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गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

जीवन संगीत-(साधना-शिविर)-प्रवचन-08

जीवन संगीत-(साधना-शिविर)--ओशो
आठवां-प्रवचन


मैंने कहा है कि क्रांति तो एक विस्फोट है। सडन एक्सप्लोजन है। और फिर मैं ध्यान की प्रक्रिया और अभ्यास के लिए कहता हूं कि इन दोनों में विरोध नहीं है? नहीं, इन दोनों में विरोध नहीं है।
यदि मैं कहूं कि पानी जब भाप बनता है, तो एक विस्फोट है, सौ डिग्री पर पानी भाप बन जाता है। और फिर मैं किसी से कहूं कि पानी को धीरे-धीरे गरम करो, ताकी वह भाप बन जाए। वह आदमी मुझसे कहे कि आप तो कहते हैं, पानी एकदम से भाप बन जाता है। फिर हम धीरे-धीरे गरम करने का अभ्यास क्यों करें?
इन दोनों में विरोध नहीं है? तो उस समय कहूंगा विरोध नहीं है। पानी को जब हम गरम करते हैं तो एक डिग्री गरम पानी भी भाप नहीं है। और निन्यानबे डिग्री पानी भी भाप नहीं है।

एक डिग्री पानी गरम जो है, वह भी पानी ही है। और निन्यानबे डिग्री गरम पानी भी पानी ही है। सौ डिग्री पर एकदम से पानी भाप बन जाता है। लेकिन सौ डिग्री तक की जो गरमी है, वह क्रमशः आती है। वह गरमी एकदम से नहीं आ जाती।
तो जब मैं कहता हूं, पानी एकदम से भाप बनता है, तो मेरा मतलब है कि पानी ऐसा नहीं होता कि पहले थोड़ा सा भाप बनता है, फिर थोड़ा सा भाप बनता है।
पानी सौ डिग्री पर एकदम से भाप बनता है, एक्सप्लोजन हो जाता है, विस्फोट हो जाता है। पानी की जगह भाप हो जाती है, पानी नहीं होता। लेकिन जब मैं कहता हूं, गरम करें, तो उसका मतलब है कि सौ डिग्री तक गर्मी तो धीरे-धीरे आती है। जब मैं कहता हूं, क्रांति तो विस्फोट है, लेकिन क्रांति के पूर्व की अनिवार्य गर्मी है चित्त को, वह धीरे-धीरे ही आती है। वह एकदम से नहीं आ जाती। नहीं तो ध्यान के अभ्यास की कोई जरूरत नहीं है। फिर तो मैंने कहा कि विस्फोट हो जाए, और विस्फोट हो जाए।
लेकिन आपका चित्त उस जगह नहीं है, जहां विस्फोट होता है। विस्फोट का तो एक, जिसको कहें एक बायलिंग प्वाइंट है। विस्फोट का तो एक बिंदु है, जहां जाकर विस्फोट होता है। पर आप वहां नहीं हैं, अगर आप वहां हो तो विस्फोट इसी क्षण हो जाएगा। विस्फोट के होने में समय नहीं लगता। लेकिन विस्फोट के बिंदु तक पहुंचने में समय लगता है।
एक बीज हमने डाला। बीज तो जब अंकुर बनता है, तो एकदम से फूट कर अंकुर हो जाता है। लेकिन अंकुर बनने के पहले महीनों पड़ा रहता है जमीन में। सड़ता है, टूटता है, फूटता है, फिर अंकुर होता है। अंकुर तो एक विस्फोट की भांति ही होता है। एक मां के पेट से बच्चे का जन्म होता है। जन्म तो एक विस्फोट है, एक्सप्लोजन। ऐसा नहीं होता कि बच्चा थोड़ा जन्म गया है, अभी थोड़ा और बाद में जन्मेगा, फिर थोड़ा और बाद में जन्मेगा। जन्म कोई क्रमिक बात नहीं है, ग्रेजुअल बात नहीं है। जन्म तो हो गया एक क्षण में।
लेकिन जन्म के पहले नौ महीने वह बच्चा बड़ा हो रहा है, बड़ा हो रहा है। वह जन्मने की तैयारी कर रहा है, तैयारी कर रहा है। फिर जन्म तो एक ही क्षण में हो जाएगा। लेकिन वह जो तैयारी है नौ महीने की वह चलेगी, वह पीछे की नौ महीने की तैयारी होगी।
अगर वह तैयारी न हो तो जन्म एक क्षण में नहीं हो जाएगा। जन्म के बिंदु तक आने में एक विकास है लेकिन जन्म एक विस्फोट है। क्रांति एक विस्फोट है। ध्यान एक विकास है। और ध्यान उस जीवन क्रांति की प्राथमिक तैयारी है। उस तैयारी के लिए मैं कह रहा हूं। जिस दिन तैयारी पूरी हो जाएगी, उस दिन विस्फोट हो जाएगा। फिर ऐसा नहीं होगा कि आप फिर कहें कि अभी मैं थोड़ा ज्ञानी हुआ। थोड़ा ज्ञानी और हो जाऊंगा, फिर थोड़ा और।
ऐसा नहीं होगा। ज्ञान जिस दिन आएगा, तो सडन एक्सप्लोजन की तरह। सब टूट जाएंगे द्वार। लेकिन उसके आने तक, एक-एक कदम, एक-एक कदम उसकी तैयारी, जो प्राथमिक है वह चलती रहेगी। दोनों में कोई विरोध नहीं है।
जैसे कोई आदमी बगीचे की तरफ घूमने निकला हो, बगीचा बहुत दूर है। दिखाई भी नहीं पड़ता है। लेकिन जैसे-जैसे बगीचे के पास पहुंचने लगता है, बगीचे में नहीं पहुंच गया है, अभी बगीचा दिखाई भी नहीं पड़ता है। लेकिन हवाएं ठंडी आनी शुरू हो गई।
फूलों की कोई उड़ती हुई सुगंध आने लगी। अब वह आदमी कहता है, मालूम होता है बगीचा अब करीब है। बगीचा अभी दिखाई नहीं पड़ता, न फूल दिखाई पड़ते हैं, लेकिन हवाएं अब ठंडी हो गई है।
हवाओं में थोड़ी सुगंध आने लगी है। फिर वह जैसे-जैसे आगे बढ़ता है सुगंध बढ़ती जाती है, ठंडक बढ़ती जाती है, शीतलता बढ़ती जाती है। वह आदमी कहता है, निश्चित ही मैं बगीचे के करीब पहुंच रहा हूं।
समाधि के करीब, क्रांति के करीब पहुंचने के पहले जरूर ही ध्यान में भी कुछ झलकें आनी शुरू हो जाती हैं। जैसे, कल तक जैसी अशांति थी, वह कम होने लगी थी। कल तक जैसा क्रोध था, वह कम होने लगेगा। कल तक जैसी घृणा थी, वह कम होने लगेगी। कल तक जैसा अहंकार था, वह कम होने लगेगा। कल तक मन में जो बेचैनी थी, वह कम होने लगेगी। कल तक जो वासना थी, वह कम होने लगेगी।
ये सब बातें बताएंगी कि हम करीब पहुंचने लगे, उस जगह के जहां वह क्रांति हो जाती है। जहां हम मिट जाते हैं, जहां परमात्मा प्रकट हो जाता है। उसके पहले, इन सब में फर्क आने लगे, अगर यह बढ़ती जाती हो, तो समझना हम समाधि से दूर जा रहे हैं।
क्रोध बढ़ता जाता हो रोज। बेचैनी बढ़ती जाती हो। घृणा बढ़ती जाती हो। दुष्टता बढ़ती जाती हो। तो जानना चाहिए कि हम कहीं उलटे जा रहे हैं।
अगर यह कम होते जाते हैं, तो जानना चाहिए कि हम जा रहे हैं ध्यान की तरफ। लक्षण भी हो सकते हैं। और हर आदमी को अपने ही सोचने पड़ेंगे। क्योंकि हर आदमी की मौलिक कमजोरी जो है, वही उसके लिए मापदंड बनेगी कि उसका ध्यान विकसित हो रहा है कि नहीं। हर आदमी की कमजोरी में थोड़ा फर्क हो सकता है।
एक आदमी की मौलिक कमजोरी क्रोध हो सकती है। कि उसका सारा व्यक्तित्व क्रोध के आस-पास ही निर्मित हुआ हो। फिर घूम फिर कर वह क्रोध पर ही आ जाता हो। तो उस आदमी को जांच रखनी पड़ेगी कि मेरा क्रोध कम हो रहा है क्या?
अगर क्रोध कम हो रहा है तो उसका मतलब हुआ कि उसके मौलिक व्यक्तित्व में परिवर्तन शुरू हो गया। किसी आदमी की कोई और कमजोर हो सकती है। किसी आदमी की कोई और कमजोरी हो सकती है। तो हर आदमी को अपना मौलिक केंद्र खोजना चाहिए कि यह मेरा खास व्यक्तित्व है। इसको मैं देखूं कि इसमें क्या फर्क पड़ रहा है। और फर्क पड़ता चला जाएगा। और फर्क दिखाई पड़ने लगेगा।
फर्क आपको ही दिखाई पड़ेगा पहले तो। धीरे-धीरे दूसरों को भी दिखाई पड़ेगा। जो आपके निकट है उनको भी दिखाई पड़ेगा। लेकिन मूलतः तो आपको ही दिखाई पड़ेगा।
इतना भर ध्यान रहे कि जिन चीजों को आज तक पाप कहा गया है, अगर वे चित्त में कम होने लगे तो समझना कि ध्यान में गति हो रही है। और जिनको आज तक पुण्य कहा गया है, अगर वे बढ़ने लगे, तो समझना कि ध्यान में गति हो रही है।
