कुल पेज दृश्य

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

एस धम्मो सनंतनो-(ओशो)-प्रवचन-093

जीने में जीवन—(प्रवचन—तीरनवां)

प्रश्‍न सार:


पहला प्रश्‍न:

 मैं तब तक ध्यान कैसे कर सकता हूं जब तक कि संसार में इतना दुख है, दरिद्रता है, दीनता है? क्या ऐसी स्थिति में ध्यान आदि करना निपट स्वार्थ नहीं है? परमात्मा मुझे यदि मिले, तो उससे अपनी शांति मांगने के बजाय मैं उन लोगों के लिए दंड ही मांगना ज्यादा पसंद करूंगा जिनके कारण संसार में शोषण है, दुख है और अन्याय है।

जैसी आपकी मर्जी! ध्यान न करना हो तो कोई भी बहाना काफी है। ध्यान न करना हो तो किसी भी तरह से अपने को समझा ले सकते हैं कि ध्यान करना ठीक नहीं। लेकिन अभी यह भी नहीं समझे हो कि ध्यान क्या है? यह भी नहीं समझे हो कि दुनिया में इतना दुख, इतनी पीड़ा, इतनी परेशानी ध्यान के न होने के कारण है। दुखी आदमी दूसरे को दुख देता है। और कुछ देना भी चाहे तो नहीं दे सकता। जो तुम्हारे पास है वही तो दोगे। जो तुम्हारे पास नहीं है, वह देना भी चाहो तो कैसे दोगे। दुखी दुख देता है, सुखी सुख देता है। यदि तुम चाहते हो कि दुनिया में सुख हो, तो भीतर की शांति, भीतर का होश अनिवार्य शर्तें हैं।

