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गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

निर्वाण-उपनिषद--(प्रवचन-02)

दूसरा—प्रवचन

निर्वाण उपनिषद—अव्‍याख्‍यकी व्‍याख्‍या का एक दुस्‍साहस



ऋतम् वदिष्यामि। सत्यम् वदिष्यामि। तन्मामवतु। तद्वक्तारमवतु। अवतुमाम्। अवतु वक्तारमवतु वक्तारम्।
                  ओम शांति: शांति: शांति:।।

                  अथ निर्वाणोपनिषदम् व्याख्यास्याम:
                  परमहंस: सोऽहम्।
                  परिव्राजक? पश्चिम लिंगा:।
                  मन्मथक्षेत्रपाला:।

मैं ऋत भाषण करूंगा, सत्य भाषण करूंगा। मेरी रक्षा करो। वक्ता की रक्षा करो। मेरी रक्षा करो, वक्ता की रक्षा करो। वक्ता की रक्षा करो।
                  ओम शांति, शांति, शांति।

            अब निर्वाण उपनिषद का व्याख्यान करते हैं।
            मैं परमहंस हूं।
            संन्यासी अंतिम स्थिति रूप चिह्न वाले होते हैं।
            कामदेव को रोकने में पहरेदार जैसे होते हैं।


साधक की यात्रा जिन दो पैरों से होती है, उन दो पैरों की सूचना शांति पाठ के इस आखिरी हिस्से में है। साधक का एक पैर तो है संकल्प और साधक का दूसरा पैर है समर्पण।
मेरे संकल्प के बिना तो कोई यात्रा प्रारंभ नहीं हो सकती। परमात्मा भी मुझे इंचभर नहीं हिला सकता। मैं जहां हूं वहीं खड़ा रहूंगा। मेरी स्वेच्छा पर, मेरी स्वतंत्रता पर परमात्मा कोई हमला नहीं करता है। इसलिए मैं नर्क भी जाना चाहूं तो भी परमात्मा की तरफ से कोई बाधा नहीं पड़ेगी।

मेरा संकल्प प्राथमिक है। मैं कहां जाना चाहता हूं क्या होना चाहता हूं उसके लिए मेरे प्राणों की तत्परता जरूरी है। लेकिन वह भी काफी नहीं है, नाट इनफ। मेरा सारा संकल्प भी हो तो भी काफी नहीं है। मेरे बिना संकल्प के एक इंच यात्रा नहीं होगी, लेकिन मेरे संकल्प से ही यात्रा नहीं हो सकती, मात्र संकल्प से ही यात्रा नहीं हो सकती। मुझे उस परम शक्ति का सहारा भी खोजना होगा। व्यक्ति की शक्ति इतनी कम है—न के बराबर—कि अगर परम शक्ति का सहारा न मिले, तो भी यात्रा नहीं हो सकती। इसलिए इस हिस्से में ऋषि ने कहा है, मैं ऋत भाषण करूंगा। मैं सत्य भाषण करूंगा।
यह संकल्प है।
यह ऋषि कहता है, मैं ऋत भाषण करूंगा।
ऋत बहुत अदभुत शब्द है। ऋत का अर्थ होता है. स्वाभाविक, प्राकृतिक, जैसा है वैसा। मैं वही कहूंगा, जैसा है वैसा। लेकिन फिर भी कहने वाला तो मैं ही रहूंगा। और जैसा मुझे दिखाई पड़ता है, वह मुझे ही दिखाई पड़ेगा, उसमें भूल हो सकती है। मैं सत्य भाषण करूंगा, लेकिन मैं ही करूंगा—मैं जैसा हूं। जिस बात को सत्य समझूंगा, बोल दूंगा, लेकिन वह असत्य भी हो सकता है। मुझे जो सत्य दिखाई पड़ता है, जरूरी नहीं है कि सत्य हो ही। मुझे जो असत्य मालूम पड़ता है, जरूरी नहीं है कि असत्य हो ही। मुझसे भूल हो सकती है। मेरी आंखें बाधा डालेंगी, मेरी दृष्टि भी तो विकार पैदा करेगी।
अगर आपने चश्मा लगा रखा है और आपको चारों तरफ नीला रंग दिखाई पड़ रहा है, तो आप बिलकुल ही सत्य कह रहे हैं कि चारों तरफ सभी चीजें नीली हैं, फिर भी असत्य कह रहे हैं। और हम सबकी दृष्टि पर चश्मे हैं बहुत तरह के। हम सबके अपने विचार हैं। जब हम सत्य भी बोलते हैं तो हम ही तो निर्णय करते हैं कि सत्य क्या है। और हम इतने गलत हैं कि हमारा निर्णय क्या सही हो पाएगा? फिर भी ऋषि संकल्प करता है कि मैं ऋत भाषण ही करूंगा। जैसा है, वैसा ही कहूंगा, अन्यथा नहीं कहूंगा। सत्य ही बोलूंगा। जो मुझे सत्य मालूम होगा, वही मैं बोलूंगा। फिर भी मेरी रक्षा करो। वह प्रभु से कह रहा है, फिर भी मेरी रक्षा करो।
यह बड़ी कीमती बात है। असत्य बोलने वाला परमात्मा से प्रार्थना करे कि मेरी रक्षा करो, समझ में आता है। सत्य बोलने वाला परमात्मा से प्रार्थना करे कि मेरी रक्षा करो, तो समझ में नहीं आता। सत्य काफी है, सत्य स्वयं ही रक्षा कर लेगा।
लेकिन ऋषि भलीभांति जानता है कि आदमी का सत्य जरूरी नहीं कि परमात्मा का सत्य हो। आदमी इतना कमजोर और इतना विकार से भरा, इतना अंधेरे में पड़ा है कि वह जो देखेगा, वह हो सकता है, उसे सत्य मालूम पड़े और बिलकुल असत्य हो। इसलिए सत्य मैं बोलूंगा, फिर भी मेरी रक्षा करो। वह जो स्वाभाविक है, उसके अनुसार मैं चलूंगा, लेकिन फिर भी मेरी रक्षा करो। क्योंकि जिसे मैं स्वाभाविक समझूंगा, वह है स्वाभाविक, नहीं है स्वाभाविक, यह निर्णय मैं कैसे करूंगा। सत्य बोलकर भी रक्षा की आकांक्षा समर्पण है। ऋत के अनुसार चलकर भी रक्षा की आकांक्षा समर्पण है।
ये ऋषि यह कह रहा है कि मैं सब कुछ भी करूं, तो भी गलत हो सकता है। तुम्हारी रक्षा की जरूरत पड़ती ही रहेगी। इसमें दोहरी बातें हैं। घोषणा है अपनी तरफ से कि मैं सत्य बोलूंगा और यह भी घोषणा है अपनी तरफ से कि मेरे सत्य के सत्य होने का भरोसा क्या है।
सुना है मैंने कि एक नगर में एक ईसाई पादरी और एक यहूदी पुरोहित पड़ोसी थे। कभी—कभी उनकी बातचीत हो जाती थी। तो एक दिन ईसाई पादरी ने यहूदी पुरोहित को कहा कि हम दोनों ही तो ईश्वर का काम करते हैं। फिर झगड़ा कैसा! फिर विरोध कैसा! मैं भी तो सत्य का ही काम करता हूं तुम भी सत्य का काम करते हो, फिर विवाद क्या है? यहूदी ने कहा कि बात तो ठीक है, हम दोनों ही सत्य का काम करते हैं। लेकिन तुम उस सत्य का काम करते हो, जैसा तुम्हें दिखाई पड़ता है, और मैं उस सत्य का काम करता हूं जैसा परमात्मा को दिखाई पड़ता है। इसलिए विवाद है।
कौन तय करेगा कि कौन सा सत्य परमात्मा का सत्य है। अगर हम तय करेंगे तो वह भी हमारा ही तय करना है।
इसलिए महावीर जैसे व्यक्ति ने, जिसने कि सत्य को पहला धर्म और सत्य पर ही सारे जीवन को आधारित करने की चेष्टा की, किसी को भी असत्य कहना बंद कर दिया था। अगर कोई बिलकुल सरासर झूठ बोल रहा हो, सरासर झूठ—जैसे कि सूरज निकला हो और कोई कहता हो कि आधी रात है—तो भी महावीर कहते थे कि तुम्हारी बात में कुछ सत्य तो है। तो भी। क्योंकि महावीर कहते थे कि माना अभी आधी रात नहीं है, लेकिन यही सूरज आधी रात को थोड़ी देर में ले आएगा। इसी में छिपी है, इस भरी दोपहरी में आधी रात छिपी है। तुम्हारी बात में भी थोड़ा सत्य है।
अगर कोई जीवित व्यक्ति को भी कह देता है कि यह मरा हुआ है, तो महावीर कहते, तुम्हारी बात में थोड़ा सत्य है, क्योंकि जिसे हम जीवित कह रहे हैं, यह थोड़ी देर में मर ही तो जाएगा। और जो मर ही जाएगा, उस पर क्या विवाद करना कि वह अभी मरा है कि नहीं मरा है। मर ही जाएगा तो मरा ही है। तुम्हारी बात में भी सत्य है।
महावीर का विचार बहुत प्रभावी नहीं हो सका, क्योंकि किसी भी विचार के प्रभावी होने के लिए आग्रहशील लोग चाहिए—डागमेटिक, जो कहें, यही सत्य है। अब ऐसे आदमी की बात कौन सुनेगा जो कहेगा कि तुम भी सत्य हो, वह भी सत्य है, सभी सत्य हैं। ऐसे आदमी की बात में आग्रह न होने के कारण पंथ का निर्माण बहुत मुश्किल है। अति कठिन है।
उपनिषदों का कोई पंथ निर्मित नहीं हुआ। उपनिषद बिलकुल ही गैर पाथिक हैं, नान सेक्टेरियन हैं। और उसका कारण है कि ऋषियों की पूरी चेष्टा यह है कि सत्य कहें, फिर भी इस बोध के साथ कि हमारा सत्य हमारा ही सत्य होगा, आदमी का सत्य आदमी का सत्य होगा। और आदमी क्या उस विराट सत्य को छू पाएगा, आदमी रहते हुए!
