेंगे कि चलो, एक यात्रा कर आए काशी की, कि कैलाश की, कि काबा की। क्या बुरा! क्या बिगड़ गया! थोड़ा भौगोलिक ज्ञान ही बढ़ जाएगा। नए-नए देश देखने को मिल जाएंगे। नए-नए लोगों से मिलने को हो जाएगा। कुछ हानि तो होने वाली नहीं है। और अगर परमात्मा हुआ, तो पास में अपने एक प्रमाणपत्र भी हो जाएगा।
मरते-मरते आदमी आस्तिक होने लगते हैं।
सुकरात जैसे व्यक्तियों से तो युवा व्यक्ति ही आकर्षित होते हैं। हां, जरूर कुछ वृद्ध लोग भी आकर्षित होते हैं। लेकिन वे वृद्ध वे ही होते हैं, जिनका शरीर बूढ़ा हो गया होगा, लेकिन जिनकी आत्मा में अभी भी युवक होने की क्षमता है। जिनमें अभी भी दुस्साहस है। जो अभी भी अज्ञात की यात्रा पर निकल सकते हैं। जो अपनी छोटी सी डोंगी को लेकर अभी भी उस सागर में उतर जा सकते हैं जिसका दूसरा किनारा दिखाई नहीं पड़ता।
सत्य तो थोड़े से दुस्साहसी लोगों की ही बात है। भीड़ तो असत्य में जीएगी, क्योंकि भीड़ सांत्वना चाहती है, सत्य नहीं चाहती। इसलिए एक भी सत्य को जानने वाला व्यक्ति हजारों पंडितों के लिए संकट बन जाता है।
और कैसा मजा है! हिंदू पंडित मुसलमान पंडित के खिलाफ। मुसलमान पंडित ईसाई पंडित के खिलाफ। ईसाई पंडित यहूदी पंडित के खिलाफ। यहूदी पंडित पारसी पंडित के खिलाफ। लेकिन सुकरात जैसे व्यक्ति के संबंध में ये सारे पंडित एक साथ राजी हो जाते हैं! यह राज भरी बात है!
मेरा विरोध करने में हिंदू पंडित, मुसलमान पंडित, जैन पंडित, बौद्ध पंडित, सिक्ख पंडित--सब राजी। एक बात पर कम से कम राजी हैं। मैं इससे ही खुश होता हूं कि चलो, मेरे द्वारा कम से कम इतना भाईचारा तो बढ़ रहा है! चलो, मेरे एक मुद्दे पर इनकी दुश्मनी तो मिटी! चलो, इतनी बात पर तो कम से कम इन्होंने हाथ बढ़ाए एक-दूसरे की तरफ, इकट्ठे हुए!
क्या राज है? इनकी एक-दूसरे से जो दुश्मनी है, वह केवल औपचारिक है। वह दो दुकानदारों की दुश्मनी है। वह प्रतिस्पर्धा है दुकानदारों की। लेकिन मेरे जैसा व्यक्ति तो उनकी दोनों की ही दुकान की जड़ों को काट रहा है, एक साथ काट रहा है। मेरे खिलाफ तो वे दोनों इकट्ठे हो जाएंगे।
यह छांदोग्य उपनिषद ठीक कहता है: "क्योंकि एक ऊर्जावान व्यक्ति सौ विद्वानों को डराता है, आकंपित कर देता है।'
आकंपित शब्द डराने से भी महत्वपूर्ण है। उनके प्राण थरथरा जाते हैं। भूकंप आ जाता है। उनका भवन गिरने लगता है। भवन ही उनका क्या है? ताश के पत्तों का है! उनकी नाव डूबने लगती है। नाव ही कागज की है। खिलौनों से खेल रहे हैं, और दूसरों को भी खिलौनों में भरमा रहे हैं। क्या-क्या मजा चल रहा है धर्म के नाम पर! कैसे-कैसे खेल चल रहे हैं! और कितनी गंभीरता से चल रहे हैं!
रामलीला होती है; हर साल होती रहती है! वही रामलीला, वही देखने वाले लोग! हजारों बार देख चुके हैं! हजारों बार देख रहे हैं! एक-एक शब्द याद है। वे रामलीला में जो अभिनय कर रहे हैं, उनको भी शायद भूल जाए, मगर देखने वालों को एक-एक शब्द याद है। पक्का पता है कि अब दशरथ जी क्या कहेंगे, कि अब राम जी क्या बोलेंगे, कि अब सीता मैया पर क्या गुजरेगी! सब पता है, फिर भी देख रहे हैं।
और जानते हैं भलीभांति कि यह छोकरा जो राम बना है, कौन है। गांव का ही छोकरा है। मगर उसके पैर पड़ेंगे, फूलमालाएं पहनाएंगे, शोभायात्रा निकलेगी! रामचंद्र जी की बारात निकलेगी, और फूलमालाएं चढ़ाई जाएंगी, और पैर छुए जाएंगे, और पैर धो-धो कर लोग पानी पीएंगे। और सबको मालूम है यह छोकरा कौन है! यही गांव का लफंगा है। यही इनकी छोकरियों को सताता है। मगर इस समय वे बातें छेड़ने की जरूरत नहीं। अभी मुकुट बांधे हुए राम बना बैठा है। अभी बात और है।
क्या अभिनय में पड़े हो? क्या खेल खेल रहे हो? बच्चों जैसे काम! जैसे बच्चे गुड्डा-गुड्डी का विवाह करते हैं, ऐसे तुम राम और सीता का विवाह करवा रहे हो।
मंदिरों में क्या हो रहा है? कृष्ण जी को झूला झुलाया जा रहा है! अब बेचारे कृष्ण जी कुछ कर भी नहीं सकते। अगर उनको न भी झूलना हो...। जैसे मुझे झूलना पसंद नहीं, बिलकुल पसंद नहीं! मुझे बचपन से ही झूले से नफरत है। अब पता नहीं कृष्ण जी को पसंद था कि नहीं। उनको चक्कर भी आ रहा हो, तो कोई बात नहीं! भक्त लोग झूला झुला रहे हैं, तो झूलना पड़ रहा है। और भक्तों के हाथ में सब है। जब लिटा दें, तो लेट जाओ। जब उठा दें, तो उठ जाओ। जब पट खोलें मंदिर के, तो खुल जाएं; जब बंद कर दें, तो बंद हो जाएं। क्या खेल कर रहे हो!
