ध्यान
योगशिविर
26
मार्च 1972,
प्रात:
माऊंट आबू,
राजस्थान।
सूत्र
:
अथ
अछलायनो
भगवन्तं
परमेष्ठिनं
उपसमेत्योवाच:
अधीहि
भगवन्
ब्रह्मविद्यां
वरिष्ठां
सदा
सद्भि:
सेव्यमानां
निगूढाम्।
ययsचिरात
सर्वपापं
व्यपोह्य
परात्पर
पुरुषमुपैति
विद्वान ।।1।।
तस्मै
सहोवाच
पितामहश्र—श्रद्धाभक्तिध्यानयोगादवैहि
।।2।।
तब
ब्रह्मविद्या
की जिज्ञासा
से महर्षि अश्वलायन
ब्रह्माजी के
पास (शिष्यभाव
से समिधा
लेकर) गये और
नम्रतापूर्वक
कहा :
हे
भगवन्! कृपया
मुझे
ब्रह्मविद्या
का गोपनीय व
अत्यंत
श्रेष्ठ
मार्ग बताइये, जिस पर
संतजन सदैव से
चलते आए हैं
और जिसके
माध्यम से
विद्वान लोग
अपने पूर्वकृत
दोषों को
निवृत्त करके
उस परब्रह्म
को पा जाते
हैं।। 1।।
इस
पर ब्रह्मा जी
ने उत्तर दिया—उस
परमतत्व को
प्राप्त करने
के लिए
श्रद्धा, भक्ति, ध्यान
और योग का
आश्रय लेना
पड़ता है।। 2।।
मनुष्य
के प्राणों
में जो गहनतम
अभीप्सा है, वह जानने की
है। जानना
जैसे मनुष्य
की आत्मा है।
जो भी छिपा है,
उसे प्राण
उघाड़ना चाहते
हैं। जो भी
अज्ञात है, उसे ज्ञात
कर लेना चाहते
हैं। जो भी
अदृश्य है, वह दृश्य हो
जाए और जो
अस्पर्शित है,
वह
स्पर्शित हो
जाए। ऐसा कुछ
भी शेष न रहे, जो अंधकारपूर्ण
है। ऐसा कुछ
भी शेष न रहे, जो नहीं
जाना गया है; क्योंकि
जहां मनुष्य
के अज्ञान की
सीमा आती है, वहीं मनुष्य
परतंत्र हो
जाता है। जिस
जगह मुझे लगता
है कि इसके
पार मुझे पता
नहीं है, वहीं
मेरी सीमा आ
जाती है, वही
मेरा कारागृह
है। मेरे
कारागृह की
दीवारें मेरे
अज्ञान से
निर्मित हैं।
जिस दिन ऐसा
कुछ भी शेष न
रहेगा जो
अनजाना है, उस दिन मेरी
कोई सीमा न रह
जाएगी।
अज्ञान
सीमा है और
इसलिए अज्ञान
पीड़ा है।
ज्ञान
असीम है और
इसलिए ज्ञान
मुक्ति है।
मनुष्य
के भीतर इन
सीमाओं को
तोड़ने का सतत
ही प्रयास
चलता है।
लेकिन इस
प्रयास की दो
दिशाएं हो
सकती हैं। एक
दिशा तो है कि
जो भी मेरे
चारों ओर
विस्तार है, उस विस्तार
के एक—एक अंश
को मैं जान
लूं। यह जो एक—एक
अंश को, एक—एक
कण को जानने
की चेष्टा है,
वही
विज्ञान है।
विज्ञान का
अर्थ है, विश्लेषण
से पाया हुआ
ज्ञान। एक तो
रास्ता है
चीजों को
जानने का कि
हम उन्हें
तोड़े और उनके
मौलिक घटक को
खोज लें। अगर
पानी को जानना
है तो पानी को
तोड़े और उन मौलिक
उपकरणों को
खोज लें, जिनसे
पानी निर्मित
हुआ है। तो
जिस दिन हम
पानी के मौलिक
परमाणु को खोज
लेंगे, उस
दिन हमने पानी
को जान लिया।
इस जानने का
अर्थ हुआ कि
अब हम चाहें
तो पानी को
बना भी सकते
हैं और चाहें
तो पानी को
मिटा भी सकते
हैं। तो
विज्ञान पानी
को तोड़ेगा, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन
की आखिरी इकाई
को खोजेगा, लेकिन फिर
भी उसका शान
पानी का तो
पूरा हो गया, फिर
हाइड्रोजन और
ऑक्सीजन को
जानना जरूरी
हो जाएगा। अज्ञान
एक कदम आगे
हटाया गया, मिट नहीं
गया। हमने एक
धक्का दिया
अंधेरे को, एक कदम
अंधेरा पीछे
हट गया, लेकिन
अंधेरा वहीं
खड़ा है।
अंधेरा मिट
नहीं गया, सिर्फ
एक कदम हट गया,
तो ऑक्सीजन
को तोड़ना पड़ेगा।
तो
विज्ञान
ऑक्सीजन को
तोड़ेगा, हाइड्रोजन
को तोड़ेगा। और
ऑक्सीजन और
हाइड्रोजन के
परमाणु जिनसे
निर्मित हैं,
उनको
खोजेगा।
इलेक्ट्रान्स
को खोज लेगा।
एक कदम और
अज्ञान को
धक्का दिया
गया। अब हम
हाइड्रोजन भी
निर्मित कर
सकते हैं लेकिन
इलेक्ट्रान
फिर हमारे अज्ञान
की सीमा बन
गयी। वितान ने
विगत दो हजार
वर्षों में
अज्ञान को धक्का
दे—देकर बड़े
दूर हटाया, ऐसा लगता
रहा है। लेकिन
अज्ञान मिटता
नहीं है।
दूसरे कदम पर
पुन: खड़ा हो
जाता है। और
अब तो
वैज्ञानिक इस को
स्वीकार करने लगे
हें कि ऐसा
कोई दिन नहीं
आएगा, जिस
दिन हम अज्ञान
को वितान से
मिटा पाएंगे।
क्योंकि जिस
चीज को भी हम
तोड़कर जानेंगे,
जो टूटकर बचेगा,
उसे फिर जानना
पड़ेगा लेकिन
अज्ञान सदा ही
शेष रह जाएगा।
वितान
अब इसको अनुभव
करता है कि अज्ञान
सदा ही शेष रह जाएगा।
हम कितना ही जान
ले, लेकिन वह
जो अनजाना है,
वह सदा हमें
घेरे रहेगा।
और हमारे
अज्ञान के बीच
का फासला सदा बराबर
रहेगा, इसमें
कोई फर्क नहीं
पड़ेगा। पहले
मैं पानी को
नहीं जानता हूं
तो पानी का
अज्ञान मुझे
घेरे हुए है।
फिर मैं पानी को
जान लेता हूं
तो पानी तो
समाप्त हो गया,
हाइड्रोजन
और ऑक्सीजन का
अज्ञान मुझे
घेर लेता है।
हाइड्रोजन—ऑक्सीजन
को जान लेता हू
तो इलेक्ट्रॉन
का अज्ञान मुझे
घेर लेता है।
कल इलेक्ट्रॉन
भी जान लिया
जाएगा, तब जो
शेष रह जाएगा वह
मुझे घेर लेगा,
और यह
अंतहीन है।
एक तो
ज्ञान का यह प्रयास
है जगत में, तोड़ कर जानना।
लेकिन टूट कर सदा
कुछ शेष रह जाएगा।
जब भी हम किसी चीज
को तोड़ेंगे, तो कुछ शेष रह
जाएगा। एक और मजे
की बात है, पानी
का अज्ञान था,
तोड़ा तो दो
चीजों का
अज्ञान हो गया—हाइड्रोजन
और ऑक्सीजन का।
एक का अज्ञान एक
कदम हटता हुआ मालूम
पड़ा, लेकिन
एक कदम बढ़ भी गया।
क्योंकि तब हम
एक चीज को
नहीं जानते थे,
अब हम दो चीजों
को नहीं जानते।
तोड़ने की प्रक्रिया
एक अर्थ में
अज्ञान को तोड़ती
हुई मालूम पड़ती
है। दूसरे
अर्थ में बढाती
हुई मालूम पड़ती
है। यह मजे की बात
है कि विज्ञान ने जितना
जाना है, उतना
ही हमारा
अज्ञान बड़ा भी
हो गया है।
ऐसा समझें, पुराने
वैज्ञानिक पांच
तत्वों की बात
करते थे। तो
पांच तत्वों का
ही अज्ञान था।
विज्ञान अब एक
सौ आठ तत्वों
की बात करता है,
तो एक सौ आठ तत्वों
का अज्ञान है।
पाँच को तोड—मरोड़
कर एक सौ आठ हमने
बना लिये। अब हम
एक सौ आठ को नही
जानते। एक सौ
आठ को तोड़ेगे,
तो हजार हो
जाने वाले हैं।
तो
वैज्ञानिक यह
भी कहने लगे
हैं कि हम
अज्ञान को घटा
रहे हैं या बढ़ा
रहे हैं? टूटने
की प्रक्रिया से
अज्ञान पीछे हटता
मालूम पड़ता है,
लेकिन बढ्ता
हुआ भी मालूम पड़ता
है।
यह मजे
की बात है कि
आज का आदमी
जितना जानता
है, इतना कभी
का आदमी नहीं
जानता था, लेकिन
आज का आदमी
जितना अज्ञान
का अनुभव करता
है, इतना
कभी किसी आदमी
ने अनुभव नहीं
किया। अगर हम सौ
वर्ष पीछे के वैज्ञानिक
से पूछें, तो
वह बहुत
आश्वस्त था।
कहता था, यह
मैं जानता हूं
और सौ वर्ष पीछे
के वैज्ञानिक
को यह भरोसा
था कि सौ वर्ष में
दुनियां का
सारा अज्ञान
मिट जाएगा। आज
के वैज्ञानिक से
पूछें, उसे
बिलकुल भरोसा
नहीं कि
अज्ञान कभी भी
मिटेगा। और उसे
अब यह भी
भरोसा नहीं है,
जिसे वह कहता
है मैं जानता
हूं उसे जानता
भी है? क्योंकि
एक बात और साफ हो
गयी है—सब
भरोसे दो—चार साल
में टूट जाते
हैं। न्यूटन
आज अज्ञानी है।
आइस्टीन के ज्ञान
की ईंटें भी गिरनी
शुरू हो गयीं।
वैज्ञानिक
कोई बड़ा ग्रंथ
नहीं लिख सकते
हैं विज्ञान के
सबंध मे। क्योंकि
जब तक बड़ा पथ लिखा
जाए, तब तक
वितान की अनेक
आधारशिलाएं बदल
जाती है। जो कल
ज्ञान मालूम होता
था, वह आज
अज्ञान हो जाता
है। और ज्ञान की
इतनी शाखाएं होती
चली जाती हैं कि
अगर एक दिन एक
आदमी था तो वह चिकित्सा
कर लेता था पूरे
आदमी के शरीर की।
एक वैद्य था गांव
में, आज से हजार
साल पहले, तो
वह सभी बीमारियों
का जानकार था।
फिर हमारी
जानकारी बड़ी,
तो हमने
पाया कि आंख
तो खुद ही
इतनी बड़ी चीज
है कि एक आदमी
अपना पूरा
जीवन लगाए तो आंख
के संबंध में
ही नहीं जान
पाएगा। कान तो
इतनी बड़ी चीज
है कि एक आदमी
अपना पूरा जीवन
समर्पित करे
तो कान के
संबंध में
जितना साहित्य
है, वह
नहीं पढ़ पाएगा।
तो एक ही आदमी
पूरे शरीर की
चिकित्सा
कैसे कर सकता
है?
