ध्यान
योग शिविर,
1अप्रैल
1972,
रात्रि;
माऊंट
आबू,
राजस्थान।
सूत्र :
अपाणिपादो
है
अचित्त्वशक्ति
पश्याम्यचक्षु:
स
शृणोम्यकर्ण:।
अहं
विजानामि
विविक्तरूपो
न चास्ति
वेत्ता मम
चित्सदाउहम्।।
21।।
जिसके न
हाथ—पैर हैं
और न जिसके
संबंध में चिंतन
किया जा सकता
है, वह
शक्ति
अर्थात्
परब्रह्म मैं
ही हूं। मैं
बुद्धि के
बिना ही सब
कुछ जानने, कानों के
बिना ही सब
कुछ सुनने और
आंखों के बिना
ही सब कुछ
देखने की
सामर्थ्य
रखता हूं। सब रूपों
से परे मैं
जानने वाला
हूं लेकिन मुझ
चित् स्वरूप
को जानने वाला
कोई नहीं है।।
21।।
इस
सूत्र में
प्रवेश के
पहले कुछ शब्दों
को समझ लेना
चाहिए। जिसका
कोई शरीर नहीं
है। फिर भी जो
है;
जिसका कोई रूप
नहीं है, फिर
भी जो है; जिसका
कोई आकार नहीं
है, फिर भी
जो है; उसके
संबंध में
इशारा जो हमें
दिखायी पड़ता
है वह रूप है, आकार है, शरीर
है। जो हमें
नहीं दिखायी
पड़ता है, वह
भी है। मैं
आपको देखता
हूं। जो मुझे
दिखायी पड़ता
है, वह आप
नहीं हैं।
निश्चित ही जो
आप हो, मेरी
आंख की पकड़ के
बाहर छूट जाता
है। आपके हाथ
दिखते हैं, पैर दिखता
है, शरीर
दिखता है, चमड़ी
दिखती है, आंख-कान
दिखते हैं, आप मुझे
दिखायी नहीं
पड़ते हैं।
जैसा आप अपने
को भीतर से
जानते हो, वैसा
आपको बाहर से
जानने का कोई
भी उपाय नहीं है।
हम
दूसरे में भी
आत्मा मान
लेते हैं, सिर्फ
इसीलिए कि हम
अपने में
आत्मा को खयाल
कर पाते है।
अन्यथा दूसरे
का शरीर ही
दिखायी पड़ता
है। उसके भीतर
कुछ है या
नहीं, वह
तो दिखायी
नहीं पड़ता।
स्वयं के भीतर
जरूर शरीर से
ज्यादा किसी
की प्रतीति
हमें होती है,
इसीलिए हम
अनुमान कर
लेते है कि
दूसरे के भीतर
भी वह होगा।
लेकिन दूसरे
में दिखायी
नहीं पड़ता है।
और जो दिखायी
पड़ता है, वह
उससे भिन्न
है। इसलिए एक
दिन ऐसा होता
है कि जिसे
हमने कल तक
जीवित जाना था,
वह मरा हुआ
पड़ा है। सब
कुछ वही है जो
कल तक था, फिर
भी कुछ भी वही
नहीं रहा।
जहां तक
दिखायी पड़ने
का संबंध है, सब कुछ
दिखायी पड़ता
है अभी भी, जो
इंद्रियों की
पकड़ में आता
था वह अब भी
मौजूद है, लेकिन
इंद्रियों की
पकड़ में कुछ
नहीं आता था, वह तिरोहित
हो गया। वह हट
गया।
वह
जो हट गया है, वह
हटता हुआ भी
कभी दिखायी
नहीं पड़ता था।
शरीर टूटता है,
नष्ट होता
है, मृत
होता है, तो
शरीर को छोड़ता
हुआ कभी कोई
दिखायी नहीं
देता। इस कारण
वैज्ञानिक
सदा से कहते
रहे है कि कुछ
है नहीं भीतर।
आत्मा सिर्फ
शरीर का ही एक
गुणधर्म है।
शरीर के अंगों
का ही एक जोड़
है जैसे घड़ी
चलती है, तो
कोई प्राण तो
उसको चलाता
नहीं है।
यंत्र का ही
जोड़ है। यंत्र
बिखर जाता है
तो हम यह नहीं
पूछते कि इसकी
आत्मा कहां
चली गयी? आत्मा
उसमें थी ही
नहीं।
वैज्ञानिक
कहते रहे हैं
अब तक, भौतिकवादी
चिंतक कहते
रहे हैं अब तक,
कि शरीर भी
एक यंत्र है।
और उसके भीतर
यंत्र के
संयोग से जो
क्रिया फलित
हो रही है, वही
जीवन है। जीवन
इस शरीर से
भिन्न नहीं
है। यही सतत
विवाद का कारण
रहा है। और
मनुष्यजाति दो
वर्गों में
बंट गयी है, जाने-अनजाने।
एक वर्ग है जो
मनुष्य को यंत्र
नहीं मानता।
और एक वर्ग है जो
मनुष्य को यंत्र
मानता है।
जो
वर्ग मनुष्य को
यंत्र नहीं मानता, वह पूरे जगत
को भी यंत्र
नहीं मान सकता।
जो वर्ग मनुष्य
को यंत्र मानता
है, फिर और
कोई चीज नहीं
बचती जिसको
यंत्र मानने में
कोई भी बाधा
हो। फिर सारा
जगत एक यंत्र हो
जाता है।
भौतिक
वादी की दृष्टि
है कि जगत यंत्र
वत है। उसमे कोई
चैतन्य पृथक से
नहीं है।
अध्यात्यवादी
की दृष्टि है
कि जगत
यंत्रवत नहीं
है। यंत्रवत
जो दिखायी पड़
रहा है, वह जगत का
केवल बाह्य
आवरण है।
उसमें छिपा
हुआ अदृश्य ही
है।
इस
अदृश्य को कैसे
प्रमाणित किया
जाए? इस
अदृश्य को कैसे
अनुभव किया जाए?
इस अदृश्य को
कैसे स्वीकार करें?
कैसे इसके प्रति
श्रद्धा जागे?
तर्क
से यह नहीं हो
सका अब तक।
अध्यात्मवादियों
ने बहुत तर्क
दिये हैं, लेकिन
सभी व्यर्थ
गये।
अध्यात्मवादियों
ने बहुत से
प्रमाण दिये
हैं, लेकिन
सब बचकाने हैं।
अध्यात्मवादी
तर्क नहीं दे
पाए।
भौतिकवादियो
ने जो भी तर्क
दिये हैं, बड़े
गंभीर हैं।
महत्वपूर्ण हैं।
और अगर तर्क से
ही निर्णय
करना हो, तो
विजय
भौतिकवादी के हाथ
पड़ेगी। अगर
तर्क ही
निर्णायक हो
तो नास्तिक ही
जीतेगा।
आस्तिक तर्क से
जीत नहीं सकता।
लेकिन
फिर भी अंतत:
आस्तिक ही जीत
जाता है। और उसका
कारण तर्क
नहीं है। उसका
कारण एक दूसरा
आयाम है, अनुभव का।
कुछ है जीवन में,
जो अनुभव से
ही जाना जा सकता
है। बहुत कुछ।
और जितना हो
श्रेष्ठ, जितना
हो सत्य, जितना
हो सुंदर, जितना
हो गहन, जितना
हो दुरूह, जितना
हो रहस्यमय, उतना ही
अनुभव ही मार्ग
हो जाता है।
एक
अंधा आदमी है।
प्रकाश के
संबंध में कोई
भी तर्क नहीं
है समझाने का
कि हम उसे
समझा पाएं कि
प्रकाश है। या
आप सोचते हैं कोई
तर्क है, जो अंधे
आदमी को भरोसा
दिला दे कि प्रकाश
है। अब तक कोई
तर्क नहीं
खोजा जा सका।
अंधे आदमी को प्रकाश
का भरोसा तो दिलाना
दूर, अंधेरे
का भी भरोसा
नहीं दिलाया
जा सकता कि
अंधेरा भी है।
आमतौर से हम सोचते
हैं कि शायद
अंधे को
अंधेरा रहता होगा।
पर हम गलत
सोचते है।
अंधे को
अंधेरा भी
नहीं दिखायी पड़ता
है। क्योंकि अँधेरा
देखने के लिए
भी आँख ही चाहिए।
ऐसा मत सोचना
आप कि अंधा
अंधेरे में
जीता है।
अंधेरे को
देखना भी आंख
के ही द्वारा
संभव है।
प्रकाश और
अंधेरा, दोनों
ही आँख के
अनुभव हैं।
तो
हम अंधे से यह
भी नहीं कह
सकते कि
प्रकाश अंधेरे
से विपरीत है।
यह भी नहीं कह सकते।
क्योंकि उसे
अंधेरे का भी
तो अनुभव नहीं
है। उसे उस
आयाम का कोई
अनुभव ही नहीं
है। उसके भीतर
प्रकाश और
अंधेरे का कोई
अस्तित्व ही नहीं
है। उसके भीतर
प्रकाश और
अंधेरे के संबंध
में कोई सूचना
कभी ग्रहण नहीं
की गयी है। तो
तर्क हम कितना
ही दे, वे
तर्क बेमानी होगी।
उनका कोई अर्थ
नहीं होगा। और
अंधे को
श्रद्धा उन
तर्को पर नही
आसकती। सच तो यह
है कि अंधे के सामने
जो प्रकाश के लिए
तर्क देता है,
वह नासमझ है।
अंधा
सिर्फ अंधा है।
और तर्क देने वाला
मूढ़ है। मूढ़
इसलिए है कि वह
समझ ही नहीं पा
रहा है कि प्रकाश
के लिए सिर्फ
एक ही तर्क है, वह आँख है।
अगर मेरे पास कान
नहीं है, तो
मेरे लिए
अस्तित्व में
ध्वनि का कोई भी
उपाय नहीं है,
कि मैं जान
पाऊं कि ध्वनि
है।
इस
संबंध में एक
बात बहुत गहरी
खयाल में ले
लेने जैसी है।
कठिन पड़ेगी
थोड़ी, लेकिन
इधर विज्ञान
भी इस बात पर
झुकाव लेता चला
गया है।
आप
कभी देखते हैं
आकाश में थोड़े
बादल हैं, थोड़ी
वर्षा हो रही
है, एक
कोने से सूरज
निकल आया है
बादल। को
चीरकर और
इंद्रधनुष बन
गया है। क्या
आपने कभी यह
सोचा है अपने
मन में कि अगर
आप आंख बंद कर लें,
तो भी
इंद्रधनुष
आकाश में
रहेगा कि नहीं
रहेगा? आप निश्चित
ही कहेंगे कि
मेरी आंख से
क्या लेना—देना?
