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शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-प्रवचन-02

आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-ओशो
 
दिनांक 02-फरवरी, सन् 1981,
ओशो आश्रम, पूना।
प्रवचन-दुसरा-(धर्म तो आंख वालों की बात है)

      प्रश्न-सार

1-विश्वविख्यात धर्म-चिंतक पाल टिलिक कहते हैं कि अकेला होना हर आदमी की किस्मत में
      बदा है। हर आदमी अकेला रहने के लिए अभिशप्त है।
क्या यह सच है? क्या आप भी आदमी को उसके अकेलेपन से छुटकारा नहीं दिला सकते हैं?

2-बुल्लेशाह ने एक अक्षर का गुण गाया है। बुल्लेशाह कहते हैं: एक अक्षर पढ़ो--और छुटकारा है।
      समझाएं कि यह एक अक्षर क्या है और इसके पढ़ने से मुक्ति का क्या संबंध है।

3-मूकोऽस्ति को वा बधिरश्च को वा
           वक्तुं  न  युक्तं  समये  समर्थः।
      तथ्यं सुपथ्यं न शृणोति वाक्यं
           विश्वासपात्रं न किमस्ति नारी।।
आद्य शंकराचार्य की इस प्रश्नोत्तरी पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।



पहला प्रश्न: भगवान,
विश्वविख्यात धर्म-चिंतक पाल टिलिक कहते हैं कि अकेला होना हर आदमी की किस्मत में बदा है और भगवान भी उसकी यह किस्मत नहीं छीन सकता। एक तरह से हर आदमी अकेला रहने के लिए अभिशप्त है।
भगवान, क्या यह सच है? क्या आप भी आदमी को उसके अकेलेपन से छुटकारा नहीं दिला सकते हैं?

