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सोमवार, 17 अप्रैल 2017

अमृत द्वार-(विविध) -प्रवचन-06

छट्ठठा- प्रवचन-(नाचो--जीवन है नाच)

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी घटना से मैं अपनी आज की बात शुरू करना चाहता हूं।
एक महानगरी में सौ मंजिल एक मकान के ऊपर सौवीं मंजिल से एक युवक कूद पड़ने की धमकी दे रहा था। उसने अपने द्वार, अपने कमरे के सब द्वार बंद कर रखे थे। बालकनी में खड़ा हुआ था। सौवीं मंजिल से कूदने के लिए तैयार, आत्महत्या करने को उत्सुक। उससे नीचे की मंजिल पर लोग खड़े होकर उससे प्रार्थना कर रहे थे कि आत्महत्या मत करो, रुक जाओ, ठहर जाओ, यह क्या पागलपन कर रहे हो? लेकिन वह किसी की सुनने को राजी नहीं था। तब एक बूढ़े आदमी ने उससे कहाः हमारी बात मत सुनो, लेकिन अपने मां-बाप का खयाल करो कि उन पर क्या गुजरेगी? उस युवक ने कहाः न मेरा पिता है, न मेरी मां है। वे दोनों मुझसे पहले ही चल बसे। बूढ़े ने देखा कि बात तो व्यर्थ हो गई। तो उसने कहाः कम से कम अपनी पत्नी का स्मरण करो, उस पर क्या बीतेगी? उस युवक ने कहाः मेरी कोई पत्नी नहीं, मैं अविवाहित हूं। उस बूढ़े ने कहाः कम से कम अपनी प्रेयसी का खयाल करो। किसी को प्रेम करते होगे, उस पर क्या गुजरेगी? उस युवक ने कहाः प्रेयसी! मुझे प्रेम से घृणा है। स्त्री को मैं नरक का द्वार समझता हूं। मैं कोई स्त्री को प्रेम करता नहीं। मुझे कूद जाने दें।

अंतिम बात रह गई थी कहने को। उस बूढ़े ने कहाः कूदने के पहले एक बार यह सोच लो, किसी की फिकर मत करो, लेकिन अपनी तो फिकर करो! अपना जीवन नष्ट कर रहे हो? उस युवक ने कहाः काश! मुझे पता होता कि मैं कौन हूं, तो शायद जीवन नष्ट करने की बात ही न आती। लेकिन मुझे यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं।
पता नहीं वह युवक कूद गया, नहीं कूद गया, लेकिन उस युवक ने यह कहा कि मुझे यह भी पता नहीं है कि मैं कौन हूं। बच कर क्या करूंगा? जीवित रह कर भी क्या करूंगा?
जिस जीवन में यह भी पता न हो कि हम कौन हैं, उस जीवन का मूल्य और अर्थ क्या रह जाता है।
इस घटना से इसलिए अपनी बात शुरू करना चाहता हूं कि हम सब जीवन में करीब-करीब ऐसी ही हालत में खड़े हैं जहां हमें कोई भी पता नहीं कि हम कौन हैं। अपने होने का ही कोई बोध नहीं है। जीते हैं, लेकिन जीवन से कोई साक्षात्कार नहीं हुआ है। श्वास लेते हैं, चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, फिर एक दिन समाप्त हो जाते हैं। लेकिन ज्ञात नहीं हो पाता कि कौन था जो जन्मा, कौन था जो जीआ, कौन था जो समाप्त हो गया।
इतने अज्ञान से भरे हुए जीवन में कोई आनंद हो सकता है? इतने अज्ञान से भरे हुए जीवन में कोई प्रेम हो सकता है? इतने अज्ञान से भरे जीवन में कोई उपलब्धि हो सकती है? इतने अज्ञान से भरे जीवन में कोई अर्थ, कोई प्रयोजन, कोई सार्थकता हो सकती है? नहीं हो सकती है, नहीं है। इसीलिए मनुष्य-जाति इतनी उदास, इतनी चिंतित, इतनी भयभीत, इतनी दुखी, इतनी विपन्न मालूम पड़ती है। जैसे कोई वृक्ष की जड़ें हिला दी गई हों, जैसे किसी वृक्ष को जड़ों से उखाड़ दिया गया हो, ऐसी मनुष्य-जाति अपरूटेड, जैसे सारी जड़ें हिल गई हों, ऐसी मालूम पड़ती है।
ये जड़ें किस चीज से हिल गई हैं? मनुष्य को यह भी पता न रह जाए कि मैं कौन हूं तो उसकी जड़ें जीवन से हिल जाती हैं। जीवन का, शुभ जीवन का, सुंदर जीवन का, आनंदपूर्ण जीवन का अगर कोई आधार हो सकता है तो एक ही हो सकता है कि व्यक्ति कम से कम इतना तो जान ले कि वह कौन है, और क्या है और किसलिए है?
मनुष्य के सामने हमेशा से खड़ा हुआ प्रश्न एक ही है, और हम अपने को कितना ही भुलाने की कोशिश करें, कितना ही उलझाने की कोशिश करें, वह प्रश्न हमारे सामने से हटता नहीं, जब तक कि हल न हो जाए। हम कितना ही धन इकट्ठा कर लें और कितने ही महल इकट्ठे कर लें और कितना ही यश अर्जित कर लें, लेकिन एक प्रश्न बीच-बीच में बार-बार खड़ा हो जाता है--मैं कौन हंू? मैं किसलिए हूं? इस जीवन का अर्थ क्या है? फिर हम काम में लग जाते हैं कि भूले रहें, भूले रहें। लेकिन यह प्रश्न पीछा नहीं छोड़ेगा। यह जीवन का पहला प्रश्न है, और पहले प्रश्न को ही जो हल नहीं कर पाता वह कुछ भी हल नहीं कर पाएगा। जीवन भर यह प्रश्न उसका पीछा करेगा, और जिस आदमी का यह प्रश्न पीछा करता है कि मैं कौन हूं, वह आदमी कभी भी निशिं्चत नहीं हो सकता। उसके जीवन में चिंता बनी ही रहेगी, बनी ही रहेगी।
हमारी स्थिति वैसी ही है जैसी कोई आदमी यात्रा पर निकला हो, और उसे यह भी पता न हो कि मैं कहा जा रहा हूं। वह ट्रेन में बैठ गया हो और उसे यह भी पता न हो कि मुझे किस स्टेशन पर पहुंच जाना है। वह पच्चीस तरह से अपने को भुलाने की कोशिश करता हो, अखबार पढ़ता हो, रेडियो खोलता हो, पड़ोसियों से बात करता हो, लेकिन थोड़ी बहुत देर में उसे फिर यह खयाल आ जाता है कि मैं जा कहा रहा हूं! यह ट्रेन मुझे कहां ले जाएगी? मुझे किस स्टेशन पर उतर जाना है? वह प्रश्न उसका पीछा करेगा। करेगा। स्वाभाविक है कि पीछा करे। क्योंकि जिस यात्री को यात्रा के लक्ष्य का ही कोई पता न हो--और हम तो ऐसे यात्री हैं जिन्हें यात्रा के लक्ष्य का ही पता नहीं--जिन्हें यह भी पता नहीं कि यात्री कौन है? मैं कौन हूं? हम न केवल यह नहीं जानते हैं कि हमें कहां पहुंचना है; न केवल हम यह नहीं जानते हैं, हमें कहां उतर जाना है; न हम यह जानते हैं, हमें किस दिशा में यात्रा करनी है; हमें यह भी पता नहीं है कि मैं कौन हूं जो यात्रा करने वाला हूं।
तो यदि मनुष्य विपिन्न मालूम पड़ता हो, चिंतित, भयातुर, घबड़ाया हुआ, तो आश्चर्य ही क्या है? स्वाभाविक है। जब तक मनुष्य जीवन के इस प्राथमिक प्रश्न का उत्तर न खोज ले तब तक उसके जीवन में आनंद की कोई वर्षा नहीं हो सकती है। न वह आत्म-विश्वस्त हो सकता है, न वह निशिं्चत हो सकता, न उसके तनाव समाप्त हो सकते, न उसकी अशांति समाप्त हो सकती, न उसकी पीड़ा बंद हो सकती, न उसके दुख से छुटकारा हो सकता। फिर वह कितने ही उपाय करता रहे, वे सब उपाय अपने वास्तविक प्रश्न और जीवन की वास्तविक समस्या को भुलाने के उपाय हैं। भुलाने से कोई बात भूलती नहीं। जितना हम भुलाने की कोशिश करते हैं वह उतनी ही प्रबल होकर सामने खड़ी हो जाती है। आदमी के जन्म से लेकर मृत्यु तक एक प्रश्न पीछा करता है, मैं कौन हूं और किसलिए हूं?
