ध्यान
योग शिविर
29
मार्च 1972,
प्रात:
माऊंट
आबू, राजस्थान।
सूत्र
:
सब्रह्मा
सशिव सेत्र सोsक्षर
परम: विराट्।
स एव
विष्णु: स प्राण:
स कालोsग्रि
स चन्द्रमा:।।8।।
स एव
यद्भूतं यच्च
भव्यं
सनातनम् ।
ज्ञात्वा
तं मृत्युमत्योति
नान्य: पन्या
विमुक्तये।।
9।।
सर्व
भूतस्थमात्मानं
सर्वभूतानि चात्मनि।
उसी
को ब्रह्मा, शिव,
इंद्र, अक्षर
ब्रह्म, परम
विराट, विष्णु
प्राण, काल—अग्रि
व चंद्रमा
कहते हैं।।8।।
वह
व्यक्ति
जन्म—मृत्यु
के चक्कर से
छूट जाता है, जो
इस तत्व को
समझ लेता है
कि जो पहले हो
चुका है, अथवा
आगे होगा, वह
सब वही है।
इसको छोड्कर
मोक्ष का अन्य
कोई रास्ता
नहीं है।। 9।।
वह
मनुष्य परमात्मा
को पा लेता है, जो
आत्मा को
समस्त भूतों
में और समस्त
भूतों को
आत्मा में
व्याप्त
देखता है।
इसके अतिरिक्त
और कोई दूसरा
उपाय नहीं
है।। 10।।
उस
परम रहस्य के
नाम हैं अनेक; क्योंकि
मूलत:, वस्तुत:
उसका कोई नाम
नहीं है। नाम
के संबंध में
सबसे पहले
थोड़ी बातें
समझ लें।
प्यास
है मनुष्य के
मन में गहरी, प्रार्थना
भी उठती है, लेकिन उस
अनाम को
पुकारें कैसे?
रोना भी हो
उसके चरणों
में तो कहां
उसके चरण खोजें?
प्राणों
में गज उठती
भी हो उसके
लिए, किस
दिशा में जाए
वह गज? पैर
दौड़ना भी
चाहते हों
उसकी ओर, कहां
है उसका मंदिर?
कोई उसका
पता—ठिकाना
नहीं, कोई
उसकी राह नहीं,
कोई उसकी
दिशा नहीं।
क्योंकि सभी
दिशाएं उसकी
हैं, सभी
राहें उसकी
हैं। और
इंच—इंच उसका
मंदिर है।
आदमी
की बड़ी कठिनाई
है। क्योंकि
आदमी दिशा में
ही चल सकता है, अदिशा
में आदमी
चलेगा कैसे? और आदमी राह
पर ही चल सकता
है। सभी राह
जिसकी हो, या
कोई राहें
जिसकी न हों, वहां चलना
उसे असंभव हो
जाता है। और
आदमी जब भी
पुकारेगा तो
उसे नाम
चाहिए। स्मरण
के लिए ही सही,
उसे नाम
चाहिए।
लेकिन
परमात्मा का
कोई नाम नहीं
है। परमात्मा
की तो बात दूर, इस
जगत में किसी
चीज का भी कोई
नाम नहीं है।
हम कहते हैं, हम उपयोग
करते हैं, वह
उपयोग भी
जरूरी है।
लेकिन उपयोग
में खतरा भी
है। क्योंकि
नाम का इतना
उपयणे होता है
कि धीरे—धीरे
वस्तु जो अनाम
थी, वह गौण
हो जाती है और
नाम
महत्वपूर्ण
हो जाता है।
एक
बच्चा पैदा
होता है, कोई
नाम लेकर आता
नहीं। कोरा कप्ताज
होता है।
लेकिन इस
विराट जगत में
उसके ऊपर कोई
नाम चिपकाना
ही पड़ेगा, नहीं
तो उसे बुलाना
भी मुइश्कल हो
जाए। उससे बात
करनी असंभव हो
जाएगी। एक
झूठा नाम उस
पर लगा देंगे
तो सब आसान हो
जाएगा। उसे
बुला सकेंगे,
बात कर
सकेंगे, इंगित—इशारा
कर सकेंगे।
उससे कुछ कह
सकेंगे।
संवाद संभव हो
जाएगा, संबंध
निर्मित
होगा। यह बड़े
मजे की बात है
कि वास्तविक
बच्चे से
संबंध
निर्मित होना
मुश्किल है, लेकिन एक
नाम जो कि
वास्तविक
नहीं है, सब
संबंधों का
आधार बन
जाएगा।
सब
नाम आदमी के
दिये हुए हैं, वस्तुएं
अनाम हैं।
अस्तित्व
अनाम है। खतरा
शुरू हो गया
उपयोगिता के
साथ ही। बिना
नाम के बच्चे
का जीना
मुश्किल
होगा। और नाम
के साथ
जीते—जीते
धीरे—धीरे यह
भूल ही जाएगा
वह कि मैं
बिना नाम के
पैदा हुआ था
और बिना नाम
के ही मरूंगा।
और चाहे कितना
ही नाम मेरे
ऊपर लिख दिया
गया हो, मेरे
भीतर नाम का
कोई प्रवेश
नहीं हो सकता।
अनाम ही मैं
जियूगा।
दूसरे भला
मुझे नाम से
पुकारें, कहीं
मैं भी इस
भांति में न
पड़ जाऊं कि यह
नाम ही मैं
हूं। लेकिन
सभी इस भांति
में पड़ जाते
हैं। फिर आदमी
नाम के लिए
जीने लगता है,
मरने लगता
है। लोग कहते
हैं, नाम
को बचाने के
लिए जान दे
देंगे। नाम की
इज्जत, गैर—इज्जत,
प्रतिष्ठा
बड़ी
महत्वपूर्ण
हो जाती है।
अगर आपका नाम
किसी ने ठीक
से न लिया, तो
भी पीड़ा
पहुंचती है।
अगर नाम में
आपके किसी ने
थोड़ी भूल—चूक
कर दी, तो
भी कष्ट होता
है। नाम काफी
गहरे उतर गया
मालूम पड़ता
है। उपयोगिता
तक ठीक था, लेकिन
यह तो प्राण
बन गया। और जो
प्राण था—जो
अनाम है—वह भूल
जाएगा।
जैसे
व्यक्ति के
लिए नाम की
जरूरत पड़ जाती
है,
उसके बिना
जीवन को चलाना
कठिन है, वह
एक उपयोगिता
है, अनिवार्य
उपयोगिता है,
वैसे ही जब
भी, जब भी
उस परम सत्य
की खोज में
कोई लगता है
तो उसे लगता
है कि कोई नाम हो।
इन नामों के
भी फायदे हैं,
इन नामों के
भी खतरे हैं।
इसलिए
पहले सूत्र
में कैवल्य
उपनिषद के ऋषि
ने शिव की
चर्चा की है, वह
उसका प्यारा
नाम है। लेकिन
तत्काल दूसरे
सूत्र में वह
कहता है— और सब
नाम भी उसी के
हैं। यह
भ्रांति न हो
जाए कि वही एक
नाम
महत्वपूर्ण है।
इसलिए ऋषि
कहता है उसी
को—जिसकी उसने
चर्चा की है
पहले सूत्र
में—ब्रह्मा
भी कहा है शिव भी
कहा है, इंद्र
भी कहा है, अक्षर
ब्रह्म भी कहा,
परम विराट
भी कहा है, विष्णु
भी कहा है, प्राण
भी कहा है
काल—अग्रि भी
कहा है, चंद्रमा
भी कहा है। यह
सभी नाम उसके
हैं। और भी
हजार नाम हैं।
लेकिन इन
नामों में जो
मौलिक
कोटियां हो
सकती हैं, वह
सब सम्मिलित
कर ली गयी
हैं। जैसे
ब्रह्मा, विष्णु
महेश, यह
तीन
हिंदू—चिंतना
की कोटियां
हैं। फिर हिंदू
जितने भी नाम
हैं वह उन तीन
में से किसी
एक से संबंधित
होंगे।
तो
यह तीन मूल
कोटियां हैं।
और इन तीन मूल
कोटियों का
कारण है।
हिंदू—चिंतन
कई अर्थों में
बहुत
वैज्ञानिक
है। मनोवैज्ञानिक
है। और उसने
जो कुछ भी
निर्धारित
किया है, वह
किसी गहरी
जरूरत को
सोचकर
निर्धारित
किया है।
मनुष्य के
भीतर भी तीन
प्रकार के मन
हैं। और
मनुष्य भी तीन
तरह के मनुष्य
हैं। और अगर
हम मनुष्यों
को बांटें, तो उसमें
तीन तरह के
मनुष्य हमें
मिलेंगे।
तीन
की संख्या
हिदू—चितन में
बड़ी
महत्वपूर्ण है।
और पहले तो
ऐसा सोचा जाता
था कि यह
सिर्फ सांकेतिक
है,
लेकिन
विज्ञान
जितने गहरे
गया वस्तुओं
में, उतना
ही वितान को
भी लगा कि तीन
की इकाई महत्वपूर्ण
मालूम पड़ती
है। क्योंकि
जब अणु का विस्फोट
किया तो पता
चला कि अणु के
जो घटक—अंग हैं,
वे तीन
हैं। 'इलेक्ट्रॉन',
'न्यूट्रॉन ',
'पॉजीट्रॉन'। वह अणु के
घटक— अंग हैं।
तीन से मिलकर
ही इस जगत की
मौलिक इकाई
निर्मित हुई
है। और फिर
उसी मौलिक
इकाई पर सारा
जगत निर्मित
है। अगर इस
जगत को हम
तोड़ते जाएं
नीचे, तो
तीन की संख्या
उपलब्ध होती
है और तीन के
बाद तोड़े तो
कुछ भी उपलब्ध
नहीं होता, शून्य हो
जाता है। उस
शून्य को हमने
परम सत्य कहा
है। अनाम। उस
शून्य से जो
पहली इकाई
निर्मित होती
है तीन की, उसको
हमने ब्रह्मा,
विष्णु, महेश
कहा है।
और
ब्रह्मा, विष्णु
महेश कहना और
भी अर्थों में
गहरा है। यह
तीन की संख्या
ही की बात
नहीं है। 'इलेक्ट्रॉन',
'पॉजीट्रॉन '
और 'न्यूट्रॉन
' जिन
चीजों की
सूचना देते
हैं, ये
तीन शब्द भी
उन्हीं की
सूचना देते
हैं। इन तीन
विद्युतकण
में जिनसे जगत
का मौलिक आधार
बना हुआ है, वितान की
दृष्टि में एक
तत्व विधायक
है, एक
निषेधक है और
एक तटस्थ। एक 'पाजिटिव' है, एक 'निगेटिव' है, एक 'न्यूट्रल' है। और इन
तीन—ब्रह्मा विष्णु
महेश में भी
एक 'पाजिटिव'
है, एक 'निगेटिव ' है और एक ' न्यूट्रल
' है।
इसमें
ब्रह्मा 'पाजिटिव
है, विधायक
है। ब्रह्मा
को
हिंदू—चिंतन
मानता है कि
वह सृष्टि का
आधार है। उससे
ही सृष्टि
निर्मित होती
है। वह
निर्माता है।
वह विधान करता
है, वह
विधायक है।
शिव विध्वंसक
है। निषेधक
है। वह तत्व
इस सृष्टि को
लीन करता है, विलीन करता
है, समाप्त
करता है—'निगेटिव
' है।
विष्णु इन
दोनों के मध्य
में तटस्थ है,
वह
सम्हालता है।
न वह निर्माण
करता है, न
वह विध्वंस
करता है। वह
केवल बीच का
सहारा है।
जितनी देर
सृष्टि होती
है, वह
तटस्थ— भाव से
उसे सम्हालता
है।
न
तो 'न्यूट्रॉन',
'पॉजीट्रॉन '
शब्दों का
कोई मूल्य है।
क्योंकि वे भी
दिये गये नाम
हैं। न
ब्रह्मा, विष्णु
महेश का कोई
मूल्य है। वे
भी दिये गये नाम
हैं। लेकिन
धर्म जब नाम
देता है और
विज्ञान जब
नाम देता है, तो एक फर्क
होता है। वह
फर्क यह होता
है कि विज्ञान
जब नाम देता
है, तो वह
नाम जो होते
हैं, अवैयक्तिक
होते हैं। और
धर्म जब कोई
नाम देता है
तो वे नाम
वैयक्तिक
होते हैं, 'पर्सनल
' होते
हैं। क्योंकि
धर्म का
प्रयोजन इससे
कम होता है कि
नाम जिसके
संबंध में
इशारा कर रहा
है उसको बताएं
इससे ज्यादा
होता है कि इस
इशारे पर जो
चलेगा, उसका
उससे संबंध हो
जाए जिसके
प्रति इशारा
किया गया है।
संबंध बनाने
के लिए
व्यक्ति
निर्मित करना
होता है।
जैसे
'न्यूट्रॉन 'से कोई संबध
निर्मित नहीं
हो सकता। आप
प्रयोगशाला
में उसका
उपयोग कर सकते
हैं, हिला—डुला
सकते हैं, काट—पीट
सकते हैं, गतिमान
कर सकते हैं, आप उपयोग कर
सकते हैं उसका,
लेकिन 'न्यूट्रॉन
' से आपका
कोई संबध
निर्मित नहीं
होता।
क्योंकि 'न्यूट्रॉन'
कोई
व्यक्ति नहीं
है। लेकिन शिव
से आपका संबंध
निर्मित हो
सकता है, क्योंकि
वह व्यक्ति
है। धर्म और
विज्ञान जो शब्दावली
का प्रयोग
करते हैं, उसमें
यह बुनियादी
फर्क है।
विज्ञान
के शब्द 'इमपर्सनल'
होंगे।
अवैयक्तिक
होंगे। धर्म
के शब्द 'पर्सनल'
होंगे, वैयक्तिक
होंगे। एक
व्यक्ति
निर्मित होना
चाहिए शब्द
से। लेकिन
कहीं यह
भ्रांति न हो
जाए कि यह तीन
तीन हैं, इसलिए
हमने
त्रिमूर्ति
निर्मित की।
ब्रह्मा, विष्णु
महेश के तीन
चेहरे एक ही
मूर्ति में बनाए।
यह तीन तीन
तरह के 'फंआन
' हैं।
लेकिन जिससे
यह, जिसका
यह काम कर रहे
हैं, वह इन
तीनों के भीतर
एक है। उसका
कोई चेहरा नहीं
है। यह तीन
चेहरे तीन
प्रक्रियाओं
के हैं। स्वयं
अस्तित्व का
कोई चेहरा
नहीं है। वह 'फेसलेस' है।
इसलिए
अगर ब्रह्मा, विष्णु
महेश की
त्रिमूर्ति
आपको मिले, तीनों चेहरे
अलग कर दें, फिर जो बच
जाए वह
अस्तित्व का
सूचक है। और
ये तीनों
चेहरे
अस्तित्व की
तीन
अभिव्यक्तियां
हैं। और
विज्ञान
स्वीकार करता
है कि अस्तित्व
निर्मित नहीं
हो सकता इन
तीन शक्तियों
के बिना।
विधायक न हो
तो अस्तित्व
का जन्म नहीं
होता। विध्वंसक
न हो तो जो चीज
जन्म हो जाए
वह फिर कभी
रूपांतरित
नहीं हो सकती।
और अगर स्थापक
न हो, तो
जन्म भी हो
जाए तो कोई
चीज स्थिति को
उपलब्ध नहीं
हो सकती। ये
तीन तो
अनिवार्य हैं
किसी भी वस्तु
के होने के
लिए।
तो
धर्म के
विज्ञान के ये
तीन मौलिक अणु
हैं—ब्रह्मा, विष्णु
महेश। ये तीन
उसके नाम हैं।
फिर जगत में
जितने भी
देवी—देवता
निर्मित हुए
हैं, नाम
निर्मित हुए
हैं, उन
तीन में से
किसी एक से
संबंधित
होंगे। इसलिए
हिंदू कहते
हैं कि फलां
अवतार विष्णु
का अवतार है।
उसका मतलब यह
है, वह
विष्णु की
कोटि में आता
है। फलां शिव
का अवतार है; तो वह शिव की
कोटि में आता
है। फलां
अवतार ब्रह्मा
का अवतार है, तो वह
ब्रह्मा की
कोटि में आता
है। लेकिन आप
देखें—सभी
अवतार विष्णु
के हैं।
क्योंकि ब्रह्मा
का काम
निर्माण के
साथ समाप्त हो
जाता है।
अवतरण की कोई
जरूरत नहीं
है। शिव का
काम विध्वंस
में पड़ेगा।
अवतरण की कोई
जरूरत नहीं
है। विष्णु ही
अवतरित होता
चला जाता है
जब तक सृष्टि
है।
तो
चाहे राम हों, चाहे
कृष्ण हों, चाहे कोई भी
हो, विष्णु
ही अवतरित
होता चला जाता
है। यह विष्णु
के अवतार की
जो शृंखला है,
कहती है कि
स्थापक जो है
उसको ही आना
पड़ेगा बार—बार।
निर्माता एक
बार इशारा
करेगा, निर्माण
हो जाएगा।
विध्वंसक एक
बार विध्वंस करेगा,
समाप्त हो
जाएगा। लेकिन
जो सम्हालेगा
पूरे समय, उसे
ही बार—बार
आना पड़ेगा।
इसलिए अवतरण
सिर्फ विष्णु
का है।
ये
तीन
हिंदू—दृष्टि
से ऋषि ने
विचार में ले
लिये हैं।
लेकिन औरों की
भी गणना की है।
इद्र को भी
गिना है।
इंद्र परम
शक्ति का नाम
नहीं है।
ब्रह्मा, विष्णु
महेश की कोटि
का नाम नहीं
है। लेकिन व्यक्तियों
पर अगर हम
ध्यान दें, तो इन परम
कोटि तक
पहुंचनेवाले
व्यक्तियों की
दृष्टि.. ऐसे
व्यक्ति
खोजना जिनकी
इतनी गहराई तक
दृष्टि
पहुंचती हो कि
वह ब्रह्मा, विष्णु महेश
के प्रति
प्रेम से भर
जाएं कठिन है।
क्योंकि इन
तीनों का जो
उपयोग है, वह
अत्यंत
वैतानिक है।
ब्रह्मा से आप
क्या मण सकते
हैं। इनका जो
उपयोग है वह
अस्तित्व के
मूल आधार में
है। लेकिन
आदमी कमजोर
है। बहुत कमजोर
है। उसकी
कमजोरी इतनी
गहन है कि वह
इतने मौलिक
आधारों तक तो
उसका कोई
संबंध निर्मित
नहीं हो
पाएगा।
इसलिए
सारे जगत के
धर्मों ने
ईश्वर की भी
धारणा की और
देवताओं की भी
धारणा की।
देवता की धारणा
उनके लिए है
जो ईश्वर की
धारणा तक न जा
सकें। तो तीन
हम बातें समझ
लें।
एक
तो परम
अस्तित्व है
निराकार। बुद्ध
जैसे लोग उससे
संबंधित होते
हैं। इसलिए वह
ईश्वर, ब्रह्मा,
विष्णु
महेश, सबको
कह देते हैं
बेकार। यह
जानकर मजा हतो
कि जब बुद्ध
को निर्वाण, समाधि
उपलब्ध हुई, जब पहली बार
वह शान को
उपलब्ध हुए तो
बौद्ध—कथाएं
बड़ी मधुर हैं।
हिंदुओं को
उससे चोट भी
बहुत पहुंची। उन
सबको चोट
पहुंची जो
ब्रह्मा, विष्णु
महेश को परम
मानते थे। जब
बुद्ध को ज्ञान
हुआ तो
ब्रह्मा, विष्णु
महेश, सभी
हाथ जोड़कर
बुद्ध के
चरणों में सिर
रखकर उपस्थित
हुए। यह कथा
बड़ी मधुर है।
यह कथा यह कहती
है कि परम
अस्तित्व
ब्रह्मा, विष्णु
महेश से भी
पार है। और जब
किसी व्यक्ति
को परम
अस्तित्व में
प्रवेश मिले
तो ब्रह्मा, विष्णु महेश
भी उसे
नमस्कार
करेंगे ही।
बुद्ध
को ज्ञान हो
गया,
लेकिन
बुद्ध चुप रह
गये। क्योंकि
बुद्ध को लगा,
जो मैं कहना
चाहता हूं उसे
कहना मुश्किल
है और अगर कह
भी दूं तो उसे
समझेगा कौन? सात दिन तक
बुद्ध चुप
बैठे रहे। कथा
कहती है कि
देवताओं में
बड़ी हलचल मच
गयी। देवताओं
में! आदमियों
को तो खबर ही
नहीं थी।
देवताओं में
बहुत हलचल मच
गयी। वह बड़े
उदास होने लगे,
क्योंकि
बुद्ध जैसी
घटना कभी—कभी
कल्पों में घटती
है। और अगर
बुद्ध चुप रह
गये तो उनका
होना, न—होना
इस विराट चेतन
जगत के लिए
किसी संबंध का
न रह जाएगा।
पर सात दिन
उन्होंने
प्रतीक्षा
की। क्योंकि
बुद्ध उस परम
अवस्था में थे
जहां देवता भी
मौजूद हो तो
बाधा पड़े।
इसलिए वे दूर
खड़े हुए सात
दिन तक
प्रतीक्षा
किये कि बुद्ध
बोलें, कि
बुद्ध बोलें।
वे भी आतुर थे
कि जानें उस परम
अस्तित्व के
संबंध में।
यह
बहुत मजे की
बात है, ब्रह्मा,
विष्णु
महेश भी आतुर
थे कि जानें
उस परम घटना के
संबंध में, जिसको बुद्ध
उपलब्ध हुए।
क्योंकि
ब्रह्मा, विष्णु
महेश भी उसके
बाहरी चेहरे
हैं। वह जो तीनों
चेहरों के
भीतर छिपा है,
बुद्ध वहां
प्रवेश कर गये।
उनसे पूछें कि
क्या है वहा? सात दिन
बुद्ध चुप रहे,
तब फिर
उन्हें बाधा
डालनी पड़ी। तब
उन्होंने चरणों
में जाकर
बुद्ध से
निवेदन किया
कि आप बोलें।
बुद्ध ने कहा
जो मैं
बोलूंगा, जो
मैंने जाना, उसे कहा
नहीं जा सकता।
अगर कहूं भी
तो उसे समझेगा
कौन? ब्रह्मा,
विष्णु
महेश यह भी न
कह सके कि
कम—सें—कम हम
समझ लेंगे।
क्योंकि वे भी
बाहरी चेहरे
हैं अस्तित्व
के।
अंतरात्मा
नहीं, द्वारपाल
हैं।
उदास
हो गये, रोने
लगे, प्रार्थना
करने लगे, फिर
उन तीनों ने
मिल कर विचार
किया और बुद्ध
को कहा कि हम
आपकी बात
समझते हैं कि
जो आप कहना चाहते
हैं, वह
नहीं कहा जा
सकता। कभी
नहीं कहा गया।
सदा से हमने
सुना है कि वह
कहा नहीं जा
सकता। और यह भी
हम मानते हैं
कि आप कहेंगे
भी तो कोई समझ
न पाएगा। कोई
समझ भी लेगा
तो आचरण कठिन
है। लेकिन फिर
भी हम
प्रार्थना
करते हैं कि
कुछ ऐसे लोग भी
हैं जो बिलकुल
सीमात पर खड़े
हैं। सीमात पर
खड़े हैं।
संसार में ही
हैं, लेकिन
आखिरी सीमा पर
खड़े हैं। और
आपका बोलना मात्र
कि बुद्ध
बोलें—यह नहीं
कि क्या
बोलें—आपका
बोलना मात्र,
आपका होना
मात्र उनके
लिए धक्का हो
जाएगा और वह
छलांग लगा
लेंगे। और अगर
आप सौ लोगों
से बोलें और
एक भी छलांग
लगा गया तो भी
बड़ी अनुकंपा
है। इसलिए बुद्ध
राजी हुए।
इससे
हिंदू मन को
चोट पहुंची।
जिस हिंदू मन
को चोट पहुंची, वह
समझ नहीं
पाया। उसे चोट
पहुंची कि
बुद्ध के
सामने और
देवताओं को, ब्रह्मा, विष्णु महेश
को खड़ा करना, यह कथा
अच्छी नहीं
है। लेकिन यह
कथा बड़ी मूल्यवान
है और हिंदू
विचार के
अत्यंत
अनुकूल है।
क्योंकि
ब्रह्मा, विष्णु
महेश को हमने
केवल एक संसार
का निर्माता,
सम्हालनेवाला,
मिटानेवाला
माना है। वे
इस संसार के
ही हिस्से
हैं। 'फंक्टानरीज'
हैं। जिस
दिन संसार
विलीन हो जाता
है, वे भी
विलीन हो जाते
हैं। उनका फिर
कोई मूल्य
नहीं रह जाता
है। तब जो शेष
रह जाता है, उसमें ही
प्रवेश है
समाधि में।
लेकिन उस परम
तक जाना तो
बहुत मुश्किल!
ब्रह्मा, विष्णु
महेश तक भी
जाना बहुत
मुश्किल है।
आदमी को और भी
नीचे की
हैसियत के
देवता चाहिए,
जिनसे उसका
संबंध
निर्मित हो
सके। तो आदमी
ने ऐसे देवता
निर्मित
किये। इंद्र
उनका प्रतीक है।
इस
सूत्र में
इंद्र उन सब
देवताओं का
प्रतीक है, जो
मनुष्य की
कामनाओं से
निर्मित हुए
हैं, मनुष्य
की वासनाओं से
निर्मित हुए
हैं। आदमी मागता
है जिनसे कुछ।
इसलिए अगर हम
वेद को पढ़ें, तो वेद में
सौ में से
निचानबे सूत्र
इंद्र आदि
देवताओं के
लिए प्रयुक्त
हुए हैं। और
जितने
सूत्रों में
इंद्र आदि
देवताओं की
प्रार्थना की
गयी है, वे
सब
प्रार्थनाएं
मनुष्य के मन
की अत्यंत साधारण
वासनाएं हैं।
किसीकी गाय ने
दूध देना बंद
कर दिया है तो
वह प्रार्थना
करता है—हें
इंद्र, मेरी
गाय का दूध
वापिस लौट आए।
किसी के खेत
में वर्षा
नहीं हुई है, वह
प्रार्थना
करता—हे इंद्र,
मेरे खेत
में वर्षा हो
जाए।
इस
संबंध में
दो—तीन बातें
खयाल लेनी
जरूरी है—कि
हिंदू चिंतन
सब तरह के
मनुष्यों को
मार्ग मिल सके, इसकी
चेष्टा है। अब
जिसकी गाय का
दूध खो गया है,
जिसके खेत
में वर्षा
नहीं हुई है, जिसकी पली
बीमार हो गयी
है, जिसका
बच्चा अपंग हो
गया है, यह
परम विराट से
क्या
प्रार्थना
करे? उस
परम विराट के
समक्ष तो वाणी
चुप हो जाएगी,
और
प्रार्थना
नहीं की जा
सकती। यह
ब्रह्मा, विष्णु
महेश से भी
क्या कहे।
क्योंकि इतने
छोटे काम उनके
काम नहीं हैं।
यह पूएर जगत
को बनाना, मिटाना,
यह उनकी
व्यवस्था है।
यह कमजोर आदमी
कहां जाए? इसके
मन को कहां
संतोष होगा? यह कहां
अपने बोझ को
रख सकेगा? वह
विराट इतना
बड़ा है कि उस
पर बोझ रखने
का उपाय नहीं।
ब्रह्मा, विष्णु
महेश इतने दूर
की क्रियाओं
में संलग्र
हैं जिससे इन
व्यक्ति का
कोई लेना—देना
नहीं—कि जगत
बने, कि
जगत मिटे, कि
जगत संभले। यह
इसकी कल्पना
के भी बाहर
है।
इसका
अपना एक
छोटा—सा जगत
है,
जहां इसका
बच्चा बीमार
है, जहां
घर का छप्पर
ग़रि गया है, जहां गाय को
दूध नहीं आया
है, यह
इसका छोटा—सा
जगत है। इस छोटे—से
जगत में
ब्रह्मा, विष्णु
का उपयोग करना
ऐसे ही
है—जहां सुई
की जरूरत हो
वहां तलवार का
उपयोग करना।
उससे और कपड़ा
फट जाएगा। तो
इसके लिए और
एक कोटि हिदू
चिंतन ने
निर्मित की, जो इंद्रादि
देवताओं की
है। इसलिए
बुद्ध का या
महावीर का वेद
के प्रति कोई
अच्छा भाव
नहीं है। उससे
भी हिंदू मन
को बहुत चोट
लगी है।
उपनिषदों का
भी वेद के
प्रति बहुत
अच्छा भाव
नहीं है।
कृष्ण का भी
वेद के प्रति
बहुत अच्छा
भाव नहीं है।
हो नहीं सकता।
वह कारण यह
नहीं है कि
वेद के प्रति
बुरा भाव है, वह कारण कुल
इतना है कि
वेद
निव्यानबे
मौकों पर अति
साधारण आदमी
के जगत की
चिंता में
सलग्र हैं।
एक
दृष्टि से
देखा जाए तो
वेद परम पथ
नहीं रह जाते
हैं। पर एक
दृष्टि से
देखा जाए तो
परम मानवीय
पंथ हो जाते
हैं। 'टूर
ह्यूमेन '।
और आदमी के
निकट
परमात्मा को
लाना पड़ेगा, तो ही आदमी
परमात्मा के
निकट जा सकता
है। एक तो
उपाय है कि
आदमी उठे, उठे,
उठे और
परमात्मा के
निकट जाए। ऐसे
बहुत कम आदमी
हैं जो इतना
उठें, इतना
उठें और
परमात्मा के
निकट जाएं। एक
उपाय यह है कि
परमाआ को हम
उतारें, उतारें,
उतारें और
आदमी के निकट
लाएं। तो
इंद्र उस उतारने
की प्रक्रिया
की आखिरी कड़ी
है। इसलिए इस
सूत्र में
इंद्र आदि
देवताओं की भी
गणना की है।
फिर
कुछ और शब्दों
का भी प्रयोग
किया है। 'अक्षरब्रह्म
'। कुछ लोग
हैं, विशेषकर
दार्शनिक
चितना के लतो,
उनके लिए
व्यक्तिवाची
सभी शब्द
अर्थहीन हैं।
जैसा मैंने
कहा कि
सामान्यतया
अगर व्यक्ति न
हो परमात्मा,
तो हमारा
संबंध नहीं बन
पाता। ऐसे ही
जो दार्शनिक
चिंतन के लतो
हैं, अगर
व्यक्ति हो
परमात्मा तो
उनका संबंध
नहीं बन पाता।
व्यक्ति होते
ही से उन्हें
बेचैनी शुरू
हो जाती है।
उन्हें
निराकार, निर्व्यक्ति
चाहिए।
जैसे
शंकर हैं। तो
ब्रह्म से
नीचे की कोई
भी बात शंकर
के लिए खटकेगी।
इसका कारण
नीचे की बात
नहीं है। इसका
कारण शंकर की
अपनी ऊंचाई
है। शंकर को
ब्रह्मा, विष्णु
महेश अपने से
भी नीचे मालूम
पड़ेंगे। तो
शंकर के लिए, या शंकर के
जैसे
व्यक्तित्व
के लिए अक्षर
ब्रह्म—यह एक
प्रतीक है।
इसके भीतर वे
सब नाम आ जाते
हैं, चाहे
हीगल ने दिये
हों, चाहे
कांट ने दिये
हों, चाहे
कुइनया के और
किसी कोने के
अलग चिंतकों ने
दिये हों, 'एकोत्थूट'
कहा हो, कोई
और नाम दिया
हो, वे सब
नाम
अक्षरब्रह्म
में समा जाते
हैं।
अक्षरब्रह्म
का अर्थ है, वह
आत्यंतिक
ऊर्जा जो कभी
क्षय को
उपलब्ध नहीं
होती। जो सदा
बनी रहती है।
सब
परिवर्तनों
के बीच। विनाश,
सृजन, सबके
बीच जो ऊर्जा
बनी ही रहती
है—वह
अक्षरब्रह्म
है। परम विराट
है।
अक्षरब्रह्म
में उस ऊर्जा
का तो संकेत
है जो सदा बनी
रहती है, लेकिन
विस्तार का
कोई संकेत
नहीं है। उसकी
विराटता का
कोई संकेत
नहीं है। कुछ
लोग हैं, जिनके
लिए परमात्मा
विराट की तरह
अवतरित होता
है। कुछ लोग
हैं, जहां
भी विराट होता
है उन्हें
परमात्मा की
झलक मिलती है।
विराट सागर को
देखकर, विराट
आकाश को
देखकर। जहां
भी फैलाव है
अंतहीन।
शाश्वत ऊर्जा
में एक तरह का
फैलाव है।
विराट आकाश
में दूसरे तरह
का फैलाव है।
दोनों
को समझ लें।
शाश्वत
ऊर्जा में जो
फैलाव है वह
समय की धारा का
है। जो पहले
भी थी, अभी भी
है, आगे भी
होगी। 'टाइम
डायमेन्सन, 'काल में
फैला हुआ है।
आकाश, अभी
फैला हुआ है, इसी वक्त
फैला हुआ है, सब दिशाओं
में। तो आकाश
का फैलाव 'स्पेस
डायमेन्सन' है। तो कुछ
लोग हैं जो
काल—फैलाव को
अनुभव कर पाते
हैं। कुछ लोग
हैं जो इसी
क्षण जो आकाश
का, स्थान
का, 'स्पेस'
का फैलाव है,
उसको अनुभव
कर पाते हैं।
व्यक्तियों
पर निर्भर
करेगा। जैसे
विचारक आदमी
हणो तो
काल—फैलाव को
अनुभव कर
सकेगा।
ध्यानी होगा
तो अभी, इसी
क्षण आकाश के
फैलाव को
अनुभव कर
सकेगा।
तो
अक्षरब्रह्म
कहा है
विचारकों के
लिए। वह उनकी
कोटि है। फिर
जितने
विचारकों ने
नाम दिये हों, वह
उस कोटि के
भीतर आते हैं।
और परम विराट
कहा है
ध्यानियों के
लिए। क्योंकि
ध्यानी के लिए
समय मिट जाता
है, ध्यानी
के लिए समय
बचता ही नहीं।
'टाइमलेसनेस
' में, कालातीत
में प्रवेश हो
जाता है। तो
इसी क्षण वह
विराट की तरह
अनुभव होता
है।
खयाल
ले लें।
आकाश
का विराट अभी
मौजूद है। एक
नदी का विराट पीछे
फैला हुआ है, आगे
फैला हुआ है।
कितनी ही लंबी
नदी हो, आगे
और पीछे की
तरफ फैली हुई
है। आकाश अभी,
यहीं, सब
तरफ फैला हुआ
है। ध्यान में
विराट, परम
विराट का
अनुभव होता
है। तो
ध्यानियों ने जो
शब्द चुने हैं,
वह परम
विराट जैसे
हैं।
विचारकों ने
जो शब्द चुने
हैं, वह
अक्षरब्रह्म
जैसे हैं।
लेकिन
इतने से ही
बात समाप्त
नहीं होती।
कुछ और धाराएं
भी मनुष्य की
चेतना में
उतरती हैं।
जैसे, प्राण।
योगियों ने
उसे प्राण की
तरह उगाना है।
योग की जो
परमात्मा के
लिए शब्दावली
है, उसमें
महाप्राण, विराट
प्राण, प्राण,
इस शब्द का
प्रयोग है।
क्योंकि योगी
का जो मार्ग
है, वह
अपने शरीर के
भीतर छिपे हुए
प्राण के
अनुभव का है।
वह अनुभव जब
गहन होने लगता
है, तो वही
प्राण अपने
बाहर भी सब
तरफ अनुभव
होने लगता है।
एक घड़ी आती है
कि सारा जगत
प्राण—ऊर्जा
से भर जाता
है।
बर्गसों
ने अभी— अभी
इसी सदी में
जो शब्द उपयोग
किया है, वह है 'इलान वाइटल'। उसका मतलब
है, प्राण।
परमात्मा के
लिए। योगी
प्राण पर ही
सारा काम कर
रहा है। इसलिए
योग की मौलिक
प्रक्रिया
प्राणायाम
है।
प्राणायाम का
अर्थ है, प्राण
का विस्तार।
प्राण का
फैलाव, प्राण
का अंतहीन
फैलाव। ऐसी
अवस्था ले आनी
है जब मेरा
प्राण सारे
जगत के प्राण
में फैल जाए।
तब जिसका
अनुभव हणो, उसे
महाप्राण कहो,
प्राण कहो,
कोई भी नाम
दो। योग को
ईश्वर के
दूसरे नाम कभी
प्रीतिकर
नहीं रहे हैं,
क्योंकि
योग तो एक बड़ी
वैज्ञानिक
प्रक्रिया है
प्राण के
संशोधन की।
यह
प्राण शब्द एक
अर्थ में
वैतानिक है।
जैसे मैं कहूं
कि हमेशा ऐसा
होता है, जिस
दिशा से आदमी
खोजता है उसी
दिशा का शब्द
अंततः जैसे कि
विज्ञान ने
खोज की, खोज
की तो
विद्युत—कण, या
विद्युत—ऊर्जा
आखिरी शक्ति
मिली।
क्योंकि सारी
खोज ही
विद्युत की थी।
धीरे—धीरे, धीरे—धीरे
वही शब्द
मौलिक हो गया
और जो अंत में
पाया गया उसका
नाम
विद्युत—ऊर्जा
हो गया। ठीक
इसी तरह योग
ने भी शरीर के
भीतर छिपी हुई
विद्युत की खोज
शुरू की। उसका
नाम प्राण है।
और खोजते—खोजते
जितनी गहराई
बढ़ी, उतना
ही योग को
अनुभव हुआ कि
सभी कुछ प्राण
का ही
रूपांतरण है।
यह वृक्ष भी
प्राण का एक
रूप है, पत्थर
भी प्राण का
एक रूप है, मनुष्य
भी प्राण का
एक रूप है। इस
जगत में जो भी
घटित हो रहा
है, उसकी
मौलिक इकाई
प्राण है। एक
कोटि यह है
इसलिए 'प्राण'
को ऋषि ने
जगह दी।
दो
शब्द और रह
जाते हैं। 'काल—अग्रि'
और 'चंद्रमा'। 'काल—अग्रि'। यह जानकर
आप चकित होंगे
कि सिर्फ
महावीर ने आत्मा
को जो नाम
दिया है, वह
हैरान करने
वाला है।
महावीर ने
आत्मा को समय
कहा 'टाइम' — सिर्फ
एक ही आदमी
ने। सिर्फ एक
ही आदमी ने, सिर्फ एक
जैनों की
परंपरा ने
विराट को जो
नाम दिया है, जीवन के
आत्यंतिक को
जो नाम दिया
है, वह है—
समय। इसलिए
जैन ध्यान को
सामायिक कहते हैं।
समय में
प्रवेश कर
जाना। उनका
शब्द बड़ा कीमती
है। ध्यान से
भी ज्यादा
कीमती है। क्योंकि
ध्यान में फिर
भी कहीं भांति
बनी रहती है
कि किसी का
ध्यान।
सामायिक में
वह भी बात समाप्त
हो गयी, सिर्फ
समय में
प्रवेश कर
जाना ही ध्यान
है। स्वयं में
प्रवेश कर
जाना ही ध्यान
है। और स्वयं
का नाम समय
है।
काल—अग्रि, 'टाइम—फायर'। समय को
जिन्होंने
आत्मा का नाम
माना,उनके
मानने के बड़े
कारण हैं। इसे
हम जरा पीछे लौटकर
देखें, तो
खयाल में आ
जाए। एक पत्थर
पड़ा है। पत्थर
का विस्तार
स्थान में
होता है, समय
में नहीं
होता। पत्थर
का जो विस्तार
है वह स्थान
में है, समय
में नहीं है।
पत्थर को समय
का कोई भी पता
नहीं है।
इसलिए
जैन कहते हैं
पत्थर के पास
सबसे स्कूल आत्मा
है। उसे समय
का कोई पता
नहीं है। पौधा
है। उसका भी
विस्तार, फैलाव
स्थान में है,
लेकिन
कहीं—न—कहीं
प्राथमिक रूप
में उसे समय का
भी बोध है।
बहुत स्कूल
में, लेकिन
समय का बोध
है। पौधा बढ़ता
है समय में, बड़ा होता
है। सिर्फ
जैनों ने यह
स्वीकार किया
था अतीत में कि
पौधे को समय
का थोड़ा अनुभव
है। हालांकि
सिद्ध करना
बहुत मुश्किल
था। लेकिन अब
विज्ञान ने सिद्ध
किया है कि
पौधे को समय
का अनुभव है।
पौधे को उम्र
का अपना
थोड़ा—सा बोध
है। उसे अनुभव
है थोड़ा—सा कि
वह कितनी देर
से इस जगत में
है। लेकिन
अतीत का ही, भविष्य का
उसे कोई अनुभव
नहीं है।
फिर
पशु है। तो
पौधे को जैन
मानते हैं कि
उनके पास थोड़ी
विकसित आआ है।
इसलिए पौधे को
भी चोट मारना
हिंसा जैनों
की दृष्टि में
है,
और ठीक है।
उसको भी दुख
पहुंचाना.. तो
महावीर ने तो
कहा है कि सूख
कर फल गिर जाए,
तभी उसे
खाना शाकाहार
है। कच्चे को
तोड़ लेना तो
मासाहार है।
क्योंकि पौधे
को चोट तो
पहुंचने ही
वाली है।
महावीर सिद्ध
नहीं कर पाते
थे, लेकिन
मैंने पीछे
आपको कहा कि
अब विज्ञान
सिद्ध करता है
कि पौधे को
चोट का अनुभव
होता है। हिंसा
होती है और
बहुत निरीह पर
हिंसा है।
क्योंकि वह
कोई उत्तर
नहीं दे सकता,
कोई
प्रतिकार
नहीं कर सकता।
बोल भी नहीं
सकता कि मैं
दुखी हो रहा
हूं।
इसलिए
महावीर ने
वर्जित कर
दिया अपने
भिक्षुओं को
वर्षा में
चलना। उसका
कारण यह नहीं
था कि वर्षा
में भिक्षु को
तकलीफ होगी।
वर्षा में रास्तों
पर पौधे क्या
आते हैं, घास
ऊग आती है, उनको
पीड़ा होगी।
इसलिए सूखी
जगह पर ही
चलना। वर्षा
में सूखी जगह
उन दिनों
खोजनी
मुश्किल थी चलने
के लिए—तो
चलना ही मत।
मल—विसर्जन के
लिए महावीर ने
अपने साधुओं
को कहा है कि
सूखी जगह में
ही मल—विसर्जन
करना। घास—पात
हो तो मल—विसर्जन
मत करना।
क्योंकि वहां
जीवन है। एक
बहुत प्राथमिक
आत्मा वहां
है। वहां समय
का बोध पैदा
हो चुका है।
इसलिए वहां
नुकसान मत
पहुंचाना, किसी
को चोट मत
पहुंचाना।
अब
यह हैरानी की
बात है कि अब
जाकर इस सदी
में विज्ञान
को थोड़ा—सा
खयाल आना शुरू
हुआ है कि पौधे
को भी प्रतीतिया
होती हैं।
महावीर की
संवेदनशीलता
बडी अद्भुत
है। कहते हैं
मल—विसर्जन भी
पौधा हो, घास—पात
हो तो मत
करना। इतना भी
चोट उसे मत
पहुंचाना।
इतना भी दुख
उसे मत देना।
स्मरण रखना कि
वहां भी
व्यक्तित्व
है।
फिर
पशु हैं, महावीर
कहते हैं उनके
पास और भी
विकसित समय
है। उनको समय
का और भी बोध
होता है। वह
थोड़ा—सा
भविष्य का भी
स्मरण रख लेते
हैं। थोड़ा—सा!
जैसे पशु कल
का भोजन भी
इकट्ठा कर
लेता है। पौधा
नहीं करता।
पौधा नहीं कर
सकता। कल का
उसे कोई पता
नहीं है।
पक्षी हैं, वर्षा का
इंतजाम कर
लेते हैं।
उसका मतलब है
कि उन्हें आनेवाले
समय का
कहीं—न—कहीं
कोई स्थूल बोध
है कि कल
मुसीबत हो
सकती है।
चीटियां भोजन
इकट्ठा करती
हैं वर्षा के
लिए। बड़ी
मेहनत उठाती
हैं।
अपनी—अपनी.
जो—जो ला सकती
हैं, लाकर
इकट्ठा कर
लेती हैं, क्योंकि
वर्षा में
जाना बाहर
मुश्किल
होगा। उसका
मतलब है कि ' सूचर ओरिएंटेशन',
भविष्य का
थोड़ा—सा खयाल
है। तो महावीर
कहते हैं, पशुओं
में और भी बड़ा
समय है।
महावीर कहते
हैं यह समय ही
उनके भीतर
आत्मा के
विकास की खबर
दे रहा है।
और
आदमी के भीतर
समय का बड़ा
विस्तार है।
कोई पशु अपनी
मौत के बाबत
नहीं सोच
पाता। वह बहुत
लंबा भविष्य
है। कोई पशु!
इसलिए पशु मौत
से बिलकुल
निश्रित है।
उसको मौत का
कोई अनुभव
नहीं है। खयाल
भी नहीं है।
वह पहले से
मौत के संबंध
में कोई
चिंतन—मनन
नहीं कर सकते।
इस लिहाज से
एक तरह से
सुखी हैं।
क्योंकि मौत
उन्हें पीड़ा
नहीं देती है, जब
आती है तब आ
जाती है।
लेकिन मौत के
पहले उनके मन
में कोई मौत
का चिंतन नहीं
चलता। इसलिए
पशु धर्म को
पैदा नहीं कर
पाते हैं, क्योंकि
धर्म पैदा ही
तब होता है जब
मौत भी आपके
समय के चिंतन
का अंग बन
जाती है।
तो
महावीर कहते
हैं मनुष्य
श्रेष्ठतम है
आत्माओं में, क्योंकि
उसे मौत का
बोध है। लेकिन
मनुष्यों में
भी वे
श्रेष्ठतम
हैं जिन्हें
मौत के बाद के
भी जन्मों का
बोध है।
क्योंकि उनका
समय और भी
विस्तीर्ण हो
गया। और उनमें
भी वे और श्रेष्ठतम
हैं जिन्हें
समस्त जन्मों
और मौतों के
पार परम
अस्तित्व का
बोध है।
क्योंकि उनका समय
आत्यंतिक रूप
से विकसित हो
गया है। जिन्हें
आवागमन के पार
जाने का भी
बोध है, वह
भी उनकी चिंता
है, वह फिर
श्रेष्ठतम
आत्माएं हो
गयीं।
तो
महावीर ने समय
के आधार पर ही
सारी आत्माओं का
विभाजन किया
है। और तब
उन्होंने
आत्मा को नाम
ही समय का दे
दिया, कि
आत्मा को कोई
अलग नाम देने
की जरूरत नहीं
है। आत्मा
अर्थात
समय—बोध, 'टाइम
कांशसनेस'।
तो
ऋषि ने
काल—अग्रि—वह
जो समय की
अग्रि है, वह
जो जीवंत आग
है समय की, किन्ही—किन्हीं
ने परम शक्ति
को वह भी नाम
दिया है—उसकी
भी गणना कर ली
है।
और
अंतिम, 'चंद्रमा
'। चंद्रमा
और भी हैरान
करता है।
क्योंकि जिस चंद्रमा
को हम जानते
हैं, उस
चंद्रमा से इस
चंद्रमा का
कोई भी संबंध
नहीं है।
इसलिए लोग
मुझसे आकर
पूछते हैं कि
अब तो
वैज्ञानिक
चंद्रमा पर
उतर गये, तो
हमारे शाखों
में कहे हुए
चंद्रमा का
क्या होगा? उससे कोई
संबंध ही नहीं
है। उससे
संबंध हो तो आप
मुसीबत में
पड़े। उससे
संबंध है ही
नहीं।
चंद्रमा एक
अन्य साधकों
की कोटि का प्रतीक
है।
तांत्रिकों
ने मनुष्य की
नाड़ियों का
गहन शोधन किया
है। जैसे योग
ने मनुष्य के
प्राण—ऊर्जा
का शोधन किया
है,
वैसे
तांत्रिकों
ने मनुष्य की
अंतर्नाडियों
का गहन शोधन
किया है। और
उन नाड़ियों को
उन्होंने दो
हिस्सों में
बांटा है। एक,
जो सूर्य
कहते हैं वह, और एक को
चंद्र। सूर्य
उन नाड़ियों को
कहते हैं जो
उत्तेजक हैं,
आत्रेय हैं,
गर्म हैं।
इसलिए सूर्य
कहते हैं।
चंद्र उन नाड़ियों
को कहते हैं
जो शांत हैं, शीतल हैं, मौन हैं। और
तंत्र की
दृष्टि है कि
चंद्र और सूर्य
नाड़ियों के ही
मेल से
व्यक्तित्व
निर्मित है।
और चंद्र और
सूर्य के ही
मेल से
अस्तित्व
निर्मित है।
और इन दोनों
का संतुलन ही
साधना है।
इसे
हम यूं समझें।
सूर्य जीवन का
आधार है। जीवेषणा
का। ऊर्जा, दौड़,
वासना, सब
सूर्य हैं।
इसलिए सूर्य
के उगते ही
जगत वासनापस्त
हो जाता है।
सूर्य के उगते
ही सारे जगत
में जीवन की
लहर दौड़ जाती
है। पक्षी जाग
जाते हैं, पौधे
सजग हो जाते
हैं, मनुष्य
उठ आता है, जीवन
की खोज शुरू
हो जाती है।
सूर्य के ढलते
ही जीवन ढल
जाता है।
अंधेरा हो
जाता है, रात
हो जाती है।
लोग वापिस गिर
जाते हैं
तंद्रा में।
लेकिन
रातें दो तरह
की होती हैं।
एक अंधेरी
रातें हैं, एक
उजाली रातें
हैं। अंधेरी
रात का नाम है
मूर्छा, उजाली
रात का नाम
समाधि। रात
में तो सभी
गिरते हैं। वे
भी जो दिन भर
के थक गये, जीवन
भर में थक गये
थक कर गिर गये,
तो वे एक
गहरी निद्रा
में गिर जाते
हैं। फिर सुबह
होगी, फिर
सूरज
निकलेगा।
लेकिन एक वे
भी हैं जो
सूरज की इस
दौड़ से सिर्फ
थक ही नहीं
गये और मूर्छा
में ही नहीं
गिर गये, बल्कि
सूरज की दौड़
की व्यर्थता
को भी जान गये और
शांत होने की,
शीतल होने
की, चंद्र
के साथ एक
होने की दिशा
में संलग्र हो
गये।
तो
स्वयं के भीतर
जो नाडिया
चंद्र की तरफ
ले जाती हैं, शांति
की तरफ ले
जाती हैं, उन
सब समूह, उस
अनुभव—समूह का
नाम चंद्रमा
है। तो इस
चंद्रमा को जो
उपलब्ध हो
जाता है, तंत्र
की भाषा में
वह परम विराट
को उपलब्ध हो जाता
है। ऐसी
अवस्था पानी
है जहां जीवन
तो हो, लेकिन
इतना शांत
जैसे मृत्यु।
जीवन हो, लेकिन
इतना शांत
जैसे मृत्यु।
जिस दिन जीवन
और मृत्यु का
यह मेल हो
जाता है, उस
घडी का नाम
चंद्रमा है।
यह सब प्रतीक
शब्द हैं।
'उसी को
ब्रह्मा, शिव,
इंद्र, अक्षर
ब्रह्म, परम
विराट, विष्णु
प्राण, काल—अग्रि
और चंद्रमा
कहते हैं।'
'वह व्यक्ति जन्म—मृत्यु
के चक्कर से
छूट जाता है, जो इस
तत्त्व को समझ
लेता है'।
इस तत्त्व को,
यह अनेक
नामों वाले
तत्त्व को समझ
लेता है। यह
विराट अनाम है,
ऐसा समझ
लेता है। ऐसा
समझ लेता है
कि सभी नाम उसके
हैं। नामों से
भी नहीं बंधता
है जो, वही
छूट पाता है।
अगर नामों से
भी बंध जाता
है, तो नया
संसार
निर्मित हो
जाता है।
'जो ऐसा समझ
लेता है कि जो
पहले हो चुका
है, अथवा
आगे होगा, वह
सब वही है'।
जो पहले हुआ
है जो हो रहा
है, जो
होगा, सब
नाम उसके हैं।
सब रूप जो हुए,
हो रहे हैं,
होंगे, वे
भी उसके हैं।
सब घटनाएं जो
घटी हैं, घट
रही हैं, घटेंगी,
वे भी उसकी
हैं। जो समस्त
अनुभवों से
उसी को ही
स्मरण करने
लगता है, जो
समस्त दिशाओं
से उसी को
देखने लगता है,
जो सब
इशारों को उसी
की तरफ झुका
देता है, कोई
इशारा कहीं और
नहीं जाता। 'इसको छौड़ कर मोक्ष
का और कोई
रास्ता नहीं है'। ऐसा अनुभव होने
लगे कि सभी रास्ते
उसकी तरफ जाते
हैं, सभी
दिशाएं उसकी
हैं, सभी
नाम उसके हैं,
सभी स्वर
उसके हैं, सभी
कुछ उसका। ऐसी
प्रतीति की
सघनता के
अतिरिक्त मोक्ष
का और कोई उपाय
नही है। इसे
थोड़ा समझ लें।
इसका
मतलब यह हुआ कि
आपका मोक्ष नहीं
हो सकता। जब तक
आप हैं तब तक मोक्ष
नही हो सकता।
जब आप बिलकुल शून्य
हो जाते है, तब
मोक्ष होता है।
जब सभी कुछ उसका
हो जाता है और
आपका कुछ भी
नही रह जाता, तभी मोक्ष होता
है। इसलिए
आमतौर से जब हम
भाषा मे कहते है
तो हमारे मन मे
होता है—मेरा
मोक्ष। मेरा मोक्ष
कैसे हो जाए, मेरी मुक्ति
कैसे हो जाए? मेरा निर्वाण
कैसे हो जाए?
गलत
है बिलकुल! क्योंकि
मेरे से ही तो मुक्त
होना है। यह मुझको
ही तो निर्वाण
होना है। यह मुझको
ही तो मिटना है।
इस मुझको ही
तो खोना है।
इसका कोई मोक्ष
नहीं हो सकता।
यह वैसे ही
प्रात है जैसे
किसी आदमी को बीमारी
हो और वह कहे कि
मेरी बीमारी स्वस्थ
कैसे हो जाए।
बीमारी को कही
स्वस्थ होना है!
बीमारी को
नहीं होना है, ताकि
स्वास्थ्य
होजाए। मुझे
नहीं होना है,
ताकि मोक्ष
होजाए। मेरा
मोक्ष—ऐसी कोई
चीज नहीं
होती। मोक्ष
होता है, वहाँ
मैन हीं होता है।
मैं होता हूं वहाँ
मोक्ष नहीं होता
है। मोक्ष का मतलब
है, परम
स्वतंत्रता।
सब चीजों से स्वतत्रंता
हो जाए, लेकिन
मेरा भी बना रहे,
तो यह भी बंधन
है। तो ऋषि
कहता है, इसको
छोड्कर मोक्ष
का और कोई
उपाय नहीं है
कि सभी कुछ
उसका हो जाए।
सभी कुछ! सुख
भी उसका, दुख
भी उसका।
सफलता उसकी, असफलता
उसकी। हार
उसकी, जीत
उसकी। जन्म उसका,
मृत्यु उसकी।
सभी कुछ उसका हो
जाए अशेष भाव से,
कुछ भी शेष न
बचे मेरे पास जिसे
मैं कह सकूं
मेरा। जब तक
मैं कह सकता
हूं कुछ भी मेरा,
तब तक मैं बधन
में जियूंगा।
क्योंकि
आत्यंतिक
अर्थों में 'मेरा' ही मेरा
बंधन है। 'वह
मनुष्य परमात्मा
को पा लेता है
जो आत्मा को समस्त
भूतों में और समस्त
भूतों को
आत्मा में व्याप्त
पाता
है—व्याप्त देखता
है। इसके
अतिरिक्त दूसरा
कोई उपाय नहीं
है'। 'वह
मनुष्य परमाआ
को पा लेता है,
जो आत्मा को
समस्त भूतों
में, समस्त
भूतों को
आत्मा में व्याप्त
देखता है। 'इसका अर्थ हुआ
जो सीमाएं तोड़
देता है। इसका
अर्थ हुआ, जो
सीमा से हटा लेता
है। यह वृक्ष उसे
ऐसा नहीं दिखायी
पड़ता कि—'तू।
यह शरीर उसे ऐसा
नहीं दिखायी पड़ता
कि—'मै'।
उसका 'मैं'
वृक्ष में प्रवेश
कर जाता है, वृक्ष का 'तू, उसमें
प्रवेश कर जाता
है। इस जगत में
'मैं'—'तू
की कोई सीमा रेखा
नही रह जाती। 'मैं'—'तू
की सीमा रेखा का
अर्थ है कि मैं
अपने को पृथक माने
चला जा रहां हूं।
एक
बहुत बड़े
जिविश विचारक
मार्टिन अर ने
एक किताब लिखी
है—'आइ एंड दाऊ'। मैं और
तुम। मार्टिन
अर यहूंदी
चिंतक हैं। कीमती
चिंतक हैं इस
सदी के।
दों—चार बड़े
चिंतकों में इस
सदी में वह एक
आदमी थे।
लेकिन यहूंदी
चितन मैं और तू
के पार नहीं
जा पाता। बडी गहन
खोज की है उन्होने
मै औरतू के
संबंधों की।
कहते हैं कि
जीवन का जो भी
श्रेष्ठतम
अनुभव है, वह
मैं और तू की
आत्यंतिक
संबंध—स्थिति
में निर्मित होता
है।
यहूंदी
चितंन की
धारणा ऐसी है कि
कोई व्यक्ति
अकेला विकसित
नहीं हो सकता।
यह सही है एक
अर्थ में।
अकेला
व्यक्ति हो ही
नहीं सकता और
हणो तो बहुत
दीन—दरिद्र
होगा। यह थोड़ा
समझने जैसा
है। क्योंकि
पूरब में हम
सबने इससे
विपरीत सोचा
है। हम सबने
ऐसा सोचा है
कि आदमी जितना
एकांत में चला
जाए,
अकेले में
चला जाए, बिलकुल
अकेला हो जाए,
उतना
विकसित होगा।
यहूंदी चिंतन
दूसरी तरफ से
सोचता है। वह
कहता कि जितना
अकेले में चला
जाएगा उतना
दीन—हीन हो
जाएगा।
क्योंकि
संबंधों के
बिना 'ग्रोथ
' कहां है? संबंधों के
बिना विकास
कहां है?
तो
जितने गहन
संबंध होंगे, व्यक्तिं
उतना विकसित
होगा। और
संबंधों की जो
आत्यंतिक
गहनता है, वह
मैं और तू की
निकटता है।
किसी को जब हम
तू कह पाते
हैं, तो
उसके माध्यम
से हम भी एक
ऊंचाई पर
पहुंच जाते
हैं। किसी को
जब हम प्यार
से पुकार पाते
हैं, तो उस
पुकार में ही
हम बदल भी
जाते हैं। तो
ठीक है, यह
आयाम कीमती
है। और खासकर
दो तरह के जगत
में लोग हैं।
और इसीलिए
पूरब और
पश्रिम दो तरह
के लोगों के
प्रतीक बन
गये।
जै
ने दो तरह के
व्यक्तित्व
माने हैं और
ठीक माने हैं।
एक है 'इंट्रोवर्ट',
अंतर्मुखी।
और एक है 'एम्मोवर्ट',
बहिर्मुखी।
जो 'इंट्रोवर्ट'
है, अंतर्मुखी
है, वह
एकांत में ही
विकसित होता
है। उसको
जितना अकेलापन
मिल जाए, उतना
ही वह विकसित
होता है।
दूसरे की
मौजूदगी उसे
नुकसान
पर्द्वचाती
है। जब भी वह
भीड़ से वापिस
लौटता है, तो
उसे लगता है
कुछ खोकर
लौटा। जब भी
किसी से मिलता
है तो उसे
लगता है, कुछ
नीचे उतरना
पड़ा। जब भी
किसी से बात
करता है तो
उसे लगता है, कि कुछ
विघ्र हुआ। जब
वह मौन में
होता है, एकांत
में होता है, कोई नहीं
होता, अकेला
होता है, तब
उसे लगता है
उसकी आत्मा
आकाश की तरफ
उड़ रही है। यह
अंतर्मुखी
है। पूरब इस
अंतर्मुखता
का प्रतीक है।
इसलिए
पूरब में जो
भी धर्म पैदा
हुए,
उन सबने जोर
दिया है—एकांत,
अकेलापन, संन्यास, संबंध से
छुटकारा, मुक्ति।
पश्रिम में
जितने धर्मों
ने फैलाव किया—
और वह सभी
धर्म यहूंदी
धर्म से पैदा
हुए हैं, भारत
के बाहर। भारत
के भीतर जितने
धर्म पैदा हुए
हैं, उनका
मूल आधार
हिंदू है; भारत
के बाहर जितने
धर्म पैदा हुए
उनका मूल आधार
यहूंदी है।
कुइनया
में हिंदू और
यहूंदी ही
मौलिक धर्म हैं।
बाकी सब धर्म
शाखाएं हैं।
हिंदू
अंतर्मुखी
है। और यहूंदी
बहिर्मुखी
है। इसलिए
हिंदू यहूंदी
को बिलकुल
नहीं समझ
सकता। यहूंदी
हिंदू को
बिलकुल नहीं
समझ सकता। इन
दोनों के बीच
मेल बड़ा
मुश्किल है।
बड़ा मुाrSएकल
इसलिए है कि 'टाइप ' अलग
है। यहूंदी
कहता है कि
अकेला! अकेले
में तो आदमी
मर जाएगा।
क्षीण हो
जाएगा। सब
विकास संबंध
का है। जितनी
समृद्धि हलोई
संबंधों की, आदमी की
चेतना उतनी
विकसित होगी।
इसलिए यहूंदी
फकीर बिना
पत्नी के नहीं
होगा। यहूंदी
फकीर बिना
बच्चों के
नहीं होगा। यहूंदी
फकीर समाज का
हिस्सा और अंग
हहेग्र। भागेगा
नहीं। वह सोच
ही नहीं सकता।
बल्कि यहूंदी फकीर
के संबंध
दूसरों के
संबंधों से
ज्यादा होंगे।
क्योंकि उसका
मतलब ही यह है
कि वह ज्यादा
संबंधों में
ज्यादा
बढ़ेगा।
ज्यादा विकसित
होगा। 'इटररिलेशनशिप
', 'रिलेटेडनेस',
जुड़ना
दूसरे से बढ़ने
का उपाय है।
इसको
आत्यंतिक रूप
से यहूंदी
चिंतन कहता है
कि आखिर में
व्यक्ति 'मैं
' रह जाएगा
और विराट 'तू
हो जाएगा।
सारा जगत 'तू,
हो जाएगा और
व्यक्ति 'मैं
' रह
जाएगा। तब जो
मिलन हज़ोा, उसमें
व्यक्ति की
आत्मा पूर्ण
विकास को
उपलब्ध होगी।
लेकिन यहूंदी
चिंतन इसके
पार नहीं
जाता।
यह
सूत्र इसके
पार जाता है।
यह
सूत्र कहता है
कि जब तक तू तू
जैसा स्पष्ट है
और मैं मैं
जैसा स्पष्ट
हूं तब तक
कितना ही गहन
संबंध हो जाए, अंतिम
नहीं है। दूरी
बनी ही है।
फासला कायम है।
तो मैं किसी
को कितना ही
प्रेम करूं और
जब तक वह मुझे 'तू मालूम पड़
रहा, और
मैं 'मैं' मालूम पड़
रहा हूं हम
कितने ही निकट
आ जाएं दूरी
कायम रहेगी।
यह 'तू और 'मैं' के
बीच जरा—सी
दूरी है, पर
दूरी है। और
एक मजा है
दूरी का कि
जितनी कम हो, उतनी ज्यादा
अखरती है।
जितनी कम हो
उतनी ज्यादा
अखरती है।
उतनी चुभती
है। जितनी
ज्यादा हो, पता ही नहीं
चलता है। पता
चलता ही है
दूरी का तब, जब बहुत कम
बचती है। और
तब बहुत पीड़ा
देती है।
इसलिए
प्रेमी जिस
पीड़ा में पड़ते
हैं उसका आत्यंतिक
कारण है, दूरी
का इतना कम हो
जाना और मिटना
नहीं। मिटती है
नहीं और इतनी
कम हो जाती है
कि आशा भी
बंधती है कि
मिट जाएगी। और
मिटती है
नहीं। और हर
बार इतने करीब
होने से
टकराहट शुरू
हो जाती है, और दूरी
मिटती नहीं।
और दूरी का, दूरी का बोध
भी साफ होने
लगता है।
जितनी दूरी कम
होती है, एक
अर्थ में उतनी
ज्यादा हो
जाती है।
क्योंकि उतनी
अखरती है, चुभती
है, और मन
होता है कि अब
तो टूट सकती
थी, अब तो
बिलकुल
किनारा करीब
था, अब तो
हम हाथ बढ़ाते
और टूट जाता।
और हाथ बढ़ाते हैं
और हाथ मिल
नहीं पाते
हैं। दूरी
कायम ही रह
जाती है। तो
अगर परमात्मा
के हम इतने भी
निकट पहुंच
जाएं कि ठीक
प्रेमी की तरह
'मैं ' और
'तू, की
भाषा हो सके, तो भी दूरी
रह जाती है।
यह उपनिषद का
ऋषि कहता है, जब तक आत्मा
सर्वभूतों
में, सबमें
न दिखायी पड़ने
लगे और जब तक
सर्वभूत स्वयं
में न दिखायी
पड़ने लगें; और जब तक 'तू,
'मैं—जैसा ' न हो जाए, और
जब तक 'मैं'
'तू—जैसा' न हो जाए तब
तक, तब तक
दूरी कायम
रहेगी। यह
आखिरी छलांग
है। जिसमें
प्रेमी
प्रेयसी हो
जाता है, प्रेयसी
प्रेमी हो
जाती है। यह
आखिरी छलांग है,
जिसमें
भक्त भगवान हो
जाता है, भगवान
भक्त हो जाता
है। यह आखिरी
छलता है, जब
पता नहीं चलता
कि कौन कौन
है। कौन कौन
है, यह पता
नहीं चलता।
ऋषि कहता है, वह मनुष्य
परमात्मा को
पा लेता है जो
आत्मा को
समस्त भूतों
में और समस्त
भूतों को आआ
में व्याप्त
देखता है।
इसके
अतिरिक्त
दूसरा और कोई उपाय
नहीं है। यह
आखिरी बात है
जहां तक समझ
सोच सकती है, विचार सकती
है। जहां तक
हम थोड़ी अपनी
चेतना को दौड़ा
सकते हैं, खयाल
में ले सकते
हैं। इसके बाद
खयाल का जगत समाप्त
हो जाता है, और विचार का
कोई उपाय नहीं
रह जाता।
इतना
ही।
अब
हम ध्यान की
तैयारी करें।
thank you guruji
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