नरेंद्र बोधिसत्व,
धर्म और चिंतन विपरीत आयाम हैं। धर्म का कोई चिंतन नहीं होता। और जहां तक चिंतन है वहां तक धर्म नहीं है। इसलिए धर्म-चिंतक जैसा शब्द स्व-विरोधी है। धर्म तो अनुभव है निर्विचार, निर्विकल्प समाधिस्थ अवस्था का। चिंतन है मन की प्रक्रिया और धर्म है अनुभव उन अपूर्व घड़ियों का जब मन अनुपस्थित होता है।
इसलिए पहली तो तुमसे बात कहूं कि पाल टिलिक को मैं कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं मानता हूं। चिंतक निश्चित वे थे, लेकिन बस चिंतक। चिंतक से धर्म का फासला इतना बड़ा है जितना कि जमीन से आकाश का नहीं है। चिंतन का अर्थ है: अंधा आदमी सोच रहा है कि प्रकाश क्या है; या कि बहरा सोच रहा है संगीत क्या है। और सोचेगा तो कुछ न कुछ धारणाएं निर्मित करेगा, अंधा भी प्रकाश के संबंध में कुछ धारणाएं निर्मित करेगा। सुन सकता है, पूछ सकता है, ब्रेल लिपि के द्वारा पढ़ भी सकता है; प्रकाश के संबंध में जो लिखा गया है उसकी सारी जानकारी संगृहीत कर सकता है; उस जानकारी में एक व्यवस्था, एक तर्क, एक सुनियोजन भी ला सकता है। लेकिन अंधा फिर भी अंधा है। लाख जाने प्रकाश के संबंध में, प्रकाश को नहीं जान पाएगा। और प्रकाश के संबंध में जानना प्रकाश को जानना नहीं है। ईश्वर के संबंध में जानना ईश्वर को जानना नहीं है। प्रेम के संबंध में जानना प्रेम को जानना नहीं है।
इस भेद को बहुत ही स्पष्ट समझ लो।
धर्म तो आंख वालों की बात है--जिन्होंने देखा। इसलिए तो हमने इस देश में धर्म की परम अनुभूति को दर्शन कहा है; चिंतन नहीं, मनन नहीं, विचार नहीं, तर्क नहीं--अनुभूति, अंतर-साक्षात्कार, भीतर की आंख का खुल जाना।
ये तो प्रतीक हैं। कोई भीतर आंख नहीं है। लेकिन देखने का एक ऐसा ढंग भी है, जब तुम्हारी दृष्टि पर विचारों का धुआं नहीं होता, चिंतन-मनन की बदलियां नहीं होतीं। एक ऐसा देखने का ढंग भी है, जब तुम्हारा चैतन्य का आकाश पूर्णतया निरभ्र होता है, जब तुम्हारे भीतर की ज्योति निर्धूम जलती है। तब जाना जाता है। तब पहचाना जाता है।
धर्म दर्शन है, चिंतन नहीं। क्योंकि धर्म मन नहीं है, मनातीत समाधि है।
पाल टिलिक जो भी कहेंगे--कितना ही सुंदर हो, तर्कबद्ध हो--गलत ही होगा, सही नहीं हो सकता। कभी भूल-चूक से अंधे के हाथ बटेर लग भी जाए तो उसे तुम कोई बहुत मूल्य मत देना। कभी कोई चारों दिशाओं में तीर चलाता रहे और एकाध तीर निशाने पर लग भी जाए तो उसे तुम कोई धनुर्धर तो न कहोगे।
एक सम्राट एक गांव से गुजरता था। यह कथा सूफी कथा है। उस सम्राट को एक ही शौक था, एक ही उसका रुझान था। और वह था--दुनिया का सब से बड़ा धनुर्धर हो जाना। और निश्चित ही वह बहुत कुशल था। उसने बड़ी प्रतियोगिताएं जीती थीं; बड़े-बड़े सम्राट उसके सामने मात खा गए थे; बड़े-बड़े धनुर्धर पराजित हुए थे। लेकिन अब भी उसे लगता था कि मेरी कला अपनी परिपूर्णता पर नहीं पहुंची, अभी भी देर है। वह खुद तृप्त न था। जीत तो हाथ लगी थी, लेकिन उसे खुद कमियां दिखाई पड़ती थीं। जीत गया था, क्योंकि औरों में और भी ज्यादा कमियां थीं, और और भी ज्यादा अपूर्ण थे। मगर यह उसे साफ दिखाई पड़ता था कि जीत का कारण मेरी पूर्णता नहीं है, उनकी अपूर्णता है। वह अभी भी तलाश में था कि कोई और राजों को खोलने वाला मिल जाए। इसी तलाश में ही निकला था। किसी ने खबर दी थी, दूर पहाड़ों में एक बुजुर्ग धनुर्धर रहता है। अपनी जवानी में उसने बड़ी ख्याति पाई थी। उसका निशाना अचूक है। रथ पर सवार हो वह उसी की खोज में निकला था।
लेकिन बीच में एक गांव पड़ा और चकित हुआ। चकित हुआ इसलिए कि गांव के दरख्तों पर, दरवाजों पर, दीवालों पर जगह-जगह उसने तीर चुभे देखे। और हर तीर ठीक निशाने पर लगा था, सौ प्रतिशत ठीक! क्योंकि दीवाल पर, दरवाजों पर, वृक्षों पर वर्तुल खिंचे थे चाक से और तीर ठीक बीच में लगा था, इतने बीचों-बीच कि उसे लगा कि पीछे खोजूंगा पहाड़ में छिपे हुए बुजुर्ग धनुर्धर को--जीवित भी हो या न हो--लेकिन यह कौन धनुर्धर है जिसकी मैंने खबर ही नहीं सुनी! उसने गांव में पूछताछ की।
लोग हंसने लगे। उन्होंने कहा, वह कोई धनुर्धर नहीं है। शेखचिल्ली है।
पर उसने कहा, तुम फिक्र न करो, शेखचिल्ली हो कि कोई भी हो, पागल हो तो भी कोई बात नहीं, उसका निशाना अचूक है।
लोग कहने लगे, आप समझने की कोशिश करो। उसका निशाना अचूक वगैरह कुछ भी नहीं है। वह सिर्फ पागल है। असल में, उसका काम यह है कि वह पहले तीर मार देता है और फिर जाकर वर्तुल बना देता है। इसलिए वर्तुल के बीच में तो तीर लगेगा ही। तीर तो पहले ही मार देता है, निशाना बाद में बना देता है। इसलिए आपको कभी भी उसके तीरों में कहीं कोई भूल-चूक न दिखाई पड़ेगी।
अक्सर जिनको तुम दार्शनिक कहते हो, वे ऐसे ही तीरंदाज हैं। विचारक जिनको तुम कहते हो, मनीषी जिनको तुम कहते हो, ऐसे ही तीरंदाज हैं। पहले तीर मार देते हैं, फिर निशान बना देते हैं। और तुम्हें भी उनकी बात जम जाती है, क्योंकि भाषा तुम्हारे ही अंधेपन की वे भी बोलते हैं। तुम्हें बुद्धों की बात तो शायद नहीं ही जमेगी, क्योंकि उनके और तुम्हारे बीच फासला बहुत। वे बोलते हैं उत्तुंग शिखरों से, हिमाच्छादित गौरीशंकर से, और तुम सुनते हो अपनी अंधेरी घाटियों से। वे बोलते हैं अपने जागरण से और तुम सुनते हो सोए-सोए, तंद्रा में खोए-खोए, मूर्च्छित, बेहोश। तुम तक बात पहुंचते-पहुंचते बिलकुल बिगड़ जाती है, कुछ की कुछ हो जाती है। पाल टिलिक विचारक हैं, चिंतक हैं। लेकिन मैं उन्हें धर्म-चिंतक नहीं कहूंगा। क्योंकि धर्म से चिंतन का कोई संबंध ही नहीं। किसी को धार्मिक-चिंतक कहना ऐसे ही है, जैसे किसी को स्वस्थ-बीमार कहना। बेमानी! अर्थहीन! या तो बीमार होगा या स्वस्थ होगा। स्वस्थ होगा तो बीमार नहीं, बीमार होगा तो स्वस्थ नहीं।
धर्म है निस्तरंग चित्त की प्रतीति। और विचार तो तरंगें हैं। और विचारक को तो और भी तरंगें होती हैं, तुमसे भी ज्यादा तरंगें होती हैं। तुम तो कभी-कभी निर्विचार के किसी क्षण में उतर भी जाते हो, लेकिन जिनको तुम विचारक कहते हो वे तो करीब-करीब विक्षिप्त होते हैं। विचार की अंतिम परिणति विक्षिप्तता है, सत्य का साक्षात्कार नहीं। और निर्विचार की अंतिम परिणति सत्य का साक्षात्कार है, बुद्धत्व है।
दूसरी बात, पाल टिलिक कहते हैं: "अकेला होना हर आदमी की किस्मत में बदा है।'
