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रविवार, 16 अप्रैल 2017

एस धम्मो सनंतनो-(ओशो)-प्रवचन-085

जागरण ही ज्ञान—(प्रवचन—पिचासिवां) 

प्रश्‍न सार:


पहला प्रश्‍न:

 पीछे लौटना अब मेरे लिए असंभव है। बीज अंकुरित हुआ है। लेकिन यह सब हुआ आपको सुनते—सुनते, देखते—देखते, पढते—पढ़ते। यह शास्त्र ही मेरे लिए नौका बनकर मुझे शून्य में लिए जा रहा है। भय छोड्कर बूंद सागर को मिलने को निकल पडी है। और आप कहते हैं कि शास्त्र से कुछ भी न होगा। यह आप कैसी अटपटी बात कहते हैं?

 मैं अभी शास्त्र नहीं। मैं अभी जीवित हूं। तुम सौभाग्यशाली हो कि तुम शास्त्र के करीब नहीं हो।
बुद्ध जब बोले, तब धम्मपद शास्त्र नहीं था, तब धम्मपद शास्ता था। तब धम्मपद में श्वास थी, प्राण चलते थे, हृदय धड़कता था, खून बहता था, तब धम्मपद जीवित था। कृष्ण जब अर्जुन से बोले, तब गीता गुनगुनाती थी, नाचती थी। तब शास्त्र नहीं था, शास्त्र तो शास्ता के जाने के बाद बनता है। शास्त्र तो समय की रेत पर छोड़ी गयी लकीरें है। सांप तो जा चुका, रेत पर निशान रह गया।

मैं अभी शास्त्र नहीं हूं। इसलिए मैं जो कहता हूं उसमें कुछ अटपटा नहीं है। मैं भी शास्त्र बन जाऊंगा। जब जा चुका होऊंगा तो शास्त्र बन जाऊंगा। फिर नौका न बनेगी। शास्त्र डुबाता है, उबारता नहीं। जो मृत है, वह जीवित को कैसे उबारेगा? जो स्वयं मृत है, वह जीवित को कैसे उद्धार करेगा? शास्त्र बोझ बन जाता है, सिर भारी हो जाता है। पांडित्य मिलेगा शास्त्र से, प्रज्ञा नहीं मिलेगी। जानने लगोगे बहुत और जानोगे कुछ भी नहीं। जानते मालूम पड़ने लगोगे और अज्ञानी के अज्ञानी बने रहोगे। अज्ञान जान के वस्त्र पहन लेगा, लेकिन विसर्जित नहीं होगा।
और अज्ञान जब ज्ञान के वस्त्र पहन लेता है, तब और भी खतरनाक हो जाता है। यह तो ऐसे ही हुआ कि बीमारी ने जैसे स्वास्थ्य के वस्त्र पहन लिए। फिर तो बीमारी का पता ही नहीं चलता। फिर तो तुम औषधि की खोज भी नहीं करते। फिर तो तुम चिकित्सक के पास जाओगे क्यों, तुम स्वयं ही जानते हो।
इसलिए बुद्ध के पास पंडित नहीं आते। मेरे पास भी नहीं आते। पंडित आए क्यों? पंडित तो सोचता है, वह स्वयं ही जानता है।
तो पांडित्य नौका नहीं बनता, गले का पत्थर हो जाता है। उसके कारण आदमी डूबता है, उबरता नहीं। शास्त्र नहीं उबार सकता, कैसे उबारेगा? कागज की पोथी, स्याही के चिह्न, कैसे उबारेंगे? उससे ज्यादा मूल्यवान तो यह जो जीवन का विराट शास्त्र है, यह है। वृक्षों के हरे पत्ते कहीं ज्यादा जीवंत हैं। पक्षियों के गीत, खिले हुए फूल कहीं ज्यादा जीवंत हैं। इनसे सुनना, तो शायद कुछ समझ में आ जाए। मुर्दा किताब को कान के पास रखकर सुनोगे, वहा से कोई आवाज थोड़े ही आएगी। और मुर्दा किताब में तुम जो पढ़ लोगे, वह तुम्हारा ही है। तुम जो पढ़ लोगे, वह शास्त्र तुम्हें नहीं दे रहा है, तुम्हीं शास्त्र में डाल रहे हो। तुम अपने को ही पढ़ लोगे। तुम अपने से ज्यादा पढ़ भी कैसे सकते हो! तुम जो जानते हो, वही शास्त्र में से तुम निकाल लोगे। और शास्त्र तो बड़ा अवश है, कुछ कह भी न सकेगा, रोक भी न सकेगा। यह भी न कहेगा कि ऐसी ज्यादती न करो।
शास्ता नौका बनता है, शास्त्र नहीं। जब शब्द किसी जीवित शून्य से निकलते हैं, और तुमने उन्हें सुना, तो जरूर ले जाएंगे पार। जब शब्द धड़कते हैं, प्राणवान होते हैं, जब शब्दों के भीतर बोध का दीया जला होता है, तब। शास्त्र तो मिट्टी का दीया है, ज्योति तो जा चुकी। बुद्ध तो विदा हुए, मिट्टी का दीया पड़ा रहा गया, इसे पूजते रहो जन्मों—जन्मों तक, इससे तुम्हारी आंख न खुलेगी, इसमें ज्योति ही नहीं है। ज्योति से ज्योति जले। जब किसी की ज्योति जली होती है, तुम अगर उसके पास जाओ तो तुम्हारी ज्योति भी जल सकती है। पास जाने से ही जल सकती है। कुछ और करना ही क्या है!
जब तुम एक बुझे दीए को जलते दीए के पास लाते हो, पास लाते हो, एक घड़ी आती है कि दोनों की बातियाँ जब बहुत करीब आ जाती हैं तो एक छलांग, जलते दीए से ज्योति बुझे दीए में उतर जाती है। और मजा यह है कि जलते दीए का कुछ भी नहीं खोता। जलता दीया वैसा ही जलता, उसकी ज्योति कम थोड़े ही हो जाती है। एक जलते दीए से हजार बुझे दीए जला लो, जलता दीया वैसा ही जलता है, उसकी ज्योति तो जरा भी कम नहीं होती।
बांटने से ज्ञान घटता नहीं, बांटने से जीवन घटता नहीं, बांटने से प्रेम घटता नहीं। और कला क्या है? कला इतनी ही है कि बुझा दीया अड़चन न डाले, रुकावट न डाले, बुझा दीया यह न कहे कि मैं दूर—दूर रहूंगा। बुझा दीया कहे कि मैं पास आने को तत्पर हूं। और क्या है शिष्यत्व! पास आने की कला, हिम्मत। पास गुरु के बैठ जाना सत्संग है। बैठे—बैठे हो जाता है।
तुम ठीक कहते हो कि 'अंकुरित हुआ है बीज सुनते —सुनते, देखते—देखते, पढ़ते—पढ़ते। '
अकेले पढ़ने से यह न होता। मुझे सुनते हो, मुझे देखते हो, मुझे पीते हो, तो फिर पढ़ने में भी तुम अपना न डालोगे। तुम्हें मेरा स्वाद लग गया। तब तो तुम पढ़ने में भी तुमने जो मुझमें देखा, मुझमें जो पाया, मुझमें जो सुना, मुझमें जो छुआ, वही डालोगे। फिर तुम मेरे शब्दों के साथ अनाचार न कर सकोगे। लेकिन मौलिक बात शब्द नहीं है। मौलिक बात मेरी मौजूदगी है। तुम मेरी किताब ही पढ़कर नहीं नौका बना सकोगे। कोई कभी नहीं बना सका।
लेकिन तुम पूछ सकते हो कि धम्मपद अगर अब नौका नहीं बनती और गीता नौका नहीं बनती और अष्टावक्र के वचन अब नौका नहीं बनते, तो फिर मैं इन पर बोलता क्यों हूं? इनके बोलने का राज भी तुम समझ लो। जब मैं धम्मपद पर बोलता हूं तो धम्मपद पुन: जीवित हो जाता है। तब धम्मपद धम्मपद नहीं रह गया, तब धम्मपद के शब्द मेरे शून्य में लिपट जाते हैं। जब मैं गीता पर बोलता हूं तो कृष्ण को फिर थोड़ी देर के लिए मेरे साथ जीने का अवसर मिल जाता है।
इसलिए सदियों से ऐसा रहा है। अतीत के बुद्धों पर बोला जाता रहा है, ताकि उनकी वाणी पुन: —पुन: जीवित होती रहे, खो न जाए।
जब मैं जा चुका होऊंगा, तब मेरे शब्द शास्त्र रह जाएंगे। फिर तुम्हें उनसे कुछ सहारा न मिलेगा। ही, फिर सहारा एक ही तरह मिल सकता है कि कोई और बुद्धपुरुष उन पर बोले। तो फिर जीवित हो जाएंगे। बुद्धत्व के एकर्श से शब्द जीवित होते हैं। और जीवन में ही कुछ छुटकारा है, मुक्ति है। जीवन में ही कुछ आशा है। ऐसा समझो कि फूल वृक्ष पर खिला है, तब एक बात है। इसी फूल को तुमने तोड़ लिया, यह गुलाब का फूल तुमने तोड़ लिया और अपनी गीता में कि बाइबिल में दबाकर रख दिया। फिर वर्षों बाद तुम देखोगे, फूल अब भी है—सूखा हुआ, अब गंध नहीं उठती, अब बढ़ता भी नहीं, घटता भी नहीं, सूखा हुआ फूल, गीता या बाइबिल में दबा हुआ फूल शास्त्र हो गया। वृक्ष पर था तब जीवित था।
अभी जो मैं बोल रहा हूं, मेरे वृक्ष पर लगे फूल हैं। जब मैं जा चुका होऊंगा, तब तुम्हारी गीता और बाइबिल में दबे हुए फूल हो जाएंगे। तब वे मुर्दा होंगे। लगेंगे कुछ—कुछ वैसे जैसा जीवित फूल था, बस आभास मात्र होगा—न उनमें सुगंध होगी, न उनमें प्राण होंगे, न उनमें बढ़ने की क्षमता होगी।
खयाल रखना, जीवन का लक्षण यही है—जिसमें बढ़ने की क्षमता हो। अब धम्मपद बढ़ नहीं सकता अपने आप। ही, मेरे साथ चल सकता है, क्योंकि मैं जीवित हूं। जीवित आदमी के साथ अगर शास्त्र भी हो ले, तो शास्त्र भी जीवित हो जाता है। उसमें भी पैर लग जाते हैं, पंख लग जाते हैं।
तुम धोखे में आ जाओ सूखे फूल के, तुम शायद कहो कि यह गुलाब का फूल है, लेकिन आदमी को छोड्कर और कोई धोखे में न आएगा।
ऐसा हुआ, सम्राट सोलोमन के दरबार में एक युवती आयी। वह इथोपिया की साम्राज्ञी थी। और उसने खबर सुनी थी कि सोलोमन संसार का सबसे बुद्धिमान आदमी है। हिंदुस्तान में भी हम कहते हैं न किसी को, बहुत बुद्धिमानी करने लगे तो कहते हैं, बड़े सुलेमान हो गए! वह सोलोमन की ही कहानी है। हजारों साल बीत गए सुलेमान को हुए, लेकिन सुलेमान की बुद्धिमत्ता कहावत बन गयी, सारी दुनिया में कहावत बन गयी।
वह स्त्री उनका परीक्षण करना चाहती थी। वह इथोपिया की रानी उनके प्रेम में थी। लेकिन वह जानना चाहती थी, सच में वह बुद्धिमान, इतने बुद्धिमान हैं? उसने क्या किया, पता है? वह अपने एक हाथ में असली फूल और एक हाथ में नकली फूल लेकर आयी, एक हाथ में कागज का बना हुआ गुलाब और एक हाथ में असली गुलाब। और बड़े से बड़े कलाकारों ने बनाया था वह कागज का गुलाब। बड़ा मुश्किल था तय करना। और वह आकर सम्राट के थोड़ी दूर खड़ी हो गयी सिंहासन के सामने और उसने कहा कि मैं तुम्हें बुद्धिमान मानूंगी, अगर तुम बता दो कि मेरे कौन से हाथ में असली गुलाब है और कौन से हाथ में नकली गुलाब है। और नकली गुलाब इतना सुंदर था और इतना असली जैसा था कि सोलोमन थोड़ा चिंतित हुआ। उसने कहा, जरूर बताऊंगा। उसने कहा अपने दरबारियों को कि सब द्वार—दरवाजे खोल दो, सब खिड़कियां खोल दो।
बाहर बगीचा है। सारे द्वार—दरवाजे खोल दिए। उस साम्राज्ञी ने पूछा, यह आप क्यों कर रहे हैं? सोलोमन ने कहा, थोड़ा प्रकाश, ताकि मैं ठीक से देख सकूं। लेकिन प्रकाश भी सहयोगी न हुआ। एक और बात सहयोगी हो गयी। दो मधुमक्खियां बगीचे से कमरे में प्रवेश कर गयीं। वे दोनों जाकर असली गुलाब पर बैठ गयीं। सोलोमन ने कहा कि यह असली गुलाब है। दरबारी भी चकित हुए, साम्राज्ञी भी चकित हुई। उसने पूछा, आप जाने कैसे?
उसने कहा कि मैं नहीं जाना, आदमी को धोखा दिया जा सकता है, मगर मधुमक्खियों को कैसे धोखा दोगे? वे दो मधुमक्खियां जो बैठ गयी हैं असली गुलाब पर, उन्होंने खबर दी। इसीलिए द्वार—दरवाजे खुलवाए थे, प्रकाश तो मैं जानता था कुछ अर्थ न होगा, तू बड़ी साम्राज्ञी है, तेरे दरबार में बड़े कलाकार हैं। और जब तू इसको परीक्षा बनाकर आयी है, तो गुलाब इतना सुंदर बनाया गया है और इस ढंग से बनाया गया है कि मैं भी पहचान न सकूंगा। नहीं, यह मेरी बुद्धिमत्ता नहीं है, यह तो मधुमक्खियों की बुद्धिमत्ता है, जिसका मैंने उपयोग कर लिया।
आदमी भर धोखे में आता है, इस जगत में और कोई धोखे में नहीं आता। कहते हैं, जब बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध हुए तो जिस वृक्ष के नीचे बैठे थे, उसके आसपास बेमौसम फूल खिल गए। जिस वृक्ष के नीचे बैठे थे, वह सूखा जा रहा था, उस पर हरे पत्ते निकल आए।
अब तुम धम्मपद को रख दो जाकर उस वृक्ष के नीचे, वृक्ष धोखे में न आएगा। धम्मपद को रखने से उस वृक्ष में नए पत्ते न आएंगे। धम्मपद को ले जाकर रख दो किसी वृक्ष के नीचे, जिसमें फूल आने बंद हो गए हैं, तो फूल न आएंगे। तुम वृक्षों को धोखा न दे सकोगे, सिर्फ आदमी धोखा खाता है। आदमी धम्मपद के चरणों में सिर झुकाता है, धम्मपद की पूजा करता है, गीता की, कुरान की, बाइबिल की। किताबें बडी महत्वपूर्ण हो गयी हैं।
कई कारण हैं। पहला तो यह कि किताब बड़ी सुलभ है और सस्ती है। और किताब के तुम मालिक हो जाते हो। किताब तुम्हारी मालिक नहीं हो पाती। तुम किताब में जो अर्थ निकालना चाहो, निकालो; जो व्याख्या करना चाहो, करो। अपने मतलब का जो हो, निकाल लो, अपने मतलब का जो न हो, छोड़ दो। किताब तुम्हें क्या बदलेगी, तुम किताब को बदल डालते हो।
सदगुरु का अर्थ होता है, जिसे तुम न बदल सको। वही तुम्हें बदल सकेगा। जिसे तुम बदल दोगे, वह तुम्हें कैसे बदलेगा?
इसलिए ध्यान रखना, उन साधु—महात्माओं से बचना जो तुम्हारे द्वारा संचालित होते हैं। तुम कहते हो, पानी छानकर पीओ और वे पानी छानकर पीते हैं। तुम कहते हो, रात चलो मत और वे नहीं चलते। और तुमसे डरते हैं। उन साधु—महात्माओं से सावधान रहना जो तुम्हारी मानकर चलते हैं, वे तुम्हें न बदल सकेंगे।
अगर तुम्हें बदलना हो तो किसी ऐसे आदमी की तलाश करना जो तुम्हारी सुनता ही नहीं। जो अपनी गुनता, अपनी सुनता, अपने ढंग से जीता है। तो शायद तुम कभी सदगुरु के पास पहुंच सको। इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि सदगुरु मौलिक रूप से विद्रोही होता है, परंपरागत नहीं होता, हो नहीं सकता। परंपरागत तो वे ही महात्मा होते हैं जो तुमसे भी गए—बीते हैं। तुम्हारी मानकर चलते हैं।
मेरे पास कुछ जैन—मुनियों ने खबर भेजी, हम मिलने आना चाहते हैं, लेकिन श्रावक नहीं आने देते। श्रावक नहीं आने देते! तो यह तो हद का महात्मापन हुआ! श्रावक कहते हैं कि वहां मत जाना, क्योंकि श्रावक डराते हैं कि अगर वहां गए, तो फिर हमसे कुछ लेना—देना नहीं है। फिर बात खतम हो गयी। फिर दोस्ती समाप्त! फिर यह पूजा—अर्चना जो तुम्हारी चलती है, बंद। और वह जो हम तुम्हारे भोजन—वस्त्र का इंतजाम करते हैं, वह खतम।
तो यह तो एक तरह की नौकरी—चाकरी हो गयी। इससे तो नौकर—चाकर भी भले। कम से कम जहां जाना हो, जा तो सकते हैं। इससे तो गृहस्थ बेहतर कि कम से कम भीड़— भाड़ इतना दबाव तो नहीं रखती, किसी को आना हो तो आ तो सकता है। नहीं, यहां नहीं आ पाते, चोरी से किताब पढ़ते हैं, चोरी से टेप सुनते हैं। मुझे खबर भिजवाते हैं कि इन सज्जन के हाथ भिजवा देना, हम सुन लेंगे एकांत में, लेकिन किसी को पता न चले। श्रावक को पसंद नहीं है।
श्रावक कौन है? और श्रावक अगर तुम्हें चला रहा है, तुम्हारा सुनने वाला अगर तुम्हारा मालिक बन बैठा है, तो तुम उसे कैसे बदलोगे, थोड़ा सोचो तो! तुममें इतनी भी सामर्थ्य नहीं है कि तुम अपने ढंग से जी सको।
तो तुम्हारे उन महात्माओं से तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति न होगी, जो तुम्हारे अनुयायी हैं। उसको खोजना जहां बगावत हो, जहां जिंदगी अपनी मौज में हो, और जो अपने ढंग से जी रहा हो। तो शायद अड़चन तो बहुत होगी। ऐसे आदमी के पास हिम्मतवर लोग जाते हैं, भीड़— भाडू नहीं जाती। ऐसे आदमी के पास तो वे ही लोग जाते हैं जिनको तलवार की धार पर चलने का शौक है, जिन्हें थोड़ा मजा है, जिन्हें जिंदगी में थोड़ा दुस्साहस है, जिनके जीवन में एक अभियान है और जो चाहते हैं कि जीवन की चुनौती स्वीकार की जाए।
यहां मेरे पास तुम्हें भीड़— भाड़ न दिखायी पड़ेगी। भीड़— भाड़ यहां आ नहीं सकती। यहां तो केवल वे ही लोग आ सकते हैं जिन्होंने तय ही कर लिया है कि इस जिंदगी में कुछ करना ही है, इस जिंदगी में कुछ होना ही है। यह मौत इस बार आए तो हमें वैसा ही न पाए जैसा हर बार पहले पाया था। इस बार कुछ नया, कोई ज्योति हमारे भीतर जलती हुई हो। अमृत की थोड़ी एक बूंद ही सही, लेकिन इस बार जीवन से अमृत निचोड़ ही लेना है।
तुम्हें हुआ, क्योंकि मैं अभी शास्त्र नहीं हूं। तुम हग्न्यभागी हो कि तुम शास्त्र के पास नहीं हो।

