योग—सूत्र:
सत्वपुरूषयोरत्यन्तासंकीर्णयों:
प्रत्यायविशेषो
भोग:
परार्थत्वात्
स्वार्थसंयमात्पुरुषज्ञानम्।।
36।।
पुरुष, सद चेतना और
सत्व, सदबुद्धि
के बीच अंतर
कर पाने की अयोग्यता
के
परिणामस्वरूप
अनुभव के भोग
का उदभव होता
है. यद्यपि ये
तत्व नितांत
भिन्न हैं।
स्वार्थ पर
संयम संपन्न
करने से अन्य
ज्ञान से भिन्न
पुरूष ज्ञान
उपलब्ध होता
है।
तत:
प्रातिभश्रावणवेदनादर्शास्वादवार्ता
जायन्ते।।
37।।
इसके
पश्चात
अंतर्बोधयुक्त
श्रवण, स्पर्श, दृष्टि, आस्वाद और
आध्राण की
उपलब्धि चली
आती है।
ते
समाधावुपसर्गाव्युत्थाने
सिद्धय:।। 38।।
ये वे
शक्तियां है
जो मन के बाहर
होने से
प्राप्त
होती है, लेकिन ये
समाधि के
मार्ग पर
बाधाएं है।
पतंजलि के
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
सूत्रों में से
यह सूत्र है —यह
सूत्र कुंजी
है। पतंजलि के
योग —सूत्र का
यह अंतिम भाग’कैवल्यपाद' कहलाता
है। कैवल्य का
अर्थ होता है —समम्म
बोनम —परम
मुक्ति, चेतना
की परम
स्वतंत्रता, जो असीम है, जिसमें कोई
अशुद्धता
नहीं है। यह
कैवल्य शब्द
अति सुंदर है,
इसका अर्थ
है निर्दोष
एकांतता, इसका
अर्थ है शुद्ध
अकेलापन।
इस
अलोननेस शब्द
को ठीक से समझ
लेना। इसका
अर्थ अकेलापन
नहीं है।
अकेलापन
निषेधात्मक
होता है
अकेलापन तब
होता है जब हम
दूसरे के लिए
उत्कंठित
होते हैं, दूसरे के
बिना हमें
खाली —खाली
अनुभव होता
है। अकेलेपन
में दूसरे का
अभाव महसूस
होता है, लेकिन
एकांत स्वयं
का आत्मबोध
है।
अकेलापन
असुंदर है, एकांत
अदभुत रूप से
सुंदर है। एकांत
उसे कहते हैं,
जब व्यक्ति
स्वयं के साथ
इतना संतुष्ट
होता है कि
उसे दूसरे की
आवश्यकता ही
महसूस नहीं
होती, कि
दूसरा
व्यक्ति
चेतना से पूरी
तरह चला जाता है
—दूसरे
व्यक्ति की
भीतर कोई छाया
नहीं बनती, दूसरा
व्यक्ति कोई
स्वप्न
निर्मित नहीं
करता, दूसरा
व्यक्ति बाहर
की ओर नहीं
खींच सकता।
अगर
दूसरा
व्यक्ति
मौजूद हो तो
वह निरंतर केंद्र
से खींचता है।
सार्त्र का
प्रसिद्ध वचन
है, पतंजलि
ने इसे ठीक से
पहचान लिया कि’दूसरा
नर्क है।’ दूसरा
नर्क न भी हो, लेकिन दूसरे
की आकांक्षा
ही नर्क का
निर्माण कर
देती है।
दूसरे की आकांक्षा
ही नर्क है।
और
दूसरे की आकांक्षा
का न होना ही
अपनी मौलिक
शुद्धता को पा
लेना है। तब
तुम होते हो, और समग्र
रूप में होते
हो —और
तुम्हारे
अतिरिक्त और
कोई भी नहीं
होता, किसी
का कोई अस्तित्व
नहीं होता है।
इसे पतंजलि
कैवल्य कहते हैं।
और
कैवल्य की ओर
जाने वाला
पहला चरण, सर्वाधिक
आवश्यक चरण है
विवेक, दूसरा
महत्वपूर्ण
चरण है
वैराग्य, और
तीसरा है
कैवल्य का
बोध।
लेकिन
हमको दूसरे की
इतनी अधिक आकांक्षा
क्यों होती है? ऐसी
आकांक्षा ही
क्यों होती है
—दूसरे
व्यक्ति का
इतना सतत
पागलपन क्यों
होता है? गलत
कदम कहां उठ
गया है? हम
स्वयं के साथ
संतुष्ट
क्यों नहीं
होते? हम
क्यों सोचते
हैं कि किसी
भांति हम में
कुछ न कुछ
अभाव है? यह
गलत धारणा
हमारे अंदर.
कैसे घर कर
गयी है कि हम
अधूरे हैं? हमारा शरीर
से अत्यधिक तादात्म्य
होने के कारण
ही ऐसा है। हम
शरीर नहीं
हैं। अगर एक
बार पहला कदम
गलत उठ जाए, तो फिर
दूसरा कदम भी
गलत उठेगा, और फिर इसी
तरह आगे भी
गलत कदम उठते
चले जाते हैं,
फिर इसका
कहीं कोई अंत
नहीं है।
विवेक
से पतंजलि का
अर्थ है स्वयं
को शरीर से पृथक
जानना, अलग जानना।
इस बात का बोध
कि मैं शरीर
में हूं,
लेकिन मैं
शरीर नहीं
हूं। इस बात
का बोध कि मन मेरे
में है, लेकिन
मैं मन नहीं
हूं। इस बात
का बोध कि मैं
तो हमेशा
शुद्ध साक्षी हूं, द्रष्टा
हूं? देखने
वाला हूं। मैं
दृश्य नहीं हूं, मैं कोई
विषय —वस्तु
नहीं हूं। मैं
शुद्ध आत्मा
हूं।
सरिन
किर्केगाद, जो
पश्चिम के
सर्वाधिक
प्रभावशाली
अस्तित्ववादी
विचारकों में
से एक है, ने
कहा है’गॉड इज
सब्जेक्टिविटी।’
उसका
यह वक्तव्य
पतंजलि के
बहुत निकट है।
जब वह कहता है, गॉड इज
सब्जेक्टिविटी
तो इसका क्या
अर्थ है? जब
सभी विषय अलग
से जान लिए
जाते हैं, तो
वे विलीन होने
लगते हैं। वे
विषय हमारे
सहयोग के कारण
ही अस्तित्व
रखते हैं। अगर
हम सोचें कि
हम शरीर हैं, तो शरीर का
अस्तित्व बना
रहता है। शरीर
को बने रहने
के लिए
तुम्हारी मदद
चाहिए, तुम्हारी
ऊर्जा चाहिए।
अगर तुम सोचो
कि तुम मन हो, तो मन
क्रियाशील हो
उठता है। मन
को क्रियाशील
रहने के लिए हमारी
मदद, हमारा
सहयोग और
हमारी ऊर्जा
की आवश्यकता
होती है।
मनुष्य
के भीतर का
रचना —तंत्र
ऐसा है, कि बस थोड़ा
सा ध्यान भर
देने से ही
उसका स्वभाव
जीवंत हो उठता
है, क्रियाशील
हो उठता है।
हमारी
उपस्थिति
मात्र से ही, हमारे ध्यान
देने मात्र से
ही शरीर की
इंद्रियां
क्रियाशील हो
जाती हैं।
योग
में वे कहते
हैं कि यह तो
ऐसे ही है
जैसे मालिक घर
से बाहर चला
गया हो, और फिर वापस
घर लौट आया
हो। और जब
मालिक घर आकर देखे,
तो घर के
नौकर —चाकर
बातचीत में
लगे हुए हैं, और कोई
सीढ़ियों पर बैठा
धूम्रपान कर
रहा है, और
मकान की किसी
को चिंता ही
नहीं। लेकिन
जैसे ही मालिक
का घर में
प्रवेश होता
है, तो
उनकी बातचीत
रुक जाती है, फिर वे
सिगरेट
इत्यादि नहीं
पीते, अपनी
सिगरेट
छिपाकर वे फिर
से अपने काम —काज
में लग जाते
हैं। और अब वे
यह दिखाने की
कोशिश करते
हैं कि वे
अपने काम में
बहुत व्यस्त
हैं, ताकि
मालिक यह न
सोच सके कि
अभी थोड़ी देर
पहले वे
बातचीत में
लगे थे, सीढ़ियों
पर बैठकर
सिगरेट पी रहे
थे, सुस्ता
रहे थे, आराम
कर रहे थे। बस,
मालिक की
उपस्थिति और
सभी कुछ
व्यवस्थित हो
जाता है, या
जैसे कि कोई
शिक्षक कक्षा
से बाहर चला
जाए और कक्षा
में बच्चों का
शोरगुल शुरू
हो जाता है, बच्चे उठकर
इधर—उधर घूमने
लगते हैं, और
जैसे ही
शिक्षक वापस
आता है सारे
बच्चे अपनी—
अपनी जगह बैठ
जाते हैं, और
लिखना —पढ़ना
शुरू कर देते
हैं, अपना
कार्य करने
लगते हैं और
कक्षा में
एकदम शाति छा
जाती है ——शिक्षक
की उपस्थिति
मात्र से ही।
अब
वैज्ञानिकों
के पास इसके
समानांतर कुछ
है। इसे वे
केटेलेटिक
एजेंट, उत्पेरक
तत्व की
उपस्थिति
कहते हैं। कुछ
वैज्ञानिक
घटनाएं ऐसी
होती हैं
जिनमें एक
विशेष तत्व की
उपस्थिति
मात्र की
आवश्यकता
होती है। वह
कोई कार्य
नहीं करता, उसका कोई
कार्य नहीं
होता, लेकिन
उसकी
उपस्थिति
मात्र से घटना
को घटने में
मदद मिलती है —
अगर वह
उपस्थित न हो,
तो वह घटना
नहीं घटेगी।
अगर वह
उपस्थित हो —वह
स्वयं में
प्रतिष्ठित
रहता है, वह
बाहर नहीं
जाता—उसकी
उपस्थिति
ही उत्पेरणा
का कारण बन
जाती है। उसकी
उपस्थिति ही
कहीं पर, किसी में
क्रियाशीलता
का सृजन कर
देती है।
पतंजलि
कहते हैं कि
व्यक्ति का
अंतर्तम अस्तित्व
सक्रिय नहीं
है, वह
निष्किय है।
योग में
अंतर्तम
अस्तित्व को पुरुष
कहते हैं।
व्यक्ति के
भीतर वह
केटेलेटिक
एजेंट शुद्ध
चैतन्य के रूप
में है। बस, कुछ न करते
हुए वह शुद्ध
चैतन्य
उपस्थित है —वह
सभी कुछ देख
रहा है, लेकिन
कर कुछ भी
नहीं रहा है, हर चीज पर
ध्यान दे रहा
है, फिर भी
किसी से संबंध
नहीं बना रहा
है। पुरुष की
उपस्थिति
मात्र से —प्रकृति,
मन, शरीर
सभी कुछ—क्रियाशील
हो उठते हैं।
लेकिन
हम शरीर के
साथ, मन
के साथ
तादात्म्य
बना लेते हैं
और साक्षी न रहकर
कर्ता बन जाते
हैं। यही तो
मनुष्य का सारा
रोग है। विवेक
औषधि है —कि घर
कैसे लौटा जाए,
कि कर्ता
होने का झूठा
विचार कैसे
गिराया जाए, और साक्षी
होने की
शुद्धता को
कैसे उपलब्ध
हुआ जाए। इसी
की विधि विवेक
कहलाती है।
एक बार
अगर हम यह जान
लें कि हम
कर्ता नहीं
हैं हम साक्षी
हैं तो उसके
साथ ही दूसरा
चरण घटित हो
जाता है —त्याग, संन्यास,
वैराग्य का
दूसरा चरण
घटित हो जाता
है जो कुछ भी
हम पहले कर
रहे थे, वह
अब नहीं कर
सकते। पहले
बहुत सी चीजों
के साथ हमारा
अत्यधिक
तादात्म्य था,
क्योंकि
पहले हम सोचते
थे कि, हम
शरीर हैं, मन
हैं। अब हम
जान लेते हैं
कि हम न .तो
शरीर हैं और न
ही मन हैं।
पहले हम न
जाने कितने ही
व्यर्थ की
बातों के पीछे
भाग रहे थे और
उनके लिए पागल
हुए जा रहे थे —वे
सब सहज ही गिर
जाते हैं।
इनका
गिर जाना ही
वैराग्य है, संन्यास
है, त्याग
है। जब हमारी
समझ से, हमारे
विवेक से, रूपांतरण
घटित होता है
वही वैराग्य
है। और जब वैराग्य
भी पूर्ण हो
जाता है तो
व्यक्ति कैवल्य
को उपलब्ध हो
जाता है —तब
पहली बार हम
जानते हैं कि
हम कौन हैं।
लेकिन
पहला चरण, हमारा हर
बात से
तादात्म्य, हमको भटका
देता है। फिर
जब पहला कदम
उठ जाता है, और जब
पृथकता की
उपेक्षा हो
जाती है और हम
तादात्म्य की
पकड़ में आ
जाते हैं, तो
फिर इसी ढंग
से हमारा पूरा
जीवन चलता चला
जाता है, क्योंकि
एक कदम से ही
आगे का दूसरा
कदम उठता है, फिर उसी से
और — और कदम आते
हैं, और तब
हम इस दलदल
में फंसते चले
जाते हैं।
मैं
तुम से एक कथा
कहना चाहूंगा:
दो
युवा मित्र
समाज में अपनी
प्रतिष्ठा
स्थापित करने
की कोशिश कर
रहे थे। उनमें
से युवा कोहेन
को एक बहुत ही
धनी आदमी के
उत्तराधिकारी
बनने की आशा
थी। इसलिए वह
अपने साथ लेवी
को लड़की के
माता —पिता से
मिलाने के लिए
ले गया। लड़की
के माता —पिता
युवा कोहेन की
ओर देखकर
मुस्कुराए और
बोले,’हम
जानते हैं तुम
कपड़ों का
व्यापार करते
हो।’
कोहेन
ने घबराहट में
सिर हिलाते
हुए कहा,’हां, छोटे
पैमाने पर।’
लेवी
ने उसकी पीठ
थपथपाई और
बोला,’यह
बहुत विनम्र
है, बहुत
ही विनम्र है।
इसके पास
सत्ताईस
दुकानें हैं
और अभी कई
दुकानों के
सौदे की
बातचीत चल रही
है।’
माता—पिता
ने पूछा,’हमें मालूम
है कि
तुम्हारे पास
घर है।’
कोहेन
मुस्कुरा
दिया,’हां,
साधारण से
कुछ कमरे हैं।’
युवा
लेवी हंसने
लगा,’ओह, फिर वही
सज्जनता, फिर
वही विनम्रता!
