ध्यान
योग शिविर,
दिनांक
9 जनवरी,
रात्रि;
माथेरान।
सूत्र
:
आत्मेश्वर
जीवोsनात्मनां
देहादीनामात्मत्वेनाभिमन्यते
सोsभिमान
आत्नो बन्ध:
तन्निवृत्तिर्मोंक्ष:।।2।।
या तदभिमानं
कारयति सा
अविद्या।
सोsभिमानो
यया निवर्तते
सा वि़द्या।
आत्मा
ही ईश्वर और
जीवरूप है, फिर
भी जो आत्मा नहीं
है,
ऐसे
शरीर में जीव
को अहंभाव हो
जाता है;
वही
शरीर का बंधन
है। इस अहंभाव
का निकल जाना
यही मोक्ष है।
इस
अहंभाव को जो
उत्पन्न करती
है,
वह अविद्या
है।
बंधन
क्या है? मोक्ष
क्या है? ऐसे
प्रश्नों के
उत्तर अब शुरू
होते हैं।
जीवन
को,
अस्तित्व
को, पहचानने
की, खोजने
की, अन्वेषण
की दो विधियां
हैं, दो
संभावनाएं
हैं। एक विधि
है विश्लेषण,
एनालिसिस; और दूसरी
विधि है
संश्लेषण, सिंथेसिस।
एक मार्ग
विज्ञान का है,
एक धर्म का।
विज्ञान
चीजों को
तोड़ता है उनकी
अंतिम इकाई तक, आणविक
इकाई तक, एटॉमिक
यूनिट तक। और
उस तोड़ने से
ही विज्ञान
ज्ञान को
संगृहीत करता
है। विज्ञान
चीजों को उनके
अंतिम टुकड़ों
में विभाजित
करता है। उस
विभाजन से ही
विज्ञान के
ज्ञान का जन्म
होता है।
धर्म
की प्रक्रिया
ठीक उलटी है।
धर्म जोड़ता है
प्रत्येक
इकाई को अंतिम
विराट से; टुकड़ों
को उसकी
परिपूर्णता
में; खंड
को अखंड के
साथ। और जब
सभी कुछ
संयुक्त हो
जाता है, तभी
धर्म शान को
उपलब्ध होता
है।
ऐसा
समझें, एक
फूल है, तोड़
सकते हैं उसे।
वैज्ञानिक
तोड़ेगा--फूल
को समझने
जाएगा तो
तोड़ेगा... उसके
केमिकल्स में,
उसके
रासायनिक
तत्वों में--खनिज
कितना, पानी
कितना, रसायन
कितनी--वह तोड़
कर विश्लेषण
करेगा, और
बता सकेगा फूल
किन-किन चीजों
का जोड़ है।
लेकिन कोई कवि
इससे राजी न
होगा; कोई
सौंदर्य का
प्रेमी इस
विश्लेषण को
हत्या कहेगा--क्योंकि
इस तोड़ने में
ही फूल नष्ट
हो गया; और
जो हमने जाना
वह फूल नहीं
है; और तोड़
कर जो हमें
मिला, उससे
भला फूल बनता
हो, लेकिन
फूल कुछ और ही
चीज थी। जिन
अंगों को
काट-काट कर
हमनें फूल को
पहचाना, उससे
हमें यह तो
पता चला कि
फूल किन चीजों
से मिल कर बना
था, लेकिन
फूल क्या था
यह बिलकुल भी
पता नहीं चला;
वरन तोड़ने
में ही फूल खो
गया।
तो
जब वैज्ञानिक
फूल को तोड़ कर
उसके अलग- अलग
खंडों में
लेबल लगा कर
बोतलों में
बंद कर दे, तब
फिर कोई
सौंदर्य
दिखाई नहीं
पड़ेगा--वह
सौंदर्य फूल
की
परिपूर्णता
में था, उसके
पूरे होने में
था; वह
सौंदर्य उसके
अंगों में
नहीं है, उसके
जोड़ में था।
इसे ऐसा समझें,
किसी ने एक
गीत लिखा हो, तो गीत को हम
उसके शब्दों
में तोड़ सकते
हैं। जो
भाषाशास्त्री
है, अगर
उससे कहेंगे
कि इस गीत को
समझो, तो
वह शब्दों को
तोड़ कर अलग-
अलग रख देगा--बता
सकेगा कि गीत
कैसे बना, किन
शब्दों के जोड़
से बना, कौन
से नियम
व्याकरण के
काम में आए, लेकिन गीत
खो जाएगा, क्योंकि
गीत व्याकरण
नहीं है। और
गीत, गहरे
में समझें तो
शब्दों का जोड़
भी नहीं है, शब्दों के
जोड़ से कुछ
ज्यादा है, समथिंग प्लस।
वह जो ज्यादा
है वह खो जाता
है।
तो
विज्ञान अणु
को उपलब्ध हो
जाता है, सूक्ष्मतम
को जान लेता
है, अंतिम
खंड को पहचान
लेता है, लेकिन
अखंड से वंचित
हो जाता है? परमात्मा से
खो जाता है।
धर्म
कहता है : सब
जुड़ कर जो उस
जोड़ से
आविर्भूत होता
है,
वही प्रभु
है, वही
ईश्वर है।
ये
ज्ञान के
दोनों ढंग बड़े
भिन्न हैं, बड़े
विपरीत भी। ये
दो मार्ग हैं
जानने के।
विश्लेषण
से हम कभी भी
पदार्थ के पार
नहीं पहुंच
पाते, नहीं
पहुंच सकेंगे।
नहीं, कोई
उपाय नहीं है।
सब आशाएं
व्यर्थ हैं कि
विज्ञान किसी
दिन परमात्मा
को घोषित
करेगा।
वैज्ञानिक
भला कहने लगें
कि परमात्मा
है, लेकिन
वैज्ञानिक का
वक्तव्य
विज्ञान का
वक्तव्य नहीं
है।
आइंस्टीन
मरते समय
अनुभव करने
लगा था कोई
दिव्य
उपस्थिति। पर
वह वैज्ञानिक
का वक्तव्य है, विज्ञान
का नहीं। वह
वक्तव्य वैसे
ही है जैसे एक
वैज्ञानिक
प्रेम में पड़
जाए किसी के