 और अगर इसका कोई पता नहीं चलेगा तो फिर शास्त्र ने जैसा कहा है, मैन इ.ज ए यूजलेस पैशन। शास्त्र कहता है, आदमी एक व्यर्थ वासना है जिसमें कोई अर्थ नहीं। तो फिर अंत में यही दिखाई पड़ेगा कि आदमी एक व्यर्थ की दौड़-धूप है, एक अर्थहीन कथा, जिसका न कोई प्रारंभ, न कोई अंत, न जिसका कोई उद्देश्य। तो ऐसे व्यर्थ जीवन में शांति हो सकती है? ऐसे मीनिंगलेस एक्झिस्टेंस में, ऐसे अर्थहीन अस्तित्व में प्राण निशिं्चत हो सकते हैं? इतनी व्यर्थता के बीच प्रेम का जन्म हो सकता है? इतनी व्यर्थता के बीच, कोई सत्य, कोई शिव, किसी सुंदर का अवतरण हो सकता है? इसलिए इसी संबंध में थोड़ी बात मुझे आपसे कहनी है।
मैं कहना चाहता हूं, मनुष्य एक व्यर्थ वासना नहीं है, यूजलेस पैशन नहीं है। मैं कहना चाहता हूं, जीवन एक अर्थहीन कथा नहीं है। मैं कहना चाहता हूं, जीवन एक सार्थक आनंद है। लेकिन केवल उन्हीं के लिए जो जीवन की पहेली को सुलझाने की हिम्मत दिखाते हैं। हम सब तो एस्केपिस्ट हैं। हम सब तो जीवन की पहेली की तरफ पीठ करके भागने वाले लोग हैं। जो जीवन से भागते हैं, अगर जीवन उन्हें आनंद न हो सके, तो इसमें दोष किसका, कसूर किसका? जीवन को आमने-सामने लेना है, जीवन का एनकाउंटर करना है। जीवन से मुठभेड़ लेनी है, जीवन का सामना करना है, तो जीवन का अर्थ खुलना शुरू हो जाता है। जो जीवन को आमने-सामने खड़े होकर देखने की हिम्मत दिखाता है, वही व्यक्ति इस समस्या को सुलझाने में समर्थ हो पाता है कि मैं कौन हूं।
लेकिन आदमी ने इस समस्या से बचने के बहुत से उपाय खोज लिए हैं--हल करने के नहीं, बचने के। इस समस्या को सुलझा लेने के नहीं, समस्या से भागने के। हमारी शायद आदत यह हो गई है कि हम हर प्रश्न और समस्या से भागने के लिए कोई रास्ता खोज लेते हैं। अगर घर में कोई बीमार पड़ा है, अगर दिवाला निकल गया है, अगर धन की तंगी आ गई है, अगर जीवन चिंतित हो उठा है, तो कोई आदमी संगीत सुन कर अपने को भुला लेता है, कोई सिनेमा में बैठ कर अपने को भुला लेता है, कोई शराब पीकर अपने को भुला लेता है। लेकिन भुलाने से कोई समस्या हल होती है? भुलाने से सिर्फ समस्या को हल करने की हमारी क्षमता और शक्ति क्षीण होती है। समस्या तो वहीं की वहीं खड़ी रहती है। हम और कमजोर वापस लौटते हैं। जितनी देर हम किसी समस्या को भुलाने की कोशिश करते हैं उतनी देर में हम और कमजोर हो जाते हैं। समस्या का सामना करने की हमारी सामथ्र्य और कम हो जाती है। जीवन की पूरी समस्या के साथ हम यही व्यवहार कर रहे हैं जो हम छोटी समस्याओं के साथ करते हैं। आदमी ने स्वयं को भूल जाने के लिए सब तरह के विकास कर लिए हैं। सारी शराबें, सारे मादक द्रव्य, सारी वे खोजें, जिन्हें आदमी मनोरंजन कहता है, वे सारी खोजें जीवन की वास्तविक समस्या को भुलाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करती।
किस बात को आप मनोरंजन कहते हैं? जहां आप घड़ी दो घड़ी अपने को भूल जाते हैं। संगीत में, सिनेमा में, शराब में, मित्रों में, मंडली में, भजन-कीर्तन में, मंदिर में, प्रार्थना में, जहां भी आप अपने को थोड़ी देर के लिए भूल जाते हैं, आप कहते हैं, बड़ा अच्छा लगा। लेकिन अपने को भूलना आत्मघाती है, सुसाइडल है। अपने को जानना है, भूलना नहीं है। भूल कर क्या हल होगा? कौन सी समस्या सुलझ जाएगी? नींद में पड़ जाने से कौन सी समस्या का अंत आ जाएगा? लेकिन आदमी ने आज तक अपने को भुलाने की कोशिश की है, उन लोगों ने तो कोशिश ही की है जिन्हें हम सांसारिक कहते हैं, जिन्हें हम धार्मिक कहते हैं। वे तथाकथित धार्मिक लोगों ने भी स्वयं को भुलाने की कोशिश की है।
प्रश्न है कि मैं कौन हूं? और इसके हमने कुछ रेडीमेड उत्तर तैयार कर रखे हैं जो कि भुलाने के लिए तरकीब का काम करते हैं। जब प्रश्न उठता है कि मैं कौन हूं? हम किताबों में खोजते हैं, शास्त्रों में खोजते हैं, वहां उत्तर मिल जाते है कि तुम तो परमात्मा हो, तुम तो ब्रह्मा हो, तुम तो आत्मा हो। फिर उन उत्तरों को हम पकड़ लेते हैं और दोहराने लगते हैंः मैं आत्मा हूं, मैं ब्रह्म हूं, मैं परमात्मा हूं। रोज सुबह-सांझ हम इसे दोहराने में लग जाते हैं। शायद हम सोचते होंगे कि दोहराने से समस्या हल हो जाएगी? शायद हम सोचते होंगे कि इस भांति किसी विचार को, शब्द को पकड़ कर बार-बार स्मरण करने से जीवन का प्रश्न समाप्त हो जाएगा। शब्द से ज्यादा असत्य और कुछ भी नहीं है। शब्द बिलकुल ताश के पत्तों जैसा है। ताश के पत्ते दे दिए जाएं, तो हम तरकीब-तरकीब के घर बना सकते हैं ताश के पत्तों से, लेकिन ताश के पत्तों का घर हवा का जरा सा झोंका और गिर जाते हैं। शब्दों से भी जो हम घर बनाते हैं, शब्दों से भी जो हम अपने भीतर समस्याओं को हल करने की कोशिश करते हैं, वह ताश के पत्तों से भी कमजोर चीज है। शब्द का कोई प्राण ही नहीं, शब्द का कोई अस्तित्व नहीं। शब्द में कोई ठोसपन नहीं, शब्द तो बिलकुल हवा में खींची गई लकीर की तरह है। और हमने सारी समस्याओं को शब्दों से हल करने की कोशिश की है। इसलिए समस्याएं तो वहीं की वहीं है, आदमी शब्दों में उलझ कर नष्ट हुआ जा रहा है। आदमी के ऊपर जो सबसे बड़ा दुर्भाग्य है, वह शब्दों के ऊपर विश्वास सबसे बड़ा दुर्भाग्य है, जिसके कारण जीवन की कोई समस्या हल नहीं हो पाती।
हमारे पास क्या है? ज्ञान के नाम पर हमारे पास शब्दों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। किन्हीं के पास हिंदुओं के शब्द हैं, किन्हीं के पास मुसलमानों के शब्द हैं, किन्हीं के पास जैनों के शब्द हैं, किन्हीं के पास ईसाइयों के शब्द हैं। शब्दों के अतिरिक्त हमारे पास संपत्ति क्या है? अगर हम भीतर खोजने जाएं, तो शब्दों के अतिरिक्त हमारे पास क्या है? और शब्द का क्या मूल्य हो सकता है?
एक सम्राट के द्वार पर एक कवि ने एक दिन सुबह आकर सम्राट की प्रशंसा में कुछ गीत कहे, कुछ कविताएं कहीं। फिर कवि तो रुकते नहीं शब्दों का महल बनाने में। वे तो कुशल होते हैं। उन्होंने, उस कवि ने सम्राट को सूरज बना दिया, सारे जगत का प्रकाश बना दिया। उस कवि ने सम्राट को जमीन से उठा कर आकाश पर बिठा दिया, उसने अपनी कविता में जितनी प्रशंसा कर सकता था, की। सम्राट ने उससे कहाः धन्य हुआ तुम्हारे गीत सुन कर। बहुत प्रभावित हुआ। एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं कल सुबह तुम्हें भेंट कर दी जाएंगी। कवि तो दीवाना हो गया। सोचा भी न था कि एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं मिल जाएंगी! आनंद-विभोर घर लौटा, रात भर सो नहीं सका। बार-बार खयाल आने लगा, एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं! क्या करूंगा? न मालूम कितनी योजनाएं बना लीं। कवि था, शब्दों का मालिक था। बहुत शब्द जोड़ लिए। सारा भविष्य स्वर्णमय हो गया, सारा भविष्य एक सपना हो गया। जीवन एक धन्यता मालूम होने लगी।
सुबह जल्दी ही, सूरज निकल भी नहीं पाया कि द्वार पर पहुंच गया राजा के। सम्राट ने बिठाया और थोड़ी देर बाद पूछाः कैसे आए हैं? उस कवि ने सोचा, कहीं भूल तो नहीं गया सम्राट? पूछता है कैसे आए हैं? उसने कहा कि पूछते हैं कैसे आया हूं, रात भर सो नहीं सका, क्या पूछते हैं आप? कल कहा था आपने की एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं भेंट करेंगे। सम्राट हंसने लगा, कहा, बड़े नासमझ हैं आप। आपने शब्दों से मुझे प्रसन्न किया था, मैंने भी शब्दों से आपको प्रसन्न किया था, इसमें लेने-देने का कहां सवाल आता है? कैसी एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं? आपने कुछ शब्द कहे थे, कुछ शब्द मैंने कहे थे। शब्द के उत्तर में शब्द ही मिल सकते हैं। स्वर्ण-मुद्राएं कैसी? तब कवि को पता चला कि शब्द अपने में थोथे हैं, उनके भीतर कोई कंटेंट नहीं हैं। शब्द अपने आप में पानी पर खींची गई लकीरों से ज्यादा नहीं हैं। लेकिन हमारे पास क्या है? शब्दों के अतिरिक्त कुछ और है?