तो फिर
आंख का
डाँक्टर हमें
अलग कर देना
पड़ा। फिर शरीर
के एक—एक
हिस्से के
डाँक्टर होते
चले गये। अब
एक—एक हिस्से
में भी हिस्से
करने की नौबत
आ गयी है। तो
आज कोई भी
डाँक्टर आदमी
के पूरे शरीर
का डाँक्टर
नहीं है। या
जो है, उसकी
कोई
प्रतिष्ठा
नहीं है। उसे
लोग समझते हैं
कि वह पुराने
दिन का डाक्टर
है। उसकी कोई
प्रतिष्ठा
नहीं है। यह
स्वाभाविक है।
यह होना था।
क्योंकि शान
को जब हम खंड—खंड
बांटते हैं, एक—एक खंड
अपना विस्तार
लेने लगता है।
और
अंततः….. पश्चिम
के एक बहुत
बड़े विचारक
सी. पी. सो ने
अभी कुछ समय
पहले एक बहुत
क्रांतिकारी
किताब लिखी है,
जिसमें
उन्होंने कहा कि
दो
संस्कृतियां
हो गयी हैं अब।
वितान को
जाननेवाले
लोग अलग ही
जाति के हो गये
हैं। जो नहीं
जानते हैं, वह अलग जाति
के हो गये हैं।
लेकिन
ठीक होगा यह
कहना कि
विज्ञान को
जाननेवाले
लोगों के भीतर
भी बहुत
जातियां हैं।
उसमें भी एक
जाति दूसरी
जाति को
बिलकुल नहीं समझती
है। आज
भौतिकविद
क्या कहता है, यह रसायनविद
बिलकुल नहीं
समझता है।
रसायनविद की
अपनी भाषा है,
अपना जगत है।
भौतिकविद की
अपनी भाषा है,
अपना जगत है।
फिजिक्स और
केमेस्ट्री
कहां मेल खाते
हैं, इसका
कुछ पता नहीं
चलता।
ऑक्सफोर्ड
यूनिवर्सिटी
तीन सौ साठ
विज्ञानों
में
प्रशिक्षण
देती है। और
वे तीन सौ साठ
विज्ञान की जो
शाखाएं हैं, वे भी रोज
नयी शाखाओं
में विभाजित
होती जाती हैं।
जैसे कोई
वृक्ष रोज बड़ा
होता जाता है
और नयी शाखाएं
निकलती जाती
हैं, एक
शाखा दो
शाखाओं में
बढ़ती चली जाती
है। और
विज्ञान की एक
शाखा पर जो
आदमी बैठा हुआ
है, उसे
बाकी वितान के
वृक्ष का कोई
भी पता नहीं है।
इस बात
का डर पैदा
हुआ है कि अगर
सौ वर्ष ऐसा
ही हुआ, तो वैज्ञानिक
एक—दूसरे से
बात करने में
बिलकुल
असमर्थ हो
जाएंगे।
क्योंकि सबकी
अपनी भाषा
होती जा रही
है। दो
विज्ञान की
शाखाएं कोई
तालमेल नहीं
बिठा पाएंगी
कि उनके चिंतक
क्या सोचते
हैं? और आज
तो एक भी आदमी
ऐसा जगत में
नहीं है जो यह
कह सके कि वह
पूरे विज्ञान
का जानकार है।
जो कह सके कि
मैं फिजिक्स
को भी समझता
हूं केमेस्ट्री
को भी समझता
हूं
मनोविज्ञान
को भी समझता हूं
ऐसा कोई
व्यक्ति नहीं
है। इसलिए कुछ
पता ही नहीं
चलता कि क्या
हो रहा है।
जानकारी
कितनी बढ़ रही
है, कहां
जा रही है, किसी
को कुछ पता
नहीं है।
और आज
का आदमी गहन
अज्ञान में
खड़ा हो गया है।
एक आदमी जो आंख
के संबंध में
सब कुछ जानता
है, उसे और
चीजों के
संबंध में कुछ
भी पता नहीं
है। इसका मतलब
यह हुआ कि एक
दिशा में उसे
शान है, लेकिन
बाकी दिशाओं
में अज्ञान हो
गया। एक बड़े—से—बड़ा
वैज्ञानिक
अपनी दिशा के
संबंध में
बहुत कुछ
जानता है, लेकिन
बाकी सारी
दिशाओं के
संबंध में
अंधकार हो गया
है। उसे और
कुछ भी पता
नहीं है।
ज्ञान
की एक दिशा थी, जो असफल हो
गयी।
एक
दूसरे जान की
दिशा है, जिसको
ब्रह्मविद्या
कहा है।
ब्रह्मविद्या
का प्रयोग
बिलकुल
अन्यथा है।
विज्ञान का
प्रयोग है, चीजों को
तोड़कर जानना।
ब्रह्मविद्या
का प्रयोग है,
चीजों को
उनकी सभयता
में, जोड़
में जानना।
ब्रह्म
का अर्थ है, इस सारे
अस्तित्व का
जो जोड़ है—समग्र—उसको
सीधा ही जानना,
बिना तोड़े।
उसको अलग—अलग
खंडों में
बांटकर नहीं
जानना; उसकी
समग्रता में,
उसके
अंतर्संबंधों
में, उसकी
इकाई में, उसकी
एकता में
जानना। यह
अस्तित्व
पूरा—का—पूरा
सीधा जाना जा
सके। वृक्ष को
मैं अलग से
जानने न जाऊं;
पशुओं को
अलग से
पहचानने न
जाऊं; आदमी
को अलग से
खोजने न जाऊं,
पत्थर और
पहाड़ और चांद
और तारे, इनको
अलग—अलग बांटू
नहीं, यह
जो सारा
अस्तित्व का
इकट्ठा जोड़ है,
इस जोड़ को
ही सीधा जानने
की कोशिश में
लगू उस कोशिश
का नाम
ब्रह्मविद्या
है।
अब यह
मजे की बात है
कि विज्ञान
अज्ञान को
थोड़ा हटा पाता
है, बढ़ा भी
जाता है।
ब्रह्मविद्या
अज्ञान को
हटाती नहीं
पीछे, विसर्जित
करती है।
ब्रह्मविद्या
अज्ञान के साथ
संघर्ष नहीं
है, बल्कि ज्ञान
का जागरण है।
ब्रह्मविद्या
अज्ञान को
धक्के नहीं
देती, ज्ञान
को जगाती है।
यह भी
समझने जैसा है
कि विज्ञान जब
चीजों को
तोड़ता है, तो भीतर
मनुष्य के मन
को भी तोड़ता
है। इसीलिए 'स्पेशलाइजेशन'
पैदा होता
है। जो आदमी
पदार्थ के
संबंध में खोज
करता है, उसके
मन का एक ही
हिस्सा
विकसित हो
पाता है—वह
हिस्सा जो
पदार्थ के
संबंध में खोज
में लगता है।
वैज्ञानिक यह
कहते हैं कि
मनुष्य के
मस्तिष्क के
सब हिस्से अलग—अलग
काम करते हैं।
जिस हिस्से से
आप प्रेम करते
हैं, उस
हिस्से से आप
गणित नहीं
करते। और जिस
हिस्से से आप
गणित करते हैं,
उस हिस्से
से आप खेती—बाड़ी
नहीं करते। और
जिस हिस्से से
आप दुकान
चलाते हैं, उससे आप 'पेंटिग'
नहीं करते,
चित्र नहीं
बनाते, कविता
नहीं लिखते।
मनुष्य
का मन कोई सात
करोड़ कोशों से
निर्मित है।
और मन के अलग—अलग
हिस्से अलग—अलग
काम करते हैं।
इसलिए काम
बदलने में 'रिलेक्सेशन'
भी हो जाता
है। एक आदमी
किताब पढ़ रहा
है, किताब
पढ़ना छोड्कर
उसने रेडियो
सुनना शुरू कर
दिया। अगर मन
इकट्ठा काम
करे तो किताब पढ़ने
में जो मन लगा
था वही रेडियो
सुनने में लगे,
तो थकान और
बढ़ेगी, घटेगी
नहीं। लेकिन
मन का एक कोना
किताब पड़ता है,
दूसरा कोना
रेडियो सुनता
है, इसलिए
जब आप किताब
पढ़ना बंद कर
देते हैं, रेडियो
खोल लेते हैं,
तो आपके मन
को विश्राम
मिल जाता है।
वह जो हिस्सा
काम कर वहा था
किताब पर वह
विश्राम कर
लेता है। जब
आप एक काम से
दूसरा काम
करते हैं, तत्काल
मन को विश्राम
हो जाता है।
वह हिस्सा
शांत हो जाता
है जिसको काम
करना पड़ा था, दूसरा
हिस्सा काम
में लग जाता
है।