मूर्तियां बना ली हैं। अपनी ही कल्पना के जाल हैं सब। कोई राम को पूज रहा है, कोई कृष्ण को पूज रहा है, कोई बुद्ध को, कोई महावीर को! पत्थर की मूर्तियां यूं पूजी जा रही हैं, जैसे इनकी पूजा से तुम्हें सत्य मिल जाएगा। यह कोई पूछता नहीं कि महावीर ने किसी की मूर्ति पूजी थी? यह पूछना शायद शिष्टाचार नहीं।
जैनियों की एक सभा में मैंने एक बार पूछ लिया। वे बहुत नाराज हो गए। मैंने उनसे पूछा कि तुम महावीर की मूर्ति पूजते हो, तुम कम से कम यह तो पता लगाओ कि महावीर ने कभी किसी की मूर्ति पूजी थी? और जब महावीर ने ही नहीं पूजी, तो तुम महावीर की मूर्ति पूज कर महावीर के अनुयायी नहीं हो, दुश्मन हो। अगर महावीर के सच्चे अनुयायी हो, तो पूजो मत।
महावीर ने तो शिक्षा दी है, अशरण-भावना। बड़ी अदभुत शिक्षा! किसी की शरण ही न जाना। पूजने का तो सवाल ही नहीं उठता। क्योंकि तुम्हारे भीतर ही बैठा है परमात्मा, तुम किसको पूज रहे हो? खोजो, पूजो मत। जागो, पूजो मत। आविष्कार करो अपने भीतर। जिसे तुम बाहर पूज रहे हो, वह बाहर नहीं है। वह तुम्हारे भीतर है। वह पूजा करने वाले में छिपा है। खोजने वाले में ही खोज का गंतव्य है। तुम्हारे जानने वाले में ही वह छिपा है, जिसे जानना है।
तो महावीर ने कहा, अशरण-भावना।
मगर बड़ा मजा है! महावीर की मूर्तियां ही मूर्तियां हैं सारे देश में!
बुद्ध ने कहा कि मुझ पर मत अटक जाना। मुझसे इशारे ले लो, चलना तो तुम्हें होगा। बुद्ध तो केवल इशारे करते हैं।
लेकिन बस, बुद्ध की जितनी मूर्तियां बनीं, किसी की भी नहीं! इतनी मूर्तियां बनीं कि अरबी में, उर्दू में मूर्ति शब्द के लिए जो पर्यायवाची शब्द है, वह है बुत। बुत बुद्ध का ही अपभ्रंश है। इतनी मूर्तियां बनीं कि बुद्ध शब्द ही बुत का पर्यायवाची हो गया, मूर्ति का पर्यायवाची हो गया। सबसे पहले बुद्ध की मूर्तियां बनीं।
और बुद्ध ने इनकार किया था कि मेरी बात को इसलिए मत मानना कि मैंने कहा है। मेरी बात को तब मानना, जब तुम जान लो।
और बुद्ध ने किसकी मूर्ति पूजी थी? किसी की भी मूर्ति नहीं पूजी थी। बुद्ध का कसूर ही यही था। अगर वे किसी की मूर्ति पूजे होते, जो आज भारत में हिंदू उनको अपने सिर पर धारण करते। उनकी भी पालकी निकलती। लेकिन हिंदुस्तान से बुद्ध को हिंदुओं ने उखाड़ फेंका। कारण क्या था? क्योंकि बुद्ध ने न राम को पूजा, न कृष्ण को पूजा। बुद्ध ने किसी को पूजा ही नहीं। बुद्ध ने परंपरा को कोई सहारा न दिया। बुद्ध ने तो भीतर के सत्य को, नग्न सत्य को वैसा का वैसा रख दिया, जैसा था। लगे किसी को चोट, तो लगे। प्रीतिकर लगे तो ठीक, अप्रीतिकर लगे तो ठीक। सत्य को तो कहना ही होगा।
स्वभावतः, पंडित थरथराते हैं।
"बलवान होने पर ही मनुष्य उठ कर खड़ा होता है।'
बलवान शब्द की जगह हमेशा तुम पढ़ना ऊर्जावान, तब तुम्हारे लिए इस सूत्र का अर्थ बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा! ऊर्जावान होने पर ही मनुष्य उठ कर खड़ा होता है। तुम कहोगे, यह भी क्या बात हुई! हम सब तो उठ कर खड़े होते हैं!
यह कोई उठ कर खड़ा होना नहीं। तुम्हारी चेतना तो सोई हुई है; तुम भला खड़े हो गए हो, मगर तुम्हारी चेतना तो बिलकुल सोई हुई है। जब ऋषि उठ कर खड़े होने की बात करते हैं, तो तुम्हारी चेतना के खड़े होने की बात करते हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं--चार्ल्स डार्विन और उनके अनुयायी--कि बंदर से आदमी बना। और बनने में सबसे बड़ा कारण क्या था? सबसे बड़ा राज क्या था? क्योंकि बंदर तो चारों हाथ-पैर से चलता है। आदमी दो पैर पर खड़ा हो गया। आदमी का खड़ा हो जाना दो पैर पर, विकास में सबसे बड़ा चरण सिद्ध हुआ। दो पैर पर खड़े हो जाने के कारण ही आदमी और बंदर में जमीन-आसमान का अंतर हो गया। कहां बंदर और कहां आदमी!
