एकमात्र साधना—सहजता—(प्रवचन—नीन्यानवां)
प्रश्न
सार:
पहला
प्रश्न:
महावीर
और गौतम बुद्ध समकालीन थे। आपके प्रवचनों से एकष्ट हो रहा है कि दोनों बात भी एक
ही कहते थे। लेकिन दोनों के शिष्य आपस में विवाद और झगड़े भी करते थे। उनके जाने के
बाद उनके अनुयायियों के बीच हिंसा और युद्ध भी हुए। लेकिन यदि महावीर और बुद्ध ने
कहा होता कि हम एक ही धर्म की बात करते हैं, भेद सिर्फ पद्धति का है,
तो इतनी शत्रुता नहीं बढ़ती और दोनों धर्मों की जो क्षति हुई वह न
होती। कृपापूर्वक समझाएं।
पूछा हे अमृत
बोधिधर्म ने।
पहली
बात,महावीर और बुद्ध के समय में मनुष्य की चेतना ऐसी नहीं थी कि इतने विराट
समन्वय को समझ पाए। आज भी चेतना ऐसी हो गयी है, कहना कठिन
है। आज लेकिन पहली किरणें मनुष्य की चेतना में उतर रही हैं। आज जो संभव हुआ है,
पच्चीस सौ वर्ष पहले संभव नहीं था। आज मैं तुमसे कह सकता हूं कि
बाइबिल वही कहती है जो गीता कहती है। आज मैं तुमसे कह सकता हूं कि बुद्ध वही कहते
हैं जो महावीर कहते हैं। और कुछ लोग, थोड़े से लोग पृथ्वी पर तैयार
भी हो गए हैं इस बात को समझने और सुनने को।
उस
दिन यह बात संभव नहीं थी। उस दिन तो जो महावीर को सुनता था, उसने
बुद्ध को सुना नहीं था; जो बुद्ध को सुनता था, उसने महावीर को सुना नहीं था। जिसने गीता पढ़ी थी, उसने
भूलकर धम्मपद नहीं पढ़ा था। जो वेद में रस लेता था, उसने कभी
भूलकर ताओ तेह किंग में रस नहीं लिया था। लोग छोटे—छोटे घेरों में थे, एक—दूसरे से बिलकुल अपरिचित थे।
इस
सदी की जो सबसे बड़ी खूबी है वह यही है कि सब शास्त्र सभी को उपलब्ध हो गए हैं। और
लोग एक—दूसरे को समझने में उत्सुक भी हुए हैं। थोड़े समर्थ भी हुए हैं। सभी लोग हो
गए हैं, ऐसा भी मैं नहीं कह रहा हूं। क्योंकि सभी लोग समसामयिक नहीं हैं।
अगर
पूना में जाकर खोजो,
तो कुछ होंगे जो दो हजार साल पहले रहते हैं अभी भी; कुछ होंगे जो पांच हजार साल पहले रहते हैं, अभी भी,
कुछ हैं जिन्होंने कि अभी गुफाएं छोड़ी ही नहीं। कुछ थोड़े से लोग अभी
रह रहे हैं, वे समझ सकते हैं। और कुछ थोड़े से लोग ऐसे भी हैं
जो कल के हैं, आने वाले कल के हैं, उनको
बात बिलकुल साफ हो सकती है।
मनुष्य
विकसित हुआ है,
मनुष्य की चेतना बड़ी हुई है, बीच की सीमाएं
टूटी हैं, बीच की दीवालें गिरी हैं। तो जो मैं कर रहा हूं, यह पहले संभव नहीं था। बुद्ध और महावीर ने भी चाहा होगा—मैं निश्चित कहता
हूं कि चाहा होगा, न चाहा हो ऐसा हो ही नहीं सकता—लेकिन यह
संभव नहीं था। छोटे बच्चे को तुम विश्वविद्यालय की शिक्षा दे भी नहीं सकते। उसे तो
पहले स्कूल ही भेजना पड़ेगा। छोटी पाठशाला से ही शुरू करना पड़ेगा। और जो पाठशाला
में सिखाया है, उसमें से बहुत कुछ ऐसा है जो विश्वविद्यालय
में जाकर गलत हो जाएगा। उसमें बहुत कुछ ऐसा है जिसमें विश्वविद्यालय में जाकर पता
चलेगा कि इसे सिखाने की जरूरत ही क्या थी? लेकिन उसे भी
सिखाना जरूरी था, अन्यथा विश्वविद्यालय तक पहुंचना मुश्किल
हो जाता।
तो
पहली तो बात यह खयाल रखो कि मनुष्य की चेतना का तल परिवर्तित होता है—गतिमान है, गत्यात्मक
है। तो जो एक दिन संभव होता है, वह हर दिन संभव नहीं होता।
जो मैं तुमसे कह रहा हूं यही बात अभी चीन में नहीं कही जा सकती है, यही बात रूस में नहीं कही जा सकती है। जो मैं तुमसे कह रहा हूं यही बात
मोहम्मद अगर चाहते भी अरब में आज से चौदह सौ साल पहले कहना, तो
नहीं कह सकते थे। वहां सुनने वाला कोई न था। वहा समझने वाला कोई न था।
और
बहुत सी बातें हैं जो मैं तुमसे कहना चाहता हूं और नहीं कह रहा हूं क्योंकि तुम
नहीं समझोगे। कभी—कभी उसमें से कोई बात कह देता हूं तो तल्ला अड़चन हो जाती है।
कभी—कभी कोशिश करता हूं कुछ तुमसे कहने की, जो तुम नहीं समझोगे, भविष्य समझेगा। लेकिन जब तुमसे ऐसी कोई बात कहता हूं तभी मैं पाता हूं कि
तुम बेचैन हो गए, तुम परेशान हो गए। जो तुम्हारी समझ में
नहीं आता, उससे परेशानी बढ़ेगी, घटेगी
नहीं। तुम उसके पक्ष में तो हो ही नहीं सकते—वह समझ में ही नहीं आता तो पक्ष में
कैसे होओगे? तुम उसके विपरीत हो जाओगे, तुम उसके दुश्मन हो जाओगे।
तो
बुद्ध ने और महावीर ने जरूर कहना चाहा होगा कि हम जो कहते हैं, एक ही बात
कहते हैं—उस बात में कुछ भेद था भी नहीं, भाषा का भेद था,
प्रत्यय का भेद था, धारणा का भेद था; अलग— अलग कहने के ढंग का भेद था। अलग— अलग मार्ग से पहुंचे थे वे एक ही
मंजिल पर।
और
तुम्हारी बात सच है कि अगर बुद्ध और महावीर ने कह दिया होता, तो दोनों
धर्मों की हानि न होती। यह बात थोड़ी सच है, अगर यह कहा जा
सकता होता —कहा नहीं जा सकता था, क्योंकि सुनने वाला कोई न
था, समझने वाला कोई न था—अगर यह कहा जा सकता तो धर्मों की
इतनी हानि न होती, यह भी सच है।
लेकिन
यह कहने की घटना तो दो पर निर्भर होती है—कहने वाले पर और सुनने वाले पर। तुम
सिर्फ बुद्ध की याद मत करो,
महावीर की याद मत करो, सुनने वाले को भी खयाल
में रखो। क्योंकि आकाश से नहीं बोला जाता है, शून्य से नहीं
बोला जाता है, जिससे हम बोल रहे हैं उसको देखना पड़ता है। उसे
इंच—इंच सरकाना होता है। उसे एक—एक कदम बढ़ाना होता है। उससे बहुत दूर की बात कह दो,
वह थककर बैठ जाता है। वह घबड़ा जाता है, वह
कहता है, यह मेरे बस की नहीं है। इतने दूर न मैं जा सकूंगा,
न मैं जाना चाहता हूं इतने दूर। उसे तो एक इंच बढ़ाना होता है। एक
इंच हिम्मत करके बढ़ जाता है, तो फिर और एक इंच आगे बढ़ने की
क्षमता आ जाती है। उसे बहुत दूर की बात नहीं कही जा सकती। और जिस मंजिल को उसने
जाना नहीं है, उस मंजिल की भी बात नहीं कही जा सकती।
अगर
बुद्ध और महावीर ने सुनने वालों की फिकर किए बिना ऐसा कह दिया होता कि हम जो कहते
हैं एक ही है,
तो सिर्फ विभ्रम बढ़ता, लोग और उलझन में पड़
जाते। तब वे सोचने लगते, अगर दोनों एक ही बात कहते हैं,
तो कहते क्या हैं! तो महावीर को तो यही कहना पड़ा कि जो मैं कहता हूं
वही सच है। और बुद्ध को भी यही कहना पड़ा कि जो मैं कहता हूं वही सच है। इससे
अन्यथा जो कहता है, गलत है। और जानते हुए कहना पडा कि अन्यथा
भी कहा जा सकता है।
लेकिन
तुम ऐसा समझो कि तुम एक एलोपैथ डाक्टर के पास चिकित्सा के लिए गए और तुम उससे पूछो
कि आयुर्वेदिक वैद्य कुछ और कहता है, वह कोई और दवा सुझाता है, और होमियोपैथी का डाक्टर कुछ और दवा सुझाता है, और
नेचरोपैथी का डाक्टर कहता है दवा की जरूरत ही नहीं है, पानी
में बैठे रहने से और मिट्टी की पट्टी चढ़ाने से सब ठीक हो जाएगा, उपवास करने से सब ठीक हो जाएगा—क्या ये सभी ठीक कहते हैं? अगर एलोपैथी का डाक्टर तुमसे कह दे कि सभी ठीक हैं, एक
ही तरफ पहुंचने के अलग— अलग रास्ते हैं। और यही होमियोपैथी का डाक्टर भी कह दे,
और यही आयुर्वेद का डाक्टर भी कह दे, और यही
नेचरोपैथ कह दे, तो तुम बड़ी उलझन में पड़ जाओगे। तुम तब कहोगे,
कहां जाएं? किस की सुनें? किस की मानें?
सभी
ठीक कहते हैं,
ऐसी बात सुनकर इसकी बहुत कम संभावना है कि तुम्हारे जीवन में कुछ
लाभ हो, शायद नुकसान हो जाए। क्योंकि तुम आए थे कहीं से दृढ़
निश्चय की तलाश गे, तुम चाहते थे कोई आदमी जोर से टेबल पीटकर
कहे कि जो मैं कहता हूं यही ठीक है। तुम संदेह से भरे हो, तुम
श्रद्धा खोज रहे हो। तुम्हें ऐसा आदमी चाहिए जिसकी भाषा, जिसकी
आवाज, जिसका दृढ़ निश्चय तुम में यह भरोसा जगा दे कि हां,
यहां रहने से कुछ हो जाएगा। वह कहे कि यह भी ठीक है, वह भी ठीक है, चाहे यहां रही, चाहे
वहां रहो, सब जगह से पहुंच जाओगे, सब
रास्ते वहीं पहुंचा देते हैं, तो बहुत संभावना यह है कि तुम
किसी भी रास्ते पर न चलो, बहुत संभावना यह है कि तुम बहुत
विभ्रमित हो जाओ। क्योंकि बड़ी अलग भाषाएं हैं बुद्ध और महावीर की।
महावीर
कहते हैं, आत्मा को जानना ज्ञान है। और बुद्ध कहते हैं, आत्मा
को मानने से बड़ा कोई अज्ञान नहीं। अब दोनों ठीक हैं! अगर यह और साथ में जुड़ा हो,
कि महावीर कहते हों, मैं भी ठीक, बुद्ध भी ठीक, और बुद्ध कहते हों, मैं भी ठीक और महावीर भी ठीक, तुम जरा उस आदमी की
सोचो, उस पर क्या गुजरेगी जो सुन रहा है! आत्मा को जानना
सबसे बड़ा ज्ञान, और आत्मा को मानना सबसे बड़ा अज्ञान, ये दोनों ही अगर ठीक हैं, तो सुनने वाले को यही
लगेगा कि दोनों पागल हैं। बजाय इनके पीछे जाने के, इनके साथ
खड़े होने के, वह इनको नमस्कार कर लेगा! वह कहेगा, तो आप दोनों ठीक रहो, मैं चला! मैं कहीं और खोजूं
जहां कोई बात ढंग की कही जाती हो, शुद्ध तर्क की कही जाती हो,
समझ में पड़ने वाली कही जाती हो। लोग गणित की तरह सफाई चाहते हैं।
इसी
कारण महावीर को बहुत अनुयायी नहीं मिले, क्योंकि महावीर ने थोड़ी सी हिम्मत
की, बुद्ध से ज्यादा हिम्मत की। बुद्ध को ज्यादा अनुयायी
मिले, बुद्ध ने उतनी हिम्मत नहीं की। यह तुम चौंकोगे सुनकर।
महावीर ने बड़ी हिम्मत की है। उसी हिम्मत का नाम है—स्यातवाद, अनेकांतवाद।
महावीर
से कोई पूछता,
ईश्वर है? महावीर कहते, है
भी, नहीं भी है, दोनों भी सच है,
दोनों गलत भी हैं। इसका नाम है स्यातवाद। क्योंकि महावीर कहते हैं,
प्रत्येक बात को कहने के बहुत ढंग हो सकते हैं। जो बात है के माध्यम
से कही जा सकती है, वही नहीं है के माध्यम से भी कही जा सकती
है। नकार और विधेय, दोनों एक ही बात को कहने में उपयोग में
लाए जा सकते हैं। दोनों एक साथ भी उपयोग में लाए जा सकते हैं। और दोनों का एक साथ
इनकार भी किया जा सकता है।
