ध्यान
योग शिविर,
दिनांक
12 जनवरी
रात्रि:
माथेरान।
सूत्र:
मन
आदिश्च
प्राणादिश्चेच्छादिश्च
सत्वादिश्च
प्रण्यादिश्चैतेपंचवर्गा
इत्येषां
पंचवर्गाणां
धर्मीभूतात्मज्ञानादृते
न नश्यत्यात्मसन्निधौ
नित्यत्वेन
प्रतीयमान
आत्मोपाधिर्यस्तल्लिंग
शरीरं
ह्रदयग्रंथिरित्युच्यते।।7।।
तन्न यत्प्रकाशते
चैतन्यं से
क्षेत्रज्ञ
इत्युच्यते।।8।।
मन
आदि, प्राण
आदि, इच्छा
आदि,
कल आदि
औन गुण्य आदि
के
पांच समूहों
को पंच वर्ग
कहा जाता है।
के
इनसे छुटकारा
नहीं पा सकता।
मन आदि
सूक्ष्म तत्वों
की उपाधि तो
आत्मा को
सदैव लगी रहती
जान पड़ती है
उसे
लिंग शरीर कहा
जाता है, और
वही ह्रदय की
ग्रंथि है।
उसमें
प्रकाशित जो
चैतन्य है, वह
क्षेत्रज्ञ
कहलाता है।
मनुष्य
का बंधन
मनुष्य के
बाहर नहीं है।
उसका कारागृह
आंतरिक
है--उसके ही
हाथों
निर्मित, उसके
अपने ही भीतर
है।
ऐसा लगता
है कि हम बाहर जीते
हैं; ऐसा
लगता है कि
बाहर सुख हैं,
दुख हैं; ऐसा लगता है,
बाहर
उपलब्धि है, पराजय है, जीत है, सफलता-
असफलता
है--लेकिन बस
लगता है; है
सब भीतर। दौड़
भी भीतर है, पहुंचना भी
भीतर है, पराजित
हो जाना भी
भीतर है। जिस
सुख को हम बाहर
देखते हैं, वह भी भीतर
अनुभव होता है;
और जिस दुख
हो हम बाहर
पाते हैं, वह
भी भीतर ही
छिपता है।
प्रेमी
भला बाहर
दिखाई पड़ता हो
लेकिन प्रेम की
ग्रंथि भीतर
है। और भीतर
से प्रेम की
ग्रंथि टूट
जाए तो बाहर
फिर कोई भी
प्रेमी नहीं
है। स्वर्ण
बाहर दिखाई
पडता है, लेकिन
लालसा भीतर
है। और लालसा
खो जाए तो
सोने और
मिट्टी में
फर्क क्या है?
वह भेद
लालसा का भेद
है।
विस्तार
बाहर है, लेकिन
बीज भीतर है।
ऋषि
ने पांच
बीमारियों की
मूल
ग्रंथियां
कही हैं; फाइव
बेसिक
कांप्लेक्सेस।
पांच समूह
हैं.. मनुष्य
की अगर हम
उपाधि को, मनुष्य
की व्याधि को,
मनुष्य के
अंतर-रोग को
अगर विभाजित
करें, तो
पांच
वर्गीकरण
हैं। एक-एक
वर्गीकरण को
थोड़ा- थोडा
समझ लेना
जरूरी है।
पहला
वर्गीकरण है: ''मन आदि''...मन
और मन से
संबंधित सारा
विस्तार। मन
को ग्रंथि कह
रहा है ऋषि--एक
रोग, एक
बीमारी--क्यों?
यदि
हम एक सागर के
तट पर खड़े
होकर देखें...
तूफान आया है, लहरें
हैं जोर की, बड़ी आधी है...
सागर तो दिखाई
ही नहीं पड़ता,
बस कंपित
लहरों का
तांडव नृत्य
दिखाई पड़ता है।
इन लहरों में
भी सागर है; ये लहरें भी
सागर का ही
रूप हैं--उस पर
ही निर्मित
हैं, उसका
ही आकार
हैं--लेकिन
फिर भी ये
लहरें सागर नहीं
हैं; क्योंकि
सागर बिना
लहरों के हो
सकता है।
तूफान खो जाए,
आधी चली जाए,
सागर शांत
हो जाए, लहरें
विदा हो
जाएंगी, सागर
फिर भी रह
जाएगा।
इससे
उलटा नहीं हो
सकता, ऐसा
नहीं हो सकता
कि सागर खो
जाए और लहरें
बच जाएं।
लहरें खो सकती
हैं, सागर
बच सकता है।
सागर के बचने
में लहरों के
खोने से कोई बाधा
नहीं पड़ती; लेकिन सागर
खो जाए तो
लहरें नहीं बच
सकतीं। इसलिए
सागर मूल है, लहरें आती
हैं और जाती
हैं।
ठीक
ऐसा ही समझें, मनुष्य
की चेतना सागर
है और मन उस पर
उठी हुई लहरे
हैं, आकृतियां
हैं। इसीलिए
कल मैंने आपसे
कहा, शांत
मन जैसी कोई
चीज नहीं
होती। शांत
तूफान कभी
देखा है? क्योंकि
शांत तूफान
कहने में कोई
अर्थ ही नहीं
रह जाता।
तूफान है तो
शांत नहीं
होगा, शांत
है तो तूफान
नहीं होगा।
लेकिन हम कहते
हैं कि ' शांत
मन’-- शब्द
की भूल है। मन
जब तक होता है
तब तक अशांति होती
ही है। अशांति
का नाम ही मन
है। अशांति और
मन, अस्तित्व
का जहां तक
संबंध है, पर्यायवाची
हैं--शब्दकोष
में नहीं, शब्दकोष
में अगर खोजने
जाइएगा तो
अशांति का कहीं
भी अर्थ मन
नहीं होगा; और मन का
कहीं भी अर्थ
अशांति नहीं
होगा।
भाषा
जो बनाते हैं, जरूरी
नहीं कि
अस्तित्व को
जानते हों।
अस्तित्व को
जानते हैं जो,
वे कहते हैं
कि भाषा में
कुछ कहना
मुश्किल है, इसलिए भाषा
बनाते नहीं
हैं।
अस्तित्व का
अनुभव तो यह
है कि जहां
अशांति है
वहीं मन है--मन
यानी अशांति।
इसलिए’ शांत
मन’ शब्द
बिलकुल ही
विरोधाभासी
है, कंट्राडिक्ट्री
है, हो
नहीं सकता है।
जैसे कोई
स्वस्थ
बीमारी नहीं
होती, और
जैसे कोई शांत
तूफान नहीं
होता, ऐसे
ही कोई शांत
मन भी नहीं
होता।
बीमार
स्वस्थ हो
सकता है, ध्यान
रखें, बीमारी
स्वस्थ नहीं
हो सकती है।
बीमार स्वस्थ
हो सकता है, क्योंकि
बीमार बीमारी
नहीं है, उस
पर आई हुई चीज
है; आई-गई
हो सकती है।
यह
भी बड़े मजे की
बात है कि बीमार
बिना बीमारी
के हो सकता है, लेकिन
बीमारी बिना
बीमार के नहीं
हो सकती। मन के
बिना चेतना हो
सकती है, लेकिन
मन चेतना कि
बिना नहीं हो
सकता।
मन
है एक बीमारी।
ऋषि इसको एक
ग्रंथि, एक
बंधन, एक
रोग, एक
उपाधि मान कर
चलते हैं।
मन
है एक बीमारी।
मन है चेतना
की वह अवस्था
जिसे हम
कहें--विक्षुब्ध, विक्षिप्त,
चंचल, लहरों
से भरी। तो जब
शांति उपलब्ध
होती है तो मन
खो जाता है, मन बचता ही
नहीं; जब
शांति खोती है
तो मन हो जाता
है। अगर इसको
और गौर से
समझें, तो
इसे ग्रंथि
कहने का, कांप्लेक्स
कहने का कारण
है।
'ग्रंथि’ को
भी थोड़ा समझ
लें, क्योंकि
यह बहुत कीमती
शब्द है, योग
की दिशा में।
इतना कीमती
शब्द है कि
जैनों ने तो
महावीर जब परम
ज्ञान को
उपलब्ध हुए तो
उन्हें नाम दिया’
निर्ग्रंथ’.. जो ग्रंथि
से मुक्त हो
गया; जिसके
पास अब कोई
गांठ न रही।
इस गांठ को
थोड़ा समझ लें।
गांठ
बड़ी अदभुत चीज
है। देखी आपने
बहुत होगी
गांठ, लेकिन
खयाल नहीं
किया होगा। एक
रस्सी पर आप
गांठ बांध
देते हैं। जब
रस्सी पर आप
गांठ बांधते
हैं, तो
रस्सी में कुछ
परिवर्तन हो
जाता है क्या?