इसलिए ऋषि कहता है, प्रभु, मेरी रक्षा करना। सत्य मैं बोलूंगा, जितनी मेरी सामर्थ्य है; सत्य मैं खोजूंगा, जितनी मेरी सामर्थ्य है। लेकिन मेरी सामर्थ्य मुझे पता है। तू रक्षा करना।
वक्ता की रक्षा करो मेरी रक्षा करो।
वक्ता को क्यों बीच में ले आया, मेरी रक्षा पर्याप्त थी! मेरी रक्षा में वक्ता की रक्षा भी आ जाती थी। लेकिन विशेष रूप से ऋषि कहता है दो—दो बार, वक्ता की रक्षा करो।
यह बहुत मजे की बात है। सत्य का अनुभव जब होता है किसी को, तब सत्य जितना बड़ा होता है और जब वही व्यक्ति सत्य को बोलने जाता है तो उतना ही बड़ा नहीं रह जाता, और भी सिकुड़ जाता है। एक तो सत्य है बहुत विराट और आदमी बहुत छोटा। जब आदमी सत्य को देखता है तो वह ऐसे ही जैसे एक छोटे से पानी के डबरे में चांद का प्रतिबिंब बनता है। बहुत छोटा आदमी जब सत्य को देखता है, तो सत्य उसके ही अनुपात में छोटा हो जाता है। लेकिन दूसरी दुर्घटना घटती है तब, जब वह सत्य को बोलने जाता है। वह और बड़ी दुर्घटना है। फिर तो उतना भी नहीं बचता, जितना उसने देखा था। परमात्मा का सत्य तो कितना है, पता नहीं। आदमी को जितना सत्य मालूम पड़ता है, उतना भी वाणी नहीं कह पाती। और सिकुड़ जाता है।
इसलिए ऋषि कहता है कि मेरी रक्षा करो कि मैं जब सत्य को जानूं तो ऐसा न समझ लूं कि यहीं पूरा हो गया। जानता रहूं कि शेष है, जानता रहूं कि शेष है, यात्रा बाकी है। जानता रहूं कि सागर को मैंने छू लिया, लेकिन सागर को पा नहीं लिया है। और सागर में मैं खड़ा हो गया, फिर भी सागर की सीमाएं मेरी हाथ की मुट्ठी में नहीं आ गई हैं। यह मैं जानता रहूं और जब मैं कहने जाऊं, जब मैं बोलने जाऊं, तब मेरी और भी रक्षा करना। क्योंकि शब्द सत्य को जिस बुरी तरह विकृत करते हैं, कुछ और विकृत नहीं करता। उसका कारण है।
सब शब्द कामचलाऊ हैं। सत्य को जब हम कामचलाऊ शब्दों में प्रकट करते हैं—और कोई शब्द हैं भी नही—तो वह जो कामचलाऊ दुनिया की दुर्गंध है, धूल है, वह सब सत्य के साथ जुड़ जाती है। वे कामचलाऊ शब्द हमारे ओंठों पर चल—चलकर वैसे ही घिस गए हैं जैसे सिक्के चल—चलकर घिस जाते हैं। उन्हीं शब्दों में सत्य को कहना पड़ता है, वह भी घिस जाता है।
फिर अनुभूतियां तो सदा ही गहन होती है, शब्द सदा छिछले होते हैं। बड़ी अनुभूतियां तो छोड़ दें, छोटी अनुभूतियां, आपके पैर में कांटा गड़ गया है और पीड़ा हो रही है। लेकिन जब आप किसी को बताते हैं कि मेरे पैर में पीड़ा हो रही है, तो क्या आप पीड़ा को बता पाते हैं? और जब आप यह कहते हैं कि मेरे पैर में पीड़ा हो रही है, तो क्या वह आदमी समझ पाता है कि कैसी पीड़ा हो रही है!
हां, अगर उसके पैर में भी काटा गड़ा हो, तब तो बात और है। अगर उसके पैर में कांटा न गड़ा हो, तब कुछ भी समझ में नहीं आता। जिस आदमी ने जीवन में किसी को प्रेम न किया हो, उसे प्रेम की बात बिलकुल समझ में नहीं आती। जिस आदमी ने जीवन के संगीत को कभी अनुभव न किया हो और जिसके जीवन में कभी वह जो चारों ओर छाया हुआ काव्य है अस्तित्व का, वह प्रवेश न कर गया हो, उसे कुछ भी समझ में नहीं आता।
रामकृष्ण के जीवन में उल्लेख है कि उन्हें जो पहली समाधि मिली वह छह वर्ष की उम्र में मिली। ऐसे ही किसी पहाड़ के निकट से गुजरते थे, खेत की मेडु पर। हरे— भरे खेत फैले थे। सुबह का सूरज निकला था, पीछे काले बादलों की एक कतार आकाश में थी। और खेत की मेडु से गुजरते ही एक खेत में बैठे हुए बगुलों की एक भीड़ रामकृष्ण के पैर की आहट सुनकर उड़ गई। एक पंक्तिबद्ध बगुले उड़े। पीछे थे काले बादल, सुबह का सूरज, नीचे थी हरियाली, और सफेद बगुलों की पंक्ति का खिंच जाना उन काले बादलों की पृष्ठभुमि में—रामकृष्ण वहीं आंख बंद करके समाधिस्थ हो गए। और जब रामकृष्ण से बाद में लोग पूछते थे, तो रामकृष्ण कहते थे कि बहुत प्रार्थना—पूजा करके भी उस गहराई को पाना मुश्किल मालूम पड़ता है, जो उस दिन बगुलों की वह उड़ी हुई कतार दे गई थी।
आप कहेंगे कि क्या बगुलों की कतार से समाधि मिल सकती है? हमने भी बगुले देखे हैं, काले बादल देखे हैं, हमने भी पहाड़ देखे हैं। लेकिन जिसे जीवन के काव्य का कोई अनुभव नहीं हुआ है, वह रामकृष्ण के इस अनुभव को न समझ पाएगा।
हमें जो अनुभव हैं, वह हम समझ पाते हैं। शब्द उसकी सूचना दे पाते हैं। इसलिए जितना गहरा अनुभव होने लगता है, उतनी ही कठिनाई शब्दों में होने लगती है। और सत्य का अनुभव तो अंतिम है, अल्टीमेट है, आत्यंतिक है, आखिरी है। ऋत का अनुभव तो चरम है। उस अनुभव को शब्द में कहने जब मैं जाऊं, तब तुम मेरी रक्षा करना, ऋषि कहता है प्रभु से।
लेकिन कौन कहता है कि कहने जाना। मत जाना! लेकिन एक कठिनाई है। जितना गहरा अनुभव हो उतनी ही तीव्रता से प्रकट होना चाहता है। उसके कारण हैं।
सत्य का जब अनुभव होता है, तो प्राण हृदय से प्रफुल्लित हो जाते हैं, आनंद से प्रफुल्लित हो जाते हैं। और आनंद का गुण है, बंटने की इच्छा। आनंद बंटना चाहता है। जब आप दुख में होते हैं तो सिकुड़ जाते हैं, बंद। चाहते हैं कोई मिले न, कमरे में छिप जाएं, मर जाएं। जब आप आनंद में होते हैं, तो दौड़ते हैं कि कोई मिल जाए उससे बांट लें।
महावीर और बुद्ध जब दुख में थे तो जंगल चले गए। जब आनंद से भरे तो गाव में वापस लौट आए। यह बहुत मजे की बात है कि जब भी कोई दुखी था तो जंगल में गया और जब आनंद से भरा तो बांटने के लिए नगरों में वापस आ गया। आना ही पड़ेगा। आनंद बंटना चाहता है। शेयर, किसी के साथ साझा, कोई बांट ले, कोई थोड़ा ले ले। क्यों? क्योंकि आनंद जितना बंटता है उतना बढ़ता है। अगर आप अपने पूरे हृदय के आनंद को उलीच दें, तो आप तत्काल पाएंगे उससे अनतगुना आपके हृदय में फिर भर गया।
कबीर ने कहा है, दोनों हाथ उलीचिए। उलीचो। क्योंकि अनंत स्रोत के करीब आ गए हो। अब कितना ही उलीचो, समाप्त नहीं होगा। आनंद तो आनंद है ही, उसका बांटना परम आनंद है।
इसलिए ऋषि कहता है, मेरी रक्षा करना। क्योंकि सत्य का जब मुझे अनुभव होगा, ऋत में मैं जब जीऊंगा तो मैं कहना चाहूंगा, जो मैंने जाना है, वह बताना चाहूंगा। और शब्द नष्ट कर देते हैं। तुम मेरी रक्षा करना।
यह रक्षा की आकांक्षा, यह परमात्मा एक छाया की तरह चारों तरफ आपको घेर ले और आपके साथ चलने लगे! और जब आप सत्य बोलें तब भी जानकर बोलें कि वह आपका सत्य है, और जब तक परमात्मा का उसको सहयोग न हो तब तक उसका कोई मूल्य नहीं है। और जब आप बोलने जाएं तब जानें कि जो आप बोल रहे हैं वह सीमित है, और जब तक असीम पीछे न खड़ा हो, तब तक उसका कोई भी मूल्य नहीं है। तो ऋषि प्रार्थना करता है इस शांति—पाठ में कि मेरी रक्षा करना।    
ओम शांति शांति शांति
यह शांति—पाठ पूरा हुआ। निर्वाण उपनिषद कहने के पहले परमात्मा से यह प्रार्थना कि मैं जो बोलूं उसमें मेरी रक्षा करना, बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि अब ऋषि बोलेगा। अब वह कहेगा। शब्दों में ही कहा जा सकता है। ऐसा नहीं कि निःशब्द में नहीं कहा जा सकता, लेकिन निःशब्द में सुनने वाला खोजना बहुत मुश्किल है। इसलिए मजबूरी में शब्द में कहना पड़ता है। और अगर लोगों को निःशब्द के लिए तैयार भी करना हो, तो भी शब्द के ही सहारे उनको निःशब्द में ले जाना पड़ता है। कठिन है, विपरीत मालूम होता है, लेकिन संभव है।
वीणा का एक तार छेड़ दूं। वीणा के तार से ध्वनि होगी पैदा, उसे सुनते रहें, सुनते रहें, सुनते रहें। धीरे— धीरे ध्वनि खोती जाएगी, निर्ध्वनि प्रकट होने लगेगी। सुनते रहें। ध्वनि क्षीण होने लगेगी। लेकिन जब ध्वनि क्षीण हो रही है, तब जानना कि अनुपात में साथ ही निर्ध्वनि प्रखर हो रही है। जब ध्वनि मिट रही है, तब निर्ध्वनि जन्म रही है। जब ध्वनि खो रही है, तब निर्ध्वनि का आगमन हो रहा है। फिर थोड़ी देर में ध्वनि खो जाएगी, तब क्या शेष रह जाएगा?