और
आमतौर से यह
होता है कि
लोग सब काम
बंद करके
बैठते हैं, जैसे कोई
आदमी ध्यान
करने बैठता है,
तो मुश्किल
में पड़ जाता
है। मुश्किल
में इसलिए पड़
जाता है कि
उसकी जो निश्चित
'एनर्जी ' प्रतिपल काम
करती है वह एक
कोने में काम
करती है, अगर
दूसरे कोने
में काम करने
लगे, तो एक
कोना आराम कर
लेता है। अगर
वह सब कोनों
को विश्राम
देना चाहे तो
वह जो शक्ति
उसकी काम करती
है, वह
भटकती है और
विश्राम
मुश्किल हो
जाता है।
इसलिए ध्यान
में लोगों को
कठिनाई होती
है।
लोग
ध्यान के लिए
बैठते हैं तो
कहते हैं, न—मालूम
कहां—कहां के
खयाल आते हैं,
इतने खयाल
तो अगर हम
जमीन में
गड्ढा भी
खोदने लगें तो
नहीं आते। कोई
भी ताश खेलने
लगें तो नहीं
आते। सिगरेट
पीने लगें, तो नहीं आते।
यह जब ध्यान
के लिए बैठते
हैं, तो मन
न—मालूम कितने
विचारों से भर
जाता है। उसका
कुल कारण इतना
है कि आपने
अपनी पूरी शक्ति
को विश्राम
देने का कभी
कोई अभ्यास
नहीं किया है।
एक कोने में
काम को हटाकर
दूसरे कोने
में सदा लगा
दिया है।
लेकिन शक्ति
काम में लगी
रहती है। एक
कोने से दूसरे,
दूसरे से
तीसरे, और
मन के हजार
खंड हैं।
विज्ञान
जब बाहर चीजों
को बांटता है, तो भीतर मन
को भी बांट
देता है। तो वैज्ञानिक
के मन का
हिस्सा तो
विकसित हो
जाता है, शेष
हिस्से
अविकसित रह
जाते हैं।
ब्रह्मविद्या
में यहां फिर
फर्क है।
ब्रह्मविद्या
अस्तित्व को
बांटती नहीं,
इसलिए मन को
भी नहीं
बांटती।
अस्तित्व
बाहर एक है, यह
जाननेवाला भी
भीतर एक हो
जाता है। जब
हम पूरे
अस्तित्व को
एक मानकर चलते
हैं, तो
भीतर हमारा मन
भी एक हो जाता
है। और इस मन
की इकाई में
ही वह ज्ञान
का जन्म होता
है, जिससे
अज्ञान पीछे
नहीं हटता, समाप्त हो
जाता है। निश्चित
ही यह ज्ञान
और तरह का
होगा।
अगर आप
महावीर से, या बुद्ध से,
या उपनिषद
के ऋषि से
जाकर पूछें कि
मेरे दांत में
दर्द है तो
कौन—सी दवाई
का मैं उपयोग
करूं, तो
महावीर, या
बुद्ध, या
उपनिषद का ऋषि
आपका जवाब
नहीं दे
पाएंगे।
क्योंकि दांत
के दर्द का
मतलब हुआ, दर्द
को हमने बांट
लिया। दांत का
दर्द है, सिर
का दर्द है, पैर का दर्द
है, दर्द
भी हमने बांट
लिये।
हां, अगर आप
महावीर से
पूछें कि मैं
दर्द में हूं
क्या करूं, तो महावीर
उत्तर दे सकते
हैं। अगर आप
कहें मैं दुख
में हूं और
महावीर से पूछें
तो महावीर
उत्तर दे सकते
हैं। लेकिन आप
कहें मेरा पेट
दुखता है, तो
महावीर उत्तर
नहीं दे सकते।
तब आपको
वैज्ञानिक के
पास ही जाना
चाहिए। जहां
सब चीजें
बांटकर चलती
हैं।
महावीर
या बुद्ध के
पास सब चीजें
अनबंटी हैं, अविभाज्य
हैं। आप पूछें
कि दुख कैसे
मिटे, विशेष
दुख की बात न
पूछें, तो
महावीर बता
सकेंगे कि दुख
ऐसे मिटे। अगर
आप यह पूछें
कि यह बीमारी
कैसे मिटे, तो महावीर न
बता सकेंगे।
लेकिन आप यह
पूछें कि यह
जीवन का रोग
ही कैसे विलीन
हो जाए, तो
महावीर बता
सकेंगे।
बुद्ध
ने स्वयं को
वैद्य कहा है।
बुद्ध ने कहा
है, मैं
वैद्य हूं
लेकिन
बीमारियों का
नहीं, बीमारी
का। और यह
सारा जीवन एक
दुख है अगर, तो मैं
वैद्य हूं।
बुद्ध एक—एक
पत्तेवाली
बीमारी को
काटने नहीं जा
सकते हैं, लेकिन
बीमारी की
पूरी जड़ को
काटने के लिए
तैयार हैं।
उनका जो जानना
है, वह
समग्रीभूत है,
इकट्ठा है।
उन्होंने जो
भी जाना है
अस्तित्व के
बाबत, स्वयं
के बाबत, वह
तोड़कर नहीं
जाना है, इकट्ठा
ही जाना है।
इसलिए
यह मजे की बात
है कि
वैज्ञानिक
आपके दर्द
मिटाने की
आपको सलाह दे
सकता है, लेकिन
स्वयं दर्द के
पार कभी नहीं
जा पाता। आपको
हजार दुखों को
मिटाने की
सहायता
पहुंचाता है,
लेकिन खुद
हजार तरह के
दुखों में
घिरा रहता है।
महावीर या
बुद्ध आपके
किसी भी एक
दुख को मिटाने
का उपाय नहीं
बता सकते, लेकिन
दुख के बाहर
हो जाते हैं।
आपको भी दुख
के बाहर हो
जाने का उपाय
बताते हैं।
तो
ब्रह्मविद्या
का अर्थ है, ब्रह्म को, ब्रह्मांड
को, अस्तित्व
को एक इकाई
मानकर जानने
का प्रयास। और
जब अस्तित्व
को कोई इकाई
मानकर जानने
चलता है, तो
स्वयं के भीतर
भी एकता
निर्मित हो
जाती है। सारा
मन इकट्ठा हो
जाता है। और
यह मन का
इकट्ठा होना
ही शांति है।
यह मन का
इकट्ठा हो
जाना ही मौन
है। यह मन का
इकट्ठा हो
जाना ही भीतर
से समस्त तरंगों
और लहरों का
समाप्त हो
जाना है।
'ब्रह्मविद्या
की जिज्ञासा
से अश्वलायन ब्रह्मा
के पास शिष्य—भाव
से समिधा लेकर
नम्रतापूर्वक
गये। 'दो—तीन
बातें इसमें
ख्याल ले लेनी
चाहिए। 'ब्रह्मविद्या
की जिज्ञासा
से महर्षि
अश्वलायन
ब्रह्मा के
पास शिष्य—भाव
से समिधा लेकर
विनम्रता से
गये। 'महर्षि
हैं वे, लेकिन
ब्रह्मविद्या
की जिज्ञासा
है। महा ऋषि
हैं—ब्रह्मविद्या
की जिज्ञासा है!
तो अर्थ हुआ
कि महर्षि
होने से कोई
ब्रह्मज्ञान
को उपलब्ध
नहीं होता।
महर्षि का तब
अर्थ हुआ कि
जानते हैं; वे सब, बिना
जाने। शब्दों
से उन्हें सब
पता है; शाखों
ने जो कहा है, उन्हें जात
है; सिद्धांत
से वह परिचित
है; इसलिए
महर्षि हैं।
पांडित्य
उनके पास है, लेकिन ज्ञान
उनके पास नहीं
है।
तो
पंडित होना एक
बात है। आप
जान सकते हैं
सब कुछ, लेकिन
होगा उधार, अपना नहीं।
महर्षि भी हो
सकते हैं और
अज्ञानी भी रह
सकते हैं, जहां
तक
ब्रह्मज्ञान
का संबंध है।
पांडित्य हो
सकता है और
प्रज्ञा न जगे।
दूसरों ने जो
जाना है, उससे
आपका परिचय
गहन हो जाए, लेकिन स्वयं
की कोई अपनी
प्रतीति और
अनुभूति न हो,
तो फिर
महर्षि को भी
शिष्य— भाव से
ही पहुंचना
पड़ेगा।
शिष्य—भाव
का क्या अर्थ
होता है? शिष्य—भाव
का अर्थ होता
है कि मैं
नहीं जानता
हूं आप मुझे
जनाएं। शिष्य—भाव
का मतलब क्या
होता है?