मैं आंख बंद
करूं, इंद्रधनुष
तो रहेगा।
लेकिन
विज्ञान कहता
है कि आपके आंख
बंद करते ही
इंद्रधनुष
नहीं रहेगा।
क्योंकि
इंद्रधनुष के
बनने के लिए
सूरज की किरण
चाहिए, पानी
की बूंद चाहिए
और आंख चाहिए।
तीन चीजें
चाहिए। सूरज
की किरण एक
खास कोण पर पानी
की बूंद से
गुजरे और आंख
पर एक खास कोण
पर गिरे तो
इंद्रधनुष
निर्मित होता
है।
इंद्रधनुष आप
वहां देखते
हैं ऐसा मत
समझना, आपकी
आंख भागीदार
है उसको
निर्माण करने
में।
इसका
मतलब यह हुआ
कि अगर जमीन
पर कोई
देखनेवाला न
हो, तो
कभी
इंद्रधनुष
निर्मित नहीं
होगा। इंद्रधनुष
में आपकी आंखें
उतना
ही हाथ बंटाती
हैं, जितना
सूरज, जितना
पानी की बूंद।
इंद्रधनुष
के संबंध में
तो यह समझ
लेना आसान है।
लेकिन क्या आप
समझते हैं कि
सूरज की किरण
भी, अगर
जमीन पर आंख न
हो, तो
प्रकाश नहीं
होगा। यह जरा
थोड़ा कठिन
मालूम पड़ेगा।
लेकिन यह भी
कठिन नहीं है।
वैज्ञानिक
इसके लिए अब
बिलकुल राजी
हैं कि अगर
जमीन पर कोई
भी आंख न हो तो
प्रकाश नहीं
होगा।
क्योंकि
प्रकाश के भी
बनने में, प्रकाश
के अनुभव में
भी सूरज की
किरण उतनी ही जरूरी
है, जितनी आंख।
प्रकाश सूरज
की किरण और आंख
के बीच का
सम्मिलन है। आंख
जहां सूरज की
किरण से मिलती
३, वहां
प्रकाश पैदा
होता है।
प्रकाश एक
अनुभव है।
प्रकाश एक
वस्तु नहीं है।
इसे ऐसा समझें
थोड़ा।
एक
कमरे में आप
बैठे हुए हैं।
कई रंग के
चादर लटके हुए
हैं, कुर्सियां
अलग रंग की
हैं, किताबें
बहुत रंग की
रखी हुई हैं, दीवालें
रंगी हुई हैं,
कई रंग हैं।
क्या आपने कभी
खयाल किया कि
जब आप प्रकाश
बुझा देते दो,
तो आपकी लाल
कुर्सी लाल
नहीं रह जाती
और आपके हरे
पर्दे हरे
नहीं जाते? आप सदा रात
को सोते होंगे
तब यही सोचते
होंगे अपने
अंधेरे में, अपने कमरे
का जो पर्दा
है वह अभी भी
हरा होगा, तो
आप गलती में
हैं। यह
वैज्ञानिक
तथ्य मैं कह
रहा हूं इनका
धर्म से कुछ
लेना—देना
नहीं है।
विज्ञान
कहता है कि
पर्दे के हरे
होने के लिए सूरज
की किरण चाहिए, आदमी की आंख
चाहिए। अगर यह
दोनों मौजूद न
हों, पर्दा
हरा नहीं होता।
क्योंकि जो
पर्दा आपको
हरा दिखायी
पड़ता है, वह
हरा होता नहीं
है—या किसी भी
प्रकार की
किरण पड़ती है,
तो किरण में
सात रंग हैं।
जब भी किसी
चीज पर किरण
पड़ती है, तो
वापिस लौटती
है। और हर
वस्तु—कोई
वस्तु रंगीन
नहीं है—हर
वस्तु इन सात
किरणों में से
कुछ किरणों को
पी लेती है, आत्मसात कर
लेती है और
कुछ किरणों को
वापिस लौटा
देती है।
यह
बहुत मजे की
बात है कि हरे
पर्दे का मतलब
होता है कि इस
पर्दे के कपड़े
ने सब किरणें
पी लीं, सिर्फ हरी
किरण को वापिस
लौटा दिया।
इसलिए वह जब
लौटती है, हरी
किरण जब आपकी आंख
पर पड़ती है, तो यह पर्दा
हरा दिखायी
पड़ता है। यह
बहुत उलटा
मालूम पड़ेगा।
हरा पर्दा हरी
किरण को छोड़
देता है, पीता
नहीं है। बाकी
सबको पी जाता
है। हरा
बिलकुल नहीं
है, बाकी
सब हो भी सकता
है। हरे को
छोड़ देता है।
और वह जो हरी
किरण छूटती है
वापिस, जब आंख
से टकराती है
तो पर्दा हरा
मालूम पड़ता है—उस
हरी किरण की
वजह से।
लेकिन
अगर कमरे में
कोई आंख ही
नहीं है, समझ लो कमरे
में प्रकाश है
लेकिन आंख
नहीं—दरवाजा
बंद है, भीतर
कोई भी नहीं—तो
पर्दा हरा
नहीं होगा, कुर्सी लाल
नहीं होगी।
दीवाल पीली
नहीं होगी।
किताबों में
अक्षर काले
नहीं होंगे और
पन्ने सफेद
नहीं होंगे।
और रात के
अंधेरे में न आंख
है, न
प्रकाश है, सब चीजें
बेरंग हो जाती
हैं।
प्रकाश
का अनुभव
किरणों की
मौजूदगी और आंख
की मौजूदगी का
सम्मिलित
अनुभव है।
इसलिए अंधे
आदमी को बिना आंख
के प्रकाश के
अनुभव करवाने
की कोई भी
व्यवस्था
नहीं है। या
प्रकाश की
प्रतीति
करवाने के लिए
कोई भी तर्क
उपयोगी नहीं है।
हम भी समझ
जाएंगे अंधे
को समझाने में
कि समझाना
व्यर्थ है।
बेहतर है कि
चिकित्सा
करें।
लेकिन
मनुष्य के
भीतर जो आत्मा
है, उसके
लिए हम तर्क
से निर्णय
करने चलते हैं।
वह भी अनुभव
है। और जब तक
ध्यान की आंख
उपलब्ध न हो
तब तक वह
अनुभव नहीं
होता। इसलिए
ध्यान को
तीसरी आंख कहा
है। वह आंख
उपलब्ध हो, तो जो
दिखायी पड़ता
है, वह
आत्मा है। और
तब जो दिखायी
पड़ता है, उसके
हाथ—पैर नहीं
हैं, उसका
शरीर नहीं है,
वह अरूप है।
वह मात्र
चैतन्य है। और
तब जो दिखायी
पड़ता है, अगर
वह अपनी
परिपूर्ण
शुद्धता से
अनुभव में आए,
तब यह सूत्र
खयाल में आएगा।
इस
सूत्र में ऋषि
ने कहा है— 'जिसके न
हाथ हैं, न
पैर; और न
जिसके संबंध
में चिंतन
किया जा सकता
है'।
क्योंकि
चिंतन वहीं तक
किया जा सकता
है जहां तक
इंद्रियों की
पक्क में कुछ
आता हो। चिंतन
की सीमा
इंद्रियों की
सीमा है।
इंद्रियां
जहां तक देख
पाती हैं, चिंतन
वहीं तक जा
पाता है।
चिंतन
इंद्रियों का
अनुगामी है।
आपकी आंख ने
जो देखा है, आपका मन
उसका चिंतन कर
सकता है। आपकी
आंख ने जो
नहीं देखा है,
आपका मन
उसका चिंतन
नहीं कर सकता
है।
लोग
आमतौर से कहते
है कि फलां
बात कल्पना है।
लेकिन कल्पना
भी आपके अनुभव
के आधार पर ही
होती है। कोई
कल्पना
वस्तुत:
कल्पना नहीं
होती। सिर्फ
दो अनुभवों का
जोड़ होती है।
आप कह सकते है
कि मैने ऐसा
कोई घोड़ा नहीं
देखा जो सोने
का बना हो और
आकाश में उड़ता
हो, लेकिन
मैं कल्पना कर
सकता हूं।
लेकिन ध्यान
रखिये, आपने
उड़नेवाली
चीजें देखी
हैं, सोने
की चीजें देखी
हैं, घोड़ा
देखा है। और
इन तीनों को
आप जोड़ भर ले
रहे हैं।
इसमें कल्पना
कुछ भी नहीं
है। इन तीन
अनुभवों को आप
जोड़ रहे हैं।
लेकिन तीनों
आपके अनुभव
हैं। आप एकाध
ऐसी कल्पना
अगर कर सकें
जो आपका अनुभव
ही न हो, तो
आप जगत में
चमत्कार घटित
कर रहे है! अब
तक ऐसा हुआ नहीं
है।
आप
जो भी सोच
सकते है, वह आपकी
इंद्रियों के
द्वारा दिया
गया अनुभव है।
मन इंद्रियों
का राजा नहीं
है, इंद्रियों
का अनुगामी है।
मन इंद्रियों
का मालिक नहीं
है, केवल
इंद्रियों की
छाया है। आंख
देती है, कान
देता है, हाथ
देता है, नाक
देती है, जबान
देती है, यह
सारे अनुभव मन
इकट्ठे कर
लेता है। और
उनके पीछे
चलता है।
आपकी
पांच
इंद्रियां
हैं, उन्होंने
जो—जो आपको
दिया है, क्या
आपका मन ऐसी
कोई चीज कभी
सोच सकता है
जो इन पांच
इंद्रियों से
संबंधित न हो?