अगर कभी ध्वनि का पीछा किया है, तो आपको पता चल जाएगा कि ध्वनि निर्ध्वनि में ले जाती है। शब्द निःशब्द में ले जाते हैं। संसार मोक्ष में ले जाता है। अशांति भी शांति में ले जाने के लिए सेतु बन जाती है। बीमारी भी सीढ़ी बन जाती है स्वास्थ्य के मंदिर तक पहुंचने के लिए। विपरीत का उपयोग करना है। पर उपनिषद की घोषणा करने के पहले, क्योंकि महत घोषणा ऋषि करेगा।
जीवन ने जो भी गहराइयां छुई हैं और ऊंचाइयों के दर्शन किए हैं, जीवन ने जो भी स्वर्णकलश देखे हैं सत्य के, ऋषि इस आने वाले शब्दों में उनकी घोषणा करेगा।
वह परमात्मा से कहता है, मेरी रक्षा करना।
भूल—चूक हो सकती है। शब्द वह कह सकते हैं जो मैं नहीं कहना चाहता था। सुनने वाले वह सुन सकते हैं जो मैंने कहा नहीं था। समझने वाले वह समझ ले सकते हैं जो प्रयोजित ही नहीं था। मेरी रक्षा करना।
क्योंकि कहीं सत्य कहने जाऊं और असत्य को कहने वाला न बन जाऊं। कहीं सत्य को प्रकट करूं और असत्य को देने वाला न बन जाऊं। चाहूं कि लोगों को आनंद बांट दूं और कहीं ऐसा न हो कि उनकी झोलियों में दुख पहुंच जाए। मेरी रक्षा करना।
पहला सूत्र निर्वाण उपनिषद का :
अब निर्वाण उपनिषद का व्याख्यान करते हैं।
ऋषि कहता है, अब उसकी चर्चा करते हैं, जिसकी चर्चा कठिन है। अब उसकी व्याख्या में लगते
हैं, जो अव्याख्य है। जो नहीं कहा जा सकता, उसे अब कहने चलते हैं। जो सिर्फ जाना ही जा सकता है और जीया ही जा सकता है, उसे भी अब शब्द देते हैं।
बुद्ध के पास कोई जाता था तो बुद्ध बहुत से प्रश्नों के उत्तर में कह देते थे—अव्याख्य, और चुप हो जाते थे। वे कह देते थे, नहीं, इसकी व्याख्या नहीं होगी। ऐसे उन्होंने कुछ प्रश्न तय कर रखे थे जिन्हें पूछते ही वे इतना ही कह देते थे अव्याख्य, इसकी व्याख्या नहीं होगी। लोग उनसे पूछते थे कि क्यों नहीं होगी? क्योंकि लोग सोचते हैं कि जो प्रश्न पूछा जा सकता है, उसका उत्तर होना ही चाहिए। लोग सोचते हैं कि चूंकि हमने प्रश्न बना लिया, इसलिए उत्तर होना ही चाहिए।
आपके प्रश्न बना लेने से यह जरूरी नहीं है कि उत्तर हो। सच तो यह है कि जिस प्रश्न का उत्तर न हो, जानना कि उस प्रश्न के बनाने में कहीं कोई बुनियादी भूल हुई है। लेकिन भाषा ऐसी भ्रांति पैदा कर सकती है कि प्रश्न बिलकुल रिलेवेंट है, संगत है।
अब कोई आदमी पूछ सकता है कि सूरज की किरण का स्वाद कैसा है? प्रश्न में क्या गलती है? प्रश्न बिलकुल ठीक है। कोई आदमी पूछ सकता है कि प्रेम की ध्वनि कैसी है? प्रश्न बिलकुल ठीक मालूम पड़ता है। लेकिन प्रेम में कोई ध्वनि नहीं होती। असंगत है। प्रेम का ध्वनि—निर्ध्वान से कोई संबंध नहीं है। सूर्य की किरण में स्वाद नहीं होता, न बेस्वाद होती है। असंगत है, स्वाद का कोई संबंध ही नहीं है।
मेटाफिजिक्स, दर्शनशास्त्र बहुत से फिजूल प्रश्न पूछता है। इसीलिए तो दर्शनशास्त्र किसी प्रश्न का हल नहीं निकाल पाता। मगर प्रश्न भाषा में मालूम पड़ता है, बिलकुल ठीक है। एक आदमी पूछ लेता है कि इस जगत को किसने बनाया? बिलकुल ठीक सवाल है, बिलकुल ठीक मालूम पड़ता है। सवाल में क्या गलती है? लेकिन एकदम गलत है।
गलत क्यों है? गलत इसलिए है कि बनाने का सवाल उठाना ही एक ऐसा सवाल उठाना है जिसको कोई भी जवाब हल न कर पाएगा। क्योंकि अगर हम कहें, परमात्मा ने बनाया तो सवाल परमात्मा के पीछे खड़ा हो जाएगा कि परमात्मा को किसने बनाया? अगर हम और कोई नंबर दो का परमात्मा खोजें तो सवाल उसके पीछे खड़ा हो जाएगा कि इस नंबर दो के परमात्मा को किसने बनाया? यह सवाल किसी भी जवाब के पीछे खड़ा हो जाएगा। ऐसा कोई जवाब नहीं हो सकता जिसके लिए यह सवाल न खड़ा किया जा सके। फिर जवाब का कोई मतलब नहीं रह जाता।
इसलिए अगर बुद्ध से आप पूछेंगे, इस जगत को किसने बनाया? तो वे कहेंगे, अव्याख्य। इसकी व्याख्या नहीं होती। इसलिए नहीं कि बुद्ध को व्याख्या का पता नहीं है। बल्कि इसलिए कि आप एक गलत सवाल पूछ रहे हैं। और गलत सवाल का जवाब जब भी दिया जाएगा, वह सवाल का जवाब उतना ही गलत होगा, जितना सवाल था। और हम बहुत गलत सवाल पूछते हैं और हमारे बीच पूछने वालों से भी ज्यादा गलत जवाब देने वाले लोग मौजूद हैं। वे तैयार ही हैं कि आप पूछो और वे दें। और जमीन गलत जवाबों से बहुत परेशान है, बहुत पीड़ित है।
ऋषि कहता है कि अब हम निर्वाण उपनिषद के व्याख्यान में प्रवृत्त होते हैं
यह बड़ा असंभव कार्य अपने हाथ में लेना है। इंच—इंच फूंककर पैर रखना पड़ेगा। शब्द—शब्द तौलकर बोलना पड़ेगा। इसलिए निर्वाण उपनिषद बहुत अदभुत उपनिषद है। इसमें एक—एक शब्द तुला हुआ है, कटा हुआ है, निखारा हुआ है। बहुत छोटा उपनिषद है। एक—एक शब्द में बात कहने की कोशिश की गई है। क्योंकि जितने कम शब्द हों, उतने कम भूल की संभावना है।
सूफियों के पास एक किताब है। उस किताब का नाम है, द बुक आफ द बुक्स, किताबों की किताब। और उसमें लिखा कुछ भी नहीं है। खाली है। उसमें कुछ भी लिखा हुआ नहीं है। उसको छापने को कोई प्रकाशक राजी नहीं था। छापकर भी क्या करिएगा! और कौन पागलपन में पड़े उसको छापने के? और छापकर उसको खरीदेगा कौन? जो भी उसको भीतर देखेगा, उसमें कुछ है ही नहीं।
अभी एक प्रकाशक ने हिम्मत की है। पर उसने भी इसलिए हिम्मत की कि वह जो शून्य है किताब, मोहम्मद का एक वंशज उस पर छोटी सी एक टिप्पणी लिखने को राजी हो गया। इदरिस शाह ने एक छोटी सी भूमिका लिखी, इंट्रोडक्यान। वह जो खाली किताब है, जिसमें कुछ भी नहीं है, उसके लिए एक भूमिका लिखी दस—बीस पन्नों की। तो बीस पन्नों में भूमिका है और दो सौ पन्ने खाली हैं। अभी वह किताब छपी है।
अनेक लोग उसको भूल में खरीद लेते हैं, क्योंकि वे पहले भूमिका देखते हैं। कौन पूरी किताब देखता है! जब वे भूमिका के बाद किताब पर पहुंचते हैं तो वहां तो बिलकुल खाली है। भूमिका में उसने यह समझाने की कोशिश की है कि किताब खाली क्यों है। लेकिन मैं मानता हूं कि इदरिस शाह ने अन्याय किया। पांच सौ, सात सौ साल से हिम्मतवर लोग उसे खाली रखे थे, उसको थोड़ा भरा। और जब किताब लिखने वालों ने ही खाली रखी थी तो उसके लिए किसी भूमिका की जरूरत नहीं है। वह खाली ही होनी चाहिए। लेकिन छापने को कोई राजी नहीं था। पढ़ने को भी कोई राजी नहीं होता, इसलिए बेचारे इदरिस शाह को गलत काम करना पड़ा।
एक अर्थ में तो ऋषि गलत काम करने जा रहा है, इसीलिए परमात्मा से रक्षा मांगता है। गलत, गलत यह है कि जो शब्दों में नहीं कहा जा सकता, उसको वह शब्द में कहेगा। ऋषि का वश चले तो किताब को खाली छोड़ दे। लेकिन तब वह आपके काम की न होगी। क्योंकि खाली किताब को पढ़ना बड़ी कठिन बात है। और जो खाली किताब को पढ़ने में समर्थ हो जाता है, फिर उसे और कोई किताब पढ़ने की इस दुनिया में जरूरत नहीं रह जाती।