विचारक और क्या कहेगा? अंधा टटोल रहा है, दरवाजे का उसे पता नहीं। दरवाजा है भी, यह भी उसे पता नहीं। दरवाजा कभी था, यह भी उसे पता नहीं। बस टटोल रहा है। लग जाए हाथ तो ठीक। लेकिन टटोलने में बड़बड़ाता है, कुछ-कुछ कहता है, कुछ-कुछ बोलता है। ऐसी ही यह बड़बड़ाहट है। यह सन्निपात है। टिलिक का यह कहना--"अकेला होना हर आदमी की किस्मत में बदा है'--यह वक्तव्य उस आदमी का है जिसने अकेलापन तो जाना है, लेकिन एकांत नहीं जाना। और अकेलापन एकांत से बड़ी और बात है।
एकांत को तो जाना है किसी महावीर ने। इसलिए महावीर ने उस परम दशा को नाम दिया है: कैवल्य। बस केवल चेतना शेष रह जाती है। और सब संसार गया। दूसरा गया। सिर्फ चैतन्य बचा--इतना शुद्ध, दर्पण जैसा, जिसमें अब कोई छाया भी नहीं बनती। कोई और है ही नहीं जिसकी छाया बने। इसको तुम अकेलापन मत कहना। यह है एकांत। एकांत आनंद की अवस्था है और अकेलापन विषाद की।
अकेलेपन का अर्थ है कि तुम्हें दूसरे की कमी अखरती है। अकेलेपन का अर्थ है कि तुम चाहोगे कि कोई होता। अकेलेपन का अर्थ है कि तुम अंधेरे में हो। अकेलेपन का अर्थ है कि तुम अपने साथ होने को राजी नहीं हो; तुम्हें दंश है, पीड़ा है। तुम इस अकेलेपन से छूट निकलना चाहते हो। जाकर सिनेमागृह में बैठ जाओगे, क्योंकि क्या करो, अकेले हो! अकेले ही लोग ताश भी खेलते हैं। ऐसे भी खेल हैं जिसमें दूसरे की जरूरत नहीं होती, खुद ही दोनों तरफ से चालें चलते हैं। समय को काटते हैं। अकेले लोग धर्मसभाओं में चले जाते हैं। क्या करें और? लेकिन उनकी धर्मसभाएं सिनेमागृहों से बहुत भिन्न नहीं। उनके मंदिर, उनकी मस्जिद, उनके गुरुद्वारे, उनके गिरजे धार्मिक ढंग के क्लब हैं, और कुछ भी नहीं। कोई रोटरी क्लब का मेंबर हो जाता है। कोई लायन क्लब का मेंबर हो जाता है। जैसे आदमी होने से कोई तृप्ति नहीं, इनको लायन होना पड़ेगा! जैसे आदमी होने से बहुत परेशान हैं, बहुत पीड़ित हैं।
एक रोटरी क्लब का गवर्नर रास्ता भटक गया जंगल में। बामुश्किल खोज पाया एक झोपड़े को। जिस स्त्री ने दरवाजा खोला, वह भी खुश हुई, क्योंकि वह भी अकेली थी। पति को दो दिन गए हुए, कह गया था सांझ तक लौट आएगा, दो सांझें बीत गईं और उसका पता नहीं; वह भी बड़ी अकेली थी और बड़ी डरी थी। और यह सुंदर, स्वस्थ, कीमती वेशभूषा में रोटरी क्लब का गवर्नर! उसने स्वागत किया। जो भी उस गरीब औरत से बन सका, भोजन बनाया, खिलाया-पिलाया, और कहा कि बड़ी कृपा हुई कि आप आ गए। उसने कहा, धन्यवाद मुझे देना चाहिए, क्योंकि मैं भटक गया, रात मुझे कहीं विश्राम करना था।स्त्री ने कहा कि मैं खुश हूं, क्योंकि मैं अकेली थी और परेशान थी। आप आए तो अच्छा हुआ।
रोटरी क्लब का गवर्नर, सज्जन आदमी, थोड़ा हिचकिचाया। अकेली स्त्री, जंगल का वास्ता, इसके साथ इस झोपड़े में रुकना या नहीं?
उस स्त्री ने कहा, आप आश्वस्त रहें, कोई चिंता न करें। मेरे पति का बिस्तर खाली है, आप सो सकते हैं।
वह सो तो गया, लेकिन नींद न आए। अकेला। करवटें बदले।
उस गरीब स्त्री को भी नींद न आए। वह भी अकेली, वह भी करवटें बदले। आखिर उस स्त्री ने पूछा कि मैं कुछ सेवा कर सकती हूं?
उसने कहा, नहीं-नहीं, कोई सेवा की बात नहीं। सो ही जाऊंगा, नींद आ ही जाएगी।
फिर थोड़ी देर, और फिर करवटें। फिर उस स्त्री ने पूछा उठ कर कि पैर दबा दूं, सिर दबा दूं, कोई तकलीफ है? किसी चीज की जरूरत हो तो संकोच न करें। मैं किसी भी काम आ सकूं तो मेरा सौभाग्य होगा।
युवती यूं तो गरीब थी, लेकिन सुंदर थी, युवा थी। रोटरी क्लब का गवर्नर यूं तो कई तरह के विचारों से भरा था, बड़े सपने देख रहा था; उन्हीं सपनों के कारण तो नींद न आती थी। वह स्त्री भी सपने देख रही थी। लेकिन कौन कहे, बात कौन तोड़े, कौन शुरू करे! यूं सुबह हो गई।
सुबह जब रोटेरियन गवर्नर विदा होने लगा, अपनी कार में बैठने के पहले उसने थोड़ी जानकारी लेनी चाही धन्यवाद देने के लिए--कैसा खेत है? कैसी खेतीबाड़ी है? मुर्गियां तेरी बड़ी सुंदर हैं! मुर्गे कितने हैं? तो मुर्गी तो एक ही थी, मुर्गे दो थे। रोटेरियन थोड़ा परेशान हुआ। उसने पूछा, यह मैं कुछ समझा नहीं--मुर्गी एक और मुर्गे दो! लोग तो पच्चीसों मुर्गी रखते हैं और एक मुर्गे से काम चला लेते हैं।
उस स्त्री ने कहा, क्या करूं! एक मुर्गा रोटेरियन गवर्नर है!
यहां हर आदमी अकेलेपन से परेशान है। लोग तलाश कर रहे हैं दूसरे की--कोई मिल जाए! किसी से अपने को भर लें! भीतर खालीपन है, रिक्तता है। और मजा यह है कि जो अपने से परेशान है, जो अपने से राजी नहीं, जो अपने साथ दो क्षण सुख से नहीं बैठ सकते हैं, वे सोचते हैं कि दूसरे को सुख दे सकेंगे। और दूसरे भी इसी अवस्था में हैं, सभी एक नाव पर सवार हैं। दूसरे सोचते हैं कि हम तो दुखी हैं अकेले में, लेकिन दूसरे को हम सुखी कर सकेंगे। और जब दो दुखी व्यक्ति, जिनका अकेलापन दोनों को काट रहा है, मिल जाते हैं, तो दुख घटता नहीं, अनंत गुना बढ़ जाता है। जुड़ता ही नहीं, जोड़ ही नहीं होता, गुणनफल हो जाता है। इसी को कहते हैं--सुखी दांपत्य जीवन! सारी पृथ्वी पर तुम सुखी दांपत्य जीवन को देखोगे। दुख अनंत गुना हो जाता है। मगर अकेले होने के दुख से लोग यही ज्यादा पसंद करते हैं, कम से कम अकेले तो नहीं हैं! उलझाए रखने को कुछ तो है, दुख ही सही, पीड़ा ही सही, परेशानी ही सही, कुछ तो है जो उलझाए रखता है, जो भीतर के शून्य को नहीं देखने देता, जो भीतर की रिक्तता को नहीं देखने देता। यह है अकेलापन।
लोग कामों में व्यस्त हैं। व्यर्थ के कामों में व्यस्त हैं। भाग रहे हैं, दौड़ रहे हैं। पूछो, क्यों? उत्तर नहीं है कोई पास सिवाय इसके कि अपने से परेशान हैं, अपने से भाग रहे हैं। हर आदमी अपने से भागा हुआ है। यह दुनिया भगोड़ों से भरी हुई है। इनमें से किसी को भी एकांत का कोई अनुभव नहीं है। पाल टिलिक को भी अकेलेपन का अनुभव है। और इसीलिए इस तरह के शब्दों का प्रयोग किया है। शब्द ही निंदा-सूचक हैं।
"अकेला होना हर आदमी की किस्मत में बदा है।'
किस्मत में बदा है! महावीर और बुद्ध, पतंजलि और लाओत्सु, जरथुस्त्र और जीसस एकांत की तलाश करते हैं, खोज करते हैं, अन्वेषण करते हैं; एकांत को साधते हैं, सम्हालते हैं, क्योंकि उससे बड़ी कोई संपदा नहीं है। महावीर कहेंगे कि अकेला होना बदा है?
महावीर तो कहेंगे कि भीड़ में होना बदा है। आदमी की किस्मत कि भीड़ में पैदा होता है, भीड़ में जीता है, भीड़ में बड़ा होता है। और भीड़ में पैदा होगा, भीड़ में जीएगा, भीड़ में बड़ा होगा--भेड़ हो जाएगा। आदमी कैसे होगा? और भीड़ में ही मर जाता है। यही भीड़ जब तुम पैदा होते हो तो घंटा-घड़ियाल बजाती है और यही भीड़ जब तुम मर जाते हो तो कंधों पर रख कर तुम्हारी अरथी को राम-नाम सत्य बोल कर मरघट पहुंचा आती है। तुम्हें कभी मौका ही नहीं मिलता कि थोड़ी देर को स्वयं हो जाते।