एक भी बात
नहीं सोच सकता।
इसे थोड़ा हम
और तरह से
समझें तो शायद
आसानी पड़े।
जमीन
पर बहुत तरह
के प्राणी हैं।
कुछ प्राणी
हैं जिनके पास
चार
इंद्रियां
हैं। मान लो।
उनके पास आंख
नहीं है। तो
उन प्राणियों
के चिंतन में
प्रकाश कभी भी
रूप नहीं लेगा।
कुछ प्राणी
हैं जिनके पास
तीन इंद्रियां
हैं, समझ
लो उनके पास
कान नहीं है।
तो उन
प्राणियों के
जीवन में
प्रकाश और
ध्वनि का कभी
कोई अनुभव
नहीं होगा। न
चिंतन होगा, न विचार
होगा, न स्वप्न
होगा। इससे हम
जरा उलटा
सोचें।
कहीं
किसी उपग्रह
पर—क्योंकि
वैज्ञानिक
कहते हैं, कोई पचास
हजार ग्रहों
पर जीवन होना
चाहिए इसकी
संभावना है—अगर
कहीं जीवन हो
और वहां जो
व्यक्ति हों
उनके पास छ:
इंद्रियां
हों, तो
उनकी छठवीं
इंद्रिय की हम
कल्पना भी
नहीं कर सकते
कि-कि उससे वे
क्या जानते
होंगे। अगर
चार
इंद्रियां हो
सकती हैं, तीन
हो सकती हैं, तो छ: भी हो
सकती हैं, सात
भी हो सकती
हैं, दस भी
हो सकती हैं।
अगर दस
इद्रियोंवाला
प्राणी कहीं
हमें मिल जाए
तो हम सोच भी
नहीं सकते कि
वह क्या सोचता
होगा। और वह
हमसे कहे भी
तो हमारी समझ
में कुछ भी न
आएगा। उसके
शब्द ही हमें
बेमानी
लगेंगे।
अर्थहीन
लगेंगे।
हमारे पास
पांच हैं तो
हम सोचते हैं,
पांच
इंद्रियों पर
जगत समाप्त हो
गया। जिनके
पास चार हैं, वह सोचते
हैं चार अनुभव
में जगत की
समाप्ति हो
गयी। जिनके
पास तीन हैं, वह समझते
हैं तीन में
जगत पूर्ण है।
अमीबा
है, बैक्टीरिया
हैं छोटे, बहुत
छोटे जीवाणु
हैं, उनके
पास सिर्फ
शरीर है, कोई
इंद्रिय नहीं
है—कहें कि वे
एक—इंद्रिय
हैं। सिर्फ
शरीर है उनके
पास।
प्राथमिक
जीवाणु ' अमीबा'
है। उसके
पास सिर्फ देह
है। न आंख है, न कान है, न...
कुछ और नहीं
है। वह सिर्फ
शरीर से ही
जीता है। शरीर
के द्वारा ही
वह भोजन भी
उपलब्ध करता
है, शरीर
से ही सांस
लेता है, शरीर
से ही सरकता
है— उसके पास
पैर नहीं है—शरीर
ही उसका बड़ा
होता चला जाता
है। एक सीमा
के बाद शरीर
दो टुक्ड़ो
में टूट जाता
है। वही उसकी
संतति है।
उसके पास कोई
इंद्रियां
नहीं हैं। और
उसको भी तो
कुछ अनुभव
होगा जगत का? वह जगत का
अनुभव सिर्फ
स्पर्श का
होगा। चीजों
से टकराता
होगा, छूती
होंगी चीजें,
बस स्पर्श
का अनुभव होगा।
उसका जगत बड़ा
सरल जगत होगा।
उनमें सिर्फ
एक ही घटना
घटी है—स्पर्श
की। उस अमीबा
को समझाने का
कोई भी उपाय
नहीं है कि यहां
और घटनाएं भी
घटती हैं।
ऋषि
ने कहा है—जिसका
चिंतन नहीं
किया जा सकता।
क्योंकि
इंद्रियां जितना
जानती हैं
उतने का ही
चिंतन हो सकता
है। और उसे
इंद्रियां
कभी भी नहीं
जानती। न आंख
उसे देखती है, न कान उसे
सुनते हैं, न हाथ उसे
छूते है, वह
इंद्रियों के
पार रह जाता
है। वह जो
इंद्रियों के
पार है, वह
मन से सोचा
नहीं जा सकता।
चिंतन उसका
असंभव है। मनन
उसका असंभव है।
'जिसके न हाथ
हैं, न पैर,
न जिसके
संबंध में
चिंतन किया जा
सकता, वह
शक्ति
अर्थात्
परब्रह्म मैं
ही हूं। 'वह
जो अचिंतनीय
है, अचिंत्य
है, अपरिभाष्य
है, अतींद्रिय
है, वह मैं
ही हूं। इसे
भीतर से ही
जानेंगे तो
ठीक होगा।
आपको अपना पता
चलता है। इतना
तो तय है कि
आपको अपने
होने का पता
चलता है।
लेकिन क्या कभी
आपने सोचा कि
जब दूसरी
चीजों का आपको
पता चलता है
तो इंद्रियों
के द्वारा
चलता है, आपको
स्वयं के होने
का पता किस
इंद्रिय के
द्वारा चलता
है? प्रकाश
का पता चलता
है तो आंख से
चलता है।
ध्वनि का पता
चलता है तो
कान से चलता
है, लेकिन
आपको अपना पता
किस इंद्रिय
से चलता है? आप हैं, ऐसा
आपको अनुभव
किस इंद्रिय
से होता है?
ऐसा
अनुभव तो होता
ही है कि मैं
हूं। यह
नास्तिक को भी
होता है, पदार्थवादी
को भी होता है।
और कोई यह भी
कहे कि मैं
नहीं हूं तो
भी कम—से—कम
कहने के लिए
भी, इनकार
करने के लिए
भी स्वयं को
उसे स्वीकार
करना पड़ता है।
मैं को इनकार
नहीं किया जा
सकता।
क्योंकि उसे
इनकार करने
में भी
स्वीकार करने की
मजबूरी है।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन अपने
मित्रों को घर
ले आया।
कॉफीहाउस में
बैठ कर काफी
बातचीत में बढ़
गया। और
बातचीत यहां
तक पहुंच गयी
कि मुल्ला ने
कहा कि मुझसे
उदार व्यक्ति
इस गांव में
दूसरा नहीं है।
यह सिर्फ
चर्चा थी, मुल्ला
को पता नहीं
था कि यह
उपद्रव हो
जाएगा। बीस—पच्चीस
मित्र इकट्ठे
थे। उन्होंने
कहा अगर ऐसा
है, तो
हमने कभी
तुम्हारा
निमंत्रण
नहीं सुना आज तक।
कभी तुम्हारे
घर चाय भी
पीने नहीं
बुलाया तुमने,
तो आज अगर
तुम उदार ही
हो तो हम
तुम्हारे घर
भोजन के लिए
चलें। मुल्ला
जोश में था, उसने कहा कि
सब चलो, निमंत्रण
है।
पर
जैसे—जैसे घर
पास आने लगा, पली भी
पास आने लगी, वैसे—वैसे
भय भी व्याप्त
होने लगा। घर
के दरवाजे पर
उसके हाथ—पैर
कंपने लगे कि
यह तो मुसीबत
हो गयी। पली
को क्या कहेगा?
उसने कहा
मित्रों, जरा
बाहर रुको, तुम जानते
ही हो, जरा
मैं पत्नी को
पहले राजी कर
लूं फिर
तुम्हें भीतर
बुलाऊं।
वह
भीतर गया।
पत्नी को उसने
कहा कि मैं
बीस—पच्चीस
मित्रों को, बड़ी भूल
में पड़ गया
हूं निमंत्रण
दे आया हूं।
और भोजन का
इंतजाम. पत्नी
तो आग बबूला
बैठी थी, क्योंकि
वह दिन भर से
मुल्ला लौटा
नहीं था। उसने
कहा कि दिन भर
के बाद आए हो
और यह उपद्रव
लेकर आए हो!