ध्यान शब्द पर मत अटको। ध्यान का अर्थ इतना ही है कि तुम अपने भीतर के रस में ड़बने लगे। जब तुम रसपूर्ण होते हो, तो तुम्हारे कृत्यों में भी रस बहता है। फिर तुम जो करते हो उसमें भी सुगंध आ जाती है। ध्यान से भरा हुआ व्यक्ति कठोर तो नहीं हो सकता, करुणा सहज ही बहेगी। ध्यान से भरा हुआ व्यक्ति शोषण तो नहीं कर सकता, असंभव है। ध्यान से भरा हुआ व्यक्ति हिंसक तो नहीं हो सकता, अहिंसा और प्रेम ध्यान की छायाएं हैं। करुणा ऐसे ही आती है ध्यान के पीछे जैसे बैलगाड़ी चलती है और उसके पीछे चाको के निशान बनते चलते हैं—अनिवार्य है।
दुनिया में इतने लोग दुखी हैं और इतने लोग एक—दूसरे को दुख दे रहे हैं, दुख निश्चित है, मगर दुख का कारण क्या है? दुख का कारण यही है कि लोग सुखी नहीं हैं। तुम जिस अवस्था में हो उसी की तरंगें तुमसे पैदा होती हैं। सब अपने सुख की दौड़ में ही दूसरों को दुखी कर रहे हैं। कोई अकारण तो दुखी नहीं कर रहा है। कोई किसी को दुखी करने के लिए थोड़े ही दुखी कर रहा है! सब चाहते हैं सुख मिले, और अपने— अपने सुख की दौड़ में लगे हैं। स्वभावत:, इस दौड़ में बड़ा संघर्ष है। और सभी अपने सुख को बाहर खोज रहे हैं, सभी को दिल्ली जाना है, सभी को दिल्ली के पदों पर बैठना है। तो संघर्ष है, छीना—झपटी है, उठा—पटक है, आपा—धापी है।
फिर ठीक से पहुंचें कि गलत से पहुंचें, इसकी भी चिंता करने की फुर्सत कहां! क्योंकि दिखायी ऐसा पड़ता है—जो ठीक का बहुत विचार करते हैं, वे पहुंच ही नहीं पाते हैं। यहां तो जो ठीक का विचार नहीं करता है, वह पहुंचता हुआ मालूम पड़ता है। तो धीरे— धीरे साधन मूल्यहीन हो जाते हैं, बस लक्ष्य एक है कि सुख मिल जाए। फिर चाहे सबका सुख छीनकर भी सुख मिल जाए तो भी मेरा सुख मुझे मिलना चाहिए। इसी चेष्टा में दूसरा भी लगा है। इसी चेष्टा में सारी पृथ्वी के करोड़ों लोग लगे हैं। और सब बाहर दौड रहे हैं। ध्यान का अर्थ है—सुख बाहर नहीं है। ध्यान का अर्थ है—सुख भीतर है।
जो बाहर गया, वह दुख से और गहरे दुख में पहुंचता रहेगा। और जितने दुख में पहुंचेगा उतना ही प्यासा हो जाएगा कि सुख किसी तरह मिल जाए। फिर तो येन—केन—प्रकारेण, फिर तो अच्छी तरह मिले तो ठीक, बुरी तरह मिले तो ठीक, किसी की हत्या से मिले तो ठीक, किसी के खून से मिले तो ठीक, लेकिन सुख मिल जाए। जैसे—जैसे तुम अपने से दूर जाओगे, वैसे—वैसे सुख की गहरी प्यास पैदा होगी। और उस अंधी प्यास में तुम कुछ भी कर गुजरोगे। फिर भी सुख मिलेगा नहीं। सिकंदर को नहीं मिलता, न बड़े धनपतियों को मिलता है। सुख मिला है उन्हें जो भीतर की तरफ गए। और भीतर की तरफ जाने का नाम है ध्यान। अंतर्यात्रा है ध्यान। जो अपने में डूबा, उसे सुख मिलता है। जो अपने में डूबा, उसकी स्पर्धा समाप्त हो गयी। उसकी कोई प्रतियोगिता नहीं है। क्योंकि मेरा सुख मेरा है, उसे कोई छीनना चाहे तो भी छीन नहीं सकता है। मेरा सुख मेरी ऐसी संपत्ति है जो मृत्यु भी नहीं छीन पाएगी, फिर किसी से क्या स्पर्धा है! और जब स्पर्धा नहीं, तो शत्रुता नहीं। फिर एक मैत्रीभाव पैदा होता है।
यहां कोई किसी का सुख नहीं छीन सकता है। यहां प्रत्येक व्यक्ति सुखी हो सकता है, अपने भीतर पहुंचकर, और प्रत्येक व्यक्ति दुखी हो जाता है, अपने से बाहर दौड़कर। दुख यानी बाहर, सुख यानी भीतर। बाहर दौड़े तो संघर्ष है, हिंसा है, वैमनस्य है, शोषण है। भीतर आए तो न हिंसा है, न शोषण है, न वैमनस्य है। और जो अपने सुख में थिर हुआ, उसके पास तरंगें उठती हैं सुख की। उसके पास गीत पैदा होता है। उसके पास जो आएगा वह भी उस गीत में ड़बेगा।
इस दुनिया में उसी दिन दुख समाप्त होगा जिस दिन बड़ी मात्रा में ध्यान का अवतरण होगा, उसके पहले दुख समाप्त नहीं हो सकता।
अब तुम पूछते हो, 'मैं तब तक ध्यान कैसे कर सकता हूं जब तक कि संसार में इतना दुख है, दरिद्रता है, दीनता है?'
यह दुख है ही इसीलिए कि ध्यान नहीं है। और तुम कहते हो, तब तक मैं ध्यान कैसे कर सकता हूं! यह तो ऐसी बात हुई कि मरीज चिकित्सक को जाकर कहे कि जब तक मैं बीमार हूं तब तक औषधि कैसे ले सकता हूं? पहले ठीक हो जाऊं फिर औषधि लूंगा। बीमार हो इसीलिए औषधि की जरूरत है, ठीक हो जाओगे तो फिर तो जरूरत ही न होगी। बीमारी के मिटाने के लिए औषधि है ध्यान।
तुम कहते हो, 'संसार में इतना दुख, इतनी पीड़ा, इतना शोषण, इतना अन्याय है, मैं कैसे ध्यान करूं?'
इसीलिए ध्यान करो! कम से कम एक तो ध्यान करे, कम से कम तुम तो ध्यान करो! थोड़ी ही तरंगें सही तुम्हारे पास पैदा होंगी, थोड़ा तो सुख होगा। माना कि इस बड़े जंगल में एक फूल खिलने से क्या होगा, लेकिन एक फूल खिलने से और फूलों को भी याद तो आ सकती है कि हम भी खिल सकते हैं। और कलियां भी हिम्मत जुटा सकती हैं, दबी हुई कलियां अंकुरित हो सकती हैं, बीजों में सपने पैदा हो सकते हैं। एक फूल खिलने से प्रत्येक बीज में लहर पैदा हो सकती है।
फिर इससे क्या फर्क पड़ता है, तुम खिले, थोड़ी सुगंध बंटी, थोड़े चांद—तारे प्रसन्न हुए, थोड़ा सा दुनिया का एक छोटा सा कोना जो तुमने घेर रखा है, वहां सुख की थोडी वर्षा हुई। तुम यही तो चाहते हो न कि दुनिया में सुख की वर्षा हो! कम से कम उतनी दुनिया को तो सुखी कर लो जितने को तुमने घेरा है। तुम दुनिया का एक हिस्सा हो। तुम दुनिया का एक छोटा सा कोना हो। तुम जैसे लोगों से मिलकर ही दुनिया बनी है। आदमी आदमी से मिलकर आदमियत बनी है। आदमियत अलग तो नहीं है कहीं! जहां भी जाओगे आदमी पाओगे, आदमियत तो कहीं न पाओगे। कोई व्यक्ति मिलेगा, समाज तो कहीं होता नहीं। समाज तो केवल शब्दकोश में है। समाज का कोई अस्तित्व नहीं है, व्यक्ति का अस्तित्व है। तुम तो कम से कम, एक तो कम से कम खिल जाए। इतनी तो कृपा दुनिया पर करो!
तुम्हारी इस कृपा से इतना होगा कि तुमसे जो दुर्गंध उठती है, नहीं उठेगी। अगर तुम्हें सच में लोगों पर दया आती है, तो कम से कम उस दुर्गंध को तो रोक दो जो तुमसे उठती है। दूसरे पर तो तुम्हारा वश भी नहीं है, कम से कम तुम तो थोड़ी सुगंध दो। जितना तुम कर सकते हो, उतना तो करो!
तुम कहते हो, वह भी मैं न करूंगा, क्योंकि दुनिया बहुत दुखी है।
सारा गांव बीमार है, माना, तुम भी बीमार हो, कम से कम तुम्हें दवा मिलती है, तुम तो इलाज कर लो। एक आदमी ठीक हो जाए तो दूसरे आदमियों को ठीक करने के लिए कुछ उपाय कर सकता है। सारा गांव सोया है, तुम भी सोए हो, कम से कम तुम तो जग जाओ। एक आदमी जग जाए तो दूसरों को जगाने की व्यवस्था कर सकता है। सोया आदमी तो किसी को कैसे जगाएगा! जागा हुआ जगा सकता है। ध्यान का अर्थ इससे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
फिर भी तुम्हारी मर्जी! तुम्हें लगता हो, जब तक दुनिया सुखी न हो जाएगी तब तक मैं ध्यान न करूंगा, तो तुम कभी ध्यान न करोगे, अनंत काल बीत जाएगा, तुम ध्यान न करोगे, क्योंकि यह दुनिया कभी सुखी इस तरह होने वाली नहीं है। तुम्हारे ध्यान करने से दुनिया के इस बड़े भवन की एक ईंट तो सुखी होती है, एक ईंट तो सोना बनती है, एक ईंट में तो प्राण आता है! इतनी दुनिया बदली, चलो इतना सही! बूंद—बूंद से सागर भर जाता है। तुम एक बूंद हो, माना बहुत छोटे हो, लेकिन इतने छोटे भी नहीं जितना तुमने मान रखा है।
आखिर बुद्ध एक ही व्यक्ति हैं, एक ही बूंद हैं, लेकिन एक का दीया जला तो फिर दीए से और हजारों दीए जले। ध्यान एक की चेतना में पैदा हो जाए तो वह लपट बहुतों को लगती है। सभी तो सुख की तलाश में हैं, जब किसी को जागा हुआ देखते हैं और लगता है कि सुख यहां घटा है, तो उस तरफ दौड़ पड़ते हैं। अभी दौड़ रहे हैं। जहां उन्हें दिखायी पड़ता है, सब दौड़ रहे हैं। यद्यपि वहा कोई सुख का प्रमाण भी नहीं मिलता, फिर भी और क्या करें! और कुछ करने को सूझता भी नहीं!
सब धन की तरफ जा रहे हैं, तुम दुखी हो, तुम भी धन की तरफ जा रहे हो। देखते भी हो गौर से कि धनियों के पास कोई सुख दिखायी पड़ता नहीं, लेकिन करें क्या! कुछ न करने से तो बेहतर है कुछ करें, खोजें, शायद मिल जाए। सारे लोग दौड़ रहे हैं तो एकदम तो गलत न होंगे! तो तुम भी भीड़ में सम्मिलित हो जाते हो। लेकिन जब कहीं किसी बुद्ध में, किसी क्राइस्ट में, किसी कृष्ण में तुम्हें सुख का दीया जलता हुआ दिखायी पड़ता है, तब तो तुम्हारे लिए प्रमाण होता है। कोई जा रहा है या नहीं जा रहा है, यह सवाल नहीं है, तुम जा सकते हो।
अगर तुमने यह तय किया है कि जब सारी दुनिया सुखी हो जाएगी तब मैं ध्यान करूंगा, तो ध्यान कभी होगा ही नहीं।
और तुम यह कहते हो कि 'क्या ऐसी स्थिति में ध्यान आदि करना निपट स्वार्थ नहीं है?'
स्वार्थ शब्द का अर्थ समझते हो? शब्द बड़ा प्यारा है, लेकिन गलत हाथों में पड़ गया है। स्वार्थ का अर्थ होता है—आत्मार्थ। अपना सुख, स्व का अर्थ। तो मैं तो स्वार्थ शब्द में कोई बुराई नहीं देखता। मैं तो बिलकुल पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं धर्म का अर्थ ही स्वार्थ है। क्योंकि धर्म का अर्थ स्वभाव है।
और एक बात खयाल रखना कि जिसने स्वार्थ साध लिया, उससे परार्थ सधता है। जिससे स्वार्थ ही न सधा, उससे परार्थ कैसे सधेगा! जो अपना न हुआ, वह किसी और का कैसे होगा! जो अपने को सुख न दे सका, वह किसको सुख दे सकेगा! इसके पहले कि तुम दूसरों को प्रेम करो, मैं तुम्हें कहता हूं अपने को प्रेम करो। इसके पहले कि तुम दूसरों के जीवन में सुख की कोई हवा ला सको, कम से कम अपने जीवन में तो हवा ले आओ। इसके पहले कि दूसरे के अंधेरे जीवन में प्रकाश की किरण उतार सको, कम से कम अपने अंधेरे में तो प्रकाश को निमंत्रित करो। इसको स्वार्थ कहते हो! चलो स्वार्थ ही सही, शब्द से क्या फर्क पड़ता है! लेकिन यह स्वार्थ बिलकुल जरूरी है। यह दुनिया ज्यादा सुखी हो जाए, अगर लोग ठीक अर्थों में स्वार्थी हो जाएं।
और जिस आदमी ने अपना सुख नहीं जाना, वह जब दूसरे को सुख देने की कोशिश में लग जाता है तो बड़े खतरे होते हैं। उसे पहले तो पता नहीं कि सुख क्या है? वह जबर्दस्ती दूसरे पर सुख थोपने लगता है, जिस सुख का उसे भी अनुभव नहीं हुआ। तो करेगा क्या? वही करेगा जो उसके जीवन में हुआ है।
समझो कि तुम्हारे मां—बाप ने तुम्हें एक तरह की शिक्षा दी—तुम मुसलमान—घर में पैदा हुए, कि हिंदू —घर में पैदा हुए, कि जैन—घर में, तुम्हारे मां —बाप ने जल्दी से तुम्हें जैन, हिंदू या मुसलमान बना दिया। उन्होंने यह सोचा ही नहीं कि उनके जैन होने से, हिंदू होने से उन्हें सुख मिला है? नहीं, वे एकदम तुम्हें सुख देने में लग गए। तुम्हें हिंदू बना दिया, मुसलमान बना दिया। तुम्हारे मां —बाप ने तुम्हें धन की दौड़ में लगा दिया। उन्होंने यह सोचा भी नहीं एक भी बार कि हम धन की दौड़ में जीवनभर दौड़े, हमें धन मिला है न: धन से सुख मिला है? उन्होंने जो किया था, वही तुम्हें सिखा दिया। उनकी भी मजबूरी है, और कुछ सिखाएंगे भी क्या? जो हम सीखे होते हैं उसी की शिक्षा दे सकते हैं। उन्होंने अपनी सारी बीमारियां तुम्हें सौंप दीं। तुम्हारी धरोहर बस इतनी ही है। उनके मां—बाप उन्हें सौंप गए थे बीमारियां, वे तुम्हें सौंप गए, तुम अपने बच्चों को सौंप जाओगे।
कुछ स्वार्थ कर लो, कुछ सुख पा लो, ताकि उतना तुम अपने बच्चों को दे सकी, उतना तुम अपने पड़ोसियों को दे सको। यहां हर आदमी दूसरे को सुखी करने में लगा है, और यहां कोई सुखी है नहीं। जो स्वाद तुम्हें नहीं मिला, उस स्वाद को तुम दूसरे को कैसे दे सकोगे? असंभव है।
मैं तो बिलकुल स्वार्थ के पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, मजहब मतलब की बात है। इससे बडा कोई मतलब नहीं है। धर्म यानी स्वार्थ। लेकिन बडी अपूर्व घटना घटती है, स्वार्थ की ही बुनियाद पर परार्थ का मंदिर खड़ा होता है।
