गगन
सिद्धान्त:
अमृत
कल्लोलनदी।
अक्षय
निरंजनम्।
निसंशय
ऋषि:।
निर्वाणो
देवता।
निष्कुल
प्रवृत्ति:।
निष्केवलज्ञानम्।
ऊर्ध्वामाय:।
उनका
सिद्धांत
आकाश के समान
निर्लेप होता
है,
अमृत
की तरंगों से
युक्त (
आत्मारूप )
उनकी नदी होती
है।
अक्षय
और निर्लेप
उनका स्वरूप
होता है।
जो
संशय शून्य है
वह ऋषि है।
निर्वाण
ही उनका इष्ट
है।
वे
सर्व
उपाधियों से
मुक्त हैं।
वहा
मात्र ज्ञान
ही शेष है।
परमहंस
के स्वरूप का
इंगित और
इशारा करते
हैं।
ऋषि
कहता है, उनका
सिद्धांत
आकाश की भांति
निर्लेप है।
इस
अस्तित्व में
आकाश के
अतिरिक्त और
कुछ भी निर्लेप
नहीं है। यहां
सभी चीजें
लिप्त हो जाती
हैं,
सिर्फ आकाश
ही अलिप्त बना
रहता है। इसे
थोड़ा समझ लेना
जरूरी है, तो
फिर परमहंस, सिद्ध की जो
चेतना की
अवस्था है, वह कैसी
निर्लेप होती
है, वह
खयाल में आ
सके।
आकाश
में सभी चीजें
हैं,
बनती हैं, खोती हैं, रहती हैं, मिट जाती
हैं, आकाश
को उनका पता
भी नहीं चलता।
आकाश में सारे
रंग प्रगट
होते हैं, लेकिन
आकाश बिना रंग
के अन—रंगा रह
जाता है।
अंधेरा आता है,
सुबह होती
है, प्रकाश
आता है, लेकिन
आकाश न अंधेरे
से बंधता और न
प्रकाश से।
आकाश
अस्पर्शित रह
जाता है, जो
भी घटित होता
है उससे। उसकी
कोई रेखा आकाश
पर नहीं छूटती।
इसलिए आकाश के
अतिरिक्त और
निर्लेपता का
कोई उदाहरण
नहीं है।
आकाश
का अर्थ है, स्पेस,
खाली जगह।
आप बैठे हैं, आपके चारों
तरफ आकाश है।
आपके भीतर भी
आकाश है। एक
बीज फूट रहा
है, आकाश
में जन्म ले
रहा है। वृक्ष
बनेगा आकाश
में। कल
मुर्झाएगा, वृद्ध होगा,
जीर्ण—जर्जर
होगा, आकाश
में, गिरेगा,
खो जाएगा, आकाश में।
लेकिन आकाश पर
कोई रूप—रेखा
न छूट जाएगी।
आकाश को पता
भी नहीं चलेगा।
पानी पर हम
हाथ से रेखा
खींचें तो
बनती है, बनते
ही मिट जाती
है। पत्थर पर
रेखा खींचें
तो बनी रह
जाती है। आकाश
में रेखा
खींचें तो
खिंचती ही
नहीं। आकाश पर
कुछ भी अंकित
नहीं होता।
इसलिए
ऋषि कह रहा है, वे
जो परमहंस हैं
उनका
सिद्धांत
आकाश की भांति
निर्लेप है।
सिद्धांत!
अगर सिद्धांत
आकाश की भांति
निर्लेप है, तो
सिद्धांत मत
नहीं हो सकता,
ओपीनियन
नहीं हो सकता।
क्योंकि जहां
मत है, वहा
तो रेखा खिंच
जाती है। जैसे
आकाश में बादल
घिर जाएं, ऐसे
ही जब चेतना
पर विचार घिर
जाते हैं और
चेतना उन
विचारों को
पकड़ लेती है, तो मत का, ओपीनियन
का जन्म होता
है। आकाश से
बादल हट जाएं,
खाली कोरा
आकाश छूट जाए,
जिसमें कुछ
भी नहीं है—रिक्त,
शून्य, ऐसे
ही जब भीतर
चेतना छूट
जाती है, जिसमें
कोई विचार के
बादल नहीं
होते, कोई
बदलिया नहीं
तैरती, जिसमें
कोई मत नहीं
होता, तब
जो शून्य
चेतना है, वहा
जो होता है, उसे ऋषि ने
कहा है, वही
परमहंस का सिद्धांत
है।
सिद्धांत
का हम जैसा
उपयोग करते
हैं,
वैसा उपयोग
यह नहीं है। सिद्धांत
से हमारा अर्थ
होता है, प्रिंसिपल,
मत, विचार।
एक आदमी कहता
है, मेरा सिद्धांत
जैन है; एक
आदमी कहता है,
मेरा सिद्धांत
बौद्ध है, एक
आदमी कहता है,
मेरा सिद्धांत
हिंदू है।
लेकिन सिद्धांत
हिंदू बौद्ध
और जैन नहीं
हो सकता। तब
तो आकाश बंट
गया, तब तो
आकाश लिप्त हो
गया, तब तो
आकाश के विशेषण
हो गए।
सिद्धांत
का तो अर्थ यह
होता है कि
अंत में जो
सिद्ध होता है, अंततः
जो सिद्ध होता
है। जीवन जब अपने
परम शिखर पर
पहुंचता है, वहां जाकर
जो सिद्ध होता
है, वहा
जिसका दर्शन
होता है, उस
सिद्धांत को
आकाश की तरह
निर्लेप कहा
है।
इसलिए
ऋषि किसी धर्म
का नहीं होता।
सभी धर्म
ऋषियों से
पैदा होते हैं, लेकिन
ऋषि किसी धर्म
का नहीं होता।
न तो जीसस
ईसाई हैं और न
मोहम्मद
मुसलमान हैं और
न कृष्ण हिंदू
हैं और न
महावीर जैन
हैं। मजे की
बात लेकिन यह
है कि महावीर
से जैन विचार
चलता है, मोहम्मद
से इस्लाम का
विचार चलता है।
लेकिन
मोहम्मद
मुसलमान नहीं
हैं, हो भी
नहीं सकते।
फिर यह
दुर्घटना
क्यों घटती है
कि ऋषि तो
निर्लिप्त
होता है आकाश
की तरह, आग्रह
शून्य होता है,
विचार और
मतांधता
उसमें नहीं
होती, सिर्फ
दर्शन होता है
उसके पास। उसे
दिखाई पड़ता है,
जो है।
लेकिन जब ऋषि
भी कहने जाता
है, तो जो
दिखाई पड़ता है,
शब्दों में
बंधता है और
संकीर्ण हो
जाता है। और
जब हम सुनते
हैं, जिन्हें
कुछ भी पता
नहीं है सत्य
का, तो जो
हम समझते हैं
वह कुछ और ही
होता है। जो
ऋषि जानता है
वह कुछ और है, जब ऋषि उसे
कहता है तब वह
कुछ और है, और
जब हम उसे
सुनते हैं तब
वह कुछ और हो
जाता है। और
फिर हजारों
साल की यात्रा
करके वह सत्य
से इतने दूर
हो जाता है
जितना कि
असत्य ही होता
है दूर, और
कुछ भी नहीं।
महावीर
से जैन—सिद्धांत
उतने ही दूर
हो जाता है, जितना
सत्य से असत्य
दूर हो जाता
है, और
मोहम्मद से
इस्लाम उतने
ही दूर हो
जाता है, और
जीसस से
ईसाइयत उतनी
ही दूर हो
जाती है। हो
ही जाएगी।
जो
प्रक्रिया है, ऋषि
तो देखता है।
हो गया होता
है सत्य के
साथ एक। कोई
बीच में पर्दा
और दीवार नहीं
रह जाती।
लेकिन जब कहता
है, तो
शब्दों के
पर्दे और
दीवारें उठनी
शुरू हो जाती
हैं। इसलिए
बहुत से ऋषि
चुप रह गए और
उन्होंने कुछ
भी नहीं कहा।
लेकिन उससे
कुछ हल नहीं
होता, क्योंकि
नहीं कहने से
भी तो कहा
नहीं जाता है।
कहने से भी
कहा नहीं जाता
है, नहीं
कहने से भी
नहीं कहा जाता
है। कहने से
भूल का डर है, नहीं कहने
से भूल का कोई
डर नहीं है।
लेकिन कहने
में एक आशा भी
है कि शायद
कोई सुनने
वाला भूल न
करे। न कहने
में वह आशा भी
नहीं है। हजार
लोगों से कहा
जाए सत्य, हो
सकता है एक
समझ ले। वह एक
की आशा में ही
कहा गया है
सत्य। नौ सौ
निन्यानबे न
समझ पाएं गलत
समझ जाएं, लेकिन
न कहा जाए तब
तो हजार ही
नहीं समझ
पाएंगे, वह
एक भी वंचित रह
जाता है।
बुद्ध
को ज्ञान हुआ
तो बुद्ध को
लगा कि जो
जाना है उसे
कहूंगा कैसे!
इसलिए बुद्ध
चुप रह गए।
सात दिन तक वे
चुप थे। बहुत
मीठी कथा है
कि देवताओं ने
बुद्ध के चरणों
में सिर रखे
और बुद्ध से
कहा कि जो
तुमने जाना है
वह कहो, क्योंकि
बुद्ध जैसा
पुरुष हजारों
वर्षों में एक
बार पृथ्वी पर
आता है।
हजारों
वर्षों में
कभी यह अवसर
मिलता है कि अंधे
भी प्रकाश की
बात सुन सकें
और बहरे भी
संगीत से भर
जाएं, लंगड़े
भी चल सकें उस
तरफ, मुर्दे
भी जीवन की
आशा से हरे हो
जाएं। तुम
बोलो।
पर
बुद्ध ने कहा
जो मैंने जाना
है,
वह बोला नहीं
जा सकता। और
फिर मैं सोचता
हूं कि मैं
बोलूं भी, तो
जो मुझे समझ
पाएंगे, वे
मेरे बिना
बोले भी समझ
जाएंगे। जो इस
योग्य होंगे
कि मुझे समझ
पाएं, वे
मेरे बिना
बोले भी समझ
जाएंगे। और जो
मुझे बोलकर
नहीं समझ पा
रहे हैं, वे—वे
ही होंगे, जो
मेरे बिना
बोले भी नहीं
समझ पाते।
इसलिए मेरे
चुप रह जाने
में हर्ज क्या
है?
देवता
बहुत व्यथित
हुए,
बहुत
चिंतित हुए।
उन्होंने आपस
में बहुत मंथन—मनन
किया। फिर
बुद्ध से
निवेदन किया
कि लेकिन कुछ
लोग ऐसे भी
हैं, जो
बिलकुल
किनारे पर खड़े
हैं, जस्ट
ऑन द बाउंड्री।
अगर आप न
बोलें तो वे
इसी पार रह
जाएं, अगर
आप बोलें तो
वे एक कदम उठा
लें और उस पार
हो जाएं। आप
ठीक कहते हैं,
देवताओं ने
बुद्ध से कहा
कि कुछ जो
मुझे सुनकर
समझ पाएंगे, वे मुझे
बिना सुने भी
समझ लेंगे।
उनकी योग्यता
इतनी है। कुछ
जो मुझे बिना
बोले नहीं समझ
सकते, वे
मुझे सुनकर भी
गलत समझ लेंगे।
उनकी
अयोग्यता
इतनी है।
लेकिन, देवताओं
ने कहा, इन
दोनों के बीच
में भी कुछ
लोग हैं, जो
आप नहीं
बोलेंगे तो
शायद इसी पार
रह जाएंगे और
आप बोलेंगे तो
शायद उस पार
हो जाएंगे।
बिलकुल
किनारे पर हैं।
जैसे पानी
निन्यानबे
डिग्री पर
उबलता हो, आपके
हाथ की गर्मी
भी उसे सौ
डिग्री कर
देगी। वह भाप
बन सकता है।
माना कि जो
बर्फ है, वह
आपके हाथ को
ही ठंडा करेगा।
और यह भी माना
कि जो सौ
डिग्री पर
पहुंच ही गया है,
उसको आपके
हाथ की गर्मी
की भी कोई
जरूरत नहीं, वह भाप बन ही
जाएगा। लेकिन
इन दोनों के
बीच में भी
कुछ हैं, उन
पर कृपा करें।
और
बुद्ध को कुछ
सूझा नहीं और
बुद्ध को राजी
होना पड़ा—उनके
लिए बोलने को, जो
शायद दोनों के
बीच में हों।
ऋषियों ने सदा
उनके लिए ही
बोला है, जो
दोनों के बीच
में हैं।
पर
ऋषियों ने सिद्धांत
कहे हैं—मत
नहीं, वाद
नहीं, इज्य
नहीं। केवल
वही कहा है जो
जीवन का परम
रहस्य है। वह
ऋषियों का
विचार नहीं है,
वह ऋषियों
का अनुभव है।
अनुभव और
विचार में
थोड़ा फर्क
होता है, उसे
समझ लें।
विचार
होता है उस
चीज के संबंध
में जिसका
हमें कोई पता
नहीं। अगर
आपसे कोई पूछे
कि ईश्वर के
संबंध में आपका
क्या विचार है? तो
आप जरूर कोई
विचार देंगे।
आप कहेंगे, मैं मानता
हूं ईश्वर को;
या आप
कहेंगे कि मैं
नहीं मानता
हूं ईश्वर को।
लेकिन ये
दोनों आपके
विचार हैं। न
तो जो मानता
है, उसे
पता है; और
न उसे पता है, जो नहीं
मानता है। वे
एक ही गड्डे
में खड़े हैं।
उन्होंने
अपने गड्डे का
नाम अलग—अलग
रख छोड़ा है।
वे एक ही से
अंधेरे में
खड़े हैं।
लेकिन जो
जानता है, वह
यह नहीं कहेगा
कि मैं मानता
हूं या नहीं
मानता हूं। वह
कहेगा, मैं
जानता हूं।
एक
बहुत बड़े
वैज्ञानिक, लापलेस,
ने पांच
ग्रंथों में
नेपोलियन के
समय में विश्व
की पूरी
व्यवस्था के बाबत
एक किताब लिखी।
वह किताब
अनूठी है—पूरे
ब्रह्मांड के
बाबत! बड़ी
किताब है।
नेपोलियन ने
किताब को उलटा—पलटा,
देखा। वह
चकित हुआ कि
पांच खंडों
में हजारों
पृष्ठों की
किताब है
विश्व के
संबंध में, लेकिन ईश्वर
का एक जगह भी
नाम भी नहीं
आया। लापलेस
को उसने
बुलाया
राजमहल अपने
दरबार में और
कहा कि किताब
अदभुत है और
तुमने श्रम
किया है, जीवनभर
लगाया है, लेकिन
मैं सोचता था
कि विश्व के
संबंध में जो इतनी
गहन किताब है.
उसमें कहीं तो
ईश्वर का उल्लेख
होगा। तो
ईश्वर शब्द का
भी उल्लेख
नहीं है एक
बार। खंडन के
लिए भी नहीं।
यह भी लापलेस
ने नहीं कहा
कि ईश्वर नहीं
है।
लापलेस
ने कहा कि
ईश्वर की जो
हाइपोथीसिस
है,
परिकल्पना
है, ईश्वर
का जो विचार
है, उसकी
मुझे जगत को
समझाने के लिए
कोई जरूरत नहीं।
द हाइपोथीसिस
ऑफ गॉड इज नाट
रिक्यायर्ड
टु एक्सप्लेन
द यूनिवर्स।
नेपोलियन
का
प्रधानमंत्री
पास में बैठा
हुआ था। वह भी
गणितज्ञ और
विचारक था।
उसने कहा कि
भला ईश्वर की
परिकल्पना, हाइपोथीसिस—हाइपोथीसिस
पीछे मैं
समझाऊंगा कि
क्या अर्थ होता
है — भला ईश्वर
की परिकल्पना
तुम्हारे लिए
विश्व को
समझाने के लिए
जरूरी न हो, बट द
हाइपोथीसिस
इज ब्यूटीफुल,
एंड
एक्सप्लेन्स
मेनी थिंग्स।
खूबसूरत है, सुंदर है वह
परिकल्पना, और बहुत सी
चीजों को
समझाने के लिए
उपयोगी है।
मैं तो ईश्वर
में मानता हूं
उसने कहा।
लापलेस 'ने
कहा कि मैं तो
ईश्वर में
नहीं मानता
हूं।
नेपोलियन
ने पूछा कि
तुम दोनों में
मुझे कोई फर्क
नहीं मालूम
पड़ता! तुम
दोनों ही कहते
हो,
द
हाइपोथीसिस
ऑफ गॉड। तुम
दोनों ही कहते
हो, ईश्वर
की परिकल्पना।
तुम दोनों ही
कहते हो, ईश्वर
का विचार। एक
कहता है, मैं
नहीं मानता
हूं कोई जरूरत
नहीं है।
दूसरा कहता है,
मैं मानता
हूं जरूरत है।
लेकिन तुम
दोनों में से
कोई भी यह
नहीं कहता कि
मैं जानता हूं
ईश्वर है।
जरूरत
है। कुछ चीजें
समझाने में
आसानी पड़ती है।
अगर कल हमें
कोई दूसरी
परिकल्पना
मिल जाए, जो और
अच्छे ढंग से
समझा सके, तो
हम ईश्वर को
उठाकर बाहर कर
दे सकते हैं।
परिकल्पना का
अर्थ होता है,
सर्वाधिक
अब तक उपलब्ध
विचारों में
उपयोगी। कल
ज्यादा
उपयोगी मिल
जाए, तो
उसे हम हटा
देंगे। इसलिए
विज्ञान अपनी
परिकल्पना
रोज बदल लेता है।
कल तक एक काम
करती थी
परिकल्पना.।
फिर
परिकल्पना का
अर्थ है सिर्फ
हाइपोथेटिकल, सिर्फ
हमने कल्पना
की है कि यह
सत्य है, हमें
पता नहीं है।
लेकिन कल्पना
करने से, इसको
सत्य मान लेने
से, कुछ
उलझी बातों को
सुलझाने में
आसानी होती है।
कल अच्छी
कल्पना मिल
जाएगी, तो
हम इसे हटाकर
रिप्लेस कर
देंगे, उसे
इसकी जगह रख
देंगे।
नेपोलियन
ने ठीक कहा कि
मेरे मित्रो, जहां
तक मैं समझता
हूं तुममें
कोई विवाद
नहीं है—यू
बोथ ऐग्री इन
वन थिंग, दैट
गॉड इज ए
हाइपोथीसिस।
तुम एक बात
में दोनों
राजी हो कि
ईश्वर एक परिकल्पना
है। एक कहता
है, उपयोगी
नहीं है, एक
कहता है, उपयोगी
है। लेकिन
विवाद गहरा
नहीं है।
ईश्वर है, ऐसा
तुम दोनों
नहीं कहते हो।
ऋषि यह
नहीं कहता कि ईश्वर
की परिकल्पना
उपयोगी है।
ऋषि यह भी
नहीं कहता कि
ईश्वर है। ऋषि
कहता है, जो है,
उसका नाम
ईश्वर है। ऋषि
ऐसा भी नहीं
कहता कि ईश्वर
है, क्योंकि
जिसे भी हम
कहें, है, वह नहीं है
भी हो सकता है।
हम कहते हैं, वृक्ष है, कल नहीं हो
जाएगा। हम
कहते हैं, नदी
है, कल सूख
जाएगी। हम
कहते हैं, जवानी
है, कल
बुढ़ापा आ
जाएगा। हम
कहते हैं, सौंदर्य
है, कल
कुरूप हो
जाएगा। जो भी
है, वह
नहीं होने की
संभावनाओं को
भीतर लिए है।
इसलिए ऋषि यह
भी नहीं कहते
कि ईश्वर है।
वे नहीं कहते
कि गॉड
एक्सिस्ट्स।
वे कहते हैं, जो है, उसका
नाम ईश्वर है।
दैट व्हिच
एक्सिस्ट्स
इज गॉड। जो है,
उसका नाम
ईश्वर है।
यह बड़ी
और बात है।
इसका अर्थ हुआ
कि ईश्वर
अर्थात
अस्तित्व।
ईश्वर अर्थात
होना। जो भी
है,
वह ईश्वर है।
ईश्वर और सब
चीजों की तरह
एक चीज नहीं
है, और सब
वस्तुओं की
तरह एक वस्तु
नहीं है।
ईश्वर होने का
गुण है। इसलिए
ऋषि तो कहेंगे,
ईश्वर है, ऐसा कहना
पुनरुकिा है,
रिपिटीशन है।
क्योंकि
ईश्वर का मतलब
होता है है, इजनेस, और
है का भी मतलब
होता है, ईश्वर।
ऐसे
परम सिद्धांत
को कहना बड़ा
कठिन है।
ईश्वर, अस्तित्व,
परम सत्य—उसे
जानना तो उतना
कठिन नहीं है,
बहुत कठिन
है, उतना
कठिन नहीं
जितना उसे
कहना कठिन है।
क्योंकि कहते
ही उन शब्दों
का सहारा लेना
पड़ता है, जो
पूर्ण को कहने
के लिए नहीं
बने हैं, जो
अपूर्ण को
कहने के लिए
बने हैं।
पर
ऋषियों का जो सिद्धांत
है,
वह मत नहीं,
विवाद नहीं,
वाद नहीं, हाइपोथीसिस
नहीं, वह
उनकी अनुभुति
है। यह
अनुभूति आकाश
जैसी निर्लेप
है। इसमें
विचार का कोई
भी आवरण नहीं
है। यह खुले
मुक्त आकाश
जैसा है।
आप जब
आकाश की तरफ
देखते हैं, तो
आकाश नीला
दिखाई पड़ता है।
तो आप सोचते
होंगे कि आकाश
का रंग नीला
है, तो
आपने गलती कर
दी। आकाश का
कोई रंग नहीं
है। नीला आपको
दिखाई पड़ता है।
दिखाई पड़ता है
आपको नीला, आकाश का कोई
रंग नहीं है।
आपको नीला
दिखाई पड़ने का
कारण हवाएं
हैं। बीच में
हवाओं की
पर्तें हैं दो
सौ मील तक।
सूर्य की
किरणें इन दो
सौ मील तक
हवाओं में प्रवेश
करके भ्रांति
पैदा करती हैं
नीलिमा की।
इसलिए जैसे ही
इन दो सौ मील
के पार उठ
जाता है
अंतरिक्ष में
यात्री, आकाश
रंगहीन हो
जाता है, कलरलेस
हो जाता है।
आकाश
में कोई रंग
नहीं है, लेकिन
हमारी आंख
आकाश में रंग
डाल देती है।
उसे भी नीला
कर देती है।
अस्तित्व में
भी कोई रंग
नहीं है।
लेकिन हमारे
विचार और
हमारी देखने
की दृष्टि उसमें
भी रंग डाल
देती है। हम
वही देख लेते
हैं जो हम देख
सकते हैं; वह
नहीं, जो
है।
लेकिन
ऋषि तो वही
देखते हैं, जो
है। अगर वही
देखना है, जो
है, तो
अपनी आंखों से
छुटकारा
चाहिए। अगर
वही सुनना है,
जो है, तो
कानों से छुटकारा
चाहिए। यह बात
बड़ी उलटी
लगेगी कि बिना
आंखों के
देखेंगे कैसे,
बिना कानों
के सुनेंगे
कैसे! और मैं
कह रहा हूं कि
वही देखना है,
जो है, तो
आंख बीच में
नहीं चाहिए, नहीं तो आंख
बीच में
उपद्रव पैदा
करती है।
कभी आप
प्रयोग करें, तो
समझ में आ
जाएगा।
जब
पहली दफा
गैलेलियो ने
दूरबीन बनाई, खुर्दबीन
बनाई, जिनसे
दूर की चीजें
देखी जा सकती
हैं और पास की
चीजें अनंत
गुनी बड़ी हो
जाती हैं, तो
गैलेलियो की
खबर उड़ गई; लोगों
ने कहा कि यह
आदमी कुछ चकमा
दे रहा है।
ऐसा कहीं हो
सकता है!
चीजें जितनी
बड़ी हैं, उतनी
बड़ी हैं। अगर
एक पत्थर तीन
इंच का है, तो
तीन इंच का है;
वह हजार इंच
का कैसे दिखाई
पड़ सकता है! और
अगर दिखाई पड़
सकता है, तो
कोई धोखा है।
और खुली आंख
से जो तारे
हैं, वे
दिखाई पड़ते
हैं। अगर
दूरबीन से ऐसे
भी तारे दिखाई
पड़ते हैं जो खुली
आंख से दिखाई
नहीं पड़ते, तो कहीं जरूर
कोई धोखा है।
बड़े —बड़े
पंडित और
अइनवर्सिटी
के प्रोफेसर
गैलेलियो की
दूरबीन से
देखने को राजी
नहीं हुए।
उन्होंने कहा, तुम्हारी
दूरबीन हमें
धोखा दे सकती
है। जो राजी
हुए, वे
देखकर हट गए।
उन्होंने कहा,
इसमें कुछ
चालबाजी है।
क्योंकि जिस
चेहरे को हम
कहते थे, सुंदर
और प्रीतिकर
है, वह
तुम्हारी
खुर्दबीन से
ऐसा दिखाई
पड़ता है, जैसे
ऊबड़—खाबड़ जमीन
है। अगर चेहरे
को बड़ा कर
दिया जाए, तो
आपके चेहरे के
छोटे—छोटे छेद
बड़े गड्डे हो
जाते हैं।
सुंदर से
सुंदर स्त्री
ऐसी मालूम
पड़ती है, जैसे
पहाड़ी स्थान
पर यात्रा कर
रहे हैं। बहुत
घबड़ाने वाला
मालूम होता है।
लेकिन
अब तो दूरबीन
और खुर्दबीन
स्वीकृत हो गईं।
अब बड़ी
मुश्किल है। आंख
जो कहती है, वह
सच है? या
दूरबीन जो
कहती है, खुर्दबीन
जो कहती है, वह सच है? सच
में आंख जिस
चेहरे को कहती
है सुंदर, वह
सुंदर है? या
खुर्दबीन तो
और गहरा देखती
है, आंख से
ज्यादा देखती
है, वह आंख
के ही देखने
की क्षमता को
बड़ा कर देती
है, तो वह
जो चेहरा
दिखाई पड़ता है,
वह सही है?
फिर अब
एल एस डी. का
आविष्कार हुआ
है। अगर एल एस
डी ले लें तो
जो स्त्री
बिलकुल ही बदशक्ल
मालूम पड़ती है, वह
भी खूबसूरत
मालूम पड़ सकती
है। हक्सले ने
जब पहली दफे
एल एस डी. लिया—एक
रासायनिक
द्रव्य जो
आदमी को गहरी,
गहरी
सम्मोहन
तंद्रा में ले
जाता है—तो
उसके सामने
रखी हुई
साधारण
कुर्सी उसे
इतनी खूबसूरत
मालूम होने
लगी जितनी
मजनू को लैला कभी
भी मालूम नहीं
हुई होगी। वह
बहुत घबड़ाया।
क्योंकि
कुर्सी से ऐसे
रंग निकलते
मालूम पड़ने
लगे और कुर्सी
ऐसी प्रीतिकर
लगने लगी कि
उसने कहा कि
अगर कोई भी
महानतम काव्य
लिखा जा सकता
है, अगर
कालीदास और
शेक्सपीयर को
फिर से पैदा
होना हो, तो
इस कुर्सी के
सामने बैठकर
लिखना चाहिए।
यह बड़ी प्रेरक
है। एल एस डी
का नशा उतर
गया, कुर्सी
वही की वही हो
गई। सही क्या
था? वह जो
एल एस डी. के
प्रभाव में
दिखाई पड़ा था
वह? या जो
खाली आंख से
दिखाई पड़ा वह?
नहीं, ऋषि
कहते हैं, चाहे
खुर्दबीन से
देखो और चाहे आंख
से देखो, जब
तक किसी
माध्यम से
देखोगे, तब
तक जो भी
दिखाई पड़ेगा,
वह माध्यम
से ही
निर्धारित
होता है।
मीडियमलेस!
अगर उसे देखना
है, जो है, तो फिर बीच
में कोई
माध्यम नहीं
चाहिए।
याद
आता है मुझे
कि मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने जीवन के
अंतिम दिनों
में एक सम्राट
का प्रधानमंत्री
हो गया था।
महीने दो
महीने में
विश्राम के
लिए वह पास के एक
हिल स्टेशन पर, एक
पहाड़ी जगह पर
चला जाता था, जहां उसने
एक बंगला बना
रखा था।
सम्राट भोडे
दिनों में
चकित हुआ।
क्योंकि
नसरुद्दीन
कभी कहकर जाता
कि मैं बीस दिन:
में लौटूंगा,
तो पांच दिन
में लौट आता।
कभी कहकर जाता
कि पांच दिन
में लौटूंगा,
तो बीस दिन
लगा देता। तो
सम्राट ने
पूछा कि बात
क्या है? तुम
कहकर जाते हो,
उस समय से
वापस नहीं
लौटते!
तुम्हारे
लौटने का ढंग
क्या है? किस
हिसाब से
लौटते हो?
नसरुद्दीन
ने कहा कि अगर
आप पूछते ही
हैं,
तो किसी को
बताना मत तो
मैं अपना
हिसाब बता दूं।
सम्राट ने कहा,
ऐसा कुछ
गुप्त है? नसरुद्दीन
ने कहा कि
बहुत गुप्त है।
मैंने एक
नौकरानी रख
छोड़ी है उस
बंगले पर, पहाड़
पर। वह कोई
सत्तर साल की—की
है। दात उसके
एक बचे नहीं।
एक आंख पत्थर
की है। एक टांग
लकड़ी की है।
शरीर ऐसा है, जो कभी का मर
जाना चाहिए था।
जब वह औरत
मुझे सुंदर
मालूम पड़ने
लगती है, तब
मैं भाग खड़ा
होता हूं।
पांच दिन लगें,
सात दिन
लगें, दस
दिन लगें, जैसे
ही मुझे वह
औरत सुंदर
मालूम पड़ने
लगती हैं, मैं
समझता हूं अब
यहा से भाग
जाना चाहिए।
हो सकता है।
हो सकता है
नहीं, होता
है। तो
नसरुद्दीन ने
कहा कि अब यह
कोई पक्का तय
करना पहले से
मुश्किल है।
कभी वह मुझे
पांच दिन में
सुंदर मालूम
पड़ने लगती है,
तो मैं अपना
बोरिया—बिस्तर
बांधकर वहां
से भाग खड़ा
होता हूं। कभी
दस दिन भी लग
जाते हैं, कभी
बीस दिन भी लग
जाते हैं।
लेकिन मापदंड
मेरा यही है।
तब मैं समझता
हूं कि अब होश
अपने हाथ से
गया। अब यहां
से हट जाना
चाहिए।
एल एस
डी. भीतर से
पैदा हो जाता
है। बाहर से
ही लेने की
जरूरत नहीं है, भीतर
भी पैदा होता
है। सारा का
सारा, जिसको
हम सेक्यूअल
अटैरक्यान
कहते हैं, कामुक
आकर्षण कहते
हैं, वह
कुछ भी नहीं
है, आपके
ग्लैंड्स में
बहने वाले रस
हैं, केमिकल्स
हैं, और
कुछ भी नहीं
है। अगर आपके
शरीर से थोड़ी
सी ग्रंथियां
और रसों को
पैदा करने
वाले सूत्र
अलग कर लिए
जाएं, आपको
स्त्री सुंदर
दिखाई पड़नी
बंद हो जाएगी।
कोई भी स्त्री
सुंदर दिखाई
पड़नी बंद हो
जाएगी। कोई भी
पुरुष सुंदर
दिखाई पड़ना
बंद हो जाएगा।
आपको नहीं
दिखाई पड़ता।
आपके और जो
दिखाई पड़ता है
उसके बीच में
रस की एक धार आ
जाती है। वह
रस की धारा—वह
चाहे एल एस. डी.
बाहर से लिया
जाए, चाहे
भीतर से पैदा
हो जाए। भीतर
भी, आदमी
के भीतर भी
हिम्मोटिक
ड्रग्स पैदा
होते हैं।
जवानी में उसी
तरह के पागलपन
पैदा होते हैं।
वही मूर्च्छा
पकड़ लेती है।
ऋषि
कहते हैं, माध्यम
से जब भी कुछ
देखा जाएगा—किसी
भी माध्यम से—तो
माध्यम भी
विकार पैदा
करेगा। तो वह
जो निर्लेप
आकाश जैसा सिद्धांत
है, उसे तो
तभी देखा जा
सकता है, जब
देखने वाले ने
अपने देखने के
सब साधन छोड़ दिए—सब
साधन छोड़ दिए,
आल
इन्सटूमेंट्स
आफ विजन। न
अपने कान का
उपयोग करता है
सुनने के लिए,
न अपनी आंख
का उपयोग करता
है देखने के
लिए, न
अपने हाथ का
उपयोग करता है
छूने के लिए।
ध्यान
रहे,
ध्यान की
गहराई में वह
दिन आ जाता है,
जब बिना छुए
स्पर्श होता
है और बिना आंख
के दिखाई पड़ता
है और बिना
कान के स्वर
सुनाई पड़ने
लगते हैं। जो
बिना कान के
सुनाई पड़ता है,
उसे ऋषियों
ने अनाहत कहा
है। जो बिना आंख
के दिखाई पडता
है, उसे
ऋषियों ने
अगोचर कहा है।
जो बिना हाथ
के जिसका
स्पर्श हो
जाता है, उसे
ऋषियों ने
अमूर्त कहा है।
लेकिन उस
अनुभव के पहले
स्वयं भी आकाश
जैसा निर्मल
और निर्लेप हो
जाना जरूरी है।
सारी
इंद्रियां हट
जाएं बीच से, तो भीतर वह
जो चेतना का
आकाश है, मुक्त
हो जाता है और
बाहर के आकाश
से एक हो जाता
है।
उनका
सिद्धांत
आकाश के समान
निर्लेप है।
अमृत
की तरंगों से
युक्त...।
जैसे
अमृत की
तरंगों से भरी
हुई सरिता हो, ऐसी
उनकी आत्मा है।
कठिन होगा
हमें समझना।
हम तो यहां से
समझना शुरू
करें तो आसान
होगा कि दुख
की तरंगों से
भरा हुआ सब
कुछ, नरक
की लपटों से
भरा हुआ सब
कुछ, ऐसी
हमारी स्थिति
है। वहा अमृत
का तो कहीं
कोई पता नहीं
चलता, सिर्फ
जहर ही जहर
मिलता है। सुख
की तो कोई
अनुभूति नहीं
होती, दुख
ही दुख के
कांटे सारे
जीवन में
चारों तरफ से
चुभ जाते हैं।
सुख का कोई
फूल खिलता
नहीं। तो जिस
ऋषि की यह बात
की जा रही है, जिन ऋषियों
की यह बात की
जा रही है कि
अमृत की तरंगों
से भरी हुई
जैसे कोई
सरिता हो, ऐसी
उनकी चेतना है,
यह हमारे
खयाल में न
आएगा। कुछ भी
रास्ता हमें न
सूझेगा कि हम
कैसे समझें
इसे।
हम तो
जानते हैं
मृत्यु को, अमृत
को तो नहीं
जानते। हम
जानते हैं दुख
को, आनंद
को तो हम नहीं
जानते। हम
जानते हैं
विषाद को, पीड़ा
को; आह्लाद
को, अहोभाव
को तो हम नहीं
जानते। हमारा
सारा अनुभव
नरक का है।
ठीक
इससे विपरीत
हो सकता है।
हमारे नरक में
ही सूचना छिपी
है इसके
विपरीत होने
की। दुःख का
हमें अनुभव ही
इसीलिए होता
है कि हमारी
चेतना दुख के
लिए निर्मित
नहीं है। अगर
हमारी चेतना
दुख ही होती, तो
हमें दुख का
अनुभव न होता।
अनुभव सदा
विपरीत का
होता है। इसे
ठीक से खयाल में ले
लें।
अनुभव
सदा विपरीत का
होता है। अगर
मुझे दुख का
अनुभव होता है, तो
उसका अर्थ ही
यही है कि
मेरे भीतर कोई
है, जिसका
स्वभाव दुख
नहीं है। नहीं
तो अनुभव न
होता। अगर
मेरे भीतर जो
है, उसका
स्वभाव भी दुख
है, तो
बाहर का दुख
आता और मिल
जाता और एक हो
जाता। मैं और
धनी हो जाता।
मैं और
संपत्तिशाली
हो जाता। पीड़ा
न होती, परेशानी
न होती, चिंता
न होती।
अंधेरे में
थोड़ा अंधेरा
और आकर मिल
जाता, तो
कौन सी खलल
पड़ती! जहर में
थोड़ा जहर और आ
जाता, तो
क्या जहर की
मात्रा बढ़ने
से कुछ
परेशानी होती!
नहीं, परेशानी
विपरीत के
कारण होती है।
वह जो भीतर
हमारे छिपा है,
वह परम आनंद
स्वभावी है।
जरा सा दुख
छिद जाता है
काटे की तरह।
वह जो हमारे
भीतर छिपा है,
वह अमृतघन
है। इसलिए मौत,
कितना ही
भुलाओ, भूलती
नहीं। वह
चारों तरफ से
घेरकर खड़ी हो
जाती है और
दिखाई पड़ती है।
अगर सच में ही
हमारे भीतर भी
मौत होती, तो
हमें मौत का
कोई भय भी न
होता, मौत
की कोई चिंता
भी न होती।
अगर हम मौत ही
होते, तो
मौत और हमारे
बीच तो एक
संगति होती, एक तारतम्य
होता, एक
हारमनी होती।
लेकिन हमारे
भीतर जीवन है,
और इसलिए
मौत से एक
संघर्ष है, एक सतत
संघर्ष है।
और भी
मजे की बात है
कि आप रोज
लोगों को मरते
देखते हैं और
साधु—संत आपको
समझाते फिरते
हैं कि देखो, इतने
लोग मर रहे
हैं, तुम
भी मरोगे, अपनी
मौत को स्मरण
करो। फिर भी
हमारे भीतर न
मालूम क्या है
कि कितना ही
लोगों को मरते
देखो, यह
खयाल कभी नहीं
आता कि मैं भी
मरूंगा।
सामने कोई मरा
पड़ा है, तो
भी हम कहते
हैं, बेचारा
मर गया। लेकिन
ऐसा खयाल नहीं
आता कि मैं भी
मरूंगा। इसे
हम बहुत
समझाने की भी
कोशिश करें
अपने को, तो
भी समझ में
नहीं आता। कुछ
बातें हैं, जो समझ में आ
ही नहीं सकती।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन काफी हाउस
में बैठकर बात
कर रहा था और अपने
मित्रों को कह
रहा था कि कुछ
ऐसी बातें हैं, जो
मानी ही नहीं
जा सकतीं, जो
असंभव हैं। उन
मित्रों ने
पूछा कि
उदाहरण के लिए
एकाध। तो
मुल्ला ने कहा,
जैसे, जैसे
कल मैं रास्ते
से निकल रहा
था। अंधेरा था,
एक दरवाजे
के पास दो
व्यक्ति खड़े
होकर बात कर रहे
थे कि सुना है
हमने, मुल्ला
नसरुद्दीन मर
गया। मैंने भी
सुना, लेकिन
मुझे भरोसा न
आ सका। कैसे
भरोसा आ सकता
है?
जानकर
आप हैरान
होंगे कि जो
लोग बिना किसी
पीड़ा के
चुपचाप मर
जाते हैं, उन्हें
मरने के बाद
भी कई घंटे लग
जाते हैं भरोसा
करने में कि
वे मर गए।
इसलिए हमने
इंतजाम किया
है कि जैसे ही
कोई मर जाता
है, सारा
घर छाती पीटकर
रोता है, चिल्लाता
है, अर्थी
बांधी जाने
लगती है। बैड—ढोल
बजने लगता है,
ले जाने की
तैयारी शुरू
हो जाती है।
ज्यादा देर
नहीं करते, जल्दी मरघट
पहुंचाते हैं
उसे, जलाते
हैं। इसके
पीछे कारण है।
इसके पीछे
कारण है ताकि
उस चेतना को
पता हो जाए कि
उसका शरीर से
संबंध टूट गया,
और जिसे
उसने अब तक
जाना था कि
मैं था, वह
मर चुका है।
गड़ाने
से यह फायदा
नहीं होता।
इसलिए
जिन्होंने
आत्मा और
मृत्यु के
संबंध में
सर्वाधिक खोज
की है—इस
मुल्क के
लोगों नें—उन्होंने
गड़ाने पर जोर
नहीं दिया। ही, सिर्फ
संन्यासी को
गड़ाते हैं, क्योंकि
उसको तो पहले
ही से पता है।
उसे जलाने से
कुछ नया पता
नहीं चलेगा।
वह जलने के
पहले भी जानता
है कि जो जलने
वाला है, वह
जलेगा। इसलिए
सिर्फ
संन्यासी को
हम गड़ाते हैं,
या छोटे
बच्चों को
गड़ाते हैं।
बाकी को हम
जलाते हैं।
छोटे बच्चों
को भी इसीलिए
गड़ाते हैं कि
वे भी अभी
इतने भोले हैं
कि शायद अभी
जीवन ने
उन्हें विकृत
नहीं किया
होगा।
संन्यासी को
भी इसीलिए
गड़ाते हैं कि
वह फिर इतना
भोला हो गया
है कि जीवन ने
जो विकार दिए
थे, वे
पोंछ दिए गए।
लेकिन बाकी को
हमें जलाना
पड़ता है।
असल
में हम इतने
जोर से अपने
शरीर के साथ
बंधे हैं कि
जब तक कोई
हमारे शरीर को
जलाकर राख न
कर दे, तब तक
हमें भरोसा न
आएगा कि यह
शरीर हमारा था
और अब नहीं है,
समाप्त हो
गया। हिंदू
अदभुत हैं इस
अर्थ में इस
पृथ्वी पर।
उन्होंने कुछ
गहनतम बातें
खोजी हैं। बाप
मर जाता है, तो उसके बड़े
लड़के से उसका
सिर तुड़वाते
हैं। यह बड़ा
कठोर और क्रूर
मालूम पड़ता है।
बिना सिर फोड़े
भी जलना हो
सकता है। सिर
फोड़ने की क्या
जरूरत है? और
यह काम नौकर—चाकर
से भी लिया जा
सकता है। गांव
में बाप के
कोई दुश्मन भी
होंगे, उनको
आनंद भी आ
सकता था, उनसे
लिया जा सकता
है। यह उसके
बेटे से ही
करवाने का? और
हिंदुस्तान
में बाप रोते
थे इसलिए कि
अगर बेटा न
हुआ, तो
अंतिम क्रिया
कौन करेगा।
इसलिए बेटे को
पैदा करते थे
कि वह अंतिम
जो क्रिया है,
कपाल—क्रिया,
सिर तोड़ने
की, वह
बेटा करेगा।
क्यों? इन्हें
कुछ सूत्र पता
थे।
शरीर
तो जलेगा ही, इसके
साथ एक और
तरकीब और एक
साधना का क्रम
कि वह बेटा ही
बाप के सिर को
तोड़ देगा, जिसने
जन्म दिया था
इस बेटे को।
वह उसकी
मृत्यु में
सहयोगी होगा।
उसके मरने की
पूरी घटना
करवा देगा, ताकि वह जो
बाप की छूटती
हुई चेतना है,
वह संबंधों
के आग्रह से भी
छु_ट जाए।
अपना—पराया
मानने का खयाल
भी भूल जाए।
कौन मित्र है,
कौन शत्रु
है, यह भी
छूट जाए। कौन
बेटा है, कौन
बेटा नहीं है,
यह भी छूट
जाए। संबंध जो
पकड़ लेते हैं,
वह राग भी
टूट जाए। इस
मृत्यु में
हमने उसका भी
उपयोग किया था।
और जब बाप ने
इतनी कृपा की
कि जन्म दिया,
तो बेटा अब
जन्म तो दे
नहीं सकता बाप
को, उऋण
होगा कैसे? मृत्यु दे
सकता है।
सर्किल पूरा
हो जाता है।
बड़ा कठोर है
यह, लेकिन
पीछे कुछ गणित
है।
यह जो
हमें स्मरण
नहीं आता कि
हम मर जाएंगे, यह
सिर्फ अशान के
कारण नहीं है।
यह वस्तुत:
इसलिए स्मरण
नहीं आता कि
भीतर हमारे वह
है, जो
नहीं मर सकता
है। हमारे ऊपर
कुछ है, जो
मरेगा, और
हमारे भीतर
कुछ है, जो
नहीं मरेगा।
और जब हम
दूसरे को मरते
देखते हैं तो
उसके ऊपर का
ही मरते देखते
हैं, भीतर
का तो हमें
कुछ पता नहीं
चलता। वह
हमारे भीतर जो
अमृत है, वह
कैसे माने। वह
नहीं मान पाता।
लाखों मौत घट
जाएं, तो
भी भीतर कोई
कहे चला जाता
है कि आप मर गए
होंगे, लेकिन
मैं अपवाद हूं
मैं नहीं
मरूंगा। यह
अज्ञान के
कारण ही नहीं
है सिर्फ।
गहरे में तो
कारण यही है
कि भीतर कुछ
है, जो
मरना जिसका
स्वभाव ही
नहीं है।
कितना
ही दुख मिल
जाए,
तो भी हम
सुख की आशा
बांधे चलते
हैं। उसका भी
कारण यही है
कि कितना ही
दुख मिल जाए, जो मेरा
स्वभाव नहीं
है, वह
मेरी नियति
नहीं बन सकती,
वह मेरा
अल्टीमेट, आखिरी
रूप नहीं हो
सकता। आज नहीं
कल, कल
नहीं परसों, इस जन्म में
नहीं अगले
जन्म में, कभी
न कभी मैं उसे
तो पा ही
लूंगा, जो
मेरा स्वभाव
है। इसलिए
आनंद की अनंत
खोज चल रही है।
ऋषि
कहता है, वे जो
परमहंस हैं
अमृत की
तरंगों से
युक्त जैसे
कोई सरिता हो
ऐसी उनकी
चेतना है।
ध्यान
रहे,
लेकिन ऋषि
कहता है, अमृत
की तरंगों से
युक्त। यह जो
जीवन की भीतर
धारा है, डायनेमिक
है, स्टैगनेंट
नहीं है—गत्यात्मक
है, सरिता
की तरह है, सरोवर
की तरह नहीं।
भरे हुए तालाब
की तरह नहीं
है, जिसमें
पानी भरा है।
एक बहती हुई
नदी की तरह है—उफनती,
दौड़ती, भागती,
जीवंत।
ध्यान रहे, सरोवर अपने
में बंद और
कैद होता है, और सरिता
सागर की खोज
पर होती है।
सागर की तरफ
जो दौड़ है, वही
तो सरिता का
रूप है। उस
सागर की तरफ
जो खिंचाव है,
कशिश है, वही तो
सरिता का जीवन
है।
तो ऋषि
कहता है, अमृत
की तरंगों से
भरी हुई सरिता
जैसी जिसकी चेतना
है, जो
निरंतर
गत्यात्मक है,
गतिमान है,
अगम की खोज
में, अनंत
की खोज में
भागा चला जा
रहा है।
और
ध्यान रहे, यह
मत सोचना आप
कि जब सरिता
सागर में
गिरती है, तो
खोज समाप्त हो
जाती है।
सरिता सागर
में गिरती है,
हमारे लिए
मिट जाती है, लेकिन सरिता
तो सागर में
और गहरे, और
गहरे, और
गहरे डूबती ही
चली जाती है।
तट छूट जाते
हैं, सरिता
की सीमा मिट
जाती है, लेकिन
सागर की
गहराइयों का
कोई अंत नहीं
है। खोज चलती
ही चली जाती
है। छोटी
लहरें बड़ी
लहरें हो जाती
हैं। अमृत के
तूफान आने
लगते हैं, अमृत
का सागर हो
जाता है; लेकिन
खोज चलती ही
चली जाती है।
यह खोज
अनंत है, क्योंकि
ईश्वर को कभी
चुकता नहीं
किया जा सकता।
ऐसा कोई क्षण
नहीं आ सकता
कि कोई आदमी
कह दे कि नाउ
आई पजेस, अब
मेरी मुट्ठी
में है ईश्वर।
ही, ऐसा एक
क्षण जरूर आता
है, जब
खोजी कहता है
कि अरे ईश्वर
ही बचा, मैं
कहां गया! मैं
कहां हूं अब!
वह जो खोजने
निकला था, खो
गया है; और
जिसे खोजने
निकला था, वह
हो गया है।
बड़ी दुर्घटना
की बात है कि
व्यक्ति का और
परमात्मा का
कभी मिलन नहीं
होता।
क्योंकि जब तक
व्यक्ति होता
है, तब तक
परमात्मा
प्रकट नहीं हो
पाता; और
जब परमात्मा
प्रकट होता है,
तो व्यक्ति
खोजे से मिलता
नहीं। उसके
साथ एक हो गया
होता है।
इसलिए अनंत
खोज की प्रतीक
चेतना की धारा
ऋषि ने कही है।
अक्षय
और निर्लेप
उसका स्वरूप
है।
अक्षय
और निर्लेप
उसका स्वरूप
है। उस चेतना
का,
उस
अंतरात्मा का
स्वरूप है
अक्षय। कितनी
ही गति हो, क्षय
नहीं होता।
कितनी ही
यात्रा हो, ऊर्जा
समाप्त नहीं
होती। कितना
ही चलो—अथक, थकता नहीं।
वह जो भीतर है,
जरा भी
क्षीण नहीं
होता। अनंत है
स्रोत उसका।
कितना ही
उलीचो, चुकता
नहीं है।
अक्षय है, क्षय
नहीं होता। उस
चेतना का कोई
क्षय नहीं है।
और जिसका कोई
क्षय नहीं है,
वह निर्लेप
ही हो सकती है,
क्योंकि
क्षय तो लेप
का होता है।
इसे थोड़ा समझ
लें।
हमारे
ऊपर जिन—जिन
चीजों की
पर्तें हैं, उनका
क्षय होता है।
शरीर की पर्त
है, वह
क्षय होगी। आज
जवान है, कल
का होगा। आज
युवा है, कल
वृद्ध होगा।
आज शक्तिशाली
है, कल
जर्जर होगा।
आज चलता है, कल नहीं चल
सकेगा। आज
उठता है, कल
गिरेगा—मिट्टी
से एक हो
जाएगा। डस्ट
अनटू डस्ट, धूल में धूल
मिल जाएगी।
मन भी
एक पर्त है, उसका
भी क्षय होता
है। वह भी
क्षीण होता
चला जाता है।
पर्तें सदा
क्षीण हो जाती
हैं, क्योंकि
वे ऊपर से
चढ़ाई गई हैं, वे अलग हो
जाती हैं; जोड़ी
गई हैं, टूट
जाती हैं; संयुक्त
की गई हैं, वियुक्त
हो जाती हैं।
लेकिन भीतर जो
है, जो
पर्त नहीं
स्वभाव है, स्वरूप है, जो मैं हूं
जो सदा से हूं
मैं, जिससे
अन्यथा मैं
कभी भी नहीं
था और जिससे
अन्यथा मैं
कभी भी नहीं
होऊंगा, उसका
कोई क्षय नहीं
होता।
बुद्ध
से कोई पूछता
है कि मैं
मरूंगा तो
नहीं! तो
बुद्ध कहते हैं
: जो तुम्हारे
भीतर मरा ही
हुआ है, वह
मरेगा। और जो
तुम्हारे
भीतर कभी
जन्मा ही नहीं
है, उसके
मरने का सवाल
क्या है!
एक है
हमारे भीतर जो
जन्मा है; जो
जन्मा है, वह
मरेगा। जब एक
छोर हो गया, तो दूसरा
छोर भी
अनिवार्य है।
आप एक ऐसा
डंडा नहीं खोज
सकते जिसमें
एक ही छोर हो।
और अगर किसी
दिन खोज लें, तो समझना कि
जो जन्मा है, अब नहीं
मरेगा।
नहीं, दूसरा
छोर होगा ही!
जब एक छोर है, तो दूसरा
छोर होगा ही।
असल में एक
छोर हो ही
नहीं सकता, दूसरे छोर
के साथ ही
होता है। जो
जन्मा है वह
मरेगा, जो
मरा है वह
जन्मता रहेगा।
क्या कुछ ऐसा
भी है भीतर, जो जन्मा
नहीं है? अगर
उसका पता चल
जाए, तो
उसका भी पता
चल जाता है जो
मरता नहीं।
निश्चित
ही,
ऐसा भीतर
कुछ है। लेकिन
गहरे उतरना
पड़े, पर्तों
के पार उतरना
पड़े। और हम तो
पर्तों के
इतने रखवाले
हैं, जिसका
कोई हिसाब
नहीं।
अब कोई
ध्यान करता है।
जरा उसका कपड़ा
सरक जाता है, तो.
वह जल्दी से
पहले कपड़ा
सम्हालता है।
ध्यान नहीं
सम्हालता।
कपड़ा
सम्हालने में
ध्यान चूक
जाता है, उसकी
फिक्र नहीं है।
वह सस्ती चीज
है, वह खोई
जा सकती है।
कपड़ा जल्दी से
सम्हाल लेता
है, वह बड़ी
कीमती चीज है।
इसको बचाना
जरूरी है। न्
बहुत
दीन है आदमी।
अपने हाथ से
दीन है। छुद्र
को बचाता रहता
है। जो मिटेगा, उसे
बचाता रहता है।
जिसका कोई भी
मूल्य नहीं है,
उसको
तिजोरियों
में ताले
लगाकर रखता
रहता है। और
जो अमूल्य है।
वह बाहर पड़ा
रहता है सड़क
पर। उसको कोई
पूछता भी
नहीं!
कभी—कभी
मैं देखता हूं
कि कितनी छोटी
चीजें बाधा बन
जाती हैं।
कपड़ा बचाता है
आदमी, शरीर
बचाता है आदमी।
किसी का धक्का
लग जाता है, तो वह बचकर
निकल जाता है;
ध्यान के
बाहर दूर जाकर
बैठ जाता है।
धक्का लग गया,
इस शरीर को
कितने दिन
बचाइएगा? और
धक्के से
बचाने से क्या
सोचते हैं, आखिरी धक्का
नहीं लगेगा? अच्छा है, छोटे—मोटे
धक्के का
अभ्यास रखें,
तो आखिरी
लगेगा तो बहुत
घबड़ाहट नहीं
होगी। बिलकुल
बचा—बचाकर रखा,
तो बहुत
मुश्किल
पड़ेगी। और
धक्का तो
लगेगा ही। इसे
बचाया नहीं जा
सकता।
क्षुद्र...।
धूप
तेज हो गई, तो
ध्यान छोड़
देता है आदमी
कि धूप तेज है।
क्या फर्क
पड़ेगा? थोड़ा
पसीना बह
जाएगा। थोड़ी
चमड़ी काली पड़
जाएगी। आज
नहीं कल, कोयला
बनने वाली है
वह चमड़ी। और
आप इतना बचाते
हैं धूप से और
कल उसे आपके
ही सगे —संबंधी
आग में जला
देंगे।
पर हम
पर्तों को
बचाने में लगे
हैं,
जो नहीं
बचाई जा सकतीं।
और जो सदा बचा
हुआ है, उसकी
हमें खबर ही
नहीं मिलती।
हम इसी में
उलझे—उलझे
नष्ट हो जाते
हैं। कितने
जन्म हम
गंवाते हैं!
ऋषि
कहता है, अक्षय
है वह।
उसकी
ही खोज करो, जो
अक्षय है। जो
अक्षय को पा
लेता है, वही
धनी है; बाकी
सब निर्धन हैं।
क्योंकि उसने
उसे पा लिया, जिसे अब चोर
चुरा नहीं
सकते, आग
जला नहीं सकती,
शस्त्र छेद
नहीं सकते, मारा नहीं
जा सकता, मिटाया
नहीं जा सकता।
अब, अब कोई
भय न रहा। और
जब भी कोई
अक्षय की धारा
में उतर जाता
है, तो वह
पाता है वहां
सब निर्लेप है।
वहां कोई
विकार नहीं है।
सब
विकार पर्तों
के हैं और पर्तें
बिना विकार के
नहीं हो सकतीं, इसे
समझ लें। अगर
मुझे अपने
शरीर पर धूल
चिपकानी हो, तो पहले
मुझे तेल
लगाना पड़े, नहीं तो धूल
का चिपकना
मुश्किल है।
क्योंकि धूल
और शरीर के
बीच में कुछ
स्निग्ध होना
चाहिए, कुछ
राग होना
चाहिए, कुछ
चिपकने वाला
होना चाहिए, जो जोड़ दे।
अगर आपको शरीर
के साथ अपने
को जोड़े रखना
है, तो
वासना चाहिए,
कामना
चाहिए, तृष्णा
चाहिए, इच्छा
चाहिए। ये बीच
की
स्निग्धताएं
हैं, जिनसे
जोड बनेगा।
अगर ये बिलकुल
सूख जाएं।
इसलिए
तो बुद्ध और
महावीर
परेशान हैं—छोड़
दो तृष्णा, छोड़
दो वासना, छोड़
दो इच्छा। क्यों?
क्योंकि ये
बीच से छूट
जाए, तो वह
जो धूल की
पर्त है चारों
तरफ, उससे
जोड़ टूट जाए।
लेकिन
हम पर्तों को
सम्हाले रखते
हैं। पर्तों
को सम्हालने
के लिए उस
सारे इंतजाम
को भी
सम्हालना
पड़ता है जिससे
पर्तें हमसे
जुड़ी रहती हैं।
इसलिए हमें
निर्लेप का
कोई पता नहीं
चलता। पर्तों
के साथ तो
विकारों का ही
पता चलता है, क्योंकि
विकार ही
पर्तों को
जोड़ते हैं।
अगर विकार सब
छूट जाएं, तो
पर्तें सब छूट
जाएं, उनके
साथ ही अलग हो
जाएं। जोड़ने
वाला बीच का
तत्व न रह जाए,
तो जो अलग
है वह अलग गिर
जाए, जो
मैं हूं वही
बच रहूं।
इसलिए
ऋषि कहता है, वह
अक्षय है
निर्लेप है।
जो
संशय से शून्य
है वही ऋषि है।
और
संशय से शून्य
है जो, वही ऋषि
है। संशय से
शून्य होना
ऋषि का सार
अंश है। लेकिन
संशय तब तक
नहीं मिटता, जब तक इस
अक्षय का
अनुभव न हो।
अनुभव के बिना
संशय नहीं
मिटता। ध्यान
रखें, श्रद्धा
से नहीं मिटता,
आस्था से
नहीं मिटता, विश्वास से
नहीं मिटता।
संशय मिटता ही
नहीं किसी
उपाय से सिवाय
अनुभव के।
कितना ही मैं
कहूं कि आग
में जलाए
जाएंगे आप, आप नहीं
जलेंगे। आप
कहेंगे, क्या
कह रहे हैं!
भला मान लें
मेरी बात, फिर
भी आग में
कूदने को
तैयार नहीं
होंगे। और अगर
तैयार होंगे,
तो कारण
मेरी बात नहीं
होगी, कारण
कुछ और होगा।
सुना
है मैंने कि
हिटलर से
मिलने एक
अंग्रेज राजनीतिज्ञ
गया था युद्ध
के पहले।
देखने कि
हिटलर ने
तैयारी क्या
की है। तो
एडोल्फ हिटलर
उसे अपने कमरे
में ले गया।
उसके कमरे के
बाहर—कमरा था
उसका सातवीं
मंजिल पर—कोई
दस सिपाही
पहरा देते थे।
एडोल्फ हिटलर
ने कहा कि तुम
ब्रिटिशर्स
झंझट में मत
पड़ो,
क्योंकि
मेरे पास ऐसे
आदमी हैं, जो
मेरी आवाज पर
जान दे सकते
हैं। और उसने नंबर
एक के सिपाही
से कहा, कूद
जा। वह सात
मंजिल से कूद
गया। वह
ब्रिटिश
राजनीतिज्ञ
तो घबरा गया।
उसने दूसरे
सिपाही से कहा,
कूद जा। वह
दूसरा सिपाही
सात मंजिल से
कूद गया।
ब्रिटिश
राजनीतिज्ञ
तो कंप गया।
अगर ये सैनिक
हैं इसके पास,
तो ब्रिटेन
न टिक सकेगा।
हिटलर ने
तीसरे सैनिक
से कहा..,.।
उस
राजनीतिज्ञ
ने कहा, रुको,
यह कर क्या
रहे हो? रुको,
मैं मान गया,
मान गया, काफी है
इतना, पर्याप्त
है। और पास
जाकर उसने
तीसरे सैनिक
से पूछा, इतनी
उतावली क्या
है? इतनी
जल्दी मरने की
तैयारी क्या
है? तो उस
सैनिक ने कहा,
अगर हम जी
रहे होते, तो
कौन मानता इस
आज्ञा को।
लेकिन इस आदमी
के साथ जीने
से सात मंजिल
से कूदकर मर
जाना बेहतर है।
कारण
दूसरा ही है।
तो अगर आप
मेरी मानकर आग
में कूद जाएं, तो
मैं नहीं
मानूंगा कि
मेरी मानकर
कूद गए। कारण
कुछ और ही
होगा।
क्योंकि
श्रद्धा, आस्था,
भरोसा, विश्वास,
सब ऊपरी है।
जब तक स्वयं
ही पता न चले
उसका, जो
अमृत है, तब
तक आग में
कूदते वक्त
संशय बना ही रहेगा।
पता नहीं इस
आदमी ने जो
कहा, ठीक
है या नहीं? पता नहीं
उपनिषद के ऋषि
जो कहते हैं, ठीक है या
नहीं?
दूसरे
का कहा हुआ
सदा ही संशय
रहेगा। रहेगा
ही। कोई उपाय
नहीं है।
स्वयं का जाना
हुआ ही
निस्संशय में
ले जाता है।
ऋषि वही है, जो
स्वयं जान
लेता है।
इसलिए
कहा है, निस्संशय
हो जाना संशय
रिक्त शून्य हो
जाना ऋषि का
लक्षण है।
ठीक
लक्षण है ' यही
पहचान है। अगर
कभी किसी ऋषि
के पास होने
का मौका मिले,
तो पहली बात
एक ही खोजना, और वह यह कि
उसे कोई संशय
तो नहीं है! वह
कभी सवाल तो
नहीं पूछता!
वह कभी प्रश्न
तो नहीं
उठाता! वह अभी
भी कहीं जाता
तो नहीं पता
लगाने कि सत्य
क्या है?
ऋषि
निस्संशय है, जो
उसने जाना है,
उससे उसके
संशय गिर गए
हैं। अब कोई
प्रश्न नहीं
उठता, निष्प्रश्न
है। अब भीतर
कोई सवाल नहीं
है। कोई जवाब
की खोज भी
नहीं है।
निर्वाण
ही उसका इष्ट
है।
निस्संशय
उसका चित्त है, निर्वाण
उसका इष्ट है।
एक ही लक्ष्य
है उसका कि
मिट जाए, कैसे
मिट जाए। हम
सबका लक्ष्य
है कि हम कैसे
बच जाएं—किस
तरकीब से। अगर
हम धर्म की
तरफ भी जाते
हैं, तो
बचने के लिए।
अगर हम
शास्त्र भी
पढ़ते हैं, तो
इसी आशा में
कि शायद कोई
रास्ता मिल
जाए बचने का।
अगर हम यह भी
श्रद्धा कर
लेते हैं कि
आत्मा अमर है,
तो इसीलिए
ताकि मरना न
पड़े। ठीक ही
कहते होंगे ये
लोग। अगर ये
ठीक नहीं कहते,
तो मरना
पड़ेगा।
इसलिए
जितनी कमजोर
कौमें हैं, आत्मा
की अमरता में
जल्दी
विश्वास कर
लेती हैं। और
आत्मा की
अमरता में
विश्वास करने
वाली कौमें
जमीन पर कमजोर
सिद्ध हुई हैं।
उनमें संगति
है। हम ही हैं।
हमसे ज्यादा
भयभीत और डरे
हुए लोग जमीन
पर खोजने
मुश्किल हैं।
और हमसे
ज्यादा
आत्मवादी भी
खोजने
मुश्किल हैं।
इन दोनों में
कोई तालमेल
नहीं है। इन
दोनों में कोई
भी तालमेल
नहीं है, क्योंकि
आत्मवादी का
तो अर्थ ही
यही होगा कि
अब मृत्यु
नहीं रही, तो
भय किसका? लेकिन
हमारे मुल्क
को हजार साल
तक गुलाम रखा
जा सकता है।
हाथ में
हथकड़ियां और
हम अपना
शास्त्र पढ़ते
रह सकते हैं
कि आत्मा अमर
है।
आत्मा
अमर है, ऐसा
मानने से कुछ
भी नहीं होता,
जानने चलना
पड़ता है।
निश्चित ही
जानना दूभर है,
कठिन है। एक
अर्थ में
असंभव जैसा है—जैसे
हम हैं, उसको
देखते हुए। हम
एक छलांग लेने
की हिम्मत
नहीं जुटा
पाते, एक
कदम उठाने में
डरते हैं। जिस
सीढ़ी को पकड़
लिया, उसे
ऐसा पकड़ते हैं
कि फिर उसे
कभी छोड़ना
नहीं चाहते।
जहां खड़े हैं,
वह जमीन से
हटना नहीं
चाहते।
और ऋषि
कहता है कि
ऋषियों का
लक्ष्य, इष्ट
ही निर्वाण है।
बुझ जाना
निर्वाण है।
लक्ष्य ही यही
है कि कब मिट
जाऊं।
क्यों, मिटने
के लिए ऐसी
आतुरता क्यों
है? क्योंकि
ऋषि जानता है
कि वही मिट
सकता है, जो
मिटने वाला है।
वह तो मिटेगा
नहीं, 'जो
मिट नहीं सकता।
इसलिए मिटकर
देख लूं कि
क्या मेरा है
और क्या मेरा
नहीं है। वह
साफ हो जाए।
वह निर्णय हो
जाए। मैं मरकर
देख लूं ताकि
निर्णय हो जाए
कि क्या था जो
मेरा था, और
क्या था जो
मेरा नहीं था।
मृत्यु ही
निर्णायक
होगी।
इसलिए
ध्यान मृत्यु
का प्रयोग है।
समाधि मृत्यु
का अनुभव है।
इसलिए हम
संन्यासी की
कब को समाधि
कहते हैं।
उसकी कब को हम
समाधि इसीलिए
कहते हैं, क्योंकि
उस आदमी ने
मरने के पहले
ही जान लिया था
कि क्या मरने
वाला है और
क्या नहीं
मरने वाला है।
उसे नहीं मरने
वाले का पता
था।
इष्ट
क्या है साधक
का? आप आए लंबी
यात्रा करके यहां,
किसलिए? अगर
मुझसे पूछें
तो मैं कहूंगा,
इसीलिए, ताकि
लौटते वक्त आप
न बचें। आए
भला हों, जाते
वक्त जाने
वाला न बचे।
जाएं जरूर, भीतर सब
खाली हो जाए।
वह जिसे लेकर
आए थे, उसे
यहीं दफना
जाएं, तो
ध्यान पूरा
हुआ, तो
ध्यान में गति
हुई। अगर आप
ही लौट गए
वापस, तो
ध्यान में कोई
प्रवेश न हुआ।
इष्ट
यही है कि मैं
मिट जाऊं, ताकि
परमात्मा ही
शेष रह जाए।
और मजा यह है
कि जब तक मैं
बचा हूं तभी
तक मैं उससे
जुड़ा हूं र जो
मिटेगा। और
जिस दिन मैं
मिट जाता हूं
र मैं उससे
जुड़ जाता हूं
जिसका कोई
मिटना नहीं है।
वे सर्व
उपाधियों से
मुक्त हैं
अब जो
मिट ही गए, वहां
उपाधियां
क्या होंगी? क्योंकि सब
उपाधियां 'मैं'
के आसपास
इकट्ठी होती
हैं, वह 'मैं' का
दरबार है।
अहंकार के
आसपास सब
बीमारियां
इकट्ठी होती हैं।
अहंकार ही चला
गया, तो
दरबारी अपने
आप चले जाते
हैं। उनकी कोई
जगह नहीं रह
जाती। अपदस्थ
हो जाते हैं।
उपाधि
एक है। वह
मेरे होने का
मुझे जो खयाल
है,
वही मेरी
उपाधि है, वही
मेरी बीमारी
है। फिर उस
बीमारी में
लोभ इकट्ठा
होता है, क्योंकि
मुझे बचाना है
अपने को, तो
लोभ करना पड़ता
है। फिर उस
बीमारी में भय
आता है, हिंसा
आती है। फिर
उस बीमारी में
काम आता है, वासना आती
है, तृष्णा
आती है। फिर
हजार
उपाधियां
चारों तरफ खड़ी
हो जाती हैं।
उस 'मैं' को बचाने के
लिए यह सारा
सुरक्षा का
इंतजाम है।
लेकिन जब मैं
ही मिटने को
राजी हो गया, तो इस
इंतजाम की कोई
जरूरत नहीं रह
जाती। यह पूरा
इंतजाम गिर
जाता है। वे
उपाधियों से
मुक्त हैं।
वहां
ज्ञान मात्र
ही शेष रह
जाता है—
निष्केवलज्ञानम्
बस
केवल ज्ञान ही
शेष रह जाता
है। यह महावीर
को बहुत
प्यारा शब्द
था—केवल ज्ञान।
बस मात्र
ज्ञान ही शेष
रह जाता है।
वहां न ज्ञाता
बचता है—जानने
वाला, नोअर; न वहां वह बचता
है जो जाना
जाता है—नोन; वहां तो
केवल नोइंग बच
जाती है, जानना
ही बच जाता है।
मैं भी मिट
जाता हूं तू
भी मिट जाता
है। फिर सिर्फ
बीच में जो
चेतना की
जीवंत धारा है,
ज्योति है,
वही बच जाती
है। कहें कि
अभी जब भी हम
जानते हैं, तो वहां तीन
होते हैं—मैं
होता हूं
जानने वाला, आप होते हैं,
जो जाना
जाता है और
दोनों के बीच
का संबंध होता
है, जिसे
हम ज्ञान कहते
हैं।
ऋषि जब
मिट जाते हैं, इष्ट
को उपलब्ध हो
जाते हैं, निर्वाण
को पा जाते
हैं, उपाधियां
गिर जाती हैं,
तो वहां न
जानने वाला
बचता है, न
जाना जाने
वाला बचता है—न
ज्ञाता और न
ज्ञेय—बस
ज्ञान ही शेष
रह जाता है।
वही ज्ञान इस
अस्तित्व का
परम स्वरूप है।
ज्ञान मात्र,
जस्ट नोइंग।
ध्यान
उसी की तरफ एक—एक
कदम चढ़ने का
उपाय है।
ध्यान है सीढ़ी
शान की। ध्यान
है दोहरा
प्रयोग। इस
तरफ गिराना है
मैं को, उपाधियों
को, तैयारी
करनी है मिटने
की, खो
जाने की; और
उस तरफ जैसे—जैसे
मैं खोऊंगा, मिटूंगा, ज्ञान का
आविर्भाव
होगा। ज्ञाता
तो नहीं बचेगा,
तब ज्ञान
बचता है।
और
ऊर्ध्वगमन ही
उनका पथ है
और
निरंतर ऊपर
उठते जाना ही
उनका मार्ग है।
देखा है दीया, भागती
रहती है
ज्योति ऊपर की
तरफ। देखी आग,
भागती रहती
है ऊपर की तरफ।
कैसा ही करो, उलटा—सीधा, भागती है
ऊपर की तरफ।
पानी भागता है
नीचे की तरफ।
चढ़ाना हो ऊपर,
तो बहुत
इंतजाम करना
पड़ता है, तब
ऊपर चढ़ता है।
इंतजाम छोड़
दें, फिर
नीचे उतर जाता
है। आग को
नीचे की तरफ
बहाना हो, तो
बहुत इंतजाम
करना पड़े। ऊपर
स्वभाव से जाती
है।
शरीर
का स्वभाव
नीचे की तरफ
है,
पदार्थ का
स्वभाव नीचे
की तरफ है।
चेतना का
स्वभाव ऊपर की
तरफ है। ऐसा
समझ लें कि
आदमी एक दीया
है, मिट्टी
का दीया।
उसमें मिट्टी
भी है, उसमें
एक ज्योति भी
है जलती हुई, उसमें तेल
भी भरा है। वह
मिट्टी का
दीया जमीन की
कशिश से चिपका
रहता है। वह
दीया टूट जाए,
तो तेल नीचे
की तरफ बह
जाता है।
लेकिन वह
ज्योति सदा
ऊपर की तरफ
भागती रहती है।
ऋषि
उसे कहते हैं, जिसने
अपने मिट्टी
के दीए के साथ
तादात्म्य तोड़
लिया, जिसने
तेल के साथ
संगम छोड़.
दिया, जिसने
केवल ऊपर
भागती हुई
ज्योति को ही
अपना स्वरूप
जाना।
ऊर्ध्वगमन
ही उनका पक्ष
है
ऊपर, और
ऊपर, और
ऊपर वे चलते
चले जाते हैं।
आज
इतना ही।
अब हम
रात के ध्यान
में जाएंगे तो
दो मिनट सूचनाएं
सुन लें, समझ
लें। बैठें, अभी उठें न।
पहले दो मिनट
सूचनाएं समझ
लें, फिर
उठें।
रात के
ध्यान के पहले, दोपहर
के ध्यान के
संबंध में दो
बातें आपसे कह
दूं। आज दोपहर
का प्रयोग
बहुत ठीक जैसा
हो सकता था, नहीं हो
पाया। दो
कारणों से।
मजबूरी है, मैं समझता
हूं भीतर इतना
भाव भर जाता
है कि वह
प्रगट होना
चाहता है, इसलिए
मौन नहीं हो
सका पीछे। तो
कल दूसरा
इंतजाम करना
पड़ेगा।
पंद्रह
मिनट कीर्तन
चलेगा। और
इसीलिए मैंने
कहा कि कीर्तन
में खड़े मत रहें, पूरी
शक्ति लगाकर
उलीच डालें।
नहीं तो जो बच
रहेगा वह पीछे
मौन न होने
देगा। और
कीर्तन के बाद
मौन का इसीलिए
प्रयोग रख रहे
हैं ताकि पहले
आप खाली हो
जाएं, उलीच
दें और फिर शांत
हो जाएं।
तो
पंद्रह मिनट
कल कीर्तन
चलेगा। उसके
बाद पंद्रह
मिनट आपको
स्वतंत्रता
रहेगी और
उलीचने की। जो
भी मन में आता
हो—नाचना, कूदना,
चिल्लाना, गाना, रोना,
हंसना—वह आप
कर लें। फिर
पीछे तीस मिनट
पूर्ण मौन
रहेगा। उसमें
फिर जरा सी भी
आवाज नहीं
चाहिए, जरा
सी भी। और
ध्यान रखें, आप उसमें
आवाज करें तो
आप अपना
नुकसान करते
हैं, दूसरे
का भी नुकसान
करते हैं।
बिलकुल आवाज
नहीं। फिर तीस
मिनट मुर्दे
की तरह पड़े
रहें।
दूसरी
बात,
दोपहर के
प्रयोग में
कुछ लोग दर्शक
की तरह भीतर
बैठ गए, वे
नहीं बैठने
चाहिए। जिनको
करना हो वही.।
जिनको नहीं
करना, वे
दूर पहाड़ी पर
बैठ जाएं, वहां
न बैठें। उससे
उन्हें भी
नुकसान है और
दूसरों को भी
नुकसान है।
नुकसान
गहरे हैं।
जहां इतने
लोगों के भीतर
के भाव, विकार,
बीमर्ग़रेयां,
मानसिक रोग
फिंक रहे हों
बाहर, वहा
कोई खाली बैठा
रहे तो वह रिसेप्टिव
हो जाता है, वह पकड़ लेगा।
वह पच्चीस
बीमारियां
ग्रहण कर लेगा।
वह हालांकि
सोच रहा है कि
हम बहुत
बुद्धिमान हैं।
हम बुद्धिमान
की तरह बैठे
हैं, बगल
का आदमी देखो
पागलपन कर रहा
है। लेकिन उसे
पता नहीं है
कि वह गड्डा
बन गया, वह
पागलपन उसमें
घुसेगा। वहा
भीतर नहीं
बैठना है किसी
को भी। वे दूर,
काफी दूर
बैठें। साधक
से सावधान
रहें। साधक
खतरनाक, उससे
जरा दूर रहें।
या तो साधक हो
जाएं तो उसके
भीतर आएं, नहीं
तो दूर रहें।
पहाड़ पर बैठ
जाएं, वहां
से बैठकर
देखें।
समझदारी
ज्यादा मत
दिखाएं।
ज्यादा
समझदारी कभी—कभी
बड़ी नासमझी
होती है। करना
हो तो ठीक, न
करना हो दूर
चले जाएं। कल
मैं एक भी
व्यक्ति को आंख
खुले हुए वहां
बैठना नहीं
चाहूंगा कि
कोई बैठे। और
कोई बैठा
दिखाई पड़ेगा
तो फिर
वालेंटियर उसे
उठाकर ले
जाएंगे, इसलिए
वहा नहीं
बैठेंगे।
दोपहर
के मौन में एक
भी दर्शक नहीं
चाहिए। दर्शक
पहाड़ पर बैठ
जाए दूर जाकर, देखे
मजे से। लेकिन
जब दर्शन ही
करना हो पूरा
मजे से तो खुद ही
करके करना
चाहिए। भीतर
से देखें।
दूसरे भी कर
रहे हैं, आप
भी करें। और
भीतर से देखते
रहें कि क्या
हो रहा है, तो
बहुत फायदा
होगा। बाहर से
देखने से कोई
फायदा नहीं
होगा। यही
लगेगा कि अरे,
ये पागल!
लेकिन जिस दिन
आपको लगेगा कि
अरे, मैं
पागल! उस दिन
कुछ फायदा हो
सकता है।
इसलिए दूसरे
को मत देखें।
तीस
मिनट के मौन
में आंख
बिलकुल बंद
रहनी चाहिए।
पट्टियां
सारे लोग ले
लें और आंख पर
पट्टियां
बांध लें।
क्योंकि आप पर
भरोसा नहीं
किया जा सकता।
बीच में आंख
खुल जाए, खुल
ही जाए तो
पट्टी तो
रोकेगी कम से
कम। इसलिए
पट्टियां
बांध लें—दोपहर
के लिए।
रात्रि
के ध्यान में
जो प्रयोग है, वह
आपसे कह दूं।
रात्रि का
ध्यान है
त्राटक का।
तीस मिनट तक
आपको एकटक
मेरी तरफ
देखना है, खड़े
होकर। आंख का
पलक नहीं झपना
है। तो जिन
लोगों ने दिनभर
पट्टी बांधी
है, उन्हें
जो मजा आएगा, वह उनको
नहीं आ सकेगा
जो पट्टी नहीं
बाधे हैं।
दिनभर आंख बंद
रही हो तो
चालीस मिनट
पूरी खुली
रहेगी, पलक
भी नहीं झपेगा।
शक्ति इतनी
इकट्ठी हो
जाएगी। वह आप
जानें। कल से
फिकर करें।
अभी
तीस मिनट पहले
तो मेरी तरफ
आप देखेंगे।
मुझे देखते
रहें, देखते
रहें, देखते
रहें पूरी आंख—पानी
झरने लगे, पलक
थक जाए, कोई
फिकर नहीं, आप देखते
चले जाएं।
थोड़ी ही देर
में थकान मिट
जाएगी, पानी
सूख जाएगा, आंख निर्मल
और ताजी और
तेजस्वी हो
जाएगी, और
आप मुझे देखते
रहेंगे।
अगर आपने
ठीक से, अपलक
मुझे देखा, तो कई बार
ऐसा होगा कि
मैं आपको यहां
खो गया मालूम
पडूंगा। कि
नहीं, आंख
पूरी खुली
होगी, मैं
यहां नहीं
होऊंगा। जब भी
ऐसा मालूम पड़े
तो परेशान न
हों, घबराएं
न, वह ठीक
क्षण है। उसका
अर्थ हुआ कि
आपकी आंख सध
गई। जब मैं न
दिखाई पडूं
समझना कि आंख
सध गई। ठीक
जगह पर है, वहां
से ध्यान में
गति हो जाएगी।
किसी को मैं
बहुत बड़ा हो
गया मालूम पड़
सकता हूं किसी
को बहुत छोटा
हो गया मालूम
पड़ सकता हूं उससे
भय न लेना।
किसी को मेरी
जगह सिर्फ
प्रकाश ही
दिखाई पड़ सकता
है, उससे
भी परेशान न
हों। जो भी हो।
अगर यहां कुछ
भी न बचे, खाली
स्थान रह जाए,
तो उस खाली
स्थान पर आंखें
गड़ाए
रखना। तीस
मिनट आंखें गड़ाए
रखना है।
खड़े
होकर यह
प्रयोग होगा।
आप कूदते
रहेंगे, चिल्लाते
रहेंगे, हू
की आवाज करते
रहेंगे और बीच—बीच
में मैं—मैं
तो चुप रहूंगा,
हाथ से आपको
इशारा करूंगा—जब
मैं हाथ नीचे
से ऊपर की तरफ
ले जाऊं, तब
आप अपने भीतर
अनुभव करना कि
पूरे प्राणों
की शक्ति, आपकी
कुंडलिनी उठ
रही, ऊपर
की तरफ दौड
रही, ऊर्ध्व
यात्रा पर जा
रही। आप एक
ज्योति बन गए,
लपट, और
ऊपर की तरफ जा
रहे। जोर से
चीख आएंगी, चिल्लाएं, नाचे और ऊपर
की तरफ जो
भीतर की शक्ति
जग रही है उसको
साथ दें।
पहले
मैं ऊपर हाथ
ले जाऊंगा।
बार—बार ऊपर
हाथ ले जाऊंगा।
जब मुझे लगेगा
कि आप उस
स्थिति में आ
गए बहुत से
मित्र कि आपके
भीतर की ऊर्जा
नाच रही है, तब
मैं हाथ ऊपर
से नीचे की
तरफ लाऊंगा, वह परमात्मा
के लिए
निमंत्रण है
कि इतने लोग
इतने प्यास से
भरकर नाच रहे
हैं तो
परमात्मा
नीचे उतरे। और
जब परमात्मा
की शक्ति नीचे
मैं, हाथ
नीचे की तरफ
लाऊंगा, तब
भी आप जितनी
शक्ति लगाकर
कूद सकें, चिल्ला
सकें, चिल्लाएं—तो
आपको उस शक्ति
का स्पर्श
आपके रोएं —रोएं
में, आपके
हृदय की धड़कन—
धड़कन तक पहुंच
जाएगा।
पहले
सारे लोग खड़े
हो जाएंगे।
दूर—दूर खड़े
होंगे। थोड़ा
फासला कर
लेंगे। चारों
तरफ,
मेरे पीछे
भी आ जाएं, ताकि
मैं आपको
दिखाई पड़ता
रहूं। पीछे
मैं खड़ा हो
जाऊंगा तो
आपको दिखाई
पड़ता रहूंगा।
THANK YOU GURUJI
जवाब देंहटाएं