कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

एस धम्मो संनतनो-(प्रवचन-050)

(अशांति की समझ ही शांति)--प्रवचन—पचासवां
सारसूत्र:

अथ पापानि कम्मानि करं वालो न बुज्‍झति।
सेहि कम्मेहि दुम्‍मेधो अग्‍निदड्ढ़ो' व तप्पति।।120।।

न नग्‍गचरिया न जटा न पंका
नाकसका थण्डिलसाकिका वा।
रज्जोवजल्लं उक्कुटिकपधानं
सोधेन्ति मच्चं अवितिण्णकंखं।।121।।

अलंकतो चेपि समं चरेथ्य
सन्तो दन्तो नियतो ब्रह्मचारी।
सब्‍बेसु भूतेसु' निधाय दण्ड
सो ब्राह्मणो सो समणो स भिक्‍खू ।।122।।


हिरीनिसधो पुरिसो कोचि लोकस्मि विज्जति।
यो निन्दं अप्पबोधति अस्सो भद्रो कसामिव ।।123।।

असो यथा भद्रो कसानिविट्ठो
आतापिनो संवेगिनो भवाथ।
सद्धाय सीलेन च वीरियेन च।
समाधिना धम्मविनिच्छयेन च।
सम्पन्नविरजाचरणा पतिस्मता
पहस्सथ हुक्समिदं अनप्पकं ।।124।।

पहला सूत्र—

अथ पापानि कम्मानि करं बालो न बुज्झति?