जिसने
भी महावीर को सुना,
उसके पैर डगमगा गए। उसने कहा, स्यातवाद! हम आए
हैं श्रद्धा की तलाश में, मिलता है स्यात—यह भी ठीक हो स्वात
वह भी ठीक हो। लोग संदेह से पीड़ित हैं, स्वात से उनकी तृप्ति
न होगी।
इसलिए
महावीर को बहुत अनुयायी नहीं मिले। कितने इने—गिने जैन हैं! उनकी संख्या कुछ बड़ी
नहीं हुई। और जैन— धर्म हिंदुस्तान के बाहर नहीं पहुंच सका, इसमें जैन
— धर्म की कठिनाई और हिंदुस्तान की गरिमा दोनों छिपी हैं। जैन— धर्म हिंदुस्तान के
बाहर नहीं पहुंच सका, क्योंकि हिंदुस्तान में ही, हिंदुस्तान जैसे विकसित देश में उस दिन थोड़े से लोग मिले जो महावीर को समझ
सके। हिंदुस्तान के बाहर तो वे।ष्कप आदमी भी नहीं पा सके जो महावीर को समझ सके।
इसलिए
हिंदुस्तान के बाहर महावीर को अनुयायी नहीं मिले। नहीं कि जैन नहीं गए, जैन—मुनि
गए—मिश्र गए अरब गए तिब्बत गए, प्रमाण हैं उसके, इजिप्त तक जाने के जैन—मुनि के प्रमाण हैं। अंग्रेजी में तुमने शब्द सुना
होगा—जिम्नोसोफिस्ट, वह जैनों का नाम है। जिमो जैन से बना।
जैन—दार्शनिक, जिमोसोफिस्ट का मतलब होता है, जैन—द्रष्टा। ठीक मिश्र के मध्य तक जैन—मुनि गया। लेकिन कोई रग्मझने वाला
न मिला। बुद्ध को समझने वाले लोग पूरे एशिया में मिल गए। पाठ इतना कठिन नहीं था।
पाठ सरल था, सुगम था।
फिर
जैन—मुनियों की एक और जिद्द थी कि पाठ को जरा— भी मिश्रित नहीं होने देंगे, शुद्ध का
शुद्ध रखेंगे। वह जिद्द भी मुश्किल में डाल दी। बुद्ध के भिक्षुओं में ऐसी जिद्द
नहीं थी। तिब्बत में गए तो उन्होंने तिब्बत में समझौता कर लिया। तिब्बत में जो
चलता था, उससे समझौता कर लिया। चीन में गए तो चीन में जो
चलता था उससे समझौता कर लिया। कोरिया गए, जापान गए, जहां गए वहां जो चलता था उससे समझौता कर लिया। बुद्ध की भाषा को और वहा की
भाषा को तालमेल बिठा दिया। बुद्ध— धर्म फैला, खूब फैला,
सारा एशिया बौद्ध हो गया।
दोनों
एक साथ थे—महावीर और बुद्ध—दोनों एक ही अनुभव को उपलब्ध हुए। महावीर के इने—गिने
अनुयायी रह गए उंगलियों पर गिने जा सकें—अब भी पच्चीस सौ साल के बाद संख्या कोई
ज्यादा नहीं है,
पच्चीस—तीस लाख। यह कोई संख्या हुई! पच्चीस—तीस परिवार अगर महावीर
से दीक्षित होते तो अब तक उनके ब —ये पैदा होते—होते पच्चीस—तीस लाख हो जाते। बहुत
थोड़े से लोग महावीर में उत्सुक हुए। नहीं कि महावीर की बात गलत थी, महावीर जरा आगे की बात कह रहे थे, दूर की बात कह रहे
थे। बुद्ध का पाठ सरल है। ज्यादा लोगों को समझ में आया। लेकिन इतनी हिम्मत तो
दोनों में से कोई भी नहीं कर सका कि—महावीर भी नहीं कर सके और बुद्ध भी—कि महावीर
ने कहा होता कि बुद्ध जो कहते हैं ठीक कहते हैं, वैसा ही है
जैसा मैं कहता हूं; न बुद्ध कह सके। दोनों में प्रतिएकर्धा
सीधी—सीधी थी। और यह कहने से बड़ा विभ्रम फैलता। इससे लोग और उलझन में पड़ जाते।
लोगों को सहारा देना है, उलझाना नहीं है।
तो
तुम्हारा प्रश्न तो ठीक है,
बहुत सी झंझटें बच जातीं अगर दोनों ने एक ही मंच से बैठकर कह दिया
होता कि हम दोनों एक ही बात कहते हैं—बहुत सी झंझटें बच जातीं, लेकिन बहुत से लाभ भी रुक जाते। झंझट बच जाती, झगड़ा
खड़ा न होता। और लाभ रुक जाता, क्योंकि कोई चलता ही नहीं,
झगड़ा करने वाला पीछे खड़ा ही नहीं होता। कोई चलता ही नहीं इस बात पर।
इस
मनुष्य के मन की एक बुनियादी जरूरत है कि यह श्रद्धा की तलाश करता है। यह कुछ ऐसी
बात चाहता है जिसको सुनिश्चित मन से ग्रहण कर सके। जिसमें जरा संदेह न हो। जिसको
यह प्राणपण से स्वीकार कर सके। यह भरोसा मांग रहा है। यह कहता है, तुम ऐसी
बात कह दो दो—टूक, जैसे दो और दो चार होते हैं। धुंधली—
धुंधली बात मत कहो, उलझी—उलझी बात मत कहो, धुआं— धुआं बात मत कहो, साफ कह दो, लपट की तरह, धुएं से शून्य; थोड़ी
सी कह दो मगर साफ कह दो जिसे मैं सम्हालकर रख लूं अपने हृदय में और जिसके सहारे
मैं चल पडूं; मुझे निर्णय लेना है।
आदमी
को निर्णय लेना है। निर्णय तभी लिया जा सकता है जब निश्चय हो। निश्चय के बिना
निर्णय नहीं होगा। तो निर्णायक बात कह दो! इसलिए बुद्ध और महावीर जानते हुए भी ऐसा
नहीं कहे कि जो मैं कहता हूं वही बुद्ध कहते हैं, जो बुद्ध कहते हैं वही मैं
कहता हूं। ये दोनों साथ—साथ जीवित थे, एक ही इलाके में घूमते
थे—बिहार को दोनों ने पवित्र किया—आज महावीर हैं इस गांव में, उनके जाने के बाद दूसरे दिन बुद्ध आ गए हैं। एक चौमासा महावीर का हुआ है,
दूसरा चौमासा उसी गांव में बुद्ध का हुआ है। वे ही लोग जो महावीर को
सुन रहे हैं, वे ही लोग बुद्ध को सुन रहे हैं। इनमें अनिश्चय
पैदा न हो जाए, इसलिए दोनों यह जानते हुए भी कि जो वे कह रहे
हैं एक ही है.।
लेकिन
यह एक ही उनके लिए है जो पहुंच गए, यह एक उनके लिए है जो शिखर पर खड़े
होकर देखेंगे, उनके लिए सारे पहाड़ पर आते हुए रास्ते एक ही
शिखर पर ला रहे हैं—पूरब से आता है, पश्चिम से, दक्षिण से, कुछ फर्क नहीं पड़ता। रेगिस्तान में होकर
आता है कि हरे मरूद्यानों में होकर आता है; झरनों के पास से
गुजरता है रास्ता, कि सूखा जहा कोई झरने नहीं ऐसा पहाड़ के
रास्ते से आता है रास्ता, कोई फर्क नहीं पड़ता, सभी शिखर पर पहुंच जाते हैं।
शिखर
पर खड़ा हो तो यह समझ में आ सकता है, या घाटी में भी पड़ा हो, लेकिन बुद्धि इतनी प्रखर हो गयी हो, साफ हो गयी हो,
चिंतन—मनन प्रगाढ़ हो गया हो, समन्वय की क्षमता,
विपरीत में भी उसी को देख लेने की कला आ गयी हो, तो शायद घाटी में पड़े हुए आदमी को भी समझ में आ जाए।
जो
उस दिन केवल शिखर पर पहुंचे हुए लोगों को संभव था, वह आज पच्चीस सौ साल के बाद
घाटी में भी कहा जा सकता है, इसीलिए मैं कह रहा हूं। जो मैं
कह —रहा हूं यह बुद्ध ने भी कहना चाहा होता—बुद्ध तड़फे होंगे यह कहने को, नहीं कह सके। मैं भी कुछ बातें कहने को तड़फता हूं वह पच्चीस सौ साल बाद
कोई कहेगा, क्योंकि मैं तुमसे कहूंगा तो तुम नाराज हो जाओगे।
मुझसे कितने लोग नाराज हैं। कुछ ऐसी ही बातो से नाराज हैं। जो वे नहीं सुनना चाहते
थे, जिनकी सुनने की क्षमता अभी नहीं थी, वह मैंने कह दीं।
थोड़ी
बातें तो कहनी ही पडेगी,
नहीं तो तुम आगे बढ़ोगे ही नहीं। सारी बातें नहीं कह सकता हूं
क्योंकि अनंतकाल पड़ा है, इस अनंतकाल में आदमी न मालूम
कितनी—कितनी नयी विभाओ में, नयी दिशाओं में विकास करेगा। जब
नयी चेतना अवतरित होने लगेगी तो नयी बातें कहना संभव हो जाएगा।
शत्रुता
बच सकती थी, जैन और बौद्ध आपस में न लड़ते यह हो सकता था, लेकिन
यह बड़ी कीमत पर होता। कीमत यह होती कि न कोई जैन होता, न कोई
बौद्ध होता, झगड़े का सवाल ही न था। झगड़ा तो तब हो न जब कोई
बौद्ध हो जाए मुगैर कोई जैन हो जाए। झगड़ा भी निश्चय का परिणाम है। जब एक आदमी
निश्चय से मान लेता है कि महावीर ठीक हैं और दूसरा आदमी निश्चय से मान लेता कि
बुद्ध ठीक हैं, तो उनके बीच कलह शुरू होती है, तो विवाद शुरू होता है।
तो
लाभ भी न होता,
हानि भी न होती। अगर ऐसा ही था, तो फिर यही
उचित था जो हुआ—हानि भला हो जाए, कुछ लाभ तो हो। और जो
लड़े—झगड़े, वे किसी 'गैर बहाने से
लड़ते—झगडते। खयाल रखना, झगड़ना जिन्हें है, उनको बहानों भर का फर्क है, वे किसी और बहाने से
लड़ते—झगड़ते। लड़ने वाले की लड़ाई इतनी ता।सानी से हटने वाली नहीं है, वह नए बहाने खोज लेता है।
तुमने
देखा? हिंदुस्तान गुलाम था, हिंदू—मुसलमान झगड़ते थे। झगड़ा
टले, हिदुस्तान— पाकिस्तान बंट गए। सोचा था बांटने वालों ने
कि इस तरह यह झगड़ा टल जाएगा—दोनों को देश मिल गए, अब तो कोई
झगड़ा नहीं है, अब तो बात खतम हो गयी, मुसलमान
शांति से रहेंगे, हिंदू शांति से रहेंगे। लेकिन रहे शांति से?
पब बंगाली मुसलमान पंजाबी मुसलमान से लड़ने लगा। तब गुजराती
महाराष्ट्रियन से लड़ने लगा। तब हिंदी बोलने वाला गैर—हिंदी बोलने वाले हिंदू से
लड़ने लगा।
ये
पहले न लड़े थे,
कभी तुमने खयाल किया? जब तक हिंदू—मुसलमान लड़
रहे थे, तब तक गुजराती और मराठी नहीं लड़ रहे थे, तब तक हिंदी और तमिल नहीं एक्स रहे थे। तब तक बंगाली मुसलमान और पंजाबी
मुसलमान में गहरा भाईचारा था —दोनों मुसलमान थे, लड़ने की बात
ही कहां थी? दोनों को हिंदू से लड़ना था, दोनों इकट्ठे थे। हिंदू भी इकट्ठे थे—मुसलमान से लड़ना था।
अब
मुसलमान तो कट गया,
मुसलमान का पाकिस्तान हो गया, हिंदू का
हिंदुस्तान हो गया, अब किससे लड़े? और
लड़ने वाली बुद्धि तो वही है, वहीं के वहीं हैं। लड़ना तो
पड़ेगा ही, नए बहाने खोजने पड़ेंगे। तो बंगाल कट गया, पाकिस्तान से भयंकर युद्ध हुआ। हिंदू—मुसलमान भी इस बुरी तरह कभी न लड़े थे
जैसे मुसलमान—मुसलमान लड़े।
और
इन बीस—तीस सालों में हिंदू हजार ढंग से लड़ रहे हैं। किससे लड़ रहे हो अब? अब कोई भी
छोटा बहाना कि एक जिला महाराष्ट्र में रहे कि मैसूर में रहे, बस पर्याप्त है झगड़े के लिए छुरेबाजी हो जाएगी। कि बंबई राजधानी
महाराष्ट्र की बने कि गुजरात की, छुरेबाजी हो जाएगी। कि इस
देश की भाषा कौन हो—हिंदी हो, कि तमिल हो, कि बंगाली हो—कि बस झगड़ा शुरू। और तुम यह मत सोचना कि यह झगड़ा ऐसा आसान
है। इसको निपटा दो—हिंदी— भाषियों का एक प्रात बना दो कि चलो सारे हिंदी— भाषियों
का एक प्रात, सारे गैर—हिंदी भाषियों का दूसरा प्रांत—तुम
पाओगे हिंदी— भाषी आपस में लड़ने लगे। क्योंकि उसमें भी कई बोलियां हैं। ब्रज भाषा
है, और मगधी है, और बुंदेलखंडी है,
और छत्तीसगढ़ी है, झगड़े शुरू!