और कहने लगे, इस स्त्री
से ज्यादा
सुंदर और कोई
स्त्री जमीन
पर नहीं है।
लेकिन यह कोई
विज्ञान का
वक्तव्य नहीं
है, एक वैज्ञानिक
का वक्तव्य है।
और एक
वैज्ञानिक
फूल को देख कर
आनंदित हो उठे
और नाच उठे; लेकिन यह
नृत्य
विज्ञान का
नृत्य नहीं है,
यह
वैज्ञानिक का
नृत्य है।
लेकिन
धार्मिक लोग
अक्सर ऐसा सोच
लेते हैं... अगर
कभी कोई
वैज्ञानिक कह
देता है कि
हां,
परमात्मा
की प्रतीति
मालूम पड़ती है--कभी
कोई एडिंग्टन,
या कभी कोई
ओलिवर लाज, या कभी कोई
आइंस्टीन अगर
कह देता है, तो धार्मिक
आदमी बड़े
जल्दी सोचने
लगता है कि विज्ञान
भी अब
परमात्मा की
बात करने जा
रहा है। बड़ी
भूल है। ये
वक्तव्य निजी
हैं और
वैयक्तिक हैं,
इनका विज्ञान
से कोई
लेना-देना
नहीं है।
विज्ञान
कभी भी
परमात्मा की
बात नहीं कह
सकेगा, क्योंकि
विज्ञान जिस
विधि का उपयोग
करता है वह
विधि ही खंड
पर ले जाती है,
वह अखंड पर
ले जाती नहीं।
यह बात दूसरी
है कि किसी
दिन विज्ञान
भी धर्म की
विधि का उपयोग
करे तो
परमात्मा की
बात कह सके, लेकिन उस
दिन वह विज्ञान
ही नहीं होगा,
वह धर्म ही
हो जाएगा।
ऋषि
का उत्तर इस
बात से ही
शुरू होता है।
''आत्मा ही
ईश्वर और
आत्मा ही जीव
है। '' वह जो
मनुष्य के
भीतर बोध की
क्षमता है, चैतन्य है, वह जो
चिदरूप; वह
जो मनुष्य के
भीतर जानने
वाला है--ज्ञाता
है, द्रष्टा
है; वह जो
साक्षी है, उसे उपनिषद ' आत्मा'
कहते हैं।
लेकिन
यह वक्तव्य
बहुत अदभुत है।
यह वक्तव्य
कहता है. 'आत्मा
ही ईश्वर। 'कोई ईश्वर
इस आत्मा से
अतिरिक्त
नहीं है।
संश्लेषण की
यह विधि है।
आत्मा आपके
भीतर है, और
परमात्मा इस
सारे
अस्तित्व का
नाम है।
बूंद
है आपके पास...
अगर हम
वैज्ञानिक से
पूछें कि सागर
क्या है, तो वैज्ञानिक
कहेगा. बूंदों
के जोड़ के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं।
और गलत नहीं
कहता। अगर
सागर को
बांटने जाएं
तो बूंदों के
सिवाय और क्या
हाथ में लगेगा?
लेकिन
निश्चय ही
क्या सागर
बूंदों का जोड़
ही है? बूंद
में न तो कभी
तूफान उठते, बूंद में
कभी लहरें
नहीं उठतीं; बूंद का जोड़
ही नहीं है
सागर, सागर
कुछ और भी है--बूंद
के जोड से भी
ज्यादा।
लेकिन वितान
कहेगा. कहां
है वह सागर? हम सब
बूंदें खींच
कर निकाल लेते
हैं, फिर
सागर नहीं
बचता। वे ठीक
कहते हैं।
मेरा
हाथ काट ले, मेरा
पैर काट लें, मेरा सिर
अलग कर दें, मेरे सारे
अंगों को अलग
कर लें, मैं
कहां बचता हूं
पीछे! फिर भी
मैं हाथ और
पैर के जोड़ से
ज्यादा हूं और
जब मेरा पैर
काटा जा सकता
है, तब भी
मैं इस बोध
में थिर हो
सकता हूं कि
मैं नहीं काटा
जा रहा हूं और
मेरी गर्दन
कटती हो, तो
भी मैं इस
चैतन्य से भरा
हो सकता हूं
कि इस गर्दन
को दूसरे लोग ही
कटता नहीं देख
रहे हैं, मैं
भी कटता हुआ
देख रहा हूं।
मंसूर
काटा जा रहा
है,
और हंस रहा
है... और भीड़
में एक आदमी
पूछता है कि
मंसूर तुम
पागल तो नहीं
हो! तुम काटे
जा रहे हो और
हंस रहे हो? मैसूर ने
कहा. पहले मैं पागल
था, और
कांटा भी
चुभता था तो
रोता था; मैं
अब पागल नहीं
हूं क्योंकि
जिस तरह तुम
देख रहे हो कि
गर्दन काटी जा
रही है, उसी
तरह मैं भी
देख रहा हूं
कि गर्दन काटी
जा रही है--तुम
बाहर से, मैं
भीतर से, हम
दोनों ही
देखने वाले
हैं। जैसे तुम
दर्शक हो, वैसा
मैं भी दर्शक
हूं यह शरीर
तुम बाहर से
देखते हो, इसे
मैं भीतर से
देखता है।
अगर
हम धार्मिक से
फेंकि बूंद
क्या है, तो वह
कहता है, सागर
ही। वह कहता
है, सागर
ही!
वैज्ञानिक
सागर को बूंद
बना देता है, धार्मिक
बूंद को सागर
बना देता है।
और यह बड़ा
क्रांतिकारी
फर्क है; यह
फर्क छोटा
नहीं।
विज्ञान सभी
चीजों को उनके
क्षुद्रतम
हिस्से के साथ
जोड़ देता है
और धर्म सभी
चीजों को उनके
श्रेष्ठतम
हिस्से के साथ
जोड़ देता है।
यह बात साधारण
नहीं है। यह
केवल शब्दों
का खेल नहीं
है कि बूंद
सागर है कि
सागर बूंद है,
इसमें क्या
फर्क पड़ता है?