आज तो कोई कहता भी है कि बंदर से आदमी पैदा हुआ, तो तुम्हें अपमानजनक मालूम होता है। लेकिन क्रांति घटी सिर्फ छोटी सी बात से कि आदमी का शरीर सीधा खड़ा हो गया। सीधा खड़े होने से बहुत से फर्क पड़ गए। सबसे बड़ा फर्क तो यह पड़ा कि जब जानवर, कोई भी जानवर, चारों हाथ-पैर से चलता है, तो उसके मस्तिष्क में खून की मात्रा ज्यादा पहुंचती है। इसलिए खून की अधिक मात्रा पहुंचने के कारण सूक्ष्म तंतु विकसित नहीं हो पाते। खून के बहाव के कारण टूट-टूट जाते हैं। बनते भी हैं, तो टूट जाते हैं।
और तंतु बहुत सूक्ष्म हैं मस्तिष्क के। तुम्हारे इस छोटे से सिर में सात करोड़ तंतु हैं। बड़े बारीक हैं, इतने बारीक हैं कि तुम्हारा बाल भी इतना बारीक नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर मस्तिष्क के तंतुओं को एक के ऊपर एक, एक के ऊपर एक रखा जाए, तो एक हजार तंतुओं को रखने से तुम्हारे बाल की मोटाई के बराबर तंतु बनेगा। इतने सूक्ष्म तंतुओं को जरा ही खून की गति ज्यादा हुई कि वे टूट जाते हैं। उनके टूट जाने से मस्तिष्क विकसित नहीं हो पाया जानवरों का।
आदमी खड़ा हो गया दो पैर से, इसका परिणाम सबसे बड़ा तो यह हुआ कि गुरुत्वाकर्षण के विपरीत होने के कारण उसके सिर तक खून कम पहुंचने लगा। स्वभावतः, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण नीचे की तरफ खींचता है वस्तुओं को; खून को भी नीचे की तरफ खींचता है। मस्तिष्क की तरफ खून कम जाने लगा।
इसलिए तो तुम बिना तकिए के रात में सो नहीं सकते। अगर बिना तकिए के सोओगे, तो जागे ही रहोगे। क्योंकि खून इतना पहुंचता रहेगा मस्तिष्क में कि वह तुम्हें सोने नहीं देगा; जगाए रखेगा; तंतुओं में हड़बड़ी मचाए रखेगा। इसलिए तकिया चाहिए। तकिया तुम्हारे सिर को ऊंचा कर देता है; शरीर को सिर से नीचा कर देता है। खून कम पहुंचता है। खून कम पहुंचता है, तुम आराम से सो पाते हो।
इसलिए मैं शीर्षासन के पक्ष में नहीं हूं। क्योंकि शीर्षासन मस्तिष्क को निश्चित नुकसान पहुंचाता है। और मैंने अभी तक एक ऐसा शीर्षासन करने वाला व्यक्ति नहीं देखा जिसमें कोई प्रतिभा हो! बुद्धू बहुत तरह के देखे। खोपड़ी के बल खड़े हुए लोग बुद्धू ही हो सकते हैं। पहले तो बुद्धू होना ही चाहिए, तब वे खोपड़ी के बल खड़े होंगे। दूसरा, फिर खोपड़ी के बल खड़े होने से और बुद्धूपन पैदा होगा। और जितनी ज्यादा देर खड़े होंगे, उतने बुद्धू होंगे।
हां, यह बात जरूर है कि उनमें पशुओं जैसा बल आ सकता है। क्योंकि मस्तिष्क के प्रतिभा के तंतु तो टूट जाएंगे, तो लट्ठ ही लट्ठ बचेगा। बुद्धि तो गई। तो हो सकता है शरीर के लिए तो स्वास्थ्यप्रद हो, लेकिन मस्तिष्क के लिए तो हानिप्रद है।
और यह तो पक्की बात है। बंदर से जूझ कर देख लो तो पता चल जाएगा। एक बंदर पर्याप्त है तुम्हारे बड़े से बड़े पहलवान को भी ठंडा कर देने के लिए।
विवेकानंद के पीछे एक बंदर पड़ गया था। बंदर भी अजीब होते हैं। कुछ जानवरों में खूबी होती है, बंदर और कुत्तों में खासकर, कि वर्दीधारियों के खिलाफ होते हैं। पुलिस वाला हो, पोस्टमैन हो, संन्यासी हो, वर्दी वाला दिखा कि कुत्ते भौंके! कि बंदर नाराज हुआ!
विवेकानंद चले जा रहे होंगे अपना लट्ठ लिए। वर्दीधारी! एक बंदर उनके पीछे हो लिया। उन्हें डरवाने लगा। विवेकानंद घबड़ाए। यूं तो बहादुर आदमी थे। पूरे-पूरे क्षत्रिय तो नहीं थे, मगर खत्री तो थे ही!
अब तुम पूछोगे, क्षत्रिय और खत्री में क्या भेद होता है?
भेद भारी है। सच तो यह है कि क्षत्रिय अब दुनिया में कोई नहीं, खत्री ही खत्री हैं। क्योंकि क्षत्रिय तो परशुराम ही खतम कर गए! तुमने कहानी तो पढ़ी है कि परशुराम ने अठारह बार पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली कर दिया। सारे क्षत्रिय मार डाले; अठारह बार, एक बार भी नहीं। मगर फिर भी क्षत्रिय तो हैं। तो ये क्षत्रिय कहां से आए? ये खत्री हैं! खत्री का मतलब यह होता है कि ये पूरे-पूरे क्षत्रिय नहीं हैं।
उन पुराने दिनों में ऋषि-मुनियों से यह काम लिया जाता था। इसीलिए तो तुमको लोग कहते हैं, ऋषि-मुनियों की संतान! क्योंकि जब परशुराम ने सारे क्षत्रिय मार डाले, तो अब क्या करना? स्त्रियों को तो मार नहीं सकते थे परशुराम। वह जरा उनको हेटा काम मालूम पड़ा होगा, कि क्या स्त्रियों को मारना! तो क्षत्राणियां तो बच गईं। विधवाएं बच गईं। और उस समय का यह नियम था कि अगर कोई विधवा, या कोई भी स्त्री जिसको बच्चे पैदा न होते हों किसी कारण से, वह ऋषि-मुनियों से जाकर प्रार्थना करे तो वे दयावश बाल-बच्चे पैदा करवा देते थे। उनका काम वही था जो कि हम शिवजी के नंदी से लेते हैं! ऋषि-मुनि थे, समाज की सेवा ही उनका कार्य था। परोपकार के लिए ही जीते थे!