मैं तो, मेरा तो कहना ही यही है कि पाप वही है जो व्यक्ति को स्वयं के विपरीत ले जाए। और पुण्य वही है जो व्यक्ति को स्वयं के निकट लाए। पाप और पुण्य का और कोई फर्क नहीं है एक। एक तो यह ध्यान रखे।
दूसरी बात और ध्यान रखें कि आपके चित्त की जागरूकता क्रमशः बढ़ती चली जाएगी। आप जो भी काम करेंगे, ज्यादा होशपूर्वक करेंगे। कल भी किया था, परसों भी किया था, लेकिन होशपूर्वक नहीं किया था। अगर आप भोजन भी खाएंगे तो भी होशपूर्वक खाएंगे। अगर आप बोलेंगे भी तो भी होश पूर्वक बोलेंगे। रास्ते पर चलेंगे, तो भी होशपूर्वक चलेंगे। एक अवेयरनेस, एक होश बढ़ता चला जाएगा। और इसीलिए वह पहला फर्क पड़ेगा। जितना बोध बढ़ता है उतनी भूलें होनी मुश्किल हो जाती है। होश से भरा हुआ आदमी क्रोध कैसे करे। होश से भरा हुआ आदमी कैसे झगड़े। होश से भरा हुआ आदमी कैसे चोरी करे। होश से भरे हुए आदमी के व्यक्तित्व में फर्क होने शुरू हो जाएंगे।
दो बातें ध्यान में रखना। चित्त की अशांति के बढ़ाने वाले जितने भी रूप हैं, वे कम होने लगे और जागरूकता, होश बढ़ने लगे। तो समझना कि ध्यान क्रमशः विकसित होता जा रहा है।
यह लेकिन बगीचे की सुगंध है, बगीचा नहीं है। और यही साधु और संत में फर्क है। साधु का मतलब है जो बगीचे के पास आ रहा है। अभी पहुंच नहीं गया। अच्छा आदमी होता जा रहा है। साधु होता जा रहा है। लेकिन बगीचे के बाहर है। अभी सुगंध, हवा आने लगी है लेकिन अभी बगीचे में पहुंच नहीं गया। और संत का मतलब है जो बगीचे में पहुंच गया। अब अच्छा-बुरा कुछ भी नहीं है वह।
अब तो वह पहुंच गया वहां, जहां न अच्छा है न बुरा। वह अच्छा और बुरा तो बाहर का ही हिसाब था। अब उस बगीचे में उसका कोई हिसाब नहीं है।
तो साधुता बढ़ती चली जाए, तो समझना कि ध्यान बढ़ रहा है। और साधुता का मतलब समझ लेना। साधुता यह मतलब नहीं है कि आप कोई रंगे कपड़े पहनने लगेंगे और चंदन तिलक लगाने लगेंगे और राम-राम की चदरिया ओढ़ लेंगे। इनसे साधुता का कोई संबंध नहीं है। अगर गौर से देखेंगे तो जो आदमी इस तरह के काम करता है, रंगीन चादर पहन लेता है, गेरुआ कपड़े पहन लेता है, मुंह पट्टी बांध लेता है, राम की चदरिया ओढ़ लेता है। या और कोई कर लेता है।
यह आदमी, इस आदमी की मौलिक कमजोरी एक्जिबिजनिस्ट है, इस आदमी की मौलिक कमजोरी प्रदर्शन है। और वह प्रदर्शन की कमजोरी ही उसको यह सब धंधा करवा रही है। वह जो प्रदर्शन है कि दूसरे मुझे देखे और दूसरे मुझे जाने और दूसरे मुझे पहचाने कि मैं भी हूं। वह इसकी मौलिक कमजोरी है। यह आदमी फिल्म एक्टर भी हो सकता था तो ठीक था। या किसी नाटक में काम करता तो ठीक था। वह इसकी उचित भूमि होती।
यह उसकी जो कमजोरी है, उसके अनुकूल जगत होता। लेकिन यह साधु बन गया है। साधु का प्रदर्शन से क्या प्रयोजन? लेकिन यह अपनी मौलिक कमजोरी को प्रकट करता चला गया।
अगर किसी की यह कमजोरी हो कि उसे प्रदर्शन में बहुत रस आता हो, तो ध्यान बढ़ने से यह रस कम हो जाएगा। जो भी हमारी कमजोरी हो, हमें खोजनी चाहिए। और सबकी कमजोरियां सबको पता है। किसी से पूछने जाने की कोई जरूरत नहीं है। हम जानते हैं कि किस बिंदु पर मेरा व्यक्तित्व पागल है।
कोई आदमी धन को पकड़े चला जा रहा है, वह उसकी कमजोरी है, तो ध्यान बढ़ेगा तो धन पर पकड़ कम हो जाएगी। जो भी हो, इस तरह के दो परिणाम होंगे। और इनका अगर हिसाब रखेंगे, तो आप बराबर साल-छह महीने में निर्णय कर सकेंगे कि कहां फर्क हुआ? नहीं हुआ? क्या हुआ? क्या नहीं हुआ?
फर्क सुनिश्चित है। ध्यान होगा, फर्क होंगे। फर्क को नहीं रोका जा सकता। समस्त आचरण  और व्यक्तित्व बदल जाएगा। लेकिन फिर भी ध्यान रहे यह बगीचे के बाहर की बातें हैं। बगीचे के भीतर फिर तो कोई हिसाब रखने का उपाय नहीं होगा। हिसाब रखने की जरूरत ही नहीं होती। उसके पहले यह जरूरत है। फिर कोई पूछता भी नहीं है कि अब मैं कैसे जानूं कि विस्फोट हो गया।
अब जिसके घर में आग लगी, वह पूछता है बाहर आकर कि मैं कैसे जानूं कि मेरे घर में आग लग गई। जब विस्फोट होता है इतनी बड़ी क्रांति हो जाती है सब पुराना जल जाता है, सब नया आ जाता है। वह किसी से पूछना नहीं पड़ता, वह तो सिर्फ पता ही चलता है।
लेकिन जब तक विस्फोट नहीं हुआ, तब तो जरूर पूछने का खयाल रहता है क्या-क्या फर्क पड़ेंगे। इसलिए बगीचे के बाहर तो थोड़े बहुत लक्षण काम देते हैं, बगीचे के भीतर तो कोई लक्षण काम नहीं देता। वहां तो दिख ही जाता है, पता ही चल जाता है।
सवाल समय का नहीं है। सवाल यह नहीं है कि आप कितनी देर करें। सवाल यह है कि कैसे करें। वह चाहे दस मिनट हो, चाहे पंद्रह मिनट हो, चाहे आधा घंटा हो, क्वालिटी का, उसके गुण का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण है, परिमाण का और मात्रा का उतना नहीं है। लेकिन फिर भी उस पर भी विचार करना चाहिए। कम से कम आधा घंटा सुबह, आधा घंटा रात। कम से कम इतना।
लेकिन यह कोई बिलकुल रेखा बद्ध नियम नहीं है। ऐसा न सोचें कि आधा घंटे नहीं कर सकते, तो फिर करना ही नहीं चाहिए। जितना भी किया हो, उतना भी सार्थक है। लेकिन आधा घंटा सुबह और आधा घंटे रात किया गया तो परिणाम तीव्रता से होंगे।
लेकिन उसमें भी ध्यान की लंबाई का कम, ध्यान की गहराई का ज्यादा हो। चाहे पांच मिनट ही हो। लेकिन पूरे प्राण लगकर होना चाहिए। नहीं तो आधा घंटे भी आदमी बैठा रह सकता है आंख बंद करके। कई लोग मंदिरों में बैठे हुए ही हैं। जिंदगी भर से बैठते चले जा रहे हैं, कहीं कुछ नहीं हुआ। वे सिर्फ समय पूरा कर देते हैं। घड़ी देख कर आधा घंटा पूरा कर दिया। वापस उठकर आ गए।
 मात्रा पर बहुत ध्यान न हो। उसका उपयोग तो है ही। क्योंकि समय के बिना क्या होगा। आधा घंटा और आधा घंटा; एक घंटा चौबीस घंटे में ध्यान के लिए खोज लेना। तेईस घंटे बाकी दुनिया चल रही है। आखिर में आप पाएंगे कि तेईस घंटे में जो कमाया था, वह खो चुका है। और एक घंटे में जो कमाया था, वह सदा के लिए साथ है।
आज लगेगा कि एक घंटा। क्योंकि हमें पता नहीं है कि ध्यान से कौन सी संपत्ति मिलेगी। एक घंटा कम से कम। और समय भी अपने लिए चुन लेना चाहिए। ऐसे सामान्यतया, सुबह जागने के बाद, जितनी जल्दी हो सके। उतने जल्दी स्नान वगैरह करके बैठ जाए, तो फायदे का है। क्यों? क्योंकि रात भर चेतना विश्राम कर लेती है। सुबह ज्यादा ताजी होती है, ज्यादा प्रफुल्ल होती है। और जल्दी से शांत हो सकती है।
अभी दिन का काम शुरू नहीं हुआ, उससे पहले ही ध्यान कर लें। फिर इस ध्यान का परिणाम इस दिन के काम पर भी पड़ेगा। क्योंकि जो आदमी सुबह उठकर आधा घंटे, ध्यान से होकर गुजरा है, वह अपनी दुकान पर वही आदमी नहीं हो सकता, जो बिना ध्यान के दुकान पर आ गया हो। इन दोनों आदमियों में फर्क होगा।
