एक
नाव दो
यात्री—पहला
प्रवचन
ध्यान
योग शिविर
दिनांक
8 जनवरी 1972,
रात्रि,
माथेरान।
सूत्र
:
ओम
सहनावववतु।
सहु
नौ
भुनक्तु।
सह वीर्यं
करवावकै।
तेजस्विनावधीतमस्तु।
मा विव्दिषव
है।
ओम
शांति: शांति:
शांति:।
ओम हे
परमात्म
हम
दानों (गुरू
औन शिष्य) का
साथ ही रक्षण
करो।
हम
दोनों का पान
करो।
हम
दोनों साथ ही पुरूषार्थ
करें।
हम
दोनों की
विद्या तेजस्वी
हो।
हम
किसी से द्वेष
न करें।
सर्वसार
उपनिषद!
असार
से सार को खोज
लेना भी कठिन
है;
सार में से
भी सार को
खोजना अति
कठिन। जो
व्यर्थ है
उसमें सार्थक
का पता लगा
लेना भी आसान
नहीं; लेकिन
जो सार्थक है,
उसमें से भी
परम सार्थक को
चुन लेना
करीब-करीब
असंभव जैसा है।
मिट्टी से
सोने को खोजने
की अपनी
मुसीबत, मुश्किल
है, लेकिन
सोने में से
भी सोने के
सार को..
स्वर्ण-सार को
खोज लेना
करीब-करीब
असंभव है।
सर्वसार
उपनिषद का
अर्थ है : जो भी
आज तक जाना गया
गुह्य ज्ञान
है,
इसोटेरिक
नॉलेज है, उसमें
से भी जो
सारभूत है, दि मोस्ट
फाउंडेशनल; वह जो
आधारभूत है--
जिसमें से
रत्ती भर भी
छोड़ा नहीं जा
सकता, जिसमें
छोड़ने को कुछ
भी असार नहीं
बचा है, जिसमें
शरीर को हमने
बिलकुल ही छोड़
दिया और शुद्ध
आत्म को ही
निकाल लिया है,
जिसमें
सोने में से
वस्तु को अलग
कर दिया--केवल
स्वर्ण--स्वर्ण
के स्वर्णत्व
को ही बाहर
खींच लिया है,
वैसा यह
उपनिषद है।
इस
एक उपनिषद को
जान लेने से
मनुष्य की
प्रतिभा ने जो
भी गहनतम जाना
है,
उस सबके
द्वार खुल
जाते हैं।
इसलिए इसका
नाम है. 'सर्वसार'--दि सिक्रेट
ऑफ दि
सिक्रेट्स; गुह्य में
भी जो गुह्य
है और सार में
भी जो सार है।
खतरनाक
भी है ऐसी बात; क्योंकि
जितनी
सूक्ष्म हो
जाती है
विद्या उतनी
ही पकड़ के
बाहर भी हो
जाती है। सत्य
जितना शुद्ध
होता है उतना
हमारी समझ से दूर
भी हो जाता है।
सत्य का कोई
कसूर नहीं, हमारी समझ
इतनी अशुद्ध
है कि जितना
हो शुद्ध सत्य,
उतना हमारे
और उसके बीच
फासला हो जाता
है। हमारी अशुद्धि
ही कारण है।
इसलिए जितना,
जितना
सूक्ष्मतम
सत्य है, वह
उतना ही हमारे
व्यवहार में
आने योग्य
नहीं रह जाता।
इसीलिए
इस देश में
जीवन का परम
शान खोजा गया, लेकिन
हम उसकी चर्चा
ही करने में
समय को व्यतीत
करते रहे हैं;
उसे जीवन
में उतारना
खयाल में ही
नहीं आता; उतारना
भी चाहें तो
कोई राह नहीं
मिलती; निर्णय
भी कर लें तो
पैर उठने के
लिए कोई दिशा नहीं
सूझती। इतना
गहन है, इतना
सूक्ष्म है कि
हम आशा ही छोड़
देते हैं कि उसे
जीवन में
उतारा जा
सकेगा। फिर
अपने को धोखा
देने के लिए
हम चर्चा करके
मन को समझा
लेते हैं।
तो
हम चर्चा करते
रहे सदियों तक।
और जिस संबंध
की हमने चर्चा
की है, वह ऐसा है,
जिसे चर्चा
से समझा नहीं
जा सकता, जिसे
जीएं हम तो ही
जान सकते हैं;
जीना ही उसे
जानने की विधि
है, चलें
उस पर तो ही
समझ पाते हैं।
चलना ही समझना
है।
कुछ
आयाम हैं गहन, जहां
जानने और जीने
में फर्क नहीं
होता; जहां
टु नो एंड टु
बी आर वन एंड
दि सेम; जहां
टुबी इज दि
ओनली वे टुनो।
जहां हो जाएं
तो ही जान
पाएं।
लेकिन
होना कठिन
मालूम होता है, और
जानना हमें
सरल मालूम
होता है, क्योंकि
जानने से कुल
इतना अर्थ
होता है कि हम
कुछ शब्द जान
लें, कुछ
सिद्धांत जान
लें--कुछ
फलसफा, कुछ
शास्त्र।
बुद्धि भर
जाएगी शब्दों
से, सिद्धांतों
से, हृदय
खाली रह जाएगा।
और भरी बुद्धि
और खाली हृदय
जितनी खतरनाक
स्थिति है, उतनी कोई और
स्थिति
खतरनाक नहीं
है, क्योंकि
भरी बुद्धि से
धोखा होता है
कि पा लिया
मैंने, जब
कि मिला कुछ
भी नहीं होता।
भरी बुद्धि से
लगता है भर
गया मैं, जब
कि भीतर सब
रिक्त, कोरा,
दीन और
दरिद्र होता
है--भिक्षुक
के पात्र की
तरह भीतर
आत्मा होती है,
लेकिन
बुद्धि को
सम्राट होने
का भ्रम हो
जाता है।
तो
बुद्धि से
जितने लोग
अमित होते हैं, उतने
लोग अज्ञान से
भ्रमित नहीं
होते। और
बुद्धि की नाव
में बैठे लोग
जितने डूबते हैं,
उतनी कागज
की नाव में भी
बैठें तो
डूबने की उम्मीद
नहीं है, क्योंकि
लगता ऐसा है
जाना, और
जान बिलकुल
नहीं पाते हैं।
इसलिए मैंने
कहा कि
सर्वसार
उपनिषद जैसे
ज्ञान के जो
सूक्ष्म
सूत्र हैं वे
खतरनाक भी हैं,
क्योंकि डर
यह है कि हम
उन्हें
विचारणा का
विषय बना लें--सोचें,
समझें और
उनसे मुक्त हो
जाएं। इसलिए
पहले ही आपसे
कह दूं उपनिषद
की बात में पड़ना
आग के साथ
खेलने जैसा है,
बिना बदले
उपनिषद नहीं
समझा जा सकता
है।
इसे
थोड़ा ऐसा लें
कुछ तो ऐसे
शान हैं, हम
जैसे हैं वैसे
ही बने रहें, तो भी शान
अर्जित किया
जा सकता है।
एक व्यक्ति
गणित सीखे, कि इतिहास
सीखे, कि
कुछ और, उस
व्यक्ति को इस
सीखने के लिए
बदलने की
जरूरत नहीं है।
वह व्यक्ति
वही बना रहे
जो था, सीखना
संगृहीत होता
चला जाएगा। उस
व्यक्ति की
आत्मा को किसी
रूपांतरण से
गुजरने की जरूरत
नहीं है। उस
आदमी को
बदलाहट
आवश्यक नहीं
है। वह आदमी
जैसा था वैसा
ही रहे, ज्ञान
इकट्ठा हो
जाएगा।
इतिहासज्ञ
होने के लिए
कोई
आत्म-क्रांति
नहीं चाहिए, और न
गणितज्ञ होने
के लिए, और
न वैज्ञानिक
होने के लिए।
लेकिन
धर्म का मामला
बिलकुल ही
भिन्न है वहां
ज्ञान के पहले
रूपांतरण
चाहिए; वहां
आदमी बदले
नहीं तो समझ
ही नहीं पाएगा;
बदले तो ही
समझ पाएगा।
वहां पहली जो
प्रक्रिया है
बदलाहट की, वह भीतर
अंतस में न हो,
तो बुद्धि
का संग्रह काम
नहीं पड़ता है--
धोखा, डिसेप्शन
हो जाता है, आत्मवचना हो
जाती है। और
इसलिए अच्छा
है कि आदमी
अज्ञानी रह
जाए बजाय शान
की वंचना में
पड़ने के, क्योंकि
अज्ञानी फिर
भी विनम्र होता
है, ज्ञानी
अहंकारी हो
जाता है। और
अज्ञानी फिर
भी भीतर कहीं
रोता है और
पीड़ित होता है;
और ज्ञानी
दंभ से अकड़
जाता है, उसके
आंसू भी सूख
जाते हैं; उसकी
प्यास भी बुझ
जाती है। झूठा
पानी भी प्यास
बुझाने में
समर्थ है।
सबने
हमने सपने
देखे हैं।
प्यास लगी है
जोर की और
स्वप्न देखा
है कि पानी पी
रहे हैं और
प्यास बुझ गई
और रात की
नींद टूटने से
बच गई। स्वप्न
आते ही हैं
नींद को सहारा
देने के लिए।
आप शायद सोचते
होंगे कि
स्वप्न नींद
में बाधा
डालते हैं तो
आपको स्वप्न
के विज्ञान का
कोई पता नहीं
है। शायद आप
सोचते होंगे, स्वप्न
बिलकुल न आएं
तो मै बड़ी
गहरी नींद
सोऊंगा, तो
आप बडी गलती
में हैं; आप
सो ही न
पाएंगे अगर
स्वप्न न आएं।
स्वप्न
सिर्फ नींद के
सहयोगी हैं।
जहां भी नींद
टूटने के करीब
होती है, स्वप्न
आपको धोखा
देता है और
नींद को जारी
रखवा लेता है।
आपको प्यास
लगी है, अगर
स्वप्न न आए
कि आप नदी के
किनारे पानी
पी रहे हैं तो
नींद को टूटना
ही पड़ेगा; प्यास
इतनी जरूरी है।
लेकिन आप एक
स्वप्न देखते
हैं कि नदी के
तट पर हैं, सरोवर
में स्नान कर
रहे हैं, और
भरपूर जितना
पानी पीना हो
पी सकते हैं, पी लें।
स्वप्न देख
लिया, प्यास
बुझ गई--बुझ गई
कहना ठीक नहीं,
बुझी मालूम
हुई--नींद
जारी हो गई।
भूख लगी है और
राजमहल में
निमंत्रण मिल
जाता है
स्वप्न में, स्वप्न
टूटने से बच
जाता है।
कामवासना को
दबाया है, उभरती
है, स्वप्न
भिखारी को भी
सुंदरियों से
मिला देता है..
नींद अपनी जगह
वापस सक्रिय
हो जाती है।
जैसे
हम स्वप्न में
झूठे पानी से
प्यास मिटा लेते
हैं,
वैसे ही
जिसे हम जागरण
कहते हैं, वह
भी यह उपनिषद
आगे कहेगा कि
एक स्वप्न भर
है। उसमें भी
हम शान के
झूठे संग्रह,
ज्ञान की
झूठी स्मृति,
ज्ञान के
झूठे बोध से
अज्ञान को
छिपा लेते हैं..
