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सोमवार, 17 अप्रैल 2017

अमृत द्वार-(विविध) -प्रवचन-02

अमृत द्वार-(विविध)

ओशो
प्रवचन-दूसरा-(नाचो धर्म है नाच)

मेरे प्रिय आत्मन,
अपना अनुभव ही सत्य है और इसके अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं है। जिस बोलने के साथ यह आग्रह होता है कि मैं कहता हूं, उस पर इसलिए विश्वास करो क्योंकि मैं कहता हूं। जिस बोलने के लिए श्रद्धा की मांग की जाती है--अंधी श्रद्धा की वह, बोलना उपदेश बन जाता है। मेरी न तो यह मांग है कि मैं कहता हूं उस पर आप विश्वास करें। मेरी तो मांग ही यही है कि उस पर भूलकर भी विश्वास न करें। न ही मेरा यह कहना है कि जो मैं कहता हूं वही सत्य है। इतना ही मेरा कहना है कि किसी के भी कहने के आधार पर सत्य को स्वीकार मत करना, और मेरे कहने के आधार पर भी नहीं।

सत्य तो प्रत्येक व्यक्ति की निजी खोज है। कोई दूसरा किसी को सत्य नहीं दे सकता। मैं भी नहीं दे सकता हूं, कोई दूसरा भी नहीं दे सकता है। सत्य दिया नहीं जा सकता, पाया जरूर जा सकता है। इसलिए मैं जो कह रहा हूं, उससे आपको कोई सत्य की दिखा दे रहा हूं, ऐसा नहीं है। फिर पूछा है कि मैं उपदेश क्यों दे रहा हूं?
न ही इसमें मुझे कोई आनंद उपलब्ध होता है कि आप जो मैं कहूं, प्रशंसा करें, उसके लिए तालियां बजाए, उसका समर्थन करें। न ही मेरा यह कोई व्यवसाय है। फिर मैं क्यों कुछ बातें कह रहा हूं। एक आदमी को दिखाई पड़ता हो कि आप जिस रास्ते पर जा रहे हैं वह रास्ता गङ्ढों में कांटों में ले जाने वाला है और आपसे कह दे कि इस रास्ते पर कांटे हैं औ रगढे हैं। वह आपको कोई उपदेश नहीं दे रहा है। वह केवल इतना कह रहा है कि जिस रास्ते से मैं परिचित हूं उस रास्ते पर उसी गङ्ढे में उन्हीं कांटों कें किसी को जाते हुए देखना अमानवीय है, चुपचाप देख लेना अमानवीय है, अत्यंत हिंसक कृत्य है।
सड़क के किनारे प्रकाश के खंभे लगे हुए हैं, स्ट्रीट लाइट लगे हुए हैं। जिस आदमी ने सबसे पहले फिल्डेल्फिया में सबसे पहला रास्ते के किनारे का प्रकाश लगाया, वह थज्ञ बेंजामेन फ्रेंकलिन। तब तक दुनिया में रास्तों के किनारे कोई प्रकाश नहीं लगाए जाते थे, रास्ते अंधेरे होते थे। बेंजामेन फ्रेंकलिन ने सबसे पहले अपने घर के सामने एक बत्ती लगायी, एक कंभा लगाया। पड़ोस में लोगों ने कहा, क्या तुम यह दिखलाना चाहते हो कि तुम्हारे पास पैसे है? क्या तुम यह दिखलाना चाहते हो कि तुम्हारे घर में बड़ा प्रकाश है? यह प्रकाश किसलिए लगाना चाहते हो? क्या घर की सजाट करना चाहते हो? बेंजामेन फ्रेंकलिन ने कहा, कि नहीं, रास्ते पर ऊबड़-खाबड़ पत्थर हैं, रात में यात्री भटक जाते हैं, कोई गिर भी जाता है, रास्ता खोजना मुश्किल हो जाता है। इसलिए मैं एक प्रकाश लगता हूं कि राह चलने वाले लोगों को मेरे घर के सामने के पत्थर तो कम से कम दिखायी पड़े, कोई उनसे टकरा न जाए और न गिर जाए। उसने तो प्रकाश लगा दिया।