इनके भीतर की झलक में फर्क होगा। इनके व्यवहार में फर्क होगा। चौबीस घंटे का जगत शुरू हो, उससे पहले आधा घंटे जैसे हम स्नान करके आते हैं, एक ताजगी लेकर, ऐसे ही भीतर के स्नान को करके भी आएं, तो एक भीतरी ताजगी लेकर आएंगे। वह दिन भर के काम को प्रभावित करेगी।
तो सुबह का, जागने के बाद, जितनी जल्दी हो सके। और रात्रि में सोने के समय। बस आखिरी समय, जब सोने लगे तब ध्यान और फिर बिलकुल सो जाएं। यह दो संध्या काल है। जब सुबह जब हम जागते हैं, तब। और जब रात्रि हम जागकर पुनः सोते हैं।
इन दोनों स्थितियों में चेतना की दशा बदलती है। जागने से जब नींद में चेतना जाती है, तब पूरी स्थिति बदलती है इस मस्तिष्क की। और सुबह भी हम जब नींद से जागते हैं, तब भी पूरी स्थिति बदलती है। यह जो संक्रमण काल है, इनमें ही अगर ध्यान का बीज बो दिया जाए, तो वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि उस वक्त चेतना संक्रमण में होती है। और उन जगहों पर पहुंचती है, जहां सामान्यतः नहीं पहुंचती।
जैसे रात आप सोने गए हैं। जब आप सोते हैं तो धीरे-धीरे, जागरण खोता है। निद्रा उतरती है। और एक क्षण होता है, आपने अगर गौर किया होगा तो पता पड़ जाएगा। उसके पहले आप जागे हुए थे, उसके बाद आप सो गए। एक बारीक क्षण आएगा बीच में जहां से दरवाजा है। जागरण नींद में प्रवेश करता है, होश बेहोशी बनता है। उसी द्वार पर अगर ध्यान की वृति रही तो वह वृति नींद के साथ ही सरक जाती है अंदर।
और पूरी रात की निद्रा में ध्यान की अंतर्धारा बहने लगती है। वह द्वार खुलता उसी वक्त। जैसे की द्वार बंद है, और कोई उसके भीतर जा रहा है, द्वार खुला उसी के साथ आप निकल गए तो आप द्वार के भीतर हो गए, फिर वह द्वार बंद हो जाता है।
तो चेतना का द्वार निद्रा के लिए खुलता है। कांशियस माइंड, चेतन मन सोता है, अचेतन जागता है, उस क्षण चेतना में एक नई स्थिति एक नया द्वार खुलता है, उस द्वार पर आप जो भी भाव लेकर जाएंगे, वह रात्रि भर आपकी चेतना की संपत्ति बना रहेगा।
इसलिए विद्यार्थी जब परिक्षा देता है, तो रातभर नींद में परिक्षा देता रहता है। उसका कोई और कारण नहीं है। वह पढ़ते ही पढ़ते सोता है। परिक्षा ही परिक्षा सोचते सोता है। वह परिक्षा ही नींद में प्रविष्ट हो जाती है। वह रात भर उसके परिक्षा का काम चल रहा है।
दुकानदार दिन-रात रुपये गिनते-गिनते सोता है, वह रात भी सपने में वही गिनता रहता है। सुना ही होगा कि एक कपड़े वाला है तो रात चादर भी फाड़ देता है। नींद में कपड़ा फाड़ देता है। किसी को बेच रहा है।
नींद में वे वही कर रहे हैं, जो अंतिम क्षण में हम कर रहे हैं। आपने अगर खयाल न किया हो तो करना। सोते समय जो अंतिम विचार होगा आखिरी, जागते समय सदा वह प्रथम विचार होगा। वह रात भर चेतना में मौजूद रहता है। और सुबह पहला विचार वही बनता है। आप प्रयोग करके देख लें। प्रयोग करके देखेंगे तो पता चल जाएगा।
इसलिए रात्रि का अंतिम विचार जितना शांत-मौन आनंद का हो, उतना ही अच्छा है। रात की अंतर धारा उससे जुड़ी रहेगी। इसलिए रात को जो ध्यान करके सोता है, वह एक अर्थों में अपनी पूरी निद्रा को ध्यान में परिवर्तित कर लेता है। अब इतना समय किसी के पास नहीं कि छह घंटे ध्यान कर सके।
लेकिन छह घंटे हम सोते तो है। और अगर सोने की पूरी स्थिति ध्यान बन जाए, तो हम छह घंटे ध्यान के लाभ को उपलब्ध हो जाते हैं। तो रात के आखिरी क्षण ध्यान और सुबह के प्रथम क्षण ध्यान।
बस यह दो समय खोज लें, बहुत अच्छा है। किसी के पास और समय हो, और कभी भी खोज सके तो दस-पांच मिनट के लिए कभी भी खोज ले। एक बात स्मरण रखना, ध्यान में अति कभी नहीं होती। आप कितना भी करो, वह ज्यादा कभी नहीं होता। आप ज्यादा कितना ही करो, वह ज्यादा नहीं होता।
शांति में कोई अति हो सकती है? क्या हम कह सकते हैं कि एक आदमी अति शांत है। ऐसा नहीं कह सकते। शांति में अति की कोई सीमा नहीं है। ध्यान में भी अति की कोई सीमा नहीं है। तो अति की चिंता ही मत करना। जितना समय जब मिल जाए।
और जब कला पूरी खयाल में आ जाती है ध्यान कि तो आप बस में बैठे हैं आंख बंद कर लें। क्या फिजूल लोगों की बातें सुन रहे हैं और बाहर का रास्ता देख रहे हैं। क्या फायदा है? आंख बंद कर लें। बस में दो घंटे बैठे हैं, उन दो घंटों को ध्यान में विलीन करने की कोशिश करें।
दफ्तर में बैठे हैं, कोई काम नहीं है। वेटिंगरूम में बैठे हुए हैं बाहर, कोई काम नहीं है। तो फिजूल कुछ करने की बजाए, उचित है आंख बंद कर लें। तो अकारण व्यर्थ देखने से बच जाएंगे। व्यर्थ सोचने से बच जाएंगे। व्यर्थ सुनने से बच जाएंगे। और उतने समय को उस काम में लगा देंगे जो अंतिम रूप से अर्थपूर्ण है।
और अगर एक आदमी सिर्फ बेकार खोने वाले क्षणों को भी ध्यान के लिए दे दे तो पर्याप्त है। एकदम पर्याप्त है। एक आदमी ट्रेन में बैठा हुआ है, दिन भर ट्रेन में बैठा रहता है। वह एक ही अखबार को बार-बार पढ़ता रहता है। मैं रोज देखता हूं ट्रेन में, वह आदमी उस अखबार को कई दफे पढ़ चुका है लेकिन अब क्या करें, वह फिर उसे ही पढ़ रहा है। उन्हीं गीतों को कितनी बार सुन चुके हैं, फिर रेडियो खोल कर उन्हीं को सुनते हैं।
उन्हीं बातों को कितनी बार कर चुके हैं फिर उन्हीं बातों को कर रहे हैं। अगर एक आदमी दिनभर में खयाल रखे कि जो बातें मैं कर रहा हूं, यह कितनी बार कर चुका हूं। और अगर यह खयाल रखे कि जो बातें मैं कर रहा हूं, इसमें से कितनी है जो बिना किए काम चल जाएगा। तो मुश्किल में पड़ जाएगा। हैरान होगा कि मैं सौ में से अट्ठानबे बातें तो व्यर्थ ही बोल रहा हूं।
आप टेलीग्राम देते हैं, तो कैसे एक-एक शब्द काटते हैं। इतने से काम चल जाएगा, इतने से काम चल जाएगा। आठ या दस शब्द पर्याप्त है। दस शब्द में आप उतनी बात कह देते हैं। अगर आपको चिट्ठी लिखवाई जाए, तो दो पन्ने लिखेंगे। और दस शब्दों में वह बात हो जाती है। और चिट्ठी से ज्यादा तेजी से हो जाती है।
क्योंकि दस शब्दों में सारी शक्ति सिकुड़ जाती है। इसलिए टेलीग्राम इतना प्रभावी है। और चिट्ठी लंबी होकर, वही बात फैल जानी है। वह दो पन्नों में फैल जाएगी, उसका प्रभाव भी कम हो जाने वाला है।
आदमी को बोलने में, सुनने में, चलने में, सब में टेलिग्रेफिक होना चाहिए, ताकि जो समय बच जाए वह ध्यान में लगा सके।
जहां तक बने, सोते-सोते ही करना चाहिए। अगर सोते-सोते एकदम नींद आ जाती हो तो बैठ कर करना चाहिए। रात्रि का ध्यान सोते ही करना चाहिए, ताकि ध्यान करते-करते ही नींद आ जाए। यानी कब ध्यान बंद हुआ, कब नींद आई यह आपको पता ही न पड़े। वह ध्यान होते-होते-होते ही नींद में प्रवेश पा जाए। तो लेट कर करना चाहिए। बैठ कर करिएगा तो लेटना पड़ेगा। वह लेटने से बाधा पड़ेगी, उतना भी आघात हो जाएगा, उतनी दूरी हो जाएगी।
ध्यान खत्म हुआ और फिर सोएंगे आप। इसलिए लेट कर ही करना चाहिए। सिर्फ एक हालत में बस, अगर किसी को ऐसा लगता हो कि लेटते ही नींद आ जाती हो, कर ही न पाता हो, तो दोत्तीन महीने बैठ कर करना चाहिए फिर धीरे-धीरे लेट कर करना चाहिए।