आदमी
को लड़ना है तो वह नए बहाने खोज लेगा। लड़ना ही है तो कोई भी निमित्त काम देता है।
तो
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं जिन्हें लड़ना था वे तो लड़ते ही, इसलिए
उनको ध्यान में रखकर जिनको लाभ हो सकता है उनका लाभ न हो, यह
कोई हितकर बात न होती।
तो
बुद्ध—महावीर ने जिनका लाभ हो सकता था, उनको पुकारा; जिनको निश्चय मिल सकता था, उनको पुकारा; जिनको श्रद्धा जम सकती थी, उनको पुकारा; और उनसे कहा कि यही मार्ग है, बस यही मार्ग है। ताकि
वे अटूट भाव से, प्रगाढ़ भाव से संलग्न हो जाएं, उनके मन में कोई दुविधा न रहे कि दूसरा भी कोई मार्ग हो सकता है। कुछ लोग
पहुंचे। कुछ लोग महावीर के मार्ग से पहुंचे, कुछ लोग बुद्ध
के मार्ग से पहुंचे।
ही, बहुत लड़ते
रहे, यह लड़ने वालों की फिकर ही छोड़ दो, ये लड़ते ही रहते। ये महावीर—बुद्ध के नाम से न लड़ते, किसी और नाम से लड़ते। इन्हें लड़ना ही है। लेकिन आज हालत बदली है, आज हवा बदली है। आज दुनिया बेहतर जगह में है। दुनिया सिकुड़ गयी है।
विज्ञान ने बड़ी छोटी कर दी दुनिया। अब लोग बाइबिल भी पढ़ते हैं, गीता भी पढ़ते हैं, धम्मपद भी पढ़ते हैं। अब मैं यहां
धम्मपद पर बोल रहा हूं महीनों से, तो कोई ऐसा थोड़े ही है कि
बुद्ध को मानने वाले ही मुझे सुन रहे हैं! हिंदू भी सुन रहा है, जैन भी सुन रहा है, मुसलमान भी सुन रहा है, ईसाई भी सुन रहा है। यह संभव नहीं था अतीत में। यह पहली दफा घटना संभव हो
रही है। दुनिया करीब आयी है, भाईचारा बढ़ा है, और लोगों की क्षुद्र सीमाएं थोड़ी टूटी हैं।
सभी
की टूट गयीं,
ऐसा भी नहीं कह रहा हूं। जिनकी टूट गयी हैं वे भविष्य के मालिक हैं,
जिनकी टूट गयी हैं वे भविष्य के पुत्र हैं, जो
समय के पहले आ गए हैं, उनके हाथ से भविष्य का निर्माण होगा।
वे ही थोड़े से लोग भविष्य के निर्माता हैं। बाकी तो अतीत के अंधेरे में सरक रहे
हैं, उनका कोई मूल्य नहीं है। जिनको भविष्य की थोड़ी समझ है,
जिनकी चेतना में थोड़ा प्रकाश हुआ है, उनको एक
बात दिखायी पड़नी शुरू हो गयी है कि यह पृथ्वी एक है, आदमी
आदमी एक है—न गोरा और काला अलग है, न हिंदू—मुसलमान अलग है,
न ब्राह्मण—शूद्र अलग है—हम सब एक इकट्ठी मानवता हैं, और मनुष्य की सारी धरोहर हमारी धरोहर है। कृष्ण हों कि क्राइस्ट, और जरथुस्त्र हों कि महावीर, और बुद्ध हों कि सरहा,
सब हमारे हैं। और हमें सबको आत्मसात कर लेना है। हमें सबको पी लेना
है।
और
आज एक ऐसी संभावना बन रही है कि इतनी बात कहने पर कि सभी ठीक हैं, लोग
विभ्रमित नहीं होंगे। सच तो यह है कि अब लोग इसी के माध्यम से गति कर सकते हैं। अब
तो यह बात ही जानकर भ्रम पैदा होता है कि महावीर ठीक और बुद्ध गलत, कृष्ण ठीक और क्राइस्ट गलत। अब तो अगर कृष्ण गलत हैं तो क्राइस्ट के मानने
वाले को भी शक होता है—अगर कृष्ण गलत हैं तो फिर क्राइस्ट कैसे सही होंगे! क्योंकि
बात तो करीब—करीब एक ही कहते हैं। अगर महावीर गलत हैं तो फिर बुद्ध भी सही नहीं हो
सकते, यह आज बौद्ध के मन में भी सवाल उठने लगा है। यह सवाल
कभी नहीं उठता था।
अब
ऐसा समझो कि महावीर हैं,
कृष्ण हैं, क्राइस्ट हैं, मूसा हैं, जरथुस्त्र हैं, कबीर
हैं, नानक हैं, लाखों सतपुरुष हुए,
इनमें से बस तुम जिसको मानते हो वही सही है, और
शेष सब गलत हैं! जरा सोचो, इस बात का अर्थ क्या होगा?
तुम नानक को मानते हो, बस नानक सही हैं,
और सब गलत हैं! आज एक नयी शंका पैदा होगी—अगर और सब गलत हैं,
तो बहुत संभावना इसकी है कि नानक भी गलत हों। निन्यानबे गलत हैं और
सिर्फ नानक सही हैं! और जो निन्यानबे गलत हैं, वे नानक जैसी
ही बात कहते हैं! अब तो अगर नानक को भी सही होना है तो बाकी निन्यानबे को भी सही
होना पड़ेगा। यह एक नयी घटना है।
पुराने
दिनों में बात उलटी थी,
अगर नानक को सही होना था तो निन्यानबे को गलत होना जरूरी था। तभी
लोग, मंदबुद्धि, सकीर्णबुद्धि लोग चल
सकते थे। आज हालत ठीक उलटी है। पूरा चाक घूम गया। आज हालत यह है, अगर नानक को सही होना है, तो कबीर को भी सही होना है,
तो लाओत्से को भी सही होना है, तो बोकोजू को
भी सही होना है। तो दुनिया में जहां—जहां संत हुए—किसी रंगरूप के, किसी ढंग के, किसी भाषा, किसी
शैली के—उन सब को सही होना है, तो ही नानक भी सही हो सकते
हैं। अब नानक अकेले खड़े होना चाहें तो खड़े न हो सकेंगे। अब तो सब के साथ ही खडे हो
सकते हैं।
मनुष्य
की बिरादरी बड़ी हुई है। एक नया आकाश सामने खुला है। जैसे विज्ञान एक है, ऐसे ही
भविष्य में धर्म भी एक ही होगा। एक का मतलब यह होता है कि जब दो और दो चार होते
हैं कहीं भी—चाहे तिब्बत में जोड़ो, चाहे चीन में जोड़ो,
चाहे हिंदुस्तान में, चाहे पाकिस्तान में—जब
दो और दो चार ही होते हैं। पानी को कहीं भी गरम करो भाप बनता है—चाहे अमरीका में,
चाहे अफ्रीका में, चाहे आस्ट्रेलिया में—सौ
डिग्री पर भाप बनता है, कहीं भी ना—नुच नहीं करता, यह नहीं कहता कि यह आस्ट्रेलिया है, छोड़ो जी,
यहां हम निन्यानबे डिग्री पर भाप बनेंगे! अगर प्रकृति के नियम सब
तरफ एक हैं, तो परमात्मा के नियम अलग—अलग कैसे हो जाएंगे?
अगर बाहर के नियम एक हैं, तो भीतर के नियम भी
एक ही होंगे।
विज्ञान
ने पहली भूमिका रख दी है। विज्ञान एक है। अब हिंदुओं की कोई केमिस्ट्री और
मुसलमानों की केमिस्ट्री तो नहीं होती, केमिस्ट्री तो बस केमिस्ट्री होती
है। और फिजिक्स ईसाइयों की अलग और जैनों की अलग, ऐसा तो नहीं
होता। ऐसा होता था पुराने दिनों में। तुम चकित होओगे जानकर, जैनों
की अलग भूगोल है, बौद्धों की अलग भूगोल है। भूगोल! कुछ तो
अकल लगाओ! भूगोल अलग—अलग! मगर वह भूगोल ही और थी। उस भूगोल में स्वर्ग —नर्कों का
हिसाब था। इस जमीन की तो भूगोल थी नहीं वह। इस जमीन की भूगोल का तो कुछ पता ही न
था! वह भूगोल काल्पनिक थी। सात स्वर्ग हैं किसी के भूगोल में, किसी के भूगोल में तीन स्वर्ग हैं, किसी के भूगोल
में और ज्यादा स्वर्ग हैं, किसी के भूगोल में सात नर्क हैं,
कहीं सात सौ नर्क हैं। कल्पना का जगत था वह। नक्शे तैयार किए थे,
मगर सब कल्पना का जाल था। तो भूगोल अलग—अलग थे।
लेकिन
यह भूगोल कैसे अलग हो?
यह वास्तविक भूगोल कैसे अलग हो? यह तो एक है।
अगर यह एक है, तो अंतर्जगत का भूगोल भी अलग—अलग नहीं हो
सकता। मनोविज्ञान उसके पत्थर रख रहा है, बुनियाद रख रहा है।
जैसे मनुष्य के शरीर के नियम एक हैं, वैसे ही मनुष्य के मन
के नियम एक हैं। और वैसे ही मनुष्य की आत्मा के नियम भी एक हैं। अभी संभावना बननी
शुरू हुई कि हम उस एक विज्ञान को खोज लें, उस एक शाश्वत नियम
को खोज लें।
अतीत
में जो कहा गया है,
वह उसी की तरफ इशारा है, लेकिन इतना साफ नहीं
था जितना आज हो सकता है। मनुष्य इस भांति कभी तैयार न था, जिस
भाति अब तैयार है। भविष्य का धर्म एक होगा। भविष्य में हिंदू—मुसलमान—ईसाई नहीं
होंगे, भविष्य में धार्मिक होंगे और अधार्मिक होंगे।
फिर
धर्म की शैलियां अलग हो सकती हैं। किसी को रुचिकर लगता है प्रार्थना, तो रुचि
से प्रार्थना करे, लेकिन इससे कुछ झगड़ा नहीं है। किसी को
रुचिकर लगता है ध्यान, तो ध्यान करे। और किसी को मंदिर के
स्थापत्य में लगाव है, तो मंदिर जाए। और किसी को मस्जिद की
बनावट में रुचि है और मस्जिद के मीनार मन को मोहते हैं, तो
मस्जिद जाए। लेकिन यह धर्म से इसका कोई संबंध नहीं है, स्थापत्य
से संबंध है, सौंदर्य—बोध से संबंध है।
तुम
अपना मकान एक ढंग से बनाते हो, मैं अपना मकान एक ढंग से बनाता हूं इससे कोई
झगड़ा तो खड़ा नहीं होता। मैं अपने भगवान का मकान एक ढंग से बनाता हूं, तुम अपने भगवान का मकान एक ढंग से बनाते हो, इससे
झगड़ा खड़ा क्यों हो? मैं अपना मकान बनाता हूं गोल, तुम चौकोन, इससे कोई झगड़ा खड़ा नहीं होता। झगड़े की
जरूरत ही नहीं, तुम्हारी पसंद अलग, मेरी
पसंद अलग, हम दोनों जानते हैं कि मकान का प्रयोजन एक कि मैं इस
गोल मकान में रहूंगा, तुम उस चौकोन मकान में रहोगे। रहने के
लिए मकान बनाते हैं।
इतनी
स्वतंत्रता तो होनी ही चाहिए कि जिसको जैसी मर्जी हो, वैसा मकान
बना ले। पुराने ढंग का बनाए, नए ढंग का बनाए; प्राचीन शैली का बनाए कि कोई नयी शैली खोजे, छप्पर
ऊंचा रखे कि नीचा; बगीचा लगाए कि न लगाए; पौधों का बगीचा लगाए कि रेत ही फैला दे, अपनी मौज!
इसमें हम झगड़ा नहीं करते। न हम यह कहते हैं कि तुम तिरछे मकान में रहते, तुम गोल मकान में रहते, मैं चौकोर मकान में रहता,
हम अलग—अलग हैं, हम में झगड़ा होगा, हमारे सिद्धात अलग हैं।
इससे
ज्यादा भेद मंदिर—मस्जिद में भी नहीं है। अपनी—अपनी मौज! मस्जिद भी बड़ी प्यारी है।
जरा हिंदू की आंख से हटाकर देखना, तो मस्जिद में भी बड़ी आकांक्षा प प्रगट हुई है।
वे मस्जिद की उठती हुई मीनारें आकाश की तरफ, मनुष्य की
आकांक्षा प की प्रतीक हैं—आकाश को छूने के लिए। मस्जिद का सन्नाटा, मस्जिद की शांति, मूर्ति भी नहीं है एक, चित्र भी नहीं है एक—क्योंकि मूर्ति और चित्र भी बाधा डालते हैं—सन्नाटा
है, जैसा सन्नाटा भीतर हो जाना चाहिए ध्यान में, वैसा एकन्नाटा है। मस्जिद का अपना सौंदर्य है। खाली सौंदर्य है मस्जिद का।
शून्य का सौंदर्य है मस्जिद का।
मंदिर
की अपनी मौज है। मंदिर ज्यादा उत्सव से भरा हुआ है, रंग—बिरंगा है, मूर्तियां हैं कई तरह की, छोटी—बड़ी, लेकिन मंदिर अपना उत्सव रखता है—घटा है, घंटा बजाओ,
भगवान को जगाओ, खुद भी जागो, पूजा करो। मंदिर की गोल गुंबद, मंडप का आकार,
उसके नीचे उठते हुए मंत्रों का उच्चार, तुम पर
वापस गिरती वाणी—मंत्र तुम पर फिर—फिर बरस जाते। एक मंदिर में जाकर ओंकार का नाद
करो, सारा मंदिर गुंजा देता है, सब
लौटा देता है, तुम पर फिर उंडेल देता है; एक घंटा बजाओ, फिर उसकी प्रतिध्वनि गूंजती रहती है।
यह संसार परमात्मा की प्रतिध्वनि है, माया है। परमात्मा मूल
है, यह संसार प्रतिध्वनि है, छाया है।
मंदिर अलग भाषा है। मगर इशारा तो वही है। फिर हजार तरह के मंदिर हैं।
दुनिया
में धार्मिक और अधार्मिक बचेंगे। लेकिन हिंदू—मुसलमान—ईसाई नहीं होने चाहिए। यह
भविष्य की बात है। यहां जो प्रयोग घट रहा है वह उस भविष्य के लिए बड़ा छोटा सा
प्रयोग है, लेकिन उसमें बड़ी संभावना निहित है।
मुझसे
लोग आकर पूछते हैं कि आप लोगों को क्या बना रहे हैं? एक ईसाई मिशनरी ने मुझसे
आकर पूछा कि अनेक ईसाई आपके पास आते हैं, आप इनको हिंदू बना
रहे हैं? मैंने कहा, मैं खुद ही हिंदू
नहीं तो इनको कैसे हिंदू बनाऊंगा? तो उसने पूछा, आप कौन हैं?
मैं
सिर्फ धार्मिक हूं इनको धार्मिक बना रहा हूं। और इनको मैं इनके गिरजे से तोड़ नहीं
रहा हूं वस्तुत: जोड़ रहा हूं। मेरे पास आकर अगर ईसाई और ईसाई न हो जाए, तो मेरे
पास आया नहीं। मुसलमान अगर और मुसलमान न हो जाए, ठीक पहले
दफा मुसलमान न हो जाए, तो मेरे पास आया नहीं। हिंदू मेरे पास
आकर और हिंदू हो जाना चाहिए। मेरा प्रयोजन बहुत अन्यथा है। वे पुराने दिन गए! वह
पुराने आदमी की संकीर्ण चेतना गयी!