शब्दों पर हम जीते और लड़ते भी हैं। मैं कहता हूं, मैं हिंदू हूं। मैं कहता हूं, मैं मुसलमान हूं। कोई कैसे मुसलमान हो गया, कोई कैसे हिंदू हो गया? कुछ शब्द हैं जो कुरान से लिए गए हैं, कुछ शब्द हैं जो गीता से लिए गए हैं। कुछ शब्द हैं जो इस मुल्क में पैदा हुए है, कुछ शब्द है जो उस मुल्क में पैदा हुए हैं। और शब्दों को हमने इकट्ठा कर लिया, तो एक तरह के शब्द मुसलमान बना लेते हैं, दूसरे तरह के शब्द हिंदू बना देते हैं, तीसरे तरह के शब्द जैन बना देते हैं। क्योंकि किसी के भीतर कुरान है, किसी के भीतर बाइबिल है, किसी के भीतर गीता है। शब्दों के अतिरिक्त हमारी संपदा क्या है? और इन कोरे शब्दों पर हम लड़ते भी हैं और जीवित आदमी की छाती में तलवार भी भोंक सकते हैं, मंदिर भी जला सकते हैं, मस्जिद में आग भी लगा सकते हैं। क्योंकि मेरे शब्द अलग हैं, आपके शब्द अलग हैं।
आदमी शब्दों पर जी रहा है हजार वर्षों से और सोच रहा है कि शब्दों में कोई बल है, कोई संपदा है, कोई संपत्ति है। शब्द एकदम बोझ हैं, लेकिन शब्दों से भ्रम जरूर पैदा होता है। जैसे उस कवि को भ्रम पैदा हुआ एक लाख स्वर्ण-मुद्राओं का। रात भर उसे उसने गिनती की। हाथ में स्वर्ण-मुद्राएं मालूम पड़ीं। रात भर उसने सपने बनाए कि अब क्या करूं और क्या न करूं? कितना बड़ा भवन बनाऊं, कितना बड़ा रथ खरीदूं, कितना बड़ा बगीचा लगाऊं, क्या करूं, क्या न करूं? लेकिन हाथ में कुछ भी न था। एक लाख स्वर्ण-मुद्रा का शब्द था। शब्द से उसने फैलाव कर लिया।
हमारे हाथ में क्या है? आत्मा, परमात्मा, मोक्ष, जन्म, जीवन, प्रेम, आनंद हमारे पास शब्दों के अतिरिक्त और क्या है? लेकिन शब्द से जरूर भ्रम पैदा होता है। छोटा सा बच्चा स्कूल में पढ़ता है, सी ए टी कैट, कैट यानी बिल्ली। बार-बार पढ़ता है, सी ए टी कैट, कैट यानी बिल्ली। सी ए टी कैट, कैट यानी बिल्ली। सीख जाता है, फिर वह कहता है कि मैं जान गया--कैट यानी बिल्ली। लेकिन उसने जाना क्या है? उसने दो शब्द जाने। कैट भी एक शब्द है, बिल्ली भी एक शब्द है। बिल्ली को जाना उसने? बिल्ली जो जीवंत है, वह जो जीवित बिल्ली है उसको जाना उसने? लेकिन वह कहता है कि मैंने जान लिया--कैट यानी बिल्ली। उसने दो शब्द जान लिए, दोनों शब्दों का अर्थ जान लिया। शब्द भी शब्द है, अर्थ भी शब्द है। और बिल्ली पीछे छूट गई, वह जो जीवंत प्राण है बिल्ली का। उसे उसने बिलकुल नहीं जाना, लेकिन वह कहेगा कि मैं जानता हूं कैट यानी बिल्ली। लेकिन बिल्ली को पता भी नहीं होगा कि मैं कैट हूं या बिल्ली हूं। बिल्ली को पता भी नहीं होगा कि आदमी ने मुझे क्या शब्द दे रखे हैं।
और आदमी जमीन पर न हो, तो बिल्ली का क्या नाम होगा? कोई भी नाम नहीं होगा। लेकिन बिल्ली फिर भी होगी। शब्द कोई भी न होगा, बिल्ली फिर भी होगी। आकाश में तारे होंगे, शब्द कोई न होगा। आदमी नहीं होगा तो सूरज उगेगा लेकिन शब्द कोई भी नहीं होगा। वृक्षों में फूल खिलेंगे लेकिन कोई फूल गुलाब का नहीं होगा, कोई जूही का नहीं होगा, कोई चमेली का नहीं होगा।
शब्द आदमी का इनवेनशन है, आदमी की ईजाद है। लेकिन शब्द से एक भ्रम पैदा होता है। मैंने सीख लिया कि इस फूल का नाम गुलाब है, तो मैं समझता हूं, मैं गुलाब को समझ गया? मैंने शब्द सीख लिया कि इस फूल का नाम गुलाब है, तो मैं समझता हूं कि मैं गुलाब को समझ गया? शब्द सीख लेने से गुलाब को समझने का क्या संबंध है? लेकिन जो आदमी गुलाबों की जितनी जातियों के नाम जानता है, समझता है मैं गुलाबों का उतना ही बड़ा जानकार हूं। जितने प्रकार के गुलाबों के नाम बता सकता है, वह कहेगा कि मैं उतना जानकार हूं। जानकार वह किस चीज का है--गुलाब का या शब्दों का, नामों का? हो सकता है गुलाब से उसकी कोई पहचान ही नहीं हुई हो? गुलाब को उसने जाना ही न हो कभी? गुलाब के सौंदर्य ने उसे कभी पकड़ा ही न हो, गुलाब कभी उसकी आत्मा पर चित्र न बना हो, गुलाब कभी उसके भीतर प्रविष्ट न हुआ हो। कभी वह गुलाब के भीतर प्रविष्ट न हुआ हो। उसे गुलाब का कोई पता ही न हो, लेकिन वह कहता है, मैं जानता हूं, क्योंकि इस फूल का नाम गुलाब है।
हमने शब्द सीख रखे हैं, और शब्दों को ज्ञान समझ रखा है। आदमी को अज्ञान में बनाए रखने का सबसे बड़ा कारण यह है कि आदमी ने शब्दों को ज्ञान मान लिया है। जब तक शब्दों को ज्ञान समझा जाएगा तब तक मनुष्य-जाति के जीवन में ज्ञान का कोई जन्म नहीं हो सकता है। शब्द ज्ञान नहीं है। सत्य शब्द के पीछे है, सत्य शब्द से पहले है। सत्य शब्द मिट जाते हैं तब भी शेष रह जाता है। सत्य को हम शब्द देते हैं लेकिन सत्य शब्द नहीं है। लेकिन यह भूल पैदा हो जाती है।
कोई मुझे मिलता है, मैं पूछता हूं, आपका परिचय? वह बता देता, मेरा नाम राम है। फिर मैं दूसरे लोगों को कहता हूं, मैं राम को जानता हूं। मैं जानता क्या हूं? मैं एक शब्द जानता हूं राम, और इस आदमी का नाम राम है, इतना जानने को मैं कहता हूं, मैं जानता हूं, मैं परिचित हूं, मैं भलीभांति जानता हूं। लेकिन उस राम के पीछे क्या छिपा है, उस व्यक्ति में क्या छिपा है? उस शब्द के पार वह जो असली आदमी है वह क्या है? शब्द तो सिंबल है, प्रतीक है। वह असली आदमी, सब्स्टेंस क्या है? उसका मुझे कोई पता नहीं है। लेकिन हम नाम जान कर कहने लगते कि मैं परिचित हूं। हमने सब नाम सीख रखे हैं। हमने अपने बाबत भी नाम सीख रखे हैं--शरीर आत्मा, परमात्मा, सब हमने सीख रखे हैं। कोई पूछे कि कौन हैं आप? तो सीखा हुआ आदमी कहेगा, मैं आत्मा हूं। आत्मा अमर है। लेकिन सब शब्द हैं, कोरे शब्द हैं, किसी किताब में पढ़ लिए गए हैं। जाना कुछ भी नहीं गया है।
हम सब शब्दों की मालकियत कर बैठे हैं। शब्दों को पकड़ कर बैठ गए हैं। और जो आदमी शब्दों का जितना कुशल कारीगर होता है वह उतना ज्ञानी मालूम पड़ता है। शब्दों से ज्ञान का कोई संबंध नहीं है। इसलिए हम पंडितों को ज्ञानी समझ लेते हैं। पंडित भूल कर भी ज्ञानी नहीं होता। होना भी चाहे तो नहीं हो सकता है जब तक कि पंडित होना मिट न जाए। दुनिया में अज्ञानियों को ज्ञान मिल सकता है लेकिन पंडितों को कभी नहीं मिलता है। क्योंकि शब्द पर उनकी इतनी पकड़ है गीता उन्हें कंठस्थ है बाइबिल उन्हें पूरी याद है, उपनिषद उन्हें पूरे रटे हुए हैं। वे वही बच्चों वाला काम कर रहे हैं--सी ए टी कैट, कैट यानी बिल्ली। वे उपनिषद कंठस्थ कर लिए हैं, गीता कंठस्थ कर ली है। जब भी पूछिए, तो गीता बोलना शुरू हो जाती है, उपनिषद निकलने शुरू हो जाते हैं। हमें लगता है, आदमी बहुत ज्ञानी है। लेकिन क्या निकल रहा है बाहर? सिवाय शब्दों के और कुछ भी नहीं। शब्द के कारण मनुष्य अपने को जानने से वंचित है।