वह बड़े धार्मिक भाव से रोज संध्या अपना दिया जला देता घर के सामने का। लेकिन पड़ोस के लोग उसके दिए को उठाकर ले जाते। कोई उसका दिया बुझा जाता। जिनके लिए वह दिया लगाया गया था वे ही उसको बुझा देते और उठाकर ले जाते। लेकिन धीरे-धीरे वह रोज लगाता ही गया उस दिए को। न तो वह प्रकाश के संबंध में कोई घोषणा कर रहा है, न कोई प्रचार कर रहा है। लेकिन उसके ही घर के सामने लोग अंधेरे में टकरा जाएं, यह उससे नहब देखा गया इसलिए प्रकाश का एक दिया अपने घर के सामने जलाता रहा।
धीरे-धीरे लोगों को समझ में बात आनी शुरू हो गयी। राहगीरों को दूर से ही वह अंधेरे रास्ते में वह प्रकाश दिखाई पड़ने लगा और वह प्रकाश राहगीरों को कहने लगा कि आ जाओ, यह रास्ता सुगम है। यहां प्रकाश है, अंधेरा नहीं है। पत्थर दिखाई पड़ते हैं। और जब राहगीर उस प्रकाशके पास आते तो वह प्रकाश उनसे कहने लगा कि देख कर चलना, सामने पत्थर है। पीछे की गली कहीं भी नहीं जाती है, पीछे जाकर मकान में समाप्त हो जाती है, वह कोई रास्ता नहीं है। वह प्रकाश बताने लगा कि मार्ग कहां है और कहां नहीं है। धीरे-धीरे गांव उस प्रकाश के प्रति आदर से भर गया और धीरे-धीरे दूसरे लोगों ने भी अपने घरों के सामने दिए रखने शुरू कर दिए। और फिर फिल्डेफिया की नगर कमेटी ने सोचा कि क्यों न सभी रास्तों पर प्रकाश कर दिया जाए। फिर उस पूरे नगर में प्रकाश हो गया। फिर सारी दुनिया के हर गांव के रास्तों पर प्रकाश हो गया।
लेकिन एक आदमी ने, जिसने पहली दफा वह प्रकाश लगाया, लोगों ने उससे पूछज्ञ, किसलिक् लगाते हो यह प्रकाश? क्या मतलब है तुम्हारा? क्या दिखाना चाहतेहो? और जिनके लिए लगाया था वह प्रकाश, वे ही उनको बुझा-बुझा जाते थे।
मैं कोई उपदेशक नहीं हूं, लेकिन अगर मुझे दिखाता हो कि मेरी आंखों के सामने ही कोई अंधेरे में भटकता है, और मुझे दिखाता हो कि कोई पत्थर से टकराता है और मुझे दिखाता हो कि कोई दुख और पीड़ा के मार्गों को चुनता है, अंधकार के मार्गों को चुनता है, तो नहीं मैं उसे कोई उपदेश दे रहा हूं, लेकिन एक दिया अपने घर के सामने जरूर रखता हूं। हो सकता है उसे कुछ दिखाई पड़ जाए। हो सकता है जिन रास्तों पर वह भटक रहा है, उसे दिखाई पड़ जाए कि कटकाकीर्ण हैं, पत्थर से भरे हैं, अंधेरे में ले जाने वाले हैं। उसे कोई बात बोध में आ जाए। न ही कोई खुशी है इस बात की, कि कोई भीड़ सुनने आती है या नहीं आती है। कौन सुनता है, नहीं सुनता है, यह सवाल नहीं है। सवाल केवल इतना है कि मैं, मुझे दिखाई पड़ता हो कि जो रास्ता गलत है, अगर देखते हुए लोगों को उस पर चलने दूं तो मैं हिंसा का भागीदार हूं और पाप का जिम्मेवार हूं। वह मैं नहीं होना चाहता हूं इसलिए कुछ बातें मैं आप से कहता हूं। लेकिन वे उपदेश नहीं हैं। आप मानने को बाध्य नहीं, स्वीकार करने को बाध्य नहीं है, अनुयायी बनने को वाध्य नहीं हैं, कोई शिष्यत्व स्वीकार करने को बाध्य नहीं हैं। आप कोशिश भी करें मुझे गुरु बनाने की तो मैं राजी नहीं हूं। आप मेरे पीछे चलना चाहें तो मैं हाथ जोड़कर क्षमा मांग लेता हूं। कोई को मैं पीछे चलने देता हूं। अगर मेरी किताब को आप शास्त्र बनाना चाहें तो उनमें मैं आग लगवा दूंगा कि शास्त्र न बन पाएं।
