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शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

कैवल्‍य उपनिषद--प्रवचन-13

स्‍वयं पर लौटती चेतना का प्रकाश ही ध्‍यान—तेरहवां प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर
31 मार्च 1972, रात्रि
माउॅंट आबू, राजस्‍थान।

सूत्र :

            त्रिषु धामसु यहभोग्यं भोक्ता भोगश्च यइभवेत।
            तेभ्यो विलक्षण: साक्षी चिन्‍मात्रो हं सदाशिव:।।18।।
            मय्येव सकलं जातं मयि सर्वं प्रइतष्ठितम्।
            मयि सर्वं लय याति तद्ब्रह्मद्वयमत्यम्यहम्।।19।।



जाग्रत, स्‍वप्‍न और सुषुप्‍ति—इन तीनों अवस्थाओं में जौ भोग, भोग्य और भोक्ता के रूप में है उससे भिन्न वह सदाशिव, चिन्मय और अद्भुत साक्षी मैं ही हूं।। 18।।

मैं ही वह अद्वैत हूं। मुझमें ही सब कुछ उत्‍पन्‍न होता, मुझमें ही सब कुछ प्रतिष्ठित रहता और मुझमें ही सब का लय होता है।। 19।।



स्‍वयं की खोज अंततः उसकी खोज है, जिसके समक्ष सारे अनुभव घटित होते हैं। जिसके समक्ष सारी प्रतीतियां फलित होती हैं। जिसके समक्ष सारे दृश्य, सारे जगत का विस्तार प्रगट होता है। एक पत्थर है, वह है जरूर, लेकिन होने का उसे कोई अनुभव नहीं है। उसके होने में कोई कमी नहीं है, लेकिन होने की कोई चेतना उसके पास नहीं है। एक पशु है, वह भी है और उसे होने का बोध भी है। उसका अस्तित्व भी है और अस्तित्व का उसे अनुभव भी है। पत्थर का सिर्फ अस्तित्व है, अस्तित्व का कोई अनुभव नहीं है। पशु का अस्तित्व भी है, अस्तित्व का अनुभव भी है। मनुष्य में चेतना का एक तीसरा आयाम भी शुरू होता है। मनुष्य है, उसी तरह जैसा पत्थर है; मनुष्य को होने का अनुभव भी है, उसी तरह जैसा किसी भी पशु को है; और मनुष्य इन दोनों का भी साक्षी हो सकता है। मनुष्य यह भी जान सकता है कि मैं हूं मुझे होने का अनुभव हो रहा है और इन दोनों बातों को भी पीछे खड़े होकर अनुभव कर सकता है।

यह जो तीसरे का अनुभव है, यही साक्षी है। पत्थर अचेतन है, पशु चेतन है, मनुष्य अपने चैतन्य के प्रति भी चेतन है। अपनी चेतना के प्रति भी जागा हुआ है। लेकिन, यह मनुष्य की संभावना है। सभी मनुष्य इस अवस्था में नहीं हैं। यह हो सकता है, ऐसा है नहीं। साधारणत: अधिकतर मनुष्य पशु के तल पर ही होते हैं, जहां हैं और होने का पता है, लेकिन तीसरे तत्व का, साक्षी का कोई अनुभव नहीं है। और यह अवस्था भी सिर्फ जाग्रत में रहती है। निद्रा में तो हालत वही हो जाती है जो पत्थर की है। हैं, होने का भी कोई पता नहीं।
जब हम नींद में हैं तो हमारी और पत्थर की अवस्था में कोई भी फर्क नहीं। जब हम गहरी प्रसुप्‍ति में पड़े हैं तो हम ठीक पत्थर जैसे हैं। चाहें तो उलटा करके भी कह सकते हैं कि पत्थर हमारे जैसा ही है, किसी गहरी प्रसुप्‍ति में पड़ा हुआ। और जब हमें साक्षी का कोई पता नहीं है, होने का खयाल है, तो हम पशु की अवस्था में हैं। चाहें तो उलटा भी कह सकते हैं कि पशु हमारी ही अवस्था में हैं, अभी उसका भी साक्षी जाग्रत नहीं हुआ है। लेकिन वास्तविक मनुष्यता का जन्म हमारे भीतर 'विटनेसिंग', साक्षी के साथ शुरू होता है।
तो साक्षी का ठीक अर्थ समझ लें। यह शायद मनुष्य के शब्दों में, खासकर उन शब्दों में जो आध्यात्मिक खोज में संलगन किये गये हैं, सबसे महत्त्वपूर्ण शब्द है। इसकी प्रक्रिया पर पीछे हम बात करेंगे, पहले इस शब्द को ठीक से समझ लें।
मेरे हाथ में चोट लग जाए, पीड़ा हो, तो साधारणत: हमें लगता है कि मुझे पीड़ा हो रही है। अगर ऐसा लगता है कि मुझे पीड़ा हो रही है, तो साक्षी मौजूद नहीं है। अगर ऐसा लगे कि मेरे हाथ को पीड़ा हो रही है, ऐसा लगे कि हाथ को पीड़ा हो रही है और मैं जान रहा हूं तो साक्षी उपस्थित हो गया। पेट में भूख लगी है, अगर ऐसा लगे कि मुझे भूख लगी है तो साक्षी खो गया, तादात्‍म्‍य हो गया भूख के साथ। अगर मुझे ऐसा लगे कि मुझे पता चल रहा है कि पेट को भूख लगी है, या पेट में भूख लगी है ऐसा मुझे पता चल रहा है, मैं जाननेवाला ही बना रहूं कोई भी अनुभव में समाविष्ट न हो जाऊं, दूर, बाहर, मेरे और मेरे अनुभव के बीच एक फासला बना रहे, यह फासला जितना बड़ा हो उतना ही साक्षी जन्मेंगा। यह फासला जितना कम हो, उतना ही साक्षी खो जाएगा। साक्षी के खो जाने के लिए जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है, वह है तादात्‍म्‍य, 'आइडेंटिटी'। किसी चीज के साथ एक हो जाना।
साक्षी का अर्थ है, किसी चीज के साथ अलग हो जाना। अगर कोई व्यक्ति अपने समस्त अनुभवों से अलग हो जाए, चाहे दुख हो और चाहे सुख, चाहे जीवन हो और चाहे मृत्यु चाहे कुछ भी घटित होता हो, किसी भी घटना में मेरी चेतना घटना के भीतर प्रवेश न करे, बाहर ही रहे, तो साक्षी का अनुभव शुरू होता है। किसी ने आपको गाली दी, तत्काल गाली लग जाती है भीतर, फासला टूट जाता है। गाली का तीर चुभ जाता है भीतर और फासला टूट जाता है। तब यह खयाल नहीं रहता कि एक है गाली देनेवाला, एक है जिसको गाली दी गयी है और एक मैं हूं जो देख रहा हूं—गाली देनेवाले को भी,गाली जिसको दी गयी है उसको भी।
स्वामी रामतीर्थ इस प्रयोग को करते—करते, इस साक्षी के प्रयोग को करते—करते अपनी भाषा को भी धीरे—धीरे बदल डाले। शायद प्रयोग करते—करते भाषा बदल गयी थी। न्यूयार्क में थे, कुछ लोगों ने उनका अपमान किया था। लौटकर वे आए, हंसते हुए, और उन्होंने अपने साथियों को कहा कि आज बड़ा मजा आया। राम गया था बाजार में—रामतीर्थ उनका नाम था—लेकिन उन्होंने कहा राम गया था बाजार में, कुछ लोग राम को गाली देने लगे, राम बड़ी मुसीबत में पड़ गये। तो मित्रों ने कहा आप इस तरह बोल रहे हैं जैसे किसी और को गाली दी गयी हो और कोई और मुसीबत में पड़ गया हो। तो राम ने कहा ठीक ऐसा ही हुआ। क्योंकि मैं देख रहा था, गाली देनेवालों को भी और राम को भी जिसपर गालियां पड़ रही थीं।
गाली पड़ती हो तब फांसला करना बहुत मुश्किल है। तब तत्काल, एक क्षण में भीतर सब तादात्‍म्‍य हो जाता है, गाली को हम झेल लेते हैं।
यह चेतना की संभावना है कि वह किसी तथ्य के करीब आकर एक हो सकती है और किसी तथ्य से दूर हटकर फासले पर खड़ी हो सकती है। यही समस्त धर्म की संभावना है। अगर यह संभावना नहीं है, तो फिर धर्म का कोई उपाय नहीं है। और जीवन के दुख के विसर्जन का भी फिर कोई मार्ग नहीं है, अगर साक्षी संभव न हो।
एपीटेक्टस यूनान में एक विचारक हुआ। उसके संबंध में खबर थी कि वह साक्षीभाव को उपलब्ध हो गया है। लेकिन सम्राट को भरोसा नहीं था। सम्राट ने कहा साक्षी कोई कैसे हो सकता है! खैर, परीक्षा ले लेंगे। एपीटेक्टस को बुलवा लिया गया। सम्राट ने दो पहलवान बुलाए, और कहा कि इसके पांव इसके सामने ही मरोड़कर तोड़ डालो। एपीटेक्टस ने अपनी टांग आगे बढ़ा दी। सम्राट ने कहा कोई झंझट न करोगे!