दूसरा प्रश्‍न:

बुद्धत्‍व का क्‍या अर्थ है?

बुद्धत्‍व का अर्थ तो साधा—साधा है। बुद्धत्व का अर्थ होता है, जागा हुआ चित्त। बुद्धत्व का अर्थ होता है, होश। बुद्धत्व का अर्थ होता है, जो उठ खड़ा हुआ। जो अब सोया नहीं है, जिसकी मूर्च्छा टूट गयी।
जैसे एक आदमी शराब पीकर रात गिर गया हो रास्ते पर और नाली में पड़ा रहा हो और रातभर वहीं सपने देखता रहा हो, और सुबह आंख खुले और उठकर खड़ा हो जाए और घर की तरफ चलने लगे। ऐसा अर्थ है बुद्धत्व का। जन्मों—जन्मों से हम न मालूम कितनी तरह की शराबें पीकर—धन की, पद की, प्रतिष्ठा की, अहंकार की—पड़े हैं मूर्च्छित। गंदी नालियों में पड़े —हैं। सपने देख .रहे हैं। जिस दिन हम जाग जाते हैं, उठकर खड़े हो जोते हैं, याद आती है कि हम कहा पड़े है और हम घर की तरफ चलने लगते हैं—बुद्धत्व। बुद्धत्व का अर्थ है, जो जागा, जो उठा, जो अपने घर की तरफ चला।
बुद्धत्व का गौतम बुद्ध से कुछ लेना—देना नहीं है, वह उनका नाम नहीं है। जीसस उतने ही बुद्ध हैं, जितने बुद्ध। मोहम्मद उतने ही बुद्ध हैं, जितने बुद्ध। कबीर और नानक उतने ही बुद्ध हैं, जितने बुद्ध। मीरा, सहजो और दया उतनी ही बुद्ध हैं जितने कि बुद्ध। बुद्धत्व का कोई संबंध किसी व्यक्ति से नहीं है, यह तो चैतन्य की प्रकाशमान दशा का नाम है।
इस छोटी सी कहानी को समझो—
एक बार ब्राह्मण द्रोण भगवान बुद्ध के पास आया और उसने तथागत से पूछा, क्या आप देव हैं? भगवान ने कहा, नहीं, मैं देव नहीं। तो उसने पूछा, क्या आप —गंधर्व हैं? तो भगवान ने कहा, नहीं, गंधर्व मैं नहीं। तो उसने पूछा, आप यक्ष हैं? तो भगवान ने कहा, नहीं, न ही मैं यक्ष ही हूं। तब क्या आप आदमी ही हैं? और बुद्ध ने कहा, नहीं, मैं मनुष्य भी नहीं हूं। ब्राह्मण तो हैरान हुआ। उसने पूछा, गुस्ताखी माफ हो, तो क्या आप पश—पक्षी हैं? बुद्ध ने कहा, नहीं। तो उसने कहा, आप मुझे मजबूर किए दे रहे हैं यह पूछने को  तो क्या आप पत्थर—पहाड़ हैं? पौधा—वनएकति हैं? बुद्ध ने कहा, नहीं। तो उसने कहा, फिर आप ही बतलाए, आप कौन हैं? क्या हैं?
उत्तर में तथागत ने कहा, वे वासनाएं, वे इच्छाएं, वे दुष्कर्म, वे सत्कर्म जिनका अस्तित्व मुझे देव, गंधर्व, यक्ष, आदमी, वनएकति या पत्थर बना सकता था, समाप्त हो गयी हैं। वे वासनाएं तिरोहित हो गयी हैं, जिनके कारण मैं किसी रूप में ढलता था, किसी आकार में जकड़ जाता था। इसलिए ब्राह्मण, जानो कि मैं इनमें से कुछ भी नहीं हूं मैं जाग गया हूं मैं बुद्ध हूं।
वे सब सोए होने की अवस्थाएं थीं। कोई सोया है वनएकति की तरह—देखते हैँ, ये जो अशोक के वृक्ष खड़े हैं, ये अशोक के वृक्ष की तरह सोए हैं। बस इतना ही फर्क है तुममें और इनमें, तुम आदमी की तरह सोए हो, ये अशोक के वृक्षों की तरह सोए हैं। कोई पहाड़—पत्थर की तरह सोया है। कोई स्त्री की तरह सोया है, कोई पुरुष की तरह सोया है। ये सब सोने की ही दशाएं हैं। सब दशाएं सोने की दशाएं हैं। सब स्थितियां निद्रा की स्थितियां हैं। बुद्धत्व कोई स्थिति नहीं है, सारी स्थितियों से जाग जाने का नाम है। जो जाग गया और जिसने जान लिया कि मैं अरूप, निराकार, जिसने जान लिया कि न मेरा कोई रूप, न मेरा कोई आकार, न मेरी कोई देह।
बुद्ध ने ठीक ही कहा कि न मैं देव हूं न मैं गंधर्व हूं न मैं यक्ष हूं न मैं मनुष्य हूं न मैं पशु, न मैं पौधा, न मैं पत्थर—मैं बुद्ध हूं।
बुद्धत्व सबकी संभावना है, क्योंकि जो सोया है, वह जाग सकता है। सोने में ही यह बात छिपी है। तुम सोए हो, इसमें ही यह संभावना छिपी है कि तुम चाहो तो जाग भी सकते हो। जो सो सकता है, वह जाग क्यों नहीं सकता? जरा प्रयास की जरूरत होगी। जरा चेष्टा करनी होगी।
एक और छोटी कहानी है—
एक रात्रि जब सारा काशीनगर सोया था, एक युवक था यश, वह जाग रहा था। वह अति चिंता में डूबा था। धनी था, समृद्ध था, लेकिन जैसी धनी और समृद्धों को चिंता होती है, वैसी चिंता थी। चिंता इतनी बढ़ गयी थी कि आत्मघात का विचार कर रहा था। चिंतित, अशांत, संतापग्रस्त उसे नींद नहीं थी। वह दुख में डूबा उठा और नगर से बाहर चला; उसने सोचा, आज अपने को समाप्त ही कर लूं। सार भी क्या है! यही पुनरुक्ति, यही रोज चिंता, यही रोज दुख, और मिलता तो कुछ भी नहीं, हाथ कुछ आता नहीं। रोज—रोज दुख भोगो, इससे बेहतर समाप्त हो जाओ। सत्तर—अस्सी साल तक इसी—इसी घेरे में दोहरते रहना, कोल्ह में जुते बैल की तरह चलते रहने का क्या प्रयोजन है!
वह नगर के बाहर आया, नगर—सीमांत पर बुद्ध का निवास था, वे एक वृक्ष के नीचे बैठे थे। आधी रात थी, चांद निकला था। वह युवक तो आत्महत्या करने जा रहा था। ऐसे ही आकस्मिक उसकी दृष्टि में बुद्ध बैठे दिखायी पड़ गए। उसने ऐसा शांत आदमी नहीं देखा था। एक क्षण को तो भूल ही गया अपनी चिंताएं, इस शांति का ऐसा छापा पड़ा, एक क्षण को तो भूल ही गया कि जिंदगी में दुख है। यह जो सुख का सागर जैसा आदमी बैठा था, इसके सुख की भनक पड़ी। एक क्षण को तो भूल ही गया कि मैं आत्महत्या करने आया हूं।
अब बुद्ध के पास जाओ तो आत्महत्या करने का खयाल रह सकता है! आकस्मिक ही आ गया था, कोई सोचकर आया न था, संयोग की बात थी कि बुद्ध थे वहां और वह राह से गुजरता था। खिंचा चला आया जैसे चुंबक से लोहा खिंचा चला आता है। जैसे ही बुद्ध को देखा उस पूरे चांद की रात में, इस पूरे मनुष्य को देखा, एक चांद आकाश में और एक चांद जमीन पर—और आकाश के चांद को लजाते देखा होगा—चला आया, मंत्रमुग्ध। जैसे बीन सुनकर सांप नाचने लगता है, ऐसे ही बुद्ध की इस मौन अवस्था का उस पर प्रभाव हुआ होगा।
तथागत ने आंखें खोलीं और देखा उस युवक को। वह और भी निकट आ गया। उन आंखों में जादू था। उसने कहा, आश्चर्य! मैं तो निकला था मृत्यु की तलाश में और जीवन के दर्शन होंगे, यह मैंने सोचा न था! मेरा जीवन अत्यंत दुख से भरा है। जीवन बड़ी पीड़ा है।
तथागत ने कहा, सच है, जीवन पीड़ा है, लेकिन एक और जीवन भी है, जहां पीड़ा की कोई गति नहीं है। यहां देखो, मेरी तरफ देखो, मेरे भीतर देखो, यहां दुख है ही नहीं। और तुम भी चाहो कि दुख मिट जाए, तो जरा और मेरे पास आ जाओ। शरीर से ही नहीं, मन से मेरे पास आ जाओ। मैं तुम्हें जगा दूंगा। मैं जागा हूं? तुम भी जाग जाओगे। और जो जाग गया वह दुख के बाहर हो जाता है।
एक जीवन है जागरण का, उस जीवन का नाम है बुद्धत्व। वहा कोई दुख नहीं। सब दुख मूर्च्छा में हैं। ये जो दुख—स्‍वप्‍न हम देख रहे हैं न मालूम कितने—कितने प्रकार के, ये सब नींद में देखे जा रहे हैं।
बुद्धत्व का अर्थ है, तुम्हारे भीतर जो छिपा पड़ा है ज्योतिर्पुंज, उसके आसपास का धुआ हट जाए। तुम्हारे भीतर जो निरभ्र आकाश छिपा है, उसके आसपास बदलिया घिर गयी हैं जन्मों—जन्मों में, वे बदलिया छंट जाएं।
कठिन नहीं है, असंभव नहीं है। हो सकता है। एक को हुआ तो सभी को हो सकता है। इसलिए बुद्धत्व को तुम कोई असंभव लक्ष्य मत समझ लेना। यह तुम्हारे हाथ के भीतर है, यह तुम्हारी पहुंच के भीतर है। अब तुम हाथ ही न उठाओ तो बात और। यह यात्रा हो सकती है। जितने श्रम से तुम संसार की यात्रा कर रहे हो, उससे तो बहुत कम श्रम से यह यात्रा हो सकती है। जितनी ताकत तुम धन को पाने में लगाते हो, काश उतनी ताकत ध्यान को पाने में लगा दो तो ध्यान अभी हुआ। और धन तो कभी भी न होगा। और हो भी जाएगा तो भी कुछ न होगा। हुआ तो बराबर, न हुआ तो बराबर। धन कितना ही हो जाए, तुम निर्धन रहोगे ही।