नींद टूटने से
बच जाती है; संसार वैसे
ही चल जाता है
जैसे रात नींद
चल जाती है।
जैसे
नींद टूटने से
कोई जाग जाता
है,
और चेतना
दूसरे आयाम
में प्रवेश
करती है.. ऐसे ही
जब कोई
व्यक्ति
संसार की नींद
से जाग जाता
है, तो
संन्यास फलित
होता है, और
चेतना दूसरे
आयाम में
प्रवेश करती
है।
संन्यास
का अर्थ इतना
ही है कि कोई
व्यक्ति अब
संसार को
निद्रा की
भांति चलाने
को तैयार नहीं
है;
अब वह जाग
कर जीना चाहता
है--बस, इतना
है। उपनिषद पर
चर्चा करके
अगर आप ज्ञानी
हो जाएं, तो
मैंने चर्चा
की तो गलत
किया; आपका
दुश्मन हुआ।
उपनिषद की
चर्चा करके
अगर आप
आत्म-क्रांति
पर निकल जाएं,
तो ही.. तो ही
मैंने जो कहा
वह हितकर था, कल्याणकर था।
मैं
जो कहूंगा वह
विष बन सकता
है.. जहर
बिलकुल, अगर
उसे आपने
चर्चा बनाया,
और बुद्धि
का भोजन बनाया,
और अपनी नींद
को सम्हाला।
मैं जो कहूं
वह अमृत भी हो
सकता है, अगर
आप उसे बुद्धि
की बात न
बनाएं, वरन
हृदय को बदलने
की सामर्थ्य,
शक्ति, संकल्प
उससे जन्माएं।
इस
पर निर्भर
करेगा कि इस
सर्वसार
उपनिषद के साथ
आप क्या करते
हैं! यहां से
कुछ थोड़ी सी
बातें सीख कर
आप लौट जाएंगे
तो यह अच्छा
नहीं हुआ...
अच्छा था आप
आए ही न होते।
आप कुछ जान कर
लौट जाएंगे, थोड़े
और ज्ञानी
होकर लौट
जाएंगे, तो
आप व्यर्थ ही
आए और व्यर्थ
ही गए।
नहीं, आपके
ज्ञान में
थोड़ी जानकारी
को जोड़ देने
का कोई भी
प्रयोजन और
कोई आकांक्षा
नहीं है। आप
थोड़े से बदल
कर जाएं, थोड़े
कुछ और होकर--आपकी
दृष्टि बदले,
स्मृति
नहीं; आपकी
प्रज्ञा बदले,
आपकी
जानकारी नहीं;
आप बढ़े, आपकी
बुद्धि
नहीं।
कैसे
बढ़ जाए वह जो
हमारा स्वरूप
है--जानना
नहीं, मेरा
होना ही कैसे
बढ़ जाए.. इसलिए
यह उपनिषद मैंने
कहा, खतरनाक
है।
सत्य
से जरा भी
जूझना खेल नहीं
है,
खतरा है; क्योंकि
सत्य आपको वही
नहीं छोड़ेगा
जो आप हैं--बदलेगा,
तोड़ेगा, मिटाएगा,
नया करेगा,
नया जन्म
देगा।
निश्चित ही, नये जन्म की
पीड़ा है। बिना
प्रसव की पीड़ा
के नया जन्म
कहां! और जब दूसरे
को भी जन्म
देने में इतनी
पीड़ा होती है,
तो स्वयं को
ही जन्म देने
में पीड़ा और
भी ज्यादा
होगी; क्योंकि
दूसरे को तो
मां जन्म देते
वक्त केवल नौ
महीने ही पेट
में रखती है, हमने अपने
आपको
अनंत-अनंत
जन्मों से पेट
में रखा हुआ
है।
जन्मों-जन्मों
से जो केवल
गर्भ है अभी, बीज
ही है अभी, अनंत
जन्मों हमने
अपने को अपने
ही गर्भ में
रखा, अभी
जन्म हमारा
हुआ नहीं--वैसे
ही जैसे कोई
तितली अपने
शंख में बंद
है जन्मों-जन्मों
से; शंख
टूटा नहीं, तितली उड़ी
नहीं; उसने
पंख आकाश में
खोले नहीं--ऐसे
ही हम अपने
में बंद हैं।
यह
उपनिषद उस
वितान की बात
है,
जिससे उस
अंडे को तोड़ा
जा सके, उस
गर्भ को
मिटाया जा सके,
जिसे हमने
अब तक अपना
जीवन समझा; जो कि हमारा
जन्म भी नहीं
है।
बीज
का भी कोई
जीवन होता है!
बीज होता है
जरूर, पर बीज
का कोई जीवन
होता है? जीवन
होता है वृक्ष
का। बीज का भी
कोई जीवन है? सिर्फ एक
संभावना, मात्र
एक आशा, मात्र
भविष्य..
वर्तमान तो
बीज का कुछ भी
नहीं है। होने
की एक क्षमता...
जीवन नहीं।
जिसे हम जीवन
कहते हैं वह
केवल एक
क्षमता है--एक
बंद बीज। जीवन
तो होता है
वृक्ष का; फैलता
है खुले आकाश
में; छूता
है सूरज को, चांद-तारों
तक पहुंचने के
लिए शाखाओं को
उठाता है; खिलते
हैं फूल, पक्षी
बसेरा लेते
हैं--गीत भी, तूफान भी, आंधियां भी,
धूप-बरसात
भी, संघर्ष
भी, मौत से
चुनौती भी।
पल-पल फिर
जीवन है। बीज
का भी कोई
जीवन है! बीज
केवल एक गर्भ
है।
हम
भी एक गर्भ
हैं... और पीड़ा
बहुत होगी; पीड़ा
बहुत होगी। हम
सभी चाहते हैं
आनंद हो, लेकिन
बिना पीड़ा के
चाहते हैं, इसीलिए आनंद
कभी नहीं हो
पाता। कौन
नहीं चाहता
आनंद हो? कौन
नहीं भूखा है
आनंद का? और
कौन नहीं खोजी
है? रोआं-रोआं
आनंद ही तो
मांगता है।
श्वास-श्वास
आनंद की ही तो
आकांक्षा है।
वही तो.. वही तो
सबकी कामना है,
फिर भी आनंद
फलित नहीं
होता; बिकॉज
नो वन इज रेडी
टु पे दि
प्राइज, कीमत
चुकाने कोई भी
तैयार नहीं।
उससे हम बचना
चाहते हैं, पीड़ा से हम
बचना चाहते
हैं। हम उस
मां की तरह
हैं जो
प्रसव-पीड़ा से
बचना चाहती है।
शायद
आज नहीं कल, जमीन
पर मां की
प्रसव-पीड़ा
बंद हो जाएगी;
बच्चे बिना
प्रसव-पीड़ा के
पैदा होने
लगेंगे--होने
लगे हैं; लेकिन
ऐसा दिन कभी
भी नहीं आ
सकता जब आदमी
अपनी आत्मा के
पुनर्जन्म
में प्रवेश
करे, अपनी
आत्मा को नया
जन्म दे, तो
वह बिना
प्रसव-पीड़ा के
हो जाए।
पर
एक और मजे की
बात है कि अगर
मां बिना
प्रसव-पीड़ा के
बच्चे को जन्म
दे,
तो जो लोग
भी सारे जगत
में चेष्टा
करते हैं कि किसी
तरह मां की
पीड़ा बच जाए
बच्चे को जन्म
देने में, उन्हें
अभी एक सत्य
का कोई पता
नहीं है--वह
जल्दी पता
लगेगा; और
अक्सर हमें
सत्यों का तब
पता लगता है
जब चीजें
हमारे हाथ के
बाहर हो जाती
हैं--तब
उन्हें पता
लगेगा कि जो
मां बच्चे को
बिना किसी
पीड़ा दिए जन्म
दे देगी वह
अपने मां बनने
की गहराई से
भी थोड़ी वंचित
हो जाएगी। अगर
बच्चे को ऐसे
ही जन्म दिया
जा सके बिना
किसी पीड़ा के,
तो मां भी
जन्म पाने से
बच जाएगी, वंचित
रह जाएगी... वह
मां भी न बन
पाएगी; क्योंकि
जब बच्चे को
जन्म दिया
जाता है पीड़ा
में, तो वह
पीड़ा बन जाती
है खाई, और
उसी खाई के
किनारे मां का
शिखर खड़ा होता
है।
जब
हम खाइयों से
बचते हैं तो
शिखरों से भी
बच जाते हैं।
अगर
हम यह चाहें
कि हिमालय के
पास जो
कंदराएं हैं
उनको तो हम
साफ कर दें, हटा
दें, और
शिखरों को बचा
लें, गौरीशंकर
बच जाए तो हम
पागल हैं; हमें
जीवन के तर्क
का कोई पता
नहीं। शिखर
होते ही इसलिए
हैं कि खाइयां
होती हैं, खड्ड
होते हैं। असल
में शिखर और
खडु संयुक्त
हैं।
आदमी
लेकिन भूलें
करता है
निरंतर एक
जैसी। आदमी ने
सोचा कि हम सब
दुख मिटा दें
तो बहुत सुख
हो जाएगा।
लेकिन बड़े मजे
की बात है : जब
सब दुख मिट
जाते हैं तो पता
चलता है, कोई
सुख बचा नहीं;
क्योंकि वे
संयुक्त थे।
इसलिए अक्सर
देखने में आता
है कि गरीब
आदमी से भी
ज्यादा दुखी
हो जाता है
अमीर आदमी; गरीब समाजों
से ज्यादा
पीड़ित हो जाते
हैं समृद्ध
समाज।
आज
पश्चिम की
तकलीफ यही है, कि
उन्होंने
बहुत से दुख
मिटा लिए--जिनकी
वजह से हम
दुखी हैं, उन्होंने
वे सब दुख
मिटा लिए--इस
आशा में बड़ी
मेहनत की
उन्होंने कि
जिस दिन दुख न
होंगे उस दिन
सुख ही सुख बच
जाएंगे। दुख
मिट गए, पता
चला कि उन्हीं
के साथ वे सुख
भी मिट गए; खाइयां
मिट गईं, शिखर
भी मिट गए।
रातें तो मिट
गईं साथ में
दिन भी मिट गए;
काटे तो
हमने झाडू कर
साफ कर दिए
गुलाब के पौधे
से, लेकिन
हम कांटे
झाड़ने में लगे
रहे; जब
हमने ऊपर नजर
उठाई तो पाया
कि फूल भी गिर
चुका है, वह
उन कांटों के
साथ ही होता
था। वे
संयुक्त थे।
लेकिन
यह कभी हो
सकता है कि
बच्चे बिना
पीड़ा के पैदा
होने लगें, यह
कभी नहीं हो
सकता कि आदमी
अपने नये जीवन
को बिना पीड़ा
के पा ले। यह
नहीं हो सकता
है। इसका कारण
है। इसका कारण
है कि हम जो भी
अब तक हैं... उसे
तोड़ना पड़ता है,
उसे मिटाना
पड़ता है, उसे
हटाना पड़ता है--नये
के लिए जगह
बनाने को।
मां
की तकलीफ
बच्चे को जन्म
देने में
स्वयं को
मिटाने की
नहीं है; मां
की तकलीफ एक
नई चीज उससे
छुटकारा पा
रही है, उससे
मुक्त हो रही
है, उसका
झटका है, उसका
धक्का है।
लेकिन जब कोई
व्यक्ति अपने
को जन्म देता
है, तब कोई
और चीज को वह
जन्म नहीं दे
रहा है, तब
वह दोहरा काम
कर रहा है--
अपने को मिटा
रहा है, समाप्त
कर रहा है; और
जिस मात्रा
में वह अपने
को मिटाता है
और समाप्त
करता है उसी
मात्रा में
नये जीवन का
आविर्भाव
होता है।
इसलिए
मैंने कहा कि
यह उपनिषद की
शिक्षा खतरनाक
है--
आत्म-क्रांति
की पीड़ा के
लिए तैयार
होना जरूरी है।
उसी पीड़ा के
भय से ऋषि का
पहला सूत्र
समझें?
''हे
परमात्मा! हम
दोनों की
रक्षा करना। ''
यह
प्रार्थना
क्यों? यह
ऋषि शुरू में
ही इस उपनिषद
के परमात्मा
से रक्षण की
प्रार्थना
क्यों करता है?
क्या आप
सोचते हैं, इसके मकान
पर छप्पर न
रहा होगा? क्या
आप सोचते हैं,
इसके पास
रोटी नहीं थी,
कि यह भूखा
मर रहा था, कि
इसके पास कपड़े
न थे! यह रक्षण
किस बात का? यह किस बात
की रक्षा के
लिए आकांक्षा
की जा रही है? और यह शुरू
में ही! यह
पहला सूत्र ही
रक्षा के लिए!