सब लोग बातचीत करते हों?
कोई झंझट नहीं है। आपका दिमाग बातचीत नहीं करना चाहिए। सब लोग बातचीत करते हों इससे तो कोई संबंध नहीं है, ध्यान आपको करना है, उनको तो करना नहीं है।

प्रश्न: नहीं, अभी जो बच्चे रो रहे थे, तो आपका ध्यान उधर गया था ना?

नहीं, नहीं, मेरा ध्यान वहां...मैं कोई ध्यान थोड़े ही कर रहा हूं यहां। मैं यहां बोल रहा हूं और मेरे बोलते वक्त यहां दस आदमी और बोलने लगे, तो मुझे कोई एतराज नहीं, मैं बोल सकता हूं, लेकिन उसका कोई प्रयोजन ही नहीं होगा।
मैं यहां ध्यान नहीं कर रहा हूं। अगर ध्यान कर रहा होता तो आप आपने सब बच्चे ले आएं तो कोई हर्जा नहीं है। समझे ना।
मैं यहां बोल रहा हूं और मेरे बोलते वक्त यहां दो-चार बच्चे रो रहे हैं, और बोल रहे हैं, तो जो प्रयोजन; जिससे मैं बोल रहा हूं, वह हल नहीं होता। आप तक मेरी बात ही नहीं पहुंच पाएगी।
बोलने में बाधा पड़ सकती है दूसरे बोलने से। अब यहीं आप दो-चार माइक और लगा लें और बोलने लगें, तो मुझे कोई हर्जा नहीं है। लेकिन फिर मैं नहीं बोलूंगा क्योंकि उसका कोई मतलब नहीं है बोलने का।
ध्यान का मतलब तो है आत्म ध्यान में जाना। अब किसी के बच्चे पर आपका हक थोड़े ही है। कि आप ध्यान में जा रहे हैं इसलिए दुनिया भर के बच्चे चुप हो जाएं। कोई मतलब नहीं।
आप जा रहे हैं, ध्यान में, जाइए मजे से। उन बच्चों को तो ध्यान में जाना नहीं है इसलिए वे क्यों करे चुप्पी।
वह खयाल जाता ही इसलिए है कि आप ध्यान में नहीं जा पा रहे हैं। ध्यान में जाने का मतलब समझे आप। मैंने कहा, साक्षी भाव। अगर बच्चा रो रहा है, तो साक्षी हो जाइए उसके कि बच्चा रो रहा है हम साक्षी हैं। लेकिन आप साक्षी नहीं होते कर्ता हो जाते हैं। आप कहते हैं, गर्दन दबा देंगे इस बच्चे की बहुत गड़बड़ कर रहा है। तो गड़बड़ हो जाती है शुरू।
आप साक्षी नहीं रहे, आप कर्ता हो गए। आप कहते हैं हटाओ इस बच्चे को इसको हमें नहीं सुनना। आप साक्षी ही रहें। बच्चा रो रहा है रो रहा है। हंस रहा है हंस रहा है। नहीं रो रहा, नहीं रो रहा।
आप अगर साक्षी रहे तो बच्चा रोए कि कोई बात करे कि हार्न बजे कि कुछ और हो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि प्रक्रिया जो मैं समझा रहा हूं, वह साक्षी की है। हां, दूसरे तरह के ध्यान में फर्क पड़ता है। एक आदमी राम-राम-राम जप रहा है। और अगर दूसरा कोई जोर-जोर से कुछ और कहने लगे, तो बाधा पड़ती है। क्योंकि वह भी बोल रहा है और यह भी बोल रहा है और बोलने से, बोलने में बाधा पड़ती है।
लेकिन मैं तो बोलने की बात ही नहीं कर रहा। मैं नहीं कह रहा कि ओम जपो या कुछ करो। मैं तो कह रहा हूं, साक्षी बनो। जो भी उसके साक्षी बनो। अगर तुम्हारे भीतर अशांति आ जाए, तो उसके भी साक्षी हो जाओ। साक्षी ही बनते चले जाओ। जो भी उसके साक्षी बनते चले जाओ।
इसका अंतिम परिणाम ध्यान होगा, इसे दुकान पर बैठ कर कर सकते हो। बस में कर सकते हो। कोई हिमालय जाने की जरूरत नहीं है। सड़क पर बैठ कर कर सकते हो। बल्कि बड़ा मजा आएगा, सड़क पर बैठ कर करोगे तो। तो पता चलेगा कि अपना मन कितना अजीब है, जरा भी साक्षी नहीं होता। फौरन कहता है इसकी गर्दन दबाओ। उसको रोको। इसे नहीं बोलने देंगे। हमारा मन होता है।

प्रश्न: लेकिन ऐसा हो सकता है क्या?