नहीं, महावीर या बुद्ध या कबीर यह कहने को राजी नहीं होंगे कि आदमी की किस्मत में अकेला होना बदा है। आदमी की किस्मत में भीड़ बदी हो भला, अकेला होना तो सौभाग्य है।
पाल टिलिक कहते हैं: "एक तरह से हर आदमी अकेला रहने के लिए अभिशप्त है।'
कैसा शब्द--अभिशप्त! अभिशाप! वरदान है एकांत, मगर एकांत का पाल टिलिक को कोई अनुभव नहीं है। एकांत तो ध्यान की साधना से मिलता है। ध्यान के बीज बोओ तो किसी दिन एकांत की फसल काटोगे।
अकेला होना तो बिलकुल सरल है; दरवाजा बंद कर लो, द्वार बंद कर लो, रेडियो बंद कर दो, बैठ जाओ--अकेले हो। रोओ, सोचो--कहां जाएं, क्या करें क्या न करें! उसी अखबार को फिर से पढ़ो जिसको सुबह से तीन बार पढ़ चुके हो।
मैं एक घर में मेहमान था। अखबार पढ़ने वाले मैंने बहुत देखे, मगर जिनके घर मैं मेहमान था, वे लाजवाब थे। वे शुरू से पढ़ते थे। उस गांव के अखबार में शुरू में ही लिपटन का विज्ञापन, इसके बाद अखबार का नाम, इसके बाद संपादक का नाम। वे यहीं से पढ़ना शुरू करते। वही अखबार, वही लिपटन, वही संपादक, मगर वे यहीं से पढ़ना शुरू करते थे। और अंत तक पढ़ते थे--अंत, जहां किस छापेखाने में छपा है। और यह दिन में कई दफे करते थे वे। काम ही न था। मैंने उनसे पूछा कि यूं साधारणतः मुझे अचंभा नहीं होता, कबीरदास को बहुत होता था--एक अचंभा मैंने देखा! तुम्हें देख कर मुझे भी होने लगा है। तुम्हें देख कर मन होता है कि कहूं--एक अचंभा मैंने देखा! तुम सुबह से इसी अखबार को कितनी दफे पढ़ते हो और वहीं से शुरू करते हो और वहीं अंत करते हो।
अब आनंद मैत्रेय प्रसन्न हो रहे हैं, वे भी यही करते हैं! और ऐसा भी नहीं कि आज का ही अखबार, पुराने भी इकट्ठे रखते हैं, थप्पी लगाते चले जाते हैं। कहते हैं न आदतें बड़ी मुश्किल से जाती हैं! संसद के सदस्य थे, दो सत्रों तक सदस्य रहे। किसी तरह मेरे चक्कर में पड़ गए। संसद से तो बचा लिया, दिल्ली से छुटकारा करवा दिया, मगर वे अपने चारों तरफ अखबार के ढेर लगाए चले जाते हैं। उनके कमरे को जो संन्यासिनियां साफ करने जाती हैं, वे मुझे खबर भेजती हैं कि अखबारों का क्या करें! क्योंकि वे तो बढ़ते ही जा रहे हैं। और नाहक उनकी रोज सफाई!
सांप भी चला जाता है, मगर लकीर तो रह ही जाती है। हाथी निकल जाता है, मगर पूंछ रह जाती है।
आदमी अकेला बैठ ही नहीं सकता। तुम जरा बैठ कर देखो, अचानक पाओगे कि पैर पर चींटी चढ़ रही है! और पाजामा खींच कर देखो, कहीं कोई चींटी नहीं! यह चींटी तुमने कल्पित कर ली। तुम्हारे अकेलेपन में कुछ न हो, न सही स्त्री, न सही पुरुष, चलो चींटी सही, चींटा सही! कुछ भी चढ़े तो! कुछ हो तो! कहीं कमर में दर्द, कहीं कान में सनसनाहट की आवाज, कहीं चूहा खटखट!
मुल्ला नसरुद्दीन को एक बीमारी थी कि वह रात में कई दफे उठ कर देखे कि बिस्तर के नीचे कोई है तो नहीं! सो ही न पाए। इधर नींद लगे कि उधर बस डर पैदा। डाक्टरों ने बहुत दवाइयां दीं, नींद की दवाइयां दीं। कोई दवाइयां काम न आएं। वह रात में कई दफे उठ कर देखे ही। आखिर डाक्टरों ने कहा कि यह मामला मानसिक है, तो मानसिक चिकित्सक के पास जाओ।
मानसिक चिकित्सक ने भी बहुत मनोविश्लेषण किया, बड़े सपनों की तलाश की। मगर सपनों वगैरह से कुछ लेना-देना हो तब!
आखिर मनोवैज्ञानिक ने भी कहा कि हाथ जोड़े भाई, यह बीमारी ठीक नहीं होगी। इसका कोई सूत्र ही नहीं मिलता, इसकी जड़ ही नहीं मिलती। यह है किस तरह की बीमारी? तुम देखते क्या हो बार-बार उठ कर?
कि मुझे शक पैदा हो जाता है कि कोई छिपा न हो।
अरे जब दरवाजे बंद हैं, ताला लगा कर सोए हो, खिड़कियां बंद हैं, कोई छिपा कैसे होगा?
नसरुद्दीन कहता कि मैं भी अपने को समझाता हूं कि अरे भई, ताला बंद है। मगर तब खयाल आता है, पता नहीं आज खुला छोड़ दिया हो, खिड़की की भूल-चूक से सिटकनी न लगी हो। और आदमी ऐसे चालबाज हो गए हैं कि बाहर से सिटकनी खोल लें। कोई आ ही गया हो, एक दफा देख ही लूं। और बस उठा कि नींद खराब हो जाती है, फिर घंटे भर में बामुश्किल नींद लगती है और फिर वही।
कोई महीने भर बाद मनोवैज्ञानिक ने देखा कि नसरुद्दीन बड़ी तेज चाल से सुबह-सुबह घूमता हुआ बगीचे से लौट रहा है, बड़ा प्रसन्न दिखाई पड़ रहा है। पूछा कि आज बड़े प्रसन्न हो, उदासी नहीं, रात भर की थकान का क्या हुआ? अब उठ कर नहीं देखते?
उसने कहा कि सब खतम हो गया; मेरी सास क्या आई, दो मिनट में उसने बीमारी खतम कर दी! बड़े-बड़े डाक्टर हार गए, तुम भी हार गए, बड़े-बड़े मनोवैज्ञानिक हार गए, ताबीज बांधे, मजारों पर गया, फकीरों की सेवा की, क्या-क्या नहीं किया, सब गोरखधंधे कर लिए! मगर मेरी सास क्या गजब की स्त्री है, आई और खत्म कर दिया।
मनोवैज्ञानिक ने कहा, भई मुझे भी बता दो। कभी किसी और को बीमारी हो ऐसी तो काम आ जाए।
उसने कहा कि मामला बड़ा सीधा-सादा है। वह गई और आरा उठा लाई और चारों पैर खाट के काट दिए। अब खाट लग गई जमीन से। अब लाख मैं शक करूं, क्या फायदा! अंदर कोई घुस ही नहीं सकता। अब शक करने से मतलब ही क्या है? उठ कर भी क्या देखना है? जमीन पर ही पड़े हैं।
आदमी को अकेला छोड़ो, कुछ-कुछ सोचेगा। जरा हवा का झोंका आएगा और लगेगा भूत-प्रेत आ गए! कि कोई लफंगा बांसुरी बजा देगा, और वे सोचेंगे कि कृष्ण-कन्हैया तो नहीं आ रहे! कि कोई छत पर बंदर चलेगा, लगेगा कि हनुमान जी तो नहीं हैं! क्या-क्या खयाल उठेंगे। ऊंचे-ऊंचे खयाल उठेंगे।
अकेलेपन को आदमी भरता है; दुख ही सही, दुख से ही भर लेगा, कल्पना ही सही।
पाल टिलिक ने अकेलापन जाना होगा। अकेलेपन के लिए अंग्रेजी में शब्द है: लोनलीनेस! और एकांत के लिए अंग्रेजी में शब्द है: अलोननेस। बनते तो एक ही शब्द से हैं दोनों, मगर बड़े अलग हो जाते हैं। एकांत! एकांत का अर्थ है विधायकता, अपना होना। और अकेलेपन का अर्थ है दूसरे का मौजूद न होना। अकेलापन दूसरे पर दृष्टि बांधे है और एकांत अपने पर आ गया, अपने पर लौट आया। और एकांत अभिशाप नहीं है, वरदान है।
पाल टिलिक निश्चित ही विश्वविख्यात विचारक थे और ईसाइयों के बहुत बड़े धर्म-चिंतक; जैसा कि नरेंद्र बोधिसत्व ने कहा। ईसाई उनको धर्म-चिंतक मानते हैं। बड़े धर्मगुरु!