जिस
यात्रा पर ऋषि
जा रहा है आगे, वह
मृत्यु है; क्योंकि उसी
के बाद नया
जीवन है। और
यह तो पक्का
पता है कि मैं
मरूंगा, यह
पक्का पता
नहीं है कि
मैं उसके बाद
जन्मूंगा; वह
अज्ञात है।
मेरी रक्षा
करना।
परमात्मा से
प्रार्थना कर
रहा है कि
अज्ञात में उतरता
हूं आज, खतरा
साफ है; मौत
दिखाई पड़ती
है...।
बीज
को मौत ही
दिखाई पड़ती है, वृक्ष
कैसे दिखाई पड़
सकता है!
टूटेगा, इतना
ही दिखाई पड़ता
है.. मिटेगा; लेकिन वृक्ष
भी होगा और वे
फूल जो कभी
खिलेंगे, उनकी
कैसे, कल्पना
भी कैसे हो
सकती है बीज
को! वे गीत जो
इस वृक्ष के
आस-पास
जन्मेंगे, और
वे बांसुरिया
जो इसके
आस-पास
गूंजेगी और बजेगी,
और वे हवाओं
के झोंके जो इस
वृक्ष के
पत्तों से
सरसरा कर
गुजरेंगे, उन
सबका इस बीज
को कैसे पता
हो सकता है? वसंतों की
इसे अभी क्या
खबर? और
वर्षा में जब
बूंदें इस
वृक्ष के ऊपर
गिरेंगी, इस
बीज को उनकी
क्या खबर? इस
बीज को इतना
ही पता है कि
मैं मिला; इतना
ज्ञात है, शेष
अज्ञात है..
इसलिए यह
प्रार्थना।
''हे प्रभु! हम
दोनों का--गुरु
का, शिष्य
का रक्षण करना।''
यह
और बड़े मजे की
बात है कि
दोनों के लिए
प्रार्थना की
गई है--गुरु के
लिए भी और
शिष्य के लिए
भी। शिष्य के
लिए होती, समझना
आसान था--गुरु
के लिए भी है!
यह जरा कठिन
मालूम पड़ता है।
शिष्य के लिए
समझ में आती
है--जो अभी सीख
ही रहा है, जो
अभी कदम उठा
ही रहा है, जो
अभी नाव छोड़ने
के ही करीब है
अज्ञात में, वह
प्रार्थना
करे रक्षण की,
सुरक्षा की,
लेकिन गुरु
के लिए
प्रार्थना
क्या? 'हम
दोनों ' की
क्या बात है?
कुछ
बात है। और
बात यह है कि
गुरु और शिष्य
का संबंध इतना
गहरा है कि एक
भी डूबे तौ
दूसरा डूबेगा
ही;
बचना फिर
मुश्किल है।
वह संबंध इतना
इंटीमेट है कि
उतना इंटीमेट,
उतना निकट
संबंध इस जगत
में दूसरा
नहीं होता--न
पति का, न
पत्नी का; न
मां का, न
बेटे का; न
भाई का और भाई
का; न
मित्र का।
इतना
निकट है दोनों
का संबंध.. कि
एक डूबा कि दूसरा
डूबा। इसलिए
प्रार्थना
ऋषि करता है ' हम
दोनों को'--शिष्य
को, गुरु
को, दोनों
को सम्हालना।
इसमें
और गहरी बातें
हैं। इसमें
ऋषि यह भी कह
रहा है कि
गुरु का ऐसा
कुछ अर्थ नहीं
है कि वह नहीं
डूब सकता। यह
बहुत सोचने
जैसी बात है।
गुरु का कुछ
ऐसा अर्थ नहीं
है कि वह नहीं
डूब सकता। असल
में अगर कभी
भी किसी की
ऐसी स्थिति बन
जाए कि अब वह
डूब नहीं सकता, भटक
नहीं सकता, खो नहीं
सकता अंधेरे
में, तो वह
करीब-करीब
मुर्दा हो
चुका होगा।
जीवन सदा ही
खो जाने की
संभावना है--सदा
ही! वही जीवंत
होने का अर्थ
है। बुद्ध का
पैर भी गलत पड़
सकता है; नहीं
पड़ता, यह
दूसरी बात है;
नहीं पड़ेगा,
यह दूसरी
बात है; नहीं
पड़ा है कभी, यह भी दूसरी
बात है--पड
सकता है। फिर
से कहूं : नहीं
पड़ता है, नहीं
पड़ा है। नहीं,
कोई
ऐतिहासिक
उल्लेख नहीं कि
बुद्ध का पैर
कभी चूका हो; लेकिन जब
बुद्ध
परमात्मा से
प्रार्थना
में हों, तब
वे भी कहेंगे.
मेरी रक्षा
करना। चूक
सकता है। और
मजा यह है कि
जो ऐसी
प्रार्थना
करता है उसका
नहीं चूकता है;
और जो ऐसी
प्रार्थना
नहीं करता
उसका निश्चित ही
चूक जाता है--क्योंकि
अहंकार ही चूक
है।
इसलिए
'गुरु और
शिष्य ' हम
दोनों की ही
तू रक्षा करना।
शिष्य
की प्रार्थना
तो साधारण है, पर
गुरु का
संयुक्त होना
बहुत असाधारण
है। और ऐसे ही
व्यक्ति को हम
गुरु कहते थे,
जिसको गुरु
होने का भाव न
हो। जिसे गुरु
होने का भाव न
हो, वही
गुरु है; और
जिसे गुरु
होने का भाव
हो, वह तो
अभी शिष्य
होने के भी
योग्य नहीं।
यह
प्रार्थना
कहती है... इस
ऋषि को यह भी
पता नहीं कि
मुझे क्या
रक्षा की
जरूरत है न:
मैं... मैं तो जानता
हूं मैं तो पा
लिया हूं मैं
तो पहुंच गया
हूं मैं तो
दूसरों को
पहुंचा रहा
हूं तो मुझे
क्या रक्षा की
जरूरत है? --इसे
ऐसा कोई भी
खयाल नहीं है;
यह कहता है
हम दोनों की
रक्षा करना।
और यही अपूर्व
विनम्रता
उसके गुरु
होने का रहस्य
और राज है। हम
भरोसा कर सकते
हैं कि यह
आदमी गहरी
बातें कह
सकेगा; हम
भरोसा कर सकते
हैं कि इस
आदमी के पीछे
अगर कोई आंख
बंद करके भी
चल जाए तो पहुंच
जाएगा--इस
आदमी के पीछे...
अगर कोई आंख
बंद करके भी
चल जाए तो
पहुंच जाएगा।
और तथाकथित
गुरुओं का अगर
कोई आंख खोल
कर भी बडी
बुद्धिमानी
से पीछा करे
तो भी ग-ए में
ही पहुंचने के
अतिरिक्त और
कहीं पहुंचने
का उपाय नहीं
है।
गुरु
है वह व्यक्ति
जिसे अब खयाल
भी नहीं रहा
कि मैं भी हूं।
ऐसी शून्यता
प्रार्थना से
भरी ही हो
सकती है; और
कोई उपाय नहीं;
और कोई
अन्यथा होने
के लिए गति
नहीं।
''हम दोनों की
रक्षा करना।
हम दोनों का
पालन करना। ''
रक्षण
काफी नहीं है, मालूम
होता। पालन की
बात थी। रक्षण
में नहीं आ गई
क्या पालन की
बात? नहीं,
रक्षण तो
बिलकुल
आध्यात्मिक
बात है, रक्षण
आध्यात्मिक
बात है। उसमें
तो सिर्फ इस
बात की तरफ
प्रार्थना है
कि हमें कुछ
भी पता नहीं
उस जगत का
जहां हम चल पड़े...
शिष्य को तो
पता है ही
नहीं, गुरु
भी कहता है, मुझे भी
क्या पता है?
अदभुत
रहे होंगे ये
लोग;
क्योंकि
गुरु बनना हो
तो पहले तो
दावा करना ही
पड़ता है कि
मुझे पता है, नहीं तो कौन
गुरु मानेगा?
एक शिष्य
बनाना
मुश्किल है, अगर गुरु
दावा न करे कि
मुझे पता है।
यह गुरु कहता
है : क्या, मुझे
भी तो कुछ पता
नहीं... रक्षण
करना। अज्ञात
की तरफ चल पड़े
हैं; खोल
दी है नाव उस
सागर में
जिसका नक्शा
हाथ में नहीं;
8?
सर्वसार
उपनिषद
दूसरी
तरफ किनारा भी
है,
यह भी सिर्फ
सपनों में
देखा है, विजन्स
में। यह भी आकांक्षा
ही हुं। पता
नहीं, दूसरा
किनारा होता
भी है या नहीं
होता। यह
किनारा छोड़ते
हैं जो हम
जानते थे और
उस किनारे की
तरफ जा रहे
हैं जिसका हमे
कोई भी पता
नहीं है।
शिष्य
की बात बिलकुल
ही ठीक है, लेकिन
गुरु भी कहता
है : ' मेरी
भी रक्षा करना।
' गुरु को
तो पता होना चाहिए
दूसरा किनारा।
यह
थोड़ा जटिल है।
असल में दूसरे
किनारे का नाम
है : अज्ञात, दि
अननोन। दूसरे
किनारे का
अर्थ ही है कि
जो कभी भी शात
नहीं होता--हम
कितना ही जान
लें, फिर
भी अनजाना रह
जाता है।
नहीं, जो
अतात है वह तो
जाना भी जा
सकता है, लेकिन
अज्ञेय, अननोएबल--
कितना ही जान
लेते हैं और
फिर भी लगता
है अनजाना रह
गया; कितना
ही पहचान लेते
हैं फिर भी पहचान
नहीं बनती, आलिंगन हो
जाता है फिर
भी स्पर्श
नहीं होता, छू लेते हैं,
पकड़ लेते
हैं, फिर
भी पकड़ में
कुछ आता नहीं--जान
लेता है
व्यक्ति, फिर
भी जानता हूं
ऐसी कोई
अस्मिता भीतर
निर्मित नहीं
होती।
इसलिए
गुरु कहता है
कि 'मेरी भी
रक्षा करना। '
लेकिन
रक्षण तो ठीक
है... अज्ञात है
यात्रा, अनजान
है राह, दूसरे
किनारे का पता
नहीं, मंजिल
है धुंधली..
रक्षा करना।
दूसरे सूत्र
में कहता है।
''हम दोनों का
पालन भी करना।''
क्यों? पालन
तो बिलकुल ही
शरीर के तल की
बात है। लेकिन
कारण है
प्रार्थना के
लिए। और कारण
यह है : जो
व्यक्ति भी
परम सत्य की
खोज में
निकलता है, वह अपने इस
अहंकार को भी
छोड़ देता है
कि मेरा पालन
मैं करता हूं
क्योंकि
जिसको यह खयाल
है कि मेरी
रोटी मैं
कमाता हूं और
मेरा मकान मैं
बनाता हूं और
मेरे वस्त्र
मेरे हैं, और
मेरे शरीर को
मैं चलाता हूं
और अगर मैं
फिकर न करूं
तो सब मिट
जाएगा--ऐसा
व्यक्ति बहुत
मूढ़ता में जी
रहा है; और
ऐसा व्यक्ति
चाहे तो संसार
में मजे से
यात्रा कर
सकता है, लेकिन
सत्य की ओर
यात्रा नहीं
कर सकता।
इसलिए
ऋषि कहता है :
हमारा पालन भी
तुम्हीं करना, क्योंकि
अब से हम
कर्ता भी न रह जाएंगे;
अब से हम यह
भाव भी नहीं
रख सकेंगे कि
हम अपना--कम से
कम अपना पालन
करने वाले हैं।
हम
तो बहुत
मजेदार लोग
हैं! हम अपना
पालन तो करते
नहीं, दूसरों
तक का करते है।
यह
ऋषि कहता है :
हमारा पालन भी
अब हमारा नहीं
होगा, अब तू ही
समझ, अब तू
ही जान; अब
तू रखेगा जैसा,
वैसा
रहेंगे; अब
तू बचाएगा तो
ठीक और
मिटाएगा तो ठीक;
अब तेरी
मर्जी ही
हमारा जीवन है।
तो अब हम वह
कर्ता का भाव
भी छोडते हैं।
यह
भाव छोड़ना
कीमती है, क्योंकि
यात्रा में
सहयोगी होता
है। असल में
जो कर्ता के
भाव से बंधा
है उसकी नाव इसी
किनारे से
बंधी रहेगी, दूसरे
किनारे की तरफ
वह बढ़ नहीं
सकता। सब
खूटियां उखाड़
लेनी पड़ेगी इस
किनारे से, एक भी खूंटी
गड़ी रखनी
खतरनाक है।
अहंकार किसी
भी तरह
निर्मित होता
हो तो खूंटी
बन जाता है।
इतना भी काफी
है कि मैं
अपना खुद
कमाता हूं खुद
खाता हूं।
ऋषि
कहता है हमारा
पालन भी...!