फिर क्या रास्ता हो सकता है? शब्दों से कोई ऊपर उठे, तो स्वयं को जान सकता है? सत्य के पार उठे, शब्द को छोड़े, शब्द के पीछे जाए, फूल को छोड़ दे, शब्द को और जो फूल है उस तक पहुंचे। गुलाब को छोड़ दे, शब्द को और जो गुलाब का फूल है वस्तुतः उस तक जाए, तो शायद जान भी सकता है।
चीन में एक सम्राट था। उसने सारे राज्य में खबर की कि मैं एक राज-मोहर बनाना चाहता हूं। एक मुर्गे का चित्र बनाना चाहता हूं। सारे राज्य के बड़े-बड़े कारीगर, कुशल कलाकार, चित्रकार, पेंटर मुर्गे का चित्र बना कर राजदरबार में उपस्थित हुए। बड़ी पुरस्कार के मिलने की संभावना थी। फिर जो आदमी जीत जाएगा उस प्रतियोगिता में वह राज्य का कला-गुरु भी नियुक्त हो जाएगा। वह शाही चित्रकार हो जाएगा। हजारों चित्र आए, एक से एक सुंदर चित्र था। राजा दंग रह गया। चित्र ऐसे मालूम पड़ते थे जैसे जिंदा मुर्गे हों, इतने जीवंत थे। बड़ी मुश्किल हो गई। कैसे तय करें कि कौन चित्र सुंदर है? भिन्न-भिन्न चित्र थे, सुंदर-सुंदर चित्र थे। एक बूढ़ा चित्रकार था राजधानी में। राजा ने उसे स्मरण किया और उसे बुलाया और कहा कि कोई चित्र चुनो। कौन सा चित्र सत्य है? कौन सा चित्र सर्वांग सुंदर है, उसी को हम राज्य की मोहर बना देंगे।
उसे बूढ़े चित्रकार ने द्वार बंद कर लिया। सुबह से सांझ तक वह कमरे के भीतर था। शाम को बाहर आया उदास। राजा से उसने कहाः कोई भी चित्र ठीक नहीं, कोई भी चित्र मुर्गे का नहीं है। राजा तो दंग रह गया! सब चित्र मुर्गों के थे। उसकी तो कठिनाई यह हो रही थी कि कौन चित्र सबसे सुंदर है? और उस चित्रकार ने आकर कहा कि चित्र मुर्गे के नहीं हैं। राजा ने कहाः क्या कहते हैं आप? क्या कसौटी है आपके जांचने की? क्या क्राइटेरियन है? कैसे आपने पहचाना? उसने कहाः मेरा एक ही क्राइटेरियन हो सकता था, एक ही मापदंड हो सकता था, मैं एक जानदार जवान मुर्गे को लेकर कमरे के भीतर गया और मैंने देखा मुर्गा पहचानता है किसी मुर्गे को कि नहीं? लेकिन मुर्गे ने ध्यान ही नहीं दिया चित्रों पर। हजार चित्र रखे थे वहां, वहां हजार मुर्गे थे। अगर मुर्गा एक भी मुर्गे को पहचानता तो बांग देता, चिल्ला कर खड़ा हो जाता, लड़ने की स्थिति में आ जाता या पास चला जाता, दोस्ती के लिए हाथ बढ़ाता, कुछ करता। लेकिन मुर्गा दिन भर रहा। सोया रहा, बैठा रहा, लेकिन एक चित्र को उसने नहीं देखा। राजा ने कहाः यह तो बड़ी मुश्किल हो गई। हमने तो सोचा भी नहीं था कि मुर्गों से पहचान करवाई जाएगी। अब क्या होगा?
उस बूढ़े ने कहाः मेरी उम्र ज्यादा हुई अन्यथा मैं कोशिश करता। लेकिन कौन जाने, बच जाऊं। कम से कम तीन साल लग जाएंगे, तो मैं कोशिश करूं।
राजा ने कहाः तीन साल! सत्तर साल का बूढ़ा था, सारे देश में प्रसिद्ध चित्रकार था। राजा ने कहाः एक साधारण से मुर्गे का चित्र बनाने में तीन साल?
उस बूढ़े ने कहाः चित्र बनाना तो बहुत आसान है, मुर्गे को जानना बहुत कठिन है। मुर्गे को जानना बहुत कठिन है। मुर्गे की आत्मा को इम्बाइब करना बहुत कठिन है। मुर्गे के साथ एक हो जाना बहुत कठिन है। और जब तक मैं मुर्गे से साथ एक न हो जाऊं, आत्मैक्य न हो जाए, जब तक मेरा उससे मिलन न हो जाए, तब तक मैं कैसे जानूं कि मुर्गा भीतर से क्या है? बाहर से जो दिखाई पड़ता है रंग, रेखा, उनसे कोई मुर्गे को नहीं पहचान सकता। मुर्गा भीतर क्या है?
सत्य है बात। अगर गांधी को आप ऊपर से देखें, तो पहचान सकते हैं कि भीतर क्या है? ऊपर से तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता। सुकरात आपको बंबई के रास्तों पर मिल जाए, तो क्या पहचान लेंगे कि भीतर क्या है? जीसस क्राइस्ट आपको मिल जाए कहीं, पहचान लेंगे भीतर क्या है? आदमी ऊपर से दिखाई पड़ेगा, रूप दिखाई पड़ेगा, रंग दिखाई पड़ेगा, शक्ल दिखाई पड़ेगी, और क्या दिखाई पड़ेगा? ये तो प्रतीक हुए। लेकिन भीतर यह आदमी क्या है, कैसे दिखाई पड़ेगा?
उस बूढ़े ने कहाः बहुत मुश्किल है, आदमी का चित्र भी बनाना होता तो भी आसान था, क्योंकि मैं भी एक आदमी हूं, भीतर से जान सकता हूं कि आदमी क्या होता है। लेकिन मुर्गा? मैं मुर्गा नहीं हूं। मुर्गा भीतर से कैसा अनुभव करता है, उसकी आत्मा क्या है, यह मैं कैसे जानूं?
राजा ने कहाः कोशिश करें, चित्र तो चाहिए जल्दी।
वह बूढ़ा जंगल में चला गया। छह महीने बीत गए। तो राजा ने आदमी भेजे कि पता लगाओ, वह बूढ़ा जिंदा है या मर गया? छह महीने हो गए, कोई खबर नहीं आई। आदमी गए, तो देखा, जंगली मुर्गों के बीच में वह बूढ़ा बैठा हुआ था चुपचाप। छह महीने बीत गए थे। वह जंगली मुर्गों की भीड़ में बैठा था चुपचाप। निरीक्षण करता था, आॅब्जर्व करता था, शायद आत्मैक्य के लिए कोई उपाय करता था। उसने लोगों को हटा दिया और कहाः जाओ, बीच-बीच में बार-बार मत आना। तुम्हारे आने से बाधा पड़ती है। मुझे याद आ जाता है कि मैं आदमी हूं। और जैसे मुझे याद आता है मुर्गा मेरे हाथ से छूट जाता है। तुम यहां बार-बार मत आना। तीन साल बाद मैं आ जाऊंगा। तुम्हें बीच-बीच में देखता हूं तो मुझे फिर याद आ जाता है कि मैं आदमी हूं। छह महीने में मैंने कोशिश की थी कि मैं मुर्गा हूं, वह भूल जाता है, वह हाथ से छूट जाता है।
तीन साल बाद लोग गए। उस बूढ़े को तो पहचानना मुश्किल हो गया। वह तो एक पहाड़ी किनारे खड़े होकर, मुर्गे की आवाज उससे निकल रही थी। उन्होंने उसे जाकर हिलाया और कहाः यह क्या हो गया? आपसे मुर्गे की आवाज निकल रही है? उस बूढ़े ने कहाः आ गया पकड़ में मुर्गा। इन तीन सालों में सब शब्द छोड़ दिए थे। इन तीन सालों में मुर्गे को मैं जानता हूं, यह खयाल छोड़ दिया। डूब गया उसके साथ, एक हो गया। अब चलता हूं। राज दरबार में जाकर खड़ा हुआ और उसने मुर्गे की आवाज में बांग दी।
राजा ने कहाः पागल हो गए हो मालूम होता है। हमने बुलाया था चित्र, तुम मुर्गा बन जाओ नहीं कहा था। चित्र कहां है?
उस कलाकार ने कहाः चित्र तो अब एक क्षण की बात है। सामान बुला लें, मैं चित्र यहीं बना दूंगा। लेकिन अब मैं जान कर लौटा हूं कि मुर्गा भीतर से क्या है, कैसा है? मैं उसके साथ एक होकर लौटा हूं। क्षण भर भी नहीं लगा, सामान आया और उसने चित्र बना कर सामने रख दिया। हाथ उठा कर लकीर खींच देनी थी। और राजा ने कहाः एक मुर्गा ले आओ। मुर्गा आया। दरवाजे पर ही उसने देखा कि चित्र है, उसने खड़े होकर--युद्ध के भाव से खड़ा हो गया, मुर्गे ने पहचान लिया कि सामने एक मुर्गा है। राजा ने कहाः जीत गए तुम। मापदंड पूरा हो गया। मैं तो सोचता था कि मुर्गा क्या पहचानेगा कि चित्र मुर्गे का है!