तुम जब धीरे— धीरे अपने जीवन में शांति, सुख, आनंद की झलकें पाने लगते हो, तो अनायास ही तुम्हारा जीवन दूसरों के लिए उपदेश हो जाता है। तुम्हारे जीवन से दूसरों को इंगित और इशारे मिलने लगते हैं। तुम अपने बच्चों को वही सिखाओगे जिससे तुमने शांति जानी। तुम फिर प्रतिस्पर्धा न सिखाओगे, प्रतियोगिता न सिखाओगे, संघर्ष —वैमनस्य न सिखाओगे। तुम उनके मन में जहर न डालोगे।
इस दुनिया में अगर लोग थोड़े स्वार्थी हो जाएं तो बड़ा परार्थ हो जाए।
अब तुम कहते हो कि 'क्या ऐसी स्थिति में ध्यान आदि करना निपट स्वार्थ नहीं है?'
निपट स्वार्थ है। लेकिन स्वार्थ में कहीं भी कुछ बुरा नहीं है। अभी तक तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ भी नहीं है। तुम कहते हो, धन कमाएंगे, इसमें स्वार्थ है, पद पा लेंगे, इसमें स्वार्थ है, बड़ा भवन बनाएंगे, इसमें स्वार्थ है। मैं तुमसे कहता हूं इसमें स्वार्थ कुछ भी नहीं है। मकान बन जाएगा, पद भी मिल जाएगा, धन भी कमा लिया जाएगा—अगर पागल हुए तो सब हो जाएगा जो तुम करना चाहते हो—मगर स्वार्थ हल नहीं होगा। क्योंकि सुख न मिलेगा। और स्वयं का मिलन भी नहीं होगा। और न जीवन में कोई अर्थवत्ता आएगी। तुम्हारा जीवन व्यर्थ ही रहेगा, कोरा, जिसमें कभी कोई वर्षा नहीं हुई। जहां कभी कोई अंकुर नहीं फूटे, कभी कोई हरियाली नहीं और कभी कोई फूल नहीं आए। तुम्हारी वीणा ऐसी ही पड़ी रह जाएगी, जिसमें कभी किसी ने तार नहीं छेड़े। कहां का अर्थ और कहां का स्व!
तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ नहीं है, सिर्फ मूढूता है। और जिसको तुम स्वार्थ कहकर कहते हो कि कैसे मैं करूं? मैं तुमसे कहता हूं उसमें स्वार्थ है और परम समझदारी का कदम भी है। तुम यह स्वार्थ करो।
इस बात को तुम जीवन के गणित का बहुत आधारभूत नियम मान लो कि अगर तुम चाहते हो दुनिया भली हो, तो अपने से शुरू कर दों—तुम भले हो जाओ। फिर तुम कहते हो, 'परमात्मा मुझे यदि मिले भी, तो उससे अपनी शांति मांगने के बजाय मैं उन लोगों के लिए दंड ही मांगना पसंद करूंगा जिनके कारण संसार में शोषण है, दुख है और अन्याय है। '
क्या तुम सोचते हो तुम उन लोगों में सम्मिलित नहीं हो? क्या तुम सोचते हो वे लोग कोई और लोग हैं? तुम उन लोगों से भी तो पूछो कभी! वे भी यही कहते हुए पाए जाएंगे कि दूसरों के कारण। कौन है दूसरा यहां? किसकी बात कर रहे हो?
किसको दंड दिलवाओगे? तुमने शोषण नहीं किया है? तुमने दूसरे को नहीं सताया है? तुम दूसरे की छाती पर नहीं बैठ गए हो, मालिक नहीं बन गए हो? तुमने दूसरों को नहीं दबाया है? तुमने वही सब किया है, मात्रा में भले भेद हों। हो सकता है तुम्हारे शोषण की प्रक्रिया बहुत छोटे दायरे में चलती हो, लेकिन चलती है। तुम जी न सकोगे। तुम अपने से नीचे के आदमी को उसी तरह सता रहे हो जिस तरह तुम्हारे ऊपर का आदमी तुम्हें सता रहा है। यह सारा जाल जीवन का शोषण का जाल है, इसमें तुम एकदम बाहर नहीं हो, दंड किसके लिए मांगोगे?
और जरा खयाल करना, दंड भी तो दुख ही देगा दूसरों को! तो तुम दूसरों को दुखी ही देखना चाहते हो! परमात्मा भी मिल जाएगा तो भी तुम मांगोगे दंड ही! दूसरों को दुख देने का उपाय ही! तुम अपनी शांति तक छोड़ने को तैयार हो!
मैंने सुना है, एक पुरानी अरबी कथा है। दो मित्र थे, एक अंधा और एक लंगड़ा। साथ रहते और साथ ही भीख मांगते। साथ रहना जरूरी भी था, क्योंकि अंधा देख नहीं सकता था, लंगड़ा चल नहीं सकता था। तो अंधा लंगड़े को अपने कंधे पर बिठाकर चलता था। भीख अलग— अलग मांगी भी नहीं जा सकती थी, संग—साथ में ही सार भी था, साझेदारी भी।
फिर जैसे सभी साझेदारों में झगड़े हो जाते हैं, कभी—कभी उनमें भी झगड़े हो जाते थे। कभी लंगड़ा ज्यादा पैसे पर कब्जा कर लेता, कभी अंधा ज्यादा पैसे पर कब्जा कर लेता। कभी अंधा चलने से इनकार कर देता, कभी लंगडा कहता, अभी आराम करना है, अभी मेरी आंख काम में न आएगी। स्वाभाविक। जैसे सभी साझेदारियों में झगड़े होते हैं, उनमें भी झगड़े हो जाते थे।
एक दिन तो बात ऐसी बढ़ गयी कि दोनों ने एक—दूसरे को डटकर पीटा। यह भी ठीक है, सभी धंधे में होता है। भगवान को बड़ी दया आयी—पुरानी कहानी है, उन दिनों भगवान आदमी को ज्यादा समझता नहीं था। अब तो दया भी नहीं आती, क्योंकि आदमी ऐसा मूढ़ है कि इस पर दया करने से भी कोई सार नहीं। ऐसी ही घटनाएं बार—बार घटीं और भगवान भी धीरे— धीरे आदमी की मूढ़ता को समझ गया। अब इतनी जल्दी दया नहीं करता। भगवान को बड़ी दया आयी, भगवान ने सोचा कि अंधे को अगर आंखें और लंगड़े को अगर पांव दे दिए जाएं तो कोई एक—दूसरे का आश्रित न रहेगा, एक—दूसरे से मुक्त हो जाएंगे और इनके जीवन में शांति होगी। भगवान प्रगट हुआ और उसने उन दोनों से कहा कि तुम वरदान माग लो, तुम्हें जो चाहिए हो मांग लो। क्योंकि स्वभावत:, भगवान ने सोचा कि अंधा आंख मांगेगा, लंगड़ा पैर मांगेगा। मगर नहीं, आदमी की बात पूछो ही मत!
उन्होंने लंगड़े को दर्शन दिया, पूछा कि तू मांग ले, तुझे क्या मांगना है? लंगड़े ने कहा— भगवान, उस अंधे को भी लंगडा बना दो। चौंके होंगे! फिर अंधे के सामने प्रगट हुए। अंधे ने कहा—प्रभु, उस लंगडे को अंधा बना दो।
दोनों एक—दूसरे को दंड देने में उत्सुक थे। इससे दुनिया बेहतर नहीं हो गयी। अंधा लंगड़ा भी हो गया, और लंगड़ा अंधा भी हो गया, हालत और खराब हो गयी। शायद इसीलिए अब भगवान इतनी जल्दी दया नहीं करता और ऐसे आ— आकर प्रगट नहीं हो जाता, और कहता नहीं कि वरदान मांग लो। बहुत बार करके देख लिया, आदमी की मूढ़ता बड़ी गहरी मालूम पड़ती है।
तुम कहते हो—बीसवी सदी में —कि 'अगर परमात्मा मेरे सामने प्रगट भी हो जाए तो मैं अपनी शांति मांगने के बजाय उनके लिए दंड मांगूंगा, जिनके कारण दुनिया में दुख है। '
पहली तो बात, तुम्हारे कारण दुख है। फिर तुम सोचते भला होओ कि दूसरों के कारण दुख है। उनके लिए दंड मांगने से क्या हल होगा? हो सकता है तुम्हें बड़ी नाराजगी है, तुम्हारे दफ्तर में जो तुम्हारा मालिक है वह बड़ा दबा रहा है, और तुम्हें दबना पड़ रहा है। लेकिन तुम्हारे घर में तुम्हारी पत्नी बैठी है, उसे तुम दबा रहे हो, और उसे बड़ा दबना पड़ रहा है। तुम उसे समझाते हो कि पति तो परमात्मा है। सदियों से तुमने समझाया है। और वह जानती है तुम्हें भलीभांति कि अगर तुम परमात्मा हो तो परमात्मा भी दो कौड़ी का है। तुम्हारे साथ परमात्मा तक की बेइज्जती हो रही है, तुम्हारी इज्जत नहीं बढ़ रही। तुम्हारे साथ परमात्मा के जुड्ने से परमात्मा तक की नौका ड़बी जा रही है। उसे तुम सता रहे हो सब तरह से, उसका तुमने सब तरह से शोषण किया है। अगर पत्नी से पूछेगा परमात्मा तो वह तुम्हारे लिए दंड की व्यवस्था करेगी।
पत्नी कुछ नहीं कर सकती, अपने बच्चों को सता रही है। उसके पास और कुछ उपाय नहीं है। वह किन्हीं भी बहानों से बच्चों को सताने में लगी है। अच्छे— अच्छे बहाने खोजती है। बच्चों के भले के लिए ही उनको मारती है। बच्चे भी जानते हैं कि इससे भले का कोई लेना—देना नहीं है। आज पिताजी और माताजी में बनी नहीं है, इसलिए बच्चे सावधान रहते हैं कि आज झंझट है! या तो इधर से पिटेंगे, या उधर से पिटेंगे। अगर बच्चों से परमात्मा पूछे, तो? तो शायद वह अपनी मां को दंड दिलवाना चाहेगा। कौन बच्चा नहीं दिलवाना चाहता अपनी मां को दंड! दुष्ट मालूम होती है।
अगर एक—एक से पूछने जाओगे तो तुम पाओगे, हम सब जुड़े हैं। किसके लिए दंड दिलवाओगे? और दंड दिलवाने से क्या लाभ होगा? सभी को दंड मिल जाएगा—अंधे लंगड़े हो जाएंगे, लंगडे अंधे हो जाएंगे—दुनिया और बदतर हो जाएगी। शायद इसी डर से भगवान तुम्हारे सामने प्रगट भी नहीं होता कि ऐसे ही हालत खराब है, अब और खराब करवानी है!
तुम अपनी शांति न मांगोगे? किसी को यहां अपने सुख में रस नहीं मालूम होता, दूसरे को दुख देने में रस मालूम होता है।
फिर भी तुम कहते हो, 'दुनिया में दुख क्यों है?'
शायद तुमको लगेगा अपनी शांति मांगने में तो स्वार्थ हो जाएगा! तो मैं तुमसे कहता हूं, भले आदमी, स्वार्थ हो जाने दो! अपनी शांति मांगो! कुछ हर्जा नहीं है इस स्वार्थ में। तुम अपनी मांग लो, दूसरों के सामने प्रगट होगा वे अपनी शांति मांग लेंगे—यह दुनिया शांत हो सकती है।
और ध्यान का क्या अर्थ होता है? ध्यान का अर्थ होता है—परमात्मा तो तुम्हारे सामने प्रगट नहीं हो रहा, आप ही कृपा करके परमात्मा के सामने प्रगट हो जाओ। ध्यान का इतना अर्थ होता है। परमात्मा तो प्रगट नहीं हो रहा है, साफ है। शायद तुमसे डरता है, भय खाता है, बचता है। तुम जहां जाते हो वहां से निकल भागता है, तुमसे पीछा छुडा रहा है। लेकिन तुम इतने शांत होकर परमात्मा के सामने प्रगट हो सकते हो। परमात्मा के सामने स्वयं को प्रगट कर देना ध्यान है। और अनायास वरदान की वर्षा हो जाती है। तुम्हारा सारा जीवनकोण बदल जाता है, देखने का ढंग बदल जाता है।
मैंने सुना है, एक झेन साधक देर से आश्रम लौटा। गुरु ने उससे देरी का कारण पूछा। तो शिष्य ने क्षमा मांगी और कहा कि माफ करें, गुरुदेव, रास्ते में पोलो का खेल हो रहा था, वह मैं देखने में लग गया। गुरु ने पूछा कि क्या खिलाड़ी थक गए थे? शिष्य ने कहा, जी हा, खेल के अंत तक तो बहुत थक गए थे। गुरु ने पूछा, क्या घोड़े भी थक गए थे? शिष्य थोड़ा हैरान हुआ कि यह बात क्या पूछते हैं! मगर फिर उसने कहा, ही, घोडे भी थक गए थे। फिर गुरु ने पूछा, क्या लकड़ी के खंभे भी थक गए थे? तब तो शिष्य ने समझा, यह क्या पागलपन की बात है! शिष्य उत्तर न दे सका, उस रात वह सो भी न सका। क्योंकि यह तो मानना असंभव था कि गुरु पागल है। इस बात की ही संभावना थी कि मुझसे ही कोई भूल—चूक हो रही है। प्रश्न पूछा है तो कुछ अर्थ होगा ही।
रात सोया नहीं, जागता रहा, सोचता रहा, सोचता रहा। सुबह सूरज की किरण फूटते ही उसके भीतर भी उत्तर फूटा, जैसे अचानक एक बात अंतस्तल से उठी और साफ हो गयी। वह दौड़ा हुआ गुरु के पास पहुंचा और उसने गुरु से कहा, कृपा कर अपना प्रश्न दोहराइए, कहीं ऐसा न हो कि मैंने ठीक से सुना न हो। तो गुरु ने पूछा कि क्या खंभे भी थक गए थे? उस शिष्य ने कहा, हां, खंभे भी थक गए थे।
गुरु बहुत प्रसन्न हुए, उन्होंने उसे गले लगा लिया और कहा कि देख, अगर खंभों को थकावट न आती होती, तो थकावट फिर किसी को भी नहीं आ सकती थी, तेरा ध्यान आज पूरा हुआ। तूने आदमियों को थकावट आयी, इसमें ही भर दी; घोडों को थकावट आयी, इसमें तू थोड़ा झिझका, उसी सरलता से न कहा जितना तूने आदमियों के लिए कहा था। और जब मैंने खंभों की बात पूछी तब तो तू बिलकुल अटक गया। उससे जाहिर हो गया कि तेरा ध्यान अभी पूरा नहीं हुआ है। जब ध्यान पूरा होता है तो करुणा समग्र हो जाती है। आदमी ही नहीं थकते हैं, घोड़े भी थकते हैं, खंभे भी थकते हैं। सारा अस्तित्व प्राणवान है, इसलिए सारा अस्तित्व थकता है। और सारे अस्तित्व को दया की जरूरत है।
मगर यह तो ध्यान की परिणति है। यह उस स्वार्थ की परिणति है जिससे तुम बचना चाह रहे हो। यह उस परम स्वार्थ की अवस्था है जहां खंभे भी, जो आमतोर से मुर्दा दिखायी पड़ते हैं, वे भी जीवंत हो उठते हैं। जहां पत्थर और चट्टानें भी थकती हैं। जहां सारा अस्तित्व प्राणवान अनुभव होता है। जहां सारे अस्तित्व के साथ तुम एक तरह का तादात्म्य अनुभव करते हो, एकता अनुभव करते हो।
मैं कल भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता पढ़ रहा था। यह कहानी तो मैंने तुमसे बहुत बार कही है, इसे उन्होंने कविता में बांधा है।
कहानी प्यारी है, इसे समझना—