भोजन तो आज
बिलकुल बनाया
ही नहीं। तो
मुल्ला ने कहा,
फिर एक काम
करो। तुम जाकर
उनसे कह दो कि
मुल्ला
नसरुद्दीन घर
पर नहीं हैं।
उनकी पत्नी ने
कहा तुम पागल
तो नहीं हो
गये हो? तुम्हीं
इनको लेकर आए
हो। मुल्ला ने
कहा तू कोशिश
कर।
मुल्ला
की पत्नी बाहर
गयी, मित्रों
से उसने पूछा
कैसे आए हैं
आप? उन्होंने
कहा, कैसे
आए हैं!
मुल्ला हमें
निमंत्रण
देकर आए हैं, भोजन के लिए
हम आए हैं।
पत्नी ने कहा
मुल्ला तो घर
पर नहीं हैं।
मित्रों ने
कहा, आश्चर्य
हमने अपने साथ
उन्हें अपनी आंखों
से घर के भीतर
जाते देखा है।
हमने अपने
कानों से
तुम्हारी और
उनकी बातचीत सुनी
है। हमने
उन्हें यह भी
कहते सुना है
कि तुम जाकर मित्रों
को कहो कि
मुल्ला घर पर
नहीं हैं।
मुल्ला को
इससे बड़ा
क्रोध आ गया—उसे
तो सुनायी पड़
रहा था भीतर।
जोश उसका बढ़
गया। उसने
खिडक़ी खोली और
जोर से कहा कि
यह भी तो हो सकता
है कि मुल्ला
तुम्हारे साथ
आए हों और
पीछे के
दरवाजे से
कहीं चले गये
हों।
जो
आदमी इनकार
करता हो कि
मैं नहीं हूं
उसका इनकार
ऐसा ही होगा।
इनकार करने
में भी तो मैं
मौजूद हो जाता
है। लेकिन इस
मैं का आपको
पता कैसे चलता
है? कैसे
आपने जाना कि
आप हैं? क्या
उपाय, क्या
विधि क्या
उपकरण है? कौन—सी
इंद्रिय ने, किस माध्यम
से आपको खबर
मिली कि आप
हैं? तब आप
बड़ी मुश्किल में
पड़ेगे। लेकिन
इंद्रिय से यह
खबर नहीं
मिलती। निश्चित
ही आपका जो
अनुभव है, वह
इंद्रियों से
उपलब्ध नहीं
होता। आप अपने
को जानते हैं
कि मैं हू
बिना किसी कारण
के, बिना
किसी गवाही
के!
अगर
किसी अदालत
में आप पर
मुकदमा चले और
आपको गवाही
उपस्थित करनी
पड़े कि आप
गवाही दें, कौन है
गवाह कि आप
हैं? हां, यह गवाह मिल
सकते हैं आपको
कि आपका नाम
क्या है, आपके
पिता का नाम
क्या है, लेकिन
अगर कोई अदालत
यह जिद करे कि
आप यह गवाही
दें पहले कि
यह पका हो कि
आप हैं, तो
आप कोई भी
गवाही
उपस्थित न कर
सकेंगे।
क्योंकि इसकी
कोई गवाही
नहीं है। यह
आपका
अंतर्बोध है।
अतींद्रिय
बोध है, इंद्रियों
से उसका कोई
लेना—देना
नहीं है।
इसलिए
कोई इंद्रिय
उसकी गवाही
नहीं दे सकती।
इसीलिए दूसरी
बात भी आप
खयाल में ले
लें, अगर
मेरी सारी
इंद्रियां भी
मुझसे अलग कर
दी जाएं तो भी
मेरे होने का
बोध नहीं खोता।
अगर मेरा हाथ
काट दिया जाए
तो भी मेरे
होने के बोध
में कमी नहीं
पड़ती। मेरी आंखें
निकाल
ली जाएं तो
मेरे होने के
बोध में कोई
कमी नहीं पड़ती।
मेरी जबान काट
दी जाए तो
मेरे होने के
बोध में कमी
नहीं पड़ती।
मेरा जगत छोटा
हो जाएगा, मैं
छोटा नहीं
होऊंगा। मेरी आंख
अगर फूट गयी, तो प्रकाश
का जगत मेरा
समाप्त हो गया।
इस जगत में
मेरे लिए
प्रकाश का
आयाम न रहा, मेरा जगत
दरिद्र हो
जाएगा। उनमें
से प्रकाश और
रंग खो जाएंगे।
मेरे कान अगर
किसी ने फोड़
दिये, तो
मेरे लिए जगत
में फिर संगीत
न रहा, ध्वनि
न रही, शब्द
न रहा, भाषा
न रही, मेरा
जगत छोटा हो
गया और भी।
मेरे पैर और
हाथ किसी ने
काट दिये तो
गति से इस जगत
में जो मेरा
संबंध होता था,
वह छूट गया।
लेकिन
एक मजे की बात
है, इससे
मेरे होने के
बोध में इंच
भर भी कमी
नहीं होगी।
क्योंकि अगर
मेरे होने का
बोध आंख से
मिला ही नहीं
था तो आंख के
हटने से खोएगा
भी क्यों? और
अगर मेरे होने
के बोध में
कान ने कुछ
दान ही नहीं
किया था, तो
कान के हट
जाने से मेरे
होने के बोध
में कमी क्यों
पड़ेगी? अंधे
का जगत छोटा
होता है, लेकिन
आत्मा छोटी
नहीं होती
आपकी। और कभी—कभी
तो बड़ी भी
होती है। बड़ी
का मतलब यह है
कि जगत छोटा
होता है, इसलिए
ध्यान बंटाने
के लिए बाहर
का कम उपाय होता
है, तो
ध्यान भीतर की
तरफ प्रवेश
करने लगता है।
इंद्रियों
से उसका बोध
नहीं होता।
उसके बोध का
कोई संबंध
इंद्रियों से
नहीं है।
इसलिए मेरी
सारी
इंद्रियां भी
हट जाएं तो भी मैं
उतना ही होता
हूं जितना था।
जिसका बोध
इंद्रियों से
नहीं होता, फिर भी
जिसका बोध
होता है, इस
बोध का हमें
कोई नया नाम
देना पड़े; इसीलिए
इसे आत्मबोध
कहा है। अगर
आप मुझे
दिखायी पड़ रहे
हैं तो प्रकाश
चाहिए। अभी
प्रकाश बुझ
गया था, आप
मुझे दिखायी
नहीं पड रहे
थे। लेकिन
सारा प्रकाश
जगत से बुझ
जाए, तो भी
क्या ऐसा हो
सकता है कि
मैं स्वयं को
दिखायी न पडूं?