ये जो हमारे शब्द हैं--गुलाब का फूल, जूही का फूल, सूरज, पत्नी, बेटा, मां, बाप, ये शब्द बीच में खड़े हो जाते हैं, हमें किसी से भी एक नहीं होने देते। दूसरों की बात तो अलग। यह आत्मा हूं मैं, परमात्मा हूं मैं, ब्रह्मा हूं, अहं ब्रह्मास्मि, ये शब्द बीच में खड़े हो जाते हैं। स्वयं से भी एक नहीं होने देते। जिससे हम एक हैं उससे भी बीच में दीवाल खड़ी कर देते हैं। विचारक शब्दों का धनी होता है। और इसलिए विचारक सत्य को कभी नहीं जान पाता। सत्य को वे लोग जान पाते हैं, स्वयं के सत्य को, मैं कौन हूं? इस जीवन की प्राथमिक समस्या को वे लोग हल कर पाते हैं जो सारे शब्दों को छोड़ कर निःशब्द में प्रवेश करते हैं। जो शब्द को छोड़ कर शून्य में प्रवेश करते हैं।
शब्द को कैसे छोड़ा जा सकता है? बड़ी कठिनाई है। चैबीस घंटे हम शब्दों में जीते हैं। सोते हैं तो शब्दों में, जागते हैं तो शब्दों में। एक छोटा सा शब्द और हमारा हृदय खिल कर एक फूल बन जाता है। और एक छोटा सा शब्द और हमारा क्रोध का जागरण हो जाता है, हृदय एक अंगार बन जाता है। एक छोटा सा शब्द और हम दुखी हो जाते हैं। एक छोटा सा शब्द और हम आकाश में तैरने लगते हैं। हमारा सारा जीवन शब्दों का हैं, सारा जीवन शब्दों का है। जागते हैं तो शब्दों में, सोते हैं तो शब्दों में। रात भर शब्द और स्वप्न और शब्द और सुबह से उठे कि वह शब्दों का व्यापार फिर शुरू हो जाता है। जैसे किसी झील के ऊपर काई छा गई हो, पत्ते ही पत्ते फैल गए हों, पूरी झील ढंक गई हो, कुछ दिखाई न पड़ता हो, ऐसे शब्दों ही शब्दों में हमारी पूरी चेतना ढंक गई है, और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता है, सिवाय शब्दों के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है। आप भीतर जाइए और शब्द ही शब्द, शब्द ही शब्द मिलेंगे। इन शब्दों से छूटे बिना कोई स्वयं को नहीं जान सकता है। लेकिन हमारी सारी शिक्षा शब्दों की शिक्षा है। सारा समाज शब्दों पर जीता है। सारा जीवन शब्दों की संपदा का व्यापार करता है। निःशब्द की तो कोई संभावना नहीं, कोई मौका नहीं। शून्य हो जाने का, शब्द से मुक्त हो जाने का तो कोई अवसर नहीं है। जब तक यह अवसर हम न जुटा लें, तब तक हमें पता नहीं चल सकता कि मैं कौन हूं? जीवन क्या है?
यह कैसे होगा? दो बातें समझ लेनी जरूरी है। पहली बात, शब्द को हम किस भांति सीखते हैं, इस सूत्र को समझ लेना जरूरी है, तो हम यह भी सीख सकते हैं कि शब्द को कैसे भूला जा सकता है।
एक सुबह बुद्ध अपने भिक्षुओं के बीच बोलने गए लोगों ने देखा वे अपने हाथ में एक रेशमी रूमाल लिए हुए हैं। वे जाकर बैठ गए। बैठ कर उन्होंने रूमाल खोला, उसमें एक गांठ लगाई, फिर दूसरी गांठ लगाई, फिर तीसरी गांठ लगाई, फिर और गांठें लगाईं। पूरा रूमाल गांठों से भर गया। भिक्षु चुपचाप देखते रहे कि वे क्या कर रहे हैं। फिर उन्होंने कहाः भिक्षुओं मैं रूमाल लेकर आया था और उसमें कोई गांठ न थी, अब रूमाल में गांठें ही गांठें लग गई हैं। मैं तुमसे यह पूछता हूं, यह वही रूमाल है या दूसरा रूमाल है?
एक भिक्षु ने कहा कि एक अर्थ में तो वही रूमाल है, क्योंकि गांठ लगने से रूमाल में कोई खास फर्क नहीं पड़ गया है। और एक अर्थ में रूमाल में बदलाहट हो गई है। पहला रूमाल सीधा साफ था, इसमें गांठें पड़ गई हैं।
बुद्ध ने कहाः मनुष्य की चेतना भी ऐसी ही है। शब्दों की गांठें पड़ जाती हैं चेतना पर, लेकिन चेतना वही है, फिर भी फर्क हो गया। रूमाल में गांठें लगी हैं, तो रूमाल व्यर्थ हो गया। उसका उपयोग नहीं किया जा सकता, उसे खोला नहीं जा सकता। रूमाल वही है, लेकिन गांठों लगा रूमाल व्यर्थ हो गया। उसे खोला नहीं जा सकता, उसका उपयोग नहीं किया जा सकता। इसलिए फर्क भी पड़ गया और फर्क नहीं भी पड़ा। मूलतः तो रूमाल वैसा का वैसा है, लेकिन उपयोगिता भिन्न हो गई। फिर बुद्ध ने पूछाः मैं यह पूछता हूं, इन गांठों को कैसे खोला जाए? क्या मैं इस रूमाल को खींचूं? उन्होंने रूमाल खींचा, गांठें ओर छोटी हो गईं और मजबूत हो गईं। एक भिक्षु ने कहाः अगर आप रूमाल खींचते ही गए, तो गांठें और मजबूत हो जाएंगी, खुलेंगी नहीं।
हम जीवन भर शब्दों की गांठें और खींचते चले जाते हैं, वे और मजबूत होती चली जाती हैं।
बुद्ध ने कहाः तो मैं कैसे खोलूं? तो एक भिक्षु ने कहाः इसके पहले कि मैं कुछ कहूं कि रूमाल कैसे खुलेगा, मैं यह देखना चाहूंगा कि गांठें बांधी कैसे गई हैं? क्योंकि जिस भांति बांधी गई होंगी, उलटे रास्ते से चलने से खुल जाएंगी। बुद्ध ने कहाः यह भिक्षु ठीक कहता है। गांठ कैसे बांधी गई है, जब तक यह न जान लिया जाए तब तक गांठ खोली नहीं जा सकती। यह भी हो सकता है, खोलने की कोशिश में गांठ और मजबूती से बंध जाए।
मनुष्य के मन पर शब्दों की गांठ कैसे बंध गई है यह जानना जरूरी हो तो खोलने का रास्ता भी साफ हो जाता है। जिस रास्ते से चल कर आप इस भवन तक आए हैं, उलटे चलेंगे तो आप अपने घर पहुंच जाएंगे। जिस रास्ते से गांठ बंधती है, उलटे जाएंगे तो गांठ खुल जाएगी। यह शब्दों ने मनुष्य के मन को ऐसा जकड़ रखा है...।
कैसे जकड़ रखा है? क्या है प्रक्रिया शब्द के सीखने की? लर्निंग की प्रक्रिया क्या है? तो अनलर्निंग की प्रक्रिया उलटी प्रक्रिया होगी। तो मैंने कहा, छोटा बच्चा सीखता है। कैसे सीखता है? वह कहता है, सी ए टी कैट, कैट यानी बिल्ली, दोहराता है, दोहराता है, दोहराता है। रिपीट करता है, रिपीट करता है, रिपीट करता है, पुनरुक्ति करता है। पुनरुक्ति माध्यम है शब्द की गांठ बांधने का। जितना किसी चीज को दोहराइए, दोहराइए, दोहराइए, उतना शब्द की गांठ मन पर बैठती चली जाती है। पुनरुक्ति द्वार है, रास्ता है, मेथड है लर्निंग का, शब्दों के सीखने का रास्ता है पुनरुक्ति, रिपीटीशन। स्मृति खड़ी होती हैं पुनरुक्ति से। तो अपुनरुक्ति से गांठ खुल सकती है, अनलर्निंग पैदा हो सकती है, शब्द भूलें जा सकते हैं।
हम पुनरुक्ति तो सीख गए हैं बचपन से लेकिन अपुनरुक्ति हम नहीं जानते हैं कि क्या करें, क्या करें, क्या न करें। एक छोटा सा खयाल समझ में आ जाए तो अपुनरुक्ति का रास्ता समझ में आ सकता है। अनलघनग का मेथड समझ में आ सकता है। और जीवन के सत्य को जानने के लिए उसके अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है।
श्री रमण से किसी ने आकर पूछा, एक जर्मन विचारक ने कि मैं क्या करूं, मैं सत्य को कैसे सीखूं? हाउ टु लर्न दि ट्रूथ? श्री रमण ने कहाः बात ही गलत पूछते हो। सत्य को सीखा नहीं जाता। इसलिए यह मत पूछो, हाउ टु लर्न दि ट्रूथ। यह पूछो, हाउ टू अनलर्न दी अनट्रूथ? यह मत पूछो कि सत्य को कैसे सीखें, इतना ही पूछो की असत्य को कैसे भूलें? असत्य अनलर्न हो जाए तो सत्य प्रकट हो जाता है। झील के पत्ते अलग कर दिए जाएं तो झील प्रकट हो जाती है। पर्दा अलग कर दिया जाए तो प्रकाश सामने आ जाता है। द्वार खोल दिया जाए तो हवाएं भीतर प्रविष्ट हो जाती हैं। यह मत पूछो कि हवाओं को कैसे भीतर लाएं, यही पूछो कि द्वार कैसे खोले? यह मत पूछो कि प्रकाश कहां खोजें, यही पूछो कि आंख कैसे खोलें। श्री रमण ने कहाः पूछो कि अनलर्न कैसे करें? जो सीख लिया है, उसे भूलें कैसे? चेतना को वापस सरल और शुद्ध कैसे करें? कैसे करें? यही प्रश्न सबके सामने है।