लेकिन क्या खाक धर्मगुरु! इन्होंने एकांत का स्वाद ही नहीं जाना। नहीं तो बात कुछ और ही होती। क्योंकि इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है, वे सारे फूल एकांत में खिले हैं। सहस्रदल कमल एकांत में खिला है, एकांत की झील में खिला है। समाधि के सारे इंद्रधनुष एकांत के आकाश में ही फैले हैं। मनुष्य की आत्मा ने ऊंचे से ऊंची उड़ान एकांत के जगत में ही ली है। मनुष्य ने अगर पहचाना है अपनी भगवत्ता को तो एकांत में पहचाना है।
इसलिए मैं पाल टिलिक से, नरेंद्र बोधिसत्व, राजी नहीं हूं; बिलकुल राजी नहीं हूं, एकदम विरोध में हूं। हां, अकेलेपन के लिए वह जो कह रहा है, ठीक कह रहा है। मगर अकेलापन एकांत नहीं है। अकेलापन तो किसी को भी मिल सकता है।
पत्नी मायके चली गई और तुम अकेले हो गए। वही पत्नी, जिसे देख कर तुम घबड़ाते थे, जब मायके चली जाती है तो कैसी-कैसी प्रेम-पातियां लिख कर भेजने लगते हो! तुम पत्नी को नहीं लिख रहे हो प्रेम-पातियां, वह अकेलापन काट रहा है। अरे माना कि कभी सामान भी फेंकती थी तुम्हारे ऊपर, बेलन से भी मारती थी माना, माना कि सब्जी में ज्यादा नमक डाल देती थी जब गुस्सा होती थी और माना कि चाय दे देती थी बिना शक्कर के, यह सब माना--मगर कुछ तो होता था! कुछ खटर-पटर तो थी। घर में कुछ शोरगुल तो था। मेला तो लगा रहता था। अरे कुछ झमेला तो बना रहता था। जब से गई है, सन्नाटा है, एकांत है। न कोई झगड़ा है, न कोई झांसा है। अब बैठे रहो अकेले, करते रहो रामभजन।
मगर लाख रामभजन करो, कुछ हल नहीं होता। वह जो पत्नी गई है, उसकी याद आती है। उसके कृत्यों के कारण नहीं आती; उसके कृत्य आ जाएं, तब तो तुम अपने को सौभाग्यशाली समझो। उसके कृत्य याद नहीं आते। अभी तो याद आता है कि कम से कम थी, तो घर में कुछ चहलकदमी तो होती थी। नहीं है तो अकेलापन काटता है।
इसलिए मायके गई स्त्रियों को पतियों के जब प्रेम-पत्र मिलते हैं तो वे बड़ी प्रसन्न होती हैं; वे समझती हैं ये पत्र हमें लिखे गए हैं। गलती में हैं। वे बेचारे अपने अकेलेपन से परेशान हैं। इसलिए क्या-क्या अच्छी-अच्छी बातें लिखते हैं, कि हे प्राण-प्यारी, हे राजदुलारी, कि अब और न तड़फाओ, कि थोड़ा लिखा और ज्यादा समझना, कि चिट्टी लिखी और तार समझना, और तार समझ कर बस एकदम आ जाओ।
ये सिर्फ अकेलेपन से घबड़ाए हुए हैं। ये ही अकेलेपन से घबड़ाए हुए लोग, अगर इनकी पत्नियां न हों, तो धार्मिक हो जाते हैं। कृष्ण-कन्हैया को बिठाए हुए हैं। झूला झुला रहे हैं। झूला झूलें कन्हैया लाल! अब कन्हैया लाल ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? क्यों इन बेचारों को झूला झुला रहे हो? इनको कोई और काम नहीं कि बस तुम्हारा झूला ही झूलते रहें? बैठे हैं, घंटी बजा रहे हैं, पूजा कर रहे हैं, मंत्रत्तंत्र-यंत्र क्या-क्या नहीं कर रहे हैं! और कुल मामला इतना है कि शांत-मौन नहीं बैठ सकते हैं। कुल मामला इतना है।
स्त्रियों को भलीभांति पता है कि छुट्टी के दिन बच्चे भी घर में होते हैं, वे भी उपद्रव मचाते हैं और उनसे भी ज्यादा उपद्रव पति मचाता है। अकारण उपद्रव मचा देता है। अच्छी-भली चलती हुई घड़ी को खोल कर बैठ जाएगा, कि सफाई कर रहे हैं। कार के पहिए निकाल लेगा, इंजन खोल लेगा। क्या कर रहे हो?
तो कहेगा कि जरूरी है, कार के मैन्युअल में लिखा हुआ है।
गाड़ी अच्छी-भली चलती थी। लेकिन इसकी तकलीफ यह है कि कैसे बैठे! कुछ तो करेगा। कुछ उपद्रव तो करेगा। कुछ न करे तो चौबीस घंटे अनंत काल जैसे मालूम होंगे।
पाल टिलिक ने इसी तरह के अकेलेपन की अनुभूति की होगी, इसलिए बदकिस्मती कहते हैं, अभिशाप कहते हैं।
मैंने एकांत जाना है। और यहां मेरे पास जो लोग हैं, वे एकांत को जानने की दिशा में प्रतिपल आगे बढ़ रहे हैं। वे पाल टिलिक से राजी नहीं हो सकते। एकांत सौभाग्य है, वरदान है--इस जगत का सबसे बड़ा वरदान। क्योंकि जिस क्षण तुम परिपूर्ण रूप से एकांत हो जाते हो, उसी क्षण तुम मुक्त हो गए संसार से। अब तुम निर्भर न रहे--न वस्तुओं पर, न कृत्यों पर। अब तुम किसी चीज पर निर्भर न रहे। यही मुक्ति है, यही मोक्ष है।
नरेंद्र बोधिसत्व, तुमने पूछा: "भगवान, क्या यह सच है? क्या आप भी आदमी को उसके अकेलेपन से छुटकारा नहीं दिला सकते हैं?'
दूसरा कोई नहीं दिला सकता, क्योंकि दूसरा दिलाएगा तो दूसरा तो मौजूद रहेगा। फिर तुम दूसरे पर निर्भर हो जाओगे। अगर मैं तुम्हें तुम्हारे अकेलेपन से छुटकारा दिला दूं तो निश्चित ही तुम मुझ पर निर्भर हो जाओगे, क्योंकि मेरे बिना फिर तुम अकेले हो जाओगे। इसलिए कोई सदगुरु किसी को उसके अकेलेपन से छुटकारा नहीं दिलाता। हां, एकांत की तरफ इशारे करता है। एकांत की तरफ जाने का मार्ग सुझाता है, द्वार दिखाता है। एकांत की तरफ अंगुलियां उठाता है।
अकेलेपन से तुम्हें दूर नहीं करता, लेकिन एकांत की तरफ जाने के लिए सारा आयोजन जुटाता है। अकेलेपन से तो छुड़ाना बहुत आसान है। यही तो चल रहा है। मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरु, पंडित, संत-महात्मा और क्या कर रहे हैं? तुम्हें अकेलेपन से छुड़ा रहे हैं। वे तुमसे कह रहे हैं कि घबड़ाओ मत...।
कल किसी ने मुझे प्रश्न पूछा था कि शिरडी के साईं बाबा मरने के पहले कह गए: घबड़ाओ मत! जो मुझे भजेगा, मरने के बाद भी मैं उसकी सहायता को मौजूद रहूंगा। जो मेरी शरणागति रहेगा, मैं भागा हुआ आऊंगा। जो मुझे पुकारेगा, उसकी पुकार खाली न जाएगी।
मुझे पता नहीं कि शिरडी के साईं बाबा कह गए या नहीं कह गए, मगर यही चल रहा है। शिरडी के साईं बाबा की मजार पर लोग जो इकट्ठे होते हैं वे किसलिए इकट्ठे हो रहे हैं? इन्हीं आश्वासनों के कारण। पता नहीं उन्होंने दिए कि नहीं। मैं नहीं सोचता कि दिए होंगे, क्योंकि वे आदमी इस तरह की बातें कहने वाले आदमी न थे। लेकिन ईजाद कर लिए होंगे पंडितों ने, पुरोहितों ने। जो उनके पीछे मजार के मालिक हो गए हैं, उन्होंने ईजाद कर लिए होंगे ये शब्द। और इन्हीं शब्दों के सहारे सारा का सारा धंधा चल रहा है। आदमी यही तो चाहता है कि जब पुकारूं, शिरडी के साईं बाबा भागे चले आएं, ताकि अकेला न रहूं। इधर आवाज दूं, उधर वे हाजिर। इधर घंटी बजाई कि उधर वे हाजिर।
तुमने शिरडी के साईं बाबा को कोई होटल का बैरा समझा है? तुम पागल हो गए हो! कोई सदगुरु ऐसा भागा-वागा नहीं आता और न आने की कोई जरूरत है। सदगुरु का काम तुम्हें निर्भर बनाना नहीं है, तुम्हें मुक्त करना है; तुम्हें इस योग्य बनाना है कि किसी की कोई जरूरत ही न रह जाए। भगवान की भी कोई जरूरत न रह जाए, तभी समझना कि सदगुरु ने तुम्हें कोई साथ दिया। कोई जरूरत न रह जाए, तुम अपने पैरों पर खड़े हो जाओ, तुम अपनी निजता में आरूढ़ हो जाओ। इस अवस्था को ही कृष्ण ने स्थितप्रज्ञ की अवस्था कहा है।