फर्क पड़ता
है, क्योंकि
वितान
विश्लेषण
करता है, विश्लेषण
करके जो
निम्नतम इकाई
उसकी पकड़ में आती
है, उसी को
वह समस्त जीवन
का आधार मान
लेता है कि
यही आधार है।
आदमी को काटते
हैं तो पदार्थ
हाथ लगता है, हड्डी हाथ
लगती है, मांस
हाथ लगता है, आत्मा हाथ
नहीं लगती।
इसलिए
विज्ञान कहता
है, आत्मा
वगैरह कुछ भी
नहीं है, हड्डी-मांस-मज्जा
का जोड़ है--सिर्फ
जोड़; कुछ
और ज्यादा
नहीं।
धर्म
कहता है.
निकृष्ट से
श्रेष्ठ को
नहीं समझाया
जा सकता।
उलटा
हो सकता है..
बूंद से सागर
को नहीं
समझाया जा
सकता, सागर से
बूंद को
समझाया जा
सकता है; श्रेष्ठ
से निकृष्ट को
समझाया जा
सकता है, निकृष्ट
से श्रेष्ठ को
नहीं समझाया
जा सकता। इसके
कारण हैं। इस
बात को ठीक से
समझ लें तो
उपनिषद की
भाषा समझ में
आ सकेगी।
बच्चे
से के को नहीं
समझाया जा
सकता, लेकिन
के से बच्चे
को समझाया जा
सकता है; क्योंकि
का दोनों रह
चुका--बच्चा
भी और का भी।
बच्चा अभी
सिर्फ बच्चा
ही है, अभी
का हुआ ही
नहीं। सागर से
हम बूंद को भी
समझा सकते और
सागर को भी, लेकिन बूंद
से हम सागर को
नहीं समझा
सकते। पदार्थ
से हम सिर्फ
शरीर को और
पदार्थ को ही
समझा सकते हैं,
परमात्मा
से हम दोनों
को समझा सकते
हैं। विराट जो
है वह शुद्र
को अपने भीतर
समा लेता है, लेकिन शुद्र
विराट को अपने
भीतर नहीं समा
पाता है। तो
जितनी विराट
की धारणा हो
उतना हम सभी
को उससे समझा
सकते हैं, लेकिन
क्षुद्र की
धारणा से
विराट को
समझाना असंभव
है।
ऐसा
समझें कि
विज्ञान सदा
ही प्रथम पर
ध्यान रखता है
और धर्म सदा
ही अंतिम पर। विज्ञान
पहले कदम पर
ध्यान रखता है, धर्म
अंतिम मंजिल
पर; क्योंकि
धर्म कहता है,
अगर मंजिल
नहीं है तो
पहला कदम भी
नहीं समझाया
जा सकता--क्योंकि
बिना मंजिल के
उसे पहला कदम
भी कैसे कहिएगा?
वह पहला कदम
भी इसीलिए है
कि कोई आखिरी
कदम भविष्य
में
प्रतीक्षा
करता है।
तो
मंजिल से हम
पहले कदम को
समझा सकते हैं, लेकिन
पहले कदम को
ही अगर हम
सब-कुछ मान
लें तो मंजिल
तो समझाई ही
नहीं जा सकती,
पहला कदम भी
नहीं समझाया
जा सकता।
साध्य से हम
साधन को समझा
सकते हैं, लेकिन
साधन से साध्य
को नहीं।
तो
बूंद सागर को
नहीं समझा
सकेगी, लेकिन
सागर बूंद को
भी आत्मसात कर
लेता
ऋषि कहता है :
''आत्मा ही
ईश्वर और
आत्मा ही जीव।''
तीन
शब्दों का उपयोग
है : ईश्वर..
ईस्वर से अर्थ
है शुद्धतम चैतन्य—दि
प्योर कांशसनेस।
फिर
आत्मा। आत्मा
और ईश्वरमें
क्या फर्क है?
ऋषि
कहता है. कोई
भी फर्क नहीं।
उतना ही फर्क
है,
जैसा सागर
और बूंद में
है। बूंद भी
सागर ही है।
सब-कुछ सागर
का उसमें
समाया हुआ है।
एक ही बात
ध्यान रखना कि
सागर सिर्फ
बूंदों का जोड़
नहीं है।
व्यक्ति के
भीतर जब वह
परम चैतन्य
निवास करता है,
तो उसे 'आत्मा'
कहा है।
जैसे
सूरज निकला है
आकाश में, और
आपके आँगन में
सूरज की
किरणें भर गई
हैं। सूरज की
किरणों में और
आपके आंगन की
किरणों में
कोई भी फर्क
नहीं, फिर
भी आपके आंगन
की किरणों की
सीमा है। आपके
मकान की
दीवालें, आपके
आंगन में पड़ती
सूरज की
किरणों को
घेरती हैं—सीमा
बन जाती है।
सीमा
में ऐसा निवास
करता हुआ
ईश्वर आत्मा
है। लेकिन
क्या सच में
ही जब आपके आंगन
में सूरज की
किरणें बरसती
हैं,
तो सूरज की
किरणों पर कोई
सीमा बनती है
कि सीमा आपके आंगन
की ही होती है?