बुद्धत्व का अर्थ है, घनीभूत ध्यान, सघनीभूत ध्यान। ध्यान पर ध्यान, पर्त पर पर्त ध्यान की। और खयाल रखना, बुद्ध तुम्हारे जैसे ही मनुष्य थे। जिनको भी हुआ है, तुम्हारे जैसे मनुष्य थे। जरा याद तो करो, जरा अपने को इस स्मृति से तो भरो, स्मरण करो, बुद्ध तुम्हारे जैसे मनुष्य थे। तुम्हारे जैसे हड्डी—मांस—मज्जा से बने। उनके भीतर यह ज्योति जली, तो तुम्हारे भीतर भी यह ज्योति छिपी है। एक दिन उनके भीतर भी न जली थी तो वह भी ऐसे ही परेशान थे। जिस दिन जल गयी, उस दिन जाना—दूर नहीं थी, पास ही थी, सिर्फ ठीक से तलाश करने की बात थी। हमने ठीक से अभी प्रश्न भी नहीं पूछे कि हम कैसे इसकी तलाश करें। हम खोज ही नहीं रहे। एक चीज तो हम खोज ही नहीं रहे—स्वयं को हम खोज ही नहीं रहे।
सूफी फकीर हुआ, बायजीद। एक रात अपने झोपड़े में बैठा है और किसी ने आधी रात दरवाजे पर दस्तक दी। वह अपने ध्यान में लीन था, उसने आंखें खोलीं, उसने पूछा कि कौन है और क्या चाहते हो? उस आदमी ने कहा, मैं बायजीद की तलाश में आया हूं; बायजीद भीतर है? सन्नाटा हो गया थोड़ी देर को, और बायजीद ने कहा, भाई, मैं खुद ही तीस साल से बायजीद की तलाश कर रहा हूं। और यही मैं पूछ रहा हूं—बड़ा चमत्कार है—कि बायजीद भीतर है? मुझे पता चल जाएगा तो तुम्हें खबर करूंगा। अभी तो मुझे ही पता नहीं चला कि बायजीद भीतर है या नहीं है। या भीतर कौन है!
बायजीद ने ठीक कहा कि तीस साल से मैं खुद ही तलाश कर रहा हूं कि मैं कौन हूं। मुझे ही अभी पता नहीं तो तुमसे कैसे कहूं कि मैं कौन हूं!
दुनिया में तीन तरह के लोग हैं। एक, जिन्होंने तलाश ही नहीं की, जिन्होंने पूछा ही नहीं कि मैं कौन हूं। इनकी संख्या बड़ी है। इनकी ही भीड़— भाड़ है। इन्हें अपना पता नहीं है और ये चले चले जाते हैं। और ये लाख तरह की तमन्नाएं करते हैं और लाख तरह की तृष्णाएं करते हैं और इन्हें यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं। इनके जीवन की बुनियाद ही नहीं पड़ी है और ये जीवन का भवन बनाने में लगे रहते हैं। इनके भवन अगर गिर—गिर जाते हैं तो कुछ आश्चर्य नहीं।
बुनियाद तो पहली बात से पड़ेगी—इस बात को तो मैं जान लूं कि मैं कौन हूं। इसको जान लेने से ही तय हो जाएगा कि मैं क्या खोजूं? मेरे स्वभाव के अनुकूल क्या है? क्या मुझे तृप्ति देगा? अभी तो मुझे यही पता नहीं कि मैं कौन हूं तो जो मैं खोजूंगा, उससे मुझे तृप्ति मिलेगी या नहीं मिलेगी, इसका कैसे पता होगा? जो मैं खोजने चला हूं उसका मुझसे कोई साज बैठेगा, संगीत बैठेगा मेरे साथ?
तो पहली तो बुनियादी बात है—मैं कौन हूं? अधिक लोग पूछते ही नहीं, सौ में निन्यानबे लोग पूछते ही नहीं कि मैं कौन हूं। इनसे पृथ्वी भरी है।
दूसरे वे लोग हैं जिन्होंने पूछना शुरू किया कि मैं कौन हूं। दूसरे का नाम संन्यासी, पहले का नाम गृहस्थ। जिसने पूछा ही नहीं कि मैं कौन हूं वह गृहस्थ, संसारी। जिसने पूछा कि मैं कौन हूं वह संन्यस्त। और जिसने जान लिया कि मैं कौन हूं वह बुद्ध, वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया।
ये तीन अवस्थाएं हैं—संसारी की अवस्था, ख्य—वासी की अवस्था, बुद्ध की अवस्था। बुद्ध की अवस्था तक पहुंचने के लिए संन्यास की प्रक्रिया से गुजरना जरूरी है। संसारी और बुद्ध को जोड़ता है संन्यास। संन्यास बीच का सेतु है।
और बुद्ध बनने का यह अर्थ नहीं होता है कि तुम बुद्ध का अनुकरण करो। बुद्ध बनने का अर्थ होता है, आत्मानुसरण करो, आत्मानुसंधान में लगो। तुम बुद्ध जैसे बनने की कोशिश मत करना, नहीं तो बुद्ध कभी नहीं बन पाओगे। तुम तो स्वयं बनने की कोशिश करोगे तो बुद्ध बन पाओगे।
इसे खयाल रखना, यह भूल बहुत हो जाती है। कभी सौभाग्य से कोई आदमी खोज में भी निकलता है तो यह एक झंझट खड़ी हो जाती है—वह नकल में पड़ जाता है, बुद्ध बन जाऊं। तो वह सोचता है, जैसे बुद्ध उठते, वैसे उठूं; जैसे बुद्ध बैठते, वैसे बैठ— जो बुद्ध पहनते, वैसा पहपूं जो बुद्ध खाते, वैसा खाऊं; वह नकलची हो जाता है, वह अभिनेता हो जाता है। बुद्ध के बाहर के व्यवहार का अनुकरण करके तुम बुद्धत्व को न पाओगे। और जब तुम्हारे भीतर का बुद्ध जागेगा, तो तुम अपने ही ढंग से बैठोगे, अपने ही ढंग से उठोगे, बुद्ध से इसका कुछ लेना—देना नहीं होगा। प्रत्येक व्यक्ति अपनी परम अवस्था में अद्वितीय होता है। मैंने सुना है, प्रसिद्ध झेन गुरु क्यान झान के जीवन की घटना है। एक विद्यार्थी उनके पास व्यक्तिगत मार्गदर्शन के लिए आया। क्यान झान ने उससे पूछा कि अब तक उसने ध्यान किस गुरु के पास सीखा है? विद्यार्थी ने जब कहा कि वह जाकू शिस्तु के अंतर्गत योगेन मठ में अध्ययन करता था, तो गुरु ने कहा, मुझे दिखाओ वह जो तुमने सीखा है। विद्यार्थी ने उत्तर में कहा, सिद्धासन पर अचल बैठना मैंने सीखा है। और जल्दी से उसने पालथी मारी, आंख बंद कीं और सिद्धासन पर बैठ गया शरीर को अडोल करके।
क्यान झान तो खूब हंसा और उसने कहा—हट, बाहर निकल यहां से! मेरे मठ में पत्थर के बुद्ध बहुत हैं। और भीड़ बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है।
यह भी कोई बात सीखी? वह बिलकुल बुद्ध बनकर बैठ गया। ठीक सिद्धासन मार लिया, आंख बंद कर लीं, रीढ़ सीधी कर ली, आंख बंद करके अडोल हो गया। वह सोचा कि शायद यह कोई बड़ी उपलब्धि है। यह तो कोई उपलब्धि नहीं।
जब बुद्धत्व घटता है, तो बाहर के किसी कारण से नहीं घटता। और जब बुद्धत्व घटता है, तो बाहर दो व्यक्ति कभी एक से नहीं होते, दो बुद्ध कभी एक से नहीं होते। बुद्ध को पालथी मारे बुद्धत्व हुआ, महावीर जब बुद्ध बने तो अजीब हालत में बैठे थे—उकडूं बैठे थे। उकडूं कोई बैठता है बुद्ध बनने के लिए! गोदोहासन में बैठे थे। उकडूं शब्द न लिखना पड़े, क्योंकि उकडूं बड़ा अजीब सा लगता है कि क्या कर रहे थे, तो जैनों ने शब्द खोज लिया—गोदोहासन। वे उकडूं नहीं लिखते। क्योंकि उकडूं जरा अजीब सा लगता है कि यह महावीर कर क्या रहे थे उकडूं बैठकर! मल—मूत्र विसर्जन करने गए थे, क्या कर रहे थे? उकडूं काहे के लिए बैठे थे? तो उन्होंने बेचारों ने अच्छा शब्द खोज लिया है, अब यह उकडूं शब्द जंचता नहीं, तो गोदोहासन। जैसे गऊ को दुहते वक्त कोई बैठता है, ऐसे बैठे थे। अब गऊ दुह रहे थे? दुह तो लिया परमात्मा को उन्होंने उस क्षण में।
कोई जानता नहीं, किस घड़ी, कैसी अवस्था में, उठते, बैठते कि चलते बुद्धत्व घटेगा। कोई आसन नहीं है जिसमें बुद्धत्व घटता हो। हां, बुद्धत्व घट जाए तो तुम्हारे सभी आसन भीतर की ज्योति से ज्योतिर्मय हो जाते हैं।
तो नकल में नहीं पड़ना। नकल से बचना। नकल बड़ा खतरनाक द्वार है। और बहुत लोग उलझ जाते हैं। क्योंकि यह बात आसान दिखती है। बुद्ध जैसे कपड़े पहनते हैं, ऐसे कपड़े पहन लें। इसमें क्या अड़चन है। यह तो बड़ी सुगम बात है। इसमें एक आशा बंधती है कि चलो, उन्हीं जैसे कपड़े पहन लिए उन्हीं जैसे उठने लगे, उन्हीं जैसे बैठने लगे; वह जब सोते हैं, सोने लगे; वह जिस करवट सोते हैं उसी करवट सोने लगे, तो शायद भीतर का भी घट जाए। भीतर की जो घटना है वह बाहर के इन बाह्य आचरणों पर निर्भर नहीं है। तुम सोते रहो ठीक बुद्ध जैसे ही कुछ फर्क न पड़ेगा।
बुद्धत्व का तो एक ही सूत्र है कि तुम्हारे प्रत्येक कृत्य में जागरूकता समाविष्ट हो जाए। तुम्हारा प्रत्येक कृत्य होश की गरिमा से भर जाए। तुम कुछ भी बेहोशी में न करो—कुछ भी। जो भी तुम करो, उस करने में होश रहे, बोध रहे कि मैं ऐसा कर रहा हूं। जब बोध रहता है तो गलत अपने आप बंद हो जाता है। जब बोध रहता है तो ठीक अपने आप होता है।