वच वच वच


दूसरा प्रश्न: भगवान,
बुल्लेशाह ने एक अक्षर का गुण गाया है।
इक अलफ पढ़ो छुटकारा है।
इस अलफों दो तीन चार होए, फिर लख करोड़ हजार होए।
फिर  ओत्थों  बेशुमार  होए, इक  अलफ  दा  नुकता  न्यारा  है।
इक अलफ पढ़ो छुटकारा है।
क्यों पढ़ना ए गड्ड कताबां दी, सिर चाई पंड अजाबां दी।
हुन  होया  शकल  जलादां  दी, अगे  पैंडा  मुशकल  भारा  है।
इक अलफ पढ़ो छुटकारा है।
बन हाफज हिफज कुरान करें, पढ़ पढ़ के साफ जबान करें।
फिर निहमत विच धयान करें, मन फिरदा ज्यों हलकारा है।
इक अलफ पढ़ो छुटकारा है।
बुल्ला बी बोहड़ दा बोया सी, उह बिरछ वडा जां होया सी।
जद विरध उह फानी होया सी, फिर रह गया बी अकारा है।
इक अलफ पढ़ो छुटकारा है।
अर्थात बुल्लेशाह कहते हैं: एक अक्षर पढ़ो--और छुटकारा है। इस एक अक्षर से दो तीन चार हुए, फिर लाख करोड़ हजार हुए, फिर उससे बेशुमार हुए। एक अक्षर का रहस्य अनूठा है। एक अक्षर पढ़ो--छुटकारा है।
किताबों की गठरी क्यों पढ़ते हो? सिर पर तुमने अजायबघर की वस्तुओं का ढेर लगा रखा है। और तुम्हारी शक्ल-सूरत जल्लादों की हो गई है। इसलिए आगे के पथ पर भारी मुश्किलें हैं। एक अक्षर पढ़ो--छुटकारा है।
तुम कुरान को रट-रट कर हाफज--कुरान के रक्षक--बन गए हो और पढ़-पढ़ कर अपनी जबान स्वच्छ कर रहे हो। फिर निहमत में ध्यान करते हो। परंतु मन तुम्हारा गोल-गोल घूम रहा है। एक अक्षर पढ़ो--छुटकारा है।
बुल्लेशाह कहते हैं कि वट-वृक्ष का बीज बोया था, वह वृक्ष बहुत बड़ा हो गया, फिर वह वृक्ष फानी हो गया, तो फिर वही बीज के आकार में हो गया। एक अक्षर पढ़ो--छुटकारा है।
भगवान, निवेदन है कि समझाएं कि यह एक अक्षर क्या है और इसके पढ़ने से मुक्ति का क्या संबंध है।
चैतन्य कीर्ति,