बिलकुल हो सकता है। अभी हो सकता है। थोड़ा प्रयास करने की बात है।
मैं एक गांव में, एक रेस्ट हाउस में ठहरा हुआ था। और मेरा साथ एक प्रदेश के मिनिस्टर भी ठहरे हुए थे। रात हम दोनों लौटे सोने के लिए।
मैं तो अपना सोने के लिए चला गया। वे कोई पंद्रह मिनट के बाद उठ कर आए। मुझे हिलाया, कि आप तो सो गए, मुझे नींद नहीं आती। बड़ी मुसीबत में पड़ गया हूं मैं।
उस रेस्ट हाउस के आस-पास सब कुत्ते इकट्ठे हैं गांव के। वे बहुत शोरगुल मचा रहे हैं। वह उनकी आदत होगी, रोज इकट्ठा होने की।
तो वे दो-चार दफे जाकर उनको भगा भी आए हैं बाहर। उनको भगा आए तो वे और दो-चार को बुला कर लौट आए।
कुत्ता कोई भगाने से भग सकता है? आदमी ही नहीं भगता तो कुत्ता कैसे भगेगा। वे सब वापस आ जाते हैं। अब उनकी बेचैनी हो गई। कहते हैं, मैं सो नहीं पाऊंगा, ये कुत्ते इतने भौंक रहे हैं, इतना शोरगुल कर रहे हैं।
मैंने उनसे कहा, कुत्तों को क्या पता कि आप यहां ठहरे हुए हो। और क्या संबंध? आपसे क्या लेना-देना कुत्तों का। आप मजे से सोइए। कुत्तों से आपका क्या संबंध है?
उन्होंने कहा, संबंध का मामला नहीं है। वे शोरगुल करते हैं, मैं नहीं सो पाता।
मैंने कहा, कुत्तों से शोरगुल से बाधा नहीं पड़ती। बाधा पड़ती है, इस बात से कि कुत्ते नहीं भौंकने चाहिए। यह जो हमारा खयाल है, इस खयाल को बाधा पड़ती है। कुत्ते हैं, भौंकेंगे। कुत्तों का भौंकना काम है।
आप को सोना है आप सो जाइए। तो बोले, मैं क्या करूं?
मैंने उनसे कहा कि आप इतना ही करें कि कुत्ते भौंक रहे हैं, इसे आप साक्षी भाव से सुनें। आप सिर्फ सुनते रहें कि कुत्ते भौंक रहे हैं, मैं सुन रहा हूं। फिर सुबह बात करेंगे।
वे कोई पंद्रह मिनट बाद सो गए होंगे। सुबह उठ कर उन्होंने मुझ से कहा, आश्चर्य! जब मैंने यह भाव किया कि कुत्ते भौंक रहे हैं, मैं सुन रहा हूं। तो उनका भौंकना भी मेरे ऊपर ऐसा असर करने लगा, जैसे कोई निद्रा लाने वाला संगीत है। करेगा ही मैं रात भर सोया रहा, पता नहीं उन्होंने कब भौंकना बंद किया।
मैंने कहा, वे क्यों बंद करेंगे। उनसे आपका कोई संबंध ही नहीं है कि आप कब सो गए कि नहीं सो गए। वे अपना भौंकते रहे होंगे।
लेकिन आपके चित्त ने रेसिस्टेंस छोड़ दिया। विरोध था कि नहीं भौंकने देंगे। तब दिक्कत थी। अब तो भौंकना है तो भौंके।
हमारे चारों तरफ जो हो रहा है, उसके साक्षीभाव को ही मैं ध्यान कह रहा हूं। इसलिए उसमें कोई बाधा नहीं है।

प्रश्न: ध्यान में आंख को बंद करना आवश्यक है?

नहीं, बिलकुल आवश्यक नहीं है। लेकिन शुरू में आमतौर से यह होता है कि अगर आप आंख बंद करके ही प्रयोग करें तो सुविधा पड़ेगी। क्योंकि फिर कान के ही द्वार पर आपको साक्षी होना पड़ेगा। और अगर आंख भी खुली रखी तो दो जगह साक्षी होना पड़ेगा। कान के द्वार पर भी और आंख के द्वार पर भी। और आंख के द्वार के साक्षी होना थोड़ा कठिन है। कान के द्वार की बजाय।
क्योंकि आंख पर जो प्रभाव पड़ते हैं, वे और गहरे पड़ते हैं। मगर अगर रख सकते हों तो बहुत ही अच्छा है। धीरे से मैं कहता हूं कि जब कान का अभ्यास ठीक हो जाए, फिर आंख भी खोल कर रख लें। लेकिन आंख बंद करने में कोई तकलीफ होती हो तो शुरू से ऐसा करें।
किसी को तकलीफ पड़ती है, किसी को आंख बंद करने से परेशानी होती है, तो वह आंख खुली रखे। लेकिन फिर दो जगह आपको साक्षीभाव रखना पड़ेगा। जो दिखाई पड़े उसके भी हम साक्षी हैं। उसके भी हम साक्षी हैं, कौन जा रहा है। फिर इसका भी हमें हिसाब नहीं रखना कि यह आदमी जा रहा है, अपना दोस्त है कि आदमी जो जा रहा है अपना दुश्मन है। कि यह अपनी पत्नी जा रही है।
यह हिसाब नहीं रखना। क्योंकि यह हिसाब रखा कि साक्षीभाव गया। हम सिर्फ साक्षी ही हैं, तो हम जान रहे हैं कि कोई जा रहा है। हम कोई निर्णय नहीं लेते। हम सब जान रहे हैं, हम देख रहे हैं। तो दोहरा काम न हो जाए, इसलिए आंख बंद करने को कहता हूं।
वैसे तो अच्छा तो यही है कि दोनों खुले रखें। और अगर कठिनाई पड़ती हो तो पहले कान को साध लें, फिर आंख को साध लेना। और दोनों जब सध जाते हैं तो बड़ा आनंद हो जाता है। तब खुली आंख से रास्ते पर चलते हुए आदमी साक्षी होता है। फिर बैठने की जरूरत नहीं रह जाती। फिर सब काम करते हुए साक्षी होता है।
क्योंकि फिर आंख बंद करने का सवाल नहीं रह गया है। लेकिन शुरू में कठिनाई न हो, इसलिए मैंने कहा, एक ही द्वार पर मेहनत करें। अगर बन सके तो दोनों पर कर सकते हैं। उसमें कोई बाधा नहीं है।