 तीसरा प्रश्न

 भगवान, अगर कल तक मैंने भी आपके आश्रम में किसी न किसी रूप में चोरी की हो और आज प्रबल भाव उठे कि भगवान के सामने जाकर अपना अपराध स्वीकार करूं और फिर एक मन कहे कि बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि लेहि, तो ऐसे में आप क्या मार्गदर्शन देंगे?

पूछा है कृष्‍णाप्रिया ने।
पहली तो बात, जब भाव उठ रहा है तो भाव तो अभी उठ रहा है। भाव उठ रहा है कि जाकर अपनी चोरी का, या अपनी भूल का, या अपने अपराध का स्वीकार कर लें, यह भाव तो अभी उठ रहा है। यह तो कुछ बीता हुआ भाव नहीं है। चोरी कभी की होगी, उससे कोई प्रयोजन नहीं है। यह भाव कि अपराध को स्वीकार कर लूं? यह तो अभी उठ रहा है। यह भाव तो बीता हुआ नहीं है। यह भाव अतीत में नहीं है, यह भाव तो वर्तमान में है। चोरी रही होगी अतीत में, चोरी को जाने दो, जो हो गया हो गया। लेकिन यह भाव तो अभी उठ रहा है, इस भाव को मत टालो। इस भाव को तो उठने दो, इसे तो प्रगट होने दो।
इस भाव के प्रगट होने में लाभ है। यह भाव पूरी तरह प्रगट हो जाए, इस भाव की पूरी स्वीकृति हो जाए, तो ही संभव होगा—बीती ताहि बिसार दे। क्योंकि जिस बात को हमने स्वीकार कर लिया, उसका बोझ हल्का हो जाता है। नहीं तो बोझ बना ही रहता है। स्वीकार करने का, कनफेशन का यही तो मूल्य है।
तुमने किसी का बुरा सोचा, अगर जाकर कह दिया कि ऐसा मेरे मन में भाव उठा, क्षमा चाहता हूं तो छुटकारा हो गया। लेकिन तुमने यह न कहा, तुमने सोचा कि मैंने किसी को बताया भी तो नहीं है, किसी को पता भी नहीं है, अब कहने की भी क्या जरूरत है, तो यह तुम्हें कुरेदता रहेगा। यह भीतर कहता रहेगा कि देखो, तुम्हारे मन में ऐसा बुरा भाव उठा था और तुम स्वीकार करने की भी सामर्थ्य न जुटा सके। यह अधूरा— अधूरा लटका रहेगा। यह तुम्हारे संग—साथ हो जाएगा। इसकी एक पर्त बन जाएगी।
ईसाइयों ने कनफेशन की बड़ी अदभुत प्रक्रिया खोजी, उसका मूल्य यही है। हर धर्म ने दुनिया में कुछ न कुछ बात दी है, विशेष बात दी है। ईसाइयों ने जो विशेष बात दी है, वह कनफेशन है। केथलिक धर्म ने जो बड़े से बड़ा अनुदान दिया है मनुष्य—जाति को, वह कनफेशन है, स्वीकार कर लेना।
अंग्रेजी में कहावत है. टू एर इज लूमन, भूल करना मानवीय है। तो कुछ आश्चर्य नहीं कि कभी चोरी कर ली हो, इसमें कुछ बहुत बड़ी बात नहीं हो गयी। मनुष्य चोरी करते हैं। मानवीय है। कभी ऐसी घड़ी आ जाती है, करनी ही पड़ती है। मानवीय है। अंग्रेजी की कहावत अच्छी है कि टू एर इज अमन, पर अधूरी है, आधी है। टू कनफेश इज डिवाइन, तब पूरी हो जाएगी। स्वीकार कर लेना दिव्य है। भूल करना मानवीय, स्वीकार कर लेना दिव्य। भूल कर ली तो घाव बन गया, स्वीकार कर लिया तो घाव खुल गया, मवाद बह गयी।
भूल कर ली और घाव को छिपाए—छिपाए फिरे, धूप न लगने दी, ताजी हवा न लगने दी, तो भरेगा नहीं। और मवाद बढ़ेगी और घाव धीरे— धीरे बड़ा होगा। नासूर हो जाएगा। कैंसर भी हो सकता है। खुला छोड़ो। मुक्त करो। मवाद को निकल जाने दो। धूप लगने दो, ताजी हवा लगने दो, सूरज की किरणों को खेलने दो उस घाव के ऊपर, ताकि भर जाए। भरने का मौका दो।
तो कृष्णप्रिया पूछती है कि 'अगर कल तक मैंने भी आपके आश्रम में किसी न किसी रूप में चोरी की हो और आज प्रबल भाव उठे..। '
तो प्रबल भाव उठता हो तो उसे पूरा करना। सौभाग्य है कि ऐसा भाव उठ रहा है। तब तो चोरी की, उससे भी लाभ ले लिया। अगर यह प्रबल भाव उठा और तुमने स्वीकार कर लिया, तो चोरी करने से जितनी भूल हुई, उससे कहीं बहुत ज्यादा लाभ स्वीकार करने से हो गया। चोरी करने से तो कुछ बड़ी भारी भूल नहीं हो गयी थी, ध्यान रहे, मानवीय है। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जिसने कभी न कभी, किसी न किसी कारण, किसी न किसी ढंग से चोरी न कर ली हो। लेकिन जिसने स्वीकार कर लिया, उसने चोरी की भी सीढ़ी बना ली। उसने चोरी को भी लिटा दिया मंदिर की सीडी पर और उसके ऊपर चढ़कर मंदिर में प्रवेश कर गया। मार्ग का पत्थर सीढ़ी बन गया।
स्वीकार करो। और जब प्रबल भाव उठ रहा है तो इसको दबाना मत, क्योंकि इसे दबाया अगर, तो यह दबा हुआ भाव बार—बार उभरेगा, और तुम्हें याद बार—बार चोरी की आएगी। और याद बार—बार चोरी की आए और बार—बार अराराध लगे कि बुरा किया, बुरा किया, तो दीनता पैदा होगी, भय पैदा होगा, चिंता पैदा होगी, डर गोगा कि किसी दिन पकड़ न जाऊं, कोई जान न ले, किसी जाने—अनजाने किसी को खबर न हो जाए। तो तुम्हारे जीवन का जो खुलापन है, वह नष्ट हो जाएगा।
जीवन ऐसा हो कि उसमें छिपाने को कुछ भी नहीं है, तो एक मुक्तता होती है। तब तुम बंधे—बंधे अनुभव नहीं करते। खुले अनुभव करते हो। जितने जल्दी हो, छिपाने योग्य बातों को मुक्त कर देना चाहिए, कह देना चाहिए। हानि न होगी, लाभ ही लाभ होगा।
और अगर तुम इन घावों से मुक्त हो जाओ, तो ही वह घटना घटेगी जो तुम्हारा दूसरा मन कह रहा है—बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि लेहि। अभी तो वह मन चालबाजी कर रहा है, अभी तो वह मन यह कह रहा है कि छोड़ो भी! अच्छा वचन उद्धृत कर रहा है। तुमने सुना न कि शैतान भी शास्त्र के वचन उद्धृत करता है। शैतान को शास्त्र बिलकुल कंठस्थ है। यह तो बड़ी तरकीब की बात कर रहा है मन। मन कह रहा है, बीती ताहि बिसार दे! अब क्यों पंचायत में पड़ना, किससे कहना, क्या कहना, क्या फायदा! अब किसी को पता भी नहीं चला। नाहक, अपने हाथ से झंझट में क्यों पड़ना!
अगर इस मन की मान ली, तो यह वही मन है जिसने चोरी की थी। आज कहता है, बीती ताहि बिसार दे, क्योंकि इसको घबड़ाहट लग रही है कि कहीं प्रबल भाव के प्रवाह में स्वीकार न कर लो। स्वीकार कर लिया तो आगे चोरी करना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि स्वीकार मनुष्य को दिव्य बनाता है। और दिव्यता जैसे—जैसे आनी शुरू होती है, छोटे काम मुश्किल हो जाते हैं।
यह मन डरा है। यह मन कह रहा है कि अरे, छोडो भी! खुद भगवान ही हजार बार कह चुके .कि बीती ताहि बिसार दे, जो गया सो गया, अतीत तो न हो गया अब उसकी क्या चिंता करना!
लेकिन क्या सच में ही बीत गया है? अगर बीत गया था तो याद भी न आती। चोरी तुमने की होगी सालभर पहले कि दस साल पहले, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। अगर यह बीत ही गयी थी बात, तो इसकी याद क्यों आती?
यह बीती नहीं है। तुम्हारे मन में अभी भी अटकी है, काटे की तरह चुभ रही है। कांटा लगा होगा छह महीने पहले, लेकिन कांटा अभी भी लगा है और चुभता है। और कभी—कभी ऐसा हो जाता है, कांटा भी निकल जाता है और फिर भी चुभन रह जाती है। चुभन भी निकलनी चाहिए, नहीं तो चुभन भी पीड़ा देती है। तुम्हें कई दफा पता चला होगा—कांटा तो निकल गया, फिर भी तुम खोजते हो कि कहीं कांटा मालूम होता है, क्योंकि चुभन अभी भी है। घाव 'रह गया।
मन से बहुत सावधान रहना, मन बहुत चालबाज है। और कभी—कभी बड़ी अच्छी बातें करता है—बीती ताहि बिसार दे! बीत ही गयी होती तो प्रबल भाव न उठता स्वीकार करने का।
पूछा है कृष्णप्रिया ने, 'तो ऐसे में आप क्या मार्गदर्शन देंगे?'
मैं तो हमेशा ही प्रबल भाव 'के पक्ष में हूं। जो प्रबल भाव उठे, उसे दबाना मत। और जब ऐसा शुभ भाव उठ रहा हो, तब तो दबाना ही मत। तब तो उसे प्रगट करना। इससे तुम्हारी शुद्धता बढ़ेगी, स्वच्छता बढ़ेगी और दुबारा होने की संभावना कम हो जाएगी।

 चौथा प्रश्न

 क्या जब तक मन है, तब तक हम किसी न किसी तरह की राजनीति में उलझे ही रहते हैं? क्या मन से पार हुए बिना राजनीति से ऊपर उठने का कोई उपाय नहीं है? कृपा करके समझाएं।

