(जीवन—मृत्यु से
पार है अमृत). प्रवचन—छियालिसवां
सारसूत्र:
विसं जीवितुकामो’ व पापनि
परिवज्जये।।109।।
पाणिम्हि चे वणो
नास्स हरेय्य पाणिना विसं।
नाब्बणं विसमन्वेति
नित्थ पापं अकुब्बतो।।110।।
यो अप्पदुट्ठस्स
नरस्स दुस्सति।
सुद्धस्स पोसस्स
अनंगणस्स।
तमेव बालं पच्चेति
पापं।
सुखमो रजो पटिवातं
व खितो।।111।।
गब्भमेके उप्पज्जन्ति
निरयं पापकम्मिनौ।
सग्गं सुगतिनो
यन्ति परिनिब्बन्ति अनासवा।।112।।
न अन्तलिक्खे न
सुद्दमज्झे
न पब्बतानं विवरं
पविस्स।
न विज्जती सो
जगतिप्पदेसो।
यत्यद्वितो
मुन्चेथ्य पापकम्मा।।113।।
न अन्तलिक्खे न
समुद्दमज्झे
न पबतानं विवरं
पवित्स।
न विज्जती तो
जगतिणदेसो
यत्यडित नयसहेव्य
मच्च्र ।।114।।
आज
का पहला सूत्र,
'छोटे सार्थ, छोटे काफिले वाला और महाधन वाला
वणिक जिस तरह भययुक्त मार्ग को छोड़ देता है, या जिस तरह जीने
की इच्छा रखने वाला व्यक्ति विष को छोड़ देता है, उसी तरह
पापों को छोड़ दै।
इसके
पहले कि हम सूत्र को समझें,
पाप के संबंध में कुरछ बातें ध्यान ले लेनी जरूरी हैं। समस्त
बुद्धपुरुष कहते हैं, पाप जहर के जैसा है, मृत्यु जैसा है, अग्नि में जलने जैसा है, फिर भी लोग पाप किए जाते हैं। अगर अग्नि में जलने जैसा ही है, तो अग्नि में तो इतने लोग इतनी आतुरता से अपने को जलाते हुए मालूम नहीं
पड़ते। अगर विष जैसा ही है, तो विष पीकर तो लोग इतने ज्यादा
पीड़ित होते दिखायी नहीं पड़ते। फिर पाप में आकर्षण क्या है?
बुद्धपुरुष
कहते हैं—ठीक ही कहते होंगे—कि अग्नि जैसा है, विष जैसा है, लेकिन मनुष्य को दिखायी नहीं पड़ता कि अग्नि जैसा है, विष जैसा है। बुद्धपुरुषों की बात सुनकर भी आदमी वही किए चला जाता है।
हजार बार अपने अनुभव से भी पाता है कि शायद बुद्धपुरुष ठीक ही कहते है, फिर भी अनुभव को झुठलाता है और वही किए चला जाता है। तो समझना होगा।
इतना
प्रबल आकर्षण! आग में जलने का ऐसा आकर्षण तो किसी को भी नहीं है। कभी—कभार कोई आग
मैं जलकर मर जाता है। वह भी या तो भूल से, और या आत्मघाती होता है। लेकिन
अपवाद रूप। पाप के संबंध में तो हालत उलटी है, कभी—कभार कोई
बच पाता है।
अगर
सौ में से निन्यानबे लोग आग में जलकर मरते हों, तो उसे फिर अपवाद न कह सकेंगे। वहू
तो नियम हो जाएगा। और जो एक बच जाता हो, उसे क्या नियम का
उल्लंघन कहोगे? उससे तो सिर्फ नियम सिद्ध ही होगा। वह जो एक
बच जाता है, इतना ही बताएगा कि भूल—चूक से बच गया होगा। जब
निन्यानबे जल मरते हों और एक बचता हो, तो एक भूल से बच गया
होगा। ही, जब एक जलता हो और निन्यानबे बचते हों, तो एक भूल से जल गया होगा।
पाप
के संबंध में हालत बड़ी उलटी है। आकड़े बड़े उलटे हैं। कहीं कोई बुनियादी बात खयाल से
छूटती जाती है। उसे खयाल में लेना जरूरी है।
पहली
बात, जब बुद्धपुरुष कहते हैं पाप अग्नि जैसा है, तो वे यह
नहीं कह रहे हैं कि तुम्हें भी समझ में आ जाएगा कि पाप अग्नि जैसा है। वे यह कह
रहे हैं कि उन्होंने जागकर जाना कि पाप अग्नि जैसा है। सोकर तो उन्हें भी पाप में
बड़े फूल खिलते मालूम होते थे। सोकर तो उन्हें भी पाप बड़ा आकर्षक था, बड़ा नियंत्रण था उसमें, बड़ा बुलावा था। बुलावा इतना
सघन था कि आग की जलन और आग से पड़े घाव भी फूलों में ढंक जाते थे। बुद्धपुरुष यह कह
रहे हैं, जो जागा, उसने जाना कि पाप आग
जैसा है। सोए हुए का यह अनुभव नहीं है।
इसलिए
तुम बैठकर यह मत दोहराते रहना कि पाप अग्नि जैसा है, विष जैसा है। इसके दोहराने
से कुछ भी लाभ न होगा। इसे तो सदियों से आदमी दोहराता है। तोतों की तरह याद भी हो
जाता है, लेकिन जब भी जीवन में कोई घड़ी आती है, सब याददाश्त, सब रटंत व्यर्थ हो जाती है। जब भी कोई
जीवन में सक्रिय क्षण आता है, पाप पकड़ लेता है। निक्किय
क्षणों में हम पुण्य की बातें सोचते हैं। नपुंसक क्षणों में हम पुण्य की योजनाएं
बनाते हैं। ऊर्जा के, शक्ति के क्षणों में पाप घटता है। ऐसा
लगता है, पुण्य की हमारी योजनाएं व्यर्थ के समय को भर लेने
का उपाय हैं। खेल—खिलौने हैं। जब कुछ करने को नहीं होता, तब
हम उनसे खेल लेते हैं। जब पाप करने को नहीं होता, तब हम
पुण्य की बातें करके अपने को समझा लेते हैं। जब करने की बात उठती है, तब पाप होता है। जब सोचने तक की बात हो, तब तक पुण्य
का हम विचार करते हैं। पापी से पापी भी विचार तो पुण्य के ही करता है।
इसलिए
विचारों के धोखे में मत आ जाना। अगर बहुत पुण्य का सोचते हो, इससे यह
मत सोच लेना कि तुम पुण्यवान हो गए। और बुद्धपुरुषों के वचनों को दोहराकर समझ लेना
कि तुम समझ गए उन्होंने जो कहा था। उनकी बात तुम्हें समझ में त आएगी जब तुम जागोगे।
तो
जब वे कहते हैं,
पाप अग्नि जैसा है, तुम इस उधार को —मान मत
लेना। तुम तो जानना कि पाप अभी मुझे अग्नि जैसा दिखायी नहीं पड़ता। अभी तो मुझे पाप
में बड़ा आमंत्रण है, बड़ा रस है। अभी तो पाप मुझे भोग का
बुलावा है। जहर नहीं, अमृत है। तुम अपने को मत झुठलाना। तुम
बुद्धपुरुषों के वचनों को मत ओढ़ लेना, अन्यथा भटक जाओगे। तुम
तो कहे जाना कि मेरा अनुभव तो यही है कि पाप बड़ा प्रीतिकर है। आप कहते हैं,
ठीक कहते होंगे, लेकिन मुझे दिखायी नहीं पड़ता।
अगर
तुमने यह याद रखी कि तुम्हारे पास आंख नहीं है, तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता, तो तुम्हारे जीवन की प्रक्रिया में बदलाहट होगी। बदलाहट यह होगी कि तुम
पाप छोड़ने की फिक्र न करोगे, आंख पैदा करने की फिक्र करोगे।
और वहीं सारा.. सारी चीज वहीं निर्भर है। अगर तुमने पाप को छोड़ने की फिकर की,
तुम भटके। तुम भूले। अगर तुमने आंख को बदलने की कोशिश की, तो तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित होगी।
जब
तुम बुद्धों के वचन सुनो,
तब तौलते रहना कि तुम्हारे अनुभव से मेल खाते हैं? और तुम अपने ऊपर किसी को भी कभी मत रखना, क्योंकि
उधार ज्ञान जावन में क्रांति नहीं लाता। शास्त्र कितने ही सुंदर हों, सुंदर ही रह जाते हैं, सृजनात्मक नहीं हो पाते। उनके
वचन कितने ही प्यारे लगते हों, बस मन का ही भुलावा है,
तुम्हारी वस्तुस्थिति को रूपांतरित नहीं कर पाते।
तो
याद रखना अपनी। बुद्धों के वचन सुनने में बड़े से बड़ा खतरा यही है कि उनके वचन
तर्कयुक्त हैं,
उनके वचन सत्ययुक्त हैं, उनके वचन अनुभव से
सत्य सिद्ध हुए हैं, उनके वचन कोई सिद्धात नहीं हैं, उनके जीवन की प्रक्रिया से आविर्भूत हुए हैं, उनका
प्रभाव होगा; लेकिन प्रभाव को तुम अपने जीवन का आधार मत बना
लेना। उनसे प्रेरणा मिलेगी, लेकिन उस प्रेरणा को मानकर तुम
गलत दिशा में मत चले जाना। गलत दिशा है कि तुमने मान लिया कि ही, पाप बुरा है। अब तुम पाप से बचने की चेष्टा शुरू कर दोगे। और अभी तुमने
जाना ही न था कि पाप बुरा है। जानने के लिए तो पहले आंख खुलनी चाहिए। पहली बात।
दूसरी
बात, जब बुद्धपुरुष कहते हैं, पाप अग्नि जैसा है, जहर जैसा है, तो तुम यह मत समझना कि वे पाप की निंदा
कर रहे हैं। धर्मगुरु करते हैं। दोनों के वचन एक जैसे हैं; इससे
बड़ी भ्रांति होती है। धर्मगुरु जब कहता है, पाप जहर है,
तो वह निंदा कर रहा है। जब बुद्ध कहते हैं, पाप
जहर है, तो केवल तथ्य की सूचना दे रहे हैं। पाप को जहर कहने
में उन्हें कुछ मजा नहीं आ रहा है। पाप को जहर कहने में उनकी कोई दबी हुई कामना
नहीं है। जब धर्मगुरु कहता है, पाप जहर है, तो वह तथ्य की घोषणा नहीं कर रहा है। वह यह कह रहा है कि मेरे भीतर पाप के
प्रति बड़ा आकर्षण है, मैं जहर—जहर कहकर ही उस आकर्षण को किसी
तरह रोके हुए हूं।
धर्मगुरु
की आंखों में तुम गौर से देखना जब वह पाप को जहर कहता है, तो उसकी आंखों
में वही भाव नहीं होता जब वह कहेगा दो और दो चार होते हैं। आंखों में फर्क होगा।
जब वह कहता है, दो और दो चार होते हैं, तो आंखों में कोई रौनक नहीं होती, कोई भावावेश नहीं
होता। वह उत्तेजित नहीं होता। दो और दो चार होते हैं, इसमें
उत्तेजित होने की बात ही क्या है? लेकिन जब वह कहता है,
पाप अग्नि है, जहर है, तब
तुम पाओगे कि उसकी आंख में उत्तेजना आने लगी। पाप का शब्द ही उसके भीतर किसी चीज
को डगमगाने लगा। पाप का शब्द ही उसके भीतर किसी रस को उठाने लगा। जब वह तुमसे कहता
है, पाप बुरा है, तो वह अपने से कह रहा
है—पाप बुरा है, सम्हलो। जितने जोर से वह पाप की निंदा करता
है, उतने ही जोर से वह खबर देता है कि भीतर उसके पाप के
प्रति बड़ा आकर्षण है।
धर्मगुरु