एपीटेक्टस ने कहा झंझट बिलकुल फिजूल है, क्योंकि पहलवान मुझसे काफी तगड़े है। झंझट बिलकुल बेकार है। और देर लगाने में एपीटेक्टस को तकलीफ भी बहुत होगी। इसलिए जितनी जल्दी टांग टूट जाए उतनी जल्दी निपटारा हो जाए।
कहा एपीटेक्टस ने कि देर लगाने में एपीटेक्टस को तकलीफ भी बहुत होगी। सम्राट ने कहा कि तुम्हारा मतलब क्या है? एपीटेक्टस ने कहा कि मेरा मतलब यह है कि जिसको आपने बुलाया है, एपीटेक्टस को, जो इस शरीर का नाम है, उसको बहुत तकलीफ होगी। सम्राट ने कहा, और तुम्हें? एपीटेक्टस ने कहा हम देखेंगे। हम देखेंगे तुम्हारी मूढ़ता, तुम्हारे पहलवानों की पहलवानी, एपीटेक्टस की मुसीबत, सब हम देखेंगे।
सम्राट ने कहा बातचीत से हल नहीं होगा, टांग तो तोड़नी ही होगी। टांग तोड़ दी गयी। और एपीटेक्टस देखता रहा। और एपीटेक्टस ने कहा कि अगर कार्य पूरा हो गया हो तो मैं एपीटेक्टस को ले जाऊं।
सम्राट रोने लगा। उसने सोचा भी नहीं कि यह संभव हो सकता है। उसने पैर पकड़ लिये एपीटेक्टस के और कहा कि इसका राज? एपीटेक्टस ने कहा अभी भी तुम जिसके पैर पक्के हुए हो, वह मैं नहीं हूं। अभी मैं देख रहा हूं कि सम्राट रो रहा है, एपीटेक्टस फिर मुसीबत में है, दूसरी मुसीबत मे। उनका पैर पकड़ा गया है। अभी तोड़ने के लिए पकड़ा गया था, अब पड़ने के लिए पक्का गया है। लेकिन मैं देख रहा हूं। साक्षी का अर्थ है, कोई भी अनुभव तादात्‍म्‍य न बने। कोई भी अनुभव, कोई भी अनुभव मुझ से न जुडे। मैं दूर ही रह जाऊं। पा रही रह जाऊं। मेरा अलग पन कही भी विनष्ट न हो।
रास्ते पर आप चल रहे हैं, ऐसे भी चल सकते हैं कि मैं चल रहा हूं और ऐसे भी चल सकते हैं कि चलने की घटना घट रही है और मैं देख रहा हूं। हर घटना से तादात्‍म्‍य को छिन्न—भिन्न करना पड़े। हर घटना से तादात्‍म्‍य विसर्जित करना पड़े। खाना खा रहे है, ऐसे भी खा सकते हैं कि मैं खा रहा हूं और ऐसे भी खा सकते है कि खाना खाया जा रहा है, मैं देख रहा हूं। एक—एक पल इसका होश रखा जाए, तब कहीं सतत प्रयोग के बाद साक्षी का जन्म शुरू होता है। तब आपके भीतर वह चेतना आ जाती है, जो सिर्फ देखती है, द्रष्टा होती है। जानती है, ज्ञाता होती है। लेकिन भोक्ता नहीं होती।
इस सूत्र को हम समझें  'जाग्रत, स्‍वप्‍न और सुषुप्‍ति, इन तीनों अवस्थाओं में जो भोग, भोग्य और भोक्ता के रूप में है, उससे भिन्न वह सदाशिव, चिन्मय और अद्भुत साक्षी मैं ही हूं। '
जाग्रत हो, या स्‍वप्‍न हो, या सुषुप्‍ति हो, तीनों अवस्थाओं में हमारा अनुभव तीन हिस्सों में विभाजित है—भोग, भोग्य और भोक्ता। भोग्य, जिसे हम भोगते हैं। भोजन आप कर रहे हैं, तो भोजन भोग्य है। आप कर रहे हैं, आप भोक्ता हैं। और भोक्ता और भोग्य के बीच में जो संबंध है, उसका नाम भोग है। भोग संबंध है।
या, ऐसा समझें। सूरज निकला है, आप देख रहे हैं। तो सूरज दृश्य है, आप द्रष्टा हैं, दोनो के बीच का संबंध दर्शन है। आपके पैर में कांटा गड गया, पीड़ा हो रही है, तो पीड़ा शेष है, आप ज्ञाता हैं, बीच का संबंध ज्ञान है। हर अनुभव तीन हिस्सों में टूट जाता है। विषय, जो बाहर है, जिसका आपको अनुभव हो रहा है। अनुभोक्ता, अस्मिता, अहंकार जो भीतर है, जिसको अनुभव हो रहा है। और दोनो के बीच का संबंध जो अनुभव बन रहा है।  
ये तीन समझ में आते हैं। इन तीनों के पार अगर आपके भीतर कोई चौथा भी हो, तो उसका नाम साक्षी है। इन तीनों के पार अगर कोई चौथा भी हो जो इन तीनों को ऊपर से देख रहा हो—जो देख रहा हो कि भोजन किया जा रहा है, भोग लिया जा रहा है, भोक्ता भोग ले रहा है और भोक्ता और भोग के बीच में संबंध निर्धारित हो गया है भोग का, इन तीनों के पार भी अगर कोई खड़ा हो कर देख सके आप के भीतर, तो उस चौथी संभावना का नाम साक्षी है।
इन तीन को तो हम अनुभव करते है, चौथे को हम अनुभव न हीं करते हैं। और जिन तीन अवस्थाओं की हमने चर्चा की है, उन तीनों में इन तीन का ही हम अनुभव करते हैं। जागते है तो भी भोग, भोग्य और भोक्ता होता है। स्‍वप्‍न देखते हैं तो वही भोग, वही भोग्य, वही भोक्ता होता है। गहरी तंद्रा में, निद्रा में पड जाते हैं तो भी सुबह उठकर हम कहते है—बड़ा सुख आया। और तब फिर सुख का अनुभव वही भोग, भोक्ता और भोग्य में विभाजित हो जाता है। लेकिन चौथे का हमें कोई भी पता नहीं है। इस सारे अनुभव में चौथे की हमें कोई भी नहीं मिलती है।
उस चौथे को जगाना, उस चौथे को उठाना, उस चौथे को आधार देना, उस चौथे में प्रवेश करना, उसका ही साधन ध्यान है। जो भी आप कर रहे हों, खयाल रखें कि तीन तो ठीक है, चौथा भी कही है यान हीं? और जैसे ही खयाल रखेंगे, चौथा जागना शुरू हो जाएगा। क्योंकि वह स्मरण से ही जागता है। और उसके जगाने का कोई उपाय नहीं है।
जार्ज गुरजिएफ ने शब्द प्रयोग किया है—'रिमेंबरिग'। कहा है कि 'रिमेंबरिग', स्मरण ही उसे उठाने का उपाय है। गुरजिएफ ऐसा करता था, अगर कोई क्रोधी साधक उसके पास आता तो वह नहीं कहता था क्रोध छोड़ दो। वह कहता था—क्रोध करो, पूरी तरह करो, लेकिन साक्षी को जगाए रखो कि मैं क्रोध कर रहा हूं। कि क्रोध हो रहा है। कि क्रोध आ गया है। कि क्रोध ने पक्कड़ लिया है। कि क्रोध प्रगट हो रहा है। एक क्षण को भी ये मत भूलो, क्रोध के साथ तादात्‍म्‍य मत बनाओ। कहीं भी ऐसा न हो जाए कि तुम ही क्रोध हो जाओ। क्रोध से फासला बनाए रखो।