सूरज की
किरणों पर
आपकी दीवालें
क्या बाधा बनेंगी।
सूरज की
किरणों को
आपकी दीवालें
क्या बांध पाएंगी।
दीवालें आपके आंगन
को ही बांधती
हैं। लेकिन
अगर आपके आंगन
में पड़ती हुई
धूप को यह वहम
हो जाए, यह
भ्रम हो जाए
कि मैं भी बंध
गया, तो इसका
नाम 'जीव' है।
शरीर
की सीमाओं में
जो परमात्मा है
उसका नाम
आत्मा है, लेकिन
अगर इस आत्मा
को यह भ्रम हो
जाए कि मैं
यही शरीर हूं
तो इसका नाम
जीव है। अंतर
कुछ भी नहीं
है-- चाहे भ्रम
हो सूरज की
किरण को कि
मैं आंगन में
बंधी हूं तो
भी वह बंधती
नहीं। किरण
बंध ही नहीं
सकती, न-बंधा
होना उसका
स्वभाव है।
मुट्ठी
बांधिएगा, किरण
भीतर नहीं पकड़
में आएगी; न-बंधा
होना उसका
स्वभाव है--वह
उसकी
स्वतंत्रता
है, उसका
जीवन है। सीमा
उस पर नहीं है,
सीमा आंगन
की है; लेकिन
भ्रम पैदा हो
सकता है। वह
भ्रम आत्मा को
जीव बना देता
है। भ्रम टूट
जाए तो आत्मा
ईश्वर हो जाती
है। धर्म इतनी
विराटव्याख्या
में समस्त
जीवन को पिरोता
है।
यह
जो चिंतन की
सरणी है, इसे
ठीक से खयाल
में ले लेना
साधक के लिए
बड़ा उपयोगी है;
क्योंकि
उसकी भी फिर
यात्रा आंगन
से है--आंगन की
दीवालों से है,
धूप और धूप से
सूरज की तरफ
है।
''आत्मा ही
ईश्वर और जीव रूप
है, फिर भी जो
आत्मा नहीं है,
ऐसे शरीर
में जीव को
अहंभाव हो
जाता है।''
अहंभाव
का अर्थ है :
तादात्म्य; जो
मैं नहीं हूं
उसके साथ मुझे
ऐसा भाव पैदा
हो जाए कि मैं
हूं। आंगन में
आई हुई किरणों
को खयाल हो
जाए कि ये आंगन
की दीवालें और
यह आंगन, यही
हमारा होना है।
ऐसी
आइडेंटिटी, ऐसा
तादात्म्य ही
अहंभाव है।
''
अहंभाव का
हो जाना बंधन
और अहंभाव का
निकल जाना, यही मोक्ष
है। इस अहंभाव
को जो उत्पन्न
करती है वह
अविद्या, और
जिससे यह
अहंभाव निकल
जाता है वह
विद्या कहलाती
है।''
इस
अहंभाव को जो
उत्पन्न करती
है,
वह अविद्या।
जिस विधि से, जिस ढंग से, जिस
प्रक्रिया से
यह अहंभाव
निर्मित होता
है, उसे ' अविद्या ' कहा है। और
जिस विधि से, जिस मार्ग
से यह अहंभाव
क्षीण होता है,
गलता, बिखर
जाता, बिसर
जाता है, उसे
'विद्या' कहा है।
हम
सब अविद्या
में ही जीते
हैं,
क्योंकि हम
सिवाय अहंकार
निर्मित करने
के और कुछ भी
तो नहीं करते।
चाहे हम धन
कमाते हों, तो भी हम
अहंकार
निर्मित करने
को ही कमाते
हैं; और
चाहे हम शान
इकट्ठा करते
हों, तो भी
हम अंहकार को
भरने को ही
इकट्ठा करते
हैं; और
चाहे हम पदों
की लंबी
यात्रा पर
निकलते हों, सीढ़ी दर
सीढ़ी चढ़ते हों
राजधानियों
की, तब भी
हम सिंहासनों
पर पहुंच कर
करते क्या हैं?
सिंहासनों
पर आप
प्रतिष्ठित
नहीं होते, अहंकार ही
प्रतिष्ठित
होता है; राजमुकुट
आपके सिर पर
नहीं रखे जाते
हैं, राजमुकुट
आपकी अस्मिता,
आपके
अहंकार के सिर
पर ही बंधते
हैं।
अहंकार
के अतिरिक्त
हम कुछ भी
अर्जन नहीं
करते। हमारे
पूरे जीवन की
सारी
प्रक्रिया
इतनी है कि
कैसे मैं कुछ
हो जाऊं? और
कैसे मैं
दूसरों के मैं
को हटाऊं पीछे
और आगे खड़ा हो
जाऊं। एक थोथी
दौड़! लेकिन
जीवन भर वही
चलती है; खटोले
से लेकर कब तक
वही चलती है.
वही दौड़! वही दौड़
ईर्ष्या की, प्रतिस्पर्धा
की, प्रतियोगिता
की।
क्या
है ईर्ष्या? क्या
है
प्रतिस्पर्धा?
क्या है
प्रतियोगिता?
किससे है
संघर्ष? और
किसलिए है? एक ही आधार
है सिर्फ कि
मैं पिछड़ न
जाऊं; मैं
छोटा न रह
जाऊं, मैं
दीन- हीन न रह
जाऊं, मेरे
सिर पर भी
राजमुकुट
बंधे; मेरे
गले में भी
फूल मालाएं
हों; मेरे
अहंकार में भी
हीरे-जवाहरात जड़ें;
मैं भी चमकूं;
मैं भी
ना-कुछ न रह
जाऊं--कुछ हो
जाऊं!
छोटे
से छोटे आदमी
से लेकर बड़े
से बड़ा आदमी
एक ही दौड़ में
है। और यह दौड़
इतनी अदभुत है
कि कभी-कभी यह
दौड़ विपरीत भी
हो जाती है और
फिर भी मूल
आधार बना रहता
है। एक आदमी
धन कमाए चला
जाता है इसलिए
कि मैं चोटी
पर पहुंच
जाऊं.
गौरीशंकर की.
धन की चोटी पर।
फिर एक आदमी
धन को लात मार
कर जंगल चला
जाता है, तपश्चर्या
करता है, और
तब भी हो सकता
है मैं की अकड़
कायम हो और वह
आदमी अब धन की
जगह तप के
सिक्के
इकट्ठे कर रहा
हो--और अब भी
अकड़ यही हो कि
मेरे जैसा
तपस्वी और कोई
भी नहीं--कहां
मैं और कहां
यह सारी
दुनिया!