'पापकर्म करते हुए वह मूढुजन उसे नहीं बूझता है। लेकिन पीछे वह दुर्बुद्धिजन अपने ही कर्मों के कारण आग से जले हुए की भांति अनुतांपं करता है।
महत्वपूर्ण है। एक—एक शब्द समझने जैसा है। सरल सा दिखता है, सरल नहीं है। बुद्धों के वचन सदा ही सरल दिखते हैं 1 उनकी भीतर की सरलता से आते हैं, इसलिए वचनों में कोई जटिलता नहीं होती। लेकिन जब तुम उन्हें जीवन में उतारने चलोगे, तब अड़चन मालूम होगी। बुद्ध वचनों को समझना सरल, जीना कठिन होता है। जीने चलोगे तब पता चलेगा कि उनके सरल से दिखायी पड़ने वाले वचन प्रतिपग हजार कठिनाइयों से गुजरते हैं। कठिनाइयां तुमसे आती हैं। जटिलता तुम्हारी है। मार्ग के पत्थर तुम पैदा करते हो। लेकिन तुम भी क्या करोगे—तुम तुम हो।
अगर तुम भी जागे हुए होओ तो ऐसे ही बुद्ध वचनों के आकाश में उड़ो जैसे पक्षी आकाश में उड़ते हैं। पक्षियों के लिए आकाश में उड़ना कैसा सरल है! सीखने की भी जरूरत नहीं पड़ती, स्वभाव से ही लेकर आते हैं। लेकिन आदमी अगर आकाश में उड़ना चाहे तो जटिलता आती है—आदमी के कारण आती है।
ये सारे वचन बड़े सरल हैं। कभी—कभी तो तुम्हें ऐसा भी लगेगा—किसी ने पूछा भी था पीछे—कि जब आप वचन पढ़ते हैं तो बहुत सरल लगता है; जब आप समझाते हैं तो और कठिन हो जाता है। ऐसा होता होगा। वचन तो सरल लगता है, लेकिन जब मैं समझाता हूं तब मैं तुम्हारी कठिनाइयों को उभारकर सामने लाता हूं। वचन से तुम्हारा तो कोई मेल न हो पाएगा; तुम तो मरोगे तो ही वचन से मिलन होगा। तुम तो मिटोगे। तुम्हारी यह चट्टान तो पिघले, बहे, तो ही एस धम्मो की तुम्हें प्रतीति होगी।
तो जब मैं बोलता हूं तो बुद्ध के वचन पर ही ध्यान नहीं है, क्योंकि वह ध्यान अधूरा होगा—तुम पर भी ध्यान है। बुद्ध के वचन से भी ज्यादा तुम पर ध्यान है। मैंने एक सूफी कहानी सुनी है। एक फकीर के पास एक युवक गया और उस युवक ने कहा कि मैं परमात्मा को खोजना चाहता हूं। बहुत अंधेरे में जी रहा हूं, अब मेरा दीया जला दो। उस फकीर ने कहा कि देख भीतर का दीया तो जरा समय लेगा, सांझ हो गयी है, सूरज ढल गया, वह दीवाल के दीवे में रखा हुआ दीया है, आले से उस दीए को उठा ला और पहले उसको जला।
वह युवक गया। उसने लाख कोशिश की, दीया जले ही न। उसने कहा, यह भी अजीब सा दीया है! इसमें ऐसा लगता है तेल में पानी मिला है, बाती पानी पी गयी है, तो धुआ ही धुआ होता है। कभी—कभी थोड़ी चिनगारी भी उठती है, मगर लौ नहीं पकड़ती। तो उस सूफी ने कहा, तो तू दीए से पानी को अलग कर। तेल को छांट। बाती में पानी पी गया है, निचोड़। बाती को सुखा, फिर जला। उसने कहा, तब तो यह पूरी रात बीत जाएगी इसी गोरखधंधे में।
उस सूफी ने कहा, छोड़! फिर इधर आ। तेरे भीतर का दीया भी ऐसी ही उलझन में है। दीया जलाना तो बड़ा सरल है, लेकिन तेल में पानी मिला है। बाती में जल चढ़ गया है। अब सिर्फ माचिस जला—जलाकर माचिस को खराब करने से कुछ न होगा। सारी स्थिति बदलनी होगी। दीया तो जल सकता है। लेकिन तू अभी चाहे—तो तू बाधा है।
जब मैं बुद्ध के वचनों पर बोलता हूं? तो बुद्ध के वचन पर भी ध्यान है, तुम्हारे दीए पर भी ध्यान है। क्योंकि अंततः तो सिर्फ प्रकाश को जलाने की बातों से कुछ न होगा। यही फर्क है।
धम्मपद पर बहुत टीकाएं लिखी गयी हैं। जो मैं कह रहा हूं वह बिलकुल भिन्न है। क्योंकि धम्मपद पर लिखी टीकाओं ने सिर्फ बुद्ध के वचनों को साफ कर दिया है। वे वैसे ही साफ हैं; उनमें कुछ साफ करने को नहीं। उलझन आदमी मेँ है। और मेरे लिए तुम ज्यादा महत्वपूर्ण हो, क्योंकि अंततः तुम्हारे ही दीए की सफाई प्रकाश को जलने में आधार बनेगी। दीया जलाना सदा से आसान रहा है। क्या अड़चन है! मगर अड़चन तुम्हारे भीतर है।
इसलिए जब मैं बुद्ध के वचनों को समझाने चलता हूं तो मैं तुम्हें बीच—बीच में लेता चलता हूं। क्योंकि जब तुम चलोगे उन वचनों पर, तब धम्मपद काम न आएगा, तुम बीच—बीच में आओगे। तुम्हें रोज—रोज अपने को रास्ते से हटाना पड़ेगा। न गीता काम आती, न कुरान काम आता। ही, उनसे तुम प्रेरणा ले लो। उनसे तुम सुबह की खबर ले लो। उनसे तुम दीया जलाने का स्मरण ले लो। फिर दीया तो तुम्हें ही जलाना है—अपने ही दीए में, अपने ही पानी मिले तेल में, अपनी ही गीली बाती में।
'पापकर्म करते हुए वह मूढूजन उसे नहीं बूझता है। '
पापकर्म करते हुए! पापकर्म कर लेने के बाद तो सभी बुद्धिमान हो जाते हैं। तुम भी हजारों बार बुद्धिमान हो गए हो—कर लेने के बाद! करते क्षण में जो जाग जाए वह मुक्त हो जाता है। कर लेने के बाद जो जागता है, वह तो सिर्फ पश्चात्ताप से भरता है, मुका नहीं होता। एक तो पाप, ऊपर पश्चात्ताप—दुबले और दो अषाढू। ऐसे, ही मरे जा रहे थे—पाप मार रहा था फिर पश्चात्ताप भी मारता है। पहले तो क्रोध ने मारा, फिर अब क्रोध से किसी तरह छूटे तो पश्चाताप ने पकड़ा कि यह तो बुरा हो गया, यह तो पाप हो गया। पहले तो कामवासना ने छाती तोड़ी, फिर किसी तरह उससे छूट भी न पाए थे कि पश्चात्ताप आने लगा कि फिर वही भूल कर ली।
तुम अगर अपने जीवन को देखोगे तो पाप और पश्चात्ताप, इन दो में बंटा हुआ पाओगे। एक कंधे से थक जाते हो ढोते—ढोते बोझ को दूसरे कंधे पर रख लेते हो। पाप एक कंधा है, पश्चात्ताप दूसरा कंधा है।
मेरे देखे, अगर तुम पाप से मुक्त होना चाहते हो तो तुम्हें पश्चात्ताप से भी मुका होना पड़ेगा। यह बात तुम्हें बड़ी कठिन लगेगी। क्योंकि साधारणत: धर्मगुरु तुमसे कहते हैं, पश्चात्ताप से भरो। अगर पाप से मुक्त होना है तो पश्चात्ताप करो। लेकिन पश्चात्ताप शब्द का अर्थ ही क्या होता है? पश्चात—जब पाप जा चुका तब। पश्चात्ताप का अर्थ होता है जब पाप जा चुका तब तुम उत्तप्त होते हो, तब तुम अनुताप से भरते हो। यही सूत्र है पूरा।
बुद्ध कहते हैं, 'पापकर्म करते हुए मूढूजन उसे नहीं बूझता, लेकिन पीछे अपने ही कर्मों के कारण आग से जले हुए की भांति अनुताप करता है।
अनुताप यानी पश्चात्ताप। पीछे! जब आग हाथ को जलाती है, काश तुम तभी देख लो तो हाथ बाहर आ जाए! तुम्हारा हाथ है, तुमने ही डाला है, तुम्हीं खींच सकते हो। आग को दोष मत देना, क्योंकि आग ने न तो तुम्हें बुलाया, न तुमसे कोई जबर्दस्ती की, तुमने बिलकुल स्वेच्छा से किया है।
मैंने सुना है, एक शराबी को एक की महिला, जो शराब के बड़े खिलाफ थी, रोज अपने मकान के सामने से शराब पीकर और डांवाडोल होते और नालियों में गिरते—पड़ते देखती थी। आखिर उससे न रहा गया। एक दिन जब वह नाली में पड़ा हुआ गंदगी में लोट—पोट रहा था, वह उसके पास गयी। उसने पानी के छींटे उसकी आंखों पर मारे और कहा, बेटा! कौन तुम्हें मजबूर कर रहा है इस शराब को पीने के लिए? उसने कहा, मजबूर! हम स्वेच्छा से ही पीते हैं। वालेंटरिली। कोई मजबूर नहीं कर रहा है।
शायद बेहोशी में सच बात निकल गयी। होश में होता तो कहता, पत्नी मजबूर कर रही है। घर जाता हूं दुख ही दुख है। क्या करूं, शराब में शरण ले लेता हूं। कि धंधा मजबूर कर रहा है, कि धंधा ऐसा है कि दिनभर चिंता, चिंता, चिंता, छुटकारा नहीं। थोड़ी देर शराब में विश्राम कर लेता हूं तो धंधे से छूट जाता हूं। कि संसार मजबूर कर रहा है, कि दुख, कि हजार बहाने हैं। वह तो शराब की हालत में सच बात निकल गयी। कभी—कभी शराबी से सच बात निकल जाती है। इतना भी होश नहीं रहता कि धोखा दे। उसके मुंह से बात बड़ी ठीक निकल गया, स्वेच्छा से। सभी पाप स्वेच्छा से है। अगर पाप के ही क्षण में तुम्हें जाग आ जाए तो कोई भी रोक नहीं रहा है, हाथ बाहर खींच लो। तुमने ही डाला है, तुम्हीं निकाल लो, तुम्हारा ही हाथ है।
बुद्ध का वचन यह कहता है, यहीं भूल होती है, मूढूजन! मूढ़ता की यही परिभाषा है कि वह पीछे से बुद्धिमान हो जाती है। कजन हमेशा बाद में बुद्धिमान हो जाते हैं। बुद्धिमानों में और फो में इतना ही फर्क है। बुद्धिमान वर्तमान में बुद्धिमान होता है, मूढ़ हमेशा बीत जाने पर। जो कल बीत गया है उसके संबंध में मूढ़ बुद्धिमान हो जाता है आज। बुद्धिमान कल ही हो गया था। जरा सा फासला है, शायद इंचभर का। बुद्धओं में और बुद्धों में बस इंचभर का फासला है। तुम जो थोड़ी देर बाद करोगे, बुद्ध करक्षण करते हैं।
बुद्ध का शब्द है क् के लिए—अथ पापानि कम्मानि करं बालो न बुक्षति—बाल, बचकाना आदमी! बालबुद्धि! बालो!
बुद्ध तो मूढ़ भी नहीं कहते हैं। क्योंकि मूढ़ शब्द थोड़ा कठोर हें, थोड़ा चोट है उसमें। बुद्ध तो उसे भी माधुर्य से भर देते हैं। वे कहते हैं, बालो। क्षमायोग्य है, बच्चा है। बुद्ध ने जहां—जहां मूढ़ शब्द कहना चाहा है वहां—वहां बालक कहा है। करुणा है। वे कहते हैं, भूल तुमसे हो रही है क्योंकि तुम बालबुद्धि हो। और तुम बालबुद्धि ऐसे हो कि अगर मूढ़ कहें तो शायद तुम उससे और नाराज हो जाओ, शायद तुम हाथ आधा डाले थे, और पूरा डाल दो। तुम्हारी मूढ़ता ऐसी है कि अगर मूढ़ कोई कह दे, तो तुम और अंधे होकर मूढ़ता करने लगोगे।
बुद्ध कहते हैं, बालबुद्धि! अबोध! होश नहीं है। जाग्रत नहीं है।
बच्चे का तुम एक गुण समझ लो। छोटे बच्चे को दिन और रात में फर्क नहीं होता, सपने और जागरण में फर्क नहीं होता। कई बार छोटे बच्चे सुबह उठ आते हैं और रोने लगते हैं। वे एक सपना देख रहे थे, जिसमें अच्‍छे—अच्छे खिलौने उनके पास थे, वह सब छिन गए। वे रोते हैं कि हमारे खिलौने कहा? मां समझाती है कि वह सपना था। लेकिन मा समझ नहीं पा रही है कि सपने के लिए कहीं कोई रोता है! लेकिन बच्चे को अभी सपने और सत्य में सीमा रेखा नहीं है। अभी सपना और सत्य मिला—जुला है। अभी दोनों एक—दूसरे में गहु—मडु हैं। अभी विभाजन नहीं हुआ।
बालबुद्धि व्यक्ति सपने में और सत्य में विभाजन नहीं कर पाता। उसके लिए जागरण चाहिए, होश चाहिए। तभी तुम समझ पाओगे क्या सच है, क्या झूठ है।
बुद्धिमान आदमी वही है जो कर्म करते हुए जाग्रत है। जो कर रहा है उसे परिपूर्ण जागरण से कर रहा है। इसीलिए बुद्धिमान आदमी कभी पश्चात्ताप नहीं करता, पश्चात्ताप कर नहीं सकता। क्योंकि जो किया था, जागकर किया था। करना चाहा था तो किया था, इसलिए पश्चात्ताप का कोई कारण नहीं। न करना चाहा था तो नहीं
किया था, इसलिए पश्चात्ताप का कोई कारण नहीं। पश्चात्ताप मूढ़ता का हिस्सा है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, क्रोध कर लेते है, फिर बहुत पछताते हैं। अब क्या करें? मैं उनसे कहता हूं, पहले तुम पश्चाताप छोड़ो। क्रोध तो तुमसे छूटता नहीं, कम से कम पश्चात्ताप छोड़ो। वे कहते है, पश्चात्ताप को छोड़ने से क्या होगा? पछताते—पछताते भी क्रोध हो रहा है, अगर पश्चात्ताप छोड़ दिया तो फिर तो हम बिलकुल क्रोध में पड़ जाएंगे। मैं उनसे कहता हूं, तुम थोड़ा प्रयोग तो करो। अगर तुमने पश्चात्ताप छोड़ दिया तो पश्चात्ताप से जो ऊर्जा बचेगी, वही तुम्हारा जागरण बनेगी। अभी क्या हो रहा है क्षण में तो तुम सोए रहते हो, कर्म करते तो सोए रहते हो, जागते बाद हो—तुम्हारे जागने और जीवन का मेल नहीं हो पा रहा है। जरा सी चूक हो रही है। जब कृत्य करते हो तब सोए रहते हो, जब जागते हो तब कृत्य जा चुका होता है। उसको तुम पश्चात्ताप कहते हो।