से तुमने अगर पाप के संबंध में समझा, तो तुम गलत रास्ते पर जाओगे।
तुम्हें धर्मगुरु की बात ठीक भी लगेगी और तुम उसे कभी पूरा कर भी न पाओगे। यात्रा
ही गलत शुरू हो गयी।
मैंने
सुना है चर्चिल ने दूसरे महायुद्ध के संस्मरण लिखे हैं—हजारों पृष्ठों में, छह भागों
में—किसी युद्ध के इतने विस्तीर्ण संस्मरण लिखे नहीं गए। फिर चर्चिल जैसा अधिकारी
आदमी था, जो युद्ध के मध्य में खड़ा था। अक्सर युद्ध करने
वाले और इतिहास लिखने वाले और होते हैं। इस मामले में इतिहास लिखने वाला और बनाने
वाला एक ही आदमी था।
चर्चिल
ने अपने हजारों पृष्ठों में रूजवेल्ट, स्टैलिन और अपने संबंध में बहुत सी
बातें लिखी हैं। उसमें रूजवेल्ट और चर्चिल दोनों आस्तिक थे, स्टैलिन
नास्तिक था। और तीनों ने ही हिटलर के खिलाफ युद्ध लड़ा।
हजारों
पृष्ठों में खोजोगे,
तुम चकित हो जाओगे. सिर्फ स्टैलिन कभी—कभी भगवान का नाम लेता है। न
तो रूजवेल्ट नाम लेता है, न चर्चिल नाम लेता है। स्टैलिन
बहुत बार कहता है, अगर भगवान ने चाहा, तो
युद्ध में विजय होगी। होना उलटा था। रूजवेल्ट नाम लेता, चर्चिल
नाम लेता भगवान का—दोनों आस्तिक थे। स्टैलिन नाम लेता है। रूजवेल्ट, चर्चिल उल्लेख ही नहीं करते भगवान का। मनोवैज्ञानिक कारण है। स्टैलिन दबाए
हुए बैठा है। जिसको दबाए हुए बैठे हो, वह उभर—उभरकर आएगा।
उससे छुटकारा नहीं हुआ है, दबाने के कारण तुम और उससे बंध गए
हो। संकट की घड़ी में बाहर आ जाएगा।
लेनिन
ने तो ईश्वर के खिलाफ बहुत बातें लिखी हैं। उन्नीस सौ सत्रह की क्रांति में जब एक
ऐसी घड़ी आ गयी कि इस तरफ या उस तरफ हो जाएगी स्थिति, क्रांति जीतेगी या हारेगी
तय न रहा, तो लेनिन ने जो वक्तव्य दिया उसमें उसने तीन बार
कहा कि अगर भगवान की कृपा हुई, तो हम क्रांति में विजयी हो
जाएंगे। फिर उसने जिंदगीभर कभी नाम न लिया। मइr उसके पहले
लिया था, न उसके बाद में लिया। लेकिन क्रांति की उस दुर्घटना
की घड़ी में जैसे होश खो गया, जो दबा पड़ा था वह बाहर आ गया!
माओ
उन्नीस सौ छत्तीस में बीमार पड़ा। इस समय पृथ्वी पर बड़े से बड़े नास्तिकों में एक है।
और जब बीमार पड़ा तो घबड़ा गया। जब मौत सामने दिखी तो घबड़ा गया। तत्कण कहा कि मैं
किसी से दीक्षा लेना चाहता हूं; और एक साध्वी को बुलाकर दष्टी ली। ठीक हो गया,
फिर भूल गया साध्वी को भी, दीक्षा को भी।
लेकिन मौत की घड़ी में दीक्षा!
रूस
का सबसे बड़ा नास्तिक जो वहा नास्तिकों के समाज का अध्यक्ष था, जब वह मरा,
स्टैलिन उसकी शथ्या के पास था। मरते वक्त उसने आंख खोलीं और उसने
कहा कि स्टैलिन, सुनो, वह है! परमात्मा
है! सामने खड़ा है, मैं उसे देख रहा हूं। तुम मेरी सारी
किताबों में आग लगा देना। याद रखना, यह मेरा आखिरी वचन है कि
ईश्वर है। वह मेरे सामने खड़ा है और कहता है कि मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था।
जरूरी
नहीं है कि ईश्वर खड़ा रहा हो। ईश्वर बड़े—बड़े आस्तिकों के सामने भी
मरते वक्त इतनी
आसानी से खड़ा नहीं हुआ है,
तो इस नास्तिक के सामने खड़ा रहा होगा! नहीं, इसके
भीतर दबा हुआ भाव। जिंदगीभर लड़ता रहा भीतर की किसी आकांक्षा से। जिससे तुम लड़ते हो,
उसे तुम प्रबल करते हो।
तुमने
अगर धर्मगुरु से पाप के संबंध में बातें सुनीं, तुम्हारा पाप प्रबल होता चला जाएगा।
धर्मगुरु ने पृथ्वी को पापों से मुक्त नहीं किया, पापों से
भर दिया है।
यह
बात तुम्हें जरा उलटी मालूम पड़ेगी। यह दुनिया कम पापी हो, अगर मंदिर
और मस्जिद यहां से उठ जाएं। यह दुनिया कम पापी हो, अगर पंडित
और पुरोहित पाप की निंदा न करें। क्योंकि निंदा से दमन होता है। दमन से रस बढ़ता है।
जिस चीज के लिए भी तुमसे कह दिया मत करो, उसके करने के लिए
एक गहरी आकांक्षा पैदा हो जाती है। लगता है, जरूर करने में
कुछ होगा, अन्यथा कौन कहता है मत करो! जरूर करने में कुछ
होगा। जब सारी दुनिया कहती है मत करो, सभी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे कहते हैं मत करो, सभी पंडित—पुरोहित कहते हैं मत करो, जब इतने लोग
कहते हैं मत करो, तो करने में जरूर कोई बात होगी, कोई रस होगा। अन्यथा कौन चिंता करता था!
बुद्धपुरुष
जब कहते हैं,
पाप अग्नि है, जहर है, तो
वे सिर्फ केवल तथ्य की उदघोषणा कर रहे हैं। उनके वक्तव्य में कोई विरोध नहीं है,
कोई निंदा नहीं है। जैसे अगर मैं तुमसे कहूं आग जलाती है, तो मैं सिर्फ तथ्य की सूचना दे रहा हूं। तुम्हें जलना हो, हाथ डाल लेना। तुम्हें न जलना हो, मत डालना। मैं
तुमसे यह नहीं कहता कि मत डालो। हाथ मत डालो, यह मैं तुमसे
नहीं कहता। मैं तुमसे कहता हूं, यह आग जलाती है। अब तुम्हारे
ऊपर निर्भर है, तुम्हें हाथ जलाना हो तो आग में हाथ डाल लेना,
न जलाना हो मत डालना।
बुद्धपुरुष
केवल तथ्य की उदघोषणा करते हैं। उनकी उदघोषणा में कोई भावावेश नहीं है। तो जब
बुद्ध इन वचनों को कह रहे हैं, तो यह खयाल रखना। तुम यह मत सोच लेना कि वे
तुमको डरवाने के लिए कह रहे हैं कि पाप अग्नि है। डराकर कहीं कोई मुक्त हुआ है! भय
से कहीं कोई पुण्य को उपलब्ध हुआ है! भय से कभी कोई भगवान को पहुंचा। न वे निंदा
कर रहे हैं, पाप के विरोध में भी नहीं हैं। विरोध में होने
योग्य भी क्या है पाप में!
वे
सिर्फ इतना कह रहे हैं,
यहां गड्डा है। अगर सम्हलकर न चले, गिरोगे।
अगर गिरना हो तो गैर—सम्हलकर चलना। अगर न गिरना हो, सम्हलकर
चलना। उनकी तरफ से कोई आदेश नहीं है।
जैन
शास्त्रों में एक बड़ी मधुर बात है। जैन शास्त्र कहते हैं, तीर्थंकर
के वचनों में उपदेश होता है, आदेश नहीं।
यह
बात बड़ी प्रीतिकर है। उपदेश का मतलब होता है, वे केवल कह देते हैं, ऐसा है। आदेश नहीं कि ऐसा करो। धर्मगुरु के वचन में आदेश होता है, तीर्थंकर के वचन में मात्र उपदेश होता है। आदेश का मतलब है, धर्मगुरु कह रहा है कि मेरी कुछ योजना है, उसके
अनुसार चलो। मेरी मानो। मैं जो कहता हूं वैसा आचरण करो। भाषा तो एक ही दोनों उपयोग
करते है, इसलिए बड़ी भूल हों जाती है।
तो
धम्मपद के इन वचनों को तुम तथ्य निरूपक मानना। ये उपदेश हैं। इनमें कोई आदेश नहीं।
तुम जरा सोचो,
जैसे ही मैं कहता हूं इनमें कोई आदेश नहीं है, तुम्हारे भीतर से कुछ चीज हट जाती है। अगर नहीं करने का जोर नहीं है,
तो करने का मजा ही हट जाता है।
'छोटे सार्थ, जिनके पास छोटा सा काफिला है, लेकिन धन बहुत है, ऐसा व्यवसायी भययुक्त मार्ग को
छोड्कर चलता है। या, जिस तरह जीने की इच्छा रखने वाला
व्यक्ति विष को छोड़ता है, उसी तरह पापों को छोड़ दे।
ध्यान
रखना, इसमें छोड़ने पर जोर नहीं है। इसमें बात कुल इतनी ही है कि अगर तुम चाहते
हो कि जीना है, तो फिर विष तुम्हारे काम का नहीं। मरना हो,
तो विष ही काम का है। अगर तुम चाहते हो कि लुटना नहीं है, तो भययुका रास्तों को छोड़ देना उचित है। अगर तुम चाहते हो कि लुटने का मजा
लेना है, तो भूलकर भी भययुक्त रास्तों को छोड़ना मत।
और
बुद्ध केवल इतना कह रहे हैं कि तुम्हारे पास सामर्थ्य तो कम है और धन बहुत है। समय
तो कम है और संपत्ति बहुत है। सुरक्षा का उपाय तो कम है और तुम्हारे भीतर बड़े मणि—माणिक्य
हैं।
प्रत्येक
बच्चा परमात्मा की संपत्ति को लेकर पैदा होता है। वह संपत्ति इतनी बड़ी है कि उसकी
रक्षा करना ही मुश्किल है। और उपाय रक्षा करने का कुछ भी नहीं है। संपत्ति कुछ ऐसी
है कि उस पर तुम पहरा भी नहीं बिठा सकते। संपत्ति कुछ ऐसी है कि सैनिक संगीनधारी
भी उसे बचा न सकेंगे। संपत्ति कुछ ऐसी है कि तुम्हारा होश ही पहरा बन सकता है, अन्यथा
तुम गंवा दोगे।
पाप
तुमसे कुछ छीन लेता है जो तुम्हारे पास था। पाप तुम्हें देता कुछ भी नहीं, तुम्हें
रिक्त कर जाता है। पाप के क्षणों के बाद अगर तुम थोड़ा भी विमर्श करोगे, विचार करोगे, तो तुम पाओगे, तुम
रिक्त हुए, दरिद्र हुए। कुछ था, जो
तुमने गंवाया। क्रोध के बाद तुम्हें ऐसा नहीं लगा है कि कोई ऊर्जा पास थी जो तुमने
खो दी? कुछ शक्ति पास थी, जो तुमने
कचरे में फेक दी? हीरा हाथ में था, नाराज
होकर फेंक दिया? जैसे तुम हीरा लिए चल रहे हो और किसी ने
गाली दे दी और तुमने हीरा उठाकर मार दिया। क्रोध के बाद तुम्हें ऐसा नहीं लगा है
कि कुछ गंवाया, पाया तो कुछ भी नहीं? घृणा
के बाद, वैमनस्य के बाद, हिंसा के बाद,
ईर्ष्या के बाद, मत्सर के बाद तुम्हें ऐसा
नहीं लगा है कि पाया तो कुछ भी नहीं, हाथ में उलटा कुछ था वह
छूट गया?