--उसके
स्वभाव में, उसके
अस्तित्व में?
क्या उसका
वजन बढ़ जाता
है? क्या
उसका गुण बदल जाता
है? क्या
हो जाता है
रस्सी में? रस्सी में
कुछ भी नहीं
होता... और फिर
भी बहत कुछ हो
जाता है।
रस्सी में कुछ
भी नहीं होता,
रस्सी में
रत्ती भर न तो
गांठ से कुछ
जुड़ता है, न
घटता है।
रस्सी जैसी थी
अब भी वैसी ही
है, लेकिन
फिर भी वैसी
ही नहीं
है--गांठ- भरी
है, उलझ गई
है। स्वभाव
जरा भी नहीं
बदलता, लेकिन
उलझाव खड़ा हो
सकता है बिना
स्वभाव के बदले;
स्वरूपत:
कुछ भी नहीं
बदला है रस्सी
में, लेकिन
सब बदल गया।
रस्सी किसी
काम की न रही; कुछ बांधना
हो तो अब नहीं
बांध सकते, क्योंकि
रस्सी खुद ही
बंधी है।
रस्सी का कोई
उपयोग नहीं
रहा अब, लेकिन
क्या उसके गुण
में, धर्म
में कोई अंतर
पड़ा है? जरा
भी अंतर नहीं
पड़ा।
और
यह गांठ क्या
है?
क्या गांठ
कोई वस्तु है?
इसे और थोड़ा
ठीक से समझ
लें। क्या
गांठ कोई वस्तु
है? अगर
वस्तु होती
गांठ, तो
रस्सी के बिना
भी हो सकती
थी। अलग निकाल
कर गांठ को रख
देते, रस्सी
को अलग करके
चल देते।
लेकिन रस्सी
से गांठ अलग
की नहीं जा
सकती। इसका यह
मतलब नहीं है कि
रस्सी को गांठ
से मुक्त नहीं
किया जा सकता।
रस्सी को गांठ
से मुक्त किया
जा सकता है, लेकिन गांठ
को रस्सी से
अलग नहीं किया
जा सकता। आप
निकाल कर गांठ
अलग और रस्सी
अलग, ऐसा
नहीं कर
पाएंगे।
तो
गांठ कोई
वस्तु नहीं है, गांठ
कोई पदार्थ
नहीं है, गांठ
का कोई
स्वतंत्र
आस्तत्व नहीं
है.. गांठ केवल
आकृति है, केवल
रूप है--केवल
रूप; जस्ट
ए फॉर्म
विदाउट एनी
सल्लेंस इन
इट--सिर्फ रूप...
भीतर कुछ भी
नहीं है उसके।
भीतर तो रस्सी
है, गांठ
के भीतर कुछ
भी नहीं है।
गांठ खुद में
कुछ भी नहीं
है--कोरा रूप, कोरी आकृति
है।
इसलिए
इसे ऐसा समझें
कि गांठ का
अस्तित्व वस्तुगत
नहीं है, केवल
रूपगत है--
सिर्फ रूपगत।
इसलिए ऋषियों
ने जगत को’ नाम-रूप’
कहा है--कहा है
कि उसका
अस्तित्व
नहीं है, वह
सिर्फ एक गांठ
है। गांठ का
नाम भी है, रूप
भी है, लेकिन
अस्तित्व
बिलकुल नहीं
है। गांठ
है--रूप भी है, नाम भी है, पहचानी भी
जाती है, और
बाधा भी डालती
है; सुलझाई
भी जा सकती है;
फिर भी नहीं
है। गांठ माया
है। जगत को जो
जानते हैं वे
कहते हैं, वह
नाम-रूप गांठ
है; वह एक
ग्रंथि है।
जैसा
जगत के संबंध
में सच है, ऐसा
ही मनुष्य के
संबंध में सच
है। मनुष्य भी
एक गांठ
है--नाम-रूप।
अगर गांठ खोल
दें, तो
पीछे जो बचेगा
वह परमात्मा
है। आदमी
सिर्फ गांठ है,
आदमी सिर्फ
एक ग्रंथि
है--खोल दें
गांठ, तो
आदमी नहीं
बचेगा.. वह जो
नामधारी था वह
नहीं बचेगा, वह जो रूप धारी
था वह नहीं
बचेगा, वह
जो कहता था’ मैं',
वह नहीं
बचेगा; गांठ
खुल गई तो’ मैं'
गया; मैं
सब गांठों का
जोड़ है। यह जो
पंच वर्ग की
हम बात करेंगे,
इन पांच
गांठों के जोड़
कानाम’ मैं' है।
मन
को पहली गांठ
कहता है ऋषि, क्योंकि
मन है नहीं, सिर्फ आकृति
है, रूप
है। चेतना जब
विक्षुब्ध है
तो मन निर्मित
हो जाता
है--सिर्फ
रूप। रात एक
सपना बनता है,
अस्तित्व
नहीं है उसका
कोई, रूप
है। फिल्म
देखने जाते
हैं आप, पर्दे
पर दिखाई पड़ता
है सब-कुछ, सिर्फ
रूप है वहां, अस्तित्व
नहीं है जरा
भी। अस्तित्व
भासता है। और
बड़े मजे की
बात है, बुद्धिमान
आदमी भी रूमाल
से अपनी आख
पोंछता हुआ
फिल्म देखते
देखा जा सकता
है, बुद्धिमान
आदमी भी रोता
हुआ, हंसता
हुआ देखा जा
सकता है। और
यह भलीभांति
जानता है कि
पर्दे पर कुछ
भी नहीं है, फिर भी रूप
धोखा दे जाता
है होने का, जैसे है। और
क्षण भर को जब
हम आसक्त हो
जाते हैं रूप
से, या
स्वयं को भूल
जाते हैं जब, तब रूप
बिलकुल
वास्तविक हो
जाता है।
फिल्म, अगर
आप याद रख
सकें... अब
दुबारा कभी
फिल्म देखने
जाएं तो एक
प्रयोग करें :
पूरे समय अपने
को याद रखने
की कोशिश करें
और फिल्म को
देखें, फिर
अगर आंसू आ
जाएं तो असंभव
है। आंसू आ
सकते हैं एक
ही व्यवस्था
से कि आप अपने
को भूल
जाएं--आप भूल
ही जाएं कि आप
भी हैं वहां, द्रष्टा भी
है
वहां--फिल्म
ही रह जाए; आप
इतने तल्लीन
हो जाएं कि
आपको यह याद
भी न रहे कि
मैं भी हूं
आया हूं देखने--यह
भूल जाए, जो
दिखाई पड़ता है
वही सब-कुछ हो
जाए; दृश्य
सब-कुछ हो जाए
और द्रष्टा
भूल जाए--तो आख में
आंसू भी आ
सकते हैं, रोना
भी हो सकता है,
चित्त उदास
भी हो सकता है,
चित्त
प्रसन्न भी हो
सकता है.. और वहा
पर्दे पर कुछ
भी नहीं है, और चित्त में
सब-कुछ हो
सकता है।
मन
भी रूप है।
लेकिन वह जो
भीतर बैठा हुआ
द्रष्टा है, वह
जो
क्षेत्रज्ञ
है, वह भूल
जाता है कि
मैं भी हूं।
बस, इतनी
विस्मृति और
दृश्य सब-कुछ
हो जाते हैं; फिर गांठ
बंध जाती है..
फिर गांठ बंध
जाती है.. फिर
गांठ भारी हो
जाती है। और
जन्मों-जन्मों
से हम बैठे हैं
उस सिनेमागृह
में जिसका नाम
मन है। बनती
चली गई है
गांठ, रूप
सघन होते चले
गए हैं।
पागल
को हम क्यों
पागल कहते हैं? पागल
को हम इसलिए
पागल कहते हैं
केवल कि उसके पास
हमसे जरा
ज्यादा बड़ा मन
है; और कुछ
कारण नहीं है..
जरा हमसे जरा
ज्यादा बड़ा मन
है। हम भीतर
ही भीतर दृश्य
देखते हैं, उसके पास
हमसे ज्यादा
समर्थ मन है; वह बाहर भी
दृश्य देखने
लगता है। आप
भी अपने
प्रियजन से
भीतर- भीतर
बातें करते हैं,
पागल के पास
आपसे ज्यादा
और उसी दिशा
में बढ़ा हुआ
मन है, वह
अपने प्रियजन
से खुले आम
कमरे में बैठ
कर बात करता
है जो वहां
मौजूद नहीं
है। आप भी
करते हैं, आप
जरा भीतर
गुपचुप करते
हैं। उसका
प्रोजेक्यान,
उसकी
क्षमता
प्रक्षेपण की
आपसे ज्यादा
बड़ी है। वह
ज्यादा कुशल
है। वह सामने
कुर्सी पर बिठा
कर ही बात
करना शुरू कर
देता है। फिर
हम कहते हैं, यह आदमी पागल
हो गया।
हममें-उसमें
कोई फर्क
है--गुणात्मक? कुर्सी
पर हम भी
बिठाते हैं
प्रियजन को, भीतर ही
बिठाते हैं।
हमारे
प्रोजेक्यान
की जो
यंत्र-व्यवस्था
है, थोड़ी
कमजोर मालूम
पड़ती है; उसकी
भारी है। उसकी
इतनी भारी है
कि आप कमरे में
आ जाएं, वास्तविक,
तो आपकी
फिकर उसे कम
होती है, वह
जो कुर्सी पर
बैठा है, नहीं
जो है, उसकी
ही चिंता उसे
ज्यादा होती
है।
बहुत
कवियों ने
लिखा है कुछ
ऐसा,
प्रेयसी के
लिए.. कि महफिल
तो पूरी भरी
रहती है, लेकिन
तू उठ जाती है
तो हमारे लिए
फिर वहां कोई
नहीं रह जाता;
और तू अकेली
ही वहां हो और
कोई भी न हो, तो सारी दुनिया
वहां है।
यह
कवि भी थोड़ा
सा पागल तो
होता ही है। इसलिए
जो हम नहीं
देख पाते, वहदेख
पाता है; जो
हम नहीं पहचान
पाते, वह
पहचान पाता है;
जो हम नहीं
बना पाते, वह
बना पाता है।
इसलिए कवि में
और पागल में
थोड़ा सा जातीय
संबंध है।
शायद कवि जो
है वह व्यवस्थित
पागल है, और
पागल जो है, अव्यवस्थित
कवि है; उसको
कोई व्यवस्था
नहीं आती।
लेकिन एक गुण
उन दोनों में
है, और वह
गुण यह है कि
जो नहीं है
उसे वे देखने
में समर्थ
हैं।
मन
जो नहीं है
उसको देखने का
यंत्र है। और
इसलिए मन पागल
करने वाली
व्यवस्था है।
मन स्वप्न का
ही विस्तार
है। यह पहली
ग्रंथि है। और
जो मन से बंधा
है,
वह स्वयं को
कभी उपलब्ध
नहीं हो सकता;
क्योंकि मन
से बंधने की
एक ही
व्यवस्था है
और वह है
स्वयं को भूल
जाना। यह
दोनों एक साथ
नहीं हो सकता
कि आप स्वयं
को भी जान लें
और मन को भी बचा
लें। मन को
बचाना है तो
स्वयं को
भूलना अनिवार्य
है; उसे
बिना भूले मन
होता ही नही।
और स्वयं को
स्मरण करना है
तो मन खोएगा।
स्वयं का बोध
लाना है, जगाना
है उसको जो
द्रष्टा है, तो दृश्य
थोड़े ही दिन
में फीके और
नाम-रूप रह जाएंगे;
उनमें कुछ सार
नहीं रह जाएगा;
उनकी कोई
पकड़ नहीं रह जाएगी।
तो
क्या करें? यह
मन की पहली
ग्रंथि है। इस
ग्रंथि के
भीतर अगर हम
द्रष्टा को ला
सकें तो यह
ग्रंथि टूट जाएगी।
द्रष्टा को
लाना किसी भी
ग्रंथि को
खोलने का उपाय
है; साक्षीभाव
किसी भी
ग्रंथि को
सुलझाने का
उपाय है।
सुलझाना हम भी
बहुत चाहते
हैं, इसलिए
एक मजेदार
घटना घटती है।
हम सभी सुलझाना
चाहते हैं
उलझनों
को--सभी, ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है जो
सुलझाना न
चाहता हो उलझनों
को, लेकिन
फिर भी सुलझती
क्यों नहीं है?
और
अकसर यह देखा जाता
है कि सुलझाने
वाले अंत में
और बुरी तरह उलझा
लेते हैं--
बुरी तरह उलझा
लेते हैं।
सुलझाने की कोशिश
से सुलझती मालूम
नहीं पड़ती और उलझ
जाती है.. और सब सुलझाना
चाहते हैं. तो जरूर
कही कोई बुनियादी
भूल होती है।
हम
सब सुलझाना
चाहते हैं, लेकिन
साक्षी को
बिना जगाए। मन
से ही मन को सुलझाना
चाहते हैं, यहीं भूल हो
जाती है। मन
उलझाव है, इसलिए
मन से कोई
सुलझाव नहीं
हो सकता है।
और हम मन से ही
मन को सुलझाने
की कोशिश करते
हैं। जैसे कोई
अपने हाथ से
अपने ही उसी
हाथ को पकड़ने
की कोशिश करता
रहे, जैसे
चमीटे से उसी
चमीटे को कोई
पकड़ने की कोशिश
करता रहे, जैसे
कोई चश्मा लगा
कर उसी चश्मे
को खोजता रहे
कि कहां है? खोजते हैं
कुछ लोग। कोई
बहुत कठिनाई
नहीं है। जहां
तक मन का
संबंध है हम
सभी यही करते
हैं।
कुत्ते
को देखा कभी न
पूंछ पकड़ते
आपने? बैठा है
सुबह, सर्द,
सुबह में
सूरज उगा है, कुत्ता बैठा
है फुर्सत में,
पूछ पड़ोस
में उसके पड़ी
है--उसी की
पूंछ--झपट कर
पकड़ता है।
झपटता है पूंछ
उछल जाती है।
स्वभावत:, कुत्ते
को क्रोध आता
है... और चेलैंज,
और चुनौती
भी हो जाती है
कि हद हो गई! एक
जरा सी पूंछ
है और पकड़ में
नहीं आती!
कुत्ता और
ताकत से कूदता
है; वह और
ताकत से कूदता
है, पूंछ
उतनी ही ताकत
से उछल जाती
है। यह भारी
दुश्मनी पैदा
हो जाती है।
लेकिन उसकी ही
पूंछ है, वही
पकड़ने वाला है,
यह पकड़ में
आने वाली नहीं
है। थकेगा।
क्योंकि उसे
पता नहीं कि
पकड़ने के लिए
जो वह छलांग
ले रहा है, वही
छलांग पूंछ की
कूदने की
छलांग बन जाती
है; वे दो
चीजें नहीं
हैं। तो जिस
मन से आप
सुलझाने चलते
हैं, वह मन
ही उलझाने का
यंत्र है, तो
आप जो भी उससे
करते हैं उससे
और उलझता ही
चला जाता है।
इसलिए
आप जानें कि
जितना मन
विकसित होता
है,
उतनी
पागलों की
संख्या बढ़
जाती है; जितना
मन अविकसित
होता है, पागलों
की संख्या कम
होती है। आदिम
समाज पागल बहुत
कम पैदा करते
हैं। और समाज शास्त्री
कहते हैं कि
बहुत प्राचीन
समय में, जब
कि आदिम समाज
कभी-कभी किसी
को पागल करके
पैदा कर पाता
था, तो
उसको पागल
नहीं कहते थे,
वह आदमी
पूज्य हो जाता
था, क्योंकि
वह रेयर.. वह
आदमी विशिष्ट
था। इसलिए आदिम
समाज में पागल
जो थावह
पैगंबर भी हो
सकता था, पागल
जो था वह
पूज्य हो जाता
था; क्योंकि
जो किसी के
पास नहीं था, ऐसा गुणधर्म
उसके पास आ जाता
था।
अब
हमें पागलों
के बाबत बड़ी
मुश्किल खड़ी
हो गई है; अब
कोई पागल को पैगंबर
मानने को
तैयार नहीं है,
बल्कि
पैगंबर को
पागल मानने को
बहुत लोग तैयार
हैँ। बिलकुल
हालत बदल गई
है। बिलकुल
हालत बदल गई
है! और पागलपन
इतना धीरे-
धीरे
स्वाभाविक होता
चला जा रहा है..
कि जैसे बड़े
अमीर आदमी
भारत में गौरव
से कह सकते
हैं कि फलां
बड़ा डाँक्टर
हमारा प्राइवेट
फिजिशियन है,
ऐसा अमरीका
में बड़ा आदमी
अब कह पाता है
कि फलां बड़ा
मनोवैज्ञानिक
हमारा
प्राइवेट
साइकियाट्रिस्ट
है, हमारा
निजी
मनोचिकित्सक
है। सिर्फ
गरीब आदमी दीन
रह जाते हैं, वे नहीं कह
पाते कि हमारा
कोई निजी
मनोचिकित्सक
है। उनको तो
अभी अस्पताल
जाना पड़ता है,
जहां जन-
समूह की भीड़
में खड़े होकर
मन की चिकित्सा
करवानी पड़ती
है।
यह
कभी कोई सोच
भी नहीं सकता
था कि ऐसा
वक्त भी आएगा
कि कोई आदमी
गौरव से
कहेगा..
पश्चिम में आज
यह हालत हो गई
है कि लोग
एक-दूसरे से
पूछने लगे हैं
कि
मनोविश्लेषण
करवाया या
नहीं? जिसने
नहीं करवाया
वह दीन अनुभव
करता है। इसका
मतलब यह है कि
वह अफोर्ड
नहीं कर सकता,
क्योंकि
मनोविश्लेषण
महंगी चीज है,
मन का
विश्लेषण बड़ी
महंगी चीज
है--पांच साल, तीन साल, दो
साल लगते हैं;
हजारों
डीलर का खर्च
भी है।
तो
जो बहुत
समृद्ध हैं वे
कहते हैं, एक
बार नहीं, तीन
बार करवा चुके
हैं। जो बहुत
समृद्ध हैं वे
नियमित
करवाते ही
रहते हैं।
बंधा हुआ वक्त
है उनका.. हर
सप्ताह दो बार
मनोचिकित्सक
के पास जाना
और मन का
विश्लेषण
करवाते रहना।
मन
का रोग इतना
सामान्य हो
जाएगा यह कभी
सोचा नहीं था।
लेकिन होने का
एक ही कारण है
कि अगर आप शिक्षा
देंगे, विचार
देंगे, संस्कृति
देंगे, सभ्यता
देंगे, प्रत्येक
व्यक्ति को
बहुत कुछ
सिखाएंगे, मन
विकसित होगा;
गांठ सघन हो
जाएगी। और जब
मन विकसित
होगा तो उसकी
और क्षमताएं
भी जो हैं
प्रोजेक्ट
करने की, वे
भी विकसित हो
जाएंगी। वे
इतनी विकसित
हो जा सकती
हैं कि आपको
अपने मन से
तृप्ति ही
मालूम न पडे
और आपको मन के
लिए और सहारे
की जरूरत पड़ जाए।
एल एस डी और
मारीजुआना, इसी तरह की
चीजें हैं जो
आपके मन को और
भी ज्यादा
प्रोजेक्टिव
कर देती हैं।
जो रंग आपने
कभी नहीं देखे
अपने मन से वे
आपको एल एस डी
के प्रभाव में
दिखाई पड़ने
शुरू हो जाते
हैं, जो
सौंदर्य आपने
कभी नहीं देखा
वह चारों तरफ
फैल जाता है।
हक्सले
ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि जब मैंने
पहली दफा
मेस्कलीन
लिया तो मेरे
सामने जो
कुर्सी रखी थी
वह थोड़ी ही
देर में ऐसी
सतरंगी हो गई
कि मैंने कोई
इंद्रधनुष
नहीं देखा है।
कुर्सी! थोड़ी
ही देर में
उसमें किरणें
प्रकट होने
लगीं।
वानगॉग
ने--पश्चिम के
एक बहुत बड़े
चित्रकार ने--कुर्सी
नाम का एक
चित्र बनाया
है। उसकी कुर्सी
को मानने को
कोई तैयार
नहीं था जब तक
हक्सले ने
अपना संस्मरण
नहीं लिखा।
डेढ़ सौ साल
पहले बनाया उसने।
क्योंकि उसकी
कुर्सी इतनी
रंग- बिरंगी
थी जैसी
कुर्सी होती
नहीं। उसने
इंद्रधनुष
खींचा था।
लोगों ने कहा, सिर्फ
कल्पना है।
ऐसी कहीं
कुर्सी होती
है! लेकिन जब
अल्डुअस
हक्सले ने
अपना मेस्कलीन
का संस्मरण
लिखा और उसमें
लिखा कि मेस्कलीन
के प्रभाव में
मेरे सामने की
कुर्सी खो गई,
और ऐसी
अलौकिक, और
ऐसी पारदर्शी,
और ऐसी
सतरंगी
कुर्सी वहां
खड़ी हो गई.. कि
उस क्षण में
मैं मर जाता, तो मुझे ऐसा
न लगता कि
मैंने कुछ भी
अनुभव खोया है;
वह अनुभव
कुर्सी का
इतना प्रगाढ़
था, और
इतना तीव्र
था...! उसकी
कुर्सी के
अनुभव के बाद
यह खयाल आया
कि अगर एक
आदमी
मेस्कलीन
लेकर--और
हक्सले जैसा
बुद्धिमान
आदमी--अगर
कुर्सी में
ऐसे रंग देख
सकता है तो
कोई आश्चर्य
नहीं कि वानगॉग
जैसा
चित्रकार
बिना
मेस्कलीन लिए
कुर्सी में
ऐसे रंग देख
पाया हो।
लेकिन वानगॉग
पागल होकर मरा,
क्योंकि मन
अराजक हो गया..
वह वह सब
देखने लगा जो
नहीं है, वह
वह सब देखने
लगा जो भीतर
से ही बाहर की
तरफ फैला जाता
है और आरोपित
हो जाता है।
हम
सब भी
छोटे-मोटे रूप
में यह काम
जारी रखते हैं।
जब एक रुपये
को प्रेम करने
वाले आदमी के
हाथ में रुपया
होता है, तो आप
यह मत सोचना
कि जितना आपको
दिखाई पड़ रहा है
उतना ही होता
है; कुछ
उसे दिखाई
पड़ता है जो, जिसने रुपये
को प्रेम नहीं
किया उसे कभी
पता ही नहीं
चल सकता। वह
सिर्फ उसी को
दिखाई पड़ता है।
मैं
एक सज्जन को
जानता रहा हूं
दूसरे के नोट
को भी वे हाथ
में लेते हैं
तो ऐसे कि कोई
प्रेमी क्या
अपनी प्रेयसी
को ऐसे अपने
हाथ में लेगा!
उसे ऐसा
उलट-पुलट कर
देखते हैं कि
किसी कवि ने कभी
किसी फूल को
नहीं देखा
होगा। उनके
चेहरे से
सब-कुछ टपकता
हुआ मालूम
पड़ने लगता है
उस रुपये पर।
उनके बीच एक
ऐसा रेपॉर्ट, रुपया
और उनके बीच
ऐसा संबंध जुड़
जाता है जो कि
कल्पनातीत
है। अब इस
आदमी को लोग
कहेंगे कंजूस
है, क्योंकि
वह पैसा खर्च
नहीं कर सकते;
पैसा खर्च
करना असंभव
है। लेकिन
हमें पता ही नहीं
कि वे किस
कविता में जी
रहे हैं। वे
किस काव्य का
अनुभव कर रहे
हैं, हमें
पता ही नहीं।
उनकी हालत वही
है जो किसी
कवि की होती है।
कवि
को हम आदर
देते हैं, उनको
हम आदर नहीं
देते, उसका
कारण कुल इतना
है कि कवि
हमसे कुछ नहीं
छीनता, वे
रुपये छीन
लेते हैं, और
कोई फर्क नहीं
है। कवि को हम
कहते हैं कि
ठीक है, देखो
सपने आकाश में,
कोई हर्जा
नहीं; क्योंकि
किसी के सपने
तो नहीं
छीनता। यह
आदमी भी सपने
देख रहा है
रुपये में; लेकिन यह
जरा उपद्रवी
मालूम पड़ता है,
इसलिए समाज
इसको घृणा
करेगा, क्रोध
करेगा कि यह
आदमी बुरा है,
पापी है।
मगर इसमें और
कवि में कोई
फर्क नहीं है।
फर्क इतना ही
है कि इसकी
कविता का ऑब्जेक्ट
रुपया है।
इनका जो रोमांस
है वह रुपये
के साथ चल
रहाहै।
इसलिए
जो रुपये को
प्रेम करता है, वह
फिर किसी को
प्रेम नहीं कर
पाता। फिर
किसी प्रेम की
जरूरत ही नहीं
है, वह
इतने बड़े
प्रेम में पड़ा
हुआ है कि अब
कोई पत्नी, कोई बेटा, कोई साहित्य,
कोई
धर्म--सब गौण है।
मन
ग्रंथिबनता
है,
क्योंकि मन
के विस्तार
में द्रष्टा
भूल जाता है।
जब
यह आदमी रुपये
को देख रहा
होता है तब यह
मानना बिलकुल
असंभव है कि
यह आदमी होता
भी है; रुपया
ही होता है--और
इसके भीतर कोई
देखने वाला
नहीं होता; इसे यह साफ
नहीं होता कि
मैं देखने
वाला हूं और
रुपया मुझसे
अलग है, ऐसा
नहीं मालूम
पड़ता। यह आदमी
रुपया ही हो
जाता है।
मन
का अर्थ हुआ :
चेतना जब भी
द्रष्टा को
भूल जाती है, साक्षी
को भूल जाती
है, तभी
तरंगित होकर
उपाधिग्रस्त
हो जाती है--यह
पहली ग्रंथि
है।
''प्राण आदि'‘--दूसरी
ग्रंथि कहा
ऋषि ने। प्राण.. हम सब
प्राण से भी
बड़ी बुरी तरह
आकर्षित हैं। प्राण
से आकर्षण का
अर्थ होता है.
जीवेषणा.. जीवेषणा--लस्ट
फॉर लाइफ; जीओ!
किसी भी तरह
जीओ! बिना
इसकी फिकर किए
कि क्यों? कोई
आदमी नहीं पूछता
कि क्यों? बस
जीओ। जैसे
जीना अपने आप
में पर्याप्त
है।
एक
आदमी सड़क पर
भीख मांग रहा
है--घुटने टूट
गए हैं, हाथ-पैर
गल गए हैं, नाली
में पड़ा है, सड़ रहा है, कीड़े पड़ गए
हैं--उससे भी
कहो कि मरना
चाहते हो तो
वह आपको क्रोध
से देखेगा। और
ऐसा नहीं कि
वह कोई गलती
कर रहा है, क्योंकि
कीड़े कितने ही
पड़ गए हों, जीवेषणा
नहीं सड़ती है;
वह जो जीने
की आकांक्षा
है, वह
उतनी ही उसके
भीतर है जितनी
आपके। और हो
सकता है और भी
ज्यादा हो; क्योंकि
बुझती हुई
दीये कि लौ और
भी भभक कर जलती
है, और
सुबह होने के
पहले अंधेरा
और गहरा हो
जाता है। हो
सकता है, मौत
को एकदम करीब
पाकर वह भरसक
अपनी पूरी
चेष्टा जीने
की कर रहा हो
जो आपने कभी न
की हो। आप कल
की प्रतीक्षा
भी कर सकते
हैं, उसके
लिए कल भी
नहीं है। जीना
है.. किसी भी
मूल्य पर जीना
है। और यह
आश्चर्य की
बात है कि
आदमी को किसी
भी मूल्य पर
जीने के लिए
राजी किया जा सकता
है। इसलिए
दुनिया में
इतने उपद्रव
घट सके, नहीं
तो नहीं घट सकते
थे।
पांच
हजार साल तक
हम शूद्रों को
बिलकुल जमीन पर
कीड़ों की तरह
रगड़वा सके, कोई
और कारण नहीं
है सिवाय इसके
कि जीवेषणा इतनी
प्रबल है कि
कोई भी स्थिति
हो, आदमी
जीना ही
चाहेगा।
दुनिया में
लाखों-करोड़ो लोगों
को गुलाम रखा जा
सका, पशुओं
की तरह, उसका
कोई और कारण
नहीं है, इसका
कारण सिर्फ
इतना नहीं है
कि दुनिया में
बहुत शरारती
और दुष्ट लोग
थे। नहीं, इसका
बहुत गहरा
कारण यह है कि
कोई भी आदमी
किसी भी शर्त
पर जीने को
राजी किया जा
सकता है, क्योंकि
जीवेषणा इतनी
प्रबल है।
जीवेषणा इतनी
प्रबल है कि
अगर कोई कहे
कि घिसटो, जिंदगी
भर उठ नहीं
सकते घुटने के
ऊपर, पैर
पर खड़े नहीं
हो सकते, घुटने
से ही घसिटना
पड़ेगा, तो
भी आदमी राजी
हो जाएगा, वह
कहेगा, ठीक
है, मरने से
तो यही बेहतर
है। मरने से कुछ
भी बेहतर है।
जीवेषणा
का अर्थ हुआ
कि मरने से
कुछ भी बेहतर है।
जीना... किसी भी
शर्त पर हम
राजी है।
इतनी
जीवेषणा अगर
हो-- और है--तो
आदमी अंतर की
यात्रा पर
नहीं जा सकता।
तब वह शरीर से
बंधा रहेगा, मन
से बंधा रहेगा,
प्राण से
बंधा
रहेगा--वह
इतने जोर से
बंधा रहेगा कि
हिल भी नहीं
सकता पीछे; इतने जोर से
जकड़े रहेगा
सबको कि कुछ
छूट न जाए हाथ
से, नहीं
तो कहीं खो न
जाऊं।
मेरे
पास लोग ध्यान
करने आते हैं।
ध्यान में अनिवार्यरूप
से एक क्षण
आता है जब
आदमी जीते-जी
मृत्यु से
गुजरता है; अनिवार्य
वह वक्त आ
जाता है भीतर,
जब उसे लगता
है कि यह तो
मौत घटने लगी,
अब जैसे मैं
मरा। लोग आते
हैं मेरे पास,
वे कहते हैं,
हम ध्यान
सीखने आए थे, हम कोई मरने
नहीं आए हैं।
और यह क्या हो
रहा है भीतर? ऐसा लगता है
कि कहीं मर तो
नहीं जाएंगे?
मैं उनको
कहता हूं कि
वही क्षण कीमत
का है, मर
ही जाओ भीतर, डरो मत, उसको
भी राजी हो
जाओ। तो फिर
तुम कभी नहीं
मरोगे। मगर वे
मुझसे पूछते
हैं, कोई
और तरकीब नहीं
है? यह
भीतर डूबना, यह मिटना-- -
इससे किसी
तरह... और कोई
रास्ता सरल...।
नहीं, कोई
रास्ता नहीं
है। ध्यान
मृत्यु का
अनुभव है--स्वेच्छा
से। मृत्यु तो
आती ही है, लेकिन
तब ध्यान का
अनुभव नहीं हो
पाएगा। मृत्यु
तो कई बार आई
है... कितनी बार
हम मरे नहीं! और
कितनी बार अभी
हम मरेंगे
नहीं! मरते ही
हम रहेंगे, क्योंकि
जीवेषणा और
कुछ नहीं करवा
सकती--मृत्यु
और जन्म, मृत्यु
और जन्म, मृत्यु
और जन्म!
जीवेषणा थका
डालती है... और
जीने का काम
तो पूरा हो
नहीं पाता, जीवन का
अनुभव नहीं हो
पाता; शरीर
चुक जाता है, जीवेषणा नहीं
चुकती। फिर
जीवेषणा नया
शरीर पकड़ लेती
है--पकड़ती चली
जाती है... और हर
बार मरना पड़ता
है। जीवेषणा
की ही मृत्यु
होती है
बार-बार; लेकिन
फिर भी वह
मरती
नहीं--प्रबल
है, और
बार-बार फिर
पुनर्जीवित
हो जाती है।
ध्यान
में भी वही
घटता है जो
मृत्यु में, लेकिन
मृत्यु में
घटता है
जबर्दस्ती।
इसलिए मृत्यु
में लोग बेहोश
हो जाते हैं; अधिकतम लोग
बेहोश मरते
हैं। और जो
बेहोश मरता है,
उसका दूसरा
जन्म निश्चित
है; जो होश
से मर सकता है,
उसका दूसरा
जन्म समाप्त हुआ।
बेहोश मरते
क्यों हैं हम?
बेहोश मरना
कोई मृत्यु की
अनिवार्यता
नहीं है।
बेहोश मरते हम
इसलिए हैं कि
जीवन की एक
सुरक्षा की
व्यवस्था है।
कभी-कभी
लोग कहते हैं
एक-दूसरे से
कि मैं बहुत असह्य
दुख भोग रहा
हूं। यह
बिलकुल झूठ
है। क्योंकि
असह्य दुख कोई
भोगता ही
नहीं। असह्य
दुख होने के
पहले ही आदमी
बेहोश हो जाता
है। यह बिल्ट-इन, यह
व्यक्ति के
भीतर सुरक्षा
का आयोजन है..
जैसे ही सहने
की सीमा के
पार दुख जाता
है कि आप
बेहोश हो जाते
हैं। असल में
बेहोशी का
मतलब ही यह है
कि दुख सहने
की सीमा के
पार गया, अब
होश में नहीं
रहा जा सकता; अब बेहोश
होकर ही सहा
जा सकता है।
इसलिए बेहोश
हो जाते हैं।
इसलिए
हम ऑपरेशन में
बेहोशी का
उपयोग करते
हैं। सर्जरी
में आदमी को
पहले बेहोश
करते हैं, क्योंकि
असह्य दुख बीच
में घटित होगा,
और उसके लिए
बेहोशी दे
देनी पहले से
ही उचित और
उपयोगी है। तो
प्रकृति की भी
भीतरी
सर्जिकल व्यवस्था
है. जब भी दुख
असह्य होता है,
हम बेहोश हो
जाते हैं।
इसलिए असह्य
दुख का अनुभव
किसी ने कभी
नहीं किया है।
जिन दुखों का
आपने अनुभव
किया है, वे
सब सहनीय थे; नहीं तो आप
बेहोश हो गए
होते।
मृत्यु
सबसे बड़ा
सर्जिकल
ऑपरेशन है.. -एक
चेतना को एक
पूरे शरीर से
निकाला जाता
है। बाकी किसी..
किसी सर्जिकल
ऑपरेशन में, किसी
ऑपरेशन -टेबल
पर जो भी
ऑपरेशन होते
हैं, सब
आशिक हैं। कभी
कोई हड्डी
निकाली जाती
है, कभी
कोई हिस्सा
निकाला जाता
है, कभी
कोई टुकड़ा, कभी
कुछ--लेकिन
मृत्यु पूरी
चेतना को इस
शरीर से अलग
करती है... और उस
चेतना को जो
इतने जोर से शरीर
को जकड़े हुए
है कि असह्य
पीड़ा की
संभावना पैदा
होती है, इसलिए
बेहोश हो जाते
हैं। सिर्फ
बुद्ध जैसा व्यक्ति
बेहोश नहीं
मरता।
और
दूसरी मजे की
घटना घटती है.
जो व्यक्ति
बेहोश नहीं
मरता उसे अपनी
मृत्यु का
पूर्व-स्मरण सहज
ही हो जाता
है। वह भी
भीतरी
व्यवस्था है :
आपको मृत्यु
की खबर नहीं
दी जाती, भीतर
से आपके
शरीर-यंत्र को
पूरा पता चलने
लगता है कि
मौत आ रही है।
लेकिन आपको
खबर नहीं दी जाती,
क्योंकि
खबर अगर मिल
जाए तो आप
मरने के पहले
मर जाओगे। पता
चल जाए कि सात
दिन बाद मरना
है, तो यह
सात दिन इतनी
भयंकर मृत्यु
होगी जिसका हिसाब
नहीं। इसलिए
आप भरोसे
योग्य नहीं हो,
आपका शरीर
भी आपको खबर
नहीं देता; आपका शरीर
भी आपसे
छिपाता है। जो
आदमी होशपूर्वक
मर सकता है, उसे पता हो
जाता है।
बुद्ध
मरने के दिन
कहते हैं कि
आज अब मैं
विदा होता हूं
तुम्हें कुछ
आखिरी बात तो
नहीं पूछनी? पूछने
का तो सवाल न
रहा, लोग
तो रोने लगे, चीखने-चिल्लाने
लगे। बुद्ध
ने
कहा : समय मत
खोओ;
यह तुम पीछे
भी कर सकते हो,
इतनी जल्दी
कुछ नहीं; मेरा
समय चुका जा
रहा है, तुम्हें
कुछ पूछना तो
नहीं है? पर
वे तो इतने
विह्वल हो गए हैं..
क्या पूछना, क्या ताछना?
ये सब
फुर्सत की
बातें हैं
पूछना वगैरह।
और यह बुद्ध
भी कैसा आदमी है!
यह कोई वक्त
है? आनंद
कहता है, कोई
प्रश्न ही नही
सूझता।
बुद्ध
तीन बार पूछते
हैं और फिर
कहते हैं : तब ठीक
है,
तुम अपना
काम करो, मैं
अपना काम करूं।
वे
वृक्ष के पीछे
चले गए हैं, आसन
लगा कर बैठ गए
हैं, आख
उन्होंने बंद
कर ली। और
बुद्ध की कथा
कहती है : वे
धीरे- धीरे
मृत्यु में
प्रवेश करने
लगे। पहला चरण
पूरा.. मृत्यु
के चार चरण
बुद्ध ने कहे
हैं। वे ही
चार चरण ध्यान
के चार चरण भी
हैं। पहला चरण
पूरा किया, दूसरा चरण
पूरा किया, वे तीसरे
चरण को पूरा
ही कर रहे हैं
तब गांव से एक
आदमी भागा हुआ
आया, और
उसने कहा कि
मैंने सुना है
कि बुद्ध की
मृत्यु का दिन
आ गया; मुझे
कुछ पूछना है।
लोगों
ने कहा. अब तुम
चुप हो जाओ, अब
तुम बहुत देर
करके आए हो; अब तो वे
भीतर की उस
यात्रा पर निकल
भी चुके।
बुद्ध
के लिए मृत्यु
भी एक यात्रा
है--एक सचेतन
यात्रा। यह
कोई मौत नहीं
है जो बुद्ध
पर आ रही है, यह
बुद्ध हैं जो
मौत में जा
रहे हैं। इस
फर्क को ठीक
से समझ लें, यह कोई मौत
नहीं है जौ
बुद्ध पर आ
रही है। मौत हम
पर आती है; हम
तडूफड़ाते
रहते हैं और
वह आई चली
जाती है। यह
बुद्ध हैं जो
मौत में जा
रहे हैं एक-एक
कदम। भिक्षुओं
ने कहा कि अब
नहीं.. जोर
सेमत
उस
आदमी ने कहा :
लेकिन नहीं, मैं
रुक नहीं सकता,
मुझे पूछना
ही है; क्योंकि
पता नहीं, अब
कितने जन्मों
के बाद बुद्ध
जैसे व्यक्ति
की फिर से
उपलब्धि
होगी। और यह
मेराप्रश्न..।
तो
उन्होंने कहा
: लेकिन नासमझ!
कितने दिन से
बुद्ध इस गांव
में रुके हैं? उसने
कहा कि यह
सवाल ही नहीं..
बुद्ध, पहले
तीस साल से
मैं उनको
जानता हूं इस
गांव से
निकलते
रहेहैं, लेकिन
दुकान पर कभी
भीड़ थी, कभी
ग्राहक थे, कभी घर में बच्चा
बीमार था, कभी
लड़की की शादी
थी--मैंने
सोचा, कभी..
फुर्सत से..
सुविधा से..
लेकिन अब तो
कोई उपाय ही
नहीं है, वे
मरने के ही
करीब हैं। और
बुद्ध वापस
लौट आए वृक्ष
के पास से और
उन्होंने कहा
कि मत रोको उसे;
अभी मैं
तीसरे में ही
था, अभी
चौथे में नहीं
पहुंचा था.. और
मेरे नाम पर यह
बदनामी न रह
जाए कि मैं
जिंदा था और
एक आदमी पूछने
आया और बिना
उत्तर के वापस
लौट गया। तो इसका
उत्तर पूछ लेने
दो।
यह
भी एक मरना
है। लेकिन यह
मरना उसी को
उपलब्ध होता
है जो इसके
पहले ध्यान
में मरना सीख
गया हो। जो
ध्यान के चरण
हैं,
वे ही
मृत्यु के चरण
हैं; क्योंकि
ध्यान भी शरीर
से छुड़ा कर
वहां ले जाता
है जहां चेतना
का केंद्र है
और मृत्यु भी
शरीर से छुड़ा
कर वहां ले
जाती है जहां
चेतना का
केंद्र है।
लेकिन मृत्यु
में आप बेहोश
हो गए होते
हैं, क्योंकि
वह आपकी इच्छा
के विपरीत
होती है; और
ध्यान में आप
होशपूर्वक
होते हैं, क्योंकि
वह स्वेच्छा की
गति है।
प्राण
दूसरी.
जीवेषणा
दूसरी हमारी
ग्रंथि है।
तीसरी
ग्रंथि है : ''इच्छा
आदि'‘--डिजायरिंग,
वासना, कामना,
तृष्णा।
ऐसा कोई क्षण
आपने जाना है
जब आपके भीतर
कोई इच्छा न
रही हो? अगर
एक क्षण को भी
आप इस अवस्था
में आ जाएं जब
कह सकें मेरे
भीतर इस क्षण
कोई भी इच्छा
नहीं, तो
उसी क्षण आप
परमात्मा हो
जाते हैं। लोग
कहते हैं, परमात्मा
कहां है? खोजना
है; परमात्मा
को पाने की
बड़ी इच्छा है।
इच्छा की वजह
से ही न पा
सकेंगे। इतनी
सी इच्छा भी
छोटी नहीं है,
काफी है।
इच्छा
का अर्थ यह है
कि जो है
उसमें मुझे रस
नहीं है, जो
होना चाहिए
उसमें मुझे रस
है। इच्छा का
अर्थ क्या है?
तृष्णा
किसे कहते हैं
हम? जो है
उसमें मुझे
कोई रस नहीं
है, जो
होना चाहिए
उसमें मुझे रस
है। और जब वह
होगा तब उसमें
भी मुझे रस
नहीं होगा, क्योंकि तब
फिर वह मौजूद
हो जाएगा; मुझे
उसमें रस है
जो मौजूद नहीं
है। मुझे सदा आगे...
आगे.. मुझे आगे
रस है।
तो
इच्छा हमेशा
तनी रहती है
भविष्य के लिए
और वर्तमान को
चूकती चली
जाती है। और
जो भी है वह
अभी है और
यहीं है।
इसलिए
इच्छा से
ग्रसित
व्यक्ति
ग्रंथि से बंधा
हो जाता है..
जितनी ज्यादा
इच्छाएं उतनी
ग्रथियां; जितनी
बड़ी इच्छाएं
उतनी
ग्रंथियां।
और हम तो सिर्फ
इच्छाओं के
पुंज हैं-- सब
अधूरी
इच्छाओं के, क्योंकि कोई
इच्छा पूरी
होती नहीं।
इच्छाएं.. -इच्छाएं...
और उनका हम
पुंज हैं। हम
सिर्फ मांग हैं..
हजारों तरह के
भिखारी हमारे
भीतर खड़े हैं;
एक- एक
इच्छा एक-एक
भीख के लिए
मांग कर रही
है। कुछ मिलता
नहीं, भिक्षा
के पात्रों का
ढेर है भीतर; सब खाली हैं
और हम भागे
चले जाते हैं।
और भिक्षा के
पात्र रोज-रोज
इकट्ठे करते
चले जाते हैं।
कोई
पुरानी इच्छा
तो पूरी नहीं
होती, लेकिन
नई इच्छाएं
संगृहीत होती
चली जाती हैं,
क्योंकि
इच्छा को जन्म
देना एकदम
आसान, इच्छा
को पूरा करना
एकदम असंभव।
चारों तरफ जो भी
दिखाई पड़ता है,
सभी की
इच्छा बन जाती
है--यह भी होना,
यह भी होना,
यह भी
होना--और मजा
यह है कि अब तक
जितनी इच्छाएं
बनाईं, उसमें
एक भी पूरी
नहीं हुई है, और ये सब
अधूरी
इच्छाएं
इकट्ठी होती
चली जाती हैं।
तब हम सिर्फ
एक भिक्षा के
पात्र रह जाते
हैं--एक
भिखारी!
बुद्ध
अपने
संन्यासियों
को भिक्षु
कहते थे। खूब
मजाक किया
उन्होंने।
दिस इज वेरी
आइरॉनिकल। और मजाक
में ही कहा, लेकिन
मजाक गहरा है
और गंभीर है।
बुद्ध
एक गांव में
गए हैं, भिक्षा
का पात्र लेकर
भीख मांगने
निकले हैं, और गाव का जो
बड़ा धनपति है,
नगर सेठ है,
उसने कहा कि
क्यों? तुम
जैसे सुंदर..
सवर्ण सुंदर
व्यक्तित्व
था बुद्ध का; शायद उस समय
वैसा सुंदर
व्यक्ति
खोजना मुश्किल
था.. तुम जैसा
सुंदर
व्यक्ति, और
तुम भीख
मांगते हो सड़क
पर भिक्षा का
पात्र लेकर? तुम सम्राट
होने योग्य
हो। मैं नहीं
पूछता, तुम
कौन हो, क्या
हो--तुम्हारी
जाति, तुम्हारा
धर्म, तुम्हारा
कुल; मैं
तुम्हें अपनी
लड़की से
विवाहे देता
हूं; और
मेरी सारी
संपत्ति के
तुम मालिक हो
जाओ, क्योंकि
मेरी लड़की ही
अकेली संपदा
की अधिकारिणी
है।
बुद्ध
ने कहा : काश, ऐसा
सच होता कि
मैं भिक्षु होता
और तुम मालिक
होते! बाकी
तुम सब को भिखारी
देखकर और अपने
को मालिक समझता
देखकर हमने भिक्षा
का पात्र हाथ में
लिया है; क्योंकि
अपने को मालिक
कहना ठीक नहीं
मालूम पड़ता, तुम सभी
अपने को मालिक
कहते हो। हम
भिखारी हैं क्योंकि
जिस दुनिया
में भिखारी
अपने को मालिक
समझते हों, उस दुनिया में
मालिकों को अपने
को भिखारी समझ
लेना ही उचित है।
अनूठी
घटना घटी थी
इस जमीन पर।
इतने बड़े
सम्राट
दुनिया में
बहुत कम पैदा
हुए हैं जो
भिक्षा मांगने
की हिम्मत कर
सके हों। और
अकेला भारत जमीन
पर एक देश है
जहां बुद्ध और
महावीर जैसा व्यक्ति
सड़क पर भिक्षा
मांगने निकला
है--अकेला!
बिलकुल अकेला!
लेकिन यह किसी
भीतरी
मालकियत की
खबर है। और यह
बड़ा व्यंग्य
है हम सब पर।
भारी व्यंग्य
है।
जिनके
भीतर भिक्षा
के पात्र ही
पात्र भरे हैं, वे
मालिक होने के
वहम में जीते
हैं; और
जिनके भीतर से
सारी तृष्णा
चली गई, वे
भिक्षा का
पात्र लेकर
सड़क पर निकलते
हैं।
साइकोड्रामा
है। यह बहुत
मजे का व्यंग्य
है। और बुद्ध
जैसे व्यक्ति
के व्यंग्यों
को भी हम नहीं
समझ पाते, यह
बड़ी अड़चन हो
जाती है।
वासना, इच्छा,
तृष्णा--मांग..
मांग... और
मांग। जो
मांगता ही चला
जाता है वह
बाहर की यात्रा
पर ही भटकता
रहेगा। भीतर
तो वही आता है
जो मांगना बंद
कर देता है।
तो’ इच्छा' को
तीसरी ग्रंथि
कहा है।
आज
इतना ही। दो सूत्र
रह गए, वह कल सुबह
हम बात करेंगे।
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