इसलिए पंडित
को अत्यंत
कठिनाई हो
जाती है। वह
गुरु—भाव से
तो कहीं भी जा
सकता है, शिष्य—भाव
से जाना बहुत
मुश्किल हो
जाता है। वह
स्वयं ही
जानता है, तो
शिष्य—भाव से
कैसे जाए? और
जिस दिन कोई
महर्षि होकर
भी शिष्य—भाव
से जा सकता है
जानने, उस
दिन उसे एक
बात का स्पष्ट
साक्षात्कार
हो गया कि जो
मैंने जाना है,
वह जानना
बौद्धिक है, अस्तित्वगत
नहीं है।
मैंने ऐसा
अपनी तरफ से
पहचाना नहीं,
सुना है; स्मृति है
मेरी। एक बाहर
से परिचय हुआ
है मुझे, लेकिन
अंत—प्रवेश
नहीं हुआ है।
इसलिए पंडित
को ज्ञान की
तरफ जाना बहुत
कठिन हो जाता
है। कठिन
इसलिए हो जाता
है कि शिष्य—
भाव मुश्किल
हो जाता है।
शिष्य— भाव का
अर्थ है, यह
जानकर जाना कि
मैं नहीं
जानता हूं।
मैं अज्ञानी
हूं। तभी
शिष्य—भाव।
समिधा
प्रतीक थी।
समिधा लेकर
जाने का अर्थ
था कि व्यक्ति
घोषणा करता आ रहा
है कि मैं
अज्ञानी हूं
और जानने को
आया हूं। वह
प्रतीक है। वह
प्रतीक है इस
बात की कि
मुझे कहने की
जरूरत नहीं, आपको समझाने
की जरूरत नहीं,
मैं
अज्ञानी की
तरह आपके
चरणों में आया
हूं।
लेकिन
अज्ञानी की
तरह चरणों में
जाना सिर्फ प्रतीक
नहीं है, बड़ी
गहन आत्मिक—स्थिति
है। अज्ञानी
की तरह आने का
अर्थ है, मैं
जिज्ञासा
करूंगा उस
संबंध में जिस
संबंध में मैं
नहीं जानता
हूं। जब आप
तानी की तरह
कहीं जाते हैं
तो आप जिज्ञासा
उस संबंध में
करते हैं जिस
संबंध में आप
जानते हैं।
लोग प्रश्र
पूछते हैं—इसलिए
नहीं कि उनको
पता नहीं है, बल्कि इसलिए
कि उनको पता
है। तो वह
जांच कर रहे
हैं कि आपको
भी पता है या
नहीं। और आपको
जो पता है, वह
उनके ज्ञान से
मेल खाए तो ही
ठीक हो सकता
है। अगर मेल न
खाए, तो
गलत होगा। तो
शिष्य— भाव
वहां नहीं है।
जब भी कोई
व्यक्ति इस
खयाल से कहीं
पूछने जाता है
कि जानता तो
मैं हूं ही, देखूं तुम
भी जानते हो
या नहीं, तो
जिज्ञासा
नहीं होती, सिर्फ विवाद
की एक तैयारी
होती है। फिर
संवाद घटित
नहीं होता।
बुद्ध
के पास जब
पहली दफा
महाकाश्यप
गया, तो
महाकाश्यप
बड़ा पंडित था।
तो बुद्ध से
उसने कहा कि
मैं कुछ
जिज्ञासाएं
लेकर आया हूं।
बुद्ध ने पूछा
कि
जिज्ञासाएं
तुम्हारे ज्ञान
से उठती हैं
या तुम्हारे
अज्ञान से? तुम इसलिए
पूछते हो कि
कुछ जानते हो,
या इसलिए
पूछते हो कि
कुछ नहीं
जानते? महाकाश्यप
ने कहा, इससे
आपको क्या
प्रयोजन? बुद्ध
ने कहा, इससे
मुझे प्रयोजन
है, क्योंकि
तुम किस भाव
से पूछते हो, वह भाव मेरे
ध्यान में न
हो तो मेरे
उत्तर का कोई
अर्थ न होगा।
अगर तुम जानकर
ही पूछने आए
हो, तो
व्यर्थ समय को
व्यय मत करो।
तुम जानते ही
हो, बात
समाप्त हो गयी।
अगर तुम न
जानते हुए आए हो,
तो मैं तुमसे
कुछ कहूं।
महाकाश्यप
ने कहा कि
मेरी स्थिति
थोड़ी बीच—बीच
की है। थोड़ा
जानता भी हूं
थोड़ा नहीं भी
जानता हूं। तो
बुद्ध ने कहा
कि उसमें
हिस्से कर लो।
जो तुम नहीं
जानते हो पूरा, उस संबंध
में ही हम
चर्चा शुरू
करें। जो तुम
जानते हो, उसे
छोड़े।
महाकाश्यप
ने जो नहीं
जानता था
पूछना शुरू
किया और धीरे—धीरे, जैसे—जैसे
पूछता गया, उसे पता
चलता गया कि
जो वह जानता
है, वह भी
नहीं जानता है।
एक वर्ष
निरंतर बुद्ध
के पास रहकर
उसने बहुत कुछ
जिज्ञासाएं
कीं, सब
उसकी जिज्ञासा
ए शांत हो
गयीं। तब
बुद्ध ने उससे
कहा कि अब मैं
तुम्हारे उस संबंध
में थोड़ा
जानना चाहता
हूं जो तुम
जानते हो।
महाकाश्यप ने
कहा, मैं
कुछ भी नहीं
जानता था।
जैसे—जैसे
मुझे पता चला,
वैसे—वैसे
मेरा जानना
बिखरता गया।
मैं कुछ भी
नहीं जानता था।
गुरजिएफ
के पास जब
पहली दफा
ऑस्पेक्की गया
तो गुरजिएफ ने
उससे कहा, एक कागज पर
लिख लाओ तुम
जो भी जानते
हो, ताकि
उसे मैं
संभालकर रख
लूं उस संबंध
में कभी चर्चा
न करेंगे।
क्योंकि जो
तुम जानते ही
हो, जानते
ही हो; बात
समाप्त हो गयी।
ऑस्पेक्की को
कागज दिया।
ऑस्पेक्की
बड़ा पंडित था।
ठीक
महाकाश्यप
जैसा पंडित था।
और गुरजिएफ से
मिलने के पहले
एक बहुत कीमती
किताब— 'टर्शियम
आरगेनम 'लिख
चुका था। जो
कही जाती है—
और मुझे भी
लगता है कि है—पश्विम
के इतिहास में
लिखी गयी तीन
किताबों में
एक
महत्वपूर्ण
किताब है। वह
गुरजिएफ से
मिलने के पहले
लिख चुका था।
और गुरजिएफ को
तो कोई जानता
भी नहीं था, एक अनजान
फकीर था।
और जब
गुरजिएफ के
पास
ऑस्पेक्की
गया, तो एक
ज्ञाता की तरह
गया था।
ऑस्पेक्की
जगत विख्यात
आदमी था।
गुरजिएफ को
कोई जानता भी
नहीं था। किसी
मित्र ने कहा
था गांव में, फुरसत थी, ऑस्पेक्की
ने सोचा कि
चलो मिल लें।
जब मिलने गया
तो गुरजिएफ
कोई बीस
मित्रों के साथ
चुपचाप बैठा
हुआ था।
ऑस्पेक्की भी
थोड़ी देर बैठा,
फिर घबड़ाया।
न तो किसी ने
परिचय कराया
उसका कि कौन
है, न
गुरजिएफ ने
पूछा कि कैसे
आए हो। बाकी
जो बीस लोग थे,
वह भी
चुपचाप बैठे
थे तो चुपचाप
ही बैठे रहे।
पांच—सात मिनट
के बाद बेचैनी
बहुत
ऑस्पेक्की की
बढ़ गयी। न
वहां से उठ
सके, न कुछ
बोल सके।
आखिर
हिम्मत
जुटाकर उसने
कोई बीस मिनट
तक तो बर्दाश्त
किया, फिर
उसने गुरजिएफ
से कहा कि माफ
करिये, यह
क्या हो रहा
है? आप
मुझसे यह भी
नहीं पूछते कि
मैं कौन हूं? गुरजिएफ ने आंखें
उठाकर
ऑस्पेक्की की
तरफ देखा और
कहा, तुमने
खुद कभी अपने
से पूछा है कि
मैं कौन हूं? और जब तुमने
ही नहीं पूछा,
तो मुझे
क्यों कष्ट
देते हो? या
तुम्हें अगर
पता हो कि तुम
कौन हो, तो
बोलो। तो ऑ
स्पेक्की के
नीचे से जमीन
खिसकती मालूम पड़ी।
अब तक तो सोचा
था कि पता है
कि मैं कौन
हूं। सब तरफ
से सोचा, कहीं
कुछ पता न चला
कि मैं कौन
हूं।
तो
गुरजिएफ ने
कहा, बेचैनी
में मत पड़ो, कुछ और
जानते होओ, उस संबंध
में ही कहो।
नहीं कुछ सूझा
तो गुरजिएफ ने
एक कागज उठाकर
दिया और कहा, हो सकता है
संकोच होता हो,
पास के कमरे
में चले जाओ, इस कागज पर
लिख लाओ जो—जो
जानते हो। उस
संबंध में फिर
हम बात न
करेंगे। और जो
नहीं जानते हो,
उस संबंध
में कुछ बात
करेंगे।
ऑस्पेक्की
कमरे में गया।
उसने लिखा है, सर्द रात थी,
लेकिन
पसीना मेरे
माथे से बहना
शुरू हो गया।
पहली दफा मैं
पसीने—पसीने
हो गया। पहली
दफे मुझे पता
चला कि जानता
तो मैं कुछ भी नहीं
हूं। यद्यपि
मैने ईश्वर के
संबंध में
लिखा है, आत्मा
के संबंध में
लिखा है, लेकिन
न तो मैं
आत्मा को
जानता हू न
मैं ईश्वर को
जानता हूं। वह
सब शब्द मेरी आंखों
में घूमने लगे।
मेरी ही
किताबें मेरे
चारों तरफ
चक्कर काटने लगीं।
और मेरी ही
किताबें मेरा
मखौल उड़ाने
लगीं, और
मेरे ही शब्द
मुझसे कहने
लगे—
ऑस्पेक्की, जानते क्या
हो?
और तब
इसने वह कोरा
कागज ही लाकर
गुरजिएफ के चरणों
में रख दिया
और कहा, मैं
बिलकुल कोरा
हूं जानता कुछ
नही हूं अब
जिज्ञासा
लेकर उपस्थित
हुआ हूं। वह
जो कोरा कागज
था, वह
ऑस्पेक्की की
समिधा थी—वापस
उसके चरणों
में रख देना।
समिधा प्रतीक
है।
इस
मुल्क ने तो
हजारों
ऑस्पेक्की और
हजारों महाकाश्यप
देखे हैं। फिर
उन्हें
प्रतीक बना
लिया था कि जब
भी कोई पूरे
विनम्र— भाव
से..? विनम्र—
भाव का अर्थ
है, पूरे
अज्ञान के बोध
से किसी के
पास सीखने जाए,
तो समिधा
लेकर जाए।
समिधा प्रतीक
थी। चर्चा की
जरूरत नहीं
होगी। यह जो
दो घंटे
ऑस्पेक्की और
गुरजिएफ के
बीच व्यतीत
हुए, यह
व्यतीत नहीं
होंगे। समिधा
लेकर आया हुआ
व्यक्ति कहता
हुआ आ रहा है
कि मैं अज्ञानी
हूं; मुझे
पता नहीं; मैं
अपने ज्ञान से
नहीं पूछूंगा;
अपने
अज्ञान से
पूछूंगा। मैं
उत्तर की
जिज्ञासा
लेकर आया हूं।
मैं शिष्य की
तरह सीखने आया
हूं। मुझे
सिखाने का कोई
भाव नहीं है।
कुछ जांच—पड़ताल
नहीं करनी है।
कोई आपकी
परीक्षा नहीं
लेनी है। मैं
नहीं जानता
हूं।
'नम्रतापूर्वक
अश्वलायन ने
कहा: हे भगवन्!