पाप
का इतना ही अर्थ है कि तुम बेहोश हुए और जो संपदा होश में बच सकती
थी, वह खो गयी।
होश सुरक्षा है।
बुद्ध
ने कहा है, जैसे घर में दीया जलता हो तो चोर पास नहीं आते। सोचते हैं, कोई घर में होगा। पहरेदार घर के बाहर बैठा हो, तो
चोर जरा दूर से निकल जाते हैं। लेकिन पहरेदार घर पर न हो, घर
में दीया न जला हो, अंहग्कार छाया हो, तो
चोर चुपचाप चले आते हैं। इसे छोड्कर जा कैसे सकते हैं! न कोई पहरेदार है, न घर में रोशनी है, मालिक कहीं बाहर है, घर अकेला पड़ा है। यह क्षण लूट लेने का है।
बुद्ध
ने कहा है, पाप तुम्हें घेरते हैं बेहोशी के क्षणों में। जब तुम होश भरे होते हो,
कोई पाप तुम्हारे पास नहीं आता। पाप चोरों की तरह है।
लेकिन
ध्यान रखना सदा ही,
इन सारे शब्दों के आधार से तुम यह मत सोचना कि बुद्ध निंदा कर रहे
हैं; वे केवल सूचना कर रहे हैं—ऐसा है। यह केवल तथ्य का
उदघोषण है, उपदेश है। वे तुमसे यह नहीं कह रहे हैं कि ऐसा
तुम करो ही। क्योंकि बुद्ध ने कहा है कि मैं कौन हूं तुमसे कहने वाला कि तुम क्या
करो? मैं तुमसे इतना ही कह सकता हूं कि मैंने कैसी—कैसी
भूलें की औरे' कैसे—कैसे कष्ट पाए; फिर
मैंने कैसे—कैसे भूलों को छोड़ा, और कैसे—कैसे महासुख को
उपलब्ध हुआ। मैं वही कह सकता हूं जो मेरे भीतर हुआ है। मैं तुम्हें अपनी कथा कह
सकता हूं।
सभी
बुद्धपुरुषों ने जो कहा है,
वह उनका आत्मकथ्य है। वे वहां से गुजरे जहां तुम हो, और वे वहां भी पहुंच गए जहां तुम कभी पहुंच सकते हो। उनका अनुभव दोहरा है।
तुम्हारा अनुभव इकहरा है।
तुमने
केवल संसार जाना,
उन्होंने संसार के पार भी कुछ है, उसे भी जाना।
संसार तो जाना ही; जितना तुमने जाना है, उससे ज्यादा जाना; उससे ज्यादा जाना तभी तो वे संसार
के पार उठ सके। तुम्हारे जितना ही जाना होता—अधकचरा, अधूरा,
कुनकुना—तो अभी लटके होते। उन्होंने त्वरा से जाना। उन्होंने संसार
की पूरी पीड़ा भोगी। उन्होंने पीड़ा को इस गहनता से भोगा कि उस पीड़ा में फिर कोई भी
सुख की संभावना न बची, वह बिलकुल राख हो गयी। वे पार गए।
तुमजहा चल रहे हो, वहा तो वे चले ही; तुम
जहा कभी चलोगे सौभाग्य के किसी क्षण में, वहां भी वे चले।
उनकी बात तुमसे ज्यादा गहरी है, तुमसे बड़े अनुभव पर आधारित
है।
तो
बुद्ध ने कहा है,
हम इतना कह सकते हैं कि तुम जो भूलें कर रहे हो, ऐसा मत सोचना कि तुम्हीं कर रहे हो, हमने भी की थीं।
तुम कुछ नयी भूलें नहीं कर रहे हो—सनातन हैं, सदा से होती
रही हैं। तुम इस भूल में मत पड़ना कि तुम कुछ नया पाप कर रहे हो। सब पाप पुराने हैं।
पाप पुराना ही होता है। तुम नया पाप खोज सकते हो, जरा सोचो?
तुम कल्पना भी कर सकते हो किसी नए पाप की, जो
किया न गया हो? सब बासा है। सब हो चुका है बहुत। दुनिया हर
काम कर चुकी है, पुनरुक्त कर चुकी है, हर
रास्ते पर चल चुकी है।
बुद्धपुरुष
इतना ही कहते हैं,
हम चले हैं। तुम्हारी आंखों में आंसू हमें पता हैं,
क्योंकि तुम्हारे
पैरों में कांटे गड़े हैं। हमारे पैरों में भी वे ही कांटे गड़े रहे थे। लेकिन हमने
संबंध का पता लगा लिया। तुम अपनी आंखों के आंसू और पैरों के काटो में संबंध नहीं
बना पा रहे हो। तुम सोचते हो, कोई सता रहा है, इसलिए रो
रहे हो। तुम यह नहीं सोचते हो कि तुम गलत रास्ते पर चल रहे हो, जहां कांटे चुभ रहे है, आंखें आसुओ से भर रही हैं।
तुम सोचते हो, भाग्य की विडंबना है। संसार में दुख पाया जा
रहा है। हमारी विधि में गलत लिखा है। हम करते तो सभी ठीक हैं, होता सब गलत है।
बुद्धपुरुष
इतना ही कहते हैं,
ऐसा न कभी हुआ, न होने का नियम है। जब तुम ठीक
करते हो, ठीक ही होता है। जब तुम गलत करते हो, तभी गलत होता है। फल से बीज को पहचान लेना।
'छोटे सार्थ और महाधन वाला वणिक जिस तरह भययुक्त मार्ग को छोड़ देता है,
या जिस तरह जीने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति विष को छोड़ता है,
उसी तरह पापों को छोड़ दे।
लेकिन
ध्यान रखना, शर्त साफ है। अगर जीवन के महाधन को पाना हो, बचाना
हो, जो तुम्हारे पास है, उसकी अगर
सुरक्षा करनी हो, गंवाना न हो; जो
अस्तित्व तुम्हें मिला ही है, अगर उसे विकृत न कर लेना हो;
जो फूल खिल सकता है, जिसकी सुवास तुम्हारे
प्राणों में भरी है और बिखर सकती है लोक—लोकात में, अगर उसको
ऐसे ही सड़ा न डालना हो, तो सुरक्षा करना, गलत रास्तों पर मत जाना।
अब
इसमें फर्क समझो।
धर्मगुरु
कहता है, अगर पाप करोगे, दुख पाओगे। बुद्धपुरुष कहते हैं,
अगर पाप करोगे, सुख से वंचित हो जाओगे। इस
फर्क को खयाल में लेना। यह बहुत गहरा फर्क है। धर्मगुरु कहता है, पाप किया, नर्क में सडोगे; वह
डरवा रहा है। वह तुम्हारे पाप के आकर्षण से बड़ा भय खड़ा कर रहा है, कि शायद भय के आधार पर तुम रुक जाओ। जैसे छोटा बच्चा आइस्कीम खाना चाहता
है और मां कहती है कि आइस्कीम खाओगे तो बुखार चढ़ेगा, सर्दी—जुकाम
होगा—घबडाती है उसको। जितना आइस्कीम खाने का सुख है, उससे
बड़े दुख का भय बताती है।
बुद्धपुरुष
तुम्हें भयभीत नहीं कर रहे हैं। वे केवल जीवन के गणित का इंगित कर रहे हैं। वे यह
नहीं कहते कि तुम दुख पाओगे। वे इतना ही कहते है कि सुख तुम्हें मिलना चाहिए था, मिला ही
हुआ था, हाथ में ही आया हुआ था, उसे
तुम गंवा दोगे। सुख का गंवा देना ही दुख है।
इसे
मुझे दोहराने दो। दुख का कोई विधायक रूप नहीं है, वह केवल सुख का अभाव है।
जैसे अंधकार का कोई विधायक रूप नहीं है, वह केवल प्रकाश का
अभाव है।
धर्मगुरु कहते हैं, अगर पाप
किया, अंधेरे में भटक जाओगे। बुद्धपुरुष कहते हैं, अगर पाप किया, उजाले को खो दोगे। तुम कहोगे, दोनों बातें एक हैं।
नहीं, बड़ा फर्क
है। क्योंकि धर्मगुरु कहता है, कुछ दुख जो तुम्हें नहीं मिला
है, मिलेगा। जैसे अस्तित्व तुम्हें दंड देगा। और बुद्धपुरुष
कहते हैं, कुछ तुम्हें मिला ही हुआ था, तुम अपनी ही अयोग्यता से उसे खो दोगे। अस्तित्व तुम्हें दंड नहीं दे रहा
है। अस्तित्व ने तो तुम्हें धन्यभागी बनाया था। अस्तित्व ने तो तुम्हें बिना मांगे
बहुत दिया था। अस्तित्व ने तो हाथ खोलकर दिया था, तुम्हारी
झोली पूरी भरी थी। तुमने ही अयोग्यता से खोया।
धर्मगुरु
कहता है, सिद्धत्व जीवन के अंत में है। बुद्धपुरुष कहते हैं, सिद्धत्व
स्वभाव है। जीवन के प्रारंभ में तुम्हें मिला ही था मोक्ष, तुमने
अपने हाथ से ही बागुडू खड़ी कर ली और सीमाएं बांध लीं। तुम्हारे जीवन में महासंगीत
घट सकता था, तुमने खुद ही तार तोड़ लिए सितार के, किसी ने तोड़े नहीं हैं।
यह
अस्तित्व की मंगलदायी,
यह अस्तित्व की परम मंगलदायी प्रकृति की सूचना है। अस्तित्व
तुम्हारे विरोध में नहीं है। तुम अस्तित्व के ही फैलाव हो। अंधेरे में गिरा देगा,
ऐसा नहीं; अंधेरे में तुम गिर जाओगे, यह सच है। क्योंकि जब रोशनी खो जाएगी, तो अंधेरे में
गिर जाओगे। लेकिन कोई तुम्हें गिराता नहीं।
उमर
खथ्याम का एक वचन है कि मुझे कुरान पर भरोसा है, इसलिए मैं मानता हूं कि
नर्क होगा जरूर। लेकिन मुझे परमात्मा की अनुकंपा पर भी भरोसा है, इसलिए मैं मानता हूं कि नर्क खाली होगा। कुरान पर भरोसा है, इसलिए नर्क होगा जरूर। कुरान कहती है। लेकिन मुझे परमात्मा की अनुकंपा पर
भी भरोसा है, इसलिए मैं जानता हूं नर्क खाली होगा, वहां कोई हो नहीं सकता।
अस्तित्व
मंगलदायी है,
परम कल्याणकारी। अस्तित्व का यह कल्याणकारी रूप ही तो उसका ईश्वरभाव
है। तुम्हें कोई दंड देने को नहीं बैठा है ( ही, पुरस्कार
तुमसे छिन जाएगा, और तुम्हीं छिन जाने के कारण होओगे। सुख
तुम खो सकते हो। बस, उस खोने में ही दुख है। जो हो सकता था,
उसके न होने में नर्क है। जो हो सकता था, उसके
हो जाने में स्वर्ग है। बीज बीज से फूल तक पहुंच जाए, स्वर्ग
है। बीज बीज रह जाए, फूल तक न पहुंच पाए, नर्क है। जो होना था न हो पाए, नर्क है। जो होना था
वही हो जाए, परम आनंद, परम उत्कुल्लता
का क्षण आ गया। पूर्णता हुई, तृप्ति हुई।
'छोटे सार्थ और महाधन वाला वणिक जिस तरह भययुक्त मार्ग को छोड़ देता है,
या जिस प्रकार जीने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति विष को छोड़ता है,
उसी तरह पापों को छोड़ दे। '
जागने
की बात कह रहे हैं बुद्ध। जागे, देखे कि कितना मेरे पास है और किस—किस भांति
गंवा रहा हूं। जागे और देखे, कितना जल मेरी गगरी में भरा है,
कितने—कितने छेदों से गंवा रहा हूं। छेदों को भर ले।
'यदि हाथ में घाव न हो, तो हाथ में विष लिया जा सकता
है
यह
बड़ा महत्वपूर्ण सूत्र है!