सो खत्री यानी ऋषि-मुनियों की संतान! विवेकानंद खत्री थे; पक्के खत्री थे। डंडा लिए और अकड़ कर चले जा रहे! वह डंडा और अकड़ आदमियों को प्रभावित करे भला, बंदरों को नाराज कर देती है। एक बंदर पीछे हो लिया। वह डरवाने लगा। विवेकानंद को घबड़ाहट लगी! एकांत था। यूं तो ब्रह्मज्ञानी थे कि सब संसार माया है। मगर यह बंदर! बहुत मन में दोहराया: ब्रह्म सत्य जगत माया! मगर यह बंदर, वह एकदम पीछे ही पड़ा हुआ था। वह करीब ही आता जा रहा था। सो वे भागने लगे। वहां कोई था भी नहीं देखने वाला।
भागे, तो बंदर को और मजा आ गया! तो बंदर भी भागने लगा। दो-चार बंदर और झाड़ों से उतर आए। उन्होंने कहा, अच्छा! अरे, तमाशा जब हो रहा हो तो...। विवेकानंद के तो छक्के छूट गए। रास्ता लंबा। पहाड़ी का रास्ता। हिमालय की यात्रा पर गए थे। यह नहीं सोचा था कि यह झंझट होगी। गए थे ब्रह्म-दर्शन को, और यह मिल गया बंदर!
एकदम से खयाल आया कि ऐसे भागने में तो झंझट है। और बंदर उतरते आ रहे हैं झाड़ों से! ऐसे अगर भागते रहे, तो थोड़ी देर में ये लोग मुसीबत कर देंगे। अब तो कुछ करना पड़ेगा। तो रुक कर खड़े हो गए। लौट कर खड़े हो गए डंडा टेक कर, कि अब जो कुछ होगा होगा। कड़ी कर ली हिम्मत। संयम साधा। मंतरत्तंतर पढ़ा होगा! स्मरण किया होगा कि हे परमहंस रामकृष्णदेव! अरे, अब तो काम आओ! ये दुष्ट बंदर, और अपने वाले, लाल मुंह वाले! काले मुंह बंदर होते तो भी ठीक था, कि रावण के भक्त हैं, चलो कोई बात नहीं। मगर अपने वाले। रामजी के सेवक। हनुमान जी के वंशज। ये इस तरह की हरकत कर रहे हैं! कलियुग बिलकुल निश्चित आ गया है!
मगर वे खड़े हुए डंडा टेक कर, तो बंदर भी रुक गए। बंदर होते हैं नकलची। उन्होंने देखा, यह आदमी रुक गया, वे भी रुक गए। तब जरा विवेकानंद की हिम्मत बढ़ी। विवेकानंद जरा दो कदम उनकी तरफ बढ़े, तो बंदर जरा पीछे हटे! विवेकानंद जरा डंडा बजा कर उनके पीछे भागे, तो बंदर भागे। तो विवेकानंद ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि उस दिन मुझे समझ में आया कि भागने से कोई सार नहीं। मुसीबत आए, तो टिक कर सामना ही कर लेना ठीक है। मुसीबत की चुनौती स्वीकार कर लेना ठीक है।
चार्ल्स डार्विन और उनके अनुयायी कहते हैं कि मनुष्य विकसित हुआ, क्योंकि खड़ा हुआ--शरीर की दृष्टि से। एक तो मस्तिष्क को खून कम मिला; उससे सूक्ष्म तंतु विकसित हुए। दूसरा, उसके दो हाथ मुक्त हो गए चलने के काम से। उन्हीं दो हाथों से सारी संस्कृति विकसित हुई है। फिर आदमी को, दो हाथ मुक्त हो गए, तो कुछ भी करने की सुविधा हो गई। चित्र बनाए। मूर्ति बनाए। मकान बनाए। जयरामजी करे। हाथ मिलाए। गले मिले। सारी संस्कृति, सारी सभ्यता उन दो हाथों का खेल है। अब वे चलने में ही उलझे रहते, तो यह विकास नहीं हो सकता था। फिर विकास होते-होते बात बढ़ती चली गई। विज्ञान खोजा। यंत्र बने। आदमी के हाथ खाली थे, उनके लिए काम चाहिए था।
तो मनुष्य का सारा विकास शरीर के सीधे खड़े होने से है। लेकिन उपनिषद के ऋषि कहते हैं, अगर शरीर के सीधे खड़े होने से इतना विकास हुआ, तो जिस दिन तुम्हारी चेतना भी सीधी खड़ी हो जाएगी, उस दिन कितना विकास न होगा!
यह सूत्र बड़ा प्यारा है: "स यदा बली भवति अथोत्थाता भवति--बलवान होने पर मनुष्य उठ कर खड़ा हो जाता है।'
चेतना उसकी खड़ी हो जाती है, जैसे ज्योति आकाश की तरफ उठने लगे, ऐसी उसकी चेतना ऊर्ध्वगामी हो जाती है।
और जिसकी चेतना ऊर्ध्वगामी है--"अथोत्थाता भवति'--जो ज्योति की तरह ऊपर की तरफ बढ़ा जा रहा है, उसी के जीवन में ये सारी अदभुत घटनाएं घटती हैं।
"उत्तिष्ठन परिचारिता भवति।'
ऐसी जिसकी चेतना ऊपर की तरफ उठने लगी, वही गुरु के सान्निध्य को उपलब्ध हो सकता है। क्योंकि गुरु वह है, जो ऊपर जा चुका। उससे संबंध उन्हीं का हो सकता है, जो स्वयं भी ऊपर की तरफ जाने लगे। कुछ तो समानता होनी चाहिए। कम से कम दिशा की समानता होनी चाहिए। तुम नीचे की तरफ जा रहे हो तो फिर कैसे गुरु से मिलन होगा!