अक्षर शब्द में ही बड़ा राज छिपा है। अक्षर का अर्थ होता है, जिसका क्षय न हो, जो सदा है। फिर जिसने उसे जान लिया जो सदा है और जिसका क्षय नहीं होता, उसे जानने को कुछ भी नहीं बचता। उसने शाश्वत को जान लिया। और वह अक्षर तुम्हारे भीतर है। बाहर भी है, लेकिन उसे जानना हो तो पहले भीतर जानना होगा, क्योंकि भीतर करीब है और बाहर दूर है।
बुल्लेशाह ठीक कहते हैं। एक अक्षर के पढ़ने से जब सारी बात हो जाएगी, तो क्यों फिजूल की झंझट में पड़ रहे हो? क्यों विचारों के उपद्रव में पड़ रहे हो? यह सारी बारहखड़ी, यह वर्णमाला, और वर्णमाला से फिर और-और शब्दों का जोड़, और शब्दों से फिर सिद्धांत, और सिद्धांतों से फिर दर्शनशास्त्र--जंगल बड़ा होता चला जाता है और तुम खोते चले जाओगे। अक्षर ही काफी है, शब्दों के जंगल में न भटक जाना।
क्यों पढ़ना ए गड्ड कताबां दी।
यह क्या पागलपन है, क्यों किताबों की गठरी ढो रहे हो? जब कि तुम्हारे भीतर चैतन्य का सारा राज छिपा है। अमृत का कुंड तुम्हारे भीतर है और तुम किताबों में खोज रहे हो! सत्य तुम्हारी संपत्ति है और तुम भिखारी बने न मालूम कहां-कहां भटक रहे हो, किस-किस के सामने झोली फैला रहे हो!
"किताबों की गठरी क्यों पढ़ते हो? सिर पर तुमने अजायबघर की वस्तुओं का ढेर लगा रखा है।'
कितना बड़ा हो गया है ढेर! लेकिन ढेर की भी लोग बड़ी महिमा गाते हैं। जिसका ढेर जितना बड़ा, वह सोचता है उतनी ही महिमा की बात। और जिसकी किताबें जितनी पुरानी, जितनी सड़ी-गली, जितनी जीर्ण-जर्जर, वह सोचता है मेरे पास उतनी ही बड़ी धर्म की संपदा है। इसलिए हर धर्म चेष्टा करता है कि हमारी किताब सबसे ज्यादा पुरानी। हिंदू कहते हैं, वेद सबसे ज्यादा पुराने। और पारसी कहते हैं, जेंदावेस्ता सबसे ज्यादा पुरानी। और जैन कहते हैं कि हमारे पहले तीर्थंकर का नाम ऋग्वेद में उपलब्ध है; जाहिर है कि हमारा धर्म ऋग्वेद से भी पुराना। क्योंकि जब तीर्थंकर का नाम ऋग्वेद में उपलब्ध है, तो एक बात तो पक्की है कि हमारा प्रथम तीर्थंकर समसामयिक न रहा होगा ऋग्वेद का। क्योंकि समसामयिक व्यक्ति को कोई समादर से पुकारता नहीं। और ऋग्वेद ने ऋषभदेव को बहुत आदर से पुकारा है। इतने सम्मान से पुकारा है, जो कि इस बात का सबूत है कि कम से कम दो सौ, तीन सौ साल तो बीत ही चुके होंगे।
आदमी बड़े अजीब हैं।
कल ही मेरे पास एक पत्र आया जर्मनी के एक बहुत बड़े धर्मगुरु का, जिसने लिखा है और जिसने रेडियो और टेलीविजन पर मेरे संबंध में वक्तव्य दिए हैं। उन वक्तव्यों में उसने यही बात कही है, वही बात मुझे लिखी है--कि और सब बातें मैं आपकी मान सकता हूं, लेकिन यह बात माननी असंभव है कि कोई जीवित व्यक्ति भगवान माना जाए।
अब विचारणीय यह है कि मरे व्यक्ति को भगवान मानने में उसे कोई तकलीफ नहीं, जीवित व्यक्ति को भगवान मानने में तकलीफ है। उसकी दलील यह है कि जीवित व्यक्ति को कैसे भगवान मानें!
यह तो बड़ा अनूठा तर्क हुआ! जब बुद्ध जीवित थे तो भगवान नहीं थे और जब मर गए तो भगवान हो गए! और जब महावीर जीवित थे तो भगवान नहीं थे और जब मर गए तो भगवान हो गए! एक बात इससे सिद्ध होती है कि भगवान का संबंध जीवन से नहीं, मौत से है। इसका मतलब यह है कि नीत्शे ठीक कहता है कि भगवान मर चुका है। अगर मरे हुए ही भगवान हो सकते हैं, तो फिर ऊपर जो आकाश में बैठा भगवान है, जिसकी चर्चा ईसाई करते हैं और प्रार्थना करते हैं, उसको ऊपर न बिठाओ, कब्र में दबाओ। जितना गड़ा दो गहरा उतना अच्छा, क्योंकि उतना बड़ा भगवान होगा। और यह तर्क कैसा कि जब कोई जीवित हो तो भगवान नहीं हो सकता और जब वही व्यक्ति मर जाए तो भगवान हो सकता है।
जैनों का तर्क यह है कि अगर ऋषभदेव को भगवान की तरह याद किया गया है तो जाहिर है कि उनको मरे काफी समय हो चुका होगा, कम से कम दो-चार सौ वर्ष तो निकल ही चुके होंगे। हमारा धर्म ऋग्वेद से ज्यादा पुराना है।
मगर हिंदू कुछ और कहते हैं। वे कहते हैं, ऋषभदेव नहीं है वह नाम, वृषभदेव है। हमारा मतलब सांड से है। हमारा मतलब कोई जैनियों के तीर्थंकर से नहीं है।
अब यह भी बड़ी मजे की बात है कि जैनियों के तीर्थंकर की प्रशंसा करने में उनको एतराज है, सांड की प्रशंसा करने में एतराज नहीं। सांड की बात ही और है! गऊमाता की सेवा में रत रहता है! शिवजी का पुराना सेवक है--नंदीबाबा! उनका पहरेदार है। जैसे हमारे नंदीबाबा हैं--संत महाराज! पक्के नंदीबाबा हैं! और जब मुझे नंदीबाबा खोजना पड़ा तो स्वभावतः पंजाबी को ही खोजना पड़ा, और तो कहां नंदीबाबा पाओगे! अब कोई बंगाली को नंदीबाबा बना कर बैठाओगे क्या? मूल नंदीबाबा भी पंजाब के ही रहे होंगे। और ऋग्वेद में जिस, हिंदुओं के हिसाब से वृषभदेव और जैनियों के हिसाब से ऋषभदेव, वे भी पंजाब के ही रहे होंगे वृषभदेव। क्योंकि वस्तुतः ऋग्वेद पंजाब में ही रचा गया। सबसे पहले आर्य आए तो वे पंजाब में ही आए, फिर धीरे-धीरे फैले गंगा की तरफ उत्तर प्रदेश में, बंगाल तक पहुंचते-पहुंचते तो बहुत समय लग गया। इसलिए तो बंगाली एकदम ढीले हो गए। लंबी यात्रा, धोती बिलकुल ढीली हो गई। थोड़ा-बहुत आर्यों का बल अगर रहा तो पंजाब में, पंजाब में थोड़ा पानी रहा। बंगाली तो बेचारा सिर्फ बाबू हो गया। बाबू यानी जिससे बदबू आती है--मछली की बदबू। बू सहित, अर्थात बाबू।
किताबों की गठरियां और दावे कि हमारी किताब सबसे ज्यादा पुरानी है, अजायबघर बना रखा है अपने सिर पर। हर आदमी ब्रिटिश म्यूजियम को ढो रहा है। और तब तुम्हारी शक्ल-सूरत अगर जल्लादों की हो गई तो आश्चर्य क्या! और तुम्हारे तथाकथित धार्मिकों ने सिवाय जल्लादी के और किया क्या है? हिंदुओं ने मुसलमान मारे, मुसलमानों ने हिंदू मारे, हिंदुओं ने बौद्ध मारे, ईसाइयों ने मुसलमान मारे, यहूदियों को मारा, मुसलमानों ने ईसाइयों को मारा। इस सारी जमीन पर इन किताबों के ठेकेदारों ने, इन कुरान, गीता और बाइबिल के मालिकों ने किया क्या है? जमीन को रक्त से भर दिया है।
ठीक कहते हैं बुल्लेशाह कि तुम्हारी शक्ल-सूरत जल्लादों की हो गई है। इसलिए आगे पथ पर भारी मुश्किलें हैं। उतारो ये किताबें अपने सिर से! एक अक्षर काफी है। अपने भीतर डूब जाओ। उस एक अक्षर के नाद को सुनो। उस एक अक्षर को हमने ओंकार कहा है। वह भीतर कलकल जो तुम्हारे चैतन्य का नाद है, वह जो तुम्हारी चेतना का संगीत है, वही अक्षर है। उस एक को पढ़ लो तो छुटकारा है।
क्या कर रहे हो? जबान को स्वच्छ कर रहे हो! घिस-घिस कर कुरान की आयतें जबान पर जबान को स्वच्छ कर रहे हो! कुरान न हुई कोई जीभ साफ करने की जीभी हुई! और फिर ध्यान क्या खाक करोगे! शब्दों से भरे हुए बैठोगे, ध्यान क्या करोगे? ध्यान में तो निःशब्द होना है, मौन होना है। फिर तुम्हारा मन गोल-गोल घूमेगा। वही आयतें, वही आरतियां, वही वंदन, वही जय गणेश जय गणेश, लौट-लौट कर आएगा। मन से तो मुक्त होना है और ये सारी किताबें तो मन को ही भरेंगी।
बुल्लेशाह कहते हैं: "वट-वृक्ष का बीज बोया था। वह वृक्ष बहुत बड़ा हो गया। फिर वह वृक्ष फानी हो गया, तो फिर वही बीज के आकार में हो गया। एक अक्षर पढ़ो--छुटकारा है।'
तुम्हारे भीतर बीज है--परमात्मा का, भगवत्ता का। उसी का फैलाव है। वही जीवन है। जन्म में वही शुरू होता है, पल्लवित होता है, मृत्यु में वही फिर वापस अपने मूलगृह में लौट जाता है। और जो मरने के पहले उस मूलगृह को पहचान लेता है, जो अपने मूलस्रोत पर आ जाता है, उसका जीवन धन्य हो जाता है। उसके जीवन में मुक्ति है। उसके जीवन में आनंद है। उसके जीवन में अमृत की वर्षा है।

वच वच वच


आखिरी प्रश्न: भगवान,
आद्य शंकराचार्य की एक प्रश्नोत्तरी इस प्रकार है।
मूकोऽस्ति को वा बधिरश्च को वा
      वक्तुं  न  युक्तं  समये  समर्थः।
तथ्यं सुपथ्यं न शृणोति वाक्यं
      विश्वासपात्रं न किमस्ति नारी।।
गूंगा कौन है? जो समय पर उचित बात कहने में समर्थ नहीं है। बहरा कौन है? जो यथार्थ और सुपथ्य वचन नहीं सुनता है। और विश्वास के योग्य कौन नहीं है? नारी।
भगवान, इस प्रश्नोत्तरी पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।