अधोंन्मीलित नयन बुद्ध बैठे थे पद्यासन में
शिष्य पूर्ण ने कहा, जिस तरह प्राण व्याप्त त्रिभुवन में
अथवा वायु निरभ्र गगन में जैसे मुक्त विचरता
मैं त्रिलोक में वैसा ही कुछ हे प्रभु, घूमा करता
शैल—शिखर, नदियों की धारा, पारावार तरु में
वचन आपके जहां कहीं, जा पहुंचूं वहीं मरूं मैं
विकल मानवों के मन जागे शांतिप्रभा में ऐसे,
सूर्योदय के साथ जाग जाते हैं शतदल जैसे।
पूर्ण ने कहा कि आपके वचनों की सुगंध फैलाता हुआ मरूं, बस यही एक आंकाक्षा है। जैसे सूर्य के ऊगने पर हजार—हजार कमल खिल जाते हैं, ऐसे आपकी ज्योति को पहुंचाऊं और लोगों के हृदय—कमल खिले।
अधोंन्मीलित नयन बुद्ध बैठे थे पद्यासन में
शिष्य पूर्ण ने कहा, जिस तरह प्राण व्याप्त त्रिभुवन में
अथवा वायु निरभ्र गगन में जैसे मुक्त विचरता
मैं त्रिलोक में वैसा ही कुछ हे प्रभु, घूमा करता
शैल —शिखर, नदियों की धारा, पारावार तरु में
वचन आपके जहां कहीं, जा पहुंचूं वहीं मरूं मैं
विकल मानवों के मन जागे शांतिप्रभा में ऐसे,
सूर्योदय के साथ जाग जाते हैं शतदल जैसे।
वत्स, किंतु यदि लोग न समझें, करें तुम्हें अपमानित?
कहा पूर्ण ने, प्रभु उनको मैं नहीं गिनूंगा अनुचित
धन्यवाद ही दूंगा, फेंकी धूल न पत्थर मारे
केवल कुछ अपशब्द, विरोधी बातें सुनीं, उचारे
बुद्ध ने पूछा कि अगर लोग अपमान करेंगे पूर्ण, तो फिर तुझे क्या होगा? लोग न समझेंगे, तो फिर तुझे क्या होगा? तू तो समझाने जाएगा, लोग समझते कहां हैं! लोग समझना चाहते नहीं, लोग तो जो समझाने आता है उस पर नाराज हो जाते हैं! लोग अगर तेरा अपमान करेंगे, तो तुझे क्या होगा?
वत्स, किंतु यदि लोग न समझें, करें तुम्हें अपमानित?
कहा पूर्ण ने, प्रभु उनको मैं नहीं गिनूंगा अनुचित
धन्यवाद ही दूंगा, फेंकी धूल न पत्थर मारे
केवल कुछ अपशब्द, विरोधी बातें सुनीं, उचारे
बड़े भले लोग हैं, ऐसा धन्यवाद मानूंगा। कुछ थोड़े से अपशब्द कहे, पत्थर भी मार सकते थे, धूल भी उछाल सकते थे। थोड़े से अपशब्द कहे, अपशब्दों से क्या बनता—बिगड़ता है! न कोई चोट लगती, न कोई घाव होता। बड़े भले लोग हैं, ऐसा ही मानूंगा।
किंतु अगर वे हाथ उठाएं, फेंकें तुम पर ढेले?
धन्यवाद दूंगा, मानूंगा छेडछाड कि खेले!
असि न कोश से खींची उनने, किया नहीं वध मेरा
बुद्ध ने कहा, यह भी हो सकता है कि वे ढेले भी मारें, तुम्हारी पिटाई भी करें, पत्थरों से तुम्हारा सिर तोड़ दें, फिर पूर्ण, फिर क्या होगा?
किंतु अगर वे हाथ उठाएं, फेंकें तुम पर ढेले?
धन्यवाद दूंगा, मानूंगा छेड़छाड़ कि खेले!
असि न कोश से खींची उनने, किया नहीं वध मेरा
पूर्ण ने कहा, खुश होऊंगा, भले लोग हैं, तरकस से तीर न निकाला, प्राण ही न ले लिए मेरे, सिर्फ पत्थर मारा, खेल—खेल में समझूंगा, क्रीड़ा की; मारा ही, मार नहीं डाला, इतना ही क्या कम है?
और वत्स, यदि वध कर डाला उन लोगों ने तेरा?
प्रभु ऐसी यदि मृत्यु मिले तो भाग्य उसे मानूंगा
धर्म —पंथ पर प्राण गए, निर्वाण उसे जानूंगा
प्रभु ने अधोंन्मीलित लोचन खोल पूर्ण को देखा
अधरों पर प्रस्फुटित हो उठी सहज स्नेहमय रेखा
रखा शीश पर हाथ पूर्ण के, कहा वत्स तुम जाओ
निर्भय होकर विकल मनों में शांतिप्रभा प्रकटाओ
जब पूर्ण ने कहा कि सिर्फ मारते हैं, मार ही नहीं डालते; तो बुद्ध ने पूछा, और अगर वे मार ही डालें? फिर तुझे क्या होगा पूर्ण? तो उसने कहा, धर्म के पथ पर अगर मर जाऊं तो इससे शुभ और मृत्यु क्या होगी?
प्रभु ऐसी यदि मृत्यु मिले तो भाग्य उसे मानूंगा
धर्म —पंथ पर प्राण गए, निर्वाण उसे जानूंगा
प्रभु ने अधोंन्मीलित लोचन खोल पूर्ण को देखा
अधरों पर प्रस्फुटित हो उठी सहज स्नेहमय रेखा
रखा शीश पर हाथ पूर्ण के, कहा वत्स तुम जाओ
निर्भय होकर विकल मनों में शांतिप्रभा प्रकटाओ
इतनी शांति भीतर हो कि मौत भी पीड़ा न दे, इतना ध्यान भीतर हो कि अपमान अपमानित न करे, पत्थर बरसाए जाएं तो क्रीड़ा समझ में आए, कोई प्राय भी ले ले तो भी धन्यवाद में बाधा न पड़े, धन्यवाद में भेद न पड़े, तो ही कोई व्यक्ति इस जगत में सुख देने में समर्थ हो पाता है। इसलिए बुद्ध ने कहा, अब तुम जा सकते हो। तुम जाओ बांटो, अब तुम्हारे पास है। जिसके पास है, वही बांट सकता है।
ध्यान का क्या अर्थ होता है? ध्यान का अर्थ होता है, जो संपदा तुम लेकर आए हो इस जगत में, जो तुम्हारे अंतरतम में छिपी है, उसे उघाड़कर देख लेना, पर्दे को हटाना। अपनी निजता को अनुभव कर लेना। वह जो भीतर निनाद बज रहा है सदा से सुख का, उसकी प्रतीति कर लेना। फिर तुम बाहर सुख न खोजोगे। फिर बाहर के सब सुख, दुख जैसे मालूम होंगे। भीतर का सुख इतना पूर्ण है, ऐसा परात्पर, ऐसा शाश्वत, उसकी एक झलक मिल गयी तो सारे जगत के सब सुख, दुख जैसे हो जाते हैं, उसकी एक झलक मिल गयी तो बाहर का जीवन मृत्यु जैसा हो जाता है, उसकी तुलना में फिर सब फीका हो जाता है। फिर इसमें दौड— धाप नहीं रह जाती, संघर्ष नहीं रह जाता, युद्ध नहीं रह जाता, कलह नहीं रह जाती।
ऐसे ही ध्यान को उपलब्ध व्यक्ति इस जगत में सुख की थोड़ी सी गंगा को उतार ला सकते हैं। ऐसे ही भगीरथ गंगा को पुकार सकते हैं सुख की। तुमसे यह न हो सकेगा। तुम ध्यान करने को ही राजी नहीं। ध्यान का तुम्हें अर्थ भी पता नहीं, क्योंकि अर्थ पता भी कैसे होगा जब तक करोगे नहीं! तुम उस द्वार को खोलने से इनकार कर रहे हो जिस द्वार को खोलने से प्रभु मिलेगा। और तुम कहते हो, जब तक दुनिया में दुख है, मैं यह द्वार पर दस्तक न दूंगा, क्योंकि यह तो बड़ा स्वार्थ हो जाएगा, लोग दुखी हैं। लोग भी इसीलिए दुखी हैं कि वे भी यही कह रहे हैं कि तब तक दस्तक न देंगे इस द्वार पर जब तक और लोग दुखी हैं।
यह तो बड़ा दुष्ट—चक्र है। कम से कम तुम तो दस्तक दो! तुम तो भीतर झांककर देखो! और तुम्हें सुख मिल जाए तो फिर दौड पड़ना बाहर, जैसे पूर्ण जा रहा था लोगों में शांति की प्रभा जगाने, तुम भी चले जाना। फिर तुम से जो बने, करना। फिर तुम जो भी करोगे, शुभ होगा।
ध्यान का अर्थ है—होशपूर्वक जीना। बिना ध्यान के जो आदमी जीता है बेहोशी से जीता है
आखिरी बात। आमतोर से तुमने यही सुना है, यही सोचा है, यही तुमसे कहा भी गया है सदियों से कि दुनिया में दुख है, क्योंकि दुनिया में बुरे लोग हैं। बुरे लोग दुख दे रहे हैं। दुनिया में पापी हैं, पापियों के कारण दुख हो रहा है। तुम कुछ नए नहीं हो जो तुम कहते हो, अगर भगवान हमें मिल जाएं तो इन दुष्टों को जो दुनिया में दुख फैला रहे हैं, इनको दंड दिलवा देंगे। तुम नए नहीं हो, तुम्हारे ऋषि—मुनि सदा से यही करते रहे हैं। इसलिए तो नर्क बनाया, भगवान से प्रार्थना करवा—करवाकर नर्क बनवाया कि पापियों को नर्क में डाल दो।
लेकिन तुमने देखा, नर्क की ही तरह तुमने जमीन पर कारागृह बना रखे हैं। जिनको तुम गलत समझते हो, उनको कारागृह में डाल देते हो। कारागृह से किसी को तुमने कभी सुधरकर लौटते देखा? कारागृह से कभी कोई सुधरकर आया है? हां, तुम्हारी दंड देने की आंकाक्षा पूरी हो जाती है, तुम्हारी दुष्टता पूरी हो जाती है। उस आदमी ने एक गलती की थी, तुमने और एक गलती कर ली।
उस आदमी ने समझो कि किसी की हत्या की थी और समाज ने उससे बदला ले लिया। समाज की तरफ से प्रतिनिधि बैठा है अदालत में मजिस्ट्रेट, उसने उसे फांसी दिलवा दी। लेकिन फांसी देने से क्या फर्क हुआ? जहां एक आदमी मरा था, वहां दो आदमी मरे। एक भूल दूसरी भूल से तो कटती नहीं, घटती नहीं, दुगुनी हो जाती है। जहां थोड़ी सी कालिख थी वहा और दुगुनी कालिख हो गयी।
एक आदमी ने कुछ भूल—चूक की थी, तुमने सजा दे दी, पांच साल जेल में डाल दिया। तुमने कभी देखा कि जेल से लौटकर कभी भी कोई सुधरा है! जेल से लौटकर और बिगड़कर आ जाता है। क्योंकि जेल में और पुराने दादाओं से मिलन हो जाता है। दादागुरु वहां बैठे हैं, पुराने निष्णात, वह सब बता देते हैं कि तू पकड़ा कैसे गया, तेरे से यह भूल हो गयी, अब दुबारा ऐसी भूल मत करना। जिस वजह से दंड दिया है उसको थोड़े ही भूल समझते हैं वहां कारागृह में बैठे लोग, पकड़े जाने को भूल समझते हैं।
मेरे एक शिक्षक थे, बहुत प्यारे आदमी थे, उनकी बात मैं कभी नहीं भूलता। मुसलमान थे। वह सदा सुपरिटेंडेंट होते थे स्कूल में परीक्षाओं के, सब से बुजुर्ग शिक्षक थे। पहली दफे ही जब वह सुपरिटेंडेंट थे और मैंने परीक्षा दी, तो उनकी बात मुझे जंची। वह आए अंदर और उन्होंने कहा कि तुम चोरी करो, नकल करो, कुछ भी करो, इससे मुझे फिकर नहीं है, पकड़े भर मत जाना। पकड़े गए तो सजा पाओगे। पकड़े गए तो मुझसे बुरा कोई भी नहीं। अब तुम खुद ही सोच लो। मुझे चोरी से कोई एतराज ही नहीं है। चोरी से क्या एतराज, जब तक नहीं पकड़े गए तब तक तुम मजे से करो। अगर तुम्हें पकड़े जाने का डर हो तो जो—जो विद्यार्थी कुछ नोट ले आए हों, कुछ कर लिए हों, कृपा करके दे दें। बहुत से विद्यार्थियों ने दे दिए निकालकर! यह बात तो सीधी—साफ थी, यह गणित बिलकुल साफ—सुथरा था।
इस दुनिया में दंड चोरी का थोड़े ही मिलता है, पकड़े जाने का मिलता है। तो जब तुम किसी चोर को जेल में डाल देते हो, उसको जो कष्ट होता है वह इस बात का होता है कि मैं पकड़ा गया, अब दुबारा पकड़ा न जाऊं, बस। तो वहां और दादागुरु हैं, वे सिखाने बैठे हैं। तुमने और विद्यालय में भेज दिया उनको—जेलखाना विद्यालय है। तुम्हारे जेलखाने से कोई सुधरकर नहीं निकला।
अब तो मनोवैज्ञानिक कहने लगे हैं कि जेलखाने की पूरी व्यवस्था बदल दो। इसको जेलखाना कहो ही मत, इसको दंडालय समझो ही मत, इसको सुधारालय या ज्यादा से ज्यादा अस्पताल कहो। यहां चिकित्सा करो लोगों की, दंड मत दो।
मगर तुम्हारे संतों को अभी भी अकल नहीं आयी है, अभी भी नर्क में दंड दिया जा रहा है। बात तो वही की वही है, गणित वही का वही है। नर्क से किसी पापी के ठीक होकर लौटने की तुमने खबर सुनी? किसी पुराण में लिखा है? मैंने तो बहुत खोजा, मुझे नहीं मिला कि कोई पापी नर्क गया हो और वहा से सुधरकर लौटा हो। कोई कहानी ही नहीं है। जो गया नर्क सो नर्क में ही पडा है, और बिगड़ता जा रहा है। दंड से कोई सुधरता नहीं, दंड से तो सिर्फ तुम भी दुष्ट होने का मजा ले लेते हो।
फिर यह जो मौलिक गणित है इसके भीतर, वह अब तक यह रहा कि जो आदमी बुरे हैं, उनके कारण दुनिया में दुख है। मैं तुमसे कहना चाहता हूं बुरों के कारण दुनिया में दुख नहीं है, बेहोश लोगों के कारण दुख है। और बेहोश होने के कारण ही वे बुरे भी हैं। बुराई में जड़ नहीं है, बेहोशी में जड़ है। और ध्यान यानी होश।
अब तक दुनिया को हमने ऐसी कोशिश की है कि बुरा आदमी भला हो जाए—दंड से हो, प्रलोभन से हो, मार—पीट से हो, फुसलाने से हो, रिश्वत से हो। तो नर्क का भय दिखलाते हैं, स्वर्ग की रिश्वत दिखलाते हैं। आदर मिलेगा, सम्मान मिलेगा, समाज में प्रतिष्ठा मिलेगी, राष्ट्रपति पद्यभूषण, पद्यश्री की उपाधियां देंगे। अच्छा करो! बुरा किया तो दंड मिलेगा, जेलखाने में पड़ोगे, प्रतिष्ठा खो जाएगी, नाम न रहेगा, नर्क में पड़ोगे। तो दंड और लोभ, भय और प्रलोभन, इनके आधार पर हम आदमी को बुराई से उठाने की कोशिश करते रहे हैं। यह कोशिश सफल नहीं हुई। दुनिया बुरी से बुरी होती चली गयी है। इस कोशिश की बुनियादी बात में कहीं भूल है, जड़ में भूल है।
मेरा विश्लेषण कुछ और है। मेरा मानना ऐसा नहीं है कि दुनिया में बुरे आदमियों के कारण दुख है। मेरा मानना ऐसा है कि दुनिया में बेहोश आदमियों के कारण दुख है। बेहोश आदमी ही दुख दे सकता है। क्यों? क्योंकि जिसे होश आ जाए, उसे तो यह भी होश आ जाता है कि दो दुख' और मिलेगा दुख। कौन अपने को दुख देना चाहता है? सिर्फ बेहोश आदमी दुख दे सकता है, क्योंकि उसे यह पता नहीं कि दुख का उत्तर फिर और बड़ा दुख होकर आता है।