"उठने पर वह गुरु की सेवा करता है।'
यह सेवा शब्द तुम्हें किसी भ्रांति में न डाल दे, यह जरा खयाल रखना।
"उत्तिष्ठन परिचारिता भवति।'
इस देश में हमने सेवा के बड़े और अर्थ लिए थे। जब से ईसाइयत देश में आई, तब से सेवा का अर्थ बिलकुल विकृत हो गया। सेवा का जो सौंदर्य था, वही नष्ट हो गया। सेवा बड़ी और ही चीज हो गई। इसलिए अच्छा हो कि दो शब्दों का प्रयोग अलग-अलग करो, परिचर्या और सेवा।
"परिचारिता भवति।'
वह गुरु की सेवा में संलग्न हो सकता है, जिसकी चेतना उठ कर खड़ी हो गई।
हम इस देश में सेवा उनकी करते थे, जो हमसे ऊपर हैं। ईसाइयत ने सेवा का एक नया रूप इस देश में प्रवेश करवाया: सेवा उनकी करनी, जो हमसे नीचे हैं। सेवा करनी है दरिद्र की, दीन की, बीमार की, दुखी की। सेवा करनी है कोढ़ी की। सेवा करनी है कैंसर के मरीज की। सेवा करनी है अनाथों की, विधवाओं की, वृद्धों की। कुछ बुराई नहीं इस सेवा में। लेकिन यह सेवा सामाजिक घटना है, यह सेवा धार्मिक घटना नहीं है।
इसलिए मैं कलकत्ता की मदर टेरेसा को कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं मानता। धर्म से क्या लेना-देना है! सामाजिक सेवा है, अच्छा काम है। ठीक है किसी अनाथ बच्चे को पाल लेना। बुरा काम तो निश्चित ही नहीं है, अच्छा काम है। लेकिन इससे कुछ धर्म नहीं होने वाला है। धर्म तो तब घटता है, जब तुम उसके चरण पकड़ते हो, जो तुमसे ऊपर है। जो तुमसे नीचे है, उसके चरण पकड़ोगे, इससे तो अहंकार ही बढ़ेगा। जब तुमसे जो ऊपर है, उसके चरण पकड़ोगे, तो अहंकार गिरेगा। जो तुमसे ऊपर है, वही तुम्हें ऊपर की तरफ ले जा सकता है। इसको परिचर्या कहें हम।
छांदोग्य कहता है: "उत्तिष्ठन परिचारिता भवति। जिसकी चेतना उठ कर खड़ी हो गई, वह गुरु की सेवा करता है--गुरु की।'
सेवा तो हम इस देश में सिर्फ गुरु की करते थे, और किसी की नहीं। सेवा गुरु की ही हो सकती है। गुरु शब्द का अर्थ होता है, अंधकार को मिटाने वाला। सेवा उसकी ही करनी है जिसका अंधकार मिट गया हो, ताकि हमारा अंधकार मिट सके। अरे, उस दीए के करीब आओ जो जल चुका है, ताकि तुम्हारी बुझी ज्योति, तुम्हारा बुझा दीया, तुम्हारी बुझी बाती भी सुलग उठे।
"सेवा करने से वह गुरु के पास बैठने योग्य बनता है।'
क्या लाभ होगा गुरु की सेवा का? उसके पास बैठने की योग्यता आएगी। समर्पण से योग्यता आती है। गुरु के पास बैठना इस जगत का अभूततम अनुभव है, अपूर्व अनुभव है।
"परिचरन उपसत्ता भवति।'
उपसत्ता सिर्फ पास बैठना ही नहीं। जब तुम गुरु के पास बैठते हो, तो किसी अर्थों में गुरु की सत्ता से आच्छादित हो जाते हो, उसकी आभा से मंडित हो जाते हो, उसकी तरंगों में डूब जाते हो। जैसे कोई नदी में स्नान करता है, शीतल जल में, तो शीतल हो जाता है। ऐसे ही गुरु के पास भी एक शीतल ऊर्जा है। वह स्वयं शीतल हुआ है। वह स्वयं शांत हुआ है, मौन हुआ है। तो उसके पास एक सरोवर है। तुम उसमें डुबकी लगाओ।
यही गंगास्नान है। यही वस्तुतः तीर्थ-स्नान है। गुरु के पास होना ही तीर्थ में होना है। और गुरु को जिसने पा लिया उसने तीर्थंकर को पा लिया।
उसकी सत्ता आच्छादित करने लगती है तुम्हें। जैसे कि तुम निकलोगे, रातरानी के फूल खिले हों, उनके पास से--सिर्फ पास से गुजर जाओगे या थोड़ी देर खड़े हो जाओगे--तो तुम चकित होओगे: दूर भी निकल आए, फिर भी तुम्हारे वस्त्रों के साथ लिपटी हुई रातरानी की गंध चली आई है! घर भी पहुंच गए, लेकिन गंध की कोई स्मृति तुमको अब भी आच्छादित किए हुए है, अब भी तुम्हारे नासापुटों को भरे हुए है! ऐसे गुरु के पास जो बैठेगा, वह गुरु की सत्ता से आच्छादित होता है।
"उपसीदन द्रष्टा भवति।'
और पास बैठने से द्रष्टा बनता है। उपसीदन शब्द से ही उपनिषद बना है। उपसीदन यानी पास बैठना।
यह जान कर तुम हैरान होओगे कि उपसीदन शब्द से उपनिषद निर्मित हुआ। उपनिषद का अर्थ है, गुरु के पास बैठ कर जो पाया; पास बैठ-बैठ कर जो मिला। कभी बोलने से मिला। कभी न बोलने से मिला; कभी गुरु को देखने से मिला; कभी गुरु के पास आंख बंद करने से मिला। कभी गुरु के उठने से मिला, चलने से मिला। कहना कठिन है। मगर गुरु के पास होने पर अनेक-अनेक रूपों में मिलता है। अनेक-अनेक तरह से संग बैठता है, संगीत बैठता है। तार छिड़ने लगते हैं वीणा के।