साधक बड़ी मुश्किल में पड़ते थे। क्योंकि क्रोध का नियम यह है कि अगर स्मृति रहे, तो क्रोध हो नहीं सकता। और अगर क्रोध हो, तो स्मृति खो जाती है। ये दोनो बातें एक—साथ नहीं होतीं। तो अगर कोई साधक यह आकर कहे कि हां, आज मैंने क्रोध किया और स्मृति रही, तो गुरजिएफ हंसता था। क्योंकि उसको पता है—और साधक को पता नहीं है—कि यह असंभव है, यह होता ही नही। क्षण भर को भी अगर क्रोधी  हो तो उसकी स्मृति खो जाएगी। यह चेतना की 'फोकसिंग' का सवाल है। यह ठीक वैसे ही है कि जब मैं बायी तरफ देखूंगा, तो मेरी आंखें दायी तरफ नहीं देख पाएगी। यह ठीक वैसा ही है कि जब मै आँख बद करूंगा, तो बाहर का जगत मुझे दिखायी नहीं पड़ेगा। अगर कोई आदमी आकर कहे कि मैने आँख बद की और बाहर का जगत दिखायी पड़ता रहा, मैंने बायें देखा और दायें भी देखता रहा, ठीक उससे भी कठिन है यह बात कि मैं जागा रहा और क्रोध करता रहा। मैं साक्षी बना रहा और क्रोध करता रहा। यह संभव नहीं हो सकता।
गुरजिएफ ने बहुत प्रयोग किये, लेकिन बडी मुश्किल थी। अगर कोई व्यक्ति जागा रहता, तो क्रोध नहीं होता था। और अगर क्रोध हो जाता, तो जागना नहीं होता था। तो गुरजिएफ ने एक नया प्रयोग भी शुरू किया और वह था—क्रोध का अभिनय। वह कहता था वास्तविक क्रोध में तो तादात्‍म्‍य हो जाता है, गिर जाता है आदमी। तो वह कहता था कि सिर्फ क्रोध का अभिनय करो। सब तरफ से कोशिश करो कि क्रोध में आ गये हो। सब भाव भंगिमा ले आओ। चेहरा विकृत कर लो, हाथ की मुट्ठियां बांध लो, दांत पीस डालो, कप जाओ, सारा क्रोध का पूरा अभिनय कर लो, जैसा एक अभिनेता नाटक में कर रहा हो।
और यह मजे की बात है कि जब उसने क्रोध का अभिनय सिखाया तो लोग दोनों एक—साथ हो जाते थे—क्रोध का अभिनय भी कर लेते थे और साक्षी भी बने रहते थे। और जब यह एक दफा अनुभव में आ जाए कि मैं साक्षी बना रह सकता हूं एक ही अवस्था में, जब जो भी मैं कर रहा हूं उसमें कर्ता न बनूं—वह अभिनय रहे तो कर्ता नहीं बनता आदमी। राम रामलीला में काम कर रहे हैं। तो बहुत रोते—पीटते हैं, सीता को भी झाडू—झाडू से पूछते हैं, फिर पर्दा गिरा और पीछे जाकर वह चाय बैठकर पी रहे हैं। उस सीता से कोई संबंध न था। वह सब अभिनय था। लेकिन कभी—कभी अभिनय में भी—हमारी नासमझी गहरी है—कभी—कभी अभिनय में भी तादात्‍म्‍य हो जाता है। या कभी—कभी अभिनय के भीतर भी कर्ता प्रकट हो जाता है।
ऐसा मैंने सुना एक गांव की रामलीला में हो गया। हनुमान को भेजा गया है लेने संजीवनी। वह लेकर तो आ गये पहाड़, लेकिन जिस रस्सी पर सरक रहे थे ऊपर वह अटक गयी। तो बड़ी मुश्किल हो गयी। राम नीचे खड़े हैं, वह कहते हैं जल्दी संजीवनी लाओ, लक्ष्मण मरे जा रहे हैं, हनुमान भी उतरने की बहुत कोशिश करते हैं, लेकिन रस्सी की घिर्री अटक गयी है। अटके हैं। घबड़ाहट हो गयी, किसी ने जाकर जल्दी से ऊपर रस्सी काट दी, धड़ाम से हनुमान नीचे गिरे। तो हनुमान भूल गये कि यह रामलीला है। तो राम कह रहे हैं कि संजीवनी कहां है? हनुमान ने कहा कि भाड़ में जाए संजीवनी, रस्सी किसने काटी है, पहले यह पता कर लेने दो! वह जो नाटक चल रहा था, वह क्षण भर को तिरोहित हो गया। चेतना कर्ता बन गयी। उस क्षण राम—लक्ष्मण सब बेमानी; संजीवनी, सब व्यर्थ हो गयी। वह हनुमान बिलकुल भूल गये कि काफी लोग देखने आए हैं, ये क्या सोचेंगे!
सवाल यह नहीं रहा, भूलने की कोई बात नहीं थी, वह बात खो गयी, वहां जहा अभिनय चल रहा था वहां कर्ता तत्काल प्रकट हो गया। इस घटना से हनुमान अपने को अलग न कर पाए। हमारे अभिनय में भी अगर कहीं कर्ता प्रवेश कर जाए तो तादात्‍म्‍य हो जाएगा। और इसके विपरीत अगर हमारे कर्म में भी अभिनय का बोध आ जाए, तो साक्षी प्रकट हो जाएगा। इसका मतलब हुआ कि जब भी हम कर्म के कर्ता बनते हैं तब साक्षी को खोकर बनते हैं। साक्षी की कीमत पर बनते हैं। अगर हम कर्म के सिर्फ अभिनेता रह जाएं तो कर्ता खो जाता है, और कर्ता की कीमत पर साक्षी उपलब्ध होता है। इसका यह अर्थ हुआ कि आप दो में एक ही हो सकते हैं—या तो कर्ता, या साक्षी।
और हम सब कर्ता हैं। जो भी हम करते हैं, उससे हम तत्काल अपने अहंकार को जोड़ लेते हैं। जोड़ने का हमें उपाय नहीं करना पड़ता, जुड़ ही जाता है। वह बिलकुल हमारी आदत का हिस्सा है। ऐसे कर्म में भी हम कर्ता बन जाते हैं जिसमें हमारा कर्म है ही नहीं। आदमी कहता है, मैं आस ले रहा हूं। श्वास में... कोई श्वास लेता नहीं दुनिया में नहीं तो मरना मुश्किल हो जाए। मौत खड़ी है और आप श्वास लिये चले जा रहे हैं! मौत कह रही है कि अब बंद भी करिये और आप कहते हैं हम बंद नहीं करेंगे, तो मौत क्या करे? श्वास आप लेते नहीं हैं, श्वास चलती है। लेकिन उसके भी हम कर्ता बन जाते हैं। हम कहते हैं—मैं श्वास ले रहा हूं। मैं श्वास छोड़ रहा हूं। हमारी भाषा हर चीज को कर्म बना देती है।
वह तो आपको पता नहीं है कि आपका खून चल रहा है, नहीं तो आप कहें कि मैं खून चला रहा हूं। आपको पता नहीं है—तीन सौ साल पहले तक किसी को पता नहीं था—कि खून चलता भी है। जब यह पहली दफा जिस आदमी ने कहा कि खून चलता है, उसको क्षमा मांगनी पड़ी अदालत में जाकर। वे कहें, क्या फिजूल की बात कर रहे हो! खून कैसे चलेगा! खून भरा हुआ है। और चलने का हमें कभी खुद भी तो पता चलता नहीं। तीन सौ साल पहले तक दुनिया में किसी को पता नहीं था कि आदमी के भीतर खून चलता है। लेकिन चलता तो है और आप तो चलाने वाले हैं ही नहीं, आपको पता ही नहीं है चलाने का। वैसे ही श्वास भी चलती है, आप चलाने वाले नहीं हैं। जब तक चलती है, चलती है, जब नहीं चलती है तो नहीं चलती है। फिर एक श्वास भी कम—ज्यादा लेना संभव नहीं है।
लेकिन हम श्वास तक के कर्ता बन जाते हैं और कहते हैं—मैं श्वास ले रहा हूं मैं श्वास छोड़ रहा हूं। मैं कुछ कर रहा हूं। अगर बहुत गहरे में प्रवेश करें तो सारा जीवन श्वास की तरह ही चल रहा है। उसमें आप कर्ता नहीं हैं। जब बिलकुल मौलिक चीज के आप कर्ता नहीं हैं, श्वास, जिसके बिना जीवन क्षणभर न चलेगा, तो बाकी सबका आप क्या सोच रहे हैं! भूख आप लगाते हैं? लग रही है। प्रेम में आप पड़ते हैं? पड़ जाते हैं। घृणा आप करते हैं? हो जाती है। क्रोध आप करते हैं? आ जाता है। अगर जीवन की सारी क्रियाओं में ठीक से प्रवेश करें, तो आपको पता चलेगा कर्ता एक भांति है। शायद एकमात्र भ्रांति है। अकेली भांति है, बस वही भांति है। बाकी सब भ्रांतियां उसी के फूल—पत्ते हैं। उस कर्ता को ही हम अहंकार कहते हैं, 'इगो' कहते हैं। वह हमारी भ्रांति है। फिर उस भ्रांति पर हमारा जो भी महल खड़ा होता है, वह सब झूठा है। उसका कहीं कोई अस्तित्व नहीं है। लेकिन जब झूठा आधार ही हमने स्वीकार कर लिया हो, तो फिर झूठे महल को बनाने में हमें कोई अड़चन नहीं होती। यश का, प्रतिष्ठा का यह जो संसार है, सफलता का, दंभ का यह जो फैलाव है, यह फिर उसी झूठे कर्ता पर खड़ा होता चला जाता है।
लेकिन जीवन की प्रक्रिया का ठीक—ठीक बोध हो, तो पता चलेगा कर्ता हम हैं नहीं। फिर हम क्या हैं अगर कर्ता नहीं हैं? अगर यह कर्ता का भाव छूट जाए तो फिर हम क्या हैं? तब हमें पता चलेगा कि हम साक्षी हैं।
मेरा किसी से प्रेम हो गया है, तो मैं सिर्फ साक्षी हूं। साक्षी हूं इस बात का कि मेरे भीतर कुछ है और उस व्यक्ति के भीतर कुछ है, और इन दोनों के बीच एक आकर्षण निर्मित हो गया है। मैं साक्षी हूं इस बात का। मुझे इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि यह घटना घट रही है, यह वैसे ही प्राकृतिक घटना है जैसे कि एक चुंबक के पास लोहा खिंच जाए। न तो चुंबक खींचता है और न लोहा खिंचता है। चुंबक और लोहे के गुणधर्म का मेल है कि खींचने की घटना घट जाती है। न तो चुंबक को खींचने के लिए कोई उपाय करना पड़ता है और न लोहे को खिंचने के लिए कोई चेष्टा करनी पड़ती है। इन दोनों के स्वभाव से यह घटना घट जाती है। यह घटना घटना ही है, इसमें कर्ता कोई भी नहीं है।
अगर चुंबक भी आदमी हो, तो वह कहेगा मैंने खींचा। निश्चित कहेगा। और अपनी डायरी रखेगा कि मैंने कितने—कितने लोहों को खींचा। और कितनी—कितनी बार कैसे लोहे मेरे चारों तरफ इकट्ठे खिंचकर आ गये। अगर लोहा भी आदमी हो तो वह भी यह मानने को तैयार नहीं होगा, वह भी कहेगा—कितने—कितने चुंबकों के पास मैं गया, कितने—कितने चुंबकों के पास मैंने यात्रा की, वह भी अपनी डायरी रखेगा। यह तो हम जानते हैं कि वहां न तो कोई खींच रहा है, न कोई खिंचा जा रहा है। चुंबक का स्वभाव है, उसका स्वभाव—क्षेत्र है, उसका एक 'फील्ड ' है—'मैग्रेटिक फील्ड' है, वह उसका स्वभाव है। वह उसका स्वभाव ही है जैसा कि लोहे का एक स्वभाव है। उसका भी एक अपना 'फील्ड ' है। उन दोनों फील्डों के बीच जो घटना घटती है वह खिंचाव है। उसमें कर्ता कोई भी नहीं है। उसमें कर्ता कोई भी नहीं है। अगर एक सी एक पुरुष के प्रति आकर्षित हो जाती है तो यह वैसा ही 'मैग्रेटिक फील्ड' है। अगर एक पुरुष एक सी के प्रति आकर्षित हो जाता है, तो यह वैसा ही 'मैग्रेटिक फील्ड' है। यह घटना वैसी ही चुंबकीय है।
लेकिन आप कहेंगे कि एक लोहा एक खास चुंबक के पास आकर्षित क्यों होता है? एक पुरुष एक खास सी के प्रति आकर्षित क्यों होता है? एक सी एक खास पुरुष के प्रति आकर्षित क्यों होती है? अगर इसकी भी गहराई में उतरना शुरू करें तो आपको पता चलेगा कि यह भी स्वभावगत है।
अभी पश्चिम में जुग ने इस संबंध में बहुत काम किया और जै ने इस बात की खोज की कि हर पुरुष के भीतर जन्म के साथ ही सी की एक प्रतिमा है, एक छिपी हुई सी है। एक रूप है सी का। हर सी के भीतर पुरुष की एक प्रतिमा है, एक छिपा हुआ रूप है पुरुष का। और जब कोई पुरुष किसी सी के प्रति आकर्षित होता है तो उसका कुल कारण इतना होता है कि इस स्‍त्री का रूप उसके भीतर की छिपी हुई सी के रूप से मेल खाता है। और जब कोई सी किसी पुरुष के प्रति आकर्षित होती है तो उसका इतना ही मतलब होता है कि उस सी के भीतर का पुरुष, छिपा हुआ पुरुष—तत्व इस पुरुष से किसी तरह का मेल खाता है। यह मेल खींचता है।
भूलकर मत कहना कि मैंने प्रेम किया। प्रेम कोई कर्म नहीं है। यह वही चुंबक की भूल है, जो कहे कि मैंने लोहे को खींचा। यह लोहे की भूल है कि मैं गया। लेकिन हम इसमें भी कर्ता बन जाते हैं। प्रेम और घृणा और क्रोध, सब श्वास की तरह चलते हैं।
अगर यह जीवन हमें श्वास की तरह चलता हुआ दिखायी पड़ने लगे, तो जिसको यह दिखायी पड़ेगा और इसके बीच में जो खड़ा होकर जान रहा है, देख रहा है—इस सारे खेल को—इस सारे खेल में कहीं भी 'मैं' का भाव नहीं जोड़ रहा है, सिर्फ 'मैं' के भाव के बाहर खड़े होकर सिर्फ जान रहा है, सिर्फ ज्ञाता है, सिर्फ साक्षी है, तो हमने अपने भीतर इस बिंदु को पा लिया, जो बिंदु इस संसार का हिस्सा नहीं है।
कर्ता इस संसार का हिस्सा है। साक्षी इस संसार के बाहर हो गया।
स्‍वप्‍न हो, चाहे जाग्रत, चाहे सुषुप्‍ति, तीनों ही स्थितियों में जो सदा ही साक्षी है, वही चिन्मय और अद्भुत साक्षी मैं हूं। यह जो साक्षी है, इसका गुण है चिन्मयता। इसका गुण है चैतन्य। मात्र चैतन्य इसका गुण है। चैतन्य का अर्थ हुआ कि मात्र जानना इसका गुण है। जैसे दर्पण का गुण है कि चीजें उसके सामने आएं तो प्रतिबिंब बन जाए। ऐसे ही इस साक्षी का गुण है कि जो भी इसके सामने आए, उसे यह जान ले। बस जानना इसका गुण है। ऐसा खयाल करें, फोटो खींचने वाला कैमरा है, तो उसके भीतर की 'प्लेट' भी प्रतिबिंब बनाती है। वैसे ही जैसे दर्पण बनाता है। लेकिन दर्पण में, 'फोटो—प्लेट' में एक फर्क है। 'प्लेट' जो प्रतिबिंब बनाती है उसे बनाती ही नहीं, पकड़ भी लेती है। दर्पण भी प्रतिबिंब बनाता है लेकिन पकड़ता नहीं। आप हटे और प्रतिबिंब भी हट जाता है और दर्पण खाली, शून्य और शांत हो जाता है।
इसका यह भी मतलब हुआ कि जब 'फोटो—प्लेट' पकड़ती है, तो ऐसा नहीं है कि जब आपका चित्र बनता है उसके बाद में पकड़ती है, बनता ही नहीं, बनता ही है और पकड़ जाता है। और दर्पण जब आप हटाते हैं तभी खाली होता है ऐसा नहीं, जब आप सामने होते हैं, प्रतिबिंब भी बनता होता है तो भी दर्पण खाली होता है। नहीं तो आपके हटने से खाली नहीं हो जाएगा।
'फोटो—प्लेट' की तरह है कर्ता का भाव। जो कुछ भी करते हैं, फौरन पकड़ लेते हैं, जकड़ जाते हैं। दर्पण की तरह है साक्षी का भाव। होता है सब, दर्पण पर बनता है, खबर मिलती है, प्रतिफलन होता है, बोध होता है, पकड़ता कुछ भी नहीं। 'फोटो—प्लेट' और चित्र के बीच जो पकड़ने की घटना बनती है उन्हीं सब घटनाओं के जोड़ का नाम 'मैं' है। सब घटनाओं के जोड का नाम। जितनी—जितनी घटनाएं 'फोटो—प्लेट' ने पक्की हैं, उन सबके जोड़ का नाम 'मैं ' है। दर्पण के साथ 'मैं' नहीं बन सकता, क्योंकि जोड़ना असंभव है। एक चीज हटती है, दर्पण खाली हो जाता है; दूसरी चीज आती है, हटती है, दर्पण खाली होता चला जाता है। दर्पण के पास कोई संपदा नहीं है जिसको जोड़कर वह 'मैं' का भाव बना सके।
साक्षी में 'मैं' निर्मित नहीं होता। इसलिए आपको जिस दिन साक्षी का अनुभव शुरू होगा उस दिन 'मैं' का अनुभव समाप्त हो जाएगा। या इसे ऐसा समझे कि 'मैं' का अनुभव अगर समाप्त कर दें, तो साक्षी का अनुभव शुरू हो जाएगा। जब तक 'मैं' निर्मित होता है, तब तक जानना कि कर्ता का काम जारी है और साक्षी से अभी कोई संबंध नहीं हुआ है।
बुद्ध जैसा व्यक्ति जब जमीन पर घूमता है तो वह दर्पण की तरह घूमता है। एक दर्पण है, चलता हुआ। सब दिखायी पड़ता है, सब घटित होता है, सबका प्रतिफलन बनता है, लेकिन कुछ पकड़ता नहीं। पकड़ने से ही हमारे मन की सारी की सारी बोझ—अवस्था निर्मित होती है।
इसे थोड़ा ऐसा समझें, राह से आप चल रहे हों, किनारे पर खिला हुआ फूल दिखायी पड़ा, सुंदर है, अनुभव हुआ; सुगंधित है, जाना; फिर आप आगे बढ़ गये; आप आगे बढ़ गये, फूल पीछे रू गया, लेकिन आपके मन में अनुगूंज फूल की अभी भी चलती है। यह अनुगूंज बताती है कि 'फोटो—प्लेट' हैं आप, आप दर्पण नहीं। दर्पण होते, फूल छूट गया, आप हट गये, बात समाप्त हो गयी, दर्पण खाली हो गया। एक सुंदर सी दिखायी पड़ी, अगर दर्पण हों आप, तो भी दिखायी पड़ेगी। सुंदर है, यह भी दिखायी पड़ेगा। लेकिन दर्पण हैं आप। सी चली गयी, दर्पण खाली हो गया। एक सुंदर भवन दिखायी पड़ा। सुंदर है, दिखायी पड़ेगा। हट गया, समाप्त हो गया। आप फिर निर्मल और खाली हो गये। प्रतिपल साक्षी शुद्ध होता है, प्रतिपल। इसलिए साक्षी किसी तरह का कर्मबंध इकट्ठा नहीं करता। क्योंकि साक्षी किसी चीज को जकड़ता ही नहीं, बंधता ही नहीं। बस गुजरता चला जाता है। जिंदगी साक्षी भोगता नहीं, देखता है। जिंदगी में साक्षी फंसता नहीं, गुजरता है।
कबीर ने कहा है— 'ज्यों की त्यों धरि दीन्ही चदरिया'। वह साक्षी के लिए कहा है। जैसी दी थी परमात्मा ने जिंदगी, वैसी—की—वैसी वापिस रख दी। उस पर दाग नहीं पड़ने दिया। दाग कर्ता का। और सच तो यह है कि हम जैसे कर्ता की तरह जीते हैं, उसमें चदरिया तो लौटती नहीं, दाग ही दाग लौटते हैं। फिर खोजना मुश्किल है कि चदरिया कहां हैं। दाग ही दाग रह जाते है। इतनी छपाई हो जाती है। छपाई पर छपाई हो जाती है। चदरिया तो खो जाती है, दागों का एक संग्रह रह जाता है।
लेकिन साक्षी भाव से गुजरा हुआ आदमी.... रिझाई ने कहा है अपने शिष्यों से, मरते वक्त, कि एक ही सूत्र तुम्हें कहे जाता हूं—पानी से गुजरना तो, लेकिन तुम्हारे पैर न भीगे। पानी से गुजरियेगा तो पैर हम कहेंगे भींग ही जाएंगे। लेकिन साक्षी के नहीं भींगते। क्योंकि साक्षी इन पैरों को अपना पैर ही नहीं मानता। साक्षी तो यह भी देखता है कि पानी से गुजर रहा है, अगर रिझाई है तो रिझाई देखता है कि रिझाई पानी से गुजर रहा है, रिझाई के पैर भीग रहे हैं, लेकिन मेरे! मेरे तो पैर नहीं भींग रहे हैं, क्योंकि मैं पानी से गुजर ही कहा रहा हूं! पानी भी है, पैर भी हैं, गुजरने वाला भी है और एक देखने वाला भी है। वह देखनेवाला अस्पर्शित रह जाता है, अछूता रह जाता है।
वह अछूतापन जो है, वही अगर ठीक से समझें—वही जीवन की गहनतम, जीवन की आत्यंतिक आधारशिला है। वैसा व्यक्ति सदा ही कुंवारा है, अछूता है। फूल की पखुड़ियों पर भी धूल बैठ जाती होगी, उस पर धूल नहीं बैठती। क्योंकि धूल जिस कारण से बैठती है, वह कारण विसर्जित कर दिया गया है। तादात्‍म्‍य, कर्ता का भाव विसर्जित कर दिया गया है। हम पर तो हर चीज की धूल बैठ जाती है। और ऐसी धूल ही नहीं बैठ जाती जिसमें कारण हो, अकारण धूल भी बैठ जाती है। राह से गुजर रहे हैं, कोई एक फिल्म की कड़ी गुनगुना रहा है, वह आदमी भी चला गया, वह फिल्म की कड़ी भी चली गयी, आप गुनगुना रहे हैं अब उसे। इस तरह धूल बैठ जाती है। अब आप उसको गुनगुनाए जा रहे हैं। और जरा कोशिश करिये उसको रोकने की तो मन इनकार कर देगा। वह कहेगा, गुनगुनाएंगे। जितना रोकेंगे उतना ज्यादा गुनगुनाएंगे। रोकने की कोशिश की तो पता चलेगा पराजित हो गये।
यहां एक बात और खयाल में लेनी चाहिए—जों लोग कर्ता भाव से जीते है, अगर वे धार्मिक भी हो जाएं तो भी उनका कर्ता भाव नहीं जाता है। वे वहां भी कर्तापन लगाए रखते हैं। वे कहते हैं—पहले वे कहते थे हमने महल बनाया, अब वे कहते हैं हमने त्याग किया। इसे थोड़ा ठीक से ले लेंगे—
अगर कर्तापन जारी रहे, तो धर्म में प्रवेश नहीं होता। लेकिन हम जिन धार्मिकों को आमतौर से जानते हैं वे धार्मिक संसार में तो कर्ता थे ही, धर्म में भी कर्ता रहते हैं। वे कहते हैं कि पहले भोग भोगा, अब त्याग किया। लेकिन करना जारी रहता है। वे कहते हैं, पहले महल में रहते थे, महल बनाया, अब आश्रम में रहते हैं, आश्रम बनाया; पहले वस्त्र पहनते थे, अब नग्र रहते हैं। लेकिन कर्ता का भाव जारी रहता है। धार्मिक व्यक्ति वह है, संन्यस्त वह है, संन्यासी वह है, जो कर्ता के भाव से नहीं जीता, चाहे महल में जीता हो, चाहे झोंपडे में जीता हो, चाहे नग्र रहता हो और चाहे लाखों के वस्त्र पहनता हो। एक बात ही उसका गुण है कि वह कर्ता के भाव से नहीं जीता। वह साक्षी के भाव से जीता है।
डायोजनीज के संबंध में मैंने सुना है कि वह गांव के बाहर एक टीन के पोंगरे में पड़ा रहता था नग्‍न। टीन का पोगरा था, गांव के बाहर था, आवारा कुत्ते भी उसमें आकर सो जाते थे। डायोजनीज भी उसमें सोया रहता था। नग्‍न फकीर था, न उसके पास कोई घर था, न कोई झोपड़ा था। वह यह टीन का पोगरा गांव के बाहर पड़ा था बेकार, कचराघर का, जिसमें लोग कचरा फेंकते थे, खराब हो गया था, गांव के बाहर फेंक दिया था, वह उसी में घुसकर सो जाता था। आवारा कुत्ते भी उसमें सोते थे। कभी—कभी डायोजनीज के दूर—दूर से शिष्य भी आ जाते थे, उसको पूछने, कुछ ताछने।
तो अनेक बार शिष्य कहते थे—इन कुत्तों को भगा क्यों नहीं देते? तो डायोजनीज कहता था, कौन भगाएगा? डायोजनीज भी सोया रहता है, ये लोग भी सोये रहते हैं। रही अपनी बात, तो वहां तो सोना ही कहां है! डायोजनीज भी सोया रहता है, कुत्ते भी सोये रहते हैं, रही अपनी बात, तो वहां तो सोना ही कहां है, वहां तो जाग गये सो जाग गये!
यह जो जिसकी बात डायोज़नीज़ कर रहा है, यह साक्षी है। वहां कोई सोना नहीं है, जाग गये, जाग गये; अब डायोजनीज भी सोया रहता है, कुत्ते भी सोए रहते हैं। डायोजनीज से भी उतना ही फासला है अब जितना कुत्तों   इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
जब तक आपका अपने से उतना ही फासला नहीं है जितना दूसरे से है, तब तक आप साक्षीभाव को उपलब्ध नहीं हो सकते। अगर आपको दूसरे से ज्यादा फासला है और अपने से कम फासला है, तो आप कर्ताभाव में बंधे रहेंगे। आपका ठीक—ठीक उतना ही फासला अपने से हो जाना चाहिए जितना दूसरे से है। बस उसी क्षण, उसी क्षण डायोजनीज भी सोया रहता है, कुत्ते भी सोए रहते हैं और डायोजनीज के भीतर जो है वह जागा ही हुआ है, वह देखता ही रहता है।
तो डायोजनीज ने कहा, भगाए कौन? किसको भगाए और क्यों भगाए? यह जो तटस्थता है, यह जो दूरी है, अपने से ही, यह दूरी ही साक्षी है।
चिन्मय उसका स्वरूप है। बस एक लक्षण उसका कहा जा सकता है—चिन्मय। चैतन्य, 'कांशियसनेस'। इसका, इसका अर्थ गहरा है लेकिन। क्योंकि अगर चिन्मय उसका स्वरूप है तो उसका अर्थ हुआ कि वह कभी चिन्मय—शून्य नहीं हो सकता। कभी अचेतन नहीं हो सकता। चेतना अगर उसका गुणधर्म ही है, जैसे आग अगर गर्म है यह उसका गुणधर्म है, तो फिर आग की नहीं हो सकती। और अगर की हो जाती है और आग बनी रहती है, तो फिर यह गरम होना उसका गुणधर्म न रहा। स्वभाव का अर्थ है जिससे कभी छूत नहीं हुआ जा सकता।
अगर इस भीतर छिपे हुए रहस्य का स्वभाव ही चैतन्य है तो फिर हम सो कैसे गये? फिर हम बेहोश क्यों हैं? फिर हम अचेतन क्यों हैं गुड
यह बड़ा महत्वपूर्ण सवाल है जो सदियों—सदियों में पूछा गया है और खोजा गया है, कि अगर यह सच है कि यह भीतर छिपी हुई आत्मा ज्ञान है। ज्ञान उसका स्वधर्म है, तो फिर यह अज्ञान घटित कैसे हुआ है? और यह संगत है सवाल। अगर मेरा स्वभाव ही शाश्वतता है, तो फिर यह मृत्यु घटित कैसे होती है? फिर मैं मरता कैसे हूं? अगर मेरा स्वभाव ही स्वास्थ्य है, तो यह बीमारी आती कैसे है? और अगर मेरे भीतर यह शुद्ध—बुद्ध परमात्मा छिपा है, तो फिर मै बुरा कैसे हो जाता हूं?
दो ही बातें हो सकती हैं। या तो यह मेरा स्वभाव न हो। यह मेरा स्वभाव न हो, सिर्फ सांयोगिक गुण हो। तो यह हो सकता है। लेकिन अगर यह स्वभाव नहीं है, तो एक खतरा होता है और खतरा वह यह है कि अगर यह स्वभाव नहीं है, यह चेतना सिर्फ सांयोगिक गुण है, तो फिर इसे पाने और खोजने की जरूरत भी क्या है, और पाकर भी जो सांयोगिक है वह कभी स्वभाव नहीं बन सकता। इसलिए भारत में तो एक बहुत अनूठी चिंतनधारा चली, अनेक भारत में ऐसे विचारक हुए हैं, गहन विचारक, जिन्होंने कहा कि परम अवस्था में चैतन्य रह नहीं जाएगा। मोक्ष में चेतना नहीं रह जाएगी। क्योंकि उन्होंने कहा कि चेतना जो है और अचेतना जो है, ये सब सांयोगिक गुण हैं।
मगर यह तो बड़ी अजीब बात है। अगर मोक्ष में चेतना ही न रह जाए, तो मुक्ति किसकी? अगर होश ही न रह जाए, तो उससे तो यह बेहोशी बेहतर। कम—से—कम थोड़ी चेतना तो है। परतंत्रता है माना, लेकिन होश तो है! स्वतंत्रता पूरी हो जाए और बेहोशी हो जाए, तो बेमानी है। लेकिन उन विचारकों की तकलीफ यही थी कि वे यह समझाने में असमर्थ हुए कि अगर चेतना का स्वभाव चैतन्य है, तो फिर आदमी बेहोश क्यों है? फिर आदमी सोया हुआ क्यों है? अगर जागा हुआ होना उसका भीतरी गुण है, तो यह नींद कहां से घटित होती है?
लेकिन न समझा पाने के कारण विपरीत को मान लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। समझाया जा सकता है, लेकिन कठिनाई तब खड़ी होती है जब कि कोई सिर्फ विचार से चलता है, तो अड़चन आ जाती है। जब कोई साधना से चलता है तो अड़चन नहीं आती। क्योंकि तब चीजें दिखायी भी पड़नी शुरू होती हैं। चेतना तो सदा ही चेतन है। दर्पण तो सदा ही दर्पण है। लेकिन कोई चीज आच्छादित हो सकती है। और आच्छादित होने में चेतना का जो दर्पण होना स्वभाव है वही कारण बनेगा। कोई भी चीज उसमें आच्छादित होकर प्रतिबिंबित हो सकती है। चैतन्य तो उसका स्वभाव है, लेकिन चेतना में कोई भी चीज प्रतिफलित होती है, और जो प्रतिफलित होती है उसको स्वयं मान लेने की भ्रांति चेतना कर सकती है। इससे चैतन्य का कोई विरोध नहीं है।
तो पुराना जो उदाहरण है, वह है नीलमणि का। नीलमणि को अगर पानी में डाल दें तो, पुराने शाखों में उदाहरण दिया है, कि पूरा पानी नीला दिखायी पड़ने लगता है। होता नहीं नीला। लेकिन नीलमणि को डाल देने से उसकी आभा पूरे पानी पर छा जाती है। और पूरा पानी नीला दिखायी पड़ने लगता है। यह जो दिखायी पड़ना है इसका नीला, यह होना नहीं है।
तो फिर साधक ने एक नया वर्ग निर्मित किया। उसने कहा कि कुछ चीजें जो दिखायी पड़ती हैं, जरूरी नहीं कि हों। और कुछ चीजें जो होती हैं, जरूरी नहीं कि दिखायी पड़े। कई बार चीजें होती हैं और दिखायी नहीं पड़ती। और कई बार चीजें दिखायी पड़ती हैं और होतीं नहीं।
तो चेतना का मूर्छित होना मुच्‍छि्रत दिखायी पड़ना है। चेतना का सो जाना चेतना का सोया हुआ दिखायी पड़ना है। इसलिए एक मजे की बात फकीरों ने कही है—कबीर ने भी कही है, फरीद ने भी कही है, और फकीरों ने भी कही है—कि अगर कोई आदमी सच में ही सोया हो तो उसे जगाना बहुत आसान है। लेकिन कोई बनकर सोया हो, तो फिर जगाना बहुत मुश्‍किल है। लेकिन बनकर सोया जा सकता है। यह मजे की बात है, बनकर सोया जा सकता है। और बनकर अगर कोई सोया हो; तो उठाना बहुत मुश्किल है।
शायद हम उठ नहीं पाते हैं इतनी चेष्टा के बाद भी, उसका मौलिक कारण यह है कि हम सोए हुए कम, बनकर सोए हुए ज्यादा हैं। खैर.. इसीलिए इतनी चेष्टा चलती है! कितने बुद्ध, कितने महावीर, कितने जीसस, कितने जरथुस्र चेष्टा करते रहते हैं जगाने की, लेकिन आदमी है कि करवट बदलकर फिर अपनी चादर ओढ़कर सो जाता है। पहली दफा से और अच्छी तरह से, ढंग से सो जाता है। अस्त—व्यस्त हो गया होगा थोड़ा नींद में, चादर उघड़ गयी होगी, कहीं पैर उघड़ गया होगा, कहीं सिर से तकिया हट गया होगा, तो महावीर—बुद्ध की कृपा से इतना होता है कि करवट बदलकर, तकिये को ठीक करके, बिस्तर को संभालकर, चादर को ठीक से ओढ़कर सो जाता है। यह जो आदमी है, यह सोया हुआ नहीं है। यह सोया हुआ—सा है। यह अपने ही कारण....
... मैं एक गांव में था। एक मित्र मुझे मिलने आए। कुछ आधी ही बात हुई होगी और अधूरी ही बात में था कि वे एकदम अचानक उठकर खड़े हो गये। और उन्होंने कहा कि क्षमा करें, मैं और ज्यादा आपकी बात नहीं सुनना चाहता। तो मैंने पूछा कि न मैं कभी आपको.... पहले कहने आपके घर गया नहीं था, आप ही आए थे, मैंने बात शुरू भी नहीं की थी, आपने ही कुछ पूछा था। उन्होंने कहा मैं ही आया था और मैंने ही पूछा था और मैं ही आपसे कहता हूं कि बस आप रुक जाएं मैं और सुनना नहीं चाहता; अभी मेरे छोटे—छोटे बच्चे हैं! मैंने कहा मेरी बात से आपके छोटे बच्चों का क्या संबंध? तो उन्होंने कहा घर—गृहस्थी बिलकुल कच्ची है। आऊंगा एक दिन आपके पास, लेकिन अभी नहीं। अभी वह वक्त नहीं आया। मुझे जाने दें। और उनकी पीड़ा वास्तविक है। और मैंने जाना कि वह आदमी ईमानदार है। वह उन आदमियों में से था, जो जंच जाए तो फिर करवट बदलकर सो नहीं सकते। उसने पहले ही इनकार कर दिया कि यह बातचीत करनी ही नहीं है। आऊंगा एक दिन, अभी वह वक्त नहीं आया। अभी मैं जैसा हूं रहने दें। जैसा हूं सोया रहने दें।
एक बात उस आदमी को साफ खयाल में आ गयी कि यह सोया होना उसका चुनाव है। उसने चुना है। इसे आप ठीक से समझ लें। अगर सोया हुआ होना आपने चुना नहीं है, तो आप जागना भी चुन नहीं सकते। अगर सोया होना आपकी मजबूरी है तो जागना फिर आपके हाथ में नहीं हो सकता। फिर जिसने आपको सुलाया होगा, वही जाने। अगर आप ही सो गये हैं, तो ही आप जाग सकते हैं। और चूकिं हम जानते हैं कि लोग जाग जाते हैं, इसलिए हम दूसरी बात भी कह सकते हैं कि लोग अपनी ही तरफ से सोए हुए हैं। चेष्टा करने से आदमी जाग जाता है। यह साफ है बात कि चेष्टा करने से आदमी सोया है।
क्या है चेष्टा हमारे सो जाने की? क्या है रस? रस तो होगा ही अन्यथा हम सोएंगे क्यों? रस कुछ होगा। रस कुछ है। वह रस क्या है?
आदमी चैतन्य है। चैतन्य होने के कारण उसके पास दृष्टि है, प्रकाश है,बोध है। यह बोध जैसे ही उसके पास है वह चीजों पर पड़ता है, वस्तुओं पर पड़ता है, लोगों पर पड़ता है। एक दीया हम जलाएं। तो दीया जलते ही करेगा क्या? दीया प्रकाश है, तत्‍क्षण चीजों को प्रकाशित करेगा। और क्या करेगा! कमरे में अंधेरा था, कुछ दिखायी नहीं पड़ता था, दीया जला, भभककर लपट बनी, तत्काल पूरा कमरा आलोकित हो गया। अगर दीये की चेतना भी हो, तो दीये को अपनी ज्योति दिखायी नहीं पड़ेगी। अगर चेतना हो, तो दिखायी पड़ेगा कमरे में क्या—क्या रखा है? दीवाल है, सोफा है, कुर्सियां हैं, तस्वीरें हैं, तिजोड़ी है, सब कुछ दिखायी पड़ेगा, सिर्फ एक चीज दिखायी नहीं पड़ेगी—वह जो ज्योति है, वह दिखायी नहीं पड़ेगी।
दीये को ज्योति कैसे दिखायी पड़ेगी? दीया अगर होश से भर जाए, अचानक दीये में आत्मा आ जाए, तो क्या होगा? कमरा दिखायी पड़ेगा, जो—जो प्रकाशित हो रहा है वह—वह दिखायी पड़ेगा, और उसी दिखायी पड़ने से वासना का जन्म होगा। दस तस्वीरें लगी हैं, अगर दीया सजग हो जाए तो जो तस्वीर उसे प्यारी लगती है वह चाहेगा कि मुझे मिल जाए; न भी मिले तो कम—से—कम मैं उसके निकट पहुंच जाऊं, और पास, और पास, और पास...। दिखें चारों तरफ कि तिजोरियां रखी हैं, तो दीया सरकने लगेगा। कोशिश करने लगेगा, पास जाने लगेगा। और आदमी की चेतना का दीया जिस प्रकाश को फैलाता है, वह इस पूरे ब्रह्मांड पर पड़ता है। अनंत—अनंत वासनाएं पैदा हो जाती हैं। अनंत वासनाएं पाने की, सोचने की, होने की। और एक बात भूल जाती है, जो स्वाभाविक है, कि जो देख रहा है, जान रहा है, प्रकाशित कर रहा है, इसका विस्मरण हो जाता है। यही निद्रा है।
और जब यह भागती है चेतना की ज्योति, चीजों को पाती है, पा लेती है, इकट्ठा कर लेती है, तो अहंकार जन्मता है। कि मैंने यह—यह पा लिया, यह—यह इकट्ठा कर लिया, तो फिर कर्ता निर्मित होता है। इसका मतलब हुआ, बोध से वासना जागती है, वासना की सफलता से कर्ता निर्मित होता है, नींद गहरी पर्त—दर—पर्त बढ़ती चली जाती है। 
इसका यह कारण नहीं है कि चेतना का स्वभाव चैतन्य नहीं है। चैतन्य है स्वभाव, इसीलिए यह सब घटित होता है। अगर चेतना में ज्योति न होती, चेतना न होती तो कुछ भी घटित न होता। पत्थर में कहीं वासना जगती है। पत्थर पड़ा है जहां का तहां, बिलकुल सिद्ध अवस्था में रहता है। कोई वासना की लहर नहीं उठती है। इसलिए तो हम उसे जड़ कहते हैं। अगर जड़ और चेतना का ठीक से अर्थ समझें, तो जहां—जहां वासना उठती है वहीं—वहीं चैतन्य है। और जहां—जहां वासना नहीं उठती वहीं जड़ है। फिर वासना को भी अगर ठीक से समझें, तो पशुओं में उतनी तीव्रता से नहीं उठती जितनी मनुष्यों में उठती है। भभक कर उठती है। तो वासना जितनी भभक कर उठती है, चैतन्य उतना ज्यादा है। इसलिए भभक कर उठती है।
चैतन्य जितना बढ़ता जाता है, वासना उतनी भभक कर उठती है। इसलिए आदमी जितना विकसित हो रहा है, समय में, इतिहास में, उतनी तीव्र वासना की भभक है। इससे घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है। इससे बेचैन होने की कोई जरूरत नहीं है। यह सिर्फ खबर दे रही है कि चेतना का प्रकाश और चीजों पर भी पड़ रहा है, जिस पर कल नहीं पड़ रहा था। अब उनकी भी वासना है। अब चांद पर भी पहुंचने की वासना है। अब मंगल पर भी पहुंचने की वासना है। जहां—जहां मनुष्य की चेतना का प्रकाश पहुंचेगा, वहां—वहां होने की वासना जगेगी। आज हम सोच ही नहीं सकते, अभी हमारे मन में यह खयाल भी नहीं उठता कि चांद पर नहीं गये तो जिंदगी बेकार है। लेकिन पच्चीस साल में उठेगा। पच्चीस साल में हमारे बच्चे जब चांद पर हो आएंगे उनकी जिंदगी सार्थक मालूम पड़ेगी। जो नहीं जा पाएंगे, वे सिर पीटेंगे कि बेकार है, जिंदगी में कोई सार ही नहीं है, चांद पर तो अभी गये ही नहीं।
चांद भी विषय बन जाएगा वासना का। चेतना की भभक और बढ़ गयी। चेतना जहां—जहां देखेगी, जितनी दूर तक देख पाएगी, उतना ही चाहेगी, मांगेगी, दौड़ेगी, भागेगी। और उतना ही अपने को भूलती जाएगी। जितना दूर जाएगी, उतना ही अपने को भूलती जाएगी।
इसीलिए मैं कहता हूं कि चेतना का विकास हुआ है मनुष्य के इतिहास में, क्रमश:। आज चेतना अतीत से ज्यादा विकसित है। लेकिन वासना भी अतीत से ज्यादा विकसित है। और एक मजे की बात, जितना दूर की चीज की कामना होगी उतना ही मैं अपने को ज्यादा विस्मरण कर जाऊंगा। इसलिए अतीत में जितना अपने पर लौटना आसान था, उतना आज अपने पर लौटना आसान नहीं है।
दूरी हमारे वासना के विषयों की बड़ी है। इतना फासला है उन तक जाने में कि लौटना मुश्किल होता चला जाता है। इसलिए अतीत में धर्म आसान था। आज धर्म शइश्कल है।
लेकिन एक और बात खयाल में ले लेनी चाहिए। अतीत का आदमी आसानी से धार्मिक हो जाता था, लेकिन उसके धार्मिक होने का जो विस्फोट था वह इतना बड़ा नहीं हो सकता था जितना आज हो सकता है। जितनी दूर से भटक कर राही लौटेगा घर, उतना बड़ा विस्फोट भी होगा।
तो सभी चीजों के लाभ हैं, हानियां हैं। चेतना भभक कर बड़ी होगी, वासना भी बड़ी हो जाएगी। वासना बड़ी होगी, धर्म पर लौटना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन अगर लौटना होगा, तो गहराई बढ़ जाएगी।
क्या करें? जब वस्‍तुएं दिखायी पड़ती हों, वासना पैदा होती है, कर्ता निर्मित हो जाता है। अपने पर लौटने के लिए क्या करें? वस्तुओं पर जाने के लिए क्या करते हैं? वस्तुओं पर जाने का एक ही उपाय है कि वस्तुएं दिखायी पड़े। अपने पर आने का भी एक ही उपाय है कि यह चेतना जो दूसरों को देखती है, यह प्रकाश जो दूसरों को प्रकाशित करता है, यह दूसरों से मोड़ा जाए, वापिस, अपने पर, ताकि यह स्वयं को भी देख सके। यह स्वयं पर लौटते हुए प्रकाश का नाम ही ध्यान है। वस्तुओं को देखते हुए प्रकाश का नाम ज्ञान है 1 स्वयं पर लौटते हुए प्रकाश का नाम ध्यान है, और जब अपने पर लौट आता है, यही प्रकाश जिससे सारा जगत प्रकाशित होता है, जिस दिन हम स्वयं इससे प्रकाशित हो जाते हैं, जब यह चेतना की लौ अन्य को ही नहीं स्वयं को भी प्रकाशित कर देती है, तो, तो जो अनुभव आता है वह साक्षी का अनुभव है। बाकी सब अनुभव कर्ता के अनुभव हैं।
इस साक्षी को अद्भुत भी कहा। अद्भुत इसीलिए कहा कि जो यह नहीं है, वैसा भी होता हुआ मालूम पड़ता है। यही 'स्ट्रेंज' है। अज्ञानी यह नहीं है, अज्ञानी होता हुआ मालूम पड़ता है। सो यह नहीं सकता है, लेकिन सोया—सा हो सकता है। यह कभी स्वयं से छूत नहीं हो सकता है, लेकिन फिर भी भटक सकता है। यह स्वयं को कभी खो नहीं सकता है, लेकिन फिर भी भूल सकता है! इसलिए कहा कि चिन्मय और अद्भुत साक्षी मैं ही हू
'मैं ही वह अद्वैत ब्रह्म हूं। मुझमें ही सब कुछ उत्‍पन्‍न होता है। मुझमें ही सब कुछ प्रतिष्ठित रहता और मुझमें ही सबका लय हो जाता है। ' यह जो मेरे भीतर छिपा हुआ साक्षी है, इसको पाते ही मैं उस मौलिक आधार को पा लेता हूं जिससे सबका जन्म, सबका स्थिर होना और सबका खो जाना है। उस मौलिक अस्तित्व का अनुभव इस साक्षी के द्वार से हो जाता है।
अंतिम बात। कर्ता के द्वार से चलें तो संसार मिलता है। साक्षी के द्वार से चलें तो परमात्मा मिलता है। और साक्षी और कर्ता के द्वार दो द्वार नहीं हैं। एक ही द्वार पर लगी हुई विपरीत तख्तियां हैं। हर द्वार पर होती हैं। बाहर दरवाजे पर लिखा होता है 'इन ' — भीतर जाने के लिए। भीतर लिखा होता है ' आउट' —बाहर जाने के लिए। दरवाजा एक ही है। भीतर से जिसे जाना है उसके लिए बाहर का है, बाहर से जिसे आना है उसे भीतर का है। चेतना जब वस्तुओं की तरफ जाती है, तो वह कर्ता है। और चेतना जब वस्तुओं की तरफ से वापिस अपनी तरफ आती है, तो यह साक्षी है। सिर्फ दिशाएं भिन्न हैं, द्वार एक ही है। वस्तुओं पर जाती है तो संसार है— अनंत। स्वयं पर आती है तो परमात्मा है— अनंत।
इतना ही। अब हम रात के ध्यान के प्रयोग के लिए तैयार हों।


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