इसके पास
पार्कलेन में
पेंथहाऊस है।’
माता —पिता
ने बातचीत
जारी रखते हुए
कहा,’ और
तुम्हारे पास
कार तो होगी
ही?'
कोहेन
बोला,’ही,
एक अच्छी
खासी कार है।’
' अच्छी
—खासी की तो
बात ही छोड़ो,' लेवी बीच
में ही बोला,’इसके पास
तीन रोल्स
रायस हैं, और
वे सिर्फ शहर
में इस्तेमाल
करने के लिए
हैं।’
इसी
बीच कोहेन को
छींकें आने
लगीं।
माता —पिता
ने चिंतित
होकर पूछा,’क्या
तुम्हें
सर्दी —जुकाम
है?'
कोहेन
ने उत्तर दिया,’हौ, थोड़ा
—बहुत।’
लेवी
जोर से बोला,’ थोड़ा —बहुत
नहीं, तपेदिक
है तपेदिक।’
एक कदम
दूसरे तक ले
जाता है। और
एक बार कोई
गलत कदम उठ
जाए, तो
पूरा जीवन गलत
की एक
श्रृंखला
बनता चला जाता
है। और फिर वह
अनेकानेक
रूपों में
प्रतिबिंबित
होने लगता है।
और अगर हम
पहला चरण,
प्रारंभिक
बात ठीक नहीं
कर लेते हैं, तो हम
दुनिया भर की
बातें ठीक
करते रहें, हम ठीक न कर
पाएंगे।
गुर्जिएफ
अपने शिष्यों
से कहा करता
था,’सबसे
पहली बात जो
समझ लेने की
है वह यह है कि
तुम्हारा
अपने विचारों
के साथ, अपने
कृत्यों के
साथ
तादात्म्य
नहीं है। और एक
बात निरंतर
स्मरण रखनी है
कि तुम केवल
साक्षी हो, चैतन्य हो —न
तो कृत्य हो
और न ही विचार
हो।’
अगर यह
स्मरण हमारे
भीतर सघनीभूत
हो जाए, तो विवेक की
उपलब्धि हो
जाती है। फिर
उसके पीछे —पीछे
ही वैराग्य आ
जाता है। अगर
विवेक की उपलब्धि
नहीं होती है,
तो फिर
संसार ही बना
रहता है। अगर
हमारा शरीर और
मन के साथ
तादात्म्य
बना रहता है, तो हम बाह्य
संसार में ही
रहते हैं और
हमें ईडन के
बगीचे से बाहर
निकाल दिया
जाता है। अगर
इस भेद को देख
सको और बात का
निरंतर स्मरण
रहे कि हम
शरीर में हैं
और शरीर एक
निवास स्थान
है, कि हम
मालिक हैं और
मन तो मात्र
एक बाओ कंप्यूटर
है, कि हम
मालिक हैं और
मन तो एक सेवक
ही है, तब
भीतर की ओर
मुड़ना संभव हो
सकता है। तब
बाहरी संसार
की यात्रा
समाप्त हो
जाती है, क्योंकि
संसार यात्रा
की प्रथम सीढ़ी
नहीं है। जब
हमारा संसार
के साथ
तादात्म्य
टूटने लगता है,
तो फिर हम
अपने भीतर
उतरने लगते
हैं। और यही है
वैराग्य।
और जब
भीतर और भीतर
उतरते ही चले
जाते हैं तो एक
ऐसा अंतिम
बिंदु आता है
जिसके पार
जाना संभव
नहीं होता, यही है
समम्म बोनम, यही कैवल्य
है तब हम एकांत
को उपलब्ध हो
जाते हैं। अब
किसी चीज की
जरूरत नहीं रह
जाती है।
स्वयं को किसी
न किसी चीज से भरने
के अथक और
अनवरत प्रयास
की कोई
आवश्यकता नहीं
रह जाती है।
अब हमारी अपनी
स्वयं की शून्यता
के साथ तालमेल
बैठ जाता है।
और शून्यता के
इस तालमेल के
ही साथ
शून्यता
पूर्ण हो जाती
है, हम
असीम हो जाते
हैं। और इसके
साथ ही एक गहन
परितृप्ति आ
जाती है और
स्वयं के
अस्तित्व की
सार्थकता
फलित हो जाती
है।
आरंभ
में इस पुरुष
का अस्तित्व
होता है, अंत में इस
पुरुष का
अस्तित्व
होता है और इन
दोनों के मध्य
में ही संसार
का विराट
स्वप्न होता
है।
पहला
सूत्र :
'पुरुष,
सदचेतना और
सत्व, सदबुद्धि
के बीच अंतर
कर पाने की
अयोग्यता के परिणाम
स्वरूप अनुभव
के भोग का
उदभव होता है,
यद्यपि ये
तत्व नितात
भिन्न हैं।’
'स्वार्थ
पर संयम संपन्न
करने से अन्य —ज्ञान
से भिन्न
पुरुष ज्ञान
उपलब्ध होता
है।’
प्रत्येक
शब्द को ठीक
से समझ लेना, क्योंकि
प्रत्येक
शब्द अदभुत
रूप से महत्वपूर्ण
है।
'अंतर
कर पाने की
अयोग्यता के
परिणाम
स्वरूप अनुभव
के भोग का
उदभव होता है।’
सभी अनुभव,
फिर वह चाहे
कोई सा भी अनुभव
हो, भ्रांति
मात्र होते
हैं। तुम कहते
हो, मैं
दुखी हू या
तुम कहते हो, मैं सुखी
हूं या तुम
कहते हो, मुझे
भूख लग रही है
या तुम कहते
हो, बहुत
अच्छा लग रहा
है और मैं
स्वस्थ अनुभव
कर रहा हूं —सभी
अनुभव
भ्रांति हैं,
भ्रम हैं।
जब तुम
कहते हो, मुझे भूख
लगी है, तो
वास्तव में
तुम्हारा
इससे क्या
मतलब होता है?
तुम्हें
कहना चाहिए, मुझे इसका
बोध हो रहा है
कि शरीर को
भूख लगी है।
तुम्हें यह
नहीं कहना
चाहिए मुझे
भूख लगी है।
तुम्हें भूख
नहीं लगती।
भूख शरीर को
लगती है, तुम
तो बस भूख को
जानने वाले
होते हो।
अनुभव तुम्हारा
नहीं होता, केवल बोध और
जागरूकता
तुम्हारी
होती है। अनुभव
शरीर का होता
है, जागरूकता
तुम्हारी
होती है। जब
तुम दुखी अनुभव
करते हो, तो
दुख का अनुभव
शरीर का या मन
का हो सकता है —जो
कि दो नहीं
हैं।
शरीर
और मन एक ही
रचना — तंत्र
के अंग हैं।
शरीर उसी तत्व
की स्थूल प्रक्रिया
है, और
मन सूक्ष्म
प्रक्रिया है,
लेकिन
दोनों एक ही
हैं। यह कहना
ठीक नहीं है कि
शरीर और मन, हमें कहना
चाहिए शरीर —मन।
शरीर और कुछ
नहीं, मन
का ही स्थूल
रूप है। और
अगर तुम अपने
शरीर का
निरीक्षण करो
तो तुम पाओगे
कि शरीर भी मन
के अनुसार ही
कार्य करता
है। अगर तुम
गहरी नींद में
हो, और एक
मक्खी
तुम्हारे
चेहरे पर आकर
बैठ जाए, तो
तुम बिना जागे
ही हाथ से
मक्खी को उड़ा
देते हो। शरीर
अपने से मन के
अनुसार कार्य
को कर देता
है। या पांव
पर कोई कीड़ा
रेंग रहा हो
तो—शरीर अपने
आप उसे हटा
देता है —गहन
निद्रा में
भी। सुबह जब
तुम सोकर
उठोगे तो
तुम्हें कुछ
भी स्मरण न रहेगा।
शरीर मन के
अनुसार ही
कार्य करता है
—हालाकि करता
बहुत ही स्थूल
रूप से है, लेकिन
शरीर मन के
रूप में ही
कार्य करता
है।
तो
शरीर —मन को
सभी तरह के
अनुभव होते
हैं — अच्छे —बुरे, सुख के, दुख के —उससे
कुछ अंतर नहीं
पड़ता। तुम
अनुभव करने
वाले कभी नहीं
होते हो, तुम
हमेशा अनुभव
के प्रति
जागरूक होते
हो। इसलिए
पतंजलि का यह
वक्तव्य बहुत
ही निर्भीक वक्तव्य
है।
'.. ….अंतर
कर पाने की
अयोग्यता के
परिणाम
स्वरूप अनुभव
के भोग का
उदभव होता है।’
सभी अनुभव
भ्रम हैं, भ्रांति
हैं। और भ्रांति
इसलिए
उत्पन्न होती
है, क्योंकि
हम भेद नहीं
कर पाते हैं, हम नहीं
जानते हैं कि
कौन क्या है।
बहुत
बार ऐसा होता
है। अमेजान
में
आदिवासियों
की एक छोटी सी
आदिम जनजाति
है। उस जनजाति
जब कोई स्त्री
बच्चे को जन्म
दे रही होती
है, तो
उस स्त्री का
पति भी दूसरी
चारपाई पर
लेट
जाता है।
पत्नी जब
प्रसव पीड़ा के
कारण चीखना —चिल्लाना
शुरू करती है
तो पति भी
उसके साथ चीखने
—चिल्लाने
लगता है।
जब
पहली बार उन
आदिम जनजाति
की यह बात पता
चली तो लोगों
को विश्वास ही
नहीं हुआ। पति
क्यों चीख —चिल्ला
रहा है और
किसलिए
चिल्ला रहा है? पत्नी तो
प्रसव की पीडा
से गुजर ही
रही है, लेकिन
पति को क्या
हो रहा है? क्या
वह केवल अभिनय
कर रहा है? और
फिर इस बात को
लेकर बहुत सी
खोजें की गईं
और उन खोजों
में यह पता
चला कि पति
अभिनय नहीं करता।
जब पत्नी की
पीड़ा के साथ
पति का
तादात्म्य
स्थापित हो
जाता है, तो
सच में ही उसे
भी पीड़ा होने
लगती है।
हजारों वर्षों
से
आदिवासियों
की उस जनजाति
का मन इसी तरह
से तैयार हो
चुका है कि
चूंकि पत्नी
और पति दोनों
ही बच्चे के
माता —पिता
हैं, तो
दोनों को ही
पीड़ा उठानी
चाहिए।
उनकी
बात एकदम ठीक
मालूम होती
है। नारी
मुक्ति आंदोलन
को इस आदिम
जनजाति से
सहमत होना
चाहिए। केवल
स्त्रियां ही
प्रसव’पीड़ा को
क्यों उठाएं? और पति
हैं कि इसी
तरह जीए चले
जाते हैं, वे
पीड़ा क्यों
नहीं उठाते? वे नौ महीने
तक बच्चे को
गर्भ में नहीं
पालते, और
फिर जब बच्चा
पैदा होता है
तो पूरी
जिम्मेवारी
मा की ही होती
है। ऐसा क्यों?