प्रश्न-अस्पष्ट

वह तुम बनाओगे तो बन जाएगा। एक दिन किया और दूसरे दिन नहीं किया तो अगर इसे दुख बनाओगे तो बन जाएगा। अन्यथा दुख बनाने की जरूरत भी नहीं है। जितना हो सका, उसके लिए धन्यवाद देना चाहिए। जितना नहीं हो सका, तो उसके लिए कोई की जरूरत नहीं है। क्यों?
क्योंकि पश्चात्ताप आने वाले ध्यान में बाधा बनेगा। और धन्यवाद आने वाले ध्यान में सहयोगी होगा। अगर आज मैंने ध्यान के लिए बैठा और ध्यान कर सका। तो इसके लिए परमात्मा के प्रति अनुगृहीत होना चाहिए कि आज मैं ध्यान कर सका, भगवान की बड़ी कृपा है। यह जो भाव अगर मन में रहा तो कल ध्यान में जाने में यह भाव सहयोगी होगा।
क्योंकि अनुग्रह का भाव चित्त को शांत करता है। और अगर एक दिन ध्यान नहीं सके और हम पछताए कि आज बड़ा बुरा हो गया और यह तो बड़ी गड़बड़ हो गई और यह तो बड़ा नुकसान हो गया। बड़ी भारी हानि हो गई और चित्त को दुखी किया, तो आज तो नहीं ही किया है, यह दुख की भाव दशा कल भी ध्यान में गहरे प्रवेश नहीं होने देगी।
ऐसी स्थिति में जब हम समझ जाएं कि पश्चात्ताप ध्यान में बाधा बनता है तो पश्चात्ताप करना बेईमानी है। और फिर दूसरी बात यह है कि हर चीज का साक्षी रखना चाहिए। इस बात के साक्षी होंगे कि आज किया, इस बात के साक्षी होना है कि आज नहीं किया। इसमें झगड़ा क्या लेना है, जो फैक्ट है, वह देखें। कि कल किया था आज नहीं किया।
स्वामी राम थे, वे तो अपने बाबत थर्ड परसन में ही बोलते थे। वे यह नहीं कहते थे कि मैं। वे यह नहीं कहते थे कि मुझे प्यास लगी। वे कहते राम को प्यास लगी।
वे कहते आज राम एक रास्ते पर जा रहे थे, कुछ लोग मिल गए और राम को गालियां देने लगे। हम खड़े होकर हंसते हैं कि राम को गालियां पड़ रही है।
जब अमेरिका पहली दफ गए तो लोगों ने पूछा, यह क्या गोरख धंधा है, हम समझे नहीं आपका मतलब क्या है, बातचीत; आप ही राम है ना।
उन्होंने कहा, मैं कहां हूं राम। लोग इसको राम कहते हैं। हम तो इससे पीछे और दूर हैं। एक जगह गए थे, राम फंस गए थे। कुछ लोग अच्छा झगड़ा करने लगे, हम खड़े होकर हंसने लगे। अच्छा है, अच्छा फंसा राम। अब दिक्कत में पड़े हैं बेटा। अब निकलते नहीं बन रहा।
साक्षीभाव का मतलब यह है कि वह धीरे-धीरे ऐसा गहरा हो जाए कि आज ध्यान करने बैठे यह जाना या आज ध्यान करने नहीं बैठे यह जाना। तब हमने ध्यान करने के प्रति भी साक्षी का भाव ग्रहण किया। और तब ध्यान से जो फायदा होता, उससे भी ज्यादा फायदा होगा, क्योंकि यह साक्षीभाव और भी आंतरिक हो गया। अब हम इतने भी कर्ता-भाव नहीं लिया कि मैंने ध्यान किया, मैंने ध्यान नहीं किया। यह कर्ता-भाव हो गया।
इसमें फिर मैं जुड़ गया। फिर मैंने कान पकड़ लिया। नहीं आज देखा कि ध्यान हुआ, आज देखा कि ध्यान नहीं हुआ। और हम सिर्फ देखने वाले हैं, हम करने वाले नहीं है। तो फिर जो गति आनी शुरू होगी, वह बहुत गहरी होगी। और उस तल पर कोई पश्चात्ताप नहीं है, कोई दुख नहीं है, कोई कष्ट नहीं है। जो हुआ वह हमने देखा।