पर
महावीर और बुद्ध चाहते भी तो यह नहीं कर सकते थे। क्योंकि मैं जानता हूं अपने तईं, कि बहुत
सी बातें मैं चाहता हूं लेकिन नहीं कर सकता हूं —तुम तैयार नहीं हो। उन्हीं थोड़ी
सी बातो को करने की कोशिश में तो भीड़ छटती गयी है मेरे पास से। क्योंकि जो भी मैं
चाहता हूं करना, अगर वह जरा जरूरत से ज्यादा हो जाता है तो तुम्हारी
हिम्मत के बाहर हो जाता है, तुम भाग खड़े होते हो। तुम मेरे
दुश्मन हो जाते हो। थोड़े दुस्साहसी बचे हैं, इनके भी साहस की
सीमा है। अगर मुझे इनको भी छांटना हो तो एक दिन में छांट दे सकता हूं इसमें कोई
अड़चन नहीं है। इनका साहस मुझे पता है, कितने दूर तक इनका
साहस है। उसके पार की बात ये न सुन सकेंगे। उसके पार ये कहेगे—तो फिर अब चले! अब
आप जानो!
अगर
मैं सारे भविष्य की बात तुमसे कह दूं तो शायद मेरे अतिरिक्त यहां कोई सुनने वाला
नहीं बचेगा। तब कहने का कोई अर्थ न होगा, उसे तो मैं जानता ही हूं कहना क्या
है!
तो
जब भी किसी व्यक्ति को सत्य का अनुभव हुआ है, वह अनुभव तो एक ही है, लेकिन जब वह उस अनुभव को शब्दों में बांधता है, तो
सुनने वाले को देखकर बांधता है। देखने में दो बातें स्मरण रखनी पड़ती हैं—एक,
जो इससे कहा जाए वह इससे बिलकुल ही तालमेल न खा जाए, नहीं तो यह विकसित नहीं होगा। और इसके बिलकुल विपरीत न पड़ जाए, अन्यथा यह चलेगा ही नहीं। इन दोनों के बीच संतुलन बनाना पड़ता है। कुछ तो
ऐसा कहो जो इससे मेल खाता है, ताकि यह अटका रहे। और कुछ ऐसा
कहो जो इससे मेल नहीं खाता, ताकि यह बढ़े।
तुम
देखे न, जब सीढ़ियां चढ़ते हो तो कैसे चढ़ते हो? एक पैर एक सीढ़ी
पर रखते हो, जमा लेते हो, फिर दूसरा
पैर उठाते हो। एक पुरानी सीढ़ी पर जमा रहता है, दूसरा नयी
सीढ़ी पर रखते हो। जब दूसरा नयी सीढ़ी पर मजबूती से जम जाता है, तब फिर तुम पुरानी सीडी से पैर उठाते हो। एक पैर जमा रहे पुराने में और एक
पैर नए की तरफ उठे तो ही गति होती है। दोनों पैर एक साथ उठा लिए तो हड्डी—पसली टूट
जाएगी—गिरोगे। और दोनों जमाए खड़े रहे तो भी विकास नहीं होगा और दोनों एक साथ उठा
लिए तो भी विकास नहीं होगा। विकास होता है —एक जमा रहे पुराने में, एक नए की तरफ खोज करता रहे। इस संतुलन को ही अपान में रखना होता है।
तो
तुमसे इसीलिए तो मैं गीता पर बोलता हूं ताकि पुराने पर पैर जमा रहे एक। मगर गीता
पर मैं वही नहीं बोलता जो तुम्हारे और बोलने वाले बोल रहे हैं, दूसरा पैर
तुम्हारा सरका रहा हूं पूरे वक्त। धम्मपद पर बोल रहा हूं लेकिन कोई बौद्ध धम्मपद
पर इस तरह नहीं बोला है जैसे मैं बोल रहा हूं क्योंकि मेरी नजर और है—एक पैर जमा
रहे, एक पैर तुम निश्चित रख लो कि चलो भगवान बुद्ध की ही तो
बात हो रही तै, कोई हर्जा नहीं। दूसरा पैर मैं सरका रहा हूं।
महावीर पर बोलता हूं। तुम बड़े प्रसन्न होकर सुनते हो कि चलो भगवान महावीर की बात
हो रही है। निश्चित हो जाते हो। तुम अपना सब सुरक्षा का उपाय छोड्कर बिलकुल बैठ
जाते हो तैयार होकर कि चलो यह तो अपनी ही बात हो रही है, उसी
बीच तुम्हारा एक पैर मैं सरका रहा हूं। तुम जितने निश्चित हो जाते हो, उतनी ही मुझे सुविधा हो जाती है।
तुम्हें
निश्चित करने को बोलता हूं गीता पर, बाइबिल पर, धम्मपद
पर, महावीर पर तुम निश्चित हो जाते हो। तुम कहते हो, यह तो पुरानी बात है, अपने ही शास्त्र की बात हो रही
है, इसमें कुछ खतरा नहीं है। खतरा नहीं है, ऐसा सोचकर तुम अपनी ढाल —तलवार रख देते हो। वहीं खतरा शुरू होता है। वहीं
से मैं तुम्हें थोड़ा आगे खींच लेता हूं।
दूसरा
प्रश्न:
जिस
तरह आप श्री जे. कृष्णमूर्ति के संबंध में प्रेम और स्तुति के साथ बोलते हैं, वैसा वे
आपके बारे में नहीं बोलते हैं। कभी—कभी तो लगता है कि वे कुछ अन्यथा कहने जा रहे
हैं, लेकिन फिर टाल जाते हैं। फलस्वरूप आपके शिष्य तो बड़े
प्रेम से कृष्णमूर्ति को सुनने जाते हैं, लेकिन उनके मानने
वाले आपके पास खुले दिल से नहीं आते। कृपाकर समझाएं।
कृष्ण मूर्ति जो
कहते है, सर्वांशत: सही है। सौ प्रतिशत सही है। लेकिन कृष्ण मूर्ति का रास्ता
बहुत संकीर्ण है। पूरा सही है, पगडंडी जैसा है। मेरा रास्ता
बड़ा राजपथ है मेरे पर बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट,
मोजिज जरथुस्त्र, बोधिधर्म, लाओक्यू सब समा जाते हैं। तो कृष्णमूर्ति को भी मैं उसमें समा लेता हूं
कुछ अड़चन नहीं आती; मेरा घर बड़ा है। कृष्णमूर्ति रहते हैं
छोटी कोठरी में। कोठरी बिलकुल भली है, कुछ गड़बड़ नहीं है।
मेरे बड़े घर में कृण्णमूर्ति की कोठरी तो समा जाती है, लेकिन
मेरा बड़ा घर कृष्णमूर्ति की कोठरी में नहीं समा सकता।
कृष्णमूर्ति
हीनयानी हैं,
मैं महायानी हूं। कृष्णमूर्ति की डोंगी है छोटी सी—डोगी जानते हो न,
छोटे गावों में ज्यादा से ज्यादा एकाध आदमी बैठकर चला लेता है,
मछली मार आया—मेरा पोत बड़ा है, बड़ा जहाज है,
महायान। उसमें आओ सब दिशाओं से लोग, सब तरह के
लोग, सब शास्त्रों को मानने वाले, सब सिद्धातो
को मानने वाले, सबके लिए जगह है। इसलिए।
कृष्णमूर्ति
बिलकुल सही हैं,
लेकिन कृष्णमूर्ति का एक बहुत संकीर्ण रास्ता है। उस रास्ते से
पहुंच जाओगे—जों चलते हैं, उनको मैं कहता नहीं कि छोड़ो—जरूर
पहुंच जाओगे, चलते रहो, वह रास्ता
पहुंचाता है, लेकिन पगडंडी जैसा है। पगडंडी भी पहुंचाती है।
लेकिन इतना मैं कहना चाहता हूं कि ऐसा मत सोचना कि उस रास्ते पर जो नहीं चल रहे
हैं, वे कोई भी नहीं पहुंचते। वे भी पहुंच जाते हैं। राजपथ
पर चलने वाले भी पहुंच जाते हैं। सिर्फ राजपथ ही है, इस कारण
नहीं पहुंचते, ऐसा मत सोच लेना।
तो
मेरी और कृष्णमूर्ति की स्थिति भिन्न—भिन्न है। मैं तो उनकी मजे से स्तुति कर
सकता हूं मुझे कुछ अड़चन नहीं है, मेरी बात के विपरीत उनकी बात नहीं पड़ती है।
लेकिन वे मेरी स्तुति नहीं कर सकते हैं, क्योंकि मेरी बात
उनके विपरीत पड़ जाएगी। उन्होंने जो एक साफ—सुथरा सा रास्ता बनाया है, अगर वे एक दफे भी कह दें कि मैं ठीक कह रहा हूं तो उनका सारा रास्ता गड़बड़
हो जाएगा। क्योंकि मैंने तो सारे रास्तों को ठीक कहा है, मुझको
तो वही ठीक कह सकता है जो सारे रास्तों को ठीक कहे—खयाल रखना। मैं तो किसी रास्ते
को गलत कहता नहीं हूं। इतनी समायी कृष्णमूर्ति की नहीं है।
इसमें
मैं कुछ यह भी नहीं कह रहा हूं कि इसमें कुछ गलती है। अपनी—अपनी मौज है। कुछ लोगों
को पगडंडी से चलने में मजा आता है, हर्जा कुछ भी नहीं है। मजे से
चलें। जो थक गया हो अपनी डोंगी में और पगडंडी पर चलते —चलते, उसको मैं कहता हूं कि अगर थक गए हो तो घबड़ाओ न, जहाज
में सम्मिलित हो जाओ, तुम्हारी डोंगी भी ले आओ, उसको भी रख लो। कभी तुम्हारी मर्जी हो तो फिर अपनी डोंगी तेरा देना,
फिर उतर जाना। तुम्हारी पगडंडी भी समा जाएगी इस बड़े रास्ते पर,
उसको भी ले लो साथ। किसी दिन थक जाओ भीड़— भाड़ से, बड़े रास्ते के शोरगुल—उत्सव से, अपनी पगडंडी लेकर
अलग उतर जाना।
कृष्णमूर्ति
को अड़चन है। वे मेरी बात को ठीक नहीं कह सकते हैं। कहेंगे तो उनका सारा रास्ता
डगमगा जाएगा। मेरी बात को ठीक कहने का मतलब तो है कि सारा उपद्रव मोल ले लिया।
क्योंकि मेरी बात में कृष्ण की बात सम्मिलित है, मेरी बात में बुद्ध की बात
सम्मिलित है, मेरी बात में महावीर की बात सम्मिलित है,
मेरी बात में मोहम्मद की बात सम्मिलित है। मुझे हा कहने का मतलब तो
यह हुआ कि मनुष्य—जाति में जो भी चैतन्य के अब तक स्रोत हुए हैं, सबको ठीक कहना पड़ेगा। इतना खतरा कृष्णमूर्ति नहीं ले सकते। इससे उनका जो
साफ—सुथरा मार्ग है, वह सब अस्तव्यस्त हो जाएगा।
कृष्णमूर्ति
ने एक बगिया बनायी है—साफ—सुथरी है, गणित की तरह साफ—सुथरी—मेरा हिसाब
तो जंगल जैसा है। साफ—सुथरा नहीं है, जंगल साफ—सुथरा हो भी
नहीं सकता। तुम एक बगीचा बनाते हो, लान लगाते हो, क्यारी सजाते हो, सब साफ—सुथरा कर लेते हो, ऐसा कृष्णमूर्ति का हिसाब है। इसलिए जिनका गणित बहुत प्रखर है और जो केवल
बुद्धि से ही चल सकते हैं, उनको कृष्णमूर्ति की बात बिलकुल
ठीक लगेगी। गणित जैसी है, तर्कयुक्त है।
मेरा
हिसाब तो जंगल जैसा है। मेरा हिसाब ज्यादा नैसर्गिक है। मैंने बहुत बनाने की कोशिश
नहीं की है उसको,
जैसा है वैसा स्वीकार कर लिया है, मेरा मार्ग
सहज तै। जिनको जंगल में जाने की हिम्मत हो, वे मेरे साथ
चलें। जिनको ऊबड़—खाबड़ में भी चलने की हिम्मत हो, वे मेरे साथ
चलें। जिनको अतर्क में उतरने की हिम्मत हो, वे मेरे साथ
चलें। अतर्क तर्क के विपरीत नहीं है, तर्क के पार है। तो
अतर्क में —तर्क तो समा जाता है, लेकिन तर्क में अतर्क नहीं
समाता। ऐसी अड़चन है।
इससे
कृष्णमूर्ति पर नाराज मत होना। उनकी अपनी व्यवस्था है, उनका अपना
एक अनुशासन है। उस अनुशासन को सम्हालते हुए वे मुझे हां नहीं भर सकते। मुझे है।
भरें तो अनुशासन टूट जाएगा। यह मैं भी नहीं चाहूंगा कि उनका अनुशासन टूटे; इस अनुशासन से कुछ लोग चल रहे हैं, पहुंच जाएंगे।
उनको अपना अनुशासन मजबूती से कायम रखना चाहिए। उनको जंगल को बगीचे में नहीं घुसने
देना चाहिए। यह बिलकुल ठीक है। क्योंकि जंगल अगर बगीचे में आ गया तो तुम्हारी सब
जमायी हुई व्यवस्था उखड़ जाएगी। तुम्हारा लान क्या होगा? तुम्हारी
पगडंडियां तुमने बनायीं, उनका क्या होगा? तुमने जो रास्ते साफ—सुथरे किए थे, उनका क्या होगा?