लेकिन
आदिवासियों
की वह जनजाति
इसी तरह से रह रही
है। मनस्विद
और
चिकित्सकों
ने वहां के पुरुषों
का परीक्षण
किया है और
उन्होंने
पाया कि सच
में पुरुष को
पीड़ा होती है —सच
में। हमें —यह
बात
अविश्वसनीय
लगती है, क्योंकि हम
उस ढंग से
तादात्म्य
स्थापित नहीं
कर पाते। पति
अपनी पत्नी के
साथ इतना अधिक
तादात्म्य
बना लेता है —इस
तादात्म्य
भाव से ही वह
पीड़ा उठा रही
है —पति को
पीड़ा शुरू हो
जाती है।
तुमने
शायद कभी इस
पर ध्यान भी
दिया होगा।
अगर तुम किसी
के अत्यधिक
प्रेम में हो
और वह व्यक्ति
किसी पीड़ा में
या दुख में है
तो तुम भी
पीड़ित और दुखी
होने लगते हो।
यही है
समानुभूति।
अगर तुम्हारा
प्रेमी पीड़ा
में है, तो तुम्हें
पीड़ा होने
लगती है। अगर
तुम्हारा प्रेमी
सुखी है, आनंदित
है, तो तुम
भी सुखी और
आनंदित हो
जाते हो।
तुम्हारा
अपने प्रेमी
के साथ तालमेल
हो जाता है, उसके साथ संगति
बैठ जाती है —उसके
साथ तुम्हारा
तादात्म्य
स्थापित हो जाता
है।
उस
जनजाति की यह
बात हमें बहुत
ही बेतुकी
मालूम होती है, और वह
समाज इसी
भांति जी रहा
है। और पति सच
में पत्नी
जितना ही पीड़ा
को उठाता है, दोनों की
पीड़ा में कोई
अंतर नहीं
होता। फ्रास के
एक मनस्विद ने
अब स्त्रियों
की पीड़ा पर भी,
बहुत गहन
रूप से कार्य
करके इस बात
पर प्रकाश डाला
है कि
स्त्रिया अगर
प्रसव —पीड़ा
से गुजर रही
हैं तो केवल
इसलिए, क्योंकि
वे पीड़ा में
विश्वास करती
हैं। ऐसी जनजातियां
भी हैं जहां
पत्नी को जरा
भी प्रसव —पीड़ा
नहीं होती।
भारत
में ऐसी
जनजातियां
हैं, आदिवासियों
के समाज हैं —जहां
पत्नी खेत में
काम कर रही है,
लकड़िया काट
रही है, लकड़ियां
उठा रही है और
अचानक इसी बीच
बच्चे का जन्म
हो जाता है।
वह स्त्री
बच्चे को अपनी
टोकरी में
रखकर घर आ
जाती है।
स्त्री खेत
में काम कर
रही है और
बच्चे का जन्म
हो जाता है, बच्चे को
वृक्ष के नीचे
लिटाकर वह
अपना काम जारी
रखती है, जब
काम पूरा हो
जाता है तो
सांझ घर जाते
समय वह बच्चे
को घर ले जाती
है। कहीं कोई
दर्द नहीं, कोई पीड़ा
नहीं। क्या
होता है? यह
भी एक विश्वास
है, यह भी
एक संस्कार
है।
और अब
पश्चिम में
लाखों स्त्रिया
बिना किसी
पीड़ा के
बच्चों को
जन्म देने के
लिए तैयार हो
रही हैं। बिना
किसी पीड़ा के
बच्चे को जन्म
देना, बस
विश्वास के
ढांचे को
बदलना है।
स्त्रियों का
यह सम्मोहन
तोड़ देना है
कि यह तो एक
धारणा मात्र
है —बच्चे को
जन्म देने में
सच में कोई
पीड़ा नही होती
है; यह
केवल एक विचार
मात्र ही है।
और जब कोई
विचार पास में
होता है तो
तुम वैसे ही
बनते चले जाते
हो। एक बार
तुम्हारे पास
कोई विचार
होता है, तो
फिर वैसे ही
घटित होने
लगता है —लेकिन
वह तुम्हारा
अपना
प्रक्षेपण
है।
पतंजलि
कहते हैं कि
सभी अनुभव
भ्रांति हैं, भ्रम हैं —दृष्टि
का भ्रम हैं।
जब दृष्य के
साथ हमारा इतना
तादात्म्य
स्थापित हो
जाता है कि
द्रष्टा यह
अनुभव करने
लगता है जैसे
कि वह स्वयं
दृष्य है।
हमें भूख
अनुभव होती है,
लेकिन हम
भूख नहीं होते
—शरीर भूखा
होता है। हमें
पीड़ा अनुभव
होती है, लेकिन
हम पीड़ा नहीं
हैं —शरीर में
पीडन होती है,
हम तो केवल
पीड़ा के प्रति
सचेत होते
हैं।
अगली
बार जब कभी
शरीर में कुछ
हो, और
शरीर में कुछ
न कुछ होता ही
रहता है —तो
उसे देखना। बस,
इस बात का
स्मरण रखने का
प्रयास करना
कि’मैं साक्षी
हूं’ और फिर
देखना चीजें
कितनी बदल
जाती हैं। एक
बार यह अनुभव
हो जाए कि मैं
साक्षी हूं, तो बहुत सी
चीजें अपने से
ही गिर जाती
हैं, अपने
से मिटने लगती
हैं।
और फिर
एक दिन ऐसा भी
आता है जब सभी
अनुभव गिर जाते
हैं और तुम
संबोधि को
उपलब्ध हो
जाते हो। तब
तुम उस अनुभव
के भी पार
होते हो तुम
शरीर नहीं
रहते, तुम
मन नहीं रहते,
तुम दोनों
का अतिक्रमण
कर जाते हो।
अचानक तुम बादल
की भांति
तैरने लगते हो,
सब से ऊपर, सब के पार।
यह अनुभवातीत
अवस्था ही
कैवल्य की अवस्था
होती है।
अब
इससे संबंधित
एक बात और।
कुछ लोग ऐसे
भी हैं जो
सोचते हैं कि
आध्यात्मिकता
भी एक तरह का अनुभव
है। ऐसे लोग
इस बारे में
कुछ जानते ही
नहीं हैं। कुछ
ऐसे लोग हैं
जो मेरे पास
आते हैं और
कहते हैं,’हम
आध्यात्मिक
अनुभव पाना
चाहते हैं।’
वे
नहीं जानते कि
वे क्या कह
रहे हैं। जब
वे ऐसा कहते
हैं, तो
वे उसी अनुभव
की बात कर रहे
होते हैं जो
इस जगत के
अनुभव होते
हैं। उनमें
आध्यात्मिक
जैसी कोई बात
नहीं होती है —वह
हो ही नहीं
सकती है। किसी
अनुभव को’ आध्यात्मिक'
कहना ही उसे
असत्य ठहरा
देना है।
अध्यात्म तो केवल
विशुद्ध
जागरूकता का,
पुरुष का
बोध है।
ऐसा
कैसे संभव
होता है? हम
तादात्म्य
कैसे स्थापित
कर लेते हैं? योग की भाषा
में सत्य के, परम सत्य के
तीन सहज
गुणधर्म हैं
सत् —चित् —
आनंद—सच्चिदानंद।
सत् का अर्थ
है अस्तित्व—शाश्वत
की गुणवत्ता,
अपरिवर्तनीय
होने की
गुणवत्ता।
चित् : चित् का
अर्थ है
चैतन्य
जागरूकता—चित्त
है ऊर्जा, गतिशीलता,
प्रक्रिया।
और आनंद आनंद
है परम सुख।
यह
तीनों परम
सत्य के तीन
गुण धर्म
कहलाते हैं।
यह योग की
ट्रिनिटी है, निस्संदेह
यह ईसाइयत की
ट्रिनिटी से
अधिक वैज्ञानिक
है, क्योंकि
यह परमात्मा,
होली घोस्ट
और पुत्र के
विषय में कोई
बात नहीं
करती। योग
अनुभवों की
बात करता है।
जब कोई व्यक्ति
स्वयं के परम
शिखर, को
उपलब्ध हो
जाता है, तो
उसे तीन बातों
का बोध हो
जाता है एक तो
यह कि वह है और
वह सदा
रहेगा, यह है सत,
दूसरा बोध
कि वह चैतन्य
है—वह किसी
मृत पदार्थ की
भांति नहीं है—वह
है और वह
जानता है कि
वह है, यह
है चित्? और
जो इसे जानता
है—वह है
आनंद।
अब मैं
इनकी
व्याख्या
करता हू। इसे आनंदपूर्ण
कहना भी ठीक
नहीं, क्योंकि
तब यह एक
अनुभव हो जाता
है। इसलिए इसे
ऐसा कहना अधिक
उचित होगा कि’व्यक्ति
स्वयं ही आनंद
है' —'न कि आनंदपूर्ण
है।’ व्यक्ति
ही सत है, व्यक्ति
चित् है, व्यक्ति
ही आनंद है, व्यक्ति का
ही अस्तित्व
है, व्यक्ति
ही चैतन्य है,
व्यक्ति ही
आनंद है।
सत्य
का आत्यांतिक
अनुभव यही है।
पतंजलि कहते
हैं कि जब यह
तीनों
उपस्थित होते
हैं, तो
प्रकृति में
तीन
गुणवत्ताएं
उत्पन्न कर देते
हैं। वे
केटेलेटिक
एजेंट की तरह
कार्य करते
हैं; वे
करते कुछ नहीं
हैं। उनकी
उपस्थिति
मात्र ही
प्रकृति में
अदभुत
क्रियाशीलता
निर्मित कर
देती है। यह
क्रियाशीलता,
सत्व, रजस,
तमस, इन
तीन गुणों से
जुड़ी होती है।
सत्व
का संबंध आनंद
से है, आनंद
की गुणवत्ता
से। सत्व का
अर्थ है, विशुद्ध
प्रज्ञा।
जितने अधिक
व्यक्ति सत्य के
निकट आता है, उतना ही
अधिक वह
आनंदित अनुभव
करता है। सत्य
आनंद का
प्रतिबिंब
है। अगर तुम
अपने भीतर
त्रिकोण की
कल्पना कर सको,
तो आधार में
तो होता है
आनंद, और
अन्य दो
रेखाएं होती
हैं सत् की और
चित् की। यह
पदार्थ के जगत
में, प्रकृति
में
प्रतिबिंबित
होता है।
निस्संदेह, प्रतिबिंबित
होकर वह उलटा
हो जाता है; सत्व और
राजस—तमस वही
त्रिकोण।
तो परम
सत्य कुछ न
करना है—पतंजलि
का सारा का
सारा जोर इसी
पर है। क्योंकि
जब परम सत्य
कुछ करता है, तो वह
कर्ता हो जाता
है औंर वह
संसार में सरक
जाता है।
पतंजलि के योग
में परमात्मा
स्रष्टा नहीं
है, वह तो
केवल
केटेलेटिक
एजेंट मात्र
है। यह बात बहुत
ही वैज्ञानिक
है ,. क्योंकि
अगर परमात्मा
स्रष्टा है तो
फिर इस बात का
कारण खोजना
होगा कि
परमात्मा
सृजन क्यों
करता है? फिर
उसमें सृजन की
आकांक्षा
खोजनी होगी, कि आखिर यह
सृजन करता
क्यों है? तब
तो परमात्मा
मनुष्य की —तरह
ही साधारण हो
जाएगा।
नहीं, पतंजलि
के योग में
परमात्मा परम
है, बस
उसकी शुद्ध
उपस्थिति
मात्र है। वह
कुछ करता नहीं
है, लेकिन
उसकी
उपस्थिति
मात्र से ही
घटनाएं घटने
लगती हैं।
प्रकृति आनंद
से नृत्य करने
लगती है।
एक
पुरानी कहानी
है:
एक बार
एक राजा ने एक
महल बनाया, उस महल का
नाम शीशमहल
था। उसके फर्श
पर, दीवारों
पर, छत पर—चारों
ओर छोटे —छोटे
शीशे ही शीशे
जड़े हुए थे।
पूरा महल ही
शीशे से बना
हुआ था, वह
शीशमहल था। एक
बार ऐसा हुआ
कि गलती से
रात को राजा
का कुत्ता महल
के भीतर ही
छूट गया और महल
के बाहर वाला
लगा दिया गया।
कुत्ते ने जब
अपने चारों ओर
देखा तो वह
घबरा गया, क्योंकि
चारों ओर उसे
कुत्ते ही
कुत्ते दिखाई
दे रहे थे।
वही कुत्ता
चारों ओर, ऊपर
—नीचे
प्रतिबिंबित
हो रहा था—उसे
वहां
कुर्त्ते ही
कुत्ते दिखाई
दे रहे थे। वह
कोई साधारण
कुत्ता तो था
नहीं, वह
राजा का
कुत्ता था—बहादुर
कुत्ता था—लेकिन
फिर भी वह
अकेला था। वह
एक कमरे से
दूसरे कमरे
में दौड़ता रहा,
लेकिन उसे
कहीं कोई
निकलने का
रास्ता ही
नहीं मिल रहा
था, और
निकलने का कोई
उपाय भी नहीं
था। सभी ओर से
महल बंद था।
तो वह और अधिक
घबराने लगा।
उसने बाहर
निकलने का
प्रयत्न भी
किया, लेकिन
बाहर निकलने
का कोई उपाय
ही न था, क्योंकि
दरवाजा बाहर
से बंद था।
तो
उसने अपने
आसपास के
दूसरे
कुत्तों को
डराने के लिए
भौंकना शुरू
कर दिया।
लेकिन जैसे ही
उसने भौंकना
शुरू किया तो
दूसरे कुत्ते
भी भौंकने लगे
—क्योंकि वे
तो उसी का
प्रतिबिंब
थे। फिर तो वह
और भी घबरा
गया। दूसरे
कुत्तों को
डराने के लिए
वह दीवारों से
टकराने लगा।
तो दूसरे
कुत्ते भी
चारों ओर से
उस पर हमला
करने लगे, उससे
टकराने लगे।
सुबह जब उस
महल का दरवाजा
खोला गया, तो
वह कुत्ता मरा
हुआ पाया गया।
लेकिन
जैसे ही वह
कुत्ता मरा, सभी
कुत्ते मर गए।
महल खाली हो
गया। महल में
कुत्ता तो एक
ही था और उसी
के अनेक
प्रतिबिंब
थे।
यही
पतंजलि की
दृष्टि है कि
सत्य तो केवल
एक ही होता है, उसके
लाखों
प्रतिबिंब
होते हैं।
प्रतिबिंब के
रूप में तुम
मुझसे पृथक
हो।
प्रतिबिंब के
रूप में मैं
तुमसे पृथक हूं, लेकिन अगर
हम सत्य की ओर
कदम बढ़ाए तो
सभी पृथकता की
दीवारें विलीन
हो जाएंगी, और हम एक हो
जाएंगे। एक
प्रतिबिंब
दूसरे प्रतिबिंब
से अलग होता
है, एक
प्रतिबिंब को
नष्ट किया जा
सकता है और
दूसरे
प्रतिबिंब को
बचाया जा सकता
है।
इसी
भाति एक
व्यक्ति की
मृत्यु होती
है संसार में
ऐसे बहुत से
तार्किक हैं
जो पूछते हैं,’ अगर केवल
एक ही ब्रह्म
है, एक ही
परमात्मा है,
वह एक ही है
जो सब ओर फैला
हुआ है, तो
फिर जब कोई
मरता है, तब
दूसरे भी
क्यों नहीं मर
जाते?' बात
एकदम सीधी—साफ
है। अगर कमरे
में हजारों
दर्पण हों, तो तुम कोई
एक दर्पण नष्ट
कर सकते हो एक
ही प्रतिबिंब
मिट जाएगा, दूसरे
प्रतिबिंब नहीं
मिटेंगे। तुम
दूसरा
प्रतिबिंब
नष्ट कर दो. दूसरा
प्रतिबिंब
नष्ट हो जाएगा,
अन्य नहीं।
जब कोई एक
व्यक्ति मरता
है, तो
केवल उसका
प्रतिबिंब ही
मरता है।
लेकिन जो उसमें
प्रतिबिंबित
हो रहा है वह
अमर ही रहता है,
उसकी कोई
मृत्यु नहीं
होती। फिर
दूसरा बच्चा पैदा
होता है—अरे’ दर्पण
का जन्म हो
जाता है, फिर
एक और
प्रतिबिंब।
इसी
तरह से यह
कहानी चलती
चली जाती है।
इसीलिए तो
हिंदुओं ने इस
जगत को माया
कहा है माया
का अर्थ है
इंद्रजाल।
वस्तुत: वहां
है कुछ भी
नहीं, केवल
ऐसा भासता है
कि सब कुछ है।
और यह संपूर्ण
जगत एक भांति
है, और
हमारी जो भूल
है वह है
हमारे
तादात्म्य
की।
'पुरुष,
सदचेतना और
सत्व, सदबुद्धि
के बीच अंतर
कर पाने की
अयोग्यता के परिणाम
स्वरूप अनुभव
के भोग का
उदभव होता है।’
पुरुष
प्रकृति में
सत्य के रूप
में प्रतिबिंबित
होता है।
हमारी बुद्धि
तो सच्ची
प्रतिभा का एक
प्रतिबिंब
मात्र है, वह सच्ची
प्रतिभा नहीं
है। कोई
व्यक्ति होशियार
है, तार्किक
है, अंधेरे
में कुछ टटोल
रहा है, विचारक
है, चिंतन —मनन
करने वाला है,
सिद्धांत
निर्मित करने
वाला है, विचार—प्रणालिया
बनाता है —यह
तो केवल मात्र
बुद्धि के ही
प्रतिबिंब
हैं। यह कोई
सच्ची प्रतिभा
नहीं है, क्योंकि
सच्ची
प्रतिभा को
खोजने की कोई
जरूरत नहीं
होती
प्रतिभावान
के लिए तो सब
कुछ पहले से
ही आविष्कृत,
पहले से ही
उदघटित होता
है।
अब
थोड़ा
दर्शनशास्त्र
और धर्म को
देखो। दर्शनशास्त्र
बुद्धि में
प्रतिबिंबित
होता है, सत्व में —वह
सोचता है, और
सोचता है, और
सोचता ही चला
जाता है, और
सोच —विचार के
महल खड़े करता
चला जाता है।
धर्म सरकता है
पुरुष में —वह
इस तथाकथित
बुद्धि को
गिरा देता है,
इसीलिए
ध्यान का पूरा
जोर विचार को
गिरा देने का
होता है।
मैंने
सुना है कि एक
बार ऐसा हुआ:
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
बाजार में एक
छोटे से पक्षी
के आसपास एक
बड़ी भीड को
देखा, जो
उस पक्षी के
लिए बड़ी—बड़ी
कीमतें लगा
रहे थे।’इसमें
कोई संदेह
नहीं कि
पक्षियों और
मुर्गियों की
कीमतें बहुत
ज्यादा बढ़ गयी
हैं,' मुल्ला
ने मन ही मन
में सोचा। वह
घर पहुंचा और थोड़ी
सी भाग—दौड़
करने के बाद
वह एक टर्की
को पकड़ लेने
में सफल हो
गया। बाजार
में. उस टर्की
के दाम केवल
दो चांदी के
सिक्के लगाए
गए।
मुल्ला
ने कहा,’यह तो कोई
न्यायपूर्ण
बात नहीं हुई।
मेरा टर्की इस
छोटे से पक्षी
से सात गुना
अधिक बड़ा है जिसे
कि ढेर सारे
सोने के
सिक्कों में
नीलाम किया
गया था।’
'लेकिन
वह पक्षी तो
तोता था—वह
बोलता है।’
मुल्ला
ने एक नजर उस
टर्की की ओर
देखा जो कि उसकी
बांहों में
पड़ा ऊंघ रहा
था। वह बोला,’मेरा
पक्षी तो
ध्यान करता है।’
टर्की
हो जाओ — ध्यान
करो। सोचना तो
तार्किक ढंग
से सपने देखना
है, वह
तो केवल
शब्दों का
आडंबर है, हवाई
महल है। और कई
बार व्यक्ति
शब्दों के
आडंबर में इतना
फंस जाता है, कि वह
वास्तविकता
को, सच्चाई
को बिलकुल ही
भूल जाता है।
शब्द तो केवल
प्रतिबिंब
हैं।
हम जो
शब्दों के
इतने अधिक
चक्कर में आ
गए हैं उसके
बहुत से
कारणों में से
एक कारण भाषा
है। उदाहरण के
लिए अंग्रेजी
में’ आई' शब्द के
प्रयोग को
गिरा देना
बहुत कठिन है।
अंग्रेजी में
इसका उपयोग
एकदम उपयुक्त
है। अंग्रेजी
का’ आई' शब्द
ऐसा है जो —कि
लगभग लैंगिक
प्रतीक जैसा
है। वह लैंगिक
प्रतीक जैसा
है। इसीलिए ई
ई क्यूमिंग्ज
जैसे लोगों ने’
आई' को
छोटे रूप में
लिखना शुरू कर
दिया। और ऐसा
नहीं है कि जब
इसे लिखते हैं
यह केवल तभी
सीधा होता है,
लैंगिक
होता है। जब
हम’ आई' कहते
भी हैं, तब
भी वह लैंगिक,
सीधा खड़ा और
अहंकारी जैसा
प्रतीत होता
है। थोड़ा
ध्यान देना इस
बात पर कि
हमें दिन में
कितनी बार’ आई'
का प्रयोग
करना पड़ता है।
और जितना अधिक
हम इसका उपयोग
करते हैं, उतना
ही यह
महत्वपूर्ण
होता चला जाता
है, उतना
ही हमारा
अहंकार
प्रगाढ़ होता
चला जाता है —जैसे
कि पूरी की
पूरी
अंग्रेजी
भाषा ही’आई' के आसपास
मंडरा रही हो।
लेकिन
जापानी भाषा
में यह बात
एकदम भिन्न
है। तुम घंटों
बिना आई का
प्रयोग किए
बातचीत कर
सकते हो। बिना’
आई' का
उपयोग किए
पूरी की पूरी
किताब लिखी जा
सकती है, इस
भाषा की अपनी
एकदम अलग ही
व्यवस्था है।
जापानी भाषा
में’ आई' को
बड़ी आसानी से
गिराया जा
सकता है।
अगर
जापान संसार
का सब से
ज्यादा
ध्यानी, मेडीटेटिव देश
हो गया और
उसने झेन के
उच्चतम शिखरों
को छुआ, सतोरी
तथा समाधि के
अनुभवों को
उपलब्ध हुआ, तो इसमें
कोई आश्चर्य
की बात नहीं
है। ऐसा जापान
में क्यों हुआ?
ऐसा बर्मा,
थाईलैंड, विएतनाम में
ही क्यों हुआ?
वे सब देश
जो बुद्ध धर्म
से प्रभावित
हुए, उनकी
भाषा उन देशों
की भाषा से
भिन्न है जो
कि बुद्ध धर्म
के प्रभाव में
कभी नहीं रहे।
क्योंकि
बुद्ध ने कहा
है कहीं कोई’मैं'
नहीं है —अनत्ता,
अनात्म, कहीं
कोई’मैं’ नहीं
है। तो जिन —जिन
देशों में
बुद्ध धर्म का
प्रभाव रहा, वहां की
भाषाओं में
इसका प्रभाव
भी आ गया।
बुद्ध
कहते हैं,’कुछ भी
शाश्वत नहीं
है।’
इसलिए
जब पहली बार
बाइबिल का
अनुवाद बौद्ध
भाषाओं में
किया गया, तो उसका
अनुवाद करना
बहुत कठिन हो
गया। और समस्या
का बुनियादी
कारण यह था कि
इसे कैसे कहा
जाए कि’परमात्मा
है।’ क्योंकि
बौद्ध देशों
में’है’एक
गंदा शब्द है।
सभी कुछ हो
रहा है, है
जैसा कुछ नहीं
है। अगर कहना
हो कि वृक्ष
है, तो
बर्मा की भाषा
में इसे कहा
जाएगा,’वृक्ष
हो रहा है।’ इसका यह
अर्थ नहीं है
कि’वृक्ष है।’
अगर बर्मा
की भाषा में
कहना हो कि’नदी
है,' तो
बर्मा की भाषा
में ऐसा नहीं
कहा जा सकता।
इसे ऐसे कहा
जाएगा’नदी हो
रही है।’
और यह
ठीक भी है, क्योंकि
नदी कभी’है' के रूप में
नहीं होती। वह
हमेशा
प्रक्रिया में
होती है —नदी, नदी के रूप
में बह रही
है। नदी कोई
संज्ञा नहीं
है, वह
क्रिया है।
नदी बह रही है,
नदी हो रही
है। किसी भी
तरह से नदी को
कभी भी उसे ’है’ के
रूप में नहीं
पा सकते। नदी
को पकड़कर नहीं
रखा जा सकता, वह निरंतर
प्रवाहमान है —एक
निरंतर
प्रक्रिया
है। नदी का
चित्र नहीं लिया
जा सकता। और
अगर चित्र
लिया भी तो वह
चित्र झूठा
होगा, क्योंकि
चित्र ’है' का
होगा, ठहरा
हुआ होगा; और
नदी कभी है
नहीं होती, नदी कभी
ठहरी हुई नहीं
होती।
बौद्ध
भाषाओं का
अपना एक अलग
ही ढांचा है, इसलिए वे
एक अलग ही तरह
का मन का
ढांचा बनाती
हैं। और मन पर
भाषा का बहुत
प्रभाव पड़ता
है, मन का
पूरा का पूरा
खेल ही भाषा
के ऊपर ही
चलता है। तो
इसके प्रति
जागरूक रहना।
मैं
तुम से एक कथा
कहना
चाहूंगा। एक
बहुत ही छोटे
से सूफी
समुदाय में
ऐसा हुआ
एक बार
एक महापंडित, जौ कि
व्याकरण का
ज्ञाता था, सूफी लोगों
की सभा के
निकट से गुजरा
और उसने शेख
को कहते हुए
सुना,’इन्द्वीड,
वी आर फ्रॉम
हिम एंड टु
हिम वी विल
रिटर्न।’ असल
में, हम
उसी से आए हैं
और उसी के पास
लौट जाएंगे।
यह बात
सुनकर उस
व्याकरणविद
ने अपने कपड़े
फाड़ दिए और
रोने —चिल्लाने
लगा। उसके इस
कृत्य को
देखकर उसके
चारों ओर लोग
एकत्रित हो गए, और साथ
में चकित भी
थे कि आखिर
उसे हुआ क्या
है? क्योंकि
उसका धर्म की
ओर .कोई झुकाव
ही नहीं था।
यह
देखकर कि उस
कुरान की लाइन
से वह
व्याकरणविद
एकदम आनंदित
अवस्था को
उपलब्ध हो गया
है, उस
शेख ने फिर से
कहा,’इन्दीड,
वी आर फ्रॉम
हिम एंड टु
हिम वी विल
रिटर्न।’ असल
में, हम
उसी से आए हैं,
उसी में लौट
जाएंगे। और
फिर से उस
व्याकरणविद ने
अपना कपड़ा
फाड़ा, अपने
पांव पर लपेटा,
और कराहना
और चिल्लाना
शुरू कर दिया।
जब सभा
समाप्त हुई और
उस
व्याकरणविद
के शरीर पर
थोड़ा भी कपड़ा
शेष न रहा, तो शेख
उसे एक कोने
में ले गया, उसके चेहरे
पर पानी डाला
और बोला,’ श्रीमान,
कृपया मुझे
बताएं
कि उस
कुरान की लाइन
से आपको ऐसा
क्या हुआ कि आपने
अपने कपड़े फाड़
डाले और रोएं—चिल्लाए?'
'आखिर
ऐसा क्यों
नहीं होता!' उस
व्याकरणविद
ने जोर से कहा,’
अपने पूरे
जीवन अपने
भाषण और लेखों
में, और
सभी वर्तमान
और अतीत के
विद्वान
प्रथम पुरुष
बहुवचन के साथ’शैल'
का प्रयोग
करते हैं’विल'
का नहीं। और
जैसा कि आपने
कहा,’टु
हिम वी विल
रिटर्न!'
प्रश्न
’विल' और ’शैल'
का था—'विल'
का प्रयोग
ठीक नहीं है!
यह बात
हमें बहुत ही
बेतुकी और
व्यर्थ लगती
है, पागलपन
की मालूम होती
है। लेकिन
हमारे चारों ओर
यही तो हो रहा
है। अगर बुद्ध
तुम्हारे पास आकर
कहें,’कहीं
कोई परमात्मा
नहीं है,' तो
तुम तुरंत
बेचैन, परेशान
और चिंतित हो
जाओगे। बुद्ध
क्या कह रहे
हैं? बुद्ध
ने केवल इतना
ही कहा है जो
तुम्हारे
भाषागत ढांचे
का विपरीत
पड़ता है, बस
इतना ही। अगर
बुद्ध कहते,’नहीं, कोई
आत्मा नहीं है,
कोई मैं
नहीं है,' तो
तुम बेचैन हो
जाते। बुद्ध
ने ऐसा क्या
कह दिया है? बुद्ध ने
केवल
तुम्हारे
अहंकार की
तरकीब को छीन
लिया है, और
कुछ नहीं किया
है। उन्होंने
तो बस
तुम्हारे
भाषागत ढांचे
को छिन्न—भिन्न
कर दिया है।
यहां
पर हर रोज यही
हो रहा है। जब
मैं कुछ कहता
हूं —और
तुम्हारे
किसी भाषागत
ढांचे को तोड़
देता हूं तो
तुम परेशान हो
जाते हो, तुम क्रोधित
हो जाते हो।
अगर तुम ईसाई
हो, तो
निस्संदेह
तुम उसी भाषा —शैली
का उपयोग करोगे।
अगर तुम हिंदू
हो, तो तुम
उसी तरह की
भाषा—शैली का
उपयोग करते
हो। मैं इन
में से कुछ भी
नहीं हूं। और
मैं यहां पर
तुम्हारे सभी
भाषागत ढांचों
को मिटा देने
के लिए हूं।
तब तो तुम बहुत
ही क्रोध से
भर जाते हो, परेशान हो
जाते हो। फिर
तुम सोचने
लगते हो कि अब
हम क्या करें?
लेकिन
मैं क्या कर
रहा हूं। मैं
तुमसे छीन क्या
सकता हूं? अगर
तुमने
परमात्मा को
पा लिया है, तो क्या
बुद्ध तुमसे
परमात्मा को
छीन सकते हैं—क्या
वे तुमसे
परमात्मा ले
सकते हैं? तब
तो फिर
परमात्मा के
होने का
प्रश्न ही
नहीं है।
लेकिन वे
तुम्हारे
किसी भाषागत सिद्धांत
को छीन सकते
हैं; वे
तुमसे
तुम्हारी
परिकल्पनाएं
ले सकते हैं।
'पुरुष,
सदचेतना और
सत्व, सदबुद्धि
के बीच अंतर
कर पाने की
अयोग्यता के परिणाम
स्वरूप अनुभव
के भोग का
उदभव होता है......।’
भाषा
का संबंध सत्व
से है, सिद्धातों
का संबंध सत्व
से है, दर्शन
का संबंध सत्व
से है। सत्व
का अर्थ होता
है बुद्धि, मन। लेकिन
तुम मन नहीं
हो।
ईसाइयत, हिंदुत्व,
जैन, बौद्ध,
इनका संबंध
मन से है।
इसीलिए तो
बौद्ध भिक्षु कहते
हैं, अगर
बुद्ध
तुम्हें कहीं
रास्ते पर मिल
जाएं, तो
तुरंत उनकी
हत्या कर
देना। बौद्ध
भिक्षु ऐसा
क्यों कहते
हैं? वे
कहते हैं, अगर
बुद्ध
तुम्हें मिल
जाएं, तो
तुरंत उनकी
हत्या कर
देना। वे कह
रहे है, मन
की हत्या कर
देना। इम
बुद्ध के
संबंध में सिद्धांत
इत्यादि मत
ढोना, अन्यथा
तुम कभी बुद्ध
न हो सकोगे।
अगर तुम बुद्ध
होना चाहते हो,
तो बुद्ध के
संबंध में सभी
धारणाएं, सभी
विचार गिरा
दो। बुद्ध की
हत्या ’कर दो!
वे कहते हैं,’ अगर तुम
बुद्ध का नाम
भी लेते हो, तो तुरंत
अपना मुंह धो
लेना—वह शब्द
ही गंदा है।’
बौद्ध
भिक्षु यह
कैसे कह देते
हैं? वे
बड़े गजब के
लोग हैं सच
में ही अदभुत
लोग हैं। और
उनके इस कहने
में, उनकी
इस बात में सच
में ही दम है।
अगर तुम उनकी
इस बात को समझ
सकते हो तो और
भी बहुत सी
बातें समझ में
आ सकती हैं।
बोधिधर्म
कहता है,’सभी
धर्मशास्त्रों
में आग लगा दो—यहां
तक कि बुद्ध
के
धर्मशास्त्रों
में भी आग लगा दो।’
केवल वेदों
में ही नहीं, धम्मपद भी
उसमें
सम्मिलित है,
उसमें भी आग
लगा दो —सभी
धर्मशास्त्रों
में आग लगा
दो। लिन—ची की
एक बहुत ही
प्रसिद्ध
पेंटिंग, सारे
धर्मशास्त्रों
की होली जलाते
हुए की है। और
सच में उनकी
बात में गहराई
थी। वे क्या
कर रहे थे? वे
तो बस तुम से
तुम्हारा मन
छीन ले रहे
थे। तुम्हारा
वेद कहां है? वह शास्त्रों
में नहीं है, वह तुम्हारे
मन में है।
तुम्हारा
कुरान कहां है?
वह
तुम्हारे मन
में है, वह
शास्त्र में
नहीं है। वह
तुम्हारे मन
के टेप में
है। उन सभी को
गिराकर, उनके
बाहर हो जाओ।
बुद्धि, मन
प्रकृति का
अंश है। वह तो
केवल
प्रतिबिंब ही
है। वह लगता
सत्य की भाति
है, लेकिन
ध्यान रहे, चाहे कितना
ही सत्य की
भांति लगे, फिर भी वह
सत्य नहीं
होता है। यह
तो ऐसे ही है, जैसे
पूर्णिमा की
रात को शांत —शीतल
झील में चांद
का प्रतिबिंब
दिखाई पड़ता हो।
झील में जब
कोई लहर नहीं
उठती है, तो
प्रतिबिंब
एकदम पूरा
होता है, लेकिन
फिर भी वह
होता
प्रतिबिंब ही
है। और अगर
प्रतिबिंब
इतना सुंदर है,
तो जरा सोचो
वास्तविकता
में वह कितना
सुंदर न होगा।
इसलिए
प्रतिबिंब
में ही उलझकर
मत रह जाना।
बुद्ध
जो कहते हैं, वह
प्रतिबिंब
है। पतंजलि जो
लिखते हैं, वह
प्रतिबिंब
है। जो मैं कह
रहा हूं वह
प्रतिबिंब
है। उस
प्रतिबिंब को
ही पकड़कर मत
बैठ जाना। अगर
प्रतिबिंब
इतना सुंदर है,
तो फिर थोड़ा
सत्य के लिए
भी प्रयास
करना। प्रतिबिंब
से हटकर असली
चांद की ओर
बढ़ना।
और
मार्ग
प्रतिबिंब के
ठीक विपरीत
है। अगर तुम
प्रतिबिंब को
ही देखते हो
और प्रतिबिंब
से ही
सम्मोहित हो
जाते हो, तो आकाश का
चांद कभी नहीं
देख सकोगे, क्योंकि वह
तो एकदम
विपरीत छोर पर
है। अगर वास्तविक
चांद को देखना
हो, तो
प्रतिबिंब से
दूर हटना
पड़ेगा—सभी
धर्मशास्त्रों
की होली जला
देनी होगी, और बुद्ध की
हत्या कर देनी
होगी। एकदम
विपरीत आयाम
की ओर, एकदम
विपरीत छोर की
ओर बढ़ना होगा।
तब कहीं जाकर
सिर चांद की
ओर उठता है; तब
प्रतिबिंब को
नहीं देखा जा
सकता है। फिर
तो प्रतिबिंब
गायब ही हो
जाता है।
सारे
के सारे
धर्मशास्त्र
अधिक से अधिक
बुद्धि को
प्रशिक्षित
और अनुशासित
कर सकते हैं।
कोई भी
धर्मशास्त्र
सत्य की ओर, उस शुद्ध
पुरुष की ओर—जो
साक्षी है, जो जागरूकता
है, उसकी
ओर नहीं ले जा
सकता है।
'पुरुष,
सदचेतना और
सत्व, सदबुद्धि
के बीच अंतर
कर पाने की
अयोग्यता.....।’
यही है
वास्तविक
कारण अज्ञान
में, अंधकार
में, संसार
में, पदार्थ
में भटकने का।
स्वयं की
वास्तविकता से
दूर हटने का, और अपनी ही
धारणाओं और
प्रक्षेपणों
का शिकार हो
जाने का।
'……..यद्यपि
ये तत्व
नितांत भिन्न
हैं।’
तुम
इसे देख भी
सकते हो। यहां
तक कि अच्छे
से अच्छा
विचार भी तुम
से भिन्न होता
है, अलग
होता है —इसे
अपने भीतर
उठने वाले
विषय —वस्तु
की भांति देखा
भी जा सकता
है। अच्छे से अच्छा
विचार भी भीतर
किसी वस्तु की
तरह ही बना
रहता है, और
तुम उससे कहीं
दूर खड़े रहते
हो। जैसे किसी
ऊंची पहाड़ी पर
खड़ा सजग
द्रष्टा, नीचे
किसी विचार की
ओर देख रहा
हो। कभी भी
किसी विषय—वस्तु
के साथ
तादात्म्य मत
बना लेना।
'स्वार्थ
पर संयम
संपन्न करने
से अन्य ज्ञान
से भिन्न
पुरुष ज्ञान
उपलब्ध होता
है।’
स्वार्थसंयमात्युरुष
ज्ञानम्।
पतंजलि
कह रहे हैं,’स्वार्थ
परम ज्ञान ले
आता है।’
स्वार्थ।
स्वार्थी हो
जाओ, यही
है धर्म का
वास्तविक
मर्म। यह
जानने का प्रयास
करो कि
तुम्हारा
वास्तविक
स्वार्थ क्या
है। स्वयं को
दूसरों से अलग
पहचानने का
प्रयास करो —परार्थ,
दूसरों से
अलग। और यह मत
सोचना कि जो
लोग तुम से
अलग हैं, बाहर
हैं, वही
दूसरे हैं। वे
तो दूसरे हैं
ही लेकिन तुम्हारा
शरीर भी दूसरा
है। एक दिन
तुम्हारा
शरीर भी
मिट्टी में
मिल जाएगा; शरीर भी इस
पृथ्वी का ही
अंश है।
तुम्हारी श्वास
भी तुम्हारी
नहीं है, वह
भी दूसरों के
द्वारा दी हुई
है; वह हवा
में वापस लौट
जाएगी। बस, कुछ थोड़े
समय के लिए ही
तुम्हें
श्वास दी गयी है।
वह श्वास उधार
मिली हुई है
तुम्हें उसे
लौटाना ही
होगा। तुम यहां
नहीं रहोगे, लेकिन
तुम्हारी
श्वास यहां
हवाओं में
रहेगी। तुम
यहां नहीं
रहोगे, लेकिन
तुम्हारा
शरीर पृथ्वी
में रहेगा—मिट्टी
मिट्टी में
मिल जाएगी।
जिसे अभी तुम
अपना रक्त
समझते हो, वह
नदियों में
प्रवाहित हो
रहा होगा। सभी
कुछ यहीं
समाहित हो
जाएगा।
लेकिन
एक चीज तुमने
किसी से उधार
नहीं ली है और
वह है
तुम्हारा
साक्षी भाव, वह है
तुम्हारी
जागरूकता।
बुद्धि खो
जाएगी, तर्क
खो जाएगा। यह
सभी ऐसे ही
हैं जैसे आकाश
में बादल आते
हैं वे आते
हैं और फिर
चले जाते हैं,
लेकिन आकाश
वही का वही
रहता है। तुम
विराट आकाश की
भांति ही बने
रहोगे। वही
अनंत विराट
आकाश पुरुष है
—अंतर— आकाश ही
पुरुष है।
इस
अंतर— आकाश को
कैसे जाना जा
सकता है? इसके लिए
स्वार्थ में
संयम
प्रतिष्ठित
करना होता है।
धारणा, ध्यान,
समाधि इन
तीनों को
आत्मा पर
केंद्रित कर
दो— भीतर की ओर
मुड़ जाओ।
पश्चिम में
लोग बाहर की ओर
ही भाग रहे
हैं—तुम हमेशा
बाहर की ओर ही
भागते हो।
भीतर मुड़ो।
अपने चैतन्य
को केंद्रीय
बिंदु तक ले
आना होगा।
विषय —वस्तु
के बीच की
भिन्नता को
पहचानना
होगा। जब भूख
लगे — भूख एक
विषय है। फिर
तुमने भोजन कर
लिया और भोजन
करके संतुष्ट
हो गए, तो
एक प्रकार का
सुख मिलता है —यह
सुख की
प्राप्ति भी
एक तरह का
विषय है। सुबह
होती है —यह भी
एक विषय है।
सांझ होती है —यह
भी एक विषय
है। तुम वैसे
ही रहते हो —
भूख हो या न हो,
जीवन हो या
मृत्यु हो, दुख हो या
सुख हो, तुम
उसी भांति
साक्षी बने
रहते हो।
लेकिन
हम तो फिल्म
देखते —देखते
उसके साथ भी
तादात्म्य
स्थापित कर
लेते हैं। यह
मालूम होते हुए
भी कि वहां पर
केवल सफेद
पर्दा है और
कुछ भी नहीं
है, उसके
ऊपर कुछ
छायाएं आ जा
रही हैं।
लेकिन तुम ने
सिनेमाघर में
बैठे लोगों को
देखा है न? जब
पर्दे पर कोई
दुखद घटना
घटती है तो
कुछ लोग रोने
लगते हैं, उनके
आंसू बहने
लगते हैं।
देखो, पर्दे
पर कुछ भी
वास्तविक रूप
से नहीं घट
रहा है; लेकिन
फिर भी आंसू
आने लगते हैं।
पर्दे पर कुछ
छायाएं आ —जा
रही हैं, जो
कि सच नहीं
हैं, जो कि
झूठ हैं, आंसू
लाने का कारण
बन जाती हैं।
किसी कहानी को
पढ़ते —पढ़ते
लोग उत्तेजित
हो जाते हैं, या किसी
नग्न स्त्री
का चित्र
देखकर कामुक
हो जाते हैं।
जरा सोचो तो, कुछ भी वहां
पर वास्तविक
नहीं है। कुछ
थोड़ी सी पंक्तियां
—और कुछ भी
नहीं हैं।
कागज पर थोड़ी
सी स्याही फैली
हुई है। लेकिन
उनकी
कामवासना
जाग्रत हो जाती
है।
यह मन
की प्रवृत्ति
है वह विषय —वस्तुओं
के साथ
तादात्म्य
स्थापित कर
लेता है, उनके साथ एक हो
जाता है।
जब भी
कभी विषय—वस्तुओं
के साथ
तुम्हारा
तादात्म्य
स्थापित हो, तो अधिक
से अधिक
जागरूक हो
जाना और स्वयं
को रंगे हाथों
पकड़ लेना। जब
भी कभी ऐसा हो,
स्वयं को
रंगे —हाथों
पकड़ लेना और
विषय —वस्तुओं
को गिरा देना।
तब
तुमको एक तरह
की शाति का
अनुभव होगा, तुम्हारे
सभी आवेश, सभी
उद्वेग जा
चुके होंगे।
जिस क्षण इस
बात का बोध हो
जाता है कि
केवल एक पर्दा
ही है और कुछ भी
नहीं है, तो
आखिर क्यों
इतने आवेश और
उत्तेजना में
पड़ना, किसलिए
संपूर्ण
संसार ही एक
पर्दा है —और
जो कुछ भी
वहां दिखाई दे
रहा है, वह
हमारी स्वयं
की ही इच्छाओं
का प्रक्षेपण
है, और
हमारी जो आकांक्षा
होती है, वही
उस पर्दे पर
प्रक्षेपित
हो जाती है और
हम उसमें ही
भरोसा करने
लगते हैं। यह
सारा संसार एक
स्वप्न है, भ्रांति है,
माया है।
और
स्मरण रहे, सब का
संसार एक जैसा
नहीं होता। हर
एक व्यक्ति का
अपना अलग संसार
है, अपनी
अलग दुनिया
है। क्योंकि
सभी के स्वप्न
दूसरे के
स्वप्न से
भिन्न होते
हैं। सत्य एक
है लेकिन
स्वप्न उतने
ही हैं जितने
मन हैं।
अगर
व्यक्ति अपने
ही मन के
स्वप्नों में
खोया रहता है, तब वह
दूसरे
व्यक्ति के
साथ संपर्क
स्थापित नहीं
कर सकता, दूसरे
व्यक्ति के
साथ नहीं जुड़
सकता है। फिर
दूसरे के साथ
कोई संबंध
नहीं बन सकता
है। तब वह
अपने ही स्वप्न
लोक में खोया
रहता है। यही
तो होता है जब
हम किसी से
संबद्ध होना
चाहते हैं, तब हम
संबद्ध नहीं
हो पाते। किसो
न किसी तरह हम
एक दूसरे को
चूकते चले
जाते हैं।
प्रेमी —प्रेमिका
,. पति —
पत्नी, मित्र
इसी तरह से एक
दूसरे को चूक
जाते हैं, और
चूकते ही चले
जाते हैं। और
साथ ही उन्हें
चिंता भी
सताती है कि
वे लोगों के
साथ संबंधित क्यों
नहीं हो पाते
हैं। वे कहना
कुछ चाहते हैं,
लेकिन
सामने वाला
कुछ और ही
समझता है। और
फिर वे कहे
चले जाते हैं
कि’मेरा यह
मतलब नहीं था,'
लेकिन फिर
भी सामने वाला
व्यक्ति कुछ
और ही सुनता
है। ऐसा क्यों
होता है? क्योंकि
सामने वाला
व्यक्ति जीता
है अपने स्वप्न
में, तुम
जीते हो अपने
स्वप्न में।
वह उसी पर्दे
पर कोई और
फिल्म
प्रक्षेपित
कर रहा होता
है, और तुम
उसी पर्दे पर
कोई और फिल्म
प्रक्षेपित
करते हो।
इसीलिए
तो सभी तरह के
संबंध तनाव और
पीड़ा बन जाते
हैं। तब
व्यक्ति को
लगता है कि
अकेले होना ही
अच्छा और
सुखपूर्ण है।
और जब कभी
किसी के साथ
रहना पड़े तो
ऐसा लगता है
जैसे किसी
कीचड़ में फंस
रहे हैं, नर्क में जा
रहे हैं। जब
सार्त्र कहता
है कि दूसरा
नर्क है, तो
वह यह अपने
अनुभव से कह
रहा है। लेकिन
दूसरा हमारे
लिए नर्क
निर्मित नहीं
करता है, बस
दो स्वप्न स्व—दूसरे
से टकरा जाते
हैं, स्वप्न
के दो संसार
एक —दूसरे से
संघर्ष में पड़
जाते हैं।
दूसरे
के साथ संबंध
केवल तभी संभव
होता है जब
व्यक्ति
स्वयं के
स्वप्न के
संसार को गिरा
देता है और
दूसरा
व्यक्ति भी
अपने स्वप्न
के संसार को
गिरा देता है।
तब वे एक
दूसरे से संबंध
स्थापित
कर सकते हैं—और
तब फिर वे दो
नहीं रह जाते, क्योंकि
वह दुई, वह
द्वैत स्वप्न
के संसार के
साथ ही गिर
जाता है। तब
वे एक हो जाते
हैं।
जब दो
बुद्धपुरुष
एक दूसरे के
सामने होते
हैं, तो
वे दो नहीं
होते। इसीलिए
कभी दो
बुद्धपुरुषों
को वार्तालाप
करते हुए नहीं
देखा गया—क्योंकि
वहां पर
वार्तालाप के
लिए दो मौजूद
ही नहीं होते।
वे मिलते भी
हैं तो शांत
और मौन ही बने
रहते हैं।
ऐसी
बहुत सी कथाएं
मिलती हैं, जब
महावीर और
बुद्ध जीवित
थे — वे दोनों
समकालीन थे और
वे एक छोटे से
प्रांत बिहार
में भ्रमण
करते थे।
बिहार प्रांत
को बिहार इन
दोनों
बुद्धपुरुषों
के कारण ही
कहा जाता है’ बिहार
यानी विहार, जिसका अर्थ
होता है भ्रमण
करना।
क्योंकि बुद्ध
और महावीर
दोनों पूरे
बिहार में
घूमते रहते थे,
तो यह प्रात
उनके भ्रमण का
स्थान कहलाने
लगा। लेकिन वे
कभी भी मिले
नहीं। कई बार
ऐसा हुआ कि वे
एक ही नगर में
होते थे; नगर
कोई बहुत बड़ा
भी नहीं होता
था। कई बार वे
छोटे से गांव
में साथ—साथ
ठहरे होते थे।
एक बार तो ऐसा
हुआ कि वह एक
ही धर्मशाला
में ठहरे थे, लेकिन फिर
भी उनकी आपस
में एक दूसरे
से भेंट न हुई।
अब
सवाल यह उठता
है कि ऐसा
क्यों होता है? और अगर
तुम बौद्धों
से या जैनों
से पूछो कि बुद्ध
और महावीर एक
ही गांव, एक
ही धर्मशाला
में ठहरे होते
थे, फिर भी
वे एक—दूसरे
से क्यों नहीं
मिले, तो
उन्हें थोड़ी
परेशानी और
बेचैनी अनुभव
होती है। यह
प्रश्न बेचैन
करने वाला है,
क्योंकि
इससे तो यही
लगता है कि वे
बड़े अहंकारी
रहे होंगे? कि कौन
किसके पास जाए?
बुद्ध जाएं
महावीर के पास
कि महावीर
जाएं बुद्ध के
पास? और
दोनों में से
कोई भी ऐसा
नहीं कर सकता
था। तो जैन और
बौद्ध इस
प्रश्न से बचते
हैं —उन्होंने
कभी इस प्रश्न
का उत्तर नहीं
दिया।
लेकिन
मैं जानता हूं
कि वे आपस में
एक दूसरे से
क्यों नहीं
मिले और कारण
यह है कि
मिलने के लिए
वहां पर दो
व्यक्ति
मौजूद ही नहीं
थे। यह अहंकार
की बात नहीं
है। इतना ही
कि वहां दो
व्यक्तियों
की मौजूदगी ही
नहीं थी! दो
शन्यताएं एक
ही धर्मशाला
में ठहरी हुई
हों तो क्या
होगा? उन्हें
कैसे करीब
लाया जा सकता
है? और अगर
वे एक —दूसरे
से मिलेंगे भी,
तो वे दो
नहीं रहेंगे।
केवल वहा एक
ही शून्यता
होगी। जब दो
शून्य मिलते
हैं, तो एक
शून्य रह जाता
है।
'स्वार्थ
पर संयम
संपन्न करने
से अन्य ज्ञान
से भिन्न
पुरुष ज्ञान
उपलब्ध होता
है।’
ततः
प्रातिभश्रावणवेदनादर्शास्वादवार्ता
जायन्ते।
'इसके
पश्चात
अंतबोंधयुक्त
श्रवण, स्पर्श,
दृष्टि, आस्वाद
और आघ्राण की
उपलब्धि चली
आती है।’
फिर से
इस प्रतिभा
शब्द को समझ
लेना। जो
व्यक्ति
परिपूर्ण
ध्यान को उपलब्ध
हो जाता है, परिपूर्ण
जागरूकता, होश
को उपलब्ध हो
जाता है, परिपूर्ण
अंतर
स्पष्टता, निर्दोषता
को उपलब्ध हो
जाता है, वह
व्यक्ति
प्रतिभा को
उपलब्ध हो
जाता है। प्रतिभा
अंतरबोध नहीं
है। बुद्धि है
सूर्य; अंतरबोध
है चंद्र, प्रतिभा
इन दोनों का
अतिक्रमण है।’पुरुष
बौद्धिक होता
है, स्त्री
अंतरबोध से
जीती है; लेकिन
बुद्धपुरुष, न तो पुरुष
होता है न
स्त्री होता
है।
अगर
कोई व्यक्ति
बुद्धि से
जीता है, तो वह
आक्रामक
होगा। बुद्धि
आक्रामक होती
है, सूर्य —ऊर्जा
आक्रामक होती
है। इसीलिए
हमने कभी नहीं
सुना कि किसी
स्त्री ने किसी
पुरुष का बलात्कार
किया हो। यह
असंभव है।
केवल : पुरुष
ही स्त्री का
बलात्कार कर
सकता है। सूर्य
—ऊर्जा
आक्रामक होती
है, चंद्र—ऊर्जा
ग्राहक होती
है। बुद्धि
आक्रामक होती है;
अंतरबोध
ग्राहक होता
है। अगर
तुममें ग्राहकता
है, ग्रहण
करने की
क्षमता है, तो तुम
अंतरबोध से
जुड़ जाओगे।
फिर वे चीजें
दिखाई पड़ने
लगती हैं, जिन्हें
एक बुद्धि से
जीने वाला
व्यक्ति कभी नहीं
देख सकता, क्योंकि
वह खुला हुआ
नहीं होता है।
और
मजेदार बात यह
है कि बुद्धि
से जीने वाला
आदमी उन्हीं
की खोज में होता
है और अंतरबोध
वाला आदमी
उनकी तलाश में
नहीं होता है, लेकिन
फिर भी उन्हें
देख सकता है।
सच तो यह है, सभी बड़े —बड़े
आविष्कार
बौद्धिक
लोगों से ही
संपन्न हुए
हैं —लेकिन वे
आविष्कार तभी
संभव हो सके
हैं जब वे अंतरबोध
की भाव दशाओं
में होते थे।
बड़े —बड़े
आविष्कार अंतरबोध
से संचालित
लोगों के
द्वारा नहीं
हो पाते हैं, क्योंकि
उन्हें उनकी
खोज नहीं
होती। अगर वे
उसके निकट भी
आ जाएं, अगर
वे उनके ठीक
सामने भी आ
जाएं, तो
भी वे उनको
भूल जाते हैं।
इसी
कारण तो
स्त्रियां
कभी कोई
आविष्कार नहीं
कर पाईं। ऐसा
नहीं है कि
उनके साथ उस
तरह की घटनाएं
कभी घटित नहीं
हुईं —पुरुषों
की अपेक्षा वे
घटनाएं उनके
साथ अधिक घटित
होती हैं।
थोड़ा इस बात
पर कभी गौर
करना। यहां.
तक कि पाक —विज्ञान, भोजन—शास्त्र
भी पुरुषों
द्वारा
विकसित हुआ है,
स्त्रियों
के द्वारा
नहीं। सभी
अच्छे रसोइए पुरुष
हैं। कम से कम भोजन
के क्षेत्र
में तो ऐसा
नहीं होना
चाहिए था।
लेकिन सभी बड़े
—बड़े होटल, पाच
सितारा होटल,
प्रसिद्ध
होटल किसी
स्त्री को
अपने यहां
रसोइया नहीं.
रखते हैं।
स्त्रिया
वर्षों से भोजन
पका रही हैं, लेकिन पाक —शास्त्र
से संबंधित
सारी खोजें, सब नए
प्रयोग
पुरुषों ने किए
हैं। ऐसा नहीं
है कि वे
आविष्कार
नहीं कर सकती
हैं —वे कर
सकती हैं —लेकिन
वे तो केवल
ग्रहणशील
होती हैं। कई
बार ऐसी
परिस्थिति
आती है जब वे
कुछ आविष्कार
कर सकती हैं, लेकिन वह
ऐसे ही चली
जाती है, वे
उस ओर ध्यान
ही नहीं देती
हैं।
जो
बौद्धिक होते
हैं, जो
लोग बुद्धि से
जीते हैं, वे
निरंतर
खोजबीन में
लगे रहते हैं,
हर जगह कुछ
न कुछ खोजते
रहते हैं; वे
कोई सी भी बात
ऐसी नहीं
चाहते हैं, जो बिना
प्रकट हुए, बिना उघडी
रह जाए। वे हर
कोने —कातर को
उघाड़ने की
कोशिश में लगे
रहते हैं। मनस्विदों
का कहना है कि
सभी
वैज्ञानिक
खोजों का कारण
पुरुष की काम —ऊर्जा
है।
तुम
किसी छोटे लड़के
को कोई खिलौना
पकड़ा दो 0 कुछ
मिनट में ही
वह खिलौना टूट—फूट
जाएगा; वह बच्चा उस
खिलौने को
खोलेगा, उसे
देखेगा। वह उस
खिलौने के
भीतर देखना
चाहता है कि
वहॉं है क्या।
तुम किसी छोटी
लड़की के हाथ
में खिलौना दे
दो वह वर्षों
तक उसे
सम्हालकर
रखेगी। वह उसे
अलमारी में
रखकर, ताला
लगा देगी; या
उस खिलौने को
सजाएगी—संवारेगी।
लेकिन अगर
लड़का हुआ तो
वह तुरंत उसे
तोड़—फोड़ देगा।
वह उसे खोलकर
देखना चाहता
है कि खिलौना
कैसे बना? वह
जानना चाहता
है कि यह
खिलौना कैसे
चलता है? वह
उसकी गहराई
में उतरना
चाहता है, वह
पूरी खोज—बीन
कर लेना चाहता
है।
पूरा
का पूरा
विज्ञान एक
ढंग से पुरुष
की काम— भावना
ही है —खोजते
जाना, खोजते
जाना, और
सभी चीजों का
आवरण हटा देना
है।
मैं
तुम से एक कथा
कहना चाहूंगा:
एक
बहुत ही कठिन
कार्य के दौरे
के बाद, नौ —सैनिक दल
की एक टुकड़ी
को आराम करने
के लिए भेज
दिया गया।
सैनिक अड्डे
पर उस नौ —सैनिक
दल को स्त्री
नौ —सैनिकों
की एक टुकड़ी
मिली जो कि
विभिन्न कार्यों,
स्थानों की
नियुक्ति के
लिए
प्रतीक्षारत
थी। नौ —सेना
के कर्नल ने
स्त्रियों की
कमांडर को चेतावनी
दी कि उसके
सैनिक बहुत
समय से मोर्चे
के क्षेत्र
में रहे हैं, तो शायद
स्त्रियों के
प्रति उनका
रवैया ज्यादा
अच्छा न होगा।
उस कर्नल ने
चेतावनी दी,’ अगर तुम्हें
कोई आफत मोल न
लेनी हो तो
उन्हें बाहर
से बंद कर
देना।’
स्त्रियों
की कमांडर
कटाक्ष करते
हुए बोली,’ आफत, परेशानी?
कोई आफत आने
वाली नहीं है।
उसने अपनी
खोपड़ी की ओर
इशारा करते
हुए कहा, मेरी
सैनिक
स्त्रियों
में बुद्धि है।’
कर्नल
चिल्लाया,’मैडम!
इससे कुछ अंतर
नहीं पड़ता है
कि यह बात उनमें
कहां है। मेरे
पुरुष सैनिक
उसे ढूंढ ही
निकालेंगे।
कृपया, उन्हें
ताले में ही
बंद करके
रखें!'
मनुष्य
जाति की पूरी
की पूरी
कामुकता
आक्रामकता और निष्क्रियता
में बंटी हुई
है। इसीलिए तो
स्त्री पुरुष
से ज्यादा
शक्तिशाली है, लेकिन
फिर भी हमेशा
पुरुष से दबी
रही है। स्मरण
रहे, स्त्री
पुरुष से कई
रूपों में
अधिक
शक्तिशाली
है। पुरुष की
अपेक्षा
स्त्री
ज्यादा समय तक
जीवित रहती है,
औसतन पाच
वर्ष ज्यादा
जीवित रहती
है। अगर पुरुष
पचहत्तर वर्ष
जीता है, तो
स्त्री अस्सी
वर्ष तक जीती
है। और वह
पुरुष की
अपेक्षा कहीं
अधिक स्वस्थ
जीवन जीती है’ कम
बीमार पड़ती है,
बीमार भी
होती है तो
पुरुष से
जल्दी ठीक हो
जाती है।
लेकिन
फिर भी स्त्री
को दबाया गया, उस पर
अत्याचार किए
गए। स्त्री
में पुरुष से
अधिक
प्रतिरोधक
शक्ति होती है,
वह अधिक
लचीली होती है,
अधिक जीवंत
होती है, वह
बच्चे को जन्म
देती है और
फिर भी जीवित
बच रहती है —वह
अपने शरीर से
दूसरों को
जन्म देती है,
इस तरह से
अपने जीवन से
वह दूसरे को
भी जीवन बाटती
है, दूसरों
को भी सहभागी
बनाती है और
फिर भी बहुत ही
सुंदर ढंग से
जीवित रहती
है। स्त्री
अधिक शक्तिशाली
होती है —शारीरिक
रूप से वह
अधिक
शक्तिशाली न
भी हो। और फिर
कोई मांस —पेशी
का मजबूत होना
ही तो
शक्तिशाली
होने की एकमात्र
कसौटी तो नहीं
है —लेकिन फिर
भी स्त्री को
दबाया गया है,
क्योंकि
स्त्री निष्क्रिय.