ये जो मैं कह रहा हूं किन्हीं दूसरे शास्त्रों के विरोध में, वह किसी किताब के विरोध में नहीं कह रहा हूं। यह भी पूछा है, उन्होंने कि आप शास्त्र के विरोध में कहते हैं और आपकी किताबें छपती हैं और बिकती हैं। किताबों के मैं विरोध में नहीं हूं, शास्त्रों के विरोध में हूं। शास्त्र और किताब में फर्क है। किताब सिर्फ निवेदन है, शास्त्र सत्य की घोषणा है प्रामाणिक। शास्त्र कहता है कि मुझे नहीं मानोगे तो नर्क जाओगे। शास्त्र कहता है जो मुझे मानता है वही स्वर्ग जाता है, शास्त्र कहता है, मुझ पर संदेह मत करना। वह प्रामाणिक है। वह ज्ञान की अंतिम रेखा है, उसके आगे आपको संदेह करने का सवाल नहीं है। किताब ऐसा कुछ भी नहीं कहती। किताब का तो विनम्र निवेदन है कि मुझे ऐसा लगता है, वह मैं पेश कर देता हूं। गीता अगर किताब है तो बहुत सुंदर है और अगर शास्त्र है तो बहुत खतरनाक है। कुरान अगर किताब है तो बहुत स्वागत के योग्य है, लेकिन अगर शास्त्र है, तो ऐसे शास्त्रों की अब पृथ्वी पर कोई भी जरूरत नहीं है। अगर महावीर के वचन और बुद्ध के वचन किताबें हैं तो ठीक है, वे हमेशा-हमेशा पृथ्वी पर रहें, लोगों को उनसे लाभ होगा लेकिन अगर वह शास्त्र हैं तो उन्होंने काफी अहित लोगों का कर दिया है और अब उनकी कोई जरूरत नहीं है।
मेरी बात आप समझे? मैं यह कह रहा हूं कि किताबें तो ठीक हैं, शास्त्र ठीक है। अब कोई किताब पागलपन से भर जाती है और पागलपन की घोषणा करने लगती है...किताब तो क्या करेगी, जब उसके अनुयायी करने लगते हैं। जब अनुयायी किसी किताब के संबंध में विक्षिप्त घोषणाएं करने लगते हैं तो वह शास्त्र हो जाती है। जब कोई किताब अथरिटी बन जाती है तब वह शास्त्र हो जाती है। मेरी कोई किताब शास्त्र नहीं है। दुनिया ी कोई किताब शास्त्र नहीं है। सब किताबें किताबें हैं। सब विनम्र निवेदन है उन लोगों के जिन्होंने कुछ जाना होगा, कुछ सोचा होगा, कुछ पहचाना होगा, उनके विनम्र निवेदन हैं। आप उन्हें मानने को बाध्य नहीं है, लेकिन आप उन्हें जानें, उनसे परिचित हों, यह ठीक है। लेकिन जो जान लें पढ़ कर और परिचित हो जाएं, उसको ज्ञान समझ लें तो गलती पर हैं। मैं यह नहीं कहता हूं कि कोई किताबों को नहीं जाने। मैं यह कहता हूं, किताबों से जो जाना जाएगा उसे कोई ज्ञान समझ ने की भूल न समझ ले। वह ज्ञान नहीं है। किताबों से जो जाना जाता है। वह इन्फर्मेशन है। सुचना है। नालिज नहीं है, ज्ञान नहीं है।
मेरी किताबों से भी जो जानिएगा वह भी सूचना है, वह भी ज्ञान नहीं है।अगर मैं यह कहूं कि दूसरों की किताबें तो गलत हैं और मेरी किताब ठीक हैं तो फिर मैं लंबी पागलों की कतार में एक पागल हूं। मेरा किताब और दूसरे की किताबों का सवाल नहीं है। किताब से पाया गया ज्ञान नहीं होता है। अगर आपने मेरी किताबें इसलिए खरीदी हों कि उनसे ज्ञान मिल सकता है तो कृपया उनको वापस कर दें। उनसे ज्ञान बिलकुल नहीं मिल कसता। किसी किताब से कभी नहीं मिल सकता। सूचनाएं मिल सकती हैं। सूचनाएं, अगर आप उन्हें ज्ञान समझ लें तो खतरनाक हो जाएंगी, और सुचनाएं अगर आपके भीतर प्यास को जगा दें तो बड़ी सार्थक हो जाएंगी। तीर्थंकर और पैगंबर और महापुरुष, अगर आप उन्हें गुरु बना लेते हैं तो नुकसान हो जाता है अगर वे सब आपके भीतर सोयी हुई प्यास को जगाने वाले स्रोत होजाएं तो बहुत अदभुत बात है। अगर उनको देखकर आपको आत्मग्लानि पैदा हो जाए...।