नहीं, जंगल को तुम्हारे बगीचे में नहीं आने
देना चाहिए उसे रोककर रखना पड़ेगा।
इसलिए
तुम ठीक ही कहते हो कि 'कभी—कभी तो लगता है कि वे कुछ अन्यथा कहने जा रहे हैं, लेकिन फिर टाल जाते हैं।'
वे
मेरे पक्ष में तो बोल नहीं सकते। यह बात सुनिश्चित है। वे मेरे विपक्ष में भी .।
हीं बोलते। क्योंकि जानते तो हैं वे कि जो मैं कह रहा हूं? ठीक कह
रहा हूं। इसलिए। विपक्ष में बोल नहीं सकते।
इस
बात को खयाल में लेना। मेरे पक्ष में बोल नहीं सकते, क्योंकि उससे उन्होंने जो
व्यवस्था बनायी है वह बिगड़ जाएगी। मेरे विपक्ष में बोल नहीं सकते, क्योंकि वे जानते हैं कि जो मैं कह रहा हूं वह ठीक है। स्वयं के तईं तो वे
जानते हैं कि जो मैं कह रहा हूं वह ठीक है।
एक
बार ऐसा हुआ कि मैं बंबई आया—उसी सांझ आया कलकत्ते से और रात ही मुझे दिल्ली जाना
था—कृष्णमूर्ति बंबई थे। किसी ने कृष्णशतइr को कहा होगा कि मैं आया हुआ हूं।
उन्होंने कहा, इसी वक्त मिलने का इंतजाम करो।
वह
मित्र भागे हुए आए। उनका नाम था परमानंद कापडिया, गुजराती के एक संपादक थे,
लेखक थे, वे एकदम भागे हुए आए। मैं जब
एअरपोर्ट जाने की तैयारी कर रहा था, गाड़ी में बैठ रहा था,
तब वे पहुंचे। तो मैंने कहा, यह तो बड़ा
मुश्किल हो गया! जरूर मिलना हो जाता, लेकिन अभी अड़चन है,
मैं लौटकर आता हूं चार दिन बाद……, लेकिन दूसरे
दिन सुबह कृष्णमूर्ति जाने को थे लंदन वापस, तो मिलना नहीं
हो पाया।
उनकी
मिलने की उत्सुकता—तत्क्षण उन्होंने कहा, इसी समय कुछ इंतजाम करो कि हमारा
मिलना हो जाए—इस बात का सबूत है कि जो मैं कह रहा हूं जो मैं कर रहा हूं उसमें
भीतर से उनकी गवाही है, लेकिन बाहर से वे गवाही नहीं दे
सकते। देनी भी नहीं चाहिए। देने से तो नुकसान होगा।
मुझे
बड़ी सुविधा है। मुझे बड़ी छूट है। मैंने जिस ढंग की अव्यवस्था चुनी है— कि आज भक्त
पर बोलता हूं कल ध्यानी पर बोलता हूं; आज इस मार्ग पर बोलता हूं? कल उस मार्ग पर बोलता हूं —मैंने जैसी अव्यवस्था चुनी है, उस अव्यवस्था के कारण मुझे जैसी स्वतंत्रता है, वैसी
आज तक कभी किसी को नहीं थी। बुद्ध सीमित, महावीर सीमित,
कृष्ण सीमित, क्राइस्ट सीमित, कृष्णमूर्ति सीमित, रामकृष्ण—रमण सीमित, उन सबकी सीमाएं हैं। वे उतना ही बोलते हैं जितनी उनकी व्यवस्था में आता
है। उसके बाहर की बात या तो टाल जाते हैं, या इनकार कर देते
हैं। मुझे बड़ी सुविधा है।
तो
मैं तो कहता हूं कृष्णमूर्ति ठीक हैं, जिसको रुचे, जरूर
उनसे चले— पहुंचेगा। मगर मैं यह आशा नहीं करता कि यही कृष्णमूर्ति मेरे संबंध में
कहें। कहेंगे तो उनका रास्ता अस्तव्यस्त हो जाएगा।
तीसरा प्रश्न
क्या भगवान बुद्ध का सार—संदेश यही नहीं है कि
व्यक्ति संसार के माया—मोह को आमूल छोड़ दे? लेकिन तब तो संसार के प्रति
दया या करुणा का भाव भी कैसे रखा जा सकेगा?
इसे समझना।
संसार
के प्रति बहुत माया—मोह हो तो दया का भाव बनेगा ही कैसे? जितना
संसार के प्रति माया—मोह होता है, उतना ही चित्त कठोर,
हिंसक, ईर्ष्यालु हो जाता है। जितना संसार की
चीजों में लगाव होता है, उतना ही तुम्हारी देने की क्षमता कम
हो जाती है, दया कम हो जाती है—दया यानी देने की क्षमता।
तो
तुम्हारा प्रश्न बड़ा तर्कयुक्त मालूम होता है ऊपर—ऊपर, भीतर
बिलकुल पोच। है। तुम यह पूछ रहे हो कि अगर संसार के प्रति सब माया—मोह छोड़ दिया
जाए, तो फिर तो करुणा—दया का भाव भी छूट जाएगा।
नहीं, इससे उलटी
ही घटना घटती है। तुम जिस दिन सब माया—मोह छोड़ दोगे, उस दिन
तुम पाओगे करुणा ही करुणा बची। शुद्ध करुणा बची। वही ऊर्जा जो गाया —मोह बनी थी,
करुणा बनती है। संसार से माया—मोह छोड़ते ही तुम्हारे हृदय में सिर्फ
एक ही भाव की तरंगें रह जाती हैं—करुणा की। सारे जगत को सुखी देखने का एक भाव रह
जाता है। क्यों? क्योंकि अब तुम सुखी हो गए, और कोई भाव रहेगा भी कैसे! अब तुम आनंदित हो, तुम
चाहोगे कि सारा जगत ऐसे ही आनंदित हो। अब तुम्हें पता चला कि इतना आनंद हो सकता
है। और मुझे हो सकता है, तो सभी को हो सकता है।
इसी
करुणा के कारण तो बुद्ध बोले। नहीं तो बोलते कैसे? जब माया—मोह ही समाप्त हो
गया—अगर तुम्हारी बात सही होती—तो अब फिर समझाना क्या है? बोलना
क्या है? अपनी आंख बंद कर ली होती, चुपचाप
अपने में डूबकर समाप्त ते। गए होते।
नहीं
हो सके समाप्त। कोई कभी नहीं हो सका अपने में समाप्त। जब दुख में थे तो चाहे जंगल
भाग गए, लेकिन जब सुख मिला तो वापस बस्ती लौट आए। बांटना था! जंगल में किसको
बांटते?
इस
बात को खयाल में लेना। महावीर भाग गए जंगल जब दुखी थे, बुद्ध भी
भाग गए जंगल जब दुखी थे। जब दुखी थे तो भाग जाना एक अर्थ में उचित ही था, क्योंकि यहां रहते तो लोगों को दुख ही देते और क्या होता? दुख हो तो दुख ही हम देते हैं। भाग गए, हट गए यहां
से, बीमार आदमी जंगल चला जाए, ताकि कम
से कम औरों को तो बीमारी न फैलाए। संक्रामक रोग है तुम्हारा, अच्छा है जंगल चले जाओ। जब रोग कट जाए, स्वास्थ्य
पैदा हो, तब लौट आना। क्योंकि जैसे रोग के कीटाणु होते हैं,
वैसे ही स्वास्थ्य के भी कीटाणु होते हैं। जैसे रोग संक्रामक होता
है, वैसे ही स्वास्थ्य भी संक्रामक होता है। तो परमज्ञानी
पुरुष पहले तो भागे जंगल की तरफ, और जब पा लिया, जब हीरा हाथ लगा, तब लौट आए। तब लौटना ही पड़ा,
अब यह हीरा बांटना भी तो पड़ेगा।
इस
हीरे के मिलते ही एक बड़ा उत्तरदायित्व भी साथ में मिलता है कि अब इसे दो; यह सब को
मिल सकता है, अब उनको खबर करो; जगाओ
सोयों को, चिल्लाओ, मुंडेरों पर चढ़ जाओ,
आवाज दो, पुकारों। कोई सोया न रह जाए, ऐसी चेष्टा करो। चार दिन तुम्हारी जिंदगी के बचे हों, इनको पुकारने में लगा दो।
बुद्ध
बयालीस साल जिंदा रहे ज्ञान के बाद, बयालीस साल अथक पुकारते
रहे—सुबह—सांझ, गांव—गांव चिल्लाते फिरे। चालीस वर्ष महावीर
भी ऐसे ही भटकते रहे, पुकारते रहे, चोट
करते रहे, किसी भांति कोई जाग जाए।
एक
छोटी सी कविता है रवींद्रनाथ ठाकुर की। कविता का नाम है—अभिसार। संन्यासी के
जीवन—दर्शन की इसमें सुंदर झलक है संन्यासी, जगत के भोग के लिए तो जगत को छोड़
देता है, पर सेवा के लिए नहीं। सेवा के लिए तो वह जगत का हो
जाता है, पहली दफा जगत का हो जाता है, और
सदा के लिए हो जाता है। भोग छोडने के कारण और भी ज्यादा जगत का हो जाता है।
क्योंकि जब तक तुम जगत के भोग में उत्सुक हो, तब तक तुम
भिखारी हो, तुम मांग रहे हो जगत से, दोगे
क्या खाक! जिस दिन तुमने भोग की आकांक्षा छोड़ दी, तुम मालिक
बने, तुम सम्राट बने। अब तुम दे सकते हो। भोग के कारण हम
सेवा चाहते हैं। भोग छोड़ने पर सेवा देने का प्रारंभ होता है।
इस
कविता में रवींद्रनाथ ने कहा है—रात्रि का समय, यौवन—मद में मत्त नगर—नटी वासवदत्ता
अभिसार को निकली है।
वेश्या
को कहते थे उस समय नगर—नटी,
नगर—वधू—सारे गांव की वधू। जो सुंदरतम लड़कियां होती थीं पुराने
दिनों में, नगर की जो सुंदरतम युवती होती थी, उसे नगर—वधू बना देते थे, ताकि लोगों में संघर्ष न
हो, कलह न हो, झगड़ा न हो। जो सुंदरतम
है उसके लिए बहुत प्रतियोगिता मचेगी, झगड़ा होगा, कलह होगी। सुंदरतम को नगर—वधू बना देते थे कि वह सब की हो, एक की न हो। यह वासवदत्ता उस समय की बड़ी सुंदरी थी। बुद्ध के समय की कथा
है यह, रवींद्रनाथ ने कविता उसी कथा पर लिखी है।
वासवदत्ता
अभिसार को निकली है अपने रथ पर सवार होकर, फूलों से सजी। वह सुंदरतम युवती थी
उन दिनों की। बौद्ध भिक्षु उपगुप्त को राह में देखकर ठिठक जाती है, रथ को रोक लेती है।
एक
बौद्ध भिक्षु उपगुप्त,
बुद्ध का एक शिष्य पास से गुजर रहा है। वासवदत्ता ने सम्राट देखे
हैं, द्वार पर भीख मांगते सम्राट देखे हैं, उसके द्वार पर भीड़ लगी रहती थी राजपुत्रों की, सभी
को उसका मिलन हो भी नहीं पाता था—बडी महंगी थी वासवदत्ता। लेकिन ऐसा सुंदर व्यक्ति
उसने कभी देखा नहीं था, यह जो भिक्षु उपगुप्त। यह अपने पीत
वस्त्रों में, भिक्षापात्र लिए, शांत
मुद्रा में चला जा रहा है। इसने न तो रास्ता देखा, न भीड़भाड़
देखी है, न वासवदत्ता को देखा है, यह
तो अपनी आंखों को चार फीट आगे—जैसा बुद्ध कहते थे, चार फीट
से ज्यादा मत देखना—अपनी आंखों को गड़ाए चुपचाप राह से गुजर रहा है। इसके चलने में
एक अपूर्व प्रसाद है, जो केवल संन्यासी के चलने में ही हो
सकता है। जिसको कुछ लेना—देना नहीं है, उसके तनाव चले गए। वह
यहां—वहां दुकानों पर लगे बोर्ड नहीं देख रहा है, न चीजें
देख रहा है, न लोग देख रहा है। जब इस संसार से कुछ लेना ही न
रहा, तो अब क्या देखना—दाखना! शांत है। अपने भीतर रमा चुपचाप
चला जा रहा है।
संन्यासी
अपूर्वरूप से सुंदर हो जाता है। संन्यास जैसा सौंदर्य देता है मनुष्य को और कोई
चीज नहीं देती। संन्यस्त होकर तुम सुंदर न हो जाओ, तो समझना कि कोई भूलचूक हो
रही है। और संन्यासी का कोई श्रृंगार नहीं है। संन्यास इतना बड़ा श्रृंगार है कि
फिर किसी और श्रृंगार की कोई जरूरत नहीं है।
तुमने
देखा कि संसारी भोगी है। जवानी में शायद सुंदर होता हो, लेकिन
जैसे —जैसे बुढ़ापा आने लगता है, असुंदर होने लगता है। लेकिन
उससे उलटी घटना घटती है संन्यासी के जीवन में; जैसे—जैसे
संन्यासी वृद्ध होने लगता है, वैसे—वैसे और सुंदर होने लगता
है। क्योंकि संन्यास का कोई वार्द्धक्य होता ही नहीं, संन्यास
कभी का होता नहीं। संन्यास तो चिर—युवा है।
इसलिए
तो हमने बुद्ध और महावीर की जो मूर्तियां बनायी हैं, वह उनके युवावस्था की बनायी
हैं। इस बात की खबर देने के लिए कि संन्यासी चिर—युवा है। —हमने अपूर्व सौंदर्य से
भरी शतइrयां बनायी हैं महावीर और बुद्ध की। उनके पास कुछ भी
नहीं है, न कोई साज है, न श्रृंगार
है—कृष्ण को तो सुविधा है, कृष्ण की मूर्ति को तो हम सजा
लेते हैं, मोरमुकुट बांध देते, रेशम के
वस्त्र पहना देते, घुंघरू पहना देते, हाथ
में कंगन डाल देते, मोतियों का हार लटका देते—बुद्ध और
महावीर के पास तो कुछ भी नहीं है। बुद्ध के पास तो एक चीवर है जिसको ओढ़ा हुआ है,
महावीर के पास तो वह भी नहीं, वह तो नग्न खड़े
हैं, लेकिन फिर भी अपूर्व सौंदर्य है। ऐसा सौंदर्य जिसको
किसी सजावट की कोई जरूरत नहीं।
ऐसे
इस उपगुप्त को निकलते देखा होगा वासवदत्ता ने। और वासवदत्ता सुंदरतम लोगों को
जानती है, सुंदरतम लोगों को भोगा है, सुंदर से सुंदर से उसकी
पहचान है, सुंदरतम उसके पास आने को तड़फते हैं—उसने रथ रोक
लिया। बौद्ध भिक्षु उपगुप्त को देखकर वह ठिठक जाती है। दीपक के प्रकाश में—राह के
किनारे जो दीपस्तंभ है उसके प्रकाश में—वह सबल, स्वस्थ और
तेजोदीप्त गौरवर्ण संन्यासी को देखती ही रह जाती है। ऐसा रूप उसने कभी देखा नहीं।
संन्यासी का सहज सौंदर्य उसके मन को डिगा देता है। अब तक लोग उसके प्रेम में पड़े
थे, पहली दफा वासवदत्ता किसी के प्रेम में पड़ती है। वह
संन्यासी को अपने घर आमंत्रित करती है। संन्यासी बड़ी बहुमूल्य बात उत्तर में कहता
है।
उपगुप्त
उससे कहता है—
समय जे दिन आसीबे
आपनी जाइबो तोमार
कुंजे
जिस
दिन समय आ जाएगा,
उस दिन मैं स्वयं ही तुम्हारे कुंज में उपस्थित हो जाऊंगा।
वासवदत्ता कहती है कि भिक्षु मेरे घर आओ! बैठो रथ में, मैं
तुम्हें घर ले चलूं! और भिक्षु कहता है—आऊंगा, जरूर आऊंगा,
समय जे दिन आसीबे, जिस दिन समय आ जाएगा,
आपनी जाइबो तोमार कुंजे, वासवदत्ता, तुझे मुझे बुलाना भी न पड़ेगा, मैं अपने आप आ जाऊंगा।
समय की प्रतीक्षा!
और
बहुत दिनों तक समय नहीं आया। वासवदत्ता प्रतीक्षा करती, प्रतीक्षा
करती। उसका मन न लगता। इस संसार में अब राग—रंग उसे दिखायी न पड़ता। बहुत लोग आते,
बहुत लोगों से संबंध भी बनता—नगर—वधू थी, वही
उसका काम था, वेश्या थी—लेकिन अब किसी देह में वह दीप्ति न
दिखायी पड़ती। और किसी देह में वह सौंदर्य न दिखायी पड़ता। उपगुप्त की वे शांत आंखें
उसका पीछा करतीं। रात हो कि दिन, सपने उठते।
लेकिन
बात सुन ली थी उसने उपगुप्त की कि जब समय आएगा तब आ जाऊंगा। और इतने बलपूर्वक कही
थी बात कि यह बात भी साफ हो गयी थी. उपगुप्त उन लोगों में से नहीं जिसे डिगाया जा
सके; जो कहा है, वैसा ही होगा; समय
की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। आपनी जाइबो तोमार कुंजे, अपने आप
आऊंगा तेरे कुंज में। तो वासवदत्ता ने फिर बुलाने की चेष्टा भी नहीं की। कभी राह
पर आते—जाते शायद उपगुप्त दिखायी भी पड़ जाता होगा, लेकिन फिर
कहना भी उचित न था। संन्यासी ने बात कह दी थी। प्रतीक्षा और प्रतीक्षा, उसका सारा जीवन बीत गया। फिर एक रात्रि—पूनम की रात्रि—उपगुप्त मार्ग से जा
रहे थे। उन्होंने देखा कि कोई मार्ग पर रुग्ण पड़ा है, गांव
के बाहर। उन्होंने उसे अपने अंक में लिटा लिया; जर्जर,
वसंत के दानों से गल गया शरीर, कोई नारी है,
प्रकाश में देखा—अरे, वासवदत्ता! यौवन बीत गया,
शरीर जराजीर्ण, अंतिम घड़ी है। वसंत रोग के
दानों से शरीर पूरी तरह घिर गया है, बचने का कोई उपाय नहीं
है। कोई अब प्रेमी भी नहीं बचा—ऐसे क्षण में कहा प्रेमी बचते हैं! नगर में भी रखने
को लोग राजी न रहे, नगर के बाहर खदेड़ दिया है—ऐसी रुग्ण देह
को कौन नगर में रखेगा! अब उसकी घातक बीमारी दूसरों को लग सकती है।
यह
जो महारोग है—वसंत रोग इसको हम कहते हैं —नाम भी हमने खूब चुना है, इस देश
में नाम भी हम बड़े हिसाब से चुनते हैं! सारे शरीर पर काम—विकार के कारण फफोले फैल
गए हैं। यौन—रोग है। लेकिन हमने नाम दिया है वसंत रोग—जवानी का रोग, वसंत का रोग। जो अब तक सौंदर्य बनकर प्रगट हुआ था, वही
अब कुरूपता बनकर प्रगट हो रहा है। जो अब तक चमड़ी पर आभा मालूम होती थी, वही घाव बन गयी है। सारा शरीर घावों से भर गया है, सड़
रहा है, महादुर्गंध उठ रही है। उसे कौन नगर में रखे! उसे
गांव के बाहर फिंकवा दिया है। यह वही स्त्री है जिसे लोग सिर पर लिए घूमते थे।
जिसके चरण चूमते थे सम्राट।
अंतिम
घड़ी, वसंत रोग आखिरी स्थिति में है, कोई अब प्रेमी नहीं,
नगर से दूर मार्ग पर असहाय पड़ी रो रही है, दम
तोड़ रही है। वासवदत्ता ने आंखें खोलीं, वह कातर कंठ से
बोली—दयामय, तुम कौन हो?
मैं
हूं संन्यासी उपगुप्त,
भूल तो नहीं गयीं न! भूली नहीं हो न! मैंने कहा था—
समय जे दिन आसीबे
आपनी जाइबो तोमार
कुंजे
जिस
दिन समय आएगा,
मैं तुम्हारे कुंज में स्वयं उपस्थित हो जाऊंगा। लगता है, समय आ गया, मैं उपस्थित हूं। मैं तुम्हारी किस सेवा
में आ जाऊं, मुझे कहो, आशा दो। मैं आ
गया हूं, वासवदत्ता! मैं सेवा के लिए तैयार होकर आ गया हूं।
उस दिन तो आता तो तुमसे सेवा मांगता। उस दिन तो वे आते थे जिन्हें तुम्हारी सेवा
की जरूरत थी, आज मैं आ गया हूं मैं तुम्हारी सेवा करने को
तत्पर हूं।
रवींद्रनाथ
की यह कविता बड़ी बहुमूल्य है। यह संन्यौसी के लिए एक जोतिर्मय भावदशा की स्मृति
बनाए रखने के लिए बड़ी काम की है। इसे स्मरण रखना। संसार तो छोड़ना है, संसार की
माया—ममता भी छोड़नी है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि संन्यास कठोर बना दे तुम्हें,
कृपण बना दे तुम्हें, कि तुम्हारे हृदय 'तो पत्थर बना दे, तब तो तुम चूक गए।
और
अक्सर ऐसा होता है। अक्सर तुम्हारे तथाकथित साधु—संन्यासी—महात्मा जस दिन माया—मोह
छोड़ते हैं संसार का,
उसी दिन दया—ममता, दया—करुणा भी छोड़ देते हैं।
तुम्हारे तथाकथित संन्यासी रूखे —सूखे लोग हैं। उन्होंने माया—मोह छोड़ी, उसी दिन से वे डर गए हैं। उन्होंने अपने को सुखा लिया भय के कारण। वे
रसहीन हो गए हैं। उन पर न नए पत्ते लगते हैं, न नए फूल आते
हैं। इसलिए तो उनके जीवन में तुम्हें सौंदर्य दिखायी न पड़ेगा। उनके जीवन में एक
कुरूपता है। मरूस्थल जैसे हैं तुम्हारे संन्यासी! चूक गए। रस से थोड़े ही विरोध
था।
पतंजलि
ने कहा न—रसो वै सः,
वह सत्य तो रसमय है, वह परमात्मा तो रस भरा
है। संन्यासी रस से थोड़े ही विरुद्ध है! रस संसार में व्यर्थ न बहे, रस दया बनकर बहे, करुणा बनकर बहे, सेवा बनकर बहे; रस तुम्हें भिखारी न बनाए, सम्राट बनाए; याचक न बनाए, दानी
बनाए; रस तुम लुटाओ, रस तुम दो।
इसलिए
जो संन्यास तुम्हें माया—मोह से छुड़ाकर करुणा—दया से भी छुड़ा देता हो, समझना चूक
गए। तीर निशाने पर न लगा, गलत जगह लग गया। भूल हो गई।
माया—ममता से छुड़ाने का प्रयोजन ही इतना है कि तुम्हारी जीवन—ऊर्जा करुणा बन ने।
माया —ममता छूट गयी और करुणा बनी नहीं, तो संसार भी गया और
सत्य भी न मिला। तुम धोबी के गधे हो गए—घर के न घाट के—तुम कहीं के न रहे।
और
तुम्हारे अधिक संन्यासी और महात्मा धोबी के गधे हैं, घर के न घाट के। संसार छूट
गया है और सत्य मिला नहीं है। बाहर का सौंदर्य छूट गया और भीतर का सौंदर्य मिला
नहीं है। अटक गए। रसधार ही सूख गयी। मरुस्थल हो गए। ज्यादा से ज्यादा कुछ काटे
वाले झाडू पैदा हो जाते हों मरुस्थल में तो हो जाते हों, बस
और कुछ नहीं। न ऐसे वृक्ष पैदा होते हैं कि जिनमें किसी राहगीर को छाया मिल सके,
न ऐसे वृक्ष पैदा होते हैं कि रसदार फल लगें और किसी की भूख मिट
सके। नहीं किसी की क्षुधा मिटती, नहीं किसी की प्यास मिटती,
रूखे —सूखे ये खड़े लोग और इनकी तुम पूजा किए चले जाते हो! इनकी पूजा
खतरनाक है। क्योंकि इनको देख—देखकर धीरे—धीरे तुम भी रूखे—सूखे हो जाओगे।
इस
देश में यह दुर्भाग्य खूब घटा। इस देश का संन्यासी धीरे— धीरे जीवन की करुणा से ही
शून्य हो गया। उसे करुणा ही नहीं आती। लोग मरते हों तो मरते रहें। लोग सड़ते हों तो
सड़ते रहें। वह तो कहता,
हमें क्या लेना —देना! हम तो संसार छोड़ चुके।
संसार
छोड़े, वह तो ठीक, लेकिन करुणा छोड़ चुके! तो फिर तुम बुद्ध
की करुणा न समझोगे, महावीर की अहिंसा न समझोगे और क्राइस्ट
की सेवा न समझोगे। इसे कसौटी मानकर चलना। करुणा बननी ही चाहिए। तो ही समझना कि
संन्यास ठीक दिशा में यात्रा कर रहा है।
चौथा प्रश्न
क्या पंडित—पुरोहितो का ईश्वर सत्य नहीं है?
पंडित—पुरोहितो
का ईश्वर उतना ही सत्य है जितने वे सत्य हैं। तुम्हारा ईश्वर उतना ही सत्य होगा
जितने तुम सत्य हो। तुम्हारा ईश्वर तुमसे ज्यादा सत्य नहीं हो सकता। तुम्हारा
ईश्वर ठहरा न! तुम अगर झूठ हो, तुम्हारा ईश्वर झूठ होगा। तुम
अगर झूठ हो, तुम्हारी पूजा झूठ होगी, तुम्हारी
प्रार्थना झूठ होगी। तुम पर निर्भर है। तुम अगर मुर्दा हो, तुम्हारा
ईश्वर मरा हुआ होगा। तुम्हारा ईश्वर तुम से अन्यथा नहीं हो सकता।
पंडित—पुरोहित
का ईश्वर है ही क्या?
शब्द—जाल है। शास्त्र में पढ़ी हुई बात है, जीवन
में अनुभव की हुई नहीं। पंडित—पुरोहित का ईश्वर तुम्हारे शोषण के लिए है, उसके जीवन—रूपांतरण के लिए नहीं। वह मंदिर बनाता है, अपने जीवन—रूपांतरण के लिए नहीं, वह प्रवचन देता है,
अपने जीवन—रूपांतरण के कारण नहीं; उसमें लाभ
है, कुछ और लाभ है, तुमसे कुछ मिलता है,
तुम्हें उलझाए रखता है।
कार्ल
मार्क्स ने कहा है कि धर्म अफीम का नशा है। यह बात निन्यानबे प्रतिशत सही है। यह
पंडित—पुरोहित के द्वारा जो धर्म चलता है, उसके बाबत बिलकुल सही है। धर्म
अफीम का नशा है। लेकिन यह सौ प्रतिशत सही नहीं है, इसलिए मैं
मार्क्स से राजी नहीं हूं। क्योंकि ऐसा भी धर्म है जो बुद्धों का है, जाग्रत पुरुषों का है। ऐसा भी धर्म है, जो उनका है
जिन्होंने अनुभव किया है। अगर पंडित—पुरोहित का ही धर्म होता सौ प्रतिशत तो
मार्क्स बिलकुल सही था। मार्क्स सही भी है और गलत भी। सही है तथाकथित धर्म के
संबंध में और गलत है वास्तविक धर्म के संबंध में।
तुम
उससे सीखना अपना ईश्वर,
जिसने ईश्वर जाना हो। तुम उसके पास उठना—बैठना, उसका सत्संग करना, जिसका ईश्वर से कुछ लगाव बन गया
हो, जिसके हाथ में ईश्वर का हाथ छू गया हो। छू गया हो कम से
कम, अगर हाथ पकड़ा भी न हो तो भी चलेगा। क्योंकि छू गया तो
बहुत देर नहीं है, पकड़ भी जाएगा। और जिसका हाथ ईश्वर के हाथ
में आ गया, उसके प्राण भी ईश्वर के प्राण के साथ एक होने
लगते हैं। सेतु बन गया हो जिसका, सत्संग करना उसके साथ।
संत
को हम इसीलिए तो संत कहते हैं। संत का अर्थ होता है, जिसके जीवन में सत्य उतर
आया। सत्य जिसका जीवन बन गया, वही संत। संत का सत्संग करना,
पंडित—पुरोहित के पीछे मत घूमते रहना। पुरोहित तो तुम्हारा
नौकर—चाकर है। तुम सौ रुपये देते हो तो आकर तुम्हारे घर में पूजा कर जाता है। तुम
सौ रुपये न दोगे, नमस्कार कर लेगा! अगर कोई रुपये न देगा,
पूजा—पाठ बंद हो जाएगा, कभी न ही करेगा। उसे
पूजा—पाठ से प्रयोजन नहीं है, नौकरी बजा रहा है।
एक
अमीर आदमी अपने बगीचे में बैठा था, अपने एक दोस्त से बात कर रहा था।
वह अमीर आदमी अपने दोस्त से बातचीत करते—करते बोला कि एक बात बताऔ, स्त्री के साथ संभोग करने में कितना तो काम है और कितना आनंद है? कितना तो बोझरूप है, काम जैसा और कितना खेल जैसा है,
सुखरूप? उसके मित्र ने कहा, पचास प्रतिशत तो काम है—बोझरूप, करना पड़ता है,
ऐसा—और पचास प्रतिशत खेल है, सुखरूप। लेकिन वह
अमीर बोला कि नहीं मैं तो मानता हूं कि नब्बे प्रतिशत काम जैसा है और दस प्रतिशत
ही खेल जैसा है।
पास
ही बूढ़ा माली काम कर रहा था'। दोनों ने उसे बुलाया और कहा कि इस बूढे माली
से पूछो, यह क्या कहता है? उससे पूछा
कि के माली, हम दोनों में विवाद चल रहा है, संभोग में कितना तो सुख है और कितना काम है? मैं
कहता हूं, नब्बे प्रतिशत काम है और दस प्रतिशत सुख है;
और मेरे मित्र कहते हैं, पचास--पचास प्रतिशत,
तू क्या कहता है? उस के माली ने कहा, मालिक, सौ प्रतिशत सूख है। अगर सौ प्रतिशत न होता,
तो आप हम नौकरों से करवा लेते। अगर काम होता, तो
आप नौकर—चाकर रख लेते।
तुम
प्रेम के लिए नौकर—चाकर नहीं रखते, लेकिन प्रार्थना के लिए रखते हो। और
प्रार्थना प्रेम की अंतिम घटना है। तुम जब प्रेम करते हो तो खुद करते हो, नौकर—चाकर नहीं रखते, लेकिन जब प्रार्थना, तो पंडित रख लेते हो। प्रार्थना को तुम दूसरे से करवा रहे हों—नौकर—चाकर
से। तो अगर तुम्हारी प्रार्थना कभी परमात्मा तक नहीं पहुंचती तो कुछ आश्चर्य है!