 न ही राजनीति है। मन की सारी चेष्टाएं शोषण की हैं। मन के सारे आयोजन दूसरों पर मालकियत करने के हैं। मन महत्वाकांक्षा के जहर से भरा है। मन ही राजनीति है। इसीलिए तो मैं कहता हूं कि धार्मिक व्यक्ति को राजनीति की दिशा में जाना असंभव है। क्योंकि धार्मिक व्यक्ति पैदा ही तब होता है जब वह मन कै पार उठता है, ध्यान में उठता है, अ—मन की दशा में जाता है, उन्मन होता है, तब तो धर्म पैदा होता है।
राजनीति का अर्थ होता है. दूसरों पर कब्जा कर लूं र दूसरों से बड़ा हो जाऊं, दूसरों से महत्वपूर्ण हो जाऊं, दूसरों को पीछे डाल दूं दूसरे न—कुछ सिद्ध हो जाएं और मैं सब कुछ हो जाऊं, मेरा अधिकार बड़ा हो, मेरी सत्ता बड़ी हो, मेरा अहंकार बड़ा हो, मेरा अहं कार सिंहासन पर बैठे, स्वर्ण—सिंहासन पर बैठे।
फिर ध्यान रखना कि जहां इतने लोग राजनीति में लगे. हों, वहां सभी लोग स्वर्ण—सिंहासनों पर तो बैठ नहीं सकते। तो जो बैठने में सफल हो जाते हैं, वे अहंकारी हो जाते हैं, और जो बैठने में हारते जाते हैं और सफल नहीं हो पाते, वे धीरे — धीरे हीनता की ग्रंथि से भर जाते हैं। तो कुछ बन जाते हैं मालिक और कुछ बन जाते हैं गुलाम। लेकिन आदमी मालिक बने तो विकृत हो जाता खै, गुलाम बने तो विएकृत हो जाता है, आदमी तो आदमी ही रहे तो सुंदर होता है। किसी के मालिक
बनना राजनीति है और किसी के गुलाम बन जाना भी राजनीति है।
तो न तो किसी के मालिक बनना चाहना और न किसी के गुलाम बनना चाहना। न तो किसी को मौका देना कि तुम्हें मालिक बना ले और न किसी को मौका देना कि तुम्हें गुलाम बना ले।
दुनिया में दो तरह की राजनीति है। मालिक की राजनीति और गुलाम की राजनीति। मालिक की राजनीति प्रगट होती है, गुलाम की राजनीति अप्रगट होती है। इससे तुम यह मत समझना कि तुम पद पर नहीं हो, प्रतिष्ठा पर नहीं हो, तो तुम राजनीति के बाहर हो ही गए। जरूरी नहीं है। पद—प्रतिष्ठा पर भला न होओ, तो तुम गुलाम की राजनीति का खेल खेल रहे होओगे। तुम वहां से चालबाजी चलोगे।
इसे समझो। पुरुषों के हाथ में ताकत है, स्त्रियों के हाथ में ताकत नहीं है, तो स्त्रियां गुलाम की राजनीति का पार्ट अदा कर रही हैं सदियों से। बड़ी तरकीब से पुरुष को गुलाम करती हैं। तरकीब सूक्ष्म होती है। पुरुष को बिलकुल निर्भर कर देती हैं। मालिक तो पुरुष है, दिखावे के लिए मालिक पुरुष है। और पुरुष मानता है कि वह मालिक है, उसकी चलती है, लेकिन भीतर स्त्री तरकीब से चलाती है। रोती है, परेशान होती है, बीमार हो जाती है। तो उसकी माननी पड़ती है। वह गुलाम की राजनीति है, वह कमजोर की राजनीति है।
दोनों भ्रष्ट हो गए। नेता भ्रष्ट हो गए हैं, अनुयायी भ्रष्ट हो गए हैं। मालिक भ्रष्ट हो गए हैं, गुलाम भ्रष्ट हो गए हैं। राजनीति का मतलब ही केवल इतना है कि मैं दूसरे को चलाऊ। किस तरह से चलाऊ, यह बात महत्वपूर्ण नहीं है।
मैं एक कहानी पढ़ रहा था। सच ही होगी कहानी।
तारीख उन्नीस मार्च को लोकसभा के लिए मतदान होना था। सरकार तब कांग्रेस की थी। अठारह मार्च की शाम को एक घर में तीन मित्र बैठे बातें कर रहे थे। स्वभावत:, अठारह मार्च की शाम और बात होती भी क्या, राजनीति की बात चल रही थी—क्या होगा चुनाव का फल? एक ने कहा, कल मतदान हो जाएगा। दूसरे ने कहा, इस बार जनता पार्टी का बड़ा जोर है। तीसरे ने कहा, हम तो काग्रेस को ही वोट देंगे, आफ्टर आल हम सरकारी आदमी हैं।
मतदान हो गया। बाईस तारीख को चुनाव—परिणाम की घोषणा के बाद फिर वे ही तीन लोग बैठे बातें कर रहे थे। एक ने कहा, अब तो जनता पार्टी की सरकार बन ही गयी। दूसरे ने कहा, किसी को उम्मीद नहीं थी कि कांग्रेस इस बुरी तरह से हारेगी और जनता पार्टी इस कदर जीतेगी। तीसरे ने कहा—ये वही सज्जन थे, जिन्होंने कहा था कि हम तो सरकारी आदमी ठहरे, सरकारी नौकर थे, तो हम तो काग्रेस को ही वोट देंगे—यें तीसरे सज्जन बोले, ठीक है जी, हमारा वोट जनता पार्टी के काम आ गया। दोनों मित्र चौंके, उन्होंने कहा, क्या कहते हो? आप तो कह रहे थे, मैं कांग्रेस को वोट दूंगा। उन्होंने कहा, तो क्या आपने जनता पार्टी को वोट दिया फिर? वे तीसरे सज्जन बोले, ही जी, आफ्टर आल हम सरकारी नौकर हैं।
जिसकी लाठी उसकी भैंस, उसके साथ हम।
एक तो मालिक जो बन बैठे हैं, उसकी राजनीति है। और एक जो मालिक नहीं बन पाता, उसकी राजनीति है। दोनों से मुक्त होना है। दोनों से मुक्त आदमी ही संन्यस्त है। किसी के मालिक बनना अनाचार है। हर एक व्यक्ति अपना मालिक है। क्यों कोई दूसरा किसी का मालिक हो? और किसी का गुलाम बनना अपना आत्म—अपमान है। अपनी आत्मा का इतना दमन और अपमान करना उचित नहीं। तो न तो किसी के मालिक बनना और न किसी के गुलाम बनना। ऐसा जो आदमी है, उसको मैं संन्यस्त कहता हूं। और ऐसी दशा लाने के लिए तुम्हें मन से धीरे— धीरे पार जाना ही होगा। मन कहीं न कहीं उलझा देगा अन्यथा। मन किसी न किसी तरह की राजनीति में डुबा देगा।
तुम ठीक ही पूछते हो कि 'क्या जब तक मन है, तब तक हम किसी न किसी तरह की राजनीति में उलझे ही रहेंगे?'
उलझे ही रहोगे। क्योंकि मन ही राजनीतिश है। मन का जब तक तुम पर कब्जा है, तब तक मन की भाषा यही है, मन के सोचने का ढंग यही है
मैक्यावेली ने कहा है, या तो तुम दूसरे के मालिक बन जाओ, अन्यथा दूसरा तुम्हारा मालिक बन जाएगा। यह मन का गणित है। मन कहता है, या तो दूसरे को हराओ, अन्यथा दूसरा तुम्हें हरा देगा। या तो विजेता बनो, या पराजित हो जाओगे। चुन लो जो चुनना हो। मन कोई दूसरा विकल्प ही नहीं देता, बस ये दो बातें देता है—या तो पिट जाओ, या पीट दो।
दोनों हालतें बुरी हैं। दोनों हालत में जीवन नष्ट हो जाता है। मैक्यावेली को संन्यास का कोई खयाल भी नहीं था, कल्पना भी नहीं थी। संन्यास का अर्थ, दोनों के 'बाहर हो जाओ। यह जो बाहर हो जाना है, बाहर की घटना नहीं है, यह तो तुम जब मन के बाहर हो जाओगे तभी घटेगी।
तो अपने भीतर मन से बाहर सरक जाओ, मन की बहुत मत सुनो। मन कहता है, नाम छोड़ना है! इतिहास में काम कर जाना है! कुछ करके दिखा दो! मन कहता है, धन ही इकट्ठा कर लो, पद ही इकट्ठा कर लो, लोगों को बतला दो कि तुम क्या हो! इस मन की सुनी अगर तुमने, तो तुम चल पड़े महत्वाकांक्षा  की यात्रा पर। फिर हो सकता है स्थूल रूप में तुम राजनीति में भाग न भी लो..।
समझो कि एक आदमी मुनि हो गया है, वह राजनीति में भाग लेता भी नहीं, लेकिन तब और तरह की राजनीति चलने लगती है। वह सोचता है कि मैं जो संसारी हैं उनसे श्रेष्ठ हूं। यह राजनीति हो गयी। इसमें कुछ फर्क न रहा। मैं श्रेष्ठ हूं तो राजनीति हो गयी। यह तरकीब से श्रेष्ठ हो गया। कोई आदमी चुनाव लड़कर श्रेष्ठ हो गया, कोई आदमी धन इकट्ठा करके श्रेष्ठ हो गया, यह आदमी त्याग करके श्रेष्ठ हो गया। मगर श्रेष्ठ होने का खेल जारी रहा।
मन के बाहर होने का अर्थ होता है, मेरी अब कोई महत्वाकांक्षा नहीं 1 मैं जो हूं? पर्याप्त हूं। मैं जैसा हूं सुंदर हूं। मुझे अपना होना स्वीकार है। मैं आह्लादित हूं जैसा प्रभु ने मुझे बनाया, जैसा मैंने अपने को पाया, मैं धन्यभागी हूं। इससे अन्यथा होने की, किसी के ऊपर बैठने की कोई आकांक्षा नहीं है। और न किसी को नीचे बिठाने की कोई आकांक्षा है।
ऐसी तृष्णा के बाहर जो चित्त की दशा है, वहीं राजनीति समाप्त होती है। सिर्फ बुद्धों की ही राजनीति समाप्त होती है। और राजनीति समाप्त तो संसार समाप्त। संसार राजनीति का फैलाव है। राजनीति समाप्त तो आवागमन समाप्त।