कुछ शब्द इसी के जैसे हैं। जैसे उपासना। उपासना का भी वही अर्थ होता है, पास बैठना; उप-आसन। तुम अगर सोचते हो कि तुम जाकर मंदिर में और परमात्मा की उपासना कर रहे हो, तो तुम गलती में हो। जब तक तुम जीवित गुरु के पास न बैठोगे, उपासना का अर्थ ही न जानोगे। वहां तो पत्थर की मूर्ति है। उसके पास बैठ-बैठ कर तुम भी पत्थर हो जाओगे। पत्थर हो ही गए हो।
इस देश में जितने पाषाण हैं, शायद कहीं और न होंगे। क्योंकि पत्थरों के पास बैठ कर और होगा क्या! तुम भी पत्थर जैसे ही कठोर हो जाओगे। तुम्हारे भीतर से भी करुणा खो जाएगी, प्रेम खो जाएगा, रस सूख जाएगा।
जरा सोच-समझ कर बैठना, किसके पास बैठते हो! क्योंकि जिसके पास बैठोगे, वैसे ही हो जाओगे। सदा अपने से ऊपर को खोजना। और खयाल रहे, मन चाहता है सदा अपने से नीचे को खोजना। क्योंकि जब तुम अपने से नीचे आदमी के पास बैठते हो, तो तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है कि अहा, मैं कितना बड़ा! इसलिए राजनेता चमचों से घिरे रहते हैं। चमचों का अर्थ है, जिनके पास बैठ कर उनको लगता है कि मैं कितना महान! छोटे-छोटे आदमी कीड़े-मकोड़ों की तरह उनके आस-पास घूम रहे हैं, खुशामद कर रहे हैं। तो उनको रस आता है।
अहंकार की इच्छा यही होती है कि सदा अपने से छोटे को खोजो। क्योंकि छोटे के सामने तुलना में तुम बड़े मालूम होते हो। और गुरु के पास बैठना यूं है, जैसे ऊंट पहली दफे हिमालय के पास आए! इसलिए अक्सर ऊंट पहाड़ों के पास नहीं पाए जाते, मरुस्थलों में पाए जाते हैं! उन्होंने भी खूब चुना है! मरुस्थलों में रहते हैं, तो वहां पहाड़ मालूम होते हैं! स्वभावतः, मरुस्थल में ऊंट ही सबसे ऊंची चीज है। उससे ऊंचा और क्या! जब ऊंट पहाड़ के पास आता है, तब उसको बेचैनी होती है, अड़चन होती है। पहले तो वह कहता है, पहाड़-पहाड़ कुछ नहीं, सब कल्पना है! सब झूठ है! पहले तो इनकार करता है, खंडन करता है, विरोध करता है। क्योंकि उसके अहंकार को चोट लग रही है।
गुरु के पास आकर भी अड़चन खड़ी होती है। आकर भी लोग चूक जाते हैं। एक सज्जन ने मुझे लिखा है कि मैं आपको अपने मित्र की तरह मानने को राजी हूं।
बड़ी कृपा! मुझे कोई अड़चन नहीं। यह भी मेरा सौभाग्य! मैं तो इसको भी सौभाग्य मानता हूं कि जब कोई मुझे अपना शत्रु भी मान लेता है। यह भी क्या कम! कुछ तो माना। उपेक्षा तो न की। चलो, बड़ी कृपा कि मित्र की तरह मुझे मानने को तैयार हो। लेकिन चूक जाओगे। मुझे कुछ हर्ज न होगा, मगर तुम्हें हर्ज हो जाएगा। उपासना न हो पाएगी।
और मित्र ही मानना है, तो कहीं भी मिल जाएंगे मित्र। इतनी दूर आने की क्या जरूरत? मित्रों की कोई कमी है! यार-दोस्तों की कोई कमी है! एक खोजो हजार मिलते हैं! मत खोजो, तो तुम्हें खोजते हुए चले आते हैं!
इतने दूर! वे सज्जन कलकत्ता से यहां आए हैं! बड़ा कष्ट किया। कलकत्ते में कोई मित्रों की कमी है? लेकिन उन्होंने ऐसा लिखा है, जैसे मुझ पर बड़ी कृपा कर रहे हैं, अनुकंपा कर रहे हैं! बड़ा दया-भाव प्रकट किया है कि आपको मित्र-भाव में स्वीकार कर सकता हूं। लेकिन उनको शायद खयाल भी न हो, शायद चेतना में उनके बात भी न हो कि यह उपासना को इनकार करना है।
मैं तो राजी हूं, जिस भाव में स्वीकार करो। मेरा क्या बनता-बिगड़ता है! मित्र तो मित्र; शत्रु तो शत्रु; कुछ नहीं तो कुछ नहीं! न मेरा कुछ खोता है, न मुझे कुछ मिलता है। न मुझे कुछ लेना, न मुझे कुछ देना। जो कुछ होना है, तुम्हारा है।
उपासना शब्द का अर्थ मंदिर की पूजा नहीं है। वह भी गुरु के पास बैठना है।
और वही उपवास शब्द का भी अर्थ है। उपवास का भी अर्थ होता है, पास निवास करना, पास वास करना। वह भी गुरु के पास ही हो सकता है।
अनशन उपवास नहीं है। भूखे मरना उपवास नहीं है। हां, गुरु के पास ऐसी तल्लीनता से बैठना कि न भूख याद रहे, न प्यास याद रहे। भूख भूल जाए, प्यास भूल जाए, कुछ भी याद न रहे। शरीर भी भूल जाए। यूं बैठने का नाम उपवास है।
गुरु के पास यूं तल्लीन होकर बैठ जाना, कि तुम मिट ही जाओ, उपासना है। और ऐसी उपासना में, ऐसे उपवास में जो सुन पड़ेगा, जो समझ आ जाएगा, जो किरण तुम्हारे प्राणों में उतर जाएगी, वही उपनिषद बन जाती है। उपनिषद का अर्थ है, पास बैठ कर जो पाया।
"उत्तिष्ठन परिचारिता भवति, परिचरन उपसत्ता भवति, उपसीदन द्रष्टा भवति।'
और जो पास बैठेगा, उसे आंख मिलती है, वह द्रष्टा हो जाता है। उसे नजर मिलती है देखने की, अपने को देखने की। और सब देखने की नजर तो तुम्हारे पास है। बस, अपने को देखने की नजर नहीं है। और सब तो तुम देख लेते हो, अपने से चूक जाते हो!