प्रशन- अस्पष्ट

धन्यवाद का मतलब है, समस्त के प्रति धन्यवाद। क्योंकि यह जो सारा समस्त फैलाव है, इसके बिना कुछ भी नहीं हो सकेगा। श्वास भी हम नहीं ले सकेंगे। मैं श्वास भी ले रहा हूं, तो सारी हवाओं के प्रति धन्यवाद है। वृक्षों के प्रति धन्यवाद है जिनसे आक्सीजन बन रही है। आकाश के प्रति धन्यवाद है, तारों के प्रति, सूरज के प्रति, आप सब के प्रति। भगवान से मतलब समस्त। न राम, न कृष्ण, न बुद्ध, कोई नहीं।
जो समस्त फैलाव है, यह जो विस्तार है जीवन का इसके बिना है एक क्षण नहीं हो सकते। हम जो भी हैं, इसी के द्वारा है। तो जो भी हमसे हो रहा है इसी के सहयोग से हो रहा है। अन्यथा नहीं होगा। तो इसके प्रति धन्यवाद।
और धन्यवाद के भाव में जोर किसको हमने धन्यवाद दिया इससे कोई मतलब नहीं है, हमने धन्यवाद का भाव रखा उसका फायदा है। वह कोई है वहां या नहीं, यह मूल्यवान नहीं है।
साक्षी भाव दोहराने की बात नहीं है। रखने की बात है। मैं चूंकि समझाता हूं आपको इसलिए मैं कहता हूं कि यह भाव कि मैं साक्षी हूं। इसमें दो बातें हैं।
तुमने ठीक सवाल पूछा है। आप अपने मन में दोहराते रहे, कि मैं साक्षी हूं, मैं साक्षी हूं, तो यह तो मंत्र का काम बन जाएगा। यह तो धीरे-धीरे वैसे हो जाएगा, जैसे राम-राम-राम-राम।
आपको यह शब्दों में नहीं दोहराना है कि मैं साक्षी हूं। आपको यह अनुग्रह करना है कि मैं साक्षी हूं। इन दोनों में फर्क है। जो भी हो रहा है, उसके प्रति आपको यह अनुभव करना है कि मैं कौन हूं इसके प्रति। इससे मेरा क्या संबंध है। तो पता चलेगा कि साक्षी का संबंध है। साक्षी का भाव का मतलब साक्षी हूं, ऐसे शब्द को नहीं दोहराते रहना है।
नहीं तो वह एक मंत्र है। ज्यादा उसका मूल्य नहीं रह जाएगा। मैं साक्षी हूं, यह मेरी अनुभूति गहरी होनी चाहिए। जैसे अभी यह आवाज चल रही है। इस आवाज के प्रति मैं क्या हूं, साक्षी हूं। यह तो मैं आपसे कह रहा हूं, इसलिए शब्द बना रहा हूं। आपको भीतर शब्द बनाने की भी जरूरत नहीं है। सिर्फ जानने की जरूरत है कि यह मेरी स्थिति है। यह मेरी सिचुएशन है।
साक्षी होना मेरी सिचुएशन है। खाना आप खा रहे हैं, तो एक सेकेंड भीतर झुक कर देखना चाहिए कि मैं क्या कर रहा हूं। तो आपको पता चलेगा खाना शरीर खा रहा है, मैं साक्षी हूं। यह साक्षी होना एक्सपीरिएंस नहीं, अनुभव बनना चाहिए। यह शब्द का दोहराना नहीं, शब्द का रिपिटीशन किसी काम का नहीं है।
वह तो मैं आपको समझा रहा हूं, इसलिए कठिनाई है क्योंकि मैं तो शब्द से ही समझाऊंगा। आपसे बात मुझे करनी है तो शब्द को ही बुलाना पड़ेगा। और तब मैं खतरा भी जानता हूं कि कोई आदमी हो सकता है रोज बैठ कर कहता रहे मैं साक्षी हूं, मैं साक्षी हूं। कहता ही रहेगा।
और दो-चार दफ के बाद, यह डेड रूटीन हो जाएगी। उसको पता भी नहीं चलेगा क्या कह रहा है। कहता ही चला जाएगा कि मैं साक्षी हूं, मैं साक्षी हूं। घड़ी देख कर आधा घंटा बाद उठ आएगा। कोई फायदा नहीं होगा।
वह आदमी वहीं का वहीं रहा और आधा घंटा खराब हुआ। और आधे घंटे में उसने जो स्टूपिड काम किया कि मैं साक्षी हूं, मैं साक्षी हूं, इससे दिमाग खराब हुआ सो अलग। शब्द नहीं है सवाल; भाव।
जो भी मेरे चारों तरफ हो रहा है, उसके प्रति मेरी भाव-दशा साक्षी की है।
पहली तो बात यह है कि चाहे समाज हो, चाहे राज हो, चाहे अर्थ तंत्र हो, जब हम कहते हैं, वह असहनीय हो गया है। तो हम थोड़ी भूल करते हैं। क्योंकि जिस क्षण वह असहनीय हो जाएगा, उसी क्षण परिवर्तन शुरू हो जाएगा। वह असह्य नहीं हुआ है पहली तो यह बात जाननी चाहिए।
आप कहते हैं कि राजनैतिक गंदगी, लेकिन वह सहनीय है। नहीं तो चल नहीं सकती। असहनीय कुछ भी नहीं चल सकता।
तो मेरी तो पहली कोशिश यह है कि अगर उसे मिटाना है तो उसे असहनीय बनाना चाहिए। असहनीय बनाना चाहिए का मतलब कि लोगों की चेतना इतनी सजग करनी चाहिए कि वह असहनीय हो जाए। वह असहनीय नहीं है। क्योंकि जो भी हो रहा है, वह हम सहन कर रहे हैं, इसलिए हो रहा है। और जब तक हम सहन करते रहेंगे वह होता रहेगा।
सच बात यह है हम जिस योग्य आदमी होते हैं, उससे बेहतर हुकूमत कभी नहीं होती। हो ही नहीं सकती। हमें लगता है की गंदगी है उसमें, बहुत बुरा है, लेकिन वह असहनीय नहीं है। नहीं तो एक सेकेंड उसे होने की जरूरत नहीं रहेगी। असल में क्रांति आती कैसे है। जब कोई व्यवस्था, असह्य हो जाती है तो क्रांति आती है।
हिंदुस्तान में क्रांति आई ही नहीं, पांच हजार वर्षों में। क्योंकि यहां कुछ भी असह्य हो भी नहीं पाता है। और असह्य न होने के लिए कुछ मानसिक कारण हैं इस मुल्क में।
और मैं जो बातें कर रहा हूं, ताकि वह मानसिक कारण टूट जाए ताकि यह असह्य हो जाए। यह असह्य होगा भी नहीं ऐसे।
कुछ मानसिक डिवाइस है, हिंदुस्तान की तरकीब है। जैसे हम कार में स्प्रिंग लगाए रहते हैं। उसकी वजह से गङ्ढों का पता नहीं चलता। गङ्ढे तो हैं, लेकिन कार में नीचे स्प्रिंग लगे हुए हैं, जब गङ्ढे पर गाड़ी आती है, स्प्रिंग गङ्ढे की चोट पी जाता है। ऊपर बैठ मेहमान को पता भी नहीं चलता कि रास्ते पर गङ्ढा था।
और वह जब तक स्प्रिंग न निकले गाड़ी से तब तक सड़क के गङ्ढे का पता गाड़ी में बैठे आदमी को नहीं चलने वाला।
रेलगाड़ी में बफर लगाए हुए हैं। हर दो डिब्बों के बीच में बफर लगा हुआ है। धक्का अगर लग जाए, तो इतनी गुंजाइश है कि दो फीट तक का धक्का अगर लगे तो बफर झेल लेता है। डब्बे के भीतर के यात्री को पता नहीं चलता कि धक्का लगा। जब तक बफर अलग न हों, तब तक बाहर के धक्के का डब्बे के भीतर पता नहीं चलेगा।
भारत के दिमाग में जो सबसे खतरनाक बात है, इसने बफर और स्प्रिंग लगा रखे हैं तीन-चार हजार साल से। और उनकी वजह से जिंदगी में जो भी असहनीय होता है, वह बफर पी जाते हैं। उनको पता नहीं चलता कि वह असहनीय हो गया है।
और वह बफर बड़ी होशियारी के हैं। वह इतनी तरकीब से लगाए गए हैं। और बड़े सुखद रहे हैं। क्योंकि उनको पता ही नहीं चलता। झंझट ही नहीं मिटती।
अब जैसे कि हिंदुस्तान में गरीबी। इतनी गरीबी दुनिया में किसी मुल्क में कभी नहीं रही। अगर दुनिया में कहीं भी इतनी गरीबी हो तो आग लग जाएगी। एक सेकेंड नहीं टिक सकती। एक सेकेंड दुनिया का कोई मुल्क इस तरह से गरीब होने को राजी नहीं हो सकता।
लेकिन हिंदुस्तान के पास बफर है। और वह बफर यह है कि हिंदुस्तान में पांच हजार साल से साधु-संन्यासी समझा रहा है कि गरीबी तुम्हारे पिछले जन्मों का कर्म है। और बफर लगा हुआ है। उस बफर के लिए गरीब  आदमी कहता है, अब हम क्या कर सकते हैं। सामने जो अमीर दिखाई पड़ता है उसका थोड़े ही हाथ है हमारी गरीबी में।
हमारी गरीबी में तो हमारे पिछले जन्म का हाथ है। और पिछले जन्म के साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता। क्या कर सकते हो, उसके साथ। पिछला जन्म तो जा चुका। अब आप कुछ भी नहीं कर सकते। अब आप अगले जन्म के साथ कुछ कर सकते हो, और गड़बड़ की तो वह भी खराब हो जाएगा। इसलिए शांति से सड़ो।
सड़ते रहो, ताकि अगले जन्म में गरीबी न मिले। सुखद संपत्ति हमको भी मिल जाए। इसलिए कुछ गड़बड़ मत करो। अब यह बफर है।
हिंदुस्तान में क्रांति नहीं होगी, जब तक बफर न तोड़ दो। इधर कुछ असहनीय होता ही नहीं है। तो पहली तो बात यह है कि राज की जो व्यवस्था है उसकी गंदगी तो बहुत है। सहन करने से बहुत ज्यादा है। लेकिन चित्त भी इसका सहन करने में बहुत सक्षम है। वह सब सह लेता है।
तो मेरे सामने जो बड़ा सवाल है, वह यह है कि बफर कैसे टूट जाए। तो मैं निरंतर बात कर रहा हूं, सब तरफ से, सब कोणों से, वह बफर तोड़ने की कोशिश है कि वह यहां-वहां से टूट जाए। वहां-वहां असह हो जाएगा। और अगर हिंदुस्तान के एक छोटे वर्ग को भी असह हो जाए तो हिंदुस्तान में क्रांति हो जाएगी।