प्रार्थना
तो प्रेम है,
वह तो प्रेम की परमदशा है। तुम करोगे तो ही पहुंचेगी। बिचवइयों का
काम नहीं है, दलालों का काम नहीं है।
फिर
दलाल की उत्सुकता तो तुमसे जो पैसा मिल रहा है उसमें है। तुम सौ रुपये देते हो तो
वह आधा घंटा करता है,
दो सौ देने लगो तो घंटेभर कर दे, तुम पांच सौ
दे दो तो दिनभर करता रहे। और तुम बिलकुल न दो तो फिर एक दफे भी नहीं आएगा
प्रार्थना करने, मंदिर की घंटी न बजेगी, पूजा का थाल न सजेगा, फूल न चढ़ाए जाएंगे। तो यह
पंडित जो पूजा कर रहा है, पुरोहित जो पूजा कर रहा है,
यह पूजा भगवान की है कि धन की हो रही है? तुम
जब तक पैसा देते हो तब तक ठीक, तब तक भगवान है और भक्ति है
और स्तुति है, सब है; और जैसे ही पैसा
गया कि सब समाप्त हुआ।
मैंने
एक रूसी कहानी सुनी है। किस्सा एक के रूसी किसान का है। सभी रूसी किसानों की तरह
उसका भी जीवन कठिनाइयों से भरा था। वर्षों तक वह और उसकी बीबी अपने दो बेटों के
साथ एक कोठरी में रहते थे। फिर एक बेटा फौज में चला गया और मोर्चे पर मारा गया।
दूसरे बेटे ने दूर के किसी शहर में नौकरी कर ली। कुछ वक्त बाद जब बीबी भी चल बसी
तो ग्राम—सोवियत ने वह कोठरी उससे छीनकर एक नवदंपति को दे दी और एक पड़ोसी के कमरे
में कोने में पर्दा लगवाकर उसके रहने की व्यवस्था कर दी। सत्तर साल की जिंदगी में
पहली बार किसान के दिल में विद्रोह की चिनगारी सुलगी।
साल
में दो बार, मई दिवस और क्रांति की वर्षगांठ पर गांव की सड़क झंडियों और प्लेकार्डों से
सज उठती थी, जिन पर लिखा होता था—लेनिन जिंदा हैं; लेनिन जिंदा हैं, जिंदा थे और जिंदा रहेंगे। इस बार
यह शब्द पढ़कर के किसान के मन में आया कि क्यों न मास्को जाकर सर्व शक्तिमान लेनिन
से ही कमरा वापस दिलवाने की प्रार्थना करूं! वैसे जीवनभर कभी वह अपने गांव से चंद
मील से ज्यादा दूर नहीं गया था। मगर उसने कुछ मांगकर, कुछ
उधार लेकर किराया जुटाया और रेल में चढ़कर मास्को जा पहुंचा।
मास्को
में भी पूछताछ करता हुआ सौभाग्य से कम्यूनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति के एक बड़े
पदाधिकारी के सामने हाजिर हो गया। उसे सारा किस्सा सुनाकर बोला, मुझे
लेनिन साहब से मिलवा दीजिए, ताकि मैं उनसे कहूं कि वे खुद
मेरा कमरा मुझे वापस दिलवाएं। अधिकारी हक्का—बक्का रह गया। फिर अपना आश्चर्य
छिपाकर उसने किसान को बताया कि लेनिन तो कभी के मर चुके हैं।
अब
हक्का—बक्का होने की बारी किसान की थी। अफसर ने उसे समझाया कि लेनिन का शव लाल चौक
में उनके मकबरे में रखा हुआ है। लेकिन किसान अड़ा रहा, उसने कहा,
मगर झंडे पर तो साफ लिखा होता है कि लेनिन जिंदा हैं, जिंदा थे और जिंदा रहेंगे। और सदा जिंदा रहेंगे। अधिकारी ने बड़े सब से उसे
समझाना शुरू किया कि इसका अर्थ सिर्फ यह है कि लेनिन की प्रेरणा जिंदा है और वह
हमारा मार्गदर्शन कर रही है। अधिकारी काफी भावावेग के साथ बोलता रहा। जब वह बोल
चुका, तो किसान चुपचाप उठकर चल दिया। दरवाजे पर पहुंचकर वह
पलटा और अधिकारी से बोला, अब मैं समझ गया साहब, जब आपको जरूरत पड़ती है, लेनिन जिंदा हो उठते हैं,
और जब मुझे जरूरत होती है, लेनिन मर जाते हैं।
पंडित—पुजारी
को तो परमात्मा की जरूरत है किसी कारण से। इसे खयाल में लेना। उन्नीस सौ सत्रह में
रूस में क्रांति हुई,
उसके पहले रूस ऐसा ही धार्मिक देश था जैसा भारत। बड़े चर्च थे,
बड़े पादरी थे, बड़े पूजागृह थे और लोग बड़े
धार्मिक थे। फिर क्रांति हो गयी और दस वर्ष के भीतर सब चर्च गायब हो गए, सब पूजा गायब हो गयी, सब पंडे —पुरोहित गायब हो गए
और रूस नास्तिक हो गया। यह भरोसे की बात नहीं कि दस साल में इतनी जल्दी सब धार्मिक
लोग अधार्मिक हो गए!
एक
कम्यूनिस्ट मुझसे बात कर रहा था, वह कहने लगा, आप कहिए यह
कैसे हुआ? तो मैंने कहा, यह इसीलिए हो
सका कि वे धार्मिक थे ही नहीं। धार्मिक होते तो इससे क्या फर्क पड़ता था कि राज्य
बदल गया, राजनीति बदल गयी, कुछ फर्क न
पड़ता। धार्मिक थे ही नहीं। सब झूठा धर्म था। पंडित—पुरोहित तो नौकरी में था। जब
भगवान से नौकरी मिलती थी, भगवान के नाम पर नौकरी मिलती थी,
भगवान की ही स्मृति गाता था। जब लेनिन के नाम पर नौकरी मिलने लगी,
तो वह लेनिन की भाति गाने लगा। पहले वह कहता था, बाइबिल लिए घूमता था सिर पर, फिर दास केपिटल,
मार्क्स की किताब लेकर घूमने लगा। यह वही का वही आदमी है। तब भी
मैं। करी में था, अब भी. नौकरी में है। और जनता को न तब मतलब
था, न अब मतलब है। तब जनता सोचती थी किं भगवान की पूजा करवा
लेने से कुछ लाभ होगा, तो पूजा करवा लेती थी। अब सोचती है कि
कम्यूनिस्ट पार्टी के झंडे पर फूल चढ़ाने से लाभ होता है, लेनिन
के मकबरे पर जाने से लाभ होता है, तो यह कर लेती है।
लोग
धार्मिक कहां हैं?
पंडित—पुरोहित झूठा है, और उसके पीछे चलने
वाले लोग झूठे हैं।
तुम
इस झूठ में मत पड़ जाना। अगर तुम्हें सत्य की सच में तलाश हो, तो बिचवइए
मत खोजना, मध्यस्थ मत खोजना, परमात्मा
के सामने सीधे खड़े होना। और अगर तुम्हें लगे कि किसी के जीवन में कहीं किरण उतरी
है, तो उस किरण का संग — साथ करना। संत के साथ रहोगे तो
तुम्हें बदलना पड़ेगा। पंडित—पुरोहित के साथ रहोगे तो पंडित—पुरोहित तुम्हारी सेवा
कर रहा है, वह तुम्हें कैसे बदलेगा?
पंडित—पुरोहित
तुम्हारा नौकर—चाकर है,
तुम्हें नहीं बदल सकता। तुम जो चाहते हो, वही
कर देता है। तुम्हारी चाह से जो चलता है, वह तुम्हें नहीं
बदल सकता।
केवल
संतो के साथ बदलाहट संभव है। क्योंकि तुमसे उन्हें कुछ लेना—देना नहीं है।
तुम्हारी प्रशंसा की भी अगर उनको जरूरत है, तो तुम समझना कि तुम गलत आदमी के
पास हो। तुम्हारी स्तुति की भी मांग है, तो तुम समझना कि
यहां कुछ होने वाला नहीं है। उस आदमी को खोजना, जिसको तुमसे
कुछ भी नहीं लेना है—न तुम्हारी स्तुति, न तुम्हारी प्रशंसा,
जो तुम्हारी चिंता ही नहीं करता, जो तुम्हारे
मंतव्यों की भी फिकर नहीं करता, तुम उसे आदर देते हो कि
अनादर, इसकी भी फिकर नहीं करता, तुमसे
कुछ प्रयोजन ही नहीं रखता। ऐसे किसी आदमी के पास अगर बैठना सीख लिया, तो शायद तुम्हें ईश्वर की हवा का झोंका धीरे— धीरे लगना शुरू हो जाए।
जिसकी खिड़की खुली है, उसके पास बैठने से तुम्हें भी हवा का
झोंका लगेगा। सदगुरु खोजना।
पांचवां प्रश्न:
भगवान कल आपने भगवान बुद्ध के जीवन में सुंदरी
परिव्राजिका के प्रसंग पर प्रकाश डाला। कुछ ही वर्ष पूर्व आपसे दीक्षित, एक जापानी
लड़की को माध्यम बनाकर पत्रों और समाचार पत्रों के जरिये पूरे देश में आपके
विरूद्ध जो कुत्सित प्रचार किया गया था, क्या वह भी पंडितों,
पुरोहितो और तथाकथित
महात्माओं का करिश्मा था? आप भी तो उस पर चुप ही रहे थे।
क्यों? और उसकी परिणति क्या हुई?
पूछा है आनंद
मैत्रेय ने।
ज्यादा
जानना हो उस संबंध में,
तो या तो श्री सत्य साईंबाबा या बाबा मुक्तानंद से पूछना चाहिए।
विस्तार उन्हें मालूम है। और मैं तब भी चुप रहा था और अब भी चुप रहूंगा। कुछ बातें
हैं जो केवल चुप्पी से ही कही जा सकती हैं।
परिणति
पूछते हो कि क्या हुई?