सहजानंद,
आद्य शंकराचार्य को पिटवाने का तुमने निर्णय ही कर रखा है? तुम क्यों उनके पीछे हाथ धोकर पड़े हो?
अगर उनको तुम्हारा पता होता तो वे कहते: "विश्वास के योग्य कौन नहीं है? सहजानंद!'
जो-जो कूड़ा-कचरा तुम्हें उनमें मिल रहा है, तुम छांट-छांट कर ला रहे हो।
अब ये बच्चों जैसे उत्तर: "गूंगा कौन है? जो समय पर उचित बात कहने में समर्थ नहीं है।'
और कौन तय करेगा कि उचित बात क्या है? क्योंकि जिस बात को शंकराचार्य उचित कहते हैं, बुद्ध उचित नहीं कहते। जिस बात को बुद्ध उचित कहते हैं, महावीर उचित नहीं कहते।
शंकराचार्य कहते हैं, ब्रह्म सत्य है और जगत माया है।
और महावीर कहते हैं, ब्रह्म तो है ही नहीं। सत्य का सवाल ही नहीं उठता। आत्मा है--व्यक्तिगत आत्मा। स्मरण रहे, ब्रह्म का अर्थ होता है सार्वभौम आत्मा। महावीर व्यक्तिवादी हैं। महावीर कहते हैं, व्यक्तिगत आत्मा है, कोई सार्वभौम परमात्मा नहीं है। और जगत सत्य है।
और बुद्ध? बुद्ध कहते हैं, न कोई परमात्मा है, न कोई आत्मा है, न कोई जगत है--सब कल्पना है, सब कल्पना का खेल है।
किसको उचित कहोगे? कौन सही है? तब तो महावीर की दृष्टि में शंकराचार्य गूंगे और शंकराचार्य की दृष्टि में बुद्ध गूंगे और बुद्ध की दृष्टि में जीसस गूंगे, सभी गूंगे हो जाएंगे।
मुझसे अगर तुम पूछो, गूंगा कौन है? तो मैं कहूंगा, ध्यान गूंगा है। क्योंकि ध्यान में जो जाना जाता है उसे कभी नहीं कहा जा सका; आज तक नहीं कहा जा सका। लाख कहने के उपाय किए गए, सब उपाय व्यर्थ हुए। कह-कह कर भी अनकहा रह गया। इसलिए मैं तो ध्यान को गूंगा कहूंगा। शंकराचार्य की बात तो बचकानी है।
उपनिषद कहते हैं, जो कहे कि मैं जानता हूं, जानना कि नहीं जानता। और जो कहे कि मैं नहीं जानता हूं, जानना कि जानता है।
यह बात कुछ वजन की है।
सुकरात कहता है, मैं तो एक ही बात जानता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता।
यह बात थोड़े मतलब की है, थोड़ी गहराई की है।
बोधिधर्म से जब सम्राट वू ने पूछा, तुम कौन हो? बोधिधर्म ने कहा, मैं! मुझे कुछ पता नहीं।
क्या तुम सोचते हो बोधिधर्म को पता नहीं था? पता था। मगर कहो कैसे!
प्रसिद्ध झेन फकीर रिंझाई नदी के किनारे बैठा था। और एक विचारक उससे मिलने गया, रहा होगा पाल टिलिक जैसा विचारक। उसने पूछा कि संक्षिप्त में मुझे कहो कि तुम्हारी सारी देशना का सार क्या है? रिंझाई जैसा बैठा था वैसा ही बैठा रहा; जैसे उसने सुना ही नहीं! सोचा उस विचारक ने, लगता है बूढ़ा बहरा भी है। जोर से पूछा। फिर भी कुछ न बोला रिंझाई। हिला कर पूछा कि तुम्हें हो क्या गया है? अरे मैं पूछ रहा हूं कि तुम्हारी देशना का सार क्या है?
रिंझाई ने कहा, वही तो मैं बता रहा हूं। चुप बैठा हूं। तुम पूछ रहे हो, मैं बोल नहीं रहा हूं। यह मेरी देशना का सार है। पूछो लाख, बोला नहीं जा सकता।
चिंतक ने कहा कि यह बात मेरी पकड़ में न आएगी। थोड़ा तो कुछ कहो, संक्षिप्त ही सही। मैं कोई बुद्धू नहीं हूं। तुम संक्षिप्त सा ही कह दो, एक शब्द भी कह दो, तो समझ लूंगा।
फिर भी रिंझाई बोला नहीं। बोलने की बजाय उसने अपनी अंगुली से रेत पर लिख दिया--ध्यान।
विचारक ने पढ़ा और उसने कहा कि ठीक, कम से कम कुछ तो तुमने कृपा की, मगर इससे मुझे कुछ ज्यादा समझ में नहीं आता। कुछ थोड़ा विस्तार से कहो।
तो रिंझाई ने और बड़े अक्षरों में लिख दिया--ध्यान। विस्तार कर दिया।
चिंतक ने कहा, तुम पागल हो या क्या? छोटा अक्षर हो कि बड़ा, ध्यान तो ध्यान ही है। अरे जरा विस्तार से कहो।
रिंझाई ने कहा कि अब अगर और विस्तार मैंने किया तो नरक में पडूंगा। क्या तुम मुझसे झूठ बुलवाने की कसम खाकर आए हो?
सत्य बोला नहीं जा सकता। जिसने सत्य बोला है, वही गूंगा है।
इसलिए मुझसे अगर तुम पूछो सहजानंद--मूकोऽस्ति को वा? कौन है गूंगा? तो मैं कहूंगा, ध्यानी, समाधिस्थ।
और तुम अगर पूछो--बधिरश्च को वा? और बहरा कौन है?
शंकराचार्य कहते हैं: "जो यथार्थ और सुपथ्य वचन नहीं सुनता है।'
यह बात वही की वही है, उसमें कुछ बहुत फर्क नहीं है। कौन तय करे यथार्थ क्या है? कैसे निर्णय हो? सारे दुनिया के महाजन यथार्थ के संबंध में बड़ी भिन्न-भिन्न बातें कह रहे हैं। सुपथ्य क्या है? क्योंकि जो एक को पथ्य है, वह दूसरे को बीमारी है। और जो एक को बीमारी है, दूसरे को पथ्य हो सकता है। सुपथ्य क्या है? कौन सी चीज पच जाने वाली है? और कौन सी चीज यथार्थ है, अर्थपूर्ण है? निर्णय कौन करे? हक किसको है निर्णय करने का?
नहीं, इस तरह की बात मैं न कहूंगा। मैं तो उसे बहरा कहता हूं--जो सुनता है और फिर भी नहीं सुनता। मैं मन को बहरा कहता हूं। ध्यान को गूंगा और मन को बहरा।
अब तुम्हें मेरा गणित समझ में आ सकेगा। मन बहरा है, क्योंकि विचारों से भरा है। विचारों से इतना भरा है कि सुनता ही नहीं। भीड़ भीतर इतनी है, शोरगुल इतना है कि सुने तो कैसे सुने? सुन भी ले तो कुछ का कुछ सुन लेता है। अर्थ का अनर्थ कर लेता है। मन बहरा है। गूंगा नहीं है मन, खयाल रखना--बड़ा बकवासी है, बड़ा मुखर है, वाचाल है! और यही अड़चन है। मन है मुखर, मगर बहरा। और ध्यान है गूंगा, मगर ज्ञाता। जो जानता है, बोल नहीं सकता। और जो बोल रहा है, जो निरंतर बोलता रहता है, दिन में भी और रात में भी, जो भीतर बकवास लगाए ही रखता है, जो क्षण भर को भी रुकता नहीं, वह जानता नहीं है।
शास्त्र मन से रचे गए हैं, इसलिए उनमें सत्य नहीं है। मन को छोड़ कर जो शून्य में जाता है, वह ध्यान में जाता है। वहां सत्य है। लेकिन फिर बोलने का उपाय नहीं है; फिर चुप्पी है, फिर गहन चुप्पी है; फिर सन्नाटा है, शाश्वत सन्नाटा है।
और आखिरी बात शंकराचार्य से पूछी गई: "विश्वासपात्रं न किमस्ति नारी। विश्वास के योग्य कौन नहीं? नारी।'
सदियों से ये तथाकथित महात्मा, संत, साधु नारी से परेशान हैं। यूं तो कहते हैं लोग नारी को अबला, लेकिन कहना चाहिए महात्माओं को अबला। ये महात्मा ऐसे कंपते हैं, नारी क्या देखी इन्होंने कि एकदम इनको जूड़ी का बुखार चढ़ जाता है। एकदम एक सौ पांच, एक सौ छह डिग्री, एक सौ सात डिग्री...एकदम मरने के करीब पहुंचने लगते हैं। नारी को देखना ही भर काफी है कि इनके ऊपर कुछ सांप लोटने लगता है। यह क्या पागलपन है? यह कैसी विक्षिप्तता है?
मगर कारण साफ है। नारी से ही लड़ कर, नारी से ही पीठ दिखा कर ये भाग खड़े हुए हैं। ये सब रणछोड़दास जी हैं। ये भाग गए हैं नारी से।
और जिससे तुम भागोगे, वह तुम्हारा पीछा करेगा। और जिससे तुम डरोगे, भयभीत होओगे, उससे तुम कभी मुक्त न हो सकोगे। डर नारी में नहीं है, डर शंकराचार्य के मन में है। अन्यथा क्यों कोई नारी से डरेगा? नारी में क्या डराने वाला है? लेकिन शंकराचार्य डर रहे हैं नारी से। यह शंकराचार्य के संबंध में सूचना है, नारी के संबंध में नहीं।
मेरे संन्यासी को तो कोई नारी डराए! मेरा संन्यासी कभी यह न कहेगा कि मैं नारी से डरता हूं। और नारी से डरता हो तो मेरा संन्यासी नहीं। क्या डराएगी नारी? न मेरी नारियां, संन्यासिनियां डरती हैं पुरुषों से। क्या डरना है इनसे! अरे आदमी जैसे आदमी हैं, कोई जंगली जानवर हैं? क्या करेंगे? आदमी जैसे आदमी हैं, स्त्रियां जैसी स्त्रियां हैं। आदमी और स्त्रियां कोई अलग-अलग नहीं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। क्या डरना? किससे डरना? क्यों डरना?
मगर भय पैदा होता है दमन से। और एक दफा दमन का रोग भीतर लग जाए तो जितना भय पैदा होता है, फिर दुष्टचक्र पैदा हो जाता है--भय पैदा होता है तो और दबाते हैं; और दबाते हैं तो और भय पैदा होता है; और भय पैदा होता है तो और दबाते हैं। बस अब कोल्हू के बैल बने, अब इसके बाहर निकलना बहुत मुश्किल है, जब तक कि मेरे जैसा कोई दीवाना न मिल जाए। कि तुम लाख कहो हमें नहीं निकलना है, मगर वह निकाल ही ले। तुम कितना ही चिल्लाओ कि मैं नारी से डरता हूं, वह दो-चार नारियों को तुम्हारे पीछे लगा दे कि होने दो रासलीला; कि आद्य शंकराचार्य कुछ भी कहें, तुम तो बजाओ बांसुरी, बजने दो घूंघर, उठने दो पायल, छेड़ दो वीणा! कितनी देर डरेंगे बेचारे, थोड़ी देर में शांत होकर बैठ जाएंगे कि अब करना क्या! अब ये नारियां मानती ही नहीं, इन्होंने वीणा छेड़ ही दी और घूंघर बज ही रहे हैं, तो क्या डरना!
लेकिन ऋषि-मुनि डरते रहे, सदा से डरते रहे। ऋषि-मुनियों को डराने के लिए इंद्र एक ही काम करता रहा है कि बस कोई ऋषि-मुनि बेचारे ध्यान करने बैठे हैं--पता नहीं इन गरीबों के पीछे क्यों--कि बस आ गई उर्वशी, कि भेज दी मेनका। और मेनका आए और उर्वशी आए और ऋषि-मुनि चूक जाएं, हो नहीं सकता। लाख कसमें खाई थीं, सब भूल-भाल जाते हैं। एकदम धूनी वगैरह छोड़ कर खड़े हो जाते हैं, नहा-धो कर साज-शृंगार कर लेते हैं कि बाई ठहर, आया! कि अरे देखेंगे फिर, साधना की जल्दी क्या है, तपश्चर्या अगले जनम में कर लेंगे, जनम-जनम पड़े हैं! तभी तो हमने जन्मों की खोज की है कि चौरासी करोड़ योनियां हैं, क्या जल्दी है! और मेनका फिर आई न आई, कोई दूसरे ऋषि-मुनि के पास भेज दी गई। अरे हजारों ऋषि-मुनि हैं! कोई ज्यादा देर सिर के बल खड़ा रहा, किसी ने लंबा उपवास कर दिया, कोई कांटों के बिस्तर पर लेट गया, आई मेनका न आई। अब आ ही गई घर, घर आए मेहमान को कभी विदा नहीं करना चाहिए। अरे मेहमान तो देवता है, जब आ ही गया तो अब आ ही गया।
ऋषि-मुनियों को भ्रष्ट करने का एक ही उपाय रहा है कि मेनका को भेज दो। यह भी बड़ी अजीब बात है। कोई पहलवान को भेजते कि उनको देता दचके, पटकनी मारता, दुलत्ती झाड़ता, तो भी समझ में आता; हड्डी-पसली तोड़ता। भेजी मेनका!
मेरे संन्यासी के पास तो भेजे इंद्र! इधर मैं रोज इंद्र से कहता हूं कि कुछ भेजो! तो कई दफे इंद्र महाराज खुद छिपे हुए आते हैं, मेनका वगैरह को साथ ही नहीं लाते। क्योंकि मेनका वगैरह को साथ लाएं तो फिर इधर-उधर देख न पाएं। क्योंकि वह मेनका हुद्दे मारे कि यह इधर-उधर क्यों देख रहे हो? तुम इस स्त्री को इतने गौर से क्यों देख रहे हो? अकेले आते हैं, छिप कर आते हैं। कई-कई रूप में आते हैं।
यह शंकराचार्य को क्या डर है नारी से? नारी ने क्या किसी का बिगाड़ा है?
नहीं, अगर मुझसे पूछोगे तो विश्वास योग्य कौन नहीं है? मैं कहूंगा, अहंकार। तब तो कुछ बात आध्यात्मिक होती है।
यह क्या गैर-आध्यात्मिक उत्तर! गूंगा कौन? उचित बात कहने में जो समर्थ नहीं। बहरा कौन? जो सुपथ्य वचन नहीं सुनता। डरना किससे? नारी से। ये आध्यात्मिक बातें हैं?
अहंकार एकमात्र चीज है जिस पर अविश्वास करो, जिससे सारा विश्वास अलग कर लो, जिस पर संदेह करो। क्योंकि संदेह की अग्नि में अगर अहंकार जल जाए तो तुम्हारी आत्मा प्रकट हो सकती है।
कहां से बढ़ के पहुंचे हैं कहां तक इल्मो-फन साकी मगर आसूदा इन्सां का न तन साकी न मन साकी
ये सुनता हूं कि प्यासी है बहुत खाके-वतन साकी
खुदा हाफिज चला मैं बांध कर सर से कफन साकी
सलामत तू, तिरा मैखाना, तेरी अंजुमन साकी
मुझे करनी है अब कुछ खिदमते-दारो-रसन साकी
रगो-पै में कभी सहबा ही सहबा रक्स करती थी
मगर अब जिंदगी ही जिंदगी है मौजजन साकी
न ला विश्वास दिल में, जो हैं तेरे देखने वाले
सरे-मकतल भी देखेंगे चमन-अंदर-चमन साकी
तिरे जोशे-रकाबत का तकाजा कुछ भी हो लेकिन
मुझे लाजिम नहीं है तर्के-मंसब दफअतन साकी
अभी नाकिस है मेयारो-जुनूं तंजीमे-मैखाना
अभी ना-मोतबर है तेरे मस्तों का चलन साकी
वही इन्सां, जिसे सरताजे-मख्लूकात होना था
वही अब सी रहा है अपनी अज्मत का कफन साकी
लिबासे-हुर्रियत के उड़ रहे हैं हर तरफ पुर्जे
बिसाते-आदमियत है शिकन-अंदर-शिकन साकी
मुझे डर है कि इस नापाकतर दौरे-सियासी में
बिगड़  जाए  न  खुद  मेरा  मजाके-शेरो-फन  साकी
मनुष्य के जीवन का सारा काव्य बिगड़ गया इन दमित लोगों के कारण।
मुझे  डर  है  कि  इस  नापाकतर  दौरे-सियासी  में
यह सब राजनीति है पुरुष और स्त्री के बीच।
मुझे डर है कि इस नापाकतर दौरे-सियासी में
बिगड़  जाए  न  खुद  मेरा  मजाके-शेरो-फन  साकी
आदमी का सारा काव्य, सारा संगीत नष्ट हो गया है।
सलामत तू, तिरा मैखाना, तेरी अंजुमन साकी
मुझे करनी है अब कुछ खिदमते-दारो-रसन साकी
रगो-पै में कभी सहबा ही सहबा रक्स करती थी
मगर अब जिंदगी ही जिंदगी है मौजजन साकी
न ला विश्वास दिल में, जो हैं तेरे देखने वाले
सरे-मकतल  भी  देखेंगे  चमन-अंदर-चमन  साकी
जो तेरे देखने वाले हैं, ऐ परमात्मा, वे तुझे, सूली पर भी चढ़ा दो तो वहां से भी देखेंगे। सूली जिन्होंने चढ़ाई है उनमें भी देखेंगे।
और शंकराचार्य अभी नारी में भी नहीं देख पा रहे--जिसने कि उन्हें जन्म दिया है।

आज इतना ही।

वच वच वच



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