मुझे
ब्रह्मविद्या
का, जो कि
सदा ही गोपनीय
है, अत्यंत
श्रेष्ठ
मार्ग बताइये।
'ब्रह्मविद्या
के संबंध में
मैंने कहा—अस्तित्व
को उसकी
समग्रता में
जानने की कला।
लेकिन
अश्वलायन
कहते हैं, जो
सदा ही गोपनीय
है। यह बहुत
मजेदार बात है।
क्योंकि कोई
चीज सदा ही
गोपनीय कैसे
हो सकती है।
कभी तो बतायी
जाती होगी।
नहीं तो यह भी
कैसे पता
चलेगा कि वह
है? और यह
भी कैसे पता
चलेगा कि वह
गोपनीय है? जिसको हम
गोपनीय कहते
हैं, वह भी
बताया तो जाता
ही है। अगर
मैं किसी के
कान में भी
कुछ कहता हूं
तो भी बताता
तो हूं ही। और
अगर यह भी
कहता हूं कि
गोपनीय है, तो इतना ही
कहता हूं कि
किसी को बताना
मत। लेकिन
बताया तो गया
ही है। बताया
तो जाता ही है।
वह जो
ब्रह्मविद्या
है, वह भी
तो बार—बार
बतायी गयी है,
बार—बार
बतायी जाती है।
लेकिन
अश्वलायन
कहते हैं, वह
जो सदा ही
गोपनीय है।
जिसे बता भी
देते हैं, तो
भी गोपनीय बनी
रह जाती है।
यह बात
थोड़ी समझने की
है। क्योंकि
अश्वलायन को
सब कुछ पता है, जो भी कभी
बताया गया है,
वह महर्षि
हैं, उन्हें
मालूम है; लेकिन
उस मालूम होने
से भी तो उन्हें
मालूम नहीं
हुआ। सब मालूम
है, फिर भी
अज्ञान तो शेष
ही रह गया। तो
अश्वलायन को
यह बात स्पष्ट
खयाल में आ
गयी होगी कि
बता भी जो
दिया जाता है,
उससे भी वह
बात पता तो
नहीं चलती। सब
शाखों में उसे
कहा है; सब
मुनियों ने, ऋषियों ने
उसे कहा है; सब जानने
वालों ने उसे
कहा है; फिर
भी वह अनकहा
रह जाता है।
वह जिसे कहने
की कोशिश की
जाती है, वह
छूट ही जाता
है पीछे। और
जो कहा जाता
है, वह कुछ
और ही हो जाता
है। जैसे हम
लकड़ी को पानी
में डालें और डालने
से वह तिरछी
दिखायी पड़ने
लगती है; होती
नहीं, लेकिन
तिरछी दिखायी
पड़ने लगती है।
ऐसे ही सत्य
को शब्द में
डाला कि वह
तिरछा हो जाता
है। शब्द के
माध्यम में
पड़ते ही तिरछा
हो जाता है।
और शब्द के
अतिरिक्त
कहने का कोई
उपाय भी तो नहीं
है।
तो
कहते हैं जरूर, फिर भी छूट
जाता है। कुछ
छूट जाता है।
और जो छूट
जाता है, वही
सदा गोपनीय है।
यहां गोपनीय
का अर्थ नहीं
है कि जिसे
गुप्त रखना है।
यहां गोपनीय
का अर्थ है, जो गुप्त रह
जाता है। यहां
गोपनीय का
अर्थ यह नहीं
है कि इसे
बताना मत।
यहां गोपनीय
का अर्थ है, जो बताया ही
नहीं जा सकता
है। बताना, जितना बन
सके बताना, लेकिन जो
पीछे रह जाए, वही
ब्रह्मविद्या
है। जो छूट
जाए, जो न
बताया जा सके।
तब तो बडी
कठिनाई है।
क्योंकि अगर
बताया ही न जा
सके, तो
फिर अश्वलायन
पूछ भी लें और
ब्रह्मा बता
भी दें, तो
भी कहां बताया
जा सकेगा?
यहां
दूसरी बात
ख्याल में ले
लेनी जरूरी है।
शब्द
से जो नहीं
बताया जा सकता, वह किन्हीं
और इशारों से,
किन्हीं और
रास्तों से
इंगित किया जा
सकता है। शब्द
बहुत ही कमजोर
माध्यम हैं।
बहुत कमजोर
माध्यम हैं।
कोई
सारीपुत्त से
पूछा है कि
बुद्ध के पास
तुमने कैसे
सीखा? तो
सारीपुत्त ने
कहा कि जो
बुद्ध कहते
हैं, वह
सुना, लेकिन
उससे सीखा
नहीं। जो
बुद्ध हैं, उसे सुना
नहीं, लेकिन
उससे सीखा। जो
बुद्ध कहते
हैं, वह एक
बात है। जो
बुद्ध स्वयं
हैं, वह
बिलकुल दूसरी
बात है। तो
बुद्ध ने जो—जो
कहा है, वह
सुना है; लेकिन
बुद्ध जो—जो
हैं, उसको
उनके पास रह
कर पिया है, जिया है, उनकी
उपस्थिति को,
उनकी
मौजूदगी को
स्पर्श होने
दिया है, भीतर
प्रवेश करने
दिया है। वह
जो गुह्य है, वह जो
गोपनीय है, वह उपस्थिति
से उपलब्ध
होता है।
लेकिन उस
उपस्थिति को
उपलब्ध करने
के लिए, उस
उपस्थिति को
पी जाने के
लिए हृदय के
द्वार खुले
होने चाहिए।
बुद्ध आपके
पास भी हों और
आपके हृदय के
द्वार बंद हों,
तो पास नहीं
हैं। और बुद्ध
कितने ही दूर
हों—स्थान में
या काल में—लेकिन
आपके हृदय के
द्वार खुले
हों तो पास
हैं।
ह्वेनसांग
जब भारत आया, तो उसने चीन
में एक भारतीय
मंदिर की कथा
सुन रखी थी।
बहुत कारणों
से भारत आया
था, उसमें
वह एक मंदिर
भी था। उसने
सुन रखा था कि
कश्मीर की किसी
घाटी में छिपा
हुआ बुद्ध का
एक मंदिर है, जहां बुद्ध
की कोई
प्रतिमा नहीं
है। और जहां
बुद्ध का कोई
अवशेष नहीं है।
जहां बुद्ध की
कोई किताब
नहीं है, कोई
शाख नहीं है।
जहां बुद्ध का
कोई भिक्षु
नहीं है, कोई
पुरोहित नहीं
है। वह मंदिर
एक गुफा में
छिपी हुई एक
सफेद
दीवालमात्र
है। लेकिन उस
दीवाल के पास
जो परम
विनम्रता से
बैठ जाता है
और प्रतीक्षा
करता है, तो
बुद्ध उस
दीवाल पर
प्रगट हो जाते
हैं।
ह्वेनसांग
बहुत कारणों
से आया था।
उसमें एक वह
दीवाल भी है।
क्योंकि
बुद्ध को बीते
तो बहुत समय
हो चुका था।
महर्षि
तो ह्वेनसांग
भी था। कहते
हैं, चीन में
उस समय वह
बुद्ध—शास्त्र
का जाननेवाला
सबसे बड़ा
पंडित था। चीन
के सम्राट ने
उसे आने की
मनाही कर दी
थी, क्योंकि
वह इतना कीमती
पंडित था कि
चीन से बाहर
जाए न लौटे, न लौट पाए, तो चीन की
महाहानि होगी।
लेकिन
ह्वेनसांग की
पीड़ा वही थी, जो अश्वलायन
की थी कि
जानता वह सब
था और फिर भी
जानता कुछ
नहीं था।
क्योंकि
बुद्ध का कोई
संस्पर्श
नहीं मिला।
कोई भगवत्ता
की प्रतीति
नहीं हुई।
कहीं से किरण
प्रवेश नहीं
पायी। सिवाय
बुद्धि में
शब्दों के आंदोलन
के और कुछ भी
नहीं हुआ। तो
चीन से चोरी
से ह्वेनसांग
भागा। सम्राट
विपरीत था, सम्राट
नाराज हो गया
तो सम्राट ने
सेनाएं लगा दीं
कि ह्वेनसांग
चीन के बाहर न
निकल पाए। तो
जान की जोखिम
लेकर, कोई
साथ देने को
तैयार नहीं, चीन की
सेनाओं के
पहरों को
बचाता हुआ, किसी तरह, बामुश्किल—दो
बार, तीन
बार मरने के
निकट पहुंच
गया, पकड़
लिया गया; फिर
किसी की दया
से, और
बुद्ध का उसके
लिए जो प्रेम
और उसकी
प्रार्थना कि
मुझे पहुंच
जाने दो उस
देश में जहां
बुद्ध चले हैं;
जिन
रास्तों से वे
गुजरे, शायद
उन रास्तों पर
भी उनकी
मौजूदगी की
कुछ ध्वनि
मौजूद हो; जहां
उनके चरण पड़े,
उस धूल पर
मुझे बैठ जाने
दो, लोट
जाने दो, शायद
उस धूल को
उनकी खबर हो; क्योंकि
शास्त्रों
में तो मुझे
उसकी खबर नहीं
मिली; जिन
वृक्षों के
नीचे वे बैठे,
मुझे उन
वृक्षों के
नीचे सो जाने
दो, शायद
वृक्ष ने उनकी
उपस्थिति को
आत्मसात कर लिया
हो; तो
बुद्ध के
चरणों में
जहां—जहां
बुद्ध चले, उठे, बैठे,
वहां चले
जाने दो; उसके
भाव को देख कर
सैनिकों को भी
दया आती और उन्होंने
उसे छोड़ दिया—दुश्मनों
से किसी तरह
छूटकर वह चीन
के बाहर हुआ, तो तुरसायन
नाम के एक
छोटे—से मुल्क
में प्रवेश
किया, वहां
का सम्राट
उससे इतना
प्रभावित हुआ
कि उस सम्राट
ने उसके चरण
पकड़ लिये, शिष्य हो
गया और कहा कि
अब तुम्हें
यहां से जाने
न दूंगा।
तो
ह्वेनसांग ने
प्रार्थना की
है कि हे
परमात्मा, किसी तरह
शत्रुओं से
छूट गया, लेकिन
अब मित्र से
कैसे छूटूगा?