जैसे छोटे बच्चे, रास्ते से गुजरते हों, कुर्सी का धक्का लग गया तो गुस्से में आ जाते हैं, कुर्सी को एक थापड़ जमा देते हैं। थापड़ से कुर्सी को चोट लगती कि नहीं, उसका तो कुछ पता नहीं, उनके हाथ को चोट लगती है। मगर वे बड़े प्रसन्न हो जाते हैं कि दंड दे दिया।
तुम जब भी किसी को दुख दे रहे हो, तुम बचकानी बात कर रहे हो। इसका उत्तर आएगा।
मैंने सुना है, एक छोटी सी बडी प्यारी कहानी। सम्राट अकबर की एक बेगम थी जोधाबाई। अकबर, जोधाबाई और बीरबल एक सुबह नदी—तट पर घूमने को गए हैं। जोधाबाई आगे थी, बीरबल बीच में था, अकबर सब के पीछे था। अकबर को शरारत सूझी, उसने बीरबल की कमर में चिकोटी काट ली। बीरबल को गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन चुप रहा। सोचने लगा, क्या करूं? कुछ कदम आगे चलकर बीरबल ने जोधाबाई की कमर में चिकोटी काट ली। जोधाबाई ने क्रोध में एक तमाचा बीरबल के मुंह पर जड़ दिया, बीरबल ने उसी प्रकार एक जोरदार तमाचा पीछे आ रहे अकबर के मुंह पर जड़ दिया। अकबर आग—बबूला होकर बोला, बीरबल, यह क्या हिमाकत है? गुस्ताखी माफ जिल्ले—इलाही, बीरबल ने कहा, आपने जो चिट्ठी भेजी थी उसका जवाब आया है।
जवाब आते हैं। यहां कोई भेजी गयी चिट्ठी बिना जवाब के नहीं रहती। यह सारा अस्तित्व प्रत्युत्तर देता है, प्रतिध्वनित करता है। तुम जो करते हो, वह लौटता है। और कई गुना होकर लौटता है—चिकोटी काटी थी और जोरदार तमाचे की तरह लौटता है। चाहे तुम सोच भी न पाओ कि मेरी चिकोटी से इसका कोई संबंध है, लेकिन संबंध है। यही तो कर्म का पूरा सिद्धात है। दुख दो और दुख पाओगे। फिर दुख पाओगे तो और दुख देने को उत्सुक हो जाओगे। और दुख दोगे और दुख पाओगे। फिर तो इसका जाल कही, टूटेगा नहीं। संसार में दुख घना होता जाता है इसीलिए।
बुरे आदमी के कारण दुख नहीं है, बेहोश आदमी के कारण दुख है। नीति समझाती है कि बुरा आदमी भला हो जाए, धर्म समझाता है, बेहोश आदमी होश में आ जाए—नीति और धर्म का यही भेद है। नैतिक आदमी जरूरी नहीं है धार्मिक हो, लेकिन धार्मिक आदमी जरूरी रूप से नैतिक होता है। नैतिक आदमी हो सकता है न ईश्वर को माने, न ध्यान को माने। आखिर रूस में भी नैतिक आदमी हैं, चीन में भी नैतिक आदमी हैं, नास्तिक भी नैतिक हो सकता है। नैतिक होने के लिए धार्मिक होने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन धार्मिक आदमी अनैतिक नहीं हो सकता। धर्म की पकड़ और गहरी है। धर्म के साथ नीति अपने आप आती है, नीति के साथ धर्म अपने आप नहीं आता।
फिर नीति में तो एक तरह का दमन होता है। तुम अच्छे होने की कोशिश करते हो, किसी तरह रोक— थामकर अपने को अच्छा भी बना लेते हो, लेकिन भीतर— भीतर तो बुराई की आग जलती रहती है। भीतर तो वही रोग उफनते रहते हैं, भीतर तो वही मवाद इकट्ठी होती रहती है। चोरी तुम भी करना चाहते हो लेकिन कर नहीं पाते। बेईमानी तुम भी करना चाहते हो लेकिन घबड़ाते हो। दुनिया में सौ ईमानदारों में निन्यानबे इसीलिए ईमानदार होते हैं कि बेईमानी करने के कारण पकड़े जाने का भय है। ईमानदार नहीं हैं, सिर्फ पकड़े जाने का भय है। अगर कोई आश्वस्त कर दे कि कोई भय नहीं है, तुम करो, तो वे करने को तत्पर हो जाएंगे।
इसीलिए ऐसा हो जाता है कि जब कोई आदमी सत्ता में नहीं होता तब तक ईमानदार होता है, क्योंकि तब तक पकड़े जाने का डर होता है। जैसे ही सत्ता में पहुंचता है, धीरे— धीरे पकड़े जाने का डर समाप्त हो जाता है—कौन पकड़ेगा आकर? तुम प्रधानमंत्री हो गए, कि राष्ट्रपति हो गए, अब तुम्हें कौन पकड़ेगा? अब तो तुम कानून की छाती पर बैठ गए, अब तो हर चीज तुम्हारे नीचे हो गयी—तो धीरे— धीरे जैसे —जैसे उसको समझ में आने लगता है कि अब तो सब चीज मेरे हाथ में है, वैसे—वैसे सारे रोग जो भीतर दबे थे बाहर आने लगते हैं। हर सत्ताधिकारी बेईमान हो जाता है, धोखेबाज हो जाता है।
इसलिए तुम हैरान होते हो कि आखिर यह क्यूं होता है? कि अच्छे लोगों को हम भेजते हैं सत्ता में—अच्छे के कारण ही भेजते हैं, चुनाव में वोट देते हैं कि आदमी अच्छा है, भला है, फिर यह हो क्या जाता है? पद पर पहुंचते ही आदमी धीरे — धीरे बदल क्यों जाता है? कब बदल जाता है? कैसे बदल जाता है?
इसकी बदलाहट का राज इतना ही है कि वह अच्छा था नैतिक आधार पर, अच्छा था क्योंकि बुरे होने में नुकसान था, अच्छा था क्योंकि बुरे होने में भय था, अच्छा था क्योंकि अच्छे में ही लाभ था। अब सत्ता में पहुंच गया, अब उसे दिखायी पड़ता है—अब अगर बुरा हो जाऊं तो खूब लाभ है। अब अच्छे होने में ज्यादा लाभ नहीं है, अब अच्छे होने में तो हानि है। अगर सत्ता में पहुंचकर अच्छा बना रहा, तो न धन इकट्ठा कर पाऊंगा, न शक्ति इकट्ठी कर पाऊंगा, न दुश्मनों से बदला ले पाऊंगा, न आगे तक के लिए अपना इंतजाम कर पाऊंगा, न मेरे बच्चे भी आगे जाकर सत्ता में बैठे रहें इसकी व्यवस्था जुटा पाऊंगा, तो अब तो अच्छे रहने में कोई लाभ नहीं है। वह अच्छा था लाभ के कारण। अब बुरे होने में लाभ है। और लाभ उसका मूल आधार था। तो जब लाभ अब बुरे होने में है तो बुरा हो जाना ही सहज, तर्कयुक्त बात है। इसलिए दुनिया में सभी सत्ताधिकारी बुरे हो जाते हैं।
और आदमी सदा से यही सोचता रहा कि मामला क्या हो जाता है! हम भेजते हैं समाज—सेवकों को, आखिर में सब बात बदल जाती है! जो समाज—सेवा करते थे, गरीबों की सेवा करते थे, ऐसा करते थे, वैसा करते थे, सत्ता में पहुंचते ही सब भूल जाते हैं, शोषण शुरू कर देते हैं। जिनके खिलाफ लड़कर पहुंचे थे, वही करना शुरू कर देते हैं। सत्ता सभी को एक सा कर डालती है।
क्यों? क्योंकि अधिकतर आदमी धार्मिक नहीं हैं, नैतिक हैं। नैतिक आदमी का कोई भरोसा नहीं।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक लिफ्ट में सवार था। एक महिला भी साथ सवार थी—एक सुंदर महिला। नसरुद्दीन ने उससे कहा कि अगर आज रात मेरे पास रुक जाओ, तो पांच हजार रुपये दूंगा। वह महिला तो एकदम नाराज हो गयी। उसने कहा, मैं अभी पुलिस को बुलाती हूं। तुमने इस तरह की बात कही कैसे? नसरुद्दीन ने कहा, तो कोई बात नहीं, दस हजार ले लेना। दस हजार सुनकर महिला ढीली पड़ गयी, उतना तमतमायापन न रहा। और नसरुद्दीन ने कहा, कुछ फिकर न कर, पैसे की कोई कमी नहीं, पंद्रह हजार दूंगा। उस महिला ने जल्दी से नसरुद्दीन का हाथ अपने हाथ में ले लिया। नसरुद्दीन ने कहा, और अगर पंद्रह रुपये दूं तो चलेगा? तो वह महिला तो बहुत आग—बबूला हो गयी, उसने कहा, तुमने समझा क्या है मुझे? नसरुद्दीन ने कहा, वह तो मैं समझ गया, तू भी समझ गयी, मैं भी समझ —गया कि तू कौन है, अब तो मोल— भाव करना है! पंद्रह हजार में राजी है, तू कौन है यह तो हम समझ गए, अब तो मोल— भाव की बात है। पंद्रह हजार में राजी है तो कौन है, इसमें अब कोई बाधा न रही।
तुम भी खयाल करना, तुम्हारी नैतिकता, तुम्हारी भलाई की एक सीमा होती है। तुम चोरी शायद न करो, पांच रुपये पड़े हैं, शायद तुम निकल जाओ साधु बने। पंद्रह पड़े हैं, शायद निकल जाओ। पंद्रह हजार पड़े हैं, फिर ठिठकने लगोगे। पंद्रह लाख पड़े हैं, फिर तुम छोड़ोगे? तुम कहोगे, अभी साधुता छोड़ो! अब यह साधुता सस्ती पड़ रही है, जो पडा है वह ज्यादा काम का है। यह साधुता फिर सम्हाल लेंगे, एक दफा पंद्रह लाख हाथ में आ जाएं तो साधुता तो कभी भी सम्हाल लेंगे। .मंदिर बनवा देंगे, दान करवा देंगे, साधु तो फिर हो जाएंगे, साधु होने में क्या रखा है? इस मौके को तुम न छोड़ सकोगे।
नैतिक आदमी की सीमा होती है, धार्मिक आदमी की कोई सीमा नहीं होती। नैतिक आदमी कारण से नैतिक होता है, धार्मिक आदमी सिर्फ होश के कारण नैतिक होता है। और ध्यान के बिना होश नहीं।
तो जिन्होंने प्रश्न पूछा है, वह होंगे, थोड़े नैतिक चिंतक होंगे, थोड़ा नीति का विचार करते होंगे, मगर धर्म का उन्हें कोई हिसाब अभी खयाल में नहीं है। और नैतिक होने से कोई नैतिक नहीं होता, धार्मिक होने से ही वस्तुत: नैतिक होता है। नीति तो धोखा है, नीति तो झूठा सिक्का है। धर्म कै नाम पर चलता है, लेकिन असली नहीं है।
मैं चाहता हूं, तुम जागो, होश से भरी। होश से भरते ही आदमी बुरा नहीं रह जाता। क्योंकि होश से भरा आदमी बुरा हो ही नहीं सकता। यह तो ऐसे ही है जैसे रोशनी जल गयी और अंधेरा समाप्त हो गया, अब तुम दरवाजे से निकलोगे, दीवाल से थोड़े ही निकलोगे। अंधेरे में कभी—कभी दीवाल से निकलने की कोशिश की थी जरूर, टकरा भी गए थे, गिरे भी थे, फर्नीचर से भी उलझ गए थे, चोट भी खा गए थे, दूसरे को भी चोट पहुंचा दी थी। लेकिन अब रोशनी जल गयी है, अब तो न टकराओगे, न फर्नीचर पर गिसेगे, न सामान टूटेगा, न बरतन गिरेंगे, न दर्पण फूटेगा, न दीवाल में सिर टकराएगा, अब तो तुम सीधे निकल जाओगे, अब तो रोशनी है।
बेहोशी जानी चाहिए। आदमी साधारणत: बेहोश है। हम एक नशे में चल रहे हैं। इस छोटी सी घटना को सुनो—
योजना विभाग के दो बाबू अफीम कै बहुत शौकीन थे। इसलिए कार्यालय में भी अक्सर पिनक में रहते थे। एक दिन ऊपर से आदेश आया कि आदिवासी क्षेत्र में एक कुएं का निर्माण किया जाए। इनके जिम्मे कुएं के स्थल—निरीक्षण का भार सौंपा गया। दोनों स्थल—निरीक्षण के लिए चल पड़े। रास्ते में उन्हें एक कुआं मिला। वे काफी चल चुके थे, इसलिए थकावट दूर करने के लिए थोड़ी देर वहां रुके, पानी पीया और अफीम चढ़ायी। जब अफीम काफी चढ़ गयी, तब एक बाबू ने दूसरे से कहा, क्यों यार, यदि हम लोग इस कुएं को आदिवासी क्षेत्र में ले चलें, तो नया कुआं खुदवाने का पैसा उड़ा सकते हैं। दोनों अफीम में थे, दोनों को बात जंच गयी कि बात बिलकुल सीधी—सीधी है। नया कुआं बनाने की जरूरत क्या है? यहां कोई दिखायी भी नहीं पड़ता, कुआं एकांत में पड़ा है, इसी को ही ले चलें।
दूसरा खुश होकर बोला, यार, तुम्हारे दिमाग का कोई जवाब नहीं। चलो कोशिश करें। इतने में हवा का झोंका आया, अफीम और चढ़ गयी, दोनों वहीं लुढ़क गए। दोनों कुएं को धक्का दे रहे थे जब लुढूककर गिर गए, धक्का देते ही। कोशिश में लगे थे कि ले चलें धकाकर।
काफी देर बाद उनको बेहोश देखकर देहाती इकट्ठे हो गए। एक बाबू को कुछ होश आया तो उसने देहातियों को देखकर अपने दोस्त को कहा, बस करो यार, आदिवासी क्षेत्र आ गया है, ज्यादा और जोर लगाओगे तो अपन लोग आगे बढ़ जाएंगे। वह समझे कि आ गया गाव, ले आए हम कुएं को धकाकर यहां तक। और अब अगर ज्यादा जोर लगाया तो आगे भी निकल जा सकते हैं। रुक जाओ।
ऐसी एक पिनक है, जिसमें हम ड़बे हैं। विचार की तंद्रा है, मन की बेहोशी है, सब भीतर अंधेरा— अंधेरा है, रोशनी जलती नहीं, धुआं — धुआं है, इसमें हम सब कुछ किए जा रहे हैं। जो हम करते हैं—हम शुभ भी करें ऐसी दशा में तो अशुभ ही होगा। सोए आदमी से शुभ होता ही नहीं। सोए आदमी से पुण्य होता ही नहीं। और जागे आदमी से पाप नहीं होता है।
इसलिए मैं पापी को पुण्यात्मा नहीं बनाना चाहता, मैं सिर्फ सोए को जागा बनाना चाहता हूं। जिस दिन तुम्हारे भीतर ध्यान होता है—ध्यान का अर्थ है, निर्विचार चैतन्य, कोई विचार का धुआं नहीं, मात्र होश—उस होश की आभा में तुम्हें सब साफ दिखायी पड़ने लगता है, कहां चलो, क्या करो? अब तक क्या किया और क्या—क्या परिणाम हुए, सारा अतीत स्पष्ट हो जाता है। इतना ही नहीं, सारा भविष्य स्पष्ट हो जाता है। सारी बात ऐसे साफ हो जाती है जैसे दिन में सूरज निकलता है और सब रास्ते दिखायी पड़ने लगते हैं। और रात के अंधेरे में सब खो जाते हैं।
ध्यान के लिए कोई बहाने खोजकर बचने की कोशिश मत करना। ध्यान इस जगत में एकमात्र करने योग्य बात है। शेष न किया, चलेगा। ध्यान न किया तो चूके, तो जीवन से चूके। फिर भी तुम्हारी मर्जी!