तुम पश्चात्ताप छोड़ो। क्रोध हो गया, कोई फिकर नहीं। अब यह मत कहो कि अब न करेंगे। यह तो तुम बहुत बार कह चुके हो। यह झूठ बंद करो। इस झूठ ने तुम्हारे आत्मसम्मान को ही नष्ट कर दिया है। तुम खुद ही जानते हो कि यह हम झूठ बोल रहे हैं। कितनी दफे बोल चुके हो। अब तुम किससे कह रहे हो, किसको धोखा दे रहे हो कि अब न करेंगे? यह तुमने कल भी कहा था, परसों भी कहा था।
एक युवती ने दो दिन पहले आकर मुझे कहा कि एक युवक के मैं प्रेम में पड़ गयी हूं। लेकिन मुझे संदेह होता है। युवक ने मुझे कहा कि मैं तेरे लिए ही प्रतीक्षा करता था, जन्म—जन्म तेरी ही बाट जोही, अब तुझसे मिलना हो गया। मगर उस युवक के व्यवहार और ढंग से मुझे संदेह होता है, मैं क्या करूं? मैंने उससे कहा कि तू कम से कम दसवीं स्त्री है जिसने मुझसे यह खबर दी, उस युवक के बाबत। वह पहले भी दस से कह चुका है—और ज्यादा से भी कहा होगा—दस मेरे पास आ चुकी हैं।
उस युवक को भी शायद पता न हो कि वह क्या कह रहा है! न हमें पता है हम क्या कह रहे हैं, न हमें पता है हम क्या कर रहे हैं। हम किए चले जाते हैं, हम कहे चले जाते हैं। एक अंधी दौड़ है।
तुमने कितनी बार कहा, क्रोध न करेंगे। अब इतनी तो लज्जा करो कम से कम कि अब इसे मत दोहराओ; ये शब्द झूठे हो गए। इनमें कोई प्रामाणिकता नहीं रही। इतना तो कम से कम होश साधो; मत करो क्रोध का त्याग, कम से कम यह झूठा पश्चात्ताप तो छोड़ो। लेकिन पश्चात्ताप करके तुम अपनी प्रतिमा को सजा—संवार लेते हो। तुम कहते हो, आदमी मैं भला हूं; हो गया क्रोध कोई बात नहीं, देखो कितना पछता रहा हूं! साधु—संतों के पास जाकर कसमें खा आते हो, व्रत—नियम ले लेते हो कि अब कभी क्रोध न करेंगे। ब्रह्मचर्य की कसम खा लेते हो। कितनी बार तुमने कसम खायी, थोड़ा सोचो तो!
एक वृद्ध, पर बड़े महत्वपूर्ण व्यक्ति ने और बड़े कीमती व्यक्ति ने मुझसे कहा—उनके घर मैं मेहमान था—कि मैंने अपने जीवन में वे आचार्य तुलसी के अनुयायी हैं, तेरापंथी जैन हैं। और आचार्य तुलसी का यही धंधा है, लोगों को अणुव्रत नियम लो, कसम खाओ, छोड़ो। तो मैंने उनसे पूछा कि तुमने क्या छोड़ा? तुम उनके खास अनुयायी हो। उन्होंने कहा, अब आपसे क्या छिपाना! चार दफे ब्रह्मचर्य का व्रत ले चुका हूं।
चार दफा! ब्रह्मचर्य का व्रत तो एक दफा काफी है, फिर दुबारा क्या लेने की जरूरत पड़ी? फिर मैंने कहा, पाचवी दफे क्यों न लिया? वे कहने लगे, थक गया, चार दफा लेकर बार—बार टूट गया। तो इतनी बात तो समझ में आ गयी कि यह अपने से न होगा; इसलिए पांचवीं क्हे नहीं लिया।
चार दफे ब्रह्मचर्य के व्रत का कुल इतना परिणाम हुआ कि यह आदमी आत्मग्लानि से भर गया। अब इसको अपने पर भरोसा न रहा कि मैं व्रत पूरा कर सकता हूं। यह आदमी पुण्यात्मा तो न बना, इसने पाप की शक्ति को स्वीकार कर लिया। यह तो घात हो गया।
इसलिए मैं व्रतों के विरोध में हूं। मैं कहता हूं, व्रत भूलकर मत लेना। अगर समझ आ गयी हो तो बिना व्रत के समझ को ही उपयोग में लाना। अगर समझ न आयी हो तो व्रत क्या करेगा? आज व्रत ले लोगे जोश—खरोश में, कल जब फिर पुरानी धारा पकड़ेगी तो व्रत टूटेगा। तो या तो फिर तुम छिपाओगे लोगों से कि व्रत टूटा नहीं, चल रहा है कम से कम यह बूढ़ा आदमी ईमानदार था। इसने कहा कि मैं चार दफे ले चुका; पांचवीं दफे नहीं लिया, क्योंकि समझ गया कि यह अपने से नहीं हो सकता, असंभव है।
जरा सोचो, जब तुम्हें ऐसा लगता है कि असंभव है, तुम कितने पतित हो गए। तुम अपनी आंखों में गिर गए। तुमने आत्मगौरव खो दिया। इसलिए तथाकथित धार्मिक गुरु तुम्हारी आत्मा को नष्ट करते हैं, निर्माण नहीं करते। और तुम्हारे व्रत और नियम तुम्हें मारते हैं, तुम्हें जगाते नहीं। अगर तुमने जबर्दस्ती की तो तुम पाखंडी हो जाओगे, भीतर— भीतर रस चलता रहेगा, बाहर—बाहर व्रत। अगर तुमने जबर्दस्ती न की तो व्रत टूटेगा, आत्मग्लानि से भर जाओगे, अपराध पैदा होगा।
मैं तुमसे कहता हूं पश्चात्ताप मत करना। क्रोध हो जाए तो अब इतना ही खयाल रखना : इस बार हुआ, अगली बार जब होगा तो होश से करेंगे। मैं तुमसे नहीं कहता कि अगली बार मत करना। मैं तुमसे कहता हूं, होश से करना।
यही बुद्ध कह रहे हैं। वे कहते हैं, जब तुम कर्म करो तब होश से करना। पहले झकझोरकर जगा लेना अपने को। जब क्रोध की घड़ी आए तो बड़ी महत्वपूर्ण घड़ी आ रही है, मूर्च्छा का क्षण आ रहा है—तुम झकझोरकर जगा लेना अपने को! घर में आग लगने की घड़ी आ रही है, जहर पीने का वक्त आ रहा है—झकझोरकर जगा लेना अपने को! होशपूर्वक क्रोध करना। अगर कसम ही खानी है तो इसकी खाना कि होशपूर्वक क्रोध करेंगे। और तुम चकित हो जाओगे, अगर होश रखा तो क्रोध नु होगा। अगर क्रोध होगा तो होश न रख सकोगे।
इसलिए असली दारोमदार होश की है। और तब एक और रहस्य तुम्हें समझ में आ जाएगा कि क्रोध, लोभ, मोह, काम, मद—मत्सर, बीमारियां तो हजार हैं, अगर तुम एक—एक बीमारी को कसम खाकर छोड़ते रहे तो अनंत जन्मों में भी छोड़ न पाओगे। एक—एक बीमारी अनंत जन्म ले लेगी और छूटना न हो पाएगा। बीमारियां तो बहुत हैं, तुम अकेले हो। अगर ऐसे एक—एक ताले को खोजने चले और एक—एक कुंजी को बनाने चले तो यह महल कभी तुम्हें उपलब्ध न हो पाएगा, इसमें बहुत द्वार हैं और बहुत ताले हैं। तुम्हें तो कोई ऐसी चाबी चाहिए जो चाबी चाहिए हो और सभी तालों को खोल दे।
होश की चाबी ऐसी चाबी है। तुम चाहे काम पर लगाओ तो काम को खोल देती है क्रोध पर लगाओ क्रोध को खोल देती है लोभ पेर लगाओ लोभ को खोल देती है; मोह पर लगाओ, मोह को खोल देती है। तालों की फिकर ही नहीं है—मास्टर की है। कोई भी ताला इसके सामने टिकता ही नहीं। वस्तुत: तो ताले में चाबी डल ही नहीं पाती, तुम चाबी पास लाओ और ताला खुला।
यह चमत्कारी सूत्र है। इससे महान कोई सूत्र नहीं। इससे तुम बचते हो और बाकी तुम सब तरकीबें करते हो, जो कोई भी काम में आने वाली नहीं हैं। तुम्हारी नाव में हजार छेद हैं। एक छेद बंद करते हो तब तक दूसरे छेदों से पानी भर रहा है। तुम क्रोध से जूझते हो, तब तक काम पैदा हो रहा है।
तुमने कभी खयाल किया? नहीं तो खयाल करना। अगर तुम क्रोध को दबाओ तो काम बढ़ेगा। अगर तुम कामवासना में उतर जाओ, क्रोध कम हो जाएगा। इसलिए तो तुम्हारे साधु—संन्यासी क्रोधी हो जाते हैं। तुम्हारे ऋषि—मुनि, दुर्वासा, इनका मनोविश्लेषण किसी ने किया नहीं, होना चाहिए। कोई फ्रायड इनके पीछे पड़ना चाहिए। दुर्वासा! इतने क्रोधी! इतना महान क्रोध आया कहां से? जरा—सी बात पर जन्म—जन्म खराब कर दें किसी का! ऋषि से तो आशीर्वाद की वर्षा होनी चाहिए। अभिशाप! जरूर कामवासना को दबा लिया है। ब्रह्मचर्य के धारक रहे होंगे। ब्रह्मचर्य को थोप लिया होगा। तब ऊर्जा एक तरफ से इकट्ठी हो गयी, कहा से निकले? वही ऊर्जा क्रोध बन रही है। उसी की भाप बाहर आ रही है। उसी का उत्ताप बाहर आ रहा है।
तुम गौर से देखो। अगर तुम कामी आदमी को देखोगे तो उसको तुम क्रोधी न पाओगे। अगर संयमी को देखोगे, क्रोधी पाओगे। घर में एक आदमी संयमी हो जाए, उपद्रव हो जाता है, उसका क्रोध जलने लगता है। धार्मिक आदमी क्रोधी होता ही है। यह बड़े आश्चर्य की बात है! होना नहीं चाहिए, पर ऐसा होता है। क्यों ऐसा होता है? के आदमी क्रोधी हो जाते हैं, क्यों?
जैसे—जैसे के होते हैं, वैसे—वैसे कामवासना की तरफ जाना ग्लानिपूर्ण मालूम होने लगता है। घर में बच्चे हैं, बच्चों के बच्चे है, अब कामवासना में उतरने में बड़ी शर्म मालूम होने लगती है, बड़ा बेहूदा लगने लगता है! अब तो बच्चों के बच्चे जवान हो गए, वे प्रेम—रास रचा रहे हैं; अब ये बूढ़े रास रचाएं तो जरा शोभा नहीं देता, भद्दा लगता है! तो बूढ़े क्रोधी हो जाते हैं। तुमने खयाल किया, को के साथ जीना बड़ा मुश्किल हो जाता है।
अगर तुम क्रोध को दबा लो, काम को दबा लो—लोभ पकड़ लेगा। इसलिए तुम एक बात देखोगे, लोभी कामी नहीं होते। लोभी जीवनभर अविवाहित रह सकता है —बस धन बढ़ता जाए! कंजूस को विवाह महंगा ही मालूम पड़ता है। कंजूस सदा विवाह के विपरीत है। स्त्री को लाना एक खर्च है वह उपद्रव है। कंजूस विवाह से बचता है। और अगर विवाह कर भी लेता है किसी परिस्थितिवश, तो पत्नी से बचता रहता है।
मैं एक मित्र के घर में बहुत दिन तक रहा। उन्हें मैंने कभी अपनी पत्नी के पास बैठा भी नहीं देखा, बात भी करते नहीं देखा। और ऐसा भी मैंने निरीक्षण किया कि वे पत्नी से छिटककर भागते हैं। अपने बच्चों की तरफ भी ठीक से देखते नहीं, कभी बात नहीं करते। मैंने उनसे पूछा कि मामला क्या है? तुम सदा भागे— भागे रहते हो। उन्होंने कहा कि अगर जरा ही पत्नी के पास बैठो, बैठे नहीं कि फलाना हार देख आयी है बाजार में, कि साड़ी देख आयी है; जरा हाथ दो उसके हाथ में कि बस जेब में गया, और कहीं जाता ही नहीं! बच्चों से जरा मुस्कुराकर बोलो, उनका हाथ जेब में गया! नौकर की तरफ जरा देख लो, वह कहता है, तनख्वाह बढ़ा दो।
यह कंजूस आदमी है। इसने सब तरफ से सुरक्षा कर ली है। यह मुस्कुराकर भी नहीं देखता, क्योंकि हर मुस्कुराहट की कीमत चुकानी पड़ती है। यह पत्नी से बात नहीं करता, क्योंकि बात अंततः जेवर पर पहुंच ही जाएगी। कहा कितनी देर तक यहां—वहा जाओगे! स्त्रियों को कोई रस ही नहीं और किसी बात में—न वियतनाम में, न कोरिया में, न इजराइल में—उन्हें कुछ लेना—देना नहीं है। तुम बात शुरू करो, वे तुम्हें कहीं न कहीं से गहनों पर, साड़ियों पर, वस्त्रों पर ले आएंगी। इसलिए बात ही शुरू करना महंगा है।
कंजूस काम से बचता है। कंजूस क्रोध से भी बचता है, क्योंकि क्रोध भी महंगा पड़ता है। झगड़ा—झासा, अदालत, कौन झंझट करे। कंजूस बड़ी विनम्रता जाहिर करता है। झगड़ा—झांसा महंगा हो सकता है। इसलिए कंजूस वह भी नहीं करता। पर तुम खयाल करना, उसकी सारी ऊर्जा लोभ में बहने लगती है। उसका काम, क्रोध, सब लोभ बन जाता है।
एक तरफ से दबाओगे, दूसरी तरफ से निकलेगा। यह झरना बहना चाहिए। होश इस सारी ऊर्जा को समा लेता है।
ऐसा समझो कि बेहोशी में झरने नीचे की तरफ बहते हैं, होश में ऊपर की तरफ बहने लगते हैं। काम भी नीचे ले जाता है, क्रोध भी नीचे ले जाता है, लोभ भी नीचे ले जाता है। तुम काम की सीढी से नीचे गए, क्या फर्क पड़ता है! कि लोभ की सीढ़ी से नीचे गए, क्या फर्क पड़ता है! तुम क्रोध की सीढ़ी से नीचे गए, क्या फर्क पड़ता है! सीढ़िया अलग—अलग हों, नीचे जाना तो हो ही रहा है।
ऊपर ले जाता है होश। जैसे—जैसे तुम होश से भरते हो, तुम्हारी ऊर्जा ऊर्ध्वगमन करती है, तुम ऊध्वरइतस होते हो। और उस ऊर्ध्वगमन में ही सारी ऊर्जा परमात्मा की तरफ, सत्य की तरफ, निर्वाण की तरफ यात्रा करती है।
उस यात्रा के बाद ही तुम पाते हो न क्रोध पकड़ता है, न लोभ पकड़ता है, न मोह पकड़ता है, न काम पकड़ता है। नहीं कि तुमने त्यागा। अब तुम इतनी बड़ी यात्रा पर जा रहे हो कि उन क्षुद्रताओं में जाए कौन! अब तुम्हारे जीवन् में इतने हीरे बरस रहे हैं, कंकड़—पत्थर कौन बीने! अब ऐसे फूल खिले, ऐंसे कमल खिले हैं कि घास—पात को कौन इकट्ठा करे!
'पापकर्म करते हुए वह मूढुजन उसे नहीं बूझता।
बूझना शब्द भी बड़ा सोचने जैसा है।