और उस शिष्य
ने कहा कि कुछ
भी हो जाए, अब
इस महल के
बाहर तुम्हें
न जाने दूंगा।
तुम्हारे
बिना अब मैं न
जी सकूंगा।
ह्वेनसांग ने
जिद्द की तो
उसने चारों
तरफ पहरे लगा
दिये। चरणों
में बैठता, ह्वेनसांग
जब चढ़ता था
सिंहासन पर
बैठने के लिए
तो वह नीचे
लेट जाता था, सीढ़ी बन
जाता था—उस पर
पैर रखकर ही
ह्वेनसांग को
सिंहासन पर बैठकर
प्रवचन करना
पड़ता था, ऐसी
उसकी
विनम्रता थी;
लेकिन ऐसा
उसका मोह था
कि अंत में जब
ह्वेनसांग
नहीं माना तो
उसने कहा कि
तुम्हारा यह
विनम्र शिष्य
कहता है कि
चाहे कुछ भी
हो जाए, तुम्हें
यहां से जाने
की आज्ञा नहीं।
चार दिन
ह्वेनसांग
भूखा, बिना
पानी पिये, आंख बंद
किये बैठा रहा।
बुद्ध से
प्रार्थना
करता रहा कि
अब मेरे बस के
बाहर दिखता है,
अब तुम्हीं
बुला लो तो
कोई रास्ता है।
तुरसायन
का सम्राट
पिघला।
ह्वेनसांग
भारत आया।
वह उस
मंदिर में
पहुंचा। अब तो
वह मंदिर खो
गया; लेकिन
ह्वेनसांग उस
मंदिर में
पहुंचा। उस
मंदिर की कथा
थी कि वहां जो
जाता है, वापिस
नहीं लौटता।
इसलिए लोग
वहां जाते
नहीं थे। दूर
छिपी घाटी में
वह मंदिर—मंदिर
कैसा, एक
दीवाल थी।
सफेद दीवाल
मात्र।
वर्षों से
वहां कोई गया
नहीं था।
ह्वेनसांग ने
कहा कि उस
दीवाल के
सामने मिट जाऊं,
इससे और बड़ा
होना क्या हो
सकता है। गया,
बामुश्किल उसे
खोज पाया, क्योंकि
कोई रास्ते
नहीं थे। जहां
वर्षों से कोई
न गया हो, वहां
की पगडंडियां
खो गयी थीं।
लेकिन वह
पहुंच गया।
एक
सप्ताह वह
वहां था। छाती
पीटता है, रोता है, लोटता
है, उस
दीवाल के
सामने
चिल्लाता है,
चीखता है कि
प्रगट हो जाओ।
फिर उसका गला
रुंध जाता है,
फिर उसके आंसू
भी सूख जाते
हैं, फिर
उसका रुदन भी
नहीं निकलता।
फिर वह बैठा
ही रह जाता है
और रोता है।
भीतर ही रोता
है, प्राण
रोते हैं, आंसू
भी नहीं बहते,
आवाज भी
नहीं निकलती,
लेकिन बस एक
ही आशा है कि
प्रगट हो जाओ।
चौथे दिन
सिर्फ ऐसा लगा
जैसे एक छोटी—सी
बदली—जैसा
आकार दीवाल पर
गुजर गया है।
फिर उसकी आशा
बहुत बढ़ गयी।
फिर तो वह न
रात सोता था न
दिन सोता था, पता नहीं कब
वह आकार प्रगट
हो जाए। और
कहीं मैं सोने
में न चूक
जाऊं।
सातवें
दिन बुद्ध का
आकार उस दीवार
पर प्रगट हुआ।
ह्वेनसांग
तृप्त हुआ।
रूपांतरित
हुआ। बदल गया।
दूसरा आदमी हो
गया। हजारों
साल बीत गये
बुद्ध को हुए, दीवाल पर
बुद्ध की एक
छवि का आ जाना—
और वह छवि
बुद्ध से नहीं
आती, ह्वेनसांग
के मन से ही
आती है—लेकिन
इतनी प्यास से,
इतने
समर्पण से समय
का फासला टूट
जाता है और ह्वेनसांग
अनुभव करता है
कि वह बुद्ध
के निकट है।
हजारों वर्ष
गिर जाते हैं।
हजारों मील का
फासला टूट
जाता है। कोई
फासला नहीं रह
जाता। यह
निकटता की
प्रतीति कि
बुद्ध के निकट
हूं उनकी
आकृति के ही
निकट हूं उसको
रूपांतरित कर
जाती है। जो
उसने शाखों से
नहीं जाना था,
वह इस
निकटता से जान
लेता है। और
दीवाल थी
सिर्फ सफेद!
मैं यह
कह रहा हूं कि
अगर बुद्ध के
पास आप हों और
आपका हृदय का
द्वार न खुला
हो, तो आप
सफेद दीवाल के
पास हैं। और
अगर आपके हृदय
का द्वार खुला
हो तो सफेद दीवाल
के पास भी आप
बुद्ध के पास
हो सकते हैं।
जानने की जो
गहनतम घटना घटित
होती है, वह
शब्दों से
नहीं, सान्निध्य
से। 'अश्वलायन
ने कहा है, वह
गोपनीय मार्ग
मुझे बताइये,
जो सदा ही
गुप्त है। उस
श्रेष्ठ
मार्ग पर मुझे
ले चलिये, संतजन
जिस पर सदा से
चलते आए हैं।
और जिसके
माध्यम से
विद्वानों ने
अपने पूर्वकृत
दोषों को
निवृत्त करके
परम ब्रह्म को
पा लिया है।
इस पर
ब्रह्मा ने
कहा, परम तत्व
को प्राप्त
करने के लिए
श्रद्धा, भक्ति
ध्यान और योग
का आश्रय
चाहिए।
'यह
चार शब्द हम
थोड़ा समझ लें।
श्रद्धा
पहली बात कही।
श्रद्धा का
क्या अर्थ है? शब्द तो
हमारा परिचित
है, लेकिन
श्रद्धा का
सार बिलकुल अपरिचित
है। श्रद्धा
बहुत जटिल
घटना है। बहुत
जटिल है। जटिल
इसलिए कि हमें
खयाल भी नहीं
होता है कि श्रद्धा
का क्या अर्थ
होगा। तो दो—तीन
कोनों से हम
इसे समझें।
एक, जिसे हम मान
सकते हैं, उसे
मान लेने में
श्रद्धा नहीं
है। जिसे
हमारी बुद्धि
स्वीकार कर
सकती है, उसे
स्वीकार करने
में श्रद्धा
नहीं है। जिसे
हमारा तर्क
समर्थन दे
सकता है, उसमें
श्रद्धा कर
लेने में
श्रद्धा नहीं
है। जिसे
हमारी बुद्धि
मानने को राजी
नहीं होती, जिसे हमारा
तर्क स्वीकार
करने को राजी
नहीं होता, जिसे संभव
मानना भी
असंभव लगता है,
उसके लिए
राजी हो जाने
का नाम
श्रद्धा है।
असंभव की
स्वीकृति
श्रद्धा है।
इसलिए
श्रद्धा
कठिनतम
दुस्साहस है।
कीर्कगार्ग, सोरेन
कीर्कगार्ग
से कोई पूछता
है कि तुम्हें
परमात्मा पर
श्रद्धा है, इसका कारण? तो सोरेन
कीर्कगार्ग
ने कहा है, अगर
कारण ही मुझे
पता होता, तो
श्रद्धा की
क्या जरूरत थी?
अगर कारण ही
मुझे पता होता,
तो श्रद्धा
की क्या जरूरत
थी? और
परमात्मा न
करे कि मुझे
कारण पता चल
जाए, क्योंकि
जिस दिन कारण
मुझे पता चल
जाएगा उसी दिन
श्रद्धा गिर
जाएगी। कारण
मुझे पता नहीं
है। और सोरेन
कीर्कगार्ग
ने कहा, कारण
किसी को भी
पता नहीं है।
लेकिन जब तक
आदमी कारण के
भीतर जीता है,
तब तक
बुद्धि के
भीतर जीता है।
जब अकारण के
साथ जुड़ता है,
तो श्रद्धा
शुरू होती है।
ईश्वर
को मानने का
कोई भी तो
कारण दिखायी
नहीं पड़ता।
अगर कारण ही
खोज रहे हैं
तो विज्ञान हर
चीज के कारण
बता देता है।
अगर कारण ही
खोजने हैं, तो धर्म की
कोई भी जरूरत
नहीं, दर्शनशास्र
काफी है। वह सब
कारण बता देता
है। लेकिन सब
कारण शांत हो
जाएं तब भी इन
सब कारणों का
होना बिलकुल
अकारण मालूम
पडता है। मैं
हूं यह बिलकुल
अकारण है।
मुझे यह भी
पता चल जाए कि
मेरे पिछले
जन्मों के
कारण हूं तो
पिछले जन्म का
कोई कारण नहीं
मिलता। मैं
कितना ही पीछे
चलता जाऊं, हर पिछले
जन्म को कारण
बनाता चला
जाऊं, तो
भी मेरे
जन्मों की यह
शृंखला
बिलकुल अकारण है।
यह
वृक्ष क्यों
है? पता चल
जाए कि बीज
बोया गया था; लेकिन बीज? हम सिर्फ
कारण को पीछे
हटा रहे हैं।
फिर बीज किसी
वृक्ष में था,
और फिर
वृक्ष किसी
बीज में था और
यह शृंखला अनंत
है। लेकिन यह
शृंखला क्यों
है? यह
बहुत मजे की
बात है कि
कारण केवल
शृंखला में ले
जाते हैं।
जैसा मैंने
कहा कि
विज्ञान
अज्ञान को एक
कदम आगे हटाता
है, ऐसे ही
कारण की खोज
अज्ञान को एक
कदम पीछे हटाती
है। तो कारण
मिल जाता है, एक कदम पीछे;
फिर वही—की—वही
बात खड़ी हो
जाती है।
लेकिन जीवन की
समस्त शृंखला
बिलकुल अकारण
है। फिर भी है।
जो अकारण है
वह भी है।
इसके होने के
साथ जो प्रेम
का संबंध है, उसका नाम
श्रद्धा है।
जो अकारण है, उसके साथ
प्रेम का
संबंध
श्रद्धा है।
पहला
सूत्र
श्रद्धा ही का
है। धर्म का
प्रारंभ ही
नहीं होता
श्रद्धा के
बिना और जहां
तक श्रद्धा
नहीं होती, वहां तक और
सब कुछ हो
सकता है, धर्म
नहीं होता।
इसलिए धर्म इस
जगत में सबसे
बेबूझ घटना है।
और धार्मिक
होना इस जगत
की आंखों में
पागल होने के
बराबर है।
धार्मिक होना
इस जगत की आंखों
में पागल होने
के बराबर है।
इसलिए पागल
होने से कम की
तैयारी हो, तो कोई
धार्मिक नहीं
हो पाता।
श्रद्धा
बिलकुल
पागलपन है।
श्रद्धा का
अर्थ ही यह है,
हम एक छलांग
लेते हैं।
जहां तर्क चुक
जाते हैं, हम
वहां भी एक
छलांग लेते
हैं। जहां
रास्ता समाप्त
हो जाता है, वहां भी हम
एक छलांग लेते
हैं।
इसे
थोड़ा समझें।
तर्क
क्रमबद्ध
होता है।
श्रद्धा
छलांग है।
तर्क
क्रमबद्ध
होता है। तर्क
पिछली घटना से
जुड़ा होता है।
तर्क सदा ही
पीछे जुड़ा
होता है। तर्क
कहता है कि
कोई चीज क्यों
है? कारण खोज
लेता है। कारण
मिल जाता है।
श्रद्धा कहती
है, कोई
चीज है और
क्यों के लिए
कोई उत्तर
नहीं, बस
है। इसलिए अगर
बहुत तार्किक
व्यक्ति हो तो
सामान्य
प्रेम में भी
नहीं उतर पाता
है। क्योंकि
प्रेम के लिए
कोई कारण नहीं
मिलता। और
प्रेम के लिए
जितने कारण
लोग खोजते हैं,
वह सब पीछे
खोजे गये होते
हैं। प्रेम
पहले घट जाता
है, फिर
आदमी पीछे
कारण खोज लेता
है।
किसी
को देखा है और
भीतर कोई तरंग
उठ आती है, प्रेम घट
जाता है।
लेकिन आदमी
बुद्धिमान है।
तो बिना
बुद्धि के तो
वह प्रेम भी
नहीं कर सकता।
तो फिर वह
कारण खोजता है;
कि इस
व्यक्तित्व
में यह कारण
है—चेहरा
सुंदर है, कि
आचरण ऐसा है...