''हम दोनों का
पालन करना। हम
दोनों साथ ही
पुरुषार्थ
करें।''
एक
तो शान है जो
गुरु शिष्य को
देता है; जैसा
विश्वविद्यालय
में होता है, विद्यालय
में होता है।
ज्ञान एक
संगृहीत राशि
है, गुरु
जानता है, विद्यार्थी
नहीं जानता है;
गुरु
विद्यार्थी
को ट्रांसफर
करता है, देता
है, हस्तांतरित
करता है--गुरु
देता है, शिष्य
लेता है। इसको
हम जानते हैं
भलीभांति।
ऐसा शान वस्तु
की भांति है, धन की भांति
है--मेरे हाथ
में है, मैंने
दे दी। बाप के
हाथ में पैसा
है, वह
बेटे को दे
देता है, गुरु
के हाथ में
शान है, वह
शिष्य को दे
देता है--ट्रांसफर
है। लेकिन एक
ऐसा शान है जो
ट्रांसफरेबल
नहीं है। एक
ऐसा शान है जो
गुरु देता
नहीं; दे
नहीं सकता, जिसे देने
का कोई उपाय
ही नहीं है...
हां, दोनों
अगर साथ-साथ
पुरुषार्थ
करें तो शायद
विद्यार्थी
तक संक्रमित
हो जाता है।
इस फर्क को
समझ लें।
एक
शान है जो हम सब
जानते हैं--जो
दिया जाता है; मिलता
है; कोई दे
देता है। मैं
जानता हूं आप
नहीं जानते, मैं आपको दे
देता हूं आप
भी जान जाते
हैं। निश्चित
ही ऐसा जान
शब्द का होगा,
ऐसा शान
ऊपरी होगा। जो
शब्द से दिया
जा सके वह
शब्द से
ज्यादा गहरा
नहीं हो सकता।
उसका वजन उतना
ही होगा जितना
शब्द का होता
है। उसका
मूल्य भी उतना
ही होगा। और
जरूरी नहीं कि
जो मैंने आपको
दिया वह मैं जानता
था, वह
मुझे किसी ने
दिया होगा, मैंने आपको
दे दिया, आप
किसी और को दे
देंगे।
इसलिए
अज्ञानी भी
काफी ज्ञान का
लेन-देन करते हैं, काफी
करते हैं। और
जब काफी जोर
से सर्कुलेट
होता है यह
शान तो ऐसा
लगता है समाज
बहुत ज्ञानी
होता जा रहा
है। हम इसी
तरह के शान
में जी रहे
हैं... इस सदी
में; क्योंकि
ज्ञान बहुत
सर्कुलेट
होता है। जो
लोग
अर्थशास्त्र
समझते हैं, वे मतलब
समझते हैं।
अगर हमारे पास
यहां हजार
रुपये हों, और सब अपने-
अपने खीसे में
रखे बैठे रहें
तो हजार ही
होंगे। लेकिन
अगर काफी
लेन-देन चले, दस रुपये
मैं आपसे लूं
र आप उससे लें,
वह इसको दे,
उसको दे, तो यहां एक
हजार रुपये
में लाखों का
काम हो जाए--सर्कुलेशन!
तो
अर्थशास्त्री
कहते हैं कि
मनी मस्ट
कंटीन्यू टु
सर्कुलेट
जस्ट लाइक
ब्लड इन दि
बॉडी। नहीं तो
थोड़ी रह जाती
है। धन अगर
चले न तो थोड़ा
मालूम पड़ता है।
जो समाज धन को
जितना ज्यादा
चलाता है, उतना
ज्यादा धनी
मालूम पड़ता है।
मुसलमान
गरीब रह गए, क्योंकि
इस्लाम ने एक
बहुत कीमती
बात शुरू में
पकड ली कि
ब्याज पाप है।
अब जब ब्याज
पाप होगा तो
मनी का
सर्कुलेशन बंद
हो जाता है; धन की गति
बंद हो जाती
है। तो
मुसलमान जमीन
पर गरीब रह
गया, क्योंकि
उसने एक कस्त
कर लिया कि
ब्याज नहीं लेना
है। अगर ब्याज
नहीं लेंगे तो
धन रुक जाएगा;
क्योंकि धन
चलेगा कैसे? ब्याज के
सहारे चलता है,
यात्रा
करता है। एक
खीसे से दूसरे,
दूसरे से
तीसरे.. एक
रुपया हजार
रुपये हो जाते
हैं घूम कर।
अमरीका
सबसे ज्यादा
धनी है, क्योंकि
सबसे ज्यादा
धन की गति है--जोर
से चलता है।
रुपया चले जोर
से तो गरीब भी
अमीर मालूम
पड़ते हैं, रुपया
न चले तो अमीर
भी गरीब है।
हमारे मुल्क
के कई अमीर
बिलकुल गरीब
हैं; रुपया
चलता ही नहीं।
वे तिजोड़ी में
गड़ा कर उसके
ऊपर बैठे हुए
हैं। तिजोडी
अगर आप नीचे
से निकाल लें
तो भी उनकी अमीरी
में कोई फर्क
नहीं पड़ेगा--पता
भर नहीं चलना
चाहिए कि
तिजोड़ी निकल
गई; खयाल
काफी है कि
तिजोड़ी नीचे
है, बस। तो
वे अमीर हैं।
अमीर
भी गरीब हो
सकता है अगर
धन न चले, और धन
चले तो गरीब
भी अमीर मालूम
हो सकता है।
ज्ञान
भी ऐसा ही है।
जोर से चलता
है।
युनिवर्सल
एजुकेशन है।
सारी दुनिया
में अब शिक्षा
है,
शान जोर से
चलता है--एक
इसको देता है,
दूसरा उसको
देता है, तीसरा
उसको देता है--सब
एक-दूसरे को
ज्ञान देते
चले जाते हैं।
ऐसा लगता है
कि भारी शान
है; और शान
बिलकुल नहीं
है।
जिस
ज्ञान की ऋषि
बात कर रहे
हैं,
वह ऐसा
ज्ञान नहीं है
जो कोई आपको
दे सके।
गुरु
करता है. हम
दोनों साथ ही
पुरुषार्थ कर
सके,
बस इतनी
कृपा चाहिए।
हम दोनों साथ
जीएंगे, साथ
ध्यान करेंगे,
साथ
प्रार्थना
करेंगे, साथ
पूजा करेंगे,
साथ उठेंगे,
बैठेंगे...
मौन में, शब्द
में, विचार
में। हम साथ
होंगे--तेरी
आकांक्षा में,
तेरे
प्रयास में र
तेरे पाने की
दौड़ में। हम
साथ ही स्वप्न
देखेंगे, साथ
ही गीत गाएंगे,
साथ ही चुप
होंगे; साथ
ही हम सूरज को
देखेंगे, साथ
ही रात के
आकाश के तारों
को--हम साथ
होंगे।
इसको
सत्संग कहा है
: हम साथ होंगे।
शायद इस साथ
होने में वह
जो नहीं दिया
जा सकता सीधे-सीधे, उसका
देना हो जाए; वह जो नहीं
दिया जा सकता
सीधे हाथों से,
वह शायद
परोक्ष में, पीछे से
चुपचाप
यात्रा कर जाए।
जो शब्द में
नहीं कहा जा
सकता शायद मौन
में उतर जाए।
जो नहीं दिया
जा सकता, सिर्फ
साथ रहने से
शायद
संक्रमित हो
जाए।
बोधिधर्म
हिंदुस्तान
से गया चीन...
चौदह सौ वर्ष
पहले, उसका
शिष्य
हुइनेंग
वर्षों तक
बोधिधर्म के साथ
था। हुइनेंग
अनेक बार पूछा
कि कब देंगे...
वह शान कब
देंगे? कब
आएगा वह क्षण
जब मेरी झोली
भर देंगे? घूम
रहा हूं पीछे
तुम्हारे, समय
बीता जाता है,
जीवन का कोई
भरोसा नहीं है।
बोधिधर्म
हंसता और कुछ
भी न कहता।
धीरे- धीरे
हुइनेंग ने
पूछना भी छोड़
दिया। पूछने
में कोई सार
भी न था, वह
आदमी सिर्फ
हंसता था। और
फिर एक दिन वह
घटना घटी कि
आधी रात
हुइनेंग उठा
और बोधिधर्म
को हिलाने
लगा... कि कम से
कम देने के
पहले कह तो
देते! और यह
क्या वक्त
चुना? आधी
रात सोते में!
बोधिधर्म फिर
भी हंसा; उसने
कहा : चुपचाप
सो जाओ। फिर
भी हंसा--वैसा
ही हंसा जैसे
पहले हंसता था।
फिर अब
यह बार-बार
हुइनेंग उससे
पूछने लगा :
कुछ तो बताओ!
कैसे दिया यह ? यह
कैसे मिला
मुझे? कुछ
तो पहले कहते!
कुछ तो बताते!
भर दिया पूरा,
और खबर भी न
दी! तो
बोधिधर्म
कहता : मुझे भी
कहां पता था, किस क्षण यह
घटना घटेगी!
दिस
ट्रांसमिशन...
यह कब होगा? यह किसी को
भी पता नहीं
है। ' बट वी
एंडेवर
टुगेदर। ' पर
हम साथ-साथ
चलें, उठें,
बैठें--साथ-साथ
जीएं, हो
जाएगा। अगर
बुझे दीये को
हम जले हुए
दीये के पास
रख दें, कब
किस झोंके में,
हवा की किस
लहर में जलती
लौ बुझे हुए
दीये के करीब
आ जाएगी--कब? नहीं कहा जा
सकता। और कब
दूसरा दीया भी
जल उठेगा और
ज्योति पकड़ लेगा।
बस ऐसा ही... ऐसी
ही घटना घटती
है।
तो
गुरु कहता है.
हम दोनों
साथ-साथ
पुरुषार्थ करें, तो
शायद... शायद वह
घटना घट जाए--जो
नहीं दिया जा
सकता वह दे
दिया जाए।
लेकिन वह घटना
इतनी ही मांग
करती है कि दो--वह
जो जानता है
वह, और जो
नहीं जानता है
वह; वह
जिसे हम गुरु
कह रहे हैं वह,
और जिसे हम
शिष्य कह रहे
हैं वह, वे
साथ होने को
राजी हो जाएं।
गुरु
से सीखना नहीं
पड़ता, गुरु के
साथ होना काफी
है। पर सीखना
सरल और साथ
होना मुश्किल।
सीखने में तो
हम बहुत दूर
खड़े होकर सीख
लेते हैं, निकट
आने की कोई
जरूरत नहीं
होती। साथ
होने के लिए
बहुत निकटता
चाहिए; एक
आंतरिकता
चाहिए--एक
भरोसा, एक
ट्रस्ट, एक
गहरी श्रद्धा,
एक प्रेम, एक पागलपन--किसी
को अपने से भी
ज्यादा अपने
निकट मानने की
क्षमता
चाहिए... तो
ट्रांसमिशन
होता है।
अब
वह बुझा हुआ
दीया डरा हुआ
है,
दूर-दूर रहे,
और जले हुए
दीये के पास
भी न आए, और
अगर जले हुए
दीये की लपट
कभी उसके पास
जाए तो लपट से
डर कर और दूर
सरक जाए, तो
कठिन हो जाता
है।
तो
गुरु कहता है
इतना ही, ऋषि
कहता है इतना
ही. 'हम
दोनों साथ ही
पुरुषार्थ
करें।'
वह
यह नहीं कहता
कि शिष्य
पुरुषार्थ
करे। इतना ही
उचित था। नहीं? इतना
ही काफी था।
सभी
गुरु शिष्य से
कहते हैं--मेहनत
करो,
श्रम करो, कोई गुरु
नहीं कहता कि
हम दोनों साथ
ही पुरुषार्थ
करें।
क्योंकि, ध्यान
रहे, शिष्य
का निकट होना
ही काफी नहीं,
गुरु का
निकट उपलब्ध
होना उससे भी
ज्यादा जरूरी
है। बुझे हुए
दीये की लौ
बिलकुल पास भी
आकर बैठ जाए
लेकिन जले हुए
दीये को लौ
अकड़ से भरी हो
और हवा के
झोंके में
झुकती ही न हो,
अपनी अकड़
में बंद हो, क्लोज्ड हो,
तो कुछ भी न
होगा।
गुरु
अपने को गुरु
समझता हो तो
कुछ भी न होगा, क्योंकि
वह देने को
तैयार है, लेकिन
साथ होने को
तैयार नहीं
है... और साथ हुए
बिना दिया
नहीं जा सकता।
इसलिए
पुराना साधक
जब खोजने जाता
था,
तो जिस जगह
वह अपने गुरु
के पास रहता
था उसको कहते
थे : गुरुकुल--दि
फैमिली ऑफ दि
मास्टर। वह
केवल गुरु का
परिवार था; उसमें जाकर
वह सम्मिलित
हो जाता था--ए
मेंबर ऑफ दि
फैमिली।
इकट्ठा हो
जाता था, एक
हो जाता था।
पर यह निकटता
दोहरी है, सभी
निकटताए
दोहरी होती
हैं। इसलिए
गुरु कहता है.