 पाँचवाँ प्रश्‍न:

 जीवन दुख है, भगवान बुद्ध का इस बात पर इतना जोर क्यों है? क्या जीवन सचमुच दुख ही दुख है, दुख के सिवा उसमें और कुछ भी नहीं है?

जीवन दुख है, इसलिए बुद्ध का इतना जोर है कि जीवन दुख है। यह जोर इसीलिए है कि तुम इतने मूर्च्छित हो कि दुख में पड़े हो और तुम्हें दुख नहीं दिखायी पड़ता। इसलिए बुद्ध चिल्ला—चिल्लाकर कहते हैं कि जीवन दुख है—जन्म दुख है, जवानी दुख है, जरा दुख है, सब दुख है। यह बुद्ध का इतना चिल्ला—चिल्लाकर कहना इसलिए है कि तुम बहरे हो। तुमसे धीरे—धीरे कहा जाए तब तो तुम सुनोगे ही नहीं, चिल्ला—चिल्लाकर कहने पर भी नहीं सुनते।
और देखो, तुम पूछ रहे हो उलटा कि 'जीवन दुख है, भगवान बुद्ध का इस बात पर इतना जोर क्यों है?
तुम दिखता है कि थोड़े नाराज भी हो, कि यह आदमी क्यों चिल्लाए चला जा रहा है कि जीवन दुख है! हम जरा मजा ले रहे हैं रुपये गिनने में, अपने बाल—बच्चों को सम्हालने में, और यह आदमी कहे चला जा रहा है—जीवन दुख है! यह हमारा मजा खराब किए देता है। हम किसी तरह घर बनाए हैं और राह आदमी कह रहा है—जीवन दुख है! अभी तो घर बना है, अभी तो ठहरो। अभी तो जरा उत्सव मना लेने दो, बंदनवार लगाने दो, बैड—बाजा बजाने दो। हम तो विवाह करने जा रहे हैं और आप रास्ते में खडे चिल्ला रहे हैं कि जीवन दुख है! अरे, विवाह तो हो जाने दो! जल्दी क्या है? आएगा बुढ़ापा, आएगी मौत, तब देख लेंगे।
इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा कि बुढ़ापा दुख है, बुद्ध ने जन्म से शुरू किया, बुद्ध ने कहा, जन्म दुख है। बुद्ध ने यह नहीं कहा कि मृत्यु दुख है, बुद्ध ने कहा, जन्म ही दुख है—मृत्यु तो होगी ही। हम तो मानते हैं कि मृत्यु है दुख, मृत्यु तो आएगी जब आएगी। कौन जाने आती भी कि नहीं आती, सदा दूसरे की आती, अपनी तो कभी आती नहीं। और हो सकता है हम बच जाएं कोई तरकीब से, या कौन जाने विज्ञान तब तक कोई उपाय खोज ले, कोई दवा खोज ले। और फिर जब होगा तब होगा, इतनी दूर की तो बात हमें पकड़ती भी नहीं, परेशान भी नहीं करती।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, जन्म दुख है, जवानी दुख है। बुद्ध कहते हैं, मित्रता दुख है, प्रेम दुख है, संबंध दुख है, राग दुख है। बुद्ध कहते हैं, हार दुख है, जीत दुख है, असफलता तो दुख है ही, सफलता भी दुख है। सफल आदमी को भी तो देखो जरा। जब वह बैठ जाता है अपनी कुर्सी पर, तब उसकी हालत तो देखो जरा! सफलता भी क्या खाक सफलता है! बुद्ध कहते हैं, सब दुख है।
तम्हें सुनकर थोड़ी बेचैनी हुई होगी, इसीलिए तुम पूछते हो, कि हमें सुख से बैठने ने दोगे! हम दो क्षण अपने को भुला लें, तो मूलने न दोगे! हम थोड़ा अपने को रंग में ड़ुबा लें र तो डूबने न दोगे! तुम चिल्लाए ही चले जा रहे हो कि जीवन दुख है! तुम पूछते हो कि 'क्या जीवन सचमुच ही दुख है? दुख ही दुख, दुख के सिवा उसमें और कुछ भी नहीं?'
नहीं, और बहुत कुछ है। इसीलिए बुद्ध दोहराते हैं कि जीवन दुख है। ताकि न्त्रह जो बहुत कुछ है, उसकी तरफ तुम्हारी आंख उठे। तुम्हारा जीवन दुख है। जब बुद्ध कहते हैं, जीवन दुख है, बुद्ध अपने जीवन को दुख नहीं कह रहे हैं, स्मरण रखना। मैं भी तुमसे कहता हूं तुम्हारा जीवन दुख है, दुख ही दुख है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैं जीवन की निंदा कर रहा हूं। मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि तुम्हारे जीवन का जो ढंग है, वह दुख है। एक और ढंग भी है जो महासुख है। तम्हारा जीवन दुख है, मेरा जीवन दुख नहीं है। और तुम्हारा जीवन दुख है, यह तुम्हें दिखायी पड़े तो ही तुम मेरे जीवन की तरफ चल सकोगे, नहीं तो नहीं चल सकोगे।
अब तुम समझना। बुद्ध के साथ बहुत अन्याय हुआ है। पश्चिम में तो बुद्ध पर बहुत किताबें लिखी गयी हैं, सबमें बुद्ध को पैसिमिस्ट, निराशावादी लिखा है। कि यह आदमी दुखवादी है, यह आदमी दुख ही दुख की बात करता है। यह कहता है, सब दुख है। यह आदमी तो निराशा पैदा कर देता है।
वह सब भ्रांत बातें हैं, वह धारणा गलत है। बुद्ध दुख की बात करते —हैं, इसलिए नहीं कि दुखवादी हैं। भूल—चूक हो गयी पश्चिम में समझने वालों की। पश्चिम में दुखवादी हुए हैं, तो उन्होंने सोचा कि यह आदमी भी दुखवादी है। पश्चिम में दुखवादी हैं, जो कहते हैं, दुख है। शापेनहार कहता है, सब दुख है। मगर वह दुखवादी है। वह कहता है, इस दुख के पार कोई उपाय —ही नहीं है। दुख से छूटने की कोई संभावना ही नहीं है। दुःख के अतिरिक्‍त कोई होने की व्‍यवस्‍था ही नहीं है।
ये दुखवादी हैं।
और शापेनहार को भी यह भ्रांति है कि वह बुद्ध से प्रभावित है। वह बिलकुल भी बुद्ध से प्रभावित नहीं है, वह बुद्ध के बिलकुल विपरीत बात कह रहा है। उसने बुद्ध के चार आर्य—सत्य समझे नहीं। बुद्ध कहते हैं, दुख है। दूसरा आर्य—सत्य, दुख के कारण हैं। अकारण नहीं है दुख। अगर अकारण हो तो फिर मिटाना मुश्किल है। दुख है, जरूर दुख है, लेकिन इसके कारण हैं। अगर कारण छोड़ दो, दुख मिट जाएगा। और फिर तीसरा सत्य है कि इस दुख को मिटाने के उपाय हैं। और फिर चौथी घोषणा है—बुद्ध कहते हैं, मैं अपने अनुभव से कहता हूं वह दशा भी है जहां दुख बिलकुल निरुद्ध हो जाता है, जहां दुख बिलकुल समाप्त हो जाता है।
बुद्ध को दुखवादी कहोगे? पहली बात ही सुनी और बात खतम हो गयी! तुम डाक्टर के पास गए और उसने कहा कि तुम्हें टी. बी. है। और तुम भागे कि यह आदमी दुखवादी है। इसने हमको टी .बी. बता दी। हम तो वैसे ही परेशान हैं और अब इन्होंने टी. बी बता दी। किसी तरह अपने को भुला रहे थे, किसी तरह अपने को चला रहे थे, अब इस आदमी ने और मुसीबत खड़ी कर दी।
तुमने पूरी बात ही न सुनी। वह यह कह रहा था कि ही, क्षयरोग है, क्षयरोग के कारण हैं, क्षयरोग के कारणों से छुटकारे के लिए औषधियां हैं और क्षयरोग से छूट गयी अवस्था .भी है। तुमने तीन सत्य सुने ही नहीं। पहले सत्य पर ही शापेनहार उलझ गया, और उसने मान लिया कि वह बुद्ध को समझ गया।
ऐसे ही ज्या पाल सार्त्र है पश्चिम में, जो कहता है कि सब दुख है, अर्थहीन, विषाद ही विषाद, जीवन संताप ही संताप। तो पश्चिम को ऐसा लगता है कि बुद्ध वही कह रहे हैं जो शापेनहार कहते हैं और सार्त्र कहते हैं।
नही, बुद्ध की बात बिलकुल भिन्न है। बुद्ध से बड़ा महासुखवादी खोजना मुश्किल है। मुझे ऐसा कहने दो कि बुद्ध से बड़ा सुखवादी खोजना कठिन है। बुद्ध हेडोनिस्ट हैं, सुखवादी हैं। और इसीलिए तुम्हारे दुख को बार—बार दिखाते हैं कि तुम नाहक दुख में समय खराब कर रहे हो, सुख हो सकता है। इधर बगल में पड़ी है बात, इस हाथ की तरफ तो देखो जरा, तुम एक ही तरफ उलझे हो और जीवन को दुख में डाले जा रहे हो।
बुद्ध का इतना चिल्लाना करुणा के कारण है। बुद्ध देखते हैं कि तुम्हारे भीतर सुख की महावर्षा हो सकती है और तुम दुख के कीड़े बन गए हो, इसलिए चिल्लाते हैं। बुद्ध दुखवादी नहीं हैं और न ही तुम्हारे जीवन का सुख छीन लेना चाहते हैं—सुख तो है ही नहीं, छीनेंगे भी क्या! बुद्ध तुम्हारे जीवन का यथार्थ तुम्हें बता देना चाहते हैं। ताकि तुम्हें यथार्थ चुभने लगे, छाती में तीर की तरह लगने लगे और एक दिन तुम भी पूछो कि ठीक है, देखा कि जीवन दुख है, अब उपाय क्या है? जब दुख दिखायी पड़ेगा तभी तो उपाय पूछोगे न!
इसलिए बुद्ध दोहराते हैं कि दुख ही दुख है। क्योंकि सुख ही सुख हो सकता है। यही ऊर्जा जो दुख बन रही है, यही ऊर्जा सुख बन जाती है। यही जो अभी विषाद बना है उत्सव बन जाता है। यही जो अभी आंसू हैं, गीत बन जाते हैं।