परिणति
यह हुई कि वह जापानी युवती अब आने का विचार कर रही है, वापस लौट
आने का। संकोच से भरी है, डरती है, क्योंकि
उसने इस पूरे षड्यंत्र में हाथ बंटाया, अब डरती है कि यहां
कैसे आए! तड़फती है आने को।
यहां
कुछ जापानी मित्र हैं,
उनसे मैं कहूंगा कि वापस जापान जाओ तो उसको कहना कि घबडाए न और वापस
आ जाए। न तो यहां कोई उससे कुछ कहेगा, न कोई कुछ पूछेगा। जो
हुआ, हुआ। मुझे तो कुछ हानि नहीं हुई, मुझे
कुछ हानि हो नहीं सकती, ऐसा कुछ भी नहीं है जो तुम मुझसे छीन
सको। जो मेरा है वह मेरा इतना है कि उसे —तुम मुझसे छीन नहीं सकते; उसे मैंने तुमसे लिया नहीं है। तुम सम्मान दो कि अपमान, इससे जरा भी भेद नहीं पड़ता। तुम्हारा अपमान और सम्मान, सब, दोनों बराबर हैं। मेरी प्रतिष्ठा तुम पर आधारित
नहीं है। मेरी प्रतिष्ठा मेरी आत्म—प्रतिष्ठा है। मेरी जडें मेरे अपने भीतर हैं,
तुमसे मैं रस नहीं लेता। इसलिए तुम अगर रस न दो तो मेरी कोई हानि
नहीं होती। इसलिए मैं चुप रहा।
लेकिन
दया उस लड़की पर आती है। वह नाहक झंझट में पड़ गयी। उसका जरूर बहुत नुकसान हुआ। तो
जापानी मित्र यहां हैं,
जब वे वापस जाएं तो उसे खोजें और उसको कह दें कि वह आ जाए, यह उसका घर है। और ऐसी भूल—चूक तो आदमी से होती है। इसमें कुछ चिंता लेने
की जरूरत नहीं है। यहां उसे कोई जवाब —सवाल नहीं होने वाला है, न कोई पूछेगा, न कोई उसे सताएगा, न इसके विरस्तार में जाएगा। इसके विस्तार में जाने का कुछ अर्थ ही नहीं
है। जिन महात्माओं ने उसे राजी कर लिया इस प्रचार के लिए, उन्होंने
मेरा तो कुछ नुकसान नहीं किया, पी कन उस लड़की के जीवन को
बुरी तरह नुकसान पहुंचा दिया।
जिन्होंने
उसे राजी किया,
उन महात्माओं पर तो उसकी श्रद्धा कभी हो नहीं सकती, और जिस पर श्रद्धा थी, उस पर नाहक श्रद्धा को खंडित
करवा दिया। लेकिन इस तरह खंडित होती भी नहीं श्रद्धा। आ गयी होगी लोभ में। उसे
कठिनाइयां थीं, वह लोभ में आ गयी होगी। वह विद्यार्थी थी,
पैसे की अड़चन थी, उसे पढ़ना था ताभी, वह संस्कृत पढ़ना चाहती थी, वर्षों का काम था,
एक पैसा उसके पास नहीं था, आ गयी होगी लोभ
में।
लेकिन
लोभ में आने के कारण इन महात्माओं के प्रति सम्मान तो नहीं हो सकता। और सिर्फ लोभ
के कारण उसने जो कह दिया,
उसके कारण जो कहा है बह सच्चा है, ऐसा भाव
उसके भीतर तो नहीं हो सकता। उसे सुनकर चाहे किसी और ने मान लिया हो कि यह सच्चा है,
लेकिन वह स्वयं तो कैसे मान सकती है कि सच्चा है। इसलिए उसकी आत्मा
कचोटती है। उस पर मुझे दया है। तो कोई उस तक खबर पहुंचा दे तो अच्छा है।
आखिरी प्रश्न
मैं भिक्षु वज्जीपुत्त जैसा ही हूं। लेकिन मैं
भागने की तैयारी में नहीं हूं।
पूछा
है सुभाष ने।
पहली
तो बात, यदि तुम स्वीकार कर लो कि मैं भिक्षु वज्जीपुत्त जैसा ही हूं तो तुम
वज्जीपुत्त जैसे न रहे। फर्क शुरू हो गया। बड़ा भेद आ गया। जिसने जाना कि मैं
अज्ञानी हूं उसके ज्ञान की शुरुआत हुई। जिसने जाना कि मैं मूढ़ हूं, अब मूढ़ता टूट जाएगी। जिसने समझा कि मैं अंधेरे में हूं वह प्रकाश की खोज
में लग ही गया। इसी समझ के साथ पहला कदम उठ ही गया।
यह
समझ लेना कि मैं भिक्षु वज्जीपुत्त जैसा हूं, संन्यासी हूं लेकिन संसार में मेरा
लगाव है, कीमती बात है। यही तो वज्जीपुत्त को पता नहीं था कि
वह संन्यासी है और संसार में उसका लगाव है। यही उसे पता चल जाता तो फर्क हो गए
होते। यह तुम्हें पता चला।
इसीलिए
तो वज्जीपुत्त की कथा कही है कि तुम्हें पता चले। और भी हैं यहां जो वज्जीपुत्त
जैसे हैं, पर उन्होंने नहीं पूछा, सिर्फ सुभाष ने पूछा है। तो
कथा सुभाष तक पहुंची है, सुभाष को लाभ हुआ। बाकी ने सुना
होगा, उन्होंने कहा कि है किसी की कथा, कोई हुआ होगा वज्जीपुत्त, रहा होगा नासमझ, कि संन्यासी हो गया और संसारी बना रहा, हम तो ऐसे
नहीं! उन्होंने बात अपने पर न लगायी होगी। उन्होंने वज्जीपुत्त की बात वज्जीपुत्त
की ही रहने दी होगी। वे चूक गए। सुभाष गुणी है। उसने स्वीकार किया कि मैं
वज्जीपुत्त जैसा हूं। इसी स्वीकृति में भेद पडना शुरू हुआ। और दूसरी बात सुभाष ने
कही है, 'लेकिन मैं भागने की तैयारी में नहीं हूं। ' वह तुम कर न सकोगे। कई कारणों से।
एक
तो सुभाष आलसी। भागने के लिए तो थोड़ा सा, आदमी चाहिए न कि जरा भागने में भी
तो कुछ करना पड़ता है। तुम्हारा आलस्य तुम्हारा भाग्य है। तुम भाग न सकोगे। इससे
आलस्य का लाभ है, घबड़ाना मत। आलसी न होते तो शायद भाग जाते।
सुभाष पक्के आलसी हैं। आलसी—शिरोमणि किसी दिन बन सकते हैं। अष्टावक्र की सुनो तुम,
लाओत्से की गुनो तुम, आलस्य को ही रूपांतरित
करो साधना में, भागना—वागना तुमसे होने वाला नहीं है। भागने
के लिए सक्रियता चाहिए, कर्मठता चाहिए, वह तुम्हारे बस की बात नहीं है।
दूसरी
बात, बुद्ध से भागना जितना आसान था उतना आसान मेरे पास से भागना नहीं है। बुद्ध
कठोर थे। कठोर इस अर्थ में कि उनकी प्रक्रिया कठिन थी। कठोर थे इस अर्थ में कि
उनका मार्ग तपश्चर्या का मार्ग था। मैं कठोर नहीं हूं। मेरा मार्ग सुगम है,
तपश्चर्या का नहीं है। मेरा मार्ग सहजता का है। ही, कभी—कभी जब मैं देखता हूं, किसी व्यक्ति को
तपश्चर्या का मार्ग ही ठीक पड़ेगा, तो उससे मैं कहता हूं—करो।
क्योंकि यही उसके लिए सहज है। खयाल रखना मेरा कारण उससे हा भरने का। ही भरने का
कारण यह नहीं कि मैं तपश्चर्या का पक्षपाती हूं, हा भरने का
कारण इतना ही होता है कि उस आदमी को तपश्चर्या ही सहज है।
किसी
को मैं कभी उपवास के लिए भी ही भर देता हूं कि करो। क्योंकि मैं देखता हूं, उस आदमी
के लिए उपवास जितना सहज है और कोई सहज नहीं। मगर मेरा कारण सदा सहजता होती है। मैं
देख लेता हूं, कौन सी बात सहज है। कौन सी बात तुम्हारे साथ
छंदबद्ध हो जाएगी। कौन सी बात के साथ तुम सरलता से चल सकोगे। तो तुम जो भी करते हो,
मैं उसी में से तुम्हारा मार्ग खोजता हूं। मैं कहता हूं? तुम जहां त्ःएा वहीं से परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है। तुम्हें अन्यथा
होने की जरूरत नहीं है, हो वहीं से यात्रा शुरू कर दो। जैसे
हो वैसे ही यात्रा शुरू कर दो।
बुद्ध
की बात कठोर थी। बुद्ध कहते, पहले तुम्हें ऐसा होना पड़ेगा, तब परमात्मा की यात्रा शुरू होगी।
फर्क
समझना।
वृद्ध
कहते थे कि पहले तुम्हें एक खास चौरस्ते पर आना पड़ेगा, उस
चौरस्ते से रास्ता जाता है सत्य की तरफ। और उस चौरस्ते और तुम्हारे बीच हो सकता है
बहुत फासला हो। वज्जीपुत्त और चौरस्ते के बीच बहुत फासला रहा होगा। वह वहां तक
पहुंच नहीं पा रहा था। मैं कहता हूं कि तुम उस चौरस्ते पर हो ही, जहां से रास्ता जाता है। इसलिए तुम्हें किसी रास्ते को तय करके रास्ते पर
नहीं आना है, रास्ते पर तो तुम हो ही, और
वहीं जो तुम्हारे पास उपलब्ध है, उसी सामग्री का ठीक—ठीक
उपयोग कर लेना है।
तो
मैं शराबी को शराब तक छोड़ने को नहीं कहता। छूट जाती है यह दूसरी बात है— अभी तरु
ने दो दिन पहले अपनी बोतल मेरे पास भेंट करवा दी—छूट जाती है यह दूसरी बात है,
मगर मैंने कभी उससे कहा नहीं था। अब उसने अपने आप भेज दी है बोतल,
खुद जाने! वापस चाहे, मैं वापस दे सकता हूं।
मुझे शराब की बोतल से कुछ झगड़ा नहीं है। शराब की बोतल का क्या कसूर!
उसने
तो कई दफा मुझसे पूछा है कि भगवान कह दें—और मैं जानता था कि मैं कह दूं तो वह
छोड़ेगी भी, मानेगी भी, मेरे कहने की ही प्रतीक्षा थी, लेकिन मैंने कभी उससे कहा नहीं कि छोड़ दे। क्योंकि मेरे कहने से अगर छोड़
दी, तो कठिन हो जाएगी। मेरे कहने से छोड़ दी, तो जबर्दस्ती हो जाएगी। मैं जबर्दस्ती का पक्षपाती नहीं हूं। मैं धीरज रख
सकता हूं। मैंने प्रतीक्षा की—छूटेगी, किसी दिन छूटेगी। अपने
से जब छूट जाए तो मजा है, तो बात में एक सौंदर्य है।
'रब उसने खुद ही अपने हाथ से बोतल मेरे पास भेज दी है। अब मैं बोतल उसकी सम्हालकर
रखे हुए हूं कहीं जरूरत पड़े उसको, फिर? तो मैं सदा वापस देने को तैयार हूं। निःसंकोच भाव से बोतल वापस मायी जा
सकती है। और मेरे मन में तब भी निंदा नहीं होगी कि तुमने बोतल वापस क्यों मांगी?
क्योंकि मेरी सारी चेष्टा यहां ही है कि तुम जितने सहज हो जाओ,
जितने सरल हो जाओ, तुम्हारी सरलता से ही सुगंध
उठने लगेगी, तुम्हारी सरलता से ही तुम सत्य की तरफ पहुंचने
लगोगे।
फिर
सभी लोगों के लिए सरलता अलग— अलग ढंग की होती है, यह खयाल रखना। किसी के लिए
एक बात सरल है, दूसरे के लिए वही बात कठिन हो सकती है। अब
जैसे सुभाष की बात है, सुभाष के लिए आलस्य बिलकुल सहज है।
अगर यह बुद्ध जैसे व्यक्ति के हाथ में पड़ जाए, तो कठिनाई में
पड़ेगा। बुद्ध इसके लिए अलग से व्यवस्था नहीं देंगे। उनकी एक व्यवस्था है, उस व्यवस्था में सुभाष को बैठना पड़ेगा। सुभाष को बड़ी कठिनाई से गुजरना
पड़ेगा। मेरी कोई व्यवस्था नहीं है। मेरे लिए तुम मूल्यवान हो। तुम्हें देखकर
व्यवस्था जुटाता हूं।
इस
फर्क को खयाल में रखना। बुद्ध की एक व्यवस्था है, एक अनुशासन है, एक ढंग है, एक साधना—पद्धति है। मेरी कोई
साधना—पद्धति नहीं है। मेरे पास तुम्हें देखने की एक दृष्टि है। तुम्हें देख लेता
हूं कि तुम आलसी हो, तो मैं कहता हूं—ठीक। तो लिख देता हूं
प्रिस्किृप्शन—लाओत्सु अष्टावक्र, तुम इनके साथ चलो। इनसे
तुम्हारी दोस्ती बनेगी, मेल बनेगा। ये लोग आलसी थे और पहुंच
गए; तुम भी पहुंच जाओगे; मगर इनकी
सुनो। अगर देखता हूं कि कोई आदमी बहुत कर्मठ है कि शांत बैठना उसे आसान ही नहीं
होगा, तो उसे खूब नचाता हूं कि नाचो, कूदो,
चीखो—चिल्लाओ, दौड़ो, योग
करो—कराटे तक की व्यवस्था आश्रम में कर रखी है। कुछ लोग आ जाते हैं, जिनको कि जूझने का मन है, बिना जूझे जिनको शांति
नहीं मिलेगी, उनको कहता हूं—कराटे। चलो, यही सही, कहीं से भी चलो।
इस
कम्यूनिटी में मेरी आकांक्षा प है कि दुनिया में जितने उपाय रहे हैं अब तक और
जितने उपाय कभी और हो सकते हैं भविष्य में, वे सब उपाय उपलब्ध हो जाएं,
ताकि किसी व्यक्ति को किसी दूसरे के उपाय से चलने की अड़चन में न
पड़ना पड़े। वह अपना ही मार्ग चुन ले। इतने अनंत मार्ग हैं, प्रभु
के इतने अनंत मार्ग हैं! प्रभु कंजूस नहीं है कि तुम एक मार्ग से आओगे तो ही
स्वीकार होओगे। प्रभु के अनंत मार्ग हैं। और हर आदमी के लिए कोई न कोई मार्ग है जो
सुगम होगा। मैं उस सुगम की तलाश करता हूं।
तो
तुम मेरे पास से भाग भी न सकोगे, क्योंकि मैं तुम्हें कष्ट ही नहीं देता,
भागोगे कैसे? भागने के लिए भी तो थोड़ा कष्ट
तुम्हें दिया जाना चाहिए। भागने के लिए भी तो तुम्हें थोड़ा सा कारण मिलना चाहिए।
तुम मेरे पास से भागोगे कैसे? मेरे पास से तो केवल वे ही भाग
सकते हैं जो नितांत अंधे हैं, जो नितांत बहरे हैं, जो नितांत जड़ हैं; जो न सुन सकते, न समझ सकते, न मेरा एकर्श अनुभव कर सकते, जिनके जीवन में कोई संवेदना नहीं है, केवल वे ही लोग
भाग सकते हैं।
मगर
वे रहें तो भी कोई सार नहीं है, जाएं तो भी कुछ हानि नहीं है—हानि न लाभ कुछ।
रहें तो ठीक—बेकार रहना—चले जाएं तो ठीक। क्योंकि रहने से कुछ मिलने वाला नहीं था,
जाने से कुछ खोएगा नहीं।
लेकिन
जिनके भीतर थोड़ी भी बुद्धि है— थोड़ी भी बुद्धि है—जिनके भीतर जरा सी भी चेतना है
और जरा संवेदनशीलता है,
वे नहीं भाग सकेंगे। मेरे साथ उलझे। सौ उलझे। फिर यह जन्म—जन्म का
संबंध हुआ। फिर यह चलेगा। यह फिर ऐसा विवाह है, जिसमें तलाक
नहीं होता। इस संन्यास को जरा सोच——समझकर लेना, इससे निकलने
का उपाय नहीं छोडा है।
आज इतना ही।
thank you guruji
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