अहंकार
ईश्वर की खोज
तक से अपने को
भर सकता है।
अहंकार इसलिए
भी ईश्वर की
चर्चा में पड़
सकता है कि
मेरी मुट्ठी
में छोटी-मोटी
बातें नहीं, ईश्वर
भी है।
अहंकार
के अर्जन की
प्रक्रिया
अगर अविद्या है
तो हम सब
अविद्या में
जी रहे हैं।
और जिसे हम
विद्या कहते
हैं,
विद्यालय
कहते हैं, जिन्हें
हम विद्यापीठ
कहते हैं, विश्वविद्यालय
कहते हैं, अगर
ऋषि की बात को
समझें तो वे
सब अविद्यालय
हैं, अविद्यापीठ
हैं; क्योंकि
वहां सिर्फ
अहंकार को
भरने के अतिरिक्त
और तो कोई कला
सिखाई नहीं
जाती। सारी शिक्षा
अहंकार को
जगाने का
प्रयोग है; महत्वाकांक्षा,
एंबीशन को
उठाने की
कोशिश है। तो
बाप बेटे से
कहूं रहा है
कि पिछड़ मत
जाना--अपनी
क्लास में
नंबर एक आना।
बाप दुखी होता
है लड़का पिछड़
जाता है तो; लड़का नंबर
एक आ जाता है
तो बाप भी
जैसे नंबर एक आ
जाता है।
दौड़ना
है सबको, एक ही
खेल है। अगर
यह अविद्या है
तो हमारा सारा
जीवन अविद्या
है; विद्या
का हमें कोई
पता ही नहीं
है। क्योंकि
ऋषि कहता है, विद्या उस
प्रक्रिया का
नाम है, उस
विधि का, जिससे
मैं गलता, बिसर
जाता, नहीं
बनता--और एक
घड़ी आती है कि
अहंकार नहीं
होता, केवल
आत्मा रह जाती
है, केवल
होना रह जाता
है। उसे धर्म
कहें, उस
विद्या को योग
कहें, ध्यान
कहें, प्रार्थना
कहें, पूजा
कहें--कोई भी
नाम दें; हजार
नाम दिए गए
हैं।
लेकिन
विद्या का
सार-सूत्र एक
ही है : घटानी
है वह घटना, जहां
आप तो बच जाएं,
लेकिन आपा न
बचे; जहा
चेतना तो बच जाए,
लेकिन
चेतना के बीच
में कोई मैं
की धोषणा करने
वाला केंद्र न
हो।
किसी
भी द्वार से
और किसी भी
मार्ग से मैं
अपने को खो
पाऊं। खो पाऊं
का अर्थ सो
जाऊं नहीं है; खो
पाऊं का अर्थ
विस्मरण हो
जाऊं नहीं है;
खो पाऊं का
अर्थ भूल जाऊं
अपने को नहीं
है; खो
पाऊं का अर्थ
है : बचूं पूरी
तरह--जागा, होश
से भरा, स्मरणपूर्वक,
फिर भी मैं
न बचूं? वही
बच जाए जिसके
साथ मैं का
कोई भी जोड़
नहीं है।
बुद्ध
के चरणों में
किसी ने आकर
सिर रखा है एक सुबह।
कोई संदेहशील
व्यक्ति आया
है,
वह भी बैठा
है पास में।
उसने बुद्ध से
कहा : आप इस
व्यक्ति को
रोकते नहीं कि
आपके चरण न
छुए, क्योंकि
आपने ही तो
हमें समझाया
है कि किसी के
शरण में जाने
की जरूरत नहीं
है, स्वयं
को खोजो। यह
आदमी आपकी शरण
में आ रहा है, आप इसे
रोकते नहीं!
बुद्ध
ने कहा : अगर
मैं होता तो
जरूर रोकता; यदि
मैं होता तो
जरूर रोकता।
और बुद्ध ने
कहा : अगर मैं
होता, तो
चाहे रोकता और
चाहे इसका सिर
झुकाता, दोनों
बराबर थे।
चाहे इसका सिर
पकड़ कर चरणों
में रखता तो, और चाहे
इसका सिर
रोकता कि नहीं,
मत छुओ मेरे
पैर, दोनों
बराबर थे।
लेकिन जो आदमी
झुकाता इसका
सिर और जो
आदमी रुकाता
इसका सिर, वह
अब नहीं है।
जैसे तुमने
देखा कि इसने
सिर झुकाया, मैंने भी
देखा। जरा सा
भूल हुई।
तुमने देखा
इसने मुझे सिर
झुकाया, मैं
सोच रहा हूं :
इसने किसे सिर
झुकाया? टु
हूम ही हैज
बोड डाउन? कोई
दिखाई तो नहीं
पड़ता। इसने
किसे सिर
झुकाया?
ऐसी
घड़ी जिस द्वार
से आती है, उसे
ऋषि 'विद्या'
कहते हैं।
यह
जो विज्ञान है
धर्म का, उसे
ही मैं ध्यान
कह रहा हूं।
जब भी आपसे
कहता हूं
ध्यान, तो
मैं इसी
विद्या की बात
कर रहा हूं।
हम सब जीते
हैं गैर-
ध्यान में। हम
ऐसे जीते हैं,
जैसे
सोए-सोए। कभी
आपने अगर किसी
व्यक्ति को हिम्मोसिस
में, सम्मोहन
में देखा हो..
चलते हुए, या
कभी आपने किसी
व्यक्ति को
निद्रा में
चलते हुए देखा
हो--किसी
सोम्नाम्बुलिस्ट
को.. -बहुत लोग
रात नींद में
उठते हैं और
चलते हैं।
आपमें
भी यहां बहुत
लोग होंगे, क्योंकि
सौ में से कम
से कम सात लोग
नींद में चल
सकते हैं। कम
से कम सात! पर
उसको पता भी
नहीं चलता, क्योंकि वह
चल-फिर कर
वापस सो जाता
है। आंखें खोल कर
चल लेता है।
लोगों ने
हत्याएं तक की
हैं नींद में
चल कर, और
सुबह उनको
बिलकुल पता
नहीं है; वे
केवल इतना ही
कह सकते हैं
कि ही, ऐसा
कोई सपना देखा
रात कि किसी
की हत्या की।
लोगों ने
चोरियां की
हैं, और
जरा भी वे
कसूरवार नहीं
थे, क्योंकि
वह सब नींद
में हुआ।
लेकिन
यह तो कुछ
लोगों की बात
कर रहा हूं जो
नींद में चलते
हैं। अगर हम
अपनी तरफ बहुत
गौर से देखें
तो हम सभी थोड़े
या बहुत नींद
में चलते हैं।
आप जो कर रहे
होते हैं, उस
पर आपका कहां
होता है ध्यान,
ध्यान तो
कहीं और होता
है। राह पर
चलते हैं आप, तब चलने में
आपका ध्यान
होता है? चलने
को छोड़ कर और
कहीं भी होता
होगा। जब आप
भोजन कर रहे
होते हैं तब
भोजन करने में
ध्यान होता है?
भोजन को छोड़
कर और कहीं भी
होता होगा।
हां, भोजन
पर भी कभी-कभी
होता है, लेकिन
वह तब होता है
जब भोजन नहीं
कर रहे होते।
जहां
होते हैं आप
वहां ध्यान
नहीं होता। तो
वहां क्या
होता होगा
जहां आप होते
हैं जब ध्यान
नहीं होता? वहां
नींद होती है।
उसी नींद में
सब उपद्रव
होते हैं। जब
आपने किसी पर
क्रोध किया है
तो आपने खयाल
किया कि आपका
ध्यान वहां था?