लेकिन हम बड़े होशियार लोग हैं। अगर महावीर यहां आपके बीच आ जाए या बुद्ध या जीसस क्राइस्ट, तो होना यह चाहिए कि उनको देखकर आपके भीतर आत्मग्लानि पैदा हो जाए। यह खयाल आ जाए कि मैं भी एक आदमी हूं और यह भी एक आदमी है। यह किस आनंद को, किस आलोक को उपलब्ध हो गया है मैं किस अंधेरे में भटक रहा हूं। नहीं, लेकिन आपको आत्मग्लानि बिलकुल न आएगी। आपको गुरुपूजा पैदा होगी। अदभुत अवतार आगया, चलो इसकी पूजा करें। आत्मग्लानि तो पैदा नहीं होगी, दूसरे को पूजा शुरू करेंगे। यह तो खयाल पैदा नहीं होगा कि मैं कैसा मनुष्य हूं कि मैं भटक रहा हूं अंधेरे में! एक दूसरा मनुष्य प्रकाश को उपलब्ध हो गया है। आपको यह खयाल होगा कि मैं तो मनुष्य हूं, यह आदमी मनुष्य से ऊपर है, महामानव है, सुपर मैन है, तीर्थंकर है अवतार है। यह मनुष्य नहीं है, यह दूर का है, यह भगवान का पुत्र है, यह भगवान का भेजा हुआ संदेशवाहक है, इसके पैर पड़ो, इसकी पूजा करो। आत्मग्लानि से बचने का उपाय है पूजा। जो लोग किसी की पूजा करते हैं वे बहुत बेईमान हैं, सेल्फ डिसेप्सन में पड़े हुए है। वे अपने को धोखा दे रहे हैं। वे होशियार हैं बहुत, बनिंग है, बहुत चालाक हैं। वे यह कोशिश कर रहे हैं, आत्मग्लानि से बचने की तरकीब है पूजा दूसरे की पूजा करने लगो, खुद की ग्लानि मिट जाती है। भूल ही जाती हैं कि हम भी कहीं हैं। दूसरे की महानता की चर्चा शुरू हो जाती है और खुद की क्षुद्रता भूल जाती है। होना उल्टा चाहिए था कि खुद की क्षुद्रता दिखायी पड़नी चाहिए थी। खुद की क्षुद्रता दिखायी पड़ती तो एक दूसरी दिशा में आपकी गति होती। और दूसरे की महानता दिखायी पड़ेगी सिर्फ और पूजा होगी तो आपकी दिशा दूसरी होगी।
धर्म पूजा बन गया, साधना नहीं बन सका। इसीलिए साधना पैदा होती है--आत्मचिंतन और आत्मचिार से। और तथाकथित उपासना के धर्म पैदा होते हैं पूजा और वर्शिप से। तो अब तक हमने दुनिया में जो भी ज्योतियां प्रकट हुई उन ज्योतियों के आसपास घुटने टेककर आखें बंद कर ली और जयजयकार करने लगे, बिना इस बात की फिकर किए कि ज्योति जिनमें प्रकट हुई थी, वे ठीक हमारे जैसे मनुष्य हैं। कोई ईश्वर का पुत्र नहीं है, कोई अवतार नहीं है, कोई तीर्थंकर नहीं है, सभी हमारे जैसे मनुष्य हैं। लेकिन अगर हम यह समझ लें कि वे हमारे जैसे मनुष्य हैं तो हमको बड़ी कठिाई हो जाएगी, बड़ी पीड़ा हो जाएगी। फिर हमारे सवाल होगा कि हम क्यों पीछे पड़े हैं? हम क्यों अंधेरे में भटक रहे हैं? फिर हमको भी ऊपर उठना चाहिए। इससे बचनेके लिए हमने कहा कि वह मनुष्य की नहीं है। हम तो मनुष्य हैं, वे महामानव हैं। वे जो कर सकतेहैं, हम कैसे कर सकते हैं? हमारा बीज ही अलग है, उनकी बीज ही अलग है। वह अद्वितीय है, वह भिन्न ही है। तोहमने उस सबके चारों तरफ अद्वितीयता की महिमा को मंडित कर दिया। उनके शब्दों के आसपास सर्वज्ञता जोड़ दी कि वे बातें जो हैं, सर्वज्ञों की कहीं हुई हैं, कभी भूल भरी नहीं हो सकती हैं। हमने उनके आसपास प्रामाणिक जोड़ दी। आप्तता जोड़ दी। और इस आप्तता को जोड़कर हमने बचनों को शास्त्र बना दिया और जाग्रत पुरुषों को हमने अपौरुषेय बना दिया। उनको हमने महामहिमा बना दिया और परमात्मा के अवतार बना दिया। हमारे और उनके बीच हमने एक दूरी पैदा कर ली। दूरी के कारण हम निश्चित हो गए ,हमारी आत्मग्लानि समाप्त हो गयी। मनुष्य जाति इस कारण भटकी है और आज भी हमारे इरादे यही हैं कि हम इन्हीं बातों को जारी रखें और आगे भी भटकने की ही तैयारी कर रहे हैं।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि क्या सभी धर्मों को जब मैं बिमारी कहता हूं, कल ही मैंने कहा। कल ही किसी ने पूछा था कि तीन सौ धर्मों में श्रेष्ठ धर्म कौन सा है? आज फिर कोई उन्हीं के मित्र आ गए, वे शायद कल मौजूद नहीं थे। जहां तक तो...वे जरूर मौजूद रहे होंगे। वे यह पूछ रहे हैं कि और सब धर्मों  के बाबात तो आपने ठभक कहा, लेकिन जैन धर्म के बाबत आपकी बात बड़ी गड़गड़ है। यह जैन धर्म उनका धर्म होगा। ये पोलैंड के निवासी फिर उपलब्ध हो गए। वह मुसलमान कहेगा कि और सबके बाबत तो आप बिलकुल ठीककह रहे हैं, दो सौ निन्यानबे धर्मों के बाबत बिलकुल सच है आपकी बात। जरा एक छोटी-सी भूल कर रहे है, इस्लाम के बाबबत आप ठीक-ठीक नहीं कह रहे हैं। वही ईसाई कहेगा, वही हिंदू कहेगा, वही सब कहेंगे। वे सब कहेंगे कि दो सौ निन्यानबे की बाबत आपकी बात तो बिलकुल ठीक है, लेकिन एक के बाबत आपकी बात गलत है। मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि दो सौ निन्यानबे को जाने दें भाड़ में, जिस धर्म को आप मानते हैं उसी के संबंध में मैं कह रहा हूं। दूसरे धर्मों से क्या लेना-देना है? वह एक धर्म जरूर गलत है, बाकी दो सौ निन्यानबे गलत हों या न हों, उनसे कोई मतलब नहीं है; उनसे कोई प्रयोजन नहीं है हमारा। मैं तो आपके ही धर्म के बाबत कह रहा हूं, जो भी आपका धर्म हो, वो--चाहे जैन, चाहे हिंदू, चाहे मुसलमान। बड़ी सुविधा है इस बात में क्योंकि दूसरों के धर्म गलत हो तो बड़ी खुशी होती है मन में। पीड़ा तो वहां से शुरू होती है जहां आपको लगता है कि आपकी पकड़ भी, आपकी जकड़ भी तो कहीं गलत नहीं है?
उन्हें मित्र ने यह भी पूछज्ञ है कि--और यह भी हो सकता है कि जैन साधु आजकल जो धर्म प्रचार करते हों, वह गलत हो लेकिन महावीर का उपदेश तो गलत नहीं हो सकता।
आपको पता है कि महावीर का उपदेश क्या है? कभी महावीर यहां मौजूद हों और इतने लोग उन्हग सुनें, और आप दरवाजे के बाहर जाकर पूछें कि उन्होंने क्या कहा है, तो आप समझते हैं कि सभी लोग एकबात कहेंगे? जितने लोग होंगे, उतनी बातें होंगी।
सिंगमड फ्रायड के बीस पच्चीस मित्रों का एक समूह था। फ्रायड खुद ही एक मसीहा था। इस अर्थों में कि दुनिया में जिन लोगों ने कुछ विचारों की नयी क्रांतियां की हैं उनमें महावीर और बुद्ध के साथ फ्रायड का नाम भी खड़ा होगा। अगर हिंदुस्तान में पैदा होता है हमे उसको भगवान की हैसियत देते, लेकिन गलती की कि वहां योरोप में पैदा हुआ। वहां कोई आदमी जल्दी भगवान नहीं बनता। उसके दस मित्रों का जो पहला समूह था, एक दिन सांझ को फ्रायड ने अपने सारे शिष्यों को मित्रों को बुलाया हुआ है भोजन पर। वह सब भोजन कर रहे हैं, फ्रायड भी भोजन कर रहा है। उन सबसे विवाद शुरू हो गया किसी बात पर कि इस संबंध में फ्रायड का क्या मंतव्य है। फ्रायड मौजूद है, वह बैठा भोजन कर रहा है।
वे पच्चीसों मित्र आपस में लड़ने लगे। हरेक कहने लगा, नहीं यह मतलब नहीं है फ्रायड का। फ्रायड का मतलब और है। यह मतलब यह है। वे पच्चीसों विवाद करने लगे। घंटे भर में विवाद में इतने लीन हो गए कि वे यह भूल ही गए कि फ्रायड मौजूद है, इससे क्यों न पूछ ले कि तुम्हारा मतलब क्या है? फिर फ्रायड ने कहा, मित्रों, मेरे सोने का समय हो गया। फौरन तुमसे एक प्रार्थना करता हूं कि जो काम मेरे मरने के बाद करना था, तुम मेरी जिंदगी में मेरे सामने कर रहे हो। मैं मर जाऊं तब तुम तय करना कि फ्रायड को क्या उदपेश था! अभी तो मैं हिंदा हूं, मुझसे पूछ सकते हो। लेकिन तुम्हें मुझसे पूदने की फुर्सत नहीं। तुम आपस में तय कर रहे हो कि मेरा मतलब क्या है।
महावीर का क्या मतलब है? श्वेतांबर से पूछो, वह कहता है और मतलब है। दिगंबर से पूछो, वह कहता है और मतलब है। स्थानकवासी से पूछज्ञे, वह कहता है, और मतलब है। तेरापंथी से पूछो, वह कहता है और मतलब है। अभी यही तय न हो सका कि महावीर नगे रहते थे कि वस्त्र पहनते थे। उपदेश तो बहुत दूर की बात है। कोई कहता है वस्त्र पहनते थे, कोई कहता है नंगा रहते थे। अभी यह भी तय नहीं हो सका कि महावीर की शादी हुई थी कि नहीं हुई थी। दिगंबर कहते हैं, शादी कभी नहीं हुई। महावीर जैसा पुरुष कहीं शादी कर सकता है? श्वेतांबर कहते हैं, शादी तो हुई ही थी, लड़की भी पैदा हुई थी। लड़की का दामाद भी था। इन बातों पर ही तय नहीं हो सकता तो उपदेश पर आप क्या तय करेंगे कि महावीर ने क्या कहा है?
जैनों में एक तीर्थंकर हुए मल्लीनाथ। मल्लीनाथ के बाबत अभी तब यही तय नहीं हो पाया है कि वह स्त्री थे कि पुरुष थए। श्वेतांबर कहते थे, उनका नाम था मल्लीबाई, और दिगंबर कहते है, उनका नाम था मल्लीनाथ। हद मजा है। और आप यह तक कर रहे हैं कि उनका उपदेश क्या था, और उन्होंने क्या कहा। अभी यही तय करना मुश्किल है कि यह स्त्री थे कि पुरुष थे।
आदमी थोपता है दूसरे के ऊपर कि उसका क्या मतलब है। गीता की एक हजार टीकाएं लिखी गयी हैं। या तो कृष्ण का दिमाग खराब रहा होगा अगर उनकी एक ही बात में एक हजार मतलब हो। और या फिर टीकाकारों का दिमाग खराब रहा हो। कृष्ण ने तो वही कहा है जो कहा है, लेनिक यह कौन तय करे कि उन्होंने क्या कहा है? मैं एक तरह से तय करता हूं, आप दूसरी तरह से तय करते हैं। तीसरा आदमी तीसरी तरह से तय करता है। एक ही बात के हजार अर्थ हो सकते हैं।
लेकिन इस विवाद में क्यों पड़ना कि महावीर ने क्या कहा है? महावीर ने जिस चेतना में प्रवेश करके जामा था वह चेतना आपके पास मौजूद है। प्रवेश करिए और जानिए। महावीर को तय करने की क्या जरूरीत है, अदालत बिठलने की क्या जरूरत है कि उन्होंने क्या कहां? टीकाएं लिखने की क्ाो जरूरत है? आप भी वही हो सकते हैं जो महावीर थे। तो फिर वही होकर जान लीजिए। फिर क्या जरूरत है कि आप तय करें। ढाई हजार वर्ष पहले कोई आदमी हुआ कि नहीं हुआ, क्या कहा उसने कि नहीं कहा। इससे प्रयोजन क्या है?
मैं एक गांव में बोलने गया। बोलने के बाद एक पंडित खड़े हो गए और उन्होंने मुझे पूछा कि मैं तीन वर्षों से एक रिसर्च कर रहा हूं, एक शोध कार्य कर रहा हूं। मैं यह पता लगाना चाहता हूं कि बुद्ध और महावीर दोनों एक ही समय में हुए, उसमें उम्र किसकी ज्यादा थी--बुद्ध की उम्र ज्यादा थी कि महावीर की उम्र ज्यादा थी? मैंने कहा, उनकी उम्र तय करने में तुम अपनी उम्र क्यों खराब कर रहे हो? और तीन साल तुम्हारे खराब हो गए। उसमें से किसी की भी ज्यादा हो इससे क्या फर्क पड़ता है? यह दुनिया में कौन-सा अहम मसला है? लेकिन यह आदमी अगर तय कर लेगा तो यह पी. एच. डी. हो जाएगा। इसको एक रिसर्च की डिग्री मिल जाएगी और यह डाक्टर कहलाएगा। और लोग संभ्रम से देखेंगे कि आदमी डाक्टर है। यह आदमी पागल है। यह आदमी यह तय कर रहा है कि बुद्ध महावीर से बड़े थे कि महावीर बुव से बड़े थे। यह सब खोज-बीन करके, पच्चीस तर्क करके यह निर्णय करेगा और इस बीच यह अपनी उम्र खराब करेगा।
मेरी दृष्टि में सत्य को किसने कैसा जाना और किसने क्या कहा, यह निर्णय करने की न तो कोई जरूरत है, न कोई उपयोगिता है, न कोई अर्थ है, जब कि हम स्वयं सत्य को जानने के हकदार और मालिक हो सकते हैं। जब कि मैं सीधा ही सत्य का साक्षात्कार कर सकता हूं, जब कि मैं खुद ही वहां हो सकता हूं जहां महावीर और बुद्ध थे। तो मैं इनकी क्ाो फिकर करूं कि कौन वहां था और उससे क्या कहा! यह तो तब करने की जरूरत थी, जब मैं यहां न पहुंच सकूं। तो यह बात निर्णय करने की जरूरत थी, कि हम यह निर्णय करें कि उन्होंने क्या कहा?
लेकिन मेरी समझ में प्रत्येक व्यक्ति अधिकारी है, जन्म से अधिकारी है उस सबको पा लेने का जो कभी भी किसी व्यक्ति ने पाया हो। इसलिए कोई आवश्यकता नहीं है कि आप पीछे लौटकर फिकर करने जाए। भीतर जाकर जानने की जरूरत है, पीछे लौटकर नहीं। पच्चीस सौ साल पीछे नहीं लौटना है, पच्चीस कदम अपने भीतर उतर लें तो सब जान लेगे जो पच्चीस सौ साल पीछे उत्तर कर आप नहीं जान सकते। अगर आप निर्णय भी कर लिया तो उसे क्या हमल होता है।
उन मित्र ने यह भी पूछा है किसी और ने कि धर्मग्रंथों में क्या सब फिजूल बातें लिखी है।
यह मैंने कब कहा? यह मैंने कब कहा कि धर्मग्रंथों में सब फिजूल बातें लिखी हैं? लेकिन धर्मग्रंथों को जो अंधे की भांति पकड़ लेता है, उसका पकड़ा हुआ तब फिजूल होता है। वह उसके अंधेपन के कारण फिजूल होता है। सवाल यह नहीं है कि धर्मग्रंथों में क्या लिखा है और क्यों नहीं लिखा है। सवाल यह है कि आप अंधे होकर पकड़ते हैं या आंख खुली होकर जीवन को खोजते हैं। अगर आप अंधे होकर पकड़ते हैं तो जो भी पकड़ लेंगे वह फिजूल होगा। वह दो कौड़ी का होगा। यह प्रश्न नहीं है कि वहां जो लिखा है वह ठीक है या नहीं? ठीक का निर्णय कौन करेगा? अंधे आदमी बैठकर निर्णय करेंगे कि प्रकाश के संबंध में जो लिखा है वह ठीक है या नहीं, तो खूब निर्णय हो जाएगा उनसे फिर! सिर फूट बोल हो जाएगी, लकड़ियां चल जाएगी, हत्याएं हो जाएंगी। अंधे क्या निर्णय करेंगे कि प्रकाश के संबंध में कही कोई कौन-सी बात सच है। कोई निर्णय उससे होने का नहीं है। कौन तय करेगा कि क्या ठीक है? आप ही तो तय होने का नहीं है। कौन तय करेगा कि क्या ठीक है? आप ही तो तय करेंगे न? अगर आप गीता पढ़कर भी निर्णय करेंगे कि यह बात ठीक है तो यह निर्णय कृष्ण का नहीं है, यह निर्णय आपका निर्णय है। और आपकी स्थिति क्या है? अगर आप जानते हो तो गीता से पूछने नहीं जाते। आप नहीं जानते हैं सो गीता से पूछने गए। और मैं पढ़कर आप जो निर्णय करेंगे वह निर्णय आपका ही है कि गीता का क्या अर्थ है!
बुद्ध एक रात भिक्षुओं की एक सभा में बोलते थे। कोई दस हजार भिक्षु थे। वे बुद्ध की बातें सुने। एक चोर भी उस रात सभा में सुनने आ गया था। चोर भी धर्म सभाओं में बहुत जाते हैं क्योंकि उनको बड़ा भय लगा रहता है कि कहीं कोई गड़बड़ चल रही है, कुछ गड़बड़ न हो जाए। तो वह काफी धर्म सभाओं में जाते हैं, धर्मग्रंथ भी खरीदते हैं और रखते हैं पास में। क्योंकि पीछे कभी उनसे भी रास्ता मिल सकता है। एक चोर भी पहुंच गया था। एक वेश्या भी पहुंच गयी थी उस सभा में। बुद्ध तो रोज बोलते थे, रोज उनका नियम था। बोलने के बाद वे भिक्षुओं को कहते थे अब जाओ, रात्रि का अंतिम कार्य करो। यह मतलब यह था कि भिक्षु रोज रात्रि को अंतिम ध्यान के लिए जाते थे, फिर ध्यान करके सो जाते थे। रोज-रोज कहने को कोई जरूरत न थी। बुद्ध इतना कह देते थे कि अब आज की बात पूरी हुई। अब आज रात्रि के अंतिम कार्य में लगें।
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा, भिक्षुओं! जाओ रात्रि का अंतिम कार्य करो। चोर को खयाल आया कि अरे कि मैं कहा बैठा, कब से बातचीत सुन रहा हूं! जाऊं, अपना काम करूं रात्रि का। व्यवसाय का समय हो गया, मेरी दुकान खुलने का वक्त हो गया। वेश्या को ध्यान आया कि बड़ी रात बीत गयी, उसे ग्राहक आने शुरू हो गए होंगू। वह जाए, रात का अपना काम करे। बुद्ध ने कहा, कि रात का कार्य करो। भिक्षु ध्यान करने चले गए, वेश्या वेश्यालय में चली गयी, चोर चारेी करने चला गया। कहने वाला एक ही थभ, कही गयी बात एक ही थी। तीन ने सुनी, तीन अर्थ हो गए, तीन अलग अर्थ हो गए।
इस भूल में मत रहना कि जब आप कृष्ण के वचनों को पढ़ते हो तो आप कृष्ण के वचन पढ़ रहे हैं? आप खुद को ही कृष्ण के वचनों में पढ़ लेते हों। हर आदमी अपने को ही पढ़ता है, किसी दूसरे को कोई नहीं पढ़ता है। हम अपने को ही पढ़ लेते हैं। किताबें आईने बन जाती हैं। हमारी ही तस्वीर और हमारी हो शक्ल उनमें दिखायी पड़ती है। इसीलिए तो एक-एक किताब की हजारों टीकाएं हो जाती है। गीता को टीका तिलक ने लिखी, उसको पढ़े। गीता की टीका गांधी ने लिखी, उसको पढ़े! गीता की टीका अरविंद ने लिखी, उसको पढ़े। बिनोबा ने लिखी, उसको पढ़े। आप पाएंगे, ये एक ही किताब के बाबत लिख रहे हैं ये लोग कि अलग-अलग किताबों के बाबत? ये चारों आदमी अपनी-अपनी तस्वीर देख रहे हैं। गीता से किसी का कोई मतलब नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है। गीता बहाना है, अपनी तस्वीर फिर से देख लेने का। कोई भी जब पढ़ता है और समझता है तो अपने को ही पढ़ता और समझता है।
इसलिए जितनी महत्वपूर्ण चेतना आपकी होगी जीवन में आपको उतनी ही बातें दिखायी पड़ना शुरू हो जाएगी। जितनी गहरी आपकी अंतर्दृष्टि होगी, जीवन उतना ही आपको दिखायी पड़ना शुरू हो जाएगा। अगर आंखें अंधी हैं तो गीता में भी धर्म नहीं लिम सकता और अगर आंखें खुली हैं तो रास्ते के किनारे पड़े पत्थर में भी आपको धर्म का पूरा संदेश दिखायी पड़ जाएगा। अगर चेतना सोयी हुई है तो कोई धर्मग्रंथ उसे नहीं जगा सकता। और चेतना अगर जागी हुई है तो सारी पृथ्वी धर्मग्रंथ हो जाती है। सब संदेश परमात्मा के संदेश हो जाते हैं। सब इशारे होजाते है। सब लहरें उसकी लहरें हो जाती हैं। सब ध्वनियां उसकी ध्वनियां हो जाती हैं।



 ओशो

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