"गुरु के पास बैठने से द्रष्टा बनता है, श्रोता बनता है।'
ये बहुमूल्य शब्द हैं। श्रोता का अर्थ इतना ही नहीं होता कि तुमने सुन लिया। सुनते तो सभी हैं, मगर सभी श्रोता नहीं होते। सुनते सभी हैं, सभी श्रावक नहीं होते। सुन तो कोई भी लेता है, जिसके पास कान हैं। लेकिन एक कान से गई बात, और दूसरे कान से निकल जाती है! अगर तुम पुरुष हो तो एक कान से जाती है, दूसरे कान से निकल जाती है। अगर स्त्री हो, तो दोनों कान से जाती है और मुंह से निकल जाती है! मगर निकल जाती है। रुकती नहीं, अटकती नहीं, ठहरती नहीं।
ठहर जाए, हृदय में उतर जाए। और हृदय में तभी उतर सकती है, जब तर्क से न सुनी जाए, वितर्क से न सुनी जाए, विवाद से न सुनी जाए। जब संवाद घटित हो, जब संगीत बजे, जब शिष्य और गुरु के हृदय एक साथ धड़कते हैं; जब उनके बीच कोई भेद नहीं रह जाता; जब अभेद सधता है--तब व्यक्ति श्रोता बनता है। सुनता है; पहली बार सुनता है। देखता है; पहली बार देखता है। और हिंदी में अनुवाद ठीक नहीं किया तुमने। तुमने लिखा सहजानंद:
"मनन करने वाला बनता है।'
नहीं; मन्ता शब्द ठीक है। वह तुम देखो, खयाल करो मूल में।
"उपसीदन द्रष्टा भवति, श्रोता भवति, मन्ता भवति।'
सुनने वाला नहीं बनता, श्रोता बनता है। देखने वाला नहीं बनता, द्रष्टा बनता है। मनन करने वाला नहीं बनता, मन्ता बनता है। फर्क क्या है?
मनन तो सभी करते हैं, लेकिन मनन हमेशा किसी और चीज का किया जाता है, किसी विषय का किया जाता है। दर्शन तो सभी को होता है, लेकिन किसी और चीज का होता है। श्रवण तो सभी करते हैं। कान हैं, तो सुन लेते हैं; आंख हैं, तो देख लेते हैं; मन है, तो मनन कर लेते हैं। लेकिन यह कुछ और बात है। द्रष्टा, श्रोता, मन्ता, बाहर से इसका संबंध नहीं है। आंख भीतर मुड़ जाए, तो द्रष्टा। श्रवण भीतर मुड़ जाए, तो श्रोता। और मनन भीतर मुड़ जाए, तो मन्ता। यह अंतर्यात्रा है।
और जब ये तीन घटनाएं घटती हैं, तो इन तीनों घटनाओं का इकट्ठा जो अर्थ है, वह है बुद्ध। बुद्ध बनता है।
"बुद्धा भवति।'
और जो बुद्ध बन गया, उसके जीवन में पहली दफा कर्तृत्व पैदा होता है।
"कत्ता भवति।'
बड़ा अनूठा सूत्र है। पूरा विज्ञान आ गया जीवन-क्रांति का। जीवन-रूपांतरण की सारी सीढ़ियां आ गईं। और बड़े क्रम से आईं, बड़ी व्यवस्था से आईं।
तुम भी कर्म करते हो, लेकिन तुम कर्ता नहीं हो। तुम्हारा कर्म असल में कर्म नहीं कहना चाहिए, उपकर्म कहना चाहिए; एक्शन नहीं, रिएक्शन।
किसी ने गाली दी, तो तुमने गाली दी। इसको कर्म नहीं कहना चाहिए, यह प्रतिकर्म है। न वह गाली देता, न तुम गाली देते। उसने गाली दी, तो उसकी प्रतिक्रिया हुई तुम्हारे भीतर, तुमने भी गाली दी। और उसने प्रशंसा की, तुम्हारे भीतर प्रतिक्रिया हुई, तुमने भी प्रशंसा की। मालिक वह है। उसने चाबी चलाई। उसने बटन दबाई, तुम्हारा पंखा चलने लगा; उसने बटन दबाई, तुम्हारा पंखा बंद हो गया। तुम मालिक नहीं हो। इसलिए तुम कर्ता नहीं हो।
हां, क्रिया हो रही है। मगर क्रिया तो बिजली के पंखे से भी होती है। तुम बिजली के पंखे को कर्ता नहीं कह सकते। तुम बटन दबाओ, और बिजली का पंखा कहे कि आज नहीं! आज तो छुट्टी का दिन है। कि आज तो जवाहरलाल का जन्मदिन है। झूला झूलें जवाहरलाल! आज हम काम-धाम न करेंगे। नहीं; तुम बटन दबाते हो, पंखे को चलना ही पड़ता है।
कोई तुम्हें गाली दे और तुम कहो कि आज नहीं भाई! आज छुट्टी पर हैं। कल आना। तो कुछ मालकियत पता चलेगी। उसने गाली दी, तुम भनभना गए। भूल ही गए छुट्टी-वुट्टी। उठा लिया डंडा। याद ही न रही कि आज छुट्टी का दिन है; कि आज विश्राम करने की तय की थी; कि आज सोचा था, अनहद में विश्राम करेंगे! और यह उपद्रवी आ गया। तुम कर्ता नहीं हो, प्रतिकर्ता हो।
बुद्ध को किसी ने गाली दी। बुद्ध ने सुना और कहा कि अगर बात पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं! क्योंकि मुझे दूसरे गांव पहुंचना है, लोग प्रतीक्षा करते होंगे।
गाली देने वालों ने कहा कि हमने गालियां दी हैं; यह कोई बात नहीं!
बुद्ध ने कहा, तुम्हारी तरफ से गालियां होंगी। मेरी तरफ से तो बात ही है। तुमने कही, मैंने सुनी। लेकिन मुझे इसमें कुछ रस नहीं।
लोगों ने कहा, यह क्या बात कह रहे हैं आप! हमने ऐसी कठोर गालियां दीं, आपको कोई रस नहीं!