बालो न बुज्‍झति।

बूझने का अर्थ सोचना नहीं है। क्योंकि सोचना तो हमेशा जो बीत गयी बात उसका होता है। सोच तो हमेशा पीछे होता है। बूझने का अर्थ है निरीक्षण। बूझने का अर्थ है अवलोकन। तुम जिसे सोच—विचार कहते हो, वह तो ऐसा है—जब फूल खिला तब तो देखा न, जब वह मुरझा गया और गिर गया तब तुम देखने आए। जब वसंत था तब तो आंख न खोली, जब पतझर आ गया तब तुमने बड़ी बुद्धिमानी दिखायी, आंख खोलकर सोचने लगे, वसंत क्या है न बूझने का अर्थ है : जो है उसका अवलोकन, जो है उसके प्रति साक्षी भाव।
इसलिए मैं कहता हूं मेरी बातों को सोचो मत, बूझो। बूझना सहजस्फूर्त अभी और यहीं घटता है। सोचना पीछे घटता है।
तुम सभी सोचते हो। काम कर लेते हो, फिर सोचते हो—ऐसा किया होता, ऐसा न किया होता। काश, ऐसा हुआ होता! यह तुम क्या कर रहे हो? नाटक हो चुका, अब रिहर्सल कर रहे हो? कुछ लोग हैं जिनका रिहर्सल हमेशा नाटक के बाद होता है। तुमने अपने को कई बार पकड़ा होगा, न पकड़ा हो तो पकड़ना, बात हो चुकी—किसी ने गाली दी थी, तुम कुछ कह गए—फिर पीछे सोचते हो, ऐसा न कहा होता, मुझे क्यों न सूझा, कुछ और कहा होता! अब हजार बातें सूझती हैं। मगर अब तो समय जा चुका। अब तो तीर छूट चुका। छूटे तीर वापस नहीं लौटते। अब तुम्हारे हाथ में नहीं है, जो बात हो गयी हो गयी।
तो कुछ लोग नाटक के बाद रिहर्सल करते हैं और कुछ लोग नाटक के पहले वर्षों तक रिहर्सल करते है। वे इतना रिहर्सल कर लेते हैं कि जब नाटक की घड़ी आती है तब वे करीब—करीब उधार हो गए होते हैं। जैसे तुमने कोई बात बिलकुल तय कर ली। तुम इंटरव्यू देने गए। दफ्तर में नौकरी चाहिए थी। स्वभावत: तुम हजार तरह से सोचते हो, क्या पूछेंगे, हम क्या उत्तर देंगे। तुम उत्तर को बिलकुल मजबूत कर लेते हो—बार—बार दोहरा—दोहराकर, दोहरा—दोहराकर, जैसा स्कूल में विद्यार्थी परीक्षा देने जाता है तो बिलकुल रट लेता है, कंठस्थ कर लेता है।
मैं बहुत दिन तक शिक्षक रहा, तो मैं चकित हुआ जानकर कि जो प्रश्न पूछे नहीं जाते उनके विद्यार्थी उत्तर देते हैं। ये उत्तर कहां से आते होंगे. मैंने उन विद्यार्थियों को बुलाया कि तुम करते क्या हो! यह तो प्रश्न पूछा ही नहीं गया है। जब मैंने उन्हें समझाया कि यह तो प्रश्न ही नहीं, तब उनकी अकल में आया। उन्होंने कहा, अरे! हम तो कुछ और समझे। हमने तो जो प्रश्न तैयार किया था वही पढ़ लिया।
अक्सर तुम वही पढ़ लेते हो जो तैयार है। जो उत्तर तुम तैयार कर लाए हो, वही तुम सोचते हो पूछा गया है। तुम अपने उत्तर से इतने भरे हो कि जगह कहा कि तुम प्रश्न को सुन लो। पूछा कुछ जाता है, लेकिन जब तुम्हें पूछा जा रहा है, तब अगर तुम मौजूद होओ, तो तुम सुन सकोगे उसे। तुम कुछ और सुनकर लौट आते हो। अक्सर मेरे पास लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं, आपने कल ऐसा कहा। मुझे भी चौंका देते हैं। कल मैंने कभी कहा नहीं। उन्होंने सुना, यह बात पक्की है; अन्यथा वे लाते कैसे। तो अब सवाल यह है कि जो उन्होंने सुना वह जरूरी है कि मैंने कहा ' जरूरी नहीं है। मेरे अनुभव से यह मुझे समझ में आया, तुम वही सुनते हो जो तुम सुनना चाहते हो। तुम वही सुन लेते हो जिसको सुनने के लिए तुम तैयार हो। जिसके लिए तुम तैयार नहीं हो वह तुमसे छूट जाता है, तुम चुनाव कर लेते हो। फिर तुम अपना रंग दे देते हो 1 फिर जब तुम मेरे पास आते हो, तुम कहते हो, आपने कहा था। मैंने कहा ही नहीं है। मैंने जो कहा था उसे सुनने को तो तुम्हें बिलकुल चुप होना पड़ेगा। तुम्हारे भीतर कुछ भी सरकते हुए विचार न रह जाएं; अन्यथा वह विचार मिश्रित हो जाएंगे। तुम जो भी सुनते हो, वह मेरी कही बातों की और तुम्हारी सोची बातों की खिचड़ी है। उस खिचड़ी से जीवन में कुछ क्रांति घटित नहीं हो सकती, तुम और उलझ जाओगे।
सुनने का ढंग है : तुम जो भी जानते हो उसे किनारे रख दो। तुम ऐसे सुनो जैसे तुम कुछ भी नहीं जानते हो। तो धोखा न होगा।
तो कुछ हैं जो जीवन के पहले रिहर्सल करते रहते हैं; नाटक का जब दिन आता है तब चूक जाते हैं। रिहर्सल इतना मजबूत हो जाता है कि उनकी तन्धण—विवेक की दशा खो जाती है।
दो ही तरह के लोग है—कुछ अग्रसोची हैं, कुछ पश्चात्ताप करने वाले हैं। दोनों के मध्य में वर्तमान का क्षण है, वहा होना असली कला है, वहां होना धर्म है। 'पापकर्म करते हुए वह मूढ़जन उसे नहीं बूझता है। '
हम वहां हैं जहां से हमको भी
कुछ हमारी खबर नहीं आती
और जब तुम अपने कर्म के प्रति ही जागरूक नहीं हो तो तुम कर्ता के प्रति कैसे जागरूक होओगे? कर्ता तो बहुत गहरे में है। कर्म तो बहुत बाहर है, साफ है। कर्ता तो बहुत अंधेरे में छिपा है। अगर कर्म के प्रति जागे नहीं, तो कर्ता के प्रति कैसे जागोगे? और अगर कर्ता के प्रति न जागे, तो साक्षी के प्रति कैसे जागोगे g साक्षी तो बहुत दूर है फिर तुमसे।
हम वहां हैं जहा से हमको भी कुछ हमारी खबर नहीं आती
उस साक्षी से तुम कितने दूर पड़ गए हो। हजारों—हजारों मीलों का फासला हो गया है। लौटो घर की तरफ! चलो अंतर्यात्रा पर!
यात्रा के सूत्र हैं कर्म के प्रति जागो। पहला सूत्र। जब कर्म के प्रति होश सध जाए तो फिर जागो कर्ता के प्रति। होश के दीए को जरा भीतर मोड़ो। जब कर्ता के प्रति दीया साफ—साफ रोशनी देने लगे, तो अब उसके प्रति जागो जो जागा हुआ है—साक्षी के प्रति। अब जागरण के प्रति जागो। अब चैतन्य के प्रति जागो। वही तुम्हें परमात्मा तक ले चलेगा।
ऐसा समझो, साधारण आदमी सोया हुआ है। साधक संसार के प्रति जागता है, कर्म के प्रति जागता है। अभी भी बाहर है, लेकिन अब जागा हुआ बाहर है। साधारण आदमी सोया हुआ बाहर है। धर्म की यात्रा पर चल पड़ा व्यक्ति बाहर है, लेकिन जागा हुआ बाहर है।
फिर जागने की इसी प्रक्रिया को अपनी तरफ मोड़ता है। एक दफे जागने की कला आ गयी, कर्म के प्रति, उसी को आदमी कर्ता की तरफ मोड़ देता है। हाथ में रोशनी हो, तो कितनी देर लगती है अपने चेहरे की तरफ मोड़ देने में! बैटरी हाथ में है, मत देखो दरख्त, मत देखो मकान, मोड़ दो अपने चेहरे की तरफ! हाथ में बैटरी होनी चाहिए, रोशनी होनी चाहिए। फिर अपना चेहरा दिखायी पड़ने लगा।
साधारण व्यक्ति संसार में सोया हुआ है; साधक संसार में जागा हुआ है; सिद्ध भीतर की तरफ मुड़ गया, अंतर्मुखी हो गया, अपने प्रति जागा हुआ है। अब बाहर नहीं है, अब भीतर है और जागा हुआ है। और महासिद्ध, जिसको बुद्ध ने महापरिनिर्वाण कहा है, वह जागने के प्रति भी जाग गया। अब न बाहर है न भीतर, बाहर—भीतर का फासला भी गया। जागरण की प्रक्रिया दोनों के पार है, अतिक्रमण करती है। वह शुद्ध चैतन्य के प्रति जाग गया।
बाहर से भीतर आओ, भीतर से बाहर और भीतर दोनों के पार चलना है। लेकिन हम जरा सी देर बाद जागते हैं—
हम सत्य समझते हैं उनको जो नित्य नए
खिलते मधुबन में रंग—बिरंगे शूल—फूल।
पर अट्टहास कर पतझर कहता है हमसे
वह देखो मरघट में किसकी उड़ रही धूल?
पीछे हम जागते हैं कि अरे! यह तो सपना था। सुबह हम जागते हैं कि अरे! रात जो देखा सपना था। लेकिन रात जब सपना चलता है, तब हम उसे ही सत्य मानते हैं।
अगर तुम कर्म के प्रति जागने लगो—चलते समय जागे हुए चलो, बोलते समय जागे हुए बोलो, सुनते समय जागे हुए सुनो, भोजन करते हुए जागे हुए भोजन करो, बिस्तर पर लेटते हुए जागे हुए लेटो—जल्दी ही तुम पाओगे, सपने खोने लगे। क्योंकि अचानक अनेक बार नींद में भी, अचानक, तुम जाग जाओगे कि अरे! यह तो सपना है! और जैसे ही तुमने जाना, यह सपना है, सपना गया। सपने के होने की सामर्थ्य तुम्हारी मूर्च्छा में है। सपने का अधिकार तुम्हारी मुर्च्छा में है। सपने का दावा तुम्हारी बेहोशी पर है। तुम्हारे होश पर सापने का कोई दावा नहीं है।
और इसीलिए तो बुद्धपुरुषों ने इस संसार को माया कहा है। क्योंकि जो जागता है उसके लिए यह नहीं है। इसका यह मतलब मत समझ लेना कि बुद्धपुरुष दीवाल में से निकलता है, क्योंकि जब दीवाल है ही नहीं तो निकलने की दिक्कत क्या? या बुद्धपुरुष पत्थर—कंकड़ खाने लगता है, क्योंकि जब फर्क ही नहीं है, सब सपना ही है, तो भोजन हो कि पत्थर हो सब बराबर है। यह मतलब नहीं है।
संसार माया का अर्थ है : जिस संसार को तुमने अपनी सोयी हुई आंखों से देखा है, तुमने जो संसार अपने चारों तरफ रचा है—झूठा, कल्पना का। स्त्री है वहा, तुमने पत्नी देखी—पत्नी संसार है। स्त्री संसार नहीं है, स्त्री तो वास्तविक है। पत्नी, पति; मेरा, तेरा, मित्र, शत्रु, ये संसार हैं। बाहर तो लोग खाली पर्दे की तरह हैं, फिल्म तुम अपनी चलाते हो। वहां एक स्त्री है, तुम कहते हो, मेरी पत्नी है। वहां एक पुरुष है, तुम कहते हो, मेरा पति है। यह जो मेरा पति है, यह तुम्हारा प्रक्षेपण है। यह फिल्म तुमने चलायी है। हालाकि वह भी राजी है इस फिल्म को अपने ऊपर चलने देने के लिए, क्योंकि वह भी अपनी फिल्म तुम्हारे ऊपर चला रहा है। पारस्परिक सौजन्यता है। हम तुम्हारे लिए पर्दा बनते हैं, तुम हमारे लिए पर्दा बन जाओ। खेल जारी रहता है। आओ छिया—छी' खेलें! स्वभावत:, तुम हमें साथ दोगे हमारे सपने सत्य बनाने में, तो हम तुम्हें साथ. देंगे। जिस दिन तुमने कहा, हम साथ नहीं देते, उसी दिन खेल खतम। एक भी कह दे किं साथ नहीं देते, खेल खतम।
यह खेल वैसा ही है जैसे लोग ताश खेलते हैं। ताश के नियम होते हैं, नियम का पालन करना पड़ता है दोनों खिलाड़ियों को। अगर एक भी खिलाड़ी कह दे कि हम इस चिड़ी के बादशाह को बादशाह नहीं मानते, तो खेल खतम! अब चिड़ी का बादशाह कोई है थोड़े ही! कागज पर बनी तस्वीर है। दो आदमियों की मान्यता है कि चिड़ी का बादशाह है। पत्नी—पति सब चिड़ी के बादशाह हैं। एक ने कह दिया कि नहीं मानते, तलाक हो गया! मान्यता का खेल है।
शतरंज के मोहरे देखे? हाथी—घोड़े सब चलते हैं। लोग जान लगा देते हैं तलवारें खिंच जाती हैं, प्राण लगा देते हैं, कट मरते हैं—और वहां कुछ भी नहीं है लकड़ी के हाथी—घोड़े है। आदमी के लड़ने का शौक ऐसा है! असली हाथी—घोड़े न रहे। असली हाथी—घोड़े से लड़ना जरा महंगा हो गया और मूढ़तापूर्ण हो गया, तो उसने कल्पना के हाथी—घोड़े ईजाद कर लिए हैं।
तुम चकित होओगे, अमरीका में स्त्री और पुरुषों की रब्रर की बनी हुई प्रतिमाएं बिकती हैं। असली हाथी—घोड़े महंगे पड़ गए। अब असली स्त्री को रखना एक उपद्रव है। असली है, उपद्रव होगा ही। गए एक रबर की स्त्री खरीद लाए; अब तुम्हारी जो मर्जी हो, जो भी उससे कहना हो कहो, वह मुस्कुराए चली जाती है। तुम्हारी जो मर्जी हो—ठुकराओ, सिर पर रखो, राजरानी बनाओ, कि उठाकर बाहर सड़क पर फेंक आओ—वह हर हालत में मुस्कुराए चली जाती है। वह सिर्फ रबर की स्त्री है। आदमी उस पर भी सपने जोड़ लेता है।
तुमने ऐसे लोग देखे होंगे, तुमने अपने भीतर भी ऐसे आदमी को पाया होगा, जो तस्वीरें इकट्ठी कर लेता है। कागज पर खिंचे रंग की रेखाएं, सुंदर स्त्रियों की तस्वीरें लोग इकट्ठी करते रहते हैं।
माया का अर्थ है : तुम्हारी तस्वीरों का जाल। वहां सच कुछ भी नहीं है। और अगर सच है तो तुमने उसका पर्दे की तरह उपयोग किया है।
'पापकर्म करते हुए वह मूढूजन उसे नहीं बूझता, लेकिन पीछे दुर्बुद्धिजन अपने ही कर्मों के कारण आग से जले हुए की भाति अनुताप करता है। '
तुम सबने किया है। इसलिए सूत्र समझना कठिन नहीं है। अब अनुताप छोड़ो। बहुत हो चुका। अब अनुताप छोड़ो, अब जागना शुरू करो। कठिन होगा। पुरानी आदत के विपरीत है। जन्मों—जन्मों की आदत है, लेकिन टूटेगी आदत। अगर सतत तुमने चेष्टा की, तो जैसे नदी की धार कठिन से कठिन, कठोर से कठोर चट्टान को भी तोड़ देती है, ऐसे ही आदत भी टूट जाती है। आदत पत्थर की जैसी है। होश जलधार है—बड़ी कोमल—लेकिन अंततः जीत जाती है।

आंधिया चाहे उठाओ बिजलियां चाहे गिराओ
जल गया है दीप तो अंधियार ढलकर ही रहेगा

थोड़ी ही टिमटिमाती रोशनी सही, कोई फिकर नहीं, सूरज ज्यादा दूर नहीं। ''

अशांति की समझ ही शांति आधिया चाहे उठाओ बिजलियां चाहे गिराओ
जल गया है दीप तो अंधियार ढलकर ही रहेगा
उग रही लौ को न टोको ज्योति के रथ को न रोको
यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा
जल गया है दीप तो अंधियार ढलकर ही रहेगा
वक्त को जिसने नहीं समझा उसे मिटना पड़ा है
बच गया तलवार से तो फूल से कटना पड़ा है
क्यों न कितनी ही बड़ी हो, क्यों न कितनी ही कठिन हो
हर नदी की राह से चट्टान को हटना पड़ा है
आंधिया चाहे उठाओ बिजलियां चाहे गिराओ
जल गया है दीप तो अंधियार ढलकर ही रहेगा
पर जल गया हो तब! अंधेरे में इस गीत को दौहराने से कुछ भी न होगा। बहुत लोग गीतों को दोहराने लगे हैं। धम्मपद पढ़ रहा है कोई। गीता दोहरा रहा है कोई। कुरान को गा रहा है कोई। दीया जलाओ! ये दीया जलाने के शास्त्र हैं, इनको दोहराओ मत, इनका उपयोग करो! इनसे कुछ सीखो और जीवन में रूपांतरित करो। इनको बोझ की तरह मत ढोओ।
और ये सब चोटें जो जीवन में पड़ती हैं, शुभ हैं। न पड़े तो तुम जागोगे कैसे? क्रोध भी, काम भी, लोभ भी। एक दिन तुम उनके प्रति भी धन्यवाद करोगे 1 अगर न कर सको तो तुम असली धार्मिक आदमी नहीं।
इसलिए तुम उसी को संत समझना, उसी को सिद्ध समझना, जिसने अब अपने जीवन की उलझनों को भी धन्यवाद देने की शुरुआत कर दी। अगर तुम्हारा संत अभी भी क्रोध के विपरीत आग उगलता हो, अभी भी कामवासना के ऊपर तलवार लेकर टूट पड़ता हो, अभी भी पापियों को नर्क में भेजने का आग्रह रखता हो, उत्सुकता रखता हो, और अभी भी पुण्यात्माओं के लिए स्वर्ग के प्रलोभन देता हो, तो उसने कुछ जाना नहीं। वह तुम जैसा ही है। उसने नए धोखे रच लिए होंगे। तुम्हारे धोखे अलग, उसके धोखे अलग। तुम्हारी माया एक ढंग की है, सांसारिक है; उसकी माया मंदिर—मस्जिद वाली है, लेकिन कुछ फर्क नहीं है।
चोट खाकर ही तो इंसान बना करता है
दिल था बेकार अगर दर्द न पैदा होता
सब चोटें अंततः निर्मात्री हैं। सब चोटें सृजनात्मक हैं। सभी से तुम बनोगे, निखरोगे, खिलोगे। उठना है उनके पार, दुश्मन की तरह नहीं; उनका भी मित्र की तरह उपयोग कर लेना है।
'जिसके संदेह समाप्त नहीं हुए हैं, उस मनुष्य की शुद्धि न नंगे रहने से, न जटा धारण करने से, न पंकलेप से, न उपवास करने से, न कड़ी भूमि पर सोने से, न धूल लपेटने से और न उकडूं बैठने से हो सकती है।
'जिसके संदेह समाप्त नहीं हुए हैं।
बुद्ध को नकार से बड़ा लगाव है। अब क्या अड़चन थी, वे कह देते कि जिसको श्रद्धा उत्पन्न हुई है। मगर वे न कहेंगे। वह शब्द उन्हें रास नहीं आता। परिस्थितियां भी नहीं थी। श्रद्धा जैसे बहुमूल्य शब्द को बुद्ध ज्यादा उपयोग नहीं कर पाते। पर जो कहते हैं वह वही है। तुम इसे ध्यान रखना।
'जिसके संदेह समाप्त नहीं हुए है
उनको उलटी तरफ से यात्रा करनी पड़ती है, कान दूसरी तरफ से घूमकर पकड़ना पड़ता है। श्रद्धा सीधा शब्द है, लेकिन वे कहते हैं, जिसके संदेह नहीं समाप्त हुए है। वे कहते हैं, संदेह समाप्त होने चाहिए। संदेह की जो शन्य स्थिति है, जहां संदेह नहीं है, वही श्रद्धा की स्थिति है। लेकिन बुद्ध उसके संबंध में कुछ कहते नहीं। वे नहीं से चलते हैं। वे हर जगह नहीं से ही व्याख्या—और परिभाषा करते हैं। नेति—नेति उनका शास्त्र है।
मै मुल्ला नसरुद्दीन के घर बैठा था। एक नया युवक एक बड़ी पोथी लेकर आ गया। मुल्ला को बड़ी बेचैनी होने लगी। उस युवक ने कहा कि मैंने एक उपन्यास लिखा है और आप बुजुर्ग हैं; आप कविता भी करते हैं, कहानियां भी लिखते हैं, मैं बड़ा धन्यभागी होऊंगा अगर आप इसके लिए शीर्षक चुन दें। होंगे कोई दो हजार पन्ने! मुल्ला ने गौर से पोथी की तरफ देखा और उसने कहा कि ठीक, इसमें कहीं ढोल का जिक्र है g उसने कहा कि नहीं। वह युवक चौंका कि ढोल के जिक्र के पूछने को जरूरत क्या! मुल्ला ने पूछा, इसमें कहीं नगाड़े का जिक्र है? उसने कहा कि नहीं, बिलकुल नहीं। तो उसने कहा, बस, शीर्षक चुन दिया, न ढोल न नगाड़ा। उठा अपनी पोथी और ले जा!
मैंने मुल्ला से कहा कि मुल्ला, तुम मुसलमान हो कि बुद्धिस्ट? बौद्ध मालूम होते हो बिलकुल। यह तुमने खूब तरकीब निकाली है इसका शीर्षक चुनने की—न ढोल न नगाड़ा! गलत भी कोई नहीं कह सकता, क्योंकि दोनों का जिक्र नहीं है। बुद्ध श्रद्धा की बात नहीं करते हैं। कहते हैं, जहा संदेह न हो। जिसके संदेह समाप्त हो —गए हैं। नहीं से चलते हैं। लेकिन जिनके जीवन में तर्क है, विचार है, उनको यह बात जंचेगी, उनको यह बात समझ में आएगी। जिनके जीवन में भाव है, श्रद्धा है, उनको थोड़ा अजीब सा लगेगा। यह तो ऐसे हुआ जैसे प्रकाशे की परिभाषा के लिए अंधेरे को बीच में लाना पड़े। लिया जा सकता है, अड़चन नहीं है। हम कह सकते हैं, प्रकाश यानी अंधेरे का न होना। जहां बिलकुल अंधेरा नहीं है। बुद्ध कहते हैं, वही, जहं। बिलकुल अंधेरा नहीं है। मगर वे प्रकाश शब्द को नहीं लेते।
उनके संकोच और भय का कारण भी स्पष्ट है। प्रकाश के नाम पर बहुत उपद्रव मच चुका है। श्रद्धा के नाम पर बहुत अंधश्रद्धा फैल चुकी है। श्रद्धा के नाम पर श्रद्धा तो दूर, सिर्फ अंधविश्वासों के जाल इकट्ठे हो गए हैं। इसलिए ब्र्द्ध को मजबूरी में कहना पड़ा, जिसके संदेह समाप्त नहीं हुए हैं, उस मनुष्य की शुद्धि असंभव है।
जहां संदेह हैं, वहां अशुद्धि रहेगी। संदेह कांटे की तरह चुभता रहेगा। प्राण शांत  न हो सकेंगे। फिर तुम कुछ भी करो। तो बुद्ध ने वे सारी बातें गिना दी हैं जो तथाकथित तपस्वी करते रहे हैं। नंगे रहने से कुछ भी न होगा। जटाजूट धारण करने से कुछ भी न होगा। धूल लपेट लेने से, राख लपेट लेने से कुछ भी न 'होगा। उपवास करने से कुछ भी न होगा। कड़ी भूमि पर सोने से कुछ भी न होगा। उकडूं बैठने से कुछ भी न होगा। क्योंकि महावीर को उकडूं बैठे—बैठे समाधि उपलब्ध हो गयी थी तो कई नासमझ उकडूं बैठे थे कि चलो, महावीर को उकडूं बैठने से समाधि उपलब्ध हुई, उनको भी हो जाएगी। अभी भी बैठे हैं।
मूल क्रांति भीतर घटती है, बाहर से कुछ लेना—देना नहीं है। हा, ऐसा भी हो सकता है कि कोई उकडूं बैठा हो और भीतर की घटना घट जाए। और ऐसा भी हो सकता है, कोई शीर्षासन कर रहा हो और भीतर की घटना घट जाए। ऐसा भी हो सकता है, कोई बैठा हो, कोई चल रहा हो और भीतर की घटना घट जाए। ये तो बाहर की सांयोगिक बातें हैं। इनका कोई मूल्य नहीं है।
बुद्ध वटवृक्ष के नीचे बैठे थे, घटना घट गयी। तब से बौद्ध वटवृक्षों के नीचे बैठ रहे हैं, कि शायद…..। वृक्ष से क्या लेना—देना है? लोगों ने तीर्थ बना लिए हैं उन स्थानों पर जहां किसी को घटना घट गयी थी। वे वहां जा—जाकर बैठते हैं कि शायद.....। असली बात देखो। भीतर की तरफ देखो।
तो बुद्ध का इशारा यह है कि संदेह समाप्त हो गए हों, भीतर से संदेह का उपद्रव मिट गया हो।
अगर भीतर थोड़ा भी संदेह है, तो तुम जो कुछ भी करोगे वह अधूरा—अधूरा होगा। नग्न रहोगे तो अधूरी नग्नता होगी। भीतर तो संदेह बना ही रहेगा, पता नहीं! उपवास करोगे तो अधूरा उपवास होगा; भीतर तो कोई कहता ही रहेगा, क्यों भूखे मर रहे हो? कहीं भूखे मरने से कुछ होता है? धूल लपेटोगे, लपेटते रहना, लेकिन हाथ अधूरे ही रहेंगे। पूजा करना, प्रार्थना करना, लेकिन सब अधूरा रहेगा। पूरा चाहिए! जब हृदय पूरा का पूरा किसी कृत्य में लीन हो जाता है, वहीं प्रार्थना आविर्भूत हो जाती है।
तो बुद्ध कह रहे हैं, जब तक तुम सर्वांगीण समग्रता से, संदेहशून्य हुए कुछ न करोगे, कुछ भी न होगा।
बढ़ाओ कल्पना के जाल, तब भी स्वप्न बाकी हैं
लगाओ तर्क के सोपान, तब भी प्रश्न बाकी हैं
तुम कितनी ही सीढ़िया लगाओ तर्क की, इससे कुछ हल न होगा। प्रश्न थोड़े पीछे ढकलते जाएंगे, बस। फिर—फिर खड़े हो जाएंगे। उत्तर चाहिए, तर्क की सीढ़ियों से क्या होगा? अनुमान करने से कुछ भी न होगा।
ईश्वर अनुमान नहीं है। तर्क ज्यादा से ज्यादा अनुमान है। ईश्वर अनुभव है। तुम अंधेरे में बैठे—बैठे अनुमान लगा रहे हो, सोच—विचार कर रहे हो, बड़ी चितना चला रहे हो, मगर तुम्हारी चितना से क्या होगा? तुम्हारे विचार से जल तो न मिलेगा, प्यास तो न बुझेगी! तुम कितने ही भवन बनाओ विचार के सरोवर का कितना ही चिंतन करो, अनुमान करो—वर्षा न होगी। भूखे हो, भूखे रहोगे। सोचो खूब, छप्पन भोगों के संबंध में सोचो, थाल सजाओ कल्पना के।
बढ़ाओ कल्पना के जाल, तब भी स्वप्न बाकी हैं
लगाओ तर्क के सोपान, तब भी प्रश्न बाकी हैं
कुछ हल न होगा। अनुभव सुलझाता है। और अनुभव तभी हो सकता है जब भीतर के संदेह तुम हटाकर रख दो। संदेह अनुभव नहीं होने देता। इसीलिए तो इतने लोग मंदिरों—मस्जिदों में, गुरुद्वारों में प्रार्थना कर रहे हैं, और सब प्रार्थना न मालूम कहौ खो जाती है। उस प्रार्थना से कहीं कोई जीवन की दीप्तिं पैदा नहीं होती। उस प्रार्थना से कहीं ऐसा नहीं लगता कि प्राण निखरे, उज्जल हुए। मंदिर से लौटता हुआ आदमी थका हुआ मालूम पड़ता है, कोई जीवन की ऊर्जा लेकर नाचता हुआ लौटता नहीं मालूम होता। प्रार्थना की ही नहीं, मंदिर हो आया है। झुका '
बेफायदा है सिब्दागुजारी सुबह—ओ—शाम
जब दिल ही झुक सका न सरे—बंदगी के साथ