है, ग्रहणशील
है, ग्राहक
है। स्त्री की
ऊर्जा
आक्रामक नहीं
होती —उसकी
ऊर्जा में
आमंत्रण अधिक
होता है, वह
आक्रामक नहीं
होती है।
पुरुषों
के लिए बुद्धि
से जीना आसान
होता है, क्योंकि
बुद्धि भी उसी
दिशा में गति
करती है, जिसमें
आक्रामकता, तार्किकता
गति करती है।
स्त्रियां
अधिक अंतर्बोध
से जीती हैं, वे अपनी अंतस
प्रेरणा से
जीती हैं।
स्त्रियां
तुरंत निर्णय
ले लेती हैं —इसीलिए
किसी भी
स्त्री के साथ
तर्क करना
बहुत कठिन है।
वह पहले से ही
निर्णय पर
पहुंच जाती है,
तर्क करने
की कोई जगह ही
नहीं बचती।
स्त्री के साथ
तर्क करना
अपना समय नष्ट
करना है। वह
हमेशा पहले से
ही जानती है
कि अंतिम
परिणाम क्या होने
वाला है। वह
तो केवल
परिणाम की
घोषणा की प्रतीक्षा
में रहती है।
तुम किसी भी
ढंग से स्त्री
से तर्क करो
सब व्यर्थ
होने वाला है।
वह पहले से ही
परिणाम के
संबंध में
सुनिश्चित
होती है
अंतर्बोध, निश्चयात्मक
होता है।
इसीलिए
स्त्रियों .को
पहले से ही
दूर का बोध हो
जाता है।
स्त्रियां
ज्यादा दिव्य
दृष्टि
संपन्न होती
हैं, और
स्त्रियों को
बहुत सी
अंतर्बोध की
घटनाएं घटित
होती हैं।
सम्मोहन, टेलीपेथी,
अतीन्द्रिय
दृष्टि, अतीन्द्रिय
श्रवण यह सब
स्त्रियों के
जगत से संबंधित
हैं। इसी से
संबंधित मैं
तुम्हें एक बात
बताना
चाहूंगा।
जादू—टोने
की कला
स्त्रियों की
कला —कौशल रही
है। इसीलिए
इसे जादू —टोना
कहते हैं।
जादूगरनियों
का सारा संसार
अंतर्बोध से
जुड़ा रहा है।
पंडित —पुरोहित
इस जादू —टोने
की कला के
विरोध में थे, क्योंकि
उनका तो पूरा
संसार ही
बुद्धि से जुड़ा
हुआ था। स्मरण
रहे, जादू —टोने
से संबंधित
लगभग सभी
स्त्रियां ही
थीं, और
लगभग सभी
पंडित —पुरोहित
पुरुष थे।
पहले तो पंडित
—पुरोहितों ने
जादू—टोने
वाली
स्त्रियों को
जला डालने की
कोशिश की।
मध्ययुग में
यूरोप में इसी
कला के कारण
हजारों
स्त्रियों को
जला दिया गया,
क्योंकि
पंडित—पुरोहितों
की समझ के
बाहर था
अंतर्बोध के
जगत को समझना।
उनका इसमें
विश्वास ही न
था—वह बात ही
उन्हें
खतरनाक लगती
थी। वे जादू —टोने
वाली
स्त्रियों को
पूरी तरह से
मिटा देना चाहते
थे।
और
उन्होंने उसे
पूरी तरह से
नष्ट भी कर
दिया।
उन्होंने
संवेदनशीलता
के सबसे सुंदर
माध्यम, सूक्ष्म
ज्ञान के
सुंदरतम साधन,
बुद्धि के
जगत से ऊपर के
श्रेष्ठतर
संभावनाओं के
सबसे सुंदर
जगत को नष्ट
कर देने का प्रयास
किया। जहां
कहीं भी
उन्हें कोई
जादू —टोने
वाली स्त्री
मिली, उन्होंने
उसे उसकी
हत्या कर दी।
और पंडित —पुरोहितों
ने स्त्रियों
को इतना भयभीत
कर दिया कि
स्त्रियों ने
भय के कारण उस
क्षमता को ही
खो दिया।
अब फिर
से वैसी ही
परिस्थिति
मौजूद हो गई
है। मनोविश्लेषक
अंतर्ज्ञान
की कला के
विरुद्ध हैं —वे
सब पुरुष हैं।
अब
मनोविश्लेषकों
ने पंडित —
पुरोहितों का
स्थान ले लिया
है —वे सब
पुरुष हैं।
फ्रायडवादी, एडलर के
पीछे चलने
वाले, वे
सभी पुरुष
हैं। वे
स्त्री के
विरुद्ध हैं,
स्त्री के
खिलाफ हैं। और
क्या तुम्हें
मालूम है उनके
यहां आने वाले
अधिकांश
रोगियों में
स्त्रियां ही
होती हैं।
इसमें जरूर
कुछ बात है।
और जब
स्त्री
जादूगरनियां
हुआ करती थीं
तो उनके अधिकांश
रोगी पुरुष
थे। मुझे इस
बात से
आश्चर्य होता है, लेकिन यह
वैसा ही है
जैसा इसे होना
चाहिए। जब स्त्री
जादूगरनिया
थीं तो उनके
रोगी पुरुष थे
बु[,द्धे
अंतर्बोध का
सहयोग चाह रही
थी, पुरुष
स्त्री की मदद
चाह रहा था।
अब
इसके ठीक
विपरीत हो रहा
है। सभी
मनोविश्लेषक
पुरुष हैं और
उनकी सभी रोगी
स्त्रियां
हैं। अब
अंतर्बोध
इतना अपंग और
विनष्ट हो
चुका है कि
उसे बुद्धि की
मदद लेनी ही
पड़ रही है।
श्रेष्ठ
निम्न का
सहयोग खोज रहा
है। यह तो मनुष्य
जाति का हास
है, मनुष्य
जाति की
दुर्दशा है।
यह बहुत ही
दुख की बात
है। ऐसा नहीं
होना चाहिए।
विज्ञान
का पूरा
इतिहास इसे
प्रमाणित भी
करता है। जब
अंतर्बोध का
उपयोग विधि की
भांति किया
जाता था, तो उसकी
कीमिया भी मौजूद
थी। जब बुद्धि
की शक्ति बढ़
गयी, तो वह
कीमिया, वह
अल्केमी भी खो
गयी, और तब
रसायन का, केमिस्ट्री
का जन्म हुआ।
अल्केमी या
कीमिया का
संबंध—
अंतर्बोध से
है, केमिस्ट्री
या रसायन का
संबंध बुद्धि
से है। अल्केमी
चंद्र था; केमिस्ट्री
सूर्य है। जब
चंद्र प्रमुख
था, तब
अंतर्बोध
प्रबल था, ज्योतिष
विज्ञान का
अस्तित्व था।
अब तो गणित, खगोल —विज्ञान
का अस्तित्व
है। ज्योतिष
तो खो गया है।
ज्योतिष है
चंद्र; गणित,
खगोल है
सूर्य। और इस
कारण संसार
बहुत दरिद्र हो
गया है।
जैसे
पुरुष को उसके
सूर्य —केंद्र
पर खिलना है, ऐसे ही
स्त्री को
उसके चंद्र—तल
पर खिलना है, लेकिन
प्रतिभा उन
दोनों के पार
है। बुद्धि मनोविज्ञान
है, अंतर्बोध
परा
मनोविज्ञान
है, प्रतिभा
उन दोनों के
पार का
मनोविज्ञान
है।
'इसके
पश्चात
अंतर्बोध
युक्त श्रवण,
स्पर्श, दृष्टि,
आस्वाद और आघ्राण
की उपलब्धि
चली आती है।’
स्मरण
रहे, यह
बात दो स्तर
पर घट सकती
है। अगर तुम
चंद्र—केंद्रित
व्यक्ति हो, स्त्री तत्व
से जुड़े हुए
हो —पुरुष हो
या स्त्री हो
उससे कुछ अंतर
नहीं पड़ता है —
अगर तुम चंद्र—केंद्र
से क्रियाशील
होते हो, तो
तुम बहुत कुछ
ऐसा सुन सकोगे,
जिसे दूसरे
लोग नहीं सुन
सकते हैं, और
तुम ऐसा बहुत
कुछ देख सकोगे
जिसे दूसरे
लोग नहीं देख
सकते हैं।
तुम्हारे
भीतर छिपे हुए
अज्ञात तत्व
की अनुभूति
पाने की
क्षमता तुममें
आ जाएगी। तब
अज्ञात का
आयाम
तुम्हारे लिए
अपरिचित और
अनजाना न रह
जाएगा, अज्ञान
तुम्हारे सामने
थोड़ा — थोड़ा
अपना पर्दा
उठाने लगेगा।
आज परा —मनोविज्ञान
के द्वारा
मनोवैज्ञानिक
इसी बात का
अध्ययन कर रहे
हैं। अब यह
बात जोर पकड़
रही है, अब कुछ
विश्वविद्यालयों
ने परा —मनोविज्ञान
के विभाग भी
खोले हैं। परा
—मनोविज्ञान
पर आजकल बहुत
अन्वेषण
कार्य चल रहा
है, यहां
तक कि सोवियत
रूस में भी।
क्योंकि
पुरुष तो एक
ढंग से असफल
हो गया है, सूर्य
—केंद्र असफल
हो गया है हम
हजारों
वर्षों से इसी
सूर्य —केंद्र
के द्वारा
जीते आए हैं, और वे लोग
केवल हिंसा, युद्ध, और
दुख में ही ले
गए हैं। अब
दूसरे केंद्र
से जुड़ना है।
सोवियत
रूस तक में भी, जो कि
पूरी तरह से
सूर्य —केंद्रित
है, कम्युनिस्टों
का शासन है, जो किसी भी
धर्म में, परमात्मा
में विश्वास
नहीं रखते हैं,
वे भी इसके
लिए प्रयास कर
रहे हैं। और
उन्होंने इस
पर बहुत कार्य
किया है, और
बहुत खोज भी
की है।
हालांकि वे
इसकी व्याख्या
बुद्धि की
भाषा में ही
करते हैं —वे
इसे अति —संवेदन
कहते हैं। वे
इसे परा —
मनोविज्ञान
नहीं कहते
हैं। वे कहते
हैं,’यह भी
एक तरह का
संवेदन है, बस केवल
सूक्ष्म है।’
आंखों
को और
परिष्कृत
करके ऐसी
चीजें देखी जा
सकती हैं, जिन्हें
साधारणतया
नहीं देखा जा
सकता है। उदाहरण
के लिए, आंखें
अंतशरीर को
एक्सरे की
भांति ही देख
सकती हैं। अगर
एक्सरे
द्वारा उसे
देखा जा सकता
है तो आख से भी
उसे देखा जा
सकता है, बस
आंखों को
प्रशिक्षित
करने की जरूरत
है।
और एक
तरह से वे ठीक
भी हैं।
अंतर्बोध
इंद्रियों से
पार या बाहर
की बात नहीं
है; वह
इंद्रियों का
ही सूक्ष्म
रूप है।
प्रतिभा
इंद्रियातीत
है, इंद्रियों
के पार है —उसमें
किसी प्रकार
की कोई
संवेदना नहीं
होती है, वह
सीधी या
प्रत्यक्ष
होती है, प्रतिभा
में इंद्रिया
गिर चुकी होती
हैं।
यह योग
की दृष्टि है, कि
व्यक्ति अपने
भीतर
सर्वज्ञाता
है —सर्वज्ञान
व्यक्ति का
वास्तविक
स्वभाव ही है।
असल में तो हम
सोचते हैं कि
हम आंखों के
द्वारा देखते
हैं, योग
का कहना है कि
तुम आंखों
द्वारा नहीं
देखते हो —तुम्हारी
आंखें ही
तुम्हें धोखा
देती हैं। इसे
थोड़ा समझ लें।
तुम एक
कमरे में खड़े
होकर एक छोटे
से छेद में से
बाहर देख रहे
हो।
निस्संदेह, कमरे में
रहते समय तो
यह अनुभव होता
है कि वह छोटा
सा छेद
तुम्हें बाहर
के जगत की कुछ
खबर दे रहा
है। तुम उसी
छोटे से छेद
को सब कुछ
समझकर उसी पर
केंद्रित हो
सकते हो। ऐसा
भी सोच सकते हो
कि इस छोटे से
छेद के बिना
बाहर देखना
असंभव होगा।
योग का कहना
है कि तब तुम
एक भ्रांति
में पड़ रहे
हो। इस छेद से
देखा जा सकता
है, लेकिन
यह छेद ही
देखने का कारण
नहीं है —देखना
तुम्हारी
गुणवत्ता है।
तुम छेद से
देख रहे हो, छेद स्वयं
नहीं देख रहा
है। तुम्हीं
द्रष्टा हो। आंखों
के द्वारा जगत
को देखा जा
सकता है, आंखों
से तुम मुझे
देख रहे हो। आंखें
शरीर में छेद
की तरह हैं, लेकिन भीतर
तुम द्रष्टा
हो। अगर शरीर
के बाहर आकर
देख सको, तो
ठीक वैसा ही
होगा जैसा कि
अगर द्वार
खोलकर बाहर आ
जाओ तो तुम
अपने को विराट
आकाश के नीचे खड़ा
हुआ पाओगे।
ऐसा
नहीं है कि
होल के, सुराख के
गायब होने से
तुम अंधे हो
जाओगे या तुम्हारा
अस्तित्व ही
नहीं रहेगा।
सच तो यह है तब
तुम्हें
अहसास होगा, तब तुम
समझोगे कि
सुराख
तुम्हें अंधा
बना रहा था।
वह तुम्हें
बहुत ही सीमित
दृष्टि दे रहा
था। और जब
संपूर्ण खुले
आकाश के नीचे
खड़े होंगे, तो संपूर्ण
अस्तित्व को एक
अलग ही दृष्टि
से देख सकते
हो। अब दृष्टि
सीमित नहीं रह
जाएगी, किन्हीं
सीमित दायरों
में बंधी हुई
नहीं रह जाएगी,
क्योंकि अब आंखें
किसी छोटे से
छेद से या
खिड़की से नहीं
देख रही हैं।
अब तुम आकाश
के नीचे खड़े
होकर चारों ओर
देख सकते हो।
यही तो
योग की दृष्टि
है, और
ठीक भी है।
शरीर में जो
इंद्रियां
हैं, वह और
कुछ नहीं केवल
छोटे —छोटे
सुराख हैं
कानों से सुना
जा सकता है, आंखों से
देखा जा सकता
है, जीभ से
स्वाद लिया जा
सकता है, नाक
से सूंघा जा
सकता है —यह
छोटे —छोटे
सुराख हैं, होल्स हैं
और व्यक्ति
उनके पीछे
छिपा हुआ है।
योग का कहना
है, इनके