हम दोनों
एकसाथ
पुरुषार्थ
करें--पराक्रम
करें, श्रम
करें, साधना
करें।
गुरु
की भी बडी
साधना है। सभी
जानने वाले
गुरु नहीं हो
पाते हैं, इसे
ठीक से समझ
लें। इस जमीन
पर बहुत लोग
जान लेते हैं,
लेकिन जना
नहीं पाते।
जान लेना इतना
कठिन
नहीं...।
बुद्ध से किसी
ने आकर पूछा
है एक दिन कि
ये दस हजार
भिक्षु हैं
आपके पास, वर्षों
से आप इन्हें
समझाते हैं, सिखाते हैं,
चलाते हैं
साधना के पथ
पर, कितने
लोग इनमें से
आप जैसे हो गए?
कितने लोग
बुद्ध बन गए
हैं?
स्वभावत:
प्रश्न
बिलकुल उचित
है;
बुद्ध की
परीक्षा है
इसमें कि
कितने लोगों
को बुद्ध
बनाया! बुद्ध
ने कहा. इनमें
बहुत लोग बुद्ध
हो गए हैं। तो
उस आदमी ने
पूछा. एक भी
दिखाई नहीं
पड़ता? तो
बुद्ध ने कहा :
क्योंकि वे
गुरु नहीं हैं।
जाग
जाना एक बात
है,
लेकिन
दूसरे को
जगाना बिलकुल
दूसरी बात है।
जरूरी नहीं कि
जागा हुआ
दूसरों को जगा
ही पाए; क्योंकि
जागे हुए को
भी अगर दूसरे
को जगाना हो
तो वहीं आकर
उतर कर खड़ा हो
जाना होता है
जहां दूसरा
खड़ा है..
उन्हीं
अंधेरी
घाटियों में,
उन्हीं
लोगों के निकट
जो भटक रहे
हैं, उन्हीं
का हाथ हाथ
में लेकर। कई
बार तो उसे उस
यात्रा पर भी
थोड़ी दूर तक
उनके साथ जाना
पड़ता है, जहां
सिवाय नरक के
और कुछ भी
नहीं। अगर मैं
आपका हाथ पकड़
कर थोड़ी दूर
आपके साथ चलूं
तो ही इतना
भरोसा पैदा
होता है कि कल
अगर मैं अपने
रास्ते पर
आपको लेकर
चलने लगू तो
आप मेरे साथ
चल पाएं।
शिष्य
के साथ गुरु
को चलना पड़ता
है,
ताकि गुरु
के साथ शिष्य
चल पाएं। और
बहुत बार गुरु
को ऐसे रास्ते
पर चलना पड़ता है,
जिस पर उसे
नहीं चलना
चाहिए था।
जिसे बदलना है
उसके पास आना
जरूरी है।
इसलिए
गुरु कहता है : ''हम
दोनों साथ ही
पराक्रम करें,
पुरुषार्थ
करें। हम
दोनों साथ ही
साधना करें।''
एक
साधना है सत्य
को जानने की, और
एक बिलकुल
दूसरी साधना
है सत्य को
संक्रमित
करने की--अलग, बिलकुल अलग।
जैनों
ने फर्क किया
है...'केवली ' उसे
कहते हैं जैन,
जिसने परम
ज्ञान पा लिया; 'तीर्थंकर ' उसे कहते
हैं, जिसने
परम ज्ञान
पाया और जो
शिक्षक भी है,
गुरु भी है--वह
तीर्थंकर है।
तीर्थंकर और
केवली में और
कोई फर्क नहीं
है। केवली वह
है जिसने
ज्ञान पा लिया--दि
अल्टीमेट
नॉलेज उसके
पास है, लेकिन
वह गुरु नहीं
है। ही कैन
नॉट ट्रांसफर
इट; वह
दूसरे को नहीं
दे पाता। उसे
समझ ही नहीं
पड़ता कि दूसरे
को कैसे दे?
इसे
ऐसा समझें।
इस
जमीन पर ऐसे
बहुत कम लोग
हैं जिनके
जीवन में
कविता का जन्म
नहीं होता; कभी
न कभी कोई गीत
की कड़ी भीतर
गज कर जन्म
लेने लगती है,
लेकिन कवि
बहुत कम हैं।
गुनगुनाहट तो
बहुत लोगों को
होती है, लेकिन
इससे ही कोई
संगीतज्ञ
नहीं हो जाता।
अगर आपके भीतर
संगीत भी जन्म
जाए, तो भी
आप उसे गा
पाएंगे बाहर,
यह जरूरी
नहीं है।
इसलिए बहुत
बार आपको ऐसा
लगता है किसी
की कविता को
देख कर कि अरे,
यह तो वही
है जो मैंने
कभी बनाई होती;
यह गीत वही
है जैसा मैंने
गाया होता; यह धुन तो
ठीक वही है जो
कई बार मेरे
भीतर गज गई जिसे
मैं बाहर नहीं
ला पाया। किसी
चित्रकार का
चित्र देख कर
कभी लगता है कि
यह तो मैं भी
चित्र बनाना
चाहता था, किसी
और ने बनाया।
सच तो यह है कि
जब आप किसी का
चित्र पसंद करते
हैं, तो उस
पसंद का इसके
सिवाय और कोई
मतलब नहीं होता
कि अगर आप बना
सकते तो आप ने
इसे बनाया
होता--आपकी ही
प्रतिध्वनि, लेकिन आप
नहीं कर पाए।
बहुत
बार सत्य तो
शात हो जाता
है,
शान का
आविर्भाव
होता है, जन्म
होता है, लेकिन
उसे दूसरे तक
कैसे
पहुंचाएं? हाउ
टु कम्युनिकेट
इट? कैसे
दूसरे तक
संवादित करें?
गुरु
बड़ी अलग बात
है। और गुरु
वही हो सकता
है जो शिष्य
के साथ पुन: साधना
करने को तैयार
है--पुन:! गुरु
वही हो सकता
है जो शिष्य
के साथ पहले कदम
से फिर चलने
को राजी है--अ ब
स से फिर
यात्रा शुरू
करने को राजी
है;
फिर शिष्य
का हाथ पकड़ कर
जो वहां से
शुरू कर सकता
है, जहां
से अब उसे
शुरू के करने
की कोई जरूरत
नहीं। जो
मंजिल पर खड़ा
है, और
मंजिल पर खड़े
होकर जो
यात्रा के
पहले कदम को
उठाने का
शिष्य के साथ
साहस जुटा
सकता है, वही
केवल गुरु हो
पाता है।
इसलिए
गुरु कहता है : ''हम
दोनों साथ ही
पुरुषार्थ
करें। हम
दोनों की
विद्या
तेजस्वी हो।''
...'
हम दोनों की
'--कहे ही
चला जाता...' हम
दोनों की
विद्या
तेजस्वी हो।'
एक
मजे की बात :
बहुत बार तो
ऐसा होता है
कि गुरु खुद
शिष्य को
समझाते दफे
पहली दफा बहुत
सी बातें समझ
पाता है--पहली
दफा। बहुत बार
किसी को
समझाना ही
स्वयं समझने
का सुगमतम
मार्ग है।
बहुत बार सत्य
की जब अनुभूति
भीतर होती है
तो अनुभूति तो
हो जाती है, लेकिन
अनुभूति करने
वाला खुद भी
उसे पूरा नहीं
समझ पाता कि
क्या हो गया? वॉट हैज
हैपंड? दि
थिंग हैज
हैपंड, दि
एक्सप्लोजन
हैज हैपंड, बट ईवन दि
परसन इज नॉट
एबल टु
ग्रास्प दि
टोटेलिटी ऑफ
इट। वॉट हैज
हैपंड?
बुद्धा
रिमेन्ड
साइलेंट फॉर
सेवन डेज
ऑफ्टर हिज
एनलाइटनमेंट।
वॉय?
वन ऑफ दि
रीजस, अमंग्स
मैनी, इज
दिस : फॉर सेवन
डेज ही ट्राय
टु कामिहेंड ''
वॉट हैज
हैपंड? ''क्या
हुआ? घट
गई घटना। सात
दिन बुद्ध
सोचते रहे...
क्या हुआ? अवाक
हो जाता है, जब कोई सत्य
के समक्ष खड़ा
होता है पहली
बार। दिखता है
सब, समझ
कुछ भी नहीं
आता--सब समझ
आता है, फिर
भी कुछ समझ
नहीं आता; कुछ
पकड़ नहीं आता,
क्या हो गया
न: जो कल तक था, नहीं है; जो
नहीं था, वह
है; जिसे
माना था कि यह
यथार्थ है, वह स्वप्न
हो गया; जिसे
कभी स्वप्न
में भी नहीं
जाना था वह आज
सत्य की तरह
सामने खड़ा है;
जो खोजने
निकला था वह
खो चुका है-- और
जिसे यह मिला
है सत्य, यह
कौन है, यह
भी समझ में
नहीं आता।
मिस्टर
इकहार्ट को जब
पहली बार
समाधि का अनुभव
हुआ,
तो उसने दो
सवाल पूछे--उसने
एक सवाल यह
पूछा कि यह
क्या हो रहा
है? और
दूसरा सवाल यह
पूछा कि यह
किसको हो रहा
है? तो
उसका एक शिष्य
करीब था, इकहार्ट
का; उसने
कहा : कम से कम
एक बात तो मैं
भी आपको कह
सकता हूं कि
यह आपको हुआ
है; यह
क्या आप पूछते
हैं कि किसको
हुआ है? इकहार्ट
ने कहा : तुझे
पता नहीं, क्योंकि
जो खोजने
निकला था वह
इस होने में
कहीं खो गया; और जिसको यह
हुआ है वह
उतना ही
अपरिचित है मुझे,
जितना यह.
जो हुआ है।
बहुत
बार तो जब वह
दूसरे को
समझाने जाता
है तभी उसे
साफ होता है
कि क्या हुआ
है।
तो
गुरु कहता है :
हम दोनों की
विद्या
तेजस्वी हो, हम
दोनों का
जानना प्रखर
होता जाए।
हमारे जानने
की धार तेज हो;
हमारे
ज्ञान की
ज्योति और
चमके.. यह
चमकती ही चली
जाए।
ऐसा
कोई क्षण नहीं
आता जहां
परमात्मा से
यह कहा जा सके--बस, अब
काफी है। ऐसा
कोई क्षण आता
ही नहीं कि जब
कोई परमात्मा से
कह सके कि बस, अब चाहो तो
मेरी बुद्धि
को जंग मारो, चलेगा। नहीं,
ऐसा कोई
क्षण आता ही
नहीं। विद्या
ऐसी तलवार है
जिस पर धार पर
धार रखी जा सकती
है। अनंत-अनंत
धारें और फिर
भी, फिर भी
और कुछ चमकने
को सदा शेष रह
जाता है। यही
अनंतता है, यही असीमता
है।
इसलिए
गुरु अभी भी
कहता है : 'हम
दोनों की
विद्या
तेजस्वी हो। '
असल में
गुरु यह कहता
है कि कोई
कारण नहीं है
मानने का कि
मैं ज्ञानी हो
गया हूं--अभी
भी ज्ञान
चाहिए; अभी
भी अज्ञान है।
शायद
जो जानता है
उसे जितना अज्ञान
दिखाई पड़ता है
उतना अज्ञानी
को नहीं दिखाई
पड़ता है। अभी
भी है। और ऐसा
न समझें कि
जरूरी है कि
अज्ञान रहा हो।
ऐसा न समझें
कि जरूरी है
कि इस व्यक्ति
को विद्या की
और तेजस्विता
चाहिए हो। पर
यह प्रार्थना
प्रीतिकर है
और सांकेतिक
है। यह कहती
है कि प्रतिभा
सदा ही विनम्र
है;
और प्रतिभा
प्रार्थना
करने में
संकोच नहीं करती
है! सिर्फ
कमजोर
प्रार्थना
करने में डरते
हैं। कमजोर
मांगने तक की
हिम्मत नहीं
जुटा पाते।
जिससे सब-कुछ
मिल सकता है
उसके सामने भी
वे ऐसे खड़े
रहते हैं जैसे
उनके पास
सब-कुछ है।
उसके द्वार पर
भी वे अपनी
अकड़ को कायम
करके वापस लौट
आते हैं--भिक्षा
का पात्र पीछे
छिपा रखते हैं
कि कहीं वह
आगे दिखाई न
पड़ जाए।
लेकिन
जो जानता है, वह
यह भी जानता
है कि जानना
कोई स्टैटिक,
कोई थिर
घटना नहीं है,
कोई तालाब
जैसी घटना
नहीं है बंद--जानना
एक
सरित-प्रवाह
है--कोई अंत
नहीं.. कोई अंत
नहीं--नदी की
धार की तरह
बढ़ता जाता है,
बढ़ता जाता है,
बढ़ता जाता
है। यही है
गरिमा.. कि
ज्ञान का कोई
अंत नहीं है।
अगर शान का भी
अंत आ जाए, तो
शान मुर्दा हो
जाएगा। शान का
फूल खिलता ही
जाता है, खिलता
ही जाता है--ऐसा
समझें कि
खिलता ही जाता
है--और
पंखुरियां, और
पंखुरियां...
और ऐसा कोई
क्षण नहीं आता,
जिस क्षण हम
कह सकें कि यह
फूल हो गया, यह सदा कली
ही रहता है--कितना
ही खिलजाए, फिर भी कली
रहता है।
''हम किसी से
द्वेष न करें।
''
जानने
की इस यात्रा
में हम किसी
से द्वेष न करें, इसकी
जरूरत क्या? इररिलेवेंट
मालूम होता है,
असंगत
मालूम होता है--
अचानक, एकदम...
जैसे बात कहां
चलती थी और
कहां पहुंच
गई! सत्य की
खोज है, अज्ञात
की यात्रा है,
ठीक है; तेजस्विता
चाहिए
प्रतिभा की, मेधा चाहिए;
जाग्रत
चैतन्य चाहिए,
ठीक है; गुरु-शिष्य
साथ
पुरुषार्थ
करें, ठीक
है--पर अचानक...' हम
किसी से द्वेष
न करें, ' इसकी
क्या संगति? इसका क्या रिलेवेंस?
यह दूसरे से
द्वेष की क्या
बात?
यह
समझ लें।
ऋषि-वचन
कभी भी असंगत
नहीं होते--बिलकुल
असंगत दिखाई
पड़ते हों तो
भी। और ऐसा भी
लगता हो कि
ऋषि एक जगह से
दूसरी जगह छलांग
लगा गया हो, बीच
में कोई सेतु
नहीं है, बिलकुल
दिखाई पड़ता
हो... और उपनिषद
में बहुत मौके
आएंगे ऐसे, जब दिखाई
पड़ेगा कि यह
बात तो बिलकुल
कहीं से कहीं
पहुंच गई; इसमें
बीच में कोई
तुक नहीं, कोई
जोड़ नहीं, तब
भी थोड़ा जल्दी
मत करना, क्योंकि
ऋषि कुछ आंतरिक
जोड़ जानते हैं
जो हमें दिखाई
नहीं पड़ते; उन्हें कुछ
सेतु मिले हुऐ
हैं, जो
हमें अदृश्य
हैं। वे कुछ
भीतरी
संगतिया
समझते हैं, जो हमारी
बुद्धि में अब
तक प्रवेश
नहीं कर पाई
हैं।
''हम किसी से
द्वेष न करें।''
असल में जब
भी कोई आदमी
किसी भी चीज
की खोज पर जाता
है तो अक्सर
दूसरे के
द्वेष के कारण
जाता है; दूसरे
की ईर्ष्या के
कारण जाता है।
सत्य की खोज
तक में आदमी
दूसरे की
ईर्ष्या में
जा सकता है।
जान की
आकांक्षा भी
दूसरे की
ईर्ष्या और
प्रतिस्पर्धा
हो सकती है।
एक
मित्र मेरे
पास आठ दिन
पहले ही आए थे; वे
कहने लगे कि
बड़ी अशांति
रहती है, बड़ी
बेचैनी रहती
है। यह
परमात्मा को
कैसे पाया जाए?
मैंने उनको
कहा कि यह
अशांति किस
कारण रहती है--परमात्मा
की कोई प्यास
है भीतर, इसलिए
अशांत हैं? कोई पीड़ा है
भीतर... कि वही
है जीवन का
मूल्य, वही
है अर्थ? उसको
नहीं पाएं तो
व्यर्थ है, ऐसी कोई
प्रतीति है? कोई स्वाद
मिला है जीवन
में कभी
परमात्मा का,
उस स्वाद की
याददाश्त
पीछा करती है--खींचती
है, बुलाती
है फिर-फिर? किसी झरोखे
से कभी दर्शन
हुए हैं उसके--
थोड़े बहुत ही
सही, दूर
से ही सही... कि
फिर अब उसे
भूलना
मुश्किल हो गया?
और बार-बार,
बार-बार वही
झरोखा खयाल
में आता है कि
वहीं कैसे
पहुंच जाएं? उन्होंने
कहा : यह कुछ भी
नहीं। जब आपको
मिल सकता है
तो मुझे क्यों
नहीं मिल सकता?
जब
रामकृष्ण को
मिल सकता है
तो मुझे क्यों
नहीं मिल सकता?
और जब रमण
को मिला तो
मेरा ही क्या
कसूर है? आप
सब लोगों की
बातें सुन-सुन
कर ही बेचैन
हूं। ऐसे न
मुझे कोई
स्वाद है, न
कोई प्यास है;
मुझे यह भी
पक्का भरोसा
नहीं आता कि
है भी, या
नहीं है।
तो
आपको दिखाई न
पड़े,
लेकिन ऋषि
ठीक
प्रार्थना कर
रहा है, वह
कह रहा है : 'हम
किसी से द्वेष
न करें '--हम
इस कारण तेरी
खोज में न आ
जाएं कि कोई
और लोग भी
तेरी खोज कर
लिए हैं तो हम
कैसे पीछे रह
सकते हैं?
हम
सब एक-दूसरे
से प्रतिस्पर्धा
में लगे हैं--मकान
और फर्नीचर की
ही नहीं, परमात्मा
की भी। अगर
मनुष्य-जाति
के इतिहास से
सौ नाम अलग कर
दिए जाएं, तो
हमें ईश्वर का
खयाल ही शायद
भूल जाए। वे
सौ लोग हममें
बड़ी ईर्ष्या
जगाते हैं। एक
बुद्ध पैदा हो
जाता है और
हमारे प्राण
बड़े संकट में
पड़ जाते हैं...
कि अगर इस
आदमी को मिल
गया, तो
मैं कैसे पीछे
रह सकता हूं?
तो
हम पहले तो सब
उपाय करते हैं
कि इसको मिला
नहीं; वह
हमारी तरकीब
है-- सेल्फ
डिफेंस। पहले
तो हम सब उपाय
करते हैं कि
मिला-विला नहीं..
एक दिन मैंने
देखा, यह
आदमी बिलकुल
गुस्से से देख
रहा था; एक
दिन मैंने
देखा कि यह
बहुत बढ़िया, सुस्वादु
भोजन कर रहा
था, एक दिन
मैंने देखा कि
इस आदमी में
भी अहंकार मालूम
पड़ता है। पहले
तो हम समझाने
की सब अपने को
कोशिश करते हैं
कि इसको मिला
नहीं, ताकि
यह द्वेष की
झंझट से हम
बचें, ताकि
यह
प्रतिस्पर्धा
हममें पैदा न
हो, लेकिन
ये बुद्ध जैसे
लोग मानते ही
नहीं; वे
हमारी फिकर
नहीं करते। वे
अपने ढंग से
जीए ही चले
जाते हैं। फिर
धीरे-- धीरे
हमको बेचैनी
होने लगती है
कि मालूम होता
है इसको मिल
ही गया। हम सब
उपाय कर लिए, इसको कोई
फिकर नहीं
होती--लगता है
इसको कुछ मिल
ही गया। हम
पत्थर मार कर
जांच कर लेते
हैं, जहर
पिला कर जांच
कर लेते हैं, सूली लगा कर
जांच कर लेते
हैं--हम सब कर
लेते हैं, फिर
हमें शक बढ़ने
लगता है; फिर
एक दिन हमें
लगता है कि
नहीं, इसको
मिल गया है।
तब तत्काल
हमारी दौड़
शुरू होती है
कि अब हमें कैसे
मिल जाए?
सत्य
की खोज में भी
लोग द्वेष से
जाते हैं, यह
सोच कर कठिनाई
मालूम होगी, लेकिन यही
है सच। वहां
भी ईर्ष्या है।
हम दूसरे को
धनी तो देख ही
नहीं सकते, दूसरे को
ज्ञानी भी
नहीं देख सकते।
हम, दूसरा
कुछ पा ले यह
देख ही नहीं
सकते।
तो
ऋषि कहता है : ''हम
किसी से द्वेष
न करें। ''
यह
असंगत नहीं, बहुत
संगत है।
क्योंकि जो
द्वेष से जा
रहा है
परमात्मा की तरफ, वह द्वेष से
और कहीं भी
पहुंच जाए, परमात्मा तक
नहीं पहुंच
पाएगा। द्वेष
से धन तक
पहुंचा जा
सकता है। कोई
कठिनाई नहीं
है। सच तो यह
है कि बिना
द्वेष के धन
तक पहुंचा ही
नहीं जा सकता।
संसार में कोई
भी यात्रा
करनी हो तो
प्रतिस्पर्धा
अनिवार्य है।
और जितना जहर
हो आपकी
प्रतिस्पर्धा
में, उतने
शायद आप सफल
हो जाएं।
दूसरे से
जितनी ज्यादा
गहन ईर्ष्या
हो, जलन हो,
उतनी ही
आपके पैरों
में ताकत आ
जाती है।
लेकिन
परमात्मा की
तरफ नहीं..
क्योंकि जिसे
अभी दूसरा
दूसरा दिखाई
पड़ रहा है उसे
परमात्मा दिखाई
नहीं पड़ सकेगा।
और जो अभी
दूसरे के शान
से आनंदित
नहीं होता, उसे अभी शान
की प्यास भी
पैदा नहीं हुई
है।
एक
और तरह का
आदमी भी है जो
बुद्ध के पास
जाकर इस फिकर
में नहीं पड़ता
कि इसको मिला
या नहीं मिला।
जो इस चिंता
में--जो इस
चिंता मे नहीं
पड़ता कि इसको
मिला या नहीं
मिला, वह इस
चिंता में भी
कभी नहीं पड़ता
कि इसको अगर मिला
है तो मुझे
मिलना चाहिए।
नहीं, वह
बुद्ध की
सुगंध से
आह्लादित
होता है; वह
बुद्ध के
संगीत से
प्रभावित
होता है; वह
बुद्ध को देख
कर आश्वस्त
होता है, ईर्ष्या
से नहीं भरता।
बुद्ध को देख
कर वह आश्वस्त
होता है। वह
कहता है कि
ठीक है, जो
प्यास मेरे
भीतर थी, इस
आदमी में वह
सागर तक पहुंच
गई। तो- मैं
अपनी प्यास का
पीछा कर सकता
हूं भरोसे के
साथ। वह बुद्ध
को देख कर एक
श्रद्धा को
उपलब्ध होता
है--इस
श्रद्धा को कि
असंभव भी संभव
है; इस
श्रद्धा को कि
जो बहुत दूर
है, वह भी
बहुत पास है।
बुद्धत्व तो
बहुत दूर है, लेकिन बुद्ध
तो बहुत पास
हैं, उनके
चरण तो हाथ
में लिए ही जा
सकते हैं। और
अगर बुद्ध के
चरण हाथ में
लिए ही जा
सकते हैं, तो
आज नहीं कल
बुद्धत्व भी
पास आ सकता है--इस
श्रद्धा को।
तब
द्वेष नहीं है
कोई,
तब सिर्फ
धन्यवाद है, अनुग्रह है--इसमें
भी कि किसी का
फूल खिल गया
तो वह 'अनुगृहीत
होता है, क्योंकि
उसे अपनी कली
का भी खयाल आ
गया, स्मरण
आया अपना; अपनी
सुध आई, सुरति
जगी। तब जो
यात्रा है वह
द्वेष की
यात्रा नहीं
है। वह बड़े
आनंद की, बड़े
प्रेम की, दूसरे
से असंबंधित
यात्रा है।
इसलिए
ऋषि कहता है. '' हम
किसी से द्वेष
न करें। '' दूसरे
से द्वेष न हो,
अपनी ही
प्यास हो, तो
मनुष्य
अत्यंत सरलता
से उस जगह
पहुंच जाता है,
जहां जाकर
वह कह सके-- '' ओम
शांति। '' जहां
वह कह सके कि
सब शांत हुआ; सब विराम को
उपलब्ध हुआ; सब आनंद हुआ।
यह उपनिषद का
सूत्र...
कल
सुबह के लिए
दों-तीन-चार
सूचनाएं आपको
दे दूं फिर
हमारी रात की
बैठक पूरी
होगी। एक तो
पहली सूचना
पूरे शिविर के
लिए। इन आने
वाले सात
दिनों में
आपको इस भांति
जीना है कि
आपकी
जीवन-ऊर्जा कम
से कम व्यय हो।...
कम से कम व्यय
हो,
क्योंकि हम
यहां जिस दिशा
में खोज करने
आए हैं उसके
लिए इतनी
जीवन-ऊर्जा
चाहिए कि आप
अगर व्यर्थ
व्यय करें तो
आपके पास
शक्ति नहीं
होगी उस खोज
में जाने के
लिए। तो आपके
दीये का तेल कहीं
और जल जाए, तो
फिर जिस
ज्योति को
जलाने के लिए
आप इकट्ठेहुए
हैं, वह न
जल पाएगी; आपके
दीये का तेल
बचना चाहिए।
तो
इन सात दिनों
के लिए बिलकुल
ही जितनी
ऊर्जा
संरक्षित कर
सकें, करें।
इस ऊर्जा के
संरक्षण के
लिए अपनी
इंद्रियों के
द्वार जितने
बंद कर सकें, कर लें; क्योंकि
वे ही आपकी
शक्ति की
ऊर्जा, ऊर्जा
को क्षय करने
की
व्यवस्थाएं
हैं। जितना
ज्यादा आंख
बंद रख सकें, आंख बंद
रखें।
तो
आप,
कल सुबह
आपको
पट्टियां मिल
जाएंगी या
शायद अभी मिल
जाएंगी। तो आप
चौबीस घंटे...
जब आपको चलने
के लिए जरूरत
हो तो थोड़ी सी आंख
से पट्टी हटा
लें और उतना
ही देखें चार
कदम, जितना
काफी है...
पांचवां कदम
भी मत देखें, बस चार कदम
जमीन देख कर
चलते हुए आ
जाएं। जैसे ही
आ जाएं जगह पर,
आंख बंद कर
लें, पट्टी
नीचे सरका लें।
पूरे दिन सुबह
से दिन भर
आपकी आंख पर
पट्टी होनी
चाहिए। आपकी आंख
आपकी शक्ति का
अधिकतम व्यय
करती है, उसे
भीतर इकट्ठा
करें। और आंख
की शक्ति
सर्वाधिक
इकट्ठी करनी
जरूरी है, क्योंकि
जिस चीज को हम
देखने चल रहे
हैं, उसमें
भीतरी आंख का
उपयोग करना है।
और शक्ति वही
है... जो बाहर की आंख
के काम में
आती है, वही
भीतर की आंख
के काम में
आती है--दि सेम
एनर्जी हैज टु
बी स्व।
इसलिए
तो हम कहते
हैं ऋषि को
द्रष्टा.
देखने वाला।
इसलिए हम उस
अनुभूति को
कहते हैं
दर्शन। भीतरी आंख
को वह शक्ति
मिल जानी
चाहिए जो आपकी
बाहरी आंख को
मिल रही है, इसलिए
आंख को बंद कर
लें। सात दिन आंख
की सारी शक्ति
भीतर जा रही
है। आंख को
बंद करें और
दिन भर यह
खयाल करें कि
आपके दोनों आंखों
की जो
शक्ति है वह
दोनों आंखों के बीच
तीसरी आंख की
तरफ, दोनों
भौहों के बीच
में, माथे
में--उस तरफ बह
रही है। जब भी
आपको खयाल आ
जाए... आंख बंद
है, आप
खाली बैठे हैं,
खयाल करें
कि दोनों आंखों
की
शक्ति भीतर, तीसरी आंख
की तरफ, दोनों
आंखों के मध्य
में बह रही है--उस
तरफ जा रही है;
दोनों तरफ
से बहती हुई
तीसरी आंख में
प्रवेश कर रही
है। तो आपके
ध्यान में
अभूतपूर्व
गति हो सकेगी--एक।
जहां
तक बने कान
बंद रखें, कुछ
मत सुनें; क्योंकि
जिसे भीतर की
ध्वनियां
सुननी हैं, उसे बाहर के
सुनने से थोड़ा
विश्राम ले
लेना जरूरी है।
नहीं तो भीतर
की ध्वनियां
हैं बहुत
सूक्ष्म, और
बाहर का
उपद्रव है
भारी, वे
सूक्ष्म
ध्वनियां
हमें सुनाई ही
नहीं पड़ती हैं।
तो थोड़ा टयून
करना जरूरी है।
तो
बाहर से कान
बंद रखें, रूई
डाल लें, कुछ
भी डाल लें, कान बंद
रखें, दिन
में जितने समय
आपको कान की
कोई जरूरत
नहीं--और
मुश्किल से
दों-चार मिनट
जरूरत पड़ेगी
कान की, बाकी
कोई जरूरत
नहीं है आपको।
मेरे अलावा आप
जहां भी हैं, कान का
उपयोग मत करें,
बंद रख लें--
और पूरे समय
खयाल रखें कि
कुछ भीतर तो
नहीं हो रहा
है जो सुना जा
सके--बस, जस्ट
ए
रिमेंबरिंग..
कि कुछ भीतर
तो नहीं है जो सुना
जा सके। और
आपकी कान की
ऊर्जा भीतर की
तरफ बहनी शुरू
हो जाएगी; और
आपको ध्यान
में भीतर की
ध्वनियां
सुनाई पड़ सकेंगी,
और भीतर के
दृश्य दिखाई
पड़ सकेंगे।
कान, आंख
और आपके ओंठ।
तीसरी चीज, ओंठ बंद रखें;
कम से कम
बोलें। न
बोलें, इससे
बेहतर और कुछ
नहीं--बिलकुल
न बोलें, चुप
रहें, क्योंकि
कान और आंख के
मामले में तो
आपको मैं कह
सकता हूं आप
मुक्त हैं--अगर
चाहें तो आंख
खुली रखें, और चाहें तो
कान खुले रखें;
नुकसान
आपका ही होगा
सिर्फ। लेकिन
ओंठ के मामले
में आप दूसरे
को भी नुकसान
पहुंचाते हैं।
इसलिए ओंठ के
मामले में तो
आप ट्रेसपास
करते हैं।
बोलें तो
बिलकुल नहीं,
क्योंकि
सुनना-देखना
आपकी मर्जी है।
जिसको जहां
जाना हो, जो
करना हो, कर
सकता है। अगर
आप ध्यान करने
आए हैं, तो
तो बंद रखें।
अगर आप ऐसे ही
भूले- भटके
गलती से आ गए
हैं, तो
आपकी मर्जी।
लेकिन अगर आप
भूले- भटके भी
आ गए हैं तो भी
बोलने की
आज्ञा आपको
नहीं है; क्योंकि
उसमें आप
दूसरे पर हमला
करते हैं--जब
आप बोलते हैं
तो दूसरे को
भी नुकसान
पहुंचाते हैं।
तो कृपा करके
बोलना तो
बिलकुल नहीं
है।
यहां
कई लोग इसीलिए
आ गए होंगे कि
उन्हें बहुत सी
बातचीत जो वे
अपने गांव में
नहीं कर पाते
होंगे, या
शिकार नही
मिलते होंगे,
विक्टिम्स,
वे उनको इधर
मिल जाएंगे; उनसे वे
बातचीत कर
लेंगे। यहां
बातचीत
बिलकुल नहीं
चलेगी।
कैम्पस
बिलकुल चुप और
सन्नाटे में
होना चाहिए--आप
जहां हैं, आपके
कमरे में
सन्नाटा होना
चाहिए--न गाना,
न गीत, न
बात, न चीत,
कुछ भी नहीं;
सात दिन चुप
रहें।
जिंदगी
भर बात की है, क्या
पा लिया? फिर
सात दिन के
बाद जिंदगी भर
करना है। या
और ज्यादा
जिंदगी का
इरादा हो तो
बहुत ज्यादा
जिंदगी करते
रहना; लेकिन
सात दिन मेरी
मान लें, और
बातचीत बंद कर
दें। हो सकता
है जो बोल-बोल
कर नहीं जाना
जा सका, वह
अबोल में झलक
मिल जाए। और
शक्ति इकट्ठी
हो तो हम
ध्यान में
गहरे उतर सकें।
ये तीन तो
बिलकुल बंद
रखने हैं आपको--और
चौथा :
ध्यान
में हम यहां
काफी श्रम
करेंगे, इसलिए
बाहर आप जितना
शारीरिक श्रम
कम करें उतना
अच्छा है।
घूमने-घामने
मत जाएं कि इस
स्पॉट को
देखना है, उस
स्पॉट को। आप
थक कर यहां
लौटेंगे, फिर
मुझसे आकर
कहते हैं कि
यह ध्यान में
कुछ हुआ नहीं।
यहां आप
बिलकुल ताजे
लौटें, क्योंकि
यहां काफी
श्रम करना है।
तो आप कहीं और
न जाएं; चलने-फिरने
का काम अभी मत
करें।
इन
तीन बैठक के
अलावा जितना
समय आपके पास
हो,
वृक्षों की
छाया में कहीं
लेट जाएं, चुपचाप
पड़े रहें--विश्राम
करें। ज्यादा
से ज्यादा
विश्राम, ज्यादा
से ज्यादा
इंद्रिय-
निरोध।
भोजन
कम से कम लें, क्योंकि
बहुत ऊर्जा
आपके भोजन के
पचाने में ही
व्यय होती है।
और उस भोजन को
पचाने में
व्यय होती है
जो सिवाय
बीमारी के और
कुछ पैदा नहीं
करता। कम भोजन
लें, हलका
पेट रखें, ताकि
ऊर्जा ऊपर की
तरफ जा सके।
जितना पेट
भारी हो, ऊर्जा
नीचे की तरफ
बहती है, क्योंकि
उसे पेट में
जाना पड़ता है।
इसलिए खाने के
बाद नींद
मालूम पड़ती है,
क्योंकि
मस्तिष्क को
अपनी ऊर्जा
पेट को दे देनी
पड़ती है। तो
मस्तिष्क
सुस्त हो जाता
है, सो
जाता है।
इसलिए भूखे
अगर हों, उपवास
अगर किया हो
तो रात नींद
नहीं आती।
उसका कुल कारण
इतना है कि
ऊर्जा ऊपर की
तरफ बहती रहती
है और
मस्तिष्क के
तंतु जगे रहते
हैं, क्योंकि
उनमें ऊर्जा
भरी रहती है।
पेट की तरफ
ऊर्जा ज्यादा
बहे, तो
चैतन्य की तरफ
बहुत काम करना
मुश्किल हो जाता
है; इसलिए
कम भोजन लें।
सात दिन कम
भोजन लेने से
कुछ भी नुकसान
नहीं होगा, फायदे जरूर
बहुत हो सकते
हैं... शरीर को
भी हो सकते
हैं। कम भोजन
लें, हलका
भोजन लें। ऐसा
लगे कि जैसे
कुछ खाए नहीं
हैं, बस
इतना लें। तो...
ऐसा नहीं कह
रहा हूं कि
बिलकुल मत लें,
क्योंकि
बिलकुल न लेने
वाला दिन भर
भोजन की सोचने
लगता है। लें
जरूर; कम
लें। और यह
बड़े मजे की
बात है कि जो
ज्यादा खाने
वाले हैं, उनसे
अगर कहो, कम
लो, तो
उनको ज्यादा
कठिनाई होती
है, उनसे
कहो, बिलकुल
मत लो, तो
वे जल्दी राजी
हो जाते हैं।
उसका कारण है।
एक अति से
दूसरी अति पर
जाना हमेशा
आसान होता है;
बीच में
रुकने में
मुश्किल होती
है। आपसे कहो
कि मिठाई
बिलकुल मत खाओ,
तो आप
कहेंगे, अच्छा,
चलो, देखेंगे
नहीं उस तरफ।
लेकिन मिठाई
थाली में रखी
है और आपसे
कहें कि बस दो
चम्मच खा लो; तब असली
कठिनाई आती है।
यह तो हद हो गई।
क्योंकि
टेम्पटेशन
सामने है।
भोजन
आप करें कम।
यह
आपके सात दिन
के लिए
सामान्य
व्यवस्था।
यहां
सुबह पंद्रह
मिनट कीर्तन
होगा शुरू में।
उस कीर्तन में
सबको खड़े होकर
नाचना है आनंद
से। आंख पर
पट्टियां
रहेंगी
कीर्तन में भी; दूर-दूर
फैल जाना है, आंख पर पट्टियां
रहेंगी और
नाचना है--
आनंद- भाव से
कीर्तन करना
है, नाचना
है। पंद्रह
मिनट तक आनंद
में, कीर्तन
में प्रवाहित
होना है, वह
मैं सुबह सारी
बात आपको समझा
दूंगा। फिर
पंद्रह मिनट
सिर्फ धुन
बजती रहेगी, कीर्तन बंद
हो जाएगा, फिर
आपको मुक्त, अकेले नाचते
रहना है। और
फिर तीस मिनट
लेट कर मुर्दे
की तरह
विश्राम में
पड़ जाना है।
वह सुबह का
ध्यान होगा।
दोपहर
और रात्रि के
ध्यान के
संबंध में कल
सुबह आपको समझाऊंगा।
एक
विशेष प्रयोग
और इस शिविर
में जोड़ना है, वह
रात आप जब
बिस्तर पर
सोएंगे उस समय
के लिए, वह
आपको मैं समझा
दूं; क्योंकि
वह आज रात से
शुरू करना है,
और वह
अनिवार्य है।
क्योंकि उसे
आप करेंगे तो
आप इतनी ऊर्जा
जगा लेंगे कि
कल आपकी ऊर्जा
का हम उपयोग
कर सकेंगे।
एक
तो मैंने आपसे
कहा कि ऊर्जा
बचानी है, व्यर्थ
खर्च न हो, वह
एक बात हुई, अब मैं आपसे
कहता हूं
ऊर्जा जगाने
का उपाय, हाउ
टुक्रिएट इट।
अभी मैंने
आपसे कहा कि
कैसे जो आपके
पास है उसको
खर्च न करें
ताकि वह बच
जाए; और अब
आपको दूसरी
बात कहता हूं
कि कैसे उसे
भीतर पैदा
करें।
मनुष्य
के पास जितनी
भी ऊर्जा है, वह
आमतौर से
साधारण
दैनंदिन
कामों में
खर्च होती है,
अगर उसमें
से कुछ बच
जाती है, तो
वह बची हुई
ऊर्जा आपके
सेक्स-सेंटर
पर, आपके
काम-केंद्र पर
इकट्ठी हो
जाती है। वही
बची हुई ऊर्जा
आपको
कामवासना में
जगाती है, उत्प्रेरित
करती है।
इसीलिए
बहुत से लोग
कम भोजन करें
तो ब्रह्मचर्य
को साधना आसान
हो जाता है; क्योंकि
ऊर्जा ज्यादा
पैदा नहीं
होती, इसलिए
काम-केंद्र को
अतिरिक्त
ऊर्जा पैदा न
होने के कारण
मिलती ही नहीं।
लेकिन वह
ब्रह्मचर्य
का धोखा है।
उस
ब्रह्मचर्य
में कोई बहुत
सार नहीं है।
वह केवल जरूरी
ऊर्जा से नीचे
तल पर जीने के
कारण होता है।
तीस दिन आप
भोजन न करें
तो आपको, पुरुष
हैं तो स्त्री
में रस चला
जाएगा; स्त्री
हैं तो पुरुष
में रस चला
जाएगा। लेकिन
वह रस इसलिए
नहीं चला गया
है कि आप बदल गए,
वह रस केवल
इसलिए चला गया
है कि जो
ऊर्जा उस रस
के लिए काम
में आती थी वह
अब पैदा ही
नहीं हो रही है।
तीस दिन बाद
आपको तीन दिन
भोजन दिया जाए,
तो तीस दिन
का उपवास जो
पैदा कर पाया
वह तीन दिन का
भोजन मिटा
देगा; आप
वापस अपनी जगह
खड़े हो जाएंगे।
काम-केंद्र
पर आपकी अतिरिक्त
ऊर्जा इकट्ठी
होती है, एक
बात; और
दूसरी बात :
काम-केंद्र
ऊर्जा पैदा
करने का डाइनैमो
है--मनुष्य के
भीतर, समस्त
प्राणियों के
भीतर।
जो
सेक्स-सेंटर
है,
काम-केंद्र
है, वह
हमारे भीतर
शक्ति को पैदा
करने का यंत्र
है। आप चाहें
तो उस यंत्र
से और भी
शक्ति पैदा कर
सकते हैं। हम
तो केवल उस
यंत्र का
उपयोग शक्ति
को व्यर्थ
उलीचने में
करते हैं, पैदा
करने में नहीं
करते। इस
काम-केंद्र से
जो ऊर्जा पैदा
हो सके, और ऊपर
की तरफ
प्रवाहित हो
सके, तो
वही कुंडलिनी
बन जाती है।
तो
यह रात का
प्रयोग
कुंडलिनी का
प्रयोग है, और
इसको अगर आपने
किया तो ये
सात दिन आपके
अभूतपूर्व हो
जाएंगे; इन्हें
फिर जीवन में
भूलना असंभव
हो जाएगा।
रात
जब आप अपने
बिस्तर पर सोए
आज... और रोज.. तो
जैसे ही आप
बिस्तर पर सोए
जाकर--सब निपट
गए हैं, अब आप
नींद में जाने
को हैं, संभव
हो तो सारे
वस्त्र अलग
करके चादर ओढ़
कर या कंबल ओढ़
कर अंदर लेट
जाएं। पीठ पर
लेटना आसान हो
तो पीठ पर, पेट
पर लेटना आसान
हो तो पेट पर--वह
आप तय कर
लेंगे एक-दों
दिन प्रयोग
करके। सारे
शरीर को ढीला
छोड़ दें, आंख
बंद कर लें और
अपने ध्यान को
सेक्स- सेंटर
पर ले जाएं, काम-केंद्र
पर ले जाएं--और
अनुभव करें कि
काम-केंद्र
आपका भीतर
सक्रिय हो रहा
है और उसमें
शक्ति
परिभ्रमण कर
रही है। जैसे
कि पानी में
कभी आपने भंवर
देखे हों, जोर
से पानी की
लहर घूम रही
है, भंवर
बन गई है। कोई
भी चीज भंवर
में फेंक दें
तो गोल चक्कर
काटने लगे, ठीक ऐसा ही
भीतर अनुभव
करें कि आपके
काम- केंद्र
पर जोर से
शक्ति घूम रही
है। अगर उसमें
एक फूल फेंक
दें तो वह गोल
चक्कर खाकर
बीच में डूब
जाएगा। ऐसा
खयाल करें। एक
तीन मिनट के
ऐसे खयाल में
आपके
भीतरकंपन शुरूहो
जाएंगे।
ये
कंपन
प्राथमिक रूप
से ठीक वैसे
ही होंगे जैसे
कि संभोग में
होते हैं, शरीर
कैपने लगेगा।
जब शरीर कैपने
लगे तो शरीर
को आप पूरा
कंपन दें, को-ऑपरेट
करें, सहयोग
करें। आप
बिलकुल ऐसा
खयाल करें कि
जैसे कि आप
संभोग में ही
उतर रहे हैं
और पूरा
शरीरकपित हो
रहा है। पूरे
शरीर को कैपने
दें। पूरा
शरीर गर्म हो
जाएगा।
और
जैसे ही आपको
लगे कि पूरा
शरीर कंपने
लगा और काम-केंद्र
पर ऊर्जा तेजी
से चक्कर
लगाने लगी, तत्काल
अपने को ढीला
छोड़ दें और एक
ही खयाल करें
कि काम-
केंद्र से
ऊर्जा ऊपर की
तरफ उठनी शुरू
हो गई। जैसे
एक आग की लपट
नीचे से चले
ऊपर की तरफ।
और उस ऊर्जा
को मस्तिष्क
के उसी केंद्र
पर ले आना है, दोनों आंखों
के बीच
में-- भूमध्य
में, थर्ड
आइ सेंटर पर..
नीचे से उठा
कर ऊपर ले आना
है। वह ऊर्जा
ऊपर बहने
लगेगी। आप
इतना ही खयाल
करें कि दोनों
आंखों के बीच
में आकर
इकट्ठी हो गई
और अब वहां उसने
घूमना शुरू कर
दिया।
फिर
काम-केंद्र को
बिलकुल भूल
जाएं और इसी आंख
पर खयाल
रखे-रखे
चुपचाप सो
जाएं। सुबह जब
नींद खुले तो
पहला खयाल यही
करें--दोनों आंखों
के बीच में
इस केंद्र का; और
आप पाएंगे कि
वहां सेंसेशन
हो रहा है; वहां
तेजी से गति
हो रही है।
वहां स्पष्ट
गति मालूम
पड़ेगी।
यह
आपको रोज
रात्रि में कर
लेना है--पूरे
सात दिन। तो
यह आपकी
अतिरिक्त
ऊर्जा, जो
कामवासना में
प्रवाहित
होती है, उसको
ऊपर भेज देगा;
और
काम-केंद्र जो
ऊर्जा पैदा कर
सकता है, उसे
पैदा कर देगा।
और वह सारी
ऊर्जा आपकी
तीसरी आंख को
मिल जाएगी।
उसी तीसरी आंख
पर हम सुबह के
प्रयोग में
काम करेंगे।
इसलिए रात इस
प्रयोग को कर
लेना
अनिवार्य है।
यह
आज के लिए
सूचना।
अभी
हम एक
पांच-सात मिनट
कीर्तन
करेंगे। सब
लोग उसमें खड़े
होकर नाचेंगे, कीर्तन
करेंगे और फिर
हम विदा होंगे।
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