सारे जगत का
प्रकाश बुझ
जाए, गहन
अंधकार हो जाए,
कुछ भी मुझे
न दिखायी पड़े,
तो भी एक तो
मुझे दिखायी
पड़ता रहेगा, वह मैं हूं। यह
जो मेरे भीतर
का अस्तित्व
है, अतींद्रिय
है। आपके भीतर
भी जो है वह भी
अतींद्रिय है।
और
जिसका बोध
इंद्रियों पर
निर्भर नहीं
है, उसके
लिए भी ऋषि ने
कहा है, जिसके
न हाथ हैं, न
पैर। जो हाथों
में और पैरों
में है, लेकिन
जिसके न हाथ
हैं और न पैर
हैं। जिसके न आंख
हैं, न कान
हैं। जो कान
में से सुनता
है और जो आंख
में से झांकता
है, लेकिन
न कान है, न आंख
है। कान और
नाक और हाथ और
पैर का जो
उपयोग करता है,
लेकिन
जिसका कोई भी
हाथ—पैर, कान—नाक
नहीं।
इंद्रियां
जिसके उपकरण
हैं, लेकिन
इंद्रियां
जिसकी
अनिवार्यता
नहीं हैं। जो
बिना
इंद्रियों के
है। और यह भी
समझ लें कि
क्योंकि भीतर
की चेतना बिना
इंद्रियों के
है, इसीलिए
इंद्रियों का
उपयोग कर पाती
है; नहीं
तो उपयोग नहीं
कर पाएगी। आंख
खुद नहीं
देखती। आंख से
वह देखता है
जिसके पास कोई
आंख नहीं है।
इस आंख से भी
वह देखता है
जिसके पास कोई
आंख नहीं है।
यह आंख भी एक
खिड़की से
ज्यादा नहीं
है। इस कान से
भी वही सुनता
है जिसके पास
कोई कान नहीं
है। यह कान भी
एक खिड़की से
ज्यादा नहीं
है।
और
इसलिए एक और
मजे की बात है, वह यह कि
अगर प्रयास
किया जाए तो
बिना कान से भी
सुना जा सकता
है। और अगर
प्रयास किया
जाए तो बिना आंख
के भी देखा जा
सकता है। और
अगर प्रयास
किया जाए तो
बिना शब्द के
भी बोला जा
सकता है। अब
तो इस संबंध
में काफी
खोजबीन चल पड़ी
है, और न—मालूम
कितने
विश्वविद्यालय
'साइकिक
रिसर्च' पर,
इस परा—मनोविज्ञान
पर अध्ययन, विश्लेषण, शोध कर रहे
हैं। और बहुत
से तथ्य
वैज्ञानिक बन
गये हैं।
इसीलिए
पहले उन
तथ्यों की
आपसे बात कहूं
जो वैज्ञानिक
बन गये हैं, क्योंकि
उनमें फिर कोई
विवाद नहीं है।
लेकिन धर्म उन
तथ्यों की
निरंतर घोषणा
करता रहा है।
निरंतर घोषणा
करता रहा है।
लेकिन धर्म की
बात तब तक
माननी लोगों
को मुश्किल
पड़ती है, जब
तक कि कोई
अनुभूत
प्रयोग
स्पष्ट न हो
जाएं।
बुद्ध
के संबंध में
कथा है, कि बुद्ध का
शिष्य जहां भी
दूर, कितनी
ही दूर हो, जब
भी बुद्ध का
स्मरण करे तो
बुद्ध से
अंतर्संबंध
स्थापित हो
जाते थे।
कितने ही दूर
हो अगर बुद्ध
से पूछना चाहे
तो उत्तर पा
सकता था।
लेकिन यह बात
कपोल—कल्पना
और कथा मालूम
पड़ती है।
लेकिन अब
वैज्ञानिक
आधारों पर पश्चिम
में सब सुनिश्चित
हो गया है कि
समय और स्थान
का फासला
विचार के संक्रमण
में बाधा नहीं
है। कितनी ही
दूर विचार संक्रमित
हो सकता है।
रूस
के फयादेव ने
एक हजार मील
दूर तक विचार
के संक्रमण के
स्पष्ट
प्रयोग समस्त
वैज्ञानिक व्यवस्थाओं
में सफल किये
हैं। एक हजार
मील दूर पर
कैसे भी
व्यक्ति को
फयादेव संदेश
प्रसारित कर
सकता है—बोलता
नहीं है, आंख बंद कर
लेता है, बंद
ही नहीं कर लेता
करीब—करीब
कोमा की हालत
में पड़ जाता
है। बेहोश हो
जाता है।
ध्यान करता है,
पंद्रह—बीस
मिनट बाद
बिलकुल
मुर्दे की तरह
हो जाता है।
और जब मुर्दे
की तरह हो
जाता है तब वह
विचार संक्रमित
कर पाता है।
तब बिना बोले,
बिना शब्द
का, कंठ का
उपयोग किये
उसके विचार
संक्रमित कर
पाता है। दूर,
कितने ही
दूर।
रूसी
उत्सुक रहे
हैं पिछले बीस
वर्षों से, विशेषकर
अंतरिक्ष की
यात्रा के लिए,
क्योंकि
अंतरिक्ष की
यात्रा में
यंत्रों पर ही
निर्भर रहना
कभी भी खतरनाक
हो सकता है।
जैसे अभी एक
दुर्घटना हो
गयी। अगर
रेडियो—यंत्र
जरा भी बिगड़
जाए—और यंत्र
का भरोसा नहीं
है। कितना ही
सुनिचित हो तो
भी भरोसा नहीं
है, कभी
बिगड़ तो सकता
ही है—अगर
अंतरिक्ष की
यात्रा में
किसी यात्री—विमान
का रेडियो—यंत्र
बिगड़ जाए तो
हमारे संबंध
उससे सदा के
लिए खो जाएंगे।
फिर वह जीवित
है, यान के
यात्री बचे या
मर गये, कहां
गये, क्या
हुआ, फिर
कभी उनका हमें
कोई भी पता
नहीं चलेगा।
यह स्थिति
भयजनक है।
इसलिए
रूस में बीस
साल में चिंता
पैदा हुई और इसकी
फिकर की गयी
कि यंत्रों के
साथ—साथ
परिपूरक
व्यवस्था भी
कोई होनी
चाहिए। जब
यंत्र असफल हो
जाएं तो क्या
विचार—संक्रमण
तब भी हो सकता
है? कि यंत्र
बंद पड़ गये
हों तो
यात्रियों
में कोई कम—से—कम
पृथ्वी को
इतनी खबर तो
दे सके कि हम
कहां हैं। कि
हमसे संबंध
कैसे निर्मित
किया जाए। दो—चार
शब्द भी वहां
से संक्रमित
हो सकें, ऐसा
कोई उपाय। तो
पहली दफे उनको
'टेलीपैथी'
का खयाल आया।
पहली दफे उनको
पता चला कि सारी
दुनिया में
धर्म कहते हैं
कि विचार का
संक्रमण बिना
इंद्रियों के
हो सकता है।
तो इसकी कोशिश
की जाए। तो
बीस वर्ष में
रूस ने बहुत
प्रयोग किये
हैं और उनकी
सफलता अनूठी
है। विचार
संक्रमण सफल
हो गया है।
कितनी ही दूरी
पर, सिर्फ
मैं अपने भीतर
ध्यान करूं, तो विचार को
प्रक्षेपित
किया जा सकता
है।
अब
बड़ी कठिनाई है
कि वह विचार
जाता कैसे है? कोई
इंद्रिय
उपयोग में
नहीं आती।
देनेवाले की
तरफ से भी और
लेनेवाले की
तरफ से भी। 'रिसीवर' की
तरफ भी कोई
इंद्रिय काम
में नहीं आती।
क्योंकि 'रिसीवर'
को भी शांत
होकर पड़ जाना
पड़ता है, बस।
जिसको विचार
सुनायी पड़ता
है, वह भी
यह नहीं कहता
है कि कान से
सुनायी पड़ रहा
है। वह भी
कहता है, भीतर
सुनायी पड़ता
है। कान से
कुछ लेना—देना
नहीं है।
कानों को
बिलकुल बंद कर
दिया तो भी
सुनायी पड़ता
है। कानों को
सब तरफ बंद कर
दिया कि जरा—सी
भी आवाज अंदर
प्रवेश न कर
सके—बाहर खेल
बज रहे हैं, वह सुनायी
नहीं पड़ता—लेकिन
फयादेव हजार
मील दूर से जो
बोल रहा है वह
सुनायी पड़ता
है। एक बात
साफ है कि कान
से वह नहीं जा
रहा है।
फिर
कहां से जा
रहा है?
अमरीका
में टेड
सीरियो है, वह कितने
ही दूर के
स्थानों में
चीजों को देख पाता
है। कितने ही
दूर।
न्यूयार्क
में बैठकर
उसने ताजमहल
को देखा। और
फिर देखते ही
उसकी आंख में
चित्र भी आ
जाता है
ताजमहल का। और
सिर्फ आंख में
चित्र ही नहीं
आता, उसका
फोटोग्राफ भी
उतारा जा सकता
है। हजारों
फोटोग्राफ
उतारे गये हैं।
जो उसकी आंख
में से लिये
गये हैं। और
वह ठीक ताजमहल
की खबर देते
हैं। इस आदमी
को क्या हो
रहा है? और
जब इसकी आंख
में चित्र आता
है, तब
इसकी आंख बंद
होती है। आंख
बंद करके वह
ध्यान करता है
ताजमहल पर, फिर जब
चित्र भीतर आ
जाता है तब वह
कहता है— अब
मैं आंख खोलता
हूं कैमरा
तैयार कर लो।
क्योंकि
क्षणभर में खो
जाता है वह
चित्र। और कई
दफे तो बहुत
मजेदार
घटनाएं घटी
हैं। जैसे
पिछली दफे जब
वह ताजमहल पर
प्रयोग कर रहा
था, तो
उसने
कैमरामैन को
कहा कि ठीक, चित्र पकड़
गया है मेरे
भीतर—आंख बंद
है, तो
इसलिए बंद आंख
में इस ताजमहल
के चित्र के
आने का कोई उपाय
नहीं है; सामने
भी ताजमहल के
खड़े होओ तब भी
नहीं आ सकता है,
तो
न्यूयार्क और
आगरा में बहुत
फासला है, आंख
देख पाए इसका
कोई उपाय नहीं
है—आंख बंद है
और तब कहा कि
ठीक है, कैमरा
तैयार कर लें,
क्लिक
दबाने के लिए
हाथ रख लें, मैं आंख
खोलता हूं। आंख
उसने खोली और उसने
कहा कि चूक
गये, यह तो
हिल्टन होटल आ
गये। और जो
फोटो में
चित्र आया वह
हिल्टन होटल
का था। वह
ताजमहल का
नहीं था।
आंख
के बिना भी
देखा जा सकता
है। दूरी पर, फासले पर।
तो भीतर जो
छिपा है, उस
छिपे हुए का
हमने अब तक
इंद्रियों से
ही उपयोग किया
है। हमने
इंद्रियों के
बिना उसका
उपयोग नहीं
किया है।
इसलिए हमें
कुछ पता नहीं
कि उसकी
अतींद्रिय क्षमता
क्या है?
इस
सूत्र में उस
क्षमता की खबर
है। वह खबर यह
है कि—वह परम
शक्ति, वह परम
ब्रह्म मैं ही
हूं। मैं
बुद्धि के
बिना ही सब
कुछ जानने और
कानों के बिना
ही सब कुछ
सुनने और आंखों
के बिना ही सब
कुछ देखने की
सामर्थ्य
रखता हूं। यह
सामर्थ्य
प्रत्येक के
भीतर छिपी है।
इस सामर्थ्य
का उपयोग हम
करें या न
करें, यह
बिलकुल दूसरी
बात है। हमारे
जीवन में जो
बड़े—से—बड़े
चमत्कार भी
दिखायी पड़ते
हैं, वैसी
सामर्थ्य
सबके भीतर
छिपी है, प्रयोग
की ही बात है।
राममूर्ति थे,
तो वह अपनी
छाती पर हाथी
को खड़ा कर
लेते थे। या
मोटर को निकाल
सकते थे।
लेकिन उनकी
छाती में कोई
भी विशेषता न
थी। जैसी सबकी
छातियां हैं
वैसी छाती ही
थी। फर्क इतना
ही था कि लंबे
समय अभ्यास का
फर्क था। फिर
भी कितना ही
अभ्यास हो, छाती पर
हाथी को खड़ा
करना तो
प्राणायाम का
एक प्रयोग है।
हम सब रोज
देखते हैं, लेकिन हमारे
खयाल में नहीं
आता। रबर का
एक पहिया
कितने ही वजन
के ट्रक को
खींचे लिये
चला जाता है।
वह रबर की
ताकत नहीं है,
रबर के भीतर
हवा की ताकत
है।
तो
राममूर्ति ने
एक अभ्यास
किया था कि
छाती में हवा
का इतना आयाम
भर लिया जाए कि
छाती टायर की
तरह उपयोग में
आ जाए। तो फिर
हाथी खड़ा हो
सकता है। वह
हाथी छाती पर
नहीं पड़ता
उसका वजन, छाती के
भीतर भरे हुए
हवा के आयाम
पर पड़ता है।
इसलिए छाती को
नुकसान नहीं
पहुंचता। वह
हवा का आयाम
ही उसे झेल
लेता है। उतना
आयाम सबकी
छाती में भर
सकता है। हम
सबकी छाती में
छ: हजार छिद्र
हैं, जिनमें
हवा भर सकती
है। लेकिन
सामान्यत: डेढ़
हजार छिद्रों
से ज्यादा हम
सांस ही नहीं
लेते कभी।
हमारी सांस
ऊपर ही जाती
है और निकल
जाती है। साढ़े
चार हजार
छिद्र तो जीवन
भर कार्बन से
ही भरे रहते
हैं, उन तक
हवा पहुंचती
ही नहीं।
योग
कहता है कि
अगर वे साढ़े
चार हजार
छिद्र भी प्राणवायु
से भर जाएं तो
आदमी की उम्र
तीन गुनी हो
जाएगी।
क्योंकि उम्र
और जीवन
आक्सीजन का ही
खेल है। यह
क्षमता सबके
भीतर है।
लेकिन यह
क्षमता प्रकट
नहीं हो सकती।
क्योंकि प्रकट
होने के लिए
तो अभ्यास
चाहिए।
मन
की भी ऐसी ही
क्षमताएं
सबके भीतर हैं
जो प्रकट नहीं
हो पातीं।
उनके लिए भी
अभ्यास चाहिए।
और इस
अतींद्रिय
आत्मा की अनंत
क्षमताएं मनुष्य
के भीतर हैं, उनका तो
हमें पता ही
नहीं। अभ्यास
तो बहुत दूर, उनका हमें
पता ही नहीं।
उनका पता न
होने से
चमत्कार
मालूम पड़ता है।
अब अगर कोई
कहे कि मैं
बिना बुद्धि
के सोच पाता
हूं तो हम
कैसे मानेंगे।
कोई कहे कि
मैं बिना आंख
के देख पाता
हूं तो कोई
कैसे माने।
कोई कहे कि
मैं बिना
कानों के सुन
पाता हूं तो हम
कैसे मानेंगे।
नहीं मानेंगे
उसका कारण यह
नहीं है कि ये
बातें मानने
योग्य नहीं
हैं, उसका
कुल कारण इतना
है—हमारे
अनुभव से इनका
कहीं भी कोई
संबंध नहीं है।
थोड़े
प्रयोग करें
तो आप चकित हो
जाएंगे।
अगर
यहां चार सौ
लोग हैं, अगर ये चार
सौ लोग प्रयोग
करें तो चार
सौ में कम—से—कम
चार तो ऐसे
व्यक्ति इसी वक्त
निकल आएंगे।
उन्हें भी पता
नहीं है।
रूस
में ऐसा हुआ।
पिछले दस वर्ष
पहले एक महिला
ने उंगलियों
से देखना शुरू
किया। अचानक।
उसकी आंख खराब
हो गयी थी और
उसे पढ़ने का
शौक था। पढ़ना
ही उसका
एकमात्र शौक
था और आंख
अचानक खराब हो
गयी, तो
वह इतनी
व्याकुल हो
गयी, इतनी
व्याकुल हो
गयी—उसकी
व्याकुलता हम
समझ सकते हैं।
उसके पास एक
ही रुचि थी
जीवन में—किताब।
और आंखें खो
गयीं तो उसका
सारा जीवन खो
गया। उसने
आत्महत्या की
दो बार कोशिश
कि, बचा ली
गयी। और उसका
जिन किताबों
से प्रेम था
वह प्रेम इतना
ज्यादा था कि
फिर वह अंधी
हो गयी तो
किताबों को
हाथ में रखकर
उनपर हाथ ही
फेरती रहती थी।
अचानक एक दिन
उसने पाया कि
किताब का
शीर्षक उसको
दिखायी पड़ रहा
है। वह घबड़ा
गयी। हाथ
फेरती थी
किताब पर, उसे
शीर्षक
दिखायी पड़ रहा
है, वह
घबड़ा गयी।
पन्ने उलटे, किताब उसके
सामने धीरे—धीरे
साफ होने लगी।
उसने किताब
पढ़ना शुरू कर
दिया।
तो
रूस तो वैज्ञानिक
बुद्धि का
मुल्क है। वह
ऐसा नहीं
मानता कि जो
एक में घटता
है, वह
कोई चमत्कार
है। वह ऐसा
मानते हैं कि
वह सब में घट
सकेगा। तो फिर
उन्होंने
सैकड़ों
बच्चों पर
प्रयोग किया
और पाया कि
सैकड़ों बच्चे
रूस में उंगली
से पढ़ सकते
हैं। सिर्फ
हमने कभी
उपयोग नहीं
किया।
लेकिन
उंगली तो देख
नहीं सकती, उंगली पर आंख
नहीं है। तो
उंगली तो
सिर्फ बहाना
है। सच बात है
कि आदमी के
भीतर जो
क्षमता है, वह बिना आंख
के देख सकती
है। हम उसका
प्रयोग भर
नहीं किये।
कभी थोड़ा
प्रयोग करना
शुरू करें और
आप चकित हो
जाएंगे। थोड़ा
प्रयोग करना
शुरू करें और
चकित हो जाएंगे।
कभी आंख बंद
करके बैठ जाएं
और किताब को
खोल लें और
सिर्फ इतना ही
ध्यान करें कि
कितने नंबर का
पृष्ठ है। कोई
फिकर नहीं है।
दस—बीस बार
भूल—चूक होगी,
किये चले
जाएं। कुछ—न—कुछ
लोग आपमें से
निकल आएंगे जिनको
पृष्ठ का अंक
दिखायी पड़ेगा।
अगर एक अंक
दिखायी पड़
सकता है, तो
फिर कुछ भी
दिखायी पड़
सकता है। फिर
बात तो अभ्यास
की है, फिर
कोई अड़चन नहीं
है बहुत। और
जो मैं यह कह
रहा हूं अब इस
पर इतने
प्रयोग हो गये
हैं कि अब इस
पर वैज्ञानिक बुद्धि
का आदमी भी
संदेह नहीं कर
पाता है।
इंद्रियां
हमारे
सामान्य
द्वार हैं
जानने के।
लेकिन
अनिवार्य
द्वार नहीं
हैं।
इंद्रियों के
पार भी जाना
और देखा जा
सकता है। वह
हमारी
अनिवार्य
क्षमता है।
महावीर
के संबंध में
कहा जाता है—
जैन बड़ी
मुश्किल में
रहे हैं, समझाना बहुत
कठिन है—कि
महावीर बोले
नहीं अपने
शिष्यों से, वह चुप ही
बैठे रहते थे
और इस चुप्पी
में ही बोलते
थे। जैनों को
बड़ी कठिनाई
रही है। फिर
वह यही कह
सकते हैं कि
तीर्थंकर का
चमत्कार है, यह सबके बस
की बात नहीं
है। लेकिन
नहीं, इसमें
तीर्थंकर का
कोई लेना—देना
नहीं है। यह
सब के बस की
बात भी हो
सकती है।
जार्ज
गुरजिएफ ने
अपने शिष्यों
के साथ आज से तीस
साल पहले एक
प्रयोग शुरू
किया था, जिसमें वह
तीन महीने तक
पूर्ण मौन में
रखने का आग्रह
करता था।
पूर्ण मौन।
बहुत कठिन है।
लेकिन तीन
महीने अगर सतत
कोई प्रयास
करे, सतत
चौबीस घंटे
प्रयास करे, तो फलित हो जाता
है। भीतर सब
शून्य हो जाता
है। और
गुरजिएफ कहता
था, जिस
दिन तुम पूर्ण
मौन हो जाते
हो उस दिन मैं
तुमसे बिना
वाणी के बोलने
लगता। और वह
बोलता था अपने
शिष्यों से।
गुरजिएफ
को मरे अभी
थोड़े ही दिन
हुए। उसके
सैकड़ों शिष्य
आज भी मौजूद
हैं दुनिया में
जिनसे वह बिना
शब्दों के ही
बोलता था।
लेकिन तीन
महीने उसको
पूर्ण मौन से
गुजरना होता
था। जब पूर्ण
मौन में तीन
महीने आदमी
गुजर जाता है
तो उसके मन का
सारा—का—सारा
जो शोरगुल है, वह बंद हो
जाता है। उस
बंद शोरगुल
में वह जो
धीमी—सी आवाज
है, जो कान
से नहीं
पहुंचती हृदय
से पहुंचती है,
वह पकड़ी जा
सकती है।
वह
पहुंचती आप तक
भी है, लेकिन
आप इतनी भीड़
में भीतर घिरे
हैं, ऐसा
बाजार भीतर है
कि वह आपको
सुनायी नहीं
पड़ती। वह कोई
विशेषता नहीं
है। आप बड़े
विशेष हैं, यही मुश्किल
है! आपके भीतर
भीड़ है, बाजार
है भारी, उस
बाजार की वजह
से वह आवाज
सुनायी नहीं
पड़ती। अन्यथा
वह आवाज
प्रतिपल चल
रही है। और
कभी—कभी हमको
भी सुनायी
पड़ती है, लेकिन
हमको भरोसा
नहीं आता।
क्योंकि हमको
कोई अनुभव
नहीं है।
अचानक आप एक
दिन देखते हैं
कि आपको मित्र
का खयाल आया
और उसने द्वार
पर दस्तक दी।
तब आप सोचते
हैं, संयोग
होगा।
क्योंकि आपको
उसका पता नहीं
है भीतर। एक
दिन अचानक
आपको लगता है
कि आप बिलकुल
प्रसन्न थे और
एकदम उदास हो
गये, आपको
कुछ समझ में
नहीं आता, पीछे
तार आता है कि
कोई मित्र चल
बसा, कि
कोई प्रियजन
बीमार है; तब
आप सोचते हैं—संयोग
होगा।
संयोग
जरा भी नहीं
है। जब भी आपका
प्रियजन मरता
है तब आपके
भीतर बिना
इंद्रियों के
खटका पहुंचता
है। पहुंचेगा
ही। क्योंकि
मरना कोई छोटी
घटना नहीं है, बड़ी घटना
है। और जिससे
आप जुड़े हैं, उससे एक
भीतरी संबंध
है, एक
भीतरी द्वार
है, जहां
से खबरें आ—जा
सकती हैं।
लेकिन हम
संयोग मानकर
छोड़ देते है
कि हो गया ऐसा।
क्योंकि हमें
पता नहीं है।
अगर हमें पता
हो तो हर आदमी
अपनी जिंदगी
में अनेक ऐसी
घटनाएं पाएगा,
जो उसे खबर
देंगी कि उसके
भीतर जो छिपा
है वह इंद्रियों
के बिना भी
काम कर सकता
है।
और
अगर आपको खयाल
हो और सचेतन
प्रयोग आप
करते हों, तो आप
वर्ष दो वर्ष
में दूसरे ही
आदमी हो जाएंगे।
आपको चीजें
दिखायी पड़ने
लगेंगी जो आंख
से दिखायी
नहीं पड़ती। और
वे चीजें
सुनायी पड़ने
लगेंगी जो कान
से सुनायी
नहीं पड़ती। और
वे आपके अनुभव
बन जाएंगे
जिनको बाहर से
अनुभव करने का
कोई उपाय नहीं
है। तब एक
भीतरी संपदा
का जगत शुरू
होगा। तब एक
भीतरी अनुभव
का अलग ही लोक
खुलता है। तब
फूल खिलते हैं
जो हमें
बिलकुल
अपरिचित हैं।
और संगीत बजता
है जिसका
कानों से कोई
संबंध ही नहीं
है। और ऐसे
नाद और ऐसे
प्रकाश और ऐसे
रंग और ऐसे अनुभव
में हम उतरते
चले जाते हैं
जिनका इन
इंद्रियों ने
कभी भी कोई
संस्पर्श भी
नहीं किया है।
लेकिन, जीवन में
संयोग शब्द को
थोड़ा कम करें।
और बन सके तो
जीवन से संयोग
शब्द को
बिलकुल काट
दें। और जब भी
कोई ऐसी घटना
घटती हो जो
इंद्रियों के
पार की खबर
देती हो, तो
उसको तथ्य
मानकर उस दिशा
में काम शुरू
कर दें। संयोग
मानना एक तरह
का बचाव है।
एक तथ्य को
झुठलाने का, एक तथ्य को
भुला डालने का,
एक तथ्य को
किसी तरह समझा
लेने का उपाय
है। एक तथ्य
जो विचित्रता
की तरह पैदा
होता है, उसको
हम सामान्य कर
देते हैं
संयोग कहकर।
इस जगत में
संयोग कुछ भी
नहीं है। 'कोइंसीडेंट',
संयोग जैसी
कोई भी बात
नहीं है।
इस
जगत में जो भी
है वह गहरे
कार्य—कारण से
अनुबद्ध है।
गहरे कार्य—कारण
में जुड़ा है।
जो भी यहां
घटित होता है, उस घटने
के पीछे कारण
है। संयोग
कहकर हम उन
कारणों की खोज
नहीं कर पाते।
अगर हम कारणों
की खोज करें
तो हमारी
भीतरी शक्तियों
का अनुभव हमें
शुरू हो जाएगा।
और जिस दिन
हमें उस शक्ति
का पता चलने
लगे, आंख
के बिना जहा
दर्शन हो जाए
और कान के
बिना जहा सुनना
हो जाए, उस
दिन हमने
संसार के बाहर
कदम रख दिया।
उस दिन हम
ब्रह्म के
मंदिर में प्रविष्ट
हुए।
‘सब रूपों से
परे मैं सबको
जाननेवाला
हूं लेकिन मुझ
चित्स्वरूप
को जाननेवाला
कोई भी नहीं है।'
'सब रूपों से
परे मैं सबको
जाननेवाला
हूं रूप को तो
मैं जानता ही
हूं रूप के भी
जो परे है
उसको भी मैं
जानता हूं।
'लेकिन मुझे
जाननेवाला
कोई भी नहीं
है। 'यह थोड़ा
कठिन सूत्र है।
कठिन इस कारण
कि इसमें एक
बहुत गहरी
दार्शनिक
निष्पत्ति
छिपी है और वह
यह है कि
परमात्मा के
लिए सारा जगत
उसके सामने है।
जैसे उस विराट
परमात्मा को
हम छोड़ भी दें,
हमारे भीतर
जो परमात्मा
का, परमात्मा
की एक लौ, एक
दीया जलता है,
उसको ही
समझें, आसानी
होगी।
मैं
देखता हूं
आपको, मैं
देखता हूं
वृक्षों को, मैं देखता
हूं आकाश को, चांद—तारों
को, मैं
सबको देखता
हूं लेकिन मैं
स्वयं को नहीं
देख पाता हूं।
स्वयं को
देखने का मेरे
पास कोई उपाय
नहीं है।
स्वयं का मुझे
अनुभव होता है,
प्रतीति
होती है, दर्शन
नहीं होता। हो
भी नहीं सकता।
क्योंकि
दर्शन उसी का
हो सकता है जो
दूर हो। पराया
हो, अलग हो।
मैं खुद को ही
कैसे देखूं।
देखने के लिए
भी तो दूर
होना पड़ता है।
देखने के लिए
भी तो अलग
होना पड़ता है।
देखने के लिए
भिन्नता
चाहिए, बीच
में जगह चाहिए।
द्रष्टा अगर
मैं बनूं अपना
ही, तो
मुझे अपने को
ही दो हिस्सों
में तोड़ना पड़े।
एक देखे और एक
देखा जाए। यह
संभव नहीं है।
मैं दो
हिस्सों में
टूट नहीं सकता।
और अगर मैं
टूट भी जाऊं
तो जो देखा
जाएगा वह मैं
नहीं रहा। मैं
तो वही रहा जो
देख रहा है।
इसे
ऐसा समझें कि
मेरी
अनिवार्य
नियति द्रष्टा
होने की है और
दृश्य मैं
नहीं हो सकता
हूं। मैं चाहे
कुछ भी करूं, मैं
द्रष्टा ही
रहूंगा, दृश्य
नहीं बन सकता
हूं। क्योंकि
मैं दृश्य
कैसे बनूंगा?
मैं
जाननेवाला।
जाननेवाला, हर स्थिति
में जानने
वाला रहूंगा।
यह व्यक्ति के
भीतर जो चेतना
छिपी है, वह
अनिवार्यरूपेण
द्रष्टा है, दृश्य कभी
भी नहीं हो
सकती। ऐसे ही
इस पूरे जगत
के भीतर जो
चेतना छिपी है,
वह भी
अनिवार्यरूपेण
द्रष्टा है, दृश्य नहीं
हो सकती।
इसलिए
इस सूत्र में
कहा है—'सब को मैं
जानता हूं
सबको मैं
जाननेवाला
हूं लेकिन मुझ
चित्स्वरूप
को जाननेवाला
कोई भी नहीं
है। 'परमात्मा
आत्यंतिक
द्रष्टा है, आखिरी। फिर,
फिर उसे
देखने का कोई
उपाय नहीं है।
यह जो हम कहते
हैं परमात्मा
का दर्शन, तब
हम बड़ी भूल
भरी भाषा का
उपयोग करते
हैं, लेकिन
मजबूरी है।
क्योंकि कुछ
भी उपयोग करें,
वह भूल भरा
होगा। भाषा ही
भूल भरी है।
उस दिशा में, उस आयाम में
भाषा ही भूल
भरी रही है।
तो हम कहें
परमात्मा का
दर्शन, तो
भी गलती हो
जाती है।
क्योंकि
परमात्मा का
दर्शन, इसका
मतलब हुआ कि
हम परमात्मा
के भी द्रष्टा
हो गये।
इस
तरह कभी सोचा
न होगा। हम
सोचते हैं—परमात्मा
का दर्शन, लेकिन
उसका मतलब
क्या होता है?
उसका मतलब,
मैं
परमात्मा का
भी द्रष्टा हो
सकता हूं।
उसका मतलब
होता है कि
मैं परमात्मा
को भी एक
वस्तु बना
सकता हूं
जिसको मैं देख
लूं। परमात्मा
का कोई दर्शन
नहीं हो सकता।
जो होता है, उसे हम
दर्शन शब्द से
कहने की कोशिश
करते हैं, क्योंकि
हमारे पास और
शब्द नहीं है।
और दूसरे शब्द
भी ऐसे ही हैं।
अगर हम कहें
अनुभव, तो
उसमें भी वही
बात हो जाती
है कि वह
वस्तु बन गयी।
कुछ भी हम
कहें, जो
भी हम शब्द
उपयोग करेंगे,
उसमें
परमात्मा
वस्तु बन
जाएगा।
इसलिए
बुद्ध जैसे
मनीषी ने
परमात्मा के
संबंध में कुछ
कहने से इनकार
कर दिया।
इसलिए नहीं कि
वह नहीं है, बल्कि
इसलिए कि जो
भी कहा जाए वह
गलत होगा।
लेकिन लोग
समझे कि बुद्ध
ईश्वर को
मानते नहीं
हैं। बुद्ध से
ज्यादा परम
आस्तिक
व्यक्ति जगत
में दूसरा
नहीं हुआ है।
लेकिन उनकी
परम आस्तिकता
इतनी
आत्यंतिक और आखिरी
है कि वह
ईश्वर के
संबंध में एक
गलत शब्द का
उपयोग करने को
भी तैयार नहीं
है। तो वह
ईश्वर
शब्द
का भी उपयोग
करने को तैयार
नहीं हैं। वह
कहते हैं
उसमें भी गलती
हो ही जाएगी।
क्योंकि हम जब
भी कोई शब्द
का उपयोग करें, हम उस
शब्द के
जाननेवाले हो
गये, ज्ञाता
हो गये। और
शब्द से तो
जाननेवाला
बड़ा हो जाता
है।
जब
कोई कहता है
मैंने ईश्वर
को जान लिया, तो
उपनिषद कहते
हैं, समझना
कि उसने
बिलकुल नहीं
जाना।
क्योंकि जो
कहता है ईश्वर
को जान लिया, उसे समझ ही
नहीं पड़ रही
है बात बिलकुल
कि उसे जाना
नहीं जा सकता।
जाना जिन
चीजों को जा
सकता है वह
ईश्वर नहीं है,
संसार है।
इसे हम ऐसा
कहें, जो
भी जाना जा
सकता है वह
संसार है। और
जो जानने के
पार छूट जाता
है, वही
ब्रह्म है।
लेकिन फिर
ब्रह्मज्ञानी
किसको कहें? तो
ब्रह्मवेत्ता
किसको कहें? तो किसे
कहें ऋषि?
तब, तब दूसरी
तरह से बात को
खयाल में ले
लें तो आसानी
हो जाएगी। वह
जाना तो नहीं
जा सकता, लेकिन
उसमें हम मिट
सकते हैं।
उसमें हम खो
सकते हैं। उसे
जानना तो
मुश्किल है, लेकिन हम
वही हो सकते
हैं। क्योंकि
जानने के लिए
तो दूरी चाहिए,
वही होने के
लिए सब दूरी
मिटानी है।
जानने में
फासला है। वही
होने में सब
फासले का गिर
जाना है। बूंद
सागर को जाने
भी तो क्या!
लेकिन बूंद
सागर में सरि
तो सकती है!
गिरकर एक तो
हो सकती है! और
एक होकर फिर
जानना वैसा ही
हो जाएगा जैसे
अभी हम अपने
को जानते हैं—बिना
कारण, बिना
इंद्रियों के।
जिस
दिन व्यक्ति
परमात्मा से
एक हो जाता है
उस दिन भी वह
जानता है, लेकिन, अब वह
पदार्थ की तरह
नहीं जानता, अपने होने
की तरह जानता
है। आप अपने
को किस तरह
जानते हैं? उसी तरह वह
व्यक्ति
परमात्मा को
जानता है। कोई
कारण नहीं, कोई प्रकाश
नहीं, कोई
इंद्रिय नहीं,
फिर भी
जानता है। वह
जानना इसी
जानने का
विस्तार है।
वह जानना जगत
को जाननेवाला
जानना नहीं है।
इसलिए
इस सूत्र में
कहा है— 'सब रूपों से
परे सबको
जाननेवाला
मैं ही हूं लेकिन
मुझ
चित्स्वरूप
को जाननेवाला
कोई भी नहीं
है'। यह
सूत्र बड़ा
कीमती है। यह
उस परम ब्रह्म
की खोज में
निकले हुए
व्यक्ति को
बहुत हृदय के
गहरे में रख
लेना चाहिए कि
उसे जाना नहीं
जा सकता, उसे
जिआ जा सकता
है। उसमें एक
हुआ जा सकता
है, उसमें
खोया जा सकता
है, उसमें
मिटा जा सकता
है, वही
हुआ जा सकता
है, लेकिन
जाना नहीं जा
सकता। जानने
में दूरी है, इसलिए फासला
है इसमें। और
परमात्मा के
साथ जब तक इंच
भर का भी
फासला है, तब
तक कोई उपाय
नहीं है।
उस
फासले को भी
कम करना हो तो
क्या करें? परमात्मा
को पास लाएं? बुलाएं? चिल्लाएं?
पुकारें? कितना ही
चिल्लाओ, कितना
ही बुलाओ, उसे
पास लाने का
उपाय नहीं है,
क्योंकि वह
पास है ही।
फिर भी हम
चिल्लाते हैं,
पुकारते
हैं। तो एक
बात साफ है कि
वह जो पास है, वह हमें पता
नहीं चल रहा
है। और कोई
कारण नहीं है।
इसलिए अगर हम
परमात्मा को
पास लाना
चाहते हों तो
उसे बुलाने और
पुकारने से
काम नहीं होगा,
अपने को
मिटाने से काम
होगा। जैसे—जैसे
हम पिघलेंगे,
मिटेंगे, बिखरेंगे, वैसे—वैसे
वह पास होने
लगेगा। जिस
दिन हम बिलकुल
बिखर जाएंगे,
खो जाएंगे,
उस दिन वह
यहीं हो जाएगा
जहां हम हैं।
ऐसा
समझें कि एक
बरफ की चट्टान
पानी में बही
जा रही है।
सागर से मिलना
है उसे।
चिल्लाती है, चीखती है,
लेकिन
पिघलती नहीं।
और सागर में
ही है। इसलिए
चीखने—चिल्लाने
से कुछ भी न
होगा। सागर को
बुलाने से कुछ
न होगा। सागर
यही हैं। वह
उसी में तैर
रही है। वह
सागर से मिलना
चाहती है।
कहां खोजें
सागर को? जितना
खोजती है, कहीं
उसका पता नहीं
मिलता।
ठीक
वैसी हमारी
दशा है। बरफ
की चट्टान हैं।
तो बरफ की
चट्टान के लिए
एक ही काम है
कि पिघल जाए, खो जाए, तो यहीं, यहीं
पैरों के तले,
इसी जमीन
में उसे
परमात्मा, उसे
सागर उपलब्ध
हो जाएगा।
हमें भी
पिघलना पड़ेगा।
इसलिए हमने जो
शब्द चुना है
इस पिघलने के
लिए, वह तप
है। कीमती
शब्द है। तप
का मतलब होता
है, ताप।
अगर चट्टान को
पिघलना है तो
तपना पड़ेगा, तपना पड़े तो
पिघल जाए।
हमें
भी अपने को
तपाना पड़ेगा।
उस तपन में ही
हम पिंघले, और हमारा
अहंकार, हमारी
बर्फ, हमारी
चट्टान पिंघले,
तो सागर से
एक हो जाए। तब
हम सागर ही हो
जाएंगे। तब
ऐसा हम न
कहेंगे कि हम
सागर को जानते
हैं। तब हम
ऐसा ही कहेंगे—
अब हम न रहे, सागर ही है।
अब
हम ध्यान के
लिए तैयार हों।
ab jaa ke khuch khuch samjh main aa raha hain ki kitna galat tha ab tak ka jivan .kher ab jab yaha hain to baki ke jivan ko dhanye banaya jaye ..umid hain prabhu aashirvad denge or support karenge .
जवाब देंहटाएंab jaa ke khuch khuch samjh main aa raha hain ki kitna galat tha ab tak ka jivan .kher ab jab yaha hain to baki ke jivan ko dhanye banaya jaye ..umid hain prabhu aashirvad denge or support karenge .
जवाब देंहटाएंthank you guruji
जवाब देंहटाएं