साक्षी, कूटस्थ और अंतर्यामी—दसवां प्रवचन
ध्यान
योग शिविर,
दिनांक
13 जनवरी 1972
प्रात:
माथेरान।
सूत्र
:
ज्ञातृज्ञानज्ञेयानामाविर्भावरिरोभाव
ज्ञाता
स्वयंमाविर्भावरिरोभावरहित:
स्वयंज्योति:
साक्षीत्युच्यते।।9।।
ब्रह्मादिपिपीलिकापर्यन्तं
सर्वप्राणि-
बुद्धिष्ववाशिष्टतयोपलभ्यमान:
सर्वप्राणिबुद्धिस्थो
यदा तदा
कूटस्थ इत्युच्यते।।10।।
कूटस्थोपहित
भेदानाम्
स्वरूपलाभहेतुर्मूत्वा
मणिगणेसूत्रमिव
सर्वक्षेत्रेष्वनुस्यूत्वेन
सदा काशेते
ज्ञाता, ज्ञान
और ज्ञेय की
उत्पति तथा लय
को जानने वाला
फिर भी
स्वयं
उत्पत्ति और
लय से रहित आत्मा
साक्षी
कहलाता है।
ब्रह्मा
के लेकर चींटी
तक सब
प्राणियों की
बुद्धि में
रहने वाला और
उनके स्थूल,
सूक्ष्म
आदि देहों के
नाश होने पर
जो शेष रहा
दिखलाई देता
है,
तह
कूटस्थ कहा
जाता है।
इन कूटस्थ
आदि उपाधि के
भेदों में से
स्वरूप
लाभ के लिए जो
आत्मा समस्त
शरीर में
धागे
की तरह पिरोया
जान पड़ता है,
वह
अंतर्यामी
कहतलाता है।
छूर्वीय
मनीषा, जैसा
मनुष्य है उसे
बीमारियों के
समूह से अधिक
नहीं मानती
है-- जैसा
मनुष्य है; उसे बीमारी
से ज्यादा
नहीं मानती
है। लेकिन यह
जीवन के प्रति
कोई निराशाजनक
दृष्टिकोण
नहीं है। यह
दृष्टिकोण हताश
दृष्टिकोण
नहीं है, पेसिमिस्ट
नहीं है। जैसा
मनुष्य है उसे
बीमार इसीलिए
मानती है, क्योंकि
उस बीमारी को
ही स्वयं का
स्वास्थ्य समझ
लेने पर जो
मनुष्य हो
सकता है वह
नहीं हो पाता
है।
मनुष्य
की संभावना
अनंत है। जैसे
हीरा
कंकड़-पत्थरों
में पड़ा हो, और
स्वयं को
कंकड़-पत्थर ही
मान ले, तो
संभावनाओं का
द्वार रुक
जाता है, आंतरिक
विकास की कोई
गुंजाइश नहीं
रह जाती; कुछ
और होने का
उपाय ही नहीं
रह जाता। जो
हम हैं, अगर
हम मान लें कि
यही हमारा
होना है, तो
फिर विकास का
कोई उपाय नहीं
है। विकास
संभव है एक ही
अर्थों में कि
जो हम हैं वह
हम अपने को न
मान लें। जिस
दिशा में भी
गति होती है
उस दिशा में
हमें अपने
होने को पूर्ण
नहीं मान लेना
चाहिए।
अनूठी
घटना मनुष्य
के इतिहास में
घटी है : पश्चिम
ने जैसी
परिस्थितियां
हैं बाहर, उनको
अंतिम नहीं
माना। तो
पश्चिम
परिस्थतियां
बदलने में
बहुत दूर तक
सफल हुआ है।
गरीबी थी तो
उसे स्वीकार
नहीं किया, बीमारी थी
तो उसे
स्वीकार नहीं
किया, झोपड़ा
था तो उसे
स्वीकार नहीं
किया, रास्ता
ऊबड़-खाबड़ था
तो उसे
स्वीकार नहीं
किया, आदमी
की गति कम थी
तो उसे
स्वीकार नहीं किया--बाहर
की परिस्थिति
को, जैसी
वह थी वैसा
मानने को
पश्चिम राजी
नहीं हुआ है, इसलिए
पश्चिम ने
बाहर की
परिस्थिति को
आमूल परिवर्तित
कर दिया है।
लेकिन
पूरब ने और भी
गहरा प्रयोग
किया है : आदमी
भीतर जैसा था, उसे
पूरब ने
स्वीकार नहीं
किया। उसी, उसी बात की
सूचना है यह
कि हम आदमी
जैसा है उसे
बीमार मानते
हैं; वह
परिवर्तन
योग्य है, उसे
परिवर्तित
होना ही चाहिए;
वह बदले तो
ही स्वरूप को
पा सकेगा, वह
बदले तो ही उस
स्थिति में
पहुंच सकेगा
जहां शांत और
संतुष्ट और
आनंदित हो
सके।
हमारी
बेचैनी बीज की
बेचैनी है।
बीज वृक्ष न हो
जाए तो बेचैनी
होगी ही। और
कोई भी बीज
अगर मान ले कि
बीज ही होना
उसकी पूर्णता
है,
तो फिर
अंकुर फूटने
का उपाय नहीं
रह जाता है। इसलिए
इन पाच रुग्ण
समूहों का ऋषि
ने विवेचन किया
है। तीन पर
हमने रात बात
की, चौथे पर
चौथा
है : ''सत्व।'' और
पांचवां है : ''पुण्य।''
तीसरा
था. 'इच्छा'--तृष्णा,
वासना।
इच्छा का अर्थ
होता है किसी
और चीज की इच्छा--मैं
धन चाहता हूं
यश चाहता हूं--
धन और यश मुझसे
बाहर हैं। एक
और भी सूक्ष्म
इच्छा है, जिसे
हम नहीं समझ
पाते, उसी
को ऋषि ' सत्व
' कह रहा
है।
एक
आदमी धन भी
नहीं चाहता, यश
भी नहीं चाहता,
लेकिन एक
आदमी अच्छा
आदमी होना
चाहता है; एक
आदमी साधु
होना चाहता है,
एक आदमी
संन्यासी
होना चाहता
है--यह भी
इच्छा है..
यद्यपि बाहर
कुछ भी नहीं
जुड़ेगा; यह
भी तृष्णा है--
धन की नहीं है
यह, यह
धर्म की है।
इच्छाएं भी
बीमारियां
हैं तो यह
इच्छा भी एक
रुग्णता है.
मैं कुछ होना
चाहता हूं--
भीतर ही सही।
एक
मित्र कल आए
थे,
वे कहते थे :
संन्यास तो
मुझे चाहिए, लेकिन
आंतरिक, बाह्य
नहीं।
क्योंकि बाहर
तो इच्छा
मालूम पड़ती
है--बाहर का
संन्यास भी, लेकिन भीतर
का संन्यास
इच्छा मालूम
नहीं पड़ती, वह बहुत
सूक्ष्म
इच्छा है।
इच्छा तो वह
भी है। जब भी
मैं कुछ होना
चाहता हूं तो
तृष्णा तो
वहां होगी ही।
सत्व
की तृष्णा को
भी--ऋषि कह रहा
है--अगर बांधा, तो
वह भी बीमारी
बन जाएगी..
सत्य की इच्छा
भी। अंतस को
शुद्ध करने की,
पूर्ण करने
की...
अब
यह बहुत मजे
की बात है : इन
सारी
बीमारियों को
इसीलिए समझा
जा रहा है, ताकि
वह जो भीतर
पूर्ण है वह
प्रकट हो जाए।
अब एक दूसरी
बात और खयाल
में ले लेनी
चाहिए. मैंने
आपसे कहा कि
जैसे बीज, तो
उदाहरण बहुत
थोड़ी दूर तक
ही साथ चलता
है, ज्यादा
दूर तक साथ
नहीं चलता; कोई उदाहरण
ज्यादा दूर तक
साथ नहीं
चलता। उसे सीमा
के बाहर
खींचने से
उपद्रव होता
है। बीज अगर
अपने को बीज
ही मान ले तो
वृक्ष नहीं हो
पाएगा। यह ठीक
है, लेकिन
मनुष्य जो
अपने भीतर है,
वह है ही।
अगर कुछ और
अपने को मान
ले, तो जान
नहीं
पाएगा--है तो
वह ही। भीतर
जो वह है, वह
कोई भविष्य की
विकासमान
स्थिति नहीं
है; अभी मौजूद
है।
जैसे
एक भिखारी है, उसकी
जेब में चाबी
रखी है खजाने
की। वह खजाना अभी
मौजूद है, वह
चाबी अभी
मौजूद है, लेकिन
भिखारी चाबी
को भूल गया, याद नहीं कर
पाता है, और
भीख मांगने
में लगा रहता
है.. सुबह से
सांझ तक भीख
मांगता है, और भीख
मांगने में
इतना व्यस्त
रहता है कि
खीसे में हाथ
डालने का मौका
नहीं आता, हाथ
सदा दूसरे के
सामने फैले
रहते हैं। और
जो हाथ दूसरे
के सामने फैले
हों, वे
अपने खीसे में
कैसे जा सकते
हैं? वे
मांगने में
लगे रहते हैं,
मन दूसरे की
तरफ उत्सुक
बना रहता है, अपनी खोज की
सुविधा नहीं
मिलती। रात
अगर थोड़ी बहुत
फुर्सत भी
मिलती है तो
वह भी दूसरों
से जो मिला है
उसकी गिनती और
लेखा-जोखा
करने में खो
जाता है। सुबह
उठ कर फिर दौड़
है। सांझ फिर
हिसाब-किताब
है। करोड़पति
ही हिसाब करते
हों ऐसा नहीं
है, भिखमंगे
भी हिसाब करते
हैं। और इसलिए
भिखमंगे और
करोड़पति में
जो अंतर होता
है वह कोई
गुणात्मक नहीं
होता, परिणात्मक
होता है, मात्रा
का ही होता है,
वह थोड़ा
छोटा हिसाब है
उनका, उनका
थोड़ा बड़ा
हिसाब है, लेकिन
भिखमंगेपन
में कोई फर्क
नहीं है।
इस
हिसाब-किताब
में जिंदगी
बीत जाती है।
और अगर भीतर
कुछ था तो उसे
उसका मौका ही
नहीं मिलता।
और भिखारी को
एक बात
निश्चित हो
जाती है कि मेरे
पास नहीं है...
और सबके पास है
जिनसे मुझे
लेना है।
मांगते-मांगते
यह थिर हो
जाता है कि जो
भी मिलने
योग्य है वह
दूसरे के पास
है,
वह मेरे पास
नहीं है।
और
ऐसा जब मैं
कहता हूं तो
हम सबकी
मनोदशा ऐसी ही
है। जब भी हमें
कोई चीज चाहने
योग्य लगती है
तो वह दूसरे
के पास होती
है। सदा दूसरे
के पास हमारी
वासना की
तृप्ति का
उपाय होता
है--सदा दूसरे
के पास। इसलिए
हम मांगते चले
जाते हैं--
मांगते, मांगते,
मांगते
निरंतर एक गहन
आदत का
निर्माण होता
है और फिर
भीतर हमें
देखने का उपाय
नहीं रह जाता।
तो
ऋषि यह कह रहा
है कि जो अपने
को श्रेष्ठ
बनाने की
कोशिश में भी
लगे हों-- धन की
दृष्टि से नहीं, यश
की दृष्टि से
नहीं, बड़ी
शुभ कामना से,
बड़ी
धार्मिक
इच्छा से, बड़ी
सद-इच्छा से, बड़े सात्विक
भाव से सत्य
की खोज कर रहे
हों.. सत्व की
खोज का अर्थ
है : सात्विक
की खोज.. जिसे
दुनिया में
कोई भी बुरा नहीं
कहता। एक आदमी
धन इकट्ठा कर
रहा है तो कोई
भी कहेगा कि
क्या कर रहे
हो? और एक
आदमी ज्ञान
इकट्ठा कर रहा
है तो कोई भी नहीं
कहेगा कि क्या
कर रहे हो, यद्यपि
दोनों ही
इकट्ठा करने
की तृप्ति को
पूरा.. -इकट्ठा
करने की वासना
को पूरा कर
रहे हैं। जो
आदमी धन इकट्ठा
कर रहा है, उसको
लोग कहेंगे कि
क्या कचरे में
पड़े हो; लेकिन
जो शान इकट्ठा
कर रहा है
उसको कहेंगे
कि वह बड़ी शुभ
यात्रा पर गया
है, सत्व
की यात्रा कर
रहा है। लेकिन
ज्ञान के ठीकरे
भी वैसे ही
बाहर से मिल जाते
हैं जैसेकि धन
के मिलते हैं।
और
ज्ञान के भी
सिक्के हैं।
एक आदमी
शास्त्र को
कंठस्थ कर
लेता है तो
ज्ञानी हो
जाता है। शास्त्र
उतना ही बाहर
है जितना धन
बाहर है। तिजोड़ी
में नहीं रखता
यह,
स्मृति में
रखता
है--स्मृति एक
तिजोड़ी है। और
एक लिहाज से
यह आदमी
ज्यादा
होशियार है, ज्यादा वणिक
है; क्योंकि
तिजोडिया
बाहर की काटी
और खोली जा सकती
हैं, चुराई
जा सकती हैं, स्मृति की
तिजोड़ी को
चुराना जरा
मुश्किल है। जब
तक कि माओ
जैसा कोई
व्यक्ति
हुकूमत में न
हो तब तक जरा
मुश्किल है।
चुराया तो
वहां भी जा सकता
है। अब तो
कोशिश चलती है
कि आपकी स्मृति
को भी छोड़ा न
जाए, आप
उसके भी मालिक
न रह जाएं। तो
अब तो
ब्रेन-वॉश के,
मस्तिष्क
को धो डालने
के और साफ कर
देने के उपाय विकसित
हो गए हैं। और
आपकी खोपड़ी को
साफ किया जा सकता
है।
कोरियन
युद्ध के बाद चीन
ने जो कैदी
पकड़ रखे थे
अमरीकन, युद्धबंदी
बना रखे थे, उन पर
उन्होंने गहन
प्रयोग किए
हैं मस्तिष्क
को धो डालने
के। और एक
बहुत अजीब
अनुभव वहां आया,
और वह अनुभव
बड़ा कीमती है।
वह अनुभव यह
आया कि सौ
आदमियों में
पांच आदमी ही
ऐसे होते हैं
जिनके
मस्तिष्क को
धोने में
दिक्कत आती है,
पिचानवे
प्रतिशत
लोगों के
मस्तिष्क को धोने
में कोई
कठिनाई नहीं
है, क्योंकि
पिचानवे
प्रतिशत की
कोई मालकियत
ही अपनी
स्मृति पर
नहीं होती।
बहुत आसानी से
धोई जा सकती
है। बड़ी सरल
तरकीबों से
स्मृति धुल जाती
है। और वह
आदमी जब
स्मृति धुल कर
बाहर आता है, तो वह खुद भी
खयाल नहीं कर
सकता है कि कल
मैं क्या मानता
था, कल
मेरा क्या
भरोसा था, कल
मेरा क्या
विश्वास था।
स्टैलिन
और माओ ने, दोनों
ने बड़े
महत्वपूर्ण
प्रयोग किए
हैं--खतरनाक
और आदमी की
स्वतंत्रता
के प्रतिकूल,
पर
महत्वपूर्ण, क्योंकि
उनसे कुछ
बातें जाहिर
हुई हैं। जिस
आदमी ने हत्या
नहीं की है
उसे राजी
करवाया जा
सकता है कि
उसने हत्या की
है और वह
अदालत में आकर
वक्तव्य देता
है कि मैंने
हत्या की है। और
मजा तो तब हुआ
जब कि बाद में
वह आदमी भी
पकड़ा जा सका
जिसने हत्या
की थी। और इस
आदमी ने कनफेस
भी कर लिया, इसकी फांसी
भी हो गई; और
इसने स्वीकार
किया था। और
इसने स्वीकार किसी
दमन और दबाव
में नहीं किया
था--जो नई घटना है
वह यह है. इसको
कोई मार- पीट
कर स्वीकार
नहीं करवाया
गया था, इसकी
स्मृति को
धोकर इसे
स्वीकार
करवाया गया था।
एक दफा स्मृति
धुल जाए तो
दूसरी तरकीब
उसके भीतर कुछ
भी डाल देने
की... और कठिन
नहीं है।
एक
आदमी को सात दिन
जगाए रखा जाए, सोने
न दिया जाए, तो उसके
भीतर
अस्तव्यस्तता
पैदा हो जाती
है। फिर उसको
साफ नहीं पता
चलता कि वह इस
वक्त सपना देख
रहा है कि
वस्तुत: जागा
है कि सो रहा
है कि क्या कर
रहा है। सात
दिन उसे सोने
न दिया जाए, सपना न
देखने दिया
जाए, तो वह
खुली आख से सपना
देखना शुरू कर
देता है। फिर
उसे पक्का
नहीं होता कि
सामने जो
दीवाल है वह है,
या केवल
दिखाई पड़ रही
है। जैसे ही
उसके स्वप्न
और सत्य के
बोध में भांति
खड़ी हो जाती
है वैसे ही वह
सजेस्टिरेबल
हो गया; अब
उसके
मस्तिष्क से
कुछ भी बाहर
और भीतर किया
जा सकता है।
ऐसे क्षण में
उसके ऊपर
रिकॉर्ड चलाए
जाएंगे, समझाया
जाएगा, बुझाया
जाएगा और जो
बात भी आप
उसके मन में
डाल देंगे.. अब
वह सजेस्टिबल
है; अब वह
स्वीकार कर
लेगा। वह बात
गहरे अचेतन
में उतर
जाएगी। वह
आदमी कल अदालत
में कह सकता
है कि मैंने
हत्या की है, क्योंकि यह
विचार उसके मन
में डाल दिया
गया। और अब
उसके बस के बाहर
है कि वह इसकी
इनकार कर सके।
यह वह खुद ही मानता
है कि उसने
हत्या की है, यह उसकी
स्मृति बदल दी
गई।
लेकिन
फिर भी स्मृति
की तिजोड़ी पर
अब तक चोर हमला
नहीं कर सके
थे... तो
ज्ञानियो ने
लिखा है, ज्ञानियों
ने नहीं कहना चाहिए;
पंडितों ने
लिखा है कि धन
चोरी जा सकता
है, ज्ञान
चोरी नहीं जा
सकता। अब जा
सकता है, क्योंकि
वह भी संग्रह
है। और संग्रह
की जो वृत्ति
है, वह एक
सी है, उसमें
कोई फर्क नहीं
पड़ता। आदमी
क्या इकट्ठा करता
है, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता.. वह
पोस्टल
स्टैम्प इकट्ठा
करता है कि
रुपये इकट्ठा
करता है कि
ज्ञान इकट्ठा
करता है--क्या
इकट्ठा करता
है, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। इकट्ठा
करने में जो रस
है वह अपने से
बाहर है।
इसीलिए
अपरिग्रह का
इतना मूल्य
है। अपरिग्रह
का मतलब यह
नहीं है कि
बाहर जो है
उसे छोड़ दो। अपरिग्रह
का मूल्य, अपरिग्रह
का अर्थ है कि
इकट्ठा करने
की जो वृत्ति
है उसे छोड़
दो। तो भीतर
की यात्रा हो
सकती है।
सत्य
भी एक तरह का
संग्रह है। तो
एक आदमी कहता है
कि मैंने तीन
महीने का
उपवास किया।
इसने इकट्ठा
कुछ भी नहीं
किया; क्योंकि
भोजन इकट्ठा
किया जाता है
शरीर में, इसने
वह भी इकट्ठा
नहीं किया।
तीन महीने में
इसका वजन भी
गिरा; इसने
खोया ही कुछ, इकट्ठा कुछ
भी नहीं किया।
लेकिन तीन
महीने का उपवास,
यह
सात्विकता
इकट्ठी की..
लेकिन इसको भी
यह इकट्ठा कर
रहा है। यह
बताना चाहता
है कि मैंने तीन
महीने उपवास
किया। पर यह
संग्रह का भाव
है।
एक
आदमी कहता है, मैंने
इतना दान
किया। दान में
तो इकट्टो
नहीं होता, हाथ से जाता
है। धन तो
जाता है लेकिन
दान का भाव
इकट्ठा हो
जाता है।..
मैंने इतना
दान किया! एक मित्र
आए थे मिलने।
उनकी पत्नी
साथ थी। उनकी
पत्नी मुझसे
परिचित थी, पति को लेकर
मिलाने आई थी।
मिलाते वक्त
उसने कहा कि
मेरे पति ने
अब तक एक लाख
रुपये का दान
किया है। पति
ने कहा कि
नहीं-नहीं, एक लाख दस
हजार!
यह
दिया है, लेकिन
देने का भाव
भी इकट्ठा हो
जाता है। हम जो
इकट्ठा करते
हैं उसकी ही
गिनती नहीं
रखते, जो
छोड़ते हैं
उसकी भी गिनती
रखते हैं। मगर
गिनती जारी
रहती है।
सत्य
भी हम इकट्ठा
करते हैं। कुछ
अच्छा करते हैं
तो उसको भी
स्मरण में
रखते हैं।
बल्कि मजे की
बात है, बुरा
अगर करते हैं
तो उसको स्मरण
में नहीं रखते।
तो बुरे आदमी
के पास बुराई
का बहुत
संग्रह नहीं
होता। दूसरे
कहते हैं कि
तू बुरा है; वह कहता है, मैं कहां? लेकिन अच्छे
आदमी के पास
अच्छाई का
संग्रह होता
है। इसलिए कई
बार यह बहुत
अभूतपूर्व
घटना घटती है
कि बुरा आदमी
जितने जल्दी
अंतस में छलांग
लगा लेता
है, कभी-कभी
अच्छा आदमी
उतने जल्दी
नहीं लगा पाता।
उसका कारण है
कि बुरा आदमी
एक लिहाज से
खाली होता है,
क्योंकि जो
उसने किया है
उसका हिसाब
नहीं रखता वह,
हिसाब रखना
सुखद नहीं है।
जो भी उसने
किया है, वह
खुद ही नहीं
चाहता कि किया
होता, वहउसकी
गिनती भीनहीं
रखता।
लेकिन
अच्छा आदमी..
जो भी उसने
किया है उसकी
गिनती भी नहीं
रखता है। शायद
जितनी गिनती
रखता है उतना
उसने किया भी
नहीं है। उसको
थोड़ा बढ़ा कर
भी रखता है।
बहुत सा केवल
उसने सोचा है, किया
नहीं है, उसको
भी जोड़ रखता
है। यह संग्रह
ही बाधा बनता है।
इसलिए बहुत
बार ऐसा हुआ
है कि कोई
वाल्मीकि, कोई
अंगुलिमाल..
एक क्षण
में--निपट
अपराधी व्यक्ति
और एक क्षण
में जान को
उपलब्ध हो गया
है। उसका
कारण.. उसका
कारण, अपराध
से भी ज्यादा
संग्रह बाधा
बनता है। क्योंकि
अपराधी क्या
संग्रह करेगा?
जानता ही है
कि मैं कुछ भी
नहीं हूं। एक
निर- अहंकारितासंभव
है। लेकिन
सात्विक के
साथ तो अंहकार
बंधा ही हुआ
है।
ऋषि
कहता है : सत्व
भी एक रोग है।
यह
बड़ी हिम्मत की
बात है। यह
हिंदुस्तान
के बाहर कोई
धर्म नहीं कह
सका कि सत्य
भी एक रोग है।
बुराई को रोग
कहा है, पाप
को रोग कहा है,
लेकिन सत्य
को, शुभ को
रोग नहीं कहा
जा सका।
निश्चित ही
भारत के बाहर
पैदा हुआ कोई
भी धर्म नैतिक
चेतना से उपर
नहीं उठ सका है..
ठीक अर्थों में
धार्मिक नहीं
हो सका है।
इसलिए
पहली बार जब
पूर्वीय
मनीषा के
उदगार पश्चिम
में गए तो वे
बहुत हैरान
हुए,
क्योंकि ये
तो धार्मिक
बातें नहीं
मालूम पड़ती, ये तो बड़ी
अराजक हैं।
अगर आदमी से
तुम यह भी कहते
हो कि सत्व का
इकट्ठा करना
भी बीमारी है,
तब तो तुम
आदमी को भटका
दोगे।
लेकिन
उनकी
व्याख्या की
भूल है। जो
लोग यह सके कि
सत्व को
इकट्ठा करना
बीमारी है, वे
यह तो कहते ही
हैं कि असत्य
तो इकट्ठा
करना महाबीमारी
है। इकट्ठा
करना बीमारी
है, तो
सत्व तक
इकट्ठा करो तो
बीमारी हो
जाती है, तो
असत्व तो
बीमारी है ही।
उसकी बात ही
करनी व्यर्थ
है। वह
स्वीकृत है।
उसकी चर्चा ही
नहीं चलानी
चाहिए। यह
कहना किसी से
कि चोरी करना पाप
है, इस बात
का सबूत है कि
समाज इतना
नीचा है कि
अभी उसे चोरी
करना पाप है, यह भी कहना
पड़ता है।
लेकिन अचोर
होने का दंभ भी
पाप है.. यह
कहना तभी संभव
है जब समाज उस
सीमा के पार
जा चुका, जहां
चोरी का पाप
होना तो सहज
स्वीकृत हो
गया। उसकी
चर्चा भी
उठानी नहीं
चाहिए।
तो
जब पहला दफा
ईसाइयों ने
उपनिषद पढ़े तो
वे चकित हुए, क्योंकि
कोई टेन
कमांडमेंट्स
जैसी कोई चीज
उपनिषद में
नहीं है कि
चोरी मत करो, दूसरे कि
स्त्री की तरफ
मत देखो, व्यभिचार
मत करो। तो
उन्होंने कहा
कि टेन कमांडमेंट्स
कहां हैं? दस
आज्ञाएं कहां
हैं धर्म की? मूल आधार कहां
हैं?
पर
उन्हें पता
नहीं कि
जिन्होंने ये
लिखे, वे
जानते थे कि
उन दस आज्ञाओं
की बातें करनी
बचकानी हैं, चाइल्डिश
हैं। वे उन
समाज की बातें
हैं जो बहुत
प्रिमिटिव
है। जिनको अभी
यह भी कहना
पड़ता है कि
व्यभिचार मत
करो, अभी
दूसरे की
स्त्री की तरफ
मत देखो, यह
बहुत बुरा है।
इसका अर्थ ही
यह हुआ कि अभी
पहले पाठ पढे
जा रहे हैं।
अभी वह वक्त
नहीं आया जहां
यह कहा जा सके
कि मैंने
दूसरे की
स्त्री की तरफ
नहीं देखा यह
मेरा गुण है, यह भी पाप
है। यह गुण का
बोध भी पाप है,
क्योंकि यह
भी अहंकार को
ही सघन कर
जाता है।
सत्व
भी रोग है...
अच्छा रोग है, कहना
चाहिए राज सी
रोग है, अच्छे
लोगों को होता
है, लेकिन
होता है। और
कई बार ऐसा
होता है कि इस
रोग के कारण
अच्छे लोग
कभी- कभी बुरे
लोगों से भी
बुरे सिद्ध
होते हैं; क्योंकि
उनके अच्छे
होने की अकड़
एक गहरी अधिनायक
शाही पैदा
करती है, उनके
अच्छे होने की
अकडू एक बहुत
खतरनाक किस्म
की परतंत्रता
दूसरों पर ला देती
है।
अच्छे
बाप का बेटा
होना आसान
मामला नहीं है, क्योंकि
अच्छा बाप
इतना भारी पड़
जाता है बेटे पर
कि उसका यह
भारी पड़ना ही
बेटे के बुरे
होने का कारण
बन सकता है।
अच्छाई-अच्छाई
की गुहार भी
बुराई की तरफ
आकर्षण बन
जाती है। और
अगर बाप इतना
अच्छा हो कि
बेटा अच्छाई
में उसको पार
न कर सके, तो
फिर बुराई में
ही पार करने
का उपाय रह
जाता है।
इसलिए
अच्छे लोगों
के अच्छे बेटे
नहीं होते, उसका
कारण बहुत
गहरा है। उसका
कारण गहरा है।
क्योंकि
अच्छाई-अच्छाई
रोज-रोज
अरुचिकर हो जाती
है। और अच्छाई
में एक खराबी
यह है कि
दूसरा आदमी यह
भी नहीं कह सकता
कि आप गलत कह
रहे हो। तो
आपकी अकड़ को
चुनौती भी
नहीं होती।
मैंने
सुना है, एक फकीर..
झेन फकीर
रिंझाई के
बाबत कि
रिंझाई कुछ-कुछ
ऐसे काम किया
करता था जो
अच्छे नहीं थे,
और आदमी यह
बुद्ध की
हैसियत का था।
जो उसे जानते
थे वे
भलीभांति
जानते थे, उन्होंने
उससे कई बार
कहा कि तुम यह
छोटे-मोटे कभी
ऐसे काम क्यों
कर देते हो, जिनसे बड़ी
बेइज्जती और
बड़ी
अप्रतिष्ठा
होती है। तो
रिंझाई कहता
था, ताकि
मैं आदमियों
के बीच आदमी
बना रहूं; जस्ट
टू बी अमन
अमंग धमस; नहीं
तो इनझूमन हो
जाता... अगर मैं
इतना अच्छा हो
जाऊं कि
मुझमें बुराई
है ही नहीं तो
मैं बिलकुल
अमानवीय हो
जाता हूं
लोगों की छाती
पर पत्थर जैसा
पड़ जाता हूं।
मेरे शिष्य भी
मेरे संबंध
में थोड़ी आलोचना
कर लेते हैं
तो हलकापन आ
जाता है, और
मेरे शिष्य भी
मेरे पीछे
मेरे संबंध
में हंस लेते
हैं तो उनको
दुश्मन बनाने
से बच जाता
हूं।
यह
बड़ी हैरानी की
बात है। यह
आदमी बहुत
अजीब रहा
होगा। मगर
इसकी मनुष्य
की अंतरात्मा
में बड़ी गहरी
पैठ है।
तो
अच्छा शिक्षक
स्कूल में
भलीभांति
जानता है कि
बच्चों को
उसकी पीठ के
पीछे हंसने का
मौका होना
चाहिए। उससे
जो पांच-छह
घंटे उसके
सामने
जबर्दस्ती
बैठ कर उनमें
क्रोध इकट्ठा
हो जाता है, उसके
निष्कासन का
उपाय है।
इसलिए
अच्छे आदमी
बहुत भारी पड़ जाते
हैं,
लेकिन वे
भारी तभी पड़ते
हैं जब सत्व
उनका रोग होता
है, स्वभाव
नहीं।
जब
ऋषि यह कह रहा
है कि सत्व भी
रोग है तो वह
यह नहीं कह
रहा है कि
सात्विक होना
रोग है। वह यह
कह रहा है कि
सत्व का
संग्रह, और
सत्य के साथ
अहंकार का
जुड़ना रोग है।
मैं अच्छा हूं
यह बोध रोग है;
अच्छा होना
रोग नहीं है।
और जो आदमी
अच्छा होता है
वह इतना अच्छा
होता है कि
बुराई को भी
सदा क्षमा कर
पाता है।
बायजीद
निकला है
यात्रा पर--एक
सूफी
फकीर--तीर्थयात्रा
पर जा रहा है।
रमजान के दिन
हैं,
उपवास चलता
है। बायजीद के
सौ संन्यासी
शिष्य साथ
हैं। पहला ही
दिन उपवास का
हुआ है और
पहले ही गांव
में प्रवेश
हुआ है। और
गांव में
बायजीद के
घुसते ही गांव
के लोगों ने
कहा है कि
तुम्हारा जो
प्रेम करने
वाला आदमी
था--वह एक चमार
था; गरीब
चमार था--उसने
अपना
मकान-वकान सब
बेच दिया है
तुम्हारे
भोजन के
इंतजाम के
लिए। और उसने
आज पूरे गांव
को निमंत्रण
दिया है कि
मेरा गुरु
गांव में आता
है, पूरा
गांव आज भोजन
करे। उसने सब
बेच दिया है। उसने
कहा, कल की
फिकर कल कर लेंगे।
बायजीद
राजी हो गया..
पहुंच गया; भोजन
करने बैठ गया।
शिष्यों को तो
बड़ी बेचैनी हुई।..
बड़ी बेचैनी
हुई! और एक
मौका मिला
उनको कि अरे, किस गुरु के
पीछे हम जीवन
बर्बाद कर रहे
हैं! निर्णय
किया था उपवास
का--मालूम
होता है लोभ
में आ गया
अच्छे भोजन
के। और बायजीद
है कि बड़े आनंद
से भोजन ले
रहा है।
बायजीद जब ले
रहा है तो उनको
भी लेना पड़ा।
हालांकि
बायजीद ने
आनंद से लिया,
उन्होंने बड़े
कष्ट से लिया।
रात
जब हुई और लोग
विदा हो गए तो
शिष्य गुरु पर
टूट पड़े। और
उन्होंने कहा
: हद हो गई; हमने
ऐसी आशा न की
थी! क्या भूल
ही गए? विस्मरण
ही हो गया? या
इतने से भोजन
के पीछे ऐसे
लोलुप हो गए?
बायजीद
ने कहा : भोजन
का सवाल नहीं।
उपवास हम एक
दिन आगे लंबा
कर देंगे।
लेकिन उस गरीब
को जिसने सब
बेच कर भोजन
बनाया था, इतने
साधु होने की घोषणा
करना भारी पड़
जाता; चोट
हो जाती, अपराध
हो जाता। यह
बात ही करनी
फिजूल थी, हम
उपवास एक दिन
आगे कर लेंगे।
इसमें क्या
हर्ज है? लेकिन
यह महात्मापन
इतने जोर से
जाहिर करना... और
ध्यान रहे, यह मौका है
जब कि आदमी
महात्मापन
जाहिर करना चाहेगा।
यह बहुत
डेलीकेट है।
यह तो मौका
बहुत बढ़िया
था। पूरे गांव
को खबर हो
जाती कि
बायजीद भी कुछ
है। लेकिन इस
मौके को वह
ऐसा चूक गया, जैसे
विस्मरण ही हो
गया हो, उसने
इसकी बात ही
नहीं उठाई कि
हमने उपवास किया
है।
इसे
मैं कहता हूं.
अच्छा होना, सात्विक
होना। सत्व की
भी घोषणा करनी
पड़े, और
सत्य का भी
प्रचार करना
पड़े, और
सत्य के लिए
भी प्रतीक्षा
करनी पड़े कि
कोई सम्मान
करे, तो
सत्य रोग हो
जाता है।
पांचवीं
बीमारी ऋषि ने
कही है ' पुण्य।
' पाप सारे
जगत में
बीमारी है, पुण्य सिर्फ
भारत में।
पुण्य भी पाप
है, पुण्य
भी बीमारी है;
क्योंकि यह
खयाल कि मैंने
अच्छा किया, बहुत
सूक्ष्म
अस्मिता को
निर्मित करता
है, और यह
खयाल कि मैं
अच्छा कर सकता
हूं कर्ता के भाव
को जन्म देता
है।
हमने
जैसा जाना है
वह यह है कि इस
जगत में और कोई
चीज पाप नहीं
है,
अहंकार ही
पाप है। इसलिए
जहां से भी
अहंकार निर्मित
हो जाता हो, वहीं पाप हो
जाता है।
बोधिधर्म
भारत से गया
चीन। उसके
पहले और बहुत बौद्ध
भिक्षु चीन
पंहुच गए थे..
हजारों-हजारों
भिक्षु पहुंच
गए थे। सम्राट
बू ने बौद्ध
ग्रंथों का
करोड़ों रुपये
खर्च करके
अनुवाद
करवाया था, सैकड़ों
मठ और विहार
बनवाए थे। फिर
खबर पहुंची कि
परम ज्ञानी
बोधिधर्म आता
है, तो वह
खुद अपने
राज्य की सीमा
पर स्वागत
करने आया।
स्वागत करते
ही, स्वागत
के बाद ही, विश्राम
मिलते ही पहली
बात सम्राट बू
ने बोधिधर्म
से पूछी कि
मैंने इतने
हजार मठ और
विहार बनवाए,
मैंने इतने
करोड़ का खर्च
किया, बौद्ध
ग्रंथों का
अनुवाद
करवाया, लाखों
भिक्षुओं को
मैं रोज भोजन
देता हूं। मेरे
इस सब पुण्य
का क्या फल
होगा?
बोधिधर्म
ने कहा : तू
सीधा नरक
जाएगा।
डायरेक्ट
टुहेल।
बू
ने कहा : क्या
कहते हैं?.. नरक?
आप मजाक
करते हैं?
क्योंकि
किसी भिक्षु
ने उसे अब तक
यह नहीं.. सब भिक्षु
कहते थे, तुम
महापुण्यात्मा
हो। भिखारी ही
थे, भिक्षु
न रहे होंगे। '
तुम
महापुण्यात्मा
हो। ' क्योंकि
यह
महापुण्यात्मा
कह कर ही
भिखारी अपना
पालन करवा
सकते हैं।
'तुम
महापुण्यात्मा
हो; तुमने
इतना दान किया
जैसा कभी किसी
ने नहीं किया,
स्वर्ण
अक्षरों में
स्वर्ग में
तुम्हारी तख्ती
लगने वाली है;
परमात्मा
के ठीक बगल
में तुम्हारा
निवास
तैयार
हो रहा है। '. यह
सब कहा था।
बोधिधर्म ने कहा.
तू सीधा नरक
जाएगा।
बोधिधर्म
की बात बू को न
जंची। किसी
पुण्य करने
वाले को न
जंचेगी कि
पुण्य भी पाप
है। तो बू ने
कहा कि मैं यह
बात नहीं मान सकता।
बोधिधर्म
ने कहा : तो फिर
मैं तेरे पाप
के राज्य में
प्रवेश करने
से इनकार करता
हूं मैं वापस
जाता हूं; तेरे
राज्य की सीमा
के बाहर रहूंगा।
जिस दिन तुझे
पता चल जाए कि
पुण्य भी पाप
है, उस दिन
प्रवेश करूंगा।
बात
आई-गई हो गई।
बू तो खिलाफ
हो गया
बोधिधर्म के।
और भिक्षु भी
खिलाफ हो गए..
-कि इस आदमी से
बडी आशाएं
लगाई थीं.. यह
आता तो और काम
बड़ा होता; सम्राट
उत्सुक था और
इसने सब विकृत
कर दिया।
दस
साल बाद, सम्राट
बू अपनी मरण शथ्या
पर पड़ा है, मौत
चारों तरफ
घिरने लगी है,
भय मन को
पकड़ने लगा, और तब उसे
बोधिधर्म की
पुन: याद आई।
उसे साफ दिखाई
पड़ने लगा कि
इतना किया
पुण्य, लेकिन
मौत तो ठीक
वैसी ही आ रही
है जैसे
गैर-पुण्य
करने वाले को
आती है; इतना
किया पुण्य, जरा-जीर्ण
तो मैं वैसा
ही हो गया
जैसा कि पापी हो
जाता है; इतना
किया पुण्य, लेकिन
मृत्यु में
कोई शांति तो
नहीं मालूम पड़ती
तो उसके पार
क्या शाति
होगी! बहुत मन
बेचैन है।
खबर
भेजी उसने कि
अगर वह
बोधिधर्म
कहीं मिल जाए
तो उसे बुला
लाओ,
मैं व्यर्थ
दस वर्ष खोया।
आज मुझे भी लग
रहा है कि मैं
सीधा नरक जा
रहा हूं।
लेकिन
बोधिधर्म तो
मर चुका था।
लेकिन कब पर.. कह
गया था वह एक
वाक्य लिखने
को.. कि आज नहीं
कल, सम्राट
बू मरते वक्त
मेरा स्मरण
करेगा। क्योंकि
जिंदगी में
धोखा देना
आसान है। तब
आदमी तरंग में
होता है, जीने
के वहम में
होता है। जब
मृत्यु पास
आएगी तब उसे
पता चलेगा। वह
मेरी याद
करेगा। तो कह
गया था कि एक
वाक्य मेरी कब
पर लिख देना, सम्राट बू
के लिए मेरा
संदेश है। और
वह संदेश यह
था. 'कि
जीवन भर तूने
पुण्य किया, अगर मृत्यु
के क्षण में
भी पुण्य का
त्याग कर दे
तो स्वर्ग
काद्वार निकट है। '
पुण्य
का त्याग कर
दे! बहुत
त्याग किया
तूने पुण्य के
लिए,
अब तू पुण्य
का भी त्याग
कर दे।
कठिन
है बहुत। लोहे
की जंजीरें छोडनी
बहुत आसान, पाप
का त्याग करना
बहुत आसान, स्वर्ण-जंजीरें
हाथ में हों तो
छेडना बहुत मुश्किल.
आभूषण मालूम होती
हैं। और पुण्य!..
पुण्य से ज्यादा
स्वर्ण और क्या
होगा! शुद्ध स्वर्ण
है; छोडने की
हिम्मत नहीं होती।
लेकिन जो जानता
है, जंजीरें
चाहे लोहे की हो
चाहे सोने की,
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता—जंजीरें
जंजीरे हैं।
और कारागृह की
दीवाले चाहे महल
जैसी सजी हो, इससे कोई अंतर
नहीं पड़ता।
कारागृह
है अहंकार..
इसलिए पांच
बीमारियों की ऋषि
ने बात की है।
और
इन पांच
वर्गों के
स्वभाव को जब
तक कोई ठीक से
न जान ले तब तक
इनसे छुटकारा
नहीं मिल सकता
है। इन पांचों
की प्रकृति
में जब तक कोई
ठीक से प्रवेश
न कर जाए तब तक
इनसे छुटकारा
नहीं मिल सकता
है।
वस्तुत:
ज्ञान के
अतिरिक्त
किसी भी चीज
से छुटकारे का
कोई उपाय नहीं
है। जानना ही
छुटकारा है; जानना
ही मुक्ति है।
और जैसे ही हम
किसी चीज को
उसकी
परिपूर्णता
में जान लेते
हैं, हम
उससे मुक्त हो
जाते हैं।
अज्ञान
बंधन है। न
जानना ही बंधन
है। जानते ही
छुटकारा हो जाता
है। क्रोध
बांधता है जब
तक हम नहीं
जानते कि
क्रोध क्या
है। जिस दिन
जान लेते हैं, गहरा
प्रवेश करते
हैं, क्रोध
की पर्त-पर्त
उघाड़ लेते हैं,
क्रोध को
नग्न देख लेते
हैं, उसी
दिन छुटकारा
है।
ऐसा
नहीं है कि
जानने के बाद
छुटकारे के
लिए कुछ करना
पड़ता है; यह और
एक गहरी बात
पूर्वीय
मनीषा की आप
समझ लें। ऐसा नहीं
है कि पहले
जान लेते हैं
कि यह क्रोध
है, अब
छोड़ने के लिए
कोई उपाय करना
पड़ता है। नहीं,
पूर्वीय
चित्त कहता
है. जानना ही
छूट जाना है; जानने के
बाद फिर कुछ
नहीं करना
पडता। अगर जानने
के बाद भी कुछ
करना पड़ता है
तो उसका मतलब
है कि जानना
पूरा नहीं है,
अधूरा है।
चित्त
की बीमारियां
ऐसी नहीं हैं
कि पहले निदान
और फिर उपचार।
चित्त की
बीमारियों
में निदान ही
उपचार है।
क्यों? न
जानने के कारण
ही चित्त की
बीमारियां
हैं। और उनका
कोई कारण नहीं
है। जैसे
समझें; अंधेरा
है, और
अंधेरे में
सांप हैं और
बिच्छु हैं।
दीया जलाते
हैं, तो
दीया जलाने से
दो घटनाएं
घटेंगी--सांप-बिच्छु
दिखाई पड़ेंगे
लेकिन मिट
नहीं जाएंगे;
क्योंकि
सांप-बिच्छु
के होने का
कारण अंधेरा नहीं
था; अंधेरा
केवल उनके न
दिखाई पड़ने का
कारण था। अब
तो अंधेरा
नहीं है, तो
सांप-बिच्छु
दिखाई पड़ेंगे,
लेकिन कोई
यह नहीं कह
सकता कि दीया
जलाया कि सांप-बिच्छु
गए। सांप-
बिच्छु को अब
हटाना पड़ेगा।
तो ज्ञान काफी
नहीं है, कुछ
करना भी
पड़ेगा।
लेकिन
एक और घटना घट
रही है वहां।
दीया जलाया, अब
क्या अंधेरे
को भी हटाना
पड़ेगा? यह
दीया तो जल
गया ठीक, अब
अंधेरे को
कैसे हटाएं? नहीं, अंधेरे
के होने का
कुल कारण ही
प्रकाश का
अभाव था।
तो
शरीर की जो
बीमारियां
हैं.. शरीरों
कि जो बीमारियां
हैं,
वे
बीमारियां
निदान भी
चाहती हैं और
उपचार भी।
लेकिन चेतना
की जो बीमारी
है उसमें
निदान ही
उपचार है... वह
दीया जला और
अंधेरा गया, ऐसी बीमारी
है।
तो
ऋषि कहता है : '' इन
पांच वर्गों
के स्वभाव
वाला बन कर
जीवात्मा
बिना जान के
इनसे छुटकारा
नहीं पा सकता।
''
हम
क्या करते हैं? हम
इनके साथ एक
हो जाते हैं; इन्हीं के
गुणधर्म के हो
जाते हैं।
पुण्य करते-करते
हम
पुण्यकर्ता
हो जाते हैं, सत्व
करते-करते हम
सात्विक हो
जाते हैं, पाप
करते-करते हम
पापी हो जाते
हैं--जो हम
करते हैं उसी
के साथ एक हो
जाते हैं।
यह
एक हो जाना ही
अज्ञान है।
अगर जानना हो
तो थोड़ा फासले
पर खड़ा होना
अनिवार्य है।
जानने के लिए
थोड़ी दूरी, थोड़ा
फासला चाहिए।
असल में हम
जान ही उसको
सकते हैं
जिससे हम पार
खड़े होकर
देखते हैं, नहीं तो हम
जान नहीं
सकते। जिसे भी
जानना हो, उसे
आख के सामने
रखना पड़े, उसका
निरीक्षक
बनना पड़े।
अगर
क्रोध को
जानना है तो
क्रोधी बन कर
नहीं हो सकेगा
यह जानना।
क्रोध को
जानना है तो
क्रोध को करना
पड़ेगा अपने से
अलग,
और खड़ा होना
होगा क्रोध के
पार, और
देखना पड़ेगा
क्रोध को
तटस्थ भाव से।
जैसे हम किसी
और चीज को..
जैसे एक
वैज्ञानिक
अपनी प्रयोगशाला
में किसी चीज
का परीक्षण
करता है, उतनी
ही दूरी।
योग
भी उतनी ही
दूरी का
विज्ञान है।
अपने चित्त की
समस्त
बीमारियों को
दूर खड़े होकर
देखना और उनकी
पूरी-पूरी
ग्रंथियों
में प्रवेश कर
जाना ही
मुक्ति बन
जाती है।
आदमी
का चित्त
जिन-जिन...''इन
पांच
बीमारियों के
साथ एकात्म की
भ्रांति में
पड़ जाता है, उस भ्रांति
का नाम लिंग
शरीर है। ''..
उस भ्रांति
का नाम।
''...
और वही हृदय
की ग्रंथि है।
'' और वही
हृदय की मूल
बीमारी है।
एक
ही बीमारी है
जहां हम जकड़
गए हैं। ये
पांच बीमारियां
मिल कर उस एक
बीमारी को
पैदा करती हैं, और
वह बीमारी है
आइडेंटिफिकेशन
की--हम एकात्म हो
जाते हैं उसी
के साथ जो हम
कर रहे होते
हैं। चोरी
करते वक्त चोर
हो जाते हैं, साधना करते
वक्त साधु हो
जाते हैं--जो
भी हम करते
हैं वही हम हो
जाते हैं, उससे
हम दूर नहीं
खड़े रहते। और
ठीक से समझें
तो' संन्यास
का यही अर्थ
होता है कि हम
जो भी करें, उसके करने
में कर्ता न
बनें, सिर्फ
द्रष्टा बने
रहें।
संन्यास का
मौलिक अर्थ
इतना होता है।
करें हम जरूर,
लेकिन
अभिनेता से
ज्यादा हमारा
प्रयोजन न हो।
राम हम बनें
जरूर लेकिन वह
रामलीला के ही
राम हों, और
मंच से उतरते
ही हम राम से
भी उतर जाए।
अभिनेता उतर
जाता है। वह
रात फिर
बिस्तर पर लेट
कर सोचता नहीं
कि सीता का
अशोक वन में
क्या हो रहा
होगा! लेकिन
कभी-कभी ऐसी
भ्रांति भी हो
जाती है।
मैंने
सुना है कि एक
रामलीला में
ऐसी कठिनाई हो
गई। जो आदमी
रावण बनता था..
वह हर साल
रावण बनता था
गांव में; हर
साल जब
रामलीला होती
वह रावण बनता।
और जो स्त्री
सीता बनती थी
वह हर साल
सीता बनती। हर
साल रावण बनना
और हर साल सीता
को चुराना और अशोक-वाटिका
में रखना और
यह सब उपद्रव
चलता था। वह
आदमी उस
स्त्री के
प्रेम में पड़
गया।
फिर
रामलीला हुई।
स्वयंवर हुआ।
रावण भी आया है
स्वयंवर में।
फिर दूत उसके
आए और
उन्होंने खबर
दी कि लंका
में आग लग गई
है। रावण ने
कहा. इस बार
लगने दो, इस
बार तो
स्वयंवर करके
ही जाऊंगा।
उसने उठाया
शिव का
धनुषबाण और
तोड़ दिया। जनक
बड़ी मुश्किल
में पड़े; सब
उपद्रव हो
गया। जनता भी
चकित हो गई कि
यह किस प्रकार
कि रामलीला हो
रही है! अब
क्या होगा? क्या सीता
का विवाह रावण
से होगा? तो
जनक
बुद्धिमान का
आदमी था, वह
और पुराने
जमाने से, काफी
समय से जनक
बनता रहा था।
उसने जोर से
आवाज दी कि भृत्यो!
यह तुम बच्चों
का खेलने का
धनुषबाण कहां
से उठा लाए? शंकर जी का
धनुषबाण लाओ।
पर्दा गिराया,
रावण को हटा
कर दूसरा रावण
बनाया...
क्योंकि वह चिल्ला
रहा था कि इस
बार तो
स्वयंवर करके
ही जाऊंगा... तब
कहीं रामलीला
शुरू हो सकी।
अब
यह जो रावण है, यह
बिचारा जाकर
आसानी से नहीं
सो पाता होगा।
इधर सीता से
मामला अभिनय
का नहीं रहा; यह गहरा और
वास्तविक हो
गया।
संन्यास
का अर्थ है : वह
जो लिंग शरीर
है उसका हम
विसर्जन करते
हैं।
लिंग
शरीर का अर्थ
है. हमने अपनी
बीमारियों से
तादात्म्य
करके अपनी जो
एक दशा बना ली
है,
जैसे हम
मालूम हो रहे
हैं, उसका
हम विसर्जन
करते हैं।
''और उसमें जो
चैतन्य है, वह
क्षेत्रज्ञ
कहलाता है।''
और
इस लिंग शरीर
के बीच में जो
बैठा हुआ जान
रहा है, दि
नोअर, वह
क्षेत्रज्ञ
कहलाता है।
लेकिन उसका
हमें कोई पता
नहीं है; वह
जो जानने वाला
है, वह खो
ही जाता है उस
सबमें जिसे हम
जानते हैं। उसे
खोज लेना जो
जानने वाला है,
धर्म का
वितान है।
ऋषि
से पूछा गया
है. 'साक्षी
कौन है? कूटस्थ
कौन है? अंतर्यामी
कौन है? '
ये
तीनों ही
आत्मा की तीन
विभिन्न
परिस्थितियों
में की गई
परिभाषाएं हैं।
जैसे, घर पर आप
अपने बेटे की
तुलना में
पिता हैं, पत्नी
की तुलना में
पति हैं, पिता
की तुलना में
पुत्र हैं। घर
से बाहर मित्र
की तुलना मैं
ये तीनों नहीं
हैं। दफ्तर
में मित्र भी
नहीं हैं। फिर
भी आप तो एक ही
हैं।
साक्षी, कूटस्थ
और अंतर्यामी
आत्मा की तीन
परिस्थितिगत
परिभाषाएं
हैं--
सिचुएशनल।
तीनों ही
आत्मा है, लेकिन
ये तीन शब्द
प्रयोग किए
जाते हैं तीन
विभिन्न
संदर्भों
में। उस
संदर्भ को ठीक
से समझ लें।
''ज्ञाता, ज्ञान
और ज्ञेय की
उत्पत्ति और
लय को जानने
वाला फिर भी
स्वयं
उत्पत्ति-लय
से रहित आत्मा
साक्षी
कहलाता है।''
हम
अपने भीतर
प्रवेश करें, तो
जो भी हम जान
सकते हैं वह
हम नहीं हो
सकते हैं, इस
सूत्र को
स्मरण रखें :
जो भी हम जान
सकते हैं वह
हम नहीं हो
सकते हैं; क्योंकि
हम सदा ही जानने
वाले हैं।
तो
जिस चीज को भी
हम जान लेते
हैं उसका अर्थ
हुआ कि हम
उसके पीछे खड़े
हैं;
नहीं तो हम
जान नहीं
पाते। जो भी
जाना जा सकता है,
वह मैं नहीं
हो सकता हूं।
योग-साधना
का जो मौलिक
सूत्र है, वह
यह
है--आधारभूत; जिसको हम
बीज- मंत्र
कहें। वह
बीज-मंत्र यह
है कि जिसे भी
हम जान सकते
हैं, वह हम
नहीं हो सकते।
आख बंद करके
मैं भलीभांति
जान सकता हूं
कि मेरे चारों
ओर शरीर है।
मैं यह भी जान
सकता हूं कि
पैर में कांटा
गड़ता है और
पीड़ा है; मैं
यह भी जान
सकता हूं कि
हृदय में धड़कन
हो रही है; और
मैं यह भी
जानता हूं कि
जब चिंता में
होता हूं तो
धड़कन तेज हो
जाती है; और
जब निश्चित
होता हूं तो
धड़कन शांत हो जाती
है।
तो
यह जो जानने
वाला है, यह इस
हृदय की धड़कन
में और इस पैर
की पीड़ा और इस शरीर
की आकृति से
भिन्न हो गया;
क्योंकि
जानने के लिए
द्वैत जरूरी
है। जानने के
लिए द्वैत
जरूरी है, जानने
के लिए फासला
जरूरी है। उस
फासले के माध्यम
से ही जाना
जाता है; नहीं
तो जाना नहीं
जाता। इसलिए
अगर आईने में
आप अपनी
तस्वीर देख
रहे हैं तो एक
खास फासले पर
खड़ा होना जरूरी
है। अगर
बिलकुल आईने
के पास आते
चले जाएं और फिर
बिलकुल सिर
आईने से लगा
लें तो तस्वीर
दिखाई पड़नी
मुश्किल हो
जाएगी। फिर भी
थोड़ी दिखाई पड़ेगी,
क्योंकि
अभी भी फासला
है। और फासला
मिटाएँ, तो
और नहीं दिखाई
पडेगी। और
फासला मिटाएं,
तो और नहीं
दिखाई पड़ेगी।
अगर आपकी आख
में और दर्पण
में कोई भी
फासला न रह
जाए तो फिर
कुछ भी दिखाई नहीं
पड़ेगा।
एक
फासला जरूरी
है ज्ञान के
लिए,
दर्शन के
लिए, जानने
के लिए।
ऋषि
कहता है. ये जो
सब चीजें पैदा
होती हैं, बनती
हैं, मिटती
हैं, इन
सबको भी जानने
वाला कोई भीतर
है।
सांझ
नींद आने लगती
है तब आप
जानते हैं कि
नींद आ रही
है। एक बात तय
है कि अब आप
नींद नहीं हैं; नहीं
तो जानता कौन?
जिस पर नींद
आ रही है वह
पृथक होना ही
चाहिए।
सुबह
आप बैठे हैं
अपने द्वार पर, सूरज
निकला है, चारों
ओर धूप फैल गई;
आपने जाना
कि धूप आ गई।
फिर सूरज की
धूप सघन होने
लगी, उत्ताप
बढ़ने लगा, फिर
आपने देखा, सूरज सिर पर
आ गया, दोपहर
हो गई। आप
दोपहर नहीं
हैं; आप सुबह
भी नहीं हैं।
फिर
सांझ सूरज
ढलने लगा, अंधेरा
उतरने लगा, आपने जाना
कि अंधेरा आ
गया, आप
अंधेरा भी
नहीं हैं।
सुबह
होती, दोपहर
होती, सांझ
हो जाती, आप
जानते हैं
सूरज को उगते,
बढ़ते, डूबते,
खोजाते।
आप.. आप सूरज से एक
नहीं हो सकते,
भिन्न हो
गए।
जीवन
में जो भी
घटता है उस
घटने को जानने
वाला भीतर एक
है। और यह
बहुत मजे की बात
है कि आप इसको
कभी भी पकड़
नहीं पाएंगे।
समझें।
मेरे पैर में
दर्द हो रहा
है। मैं जानता
हूं कि मेरे
पैर में दर्द
हो रहा है। तो
जानने वाला
पैर के दर्द
से अलग हो
गया। अब मैं
यह भी जान
सकता हूं कि
मैं जानता हूं
कि पैर में
दर्द हो रहा
है,
अब मैं इस
जानने के भी
पीछे चला गया।
इसको ठीक से
समझ लें।
मेरे
पैर में दर्द
हो रहा है; मैं
जानता हूं कि
मेरे पैर में
दर्द हो रहा
है, तो
मेरा जानना
पैर के दर्द
से अलग हो
गया। लेकिन
मैं यह भी
जानता हूं कि
मैं जानता हूं
कि पैर में
दर्द हो रहा
है, तब यह
दूसरा जो
जानना है, पहले
जानने के भी
पीछे चला गया।
इसको भी मैं
जान सकता हूं
वह तीसरा
जानना होगा।
उसको भी मैं
जान सकता हूं
वह चौथा जानना
होगा। एक बात
पक्की है कि
जिसको भी मैं
जान लूंगा
वहां से मैं
पीछे हट
जाऊंगा; किसी
जानने की पकड़
में मैं नहीं
आऊंगा--मैं सदा
ही ज्ञाता ही
बना रहूंगा, ज्ञेय नहीं
बन सकूंगा। यह
जो परम
ज्ञातत्व है,
यह जो परम
साक्षीपन है
कि कुछ भी
करूं, मैं
पीछे हट जाता
हूं--यह बड़ा रहस्यपूर्ण
है। यह बड़ा ही
रहस्यपूर्ण
है।
शायद
जीवन में
सर्वाधिक
गहनरहस्य यही
है कि हम कोई
भी उपाय करके
स्वयं को विषय
नहीं बना सकते, दृश्य
नहीं बना सकते,
वस्तु नहीं
बना सकते.. हम
सदा जानने
वाले ही
बनेरहते हैं।
इसलिए
महावीर जैसे
व्यक्ति ने
जिसने परम साक्षी
को गहरे से
गहरा खोजा, उसने
यह कहा कि जो
परम अवस्था है
उसमें यह भी कहना
व्यर्थ है कि
वहां ज्ञाता
है; वहां
केवल ज्ञान
है। क्योंकि
अगर हम यह भी
कहें कि
ज्ञाता है, तो भी वह
ताता हमने जान
लिया--फिर हम
पीछे हट गए।
इतना ही हम
कहें कि जानना
मात्र है।
इसलिए महावीर
ने परम ज्ञान
की अवस्था को 'केवल ज्ञान'
कहा है :
जस्ट नोइंग; नॉट ईवन दि
नोअर, नॉटदि
नोन, जस्ट
नोइंग; प्योर
नोइंग। और यह
जो शुद्ध
ज्ञान है यह
सदा पीछे हटता
चला जाता है।
इस
रहस्य को जो
जान ले.. इस
रहस्य के
अनुभव को साक्षी
कहा है। आत्मा
साक्षी है..
-क्योंकि ज्ञाता, ज्ञान
और
ज्ञेय--ज्ञाता
भी, ज्ञान
भी, ज्ञेय
भी--तीनों
जिससे पैदा
होते, जिसके
सामने पैदा
होते, जिसके
सामने लीन हो
जाते, जिसमें
लीन हो जाते, और जो सदा ही
पीछे खड़ा रह
जाता है।
अंग्रेजी
में शब्द है :
एक्सटेसी; बहुत
कीमती शब्द
है। इस सूत्र
को, साक्षी
को समझने के
लिए बहुत
कीमती शब्द
है। एक्सटेसी
का अर्थ होता
है--मूल शब्द
का-- स्टैंडिंग
आउट।
एक्सटेसी का
अर्थ होता है.
सदा बाहर खड़े
हो जाना; कुछ
भी उपाय करो, भीतर नहीं
रह सकते, बाहर
ही खड़े हो
जाते हैं।
जहां भी खड़े
होओ वहीं के
बाहर हो जाते
हैं।
इसलिए
पश्चिम के
रहस्यवादियों
ने समाधि के लिए
जो नाम दिया
है वह
एक्सटेसी है। एक्सटेसी
का अर्थ है.
साक्षी।
एक्सटेसी का
अर्थ समाधि
नहीं है, एक्सटेसी
का अर्थ है :
साक्षी, दि
विटनेसिंग। कुछ
भी उपाय करो, कुछ भी उपाय
करो, वह
साक्षी को हम
कभी भी और कुछ
नहीं बना सकते,
वह साक्षी
ही रहता है।
यह
आत्मा की एक
परिस्थितिगत
परिभाषा है।
परिस्थितिगत
यह भी, और सभी
परिभाषाएं
परिस्थितिगत
होती हैं। इसलिए
कोई परिभाषा
पूर्ण आत्मा
के स्वरूप को
प्रकट नहीं कर
पाती, और
इसीलिए इतने
धर्मों में
मतभेद पैदा हो
गया है। उस
मतभेद का कोई
मौलिक कारण
नहीं है। किसी
धर्म ने आत्मा
की एक
परिस्थितिगत
व्याख्या की
और किसी धर्म
ने उस आत्मा
की दूसरी
परिस्थितिगत
व्याख्या की।
और वे दोनों
व्याख्याएं
भिन्न मालूम
पड़ती हैं। इस
लिहाज से उपनिषद
धर्ममुक्त
हैं, क्योंकि
वे सभी
परिभाषाओं को
स्वीकार करते
हैं। यह
साक्षी की
परिभाषा
जैन-दर्शन और
जैन धर्म की
परिभाषा है।
दूसरी
परिभाषा में
कूटस्थ क्या
है, पूछा
है। तो ऋषि
कहता है :
''
ब्रह्मा से
लेकर चींटी तक
सब प्राणियों
की बुद्धि में
रहने वाला और
उनके स्थूल, सूक्ष्म आदि
देहों के नाश
होने पर भी जो
शेष रह जाता
है...। ''
दि
रिमेनिग! कुछ
भी नाश करो, कुछ
पीछे शेष ही
रह जाता है..
समस्त विनाश
के; उसे
कूटस्थ आत्मा
कहा है। दैट
व्हिच रिमेंस
आलवेज। कुछ भी
करो!
तो
वैज्ञानिक भी
स्वीकार करता
है पदार्थ
में.. कि पदार्थ
का भी कुछ
कूटस्थ रूप है; क्योंकि
पदार्थ
इनडिस्ट्रक्टिबल
है, उसका
हम विनाश नहीं
कर सकते, हम
कुछ भी
करें--आकृति
बिगाड़े, दूसरी
आकृति
दें--कुछ भी
करते चले जाएं;
वह सब
रूपांतरण है।
लेकिन पदार्थ
की जो कूटस्थ
स्थिति है वह
शेष रह जाती
है।
उपनिषद
कहता है : ठीक चेतना
की भी एक
कूटस्थ
स्थिति है; वह
सदा शेष रह
जाती है। आप
बच्चे हों, आप जवान हो
जाएं, आप
बूढ़े हो जाएं,
आप पापी बन
जाएं, आप
पुण्यात्मा
बन जाएं, आप
पाप का विनाश
कर दें, पुण्य
छोड़ दें, जवानी
छोड़ दें, बुढ़ापा
छोड़ दें, शरीर
में रहें, शरीर
छोड़ दें--कुछ
भी करें, सब
विनाश के बाद
भी जो अविनाशी
पीछे शेष रह
जाता है, वह
आत्मा की
दूसरी
परिभाषा है।
वह भी परिस्थितिगत
है--विनाश की
दृष्टि से; उसे कूटस्थ
कहा है।
ज्ञान
की दृष्टि से
उसे साक्षी
कहा,
अविनाशी के
भाव से उसे
कूटस्थ कहा
है।
''
इन कूटस्थ
आदि उपाधियों
के भेद में से स्वरूप
लाभ के लिए जो
आत्मा समस्त
शरीर में माला
के धागे की तरह
पिरोया जान पड़ता
है, वह
अंतर्यामी
कहलाता है। ''
ये
दोनों
परिभाषाएं..
लेकिन जरा दूर
की हैं, क्योंकि
साक्षी होना
परम ज्ञान है;
और कूटस्थ
को पाने के
लिए मरने की
पूरी तैयारी
चाहिए।
अगर
साक्षी को
जानना है तो
ज्ञान की परम
साधना में
उतरना पड़ेगा..
जहां कोई विषय
न रह जाए, और
सिर्फ जानने
वाला ही
बचे--जानने को
कुछ न बचे, सिर्फ
जानने वाला ही
बच जाए। बड़ी
कठिन इलिमिनेशन
की साधना
है--हटाए जाओ; जो भी ज्ञान
में आए, कहो
कि यह मैं
नहीं—हटा दो
उसे.. जो भी जान
लिया जाए, फेंक
दो उसे।
यह
बड़े मजे की
बात है : जानने
के लिए चले
हैं,
लेकिन जो भी
जान लिया
जाएगा उसे हटा
देना पड़ेगा; तो ही परम
ज्ञान फलित
होगा। जो भी
अनुभव बन जाए,
कहना कि बस,
यह व्यर्थ
हो गया। कठोर
तपश्चर्या है;
जो भी अनुभव
में आ जाए, कहना,
बेकार हो
गया। अगर
परमात्मा भी
अनुभव में आ
जाए तो कह
देना कि मैं
परमात्मा के
बाहर हूं
क्योंकि जो भी
अनुभव बन गया
वह मैं नहीं
हूं।
इसलिए
महावीर या
बुद्ध
परमात्मा का
इनकार ही कर
दिए;
उन्होंने
कहा : जिसका भी
अनुभव हो सकता
है, वह मैं
नहीं हूं।
और
परमात्मा का
भी लोग कहते
हैं अनुभव होता
है;
लोग कहते
हैं, दर्शन
हो गए; साक्षात्कार
हो गया, ईश्वर
का दर्शन कर
लिया। अगर
ईश्वर का
दर्शन कर लिया
तो एक बात
पक्की है कि
अभी अपना भी
दर्शन नहीं
हुआ है; क्योंकि
जिस चीज का भी
तुमने दर्शन
किया हो, वह
पदार्थ हो गया,
पर हो गया, विषय हो गया,
ऑब्जेक्ट
हो गया, तुम
उसके पार निकल
गए, तुम
परमात्मा के
भी पार निकल
गए।
तो
निश्चित ही
जिसको तुमने
जाना है वह मन
की ही कोई
कल्पना होगी, वह
परमात्मा नहीं
है। परमात्मा
तो नित्य
साक्षी है। तो
परमात्मा को
उस दिन जाना
जाता है जिस
दिन अनुभव--समस्त
अनुभव शून्य
हो जाते हैं।
तो यह कहना, ' परमात्मा का
अनुभव' सिर्फ
आज्ञानियों
की बात है।
परमात्मा का
अनुभव नहीं
कहा जा सकता।
अनुभव ही कहना
बेकार की बात
है.. समस्त
अनुभवों का
क्षीण हो
जाना।
इसलिए
बुद्ध जैसे
व्यक्ति की
बात नहीं समझ
में पड़ती, क्योंकि
वे परम बात
कहते हैं। वे
कहते हैं : कोई परमात्मा
नहीं, कोई
मोक्ष नहीं, कोई आत्मा
नहीं; क्योंकि
जो भी जान
लिया वह बेकार
है। और जो
नहीं जाना उसे
शब्द क्या दें?
इसलिए
बुद्ध चुप रह
जाते हैं। जब
भी उनसे कोई पूछता..
तो छोड़िए इन
सबको, उसके
बाबत बताइए जो
असली में है।
बुद्ध कहते हैं
: जो असली में
है, अगर
मैं कहूं तो
वह भी विषय हो
गया; उसकी
बात नहीं
करूंगा। तुम
जानने को
छोड़ते चले जाओ,
अनुभव को
त्यागते चले
जाओ, एक
दिन तुम वहां
पहुंच जाओगे
जहां कुछ भी
नहीं बचता है।
यह
बड़ा मुश्किल
है समझना।
क्योंकि हम तो
कुछ पाने के
लिए चलते हैं।
और बुद्ध कहते
हैं,
जहां कुछ भी
नहीं बचता है।
इसका मतलब? इसका मतलब
यह नहीं है कि
वहां कुछ भी
नहीं है। जब
बुद्ध कहते
हैं : वहां कुछ
भी नहीं बचता
है तो इसका यह
मतलब नहीं है
कि वहां कुछ
भी'। वहां
कुछ भी नहीं
बचता है, क्योंकि
जानने को कुछ
नहीं है, पहचानने
को कुछ नहीं।
प्रत्यभिज्ञा
नहीं होती, ज्ञान नहीं
होता, ज्ञाता
नहीं होता, ज्ञेय नहीं
होता तो जानने
की जो त्रिपुटी
है, पूरी ही
टूट गई। लेकिन
वहीं जो है, वही सब है।
लेकिन
ये दो दूर की' हैं।
इसलिए तीसरी
परिभाषा जो
निकट की मालूम
पड़ती है.. वह यह
है कि सब
शरीरों में
रहते हुए भी, जैसे माला
के मनके में
धागा पिरोया
हो, ऐसे इन
पांच शरीरों
में डूबे हुए,
इन पांच
बीमारियों
में डूबे हुए,
इस बड़े
संसार में
उलझे हुए भी
मनके ही हैं
ये संसार के, धागा सदा
आत्मा का है।
मनके ही हैं
ये शरीरों के,
बीमारियों
के, धागा
सदा आत्मा का
है। लेकिन यह
बड़े मजे की बात
है कि माला
में सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
धागा है। धागे
के बिना माला
नहीं हो
सकती--मनके
बिखर
जाएंगे--उनका
जोड़ने वाला
सेतु धागा है।
लेकिन धागा
दिखाई नहीं
पड़ता और मनके
दिखाई पड़ते
हैं। इसलिए जिसने
कभी माला को
बनते न देखा
हो, और
अचानक माला
उसके सामने रख
दी जाए, तो
धागे का उसे
खयाल नहीं
आएगा, मनके
का ही खयाल
आएगा; क्योंकि
धागा तो
अदृश्य है, मनकों में
छिपा है।
हमारी
भी हालत वैसी
ही है : शरीर
दिखाई पड़ते हैं, धागा
दिखाई नहीं
पड़ता। सब
दिखाई पड़ता है,
धागा भर
दिखाई नहीं
पड़ता। और हम
एक मनके से दूसरे
मनके पर छलांग
लगाते चले
जाते हैं।
ये
शरीर संभव
नहीं हो सकते
हैं आत्मा के
बिना, लेकिन
दिखाई नहीं
पड़ती। एक शरीर
से दूसरा शरीर
सटा हुआ है।
एक मनके से
दूसरा मनका
सटा हुआ है।
एक मनके से
दूसरे पर सरक
जाते हैं, दूसरे
से तीसरे पर
छलांग लगा
जाते हैं...
धागा चूकता ही
चला जाता है।
सब
शरीरों के बीच
में,
सब
उपाधियों के
बीच में, जो
भी हम हैं
वहां
भी--कूटस्थ तो
है ही आत्मा, साक्षी तो
है ही आत्मा, अंतर्यामी
भी है।
अंतर्यामी का
अर्थ : यहां भी
है। वहां तो
है ही, जब
हम परम स्थिति
को पहुंचेंगे;
तब उसे हम
साक्षी
कहेंगे; वहां
तो है ही, जब
हम परम विनाश
को पहुंचेंगे,
जब सब
विनष्ट हो
जाएगा, तब
हम उसे परम
अविनाशी
कहेंगे, क्योंकि
वह बच रहेगा, तब हम उसे
कूटस्थ
कहेंगे, लेकिन
यहां भी
है--जहां हम
खड़े हैं वहां
भी है। लेकिन
यहां प्रकट
नहीं है, यहां
मनकों में दबा
है। वहां
मनकों से रहित
होगा, धागा
ही होगा। यहां
मनके अति हैं,
और उनमें
दबा है, लेकिन
यहां भी है।
क्योंकि जो
वहां है वह
यहां भी होना
चाहिए, अन्यथा
फिर पहुंचने
का कोई मार्ग
ही न रह जाएगा।
इसलिए कहा:
''
इन कूटस्थ
आदि उपाधि
भेदों में से
स्वरूप लाभ के
लिए जो आत्मा
समस्त शरीर
में माला में
धागे की तरह
पिरोया हुआ
जान पड़ता है, वह
अंतर्यामी
कहलाताहै। ''
अंतर्यामी
से यात्रा
शुरू करें, साक्षी
को साधना का
मंत्र बनाएं;
कूटस्थ
उपलब्धि
होगी।
अंतर्यामी
से शुरू करें, साक्षी
को साधें, कूटस्थ
उपलब्धि।
आज
इतना ही।
अब
यात्रा पर
निकलें।......
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