 छटवां प्रश्‍न:

 मैं बहुत अज्ञानी हूं, दया करें और मुझे ज्ञान दें।

ज्ञान तो दिया नहीं जा सकता। ही, लिया जा सकता है, दिया नहीं जा सकता। तुम ले लो तो ले लो, मेरे दिए न हो सकेगा। नदी बह रही है, तुम पीना चाहो पी लो, नदी छलांग लगाकर तुम्हारे ओंठों को न छू सकेगी। नदी बहती रहेगी, तुम पर निर्भर है। झुक जाओ, भर लो अंजुलि, जितना पीना हो पी लो। मेरी तरफ से देने में कमी नहीं है, लेकिन मैं तुम्हें दे न सकूंगा, तुम लेना चाहो तो ले सकोगे—मैं इधर उपलब्ध हूं।
पूछते हो, 'मैं बहुत अज्ञानी हूं दया करें और मुझे ज्ञान दें।'
फिर दूसरी बात, तुम्हारी धारणा अज्ञान के संबंध में और ज्ञान के संबंध में जरूर कुछ भ्रांत होगी। तुम सोचते हो शायद, तुम्हें कुछ बातें पता नहीं हैं, पता हो जाएं तो तुम्हारा अज्ञान मिट जाएगा। नहीं जी! कुछ बातें पता चलने से अज्ञान नहीं मिटेगा, अज्ञान ढंक जाएगा। अज्ञान को मिटाना हो तो कुछ बातें पता चलने की जरूरत नहीं है, एक ही बात पता चलने की जरूरत है कि तुम कौन हो? और तुम कौन हो, यह मैं तुम्हें कैसे बताऊंगा?
तुम कौन हो, यह तो तुम्हें अपने अंतर्तम में जाकर देखना होगा। तुम हो, बड़ी बात तो यही है कि तुम हो। और तुम होशपूर्वक भी हो, नहीं तो कौन पूछता कि मैं अज्ञानी हूं और मुझे ज्ञान दें? तुम्हें होश भी है। धीमा— धीमा है, धुंधला— धुंधला है, ज्योति है, बहुत साफ नहीं है, लेकिन है तो। साफ की जा सकती है। सोना है, मिट्टी मित्ना है, तो मिट्टी बाहर निकाली जा सकती है, आग में सोना डाला जा सकता है। जत्न है, अस्वच्छ है, छाना जा सकता है, निखारा जा सकता है। वस्त्र हैं, गंदे हैं, तो साबुन उपलब्ध है—संन्यास साबुन है—धो लो।
लेकिन खयाल रखना कि ज्ञान कोई ऐसी बात नहीं है जैसे जानकारी। जानकारी ज्ञान नहीं है। इन्यमेंशन ज्ञान नहीं है। ऐसा कुछ नहीं है कि मैं तुम्हें बता दूं कि परमात्मा है, आत्मा है, और तुमने सुन लिया और तुमने जान लिया और अज्ञान मिट गया। काश, इतना सस्ता होता! काश, इतना आसान होता!
तब तो तुम जानते ही हो ये बातें, अब और जनाने को क्या है? नहीं, अज्ञान मिटता है भीतर के जागरण से, बाहर से आयी हुई सूचनाओं से नहीं। बाहर से सूचनाएं आती हैं, अज्ञान ढंक जाता है, आदमी पंडित हो जाता है, ज्ञानी नहीं हो पाता। ज्ञानी तो होता है भीतर के विस्फोट से, भीतर की ज्वाला के सुलगने से।
और भीतर की ज्वाला सुलगानी हो तो अज्ञान की अवस्था बिलकुल ठीक है। मेरे पास पंडित आ जाता है तो पहले मुझे उसे अज्ञानी बनाना पड़ता है। पहले उसका ज्ञान छीनना पडता है। क्योंकि अज्ञान तो स्वाभाविक है, ज्ञान कृत्रिम है। अज्ञान नैसर्गिक है, निसर्ग से रास्ता निकलता है, कृत्रिम से कोई रास्ता नहीं निकलता। झूठ से कैसे कोई रास्ता निकलेगा!
तो तुम तो अच्छा है कि तुम जानते हो कि तुम अज्ञानी हो। यही मेरी भावना है कि ऐसा तुमने प्रश्न ही न पूछा हो भर, अगर तुम जानते ही हो कि तुम अज्ञानी हो तो बड़ी बात तो हो गयी, आधी बात तो हो गयी। तो मुझे तुमसे पांडित्य न छीनना पड़ेगा, यह आधा काम तो समाप्त हुआ।
बहुत बड़ा संगीतज्ञ हुआ—वेजनर। उसके पास जब कोई संगीत सीखने आता था, तो कभी वह किसी से कुछ फीस मांगता, किसी से दो गुनी फीस मांगता, अजीब था मामला! और एक दफा दो साथी साथ ही साथ आए संगीत सीखने, उसने एक से तो आधी फीस मांगी और एक से दुगुनी फीस मांगी। और जिससे दुगुनी मांगी, वह थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहा, यह भी कोई बात हुई? मैं दस साल से संगीत का अभ्यास कर रहा हूं मुझसे दुगुनी फीस! और यह आदमी बिलकुल सिक्सडू है, इसने कुछ सीखा ही नहीं, इसने कभी हाथ नहीं लगाया संगीत को, और इससे आधी! मुझसे आधी लेते तो तर्कसंगत होता।
वेजनर ने कहा कि नहा भाई, तुम्हें मेरे तर्क का पता नहीं। दस साल तुमने सीखा न! अब मुझे उस सीखने को भी भुलाना पड़ेगा, पहले सफाई करनी पड़ेगी। यह आदमी कम से कम साफ—सुथरा है, कोरा है। इसकी स्लेट पर कुछ लिखा नहीं है। इससे आधी फीस लेता हूं। तुमसे दुगुनी मांगी है, तुम्हारी स्लेट पर बहुत कुछ लिखा है, जब तक मैं वह .साफ न कर लूं तब तक नयी बात लिखी न जा सकेगी।
तो मैं तुमसे कहता हूं तुम धन्यभागी हो कि तुम्हें पता है कि तुम अज्ञानी हो। अब इस अज्ञान को जल्दबाजी में ज्ञान में छिपा मत लेना, ज्ञान में आच्छादित मत कर लेना। यह अज्ञान शुभ है। इस अज्ञान से रास्ता निकलता है। वह रास्ता ध्यान की तरफ मुड़ना चाहिZn, ज्ञान की तरफ नहीं। ज्ञान की तरफ मुड़ा, चूक जाओगे, ध्यान की तरफ मुड़ा, एक दिन ज्ञान को उपलब्ध हो जाओगे।
यह बात विरोधाभासी लगेगी—ज्ञान की .तरफ गए तौ ज्ञान कभी भी न हो पाएगा, ध्यान की तरफ गए तो ज्ञान होना निश्चित है। और ध्यान और ज्ञान की प्रक्रियाएं अलग—अलग हैं। ध्यान की प्रक्रिया है—बोध, जागरूकता। और ज्ञान की प्रक्रिया है—शास्त्र, सिद्धांत, दर्शन, फिलासफी। दोनों अलग—अलग बातें हैं।
यह छोटी सी घटना तुम सुनो—
एक प्रभात एक नए भिक्षु ने सदगुरु पेंग ची के आश्रम में पहुंचकर एक प्रश्न पूछा था। उस भिक्षु का नाम था, चिंग शुई। उसने जाकर कहा था, यह चिंग शुई बहुत अकेला, बहुत अज्ञानी और बहुत दरिद्र है; इस के भिक्षु को कुछ आत्मिक समृद्धि चाहिए, पूज्यश्री दया करें! सदगुरु ने एक क्षण उसे देखा और फिर बड़े जोर से आवाज दी— भंते, चिंग सुई! शुई ने कहा—जी, गुरुदेव! सदगुरु हंसने लगे, और बोले, शराब के प्याले पर प्याले पीने पर भी पीने वाला कहता है कि मेरे ओंठ अभी गीले नहीं हुए हैं। यह अदभुत बात उन्होंने कही। शराब के प्याले पर प्याले पीने के बाद भी पीने वाला कहता है कि मेरे ओंठ अभी गीले नहीं हुए हैं।
क्या हुआ? सिर्फ पुकारा था नाम— भंते, चिंग शुई! और भिक्षु ने उत्तर दिया था —जी, गुरुदेव! सदगुरु यह कह रहे हैं कि तुझे इतना होश है कि मैंने पूछा और तने उत्तर दिया, मैंने पुकारा और तूने आवाज का उत्तर दिया, तुझे इतना होश है, तो बस काफी है। इतने ही होश को थोड़ा और गहरे करते जाना है। होश का तू प्याला पीता ही रहा जन्मों —जन्मों तक, तूने ठीक से पहचाना नहीं।
यह अदभुत बात उन्होंने कही। उन्होंने कहा, जो बोला, वही तो है समृद्धि। मैंने पुकारा और तूने सुना, तू बहरा नहीं है, यही तो है समृद्धि। मैंने पुकारा और प्रत्युत्तर आया, तू अचेतन नहीं है, यही तो है समृद्धि। मैंने पुकारा और तत्सण—एक क्षण बिना सोचे —तूने अपनी उपस्थिति जतला दी, तेरे भीतर सोच—विचार न हुआ, यही तो है ध्यान। यह घड़ी गहरी होती जाए तो अभी प्याले पर प्याला पीआ है, फिर तू पूरी सरिता, पूरा सागर पी जाएगा।
तुम पूछते हो, 'मैं बहुत अज्ञानी हूं दया करें और मुझे ज्ञान दें।'
अज्ञानी होना अच्छा है, शुभ है। अज्ञानी यानी सरल, अज्ञानी यानी जटिल नहीं, अज्ञानी यानी बच्वे जैसा। अच्छा है। इस अज्ञान को खराब मत कर लेना। मैं अज्ञान के पक्ष में हूं। मैं —ज्ञान के बिलकुल पक्ष में नहीं हूं। अज्ञान से मेरा बड़ा लगाव है। अज्ञान तो बडी शुभ घटना है, कुछ घेरे नहीं है तुम्हारे मन को।
इस घड़ी में ध्यान की तरफ मुडो। जीवन सब तरफ से पुकार रहा है, उत्तर दो। ज्यादा संवेदनशील बनो। जब वृक्ष की हरियाली पुकारे, तो गौर से उस हरियाली को उनाखों में उतर जाने दो। जब पक्षी पुकार करें, तो उस पुकार को सुनो और तुम्हारे हृदय को उस पुकार के साथ डोलने दौ। जब हवा का झोंका आए, तो उस झोंके को ऐसे ही मत लौट जाने दो, धन्यवाद दो, उसके साथ डोलो। जब आकाश की तरफ आंखें उठाओ, तो इस विराट आकाश के प्रति अनुग्रह का भाव रखो। चांद—तारे जब तुम्हें पुकारें तो सुनो। चारों तरफ से पुकार रहा है सदगुरु— भंते, चिंग शुई! चारों तरफ से पुकार आ रही है। परमात्मा सब तरफ से पुकार रहा है। तुम जरा थोड़े कम बहरे, कम अंधे, बस इतना काफी हो जाएगा।
धीरे— धीरे होश बढ़ेगा, धीरे— धीरे होश गहरा होगा। और जैसे —जैसे होश गहरा होता है, वैसे—वैसे तुम ज्ञान के करीब आने लगे। ज्ञान तुम्हारे भीतर पड़ा है। ज्ञान तुम साथ लेकर आए ही हो। तुम्हारी समृद्धि तुम्हारे साथ है, तुम्हारा साम्राज्य तुम्हारे साथ है। इसीलिए तो जीसस बार—बार कहते हैं, प्रभु का राज्य तेरे भीतर है।