फिर वह कारण
खोजता है।
लेकिन कारण
खानापूरी है,
पीछे है।
प्रेम पहले घट
जाता है, कारण
पीछे चले आते
हैं। फिर हम
कारणों को
पहले रख लते
हैं और प्रेम
को पीछे मानते
हैं। लेकिन
प्रेम की घटना
ऐसे घटती है
जैसे गाड़ी पहले
आ जाए और बैल
पीछे। फिर हम
व्यवस्था जमा
लेते हैं, बैल
को आगे कर
लेते हैं, गाड़ी
को पीछे कर
लेते हैं। फिर
सब ठीक चल
पड़ता है।
लेकिन
इस जगत में जो
भी
महत्वपूर्ण
है, अकारण
घटता है।
लेकिन
जिन्हें
प्रेम ही कभी
न हुआ हो, उन्हें
श्रद्धा बहुत
मुश्किल हो
जाएगी।
क्योंकि
प्रेम जैसी
सामान्य घटना
भी जिनके जीवन
में न घटी हो, श्रद्धा
जैसी
असामान्य घटना
बिलकुल न घट
सकेगी। प्रेम
का अर्थ है दो
व्यक्तियों
के बीच असंभव
घट जाना।
प्रेम का अर्थ
है, दो
व्यक्तियों
के बीच असंभव
की छलांग हो
जाना। और
श्रद्धा का
अर्थ है, व्यक्ति
और समष्टि के
बीच असंभव का
घट जाना। मेरे
और समष्टि के
बीच जब प्रेम
घटता है तो उसका
नाम श्रद्धा
है; और
मेरे और किसी
के बीच जब
घटता है—वही
घटना—तो उसका
नाम प्रेम है।
इसलिए
प्रेम की सीमा
है, श्रद्धा
की कोई सीमा
नहीं। इसलिए
प्रेम चुक
जाता है, श्रद्धा
नहीं चुकती।
इसलिए प्रेम
होता है, खिलता
है, मुरझाता
है, लेकिन
श्रद्धा नहीं
मुरझाती।
प्रेम क्षणिक
ही है, वे
क्षण कितने ही
लंबे हो जाएं
लेकिन
श्रद्धा शाश्वत
है। इसलिए जो
प्रेम में
शाश्वत को
खोजता है, वह
गलत जगह खोजता
है। उसे
श्रद्धा में
ही शाश्वत को
खोजना चाहिए।
श्रद्धा., भक्ति दूसरा
सूत्र कहा है।
श्रद्धा तो
अंतर्घटना है,
भक्ति उसकी
अभिव्यक्ति
है। श्रद्धा
तो भीतर घटती
है। श्रद्धा
तो अंतs— अनुभव
है। एक
व्यक्ति को
श्रद्धा घट
गयी, उसे
अनहोने, अपरिचित,
रहस्यपूर्ण
अस्तित्व के प्रति
वह भाव आ गया
जिसे हम प्रेम
कहते हैं, उसे
पत्थर और पौधे
में और तारे
में प्रेमी
दिखायी पड़ने
लगा। उस परम
मित्र के
दर्शन होने
लगे, या उस
परम प्रेयसी
का अनुभव होने
लगा जो सब जगह
छिपी है, यह
तो श्रद्धा है,
भक्ति इसकी
अभिव्यक्ति
है।
वैसा
व्यक्ति अब....
अब जहां भी
उठेगा, चलेगा,
बैठेगा, जो
भी करेगा, उस
सब में उसकी
श्रद्धा
प्रगट होगी।
सब में। वह जो
प्रगट होना है,
वह भक्ति है।
वह अगर एक
वृक्ष के पास
भी जाएगा तो
उसे नमस्कार
करके ही
बैठेगा।
पागलपन है!
पागलपन तो घट
गया। अगर
श्रद्धा की
घटना घट गयी, तो वह वृक्ष
को भी नमस्कार
करके ही
बैठेगा। अगर
वृक्ष ने उसे
छाया दी है, तो धन्यवाद
देकर ही उठेगा।
अभी एक
बहुत—बहुत
हैरानी की
घटना पश्चिम
के विज्ञान
में घट रही है।
एक रशियन वैज्ञानिक
और एक अमरीकन
वैज्ञानिक, दोनों ने
अलग—अलग
मार्गों से एक
बहुत हैरानी
का सूत्र खोजा
है। वह मैं
आपसे कहना
चाहूंगा। यह
दोनों
वैज्ञानिक, अलग—अलग, अपरिचित
एक—दूसरे से, एक प्रयोग
कर रहे थे कि
आदमी के भीतर
जो भी भावदशा
होती है, क्या
उस भावदशा को
नापा जा सकता
है? थोड़े
प्रयोग सफल
हुए हैं। अगर
एक आदमी अचानक
भय से भर जाए, तो उसके
हृदय की धड़कन
बदल जाती है।
उसकी सांस की
गति बदल जाती
है। उसकी नाड़ी
की गति बदल
जाती है। उसकी
पसीने की
पंथियां अलग
तरह से काम
करने लगती हैं।
उसके शरीर का
रस—स्राव बदल
जाता है। उसके
रासायनिक
परिवर्तन
शुरू हो जाते
हैं। और
वैज्ञानिक अब
जानते हैं कि
शरीर के भीतर
बहती हुई जो
विद्युत है, जिसे हम
प्राण कहते
हैं, उसकी
तरंगों में भी
परिवर्तन
तत्काल हो
जाता है। यह
सब नापा जा
सकता है। अब
वैसे यंत्र
उपलब्ध हैं, जिनसे नापा
जा सकता है।
आप
बताएं मत, आप बैठे हैं
और अचानक आप
की छाती पर एक
बंदूक लाकर
लगा दी गयी है,
तो आपके
शरीर से यंत्र
तारों से जुड़ा
है, वह
यंत्र बता
देगा कि आप
कितने भय से
भर गये हैं।
लेकिन तभी जो
बंदूक लाया है
वह हंसने लगा
और उसने कहा
कि मैंने मजाक
किया, तो
यंत्र फौरन
बता देगा कि
भय विलीन होता
जा रहा है, शिथिल
होता जा रहा
है। विद्युत
और रासायनिक
प्रक्रियाएं
अपने पुराने
ढांचे पर
वापिस लौटती
हैं। अगर आप
का प्रेमी
कमरे के भीतर
आ गया है, तो
आपके भीतर जो
परिवर्तन
होते हैं, वह
यंत्र बता
देता है।
इन
वैज्ञानिकों
को यह खयाल
आया कि आदमी
में तो ठीक है, लेकिन क्या
पशुओं में भी
नापा जा सकता
है?