बाहर आ जाओ, इनसे बाहर
निकल आओ, इनके
पार चले जाओ।
अगर व्यक्ति
इन सुराखों से,
इन
इंद्रियों से
बाहर आ जाए तो
वह
सर्वज्ञाता सर्वशक्तिमान
और
सर्वव्यापी
हो जाता है।
और यही है
प्रतिभा।
'इसके
पश्चात......।’
फिर वह
श्रवण होता है, वह पार का
होता है। वह
श्रवण न तो
बुद्धि द्वारा
होता है, न
ही अंतर्बोध
के द्वारा
होता है, बल्कि
वह श्रवण
प्रतिभा के
माध्यम से
होता है — और
ऐसा ही स्पर्श
करने में, देखने
में, स्वाद
में और सूंघने
में होता है।
स्मरण
रहे, जो
भी व्यक्ति
संबोधि को
उपलब्ध होता
है, वह
पहली बार जीवन
को उसकी
समग्रता में,
पूर्णता
में जीता है।
उपनिषद कहते
हैं —तेन
त्यक्तेन
भुंजिथ: —जिन्होंने
त्यागा है, उन्होंने ही
पाया है। यह
बात एकदम
विरोधाभासी
मालूम होती है
’कि जिन्होंने
त्यागा है, उन्होंने ही
पाया है।
उन्होंने ही जीवन
का आनंद उठाया
है, उन्होंने
ही जीवन को
भोगा है।’ शरीर
की सीमाएं
व्यक्ति को
दरिद्र बना
देती हैं।
इंद्रियों से
और शरीर से
पार उठते ही
व्यक्ति
समृद्ध हो
जाता है। जो
भी व्यक्ति
संबोधि को
उपलब्ध हो
जाता है —फिर
वह आंतरिक रूप
से दरिद्र
नहीं रह जाता—वह
बहुत ही अदभुत
रूप से समृद्ध
हो जाता है।
वह परमात्मा
हो जाता है।
तो योग
संसार के
विरोध में
नहीं है। असल
में तुम्हीं
संसार के
विरोध में हो।
और योग, आनंद, सुख
के विरोध में
नहीं है—तुम
ही आनंद, सुख
के विरोध में
हो। और योग
चाहता है कि तुम
बाह्य सीमाओं
के पार हो जाओ,
सारे संसार
की सीमाओं को
छोड्कर असीम
हो जाओ। अपने
विराट
अस्तित्व के
साथ एक हो
जाओ।
'ये
वे शक्तियां
हैं जो मन के
बाहर होने से
प्राप्त होती
हैं, लेकिन
ये समाधि के
मार्ग पर
बाधाएं हैं।’
लेकिन
पतंजलि इन
सबके प्रति
हमेशा सजग हैं’
और वे तुम्हें
बार—बार बताए
चले जाते हैं, वे बार —बार
उस केंद्र पर
चोट करते चले
जाते हैं जब
तक कि व्यक्ति
केंद्र तक
पहुंच ही न
जाए।
'कि
श्रवण, दर्शन,
आस्वाद, घ्राण
संवेदन की
शक्तियां भी।’
खयाल
रहे वे भी
शक्तियां हैं, अगर बाहर
की ओर जाना हो
तो —लेकिन अगर
भीतर जाना हो,
तो यही
शक्तियां
बाधाएं बन
जाती हैं। अगर
व्यक्ति
स्वयं के भीतर
जा रहा हो, तो
यही शक्तियां
बाधा बन जाती
हैं।
जो
व्यक्ति
बाह्य संसार
की ओर बढ़ रहा
होता है, वह चंद्र से
सूर्य की ओर
से होता हुआ
संसार में जा
रहा होता है।
और जो व्यक्ति
स्वयं के भीतर
जा रहा होता
है, उसकी
ऊर्जा सूर्य
से चंद्र की
ओर, और फिर
चंद्र से भी
पार की तरफ जा
रही होती है। जो
व्यक्ति अंतस
की यात्रा पर
जा रहा होता
है, और एक
वह व्यक्ति जो
बाह्य संसार
की यात्रा पर
जा रहा होता
है उनके
लक्ष्य और
उद्देश्य
एकदम अलग — अलग
होते हैं, एकदम
विपरीत होते
हैं।
और ऐसा
उस समय होता
है जब व्यक्ति
को कई बार प्रतिभा
की, एकदम
पार की पहली —पहली
झलकियां आने
लगती हैं। और
वह इतना शक्ति
—संपन्न हो
जाता है, इतना
शक्ति से भर
जाता है, इतना
शक्तिशाली हो
जाता है —वह
घड़ी एक ऐसी
घड़ी होती है, जब व्यक्ति
फिर से नीचे गिर
सकता है।
शक्ति उसे
विकृत कर सकती
है, और इस
कारण गिरना हो
सकता है। तब
व्यक्ति अपने
को इतना अधिक
बुद्धिमान
समझने लगता है
कि वह अहंकारी
हो जाता है —तव
वह उस शक्ति
पर सवार होने
का मजा लेना
चाहेगा। फिर
वह चमत्कार या
इसी प्रकार की
कुछ मूढ़ताएं
करने लगेगा।
सभी
तरह के
चमत्कार
दिखाने वाले
लोग एक तरह से
मूढ़ और मूर्ख
ही होते हैं —चाहे
वे कहें कुछ
भी। वे कह
सकते हैं कि
वे यह चमत्कार
लोगों की मदद
करने के लिए
कर रहे हैं। वे
किसी की भी
मदद नहीं करते
हैं स्वयं को
ही नुकसान और
क्षति
पहुंचाते हैं —
और अपने साथ
दूसरों को भी
क्षति
पहुंचाते
हैं। क्योंकि
इन चमत्कारों
को दिखाने के
चक्कर में वे
पार जाने की
जगह और नीचे गिर
जाते हैं। और
तब पूरी बात
ही चालाकी और
धूर्तता की
बनकर रह जाती
है।
परा —मनोविज्ञान
में इस तरह की
चालाकियां की
जा सकती हैं, अंतर्बोध
के, चंद्र
के जगत में
कुछ ऐसे दाव —पेंच
होते हैं
जिन्हें एक
बार जान लेने
के बाद उनके
साथ खिलवाड़
किया जा सकता
है। फिर भी वे
हैं
कलाबाजियां
ही, और फिर
अहंकार उन
कलाबाजियों
का उपयोग कर
सकता है।
मैंने एक बहुत
ही सुंदर कथा
सुनी है :
एक
कैथोलिक
पादरी, एक ऐंग्लिकन
पादरी और एक
रब्बी एक शांत
झील के बीच
खड़ी छोटी सी
नाव में बैठे
मछलियां पकड़
रहे थे। सुबह
से लेकर दोपहर
तक वे बिना
हिले —डुले, बिना कुछ
बोले वहां
बैठे रहे। तब
कैथोलिक पादरी
बोला,’ अच्छा,
दोपहर के
भोजन का समय
हो गया है।
मैं तुम दोनों
से रेस्तरा
में मिलूंगा।’
इतना
कहकर वह उठ कर
खड़ा हो गया, और पानी
पर चलते हुए
झील के किनारे
के रेस्तरा की
ओर चला गया।
तब
ऐंग्लिकन
पादरी ने कहा,’मुझे
लगता है कि
मैं भी दोपहर
का भोजन कर ही
लूं।’
इतना
कहते हुए पानी
पर चलते हुए
वह भी उसी दिशा
की ओर बढ़ गया
जिधर कैथोलिक
पादरी गया था।
रब्बी
तो ईसाई
एकात्मकता के
इस चमत्कार
प्रदर्शन पर
अवाक रह गया।
फिर भी यह
सोचकर कि उसका
विश्वास और
परंपराएं दाव
पर लगी हुई
हैं, उसने
जल्दी से अपने
ईश्वर जहोवा
के लिए प्रार्थना
की और नाव के
किनारे को
लांघ गया।
छपाक की आवाज
के साथ वह
पानी में एकदम
नीचे जाकर
गिरा। वह जैसे
—तैसे तैर कर
ऊपर आया और
किनारे पर आकर
अब और भी जोश
से धार्मिक
प्रार्थना
की। फिर से
छपाक की आवाज
आई! वह फिर
पत्थर की तरह
सीधा पानी में
नीचे जाकर
गिरा।
कैथोलिक
पादरी झील के
किनारे खड़ा —खड़ा
यह सब देख रहा
था और तभी
ऐंग्लिकन
पादरी भी
किनारे पर पहुंच
गया, वह
बोला,’हमें
इस बेचारे को
बता देना
चाहिए था कि
पैर रखने के
लिए पत्थर कहा
—कहां पर हैं।’
हर जगह
पैर रखने के
लिए पत्थर
मौजूद हैं।
तुम्हारे
सारे सत्य
साईं बाबा—जों
वे कर रहे हैं, उससे
बहुत अधिक
चकित मत हो
जाना। पाव
रखने के पत्थरों
को भी देख
लेना—वे मौजूद
हैं। और ये
लोग कोई भी
आध्यात्मिक
लोग नहीं हैं।
पतंजलि
कहते हैं,’ यह वे
शक्तियां हैं
जब मन बाहर की
ओर मुड़ रहा होता
है, लेकिन
यही समाधि के
मार्ग में
बाधाएं हैं।’
अगर
परम को उपलब्ध
होना है, तो इन सब
मूढ़ताओं को
छोड़ना होगा।
इन सभी को छोड़ना
होगा। और यही
एक सच्चे खोजी
का ढंग है
मार्ग में उसे
जो कुछ भी मिलता
है, वह उसे
परमात्मा के
चरणों में चढ़ा
देता है। वह
कहता है,’तुमने
मुझे दिया, लेकिन मैं
इसका करूंगा
क्या? मैं
तो फिर से
तुम्हारे
चरणों में ही
चढ़ा देता हूं।’
जो कुछ भी
उसे प्राप्त
होता है, वह
उसे परमात्मा
के चरणों में
चढ़ा देता है, और स्वयं
हमेशा रिक्त
और खाली का
खाली ही रहता
है।
यही है
सच्ची
आध्यात्मिकता
हमेशा
उपलब्धि से, या जो भी
अस्तितव से
मिला है उससे
रिक्त और खाली
रहना, और
जो कुछ भी
मार्ग में मिल
जाए उसे
परमात्मा के
चरणों में
चढ़ाते चले
जाना। मैं तुम
से एक और कथा
कहना चाहूंगा
पुरोहित—पादरियों
की एक मंडली
इस बात पर
चर्चा कर रही थी
कि वे अपने
धर्म —संचयन
में आए दान का
उपयोग किस तरह
से करें।
एक
डिसेंटर
पादरी ने
उदघोषणा की,’मेरे लोग
जो कुछ भी दान —पेटी
में डालते हैं,
वह सब का सब
परमात्मा के
कार्य में चला
जाता है — अपने
लिए तो मैं एक
पैसा तक नहीं
रखता!'
ऐंग्लिकन
ने उसके
उत्साह की
प्रशंसा करते
हुए स्वीकार
किया,’मैं
तांबे को दान—पेटी
में डालता हूं, और चांदी की
चीजें
परमात्मा के
पास पहुंचती हैं।’
वहां
मौजूद
कैथोलिक
पादरी ने
स्वीकार किया,’मैं चांदी
की चीजें रख
लेता हूं,
और तांबे का
सब सामान
परमात्मा के
लिए जाता है —मैं
तुम्हें यह
बता दूं कि
गरीबों के
चर्च में बहुत
तांबा है।’
अब तक
रब्बी खामोश
था, लेकिन
जब उस पर जोर
डाला गया तो
वह बोला,’ही,
मैं तो
इकट्ठा किया
गया सारा धन
एक कंबल में रख
देता हूं,
और मैं उसे
हवा में उछाल
देता हूं।
परमात्मा को
जो रखना होता
है वह रख लेता
है और जो वह
नहीं चाहता है
उसे मैं रख
लेता हूं।’
धूर्त
और चालबाज मत
बनो —रब्बी मत
बनो। क्योंकि
अंत में
तुम्हारा ही नुकसान
होगा, परमात्मा
का नहीं।
अंतर्विकास
के मार्ग में जो
भी बाधा आती
है. और बहुत सी
बाधाएं आती भी
हैं। आंतरिक
पथ पर
प्रत्येक
क्षण नया
अन्वेषण का
होता है, हर
क्षण कुछ न
कुछ घटता रहता
है —तुम तो
उसकी कल्पना
भी नहीं कर
सकते हो, तुमने
तो कभी उसकी
मांग भी न की
होगी। अंतर यात्रा
के पथ पर अनेक
भेंटें
अस्तित्व की
ओर से मिलती हैं
लेकिन
परमात्मा को
या परम को वही
उपलब्ध होता
है जो इन
भेंटों को
वापस
परमात्मा के
चरणों में
समर्पित कर
देता है। और
अगर उन भेंटों
को पकड़ने लगो,
तो फिर
विकास वहीं का
वहीं रुक जाता
है। तब फिर
व्यक्ति उसी
जगह रुक जाता
है, वहीं
ठहर जाता है।
ते
समाधावुपसर्गाब्यूत्थाने
सिद्धय:।
अगर
तुम्हें
समाधि की आकांक्षा
है, अगर
तुम्हें परम
शाति चाहिए, परम मौन, परम
सत्य चाहिए —तो
किसी भी तरह
की प्राप्ति
से, उपलब्धि
से जुड़ाव मत
बना लेना —फिर
चाहे वह इस
लोक की हो या
उस लोक की, मनोवैज्ञानिक
हो या परा —मनोवैज्ञानिक
हो, बौद्धिक
हो या
अंतर्बोध
युक्त हो, कुछ
भी हो, किसी
भी उपलब्धि के
साथ मोह मत
जोड़ लेना। उसे
परमात्मा के
चरणों में
समर्पित करते
चले जाना और
फिर बहुत कुछ
घटेगा! तुम तो
बस उसे परमात्मा
के चरणों में
अर्पित किए
चले जाना।
जब
व्यक्ति सभी
कुछ परमात्मा
क़े चरणों में
चढ़ा देता है यहां
तक कि अपने को
भी परमात्मा
के चरणों में
चढ़ा देता है, तब
परमात्मा आता
है। जब सभी
कुछ परमात्मा
के चरणों में
चढ़ा दिया, उसी
परम को वापस
सौंप दिया, तो फिर
परमात्मा
अंतिम भेंट की
तरह अंतिम उपहार
की तरह चला
आता है। और
परमात्मा ही
अंतिम उपहार
है, अंतिम
भेंट है।
आज इतना ही।
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