क्योंकि
ध्यान होता तो
क्रोध करना
असंभव है।
ध्यान और
क्रोध का कोई
मेल ही नहीं
बैठता। ध्यान
हो तो क्रोध
हो नहीं सकता।
क्रोध के होने
के लिए नींद
जरूरी है, नशा
जरूरी है।
इसीलिए
तो आदमी क्रोध
के बाद पछताता
है;
कहता है कि
कैसे मैंने
किया? और
क्यों किया? क्या सार था?
इसी ने किया
है। और ऐसा भी
नहीं है कि
पहली दफे किया
है; और ऐसा
भी नहीं है कि
पहली दफे पछता
रहा है। बहुत
दफे ऐसे ही
पछताया है, ऐसे ही
क्रोध किया है।
और हर बार यही
सोचा है, क्यों
किया? क्या
सार था? फिर
किया क्यों
अगर सार नहीं
था?
यह
आदमी मौजूद ही
नहीं था। यह
तो जब क्रोध
चला गया, तब ये
वापस आए हैं
घर। ये थे
नहीं, तब
हो गया। जब
लौटे तो पछता
रहे हैं।
लेकिन अब
पछताने से कोई
फायदा नहीं; अब कोई भी
अर्थ नहीं है;
अब कोई भी
सार नहीं है।
कुछ
चीजें ध्यान
में हो ही
नहीं सकतीं।
असल में जिसे पाप
कहा है जानने
वालों ने, उसे
ही पाप कहा है
जो
ध्यानपूर्वक
नहीं हो सकता।
पाप की यही
परिभाषा है कि
जो
ध्यानपूर्वक
न हो सके वह
पाप है; और
जो
ध्यानपूर्वक
हो सके वह
पुण्य है।
ध्यानपूर्वक
चोरी नहीं हो
सकती है; और
ध्यानपूर्वक
हत्या नहीं की
जा सकती; और
ध्यानपूर्वक
क्रोध नहीं हो
सकता; लेकिन
ध्यानपूर्वक
करुणा हो सकती
है; और
ध्यानपूर्वक
प्रेम हो सकता
है।
और
ध्यानपूर्वक
जो भी हो सकता
है,
वह सब धर्म
है, और
पुण्य है।
जो
ध्यानपूर्वक
हो ही न सके, जिसके
लिए नींद
अनिवार्य
तत्व हो, जो
नींद में ही
फल सकता हो, वही पाप है।
तो
हम ध्यान में
जीते नहीं।
कभी-कभी ध्यान
करने बैठते
हैं तो वहां
भी नींद आती
है--वहां भी!
बल्कि और जोर
से आती है।
उसका कारण है
कि उसका हमें
कोई खयाल ही
नहीं है, कोई
अनुभव ही नहीं
है। जिस ढंग
से हम चलते
हैं, उठते
हैं, बैठते
हैं, उस
सबके हम
अभ्यासी हैं--वह
नींद में हो
जाता है।
मैंने
कहा कि हम
सब-कुछ नींद
में कर रहे
हैं। अभी मैं
एक व्यक्ति का
जीवन पढ़ रहा
था,
उसे हकलाने
की आदत थी।
लाख उपाय किए,
हकलाना न
गया।
मनोवैज्ञानिकों
ने
मनोविश्लेषण
किया। वर्षों
हजारों डालर
उसकी
चिकित्सा पर
खर्च हुए। बड़े
आदमी का लड़का
था। कोई
रास्ता न
निकला। दवाएं
चलीं, सब
हुआ, लेकिन
नहीं, हकलाना
बंद नहीं हुआ।
और एक मजेदार
घटना घटी।
गांव में एक
नाटक चल रहा
था, और उस
नाटक में एक
हकलाने वाले
पात्र की
जरूरत थी। और
जो पात्र
अभ्यासी था
सदा का, जो
पार्ट करता था
वह बीमार पड़
गया था; वह
मंच पर आ नहीं
सकता था। तो
किसी ने खबर
दी कि गांव मे
फलां-फलां
आदमी का लड़का
जितनी कुशलता
से हकलाता है,
कोई क्या
हकलाएगा !
उससे
प्रार्थना कर
ली जाए। थोड़ा
ही पार्ट है, और तत्काल
मौजूद है।
सिखाना बहुत
मुश्किल
मामला है।
हकलाने वाले
युवक को लाया
गया, और
चमत्कारो का
चमत्कार हुआ
कि उस दिन वह
नाटक के मंच
पर न हकला सका।
बहुत कोशिश की
उसने, लेकिन
हकलाना था कि
आया ही नहीं।
क्या हो गया?
मैं
एक गांव में
था। एक युवक
विश्वविद्यालय
का मेरे पास
आया। उसे एक
अजीब सी आदत
पड़ गई है, स्त्रियों
जैसा चलने की।
तो बहुत उपाय
हो गए हैं, लेकिन
वह जाती नहीं;
कभी भी
वक्त-बेवक्त
सड़क पर अचानक
वह पाता है कि
वह स्त्रियों
जैसा चल रहा
है।
स्त्रियों
जैसा चलने में
कोई बुराई
नहीं है, क्योंकि
स्त्रियां
चलती ही हैं, लेकिन वह
मुश्किल में
पड़ गया है, और
खुद ही दीन और
हीन हो गया है।
असल
में स्त्री और
पुरुषों के
मांस का
विभाजन शरीर
में अलग- अलग
है। और
स्त्रियां
कुछ स्थानों
पर चर्बी
इकट्ठी करती
हैं जहां
पुरुष चर्बी
इकट्ठी नहीं
करते, इसलिए
उनकी चाल में
फर्क
स्वाभाविक है,
चर्बी का
भेद है।
पर
उसकी चर्बी
में कोई ऐसी
बात नहीं हैं
कि वह स्त्रियों
जैसा चले, क्योंकि
कभी- कभी वह
पुरुषों जैसा
चलता ही है।
और कभी-कभी
एकदम बस
स्त्रियों
जैसा चलने
लगता है। तो
बड़ी मुसीबत
में था। मैंने
उससे कहा. तू
एक काम कर; तू
अब जान कर
स्त्रियों
जैसा चलने लग।
उसने कहा.