क्योंकि
घाव न हो तो शरीर में विष नहीं लगता। इसी तरह नहीं करने वाले को पाप नहीं लगता है।
यदि
हाथ में घाव न हो,
तो तुम हाथ में विष भी ले लो तो भी कुछ हर्जा नहीं। घाव हो, तो घाव के माध्यम से विष शरीर में प्रवेश कर जाता है। खून की धारा में
पहुंच जाता है।
अगर
तुम्हारे जीवन में पाप करने की मूर्च्छा न हो, तो तुम मध्य, पाप के बीच भी खड़े हो जाओ, तो भी पाप से तुम छुए न
जा सकोगे। तुम अस्पर्शित रहोगे। तुम्हें पाप चारों तरफ से घेर ले, तो भी तुम्हारे जीवन में प्रवेश न कर सकेगा। घाव चाहिए।
किसी
ने तुम्हें गाली दी,
अगर तुम्हारे भीतर गाली को पकड़ने के लिए घाव न हो—अहंकार का घाव न
हो—तो गाली तुम्हारे चारों तरफ चक्कर लगाकर थक जाएगी। क्या करेगी? आएगी, अपने से चली जाएगी। अक्सर तो ऐसा होगा,
उसी के पास लौट जाएगी जिसने भेजी थी। अपने घर वापस लौट जाएगी। अपने
स्रोत में वापस लीन हो जाएगी।
तुम
कभी इस छोटे से प्रयोग को करके देखो। कोई तुम्हें गाली दे, तुम शांतमन,
अनुद्विग्न, अनुत्तेजित, चुपचाप बने रहो। देखो क्या होता है? तुम पाओगे,
गाली तुम्हारा चक्कर लगाएगी, तुम्हारे चारों
तरफ से रास्ता खोजेगी—कहीं घाव मिल जाए तो प्रवेश कर जाए। अगर तुम्हारे भीतर कोई
घाव होगा, तो घाव सब तरह की उत्तेजना दिखाएगा कि यह क्या कर
रहे हो? मेरा भोजन पास आया है, तुम
गंवाए दे रहे हो, पकड़ो। लेकिन अगर तुम जागे रहे क्षणभर,
तो तुम पाओगे, गाली जा चुकी। और गाली के पीछे
तुम ऐसी शांति अनुभव करोगे जो तुम्हारे पास गाली के पहले भी नहीं थी। क्योंकि
तूफान के बाद जो शांति अनुभव होती है, उसका स्वाद ही अनूठा
है। और एक बार गाली देने का अवसर था और तुमने गाली न दी; गाली
लेने का अवसर था, तुमने गाली न ली; तुम
पाओगे, तुम्हारे अपने ऊपर एक तरह की मालकियत हो गयी।
'यदि हाथ में घाव न हो तो हाथ में विष नहीं लगता, लिया
जा सकता है। '
इसका
यह अर्थ हुआ कि पुण्यात्मा व्यक्ति, सजग, जागरूक
व्यक्ति अंधेरे से अंधेरी रात में भी खड़ा हो जाए तो अंधेरा उसे छूता नहीं। यही
कृष्ण ने पूरी बात गीता में अर्जुन को कही है कि तू फिकर मत कर, अगर तेरे हाथ में घाव नहीं है, तो यह विष तू ले ले।
अगर तेरे भीतर अहंकार नहीं है, तो इस युद्ध में तू उतर जा।
फिर यh कुरुक्षेत्र भी धर्मक्षेत्र है। फिर इससे भी तुझे कोई
हानि न होगी। और अगर तेरे भीतर घाव है और तू जंगल भी भाग जाए, संन्यास ले ले, पहाड़ में छिप जाए, तो भी कोई फर्क न होगा। विष तुम्हें खोजता हुआ वहीं पहुंच जाएगा। असली
सवाल तुम्हारे भीतर की सजगता का है, तुम्हारे भीतर के
स्वास्थ्य का है।
भागने
की चेष्टा मत करना। लोग उन स्थानों को छोड़ देते हैं जहा पाप होने का डर है। जैसे
तुम उस रास्ते पर जाने में डरोगे जहा वेश्याएं रहती हैं। लेकिन यह डर सिर्फ इतना
ही बताता है कि वेश्याओं में तुम्हें रस है। और यह डर इतना ही बताता है कि तुम्हें
अपने पर भरोसा नहीं।
बुद्ध
के जीवन में ऐसा उल्लेख है। एक भिक्षु बुद्ध का गांव से गुजरा, गांव की
नगरवधू ने, वेश्या ने उस भिक्षु को आते देखा, भिक्षा मागते देखा। वह थोड़ी चकित हुई, क्योंकि
वेश्याओं के मुहल्ले में भिक्षु भिक्षा मांगने आते नहीं थे। यह भिक्षु कैसे यहां आ
गया? और यह भिक्षु इतना भोला और निर्दोष लगता था।
इसीलिए
आ भी गया था। सोचा ही नहीं कि वेश्याओं का मुहल्ला कहां है! नहीं तो साधु पहले पूछ
लेते हैं, वेश्याओं का मुहल्ला कहौ है? जहां नहीं जाना,
वहां का पहले पक्का कर लेना चाहिए। जाने वाला भी पता कर लेता है,
न जाने वाला भी पता कर लेता है। दोनों के मन वहीं अटके हैं'।
वह
वेश्या नीचे उतरकर आ गयी। उसने इससे ज्यादा सुंदर व्यक्ति कभी देखा नहीं था।
संन्यस्त से ज्यादा सौंदर्य हो भी नहीं सकता। संन्यास का सौंदर्य अपरिसीम है।
क्योंकि व्यक्ति अपने में थिर होता है। सारी उद्विग्नता खो गयी होती है। सारे ज्वर
खो गए होते हैं। एक गहन शांति और शीतलता होती है। ध्यान की गंध होती है। अनासक्ति
का रस होता है। विराग की वीणा बजती है।
तो
सन्यासी से ज्यादा सुंदर कोई व्यक्ति कभी होता ही नहीं। इसलिए तो बुद्धों के
सौंदर्य को, सदियां बीत जाती हैं, भूला नहीं जा सकता। और जितनी
स्त्रियां संन्यासियों के सौंदर्य पर मोहित होती हैं, उतनी
किसी के सौंदर्य पर मोहित नहीं होतीं। महावीर के भिक्षु थे दस हजार, भिक्षुणियां थीं तीस हजार। वही अनुपात बुद्ध का था। वही अनुपात जीसस का भी
था। जहा एक पुरुष आया, वहां तीन स्त्रिया आयीं। इतना,
तीन गुना फर्क था। स्वभावत: स्त्रियां निष्कलुष सौंदर्य को जल्दी
परख पाती हैं, ज्यादा आंदोलित हो जाती हैं, ज्यादा भावाविष्ट हो जाती हैं।
उस
वेश्या ने इस भिक्षु को कहा, इस वर्षाकाल तुम मेरे घर रुक जाओ। चार महीने
वर्षा के बौद्ध भिक्षु निवास करते थे एक स्थान पर। तो उसने कहा, इस वर्षाकाल तुम मेरे घर रुक जाओ। मैं सब तरह तुम्हारी सेवा करूंगी। उस
भिक्षु ने कहा, मैं जाकर अपने गुरु को पूछ लूं। कहा उन्होंने,
कल हाजिर हो जाऊंगा। नहीं कहा, तब मजबूरी है।
भिक्षु ने जाकर
बुद्ध को पूछा भरी सभा में,
उनके दस हजार भिक्षु मौजूद थे, उसने खड़े होकर
कहा कि मैं एक गांव में गया, एक बड़ी सुंदर स्त्री ने
निमंत्रण दिया है। दूसरे भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि क्षमा करना, वह सुंदर स्त्री नहीं है, वेश्या है। सारे भिक्षुओं
में खबर पहुंच गयी थी। सारे भिक्षु उत्तेजित हो रहे थे। उस भिक्षु ने कहा, मुझे कैसे पता हो कि वह वेश्या है या नहीं है? फिर इससे
मुझे प्रयोजन क्या? उसने निमंत्रण दिया है, आपकी आज्ञा हो तो चार महीने उसके घर वर्षाकाल निवास करूं। आपकी आशा न हो
तो बात समाप्त हो गयी।
और
बुद्ध ने आज्ञा दी कि तू वर्षाकाल उसके घर बिता। आग लग गयी और भिक्षुओं में।
उन्होंने कहा,
यह अन्याय है। यह भ्रष्ट हो जाएगा। फिर तो हमें भी इसी तरह की आशा
चाहिए। बुद्ध ने कहा, इसने आशा मांगी नहीं है, मुझ पर छोड़ी है। इसने कहा नहीं है कि चाहिए। और मैं इसे जानता हूं। चार
महीने बाद सोचेंगे। जाने भी दो। अगर वेश्या इसके संन्यास को डुबा ले, तो संन्यास किसी काम का ही न था। अगर यह वेश्या को उबार लाए, तो ही संन्यास का कोई मूल्य है। तुम्हारे संन्यास की नाव में अगर एक
वेश्या भी यात्रा न कर सके, तो क्या मूल्य है!