क्रांति के लिए कुछ बहुत दिक्कत नहीं है। लेकिन असह होना जरूरी है। और यह गंदगी कैसे दूर हो, जब हम यह पूछते हैं तो अक्सर हमारे मन में यह खयाल होता है कि क्या-क्या किया जाए, जिससे यह गंदगी दूर हो जाए।
मैं नहीं मानता हूं कि गंदगी ऐसे दूर होने वाली है। गंदगी दो तरह की होती है। एक गंदगी ऐसी होती है कि आपके शरीर पर धूल पड़ गई और आप गंदे हो गए। तो इसको तुम गंदगी कहते हो? एक आदमी धूल से भर गया, पसीने से भर गया, गंदा हो गया। उसने स्नान कर लिया गंदगी दूर हो गई। गंदगी बिलकुल बाहर थी।
लेकिन एक आदमी को कैंसर हो गया, यह भी गंदगी है। लेकिन आपके नहाने से दूर नहीं हो जाएगी। इसका तो आपरेशन चाहिए। कुछ काट-पीट चाहिए। कहीं कुछ तोड़ना-फोड़ना पड़ेगा, तभी दूर होगी। तो जो हिंदुस्तान की राजनीति पर गंदगी है वह धूल के जैसी गंदगी नहीं है कि वह ऊपर से छा गई। कि आप नहला दो नेताओं को सब ठीक हो जाएगा।
वह ऐसी नहीं है। उसकी गांठें भीतर है। और पूरे भारत के तंत्र के भीतर फोड़े हैं उसके। और आपरेशन के बिना कोई रास्ता नहीं है। कुछ हाथ-पैर काटे बिना चलेगा नहीं।
तो यह सुधार-वुधार से होने वाला नहीं है कि कोई ऊपरी सुधार हो जाए, कि कुछ हो जाए। जड़ें बहुत गहरी है और इतनी बुनियादी हैं कि हमें पता भी नहीं चलता। हम सोचते ही नहीं कि इतनी बुनियादी जड़ें हो सकती है।
एकाध उदाहरण इसलिए दूं। फिर और बात होगी तो रात कर लेंगे। जड़ें इतनी गहरी है कि हमें दिखाई ही नहीं पड़ता। और जो हम उपाय करते हैं, वे इतने ऊपरी होते हैं कि उनसे जड़ों तक खबर ही नहीं मिलती की ऊपर कोई उपाय हो गए हैं।
जैसे कोई आए किसी झाड़ की पत्तियां काट जाए। जड़ों को पता भी नहीं चलता कि पत्तियां कट गई हैं। जड़ें दूसरी पत्तियां भेज देती है फौरन। क्योंकि जड़ों का काम पत्तियां भेजना है। जब आप एक पत्ती काटते हैं, जड़ें दो पत्तियां भेज देती है।
कलम समझते है वह कि कलम हो रही है झाड़ की। जड़ों का काम ही यह है कि पत्तियां सूखने न पाएं। अगर पत्तियां मर जाए, तो नई पत्तियां भेज दो।
जब कोई किसी झाड़ की पत्तियां काटता है तो वह झाड़ को नुकसान नहीं पहुंचाता। झाड़ थोड़े दिनों में दुगुना घना हो जाता है।
सब सुधारवादी समाज की बीमारी को दुगुना कर जाते हैं। सब रिसोरमिस्ट। क्योंकि वे पत्तियां काटते हैं। क्रांतिकारी जड़ें काटने की बात कर रहे हैं। इसको समझना चाहिए कैसा?
मैं पिछली बार अहमदाबाद था। तो मुझे दोत्तीन दिन रोज चिट्ठियां आईं। हरिजनों ने मुझे लिखा, उनके सेक्रेटरी कोई होंगे, उन्होंने लिखा, उनका कोई पत्र निकलता है, उसके संपादक ने लिखा--कि जैसा गांधीजी हरिजनों के घर ठहरते थे, आप क्यों नहीं ठहरते हैं हरिजनों के घर?
तो मैंने उनको कहा कि तुम सब इकट्ठे होकर आ जाओ, तो मैं तुमसे बात करूं।
तो वे दस-पच्चीस लोग रात को मेरे पास आ गए।
और मुझसे बोले कि जैसे गांधीजी हरिजनों को ठहरते थे, वैसे आप हरिजनों के घर क्यों नहीं ठहरते। आप भी हमारे यहां ठहरिए।
तो मैंने उनसे कहा, पहली तो बात यह कि मैं किसी को हरिजन मानता नहीं हूं। किस हिसाब से पता लगाऊं कि कौन हरिजन है और कौन सा हरिजन का घर है। हरिजन के घर में ठहरने के लिए पहले मुझे हरिजन को मानना पड़ेगा।
मैं घर में ठहरता हूं। तुम कहो कि हमारे घर में ठहरो, मैं चलने को राजी हूं। लेकिन तुम अगर कहो, कि हरिजन के घर में ठहरो, मैं चलने का राजी नहीं हूं। क्योंकि मैं हरिजन को नहीं मानता हूं।
और तुम अजीब मूढ़ हो कि तुम अपनी तरफ से प्रचार करते हो कि हम हरिजन हैं, हमारे घर में आकर ठहरो। तुम अपने घर में ठहरने की बात करो, हरिजन होने की बात क्यों करते हो। एक तरफ तुम चाहते हो हरिजन होना मिट जाए, दूसरी तरफ तुम हरिजन के लिए रिकग्नीशन चाहते हो, सम्मान चाहते हो उसके लिए।
जो आदमी कहता है हरिजन को घर में न घुसने देंगे, यह आदमी भी हरिजन को उतना ही मानता है, उसी आदमी के बराबर जो कहता है हम हरिजन के घर में ही ठहरेंगे। इन दोनों में कोई फर्क नहीं। दोनों हरिजन को स्वीकृति देते हैं। और जो गहरी जड़ है उसको सींचते हैं। भेद की जो जड़ है उसको सींचते हैं।
ऊपर से दिखाई पड़ता है। हरिजनों का नाम था अछूत, उनका हरिजन नाम हो गया है। हरिजनों ने समझा कि बहुत बड़ी अच्छी बात हो गई। बहुत बुरी बात हो गई। अछूत शब्द में चोट है। और कोई आदमी अपने को अछूत कहने में पसंद नहीं करता। हरिजन में कोई चोट नहीं है। और आदमी अपने को हरिजन कहने में गौरव अनुभव करता है। यह बड़ी खतरनाक बात है।
जैसे किसी बीमारी को अच्छा नाम दे दें। कैंसर न कह कर कहें कि यह श्री देवी इतना नाम है। तो आदमी कहे कि हमको श्री देवी हो गई। यह है तो कैंसर ही इससे क्या फर्क पड़ता है।
अछूत, अछूत है। उसको हरिजन जैसा अच्छा शब्द देना बहुत खतरनाक है। क्योंकि हरिजन के अच्छे शब्द के पीछे बीमारी फिर छिप कर खड़ी हो जाएगी। और वह हरिजन भी अकड़ कर कहने लगेगा, मैं कोई साधारण थोड़े ही हूं, मैं हरिजन हूं।
जड़ें नहीं जाती। पत्ते ऊपर-ऊपर से बदलाहट होती है, सब लौट-लौट कर आ जाते हैं। और कई दफ ऐसा भी हो सकता है कि वृक्ष बिलकुल उलटा हो जाए, लेकिन बीमारी जारी रहे। यह भी हो सकता है कि ब्राह्मण शूद्रों की हालत में पहुंच जाए, और शूद्र ब्राह्मण की हालत में, लेकिन बीमारी वही कि वही जारी है, उसमें कोई फर्क न पड़ेगा। मेरी पूरी चिंता यह है कि कैसे हम इस समाज, इस राज्य, इस व्यवस्था कि जड़ों को पकड़ लें, जहां से सारा जाल पैदा होता है। और उन जड़ों को पैदा करने वाले दिमाग में कौन से बीज है उनको कैसे नष्ट कर दे।
अगर बीस साल हिंदुस्तान के कुछ विचारशील लोग ब्योरों की बातों में न जाएं; यहां सड़क बनानी है, यहां अस्पताल खोलना है, यह सब ठीक है, इससे कुछ होने वाला नहीं है। ब्योरों की बातों में न जाएं और मौलिकरूप से जो सनातन भारत का मस्तिष्क है उसको तोड़ने में लग जाए, तो बीस साल में भारत में इतना साफ दिमाग पैदा होगा कि आपको क्रांति के लिए कुछ करना नहीं पड़ेगा। एक झटके में क्रांति हो जाएगी। और नहीं तो वह नहीं हो सकती।
और मेरा यह भी मानना है कि अगर मस्तिष्क तैयार न हो, तो क्रांति में हिंसा की जरूरत पड़ती है। और अगर मुल्क का मस्तिष्क तैयार हो तो क्रांति हमेशा अहिंसा से हो जाती है। अहिंसा से होने का और कोई रास्ता ही नहीं है। अगर हम सब राजी हैं कि इस मकान को गिरा देना है तो हिंसा की कोई जरूरत नहीं है।
और अगर हमारे बीच एक आदमी भर कहता है इसको गिरा देना हो, और बाकी राजी नहीं है, तो हिंसा होगी, तो काट-पीट करनी पड़ेगी। जो राजी नहीं है उनको मिटाना पड़ेगा। उपद्रव हो जाते हैं। अब तक दुनिया में क्रांतियों में जो हिंसा की जरूरत पड़ती है, वह इसीलिए पड़ती है कि थोड़े से लोगों को समझ में आता है और शेष सारे लोगों को कुछ समझ में नहीं आता। फिर हिंसा की जरूरत हो जाती है।
अगर ठीक मानसिक हवा बन जाए, तो क्रांति एकदम अहिंसक हो सकती है। और जो क्रांति अहिंसक नहीं है, वह क्रांति अधूरी है। इसका मतलब है कि उसमें जबरदस्ती है। और कुछ लोग अधिक लोगों पर जबरदस्ती कर रहे हैं।
मैं मानता हूं कि कुछ लोग, अधिक लोगों के हित के लिए भी जबरदस्ती करे तो भी अनुचित है। तो असल में सब के लिए बना देना है पहले से। और सबके मन में यह साफ कर देना है कि कहां से यह बातें आ रही है जिनकी वजह से हम सह लेते हैं। क्रांति तो हो जाएगी, क्रांति में बहुत कठिनाई नहीं है।

आज इतना ही।



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