क्या कहते हैं
आप? बिना
जाने इस
मुसीबत में
पड़ा हूं और
जान कर चलने
लग? मैं तो
जान कर रोकने
की कोशिश करता
हूं दिन-रात; जब भी चूक
जाता हूं बस
चल जाता हूं।
मैंने कहा कि
तूने जान कर
कोशिश कर ली
रोकने की, नहीं
रुक पाया; अब
मैं तुझसे
कहता हूं तू
जान कर चलने
की कोशिश कर--उठ
और मेरे सामने
चल कर बता दे।
उसने बहुत
कोशिश की, वह
न चल पाया।
उसने कहा : पता
नहीं, क्या
हो गया आज!
आपने कुछ
चमत्कार किया।
कहा, यह तू
किसी और को मत
बताना। हाथ
मेरा इसमें
जरा भी नहीं
है। तू ही
चमत्कार कर
रहा है; तुझे
पता नहीं इस
चमत्कार का।
कुछ
चीजें जान कर
की ही नहीं जा
सकतीं--होशपूर्वक
नहीं की जा
सकतीं। कुछ
चीजें बस होश
के साथ ही टूट
जाती हैं।
ध्यान
विधि है
विद्या की।
अहंकार भी
होशपूर्वक
नहीं किया जा
सकता। अहंकार
होशपूर्वक
करके देखें तो
आपको पता चलेगा।
गुरजिएफ
अपने साधकों
के साथ एक खेल
खेला करता था।
वह अपने
साधकों को ऐसी
हालत में ला
देता था कि उन्हें
खयाल ही न रहे
कि वे अब क्रोध
में भरे जा
रहे हैं। कुछ
ऐसी बात कर
देता, कुछ ऐसी
स्थिति पैदा
कर देता कि
किसी साधक को चिढ़
पैदा हो जाए, परेशान हो
जाए, चिल्लाने
लगे, गालियां
बकने लगे, आगबबूला
हो जाए--और यह
सब आयोजित
होता, और
इसमें सब
सहयोगी होते;
यह खेल होता--सिर्फ
उस आदमी को भर
पता नहीं होता
कि उसके साथ
खेल खेला जा
रहा है।
और
जब वह अपने
पूरे तूफान
में आ जाता, अपना
बोरिया-बिस्तर
बांध कर भागने
के करीब हो जाता,
और गालियां
बकने लगता, तब गुरजिएफ
कहता कि होश!
इस वक्त होश
ला कि तू क्या
कर रहा है! और
वह आदमी एकदम...
भीतर सब खो
गया, और
चारों तरफ वह देख
कर हंसने लगता;
और वह कहता
कि हदकर दी! तो
यह सब खेल था?
वह
अहंकार को
जगाने की
कोशिश करता, और
जब जग जाता
किसी का
अहंकार, तो
वह ऐन वक्त पर
उसको जोर से
आवाज दे देता
कि इस वक्त
देख भीतर ' मैं'
है? और
वह आदमी जो
आगबबूला हो
रहा था अहंकार
से, वह आंख
बंद करके भीतर
देखता, शांत
हो जाता... आंख
खोल कर कहता
कि नहीं, भीतर
खोजता हूं
बिलकुल नहीं
है। फिर यह
क्या था जो इतना
तूफान मचा रहा
था?
ना-कुछ
से भी बड़े
तूफान उठ जाते
हैं।
प्यालियों
में तूफान उठ
जाते हैं!
ना-कुछ से बड़े
तूफान उठ जाते
हैं।
विद्या
प्रयोग है इस
बात का कि
हमारे भीतर जो
हमने व्यर्थ
के झूठे आकार निर्मित
कर लिए हैं
उन्हें हम कैसे
गिरा दें?
बहुत
विधियां हैं
विद्या की।
कुछ विधियों
पर हम यहा
प्रयोग कर रहे
हैं। आज रात
की विधि पर
थोड़ी बात आपको
समझा दूं और कल
के प्रयोगों
के लिए थोड़ी
बात आपको
समझादूं फिर
हमरात के
ध्यान में
उतरें।
रात
की जो विधि है, जिसे
हम अभी करने
जाने वाले हैं,
उस विधि में
तीस मिनट तक
मेरी तरफ आपको
एकटक, बिना
पलक झपकाए
देखना है; जितनी
आंख खोल कर आप
मेरी तरफ देख
सकें। आंख के
द्वारा आपको
मुझसे
संबंधित हो
जाना है। आंख
द्वार है। तो
आपको अपनी
चेतना आंख से
मेरे तक ले
आनी है; मुझ
तक फैला देनी
है। इतनी अगर
फैल सके तो
फिर कितनी ही
फैल सकती है, इसकी बहुत
फिकर न करें।
इतना अगर हो
जाए कि मुझ तक
आ जाए, तो
आकाश तक ले जाने
में कठिनाई
नही होगी।
तो
तीस मिनट आंख
को झपकाना ही
नहीं है। आप
कहेंगे, बड़ा
मुश्किल है।
जरा भी
मुश्किल नहीं
है। आपको पता
नहीं रहता, फिल्म में
आप बैठे रहते
हैं और घंटों आंख
नहीं झपकती।
इसलिए तो आंख
थक जाती है।
आपको खयाल ही
नहीं रहता और आंख
नहीं झपकती।
इसलिए आंख थक
जाती है। जब
भी आप कोई चीज
गौर से देख
रहे होते हैं,
आंख का झपकना
बंद हो जाता
है।
कोई
अड़चन नहीं है।
अड़चन मन की
बनाई हुई है; क्योंकि
जैसे ही आपके
मन को पता
चलेगा कि यह तो
खतरा हुआ जा
रहा है, यह
तो मेरी
अविद्या
टूटने का मौका
आ गया, यह
तो सारा जाल
गिर जाएगा, अगर यह
छलांग एक लग
गई तो मिटा!