 दूसरा प्रश्न

प्रत्येक कामना अपना प्रतिपक्ष लिए क्यों आती है? उसका विभाजित रहना क्या अनिवार्य है? और क्या कोई अखंड और अविभाजित कामना संभव नहीं है? यह कामना क्या है?

 हले तो कामना क्या है? कामना का अर्थ है—जो हूं, जैसा हूं वैसा ठीक नहीं हूं; जहां हूं? वहां संतुष्ट नहीं हूं; कहीं और होऊं, कुछ और होऊं, किसी और ढंग से होऊं। कामना का अर्थ है—यह जगह मेरी जगह नहीं, कोई और जगह मेरी जगह है, यह जो मेरा जीवन है, यह मेरा जीवन नहीं, कोई अन्य जीवन मेरा जीवन है। कामना का अर्थ है—जो है, उससे अतृप्ति, और जो नहीं है, उसकी आकांक्षा।
कामना का मौलिक स्वर असंतोष है। और जिसको कामना से मुक्त होना हो, उसे संतोष के पाठ सीखने पड़ते हैं। जो जैसा है, उससे राजी है, जहां है, उससे राजी है। जिसका राजीपन पूरा है, जो कहता है कि ठीक, जितना मिलता, उतना भी क्या कम है; जो मिलता, उतना भी क्या कम है; मिलता है, यही क्या कम है, ऐसे जिसके जीवन में भीतर एक संतोष का संगीत बजता है, उसकी कामना विसर्जित हो जाती है।
कामना असंतोष का शोरगुल है।
तो जो मकान है तुम्हारे पास, उससे मन राजी नहीं। बड़ा मकान चाहिए। जिसके पास बड़ा है, उसका बड़े से राजी नहीं, उसे और बड़ा चाहिए। और इतना बड़ा मकान कभी हुआ ही नहीं जिससे कोई राजी हुआ हो। जो सुंदर है, वह अपने सौंदर्य से राजी नहीं। जो स्वस्थ है, वह अपने स्वास्थ्य से राजी नहीं। किसी बात से हम राजी नहीं हैं। नाराज रहना हमारा स्वभाव हो गया है। हर चीज हमें काटती है। और हमें लगता है, इससे बेहतर हो सकती है। इससे बेहतर हो सकती है, बस, इसी से कामना पैदा होती है। कल्पना से कामना पैदा होती है।
पशु —पक्षी प्रसन्न हैं, क्योंकि कल्पना नहीं है। वृक्ष आनंदित है—ये सरू के वृक्ष हवा में डोलते हुए आनंदित हैं, इन्हें कुछ प्रयोजन नहीं है, ये जो हैं, बस पर्याप्त हैं। इन्हें किसी और वृक्षों जैसी पत्तियां नहीं चाहिए, पास में ही खड़े अशोक के वृक्षों से इनकी कोई स्पर्धा नहीं है, इनके मन में यह कभी विचार नहीं आया कि अशोक जैसे पत्ते हमारे क्यों नहीं हैं। गेंदे का फूल गुलाब से किसी तरह की स्पर्धा में नहीं है। चट्टान जो पड़ी है, उसे वृक्ष से कुछ लेना—देना नहीं है कि मैं वृक्ष जैसी क्यों नहीं हूं—कल्पना नहीं है। कल्पना नहीं है तो कामना नहीं है। जो है, जैसा है, उससे परम तृप्ति है। इसलिए प्रकृति में तुम्हें इतना स्वर्ग मालूम पड़ता है।
इसलिए कभी—कभी भागकर तुम जब हिमालय चले जाते हो, बैठते हो कभी चांद को देखते हो रात, या सागर की तरंगों को देखते हो, सूरज को ऊगते देखते हो, घने जंगलों की हरियाली को देखते हो, तब तुम्हें एक तरह की तृप्ति मिलती है। वह तृप्ति—प्रकृति की तृप्ति की थोड़ी सी छाया तुममें बन रही है।
यहां सब शांत है, यहां कोई कहीं नहीं जा रहा है, प्रकृति अपनी जगह ठहरी है, गति नहीं है, दौड़— धूप नहीं है, प्रतियोगिता नहीं है, सब अपने होने से राजी हैं। घास का छोटा सा पौधा भी अपने होने से परम प्रसन्न है, आकाश—छूते देवदार के वृक्षों से भी उसकी कोई ईर्ष्या नहीं है, वह यह भी नहीं कहता कि तुम बड़े, मैं छोटा। छोटा—बड़ा प्रकृति में कोई होता नहीं।
आदमी की तकलीफ है कि आदमी कल्पना कर सकता है। आदमी की जो तकलीफ है उसे ठीक से समझ लोगे तो आदमी इन वृक्षों और फूलों से भी ज्यादा आनंदित हो सकता है, क्योंकि वृक्षों और पत्थरों और पहाड़ों का सुख तो अचेतन है, आदमी का सुख चेतन हो सकता है। मगर दशा यही चाहिए। आदमी रहते हुए जिस दिन तुम वृक्ष जैसे संतुष्ट हो जाओगे, उस दिन तुम पाओगे स्वर्ग उतर आया। ध्यान रखना, कोई स्वर्ग में नहीं जाता, स्वर्ग तुममें उतर आता है। संतोष के पीछे चला आता है।
तो पहली तो बात, कामना क्या है? कामना का अर्थ है—यह ठीक नहीं, वह ठीक है। यह और वह के बीच की जो दूरी है, वह कामना है। और वह दूरी कभी मिटती नहीं, वह ऐसी दूरी है जैसे क्षितिज और तुम्हारे बीच होती है। दिखता दूर, ज्यादा दूर नहीं, होगा पंद्रह मील, बीस मील, आकाश जमीन से मिलता हुआ दिखायी पड़ता है। तुम सोचते हो, दौड़गा तो अभी घंटेभर में पहुंच जाऊंगा। दौड़ते रहो, जन्मों—जन्मों दौड़ते रहो—जन्मों—जन्मों दौड़ते ही रहे हो—कही भी आकाश पृथ्वी को छूता नहीं है, सिर्फ छूता मालूम पड़ता है, दिखायी पड़ता है। क्योंकि पृथ्वी गोल है, इसलिए दिखायी पड़ता है कि छू रहा है। बीस मील चलने के बाद पाओगे कि आकाश भी बीस मील पीछे हट गया। तुम सारी पृथ्वी का चक्कर लगा आओगे और पाओगे आकाश को कभी तुमने कहीं पृथ्वी को छूते नहीं देखा। छूता ही नहीं है।
ऐसी ही कामना है। यह और वह की दूरी बनी ही रहती है, उतनी की उतनी ही बनी रहती है। तुम्हारे पास दस हजार रुपये हैं, मन कहता है, अगर एक लाख हो जाएं तो बस, फिर नहीं चाहिए कुछ। तुम्हारा मन कहता है, बार—बार कहता है कि बस एक लाख हो जाएं! एक लाख होते ही तुम पाओगे कि वही मन कहने लगा कि अब दस लाख जब तक न होंगे तब तक शांति नहीं। क्यों? दस हजार थे तो एक लाख—दस गुने में शांति थी। अब एक लाख हैं तो दस लाख—दस गुने में फिर शांति है। फासला उतना का उतना है।
गरीब और अमीर दोनों के बीच कामना बराबर होती है। भिखारी और सम्राट के बीच कामना बराबर एक सी होती है, कोई फर्क नहीं होता। क्या तुम सोचते हो भिखारी खड़ा हो और सम्राट खड़ा हो, तो यह जो आकाश छूता हुआ दिखायी पड़ता है, दोनों के लिए अलग— अलग दूरी पर दिखायी पड़ेगा? सम्राट को भी बीस मील आगे दिखायी पड़ता है, भिखारी को भी बीस मील आगे दिखायी पड़ता है। यह भ्रांति समान है। जो जहां है, सदा उससे आगे कहीं तृप्ति का स्रोत मालूम होता है। कहीं आगे है मरूद्यान, यहां मरुस्थल, वहां है मरूद्यान।
जिसने जाना कि यहीं है मरूद्यान और इसी क्षण में आंख बंद करके ड़बकी मार ली, जिसने कामना छोड़ी, कल्पना छोड़ी, स्वर्ग उतर आता है। तुम कामना छोड़ो, इधर स्वर्ग आया। और कामना छोड़ने का मतलब यह नहीं है कि तुम स्वर्ग की कामना के लिए कामना छोड़ो। नहीं तो कामना छोड़ी ही नहीं। फिर भूल हो जाएगी। ऐसी भूल रोज होती है।
धार्मिक आदमी यही भूल करता है। वह कहता है, चलो ठीक, आप कहते हैं कामना छोड़ने से सुख मिलेगा, तो हम कामना छोड़े देते हैं, सुख मिलेगा न? पक्का है? मगर यह तो कामना का ही नया रूप हुआ। कामना छोड़ने से सुख मिलता है, परिणाम की तरह नहीं? छाया की तरह। तुमने कामना छोड़ी, तो उसी छोड़ने में सुख तो था ही, कामना के कारण दिखायी नहीं पड़ता था, कामना गयी कि सुख प्रगट हो जाता है। जैसे पर्दा पड़ा था। इस पर्दे के हटने से सुख पैदा होने का कोई संबंध नहीं है, यह उसका परिणाम नहीं है, सुख तो पड़ा ही था, तुमने कामना का पर्दा डाल रखा था। लेकिन अगर तुमने सोचा कि चलो, कामना छोड़ने से सुख मिलेगा हम कामना छोड़ देंगे, तो तुम कामना को तो सजा रहे हो भीतर अभी भी, अभी भी तुम सुख पाना चाहते हो, इसीलिए कामना छोड़ने को भी राजी हो।
यह धार्मिक जीवन की सबसे बड़ी उलझन है। लोग कहते हैं, संसार छोड़ने से स्वर्ग मिल जाएगा तो संसार छोड़ देते हैं—मगर स्वर्ग पाने की आशा मैं! और पाने की आशा का नाम संसार। कुछ मिले, इस वासना का नाम संसार।
'प्रत्येक कामना का अपना प्रतिपक्ष क्यों है?
होगा ही, क्योंकि कामना विभाजन करती है। यह और वह, यहां और वहा में विभाजन करती है। संसार और स्वर्ग। विभाजन से ही कामना जीती है, अगर विभाजन न हो तो कामना ही मर जाए। अगर दो न हों तो कामना कैसे करोगे? दो तो अनिवार्य हैं। जो मैं हूं वह, और जो मैं हो सकता हूं, वह, यह दो की तो धारणा अनिवार्य है। तो दौनों के बीच कामना का सेतु बनेगा, कामना का तार खिंचेगा, कामना की रस्सी फैलेगी। अगर एक ही है, तो फिर कैसी कामना!
इसीलिए तो ज्ञानियों ने कहा, एक को ही देखो, तो कामना मर जाएगी। एक ही है, ब्रह्म ही है, या सत्य ही है। तो फिर कामना नहीं बचेगी। जो है, है, इससे अन्यथा न हुआ है, न हो सकता है, फिर कैसे कामना करोगे? फिर कामना का कोई उपाय न रह जाएगा।
मैंने सुना है, एक सूफी फकीर हसन रोज प्रार्थना करता था, और रोज छाती पीटता था और परमात्मा से कहता था, हे प्रभु, द्वार खोलो, कब सै पुकार रहा हूं। वह एक बार एक दूसरे सूफी फकीर स्त्री राबिया के घर ठहरा हुआ था—राबिया बड़ी अनूठी औरत हुई। जैसे मीरा, जैसे सहजो, जैसे थेरेसा, ऐसी राबिया। जैसे बुद्ध, कृष्ण और महावीर पुरुषों में, ऐसी राबिया। राबिया सुनती थी, दो —तीन दिन से हसन उसके यहां ठहरा था, रोज प्रार्थना करता, रोज छाती पीटता और कहता, हे प्रभु, द्वार खोलो! कब से पुकार रहा हूं, कब मेरी अर्ज सुनोगे?