सिर झुकाते रहो, कवायद होगी, जो थोड़ा—बहुत लाभ हो सकता है व्यायाम से, जरूर होगा।
बेफायदा है सिब्दागुजारी सुबह—ओ—शाम
जब दिल ही झुक सका न सरे—बंदगी के साथ
सिर झुके तब दिल भी झुके। दिल झुके तब सिर भी झुके। तुम पूरे—पूरे झुको, अधूरे—अधूरे नहीं। फिर तुम जहा झुक जाओ, वहीं मंदिर है। और तुम जिसके सामने झुक जाओ, वही परमात्मा है। तुम पत्थर के सामने झुको तो परमात्मा है। और अभी तुम परमात्मा के सामने भी झुको तो पत्थर है। क्योंकि परमात्मा तुम सृजन करते हो। वह तुम्हारे भावों से निर्मित होता है। वह तुम्हारी ऊंचाई है, तुम्हारी उड़ान है। तुम्हीं जब जमीन पर सरक रहे हो, तो तुम्हारे सामने जो भी है वह पत्थर है। तुम जब उड़ोगे, तब तुम्हारे सामने जो भी होगा वह परमात्मा होगा।
बुद्ध श्रद्धा की बात नहीं करते, लेकिन मतलब वही है। फिर तुम उलटे—सीधे कुछ भी करते रहो। आदमी ने कितनी—कितनी चेष्टाएं नहीं की हैं!
मैंने सुना है, एक बड़ी पुरानी चीनी कथा है। एक फकीर के पास, एक सिद्धपुरुष के पास तीन युवक आए। वे तीनों सत्य के खोजी थे और उन तीनों ने चरणों में सिर रखा और कहा कि हम सत्य के तलाशी हैं। हम बहुत दूर—दूर भटक आए हैं, अब आपकी शरण आए हैं। हमारी प्रार्थना है कि यह हमारी मंजिल हो, कहीं और न जाना पड़े।
उस फकीर ने उन तीनों को गौर से देखा। उसने अपने झोले में से तीन स्वर्णपात्र निकाले एक—एक तीनों को दे दिया और कहा ये बातें पीछे हो लेंगी, इन पात्रों को साफ कर लाओ, स्वच्छ कर लाओ। पहले ने पात्र को गौर से देखा। पात्र स्वच्छ ही था, ऐसा उसे लगा क्योंकि गंदे पात्रों से ही पानी पीने की उसे आदत थी। वस्तुत: इतना स्वच्छ पात्र उसने कभी देखा ही न था। पात्र स्वच्छ न था, लेकिन उसका सारा अनुभव गंदे पात्रों का था, उनकी तुलना में यह स्वच्छ ही मालूम हुआ। सोने का था। सोने ने ही उसे चकाचौंध से भर दिया। वह तो पात्र रखकर वहीं बैठ गया।
दूसरे ने गौर से पात्र को देखा, उठा, बाहर की तरफ गया, नदी की तरफ पहुंचा, किनारे पर जाकर नदी के, उसने खूब लड़—लड़ कर पात्र को धोया। रेत से लड़ा, फिर भी तृप्ति न हुई तो पत्थरों से लड़ने लगा। उसने लड़ ही डाला पात्र को। वह पानी भरने योग्य भी न रह गया। उसने सफाई बिलकुल कर दी। उसमें छेद हो गए। सोने का नाजुक पात्र था, उसने उसके साथ ऐसा व्यवहार किया जैसे कोई लोहे के पात्र को साफ कर रहा हो। जिद्दी था। जब गुरु ने कह दिया तो उसने इसको अहंकार बना लिया कि साफ ही करके ले जाऊंगा। उसने सफाई ऐसी की कि पात्र ही न बचा! जब वह लौटकर आया तो उसकी शकल पहचाननी मुश्किल थी।
तीसरे ने गौर से पात्र को देखा, खीसे से रूमाल निकाला, भीतर गया घर में पानी में भिगाया और उस गीले वस्त्र से आहिस्ते से उस पात्र को साफ किया, वापस लाकर बैठ गया।
उस फकीर ने तीनों के पात्र देखे। पहले के पात्र पर मक्खिया भिनभिना रही थीं। लेकिन उसे मक्खिया दिखायी भी नहीं पड़ रही थीं, क्योंकि मक्खियों में ही जीया था। उसके चेहरे पर भी भिनभिना रही थीं, वह उनको भी नहीं उड़ा रहा था। गुरु ने कहा कि तू जरा गौर से तो देख, तूने पात्र साफ नहीं किया। मैंने कहा था...। उसने कहा, पात्र साफ है, अब और क्या साफ करना! सुंदर पात्र है, और क्या करना है! गुरु ने कहा, देख, मक्खियां भिनभिना रही हैं। उसने कहा कि वे तो इसलिए भिनभिना रही हैं.. वे तो फूलों पर भी भिनभिनाती हैं, इससे क्या फूल गंदे है? वे तो पात्र की मधुरता के कारण भिनभिना रही है।
दूसरे से कहा, पानी भर। पहले का पात्र तो पानी भरने योग्य ही न था, गंदा था। दूसरे ने पानी भरा, लेकिन पानी बह गया। उसने सफाई जरूरत से ज्यादा कर दी थी। पात्र ही नष्ट कर लाया था।
कहते हैं, गुरु ने दो को विदा कर दिया, तीसरे को स्वीकार कर लिया। तीसरे ने पूछा कि मैं समझा नहीं। यह क्या हुआ? यह लेन—देन क्या है? यह राज क्या है इन पात्रों के बांटने का और चुनने का? उसके गुरु ने कहा, पहला भोगी है, गंदगी में रहने का आदी हो गया है। उसका शरीर मक्खियों से भिनभिना रहा है। वह उसको ही मिठास समझ रहा है, सौंदर्य समझ रहा है। अभी आत्मा उसके जीवन में जग सके, इसकी संभावना नहीं। दूसरा त्यागी है, हठयोगी है। तोड़—फोड़कर आ गया।
नग्न बैठे हैं, उपवास कर रहे हैं, उकडूं बैठे हैं, शीर्षासन कर रहे हैं, भूखे हैं, प्यासे हैं, धूप में शरीर को जला रहे हैं काटो पर लेटे हैं, राख रमाए बैठे हैं, गरमी की भरी दुपहरी है, आग जलाए, धूनी रमाए बैठे हैं; सर्दी की रातें है, बर्फीली जगह में नंगे बैठे कंप रहे हैं। पात्र को नष्ट कर रहे हैं। पात्र बहुत नाजुक है। सोने से ज्यादा नाजुक है तुम्हारी देह। सोना भी इतना —नाहक नहीं; आखिर धातु धातु है। देह बड़ी नाजुक है। स्वर्णमंदिर है तुम्हारी देह। उसके साथ दो दुर्व्यवहार हो सकते हैं। एक तो दुर्व्यवहार है जो भोगी करता है, और दूसरा दुर्व्यवहार है जो त्यागी करता है।
उस तीसरे को चुन लिया गया। वह योग्य था, क्योंकि वह समत्व को उपलब्ध था, वह मध्य में था। उसने न तो एक अति की, न दूसरी अति की। वह होशपूर्वक चीज को देखा और समझा। पात्र गंदा भी था, साफ भी किया। इतना साफ भी न किया कि पात्र नष्ट हो जाए, क्योंकि ऐसी सफाई का क्या फायदा! ऐसी औषधि का क्या फायदा कि मरीज ही मर जाए!
बुद्ध का सारा संदेश मव्हिम निकाय का है, मध्यमार्ग का है। बुद्ध कहते हैं न भोग, न त्याग, बीच में ठहर जाना है।
अगर तुम बेहोश हो तो तुम भोगी रहोगे। अगर तुम बेहोशी से बहुत ज्यादा क्रोध में आ गए, प्रतिक्रिया में आ गए—बेहोशी तो न छोड़ी, संसार से भाग खड़े हुए—तो बेहोशी नया उपद्रव खड़ा कर लेगी 1 उपद्रव बदल जाएगा। अब तुम शरीर के दुश्मन हो जाओगे। पहले शरीर के पीछे दीवाने थे, अब शरीर के शत्रु हो जाओगे। पहले सोचते थे शरीर से स्वर्ग मिलेगा, अब सोचोगे कि शरीर को कष्ट देने से ही स्वर्ग मिलने वाला है। भाषा विपरीत हो गयी, लेकिन तुम जागे नहीं। कहीं बीच में खड़े होना है।
जागरण मध्य में ले आता है, वह अति नहीं है।
त्यागी तो ऐसा आदमी है जो विनाश को आतुर हो गया है, नाराज है। भोग से न पाया, इसलिए नाराज है। यह तो नहीं समझ रहा है कि मेरी भूल थी; यह समझ रहा है कि भोग की भूल थी। यह तो न समझा कि मैं शरीर के साथ जरूरत से ज्यादा जुड़ा था, शरीर का ही दुश्मन हो गया। छोटे बच्चों जैसा व्यवहार कर रहा है। दरवाजे से टकरा जाता है बच्चा, तो दरवाजे को मारता है। बालबुद्धि है, बालो! मूढ़ है, सोचता है, दरवाजे का कोई कसूर है। यह खतरनाक काम है। यh दोस्ती खतरनाक है बेहोशी से।
मैं एक कहानी पढ़ता था। एक सूफी फकीर के पास एक भालू था। जंगल से गुजर रहा था और छोटा सा भालू का बच्चा मिरच गया। बड़ा प्यारा था। उसने उसे पाल लिया। वह बड़ा हो गया। वह उसकी सेवा भी करता था, भालू। एक दुपहरी की बात, फकीर बहुत थका—मादा था, यात्रा से लौटा था घर में कोई भी न था। बिना सूचना दिए घर आ गया था, कोई शिष्य मौजूद न था। भालू ही था। तो उसने भालू से कहा कि देख तू बैठ जा, किसी को भीतर मत आने देना, मुझे विश्राम करना है। कोई बाधा मुझ पर न पड़े, मैं बहुत थका हूं और एक चार—छह घंटे की नींद अत्यंत अनिवार्य है। तो भालू बैठ गया दरवाजे पर पहरा देने। फकीर सो गया।
एक मक्खी बार—बार आकर उसकी नाक पर बैठने लगी। उस भालू ने अपना पंजा उठाकर कई दफे उस मक्खी को उड़ाया। फिर आखिर भालू भालू था। उसको इतना गुस्सा आया! क्योंकि वह मक्खी बार—बार जिद्द करने लगी—मक्खियां बड़ी जिद्दी—जितना वह भगाने लगा वह वापस उसकी नाक पर बैठने लगी आकर। उसने एक गुस्से में इतना झपट्टा मारा कि नाक भी उसने अलग कर दी। फकीर की जब नाक कट गयी तब उसने अपने शिष्यों को कहा कि भालू की दोस्ती ठीक नहीं। बेहोशी की दोस्ती भालू की दोस्ती है। पहले भोग में उलझाता है, फिर जब भोग से ऊबता है तो नाक तुड़वा डालता है। पहले शरीर के पीछे भटकाता है, फिर शरीर की दुश्मनी में भटकाता है लेकिन भटकन जारी रहती है।
संसार नहीं छोड़ना है, बेहोशी छोड़नी है।
फरार का यह नया रूप है अगर हम लोग
चिराग तोड़ के नूरे—कमर का जिक्र करें
यह भी एक पलायन है। जिसको हम त्याग कहते हैं, भगोड़ापन है। और यह ऐसा ही मूढ़तापूर्ण है, जैसे कोई कहे कि झूम तो दीए को तोड़ देंगे, तब हम रोशनी का चर्चा करेंगे। दीए को तोड़कर जैसे कोई चांद की रोशनी की चर्चा करने की जिद्द करे। दीए में भी चांद की ही रोशनी है। कितनी ही भिन्न हो, चांद की ही रोशनी है। शरीर में कितना हो भिन्न जीवन हो, तुम्हारा ही जीवन है; परमात्मा का ही आविष्ट भाव है।
फरार का यह नया रूप है अगर हम लोग
चिराग तोड़ के नूरे—कमर का जिक्र करें
त्यागी वही कर रहा है। वह भगवान का जिक्र कर रहा है, लेकिन भगवान की देन को तोड़ता है।
अलंकृत रहते हुए भी यदि कोई धर्म का आचरण करता है; शांत, दान्त और नियत ब्रह्मचारी है तथा प्राणिमात्र के लिए दंड का जिसने परित्याग कर दिया है, वही ब्राह्मण है, वही श्रमण है, वही भिक्षु है। '
'अलंकृत रहते हुए भी...। '
राजसिंहासन पर बैठे—बैठे भी परमात्मा की उपलब्धि हो सकती है।