वैसे ही मन कहेगा,
आंख बिलकुल
थकी जा रही है;
पागल हो गए
हो? बंद
करो! झपकाओ! वे
सब मन की
तरकीबें हैं;
उनसे
सावधान होना
जरूरी है। कोई
फिकर नहीं, आंसू आएंगे
तो अच्छा ही
है; थोड़ी आंखें
साफ ही
हो जाएंगी; थोड़े आंसू
हलके हो
जाएंगे। कोई
फिकर न करें; तीस मिनट आंख
नहीं झपकानी
है--एक।
प्रयोग
खड़े होकर
होगा! आंख
नहीं झपकानी
है बिलकुल, मेरी
तरफ एकटक
देखते रहना है।
दोनों हाथ
आकाश की तरफ
ऊपर रखने हैं;
क्योंकि
पूरी चेष्टा
यह है कि जो
चेतना मेरी तरफ
आपकी आ रही है,
उसे किसी भी
क्षण आकाश की
तरफ गतिमान
करना है। तो
दोनों हाथ
आकाश की तरफ
उठे हुए रखने
हैं। एकटक
मेरी तरफ
देखना है, नाचते
रहना है, कूदते
रहना है, और
साथ में हू?.. हू-.. हू.. की जोर
से आवाज करते
रहना है।
यह
' हू? एक
मंत्र की तरह
प्रयोग किया
जा रहा है। इस '
हू? की चोट
से आपके भीतर,
जिसे
कुंडलिनी
कहें, उस
पर चोट पड़ती
है। जब आप ' हू?
जोर से कहते
हैं, तो
आपको खयाल में
आएगा कि यह
चोट ठीक आपके
काम-केंद्र पर
पहुंच जाती है,
ठीक
मूलाधार पर
पहुंच जाती है।
तो
तीस मिनट एकटक
आंख मेरी तरफ, चेतना
मेरी तरफ
दौड़ती हुई, ' हू ' की आवाज
आपकी
कुंडलिनी पर
चोट करती हुई,
हाथ आकाश की
तरफ यात्रा को
तत्पर, और
आप नाचते हुए;
क्योंकि वह
जो आपका नाचना
है, उस
नाचने में चोट
तीव्रता से
पड़ेगी, और
भीतर से ऊर्जा
उठनी शुरू
होगी, और
आपकी रीढ़ से
ऊपर की यात्रा
पर निकलने
लगेगी।
इस
बीच मैं चुप
ही रहूंगा, लेकिन
कभी-कभी दोनों
हाथ से इशारे
करूंगा आपको ऊपर
की तरफ जाने
के। जब मैं यह
हाथ का इशारा
करूं तो आपको
अपनी पूरी
शक्ति लगा
देनी है नाचने
में, हुंकार
करने में, आंखें
फाड़ कर देखने
में, आपको
बिलकुल पागल
हो जाना है।
जितनी शक्ति
आपके भीतर हो,
लगा देनी है
और उछलते जाना
है। जब मैं
हाथ बिलकुल
ऊपर ले जाऊं
और रोक लूं तो
आपको पूरी
ताकत लगा देनी
है। ऐसा मैं
दस- पच्चीस
बार आपको नीचे
से ऊपर तक ले जाने
के लिए इशारे
करूंगा, उस
वक्त आप जरा
भी कंजूसी न
करें, कृपण
न हों, पूरी
शक्ति लगा
दें!
और
जब मुझे... अभी
बैठे रहें, अभी
बैठे रहें, पूरी बात
समझ लें... और जब
मुझे ऐसा
लगेगा कि आपकी
रीढ़ में दौडने
लगी ऊर्जा, और आपका
शरीर एक नाचता
हुआ शक्ति का
प्रवाह हो गया,
तब जब मुझे
लगेगा कि बहुत
लोग नाच कर उस
जगह आ गए, जहां
उनका परम मिलन
परमात्मा की
शक्ति से भी हो
सकता है, तो
मैं अपने
हाथों को उलटा
दूंगा। जब मैं
हाथ उलटाऊं तब
आपको और अपने
भीतर खोज कर
लेनी है कि
थोड़ी बहुत
शक्ति बची हो
तो वह भी लगा
दें। और मैं
हाथों को नीचे
की तरफ लाऊंगा।
यह
इशारा आपके
लिए ही होगा
कि अगर इस
क्षण आप अपनी
पूरी-पूरी
शक्ति लगाते
हैं तो ऊपर से
परमात्मा की
शक्ति भी आपके
भीतर उतर सकती
है।
और
जहां इन दोनों
का मिलन होता
है वहीं आनंद
है,
और जहां इन
दोनों का मिलन
होता है वहीं
विद्या फलित
हो जाती है।
जहां व्यक्ति
की चेतना का
मिलन शरीर से
हो जाता है, वहीं
अविद्या हो
जाती है, अहंकार
जन्म ले लेता
है; और
जहां व्यक्ति
की चेतना का मिलन
परमात्म-चेतना
से हो जाता है,
वहीं
विद्या फलित
हो जाती है और
व्यक्ति निर- अहंकार
अवस्था को
उपलब्ध हो
जाता है। जहां
चेतना शरीर से
जुड़ती है, वहां
जीव निर्मित
हो जाता है; और जहां
चेतना
परमात्मा से
मिलती है, वहां
आत्मा
निर्मित हो
जाती है। तो
यह तो रात का प्रयोग।
दो-तीन
सूचनाएं और।
आज तो... आज के
प्रयोग में
मैंने थोड़ा सा, आप
थोड़े अभ्यस्त
हो जाएं, इसलिए
बहुत ताकत
आपसे नहीं
लगवाई, और
प्रयोग को
थोड़ा उदार रखा
था, कल से
प्रयोग गहरा
होगा।
तो
कल से जो
प्रयोग की
व्यवस्था
पूरे कैम्प में
चलेगी, शिविर
में, वह
आपको समझा दूं।
सुबह
हमने आज जो
प्रयोग किया
था वह हम
दोपहर करेंगे--चार
से पांच।
कीर्तन
पंद्रह मिनट, पंद्रह
मिनट नृत्य, और तीस मिनट
विश्राम।
सुबह हम कल से
दूसरा प्रयोग
शुरू करेंगे--दस
मिनट तीव्र
श्वास; दस
मिनट नृत्य, चीखना, चिल्लाना,
हंसना, शरीर
की सारी
शक्तियों को बाहर
उलीच देना, दस मिनट 'हू'
के मंत्र का
प्रयोग--जैसा
रात करेंगे, ऐसा; और
फिर तीस मिनट
विश्राम।
सुबह
यह प्रयोग
होगा। सुबह
वाला जो हमने
आज किया, वह
दोपहर होगा।
और रात जैसा
हम प्रयोग
करते हैं, वह
रात जारी
रहेगा।
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