हम सीख कर बैठ गए हैं। एक शब्द को भी भुलाना चाहें तो भुलाना कठिन है और असंभव है। बल्कि जिस शब्द को आप भुलाना चाहेंगे वह और भी स्मरण में वापस लौटने लगेगा। किया होगा आपने भी कभी कोशिश। किसी चेहरे को आप भुला देना चाहते है। किसी स्मृति को भुला देना चाहते हैं और परेशान में पड़ जाते हैं। जितना भुलाना चाहते हैं, उतनी स्मृति वापस आने लगती है। आपको खयाल नहीं है कि भुलाने की कोशिश रिपीटीशन है। भुलाने की चेष्टा में पुनरुक्ति शुरू हो गई। आप बार-बार भुलाना चाहते हैं जिस चीज को, उसका बार-बार आपको स्मरण करना पड़ता है और बार-बार स्मरण करने से वह और मजबूत होती चली जाती है।
एक फकीर के पास एक युवक गया था और उसने कहा, मुझे कोई मंत्र दे दें, मैं कोई सिद्धी करना चाहता हूं। फकीर ने बहुत समझाया कि मेरे पास कोई मंत्र नहीं, कोई सिद्धि नहीं, लेकिन युवक माना नहीं। पैर पकड़ लिए। जितना इनकार किया फकीर ने, उतने ही पैर पकड़े। आदमी की आदत ऐसी है, जहां इनकार हो, वहां उसका आकर्षण बढ़ता है। जहां कोई बुलाए, वहां समझता है, बेकार है, कोई सार नहीं है। जिस दरवाजे पर लिखा है, यहां मत झांको, वहां उसका मन झांकने का होता है। जहां लिखा है, यहां झांकते हुए जरूर जाना वहां सोचता है, कुछ व्यर्थ होगा। झांकने की कोई जरूरत नहीं है।
फकीर इनकार करने लगा। जितना इनकार करने लगा उतना उसका आकर्षण बढ़ने लगा कि जरूर कोई बात है, जरूर कोई बात है, जरूर कोई बात है; आखिर फकीर परेशान हो गया, उसने एक कागज पर लिख कर मंत्र दे दिया और कहा, इसे ले जाओ, रात के अंधेरे में स्नान करके एकांत में बैठ जाना। पांच बार इस मंत्र को पढ़ लेना। तुम जो चाहोगे, वह शक्ति तुम्हें मिल जाएगी। वह युवक तो भागा। वह भूल भी गया कि धन्यवाद देना भी कम से कम जरूरी था। वह सीढ़ियां उतर ही रहा था तब उससे फकीर ने कहा, जरा ठहरो, मैं एक शर्त बताना भूल गया। पढ़ना तो मंत्र, लेकिन बंदर का स्मरण मत करना उस समय, अन्यथा सब गड़बड़ हो जाएगा।
उस युवक ने कहाः बेफिकर रहो, जिंदगी बीत गई, आज तक मैंने बंदर का स्मरण नहीं किया, अब क्यों करूंगा? लेकिन पूरी सीढ़ियां भी नहीं उतर पाया था कि बंदर दिखाई पड़ने शुरू हो गए। उसने आंख मिची, कोशिश की, लेकिन आंख खोलता है तो उसे बंदर का खयाल, आंख बंद करता है तो बंदर का खयाल। घर पहुंचा तो वह घबड़ा गया। अब कोई स्मरण ही नहीं है, सिर्फ बंदर का स्मरण रह गया। बहुत नहाता है, बहुत धोता है, बहुत भगवान की याद करता है, लेकिन हाथ जोड़ता है तो भगवान नहीं दिखाई पड़ता है, वहां बंदर ही बंदर दिखाई पड़ते हैं। रात हो गई और बंदर बढ़ने लगे। मंत्र पढ़ने का समय करीब आने लगा और बंदरों की भीड़ इकट्ठी हो गई। आंख बंद करता है तो कतारबद्ध बंदर खड़े हैं, वे दांत चिढ़ा रहे हैं, वे झपटने को तैयार है। वह तो पागल होने लगा। उसने कहाः हे भगवान! यह क्या हुआ? आज तक मुझे बंदर कभी याद नहीं आए थे, यह याद कैसे आने लगी? रात बीत गई, कई बार स्नान किया कई बार कागज हाथ में उठाया, लेकिन बंदर पीछा नहीं छोड़ते हैं। सुबह तक घबड़ा गया। सुबह तो मस्तिष्क घूमने लगा चक्कर खाने लगा। भागा हुआ गया फकीर के पास और कहा, आप अपना मंत्र सम्हालो, अब अगले जन्म में यह साधना हो सकेगी, इस जन्म में नहीं। और बड़े नासमझ मालूम पड़ते हो। अगर यह कंडीशन थी कि बंदर के स्मरण से मंत्र खराब हो जाता है तो कम से कम कल न बताते, आज बता देते तो पार हो जाती बात। रात दुनिया का कोई जानवर याद न आया। रात कोई धन याद न आया, कोई स्त्री याद न आई, कोई मित्र याद न आया, कोई शत्रु याद न आए, बस एक स्मृति रह गई--बंदर, बंदर, बंदर। उस फकीर ने कहाः मैं क्या करूं, इस मंत्र की शर्त ही यही है। यह शर्त कोई पूरी करे तो मंत्र सिद्ध होता है।
क्या होगा उस व्यक्ति का? जिन चीज को निकालना चाहता था, बार-बार निकालना चाहता था वह चीज पुनरुक्त होती चली गई, वह रिपीट होती चली गई, उसकी स्मृति गहरी होती चली गई, वह मन में बैठती चली गई।
शब्द को निकालने की कोशिश से कभी आप शब्द के बाहर नहीं हो सकते। विचार को निकालने के प्रयास से कभी आप निर्विचार नहीं हो सकते। शांत होने की कोशिश से आप कभी शांत नहीं हो सकते, सोने की कोशिश से आप कभी सो नहीं सकते। कभी देखा, आपको नींद न आ रही हो और आप कोशिश कर रहे हैं कि मैं सो जाऊं। जितनी आप कोशिश करते हैं, नींद उतनी दूर होती चली जाती है। जितनी आप कोशिश करेंगे, उतने ही शब्द गहरे होते चले जाएंगे। इसलिए दुकान पर एक आदमी ज्यादा शांत होता है, मंदिर में जाता है तो और अशांत हो जाता है। पूजा करने बैठता है तो पाता है, न मालूम क्या-क्या आने लगा! जो कभी नहीं आता वह भी पूजा में क्यों आता है? पूजा करने के बैठने का संकल्प उसका यह है कि मन शांत रहे, विचार न आए, बुरे विचार न आए। तो फिर वही आने शुरू हो जाते हैं जिनको वह कहता है, मत आओ, क्योंकि जिसको वह कहता है मत जाओ, उसी के प्रति वह अपना आकर्षण जाहिर कर देता है। यह निमंत्रण हो जाता है।
तो हम आमतौर से न कभी शांत होते हैं, न कभी निर्विचार होते हैं। तो कैसे निःशब्द होंगे? साइलेंस कैसे आएगी? और उसके बिना कोई शब्द काम का कभी न हुआ, न हो सकता है। रास्ता है, और बड़ा सरल है। विचार को पुनरुक्त न करें। लेकिन पुनरुक्त न करने की विधि है--विचार को आॅब्जर्व करें, निरीक्षण करें। शब्द का निरीक्षण करें और आप हैरान रह जाएंगे, जिस शब्द का आप निरीक्षण करने का आप तय कर लेंगे वही शब्द आपकी आंखों से विलीन हो जाएगा। आपको खयाल भी नहीं होगा। आपकी पत्नी है, बीस साल से आपके पास है, उसे आपने इतना प्रेम किया है, लेकिन कभी एकांत में बैठ कर उसकी शक्ल आपने स्मरण की है? कभी एकांत में आपने खयाल किया है कि मेरी पत्नी का चेहरा कैसा है? आप कहेंगे, मैं जानता हूं, बिलकुल मुझे याद आ जाएगा। मैं आपसे कहता हूं, आज ही आप जाकर कोशिश करना, और जितना आप निरीक्षण करने की कोशिश करेंगे नहीं आप पाएंगे कि सब धीरे-धीरे फीका होता जाता है। पत्नी का चेहरा भी पकड़ा जा सकता। पति का चेहरा भी आॅब्जर्वेशन के सामने नहीं टिकेगा। बाप का, मां का, जिनसे आप इतने परिचित हैं, जिनको आपने जीवन भर देखा है, कभी आंख बंद करके कोशिश करें कि मैं अपनी पत्नी, अपने पिता, अपने पति, अपने बेटे का पूरा चित्र आंख के सामने ले आऊं। आॅब्जर्व करें, निरीक्षण करें, आप आएंगे कि रेखाएं धुंधली हो गई। चेहरा पकड़ में नहीं आता कि मेरे पिता का चेहरा ऐसा है। थोड़ी देर में आप पाएंगे, चेहरा विलीन हो गया, वहां खाली जगह रह गई, वहां कोई चेहरा नहीं है।