तीसरे दिन राबिया से न सुना गया, वह पास ही बैठी थी, उसने जाकर उसे हिलाया, हसन को, उसने कहा, सुनो जी, दरवाजा खुला पड़ा है! यह क्या पुकार मचा रखी है रोज—रोज कि दरवाजा खोलो! दरवाजा खोलो! दरवाजा खुला है, दरवाजा कभी बंद नहीं था! हसन तो घबडा गया। राबिया के प्रति उसके मन में आदर तो बहुत था ही, कहती है तो ठीक ही कहती होगी। तो हसन ने पूछा, फिर, फिर मुझे खुला क्यूं नहीं दिखायी पड़ता? तो राबिया ने कहा, इसलिए दिखायी नहीं पड़ता कि तुम बहुत ज्यादा आतुर हो, बड़े कामी हो—खुल जाए दरवाजा! हे प्रभु खोलो! दरवाजा खोलो, मुझे स्वर्ग में बुला लो, मुझे आनंद के जगत में बुला लो! यह तुम्हारी कामना पर्दा बन रही है। परमात्मा का द्ररवाजा खुला हुआ है, तुम्हारी कामना पर्दा बन रही है। तुम्हारी आंख बंद है, परमात्मा का दरवाजा बंद नहीं है।
इसीलिए तो बुद्ध ने यहां तक कहा है कि परमात्मा की भी बात छोड़ दो, क्योंकि उससे भी दो पैदा हो जाते हैं—मैं और परमात्मा। इसलिए बुद्ध ने कहा, मोक्ष की भी बात छोड़ दो, उससे भी दो पैदा हो जाते हैं—मैं और मोक्ष। बुद्ध ने तो कहा, जो है, है, उसको दो नाम मत दो। दो दिए कि अड़चन शुरू हुई, कि तनाव शुरू हुआ। फिर तुम कैसे रुकोगे। जो दूसरा है उसको पाने की तलाश शुरू हो जाएगी, प्यास शुरू हो जाएगी।
अस्तित्व एक है। कामना दो में बांट देती है।
तुम पूछते हो, 'उसका विभाजित रहना क्या अनिवार्य है?'
बिलकुल अनिवार्य है। क्योंकि विभाजन न होगा तो कामना बच ही नहीं सकती। जैसे दो होने चाहिए लड़ने के लिए, दो होने चाहिए प्रेम करने के लिए, दो चाहिए द्वंद्व के लिए, ऐसे ही दो चाहिए कामना के लिए। और दो की तो बात छोड़ो, हमने तो अनेक कर लिए। इसलिए हमारे कामना के घोड़े सभी दिशाओं में दौड़े जा रहे हैं।
'और क्या कोई अखंड और अविभाजित कामना संभव नहीं है?'
नहीं, अखंड और अविभाजित कामना संभव नहीं है। क्योंकि जहां तुम अखंड और अविभाजित हुए, वहा कामना न रह जाएगी। जहां कामना आयी, वहां तुम खंडित हो गए और विभाजित हो गए।
सुना है मैंने, दक्षिण भारत के एक अपूर्व साधु हुए—सदाशिव स्वामी। कुछ दिन पहले मैंने तुमसे उनकी कहानी कही थी, कि अपने गुरु के आश्रम में एक पंडित को आया देख उससे विवाद में उलझ गए थे, उसके सारे तर्क तोड़ डाले थे, उसे बुरी तरह खंडित कर दिया था, पंडित को तहस—नहस कर डाला था। पंडित बहुत ख्यातिनाम था। तो सदाशिव सोचते थे कि गुरु पीठ थपकाएगा और कहेगा कि ठीक किया, इसको रास्ते पर लगाया। लेकिन जब पंडित चला गया तो गुरु ने सिर्फ इतना ही कहा, सदाशिव! अपनी वाणी पर कब संयम करोगे? क्यों व्यर्थ, क्यों व्यर्थ बोलना? इससे क्या मिला? यह सब बकवास थी! कब चुप होओगे? और सदाशिव ने गुरु की तरफ देखा, चरण छुए और कहा कि आप कहते हैं, कब! अभी हुआ जाता —हूं। और वह चुप हो गए। फिर जीवनभर मौन रहे।
यह उन्हीं की घटना है! उन्होंने जीवनभर मौन रहने की साधना स्वीकार कर ली थी, मौन थे और नग्न। नग्न रहते और चुप, बड़ी झंझटें आती थीं। एक तो मौन, बोलते नहीं, और नग्न घूमते! समाधि उनकी निरंतर लगी रहती थी। मस्त ही रहते थे अपनी मस्ती में।
एक दिन भूल से एक मुसलमान सरदार के शिविर में चले गए। मस्ती में जा रहे थे नाचते, शिविर बीच में पड गया होगा तो पड़ गया, कोई शिविर के लिए गए नहीं थे। स्त्रियों ने डरकर चीख लगा दी। कोई नंगा मस्ती में नाचता हुआ चला आ रहा है, वे समझे कोई पागल है। नग्न साधु को घुसा देखकर सरदार भी क्रोध में आ गया। और उसने तलवार उठा ली और हमला कर दिया। सदाशिव का एक हाथ कटकर नीचे गिर गया। लेकिन सदाशिव के आनंद में कोई बाधा न पड़ी। हाथ कटकर गिर गया, लहू बहने लगा, लेकिन नाच जारी रहा। जैसे नाचते आए थे वैसे ही नाचते चलने, वापस लौटने लगे।
सरदार हैरान हुआ, दुखी भी हुआ—यह मस्ती, ऐसी मस्ती कभी देखी न थी। और हाथ कट जाए और पता न चले, ऐसी मस्ती! किसी और लोक में था यह आदमी। आंखों में देखा तो जैसे इस लोक में था ही नहीं, कहीं और। इसकी चेतना जैसे देह में थी ही नहीं। दुखी हुआ, पैरों पर गिर पड़ा, क्षमा मांगने लगा। सदाशिव हंसने लगे। सरदार ने कहा, उपदेश दें। वह तो मौन थे, उपदेश दे नहीं सकते थे, तो उन्होंने रेत पर अंगुली से एक छोटा सा वचन लिख दिया। जो वचन लिखा, वह था—जो चाहते हो वह मत करो, तब तुम जो चाहोगे कर सकोगे। जो चाहते हो वह मत करो, तब तुम जो चाहोगे कर सकोगे। बड़ी अनूठी बात लिख दी। जो —जो कामना कर रहे हो, वह मत करो, तब तुम जो —जो कामना करते हो वह मिल जाएगा। यह बड़ी अजीब बात हो गयी!
मगर ऐसा ही है। जब तक तुम मांगोगे, नहीं मिलेगा। जिस दिन तुम छोड़ दोगे, उसी दिन मिल जाएगा। तुम भागोगे और सुख छलता रहेगा। तुम रुक जाओ और सुख तुम्हारे चरणों में लोटने लगेगा।
मैंने सुना है, एक युवक धन के पीछे पागल था। सब उपाय कर देखे, कुछ रास्ता न मिला। एक फकीर के पास पहुंच गया। फकीर से उसने कहा कि मैं बड़े उपाय करता हूं, धन पाना है, लेकिन धन मिलता नहीं, क्या करूं? और जब फकीर के पास वह गया था तब गांव का सबसे धनी आदमी फकीर के पैर दाब रहा था। तो उसने कहा, यह मामला क्या है? मैं धन के पीछे दीवाना हूं, धन मुझे मिलता नहीं। तुम सब छोड़—छाड़कर यहां बैठे हो, यह धनी आदमी तुम्हारे पैर क्यों दाब रहा है? तो उस फकीर ने कहा, ऐसा ही होता है। तुम धन की फिकर न करो तो धन तुम्हारे पैर दाबेगा। तो उसने कहा, यह किसी ने मुझे अब तक —बताया नहीं; चलो यही करेंगे।
दो —तीन साल बाद आया। और हालत खराब हो गयी थी। बड़ा नाराज हो गया। कहने लगा कि किस तरह की बात बता दी? मैंने धन की फिकर छोड़ दी तो जो पास था वह भी चला गया। आने की तो बात ही रही, मैं बार—बार देखता हूं कि अब आएगा कोई धनी आदमी पैर दाबेगा, अब लक्ष्मी आएगी और पैर दाबेगी, कोई पता नहीं चलता। उस फकीर ने कहा, यह बार—बार देखने के कारण ही लक्ष्मी नहीं आ रही है। और जब छोड़ ही दिया तो बार —बार क्या देखना! तो तूने छोड़ा ही नहीं। लौट—लौटकर देखता है, उसका मतलब ही यह हुआ कि तूने छोड़ा नहीं।
इस जगत का यह मौलिक नियम है, तुम जो चाहोगे, न मिलेगा। तुम्हारी चाह के कारण ही बाधा पड जाती है। तुमने चाह छोड़ी कि सब बरसने लगता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम इसी बरसने के लिए चाह छोड़ना। नहीं तो चाह छोड़ी नहीं, फिर तुम लौट—लौटकर देखते रहोगे!
कामना में तो द्वंद्व है। इसलिए कामना में अशांति है। कामना में पीड़ा है, संताप है। कामना तुम्हें खंडों में बांट देती है, टुकड़ों में तोड़ देती है। कामना तुम्हें विक्षिप्त करती है, कामना पागलपन का मूल है। कामना गयी तो पागलपन गया, कामना गयी तो खंड गए, तुम अखंड हुए; तुम अखंड हुए तो ब्रह्म हुए; तुम अखंड हुए तो निर्वाण बरसा, तुम अखंड हुए, तुम एक हुए, फिर कोई दुख नहीं है। दो होने में दुख है, दुई में दुख है, अद्वैत सच्चिदानंद है।
बुद्ध का एक शिष्य था—विमलकीर्ति। अनूठे शिष्यों में एक था। उसके पास भी लोग जाते डरते थे। क्योंकि वह हर बात में से कुछ ऐसी बात निकाल देता था, कुछ ऐसा तर्क खड़ा कर देता था —बड़ा तार्किक था, दार्शनिक था—कि एक बार विमलकीर्ति बीमार हुआ, तो बुद्ध नै अपने दो —चार शिष्यों को कहा कि जाकर पूछकर आओ विमलकीर्ति की तबियत कैसी है? कोई जाए न! यह पूछने भी कि तबियत कैसी है, क्योंकि वह उसी में से कुछ निकाल देगा। और उससे लोग डरते थे कि वह विवाद में वहीं उलझा देगा।
आखिर मंजुश्री बुद्ध का दूसरा एक प्रमुख शिष्य जाने को राजी हुआ। मंजुश्री गया। विमलकीर्ति से उसने पूछा, आप बीमार हैं, कैसी तबियत है? भगवान ने स्मरण किया, पुछवाया है। विमलकीर्ति ने कहा, मैं बीमार हूं! बात गलत। जो बीमार है, वह मैं कैसे हो सकता हूं! मैं तो द्रष्टा हूं देख रहा हूं कि शरीर बीमार है। और तुम पूछते हो कि मैं बीमार हूं। सभी बीमार हैं। जो भी शरीर में है, बीमार है। कम—ज्यादा होंगे, सारा अस्तित्व बीमार है, विमलकीर्ति ने कहा। जीवन बीमार है, कामना का रोग लगा है, और बड़ा रोग क्या चाहिए इधर कामना खा रही है, उधर मौत पास आ रही है। इधर कामना एक—एक टुकड़ा काटे जा रही है, मरने के पहले मारे डाल रही है, उधर मौत आ रही है, कुछ बचा—खुचा रहेगा तो मौत समाप्त कर देगी।
तो विमलकीर्ति ने कहा, पहली तो बात मैं बीमार नहीं हूं मैं तो देख रहा हूं। दूसरी बात, मैं ही बीमार नहीं हूं, सारा अस्तित्व बीमार है —अस्तित्व मात्र बीमार है। होना यहां बीमारी है।
विमलकीर्ति ठीक कह रहा है, कामना काटे डालती है। तुम कामना की तलवार से अपने को कितना काट रहे हो, कितना दुख पा रहे हो। कामना से सुख तो कभी मिलता नहीं, क्योंकि कामना कभी पूरी तो होती नहीं जो सुख मिल जाए, सदा अधूरी रहती है और सदा काटती रहती है, घाव को हरा रखती है, भरने भी नहीं देती, घाव को बार—बार उघाड़ लेती है। एक कामना किसी तरह छूटती है, तो दस पैदा हो जाती हैं। यह कामना का ज्वर बीमारी है।
जीवन बीमार है कामना से, कामना की पूर्णाहुति मृत्यु में होती है। लेकिन तब तुम चूक गए। मरने के पहले अगर तुम कामना को मार डालो, तो तुम अमृत को उपलब्ध हो जाओगे। कामना मृत्यु में ले जाती है, निष्काम चित्त अमृत को उपलब्ध हो जाता है।

 आखिरी प्रश्न

 जीवन प्रश्न है या पहेली?

प्रश्‍न तो निश्चित नहीं है। क्योंकि जीवन का कोई उत्तर नहीं है। जिसका उत्तर न हो, वह प्रश्न तो हो नहीं सकता। पहेली जरूर है, लेकिन पहेली भी ऐसी जिसका कोई हल नहीं है। हल हो जाने वाली पहेली नहीं है जीवन। इसलिए ज्ञानियों ने उसे रहस्य कहा है।
रहस्य का अर्थ होता है—ऐसी पहेली जिसका कोई हल होना संभव नहीं है। जिसे तुम जी तो सकते हो, लेकिन जान कभी नहीं सकते। जिसको तुम कभी ज्ञान नहीं बना सकते। अनुभव तो बन जाएगा, लेकिन ज्ञान कभी न बनेगा। जिसको तुम कभी मुट्ठी में नहीं बांध सकोगे।
ऐसा ही समझो कि जैसे तुम सागर में तो उतर सकते हो, लेकिन सागर को मुट्ठी में नहीं ले सकते। सागर बड़ा है, विराट है, तुम्हारी मुट्ठी छोटी है। जीवन बहुत बड़ा है, जीवन को समझने का हमारा जो मस्तिष्क है, बहुत छोटा है। यह मस्तिष्क ड़बकी लगा सकता है जीवन के सागर में, रस—विभोर हो सकता है, लेकिन जीवन को कभी हल न कर पाएगा।
यही तो दर्शन और धर्म में फर्क है। जैसा मैंने तुमसे कहा, नीति और धर्म में फर्क है। नीति आदमी को अच्छा बनाती है, धर्म आदमी को जगाता है। ऐसे ही धर्म और दर्शन में फर्क है। दर्शन सोचता है—जीवन का उत्तर क्या है? जीवन के रहस्य को हल कैसे करें? जीवन की पहेली कैसे बूझें? धर्म कहता है—यह तो बूझा नहीं जा सकता। पहले यह तो सोचो कि बूझने वाला कितना छोटा है, और जिसे बूझना है कितना बडा है! चम्मच से सागर को खाली करने चले हो! कि चम्मच चम्मच में रंग लेकर सागर को रंगने चले हो! थोड़ी होश की बातें करो। धर्म कहता है—तुम ड़बकी तो लगा सकते हो, जीवन को जी तो सकते हो उसकी परम धन्यता में, लेकिन जान नहीं सकते। यह पहेली है, जिसका कोई उत्तर नहीं।
मैं पढ़ता था, रवींद्रनाथ के जीवन में एक संस्मरण है। रवींद्रनाथ किसी मित्र के घर मेहमान थे। मित्र की छोटी बच्ची ने उनसे सुबह—सुबह आकर कहा, यदि आपको एक कोठरी में बंद करके उस पर ताला जड़ दिया जाए तो आप क्या करेंगे? जैसे छोटे बच्चे पूछते हैं। कोठरी में बंद कर दिया और ताला लगा दिया, फिर आप क्या करोगे? रवींद्रनाथ ने कहा, मैं पड़ोसियों की सहायता के लिए आवाज लगाऊंगा। पर लड़की बोली, छोडिए, वह बात तो कहिए ही मत, कोठरी ऐसी जगह है जहां कोई पडोसी है ही नहीं। मान लीजिए पड़ोस में कोई है ही नहीं, फिर क्या करिएगा? रवींद्रनाथ सोच में पड़ गए, बोले, तब मैं किवाड़ों को तोड्ने की कोशिश करूंगा। लड़की हंसी। उसने कहा, यह नहीं चलेगा) किवाड़ लोहे के बने हैं। रवींद्रनाथ ने सोचा और फिर कहा कि तब तो यह जीवन की पहेली हो गयी, कि मैं जो कुछ भी करूंगा उसको असफल करने की व्यवस्था पहले से ही कर ली गयी है। जीवन ऐसी पहेली है।
मैंने सुना है, अमरीका की एक दुकान पर एक पति—पत्नी खिलौना खरीदते थे अपने बच्चे के लिए। एक खिलौना था टुकड़े—टुकड़े में, जमाने का खेल था, उनके टुकड़े जम जाए तो खिलौना बन जाए। पहले पत्नी ने उसे जमाने की खूब कोशिश की, वह जमे नहीं। फिर उसने अपने पति की तरफ देखा, पति गणित का प्रोफेसर था। उसने कहा, लाओ, मैं जमाए देता हूं। उसने भी बहुत कोशिश की, लेकिन जमा नहीं। उसने कहा, यह तो हद्द हो गयी। दुकानदार से पूछा कि भई, मेरी पत्नी पढ़ी—लिखी है, इससे नहीं जमता, मैं गणित का प्रोफेसर हूं, मुझसे नहीं जमता, तो मेरे छोटे बच्चे से कैसे जमेगा?
उस दुकानदार ने कहा, आप ने पहले ही क्यों नहीं पूछा? यह खिलौना बनाया ही इस तरह गया है कि जमता ही नहीं। इससे बच्चे को शिक्षा मिलती है कि ऐसा ही जीवन है। यह जीवन की तरफ इशारा देने के लिए बनाया गया खिलौना है, इस खिलौने का नाम है—लाइफ। इसका नाम है—जीवन। आपने देखा नहीं, इस पर लिखा हुआ है, डिब्बे पर—जीवन। यह बनाया ही गया है इस तरह से कि यह जमता नहीं। यह तो एक अनुभव के लिए है कि बच्चा समझने लगे कि यहां कुछ चीजें हैं जो कभी हल नहीं होंगी। बुद्धिमानी इसमें है कि जो हल न होता हो उसे हल करने की कोशिश न की जाए।
हजारों साल से आदमी सोचता रहा है, जीवन क्या है? कोई उत्तर नहीं है। झेन फकीर ठीक—ठीक उत्तर देते हैं।
एक झेन फकीर अपनी चाय पी रहा था और एक आगंतुक ने पूछा, जीवन क्या है? उसने कहा, चाय की प्याली। आगंतुक बड़ा विचारक था, उसने कहा, चाय की प्याली! मैंने बड़े उत्तर देखे, बड़ी किताबें पढी, यह भी कोई बात हुई! मैं इससे राजी नहीं हो सकता। तो उस फकीर ने कहा, तुम्हारी मर्जी! चलो भई, तो जीवन चाय की प्याली नहीं है, और क्या करना है!
लेकिन फकीर ने बात ठीक कही, सारे उत्तर ऐसे ही व्यर्थ हैं। जीवन की प्याली को चाहे चाय की प्याली कहो, चाहे चाय की प्याली न कहो, क्या फर्क पड़ता है! आदमी के सब उत्तर व्यर्थ हैं। आदमी उत्तर खोज नहीं पाया। आदमी उत्तर खोज नहीं पाएगा। क्योंकि बुद्धि छोटी है, अस्तित्व विराट है। अंश पूर्ण को नहीं समझ सकता है, लेकिन पूर्ण को जी सकता है, पूर्ण में ड़बकी ले सकता है, पूर्ण के साथ एकरूप हो सकता है, एकात्म हो सकता है।
ध्यान का अर्थ इतना ही होता है कि हम जीवन को सुलझाने की व्यर्थ कोशिश में न पड़े, हम जीवन को जीने की चेष्टा में संलग्न हो जाएं।
एक पल भी मत खोओ। जो पल गया, गया, सदा के लिए गया, फिर न लौट सकेगा। प्रत्येक पल को जीवन के उत्सव में संलग्न कर दो। प्रत्येक पल को जीवन की प्रार्थना मे लीन कर दो। प्रत्येक पल को जीवन की ड़बकी में समाहित कर दो। ड़बो, जीओ, उत्तर मत खोजो। उत्तर नहीं है।
तुम पूछते हो कि 'क्या जीवन प्रश्न है या पहेली?'
प्रश्न तो बिलकुल नहीं, अन्यथा दर्शनशास्त्र से उत्तर मिल गए होते। पहेली भी ऐसी है कि जिसका कोई उत्तर नहीं है। और इस जीवन को अगर जानने की आंकाक्षा सच में है, तो जीओ और बांटो। जितना रस ले सको, लो, और जितना रस दे सको, दो। क्योंकि जितना दोगे, उतना ही मिलेगा। कंजूस की तरह इस जीवन की तरफ दृष्टि मत रखना। तिजोड़ी में बंद करने की कोशिश मत करना, बांटो।
मैंने सुना है, एक बार एक सतत प्रवाही नदी और बंद घेरे में आबद्ध तालाब में कुछ बातें हुईं। तालाब ने नदी से कहा, तू व्यर्थ ही अपनी जल—संपत्ति को समुद्र में फेंके जा रही है। इस तरह एक दिन निश्चित ही तू चुक जाएगी, समाप्त हो जाएगी। अपने को सम्हाल, अपने जल को रोक, संगृहीत कर।
तालाब की यह सलाह एक व्यावहारिक आदमी की सलाह थी। लेकिन नदी थी वेदाती। उसने कहा, तुम भूल गए हो, तुम भूल कर रहे हो, तुम्हें जीवन का सूत्र ही विस्मरण हो गया है, देने में बडा आनंद है, ऐसा आनंद जो कि रोकने में नहीं है। जब कभी मैंने रोका, तो मैं दुखी हुई हूं। और जब मैंने दिया, तब सुख खूब बहा है। जितनी मैं बही हूं, उतना सुख बहा है। और यह मत सोचना कि मैं सागर को दे रही हूं मैं अपने सुख के कारण दे रही हूं—स्वांत: सुखाय। देना ही मैंने जीवन जाना है। तुम मृत हो, और अगर युगों तक भी बने रहे तो उससे क्या? एक क्षण भी कोई पूरी तरह जी ले तो जान लिया, अनुभव कर लिया; सदियों तक कोइ बना रहे, लडता रहे, तो उससे क्या? न जीआ, न अनुभव किया।
दोनों की बात तो एक—दूसरे से मेल खायी नहीं, मनमुटाव हो गया, फिर उन्होंने बोल—चाल बंद कर दिया। इस बात को ज्यादा दिन नहीं बीते थे कि नदी तो पूर्ववत ही बहती रही, तालाब सूखकर तलैया रह गया। फिर आयी धूप, तपता हुआ सूरज, फिर एक कीचड़ की गंदी तलैया मात्र बची। फिर तो वह भी सूखने लगी। जब गर्मी का ताप पूरे शिखर पर आया, तो तालाब समाप्त हो चुका था। नदी अब भी बह रही थी। मरते तालाब से नदी ने कहा, देखो, मैं देती हूं तो मेरे स्रोत मुझे देते हैं। तुम देते नहीं तो तुम्हारे स्रोत तुम्हें नहीं देते। जो देता है, उसे मिलता है। देना जीवन का नियम है। और अगर प्रत्येक न देने पर आबद्ध हो जाए, तो जीवन समाप्त है।
जीवन को पहेली, प्रश्न, ऐसा सोचकर हल करने में मत लग जाना। जीवन जीने में, और जीना देने में है। इसलिए सारे धर्मों ने दान को धर्म का मूल सूत्र कहा है। दान का मतलब सिर्फ इतना ही होता है—बांटो।
जो तुम्हारे पास हो, उसे बांटो, उसे उलीचो। इधर तुम देने लगोगे, उधर तुम पाओगे अज्ञात स्रोतों से तुम्हारे भीतर जल बहने लगा। कुआं देखते न, जितना पानी खींच लेते हो, उतना कुएं में पानी भर जाता है। नया पानी आ जाता है, नए जल के झरने फूट पड़ते हैं। कुएं से पानी मत खींचो, डरकर बैठे रहो, ढांक दो कुएं को, बंद कर दो कि कहीं पानी चुक न जाए, कभी समय पर काम पड़ेगा, तो कुआं सड़ जाएगा। और धीरे — धीरे झरने जब बहेंगे नहीं, तो सूख जाएंगे, उन पर मिट्टी जम जाएगी, पत्थर बैठ जाएंगे, झरने अवरुद्ध हो जाएंगे।
जीवन को जानना है तो जीओ। जीवन में ही जीवन है। जीने में जीवन है। जीवन को संज्ञा मत समझो, जीवन को क्रिया समझो। और दो, बांटो।
इसको प्रश्न मानकर, आंख बंद करके हल करने की कोशिश मत करना। नाचो, गाओ, गुनगुनाओ। सम्मिलित होओ। यह जो विराट उत्सव चल रहा है परमात्मा का, इसमें भागीदार होओ। जितनी तुम्हारी भागीदारी होगी, उतना ही तुम पाओगे, उतना ही तुम समझोगे, उतना ही तुम अनुभव करोगे।
फिर भी मैं तुमसे दोहरा दूं कि यह ज्ञान कभी न बनेगा। ऐसा न होगा कि तुम एक दिन कह सको—मैंने जान लिया। ऐसा कभी नहीं होता। यह इतना बड़ा है कि हम जानते रहते, जानते रहते, जानते रहते, फिर भी चुकता नहीं है। यह अशेष बना रहता है। यह शेष ही रहता है, कभी समाप्त नहीं होता है।


 आज इतना ही।

1 टिप्पणी: