केनोपनिषद-ओशो
(प्रश्न
बहुत है उत्तर
एक)
ओशो
द्वारा
केनोपनिषद पर
माउंट आबू में
दिनांक 8
जूलाई से 16
जूलाई
1973 तक
अंग्रेजी में
दिए गए 17 अमृत
प्रवचनों का
अनुवादित
संकलन।
जागरण की
और—पहला प्रवचन
शांति पाठ
ओम सहनाववतु।
सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं
करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु।
मा विद्विषाव
है।
ओम
शांति: शांति:
शांति।
आप्यायंतु
ममाडंगानि
वाक् प्राणश्चक्षु:श्रोत्रमथो
बलिमिंद्रयाणि
च सर्वाणि।
सर्वं
ब्रह्मौपनिषदं
ब्रह्मनिराकुर्यां
मा मा
ब्रह्मनिराकरोत,
अनिराकणमस्त्वनिराकरणं
मेsस्तु।
तदात्मनि
निरते य
उपनिषत्सु
धर्मास्ते
मयि संतु, ते मयि
संतु।।
आवाहन
ओम, ब्रह्म
हम दोनों की
रक्षा करे। वह
हम
दोनों
का पोषण करे।
हम दोनों को
शक्ति मिले।
इस
स्वाध्याय से
हम दोनों
प्रकाशित
हों। हम दोनों
एक—दूसरे
से घृणा न
करें। ओम, शाति, शाति,
शांति।
ओम, मेरे अंग
मजबूत हो।
मेरी वाणी, प्राण, दृष्टि,
श्रवण और
सारी
ज्ञानेंद्रिया
भी शक्तिशाली हों।
सारा
अस्तित्व ही
उपनिषदों का
ब्रह्म है।
मैं
उस ब्रह्म को
कभी मना नहीं
करूं;
वह
ब्रह्म भी
मुझे मना नहीं
करे।
कभी कोई
मना नहीं हो।
कम से
कम मेरी ओर से
कभी कोई मना
नहीं हो।
उपनिषदों
में जो भी
सदगुण हैं,
वे
मुझमें निवास
करें; मैं
जो कि आत्मा
के प्रति
भक्तिपूर्ण
हूं।
वे
सदगुण मुझमें
निवास करें। ओम, शाति, शाति,
शाति।
मुझे
पता नहीं कि
कहां से शुरू
करूं या कहां
खतम करूं, क्योंकि
जीवन का न तो
कोइ्र
प्रारंभ है और
न कोई अंत है।
जैसे कि तुम्हारे
चारों और
पहाड़ियां है, अथवा कि
बादल मंडरा
रहे है, या
कि जैसे आकाश
है उसी तरह
तुम्हारा भी
न कोई प्रारंभ
है और न कोई
अंत है। न तो कभी
कुछ शुरू होता
है और न ही कुछ
समाप्त होता
हे। और जो भी
शुरू होता है
और समाप्त भी
होता है वह
अप्राकृतिक
ही होगा।
प्रकृति जैसी
है वैसी है—वह
बनी रहती है; वह सदा से
है।
इस
लिए जब भी उस
अत्यंत के
बारे में
सवांल उठता
है। उस
सर्वोच्च, उस
अंतरतम के
आधारभूत स्वरूप
के बारे में
सवाल उठता है
तो यह कहना
कठिन हो जाता
है कि कहां से
शुरू करें और
कहां खत्म
करें। वह सदा—सदा
है। वह सदा—सदा
से था और सदा—सदा
वैसा ही
रहेगा। उसका
कभी भी कोई प्रारंभ
नहीं हुआ और न
ही उसका कभी अंत
होगा। इसलिए
मैं मध्य से ही
शुरू करूंगा,
क्योंकि
वही एकमात्र जगह
है जहां से कि
शुरू किया जा सकता
है। और मैं मध्य
में ही समाप्त
करूंगा
क्योंकि कोई
और दूसरा रास्ता
नहीं है
समाप्त करने का।
पहली
बात जो मैं तुम्हें
कहना चाहूंगा वह
यह है कि
मैंने यह
उषनिषद कोई व्याख्या
करने के लिए
नहीं चुना है।
व्याख्याएं पहले
ही बहुत है और उन्होंने
कभी किसी को कुछ
खास लाभ नहीं
पहुंचाया।
उनसे बहुतों
को नुकसान भले
ही पहुंचा हो,बे उनके मार्ग
में अवरोध भले
हीं बनी हो,किंतु उनसे
किसी को कोई मदद
नहीं मिली।
व्याख्याएं मदद
कर भी नहीं
सकतीं
क्योंकि वे
निम्न श्रेणी की
होती हैं। मैं
इस उपनिषद पर
व्याख्या
करने नहीं जा
रहा है। बल्कि
ठीक उसके
विपरीत, मैं
इसके साथ प्रतिसंवेदन
करने जा रहा
हूं। मैं
सिर्फ
प्रतिध्वनि
करूंगा, फिर—फिर
प्रतिध्वनि
करूंगा।
वस्तुत:
जो भी मैं
कहूंगा वह
बुनियादी रूप
से मेरा ही
होगा। उपनिषद
तो सिर्फ एक
बहाना है।
इसके माध्यम
से मैं अपने
को ही कहूंगा—इसे
स्मरण रखें।
जो भी मैंने
अनुभव किया है, जो भी
मैंने जाना है
और जीया है, मैं उसी की
बात करना
चाहूंगा
क्योंकि मुझे
ऐसा प्रतीत
होता है कि
वही बात
उपनिषदों के
ऋषियों के
बारे में भी
है। उन्होंने
भी वही जाना
है, वही
जीया है, वही
अनुभव किया है।
उनके कहने का
ढंग चाहे अलग
हो सकता है, उनकी भाषा
भी बहुत
पुरानी है; उनकी भाषा
को फिर उघाड़ना
पड़ेगा ताकि वह
तुम तक पहुंच
सके, आज के
समकालीन हो
सके। किंतु
उन्होंने जो
भी कहा है, वह
आधारभूत है 1
जब भी कोई
शून्य को
उपलब्ध हो जाता
है, जब भी
कोई मिट जाता
है, तो ऐसी
घटना घटती है—वही
जो कि
उपनिषदों के
ऋषियों को घटा
था। जब भी तुम
नहीं हो, तो
परमात्मा
उपस्थित हो
जात है। जब तक
तुम हो, परमात्मा
अनुपस्थित ही
रहता है।
तुम्हारी
उपस्थिति ही
समस्या है, तुम्हारी
अनुपस्थिति
ही द्वार है।
ये ऋषि
पूर्णत: 'कुछ
नहीं' हो
गये हैं। हम
उनका नाम तक
नहीं जानते।
हमें यह भी
पता नहीं कि
इन उपनिषदों
का लिखने वाला
कौन है, किसने
इन्हें
संप्रेषित
किया।
उन्होंने इन
पर हस्ताक्षर
भी नहीं किये।
उनकी कोई
तस्वीर, कोई
चित्र भी नहीं
है। उनके जीवन
के बारे में
भी कुछ पता
ठिकाना नहीं
है। वे तो
सिर्फ
अनुपस्थित हो
गये हैं। जो
भी सत्य है
वही उन्होंने
एक वाहन की भांति
कहा है। वे
किसी भी भांति
उसकी
अभिव्यक्ति
में संलग्न
नहीं हुए हैं।
उन्होंने
अपने को बिलकुल
ही, पूरी
तरह से ही
अनुपस्थित कर
लिया है, ताकि
वह संदेश
पूर्णरूप से
उपस्थित हो
सके।
ये
उपनिषद
शाश्वत हैं।
वे इस देश के
नहीं हैं, वे किसी
धर्म के भी
नहीं हैं। बस
वे किसी के भी
नहीं हैं। वे
किसी के हो भी
नहीं सकते। वे
उन्हीं के हैं
जो कि कुछ—नहीं
में, शून्य
में छलांग
लगाने को
तैयार हैं।
मैंने
उपनिषदों पर
बोलने का जो
तय किया है उसका
कारण है कि वे
मेरे लिए उस
परम की
शुद्धतम अभिव्यक्ति
हैं, जो कि
हो सकती है।
वास्तव में यह
कठिन है, एक
तरह से असंभव
है मन के लिए
उसे कहना जो
कि मन के पार
है। एक अर्थ
में यह
पूर्णत: असंभव
ही है—उसे
अभिव्यक्त
करना जो कि तब
जाना जाता है
जब कि तुम
गहनतम मौन की
स्थिति में
होते हो; जब
कि तुम्हारे
भीतर शब्द
नहीं होते; जब कि भीतर
बोलना पूरी
तरह बंद हो
जाता है, जब
कि बुद्धि काम
करना बंद कर
देती है, जब
कि मन नहीं
बचता कुछ भी
स्मरण रखने के
लिए, तब यह
घटित होता है;
तब तुम
अनुभूति करते
हो।
और
जब मन पुन:
लौटता है, जब
स्मृति पुन:
काम करने लगती
है, जब
बुद्धि फिर से
तुम्हें पकड़
लेती है, तब
वह अनुभव जा
चुका होता है।
अब वह अनुभव
मौजूद नहीं है;
केवल उसकी
प्रतिध्वनि, केवल उसके
कंपन पीछे छूट
जाते हैं। केवल
वही पकड़े जा
सकते हैं और
मन केवल
उन्हें ही अभिव्यक्त
कर सकता है।
इसीलिए यह बात
सदा ही असंभव
रही है, बहुत
ही कठिन, कि
जिन्होंने
जाना है वे
उसे कह सकें!
जो कुछ नहीं
जानते वे बहुत
कुछ कह सकते
हैं। किंतु जो
जानते हैं
उनके लिए थोड़ा
भी कहना बहुत—बहुत
कठिन हो जाता
है, क्योंकि
जो भी वे कहते
हैं वह असत्य
प्रतीत होता
है। वे अनुभव
को
अभिव्यक्ति
से तोल सकते
हैं क्योंकि
उनके पास
जीवंत अनुभव
है। इसलिए वे
जान सकते हैं
कि भाषा क्या
कर रही है : भाषा
उसे असत्य कर
रही है।
जब
एक जीवंत
अनुभव शब्दों
में आता है तो
वह मरा हुआ, पीला पड़
गया मालूम
होता है। एक
जीवंत अनुभव
जो कि समग्र
होता है, जिसमें
कि तुम्हारा
सारा स्वरूप
नाचता है और उत्सव
मना रहा होता
है, वह बड़ा
प्राणहीन
मालूम पड़ता है
जब उसे बुद्धि
के द्वारा
अभिव्यक्त
किया जाता है—वह
बिलकुल
अर्थहीन
प्रतीत होता
है। जो लोग
नहीं जानते, वे बहुत कुछ
कह सकते हैं
क्योंकि उनके
पास कुछ भी
नहीं है जिससे
तुलना की जा
सके। उनके पास
कोई अपना
मौलिक अनुभव
नहीं है, वे
जान ही नहीं
सकते कि वे
क्या कर रहे
हैं। एक बार
कोई जान लेता
है तो उसे पता
चलता है कि कितना
कठिन है, कैसी
समस्या है उसे
अभिव्यक्त
करना।
बहुत
से लोग मौन ही
रह गये इसी
कारण, और
बहुत से लोग
अज्ञात ही रह
गये इसी कारण।
क्योंकि हम
उसी के बारे
में तो जान
सकते हैं जो
कि कुछ बोलता
है। जैसे ही
कोई बोलता है
वह समाज में
प्रवेश कर जाता
है। जब कोई
बोलना बंद कर
देता है तो वह
समाज को छोड़ देता
है, वह
उसका हिस्सा—नहीं
रह जाता। भाषा
तो एक माध्यम
है जिसमें कि
समाज जीता है।
वह बिलकुल खून
की तरह है।
खून तुम्हारे
भीतर बहता है
इसीलिए तुम
जिंदा हो।
भाषा भी समाज
में घूमती है
और उसी से
समाज जीता है
बिना भाषा के
कोई समाज नहीं
हो सकता।
इसलिए जो लोग
मौन रह गये, वे समाज से
अलग रह गये हम
उन्हें भूल
गये। वस्तुत:
तो हमने
उन्हें कभी
जाना ही नहीं।
कहीं
पर विवेकानंद
ने कहा है और
वह बात बहुत सच
है कि
बुद्धपुरुष, कृष्ण और
क्राइस्ट
जिन्हें कि हम
जानते हैं वे
असली
प्रतिनिधि
नहीं हैं। वे
केंद्र नहीं
हैं; वे
सिर्फ परिधि
पर हैं। जो केंद्र
की घटना है, वस्तुत: वह
तो इतिहास के
लिए अज्ञात ही
रही। जो लोग
इतने मौन हो
गये कि वे
हमसे कोई बात
न कर सके, वे
तो अज्ञात ही
रहे। उन्हें
जाना भी नहीं
जा सकता, उन्हें
जानने का कोई
मार्ग भी नहीं
है। एक अर्थ में
विवेकानंद
सही हैं।
किंतु जो लोग
इतने मौन हो
गये कि
उन्होंने
अपने अनुभव के
बारे में कुछ भी
बोला, उन्होंने
हमारी कोई
सहायता नहीं
की। वे हमारे
प्रति
करुणाजनक भी
नहीं रहे। एक
अर्थों में वे
पूरी तरह
स्वार्थी ही
रहे।
यह
बात सही है कि
सत्य के बारे
में कुछ भी
कहना बहुत
कठिन है, लेकिन फिर
भी इसका
प्रयास करना
ही चाहिए।
इसका प्रयास
अवश्य करना
चाहिए
क्योंकि हलका सत्य
भी उन लोगों
के
सहायक
हो सकता है जो
कि अभी पूरी
तरह भ्रमों में
जी रहे हैं।
उनके लिए वह
बात भी जो कि
बहुत की, हलकी सी
प्रतिध्वनि
ही है वह भी
उनके रूपातरण में
सहायक सिद्ध
हो सकती है।
ऐसा
नहीं है कि बुद्ध
जो भी बोले वे
उससे बहुत
प्रसन्न हों।
जो भी वे बोले, वे जानते
हैं कि सत्य
नहीं है।
उन्होंने भी
वैसा ही अनुभव
किया जैसा
लाओत्सु ने
अनुभव किया था।
लाओत्सु कहता
है, ''जो भी
कहा जा सकता
है वह सत्य
नहीं हो सकता।
जैसे ही उसे
बोलो कि वह
असत्य हो जाता
है। ''लेकिन
फिर भी जो लोग
गहरे भ्रमों
में जी रहे हैं,
जो कि गहरी
नींद में सोए
हैं, उनके
लिए झूठी
अलार्म भी
सहायक सिद्ध
हो सकती है।
यदि उन्हें
उनकी नींद से
बाहर निकाला
जा सके, यदि
उन्हें नई
चेतना में
लाया जा सके, नये स्वरूप
में खींचा जा
सके तो झूठी
अलार्म भी
अच्छी है।
अवश्य ही जब
वे जाग
जायेंगे तब वे
खुद ही जान लेंगे
कि वह अलार्म
झूठी थी—लेकिन
उसने भी
सहायता तो की।
एक
अर्थ में जहां
भी हम है और
जैसे भी हम
हैं, हम
इतने ज्यादा
झूठे हैं कि
वास्तव में
पूर्णरूपेण
शुद्ध सत्य की
जरा भी
आवश्यकता
नहीं है। वह
तुम्हारे
भीतर प्रवेश
नहीं कर
पायेगा, उससे
तुम्हारा कोई
संबंध
निर्मित नहीं
हो पाएगा, तुम
उसे समझ ही न
सकोगे। केवल
एक जो कि
बिलकुल फीका
सत्य है, बदला
हुआ सत्य है, एक अर्थ में
झूठा सत्य है
वही तुम्हें
जंच सकता है, ठीक प्रतीत
हो सकता है, क्योंकि तब
तुम उसकी भाषा
समझ सकते हो।
उसे तुम्हारे
ही लिए
अनुवादित
किया गया है।
ये
उपनिषद बहुत
ही सरल हैं।
यह सीधे हृदय
से हृदय की
बात है। ये
दार्शनिक
नहीं हैं; बल्कि ये
धार्मिक हैं।
इनका किन्हीं
सिद्धातों, किन्हीं
धारणाओं से
कुछ लेना—देना
नहीं है; इनका
सीधा संबंध
जीवंत सत्य से
है—सत्य क्या
है और कैसे
उसे जीया जा
सकता है। तुम
उसके बारे में
सोच नहीं सकते,
तुम उसके
बारे में
चिंतन नहीं कर
सकते। तुम
सिर्फ उसमें
उतर सकते हो
और उसे अपने
भीतर उतरने दे
सकते हो। तुम
सिर्फ उसमें
गर्भित हो
सकते हो, तुम
सिर्फ उसमें
पूरी तरह डूब
सकते हो, तुम
उसमें पिघल
सकते हो।
हम
इन उपनिषदों
के बारे में
चर्चा करेंगे
और मैं इसके
प्रति एक
प्रतिसंवेदन
के रूप में
अपने अनुभव
उतारूंगा।
लेकिन वह
सिर्फ पहली
सीढ़ी ही होगी।
जब तक तुम
स्वयं उस आयाम
में नहीं
चलोगे तब तक वह
बहुत उपयोगी
नहीं होगा। जब
तक कि तुम
नहीं चलोगे और
अज्ञात में
छलांग नहीं
लगाओगे, उससे
तुम्हारी मदद
नहीं हो सकेगी।
अथवा यह भी हो
सकता है कि
उससे तुम्हें
नुकसान हो
जाये, क्योंकि
तुम
पहले
ही बहुत बोझिल
हो, बड़े
भारी हो।
तुम्हें और
बोझिल करने की
आवश्यकता
नहीं है। मैं
यहां तुम्हें
उस बोझ से
मुक्त करने के
लिए हूं।
मैं
तुम्हें कोई
नया ज्ञान
देने के लिए
नहीं हूं। मैं
सिर्फ
तुम्हें एक
प्रकार का
शुद्ध अज्ञान
सिखाने के लिए
हूं। मैं जब
कहता हूं
शुद्ध अज्ञान
तो मेरा उससे
मतलब है——शुद्ध
भोलापन, मेरा मतलब
है कि एक ऐसा
मन जो कि
रिक्त है, खुला
है। एक ऐसा मन
जो कि जानता
है, खुला
हुआ नहीं होता,
वह तो बंद
है। यह भाव कि 'मैं जानता
हूं' तुम्हें
बंद कर देता
है। और जब
तुम्हें ऐसा
लगता है कि 'मैं नहीं
जानता हूं तो
तुम खुले होते
हो। तब तुम
चलने के लिए
तैयार हो, सीखने
के लिए, यात्रा
करने के लिए
राजी हो।
मैं
तुम्हें 'अज्ञानी'
होना, अनसीखा
करना
सिखाऊंगा, न
कि शान। केवल
अनसीखा करना
ही तुम्हारे
काम का हो
सकता है। जिस
क्षण भी तुम
अनसीखा करते
हो, जिस
क्षण भी तुम
पुन: अज्ञानी
हो जाते हो, तो तुम
बच्चे की भांति
हो जाते हो, तुम भोले हो
जाते हो। जीसस
कहते हैं, ''जो
छोटे बच्चों
की भांति हैं
केवल वे ही
मेरे प्रभु के
राज्य में
प्रवेश कर
सकेंगे। '' मैं
तुम्हें छोटे
बच्चों की तरह
बना देने का प्रयास
करूंगा।
इसके
लिए बहुत
साहसिक
प्रयास करना
पड़ेगा; यह एक बड़ी से
बड़ी चुनौती है
जो तुम्हें दी
जा सकती है।
और जब तक तुम
इस चुनौती को
स्वीकार नहीं
कर लेते तब तक
तुम न तो
उपनिषद को समझ
सकते हो और न
मुझे। इस
चुनौती के
लिये कुछ
आधारभूत
चीजें खयाल में
रखनी आवश्यक
हैं।
पहली
कि तुम अपने
सारे ज्ञान को
उतार कर एक तरफ
रख दो। इन आठ
दिनों के लिए
कृपा करके
अज्ञानी हो
जाओ। तुम कोई
इससे उस शान
को भूल नहीं
जाओगे। आठ दिन
बाद तुम्हें
ऐसा लगे कि उस
सबको उठाये फिरना
ठीक है तो तुम
उसे पुन:
उठाये फिरना।
लेकिन इन आठ
दिनों के लिए
कृपा करके
अपने मन के
सारे बोझों को
उतार कर रख दो।
जो भी तुम
जानते हो यहां
उसे बीच में
दखल न डालने
दो, क्योंकि
यदि तुम उसे
बीच में ले
आये तो मैं
तुम्हारे और
मेरे बीच एक
सेतु, एक
संपर्क
निर्मित नहीं
कर सकूंगा, जिसके लिए
मैने तुम्हें
बुलाया है।
यह
एक बहुत बड़ा
प्रयोग होने
जा रहा है।
यदि तुम अपना
शान, अपना
जानना एक तरफ
रख सको और वह
तुम रख सकते
हो। केवल जरा
निश्चय करने
की जरूरत है
कि ''इन आठ
दिनों के लिए
मैं अपने शान
को नहीं
घसीटूगां; मैं
ऐसा नहीं
कहूंगा कि मैं
जानता हूं।
मैं तो सिर्फ
ऐसा ही अनुभव
करूंगा कि मैं
कुछ भी नहीं
जानता हूं। '' यदि तुम ऐसा
महसूस कर सको
तो तुम अज्ञात
में प्रवेश
करने के लिए
तैयार हो, क्योंकि
अज्ञात में
प्रवेश तभी हो
सकता है जबकि
कोई ज्ञान
नहीं हो।
ज्ञान सिर्फ
तुम्हें शांत
तक ले जा सकता
है; केवल
अज्ञान ही
अज्ञात की ओर
यात्रा करा
सकता है।
अज्ञान की बात
ही और है, यदि
तुम उसका अर्थ
समझ सको।
जो
भी तुम जानते
हो उसे उतार
कर एक तरफ रख
दो। और तुम
वस्तुत: जानते
भी क्या हो? तुम सिर्फ
जानने का
दिखावा करते
रहते हो। तुम
परमात्मा के
बारे में, आत्मा
के बारे में, स्वर्ग—नर्क
के बारे में
सिर्फ बात
करते रहते हो
और तुम्हें
कुछ भी पता
नहीं। ये झूठे
आडंबर बहुत
महंगे पड़ते
हैं क्योंकि
धीरे—धीरे तुम
स्वयं ही धोखे
में पड़ जाते
हो।
इन
आठ दिनों के लिए
पहली बात जो
तुम्हें याद
रखनी है, वह यह है कि
तुम अज्ञानी
हो। किसी से
बहस मत करो, वाद—विवाद
में मत पड़ो; न कोई
प्रश्न पूछो न
किसी को कोई
उत्तर दो। यदि
तुम जानते
नहीं हो तो
फिर तुम कैसे
बहस कर सकते
हो? कैसे
विवाद कर सकते
हो? यदि
तुम्हें कुछ
भी पता नहीं
है तो तुम
प्रश्न भी
कैसे पूछ सकते
हो? सचमुच
यदि तुम
अज्ञानी हो तो
तुम सवाल भी
कैसे पूछोगे?
क्या पूछोगे?
तुम्हारे
सवाल भी
तुम्हारे
तथाकथित शान
से उपजते हैं।
और फिर जवाब
देने के लिए
भी क्या है.
यदि तुम्हें
लगता है कि
तुम अज्ञानी
हो तो तुम चुप
ही रह जाओगे।
फिर सोचने के
लिए भी क्या
बचता है।
तुम्हारा
ज्ञान ही
तुम्हारे
दिमाग में बार—बार
वर्तुल में
घूमता रहता है।
उसे अलग रख दो—
हिस्सों में
मत रखो
क्योंकि कोई
भी हिस्सों में
उसे नहीं रख
सकता। उसे
पूरा का पूरा
ही अलग दो—समग्र।
इन आठ दिनों
के लिए निश्चय
कर लो कि तुम
वैसे ही
अज्ञानी बनकर
रहोगे जैसे कि
जन्म के समय
थे—एक बच्चे
की भांति, एक नवजात
शिशु की भांति,
जो कुछ भी
नहीं जानता, कुछ? नहीं
पूछता, वाद—विवाद
नहीं करता, तर्क—वितर्क
नहीं करता।
यदि तुम एक
छोटे बच्चे हो
सको तो? कुछ
संभव है। वह
जो कि असंभव
जैसा प्रतीत
होता है, वह
भी संभव हो
सकता है।
यदि
तुम अज्ञानी
हो तो ही मैं
काम कर सकूंगा।
केवल
तुम्हारे
अज्ञान में ही
मैं तुम्हें
रूपांतरित कर
सकता हूं।
तुम्हारा ज्ञान
ही बाधा है।
यदि तुम सोचते
हो कि
तुम्हारा ज्ञान
इतना
महत्वपूर्ण
है, इतना
अधिक काम का
है कि तुम उसे
अलग नहीं रख सकते
तो फिर यहां
से चले जाओ।
फिर यहां रुको
ही मत क्योंकि
तब यहां रुकना
व्यर्थ है।
मैं यहां
तुम्हारा
ज्ञान बढ़ाने
के लिए नहीं हूं।
मेरी जरा भी
उत्सुकता
नहीं है कि
तुम क्या
जानते हो।
मेरी तो
उत्सुकता तुम
में है—कि तुम
क्या हो। और
वह जो कि तुम
हो, वह
केवल? विस्फोटित
हो सकता है जब
कि तुम्हारे
तथाकथित ज्ञान
की बाधाएं
उठाकर फेंक दी
जायें।
अज्ञात
के लिए तैयार
हो और वह तुम
तभी हो सकते हो
जब कि तुम
अज्ञानी होने
के लिए तैयार
जाओ। और मैं
कहता हूं कि
यह एक बड़े
दुस्साहस का
काम है। अपने
को अज्ञानी
महसूस करना
मनुष्य के लिए
एक बड़े से बड़े
दुस्साहस का
काम है। क्यों? क्योंकि
ज्ञान
तुम्हें
अहंकार देता
है, ज्ञान
से तुम्हें
ऐसी प्रतीति
होती है कि
तुम भी कुछ हो—कि
तुम यह जानते
हो, कि तुम
वह जानते हो।
यदि तुम्हें
ऐसा लगे कि
तुम कुछ भी
नहीं जानते तो
तुम्हारे अहंकार
को भोजन नहीं
मिलता। यदि
तुम अज्ञानी
हो जाओ अहंकार
विसर्जित हो जाता
है।
लोग
मेरे पास आते
हैं और वे
मुझसे पूछते
है कि हम
अहंकार को
कैसे गलायें? और मैं
उनसे? हूं ''इसका
प्रयत्न ही मत
करो। तुम उसे
नहीं गला सकते।
बस अपने ज्ञान
को एक तरफ रख
दो और अहंकार
विलीन हो जाता
है। ''वह ऐसे
ही विलीन हो
जाएगा जैसे कि
ओस की बूंदें
विलीन हो जाती
जब सबेरे सूरज
निकलता है।
अहंकार भी ओस
की बूंद ही है।
जब तुम कुछ भी
नहीं जानते हो—यहीं
मेरा मतलब है
अज्ञान से—जब
तुम कुछ भी
नहीं जानते हो
और कह देते हो
कि मैं कुछ भी
नहीं जानता; मैं अंधकार
में खड़ा हूं
तब फिर
तुम्हारा
अहंकार खड़ा
किस पर होगा? कहां
जमायेगा वह
अपने पांव? ज्ञान के
साथ ही अहंकार
भी चला जाता
है। अत: पहली
बात, अज्ञानी
रहो।
दूसरी
बात, मनुष्य
का मन गंभीर
आदमियों ने
बिलकुल ही विकृत
कर दिया है।
जिन लोगों ने?
यह महान
कार्य अपने
हाथ में लिया
कि आदमियों को
गंभीर बना
दिया
उन्होंने
तुम्हारे भीतर
जो भी सुंदर
है, उसे
नष्ट कर दिया।
पुराने पुराण—पंथी,
नैतिकवादी,
धार्मिक
गुरु, मंदिर,
चर्च इन
सबने मिलकर जो
भी तुम्हारे
भीतर सुंदर है
उसे नष्ट कर
डाला—क्योंकि
सौंदर्य का
संबंध तो गैर—गंभीरता
से है।
कुरूपता
का संबंध
गंभीरता से है।
और धर्म भी
कुरूप हो गया
क्योंकि वह
बहुत ज्यादा
गंभीरता से
जुड़ गया।
गंभीर मत बनो।
इन आठ दिनों
के लिए
प्रफुल्लित
रहो, बच्चों
की तरह हंसते—खेलते
हुए रहो और
आनंद मनाओ।
स्वयं का भी
आनंद लो और
दूसरों का भी
आनंद लो। जो
सारा संसार
तुम्हारे
चारों ओर फैला
है उसका आनंद
लो। ये
पहाड़ियां
सुंदर हैं, और वर्षा भी
होगी और बादल
भी आयेंगे। यह
रात भी सुंदर
है और यह
नीरवता भी
सुंदर है।
किंतु यदि तुम
गंभीर रहे तो
तुम्हारे
द्वार बंद ही
रहेंगे। तुम
रात की इस
नीरवता के
प्रति बंद ही
रह जाओगे।
आदमी के सिवाय
अस्तित्व में
कुछ भी गंभीर
नहीं है।
आनंदित
रहो। यह थोड़ा
कठिन होगा
क्योंकि तुम
इस बुरी तरह से
ढांचों में
कैद हो, कि तुम्हारे
चारों ओर एक
प्रकार का कवच
है, और
उसको ढीला
करना कठिन है।
तुम नाच नहीं
सकते, तुम
गीत नहीं
गुनगुना सकते,
तुम कूद नहीं
सकते, तुम
रो नहीं सकते,
हंस नहीं
सकते, मुस्कुरा
नहीं सकते।
हंसने के लिए
भी तुम्हें
पहले कुछ होना
चाहिए जिस पर
तुम हंस सकी।
तुम अकारण
नहीं हंस सकते।
कोई कारण होना
चाहिए, तभी
केवल तुम हंस
सकते हो। कोई
कारण होना
चाहिए केवल
तभी तुम रो
सकते हो, चिल्ला
सकते हो।
तुम
गंभीर हो। तुम
जीवन को ऐसे
देखते हो जैसे
वह कोई व्यापार
हो अथवा गणित
हो। नहीं, जीवन ऐसा
नहीं है। जीवन
तो काव्य है, अतर्क है।
वह कोई काम
नहीं है; वह
तो खेल की
भांति है। इन
वृक्षों को
देखो, पशुओं
को देखो, पक्षियों
को देखो; देखो
आकाश की तरफ; सारा अस्तित्व
प्रफुल्लित
है। तुम बहुत
ज्यादा गंभीर
हो, इसलिए
कोई अचरज की
बात नहीं है
यदि तुम
अस्तित्व से
पृथक हो गए हो।
तुम्हारी
जड़ें इससे हट
गयी हैं।
तुम्हें लगता
है जैसे तुम
कोई अजनबी हो।
तुम उससे अलग
हो गये हो। और
इसीलिए
तुम्हें यह
अजनबीपन लगता
है। तब
तुम्हें ऐसा
लगता है कि यह
सारा
अस्तित्व तुम्हारा
घर नहीं है।
इसके लिए तुम
ही जिम्मेवार
हो और
तुम्हारी गंभीरता
ही जिम्मेवार
है, कोई और
नहीं।
अपने
ज्ञान को एक
तरफ रख दो, अपनी
गंभीरता को भी
उतार कर एक
तरफ रख दो; इन
आठ दिनों के
लिए पूर्णतया
प्रफुल्लित
होकर रहो।
तुम्हारे पास
खोने को कुछ
भी नहीं है।
यदि तुम इससे
कुछ पा नहीं
सकोगे तो खो
भी कुछ नहीं
जायेगा। क्या
खो सकते हो
तुम
प्रफुल्लता
में? लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं कि
तुम पुन: वही
नहीं हो सकोगे।
यदि वस्तुत:
ही तुम
प्रफुल्लित
रहे, तो
तुम्हें
देखने का एक
नया ढंग
मिलेगा, एक
नया मार्ग
मिलेगा होने
का। और जब तुम
यहां से लौटकर
जाओगे तो तुम
वही व्यक्ति
नहीं होगे। और
जीवन का पूरा
अर्थ ही
तुम्हारे लिए
बदल जाएगा, क्योंकि
अर्थ
तुम्हारे ही
द्वारा दिया
गया है। अभी
जीवन एक ऊब
जैसा लगता है,
जीवन
अर्थहीन
मालूम पड़ता है।
तुमने ही उसे
ऐसा बना दिया
है अपनी
गंभीरता के
कारण। जीवन तो
खेल से भरा है,
सुंदर है, लेकिन वह
सुंदर तभी हो
सकता है जबकि
तुम्हारी आंखें
सौंदर्य के
प्रति खुली
हों।
लोग
अकसर पूछते
हैं, ''कहो
है परमात्मा?
'' तुम उसे
नहीं पा सकते
क्योंकि वह तो
खिलाड़ी है और
तुम गंभीर हो।
हिंदू सदियों
से इस बात को
कहते रहे हैं
कि यह अस्तित्व
परमात्मा की
लीला है। और
तुम इतने
व्यस्त हो, इतने गंभीर
हो कि तुम
उससे नहीं मिल
सकते। सचमुच,
वस्तुत: ही
तुम्हारे
उससे मिलने की
कोई संभावना
नहीं है। तुम
अलग—अलग
आयामों में
घूमते रहते हो।
वह लीला करता
रहता है। सारा
अस्तित्व
सिर्फ एक लीला
है। वह कोई
कार्य नहीं है,
वह गंभीर
नहीं है।
अपनी
गंभीरता को
अलग रख दो और
आठ दिनों के
लिए परमात्मा
की भांति
खेलपूर्ण हो
जाओ। तुम्हें
थोड़ी कठिनाई
होगी क्योंकि
तुम सोचते हो
कि तुम प्रौढ़
हो गये हो।
तुम हुए नहीं
हो। तुमने अभी
तक प्रौढ़ता, परिपक्वता
उपलब्ध नहीं
की है। यह सच
है कि तुमने
अपना बचपन खो
दिया है, लेकिन
बचपन छोड़ देना
प्रौढ़ होने
अथवा परिपक्व
होने का
पर्यायवाची
नहीं है। बिना
प्रौढ़ हुए भी
तुम बचपन छोड़
सकते हो।
परिपक्वता
कोई का होना
नहीं है।
परिपक्यता का
आयु से कोई
संबंध नहीं है।
परिपक्वता एक
तरह का विकास
है। और वह
विकास बचपन के
द्वारा ही
होता है, न
कि उसके विरोध
में जाकर—इसे
स्मरण रखो।
तुम्हारी
प्रौढ़ता झूठी
है क्योंकि वह
तुम्हारे
बचपन के
विरुद्ध है।
एक बच्चा पैदा
हुआ था; प्रौढ़ता
निर्मित की गई
है। बच्चा
प्राकृतिक था;
तुम
कृत्रिम हो, संस्कारित
हो। तम्हें
अपने बचपन की
ओर लौटना
पड़ेगा, स्रोत
की ओर लौटना
पड़ेगा जहां से
कि विकास संभव
है।
इसलिए
तुम्हारे
खेलपूर्ण
होने पर मेरा
इतना जोर है।
मैं चाहता हूँ
कि तुम पुन:
उसी बिंदु पर
पहुंच जाओ जना
से तुमने
विकसित होना
बंद कर दिया।
तुम्हारे
बचपन में एक
ऐसा बिंदु है
जहां पर कि
तुमने विकसित
होना बंद कर
दिया और तुमने
झुFा
होना प्रारंभ
कर दिया। —शायद
तुम क्रोधित
हुए होगे—एक
छोटा बच्चा
बिगड़ा होगा, क्रोधित हुआ
होगा—और
तुम्हारे
पिता अथवा
तुम्हारी मां
ने कहा, ''क्रोध
मत करो। यह
ठीक नहीं है! '' तुम
स्वभावगत थे
किंतु एक
विभाजन पैदा
हो गया और
तुम्हारे लिए
एक चुनाव का
समय आ गया।
यदि तुम
प्रकृतिगत
रहते तो
तुम्हें अपने
माता—पिता का
प्रेम नहीं
मिलता।
और
निश्चित ही
तुम प्रेम
चाहते थे। वही
एकमात्र
तुम्हारे लिए
सुरक्षा थी, तुम उसके
बिना जी नहीं
सकते थे। अत:
तुमने चुनाव
किया, तुमने
समर्पण कर
दिया। तुमने
अपने स्वभाव
को एक तरफ हटा
दिया, और तुमने
हंसना और
मुस्कुराना
शुरू कर दिया;
तुम एक
अच्छे लड़के या
लड़की हो गये।
और जिस दिन तुम
एक अच्छे लड़के
या लड़की हो
गये वही दिन
तुम्हारे लिए
एक दुर्दिन सिद्ध
हुआ। उस क्षण
से तुम कभी भी
प्रकृतिगत
नहीं हो सके।
उस क्षण से
तुम गंभीर हो
गए, कभी
प्रफुल्लित, खेलपूर्ण न
हो सके। उस
क्षण से तुम
मरते जा रहे
हो, जीवंत
नहीं हो पाये।
उस क्षण से
तुम के होते
जा रहे हो, न
कि परिपक्य हो
रहे हो।
इन
आठ दिनों में
मैं चाहता हूं
कि तुम पुन: उस
बिंदु पर लौट
जाओ जहा से कि
तुमने
स्वभावगत
होने के
विपरीत अच्छा' होना
शुरू किया था।
खेलपूर्ण हो
जाओ ताकि
तुम्हारा
बचपन वापस प्राप्त
हो सके। यह
कठिन होगा
क्योंकि
तुम्हें अपने
चेहरे, अपने
मुखौटे अलग
रखने पड़ेंगे।
तुम्हें अपना
व्यक्तित्व
अलग रखना
पड़ेगा। किंतु
स्मरण रहे कि
वह जो कि सार
है वह तभी ऊपर उठ
सकता है जबकि
तुम्हारा
व्यक्तित्व
नहीं हो।
क्योंकि
तुम्हारा
व्यक्तित्व
एक कारागृह बन
गया है। उसे
अलग रख दो। यह
दुखपूर्ण
होगा, लेकिन
यह करने योग्य
है क्योंकि
इसी में से गुजरकर
तुम पुन: जन्म
सकोगे। और बिना
दर्द के कोई
जन्म संभव
नहीं है। यदि
तुमने वस्तुत:
पुनर्जन्म के
लिए निश्चित कर
लिया है तो
फिर यह खतरा
उठाना ही
पड़ेगा।
इन
आठ दिनों के
लिए वापस छोटे
बच्चे हो जाओ।
किसी की भी
आलोचना मत करो।
किसी की भी
निंदा मत करो।
यह सारी
मूर्खता
तथाकथित
प्रौढ़ लोगों
की बातें हैं, न कि
बच्चों की।
बच्चे क्या
करते हैं? वे
आनंद लेते हैं।
जो बात हम
तथाकथित
प्रौढ़ लोगों
के लिए मूर्खता
की होती है वे
उसका भी आनंद
लेते हैं।
सारा संसार
सौंदर्य, सत्य,
प्रेम से
भरा है, लेकिन
तुम उसका आनंद
नहीं ले सकते।
जब हम कल
सबेरे से
ध्यान करें तो
आनंद लो।
इसे
स्मरण रखो कि
अपने बचपन को
वापस प्राप्त
करना है।
प्रत्येक
उसके लिए
इच्छा करता है
लेकिन कोई उसे
पुन: प्राप्त
करने के लिए
करता कुछ भी
नहीं। हर एक
उसकी कामना
करता है। लोग
लगातार कहते
रहते हैं कि
बचपन स्वर्ग
था, और
कवि कविता
करने में लगे
रहते हैं कि
बचपन कितना
सुंदर था। कौन
रोक रहा है
तुम्हें पुन:
प्राप्त करने
में? मैं
तुम्हें यह
अवसर प्रदान
कर रहा हूं कि
तुम उसे पुन:
प्राप्त कर लो।
कविता
करने से कुछ न
होगा। और
सिर्फ इस
स्मरण से कि
वह एक स्वर्ग
था, कोई
लाभ होने वाला
नहीं है।
क्यों नही
पुन: हम वहां
ही लौट जायें?
क्यों नहीं
पुन: हम बच्चे
ही हो जायें।
मैं तुमसे
कहता हूं कि
यदि तुम पुन:
बच्चे हो जाओ
तो तुम एक नए
ही ढंग से
विकसित होना
प्रारंभ
करोगे। पहली
बार तुम फिर
से जीवंत हो
जाओगे। और
जैसे ही
तुम्हारे पास
एक बच्चे की आंख
होगी, बच्चे
की इंद्रियां
होंगी—युवा, जीवन से
भरपूर—तो सारा
जीवन
तुम्हारे
भीतर हिलोरें
लेने लगेगा।
याद
रहे कि यह
तुम्हारी ही
तरंग है जिसे
रूपांतरित
करने की
आवश्यकता है।
यह जगत तो
पहले ही, सदा ही आनंद
से नाच रहा है,
केवल
तुम्हीं इससे
जुड़े हुए नहीं
हो, लयबद्ध
नहीं हो। जगत
के साथ कोई भी
समस्या नहीं
है, समस्या
तो तुम्हारे
साथ है।
तुम्हारा
इसके साथ
तालमेल नहीं
है। जगत तो
नाच रहा है, हर क्षण
आनंद मना रहा
है। यह तो
हमेशा ही
महोत्सव मना
रहा है। और यह
महोत्सव
शाश्वतता से
शाश्वतता की
ओर जा रहा है, केवल तुम्हीं
इससे लयबद्ध
नहीं हो। तुम
इससे अलग टूट
गए हो, और
तुम बहुत
गंभीर हो गए
हो, बहुत
जानकार, बहुत
प्रौढ़ हो गए
हो। तुम बंद
हो गए हो। इस
कारागृह को
फेंको और पुन:
जीवन की धारा
में सम्मिलित
हो जाओ।
जब
तूफान आयें और
वृक्ष नाचे तो
तुम भी नाचो।
और जब रात्रि
आए और सभी कुछ
अंधकारपूर्ण
हो जाए तो तुम
भी अंधकारपूर्ण
हो जाओ। और
सबेरे जब सूरज
निकले तो
तुम्हारे
भीतर भी सूरज
को निकलने दो।
बच्चों की
भांति हो जाओ
और आनंद मनाओ, अतीत की
मत सोचो। कोई
बच्चा कभी
अतीत की नहीं
सोचता।
वस्तुत: उसके
पास सोचने के
लिए कोई अतीत
नहीं होता। एक
बच्चा भविष्य
की भी चिता
नहीं करता।
उसके पास समय
की कोई चेतना
नहीं होती ' वह सदा पूरी
तरह चिंतामुक्त
जीता है, वह
क्षण में जीता
है, वह
अतीत के साये
में नहीं जीता।
यदि वह क्रोध
में है तो वह
क्रोध में है,
और वह अपने
क्रोध में
अपनी मां से
कह देता है, ''मैं तुमसे
घृणा करता हूं।''
और यह कोई
शब्द मात्र
नहीं है, यह
एक
वास्तविकता
है। वास्तव
में, वह उस
क्षण
समग्ररूपेण
घृणा ही है।
अगले
क्षण वह उससे
बाहर आ जायेगा
और वह हंसने लगेगा
और वह अपनी
मां को एक
चुंबन दे देगा
और कहेगा, ''मैं
तुम्हें
प्रेम करता
हूं।'' इसमें
कोई विरोध
नहीं है। ये
दो भिन्न क्षण
हैं। वह समग्र
घृणा था और अब
वह समग्र
प्रेम है। वह
एक सरिता की भांति
है जो कि बहती
रहती है—टेढ़ी—मेढ़ी।
लेकिन जहां भी
वह है, जहां
भी सरिता है, वहां समग्र
है—प्रवाहमान
है।
इन
आठ दिनों के
लिए बच्चों की
भांति हो जाओ—समग्र।
यदि घृणा करो, तो घृणा
ही करो। यदि
प्रेम करो, तो प्रेम ही
करो। यदि तुम
क्रोधित हो तो
क्रोधित ही
रहो। यदि तुम
आनंद में हो, तो आनंद में
ही रहो और
नाचो। अतीत से
कुछ भी मत ढोओ।
क्षण के साथ
सच्चे रहो, समय से बाहर
निकल जाओ। समय
के बाहर आ जाओ।
इसीलिए मैं
कहता हूं कि
गंभीर मत रहो,
क्योंकि
जितने गंभीर
तुम रहोगे, उतने ही तुम
समय के प्रति
सजग होओगे। एक
बच्चा शाश्वत
में जीता है, उसके लिए
कोई समय नहीं
होता। उसे
उसका पता भी
नहीं होता। ये
आठ दिन
तुम्हारे लिए
वास्तव में ही
ध्यान के हो
जाएंगे यदि
तुम समय के
बाहर आ जाओ।
क्षण को जीओ और
उसके प्रति
सच्चे रहो।
अपने
ज्ञान को अलग
रख दो, अपनी
गंभीरता को
छोड़ो और तीसरी
बात, मन और
शरीर के
विभाजन को भी
अलग कर दो।
विभाजित होकर
तुम परमात्मा
को नहीं मिल
सकते जो कि एक
है। टुकड़े—टुकड़े
होकर तुम
अद्वैत सत्य
के निकट नहीं
आ सकते। यदि
तुम दो हो, तो
सत्य भी दो
होगा।
तुम्हें एक
होना है, तभी
केवल
वास्तविकता
एक होने लगती
है। अंततः तुम
ही निश्चित
करते हो कि
वास्तविकता
क्या है। यदि
तुम
विक्षिप्त हो
तो सारा
अस्तित्व विक्षिप्त
है। यदि तुम
मौन हो तो
सारा
अस्तित्व मौन
है। यदि तुम
प्रेम से भरे
हो तो तुम्हें
लगेगा कि सारा
अस्तित्व ही
प्रेमपूर्ण
है।
यह
तुम ही हो जो
कि तय करते हो
कि यह सारा
अस्तित्व जो
कि चारों ओर
फैला है, कैसा है। और
तुम विभाजित
हो। तुम सोचते
हो कि
तुम्हारा मन
और तुम्हारा
शरीर दो चीजें
हैं—दो ही
नहीं, बल्कि
विपरीत, विरोध
में हैं, दुश्मन
हैं। नहीं, वे ऐसे नहीं
हैं। वे एक ही
लय के दो छोर
हैं, वे एक
ही अस्तित्व
के दो ध्रुव
हैं। बाहर का
हिस्सा शरीर
है, भीतर
का हिस्सा है
आत्मा। और इन
बाहर और भीतर
के मध्य में
तुम हो। तुम न
तो बाहर के हो
और न भीतर के
हो। बाहर भी
तुम्हारा ही
हिस्सा है और
भीतर भी तुम्हारा
ही हिस्सा है।
तुम दोनों के
बीच में हो।
एक
अखंडता हो जाओ।
कम से कम इन आठ
दिनों के लिए
अपने को
विभाजित मत
करो, एक
हो जाओ। यदि
तुम एक हो सके
तो एक बड़ी
भारी ऊर्जा का
प्रादुर्भाव
होगा। और वही
ऊर्जा
तुम्हें
ध्यान में ले
जायेगी।
दूसरा कोई
मार्ग नहीं है।
चर्च
में जाओ, वहां लोग
बात ही बात
करते चले जाते
हैं, वे
उपदेश दिये
चले जाते हैं।
किसी धार्मिक
सम्मेलन में
चले जाओ—केवल
शब्द, शब्द
और शब्द—जैसे
परमात्मा कोई
बौद्धिक
प्रश्न हो
जिसे कि
मस्तिष्क से
हल करना हो।
नहीं, इससे
कुछ भी न होगा।
और अकेला
मानसिक
ऊहापोह मदद
नहीं कर सकेगा;
शरीर को भी
बीच में लाना
होगा।
इसीलिए, मेरी
ध्यान—विधियों
में मैं
तुम्हें
विभाजित नहीं
रहने देता।
तुम एक हो।
यदि तुम्हारा
मन क्रोध से
भरा है तो
अपने शरीर को
क्रोध से भर
जाने दो। यदि
तुम्हारा मन
प्रफुल्लित
है तो अपने
शरीर को नाचने
दो। विभाजन
पैदा मत करो।
अपने को शरीर
तक उतर आने दो,
और अपने
शरीर को अपने
अंतस के आखिरी
छोर तक चले
जाने दो। एक
बहाव हो जाओ।
तुम अभी जमे
हुए हो।
मैं
तुम्हें
पिघलाना
चाहूंगा और
फिर से एक बहाव
निर्मित करना
चाहूंगा।
इसीलिए मैं
सक्रिय ध्यान
पर इतना जोर
देता हूं।
सक्रिय से
मेरा मतलब है
कि शरीर भी
उसमें संलग्न
हो जाए। यदि
तुम बुद्ध के
आसन में बैठ
जाओ तो तुम
सोचते रहोगे
और सोचते ही
चले जाओगे, तुम्हारा
शरीर उसमें
संलग्न नहीं
होगे। और शरीर
ही संसार है।
शरीर के
द्वारा ही तुम
इस अस्तित्व
के साथ संबंधित
होते हो। शरीर
के हारा ही
तुम अस्तित्व
में हो।
तुम्हारा
ध्यान किसी
भांति गहरे
में शरीर से जुड़ा
होना चाहिए, अन्यथा वह।
सर्फ एक सपना
हो जाएगा जो
कि मन में
कहीं तैरता
रहेगा, जैसे
कि बादल होते
हैं जिनकी
जड़ें जमीन में।
ही होतीं। मैं
तुम्हें
पृथ्वी पर
पुन: वापस लौटा
लाना चाहता
हूं।
इन
आठ दिनों के
लिए किसी
प्रकार का
विभाजन पैदा
मत करो। शरीर
और आत्मा
दोनों एक साथ
हो जाओ। यह
भाव, सिर्फ
यह भाव कि तुम
एक हो, इससे
तुम्हारी
बहुत—सी
पीड़ाएं खो
जायेंगी, तुम्हारे
बहुत से तनाव
जो कि तुमने
बहुत—से
कृत्रिम
विभाजनों से
निर्मित कर
लिए हैं विलीन
हो जायेंगे।
सारा समाज, आधुनिक समाज
खंड—खंड हो
गया है इसी
कारण, विखंडित
हो गया है, इस
विभाजन के
कारण तुम अपने
ही खिलाफ
खंडों में बंट
गये हो और स्वयं
से लड़ रहे हो।
यह
मूर्खतापूर्ण
है, लेकिन
हर यही कर रहा
है।
इस
शिविर में, अपने
शरीर के साथ
एक हो जाओ, एक
अद्वैत
प्रवाह हो जाओ।
शरीर में पूरी
तरह जींवत हो
जाओ और ध्यान
में शरीर का
जितना संभव हो
सके उतना
उपयोग करो।
केवल तभी
तुम्हें
ध्यान की असली
गहराई
प्राप्त होगी।
इसलिए विभाजन
पैदा मत करो।
ये तीन बातें
तुम्हें खयाल
में रखनी हैं।
अभी, थोड़ा—सी
बातें और, और
फिर मैं सूत्र
को लूंगा। इन
आठ दिनों के
लिए थोड़ी——सी
बातें और। एक,
ज्यादा से
ज्यादा जोर
श्वास को बाहर
निकालने पर हो।
वस्तुत': श्वास
भीतर लो ही मत;
केवल बाहर
की ओर फेंको।
इससे घबड़ाने
की जरूरत नहीं
है जब. मै कहता
हूँ कि श्वास
भीतर मत लो।
मेरा मतलब है
कि शरीर को
भीतर श्वास
लेने दो, तुम
सिर्फ बाहर
फेंको, और
शरीर को भीतर
लेने दो, तुम
भीतर मत लो।
जब भी तुम्हें
याद आ जाए तो
शो गहराई से
श्वास बहर की
ओर रसको और
शिथिल हो जाओ,
शरीर को
अपने आप श्वास
भीतर लेने दो।
इससे
तुम्हें एक
गहरा विश्राम
उपलब्ध होगा—क्योंकि
श्वास को बाहर
—करना मृत्यु
है, और
भीतर लेना
जीवन है। पहली
बात जो कि
बच्चे को करनी
पड़ती है वह है
श्वास भीतर
लेना और आखिरी
बात जो कि एक
बूढ़ा आदमी
करता है वह है
श्वास बाहर
फेंकना।
श्वास के बाहर
जाने से
मृत्यु का
प्रारंभ—होता
है, और
भीतर आने से
जीवन का। और
स्मरण रहे कि
मृत्यु पूर्ण
विश्राम है।
जीवन तनाव है,
मृत्यु
विश्राम है।
ध्यान
मृत्यु के
समान ज्यादा
है बजाय जीवन
के., परंतु
मृत्यु जीवन
के विरोध में
नहीं है।
मृत्यु ही
सारे जीवन का
स्त्रोत है।
जीवन मृत्यु
से ही निकलता
है और पुन:
मृत्यु में
प्रवेश कर जाता
है। मृत्यु
सागर की भांति
है, जीवन
सरिता की
भांति, वह
आती है और
सागर मैं गिर
जाती है। और
फिर बादल उठते
हैं, और फिर
बर्षा होती है,
और फिर
सरिता बनती है
और वह फिर
सागर की ओर चल
देती है।
मृत्यु
है सागर को
भांति, जोवन है
सरिता की, भांति।
मृत्यु है
पूर्ण विश्राम।
इसलिए हम
अनजाने ही, श्वास को बाहर
छोड़ने से डरते
हैं। हम कोल
श्वास को भीतर
लेते हैं
लेकिन हम कभी बाहर
नहीं छोडते।
केवल हमारा
शरीर ही उसे
बा हर फेंकता
है एक आवश्यकता
की भांति। इसे
पूरी तरह बदल
डालो। इन आठ
दिनों के लिए
श्वास को बाहर
फेंको और शरीर
को भीतर लेने
दो। इससे
तुम्हें क्श्रिाम
की उपलब्धि
होगी—तुम्हारा
शरीर, तुम्हारा
मन, तुम्हारा
सारा नाड़ी—तंत्र
विश्राम को
प्राप्त होगा।
और जब मैं
कहता हूं किए
गहराई सै
श्वास बाहर फेंका
तो मेरा मतलब
यह नहीं है कि
तुम किसी
प्रकार का
तनाव पैदा ब?र लो। किसी
प्रकार का
तनाव मत पैदा
करो। सिर्फ
गहरी श्वास
छोड़ो और उसका
आनंद लो, जैसे
कि तुम उसमें
मर रहे हो।
जीवन मृत्यु
के सागर में
उतर रहा है।
शिथिल हो जाओ
और समर्पित हो
जाओ और गहरी
श्वास छोड़ा और
इसका आनंद लो।
और
तब ठहर जाऔ।
मैं यह नहीं
कहता कि उसे
रोक दो। नहीं, सिर्फ
ठहर जाओ।
श्वास भीतर
लेने के लिए
कुछ भी न करो—न तो
पक्ष में और न
विपक्ष में।
शरीर अपने आप
भीतर श्वास
लेगा। और यदि
तुमने गहरी, श्वास छोड़ी
है तो गहरी
श्वास भीतर
आएगी। लेकिन
तुम्हारा जोर
बाहर छोड़ने पर
हो—यह पहली
बात है।
दूसरे, हम' यहां
में तीन बार
मिलेंगे, लेकिन
उसके बीच, में
अंतराल होगा।
तुम उस बीच
में क्या
करोगे? एक
बात याद रखनी
है। वह नहीं
करना है जो कि
तुम सदा से
करते रहे हो।
वही बात उसी ढंग
से मत करो, उसे
चालू नहीं
रखना है। उसे तरफ रख
देना है। नए
हो जाओ, मौलिक
हो जाओ। वह जो
कि —तुम करते
रहे हो, नहीं
करना है। उसे
बदल दो, क्योंकि
वह एक आदत का
हिस्सा हों
गया है। यदि
तुम वही ढांचा
चलाते रहे तो
नई बात पैदा नहीं
हो सकती। उसे
अलग रख दो।
उसे फेंक दो।
इन
आठ दिनों के
लिए तुम अपनी
पुरानी आदतों
के ढाँचो में
मत चलो। उन
बातों को मत
करो जिनको तुम
सदा—सदा से
करते रहते हो।
जैसे ही
तुम्हें याद आ
जाए, रुक
जाओ। तुम
जानते हो कि
यह तुमने
कितनी ही बार
कहा है। तुम
अपनी पत्नी को
वही—वही बात
सालों से कहते
आ रहे हो, और
'तुम्हें
यह भी पता है
कि वह क्या
उत्तर देगी।
हर बात एक आदत
बन गई है, एक
यांत्रिक
पुनरुक्ति।
उसे
मत कहो। कुछ
नई बात कहो।
और यदि तुम
कोई नई बात
नहीं कह सकते, यदि नई
बात खोज पाना
बहुत कठिन हो
तो मौन ही रहो;
वह भी नया
होगा। या—यह
मूर्खतापूर्ण
लगेगा, लेकिन
मैं चाहता हूं
कि तुम आठ
दिनों के लिए
मूर्ख ही हो
जाओ——शब्दों
का उपयोग मत
करो, हाव—
भाव से काम लो।
यदि तुम अपने
मित्र सै कुछ
कहना चाहते हो,
अथवा कमरे
में अपने साथी
से कुछ कहना
चाहते हो, अथवा
अपनी पत्नी को
या किसी और को,
तो हाव— भाव
का ही उपयोग
करो, भाषा
का उपयोग मत
करो। गुंगे और
बहरे हो जाओ
इशारों को
उपयोग करो, जो भी कहना
हो हाव—भाव के
द्वारा ही कहो।
अथवा यदि तुम
हाथ—भाव का
उपयोग कर ही न
सका, तो
फिर ध्वनियों
का उपयोग करो
लेकिन शब्दों
ला उपयोग मत
करो। तुम्हें
एक गहरे आनंदोल्लास
की घटना घटेगी
एक—गहरी प्रभु
की अनुकंपा का
अनूभव होगा।
ध्वनि
का अथवा हाव—
भाव का उपयोग
करो। शब्दों
का उपयोग मत
करो, क्योंकि
शब्द ही मन है।
चिडियों जैसी
अथवा पशुओं
जैसी आवाज का
उपयोग करो, या फिर हाव—
भाव से।
तुम्हारे
भीतर एक नयी
अनूभूति होगी,
तुम्हें
अपने भीतर एक—नए
स्वरूप की
प्रतीति होगी,
क्योंकि
पुराने ढांचे
का
व्यक्तित्व
काम नहीं कर
रहा होगा। तुम
यह अकेले भी
कर सकते हो और
यह अच्छा होगा।
किसी भी समय दिन
में अकेले बैठ
जाओ, किसी
वृक्ष के पास
चले जाओ, उसके
पास अकेले
जाकर बैठ जाओ,
और आवाजें
करना शुरू कर
दो। शब्दों का
उपयोग मत करो।
जैसे कि छोटे
बच्चे करते
हैं, वे
अनाप—शनाप आवाजें
करते हैं—उसे
बार—बार
दुहराते हैं
और आनंद लेते
हैं। बच्चों
की बात—बिना
भाषागत अर्थ
के। कोई भी
प्रकार की
ध्वनि करो और
उसका आनंद लो।
मेरा
अभिप्राय है
कि जब तक तुम
यहाँ खो तुम
अपने पुराने
ढांचे के
शिकार मत होना।
किसी से कोई
मतलब भी मत
रखो। तुम सदा
जुड़े रहते हो।
सिर्फ अपने से
ही मतलब रखो।
पूरी तरह
स्वार्थी हो जाओ, सर्फ
अपने से ही
मतलब रखो।
अपने स्वरूप
का आनंद लो, चारों ओर के
वातावरण को
आनंद लो। समूंह
में तथा अकेले
में ध्यान करो,
और पूरी तरह
अपने में ही
केंद्रित हो
जाओ। दूसरे
क्या कर रहे
हैं, उसके
बारे में सोचो
भी मत। दूसरों
को जो ठीक
लगता है करने
दो। दूसरों के
बीच में मत आओ।
यह ख्याल भी
कि जो जिसको
करना है करे, यह खयाल भी
तुम्हें
मुक्त करेगा।
क्योंकि तुम
व्यर्थ में ही
दूसरों से
बोझिल हो रहे
हो। पूरी तरह
स्वार्थी हो
जाओ।
यह
बात धार्मिक
प्रतीत नहीं
होती जब मैं कहता
हूं कि
समग्ररूपेण
स्वार्थी हो
जाओ। मेरे लिए।
एकमात्र यही
बात धार्मिक
है क्योंकि जब
तुम वास्तव में
ही स्वार्थी
हो जाते हो, तभी केवल
तुम दूससे के लिए
कुछ कर सकते
हो। जब तक कि
तुम्हारे पास
कुछ हो ही
नहीं; तुम
कुछ कर भी
कैसे सकते हो?
तुम कैसे
सहायता कर
सकते हो? तुम
कैसे प्रेम कर
सकते हो? कैसे
तुम्हारे भीतर
करूणा हो सकती
है? भीतर
तुम कुछ भी
नहीं हो और
तुम दूसरों की
सेवा किये
चेले जाते हो
और दूसरों के
बारे में सोचे
चले जाते हो। वह
सिर्फ अपने को
भूलने का एक
तरीका है। इस
ध्यान—शिविर
मैं वैसा कुछ
मत करो। स्वयं
को स्मरण रखो और
दूसरी को भूल
जाओ।
और
आखिरी बात : ध्यान
में, ध्यान
की
प्रक्रियाओं
को अधूरी—अधूरी
मत करो, उन्हें
आधे मन से मत करना।
उससे कोई लाभ
नहीं होगा।
ध्यान कोई
गणित नहीं है।
ऐसा मत सोचो
कि अगर तुम
पचास प्रतिशत
करोगे तो पचास
प्रतिशत फल
निकलेगा।
नहीं, शून्य
फल आएगा। केवल
सौ—प्रतिशत
प्रयास से ही
परिणाम हासिल
होगा, उससे
कम में काम
नहीं चलेगा।
यह
ऐसा ही है
जैसे पानी को
गर्म करना। सौ
डिग्री पर
पानी भाप बन
जाता है। ऐसा
मत सोचो कि
पचास डिग्री
पर पचास
प्रतिशत पानी
भाप बन जाएगा।
वह बिलकुल भी
भाप नहीं
बनेगा। वह
सिर्फ
कुनकुना होगा।
या तो पूरी
तरह गर्म हो
जाओ या फिर
ठंडे ही रहो।
यदि तुम ठंडे
हो तो फिर
छोड़ो। फिर कोई
प्रयत्न करने
की आवश्यकता
नहीं है।
क्यों अपने को
थकाते हो? यदि तुम
सौ प्रतिशत
गर्म हो, तभी
यहां रुको और
तुम
वाष्पीभूत हो
जाओगे। मैं
उसके लिए
गारंटी लेता
हूं वह
पूर्णरूप से निश्चित
है।
यदि
तुम सौ
प्रतिशत श्रम
करो, यदि
तुम अपने को
जरा भी पीछे न
बचाओ, यदि
तुम
प्रक्रिया
में पूरी तरह
गल जाओ और अपने
को भूल जाओ, स्वयं को
पूरी तरह
प्रक्रिया
में छोड़ दो, तो तुम जिस
बात के लिए कई
जीवनों से
जिज्ञासा कर
रहे हो वह एक
क्षण में घट
सकती है; केवल
समग्ररूपेण
छोड़ने की
आवश्यकता है।
हम
तीन बार समूह
में ध्यान
करेंगे। वह भी
किसी विशेष
कारण से, क्योंकि तुम
व्यक्ति की
भांति सिर्फ
ऊपर—ऊपर से हो।
भीतर गहरे में
तो व्यक्ति
नहीं हो। हम
सब एक—दूसरे
से जुडे हैं; हमारी सबकी
जड़ें एक ही
चेतना में हैं।
इसलिए समूह
में ध्यान एक
बड़ा भारी
अनुभव हो सकता
है। वहां तुम
अकेले नहीं हो।
यदि तुम अपने
को छोड़ सको, यदि तुम
समर्पण कर सको,
यदि तुम
पूरी तरह पिघल
सको, तो
समूह की आत्मा
तुम्हें घेर
लेती है, तब
तुम वहां पर
नहीं होते। तब
समूह नाचता है
और तुम समूह
के हिस्से की
भांति नाचते
हो। और तब
समूह आनंदित
होता है और
तुम उसके एक
हिस्से की
भांति आनंदित
होते हो; तब
समूह ही गति
करता है, हिलता
है, नाचता
है और तुम
उसके एक
हिस्से हो।
अपने को पूरी
तरह छोड़ देना
है, और तब
समूह का
तुम्हें पूरी
तरह सहयोग
मिलेगा। वह एक
तेज, प्रबल
धारा हो जाता
है और तुम
उसमें बह जाते
हो।
ये
तीनों समूहगत
ध्यान
व्यक्तिगत
ध्यान नहीं
हैं। तुम एक
व्यक्ति की
भांति इन्हें
शुरू करते हो, लेकिन
जल्दी ही तुम
वहां नहीं
होते और समूह
की आत्मा वहा
काम करने लग
जाती है। और
जब समूह की
आत्मा काम
करने लग जाए
तो तुम परमात्मा
में प्रवेश कर
गए। इसलिए
व्यक्तिगत
होकर मत रहो; वह बात गलत
है, अहंकारपूर्ण
है। पिघलो और
तुम्हें
घटनाएं घटने
लगेंगी।
बहुत—सी
बातें संभव
हैं, और
मुझे आशा है
कि वे तुम्हें
घटेंगी। यदि
तुम वास्तव
में ही तैयार
हो, यदि
तुम उनका सपना
देखते रहे हो,
उनकी आशा
करते रहे हो।
और यदि तुम
ऐसे ही
अकस्मात रूप
से नहीं आ गए
हो, बल्कि
एक खोजी की
तरह आए हो : कुछ
दांव पर लगाने,
चुनौती को
स्वीकार करने
और जो मानव
चेतना के लिए
बड़े से बड़ा
दुस्साहस का
कार्य हो सकता
है उस अभियान
पर निकलने, तो तुमको
बहुत कुछ घट
सकता है।
अब
मैं सूत्र को
लेता हूं :
ओम, ब्रह्म
हम दोनों की
रक्षा करे वह
हम दोनों का पोषण
करे। हम दोनों
को शक्ति मिले।
इस स्वाध्याय
से हम दोनों
प्रकाशित हों
हम दोनों एक—
दूसरे से घृणा
न करें। ओम, शांति शांति
शांति।
यह
वचन बहुत सुंदर
है। गुरु और
शिष्य दोनों
ही परमात्मा
से प्रार्थना
कर रहे हैं—शिष्य
और गुरु दोनों
ही प्रार्थना
कर रहे हैं।
ओम, ब्रह्म
हम दोनों की
रक्षा करे।
क्योंकि
एक गुरु की
भांति अथवा एक
शिष्य की भांति
तुम दोनों तरह
से ही
वास्तविक
नहीं हो। गुरु
भी विभाजन है, शिष्य भी
विभाजन है।
गुरु भी एक
टुकड़ा है, और
शिष्य भी एक
टुकड़ा ही है।
दोनों
प्रार्थना कर
रहे हैं कि वह
परमात्मा, वह
जो आत्यंतिक
है, उनकी
देखभाल करे, उनकी डोर
अपने हाथ में
ले ले। गुरु, गुरु की
भांति अपने को
खो देगा और
शिष्य, शिष्य
की भांति अपने
को खो देगा।
वे दोनों एक
हो जायेंगे; वे दोनों एक
गहरी
वास्तविकता
में खो
जायेंगे।
ओम, ब्रह्म
हम दोनों की
रक्षा करे।
अब
उपनिषद को
भूलें। हम
यहां हैं, और यही
तुम्हारी भी
प्रार्थना हो
: ''ब्रह्म
हम दोनों की
रक्षा करे। ''मै यहां
व्यक्ति की
भांति काम
नहीं करूंगा,
तुम भी यहां
व्यक्ति की
भांति काम मत
करना; वरन
हम दोनों एक
हो जायें।
मैं
तैयार हूं।
यदि तुम भी
मेरे साथ
निकलने को
तैयार हो तो
कोई भी कठिनाई
नहीं है। और
तब ऐसा भी
नहीं है कि
मैं तुम्हें
कहीं ले जा
रहा हूं और न
ही तुम मुझे
कहीं ले जा
रहे हो बल्कि
हम दोनों किसी
की ओर बढ़ रहे
हैं—दोनों एक
साथ। मैं कोई
ले जाने वाला
नहीं हूं और न
ही तुम जाने
वाले हो। मैं
कोई गुरु नहीं
हूं और तुम
कोई शिष्य
नहीं हो। हम
दोनों ही एक
गहरी
वास्तविकता
की ओर साथ—साथ
बढ़ रहे हैं।
कोई भी शिक्षक
नहीं है और
कोई भी सीखने
वाला नहीं है, यही भाव
है इस प्रार्थना
का :
ब्रह्म
हम दोनों की
रक्षा करे। वह
हम दोनों का
पोषण करे हम
दोनों को
शक्ति मिले।
इस स्वाध्याय
से हम दोनों
प्रकाशित हों
हम दोनों एक—
दूसरे से घृणा
न करें। ओम, शांति
शांति शांति।
बहुत
कुछ संभावना
है कि शिष्य
गुरु को घृणा
करने लगे, क्योंकि
यदि तुम प्रेम
करते हो तो
घृणा की
संभावना सदा
रहती है। यदि
तुम गुरु को
प्रेम करते हो
तो प्रेम का
ही दूसरा
हिस्सा है
घृणा। और जब
तुम प्रेम
करते हो तो
घृणा किसी भी
क्षण पैदा
सकती है। घृणा
उसका हिस्सा
है। वस्तुत:
घृणा और प्रेम
दो चीजें नहीं
हैं बल्कि दो
पहलू हैं।
घृणा प्रेम के
विरुद्ध नहीं
है, यह
उसका ही दूसरा
हिस्सा—सिक्के
का दूसरा पहलू
है।
इसलिए
जब शिष्य गुरु
को प्रेम करता
है, तो
हर क्षण यह
संभावना बनी
रहती है कि वह
घृणा करे। और
यह संभावना और
भी अधिक बढ़
जाती है जब
गुरु शिष्य को
रूपांतरित
करने का
प्रयास करता
है—क्योंकि तब
वह खतरनाक
मालूम पड़ता है,
तब वह
विनाशक दिखाई
पड़ता है।
यदि
मैं कहता हूं
किं अपने ज्ञान
को फेंको, तो
तुम्हें ऐसा
लगेगा कि मैं
तुम्हारा
शत्रु हूं
क्योंकि
तुम्हारा
ज्ञान ही तो
तुम्हारी संपदा
है। यदि मैं
कहता हूं कि
गंभीर मत रहो,
बच्चों की
भांति रहो, तो तुम्हारे
अहंकार को चोट
पहुंच सकती है।
तुम्हें लग
सकता है कि यह
आदमी मुझे
किसी ऐसी बात
की ओर ले जा
रहा है जो कि
मूढ़तापूर्ण
है, बेवकूफी
की है। तुम
मुझसे किसी भी
क्षण घृणा कर
सकते हो। यदि
मैं वास्तव
में तुम्हें
रूपातरित
करने का तय कर
लूं तुम्हें
बदलने का
प्रयास करूं,
तो ज्यादा
संभावना हो
जाती है कि
तुम मुझे किसी
भी क्षण घृणा
करने लगो।
इसीलिए
गुरु कहता है
यह
स्वाध्याय हम
दोनों को
प्रकाशित करे।
हम दोनों एक—दूसरे
से घृणा न
करें।
और
यह वचन
वस्तुत: ही
कुछ विशिष्ट
है—असाधारण है
यह
स्वाध्याय हम
दोनों को
प्रकाशित करे।
गुरु
तो पहले से ही
प्रकाशित है, वरना वह
गुरु नहीं हो
सकता। शिष्य
प्रकाशित
नहीं है, वरना
शिष्य होने की
भी कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन फिर भी
गुरु कहता है,
''यह
स्वाध्याय हम
दोनों को
प्रकाशित करे—हम
दोनों को
प्रकाशवान
करे।''
यह
बात बड़ी
सूक्ष्म है।
गुरु तो जागा
हुआ है, लेकिन यह
जागरण सिर्फ
उसका अपना
अनुभव है, न
कि शिष्य का।
शिष्य तो
सिर्फ
विश्वास करता
है कि गुरु
जागा हुआ है, वह उसे जान
नहीं सकता। और
जब गुरु और
शिष्य एक जोड़े
की भांति, भिन्न
और अलग—अलग
नहीं, बल्कि
दोनों एक हो
जाते हैं तो
शिष्य को जब जागरण
घटित होता है
तो उसको
प्रतीति होती
है कि दोनों
को जागरण हुआ
है, दोनों
बुद्ध हो गये
हैं। यह एक
अर्थ है।
इसका
एक अर्थ और भी
है। तुम अकेले
भी प्रकाशित
हो बकरे हो, वह एक
प्रकार का
अनुभव है।
लेकिन जब तुम
किसी और 'के
साथ चलते हो
और जब दौनों
को प्रकाश
उपलब्ध होता
है, तो फिर कुछ
और ही बात होती
है; वह वही
नहीं होता।
बुद्ध
को ज्ञान हुआ, बोधिवृक्ष
के नीचे बुद्धत्व
उपलब्ध हुआ।
यह एक अकेले
का प्रकाश को
प्राप्त करना
था। वे एक
अकेले
व्यक्ति की
भांति जागरण
को उपलब्ध हुए।
लेकिन उनके
चारों ओर पूरा
संसार, सहस्त्रों
आत्माएं नींद
में डूबी चल
रही थीं।
बुद्ध इन नींद
में डूबे
लोगों के साथ
चले और उनको
जगाने की
कोशिश की। जब
कभी कोई
व्यक्ति जागा
तो बुद्ध का
प्रकाश भी और
बढ़ गया। स्मरण
रहे, जैसे
कि एक दीया जल
रहा था अंधेरे
में और एक और दीया
—जल उठा। और
तीसरा आदमी
जागरण को
उपलब्ध हो गया,
तो अब तीन
दीये जल उठे, और फिर चौथा
आदमी जाग गया.
और इस तरह
प्रकाश बढ़ता
गया। प्रकाश
बढ़ता ही गया
और बुद्ध अब
अकेले व्यक्ति
न रह गये।
इसलिए
जब भी और जहां
कहीं भी
बुद्धत्व
फलित होता है, तो वह
उनका भी
बुद्धत्व है।
यह 'बड़ा गहरा
तथा सूक्ष्म
है, लेकिन
याद रखने
योग्य बात है,
कि बुद्ध का
बुद्धत्व भी
बढ़ता चला जाता
है। जब भी कभी
कोई शिष्य
जागता है, बुद्ध
का प्रकाश भी
बढ़ता है।
बुद्ध
तो पहले से
जागे हुए हैं, उनके लिए
कोई समस्या
नहीं है। यह
ऐसे ही है
जैसे कि मैं
इस कमरे में
एक दीया कला
दूं और कमरे
में प्रकाश हो
जाए; तब
कोई अंधेरा
नहीं होगा।
फिर उसके बाद
मैं एक दूसरा
दीया ले आऊं
और प्रकाश बड़
जाए। फिर मैं
एक तीसरा दीया
ले आऊं और
प्रकाश और ज्यादा
बढ़ जाए। सारा
जगत और ज्यादा
प्रकाश से
भरता चला जाता
है जब कभी भी
एक गुरु इस
योग्य होता है
कि वह एक
शिष्य को
बुद्धत्व को
प्राप्त
कराता है।
यह
ऋषि एक अदभुत
बात कहता है।
किसी ने भी
इसके पहले ऐसी
बात नहीं कही
है —
यह
स्वाध्याय हम
दोनों को
प्रकाशित करे.,
ओम, मेरे अंग
मजबूत हों।
मेरी वाणी
प्राण दृष्टि
श्रवण और सारी
ज्ञानेंद्रियां
भी शक्तिशाली
हों।
यही
बात तो मैं
तुमसे कह रहा
हूं। अपने
शरीर को
पुनजीवित
होने दो। उसे
अलग मत करो, उसके साथ
जुड़े रहो, उसमें
गहरे चले जाओ।
जब तुम उसके
भीतर चले जाते
हो तो हर अंग
मजबूत, जीवंत
तथा नया हो
जाता है।
मेरी
वाणी प्राण
दृष्टि श्रवण
और सारी ज्ञानेंद्रियाँ
भी शक्तिशाली
हों। सारा
अस्तित्व ही
उपनिषदों का
ब्रह्म है; मैं उस
ब्रह्म को कभी
मना नहीं करूं।
यह
बात एक
सर्वाधिक
क्रांतिकारी
वचन है जो कि
कभी कहा गया
है।
मैं
उस ब्रह्म को
कभी मना नहीं
करूं वह
ब्रह्म भी
मुझे मना नहीं
करे कभी कोई
मना नहीं हो।
कम से कम मेरी
ओर से कभी कोई
मना नहीं हो।
मना
मत करो, क्योंकि
प्रत्येक चीज
वह एक ही है, हर चीज वही
ब्रह्म है।
इसलिएg जब
भी तुम मना
करते हो तो
तुम 'उसी' को मना करते
हो। जब भी तुम
निंदा करते
हों—चाहे किसी
की भी निंदा
करो, चाहे—कुछ
भी निंदा करो—तुम
उसी को निंदित
करते हो। जब
भी तुम किसी
चोर की निंदा
करते हो, किसी
खूनी की निंदा
करते हो तो
वही निंदित हो
जाता है क्योंकि
केवल वही तो
वहां भी है।
इसलिए यह
सर्वाधिक
क्रांतिकारी
वचन है
सारा
अस्तित्व ही
ब्रह्म है।
मैं कभी इस
ब्रह्म को मना
नहीं करूं—किसी
भी प्रकार से
जाने या
अनजाने, प्रत्यक्ष
या परोक्ष—
मैं उस ब्रह्म
को कभी मना
नहीं करूं!