वह
भिक्षु वेश्या के घर चार महीने रहा। चार महीने बाद आया तो वेश्या भी पीछे चली आयी।
उसने दीक्षा ली,
वह संन्यस्त हुई। बुद्ध ने पूछा, तुझे किस बात
ने प्रभावित किया? उस वेश्या ने कहा, आपके
भिक्षु के सतत अप्रभावित रहने ने। आपका भिक्षु किसी चीज से प्रभावित होता ही नहीं
मालूम पड़ता। जो मैंने कहा, उसने स्वीकार किया। संगीत सुनने
को कहा, तो सुनने को राजी। नृत्य देखने को कहा, तो नृत्य देखने को राजी। जैसे कोई चीज उसे छूती नहीं।
भीतर
घाव न हो तो कोई चीज छूती नहीं।
अगर
तुमने धर्म को स्थान—परिवर्तन समझा—वेश्या का मुहल्ला छोड़ दिया, क्योंकि
डर है; बाजार छोड़ दिया, क्योंकि धन में
लोभ है; भाग खड़े हुए हिमालय पर—तो माना परिस्थितियों से तो
हट जाओगे, घावों का क्या करोगे? चोट तो
न लगेगी घाव पर, सच। ठीक। जहर से तो हट जाओगे, लेकिन घाव का क्या करोगे? घाव तो बना ही रहेगा। भीतर
ही भीतर रिसता ही रहेगा। प्रतीक्षा करेगा। कभी भी जब भी अवसर आएगा जहर को फिर छूने
का, घाव फिर विषाक्त हो जाएगा।
बुद्ध का जोर है, कृष्ण का
जोर है, घाव को भर लो। तुम्हारे भीतर घाव न हो, तुम छिद्र मुक्त हो जाओ, फिर जहा भी हो, रहो। फिर नर्क भी तुम्हारे लिए नर्क नहीं, और संसार
भी तुम्हारे लिए निर्वाण है।
बिना
ध्यान के क्रिया अधूरी
बन
पाती अनिमेष नहीं
अंतरमुख
होते ही सम्मुख
रह
जाता परिवेश नहीं
वही
साध्य तक पहुंचा,
रहते
जो
शरीर, अशरीर हुआ
अतरमुख
होते ही सन्मुख
रह
जाता परिवेश नहीं
तुम
जैसे ही भीतर मुड़े,
संसार गया।
अंतरमुख
होते ही सन्मुख
रह
जाता परिवेश नहीं
फिर बाहर तो खो गया।
तुम भीतर मुड़े, संसार गया।
बिना
ध्यान के क्रिया अधूरी
और
ध्यान का अर्थ है,
अपने भीतर ठहर जाना। करो कुछ भी, ठहरे रहो
भीतर। चलने दो झंझावात, आधिया और तूफान बाहर, तुम भीतर मत कंपो, निष्कंप रहो वहां।
वही साध्य तक
पहुंचा, रहते
जो
शरीर, अशरीर हुआ
और
अगर तुम भीतर डूबे,
तो तुम पाओगे शरीर में रहते ही अशरीर हो गए। जहां तुमने अशरीर—भाव
जाना, वहीं तुम घाव से मुक्त हो गए। क्योंकि घाव तो शरीर में
ही लग सकते हैं, आत्मा में तो कोई घाव लगते नहीं। शरीर में
ही जहर व्याप्त हो सकता है, आत्मा में तो कोई जहर व्याप्त
होता नहीं। तो जिसने जाना कि मैं आत्मा हूं जिसने ध्याना कि मैं आत्मा हूं र अब
पापों के मध्य में भी खड़ा रहे तो कमलवत। पानी उसे छुएगा भी नहीं।
'जो शुद्ध है, निर्मल है, ऐसे
निर्दोष पुरुष को जो दोष लगाता है, उस मूढ़ का पाप उसको ही
लौटकर लगता है, जैसे कि सूक्ष्म धूल हवा के आने के रुख पर
फेंकने से फेंकने वाले पर ही पड़ती है। '
तुम
चिंता न करो। कोई गाली देगा, यह तुम्हारे परेशान होने की कोई जरूरत नहीं। यह
गाली उस पर ही लौट जाएगी। तुम्हारा निर्दोष होना काफी है। यह गाली अपने आप ही वापस
लौट जाएगी।
बुद्ध
कहते हैं, जैसे सूक्ष्म धूल हवा के आने पर फेंकने वाले के मुख पर ही वापस लौट जाती
है। या जैसे कोई आकाश पर यूकता है, तो चूक अपने ही ऊपर गिर
जाता है। लोग गालियां तो देते रहेंगे। तुम्हारे कारण गालियां नहीं देते, उनके भीतर गालिया हैं, वे करें भी क्या? उनके भीतर बड़ा ज्वर है, बड़ा बुखार है, वे बड़े दुख और पीड़ा से भरे हैं, वे अपनी पीड़ा को
फेंकते रहते हैं—थोड़े हल्के हो लेने के खयाल से।
माहे—नौ
पर भी उठी हैं हर तरफ से उंगलियां
जो
कोई दुनिया में आया उसकी रुसवाई हुई
नए
चांद पर भी, जो अभी—अभी पैदा हुआ है, जिसने अभी कुछ किया ही
नहीं! माहे—नौ पर भी उठी हैं हर तरफ से उंगलियां
पहले
दिन के चांद पर भी उंगलिया उठ जाती हैं।
जो
कोई दुनिया में आया उसकी रुसवाई हुई
और
इस दुनिया में जो भी आएगा,
लोग उस पर धूल फेंकेंगे। इसलिए नहीं कि उसने कुछ धूल फेंके जाने का
कारण पैदा किया था; नहीं, लोगों के हाथ
में धूल है। लोगों के हाथ में कुछ और नहीं है। लोगों के हाथ में फूल नहीं हैं,
धूल है। वे फेंकेंगे। इससे निर्दोष चित्त व्यक्ति को चिंतित होने का
कोई कारण नहीं।
वस्तुत:, निर्दोष
चित्त व्यक्ति अत्यंत दया अनुभव करता है, जब कोई उसे गाली
देता है, क्योंकि यह गाली इसी पर लौटकर पड़ेगी। उसके मन में
बड़ी करुणा उठती है, जब किसी को वह आकाश पर चूकते देखता है,
क्योंकि यह यूक इसी पर वापस उग्र जाएगा।
जब
तुम तुम्हारी की गयी निंदा से आंदोलित हो जाते हो, तो तुम स्वीकार कर लेते हो
कि निंदा ठीक थी। सोचो, झूठ से कोई परेशान नहीं होता। सच से
ही लोग परेशान होते हैं। अगर किसी ने कहा कि तुम बेईमान हो, तो
तुम परेशान तभी होते हो जब तुम पाते हो कि तुम बेईमान हो। अगर तुम्हें अपनी
ईमानदारी पर सहज भरोसा है, तो तुम हंसकर गुजर जाते हो। या तो
इस आदमी के समझने में कोई भूल हो गयी, या यह आदमी जानकर ही
कुछ जाल फेंक रहा होगा, लेकिन इससे तुम्हारा क्या लेना—देना?
तुम उन्हीं चीजों से पीड़ित होते हो जिनको तुमने छिपा रखा है। तुम
बेईमान हो और तुमने ईमानदारी का पाखंड बना रखा है। तो कोई अगर बेईमान कह दे,
तो घाव को छू देता है। ऐसे घाव को छू देता है जिसे तुम छिपा रहे थे।
मैंने
सुना है कि एक चर्च में एक पादरी लोगों को उपदेश दे रहा था। दस भहाआज्ञाओं के
संबंध में बोल रहा था। एक मजाकिए ने मजाक किया। उसने एक चिट्ठी लिखकर भेज दी।
चिट्ठी पर लिखा था कि सब पता चल गया है, अब तुम जल्दी भाग खड़े होओ। वह
पादरी को एक चिट्ठी लिखकर भेज दी कि सब पता चल गया है, अब
तुम जल्दी भाग खड़े होओ। उस पादरी ने चिट्ठी पढ़ी, जल्दी से
उसने बाइबिल बंद की और उसने कहा कि मुझे जरूरी काम आ गया है, मैं घर जा रहा दू वह नदारद ही हो गया। लोगों ने पूछा कि मामला क्या है?
उसके घर गए, वह तो घर से भी सामान लेकर भाग
खड़ा हुआ था।
उस
मजाकिए से पूछा कि तुमने लिखकर क्या भेजा था? उसने कहा कि मैं खुद ही चकित हूं।
मैंने तो सिर्फ मजाक किया था। यह इतनी बड़ी श्हन की बातें कर रहा है—महाआशाएं दस
आशाएं, और यह छोड़ो, यह छोड़ो, यह छोडो—मैंने तो सिर्फ मजाक किया था। वह तो भाग ही गया। मुझे भी पता नहीं
कि इसने किया क्या है? तुम कभी कोशिश करना, दस मित्रों को—कोई भी दस मित्रों को—कार्ड लिख दो दस कि सब पता चल गया है,
अब तुम भाग खड़े होओ।
सभी
कुछ न कुछ कर रहे हैं। किसी तरह छिपाए हुए हैं। तुम अंधेरे में भी टटोलो तो भी
उनके घाव पर हाथ पड़ जाएगा। घाव तो हैं ही।
इसीलिए तो कभी—कभी
तुम्हारे बिलकुल निर्दोष से दिए गए वक्तव्य लोगों को भारी चोट पहुंचा देते हैं।
तुम चौंकते हो कि मैंने ऐसी कुछ खास बात तो न कही थी, यह आदमी
इतना उत्तेजित क्यों हो गया? तुमने न कही हो खास बात,
लेकिन उसने कुछ खास बात छिपा रखी थी। तुम्हें पता न हो, उसे तो पता है। तुमने अनजाने ही कोई नाजुक स्थान छू दिया।
इसे
आत्म—निरीक्षण बनाओ। जब भी कोई बात किसी की तुम्हें छू जाए, तो उसकी
फिकर छोड़ो, तुम अपने भीतर का घाव खोजो। उस घाव को ही भर लेना
साधना है।
लाग
हो तो हम उसे समझें लगाव
जब
न हो कुछ भी तो धोखा खाएं क्या
लाग हो तो हम उसे समझें लगाव—दुश्मनी हो तो
भी समझ लें कि दोस्ती है। किसी से घृणा हो तो भी मान लें कि प्रेम है।
लाग
हो तो हम उसे समझें लगाव
इतने
से भी मान लेने के लिए सुविधा है।
जब
न हो कुछ भी तो धोखा खाएं क्या
जब
घृणा भी न हो,
प्रेम की तो बात ही छोड़ो, घृणा भी न हो;
लगाव तो छोड़ो, लाग भी न हो; मित्रता तो दूर, शत्रुता भी न हो; तो धोखा खाने का उपाय क्या है? जैसे—जैसे तुम भीतर
जागकर अपने घावों को देखोगे और अपने घावों को छिपाओगे न, वरन
उघाड़ोगे धूप में, हवाओं में, क्योंकि
धूप और हवाओं में उघाड़े घाव भर जाते हैं, छिपाए घाव अंततः
नासूर बन जाते है। लेकिन हमारी सारी प्रक्रिया यह है कि हम अपनी भूलों को छिपाते
हैं। और छिपाने के कारण ही हम उनके नासूर बना लेते हैं। उघाड़ो। प्रगट करो। दबाओ मत।
किसका भय है? और जिनसे तुम भयभीत हो रहे हो, उनसे कुछ भी छिपा नहीं है।
यह
बड़े आश्चर्य की बात है,
चमत्कार की, कि हर आदमी सोचता है उसने सब छिपा
लिया है, हालांकि किसी से कुछ छिपा नहीं है। खुद ही सोचता
रहता है कि मैंने छिपा लिया है, किसी को पता नहीं; लेकिन सभी को पता है। तुम अपने को ही धोखा दे लेते हो, किसी और को धोखा नहीं दे पाते। तुमने जो भी छिपाया है, वह तुम्हारे रग—रग से उदघोषित होता रहता है।
प्रत्येक
व्यक्ति बड़ी सूक्ष्म तरंगों से अपने भीतर की अंतर्निहित स्थितियों की घोषणा करता
रहता है। तुम एक ब्राडकास्ट हो। तुम छिपा नहीं सकते। तुम दुखी हो, तुम कितना
ही मुस्कुराओ, तुम्हारी मुस्कुराहट से दुख जाहिर होगा। तुम
क्रोधी हो, तुम कितना ही शांत भाव बनाओ, तुम्हारे शात भाव के नीचे क्रोध की छाया होगी। तुम जितना बचाने की कोशिश
करोगे, उतने ही उलझोगे। बचाने से कोई कभी नहीं बचा है।
जीवन का शास्त्र
कहता है, उघाड़ो! ताकि घाव भर जाएं। तुम अपनी तरफ से ही कह दो। समस्त धर्मों ने
उघाड़ने पर जोर दिया है। जिसके पास भी तुम उघाड़ सको। ईसाइयों में ककेशन की व्यवस्था
है। जाओ, जिसके प्रति तुम्हें भरोसा हो, अपने हृदय को उघाड़ दो। उघाड़ने से हृदय भरता है। जैसे ही तुम कह देते हो
अपने घाव, तुम हल्के हो जाते हो। छिपाने को कुछ न बचा—बोझ न
रहा।
सदगुरु
का यही मूल्य था कि उसके पास तुम्हारी इतनी निष्ठा थी कि तुम सब कुछ खोलकर रख सकते
थे। तुम सदगुरु के सामने अपने हृदय को नग्न कर सकते थे, निर्वस्त्र
कर सकते थे। कोई चिंता न थी कि वह तुम्हारी निंदा करेगा। कोई चिंता न थी कि तुम
कहोगे कि मैं पापी हूं? तो वह कहेगा कि तुम बुरे हो। कोई
चिंता न थी तुम कहो कि मैंने चोरी की है, तो उसकी आंखों में
तुम्हें नरक में डालने का भाव उठेगा। कोई चिंता न थी।
सदगुरु
का अर्थ ही यह था—जिसकी अनुकंपा अपार है। तुम कुछ भी कहो, वह क्षमा
कर सकेगा। तुम कुछ भी कहो, वह समझेगा कि मनुष्य दुर्बल है।
वह समझेगा कि ऐसी भूलें मुझसे हुई हैं। वह समझेगा कि जो भूल कोई भी मनुष्य कर सकता
है, वह मुझसे भी हुई हैं। उसने अपने को जानकर मनुष्यता की
पूरी कमजोरी पहचान ली। और जिसने मनुष्य की कमजोरी पहचान ली, उसने
मनुष्य की गरिमा भी पहचान ली। क्योंकि एक छोर कमजोरी है, दूसरी
छोर गरिमा है। इधर मनुष्य पापी से पापी हो सकता है, उधर
मनुष्य पुण्यात्मा से पुण्यात्मा हो सकता है। गिरे, तो
अंधकार से अंधकार, अमावस से अमावस में उतर जाए; उठे, तो पूर्णिमा का चांद उसका ही है।
'मरणोपरात कोई गर्भ में उत्पन्न होते हैं, कोई पापकर्म
करने वाले नर्क में जाते हैं, कोई सुगति करने वाले स्वर्ग और
कोई अनाश्रव पुरुष परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं।
'
मृत्यु के बाद! मृत्यु तो सभी की घटती है। मरना तो सभी को पड़ता है।
मृत्यु तो सभी को एक ही चौराहे पर ले आती है। लेकिन मृत्यु से रास्ते अलग होते हैं।
कुछ वापस उन्हीं गर्भों में आ जाते हैं जहां पिछले जन्मों में थे। उनका जीवन एक
पुनरुक्ति है। उनके जीवन में कुछ नए का आविर्भाव न हुआ। उन्होंने कुछ नया न सीखा।
उन्होंने जीवन से कोई नया पाठ न लिया। उन्हें फिर वापस उसी क्लास में भेज दिया गया।
कुछ हैं, जो जीवन से बड़ी सुख की संभावनाएं लेकर आए।
जिन्होंने अपने को बचाया, सुरक्षा की। संपदा को खोया नहीं।
उनके लिए स्वर्ग है। स्वर्ग का अर्थ है, उनके लिए सुख के
द्वार खुले हैं। कुछ हैं, जिन्होंने सब गंवाया, दीए बुझा दिए सब, अंधेरी अमावस ही लेकर आए। उनके लिए
नर्क है।
यहां
ध्यान रखना, बुद्ध का जोर इस बात पर है कि नर्क—स्वर्ग कोई तुम्हें देता नहीं, तुम्हीं अर्जित करते हो। तुम्हीं मालिक हो। तुम्हारी मर्जी है, तुम्हारा चुनाव है। कोई परमात्मा नहीं है जो तुम्हें नर्कों में डाल दे।
इसलिए प्रार्थनाओं से कुछ भी न होगा। यह मत सोचना कि पाप करते रहेंगे और प्रार्थना
कर लेंगे। यह मत सोच लेना कि पाप कर लेंगे, फिर क्षमा मांग
लेंगे। यह मत सोचना कि खुदा तो गफूर है। यह मत सोचना कि वह बडा करुणावान है,
तो वह क्षमा कर देगा। वहा कोई भी नहीं है, जो
तुम्हारे कृत्य को बदल दे तुम्हारे अतिरिक्त।
तो
पाप किया है,
तो प्रार्थना से तुम उसे काट न सकोगे। पाप किया है, तो होश से काटना पड़ेगा। इसलिए बुद्ध धर्म में प्रार्थना की कोई जगह नहीं
है। ध्यान की जगह है। ध्यान का अर्थ है—होश। प्रार्थना का अर्थ है—परमात्मा की
करुणा को पुकारना। कहीं अस्तित्व से तुम कुछ सहारा न पा सकोगे। कोई रिश्वत देने का
उपाय नहीं है। कोई स्तुति काम न आएगी, कोई खुशामद काम न
पड़ेगी।
बुद्ध
यह कह रहे हैं कि तुम अपने कृत्य को बहुत सोचकर करना, क्योंकि
तुम्हारा कृत्य ही अंतिम रूप से निर्णायक है। तुम्हारे कृत्य को काटने वाला कोई भी
नहीं है। तुम्हीं काटोगे, कटेगा। तुम्हीं बनाओगे, बनेगा।
इस
पथ के हर राही का विश्वास अलग है
सबका
अपना प्याला अपनी प्यास अलग 'है
जीवन
के चौराहे खंडहर पर मिलते हैं
पतझड़
सबका एक, महज मधुमास अलग है
मौत
तो सबकी एक है,
लेकिन जीवन सबका अलग है।
पतझड़
सबका एक, महज मधुमास अलग है
लेकिन
वसंत सबका अलग है।
सभी
लोग एक से मरते दिखायी पड़ते हैं। श्वास रुक जाती है। अगर चिकित्सक से पूछो, तो संत के
मरने में और पापी के मरने में कोई फर्क न कर सकेगा। लेकिन बुद्धपुरुषों से पूछो,
तो बड़ा फर्क है। पापी के लिए उपाय है कि या तो वह पुनरुक्त करेगा—जो
किया वही फिर दोहराएगा—या और भी नीचे उतर जाएगा। जो किया उससे भी नीचे गिर जाएगा।
जिस कक्षा में बैठा था उससे भी नीचे उतार दिया जाएगा। फिर पुण्यात्मा है, जिसने जीवन में संपदा को गंवाया नहीं, बचाया,
सुरक्षित किया। उसके लिए महासुख का द्वार है। उसके जीवन में वसंत
आएगा, मधुमास आएगा। और सबसे पार बुद्धपुरुष हैं। उनके लिए न
स्वर्ग है, न नर्क है।
पश्चिम
में यह बात समझनी बड़ी मुश्किल होती है। पश्चिम के धर्म स्वर्ग और नर्क के ऊपर कोई
श्रेणी नहीं जानते। लेकिन पूरब के सभी धर्म स्वर्ग और नर्क को अंतिम नहीं मानते, स्वर्ग और
नर्क को भी संसार का ही हिस्सा मानते हैं। फिर एक आखिरी श्रेणी है, जहां आदमी दुख के तो पार हो ही जाता है, सुख के भी
पार हो जाता है। क्योंकि जब तक सुख है तब तक दुख की संभावना है। जब तक संपदा है तब
तक खोने का डर है। एक ऐसी घड़ी चाहिए जहां कोई सुख भी न हो। दुख तो गया दूर,
सुख भी दूर जा चुका। एक ऐसी परम विश्रांति, एक
परम उपशात दशा चाहिए, जहां सुख भी अड़चन न डाले।
हम
तो अभी दुख से भी परेशान नहीं हैं। बुद्धपुरुष सुख से भी परेशान हो जाते है। हम तो
अभी दुख से भी राजी हैं,
बुद्धपुरुष सुख को भी उत्तेजना मानने लगते हैं, क्योंकि उसमें भी है तो उत्तेजना ही। तरंगें तो उठती हैं, व्याघात तो होता है। आधी नहीं आती तो भी हवा तो चलती है, हल्के झकोरे तो आते हैं, कंपन तो होता है।
निष्कंप
दशा।
तो
बुद्ध कहते हैं उस दशा को,
अनाश्रव पुरुष; ऐसे व्यक्ति जो परम रूप से
जागरूक हुए। जिनके न तो भीतर अब कुछ जाता है और न जिनके बाहर कुछ जाता है। जो परम
स्थिरता को उपलब्ध हुए, स्थितिप्रश हुए, वे परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं। उनका फिर कोई आगमन नहीं। न नर्क में,
न स्वर्ग में, न संसार में।
यहां
एक बात बड़ी महत्वपूर्ण समझ लेने जैसी है। पुण्य का तुम्हें पता नहीं। सुख का
तुम्हें पता नहीं। दुख का पता है, पाप का पता है। यह भी समझ में आ जाता है कि पाप
से दुख मिलता है। तो भी एक बात मन मैं बड़ी गहरी बैठी है और वह यह कि तुम खाली न
होना चाहोगे। अगर खाली होने और दुखी होने में चुनाव करना तो, तो तुम दुख को चुन लोगे। खाली होना दुख से भी बुरा लगता है। दुखी आदमी
कहता है कि कम से कम दुख तो रहने दो, कुछ तो है। कोई तो
बहाना है जीए जाने का। दर्द ही सही, कोई तो सहारा है। कुछ तो
है जिसके आसपास उछल—कूद कर नेते हैं, आपाधापी कर लेते हैं।
दुख भी न रहेगा, फिर क्या करेंगे?
तुम
थोड़ा सोचो, तुम्हारी जिंदगी में जितने दुख हैं, जरा कल्पना करो,
अगर वे गिर जाएं आज अचानक, तुम कल क्या करोगे?
तुम बड़े खाली—खाली अनुभव करोगे। तुम वापस प्रार्थना करने लगोगे कि
दुख दे दो, लौटा दो, कुछ तो था। उलझे
थे, व्यस्त थे, करने को तो था। यह
खालीपन तो कांटेगा।
अधिक
लोग इसीलिए पाप किए चले जाते हैं कि खाली होने के लिए तैयार नहीं हो पाते। अधिक
लोग इसीलिए दुख को भी पकड़े रहते हैं—चिल्लाते रहते हैं।rके दुख न
हो, दुख न हों—एक हाथ से हटाते हैं, दूसरे
हाथ से खींचते रहते हैं; एक हाथ से काटते हैं, दूसरे हाथ से बोते रहते हैं, बीज फेंकते रहते हैं।
उनकी
तकलीफ मैं समझता हूं। तकलीफ यह है कि खाली होना तो दुख से भी बदतर हो जाएगा। नरक
ही सही, कुछ तो होगा। काम तो होगा। उलझे तो रहेंगे। व्यस्त तो रहेंगे। खालीपन तो
बहुत घबड़ा देता है, वीराना मालूम होता है।
बहुत
बार ऐसी घड़ी आ जाती है जब तुम खाली होते हो, तब तुम कुछ भी करने को तैयार हो
जाते हो। चलो ताश ही खेलो, जुआ ही खेलो, शराब ही पी लो, शराब पीकर लड़ाई—झगड़ा कर आओ, शोरगुल मचा दो, कुछ कर गुजरो।
तुमने
कभी देखा कि जब तुम खाली होते हो, तो तुम कैसे बेचैन होने लगते हो! खाली होने की
तैयारी करनी होगी, नहीं तो तुम दुख से कभी मुक्त न हो सकोगे।
सुख का तुम्हें पता नहीं, पुण्य का तुम्हें पता नहीं। दुख का
पता है, और कभी—कभी दो दुखों के बीच में खालीपन का पता है।
खालीपन पर राजी होओ। कठिन है बहुत। मैं कल एक गीत पढ़ रहा था—
अब
कभी शाम बुझेगी न अंधेरा होगा
अब
कभी रात ढलेगी न सवेरा होगा
आस्मा
आस लिए है कि यह जादू टूटे
चुप
की जंजीर कटे,
वक्त का दामन छूटे
दे
कोई शंख दुहाई,
कोई पायल बोले
कोई
बुत जागे, कोई सांवली घूंघट खोले
एक
ऐसी घड़ी आ जाती है खामोशी की, जब ऐसा डर लगने लगता है कि अब क्या होगा?
ध्यान में न उतरने का कारण यही है कि ऐसा लगता है कि अब कहीं यह
चुप्पी न टूटी तो क्या होगा? अब यह रात कैसे कटेगी? अब सुबह कैसे होगी? क्योंकि खामोशी में और शून्य में
और रिक्तता में सब ठहर ज्राता है, समय रुक जाता है, घड़ी बंद हो जाती है।
अब
कभी शाम बुझेगी न अंधेरा होगा
अब
कभी रात ढलेगी न सवेरा होगा
आस्मां
आस लिए है कि यह जादू टूटे
और
घबड़ाहट होने लगती है कि यह क्या हुआ? यह कैसा तिलिस्म? यह कैसा जादू? यह किसने रोक दी सब सांसें?
आस्मां
आस लिए है कि यह जादू टूटे
चुप
की जंजीर कटे
मौन
भी जजीर की तरह मालूम होता है कि कोई काट दे।
चुप
की जंजीर कटे,
वक्त का दामन छूटे
और
किसी तरह समय फिर से चल पड़े। दे कोई शंख दुहाई
कुछ
भी हो।
दे
कोई शंख दुहाई,
कोई पायल बोले
कोई
बुत जागे, कोई सांवली घूंघट खोले
कुछ
भी हो जाए, लेकिन कुछ हो। मनुष्य के जीवन में पाप और दुख की इतनी गहनता इसलिए है कि
तुम खाली होने को जरा भी राजी नहीं। और जो खाली होने को राजी नहीं, वह कभी ध्यान को न पा सकेगा। और जिसने ध्यान न पाया, उसके जीवन में पुण्य की कोई संभावना नहीं। और जिसने पुण्य को ही न पाया,
अनाश्रव तो बहुत दूर है! जो स्वर्ग को भी न पा सका, वह निर्वाण को कैसे पा सकेगा!
दौड़ते
रहते हैं हम जिंदगी में,
पुनरुक्ति की भांति। पुरानी कथा वही—वही दोहरती रहती है। कुछ बातें
खयाल में लेना।
एक, जीवन को
पुनरुक्ति से बचाने की कोशिश करो। अन्यथा मरते वक्त तुम इतनी पुनरुकिा की आकांक्षा
लेकर मरोगे कि फिर दोहर जाओगे। फिर यही रास्ते, फिर यही
दुकानें, फिर यही बाजार, फिर यही घर,
धन—दौलत, पत्नी, बच्चे,
फिर यही खाते बही, फिर यही रोग, फिर यही दुख, सब पूरा का पूरा दोहर जाएगा।
बुद्ध
और महावीर दोनों ने बहुत जोर दिया है अपने साधकों के लिए कि वे पिछले जन्मों का
स्मरण करें। सिर्फ एक कारण से, कि अगर पिछले जन्मों का स्मरण आ जाए, तो तुम्हें एक बात पता चलती है कि तुम पुनरुक्ति कर रहे हो। यही—यही तुम
बहुत बार कर चुके हो। जैसे उसी फिल्म को फिर देखने चले गए।
मैं
एक आदमी को जानता हूं, मेरे एक मित्र के पिता हैं। जिस गांव में रहते हैं, वहा एक ही टाकीज है। और उनके पास कोई काम नहीं। दिन में तीन शो होते हैं,
वे तीनों शो देखते हैं। एक फिल्म पांच—सात दिन चलती है, वे पांच—सात दिन देखते है। एक दफा उनके घर मेहमान था। मैंने पूछा कि गजब
कर रहे हैं आप! एक ही फिल्म को दिन में तीन बार देख आते हैं। वे कहते हैं, कुछ करने को नहीं, घर में बैठे घबड़ा जाता हूं। चलो
चल पड़े, टाकीज हो आए, देख आए। रोज उसी
को देखते हैं पांच—सात दिन तक।
उनको
देख कर, उनके चेहरे को देखकर मुझे लगा, यह आदमी की हालत है!
यही फिल्म तुम बहुत बार देख चुके हो। यही यश तुम बहुत बार मांग चुके हो। यही काम,
यही क्रोध तुम बहुत बार कर चुके हो, नया कुछ
भी नहीं है।
तो
बुद्ध और महावीर दोनों ने ऐसी प्रक्रियाएं खोजीं, जिनके माध्यम से व्यक्ति
अपने पिछले जन्मों के स्मरण में चला जाए। स्मरण आते ही भयंकर घबड़ाहट पकड़ लेती है
कि यह मैं क्या कर रहा हूं वही—वही? वह तो हम भूल जाते हैं,
तो सब लगता है फिर नया। फिर पड़े प्रेम में, फिर
कोई पायल बोली, फिर तुमने समझा कि ऐसा प्रेम तो कभी हुआ ही
नहीं। हुए होंगे मजनू फरिहाद, हरि—संझा, मगर मैं तो कभी नहीं हुआ। ऐसा प्रेम कभी नहीं हुआ। यह अनूठी घटना घट रही
है।
तुम
यह गोरखधंधा बहुत बार कर चुके हो। यह कुछ भी नया नहीं है। संसार बड़ा पुराना है।
संसार सदा से प्राचीन है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो नया है। सूरज के तले कुछ भी
नया नहीं। सब दोहर रहा है।
इस
दोहरने की प्रतीति के ही कारण, इस देश में आवागमन से कैसे मुकिा हो इसका भाव
उठा। संसार में कहीं भी नहीं उठा। क्योंकि संसार में कहीं भी पिछले जन्मों को
स्मरण करने की प्रक्रिया और मनोविज्ञान नहीं खोजा गया।
इसलिए
इस्लाम कहता है,
एक ही जन्म है। ईसाइयत कहती है, एक ही जन्म है।
यहूदी कहते हैं, एक ही जन्म है। ये तीन धर्म हैं जो भारत के
बाहर पैदा हुए। बाकी सब धर्म भारत में पैदा हुए।
जो
धर्म भारत में पैदा हुए,
वे कहते हैं, पुनर्जन्म है। अनंत श्रृंखला है।
अनंत
श्रृंखला के कारण
भारत को एक बात समझ में आनी शुरू हुई कि यह तो पुनरुक्ति है, यह तो चाक
का घूमना है। फिर वही आरे ऊपर आ जाते हैं, फिर नीचे चले जाते
हैं, फिर ऊपर आ जाते हैं। बड़ी ऊब पैदा हो गयी। और जिस
व्यक्ति को जीवन से ऊब पैदा हो जाए, वही जीवन से मुक्त होता
है।
तो
पुनरुक्ति मत करो। कल जो क्रोध किया था, काफी कर लिया, अब दुबारा मत करो। कल यश मांगा था, खूब मांग लिया,
क्या पाया? अब मत मांगो। कल तक धन के लिए दौड़े,
अब रुको। धीरे—धीरे पुनरुक्ति से अपने हाथों को छुड़ाओ। मरने के पहले
पुनरुक्ति से अपने को छुड़ा लेना, अन्यथा मरकर तुम फिर
पुनरुक्त हो जाओगे। क्योंकि मरते क्षण जो आकांक्षा होगी, वही
तुम्हारे नए जन्म की शुरुआत हो जाती है।
'मरणोपरात
कोई गर्भ में उत्पन्न हो जाता है, कोई पाप कर्म करने वाले
नरक में चले जाते हैं, कोई सुगति वाले स्वर्ग को जाते हैं।
स्वर्ग
और नर्क भावदशाएं हैं। मरने के बाद जिस व्यक्ति ने जीवन में कष्ट ही कष्ट, दुख ही
दुख का अभ्यास किया है, वह एक महान दुखांत नाटक में पड़ जाता
है मन के। भयंकर दुख और पीड़ा में पड़ जाता है। उसका मन, जिसको
दुख—स्वप्न कहते हैं, उससे गुजरता है। वह दुख—स्वभ अंतहीन
मालूम होता है। नर्क कहीं है नहीं। नर्क केवल तुम्हारा एक दुख—स्वप्न है। तुम्हारे
जीवनभर के दुखों की तुमने जो अनुभूति इकट्ठी कर ली है, उसमें
से पुन: गुजर जाने का नाम है।
जिस
व्यक्ति ने जीवनभर अहोभाव से जीया, बुरा न किया, बुरा न सोचा, बुरा न हुआ, और
जिसने घाव न बनाए, जिसने अपने को सावधान रखा, सावचेत रखा, वह मरने के बाद एक बड़े मधुर स्वप्न से
गुजरता है। वह मधुर स्वप्न ही स्वर्ग है। वह भी अंतहीन मालूम होता है।
लेकिन
चाहे नर्क से गुजरो,
चाहे स्वर्ग से गुजरो, 'वह स्वम्न ही है।
अंततः फिर तुम्हें वापस लौट आना पड़ता है। कितना ही लंबे सुख में रहो, संसार में फिर वापस लौट आते हो। चुक जाता है पुण्य भी, पाप भी।
इसलिए
एक नया अनुभव भारत में पैदा हुआ, और वह यह था कि सुख के पार जाना है, जो कभी न चुके। एक ऐसी अवस्था खोजनी है चैतन्य की, जिससे
कोई गिरना न हो। एक ऐसा अतिक्रमण, एक ऐसी परात्पर चैतन्य की
दशा, जिससे फिर कोई नीचे उतरना न हो। उसे हम ब्रह्मभाव कहें—बुद्ध
ने निर्वाण कहा, महावीर ने कैवल्य कहा—या जो भी नाम हमें
प्रीतिकर हो।
'न अंतरिक्ष में, न समुद्र के गर्भ में, न पर्वतों के विवर में प्रवेश कर—संसार में कोई स्थान नहीं है, जहा रहकर प्राणी पापकर्मों के फल से बच सके। '
पाप
किया है, तो फल से बच न सकोगे। कोई प्रार्थना न बचाएगी। कोई पूजागृह न बचाएगा।
बुद्ध
कहते हैं, 'न अंतरिक्ष में, न समुद्र के गर्भ में, न पर्वतों के विवर में प्रवेश कर—संसार में कोई स्थान नहीं है, जहा रहकर प्राणी पापकर्मों के फल से बच सके।
न
अंतरिक्ष में न समुद्र के गर्भ में न पर्वतों के विवर में प्रवेश कर—संसार में कोई
स्थान नहीं है,
जहां घुसकर मृत्यु से मनुष्य बच सके। पाप का फल आएगा। पाप में आ ही
गया है। तुम्हें थोड़ी देर लगेगी पहचानने में। फिर करना क्या है?
बुद्ध
कहते हैं, पाप के फल से बचो मत। उसके, पाप के फल को निष्पक्ष
भाव से भोग लो। यह बड़ा कीमती सूत्र है। तुमने कुछ किया, अब
उसका दुख आया, इस दुख को तटस्थ भाव से भोग लो! अब आनाकानी मत
करो। अब बचने का उपाय मत खोजो। क्योंकि बच तुम न सकोगे। बचने की कोशिश में तुम और
लंबा दोगे प्रक्रिया को। तुम इसे भोग लो जानकर कि मैंने किया था, अब फल आ गया। फसल बो दी थी, अब काटनी है; काट लो। लहूलुहान हों हाथ, पीड़ा हो, होने दो। लेकिन तुम तटस्थ भाव सें—इसे खयाल में रखना—तटस्थ भाव!
अगर
तुमने इस फल के प्रति कोई भाव न बनाया, तुमने यह न कहा कि मैं नहीं भोगना
चाहता, यह कैसे आ गया मेरे ऊपर, यह तो
जबर्दस्ती है, अन्याय है—क्योंकि ऐसी तुमने कोई भी
प्रतिक्रिया की तो तुमने आगे के लिए फिर नया कर्म बो दिया। तुम कुछ मत कहो। तुम
इतना ही कहो कि मैंने किया था, उसका फल मुझे मिल गया,
निपटारा हुआ। सौभाग्यशाली हूं! बात खतम हुई।
बुद्ध
के ऊपर एक आदमी भूक गया। उन्होंने पोंछ लिया। दूसरे दिन क्षमा मांगने आया। बुद्ध
ने कहा, तू फिक्र मत कर। मैं तो खुश हुआ था कि चलो निपटारा हुआ। किसी जन्म में
तेरे ऊपर यूका था, राह देखता था कि तू जब तक न यूक जाए,
छुटकारा नहीं है। तेरी प्रतीक्षा कर रहा था। तू आ गया, तेरी बड़ी कृपा! बात खतम हो गयी। अब मुझे इस सिलसिले को आगे नहीं ले जाना
है। अब तू यह बात ही मत उठा। हिसाब—किताब पूरा हो गया। तेरी बड़ी कृपा है!
जो
भी आए, उसे शात भाव से स्वीकार कर लो। उसे गुजर जाने दो। अब कोई नया संबंध मत
बनाओ, कोई नयी प्रतिक्रिया मत करो, ताकि
छुटकारा हो, ताकि तुम वापस बाहर निकल आओ। धीरे—धीरे ऐसे एक—एक
कर्म से व्यक्ति बाहर आता जाता है। और एक ऐसी घड़ी आती है कि सब हिसाब पूरा हो जाता
है। तुम पार उठ जाते हो, तुम्हें पंख लग जाते हैं। तुम उस
परम दशा की तरफ उड़ने लगते हो। जब तक कर्मों का जाल होगा, तुम्हारे
पंख बंधे रहेंगे जमीन से। तुम आकाश की तरफ यात्रा न कर सकोगे।
मृत्यु
से भी बचने का कोई उपाय नहीं है, इसलिए बचने की चेष्टा छोड़ो। जिससे बचा न
जद्रसके, उससे बचने की कोशिश मत करो। उसे स्वीकार करो।
स्वीकार बड़ी क्रांति कारी घटना है। बुद्ध ने इसके लिए खास शब्द उपयोग किया है—तथाता।
तथाता का अर्थ है : जो है, मैं उसे स्वीकार करता हूं। मेरी
तरफ से कोई इनकार नहीं। मौत है, मौत सही। मेरी तरफ रत्तीभर
भी इनकार नहीं कि ऐसा न हो, या अन्यथा होता। जैसा हो रहा है,
वैसा ही होना था, वैसा ही होगा। मुझे स्वीकार
है। मेरी तरफ से कोई विरोध नहीं, कोई प्रतिरोध नहीं। मेरी
तरफ से कोई निर्णय नहीं। मेरी तरफ से कोई निंदा, प्रशंसा
नहीं।
ऐसी
शांत दशा में जो जीवन के सुख—दुखों को स्वीकार कर लेता है, जीवन—मृत्यु
को स्वीकार कर लेता है, वह जीवन—मृत्यु के पार हो जाता है।
आवागमन उसे वापस नहीं खींच पाता। वह आकाश का हो जाता है।
इस
परम वीतराग दशा को हमने लक्ष्य माना था। जीवन का लक्ष्य है, जीवन और
मृत्यु के पार हो जाना। वही सुख सुख है, जो दुख और सुख दोनों
के पार है। ऐसी दशा ही अमृत है, जहां न तो मृत्यु आती अब,
और न जीवन आता।
भारत
की इस खोज को अनूठी कहा जा सकता है। क्योंकि पश्चिम में, और
मुल्कों में, और संस्कृतियों—सभ्यताओं ने हजार—हजार लक्ष्य
खोजे हैं मनुष्य के जीवन के, लेकिन जीवन के पार हो जाने का
लक्ष्य सिर्फ भारत का अनुदान है। और थोड़ा ध्यान करोगे इस पर, तो समझ में आएगा कि जीवन का जिसने उपयोग इस तरह कर लिया कि सीढ़ी बना ली और
जीवन के भी पार हो गया। मृत्यु पर भी पैर रखा, जीवन पर भी
पैर रखा, द्वंद्व के पार हो गया—निर्द्वंद्व हो गया।
एक
तरफ से लगेगा कि यह तो शून्य की दशा होगी—है। और जब इसका अनुभव करोगे, तो पता
चलेगा कि यही ब्रह्म की भी दशा है। शून्य और पूर्ण एक के ही नाम हैं। तुम्हारी तरफ
से देखो, तो ब्रह्म शून्य जैसा मालूम होता है। बुद्धों की
तरफ से देखो, तो शून्य ब्रह्म जैसा मालूम होता है। क्योंकि
शून्य इस जगत में सबसे बड़ा सत्य है।
और
इस शून्य की तरफ जाना हो,
तो शांति को साधना। शांति धीरे—धीरे तुम्हारे भीतर शून्य को सघन
करेगी। तुम्हारे भीतर अनंत आकाश उतर आएगा। तुम खोते जाओगे। सीमाएं विलीन होती
जाएंगी। कोरे दर्पण रह जाओगे। उस कोरे दर्पण का नाम बुद्धत्व है। और उस बुद्धत्व
को पा लेने का जो उपाय है, उसको एस धम्मो सनंतनो कहा है।
आज इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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