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बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

कैवल्‍य उपनिषद--प्रवचन-06

व्‍यक्‍त माध्‍यम है अव्‍यक्‍त के प्रकाशन का—छठवां प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर
28 मार्च 1972, प्रात:
माऊंट टाबू, राजस्‍थान।

सूत्र :

 अचिन्‍त्‍यं अव्यक्तं अनंतरूपं शिवं प्रशान्तं अमृतं ब्रह्मयोनिम्।
 तदsदिमध्यान्‍त विहीनमेकं विभुं चिदानन्दं अरूपं अद्भुतम् ।। 6।।


इस प्रकार मुनि लोग ध्यान के द्वारा उस चिंतन की सीमा में न आनेवाले, व्यक्त न होनेवाले, जिसके अनंत रूप हैं, जो कल्याण करने वाला है, अद्वैत है, जो ब्रह्म का मूल कारण है, जिसका कोई आदि, मध्य और अंत ही नहीं है, जो अद्वितीय, सर्वव्यापक और चैतन्य तथा आनंदमय है, जिसका कोई रूप नहीं है और जो विलक्षण है—उसको प्राप्त करते हैं।। 6।।


ध्‍यान के द्वार। ध्यान के द्वार उस आयाम में, जहां विचार का कोई प्रवेश नहीं; जहां सोचने का कोई उपाय नहीं, जहां समझने की, तर्क की, तर्कणा की कोई स्थिति नहीं; जहां मात्र अनुभूति ही शेष रह जाती है। इस ध्यान में जो उपलब्ध होता है, उस उपलब्ध होनेवाले के संबंध में इस सूत्र में संकेत किये गये हैं। इस सूत्र के एक—एक शब्द को बहुत—बहुत गहराई से समझ लेना जरूरी है।

पहला शब्द है—'अचिंत्य'। जिसके संबंध में चिंतन न हो सके। जिसके संबंध में विचार न हो सके। जिसके संबंध में बुद्धि असमर्थ हो जाए। ऐसे अनुभव का द्वार है—ध्यान।
विचार हम कर सकते हैं, किसके संबंध में? जो शांत है उसके संबंध में विचार होता है। शायद सोचा न होगा। आप जो भी विचार करते हैं, वह आपको पहले से ही शांत है। आप अज्ञात के संबंध में विचार नहीं कर सकते। करेंगे भी कैसे? जो आपको शांत ही नहीं है, उसके संबंध में विचार कैसे करियेगा? तो विचार तो जुगाली की तरह है। बहुत—से जानवर जुगाली करते हैं। खाये हुए को चबाते हैं।
विचार जुगाली है। विचार पहले आपको मिल जाता है, फिर आप उसी को जुगाली करते हैं। लेकिन शांत होना चाहिए तो ही आप विचार कर सकते हैं। अज्ञात का कोई विचार नहीं हो सकता। अज्ञात को सोचियेगा ही कैसे? जिसे जाना ही नहीं है, उसके संबंध में विचार की कोई गति नहीं है। और जीवन का जो परम सत्य है, वह अज्ञात है, वह ' अननोन' है। जीवन का जो परम रहस्य है, वह ज्ञात नहीं है। उसे सोचना संभव नहीं है। लेकिन जो अज्ञात है, वह भी ज्ञात बन सकता है। फिर सोच सकते हैं।
यहां एक बात और समझ लेनी जरूरी है। जीवन का परम रहस्य ज्ञात तो है ही नहीं, उसे अशांत कहना भी ठीक नहीं है, वह अज्ञेय है। 'अननोन' ही नहीं, 'अननोएबल' है। क्योंकि अगर अज्ञात कहें... इस पहाड़ के पीछे क्या है, वह अज्ञात है। कोई व्यक्ति पहाड़ के पीछे जाकर, आकर आपको खबर दे दे तो शांत हो जाएगा। लेकिन ब्रह्म में जाकर भी कोई आपको खबर दे तो भी शांत नहीं होगा। क्योंकि खबर इतनी फीकी है, इतनी सीमित है कि उस—उस रहस्य के संबंध में कुछ भी नहीं कह पाती। आज तक उस रहस्य के संबंध में जो भी कहा गया है, वह सभी आदमी की असमर्थता का सूचक है।
इसलिए बुद्ध जैसा व्यक्ति तो उस संबंध में बात ही करना बंद कर दिया था। बुद्ध से कोई पूछता था ब्रह्म के संबंध में, तो वह चुप रह जाते थे। इससे बड़ी भ्रांति हुई। अनेकों ने समझा कि वह ब्रह्म को मानते ही नहीं। लेकिन वह इतने चुप थे उस संबंध में कि वह यह भी नहीं कहते थे कि मैं उस संबंध में कुछ न कह सकूंगा।
क्योंकि बुद्ध का कहना था कि यह भी उस संबंध में कुछ कहना हो गया। मैं कुछ न कह सकूंगा—यह भी उस संबंध में कुछ कहना हो गया। कुछ तो मैंने कह ही दिया। इतना भी कहने को वह राजी नहीं थे।
जीवन का परम रहस्य अज्ञात ही होता तो फिर हम जीवन के परम रहस्य को भी विश्वविद्यालय में पढ़ सकते थे। क्योंकि वह जात बनाया जा सकता था।
यहां एक खयाल ले लें।
वैज्ञानिक एक खोज करता है। जब तक वह खोज नहीं होती तब तक उसकी विषय—वस्तु अज्ञात होती है। फिर एक वैज्ञानिक खोज लेता है। एक एडीसन, एक आइंस्टीन, एक न्यूटन खोज लेता है, फिर वह शांत हो गयी। फिर सारी दुनिया के स्कूल के बच्चे भी उसको पढ़ लेते हैं और जान लेते हैं। फिर हर एक को उसे खोजना नहीं पड़ता। वितान एक व्यक्ति खोज लेता है, फिर सभी जान जाते हैं। फिर प्रत्येक को उसे खोजने की जरूरत नहीं रह जाती। जो अशांत था, वह शांत हो गया।
परमात्‍मा ऐसा नहीं है। अनेकों ने उसे खोज लिया फिर भी वह अब तक ज्ञात नहीं हो सका। तो हमें उसे अज्ञात की कोटि में नहीं रखना चाहिए। वह अज्ञेय की कोटि है। अज्ञेय का मतलब है, जो जान—जानकर भी अजाना रह जाता है। जान भी लेते हैं लोग, कह भी देते हैं उसके संबंध में, फिर भी वह हमारा विचार नहीं बन पाता। हमारी धारणा नहीं बन पाती। उसकी शिक्षा नहीं दी जा सकती। उसके लिए कोई शिक्षाशास्र काम नहीं करेगा।
इससे दूसरी बात भी खयाल ले लें कि जीवन के सभी अनुभव सामूहिक हैं—एक जान लेता है, सारा समूह जान लेता है—परमात्मा वैयक्तिक अनुभव है। एक जानता है तो ग्ते का छू हो जाता है, दूसरे से कह नहीं पाता है। जबान रुक जाती है। होंठ बंद हो जाते हैं। यह भी मजे की बात है कि ईश्वर के संबंध में जो नहीं जानता, वह कुछ बोल भी सकता है, जो जानता है, उसे बोलना बहुत कठिन हो जाता है। यह विचित्र मालूम होगा कि जो नहीं जानते, वे बोल सकते हैं उसके संबंध में। वे इसीलिए बोल सकते हैं कि उन्हें पता ही नहीं है। उन्हें यह पता ही नहीं है कि जिसे वे शब्दों में रख रहे हैं, वह शब्दों में रखा नहीं जा सकता। शब्द उन्होंने सुने हैं, उन्हीं शब्दों को वे दोहरा देते हैं।
इसलिए पंडित को कभी ऐसी असमर्थता मालूम नहीं पड़ती कि ईश्वर के संबंध में कहा नहीं जा सकता। पंडित कहता रहता है। संतों को निरंतर असमर्थता होती है। और संत बार—बार कहता है तो भी कहता है साथ में कि मैं उसे कह नहीं पाया हूं। वह अनकहा रह गया। मैंने चेष्टा की, मैं असफल हो गया। पंडित कभी असफल नहीं होता। वह सदा सफल मालूम पडता है। और ज्ञानी सदा ही असफल मालूम पड़ता है। कहता है, चेष्टा करता है और फिर पाता है कि नहीं, वह बात पीछे छूट गयी, वह मैं कह नहीं पाया। कुछ ऐसा है जैसे हम हवा को मुट्ठी में बांधने का प्रयास करें। जब तक नहीं बांधते तब तक मुट्ठी में हवा होती है। और जब बांधते हैं तब बाहर निकल जाती है। अनुभव में तो परमात्मा होता है और जैसे ही हम शब्द में बांधते हैं, निकल जाता है। शब्द मुट्ठी की तरह काम करते हैं। न कहें, होता है; कहें, खो जाता है। जिन्होंने कहा, उन्होंने सिर्फ असमर्थता बतायी। जिन्होंने नहीं कहा, उन्होंने अपने मौन से इतना ही कहा कि नहीं कहा जा सकता। वैयक्तिक है अनुभव, सामूहिक नहीं है। और अचिंत्य कहने का यही प्रयोजन है कि आप उसके संबंध में चिंतन न कर पाएंगे।
इसलिए कोई अगर कहता हो कि मैं ईश्वर के संबंध में चिंतन कर रहा हूं तो एकदम ही गलत कहता है। चिंतन कर रहा होगा, लेकिन जिसके संबंध में कर रहा है वह ईश्वर नहीं हो सकता। वह कुछ और होगा। इसका मतलब हुआ कि जिस संबंध में आप चिंतन कर सकते हैं, समझ लेना कि वह ईश्वर नहीं है। आप राम के संबंध में चिंतन कर सकते हैं, लेकिन राम के उस हिस्से के संबंध में जो ज्ञात है। उनका आकार, उनकी आंखें, उनका शरीर, उनके शब्द, उनका आचरण, यह सब ज्ञात है, इस संबंध में आप चिंतन कर सकते हैं। लेकिन जो शांत है, वह परम सत्ता नहीं है। इस सब के भीतर जो अज्ञात रह गया है, वही परम सत्ता है। इस सब के भीतर जो छिपा रह गया है। राम का आचरण ईश्वर नहीं है। आचरण तो ज्ञात हो गया है। राम के आचरण के भीतर जो अंतस था, वहीं ईश्वर है। राम के शब्द ईश्वर नहीं हैं, वे तो ज्ञात हो गये। शब्दों के पीछे जो निःशब्द था, वही ईश्वर है, लेकिन वह अज्ञात रह गया।
बुद्ध की मृत्यु का दिन और आनंद रो रहा है, सिर पीट रहा है। और बुद्ध उसे समझाते हैं कि तू क्यों व्यर्थ रो रहा है। तो आनंद कहता है, व्यर्थ मैं नहीं रो रहा। बुद्ध अब नहीं होंगे, अब खो जाएंगे, अब विसर्जित हो जाएंगे, मैं न रोऊं तो क्या करूं? तो बुद्ध हंसते हैं और उसे कहते हैं, जिसे तू सोचता है कि विसर्जित हो जाएगा, वह तो मैं था ही नहीं। जिसे तू सोचता है कि मर जाएगा, वह मैं कब था? वह मैं कभी था ही नहीं। तो जिसके संबंध में तू रो रहा है, वह मैं नहीं हूं। और अगर तू मेरे संबंध में रो रहा है, तो व्यर्थ रो रहा है। मैं जैसा था वैसा ही रहूंगा। उसमें कोई अंतर पड़ने वाला नहीं।
लेकिन यह जो बुद्ध हैं, जिसके संबंध में बुद्ध कह रहे हैं, यह वही बुद्ध नहीं है जिसके संबंध में आनंद रो रहा है। इन दोनों का कहीं मेल नहीं है। अगर आनंद चिंतन करे बुद्ध का, तो वह बुद्ध को छोड्कर चिंतन करेगा। उसका उसे पता ही नहीं है। वह चिंतन करेगा उनकी मुद्राओं का, उनके उठने—बैठने का, उनकी वाणी का, उनकी आंखों का, वह तो बुद्ध नहीं हैं। यह तो ऐसे हुआ कि जिस मकान में बुद्ध रहते हैं, जब हम बुद्ध का चिंतन करें तो हम मकान की तस्वीर सोचने लगें। उस मकान से क्या लेना—देना है!
हम जब भी चिंतन करते हैं परमात्मा का, तो हम किसी रूप का चिंतन करते हैं, जिससे परमात्मा प्रगट हुआ होगा, लेकिन परमात्मा का चिंतन नहीं कर सकते। वह अचिंत्य है। तो फिर हम उस तक कैसे पहुंचे? हम सारा चिंतन छोड़ दें तो उस तक पहुंच सकते हैं।
परमात्मा का चिंतन नहीं हो सकता। चिंतन न हो, तो परमात्मा हो सकता है। सारा विचार रुक जाए, विचार की प्रक्रिया ठहर जाए, सब समाप्त हो जाएं भाषा खो जाए, मन मौजूद न रहे; सिर्फ चैतन्य रह जाए, सिर्फ भीतर जानना मात्र रह जाए और जानने में कोई विषय न हो—जैसे दर्पण है।
दर्पण की दो अवस्थाएं हैं। जब दर्पण में किसी की तस्वीर बनती है, यह एक अवस्था है। जब दर्पण खाली होता है, किसी की तस्वीर नहीं बनती, यह दूसरी अवस्था है। जब दर्पण में किसी की तस्वीर बनती है, तो दर्पण तस्वीर से आच्छादित हो जाता है। दर्पण में विषय होता है। जब कोई तस्वीर नहीं बनती तो दर्पण शुद्ध होता है, अनाच्छादित होता है, निर्मल होतां है। और उसमें कोई विषय नहीं होता है।
हमारी चेतना दर्पण की तरह है। जब चेतना में विचार चलते हैं तो चेतना आच्छादित हो जाती है। और जब चेतना निर्विचार होती है, कोई विचार नहीं चलता, तब चेतना निर्मल, शांत हो जाती है। उस शांत स्थिति में जानने को कुछ भी नहीं होता, मात्र जानने की क्षमता रह जाती है। 'जस्ट नोइंग'। इस अवस्था को ही ध्यान कहते हैं। और इस ध्यान में ही उस अचिंत्य का पता चलता है। पता! इस ध्यान में ही वह अचिंत्य अनुभव में आता है। विचार में नहीं।
तो विचार और अनुभव का एक फर्क और समझ लें। विचार सिर्फ बुद्धि में उठती हुई तरंगों का नाम है, अनुभव समस्त अस्तित्व में। जब परमात्मा अनुभव होता है, तो रोएं—रोएं को अनुभव होता है। खून की बूंद—बूंद को, हड्डी के टुकड़े—टुकड़े को, चेतना के कण—कण को। आपका समस्त अस्तित्व उसे अनुभव करता है। जब आप विचार करते हैं तो सिर्फ आपकी बुद्धि का एक कोना उसके संबंध में सुने हुए, जाने हुए शब्दों को दोहराये चला जाता है। बुद्धि आपका एक बहुत छोटा—सा अंग है और वह भी एकदम उधार। वह आपका अस्तित्व नहीं है। वह आपका वास्तविक अस्तित्व नहीं है। वह आप प्रामाणिक रूप से आप नहीं हैं। हम इसे ऐसा अगर समझें तो अच्छा होगा।
बुद्धि आपके भीतर समाज का घुस गया कोना है। आपका अस्तित्व है, उसमें समाज ने जो—जो आपको सिखाया है, वह आपकी बुद्धि है। उसको आप दोहराए चले जा सकते हैं। इसलिए जब एक हिंदू सोचता है ईश्वर के संबंध में तो राम का खयाल आता है। जब एक मुसलमान सोचता है, तो राम का खयाल नहीं आता। जब एक ईसाई सोचता है, तो जीसस का खयाल आता है। जब एक जैन सोचता है तो न जीसस का खयाल आता है, न राम का खयाल आता है। तो खयाल तो आपको जो दिये गये हैं वही आ जाते हैं।
खयाल उधार हैं। विचार आपकी संपदा नहीं, केवल आपका संग्रह है। बाहर से। उसको आप जुगाली कर सकते हैं। इस जुगाली से वह नहीं मिलेगा। यह जुगाली पूरी रुक जानी चाहिए और चेतना का दर्पण ऐसा हो जाना चाहिए कि उसमें कोई प्रतिबिंब ही न बचे। जिस दिन कोई प्रतिबिंब नहीं बचता उस दिन अचिंत्य झलकता है। पहला शब्द ' अचिंत्य' है।
दूसरा शब्द है— 'अव्यक्त'। उसे अगर जानना है तो व्यक्त में मत खोजना, 'मेनीफेस्ट' में मत खोजना। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह व्यक्त में नहीं है। वह व्यक्त में है, लेकिन व्यक्त ही नहीं है। व्यक्त उसकी परिधि है, अव्यक्त उसका 'अंतस है।
सुना है मैंने, मोझर्ट के संबंध में। मोझर्ट बड़ा संगीतज्ञ था। एक दिन उसने एक अनूठे संगीत की व्यवस्था को जन्म दिया। सं गीत बंद हो गया है। केवल एक मात्र उसका मित्र सुनने आया है। संगीत बंद हो गया है मोझर्ट शांत हो गया, वाद्य शून्य हो गये, लेकिन जो मित्र आया है, वह अभी भी डोले चला जा रहा है। बहुत देर हो गयी तो मोझर्ट ने मित्र को हिलाया और कहा कि अब तो सब बंद ही हो गया, अब तुम क्यों हिले चले जा रहे हो? तो उस मित्र ने कहा कि जब तक तुम बजा रहे थे, तब तक तो जो था, वह व्यक्त था। व्यक्त तो खो गया अब अव्यक्त में मैं आनंदित हो रहा हूं। तो वह तो संगीत की परिधि थी सिर्फ, अब मैं संगीत के केंद्र पर डूब रहा हूं। बाधा मत डालो।
व्यक्त में ही अगर हम उसे खोजने जाएंगे, वही तो चेष्टा विज्ञान की है कि हम सत्य को व्यक्त में ही खोजेंगे। तो अगर आदमी में परमात्मा है तो विज्ञान कहता है हम चीर—फाड़ करेंगे, विश्लेषण करेंगे और जो व्यक्त है उसमें जांच कर लेंगे—है या नहीं। व्यक्त की जांच हो जाती है, भीतर कोई आत्मा मिलती नहीं। क्योंकि आत्मा अव्यक्त है। और जो व्यक्त है, वह केवल शरीर की परिधि है। तो व्यक्त को अगर काटेंगे, पीटेंगे, तो अव्यक्त खो जाएगा। ऐसे ही जैसे एक सुंदर फूल खिला है, गुलाब का फूल खिला है और अगर मैं कहू_ सुंदर है, तो आप पूछें कि सौंदर्य कहां है? तो हम फूल को काटकर—'पीटकर देखेंगे, विश्लेषण करेंगे, प्रयोगशाला में जांच करेंगे कि सौदर्य कहां है? फूल कट जाएगा, जो हाथ में आएगा वह सौदर्य नहीं होगा, कुछ और होगा। रासायनिक—तत्व होंगे, कुछ खनिज होंगे, वह हमारे हाथ में लग जाएंगे। रंग निफ्ट आएगा, वह हमारे हाथ में लग जाएगा। फूल में जो—जो वस्तु है, वह हमारे हाथ लग जाएगी। हम बोतलों में बंद करके एक—एक चीज को अलग 'लेबल ' लगाकर रख देंगे, लेकिन एक बात पकी है, उन बोतलों में वह बोतल नहीं होगी जिस पर लिखा हों—सौदर्य।       और तब हम कह सकते हैं बिलकुल तर्क—व्यवस्था से कि सौदर्य था ही नहीं। क्योंकि सब हमने जांचकर देख लिया, एक भी चीज छोड़ी नहीं, सब इन बोतलों में बंद है—पूरा—का—पूरा फूल इन बोतलों में बंद है। नाप लो वजन, जितना वजन फूल का था उतने वजन की चीजें बंद हैं, सब पूरा मौजूद है, सौदर्य कहीं है नहीं।
सौंदर्य अव्यक्त था। फूल व्यक्त था। फूल से प्रगट हो रहा था वह अव्यक्त। ऐसा हम समझें कि फूल की व्यक्त भूमि को अव्यक्त ने अपना आवास बनाया था। आपने भूमि हटा ली, अव्यक्त तिरोहित हो गया। वीणा को कोई बजा रहा है तो हम सोचते हैं कि वीणा के तार में ही संगीत है, तो हम गलती में पड़ जाएंगे। तार सिर्फ तार है। और कितनी ही जांच—पड़ताल करो, तार में संगीत नहीं मिलेगा। या सोचते हों कि वीणा के वाद्य के लकड़ी को तोड़—फोड़ कर संगीत का पता चलेगा, तो भी पता नहीं चलेगा। वीणा तो केवल माध्यम बनती है अव्यक्त के प्रगट होने का। अगर वीणा में ही खोज की तो संगीत का कोई पता नहीं चलेगा।
और अगर वीणा टूट गयी, और वीणा को तोड़कर, टुकड़े तोड़कर के जांच कर ली, तब तो फिर कोई उपाय भी नहीं रहेगा अव्यक्त को प्रगट होने का। वीणा तो केवल माध्यम बनती है अव्यक्त को प्रगट होने का। और जब संगीतज्ञ वीणा को कसता है, संवारता है, तब वह क्या कर रहा है? तब वह इतना ही कर रहा है, ताकि वीणा उपयुक्त माध्यम बन सके अव्यक्त के उतरने का। तब वह वीणा के माध्यम को संभाल रहा है, ताकि अव्यक्त अपने पैर रख सके वीणा के तारों पर, प्रगट हो सके। योग्य हो जाए अव्यक्त के। वीणा बजा लेना उतना कठिन नहीं, जितना वीणा को अव्यक्त के प्रगट होने योग्य बनाना।
इसलिए जो असली कलाविद है, वह सिर्फ बजाना जानता हो तो कलाविद नहीं है। वीणा को बजने की हालत में लाना जानता हो तो ही कलाविद है। क्योंकि बजाना तो बहुत आसान है, लेकिन अव्यक्त और व्यक्त के बीच में एक तारतम्य निर्मित करना बहुत कठिन है।
अव्यक्त है जीवन का जो परम रहस्य है। उसे व्यक्त में खोजना मत, व्यक्त को सीमा मत बनाना। और हमेशा व्यक्त के भीतर भी जाओ तो अव्यक्त पर ध्यान रखना। वृक्ष को देखना, तो वृक्ष की रूपरेखा पर मत रुक जाना। वृक्ष की रूपरेखा में जो छिपा हुआ जीवन—प्रवाह है, उसको स्मरण करना। उस पर ध्यान रखना। व्यक्ति को देखना तो उसकी आंखें, उसके चेहरे, उसके शरीर में मत अटक जाना। उनकी आंखों में, उसके शरीर में जो आभा प्रगट हो रही है, जो आभामंडल निर्मित हो रहा है, उस पर ध्यान रखना, तो अव्यक्त की प्रतीति होगी। अव्यक्त उसका अनिवार्य स्वभाव है और इसलिए वह व्यक्त होते—होते भी अव्यक्त रह जाता है। उसकी मौलिक जो गहनतम अवस्था है, केंद्र जो है, वह सदा अव्यक्त रह जाता है। परिधि पर अभिव्यक्ति होती है।
जैसे कोई जाए सागर के तट पर और लहरों को ही सागर समझ ले। हालांकि हमने भी कभी खयाल नहीं किया होगा। सागर को देखकर आप आते हैं, तो आप कहते हैं, सागर को देखकर आ गये। आप आते हैं केवल लहरों को देखकर। क्योंकि सागर की छाती पर तो लहरें ही हैं। सागर तो बहुत गहरे में है। लेकिन लहरों को देख कर हम लौट आते हैं और कहते हैं—सागर को देख आए। अगर ठीक कोई शिक्षक आपको भेजे, तो वह कहेगा—लहरों को सागर मत समझ लेना। लहरों में भी सागर है, माना, लेकिन सागर लहरों से बहुत ज्यादा है। लहरों के भीतर झांकना। तो सागर तो सिर्फ वही जान पाएगा जो तट से न देखकर लौटे, डुबकी लगाए। क्योंकि डुबकी लगे तो ही लहरों से छुटकारा होता है। तट पर खड़े होकर तो लहरों में झांकियेगा भी कैसे? तट छोड़ना पड़ेगा।
कबीर ने कहा है. 'मैं बौरी खोजन गयी रही किनारे बैठ। 'बड़ा पागल था मैं कि मैं खोजने गया उसको और किनारे बैठ रहा। और सोचता था किनारे बैठे—बैठे उसे खोज लूंगा। किनारे से तो जो दिखायी पड़ेगा, वह लहरें हैं, कूदना ही पड़ेगा। डूबने का मतलब ही इतना है कि लहरों से नीचे उतर जाना, तो सागर का अनुभव होगा। जितनी बढ़ेगी गहराई, उतना ही सागर का अनुभव होगा।
अव्यक्त का अर्थ है—सोचना मत, डूबना। सोचना तट पर खड़ा रह जाना है। विचार से लहरें पकड़ में आ जाएंगी, जो लहरों का प्राण है गहन, वह अछूता रह जाएगा।
तीसरा शब्द है— 'अनंत रूप'। अव्यक्त है अर्थात अरूप है। अव्यक्त का अर्थ हुआ कि अरूप है। अचिंत्य का अर्थ हुआ कि अरूप है। और फिर ऋषि कहता है, अनंत रूप भी है। इसे थोड़ा समझें।
सिर्फ अरूप ही अनंत रूप हो सकता है। जिसका खुद का कोई रूप हो, वह अनंत रूप नहीं हो सकता। अगर मेरा एक रूप है, तो मैं उस रूप से बंधा हुआ हो गया। लेकिन, अगर मेरा कोई रूप नहीं है, तो फिर मेरे भीतर एक तरलता है, मैं किसी भी रूप में हो सकता हूं। इसलिए परमात्मा वृक्ष हो सकता है, पत्थर हो सकता है, आकाश हो सकता है, फूल हो सकता है, पशु हो सकता है, मनुष्य हो सकता है, कुछ भी हो सकता है। उसका अपना कोई रूप नहीं, इसीलिए अनंत रूप हो सकता है। अगर उसका अपना कोई रूप है, तो फिर अनंत रूप नहीं हो सकता।
जगत में जितनी चीजें हमें दिखायी पड़ती हैं, उन सब के रूप हैं। उन सबके रूपों के भीतर जो जीवन की धारा बह रही है, वह अरूप है। इसलिए कोई भी रूप लिया जा सकता है। सागर किसी भी तरह की लहर बन सकता है। छोटी, बड़ी, भयानक, कुछ भी। सागर कोई भी लहर बन सकता है, क्योंकि सागर लहर नहीं है। और सागर किसी भी तरह की लहर से अभिव्यक्त हो सकता है, क्योंकि कोई खास लहर से अभिव्यक्त होने का बंधन नहीं है।
अरूप का अर्थ होता है—तरल। इसे हम ऐसा समझें कि अगर मैं पानी को एक गिलास में डाल दूं तो पानी गिलास का रूप हो जाता है। एक घड़े में भर दूं तो घड़े का रूप हो जाता है। और जैसी जगह डाल दूं पानी वैसा रूप ले लेता है। पानी का अपना कोई रूप नहीं है। तरल है। लेकिन, पत्थर को मैं एक गिलास में डाल दूं तो कोई अंतर नहीं पड़ता। पत्थर अपना रूप थिर रखता है। घड़े में डाल दूं तो भी अपना रूप थिर रखता है। पत्थर तरल नहीं है, ठोस है। लेकिन फिर भी पानी का भी एक रूप तो है, तरल हो भला। रूप बदल जाते हों, लेकिन पानी आग नहीं हो सकता। पानी पत्थर नहीं हो सकता। तो पानी की तरलता का भी एक रूप है।
पानी बहुरूप हो सकता है, लेकिन पानी रहकर ही। पानी के बाहर रूप नहीं बदल सकता। तरल है, तो बहुत रूप ले सकता है, लेकिन पानी की सीमा में। परमात्मा तरल है, किसी भी सीमा में नहीं। असीम है। उसकी तरलता असीम है। इसलिए वृक्ष भी हो सकता है, पत्थर भी हो सकता है, पानी भी हो सकता है। और अब तो वैज्ञानिक भी कहते हैं कि हम जैसे—जैसे पदार्थों को तोड़कर नीचे पहुंच रहे हैं, वैसे—वैसे अनुभव होता है कि सभी पदार्थ एक ही ऊर्जा से निकले हैं, एक ही 'एनर्जी' से निकले हैं।
पहले 'अल्केमिस्ट', और दुनिया  भर में न—मालूम कितने—कितने लोग इस कोशिश में रहे हैं कि किसी तरह लोहा सोना हो जाए। कभी वे सफल तो नहीं हुए लेकिन उनकी आशा अब पूरी हो गयी है। अब विज्ञान कहता है, कोई अड़चन नहीं है। कोई अड़चन नहीं, लोहा सोना हो सकता है, क्योंकि लोहे और सोने के भीतर जो ऊर्जा है, वह एक है। कुछ 'इलेक्ट्रान्स' घटाने और बढ़ाने की बात है। सिर्फ संख्या का फर्क है। कहीं 'इलेक्ट्रान्स' दस हैं, कहीं बारह हैं, कहीं पंद्रह हैं, कहीं बीस हैं—कोई भी संख्या हो, लेकिन फर्क 'इलेक्ट्रान्स' की संख्या का है, 'इलेक्ट्रान्स' का कोई फर्क नहीं है। तो जहां अगर किसी तत्त्व में बीस 'इलेक्ट्रान्स' हैं, और किसी तत्त्व में पच्चीस 'इलेक्ट्रान्स' हैं, तो पांच 'इलेक्ट्रान्स' जोड़ने की जरूरत है, वह तत्व दूसरा तत्त्व हो जाएगा।
लोहा सोना हो सकता है। प्रयोग हो गये हैं, उसमें कोई अड़चन नहीं रही। बाजार में नहीं आता उस तरह का सोना, क्योंकि उसे सोना बनाने में साधारण सोने से वह बहुत महंगा पड़ता है। उसका कोई मतलब नहीं है। 'इलेक्ट्रान्स' को जोड़ना और घटाना बहुत महंगी प्रक्रिया है, इसलिए बनाया नहीं जाता। अन्यथा बनाने में अब कोई बाधा नहीं है। मिट्टी सोना हो सकती है, सोना मिट्टी हो सकता है। अब कोई अड़चन नहीं रही है। क्योंकि अब हम अणु के विस्फोट को उपलब्ध हो गये हैं। अणु के विस्फोट का अर्थ है कि अब हम 'इलेक्ट्रान्स' घटा और बढ़ा सकते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि एक ही तरल वस्तु नीचे छिपी है। पदार्थगत खोज से भी यह अनुभव में आया, लेकिन अभी विज्ञान को यह खयाल में नहीं आया है—'इलेक्ट्रान' घटा और बढ़ाकर हम लोहे को सोना बना सकते हैं, लेकिन अभी तक कोई समझ में बात नहीं आ सकी कि किस चीज को घटाएं—बढ़ाए कि पदार्थ चेतना बन जाए। किस चीज को घटाएं—बढ़ाए की चेतना पदार्थ बन जाए।
योग का सारा—का—सारा संबंध उस सूत्र से है कि किस चीज को बढ़ाए कि पदार्थ चेतना बन जाए। किस चीज को घटाएं कि चेतना पदार्थ बन जाए। ध्यान उस प्रक्रिया का नाम है। ध्यान बढ़े, तो पदार्थ चैतन्य होने लगता है। ध्यान घटे तो चेतना पदार्थ होने लगती है। ध्यान की मात्रा का बढ़ जाना ही पदार्थ का रूपांतरण है आत्‍मा में। अगर ध्यान परिपूर्ण हो जाए, तो सारा जगत परमात्मा हो जाता है। क्योंकि तब हमें दिखायी पड़ने लगता है—हर जगह वही। हर लहर में सागर। लहर भूल ही जाती है। और यह भी मजे की बात है कि अगर आपको लहर खयाल में रहे, तो सागर भूल जाएगा। अगर सागर खयाल में रहे, तो लहर भूल जाएगी। दोनों एक—साथ खयाल में नहीं रह सकते। जाकर कभी कोशिश करें।
जाकर कभी कोशिश करें। ठीक ऐसी ही कोशिश है जैसे कि एक आदमी एक—एक वृक्ष को खयाल में रखे, तो जंगल खो जाएगा। और जंगल को खयाल में रखे, तो एक—एक वृक्ष खो जाएगा। यह दोनों बातें एक—साथ नहीं हो सकती हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि आप एक—एक वृक्ष को भी व्‍यक्तिशः खयाल में रखें और साथ ही, युगपत, जंगल भी खयाल में रखें। यह नहीं हो सकता। क्योंकि जंगल का मतलब ही यह है कि व्यक्तिगत वृक्ष खो गया, एक भीड़ रह गयी। निराकार भीड़। और वृक्ष का मतलब ही यह है कि वह जो भीड़ थी, खो गयी एक—एक व्यक्ति हो गया। ठीक ऐसे ही लहर का खयाल हो, सागर खो जाएगा, सागर का खयाल हो, लहर खो जाएगी।
यही तो कारण है कि शंकर जैसे मनीषी को जगत माया अनुभव में आयी। वह कोई सैद्धांतिक बात नहीं है। सैद्धांतिक रूप से भी लोगों को याद आयी। जैसे पश्चिम में बर्कले को याद आयी। बर्कले ने भी कहा है कि जगत माया है। लेकिन वह सैद्धांतिक है। बर्कले का कोई अनुभव नहीं है। विचार से, तर्क से, सोचकर उसने अनुभव किया कि जगत की वास्तविकता सिद्ध नहीं की जा सकती, इसलिए अवास्तविक है।
शंकर और बर्कले को अनेक लोगों ने तुलना की है। लेकिन वह तुलना बिलकुल गलत है। अनेक लोगों ने शंकर और बर्कले पर बड़े अन्वेषण किये हैं, वे सब अन्वेषण गलत हैं। गलत इसलिए हैं कि बर्कले को कोई भी ध्यान का अनुभव नहीं है। उसका सारा अनुभव विचार का है। शंकर की कोई भी निष्पत्ति विचार की नहीं है सारी निष्पत्तियां ध्यान की हैं। इसलिए उनके बीच तुलना नहीं हो सकती। भला उन्होंने एक ही वक्तव्य दिया हो।
बर्कले भी कहता है कि जगत स्वपनवत है और शंकर भी कहते हैं कि जगत स्वपनवत है। यह दोनों वक्तव्यों में तुलना हो सकती है। लेकिन वह वक्तव्यों की तुलना ठीक नहीं है। क्योंकि दोनों वक्तव्य दो अलग तरह की चेतनाओं से निकलते हैं। बर्कले कहता है, क्योंकि वास्तविकता सिद्ध नहीं की जा सकती है, इसलिए। और शंकर कहते हैं कि मैंने एक दूसरी वास्तविकता को जाना, जिसके सामने यह वास्तविकता खो जाती है, इसलिए। मैंने जिस दिन ब्रह्म को जाना, उस दिन से जगत रहा ही नहीं, क्योंकि दोनों एक—साथ नहीं रह सकते। जब तक जगत दिखायी पड़ता है तब तक ब्रह्म दिखायी नहीं पड़ता। जब ब्रह्म दिखायी पड़ता है, तो जगत दिखायी नहीं पड़ता। यह दोनों एक—साथ नहीं रह सकते है। क्योंकि जगत का मतलब ही यह है—लहर की तरफ से देखना। और ब्रह्म का मतलब ही यह है कि सागर की तरफ से देखना।
अव्यक्त, अचिंत्य, अरूप है, इसलिए अनेक रूपों में प्रगट होता है। सभी रूप उसके हैं और फिर भी कोई रूप उसका नहीं है, यह अनेक रूप का अर्थ है।
'कल्याण करनेवाला है'। मंगलदायी है। परमात्मा मंगलदायी है। वह परम तत्व मंगलदायी है, ऐसा हम सुनते हैं। लेकिन हमारे मन में जो खयाल आता है, जब भी हम कहते हैं परमात्मा कृपालु है, मंगलदायी है, उससे मंगल बरसता है, तो हमसे भूल होती है। हमसे भूल होगी, क्योंकि हमारे मन मेँ मंगल का जो अर्थ होता है वह स्पष्ट नहीं है। परमात्मा मंगलदायी है, तो उससे हमें ऐसा ही खयाल आता है जैसे हम किसी दयावान व्यक्ति के पास जाएं और कहें कि फलां व्यक्ति बहुत दयावान है, बहुत शुभाकांक्षी है, कल्याण करनेवाला है। लेकिन जिस व्यक्ति के संबंध में हम ऐसा सोचते हैं, वह अकल्याण भी कर सकता है। अदयालु भी हो सकता है, कूर भी हो सकता है, कठोर भी हो सकता है। दया के विपरीत जो है, वह भी उसके भीतर मौजूद है। इसलिए दया उसे करनी पड़ती है और अ—दया उसे रोकनी पड़ती है।
अच्छे—से—अच्छा आदमी भी, अच्छे को करना पड़ता है उसे और बुरे को रोकना पड़ता है। क्योंकि बुरा मौजूद है। इसलिए अच्छा आदमी एक गहरे संघर्ष में चलता है। वह हमेशा बुरे कौ रोकना पडता है, अच्छे को करना पड़ता है। इसलिए अच्छा आदमी भी, चूंकि अच्छा उसे करना पड़ता है, धीरे— धीरे अच्छा करने के अहंकार से भर जाता है। अक्सर ऐसा होता है कि बुरे आदमी उतने अहंकारी नहीँ होते हैं, जितने अच्छे आदमी अहँकारी होते हैं। बुरे आदमी एक लिहाज से सरल होते हैं। जो करना है, कर लेते हैं। बुरा भी कर लेते हैं। और बुरा करने की वजह से कभी उन्हें ऐसा नहीं लगता कि हम.. हम कुछ हैं, अच्छे हैं, तो अहंकार निर्मित नहीं होता। कारागृह में जाएं तो जो लोग वहां बंद हैं, वे आपके तथाकथित साधु—महात्माओं से ज्यादा सरल हैं। उन्हें खयाल ही नहीं कि हम भी कुछ हैं। क्योंकि बुरा करते हैं, कैसे कुछ हो सकते हैं। लेकिन अच्छा करनेवाला आदमी तो गहरे अहंकार से पीड़ित हो जाता है,। सूक्ष्म अस्मिता घनी हो जाती है। अपराधी दूसरों के प्रति अपराध करता है, अच्छा आदमी अपने प्रति अपराध कर देता है। क्योंकि वह अहंकार खुद के ही ऊपर साफ हो जाता है।
परमात्मा को कल्याणकर कहने का अर्थ बिलकुल दूसरा है। उसका अर्थ यह है कि उसका स्वभाव, इस अस्तित्व का मौलिक स्वभाव मंगलदायी है। मंगल करता नहीं वह, आप उसके निकट जाएं मंगल होना शुरू हो जाता है। यह उसका कृत्य नहीं है, यह उसका स्वभाव है।
जैसे मै बगीचे की तरफ जाऊं, तो जैसे—जैसे पास पहुंचता हूँ ठंडी हवाएं आनी शुरू हो जाती हैं। बगीचा कोई ठंडी हवाएं भेजता नहीं है। और ऐसा भी नहीं है कि जब कोई नहीं निकलता बगीचे के पास, तो बगीचा अपनी ठंडी हवाओं को रोक लेता हो। या कभी दुश्मन निकल आता हो, या ऐसा आदमी निकल आता हो जो बगीचे को प्रेम न करता हो, तो बगीचा अपनी ठंडी हवाएं रोक लेता हो। न, बगीचे को इससे प्रयोजन ही नहीं है। यह बगीचे का स्वभाव है कि उसके आसपास ठंडी हवा होगी ही। जब आप पास पहुंचते हैं, हवाओं की ठंडक बढ़ने लगती है। और पास पहुंचते हैं तो फूलों की सुगंध आने लगती है। यह भेजा नहीं जा रहा है। यह बगीचे के होने में ही निहित है। इसका मतलब हुआ कि बगीचा चाहे भी तो इससे अन्यथा नहीं कर सकता है। गरम हवा भेजना भी चा हे तो बगीचे के पास कोई उपाय नहीं है। और दुर्गंध भेजना भी चाहे तो बगीचे में ऐसे कोई फूल नहीं खिलते है।
परमात्मा मंगलदायी है। इसका अर्थ है कि जैसे—जैसे हम उसके निकट जाते हैं, हमें काल का अनुभव होता है। खयाल रखना, यह हमारा अनुभव है। यह हमारा अनुभव है कि परमात्मा मंगलदायी है। परमात्मा को इसका कोई भी पता नहीं है। अगर पता भी हो, तो पता तभी होता है जब विपरीत मौजूद हो। अगर आपको पता चलता है कि फलां व्यक्ति को मैं प्रेम करता हूं तो उसका मतलब ही यह है कि आपके भीतर घृणा मौजूद है। नहीं तो पता नहीं चलेगा। पता कैसे चलेगा? अगर आप कहते हैं, फलां व्यक्ति को मैंने क्षमा कर दिया, उसका मतलब ही यह है कि क्रोध मौजूद है। नही तो क्षमा का पता कैसे चलेगा? विपरीत के कारण ही पता चलता है।
परमात्मा को पता नहीं चलता कि वह मंगलदायी है। अगर उसे पता चल जाए तो वह गैर—मंगल भी कर सकता है। इसलिए परमात्मा को हम व्यक्ति की भाषा में सोचें ही न। क्योंकि जिसको कुछ भी पता नहीं चलता वह व्यक्ति नहीं है, सिर्फ शक्ति है। पता चलने के जोर से ही व्यक्ति निर्मित होता है। मुझे पता चलता है कि मैंने प्रेम किया, पता चलता है कि मैंने क्रोध किया, पता चलता है कि मैंने क्षमा की, यह पता जिस केंद्र को चलता है वही व्यक्ति बनता है। जब कोई पता नहीं चलता—परमात्मा को कुछ भी पता नहीं चलता, इसका यह मतलब नहीं है कि वह अज्ञानी है। इसका कुल मतलब इतना है कि विपरीत उसके भीतर नहीं है। इसलिए सब होता है, लेकिन पता नहीं चलता। वह एक चैतन्य का विस्तार है। व्यक्ति नहीं, एक चैतन्य। चैतन्य का, शक्ति का अरूप विस्तार है।
यह हमारा अनुभव है कि उसके पास जाते हैं तो मंगल होने लगता है, उससे दूर जाते हैं तो अमंगल होने लगता है। यह जो अमंगल होता है, वह उसके कारण नहीं होता है, हमारे दूर जाने के कारण होता है। यह जो मंगल होता है, यह भी उसके कारण नहीं होता है, हमारे पास जाने के कारण होता है। तो हम इसे ऐसा अच्छा होगा कहना कि परमात्मा के पास जाने की जो प्रतीति है, उसका नाम मंगल है और परमात्मा से दूर जाने की जो प्रतीति है, उसका नाम अमंगल है। यह हमारी प्रतीति है। अगर हम परमात्मा में पूरी छलांग लगा लें तो हमें भी मंगल का पता नहीं चलेगा।
तो जिस दिन मंगल का भी पता न चले, उस दिन जानना कि उससे एकता सध गयी। जब तक मंगल का पता चलता रहे, तब तक जानना कि पास जा रहे हैं। मंगल बढ़ता जा रहा है, आनंद बढ़ता जा रहा है, शांति बढ़ती जा रही है, लेकिन पास जा रहे हैं। जिस दिन इनका भी पता न चले, उस दिन समझना कि छलांग लग गयी। उसमें ही हो गये।
इसलिए बुद्ध जैसे आदमी को हम कहते हैं, परम शांत। कहना नहीं चाहिए। अशांत भी वह नहीं हैं, अब शांत भी न रहे। क्योंकि शांति का अनुभव अशांत व्यक्ति को ही चलता है। बीच—बीच में अशांति आती रहे तो उन दोनों के बीच में जो वक्त मिलता है, उसको हम शांति कहते हैं। दो अशातियो के बीच में शांति का अनुभव होता है। अगर एक अशांति के बाद फिर अशांति आए ही नहीं, तो थोड़े ही दिनों में शांति का अनुभव भी खो जाता है। शांत होता है व्यक्ति, लेकिन अनुभव नहीं रह जाता, अनुभोक्ता नहीं रह जाता।
फिर कहा है— 'अद्वैत है'। वह दो नहीं है। सारे जगत में जिन्होंने भी उसे खोजा है, उन्होंने कहा है, वह एक है। सिर्फ भारत में 'एक' शब्द का प्रयोग जानकर पसंद नहीं किया। भारत ने सदा कहा—वह दो—नहीं है। सारे जगत में जिन्होंने भी खोजा है, उन्होंने कहा है, वह एक है। 'वन'। लेकिन भारत को कभी भी उसे एक कहना नहीं रुचा। जानते हुए कि वह एक है, भारत को कभी भी उसे एक कहना पसंद नहीं पड़ा—और कारण हैं उसके। क्योंकि भारत ने उसे कहने के लिए सब तरह से, अधिकतम ठीक से प्रगट करने के लिए जितने उपाय किये हैं, उतने मनुष्यजाति की किसी कौम ने कभी नहीं किये हैं। उसके संबंध में जरा—सी भी भूल न हो, इसकी जितनी चेष्टा हमने की है, किसी ने भी कभी नहीं की है। और ऐसा भी नहीं लगता है कि इस चेष्टा में और आगे भी कुछ जोड़ा जा सकता है। कठिन मालूम पडता है। करीब—करीब ऐसा लगता है कि इस आयाम को हमने उसकी पूर्णता तक स्पर्श किया है।
इसलिए एक कहने में भी हमें कठिनाई पड़ी है। क्योंकि एक कहने से तत्काल दो का खयाल आता है। जब भी हम कहते हैं परमात्मा एक है, तो आपके मन में तत्काल दो पैदा हो जाता है। दो पैदा होने का कारण है। क्योंकि एक अपने—आप में मूल्यहीन है जब तक कि और बड़ी संख्याओं के विस्तार का हिस्सा न हो। एक का मतलब ही तब होता है जब दो भी हो, तीन भी हो, चार भी हो, पांच भी हो, तभी एक का मतलब होता है। पूरा गणित का विस्तार एक में छिपा हुआ है। इसलिए जब हम कहते हैं, एक, तो चित्त के भीतर जो ध्वनि उत्पन्न होती है वह दो की है। और कहने से भारत को कम प्रयोजन है, आपके भीतर क्या सुना जाता है उससे ज्यादा प्रयोजन है।
इस बात को समझें, यह बहुत मूल्यवान है। हमारी यह फिकिर कम है कि क्या कहा जाए, हमारी यह फिकिर ज्यादा है कि क्या समझा जाए। क्योंकि अंततः समझ काम करेगी, कहा हुआ काम नहीं करेगा। इसलिए बड़ा उल्टा शब्द हमने कहा। हमने कहा, वह दों—नहीं है, अद्वैत। जब कहा जाता है वह दो—नहीं है, तो आपके भीतर एक का रूप निर्मित होता है। जब कहा जाता है कि दों—नहीं है, तो आपके भीतर गहन अंतस में जो प्रतीति आती है, वह एक की है। और जब कहा जाता है, एक है, तो अंतस में जो शृंखला शुरू हो जाती है, वह संख्याओं की है। आपके चित्त पर जो चित्र निर्मित होता है, वह 'दों—नहीं ' कहने से एक का निर्मित होता है, और वह एक भिन्न है—कहे गये एक से।
कहें एक, तो और बात है। कहें दो—नहीं, तब —भी आपके भीतर जो एक का धीमा—सा आभास होता है, वह आभास परोक्ष है, 'इनडाइरेक्ट' है। वह सिर्फ आभास है। मुट्ठी में पकड़ नहीं आती है। सिर्फ गहन में कहीं कोई स्वर गज जाता है एक का, जिस पर आप भी सचेत नहीं होते। उस अचेतन में एक के भाव को उतारने के लिए भारत ने उसकी निरंतर कहा है—दों—नहीं। यह मनुष्य और मनुष्य के बीच संवाद करने के बहुत गहरे निष्कर्षों का परिणाम है। बहुत बार आदमी से कह—कहकर जाना गया है कि उसके भीतर क्या निर्मित होता है, उसकी चेतना में क्या घटित होता है।
और चेतना में अक्सर उल्टा घटित होता है। जैसे आप दर्पण के सामने खड़े होते हैं, आपको खयाल नहीं आता कि आपका उल्टा प्रतिबिंब दर्पण में बनता है। खयाल में नहीं आता, रोज आप दर्पण के सामने खड़े होते हैं, खयाल में नहीं आता। लेकिन किताब का पन्ना दर्पण के सामने करें, तब आपको तत्काल खयाल में आ जाएगा। यह तो अक्षर उल्टे हो गये! असल में सभी प्रतिबिंब उल्टे बनते हैं। कोई प्रतिबिंब सीधा नहीं बन सकता। जब आप नदी के तट पर खड़े होते हैं और आपका प्रतिबिंब बनता है, तो वह उल्टा होगा। प्रतिबिंब बनने की प्रक्रिया में चीजें उल्टी हो जाती हैं। हो ही जाएंगी। आपकी दायीं आंख बायीं तरफ बनेगी, बायीं आंख दायीं तरफ बनेगी। इसलिए जब आप मुझे देखते हैं तो आपकी आंख में जो प्रतिबिंब बनेगा, वह उल्टा बनेगा। मैं जब आपको देखता हूं तो मेरी आंख तो दर्पण का काम करेगी, जो प्रतिबिंब बनेगा, वह उल्टा बनेगा।
सब प्रतिबिंब उल्टे बनते हैं। सब प्रतिध्वनियां उल्टी होती हैं। इस गहरे अनुभव के कारण भारत ने कभी भी ब्रह्म को एक नहीं कहा। क्योंकि एक कहने से भीतर जो प्रतिबिंब बनता है, वह उल्टा है। इसलिए हमने पसंद किया कहना, अद्वैत। दो नहीं है। तो जो प्रतिबिंब बनता है, वह परोक्ष में, सूक्ष्म में एक का है। वही प्रतीति को जोर देने के लिए नकारात्मक शब्द का प्रयोग किया।
'जिसका कोई आदि नहीं, मध्य नहीं, अंत नहीं'। जो न कभी प्रारंभ होता, न कभी समाप्त होता, ये दो बातें हमारी समझ में आ जाएंगी, लेकिन तीसरी बात थोड़ी कठिन है। वह आपके खयाल में कभी आयी भी नहीं होगी। यह तो आपने बहुत बार सुना होगा कि परमात्मा का न कोई आदि है न कोई अंत है। लेकिन यह ऋषि कहता है—उसका कोई मध्य भी नहीं है। जब हम कहते हैं कि न आदि है, न अंत है, तो हमारा मतलब होता है, उसका मध्य ही मध्य है। होगा ही मतलब। अगर किसी चीज का न कोई प्रारंभ है और न कोई अंत है और फिर भी है, तो उसका मतलब ही हुआ कि उसमें मध्य—हीं—मध्य है। जहां भी पाओ, वहीं मध्य है। अगर वह चीज है और अगर आप कहते हैं, न उसका आदि, न अंत, और न उसका मध्य, तो फिर वह रही ही नहीं। फिर रहेगी कहां? उसका होना कहां होगा?
लेकिन यह ऋषि ज्यादा वैज्ञानिक है। क्योंकि जिसका न आदि है, न अंत है, उसमें कोई मध्य हो कैसे सकता है? क्योंकि मध्य का मतलब ही होता है आदि और अंत के बीच में। मध्य का मतलब ही क्या होता है? दोनों छोरों के बीच में जो है। और जब दोनों छोर ही नहीं है तो बीच कैसे होगा? फिर भी वह है। तब उसके होने को हमें किसी और ढंग से सोचना पड़ेगा। फिर यह आदि, अंत और मध्य की भाषा बिलकुल छोड़ देनी पड़ेगी। वह है।
इसे हम एक और तरह से खयाल में ले लें तो शायद खयाल में आ जाए। समय को हम तीन हिस्सों में बांटते हैं। अतीत, वर्तमान, और भविष्य। अगर परमात्मा है, तो उसके लिए कुछ भी अतीत नहीं हो सकता और उसके लिए कुछ भी भविष्य नहीं हो सकता। अगर परमात्मा है और उसके लिए भी भविष्य है—तों भविष्य का मतलब ही यह होता है कि जो ज्ञात नहीं है। अगर परमात्मा है और उसके लिए भी भविष्य है, तो उसका मतलब हुआ, उसके लिए भी कुछ अज्ञात। तो उसके लिए कोई भविष्य नहीं हो सकता है, उसके लिए कोई अतीत नहीं हो सकता है।
ऐसा समझें कि अतीत और भविष्य और वर्तमान हमारी सीमित दृष्टि के परिणाम हैं। हमें थोड़ा—सा हिस्सा दिखायी पड़ता है अस्तित्व का, उतने हिस्से को हम वर्तमान कहते हैं। जब वह नहीं दिखायी पड़ता तो अतीत हो जाता है। और जब तक नहीं दिखायी पड़ता था, तब तक भविष्य होता है। समझो एक आदमी एक वृक्ष के नीचे बैठा है, रास्ते के किनारे, दोनों तरफ रास्ता साफ है, कुछ दिखायी नहीं पड़ता। एक आदमी वृक्ष के ऊपर बैठा है, उसे एक बैलगाड़ी दिखायी पड़ती है रास्ते पर आती हुई। वह आदमी नीचे चिल्लाकर कहता है कि एक बैलगाड़ी रास्ते पर आ रही है। नीचे वाला आदमी कहता है, कोई बैलगाड़ी रास्ते पर नहीं है। भविष्य में हो सकती है, कहीं कोई दिखायी नहीं पड़ती। फिर बैलगाड़ी दिखायी पड़ती है। तो वृक्ष पर बैठे आदमी को जो बैलगाड़ी वर्तमान में थी, वह अब उसके लिए वर्तमान होगी—नीचे बैठे आदमी को।
फिर बैलगाड़ी रास्ते से गुजरती है और खो जाती है। नीचे वाला आदमी कहता है, बैलगाड़ी अतीत में चली गयी। अब नहीं दिखायी पड़ती। लेकिन ऊपरवाला आदमी कहता है कि अभी भी दिखायी पड़ती है। तो नीचेवाले आदमी को जो भविष्य था, वर्तमान था, अतीत था, वह वृक्ष पर बैठे आदमी को वर्तमान है—तीनों। लेकिन उससे भी ऊंचे वृक्ष की ऊंचाई पर कोई बैठा हो तो जब इसके लिए भी वर्तमान—अतीत के भेद आ जाएंगे तब भी उसे भेद न उगएगा। उसके ऊपर कोई बैठा हो, तो जब इसके लिए भी भेद आ जाएंगे तब भी उसे अभेद बना रहेगा।
परमात्मा से मतलब है कि जिसके पार और कुछ भी नहीं। तो उसका अर्थ हुआ, कि उसके लिए कोई अतीत अतीत नहीं होगा, कोई भविष्य भविष्य नहीं होगा। तो हमें खयाल आता है कि फिर उसके लिए सभी कुछ वर्तमान होगा। मतलब मध्य होगा। लेकिन यह ऋषि कहता है, कि उसके लिए मध्य भी नहीं होगा। क्योंकि जिसने भविष्य नहीं जाना, जिसने अतीत नहीं जाना, वह किस चीज को वर्तमान कहेगा। वर्तमान तो हम कह ही तब सकते हैं जब अतीत और भविष्य के बीच में हमें कोई अनुभव हो। अतीत और भविष्य का ही अनुभव नहीं होता तो वर्तमान का क्या अनुभव होगा! परमात्मा के लिए वर्तमान भी नहीं हो सकता। न अतीत, न भविष्य, न वर्तमान।
इसलिए रहस्यवादियों ने कहा है कि परमात्मा के सामने समय नहीं है। कोई समय नहीं है। कालातीत। कोई काल नहीं है। ठीक ऐसे ही, चूंकि उसके पास कोई समय नहीं है, समय की कोई धारणा नहीं है, कोई स्थिति नहीं है, वह कभी प्रारंभ नहीं हुआ, सदा से है। कभी अंत नहीं होगा, सदा रहेगा। इसलिए उसका बीच का भाग हम किसको कहें? तो ऋषि कहता है—न उसका कोई आदि, न उसका कोई अंत, न उसका कोई मध्य। वह बस है। और यह विभाजन उस पर लागू नहीं होता। उस पर कोई विभाजन लागू नहीं होता। वह अविभाज्य है। और हम सब जो भी सोच सकते हैं वह बिना विभाजन के नहीं सोच सकते हैं। इसीलिए अचिंत्य है।
हम जो भी सोचेंगे, उसमें विभाजन होगा ही। हमारे पास कोई उपाय नहीं है। विभाजन हम करेंगे ही। बच्चा होगा, जवान होगा, बूढ़ा होगा; जन्म होगा, मृत्यु होगी; सुख होगा, दुख होगा; अंधेरा होगा, प्रकाश होगा; हम विभाजन करेंगे ही। आप कोई ऐसी चीज जानते हैं जो अविभाज्य हो? मनुष्य के अनुभव में ऐसी कोई चीज नहीं जो अविभाज्य हो। उसमें विभाजन होगा ही। असल में मनुष्य का मन बिना विभाजन के कुछ समझ ही नहीं सकता। और अस्तित्व अविभाज्य है। वह कहीं, कहीं विभाजित नहीं होता। कहीं विभाजित नहीं होता। यह जो अविभाज्य अस्तित्व है, इसकी सूचना दी है ऋषि ने—न मध्य, न अंत, न आदि।
अद्वितीय है 'वह। अद्वैत कहने के बाद अद्वितीय—हमें लगेगा, कहने की कोई जरूरत नहीं है। जरूरत है। अद्वैत ने कहा कि वह दो नहीं है, अद्वितीय ने कहा कि उस जैसा कोई दूसरा नहीं। बेजोड़ है, अतुलनीय है, 'इनकंपेरेबल' है। इसीलिए तो हम उसके संबंध में कुछ भी नहीं कह पाते हैं। क्योंकि जब तक दूसरा न हो, कहना बहुत मुश्किल है। हम एक आदमी को कह पाते हैं सुंदर है, क्योंकि किसी कुरूप से उसकी तुलना की जा सकती है; नहीं तो सुंदर कैसे कहियेगा? अगर एक ही आदमी पृथ्वी पर हो, तो वह सुंदर होगा या कुरूप? वह बुद्धिमान होगा या बुद्ध? अगर एक ही आदमी है तो वह बिलकुल बेजोड़ होगा। उसके बाबत कुछ भी कहना मुश्किल होगा। उसको बुद्ध कहिये तो किसकी तुलना में? उसको बुद्धिमान कहिये तो किसकी तुलना में? यह तो हमारी समझ में आ जाएंगे, लेकिन और थोड़ा उतरेंगे तो उसके संबंध में कुछ भी कहना मुश्किल है। वह बीमार होगा कि स्वस्थ? तुलना न होने से कुछ भी कहने का उपाय नहीं रह जाएगा। वह अतुलनीय हो जाएगा। वह जैसा है वैसा है। उसके बाबत कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इसलिए कहा, अद्वितीय। उस जैसा कोई दूसरा नहीं।
इनमें से किसी एक भी गुण पर बहुत जोर देने से धर्मों की पृथकताएं पैदा हो जाती है। जैसे हिंदू धर्म ने अद्वैत पर जोर दिया। इस्लाम ने अद्वितीय पर। इस्लाम का केंद्र है, अद्वितीय, 'इनकंपेरेबल'। इसलिए कुरान कहती है मेरे सिवाय और कोई अल्लाह नहीं। मैं ही हूं मेरे सिवाय और कोई दूसरा नहीं।
लेकिन मुसलमानों ने इसे बड़ा गलत समझा। वे इसको अद्वितीय का अर्थ नहीं दे पाए। उन्होंने समझा कि इसका मतलब यह है कि मुसलमानों के ईश्वर के सिवाय जितने सब ईश्वर हैं, तोड़—फोड़ डालो। क्योंकि वह एक ही। एक—दूसरे को बचने ही मत दो, क्योंकि वह एक ही। लेकिन अगर वे ठीक से समझ लेते, तो दूसरे को तोड़ने में भी दूसरे को स्वीकार कर लिया। जिसको तोड़ने की जरूरत पड़ी, वह था। जिसको तोड़ने के लिए श्रम करना पड़ा, उसको मान लिया।
अगर परमात्मा अद्वितीय है, तो उसका मतलब ही यह है कि कुछ भी हो वह उसी परमात्मा के अद्वितीय रूप का हिस्सा होगा, और कोई उपाय नहीं है। अगर वह निराकार है, तो आकार को तोड़ने से उसका निराकार होना सिद्ध नहीं होगा। आकार में भी उस निराकार को देखने से ही सिद्ध होगा। क्योंकि अगर आकार को तोड़ना पड़ता है, तो इतना तो मान ही लिया कि आकार भी होता है, जो तोड़ा जा सकता है। बनाया जा सकता है, तोड़ा जा सकता है। आकार है। तब तो उसका अर्थ यह हुआ कि निराकार परमात्मा है और आकार भी हो सकता है। तो फिर परमात्मा के अलावा भी इस जगत में कुछ होता है। तो फिर वह अद्वितीय न रहा। फिर दूसरे को हमने स्वीकार कर लिया।
इस लिहाज से भारतीय मनीषा की पैठ बहुत गहरी है। भारतीय मनीषा कहती है कि आकार में भी वही निराकार है। और उसी निराकार से सब आकार जनमते हैं और उसी में लीन होते हैं। अद्वितीय है वह, लेकिन उसका मतलब यह नहीं कि उसे बहुत—बहुत रूपों में नहीं देखा जा सकता। हर रूप में देखा जा सकता है। फिर भी वह अद्वितीय है, क्योंकि वह एक ही है। दूसरा नहीं। इसलिए 'इनकंपेरेबल' है, अतुलनीय है।
'सर्वव्यापक है'। क्योंकि सभी कुछ वही है। 'चैतन्य है, आनंदघन है'। चैतन्य पर बड़ा जोर है। रोसा भारतीय रहस्य का अनुभव है कि श्रेष्ठतम में निकृष्ट समा जाता है, लेकिन निकृष्ट में श्रेष्ठ नहीं समाता। यही विवाद है। बड़ा विवाद है।
नास्तिक और आस्तिक के बीच, पदार्थवादी और अध्यात्मवादी के बीच जो विवाद है, वह यही है। वह विवाद यह है कि पदार्थवादी कहता है कि सभी चीजें 'रिडयूस' की जानी चाहिए, सभी चीजें घटायी जानी चाहिए उस मौलिक तत्त्व पर जिससे शक्ति यह निर्मित हुई। जैसे अगर आदमी है, तो आदमी क्या है? पदार्थवादी कहेगा कि हम इसके भीतर की सारी चीजों की जांच—पड़ताल कर लेते हैं, इन्हीं का जोड़ है। अगर इसमें चेतना भी दिखायी पड़ती है, तो वह भी इसी जोड़ का परिणाम है। वह इस जोड़ से ज्यादा नहीं है। पदार्थवादी चीजों को उनके मूल में ले जाना चाहता है।
अध्यात्मवादी का सोचने का ढंग बिलकुल भिन्न है। वह प्रत्येक चीज को उसके आत्यंतिक शिखर पर ले जाना चाहता है। वह कहता है कि जो आत्यंतिक शिखर है, तो वह यह नहीं कहेगा कि मनुष्य सिर्फ पदार्थ का जोड़ है, बल्कि वह यह कहेगा कि चूंकि मनुष्य में चेतना प्रगट हो गयी इसलिए चेतना के भीतर ही यह पदार्थ का सारा जोड़ घटित हुआ है। चेतना के कारण ही घटित हुआ है। श्रेष्ठतम जब प्रगट हो जाता है, तो अध्यात्मवादी का कहना है कि श्रेष्ठतम बड़ा है। अपने मौलिक आधारों से बड़ा है। जिन चीजों से मिलकर बना है, उनसे बृहत्तर है। 
पदार्थवादी और अध्यात्मवादी की भाषा को अगर हम समझें तो वे बहुत भिन्न भाषा नहीं बोलते। उनकी भाषा एक अर्थ में एक—सी है, सिर्फ उनकी दिशाएं भिन्न होती हैं। पदार्थवादी कहता है, पदार्थ ही सब कुछ है। अगर चेतना भी पैदा होगी तो उसी की 'बाइप्राडक्ट' है, उसी की उप—उत्‍पत्ति, अलग उसको सोचने की कोई जरूरत नहीं। अध्याअवादी कहता है, आत्मा ही सब कुछ है; और अगर पदार्थ भी प्रगट होता है तो वह उसी की 'बाइप्राडक्ट' है, उप—उत्पत्ति है। पदार्थवादी कहता है, पदार्थ से चेतना निर्मित होती है। अध्यात्मवादी कहता है, चेतना की मूर्छा से ही पदार्थ निर्मित होता है।
इन दोनों के कहने के ढंग में बहुत फर्क नहीं है। दिशाओं में जमीन—आसमान का फर्क है। और उसके परिणाम बहुत महत्त्वपूर्ण होंगे। अगर हम यह मान लें कि आदमी पदार्थ का ही जोड़ है, तो विकास की सारी संभावना खो जाएगी। इसलिए पदार्थवाद के साथ विकास असंभव है। उत्कांति असंभव है, रूपांतरण असंभव है। लेकिन अध्यात्मवाद के साथ संभावना खुलती है। क्योंकि श्रेष्ठ को हम स्वीकार करते हैं तो श्रेष्ठ के होने की आकांक्षा पैदा होती है।
अगर परमात्मा है तो.?? नीत्से ने बहुत अद्भुत बात कही है। नीत्से ने कहा है कि यदि परमात्मा है, तो फिर मेरी आत्मा बिना परमात्मा हुए कभी राजी नहीं हो सकती। अगर है, तो फिर कोई उपाय नहीं है मेरे लिए, फिर मुझे परमात्मा होना ही पड़ेगा। क्योंकि उससे कम में फिर कोई तृप्ति नहीं हो सकती। तो श्रेष्ठ को स्वीकार करने के साथ ही व्यक्ति की चेतना में नयी अभीप्सा का जन्म हो जाता है। इस अभीप्सा के लिए दो शब्द महत्त्वपूर्ण हैं—चैतन्य, परमात्मा चेतना है; और आनंदमय, और परमात्मा आनंद है।
'जिसका कोई रूप नहीं, जो विलक्षण है, ध्यान के द्वारा मनुष्य उसे उपलब्ध करते हैं'
अब यह मैं पूरा सूत्र आपको कह दूं—
'इस प्रकार मुनि लोग ध्यान के द्वारा उस चिंतन की सीमा में न आनेवाले, व्यक्त न होनेवाले; जिसके अनंत रूप है, जो कल्याण करनेवाला, जो अद्वैत है, जो ब्रह्म का मूल कारण है, जिसका कोई आदि, मध्य और अंत नहीं; जो अद्वितीय, सर्वव्यापक, चैतन्य, आनंदमय है; जिसका कोई रूप नहीं, जो विलक्षण है, उसको प्राप्त करते हैं। ' ध्यान द्वार है इस अचिंत्य, अद्वितीय, अद्वैत, अरूप, अनंतरूप, चैतन्य, आनंदघन का। ध्यान विधि है इस परम रूपांतरण के लिए। ध्यान से जो बचेगा, वह परमात्मा से बच जाएगा। ध्यान से जो नहीं गुजरेगा, वह उस विराट में नहीं पहुंच सकता। जैसे नदियों को किनारों के बीच से गुजरना पड़ता है, सागर तक पहुंचने के लिए, ऐसे चेतना को ध्यान के किनारों से गुजरना पड़ता है उस अनंत सागर तक पहुंचने के लिए।
अब हम ध्यान के लिए तैयार हो जाएं। कोई मित्र देखने को आ गये हों तो यहां 'पाउंड' में न रहें।






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