बुद्ध ने कहा, अगर रस का मजा लेना था, तो दस साल पहले आना था। तब मेरी तलवार खिंच जाती; तब तुम्हारी गर्दन जमीन पर पड़ी होती; तब यहां लहू बह जाता। मगर बड़ी देर करके तुम आए। अब मैं अपना मालिक हूं। अब तुम्हारी गाली देने से मैं परिचालित नहीं होता। अभी पिछले ही गांव में कुछ लोग मिठाइयां लेकर आए थे। और मैंने उनसे कहा, मेरा पेट भरा है। मैं तुमसे पूछता हूं, उन्होंने मिठाइयों का क्या किया होगा?
एक आदमी ने भीड़ में से कहा, क्या किया होगा! घर ले गए होंगे। बच्चों को बांट दी होंगी। बुद्ध ने कहा, वही तो मुझे तकलीफ हो रही है, कि अब तुम क्या करोगे? तुम गालियां लाए, मैं कहता हूं मैं लेता नहीं। मेरा पेट भर चुका। अब तुम क्या करोगे? ले जाओ भाई! बच्चों को बांट देना, पत्नी को दे देना, भाई-बंधुओं को बांट देना! मैं तो नहीं लेता। तुम देते हो, यह तुम्हारी मर्जी। धन्यवाद! मगर मैं लेता नहीं। और जब तक मैं न लूं, तुम मुझे कैसे दे सकते हो! मालिक हूं मैं अपना।
यह सूत्र कहता है: पहले व्यक्ति द्रष्टा बनता गुरु के पास बैठ कर। श्रोता बनता। मन्ता बनता। फिर बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता। यह त्रिकोण पूरा हो गया कि बुद्धत्व घटित हो जाता है। और तब कर्ता बनता है। सिर्फ बुद्ध ही कर्ता होते हैं। और जो कर्ता बन गया, वही विज्ञानी है। उसने ही, जानने योग्य जो है, उसे जाना। उसने अपने को जाना। अपने को जाना, तो सब जाना।
सहजानंद, मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूं। तुम्हें यह सूत्र अजीब लगा, क्योंकि विज्ञान के विरोध से शुरू होता है और विज्ञानी की प्रशंसा पर पूर्ण होता है!
मगर विज्ञान है पर को जानना। और विज्ञाता होना है स्व को जानना। विज्ञान है साइंस, विज्ञाता है धर्म। और ये बीच की सारी सीढ़ियां समझने योग्य हैं, बहुमूल्य हैं।
मगर हम अपने ही ढंग से समझते हैं, तो हमें कीमती से कीमती बातें भी अजीब सी लगने लगती हैं। हमारी भी मुसीबत है।
सेठ चंदूलाल ने अपने मित्र ढब्बूजी से कहा, मेरे दांत में बहुत दर्द है। ढब्बूजी, क्या करूं?
ढब्बूजी ने कहा, कुछ करने की जरूरत नहीं। मेरे भी दांत में एक बार ऐसा दर्द हुआ था। मैं अपने घर गया और मेरी पत्नी के एक चुंबन मात्र से ही सारा दर्द खतम हो गया। इसलिए मेरी मानो और जैसा मैंने किया वैसा करो!
सेठ चंदूलाल बोले, बात तो बिलकुल ठीक है। लेकिन क्या तुम्हारी पत्नी इस बात के लिए राजी हो जाएगी?
मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा फजलू कह रहा था, पापा, मैं पढ़ी-लिखी, बुद्धिमान, कुशल, सुशील और सुंदर लड़की से शादी करूंगा।
नसरुद्दीन ने कहा, मतलब! फजलू, पांच लड़कियों से एक साथ शादी करना चाहते हो?
एक स्त्री ने किसी फोटोग्राफर से मेले में पूछा, बच्चों की फोटो किस रेट से उतारते हो?
फोटोग्राफर ने कहा, दस रुपए में बारह!
तब तो मैं बाद में आऊंगी।
फोटोग्राफर ने कहा, क्यों?
उसने कहा, अभी तो मेरे सिर्फ दो ही बच्चे हैं!
समझने के ढंग! अपनी-अपनी समझ!
एक युवती जैसे ही नदी में कूदने को थी कि चौकीदार ने उसे टोक दिया, रोक दिया। बोला कि नदी में नहाने की मनाही है!
युवती ने गुस्से में कहा, जब मैं कपड़े उतार रही थी, तभी तुमने यह बात क्यों न बताई?
चौकीदार बोला, यहां सिर्फ नहाने की मनाही है, कपड़े उतारने की नहीं!
एक डाकखाने के पोस्ट मास्टर छुट्टी लेकर अपने घर आराम कर रहे थे। बाहर से पोस्टमैन ने आवाज दी, बाबूजी, रजिस्ट्री ले लो।
पोस्ट मास्टर साहब कमरे के अंदर से ही आंखें मूंदे चिल्ला कर बोले, अरे कमबख्त! आज तो मुझे चैन से रहने दे। मैं छुट्टी पर हूं!
वे बेचारे अपने दफ्तर में ही अपने को समझ रहे हैं! समझ तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ती। वह हमेशा खड़ी है वहां, और प्रत्येक चीज की व्याख्या करती रहती है।
एक अत्यंत सुंदर युवती ने एक नवजवान भिखारी को पेट भर खाना खिला कर कहा, और कुछ?
भिखारी ने कहा, जीसस का वचन याद करो: मनुष्य केवल रोटी के लिए ही नहीं जीना चाहता है!
किसी गुफा में तीन साधु ध्यानमग्न बैठे थे। एक दिन उधर से शेर गुजरा।
छह महीने बाद एक साधु बोला, कितना सुंदर शेर था!
एक साल बाद दूसरा साधु बोला, यह शेर नहीं चीता था!
दो साल बाद तीसरा साधु बोला, यदि तुम दोनों इसी प्रकार लड़ते-झगड़ते रहे तो मैं किसी दूसरे स्थान पर चला जाऊंगा!

आज इतना ही।



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