ऋषि कहता है, व्याख्यान शुरू करते हैं व्याख्या शुरू करते हैं निर्वाण उपनिषद की।
इसमें एक और बात छिपी है। इसमें यह बात छिपी है कि ऋषि निर्वाण उपनिषद नहीं लिख रहा है, सिर्फ निर्वाण उपनिषद का व्याख्यान कर रहा है। यह बहुत और अदभुत मामला है। इसका मतलब यह हुआ कि निर्वाण उपनिषद तो शाश्वत है, वह तो सदा से चल रहा है, ऋषि सिर्फ व्याख्या करते हैं। जब निर्वाण उपनिषद नहीं था, क्योंकि जिसे हम आज निर्वाण उपनिषद कहते हैं, वह तो इसी ऋषि ने कहा है। पर वह कहता है, हम सिर्फ व्याख्या कर रहे हैं उसकी, जो सदा से है। हम तो सिर्फ उसका व्याख्यान कर रहे हैं, जो सदा से है। इसलिए किसी ऋषि ने उपनिषद का अपने आप को लेखक नहीं माना, सिर्फ व्याख्यान करने वाला माना।
वह सदा से है, सत्य सदा से है, हम उसकी व्याख्या करते हैं। हमारी व्याख्या गलत भी हो सकती है, उससे सत्य गलत नहीं होता। हमारी व्याख्या भूल—चूक भरी हो सकती है, उससे सत्य भूल—चूक भरा नहीं होता। इसलिए परमात्मा से प्रार्थना कर ली है कि हम एक उपद्रव के काम में उतरते हैं, तू हमारी रक्षा करना।
इतना विनम्र जो व्यक्ति है, इतनी हूमिलिटी है जहां, वह एक पहले ही सूत्र में जो घोषणा करता है, वह बहुत अदभुत है।
वह कहता है, मैं परमहंस हूं। परमहंस: सोsहम्।
जो इतना विनम्र है कि सत्य बोलने में भी कहता है, परमात्मा मेरी रक्षा करना, जो इतना विनम्र है कि इस उपनिषद को रचता है और कहता है कि हम सिर्फ व्याख्यान कर रहे हैं उस उपनिषद पर जो सदा से है, वह पहली ही घोषणा में कहता है, मैं परमहंस हूं।
बड़ा विपरीत मालूम पड़ेगा। लेकिन ध्यान रहे, जो इतने विनम्र हैं, वे ही इतनी स्पष्ट घोषणा कर सकते हैं। विनम्रता ही कह सकती है अपनी गहराइयों में कि मैं परमात्मा हूं नहीं तो नहीं। अहंकार कभी हिम्मत नहीं जुटा सकता कहने की कि मैं परमात्मा हूं। यह बहुत मजे की बात है।
अहंकार कभी हिम्मत नहीं जुटा सकता कहने की कि मैं परमात्मा हूं। अहंकार बहुत निर्बल है। बहुत कमजोर है। यह उसका साहस नहीं है। वह छोटे —मोटे दावे कर सकता है कि मैं चीफ मिनिस्टर हूं कि प्राइम मिनिस्टर हूं कि राष्ट्रपति हूं ये दावे कर सकता है। लेकिन अहंकार यह दावा कभी नहीं कर सकता है कि मैं परमात्मा हूं। नहीं करने का कारण है। क्योंकि राष्ट्रपति कोई हो जाए तो अहंकार बड़ा होता है, लेकिन परमात्मा कोई हो जाए तो अहंकार शून्य हो जाता है। मैं परमात्मा हूं यह कहने का अर्थ है कि मैं नहीं हूं। मैं परमात्मा हूं यह कहने का अर्थ है, मैं की हत्या हो गई।
इस पृथ्वी पर सर्वाधिक अंहकारपूर्ण दिखने वाली घोषणाएं—दिखने वाली, जस्ट इन एपियरेंस—उन लोगों ने की हैं जो बिलकुल विनम्र थे, जिनके जीवन में अस्मिता थी ही नहीं। कृष्ण कह सकते हैं अर्जुन से, सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। सब छोड़, मेरे चरणों में आ। यह कोई अहंकारी नहीं कह सकता। अहंकारी कोशिश यही करता है कि सब छोड़ और मेरे चरणों में आ। लेकिन यह कह नहीं सकता। अहंकार होशियार है। वह जानता है कि अगर अपने अहंकार को प्रगाढ़ करना हो तो छिपाओ, बचाओ। अगर अपने अहंकार को बड़ा करना हो तो दूसरे के अहंकार को चोट मत पहुंचाओ, परसुएड करो, दूसरे के अहंकार को राजी करो। कृष्ण जैसा निरहंकारी ही कह सकता है कि सब छोड्कर मेरे चरणों में आ जा।
यह उपनिषद का ऋषि कहता है, मैं परमहंस हूं। यह पहली घोषणा है निर्वाण उपनिषद की।
क्या अर्थ है परमहंस होने का? यह पारिभाषिक शब्द है। हंस के साथ एक माइथोलाजी, एक मिथ, एक पुराण—कथा चलती है कि वह दूध और पानी को अलग—अलग करने में समर्थ है। है या नहीं, इससे कोई प्रयोजन नहीं है। यह शाब्दिक है। यह शब्द हंस अर्थ रखता है कि जो दूध और पानी को अलग करने में समर्थ है। और परमहंस उसे कहते रहे हैं, जो सार और असार को अलग करने में समर्थ है, जो सत्य और असत्य को अलग करने में समर्थ है।
तो ऋषि कहता है, मैं परमहंस हूं। मैं वही हूं जो सार और असार को अलग करने में समर्थ है। यह घोषणा पहले ही सूत्र में! यह घोषणा उचित है, क्योंकि पीछे सार और असार को अलग करने की ही चेष्टा है। ऋषि बड़ी विनम्रता से कहता है कि मैं सार और असार को अलग करने में समर्थ हूं। एक अर्थ। दूसरा अर्थ : ऋषि जब कहता है, मैं परमहंस हूं तो सिर्फ अपने लिए ही नहीं कह रहा है। जो भी अपने को मैं कह सकते हैं, वे परमहंस हो सकते हैं। जहा—जहां मैं है, वहां—वहां परमहंस छिपा है। उसका उपयोग करें, न करें, वह आपकी मर्जी। सार—असार को अलग करें, न करें, वह आपकी मर्जी है।
लेकिन क्या आपने कभी खयाल किया है कि जब आप असत्य बोलते हैं, तब आपके भीतर कोई जानता है कि असत्य है? जब आप सत्य बोलते हैं, तब कोई आपके भीतर जागा हुआ जानता है कि सत्य है? कभी आपने खयाल किया है कि भीतर किसी बिंदु पर आप चीजों के बीच फासले को सदा जानते हैं? बात और कि अपने को धोखा दे लेते हैं, बात और कि अपने को समझा लेते हैं, बात और कि आदत बना लेते हैं भ्रांति की। लेकिन कितनी ही गहरी आदत हो, एक भीतर कोई दीया जलता ही रहता है सदा, जो बताता रहता है, कहा प्रकाश है और कहां अंधकार है।
उस दीए का नाम परमहंस है। वह सबके भीतर है। वह बुरे से बुरे आदमी के भीतर उतना ही है, जितना भले से भले आदमी के भीतर है। उसके अनुपात में कोई भेद नहीं है। वह पापी से पापी के भीतर उतना ही है, जितना पुण्यात्मा के भीतर है। जो फर्क है, वह उस भीतर की ज्योति का नहीं है, उस परमहंस का नहीं है। जो फर्क है, वह उस परमहंस को झुठलाने का, उस परमहंस को इंकार करने का। हम चाहें तो अपने को प्रवंचना में डालते रह सकते हैं। जिस दिन हम चाहें, प्रवंचना को तोड़ सकते हैं। क्योंकि हम कितनी ही प्रवंचनाएं करें, हम उस परमहंस के स्वभाव को विकृत नहीं कर पाते हैं।
इसलिए ठीक अर्थों में कोई आदमी कभी पापी नहीं हो पाता। कभी पापी नहीं हो पाता। कितना ही पाप करे, फिर भी उसके भीतर एक निष्पाप तल सदा ही बना रहता है। और इसलिए अक्सर यह घटना घटती है कि बड़े पापी क्षण में निष्पाप में प्रवेश कर जाते हैं। क्योंकि जिन्हें पाप का बहुत अनुभव होता है। उसके साथ ही उन्हें भीतर के निष्पाप बिंदु का भी अनुभव होता है। कंट्रास्ट! जैसे कि सफेद दीवार पर काली रेखा कोई खींच दे, या काली दीवार पर कोई सफेद रेखा खींच दे। पापी को अपने भीतर के निष्पाप बिंदु का बड़ा गहरा अनुभव होता है। साफ दिखाई पड़ता है।
और इसलिए जिनको हम मीडियाकर कहें—जो न पापी होते हैं, न पुण्यात्मा होते हैं, जो बड़े समन्वयी होते हैं, जो थोड़ा पाप कर लेते हैं, थोड़ा पुण्य करके बैलेंस करते रहते हैं—ऐसे लोगों की जिंदगी में क्रांति मुश्किल से घटित होती है, क्योंकि कंट्रास्ट नहीं होता। न पाप होता है, न निष्पाप का बोध होता है। दोनों फीके हो जाते हैं। दोनों फीके हो जाते हैं।
इसलिए अगर कभी गहरे पापी की आंखों में झांकें, तो उसमें बच्चे की आंखें  दिखाई पड़ जाएंगी। लेकिन एक साधारण आदमी के, जो पाप करना भी चाहता है, समझा भी लेता है, नहीं भी करता है; पाप भी कर लेता है, सम्हालने के लिए पुण्य भी कर लेता है, हिसाब—किताब बराबर रखता है, ऐसे आदमी की आंखों में सदा कनिगनेस, चालाकी दिखाई पड़ेगी, बच्चे की सरलता दिखाई नहीं पड़ेगी। वह जो भीतर परमहंस है, वह तो सबके भीतर है। वह नष्ट नहीं होता। किसी भी क्षण में उसे पाया जा सकता है और छलांग लगाई जा सकती है। उस छलांग के लिए ऋषि पहले यह घोषणा करता है कि मैं परमहंस हूं। यह घोषणा सबकी तरफ से है। यह सिर्फ ऋषि के मैं की घोषणा नहीं है। यह जो भी अपने को मैं कह सकते हैं, उन सबकी तरफ से है। इस परमहंस को अगर विकसित करना हो, सजग करना हो, ज्योतिर्मय करना हो, तो इसका उपयोग करना चाहिए।
हम जिस चीज का उपयोग करते हैं, वहीं प्रगाढ़ हो जाती है, प्रखर हो जाती है, तेजस्वी हो जाती है। अगर हम बैठे रहें तो पैर चलने की क्षमता खो देते हैं, अगर हम आंखें  बंद करे रहें तो कुछ ही दिनों में आंखें  देखना बंद कर देती हैं। उपयोग करना पड़े।
सुना है मैंने, कोई दो सौ साल आगे की कहानी सुनी है। बाइसवीं सदी में जैसे और सब चीजें बिकती हैं, ऐसे ही लोगों के मस्तिष्क भी बिकने लगे हैं, स्पेयर। आपको अपना दिमाग अगर ठीक नहीं मालूम पड़ता है, तो आप जा सकते हैं और अपनी खोपड़ी के भीतर जो है, उसे बदलवा सकते हैं।
एक आदमी एक दुकान में गया है, जहां मस्तिष्क बिकते हैं। अनेक तरह के मस्तिष्क हैं। दुकानदार ने उसे मस्तिष्क दिखाए और उसने कहा कि यह एक वैज्ञानिक का मस्तिष्क है, पांच हजार रुपए इसके दाम होंगे। उसने कहा, यह तो बहुत ज्यादा हो जाएगा। लेकिन इससे भी अच्छे मस्तिष्क हैं क्या? तो उसने बताया है कि यह एक धार्मिक आदमी का मस्तिष्क है, इसके दाम दस हजार रुपए होंगे। उसने कहा, बहुत महंगा है। लेकिन क्या इससे भी कोई अच्छा है? उसने कहा, सबसे अच्छा यह मस्तिष्क है, इसके दाम पच्चीस हजार रुपए होंगे। उसने कहा, यह किसका मस्तिष्क है? क्योंकि वह चकित हुआ। वैज्ञानिक का पांच हजार दाम है, धार्मिक का दस हजार दाम, यह किसका मस्तिष्क है! उसने कहा, यह राजनीतिज्ञ का मस्तिष्क है। तो उस आदमी ने कहा, राजनीतिज्ञ के मस्तिष्क का इतना दाम! तो उस दुकानदार ने कहा, बिकाज इट हैज बीन नेवर प्ल, इसका कभी उपयोग नहीं किया गया है। राजनीतिज्ञ को दिमाग का उपयोग करने की जरूरत भी क्या है? तो यह बिलकुल फ्रेश है, क्योंकि कभी भी इसका उपयोग नहीं हुआ। एक मील भी नहीं चला। बिलकुल ताजा है। इसलिए इसके दाम ज्यादा हैं।
किसी दिन अगर मस्तिष्क बिकें तो राजनीतिज्ञों के मस्तिष्कों के दाम ज्यादा होंगे। जिस चीज का उपयोग न किया जाए, बंद पड़ जाती है। अगर एक घड़ी की गारंटी दस साल चलने की हो और आप चलाएं ही न, तो सौ साल चल सकती है। चल सकती है मतलब चलाएं ही न! जिस चीज का हम उपयोग नहीं करते उसके चारों तरफ अनुपयोग की एक आवरण, व्यवस्था निर्मित हो जाती है।
हम अपने जीवन में इस परमहंस—पन का जरा भी उपयोग नहीं करते। हम कभी सार और असार में फर्क नहीं करते। धीरे—धीरे, धीरे— धीरे हम भूल ही जाते हैं कि हमारे भीतर वह बैठा है जो जहर और अमृत को अलग कर सकता है।
ध्यान रहे, हम जहर को चुन ही इसीलिए पाते हैं, क्योंकि वह जो अलग करने वाला है, करीब—करीब निष्क्रिय पड़ा है। नहीं तो जहर को कोई चुन न पाए। अगर आपको दिखाई पड जाए कि सार क्या है और असार क्या है, तो क्या असार को चुन सकिएगा? सार को छोड़ सकिएगा? दिख गया तो बात समाप्त हो गई।
इसलिए सुकरात कहता था : ज्ञान ही क्रांति है, शान ही आचरण है। अगर दिखने लगा कि यह पत्थर है, हीरा नहीं, तो उसको कैसे ढोइएगा! अगर समझ में आ गया कि यह नकली सिक्का है, असली नहीं, तो इसको तिजोरी में सम्हालकर कैसे रखिएगा! तिजोरी में तभी तक सम्हालकर रख सकते हैं जब तक वह असली मालूम पड़ता रहे।
जिंदगी की सारी बुराई, जिंदगी की सारी भूल—हमारे भीतर के वह जो परमहंस का सोया होना है, वही है। एक बार उसका आविर्भाव हो जाए तो गलत को छोड़ना नहीं पड़ता। गलत को जान लेना कि वह गलत है, गलत का छूट जाना हो जाता है। सही को पकड़ना नहीं पड़ता। सही का सही दिखाई पड़ जाना, सही का पकड़ना हो जाता है। गलत को कोई पकड़ ही नहीं सकता। वह असंभव है। अगर गलत को भी पकड़ना हो तो उसमें सही की भांति पैदा करनी पड़ती है। और सही की भ्रांति पैदा करनी हो तो परमहंस का सोया होना जरूरी है।
तो ऋषि कहता है, मैं परमहंस हूं।
इससे घोषणा से काम शुरू करता है। निश्चित ही यह पहला सूत्र होना चाहिए। यह पहला सूत्र होना चाहिए आध्यात्मिक ज्यामिति का कि मैं परमहंस हूं। क्योंकि फिर सार और असार में फर्क किया जा सकेगा, भेद किया जा सकेगा।
दूसरे सूत्र में ऋषि कहता है, संन्यासी अंतिम स्थिति रूप चिहृ वाले होते हैं।
मैं परमहंस हूं। संन्यासी कौन है? संन्यासी वह है जो परमहंस के अंतिम चिह्नों वाला होता है। परमहंस के अंतिम चिह्न क्या हैं? परमहंस का पहला चिह्न क्या है? परमहंस का पहला चिह्न है, सार और असार में भेद। परमहंस का अंतिम चिह्न है, भेद भी नहीं, जीना। परमहंस का पहला चिह्न है, सार और असार के भेद का अभ्यास। परमहंस का अंतिम चिह्न है, अभ्यास भी नहीं।
साधारण साधक जब यात्रा शुरू करता है तो उस बात को करने की कोशिश करता है, जो ठीक है। उसको छोड़ने की कोशिश करता है, जो ठीक नहीं है। लेकिन साधक जब सिद्ध हो जाता है, तब हम ऐसा नहीं कह सकते कि सिद्ध, जो गलत है, उसको नहीं करता और जो सही है, उसको करता है। सिद्ध का अर्थ होता है कि वह जो करता है, वही सही है और जो नहीं करता, वही गलत है। अंतिम लक्षण। प्राथमिक लक्षण, जो सही है वह हम करेंगे, जो गलत है वह न करेंगे। अंतिम लक्षण, हम जो करेंगे, वही सही है, हम जो नहीं करेंगे, वही गलत है।
संन्यासी परमहंस के अंतिम लक्षण वाले होते हैं। वे वही करते, वे वही कर पाते, वही उनका स्वभाव हो जाता, जो सही है।
रिंझाई एक फकीर हुआ जापान में। अपने गुरु से उसने पूछा कि सही क्या है, गलत क्या है? तो उसके गुरु ने कहा, मैं जो करता हूं उसका ठीक से निरीक्षण कर। जो मैं करता हूं वह सही है, जो मैं नहीं करता, वह गलत है। रिंझाई ने अपने गुरु को कहा कि क्या आपसे कभी गलती नहीं होती? गुरु ने कहा, अगर मैं होता तो गलती हो सकती थी। वह आदमी अब न रहा जिससे गलती हो सकती थी। मैं बचा नहीं, जिससे गलती हो सकती थी। कौन करेगा गलती? मैं हूं नहीं। और अगर तुम सोचते हो कि परमात्मा गलती कर सकता है, तो फिर गलती ही सही है।
हिम्मतवर लोग। इतना विनम्र आदमी था यह रिंझाई का गुरु। इतना विनम्र आदमी था कि जापान का सम्राट उत्सुक था किसी को ' गुरु बनाने के लिए। तो उसने न मालूम कितने साधु—संन्यासियों को बुलाया, लेकिन कोई उसे जंचा नहीं। फिर उसने बड़ी खोज की तो किसी ने उसे कहा कि एक ही आदमी है —रिंझाई का गुरु।
ध्यान रहे, रिंझाई के गुरु का कोई नाम नहीं था, इसलिए मैं बार—बार कह रहा हूं रिंझाई का गुरु। नाम नहीं था इस आदमी का। और वह आदमी कहता है कि मैं जो करता हूं वही सही है, और मैं जो नहीं करता, वही गलत।
तो कहा कि एक आदमी है, लेकिन उसका नाम नहीं है। इसलिए उसको बुलाइएगा कैसे! और वह दरबार में आने को राजी होगा, कुछ कहा नहीं जा सक्ता। कभी तो वह झोपड़े में जाने को भी राजी हो जाता है, कभी वह राजमहल में भी जाने को राजी नहीं होता है। वह हवा—पानी की तरह है। उसका कोई भरोसा नहीं कि वह किस तरफ बहने लगे। आपको ही जाना पड़ेगा। पर सम्राट ने कहा कि जिसका नाम नहीं है मैं पूछूंगा कैसे कि किसको खोज रहा हूं! तो सलाह देने वालों ने कहा कि यह है कठिनाई। लेकिन आप यही पूछते हुए खोजना कि मैं उसको खोज रहा हूं जिसको खोजना बहुत मुश्किल है। शायद कोई बता दे। शायद कहीं वह मिल जाए।
सम्राट गया। गांव के बाहर पत्थर पर, एक चट्टान पर बैठा हुआ एक फकीर था। सम्राट ने उससे पूछा कि मैं उसको खोज रहा हूं जिसको खोजा नहीं जा सकता। कुछ पता बता सकते हो? उसने कहा, बहुत लंबी यात्रा है। वर्षों लग जाएंगे। मिल तो जाएगा वह आदमी, लेकिन वर्षों लग जाएंगे, खोजो। कब मिलेगा 3; तो उस फकीर ने कहा कि जब खोजने वाला भी मिट जाएगा। सम्राट ने कहा कि पागलों के चक्कर में पड़ गए। उसे खोजना है जो खोजा नहीं जा सकता, और तब खोज पाएंगे जब खुद ही मिट जाएंगे। लेकिन उस फकीर की आंखों ने मोह लिया और सम्राट उसकी बात मानकर खोज पर निकल गया। कहते हैं, तीस साल उसने खोज की। पूरे जापान का कोना—कोना खोज डाला। जहां फकीर, जहा संन्यासी, जहां साधु, भिखमंगों में, जहां—जहां उसे...।
और तीस साल बाद अपने गाव वापस लौटा और उसी चट्टान पर वही फकीर बैठा था। सम्राट ने उसे देखा और पहचान लिया कि वह वही आदमी है जिसकी मैं खोज कर रहा हूं। उसने उसके पैर पकड़े और कहा कि तुम आदमी कैसे हो! अगर तुम ही थे वह, जो पहले दिन मुझे मिले थे, तो तीस साल मुझे भटकाया क्यों?
तो उस फकीर ने कहा, लेकिन तब मुझे तुम पहचान न सकते थे, क्योंकि तुम थे। परमात्मा के पास से भी आदमी को बहुत बार निकल जाना पड़ता है, क्योंकि सवाल तो पहचानने का है। यह तीस साल भटकना जरूरी था, ताकि तुम वहां पहुंच सको जो बिलकुल निकट था, तुम्हारे गाव के बाहर ही था। जिनका नाम नहीं, वे ऐसी घोषणा कर सकते हैं। जो इतने विनम्र हैं कि मिट गए हैं, वे ऐसी घोषणा कर सकते हैं। ऋषि कहता है, परमहंस का अंतिम लक्षण क्या है? अंतिम चिह्न। अंतिम चिह्न यही है कि वे जो करते हैं, वही सही है; और वे जो नहीं करते हैं, वही गलत है।
यह बहुत खतरनाक वक्तव्य है, टू डेंजरस। और इसलिए जब उपनिषदों का अनुवाद पश्चिम में पहली बार हुआ, तो पश्चिम के विचारकों ने कहा कि इनको पश्चिम में लाना खतरनाक है, डेंजरस है। इनमें बहुत एक्सप्लोसिव, इनमें बहुत बारूद छिपी है। वह बारूद आपको आगे खयाल में आएगी। तीसरे सूत्र में ऋषि कहता है, कामदेव को रोकने में वे पहरेदार जैसे होते हैं।
वासना को रोकने में, काम को रोकने में वे पहरेदार जैसे होते हैं। क्या मतलब है इसका?
बुद्ध कहते थे कि अगर घर का मालिक जगा हो, तो चोर उसके घर में आने की हिम्मत नहीं जुटाते। घर में अगर दीया जला हो और प्रकाश हो, तो चोर उस घर से बचकर चलते हैं। घर के द्वार पर अगर पहरेदार बैठा हो, तो चोर फिर उस घर में प्रवेश पाने की अनुमति तो मांगने नहीं आते। चोर तो वहां प्रवेश करते हैं जहा पहरेदार नहीं हैं, जहां घर का मालिक सोया है और अंधेरा है।
ऋषि कहता है, ऐसे जो परमहंस की शक्ति को जगा लेते हैं, उनके भीतर सतत पहरा, कास्टैंट विजिलेंस, सतत पहरा हो जाता है। उनके भीतर वासना प्रवेश नहीं करती। उनके भीतर कामना प्रवेश नहीं करती। उनके भीतर तृष्णा को रास्ता नहीं रह जाता। ऐसा समझें तो आसान होगा, सोए हुए मन में ही वासना का प्रवेश हो सकता है, अंधेरे से भरे मन में ही वासना का प्रवेश हो सकता है। जहां विवेक अजागरूक है, वहीं वासना का प्रवेश हो सकता है। वासना प्रवेश ही वहां कर सकती है, जहां विवेक नहीं है। जैसे अंधेरा वहीं प्रवेश कर सकता है, जहा प्रकाश नहीं है।
तो इस परमहंस को जिसने भीतर जगा लिया है, वही संन्यासी है। उस संन्यासी के भीतर कामवासना प्रवेश नहीं करती।
ध्यान रहे, ऋषि यह नहीं कहता है कि संन्यासी वह है जो कामवासना पर नियंत्रण पा लेता है। ध्यान रहे, ऋषि यह नहीं कहता कि जिसने नियंत्रण पा लिया। जिसने नियंत्रण पा लिया उसके भीतर तो प्रवेश भलीभांति है। नियंत्रण पाने के लिए भी मकान के भीतर ही चाहिए पड़ेगा। अगर कामवासना पर नियंत्रण पाना है, तो भी उसे भीतर होना चाहिए आपके, तभी तो आप उस पर नियंत्रण पा सकेंगे। नहीं, ऋषि यह भी नहीं कहता कि संन्यासी संयमी होता है। क्योंकि संयम का क्या प्रयोजन है? संयम का तो वहीं प्रयोजन है, जहा असंयमित होने की आकांक्षा  मौजूद हो।
ऋषि इतना ही कहता है कि जैसे पहरेदार बैठा हो और चोर भीतर प्रवेश नहीं करते, ऐसा ही उस व्यक्ति में वासनाएं प्रवेश नहीं करतीं। नहीं, ऐसा नहीं कि वह वासनाओं को हटाता है और निकालता है। बस वे प्रवेश नहीं करतीं—पर परमहंस जागे भीतर। सार और असार दिखाई पड़ने लगे, सार्थक और निरर्थक दिखाई पड़ने लगे, तो अपने आप उस प्रकाश के वर्तुल के भीतर कोई प्रवेश उस सबका नहीं होता, जिससे हम पीड़ित हैं।
दो उपाय हैं। एक उपाय है नैतिक व्यक्ति का। वह कहता है, गलत को हटाओ, सही को लाओ। एक उपाय है धार्मिक व्यक्ति का। वह कहता है, सिर्फ जागो, प्रकाशित हो जाओ। वह जो अंत में छिपा हुआ तुम्हारे भीतर प्रकाश—बीज है, उसे तोड़ दो। वह जो दीया है आवृत्त, उसे अनावृत्त कर दो। फिर बुरा नहीं आता, और जो आता है वह भला ही होता है। ये दो मार्ग हैं—एक मॉरलिस्ट का, नैतिकवादी का; एक धार्मिक का।
ध्यान रहे, धर्म और नीति के रास्ते बड़े अलग हैं। नीति के रास्ते से अनीति कभी समाप्त नहीं होती। धर्म के रास्ते से अनीति का कोई पता ही नहीं चलता। लेकिन नैतिक आदमी धर्म से भी डरता है। क्योंकि उसे डर लगता है कि अगर अनीति पर कोई नियंत्रण न रहे, तो फिर क्या होगा? उसे पता ही नहीं है कि चेतना की ऐसी दशा भी है जहां नियंत्रण की कोई जरूरत ही नहीं होती। चेतना की इतनी प्रबुद्ध स्थिति भी है, जहां विकार सामने आने की हिम्मत ही नहीं करते। इतना जागरूक व्यक्तित्व भी होता है, जहां अंधेरा निकट आने का साहस नहीं जुटा पाता। कोई नियंत्रण नहीं है।
संन्यास धर्म की परम आकांक्षा है। संन्यासी वह नहीं है जो नियंत्रित है, कंट्रोल्ड। संन्यासी वह नहीं है जिसने कि अपने ऊपर संयम थोप लिया। संन्यासी वह है जो इतना जागा कि संयम व्यर्थ हो गया, नियंत्रण की कोई जरूरत न रही।
यह ठीक से समझ लें, क्योंकि आगे के सूत्र बहुत ही क्रांतिकारी हैं और इसको समझेंगे तो ही खयाल में आ सकेंगे। इसको ठीक से समझ लें, अन्यथा आगे के सूत्र कठिन हो जाएंगे। इसलिए उपनिषदों ने नीति की कोई बात नहीं की। ईसाइयों के पास टेन कमांडमेंट्स हैं और ईसाई बड़े गौरव से कह सकते हैं कि तुम्हारे उपनिषदों के पास एक भी कमांडमेंट नहीं, एक भी आदेश नहीं है। दस उनके पास सूत्र हैं—चोरी मत करो, व्यभिचार मत करो, झूठ मत बोलो—ऐसे दस सूत्र हैं।
एक मजाक मैंने सुनी है। सुना है कि परमात्मा उतरा और अनेक लोगों के पास गया। वह गया एक, सबसे पहले, एक राजनीतिज्ञ के पास। सोचा कि यह मान जाए तो बहुत लोग मान जाएंगे। परमात्मा ने उससे कहा कि मैं तुम्हें एक आदेश देने आया हूं क्या तुम लेना चाहोगे? राजनीतिज्ञ ने पूछा कि पहले मैं जांच लूं कि आदेश है क्या? तो परमात्मा ने कहा, झूठ मत बोलो। तो राजनीतिज्ञ ने कहा, मर गए। अगर झूठ न बोलें तो हम मर गए। राजनीति का सारा धंधा झूठ पर खड़ा है। क्षमा करें, आप कोई और आदमी खोजें। यह आदेश हम न मान सकेंगे।
परमात्मा पुरोहित के पास गया, क्योंकि राजनीतिज्ञ के बाद पुरोहित का प्रभाव है। परमात्मा ने उससे भी कहा कि आदेश मैं तुम्हें कुछ देने आया हूं। उसने कहा, कौन सा आदेश? परमात्मा ने कहा, पहला आदेश, झूठ मत बोलो। पुरोहित ने कहा कि अगर हम झूठ न बोलें, तो ये सारे मंदिर, मस्जिद, ये गिरजे, गुरुद्वारे—ये सब गिर जाएं। हमें खुद ही पता नहीं है कि तुम हो, फिर भी हम कहते रहते हैं कि तुम हो। हमें खुद ही पता नहीं है कि कोई मोक्ष है, फिर भी हम समझाते रहते हैं कि मोक्ष है, और लोगो जाओ! हमें खुद ही पता नहीं है कि पाप का कोई दुष्फल मिलता है, लेकिन हम लोगों को समझाते रहते हैं कि पाप का दुष्फल मिलता है, और पीछे के दरवाजे से हम पाप किए चले जाते हैं। नहीं, यह न हो सकेगा, यह तो हमारा पुरोहित का सारा धंधा ही गिर जाएगा। यह तो पुरोहित का धंधा ही झूठ पर खड़ा है। और जो पुरोहित जितनी हिम्मत से झूठ बोल सकता है उतना धंधा ठीक चलता है। हमारे धंधे में, पुरोहित ने कहा कि झूठ और सच में एक ही फर्क है—हिम्मत से बोलने का। क्षमा करें, हम आपकी पूजा—प्रार्थना करते रह सकते हैं, लेकिन यह काम अगर हमने किया तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी।
ऐसे ईश्वर बहुत लोगों के पास भटका। वह व्यापारी के पास गया। वह वकील के पास गया। उसने बहुत धंधों के लोगों से सलाह ली, कोई राजी न हुआ। कहते हैं, फिर वह मोजिज के पास गया, यहूदियों का जो प्रोफेट है मोजिज, मूसा के पास गया। यहूदियों के संबंध में आपको एक बात खयाल दे दूं तो समझ में आ जाएगा।
यहूदी खरीदने—बेचने की भाषा में सोचते हैं, व्यापारी हैं, पक्के व्यापारी हैं। जिनके भी पास ईश्वर गया, उन्होंने पूछा, कौन सा आदेश? जब मूसा के पास गया, यहूदी मूसा के पास गया ईश्वर और उसने कहा कि मैं कुछ आदेश तुम्हें देना चाहता हूं तो मूसा ने पूछा, कितने दाम होंगे? हाऊ मच इट विल कॉस्ट? यहूदी यही पूछेगा। जैनों के पास आता तो जैनी भी यही पूछता, हाउ मच इट विल कॉस्ट? ईश्वर ने कहा कि नहीं, कुछ भी कीमत नहीं, मुफ्त में दूंगा। तो मूसा ने कहा, देन आई विल टेक टेन। तब मैं दस ले लूंगा, क्या हर्जा है! अगर मुक्त ही दे रहे हो तो दस दे दो। फिर एक की क्या बात है। इसलिए दस आदेश ईश्वर ने दिए—टेन कमांडमेंट्स।
लेकिन उपनिषदों के पास ऐसा कोई आदेश नहीं है—चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, व्यभिचार मत करो—कोई आदेश नहीं है। एम्मॉरल, बिलकुल नीतिशून्य है। कारण है। कारण यह है कि उपनिषद धर्मग्रंथ हैं, नीतिग्रंथ नहीं हैं।
उपनिषद कहते हैं कि चोरी मत करो, यह तो चोरों से कहने की बात है। झूठ मत बोलो, यह तो झूठों से बोलने की बात है। हम तो उस परम सत्य के अन्वेषण करने वाले हैं, जहां झूठ प्रवेश नहीं करता, जहां चोरी की कोई खबर नहीं मिलती। वहा इस सबकी चर्चा? इस सबकी कोई चर्चा का कारण नहीं है। हम तो उस परम ज्योति की तलाश कर रहे हैं, जहां नीति—अनीति का कोई सवाल नहीं उठता, जहा आदमी द्वंद्व के पार चला जाता है।
इसलिए मैं परमहंस हूं उपनिषद का ऋषि कहता है। और संन्यास परमहंस अवस्था में पूरी तरह थिर हो जाना है। यह कोई नैतिक धारणा नहीं, एक धार्मिक यात्रा है।

आज इतना ही।

कल हम और सूत्र लेंगे।

अब हम ध्यान के लिए तैयार होंगे। तो कुछ बातें समझ लें जो कल रात मैं आपसे नहीं पूरी कह पाया। दो—तीन सूत्र आपसे कह देने हैं, फिर हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
रात मैं आपसे कहा कि सात दिनों के लिए—इंद्रिय—निग्रह। इंद्रियों का जितना कम उपयोग कर सकें, उतना हितकर है। बिलकुल न करें, परम हितकर है। आंखें  बंद रखें अधिकतम समय, ओंठ बंद रखें अधिकतम समय, कान बंद रखें अधिकतम समय। ये सात दिन बिलकुल ही ध्यान के लिए दे दें। इसमें कोई और दूसरे विकल्प न रखें। घूमने भी मत जाएं, देखने भी मत जाएं। यह भी नहीं कि मंदिर देखने जाना है, और वह स्थान देखना है, और वह स्पॉट देखना है। उस पागलपन के लिए फिर कभी आएं। अभी यह पागलपन काफी है।
कोई दूसरी बात बीच में न खड़ी करें। हमारा मन बहुत कुशल है धोखा देने में। वह कहेगा कि कम से कम मंदिर के तो दर्शन कर ही आने चाहिए। नहीं, बिलकुल नहीं, मंदिर भी नहीं। स्वभावत:, सिनेमागृह जाने की तो बात ही नहीं है, मंदिर भी नहीं। कहीं न जाएं, इस सात दिन तो अपने भीतर ही जाएं और सब यात्राएं बंद कर दें।
अगर मेरी मान पाएं तो आपको कहने का कारण नहीं रहेगा कि यह ध्यान हमें कब होगा! अगर मेरी न मानें तो जिम्मा आपका है। मेरे पास आकर मत कहें कभी भी कि मुझे ध्यान नहीं होता। ध्यान तो होगा ही, यह तो वैज्ञानिक नियम की बात है। दो और दो आप जोड़ेंगे तो चार हो ही जाएंगे। लेकिन दो और दो ही न जोड़े और फिर चिल्लाते फिरे कि चार नहीं होते हैं, तो इसमें फिर किसी का कसूर नहीं है। इंद्रिय—निग्रह का पूरा खयाल रखें। एक इंचभर भी व्यर्थ अपव्यय न हो शक्ति का, तो सात दिन में इतनी शक्ति इकट्ठी हो जाएगी कि हम उसका उपयोग कर लेंगे। उस शक्ति पर ही आपको बिठाकर अंतर्यात्रा पर निकाल देंगे।
भोजन भी कम से कम लें। क्योंकि भोजन के पचाने में हमारी ऊर्जा अधिकतम व्यय होती है। कम से कम लें। इतना लें कि आपको पता ही न चले कि आपने भोजन लिया है। बस, इतना खयाल रखें। भोजन के बाद ऐसा न लगे कि भोजन ले लिया है, इतना भोजन लें। बस, इसको ही सूत्र मानें।
तो भोजन पचाने में ज्यादा आपकी शक्ति न लगे। ध्यान रहे कि जब भी भोजन पचता है तो मस्तिष्क की सारी ऊर्जा पेट पर चली जाती है। इसीलिए तो भोजन के बाद नींद आती है, क्योंकि मस्तिष्क की ऊर्जा नीचे उतर जाती है। और यहां तो हमें ध्यान का प्रयोग करना है, तो सारी ऊर्जा को मस्तिष्क की तरफ ले जाना है। वहीं से द्वार खुलना है। इसलिए कम से कम भोजन। ध्यान रखें उसका।
तीसरी बात, जितनी शक्ति आपके भीतर हो उसमें इंचभर भी कृपणता न करें लगाने में। अगर उसमें कृपणता करेंगे, तो कई दफा ऐसा होता है कि आपने बिलकुल लगा दी और जरा सी बचा ली, वह जो जितनी लगाई वह बेकार हो जाएगी, वह जो जरा सी बचाई उसकी वजह से। सवाल यह नहीं है कि आप कितना लगाते हैं, सवाल यह है कि आप पूरा लगाते हैं या नहीं।
समझ लें ऐसा कि एक आदमी के पास केवल दस मात्रा की शक्ति है और एक आदमी के पास सौ मात्रा की शक्ति है। अगर सौ मात्रा की शक्ति वाले ने निन्यानबे मात्रा लगाई और दस वाले ने पूरी दस लगा दी, तो दस वाला प्रवेश कर जाएगा और निन्यानबे वाला पीछे छूट जाएगा। आप यह नहीं कह सकते कि मैंने निन्यानबे लगाई और इसने दस लगाई। सवाल यह नहीं है। टोटल, जितनी है आपके पास उतनी लगा दें। कितनी है, इसकी मैं पूछता नहीं। जितनी हो उतनी लगा दें। एक बात ध्यान रखें भीतर कि जब ध्यान में लगा रहे हों वह ताकत, तो खयाल रखें कुछ भी बचाया नहीं है—कुछ भी!
निश्चित ही, बिलकुल पागल हो जाना पड़ेगा। पागल हुए बिना कोई रास्ता नहीं है। लेकिन एक मजा है कि जब कोई आदमी स्वेच्छा से पागल होता है, तो कम से कम पागल की हालत होती है। और जब कोई आदमी मजबूरी में पागल होता है, पागल हो जाता है, तब ज्यादा से ज्यादा पागल की हालत होती है। जब आप अपनी ही मौज से पागल होते हैं तो आप कम से कम पागल होते हैं, क्योंकि भीतर का विवेक पूरा जागा रहता है। और अगर आप अपनी मर्जी से पागल होने को राजी नहीं तो किसी दिन आप पागल हो सकते हैं, लेकिन तब गैर—मर्जी से होंगे। उस वक्त आपके हाथ के बाहर होगी बात। ध्यान में जो गुजरेगा पूरे पागलपन से उसकी जिंदगी में पागलपन कभी नहीं आ सकता। और जो ध्यान के पागलपन से गुजरने की हिम्मत नहीं जुटाता वह कभी भी पागल हो सकता है। पागल है, कमोबेश, मात्रा का फर्क होगा।
तो तीसरी बात, पूरी शक्ति लगा देनी है। यहां सुबह जो ध्यान होगा, उसके तीन चरण हैं प्रयोग के और चौथा चरण विश्राम का, चार चरण हैं।
पहले दस मिनट में आप आंख पर पट्टी बांध लेंगे, कान में रुई डाल देंगे, दस मिनट में श्वास लेनी है। इतने जोर से श्वास लेनी है कि पूरे शरीर की ऊर्जा, एनर्जी श्वास की चोट से जग जाए। श्वास का हथौड़ी की तरह उपयोग करना है और भीतर चोट पहुंचानी है, भस्त्रिका जैसा। कोई नियमबद्ध नहीं। तेज श्वास लेनी, छोड़नी; लेनी, छोड़नी। दस मिनट बिलकुल श्वास के साथ दौड़ना— भीतर, बाहर; भीतर, बाहर। दस मिनट में श्वास चोट करके शरीर के रोएं—रोएं में सोई हुई इलेक्ट्रिसिटी को जगा देगी।
और जब विद्युत जगेगी तो दूसरे चरण में शरीर में गति होनी शुरू होगी। कोई नाचने लगेगा, कोई कूदने लगेगा, कोई चिल्लाएगा, कोई रोएगा, कोई हंसेगा। उसे जोर से करना है दस मिनट। नाचे, गाएं, रोएं, चिल्लाएं, सारे जगत को भूल जाएं। अगर आपने दस मिनट पूरी गति से नाचना, चिल्लाना, रोना, हंसना, कूदना किया, तो आप दस मिनट में पाएंगे कि शरीर अलग और आप अलग हैं। वह जो भीतर परमहंस बैठा है वह देखने लगेगा कि शरीर नाच रहा है, हंस रहा है, कूद रहा है, आप अलग हो जाएंगे। तीसरे चरण में—पिछले प्रयोग में हम यहां 'मैं कौन हूं का प्रयोग कर रहे थे—इस बार सिर्फ 'हू' का प्रयोग करना है। हू की चोट, हुंकार, हू—हू—हू तेज चोट करनी है। क्योंकि मैं कौन हूं में मस्तिष्क थोड़ा सोचने लगता है, इसलिए उसे छोड़ दें। हू में सोचने का कोई उपाय नहीं है। यह कोई शब्द नहीं है सिर्फ आवाज है, जैसे ओम, ऐसा हू। और इस हू की चोट आपकी नाभि के नीचे तक जाएगी। ठीक चोट करेंगे तो ठीक नाभि के नीचे तक हू की चोट प्रवेश कर जाएगी। और वहां से धारा शक्ति की उठेगी और मस्तिष्क की तरफ दौड़ने लगेगी। तीसरे चरण में दस मिनट तक हू। तीनों चरणों में आपको बिलकुल पागल हो जाना है।
चौथे चरण में जैसे ही मैं कहूं कि शांत हो जाएं, फिर एकदम शांत हो जाना है। फिर एक क्षण भी नहीं रुकना। फिर मन कह भी रहा हो, आनंद भी आ रहा हो, तो भी रुक जाना है। फिर एकदम रुक जाना और दस मिनट के लिए मुर्दे की तरह पड़ जाना है जमीन पर। पड़ गए मुर्दे की तरह, मर गए दस मिनट के लिए। अगर दस मिनट में एक क्षण को भी मौत आपके भीतर आ गई, तो उसी द्वार से परमात्मा प्रवेश कर जाएगा।
यह अभी का प्रयोग। दोपहर को तीस मिनट कीर्तन करेंगे हम यहीं आकर। और तीस मिनट फिर बिलकुल मौन में चले जाएंगे। फिर रात्रि की सूचना मैं आपको रात्रि दे दूंगा।
तो अपनी—अपनी जगह ले लें। हट जाएं थोड़े दूर—दूर। खड़े होकर प्रयोग होगा। दूर—दूर हट जाएं, ताकि सभी को कूदने—नाचने की पूरी सुविधा हो सके। यह तो बड़ा मैदान है, आप दूर—दूर हट जाएं और आनंद से नाच सकें इतनी फिकर कर लें।
. ही, दूर—दूर फैल जाएं, नहीं तो बाधा पड़ेगी। कोई आपको धक्का दे देगा। और कपड़े भी किसी को छोड़ने का मन आ जाए तो बिलकुल छोड़ देना, उसकी फिकर न करें। पहले से किसी को छोड़ देना हो, वह पहले से उतारकर अलग रख दे। बीच में किसी को खयाल आ जाए, फौरन कपड़े अलग कर दे, उसकी जरा चिंता न करे। और कम तो कर ही दें, ताकि कपड़े की कोई बाधा न रह जाए।
.. ही, आंख पर पट्टियां बांध लें, कान पर रुई ले आए हों तो रुई लगा लें, अन्यथा आज दोपहर को प्राप्त कर लें और कल सुबह से रुई कान में डाल लें।
ठीक है, आप तैयार हो जाएं। और अगर आपको कोई का धक्का लगे तो परेशान न हों, आप अपना काम जारी रखें, धक्के लग सकते हैं। लोग नाचेंगे, कूदेंगे, दौड़ेंगे, आप परेशान न हों उससे। आप अपना काम करें, दूसरों को अपना काम करने दें, दूसरों को भूल जाएं।
ठीक। अब मैं मान लेता हूं कि आपने आंख बांध लीं। अगर जो पट्टियां नहीं हैं जिनके पास वे भी आंख बंद रखें। आंख बिलकुल नहीं खोलनी है चालीस मिनट तक।
शुरू करें!

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