'अलंकृत रहते हुए भी...। '
अलंकतो चेपि समं चरेथ्य
सन्तो दन्तो नियतो व्रह्मचारी
सब्‍बेसु भूतेसु निधाय दण्डं
सो ब्राह्मणो सो समणो व भिक्खू।

बुद्ध का यह वचन चौंकाका बौद्ध भिक्षुओं को भी। धम्मपद रोज पढ़ते हैं, लेकिन इसे शायद पढ़ते नहीं। अलंकृत रहतै हुए भी! ठीक संसार में रहते हुए भी! न धूल रमाने की जरूरत, न उकडूं बैठ जाने की जरूरत, न उपवास करने की जरूरत, असली जरूरत कुछ और है—वह है शांत  होने की जरूरत, शमन करने की जरूरत, भीतर जो तूफान हैं, उन्हें विसर्जित करने की जरूरत, भीतर जो कामवासना का ज्वर है, ऊर्जा जो विक्षिप्त घूम रही है भीतर, उसे नियत, अनुशासित करने की जरूरत, उसी को वे ब्रह्मचर्य कहते हैं।
ब्रह्मचर्य का अर्थ यह नहीं है, कामवासना से लड़ना। ब्रह्मचर्य का अर्थ है, कामवासना को समझ लेना। शांति का अर्थ नहीं है, अशांति से लड़ना। शांति का अर्थ है, अशांति को समझ लेना। समझ शांत  कर देती है।
'वही ब्राह्मण है, वही श्रमण है, वही भिक्षु है।
ब्राह्मण तो भारत की पुरानी संस्कृति है। श्रमण जैनों के लिए प्रयोग किया गया शब्द है। वह भारत की दूसरी बहुमूल्य संस्कृति की धारा है। और भिक्षु बुद्ध अपने संन्यासियों के लिए कह रहे हैं।
'लोक में कोई ही पुरुष होता है जो स्वयं लज्जा करके अकुशल को, वितर्क को नहीं करता। जिस तरह उत्तम घोड़ा कोड़े को नहीं सह सकता, उसी तरह वह निंदा को नहीं सह सकता है। कोड़े दिखाए गए उत्तम घोड़े की भांति उद्यमी, सवेगवान होओ! श्रद्धाशील, वीर्य समाधि, धर्मविनिश्चय, विद्या, आचार और स्मृति से संपन्न होकर इस महान दुख को पार कर सकोगे।
लोक में कोई ही ऐसा विरला पुरुष है, बुद्ध कहते हैं, जो लज्जावान है। जो सोचता है और अपनी मूर्च्छित दशा पर लज्जित है। जो बूझता है और अपनी अवस्था को देखकर चकित होता है, हैरान होता है—यह मैं क्या कर रहा हूं! यह मुझसे क्या हो रहा है!
जो अपने प्रति थोड़ा भी जागने लगा, वह लज्जित होने लगेगा! इस फर्क को समझना जरूरी है। तुम साधारणत: अपराध अनुभव करते हो, लज्जा नहीं। लज्जा बड़ी अलग बात है, अपराध बड़ी अलग बात है।
अपराध का मतलब होता है, तुम डरे हो कि कहीं पकड़े न जाओ। अपराध का मतलब होता है कि करना तो तुम यही चाहते थे, लेकिन परमात्मा, राज्य, कानून, समाज, धर्म इसके विपरीत हैं। अपराध का मतलब होता है कि अगर तुम्हें पूरी स्वतंत्रता होती और तुम्हें कोई दंड देने वाला न होता, कोई निंदा करने वाला न होता, तो तुम यही करते मजे से करते। लेकिन बड़ी मुश्किल है, दंड है, सजा है। और अगर यहां बच जाओगे तो परलोक में न बच सकोगे वहां का डर है। अपराध का अर्थ है, करना तो तुम यही चाहते हो, लेकिन दूसरे नहीं करने दे रहे हैं। और पकड़े जाने का भय है।
इसे समझना। मैं स्कूल में विद्यार्थी था, तो मेरे उस स्कूल में एक बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति शिक्षक थे। वे मुसलमान थे, और जिन शिक्षकों के करीब मै आया उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण थे। हमेशा वे परीक्षा के समय में सुपरिटेंडेंट होते थे। सबसे बुजुर्ग आदमी थे। जब पहली दफा मैं परीक्षा दिया और वे सुपरिटेंडेंट थे तो मैं बड़ा चकित हुआ। वे अंदर आए और उन्होंने कहा कि बेटो, अगर चोरी करनी हो, करना, पकड़े मत जाना। हम पकड़े जाने के खिलाफ हैं। अगर तुम्हें नकल करनी हो दूसरे की, कुशलता से करना। पकड़े गए, तो मुझसे बुरा कोई नहीं; न पकड़े गए, तुम्हारा सौभाग्य! अगर तुम्हें भरोसा न हो, डर हो कि पकड़े जाओगे, तो दे दो जो भी तुम ले आए हो छिपा कर।
अनेक लड़कों ने निकालकर अपनी चीजें दे दीं, क्योंकि यह आदमी बड़ा खतरनाक मालूम हुआ। यह बिलकुल सीधी—सीधी बात कह रहा है, बात बिलकुल साफ कह रहा है। हमें कुछ तुम्हें.? तुम गलती कर रहे हो, इससे हमें मतलब नहीं है गलती तभी है जब पकड़ी जाए। अगर तुम बचकर निकल सकते हो, मजे से निकल जाओ। मगर हम भी पूरी कोशिश करेंगे पकड़ने की।
अपराध का मतलब यही होता है कि तुम्हें पकड़े जाने का डर है : पकड़े जाने की संभावना से तुम पीड़ित हो। और इसीलिए समाज ने कानून बनाया है, पुलिस बनायी है, अदालत बनायी है, मजिस्ट्रेट बिठाया है। और इतने से भी काम नहीं चलता है, क्योंकि इतने से भी तुम धोखा दे सकते हो। आखिर ये सब आदमी हैं, तुम भी आदमी हो। तो कितने ही कुशल बिठा दो तुम न्यायाधीश, आखिर चोर भी उतनी ही कुशलता खोज सकता है। 'कितने ही कुशल तुम बिठा दो पुलिस वाले, लेकिन चोर भी ज्यादा कुशल हो सकता है।
सच तो यह है कि पुलिस वाले को तुम कितना पैसा देते हो! तुम कोई बहुत कुशल आदमी नहीं पा सकते। मजिस्ट्रेट को भी तुम क्या देते हो! अगर कोई कुशल आदमी होगा, तो मजिस्ट्रेट होना पसंद न करेगा। उसके लिए जिंदगी में और बड़े मुकाम हैं। वह जिंदगी में और ज्यादा पा सकता है। मजिस्ट्रेट जो जिंदगीभर में पाएगा, वह _ दाव में पा सकता है।
तो जो असली होशियार लोग हैं, वे तो बाहर रह जाते हैं। उनसे तुम कैसे बचाओगे? वे कोई न कोई रास्ता निकालते रहेंगे। वे कानून में से दाव—पेंच निकालते रहेंगे। तो फिर समाज ने भगवान की कल्पना की है, कि अगर तुम यहां से बच जाओगे तो अगले लोक में न बच सकोगे। अगर तुम पुलिस वाले की आंख से बच जाओगे तो परमात्मा की आंख से न बच सकोगे। ध्यान रखना, वह हमेशा देख रहा है, वह हर जगह देख रहा है। तुम जब अंधेरे में चोरी कर रहे हो, तब भी वह मौजूद है। वहां तो लिखा जा रहा है।
तो समाज ने अंतःकरण पैदा किया तुम्हारे भीतर, ताकि तुम अगर बच भी जाओ तो भी बिलकुल न बच जाओ, भीतर कोई कहता ही रहे कि कहीं पकड़े न जाओ, कहीं यह हो न, आज नहीं कल! और जब मौत करीब आने लगेगी, तब तुम घबड़ाने लगोगे कि अब आने लगा मरने का वक्त, अब सामने खड़ा होना होगा, और जिंदगीभर जो किया था अब उसका क्या हिसाब! हिसाब देना पड़ेगा। तो जो आदमी बच भी जाता है समाज से, वह भी अपनी आंखों से नहीं बच पाता।
अपराध का मतलब है, करना तो तुम चाहते थे, बुरा भी तुम न मानते थे लेकिन समाज ने तुम्हें मजबूर किया बुरा मानने को।
लज्जा बड़ी और बात है। लज्जा का मतलब है सारा समाज भी कहता हो कि झूठ स्वीकार है, चोरी स्वीकार है, पाप स्वीकार है; फिर भी तुम अनुभव करते हो कि भूल है, गलत है। इसलिए नहीं कि कोई दंड देने वाला है; इसलिए नहीं कि कोई परमात्मा के सामने तुम्हें जवाबदार होना पड़ेगा; इसलिए भी नहीं कि कोई अपराध है; सिर्फ इसलिए कि तुम्हारे आत्मगौरव के अनुकूल नहीं, यह तुम्हारे होने के अनुकूल नहीं; यह तुम्हारी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल है। यह किसी और के सामने तुम्हें नहीं गिरा रहा है, यह अपनी ही आंखों में गिराए जा रहा है।
इसलिए लज्जा बड़ी और बात है। लज्जा बड़ा धार्मिक गुण है। अपराध ;न्यादा से ज्यादा तुम्हें गैरकानूनी होने से रोकेगा; नैतिक बना देगा, लेकिन धार्मिक नहीं। लज्जा तुम्हें धार्मिक बनाएगी।
बुद्ध कहते हैं, लेकिन विरले हैं ऐसे पुरुष जिनके मन में न करने योग्य चीज को करने से लज्जा पैदा होती है। पर ऐसा ही सभी को होना चाहिए।
'जिस तरह उत्तम घोड़ा कोड़े को नहीं सह सकता। '
यह उसका अपमान है। तुम उत्तम घोड़े पर कोड़ा मत चलाना, उसकी जरूरत नहीं है। बुद्ध ने कहा है, घोड़े की आत्मा के सामने सिर्फ कोड़े की छाया काफी है। कोड़ा मत उठाना, कोड़े की छाया पर्याप्त है। उत्तम घोड़े को इशारा काफी है। तुम्हारे भीतर अगर थोड़ी भी लज्जा है, थोड़ी भी मनुष्य की महिमा का भाव है, थोड़ा भी आत्मगौरव है, अगर तुम्हें थोड़ा भी ऐसा लगता है कि यह जीवन एक महान अवसर है, एक महान संपदा है, एक प्रसाद है, इसे मैं क्षुद्रता में न गंवाऊं, तो बुद्ध कहते हैं, घोड़े की तरह, उत्तम घोड़े की तरह, तुम भी लज्जावान बनना।
सुना है मैंने, अकबर के जीवन में उल्लेख है कि चार वजीरों ने कुछ पाप किया। पकड़े गए। चारों को उसने बुलाया। पहले को उसने बुलाया और कहा कि ऐसा मैंने
कभी सोचा न था कि तुम करोगे! बस इतना ही कहा। कहा जाओ! उस आदमी ने जाकर घर में आत्महत्या कर ली। यह किसी के सामने भी न कहा था, यह बिलकुल फौत में हुआ था। इतना ही कि ऐसा मैंने कभी सोचा भी न था कि तुम! तुम!! और कर सकोगे! बस बात खतम हो गयी।
दूसरे को उसने कारागृह में डलवा दिया—आजन्म। वह घर आया। उसने कहा, घबड़ाओ मत, शाम को मैं पकड़ा जाऊंगा लेकिन तब तक मैं इंतजाम किए लेता हूं। हर जगह से निकलने का उपाय है, जहां जाने का उपाय है, वहां से बाहर आने का उपाय है। घबड़ाओ मत। आजन्म कारावास! लेकिन वह जेलखाने में भी जाकर बाहर निकलने का उपाय खोजता रहा।
तीसरे आदमी को फांसी की सजा दी है। वह आदमी रिश्वत खिलाकर भाग निकला। चौथे आदमी को काला मुंह करके गधे पर बिठाकर पूरी राजधानी में घुमवाया। मगर वह गधे पर ऐसा अकड़ से बैठा रहा जैसा शोभायात्रा निकली हो!