तब तो हम
पशुओं में भी प्रवेश
कर सकते है।
अभी तक पशुओं से
हमारी कोई मुलाकात
नहीं हो पाती।
उनके भीतर क्या
होता है, हमे
पता नहीं।
लेकिन जब आदमी
नापा जा सका, तो फिर पशु
भी नापे गये
और पाया गया
कि पशु तो और
भी शुनिश्रितता
से नापे जा सकते
हैं। क्योंकि
उनके
परिवर्तन और
भी स्पष्ट
होते हैं।
अचानक इन वैज्ञानिकों
को खयाल आया, क्या पौधों को
भी नापा जा सकता
है? क्या पौधों
में भी कोई परिवर्तन
होते होगे? भरोसा नही
था। सिर्फ जानने
के लिए प्रयोग
किये और हैरान
हो गये।
और हैरान
हो गये, रखा
हुआ है एक पौधा—गुलाब
का पौधा रखा हुआ
है, उसकी शाखाओं
से तार बंधे हुए
हैं बिजली के जो
यंत्र को खबर देते
हैं कि पौधे
में क्या हो रहा
है; और वह वैज्ञानिक
काटने की मशीन
लेकर पौधे के पास
आया, सोचता
था कि—काटे, तभी उसकी दृष्टि
गयी पास में रखे
हुए यंत्र पर,
यंत्र की सुई
तेजी से घूम रही
थी—भय की तरफ।
तो वह घबडा
गया। काटता, तब उसने
सोचा था कि पौधे
में कुछ होगा।
लेकिन पौधे के
पास काटने का इतंजाम
लाया था सिर्फ
अभी, लेकिन
काटने का भाव
था भीतर। क्या
पौधे को भाव की
खबर लगती है? और हैरानी की
बात है कि पौधे
ने जितने तेजी
से सूचनाएं दीं,
वह पशु से
भी ज्यादा स्पष्ट।
तब तो इस
वैज्ञानिक ने
सैकड़ों
प्रयोग किये,
क्योंकि
भरोसा उसे
अपनी आंख पर
नहीं आया कि
मेरा भाव, बिना
कुछ किये और पौधे
को प्रभावित करता
होगा, और पौधे
के प्राणों
में रूपातंरण हो
जाता है।
तब उसने
एक और अनूठा प्रयोग
किया और वह यह कि
पौधा यह रखा
हुआ है, इस पौधे
को नहीं काटना
है उसे, काटने
के लिए दूसरा पौधा
रखा हुआ है, और इस पौधे
के यंत्र से संबंध
जुडे हैं, लेकिन
दूसरे पौधे के
पास काटने के लिए
गया, तो भी इस
पौधे ने पीड़ा की
खबर दी—दूसरे पौधे
को काटने गया तो
भी इस पौधे ने खबर
दी कि वह
भयभीत हो गया है
और दुखी और पीडित
हो गया है। और उसके
भीतर रासायनिक—परिवर्तन
हुए। ये तो
विज्ञान के यंत्र
से पकड़ी हुई बातें
हैं। श्रद्धा
के तंत्र से
भी यह अनुभव पकड़े
गये हैं।
श्रद्धावान ने
भी एक—एक
पत्ते में, एक—एक पत्थर
में उस परम
प्राण को
अनुभव किया है।
भक्ति उसकी
अभिव्यक्ति
है। ऐसा
व्यवहार इस जगत
के साथ, जैसा
यह सारा जगत
मेरा प्रेमी है।
इस अस्तित्व के
साथ ऐसा व्यवहार,
जैसे इससे
एक अंत मैत्री
है। तो एक
आदमी पौधे के पास
पूजा का थाल लिये
हुए पूजा कर रहा
है, तो हमे पागल
पन लगता है।
लगेगा, क्योंकि
हमें उस तंत्र
का कोई पता
नहीं है। और
हो सकता है
उसे भी पता न
हो, वह भी
सिर्फ परंपरागत
किये जा रहा
हो। तब वह बिलकुल
ना समझी है।
एक आदमी नदी
को हाथ जोड़ कर प्रणाम
कर रहा है, तो
बिलकुल
पागलपन है।
लेकिन अगर
परंपरागत ही कर
रहा हो तो आप
ठीक हैं, और
अगर हार्दिक कर
रहा हो, तो
आप बिलकुल गलत
हैं। एक नदी
से भी यह
संबंध हो सकता
है। एक पौधे
से भी यह
संबंध हो सकता
है। एक्पत्थर की
मूर्ति से भी यह
सबंध हो सकता है।
यह संबंध कहीं
भी हो सकता है।
और एक दफा
श्रद्धा का जन्म
हो, तो
भक्ति
अनिवार्य छाया
की तरह उसके पीछे
चली आती है।
ऋषि ने
भक्ति के बाद
ध्यान को रखा है।
अगर भक्ति हृदय
में हो, तो मन
को ध्यान में ले
जाना इतना सुगम
है जिसका कोई
हिसाब नहीं।
श्रद्धा भीतर
हो, तो
भक्ति छाया की
तरह आ जाती है।
श्रद्धा भीतर
हो, भक्ति
छाया की तरह
आती हो, तो
ध्यान सुगंध की
तरह पीछा करता
है। ध्यान में
हमे कठिनाई होती
है, क्योंकि
न श्रद्धा है,
न भक्ति है,
तो ध्यान हमे
सीधा ही करना पड़ता
है। सीधा करने
में तकलीफ होती
है। क्योंकि तब
ध्यान में हमें
बहुत ताकत लगानी
पड़ती है। फिर
भी उतने परिणाम
नही होते क्योंकि
बहुत मौलिक दो
आधार नहीं हैं।
जो
सारे
अस्तित्व के
साथ प्रेम से
भरा है, और
जिसका उठना—बैठना,
जिसकी आंख
की पलक का
हिलना, जिसकी
मुद्रा, सब
इस जगत के
प्रति भक्ति
से भरी है, उसे
ध्यान में
जाने में क्षण—
भर की भी देर न
लगेगी। उसे
ख्याल भर आ
जाए कि ध्यान,
और ध्यान हो
जाए। क्योंकि
यहां कोई
संघर्ष ही न
रहा। कोई तनाव
न रहा। तनाव
तो वहां है
जहां जगत
शत्रु है।
तनाव तो वहां
है जहां अस्तित्व
मेरा विरोधी
है। तनाव तो
वहां है जहां
एक लड़ाई चल
रही है, जीवन
एक.. एक युद्ध
है। तनाव नहीं
होगा, भक्त
ध्यान में ऐसे
ही चला जाता
है।
इसलिए
भक्तों ने तो
यहां तक कहा
है कि क्या ध्यान, क्या योग!
उसका कारण है।
भक्तों ने कहा
क्या ध्यान, क्या योग, भक्ति काफी है।
वह ठीक कहते
हैं। वह ठीक
इसलिए कहते
हैं—इसलिए
नहीं कि ध्यान
का कोई मतलब
नहीं—इसलिए कि
ध्यान तो
उन्हें सहज हो
जाता है। एक
मीरा नाचती है
और ध्यान में
चली जाती है।
उसने ध्यान का
कोई प्रयोग
कभी सीखा नहीं।
एक चैतन्य
अपने कीर्तन
में हैं और
ध्यान में चले
जाते हैं।
उन्हें पता ही
नहीं कि ध्यान!
चैतन्य
के साथ बड़ी
मजेदार घटना
घटी है।
चैतन्य ने
सुना कि एक
बड़ा योगी गांव
के पास ठहरा
हुआ है और लोग
उसके पास जाते
हैं, ध्यान
सीखते हैं। तो
चैतन्य ने कहा,
मैं भी जाऊं
और ध्यान
सीखूं। तो
चैतन्य उस
योगी के पास
ध्यान सीखने
गये। हैरान
हुए बहुत, क्योंकि
जब चैतन्य
पहुंचे तो वह
योगी चैतन्य के
चरणों में सिर
रखकर लेट गया।
तो चैतन्य ने
कहा, यह
क्या करते हो?
यह क्या
करते हो? मैं
तो तुमसे
ध्यान सीखने
आया हूं।
मैंने तो सुना
कि ध्यान अनेक
लोग सीखते हैं,
तो मैं भी
सीख आऊं। तो
उस योगी ने
कहा, अगर
ध्यान ही
सीखना था, तो
भक्ति के पहले
आना था। ध्यान
में तो तुम हो,
लेकिन
तुम्हें पता
भी नहीं। भक्त
को पता भी
नहीं होता कि
वह ध्यान में
है। क्योंकि
ध्यान उसके
लिए 'बाइप्रॉडक्ट'
है, पीछे
आती है, श्रद्धा
और भक्ति का
सहज फल होता
है।
सबसे आखीर
में रखा है
योग। जिसे
ध्यान सध जाता
है, उसके
पीछे योग चला
आता है। हम सब
उल्टे चलते
हैं। लोग योग
से शुरू करते
हैं, फिर
ध्यान करते
हैं। फिर
सोचते हैं कोई
तरह से
खींचतान कर
भक्ति लाओ, फिर आखीर
में किसी तरह
श्रद्धा बन
जाए। जिस
व्यक्ति का मन
ध्यान में चला
जाता है, उसका
शरीर योग में
चला जाता है।
योग शरीर की
घटना है, ध्यान
मन की।
इसे हम
ऐसा समझें।
श्रद्धा 'कास्मिक
' है, ब्रह्मभाव
है। भक्ति
आत्मिक है, व्यक्तिभाव
है। ध्यान
मानसिक है।
योग शारीरिक
है। हम शरीर
से शुरू करते
हैं, फिर
मन पर जाते
हैं, फिर
आत्मा पर, फिर
ब्रह्म पर।
ऋषि ने कहा है,
पहले
ब्रह्म के
प्रति
श्रद्धा, फिर
आत्मा में
भक्ति, फिर
मन में ध्यान,
फिर शरीर
में योग। ऐसा
कोई चलेगा तो
हर दूसरा चरण
सहज होता है।
उल्टा कोई
चलेगा, तो
हर दूसरा चरण
और भी कठिन
होता है। योग
से जो शुरू
करेगा, उसे
ध्यान और कठिन
होगा। इसलिए
आमतौर से ऐसा
होता है कि
योग से शुरू
करनेवाले योग
पर ही रुक
जाते हैं। आसन
वगैरह करके
निपट जाते हैं,
ध्यान तक
नहीं पहुंच
पाते हैं।
ध्यान से शुरू
करेगा, तो
भक्ति कठिन
होगी। इसलिए
ध्यान
करनेवाले
अक्सर ध्यान
पर रुक जाते
हैं, भक्ति
तक नहीं पहुंच
पाते हैं।
भक्ति से जो
शुरू करेगा, अक्सर भक्ति
पर रुक जाएगा।
उस परम
श्रद्धा तक भी
नहीं पहुंच
पाएगा। यह आंतरिक
केंद्र से
यात्रा की
शुरुआत है—
श्रद्धा
केंद्र से; दूसरी परिधि
भक्ति, फिर
तीसरी परिधि
ध्यान, फिर
चौथी परिधि
योग। ध्यान
में गया मन, शरीर अपने—आप
योग में
प्रवेश कर
जाता है।
बहुत लोग
मेरे पास आकर कहते
हैं कि जब हम
ध्यान करते हैं, तो न—मालूम कैसे—कैसे
आसन अपने—आप
शुरू हो जाते
हैं। वे हो जाएगे
जब मन, भीतर
ध्यान की स्थिति
बदलेगी, तो
शरीर को
तत्काल स्थिति
बदलनी पड़ेगी
और मन के
अनुकूल अपने को
सभांलना पड़ेगा।
यह चार
सूत्र बहु मूल्य
हैं। इनकी शृखंला
सर्वाधिक बहुमूल्य
है। श्रद्धा से
प्रारंभ करें।
सुबह के
लिए इतना ही।
अब हम
ध्यान के लिए तैयार
हों। दूर—दूर फैल
जाएं। आस पास जगह
बना ले। और कोई
अपनी जगह से
भागें नहीं।
यहां—वहां दौड़
कर दूसरों को
धक्का न दें।
अपनी जगह पर
ही कूदे। दूर—दूर
फैल जाएं। जो
मित्र देखने आ
गये हों वह
चट्टान पर बैठ
जाएं यहाँ बीच
में न रहे।
कोई देखने वाला
बीच में न रहे, सिर्फ करने वाले
रहें।
किन्हीं
मित्रों को शांति
से बैठकर रहना
हो, वे भी दूर
हटकर बैठ जाए
और करें।
पट्टियां आ गयी
हैं, जिन
मित्रों को
चाहिए, वे
ले लें। किसी
को भी ऐसा लगे
कि वस्त्र अलग
कर देने हैं, वह कर सकता है।
ठीक है, आँख
पर पट्टियां बाँध
लें।
thank you guruji
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