कभी कोई मना
नहीं हो
निषेधात्मक
मन, मना
करने वाला मन
ही अधार्मिक
मन होता है।
मन जो कि 'ना'
ही कहता चला
जाता हो, जिसकी
'हां' कहने
की सामर्थ्य
तथा साहस ही न
हो, ऐसा मन
अधार्मिक मन
होता है।
धार्मिक मन ही
कहने वाला मन
होता है। यहाँ
तक कि कुछ
चीजें गलत भी
नजर आ रही हैं,
तुम्हारा
सारा मन उसे
निंदित कर रहा
है, फिर भी
एक धार्मिक मन
तो —कहेगा, ''मुझे
ऐसा प्रतीत हो
रहा है, परंतु
कौन जाने? यह
तो सिर्फ मेरा
निर्णय है कि
यह गलत है, परंतु
हो सकता है कि
ऐसा न हो—क्योंकि
मेरे निर्णय
की क्या कीमत
है?''
कुछ
लोग एक स्त्री
को जीसस के
पास ले आए और
उन्होंने कहा, ''इस औरत
ने व्यभिचार
किया है, इसलिए
इसे मार डाला
जाना चाहिए।
और ऐसा नियम
भी रहा है कि
इसे पत्थरों
से मार डाला
जहर। इसे
पत्थर मार—मार
कर खतम कर
दिया जाए।''
जीसस
ने कहा, ''नियम बिलकुल
सही है, लेकिन
वे ही लोग इसे
पत्थर मारने
के अधिकारी हैं,
जिन्होंने
कभी कोई
व्यभिचार
नहीं किया हो,
मन में भी
ऐसी बात नहीं
सोची हो। वे
ही लोग आगे आ
जाएं
जिन्होंने
कभी कोई व्यभिचार
नहीं किया है,
वास्तव में
तथा कल्पना
में भी नहीं किया
है।''
भीड़
तो पत्थर लेकर
तैयार खड़ी थी
उसे मार डालने
के लिए। लेकिन
अब धीरे—धीरे
भीड़ छंटने लगी, लोग पीछे
सरकने लगे, क्योंकि ऐसा
तो वहां एक भी
नहीं था जिसने
—मन में भी कभी
व्यभिचार न
किया था।
अंत' में जीसस
और वह स्त्री
ही बच गये।
भीड़ तितर——बितर
हो गई थी। उस
स्त्री ने कहा,
''मैंने पाप
किया है। मैं
दोषी हूं मुझे
आप सजा दें। ''जीसस ने कहा,
''मैं कौन
होता हूं
तुम्हें सजा
देने वाला? मैं कौन हूं? जो कि
तुम्हें सजा
दूं अथवा
तुम्हारी
निंदा करूं? तू जाने और
तेरा परमात्मा
जाने।''
यह
है एक धार्मिक
आदमी का रुख——कोई
निंदा नहीं! कौन
होते हो तुम
निंदा करने
वाले? स्वघोषित
निर्णायक
बनकर तुम
व्यर्थ ही
अपने लिए और
दूसरों के लिए
भी समस्या
पैदा कर देते हो।
और
कभी निषेध मत
करो। निषेध
गहरे चला जाता
है। तुम अपने
शरीर को भी
मना करते हो
तुम अपनी ज्ञानेंद्रियों
को भी मना कर
देते हो, तुम हर बात
का निषेध कर
देते हो। तुम
एक बड़े भारी
निषेधकर्त्ता
बन गये हो। और
जब तुम घुट
जाते हो तो
चिल्लाते हो
और कहते हो, ''क्यों है यह
पीड़ा? क्यों
है यह दुख? '' यह
दुख तुम्हीं
ने निर्मित
किया है। एक
आदमी जो कि हर
बात को मना
करता चला जाता
है, वह
अधिकाधिक सिकुड़
जाता है, भीतर
से कठोर हो
जाता है। वह
कुछ भी तो
नहीं कर सकता,
क्योंकि
सभी कुछ गलत
है। वह यह
नहीं खा सकता,
वह इस तरीके
से प्रेम नहीं
कर सकता, वह
इस तरीके से
चल नहीं सकता,
वह यह नहीं
कर सकता, वह
नही कर सकता।
केवल 'नहीं'
कर सकना, 'नहीं' कर
सकना ही उसके
चारों तरफ हो
जाता है—निषेध
ही निषेध। तब
जीवन एक घुटन
बन जाता है।
तब तुम्हें
दुख ही दुख
महसूस होता है।
यह
एक सर्वाधिक
क्रांतिकारी
वचन है जो कि
कभी भी बोला
गया है
कभी
कोई मना नहीं
हो। कम से कम
मेरी ओर से
कभी कोई मना
नहीं हो
यह
बात और भी
गहरे चले जाती
है। इसकी
सुंदरता को
देखो। यह भी
संभावना है कि
यदि मैं तुमसे
कहूं कि कभी
कोई मना मत
करो, और
कोई आदमी मना
करता हो तो
तुम उसको मना
करने में लग
जाओगे : ''तुम
मना क्यों कर
रहे हो? ''यदि
मैं कहूं कि
निंदा मत करो,
और कोई
निंदा करता हो
तो तुम उसकी
निंदा करने में
लग जाओगे। मन
तरकीबें
निकालने में
लगा रहता है, नई शक्लों
में वह पुरानी
बीमारियों को
फिर—फिर ले
आता है।
मैं
एक स्त्री से
बात कर रहा था
जो कि बड़ी
निंदा करने
वाली है। वह
हर एक की
निंदा करती
रहती है। वह
जब कभी मेरे
पास आती है तो
वह हर किसी की
बुराई
निकालती रहती
है। तो मैंने
उससे कहा, ''यह तो
ठीक नहीं है।
मैं यह नहीं
कहता हूं जो
कुछ भी तुम कह
रही हो, वह
सही नहीं है; सही होगा, असली बात वह
नहीं है।
तुम्हारा
निंदा करना
गलत बात है।''
तो
उसने कहा, ''यदि आप
ऐसा कहते हैं
तो अब से मैं
किसी की निंदा
नहीं करूंगी। ''
दूसरे
दिन वह फिर
मेरे पास आई
और उसने कहा, ''आपका वह
जो शिष्य है
वह निंदा कर
रहा है। वह
आदमी अच्छा
नहीं है। ''अब
परिभाषा बदल
गई कि क्या
ठीक है और
क्या गलत है, लेकिन निंदा
करना जारी रहा।
अब वह ठीक
नहीं है।
ऋषि
कहता है?
कभी
कोई मना नहीं
हो कम से कम
मेरी ओर से
कोई मना नहीं
हो। उपनिषदों
में जो भी
सदगुण हैं वे
मुझमें निवास
करें; मैं
जो कि आत्मा
के प्रति
भक्तिपूर्ण
हूं वे सदगुण
मुझमें निवास
करें ओम, शांति
शांति शांति।
गुरु
वास्तव में, सब
सदगुणों का घर
होता है। जो
भी उपनिषदों
का उद्देश्य
है, जो भी
सदगुण हैं, वे सब गुरु
के हृदय के
मुकाबले में
कुछ भी नहीं
हैं। बड़े से
बड़ा गुण है
विनम्रता।
अभी भी वह यह
प्रार्थना कर
रहा है कि जो
उपनिषदों ने
गुण गाये हैं
वे मुझमें
विराजमान हों।
वे मुझे कभी
भी न छोड़े, वे
मेरे हृदय में
निवास करें।
एक
प्रामाणिक
विनम्रता
प्रार्थना
करती ही जाती
है। वही असली
बात है। वह
कभी भी
अप्रार्थनापूर्ण
नहीं होती।
यहां तक कि जब
सभी कुछ पा
लिया गया हो
तब भी प्रार्थना
जारी है—क्योंकि
प्रार्थना विनम्रता
है, क्योंकि
प्रार्थना
सादगी है, क्योंकि
प्रार्थना
निर्दोषता है।
आत्यंतिक भी
उपलब्ध कर
लिया गया हो, तब भी
प्रार्थना
चलती रहती है।
मैंने
एक सूफी फकीर
बायजीद के
बाबत सुना है।
वह ज्ञान को
उपलब्ध हो गया
लेकिन फिर भी
वह पहले की ही
भांति एक दिन
प्रार्थना कर
रहा था। अत:
उसका एक शिष्य
कुछ बेचैन हो
गया और उसने कहा, ''गुरु जी,
अब आपको
प्रार्थना
करने की जरूरत
नहीं है। आप
तो बुद्धत्व को
प्राप्त कर
चुके हैं आप
प्रार्थना
क्यों कर रहे
हैं? ''
कहते
हैं बायजीद ने
कहा, ''पहले
मैं बुद्धत्व
के लिए
प्रार्थना कर
रहा था। अब भी
मैं बुद्धत्व
के लिए ही
प्रार्थना कर
रहा हूं।''
शिष्य
तो कुछ न समझ
सका और बोला, ''आपका
मतलब क्या है?''
गुरु
ने उत्तर दिया, ''पहले
मैं इसलिए
प्रार्थना
करता था ताकि
बुद्धत्व
घटित हो जाए।
अब वह छ हो गया
है। अब मैं
कृतज्ञता में
प्रार्थना
करता हूं धन्यवाद
में
प्रार्थना
करता हूं कि
वह घट गया।‘’ किंतु प्रार्थना
चलती है—वही
प्रार्थना।
प्रार्थना
एक भाव है, एक रुख है।
गुरु तो सदा
सदगुणों की
खान है।
वस्तुत:
उपनिषद रचे ही
गुरु के
द्वारा गये हैं,
न कि किसी
और के द्वारा।
कोई उपनिषद
गुरु पैदा
नहीं कर सकता।
और एक गुरु
प्रयाप्त है
सारे
उपनिषदों की
रचना के लिए।
किंतु फिर भी
गुरु कहता है :
उपनिषदों
में जो भी
सदगुण हैं वे
मुझमें निवास
करें; मैं
जो कि आत्मा
के प्रति
भक्तिपूर्ण
हूं सदगुण
मुझमें निवास
करें ओम, शांति
शांति शांति।
दिनांक 8
जुलाई 1973;
संध्या, माउंट
आबू
राजस्थान।
THANK YOU GURUJI
जवाब देंहटाएं