मन की एक खूबी है कि चेतना जिस शब्द को भी निरीक्षण करना चाहे, आॅब्जर्व करना चाहे, वही शब्द तिरोहित हो जाता है। और जिस शब्द को भुलाना चाहे, वही शब्द वापस लौट आता है। शब्द को भूलने की कोशिश नहीं; शब्द का निरीक्षण, आॅब्जर्वेशन। चित्त में जो भी शब्द उठते हैं, उनका निरीक्षण, मात्र देखना, जस्ट सीइंग। और आप हैरान रह जाएंगे कि आपके निरीक्षण के प्रकाश में शब्द वैसे ही हवा हो जाते हैं जैसे सूरज के निकलने पर वृक्षों के ऊपर पड़े हुए ओस के बिंदु उड़ने लगते हैं। सूरज निकला और ओस के बिंदु उड़ने लगे, तिरोहित होने लगे, भागने लगे, समाप्त होने लगे। जैसे ही आपकी चेतना पूरे ध्यान से शब्दों को देखने की कोशिश करती है, शब्द उड़ने लगते हैं, हवा होने लगते हैं। और एक बार आपको यह सीक्रेट खयाल में आ जाए, यह रहस्य खयाल में आ जाए कि शब्द को देखने से शब्द की मृत्यु हो जाती है। उस दिन आपने अनलर्निंग का, भूल जाने का राज, रहस्य अनुभव कर लिया। और जिस आदमी को यह रहस्य मिल जाता है वह ध्यान को उपलब्ध हो जाता है। ध्यान का और कोई अर्थ नहीं है। मेडिटेशन का और कोई अर्थ नहीं है। ध्यान है शब्दों की मृत्यु और शब्दों की मृत्यु प्रक्रिया है आॅब्जर्वेशन, अवेयरनेस, कांशसनेस। किसी भी शब्द के प्रति पूरे सचेतन हो जाएं, शब्द विलीन हो जाएगा।
एक गुलाब के फूल के पास आप खड़े हैं। आपको खयाल आता है, यह गुलाब का फूल है, बस बाधा पड़ गई। फूल उन तरह रह गया, बीच में शब्द आ गया। अब जरूरी है कि शब्द को हटा दें बीच से ताकि फूल से संबंध हो सके। तो आंख बंद कर लें और ‘यह गुलाब का फूल है’ इस शब्द पर ध्यान ले जाएं, पूरा निरीक्षण ले जाएं, और इस शब्द को पकड़ने की कोशिश करें कि रुक जाओ, ‘यह गुलाब का फूल है’ इस शब्द को मैं पूरी तरह देख लेना चाहता हूं। रुक जाओ, भागो मत। आप थोड़ी देर में पाएंगे कि वह रुका हुआ शब्द एवाॅपरेट होने लगा, उड़ने लगा, भागने लगा। वह शब्द भाग जाए फिर आंख खोल कर गुलाब के फूल को देखें। और अगर फिर खयाल आ जाए कि यह गुलाब का फूल है, फिर आंख बंद कर लें, फिर उस शब्द को निरीक्षण करें। जब तक कि आप बिना शब्द के गुलाब के फूल को देखने में समर्थ न हो जाएं तब तक इस प्रक्रिया को जारी रखें। आप थोड़े ही दिन के प्रयोग में उस जगह पर पहुंच जाएंगे जहां आपकी आंख गुलाब के फूल को देखेगी लेकिन आपकी स्मृति नहीं कहेगी कि यह गुलाब का फूल है। सिर्फ देखते हुए आप रह जाएंगे। बीच में कोई शब्द नहीं उठेगा। और जिस दिन निःशब्द दर्शन हो जाता है उस दिन गुलाब के फूल से आपकी आत्मा एक हो गई। उस दिन आप जानेंगे कि क्या है गुलाब का फूल। उस दिन आप जानेंगे कि उस चित्रकार ने क्या जाना होगा कि मुर्गा होना क्या है। उस दिन आप जानेंगे, सूरज क्या है। उस दिन आप जानेंगे, चांदनी क्या है। उस दिन आप जानेंगे पत्नी क्या है, पिता क्या है, मित्र क्या है।
और जिस दिन आपको निःशब्द दर्शन की यह संभावना स्पष्ट होने लगेगी, उस दिन इसका अंतिम प्रयोग स्वयं पर किया जाता है। तब निःशब्द होकर अपने को देखा जा सकता है। और उस दिन आप जानेंगे कि मैं कौन हूं? उस दिन जीवन की पहली और बुनियादी समस्या हल होती है कि मैं कौन हूं? और जिसके समक्ष यह समस्या हल हो जाती है उसका जीवन एक बिलकुल अभिनव, एक बिलकुल नया जीवन हो जाता है। उसके जीवन में आमूल क्रांति हो जाती है। उसके जीवन में क्रोध की जगह क्षमा का जन्म हो जाता है। उसके जीवन में घृणा की जगह प्रेम का जन्म हो जाता है। उसके जीवन में भय की जगह अभय का जन्म हो जाता है। उसके जीवन में कांटे विलीन हो जाते और फूल खिल जाते हैं। उसके जीवन में अर्थहीनता नष्ट हो जाती है, सार्थकता पैदा हो जाती है। फिर उसे मनोरंजन की तलाश नहीं होती। फिर वह चैबीस घंटे तक आनंद की थिरक में नाचता रह जाता है। फिर श्वास-श्वास, फिर कण-कण, फिर उठना और बैठना भी प्रभु का नृत्य हो जाता है। फिर सब कुछ यह आनंद में बदल जाता है। फिर ऐसा जैसे जीवन के आनंद-सागर में कोई बहा जाता हो। सब तरफ फिर रोशनी दिखाई पड़ने लगती है और सब तरफ फिर सुगंध का अनुभव होने लगता है। और सब तरफ प्रभु भी छवि दिखाई पड़ने लगती है। फिर एक पत्ते में भी सारे विराट विश्व के दर्शन हो जाते हैं। फिर वैसा व्यक्ति जब एक फूल को देखता है, गुलाब के फूल को देखता है, तो उसे गुलाब का फूल नहीं दिखाई पड़ता, फिर फूल के पीछे की शाखाएं फिर शाखाओं के नीचे की जड़ें, फिर जड़ों से जुड़ी हुई पृथ्वी, फिर फूल पर आई हुई सूरज की किरणें, और सूरज सब संयुक्त दिखाई पड़ने लगता है फिर वह प्रविष्ट हो जाता है विराट में और सारे जीवन का दर्शन उसे शुरू हो जाता है।
लेकिन हम तो अपने को नहीं जानते, विराट जीवन को कैसे जान सकेंगे? और जब हम अपने को नहीं जानते, तो हम और क्या जान सकेंगे? जब हम अपने से भी अज्ञान हैं, अपने से भी अजनबी, स्ट्रेंजर हैं, तो हम और किससे परिचित हो सकेंगे? यह सारा जीवन हमारा अपरिचित छूट जाता है क्योंकि हम अपने से ही अपरिचित हैं, और जो विराट संपदा मिल सकती थी--सौंदर्य की, सत्य की, आनंद की, उस सबसे हम वंचित रह जाते हैं। यह वंचित रह जाने के लिए और कोई जिम्मेवार नहीं है। अगर मैं वंचित रह जाता हूं, तो मैं ही जिम्मेवार हूं। यह दोष किसी और पर नहीं दिया जा सकता। यह कहना फिजूल है कि आदमी एक व्यर्थ वासना है। अगर आदमी व्यर्थ वासना है तो यह उस आदमी की भूल है। यह मैं आपसे कहना चाहता हूं, आदमी एक सार्थक उपलब्धि है। आदमी एक सार्थक अनुभूति है। आदमी का जीवन अपरिसीम अमृत को अपने भीतर छिपाए हुए है।
जैसे एक वीणा पड़ी हो किसी घर में और कोई बजाना न जानता हो और घर के लोग कहते हों फेंको इस सामान को, यहां घर में फिजूल जगह घेरे हुए है। ठीक हमारे पास जीवन की वीणा पड़ी है, लेकिन हम उसके तारों से परिचित नहीं हैं, हमें उसके राज मालूम नहीं हैं, हमें उसका बजाना पता नहीं हैं, तो घर में एक बोझ मालूम होता है। कई बार सोचते हैं, फेंक दो इसे। कई बार चूहे कूद जाते हैं, बच्चे कूद जाते हैं, वीणा में खन-खन की आवाज हो जाती हैं, घर में डिस्टर्बेंस मालूम होता है, नींद टूट जाती है, हम कहते हैं, हटाओ इसको, व्यर्थ का सामान घर में पड़ा है, शोरगुल होता है। लेकिन कभी कोई वीणा को बजाने वाला कुशल हाथ वहां आ जाए और वीणा पर हाथ रख दे, तो सोए तार जाग उठेंगे, निष्प्राण तारों में प्राण पैदा हो जाएगा। घर एक संगीत से गूंज उठेगा। हम कल्पना भी न कर सकते थे कि इन तारों में इतना छिपा है।
घर में बीज पड़े हों, कंकड़-पत्थरों जैसे मालूम होते हैं बीज, सोचते हैं, फेंक दें इन्हें, क्या अर्थ है, क्या प्रयोजन है? लेकिन हमें पता नहीं, इन बीजों में वृक्ष छिपे हैं। हमें पता नहीं, इन बीजों में फूल छिपे हैं। हमें पता नहीं, इन बीजों में सुगंध छिपी है। काश, कोई माली आ जाए और उन बीजों को बो दे बगिया में, तो हम हैरान रह जाएंगे कि हमने कई बार सोचा था कि फेंक दें इन बीजों को। हमें पता भी नहीं था कि इन ठोस कंकड़ जैसे दिखते बीजों में इतने रहस्य छिपे होंगे, इतने सुनहले फूल उठेंगे, इतनी सुगंध बहेगी, हमें कभी कल्पना भी न थी।
जीवन भी एक वीणा की तरह है, जीवन भी एक बीज की तरह है। लेकिन जो उसके राज को खोलने में समर्थ हो जाता है, वह आनंद को उपलब्ध हो जाता है। जो उसके राज को नहीं खोल पाता है, वह दुख में जीता है, दुख में मरता है। मैं आपसे पूछना चाहता हूं, आप दुख में जी रहे हैं, पीड़ा में जी रहे हैं, चिंता में, उदासी में, अंधेर में? तो कोई और जिम्मेवार नहीं है सिवाय आपके। और आप चाहें तो आज भी जिंदगी को फूलों से भर सकते हैं। चाहे तो आज उस वीणा से संगीत पैदा हो सकता है। उस वीणा से कैसे संगीत पैदा हो सकता है, उस संबंध में एक छोटा सूत्र मैंने आपसे कहा है। लेकिन मेरे कहने से कुछ भी नहीं हो सकता, उस सूत्र पर आपके कदम आगे बढ़ जाएं, तो कुछ हो सकता है।
जीवन एक साधना है। जीवन जन्म के साथ नहीं मिलता; जन्म के साथ तो केवल पोटेंशियल, बीज-रूप संभावना मिलती है। जीवन तो अपने हाथ से निर्मित करना होता है। परमात्मा ने एक मौका दिया है आदमी को। जन्म देता है परमात्मा, जीवन नहीं देता। जन्म सिर्फ आॅपरच्युनिटी है, अवसर है। जीवन खुद को पैदा करना होता है। और जो खुद के जीवन को पैदा करने में समर्थ होता है वह आनंद को उपलब्ध होता है। आनंद हमेशा आत्म-सृजन की छाया है, सेल्फ क्रिएशन की छाया है। जब कोई व्यक्ति अपने जीवन को निर्मित कर लेता है तो आनंद से भर जाता है।
यह मौका है, लेकिन यह मौका खोया भी जा सकता है और हमसे अधिक लोग इस मौके को खोते हैं। आज तक मनुष्य-जाति के अधिकतम बीज व्यर्थ ही नष्ट हो गए हैं। मुश्किल से मनुष्य-जाति के इतिहास में दस पचास आदमी पैदा हुए हैं। जिनके बीजों में फूल आए, जिनकी वीणा में संगीत पैदा हुआ है। बाकी लोग ऐसे नष्ट हो गए हैं।
एक छोटी सी कहानी और अपनी बात मैं पूरी करूं।
एक सम्राट मरने के करीब था। उसके तीन बेटे थे। उसने उन बेटों की परीक्षा लेनी चाही कि किसको वह दे दे सारा राज्य। कौन सम्हाल सकेगा, कौन मालिक बन सकेगा? उसने कहाः मैं तीर्थ यात्रा पर जाता हूं। मुझे वर्ष दो वर्ष, तीन वर्ष लग सकते हैं। मैं तुम्हारी परीक्षा के लिए एक प्रयोग करना चाहता हूं। उसने एक-एक बोरा फूलों के बीज तीनों बेटों को दे दिए और कहा जब मैं लौटूं तो मैंने जो तुम्हें दिया है वह अमानत रही, वह मुझे वापस कर देना। देखो, वह नष्ट न हो जाए। बड़े बेटे ने सोचा कि ठीक है। कैसी परीक्षा है, क्या पागलपन है! उसने एक तिजोड़ी में ताला लगा कर वह बोरे भर बीज फूलों के बंद कर दिए। उसने कहाः जब बाप लौटेगा तो निकाल कर ताला वापस लौटा देंगे। तीन सालों में उन बीजों का वही हुआ जो होना था। सड़ गए और राख हो गए।
दूसरे बेटे ने सोचा, इन बीजों को कहां रखे रहूंगा! कम बढ़ हो जाए, कुछ गड़बड़ हो जाए, बाजार में बेच दूं। बाप जब लौटेगा। फिर खरीद कर एक बोरा बीज दे देंगे। कौन पहचानेगा कि वही बीज है? बीजों में कोई नाम लिखा है, कोई सील लगी है? कौन झंझट सम्हालने की करेगा! उसने बाजार में बीज बेच दिए और रुपये लाकर तिजोड़ी में रख दिए। जब बाप आएगा, बीज खरीद कर वापस लौट दूंगा।
तीसरे लड़के ने कहाः बीज सम्हालने को बाप ने दिए हैं। बीज के सम्हालने का एक ही रास्ता हो सकता है कि इसको बो दिया जाए। इनमें फूल आ जाएंगे। फिर नये बीज आ जाएंगे। जब तक बाप लौटेगा एक बोरे के हजार बोरे हो जाएंगे। उसने बीज बो दिए। सम्हाल कर रखने का पागलपन क्या! इनका फायदा भी ले लो, इतने दिन फूलों की सुगंध भी ले लो! उसने बीज बो दिए, मौसमी बीज थे। चार महीने भी नहीं बीत पाए, बगिया फूलों से भर गई। सारा गांव प्रशंसा करने लगा। बाप जब तीन साल बाद लौटा तो कोसों तक, मीलों तक महल के आस-पास की भूमि फूलों से भरी थी।
बाप ने आकर पूछा अपने बेटों को--बड़े को कि बीज कहां है? उसने तिजोड़ी खोली, वहां से राख और बदबू क्योंकि सब बीज सड़ गए थे। उसने कहाः यह रखे हैं जो आप दे गए थे। बाप ने कहाः पागल, ये फूलों के बीज थे और इनसे बदबू आ रही है। कौन है जिम्मेवार इस बात के लिए? पहला बेटा हार गया। दूसरे बेटे से कहाः बीज? उसने कहाः मैं अभी जाता हूं। रुपये निकाले, बाजार से खरीद लाता हूं। बाप ने कहा कि बीज मैंने तुझे सम्हालने को दिए थे, बेचने को नहीं। बेचने को नहीं दिए थे बीज, सम्हालने को दिए थे? दूसरा लड़का हार गया। क्योंकि जिसे सम्हालने को दिया गया हो उसे हम बेच दें।
कुछ लोग पहले लड़के की तरह हैं जिन्होंने जिंदगी के बीज को तिजोड़ियों में बंद कर रखा है। जिंदगी सड़ जाती है और बदबू निकलती है। कुछ लोग दूसरे लड़के की तरह हैं जो जिंदगी को बाजार में बेच रहे हैं, न मालूम कितने-कितने रूपों में। और जिस दिन मौत सामने आएगी, वे कहेंगे, हमने जिंदगी बेच दी। किसी ने धन में बेच दी, किसी ने यश में बेच दी। वे कहेंगे अपने पिता के सामने कि यह धन है, हमने जिंदगी बेच दी। ये तिजोड़ियां हैं, यह देखो। यह देखो हमारे पद। यह देखो कि मैं मंत्री था, मैं महामंत्री था, यह मैं प्रधानमंत्री था फलां मुल्क का। हमने जिंदगी बेच दी है और यह खरीद लिए पद, यह धन खरीद लिया है। यह सर्टिफिकेट देखो, यह प्रमाण-पत्र देखो। यह पद्मश्री, राज्यश्री की उपाधियां देखो। हमने बेच दी जिंदगी और यह खरीद कर हम ले आए। लेकिन उस बाप ने कहा कि जो कि मैंने सम्हालने को दिया था, वह बेचने को नहीं दिया था। और बेचना होता तो खुद बेच देता, तुझे सम्हाल कर देने की जरूरत क्या थी? बीज कहा हैं जो मैंने दिए थे? उसके हाथ में नोटों के रुपये हैं। कागज के रुपये हैं। अब कहां बीज जो फूल बन सकते थे, कहां कागज के नोट जो कुछ भी नहीं बन सकते।
वह तीसरे लड़के के पास पहुंचा कि बीज कहां है मेरे? उसने कहाः बाहर आ जाएं। क्योंकि बीज तिजोरियों में बंद नहीं किए जा सकते और न नोटों में बंद किए जा सकते। वे खेतों में फैल गए हैं। बाहर आ गए। मीलों तक बीजों के फूल हो गए हैं। फूल हवा में लहरा रहे हैं सूरज की रोशनी में। तितलियां उन पर उड़ रही है और पक्षी गीत गा रहे हैं। और बाप ने कहाः तू अकेला मालिक होने के योग्य है।
परमात्मा भी सबको बीज देता है जीवन के, लेकिन कुछ लोग पहले लड़के की तरह हैं, कुछ लोग दूसरे लड़के की तरह और बहुत थोड़े लोग तीसरे लड़के की तरह बीजों के साथ व्यवहार करते हैं।
मैं आपसे प्रार्थना करता हूं, तीसरे लड़के पर ध्यान रखना। कहीं आप पहले दो लड़कों के जैसे सिद्ध न हों। वह तीसरे लड़के अगर आप हो जाएं तो आपके जीवन की बगिया में भी इतने ही फूल, इतनी ही सुगंध इतने ही गीत गाते पक्षी निश्चित ही पैदा हो सकते हैं। परमात्मा करे आपका जीवन फूलों की एक बगिया बने।
वह कैसे बन सकता है, थोड़ी सी बात मैंने आपसे कही।

आपने मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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