 आखिरी प्रश्न

 मन यदि स्वप्नवत है, तो फिर मन से जो भी किया जाए वह भी तो स्वप्नवत ही होगा न! तब क्या साधना भी स्वप्नवत ही है और संन्यास भी?

 सा ही है। साधना भी स्‍वप्‍न है और संन्यास भी। मगर स्‍वप्‍न—स्‍वप्‍न में भेद है। एक कांटा लग जाता है पैर में तो दूसरे कांटे से हम पहले कांटे को निकालते हैं। दूसरा भी कांटा है, ध्यान रखना। मगर एक लग गया है कांटा तो दूसरे काटे से निकालते हैं। दूसरा कांटा नहीं है, ऐसा मत सोच लेना, नहीं तो बड़ी भूल हो जाएगी। फिर जब पहला कांटा निकल गया तो क्या करते हो? दोनों काटे फेंक देते हो। यह थोड़े ही है कि दूसरे काटे को सम्हालकर रख लेते हो, कि इसको तिजोड़ी में बंद रखते हो, कि इसकी पूजा करते हो।
संसार कांटा है। संन्यास भी कांटा है। एक काटे से दूसरे कांटे को निकाल लेना है। फिर दोनों बेकार हो गए। परम अवस्था में संन्यास भी नहीं है।
उस ब्राह्मण ने जिसने बुद्ध से पूछा कि आप देव हैं, गंधर्व हैं, मनुष्य हैं, वह एक बात भूल गया, उसे पूछना चाहिए था, आप संन्यासी हैं, गृहस्थ हैं? तो भी वह कहते कि न मैं संन्यासी हूं न गृहस्थ हूं। वह कहते, मैं बुद्ध हूं। बुद्धत्व की घटना में कहा संसार और कहा संन्यास! संसार बीमारी है, तो संन्यास औषधि है। लेकिन जब बीमारी चली गयी तो तुम औषधि की बोतल भी तो फेंक आते न कचरेघर में! उसको सम्हालकर थोड़े ही रख लेते हो। या लायंस क्लब को दान कर आते हो! उसका करोगे क्या? व्यर्थ हो गयी।
जहर से जहर को मिटाना पड़ता है। संन्यास भी उतना ही स्‍वप्‍न है, जितना संसार। इस छोटी सी कहानी को अपने हृदय में लो—
एक व्यक्ति ने स्वप्न में देखा कि वह चोरी के जुर्म में पकड़ लिया गया है—होगा कृष्णप्रिया जैसा, स्वीकार न करोगे तो सपना आएगा र सपने में फसोगे, इससे बेहतर है, जागने में स्वीकार कर लेना चाहिए—प्ल व्यक्ति ने स्वप्न में देखा कि वह चोरी के जुर्म में पकड़ लिया गया है और जेल में बंद है। उसने बहुत आरजू—मिन्नतें कीं, मित्रों को कहा, मजिस्ट्रेट को कहा, किंतु कोई काम नहीं आया, कोई काम नहीं हुआ। वह जानता था कि वह निर्दोष है, किंतु फिर भी अपने को बचा नहीं पा रहा था।
उसी बीच जब उसके दुख के उसकी आंखों में आंसू  थे, एक सर्प ने उसे कांट खाया। सर्प के कांटते ही एक चीख उसके मुंह सें निकली और वह जग गया। और उसने पाया कि वह तो बिलकुल ठीक है, और आराम से अपने बिस्तर पर है। न कोई चोरी की है, न कोई मजिस्ट्रेट है, न कोई जेल है, न कोई सजा है।
वह बहुत हंसने लग। वह तो कभी बंदी था ही नहीं। उसका बंदी होना, उसकी आरजू—मिन्नतें, मित्रों, मजिस्ट्रेटों से, जेलर से, प्रार्थनाएं, सब स्‍वप्‍न थे। वह सांप भी स्वप्न ही था जिसने उसे कांटा, पर उसमें अन्य वस्तुओं से थोड़ी सी भिन्नता थी। उसने उसे जगा दिया। जागने पर वह साप भी असत्य हो गया। लेकिन उसमें जगाने की सामर्थ्य थी। जेल भी झूठ. था, सांप भी झूठ था, चोरी भी झूठ थी, मित्र और मजिस्ट्रेट भी झूठ थे, कारागृह में पड़ा हुआ, हाथ में जंजीरें बंधा हुआ, वह भी झूठ था, वह सांप भी झूठ था। लेकिन झूठ—झूठ में थोड़ा फर्क था, सपने —सपने में थोड़ा फर्क था। उस सांप ने कांटा—हाथ मैं जंजीरें थीं तो अपने को बचा भी नहीं पाया, बचाता भी कैसे —कांटा तो चीख निकल गयी। चीख निकली तो नींद टूट गयी।
ऐसा ही समझना। साधना भी उतना ही स्वप्न है जितना संसार। पर स्वप्न—स्वप्न में भेद है। अगर साधना को कांटने दिया तो चीख निकल जाएगी। उसी चीख में जागरण हो जाएगा। है।, जागकर तो वह भी झूठ हो गया साप, जागकर तो वह भी उतना ही असत्य हो गया। पहले सांप ने जेल के सपने को खाया, मजिस्ट्रेट के सपने को खाया, कैदी कै सपने को खाया और फिर अंततः सांप अपने को भी खाकर मर गया, उसने आत्महत्या कर ली।
संन्यास पहले संसार को मिटा देता है, और फिर स्वयं आत्मघात कर लेता है और मिट जाता है। संन्यास कोई आखिरी बात नहीं है, मध्य की बात है। जोड्ने वाली बात है। संन्यास एक उपाय है, बस, इससे ज्यादा नहीं है। और उपाय की भी इसीलिए जरूरत है कि हम कहीं उलझे हैं। न उलझे होते तो उपाय की भी कोई जरूरत न थी।
तो खयाल रखना, दोनों ही असत्य हैं। इसलिए गृहस्थी से निकलकर संन्यस्त में इस तरह मत उलझ जाना जैसे गृहस्थी में उलझे थे। ध्यान तो यही रखना कि एक दिन इससे भी जाग जाना है। यह स्मरण बना ही रहे—प्ल दिन ध्यान से भी मुक्त हो जाना है। एक दिन जप—तप से भी मुक्त हो जाना है। एक दिन तो ऐसी घड़ी आनी है जहां सिर्फ बुद्धत्व रह जाए, शुद्ध दीया जलता रह जाए, जरा भी धुआ न हो, कुछ और शेष न रह जाए। शून्य में जलती हो ज्योति, उसका कोई रूप—रंग न रहे, कोई आकृति न रहे, कोई ढंग न रहे। सब कोटियों के पार सत्य का आवास है। उस सत्य को ही हम निर्वाण कहते हैं।
तो ऐसा समझो—संसार, संन्यास, निर्वाण। संसार की बीमारी को संन्यास की औषधि से मिटा देना है, ताकि निर्वाण पालित हो जाए। एक भ्रांति को दूसरी भ्रांति से मिटा देना है।


 आज इतना ही।

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