किसी ने अकबर को पूछा कि एक ही दंड था, चारों ने मिल कर एक पाप किया था, एक ही जुर्म किया था, इतना अलग—अलग व्यवहार क्यों? उसने कहा, वे अलग—अलग लोग थे। पहले उगदमी से मैंने इतना भी कहा, उसके लिए मैं पछताता हूं। यह भी नहीं कहना था। यह कोड़े की छाया भी ज्यादा पड़ गयी। उसने घर जाकर आत्महत्या कर ली, बात खतम हो गयी। मैं पछताता हूं? मुझसे भूल हो गयी। मैं आक न पाया ठीक से कि यह आदमी कितना बहुमूल्य है। यह बात ही न उठानी थी। सिर्फ उसे उठाकर मैं एक आंख देख लेता और घर भेज देता, बस उतना काफी था, कुछ कहना नही था। मैंने बुलाया, कुछ कहना चाहता था और नहीं कहा, इतना काफी हो जाता। उसे जरूरत से ज्यादा दंड हो गया। इसका मुझे पछतावा है।
दूसरे आदमी को आजन्म भेजा है, लेकिन मुझे खबरें मिल रही हैं कि वह रिश्वत खिलाकर भाग निकलने की कोशिश कर रहा है, जेल के बाहर आने की; बेशर्म है। उसे अगर और भी ज्यादा सजा दी जाए तो थोड़ी होगी। तीसरे आदमी को फासी की सजा दी; लेकिन वह भाग निकला। जैसे किसी तरह का आत्मगौरव नही है। चौथे को गधे पर निकलवाया है, लेकिन सुनते हैं, वह घर ऐसा लौटा है जैसे शोभायात्रा निकली हो। बड़ा प्रसन्न है कि सारी राजधानी ने जान लिया। शान से बैठा था, बड़ी भीड़ साथ चल रही थी।
कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, बदनाम हुए तो क्या, कुछ नाम तो होगा ही।
बुद्ध कहते हैं, लज्जावान। वह जो पहला आदमी है, उत्तम घोड़े की भांति, कोड़े की छाया बस काफी है। ऐसे बनो—कोड़े दिखाए गए उत्तम घोड़े की भांति उद्यमी, संवेगवान, संवेदनशील।
'श्रद्धा, शील, वीर्य, समाधि, धर्मविनिश्चय, विद्या और आचार तथा स्मृति से संपन्न होकर इस महान दुख को पार कर सकोगे। '
एक—एक शब्द बहुमूल्य है। श्रद्धा से बुद्ध का अर्थ है संदेहशून्य चित्त की अवस्था। वैसा मत सोचना जैसा तुमने श्रद्धा से सोचा है। जब बुद्ध कहते हैं श्रद्धा, तो उनका यह मतलब नहीं है किसी पर श्रद्धा। उनका यह मतलब नहीं है परमात्मा पर श्रद्धा, या स्वयं बुद्ध पर श्रद्धा। नहीं, उनका मतलब केवल इतना है, संदेहशून्य अवस्था, जहा कोई संदेह नहीं। अगर इसको तुम ठीक से समझो तो इसका अर्थ होगा अपने पर श्रद्धा, आत्मश्रद्धा।
शील! इस आत्मश्रद्धा की अवस्था से, इस अपने पर भरोसे की अवस्था से जो आचरण निकले, वही शील। लज्जा की प्रतीति से जो आचरण निकले, वही शील।
वीर्य! और इस शील पर अगर तुमने जीवन को ढाला—श्रद्धा, आत्मश्रद्धा, उससे उठा हुआ शील, आचरण—अगर इस आचरण में तुमने जीवन को ढाला तो तुम अपने को सदा ऊर्जस्वी पाओगे। तुम पाओगे तुम्हारे ऊपर अनंत ऊर्जा बरस रही है, कभी कम नहीं होती।
कुशील व्यक्ति सदा ही हारा हुआ, थका हुआ पाता है। सभी वासनाएं थकाती हैं, विचलित करती हैं, उजाड़ जाती हैं। तुम कभी भरे—पूरे नहीं हो पाते, तुम सदा खाली—खाली, रिक्त—रिक्त रहते हो, जैसे कि पात्र में कई छेद हों। कुएं से पानी भी भरते हो तो शोरगुल बहुत मचता है, लेकिन जब पात्र लौटता है कुएं से तो खाली का खाली आ जाता है। पानी भरता है, लेकिन भरा आ नहीं पाता।
जिस व्यक्ति के जीवन में व्यर्थ, अकुशल, न करने योग्य काम समाप्त हो गए हैं; जो वही करता है जो करने योग्य है, होशपूर्वक करता है; जो अपने कर्म में जागरूक है, उसके जीवन में वीर्य उत्पन्न होता है, ऊर्जा उत्पन्न होती है। वह महा शक्तिशाली हो जाता है। उसके पास इतना होता है कि बाट सकता है। उसके पात्र से शक्ति बहने लगती है, दूसरों पर बरसने लगती है। और ऐसी ही ऊर्जा की दशा में समाधि संभव है। थके— थके, हारे—हारे, टूटे—टूटे, समाधि संभव नहीं है।
फूल वृक्ष में आते हैं तभी जब वृक्ष के पास जरूरत से ज्यादा ऊर्जा होती है। तुम्हारे जीवन में भी मेधा तभी प्रगट होती है, जब तुम्हारे पास जरूरत से ज्यादा ऊर्जा होती है। मेधा फूल की भांति है, और समाधि तो परम फूल है, आखिरी फूल है। अगर बुद्धपुरुष तुम्हारी कामवासना, तुम्हारे क्रोध, तुम्हारे लोभ—मोह के विपरीत हैं, तो सिर्फ इसीलिए कि उनके माध्यम से तुम्हारी शक्ति क्षीण होती है, परम फूल नहीं खिल पाता। तुम दीन—दरिद्र रह जाते हो। भिक्षा—पात्र ही तुम्हारी आत्मा बन पाती है, कमल नहीं बन पाती।
समाधि, धर्मविनिश्चय! और जो समाधि को उपलब्ध हुआ, उसे धर्म का साक्षात्कार होता है। वही निश्चित कर पाता है क्या धर्म है। एस धम्मो सनंतनो उसी का साक्षात्कार है।
विद्या! शास्त्रों से नहीं मिलती विद्या। जिसने उस सनातन नियम को जान लिया,
वही विद्यावान है, वही शानी है।
और आचार! शील और आचार में फर्क है। शील तब तक कहते हैं चरित्र को जब तक तुम जागकर उसे साध रहे हो। आचार तब कहते हैं जब तुम्हें जागे रहने की भी जरूरत न रही, स्वाभाविक हो गया। इसलिए जो आचार को उपलब्ध है, उसे शास्त्र आचार्य कहते हैं। आचार्य का अर्थ है, जिसके जीवन में अब चेष्टा न रहा। अगर वह प्रेम देता है तो चेष्टा से नहीं। कुछ और दे ही नहीं सकता, बस प्रेम ही दे सकता है। अगर वह अपना ध्यान बांटता है, तो चेष्टा से नहीं। उसके पास ध्यान है लबालब, वह बहा जा रहा है।
शील तब तक है जब तक थोड़ी चेष्टा हो, आचार तब है जब चेष्टा भी चली जाए। अभी तुम जैसे बिना किसी चेष्टा के क्रोध करते हो, ऐसे ही वह करुणा करता है। अभी तुम जैसे बिना किसी चेष्टा के कामवासना से भरते हो, ऐसे ही वह प्रेम के फूल खिलते हैं उसमें। अभी जैसे बिना किसी चेष्टा के तुम दूसरे को दुख देने में रस लेते हो, ऐसा ही वह दूसरे को सुख देने में रस लेता है।
आचार तथा स्मृति से संपन्न होकर।
स्मृति का अर्थ है, जो मैंने तीसरी बात तुमसे कही प्रारंभ में। कर्म का होश, पहला चरण, कर्ता का होश, दूसरा चरण, फिर साक्षी का होश। उसको स्मृति कहते हैं बुद्ध—आत्मस्मरण। जिसको नानक, कबीर, दादू सुरति कहते हैं, वह बुद्ध का ही शब्द है, स्मृति, जो धीरे—धीरे विकृत हो गया। कबीर तक आते—आते लोकभाषा का हिस्सा बन गया और सुरति हो गया। वह आखिरी घड़ी है। जब तुम्हारे भीतर का दीया जलता है सतत, अविच्छिन्न। उठो, बैठो; सोओ, जागो; कुछ भी करो, कुछ चेष्टा नहीं— भीतर का दीया जलता ही रहता है। वह प्रकाश तुम्हारे चारों तरफ फैलता ही रहता है। उस प्रकाश का नाम—स्मृति।
'इनसे संपन्न होकर इस महादुख को पार कर सकोगे। '
अगर इस गुलशने—हस्ती में होना ही मुकद्दर था
तो मैं गुंचों की मुट्ठी में दिले—बुलबुल हुआ होता
किसी भटके हुए राही को देता दावते—मंजिल
बयाबां की अधेरी शब में जोगी का दीया होता
होने योग्य तो एक ही बात है, वह जोगी का दीया है।
किसी भटके हुए राही को देता दावते—मंजिल
बयाबा की अंधेरी शब में जोगी का दीया होता
अगर होना ही मेरी नियति थी, तो कवि ने कहा है, कि कुछ ऐसी बात होती कि अंधेरी रात में यात्रियों को परम लक्ष्य की तरफ जाने का निमंत्रण बनता। कुछ ऐसी बात होती कि अंधेरी रात में जोगी का दीया होता। जिसको बुद्ध स्मृति कहते हैं, वही है जोगी का दीया।
हो सकते हो। तुम्हारे अतिरिक्त कोई और बाधा नहीं है। इसलिए होने में अड़चन नहीं है। होना चाहो तो हो सकते हो। जो एक को संभव हुआ है, वह सबके लिए संभव है। जो एक मनुष्य के जीवन में दीया जला है, वह सभी मनुष्यों के जीवन में वह दीया जल सकता है। ही, अगर तुम्हीं उसे फूंककर बुझाए चले जाओ
मैं तुमसे कहता हूं कि वह दीया जलने की बहुत कोशिश करता है, तुम फूंक—फूंककर बुझाए चले जाते हो। तुम जलने नहीं देते। और फिर तुम दुख और धुएं से भरे जीते हो, तो रोते—चिल्लाते हो।
बंद करो रोना—चिल्लाना! शिकायत छोड़ो! यहां कोई भी नहीं है जिससे शिकायत हो सके। यहां कोई नहीं है जिसको दोष दिया जा सके। तुम्हारे अतिरिक्त और कोई उत्तरदायी नहीं है। जिम्मा लो! जागो! और अपने जीवन का सूत्र अपने हाथ में सम्हालो! थोड़ी— थोड़ी रोशनी बढ़ने लगेगी। आज जो बूंद—बूंद की तरह होगी, कल सागर हो जाता है। संदेह छोड़ो अपने पर। हटाओ व्यर्थ संदेह के जाल को। क्योंकि संदेह से भरे तुम कुछ भी न कर पाओगे तुम कुंछं भी न हो पाओगे। बहुत लोग सिर्फ जीते हैं, कुछ हो नहीं पाते। जीते हैं और मरते हैं; उनके भीतर कुछ परम जीवन की झलक नहीं आ पाती। आ सकती थी। मगर कोई जबर्दस्ती नहीं ला सकता है। तुम ही ला सकते हो, बस तुम ही ला सकते हो।
इसलिए समय खराब मत करो—न किसी की शिकायत में, न किसी को दोष देने में, न उत्तरदायित्व टालने में, सारी शक्ति को एक बात पर संलग्न करो, एक सूत्र पर कि तुम जागने लगो! कुछ भी करो, एक बात ध्यान रखो कि जागकर करेंगे। हजार बार हारोगे, कोई फिकर नहीं; एक हजार एकवीं बार जीत जाओगे। चट्टान भी टूट जाती है। और यह चट्टान तो केवल तुम्हारी ही आदतों की है। ज्योति की धार जरा इस पर बहने दो।

आज इतना ही।


1 टिप्पणी: