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सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

सर्वसार-उपनिषद--प्रवचन-02

जिज्ञासा: प्रार्थना के बाद—दूसरा प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर,

दिनांक 9 जनवरी 1972, प्रात:
माथेरान।

सूत्र :

            कथं बन्‍ध: कथं मोक्ष: का विद्या काऽविद्येति।
                 जागत्‍स्‍वपनसुषुप्‍तितुरीयं च कथम्।
        अन्‍नमयप्राण मयमनोमयविज्ञातमय आतंद्मयकोशा: कथम्।
        कर्ता जीव: पन्‍चवर्ग: क्षेब्रज्ञ: साक्षी कुटस्‍थोsन्‍तर्यामी कथत्।
            प्रत्यगामा  परमात्मा माया चेति कथम्।। 1।।


            बंधन क्या? मोक्ष क्या? विद्या और अविद्या क्या?
        जाग्रत, स्‍वप्‍न, सुषुप्ति औन तुरिय--ये चार अवस्‍थाएं क्या हैं?
अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय, ये पांच कोश क्या हैं?
 कर्ता, जीव, पंचवर्ग, क्षेत्रज्ञ, साक्षी, कुटस्‍थ और अंतर्यामी का अर्थ क्या है?
        इसी प्रकार जीवात्मा, परमात्मा और माया--ये तत्व क्या हैं?


रमात्मा से प्रार्थना के बाद जिज्ञासा का प्रारंभ है।
प्रार्थना के बाद ही जिज्ञासा हो सकती है। प्रार्थना हृदय को उस स्थिति में ला देती है, उस ग्राहक और संवेदनशील मनोदशा को पैदा कर देती है, जहां जिज्ञासा मात्र कुतूहल नहीं रह जाती, मुमुक्षा बन जाती है। प्रार्थना से रहित जो जिज्ञासा है, वह केवल बौद्धिक खिलवाड़ है। और जिसने प्रार्थना नहीं की और पूछा है, उसने पूछा ही नहीं। जिसके घर का द्वार बंद है, अंधेरे में बैठ कर जो पूछ रहा है, सूर्य क्या है, प्रकाश क्या है, वह पूछता रहे, उत्तर उसे नहीं मिल पाएगा।

और आदमी के मन का बड़े से बड़ा खेल यह है कि जब उत्तर नहीं मिलता तो आदमी खुद अपने उत्तर बना लेता है--अंधेरे में ही, बिना सूर्य को जाने ही--या तो कहने लगता है कि सूर्य नहीं है.. इसलिए नहीं कि उसने जान लिया कि सूर्य नहीं है, इसीलिए कि चूंकि वह नहीं जान पाया, और जिसे वह नहीं जान पाया उचित है कि वह उसे इनकार कर दे; क्योंकि जिसे हम नहीं जान पाते, अगर हम उसे इनकार न कर पहर तो मन में एक बेचैनी खड़ी ही रह जाती है। इनकार करते से बेचैनी भी खो जाती है; हम अपने अंधेरे मैं ही आश्वस्त हो जाते हैं। लेकिन जिसने घर के द्वार नहीं खोले वह कितना ही पूछे कि सूर्य क्या है, प्रकाश क्या है, उत्तर उसे नहीं मिल सकता। नहीं मिले उत्तर, तो वह यह भी कर सकता है कि इनकार भी न करे, अपने ही मन का सूर्य गढ़ ले, और कहने लगे सूर्य है--और अपनी ही मनोरचना कर ले, अपने ही सिद्धांत निर्मित कर ले। वे सिद्धांत उतने ही झूठे हैं, जितना इनकार करना झूठा है।
अंधेरे में खड़ा नास्तिक भी उतना ही झूठा है, जितना अंधेरे में खड़ा आस्तिक झूठा है। नहीं जिसने जाना, उसका यह कहना भी व्यर्थ है कि ईश्वर नहीं है, उसका यह कहना भी व्यर्थ है कि ईश्वर है, ये दोनों बातें ही व्यर्थ हैं। और बड़ा मजा है कि अंधेरे में बड़ी कलह और बड़ा विवाद चलता है उनके बीच, जिन दोनों को ही पता नही है।
अज्ञात बहुत विवादग्रस्त है। अज्ञान जानता नहीं, लेकिन मुखर बहुत है। विवाद तो किया ही जा सकता है, मतवाद तो खड़े किए ही जा सकते हैं। वस्तुत: अंधेरे में ही मतवाद खड़े होते हैं; प्रकाश में कोई वाद नहीं है। प्रकाश काफी है, वाद की कोई जरूरत नहीं। सब सिद्धांत अंधेरे में निर्मित होते हैं, प्रकाश में सिद्धांतों की कोई भी जरूरत नहीं है। जहां सत्य प्रकट हैं वहां शब्द खो जाते हैं; और जहां सत्य ही समक्ष है वहां सिद्धांत को बनाने का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। सिद्धांत सब्‍स्‍टीटयूट है, परिपूरक है; सत्य का पता नहीं है तो सिद्धांत बना कर हम सत्य की जगह उसे खड़ा कर लेते हैं।
ठीक जिज्ञासा प्रार्थना से शुरू होती है। जब मैं ऐसा कहता हूं तो उसका अर्थ यह है कि जो सूर्य को जानने चला है, कम से कम एक शर्त पूरी कर दे कि अपने मकान के द्वार खोल दे; सूर्य को जानने की आकांक्षा जगी है तो कम से कम अपने द्वार-दरवाजे तो खोल ले, ताकि सूर्य उत्तर देना चाहे तो उत्तर दे सके।
सूर्य की शक्ति विराट है, लेकिन फिर भी आपका द्वार तोड़ कर भीतर प्रवेश नहीं करेगी; आपके दरवाजे पर थपकी भी सूरज नहीं देगा। इस जगत में सत्य किसी के जीवन में ट्रेसपास नहीं करता, किसी के जीवन का अतिक्रमण नहीं करता, सत्य किसी के जीवन में किसी भी भांति की गुलामी नहीं लाता, बंधन नहीं लाता, इसलिए सत्य मुक्ति है। सत्य जबर्दस्ती आरोपित नहीं होता। जब तक आप ही तैयार न हों, सत्य आपके द्वार पर खड़ा रहेगा, लेकिन थपकी भी नहीं देगा, द्वार को खटखटाका भी नहीं। आपकी तैयारी आपका हृदय से दिया गया नियंत्रण ही उसका आगमन बन सकता है।
लेकिन आपके निमंत्रण का क्या अर्थ है, जब तक आपका द्वार खुला न हो! जिस अतिथि को आप पुकारते हैं, उसके लिए द्वार पर बैठ कर प्रतीक्षा भी तो करनी चाहिए। इसलिए प्रार्थना से प्रांरभ है।
प्रार्थना है हृदय के द्वार को खोलने की विधि।
अगर प्रार्थना से रहित जिज्ञासा है, तो वह जिज्ञासा खोज की कम, संदेह की ज्यादा होती है। वह इसलिए नहीं होती है कि हम खोजने निकले हैं, वह इसलिए होती है कि हम संदेह करने निकले हैं। और जो संदेह करने ही निकला है, उसका संदेह रुग्ण हो जाता है बीमार हो जाता है। लेकिन जो प्रार्थना पूर्ण हृदय से खोलता है द्वार, ऐसा नहीं कि उसे संदेह करने का हक नहीं रह जाता, सच तो यह है कि उसे ही संदेह करने का हक मिलता है क्योंकि अब संदेह केवल समाधान की आकांक्षा का हिस्सा है, अब संदेह विनाशक नहीं है, सृजनात्मक है। अब संदेह इसीलिए है कि मार्ग के सब कंटक कैसे दूर हो जाएं; अब प्रश्न इसीलिए है कि उत्तर कैसे निकट आ जाए। अब प्रश्न किसी बीमार चित्त की भाग- दौड़ नहीं, अब संदेह किसी रूग्‍ण-चित्त का रोग नहीं, अब एक स्वस्थ व्यक्ति की खोज है।
 'श्रद्धापूर्ण संदेह' शब्द बहुत उलटा दिखाई पड़ेगा। लेकिन हम एक तरफ से समझें तो खयाल में आ जाएगा; संदेहपूर्ण श्रद्धा से समझें तो खयाल में आ जाएगा।
हम श्रद्धा भी करते हैं, तो वह संदेहपूर्ण होती है। हम किसी पर श्रद्धा भी करते हैं, तो वह संदेहपूर्ण होती है; उसमें संदेह होता ही है। असल में हम श्रद्धा ही इसलिए करते हैं कि भीतर संदेह होता है, उसे दबाने के लिए श्रद्धा कर लेते हैं। और भीतर संदेह हो और ऊपर श्रद्धा हो, तो श्रद्धा कमजोर होती है; क्योंकि जो भीतर है वही शक्तिशाली है; जो ऊपर है वह कमजोर होगा--जो परिधि पर है वह कमजोर होगा, जो केंद्र में है भीतर हृदय के वही शक्तिशाली है।
तो भीतर तो संदेह होता है, श्रद्धा ऊपर से थोप लेते हैं वस्त्रों की भांति। जैसे वस्त्र आपकी नग्नता को नहीं मिटाते, केवल छिपाते हैं, ऐसे ही वस्त्रों की भांति थोपी गई श्रद्धा भी संदेह को मिटाती नहीं, सिर्फ छिपाती है।
इससे उलटा भी होता है, जिसको मैं कह रहा हूं श्रद्धापूर्ण संदेह। श्रद्धा तो होती है हृदय के केंद्र पर, परिधि पर संदेह होता है। वह संदेह श्रद्धा को और प्रगाढ़ करने की यात्रा का हिस्सा है; क्योंकि जिसने संदेह ही नहीं किया वह श्रद्धा कैसे कर सकेगा? लेकिन है वह अति श्रद्धापूर्ण।
बुद्ध से मौलुंकपुत्त ने कहा है, उनके एक शिष्य ने, पूछता हूं आपसे, इसलिए नहीं कि आप पर संदेह है, इसलिए कि अपने पर संदेह है; पूछता हूं आपसे, इसलिए नहीं कि आप जो कहते हैं उस पर संदेह है, बल्कि इसलिए कि आप जो कहते हैं उसे मैं समझ पाता हूं? इस पर संदेह है; पूछता हूं आपसे, इसलिए नहीं कि आप जहां पहुंच गए हैं उस पर मुझे संदेह है, पूछता हूं सिर्फ इसीलिए कि इतनी दूर की यात्रा, इतना विराट स्वप्न, मुझे अपने पैरों पर संदेह है; पूछता हूं इसलिए कि मेरा भरोसा बढ़े; पूछता हूं इसलिए कि मेरी श्रद्धा प्रगाढ़ हो। प्रार्थना से जब भी कोई पूछता है, तो उसके हृदय के द्वार होते हैं खुले; संदेह लेकर वह नहीं आता, सिर्फ प्रश्न लेकर आता है।
प्रश्नों के उत्तर हो सकते हैं, संदेहों के उत्तर नहीं हो सकते, क्योंकि जिसे संदेह ही करने हैं वह आपके हर उत्तर का संदेह किए चला जाता है।
संदेह जो है वह इनफिनिट रिग्रेस है। आप एक उत्तर देते हैं, उस पर उसे संदेह है, आप दूसरा देते हैं, उस पर उसे संदेह है; संदेह उसकी भूमिका है। तो आप जो भी कहते हैं, उस पर उसे संदेह है। तब तो कोई उपाय नहीं है। लेकिन संदेह अगर केवल खोज का हिस्सा है, जस्ट ए मेथडोलॉजी, एक विधि, अंत नहीं, लक्ष्य नहीं, साध्य नहीं; संदेह अगर भूमिका नहीं है, भूमिका जिज्ञासा है, तो संदेह बड़ा सहयोगी है। तो श्रद्धापूर्ण संदेह।.. प्रार्थना पूर्ण जिज्ञासा।

पहला ही प्रश्न पूछता है--पहला हो प्रश्न पूछा गया है सर्वसार में : '' बंधन क्या? '' खयाल करें! हम भी पूछते हैं तो पूछते हैं : ईश्वर क्या?.. ईश्वर है या नहीं? मोक्ष क्या?.. मुक्ति है या नहीं? आत्मा क्या?... आत्मा है या नहीं?
हम वहां से शुरू करते हैं जहां अंत होना चाहिए। बीमार आदमी पूछता है. स्वास्थ्य क्या? लेकिन समझदार सदा पूछेगा.. बीमार है तो.. कि बीमारी क्या है? निदान तो बीमारी से शुरू होगा। इसलिए सर्वसार पहला प्रश्न उठाता है :
'बंधन क्या?'
वही है रोग, वही है बीमारी; बंधे हैं हम। कारागृह में पड़ा है कोई--जंजीरों से कसा, बेड़ियों में बंधा, वह पूछता है : स्वतंत्रता क्या? उसने कभी स्वतंत्रता जानी नहीं, समझें कि सदा से बंधा है, जन्म से ही बंधा है--जब से उसने जाना है अपने को तब से बंधा है; उसका जानना और बंधन दोनों साथ-साथ जुड़े हैं; पूछता है, स्वतंत्रता क्या? समझ में शायद उसे न आ पाए। ठीक सवाल उसने उठाया नहीं। जो वह समझ सकता है, अभी उसे वही पूछना चाहिए।
बुद्धिमान खोजी वह है, जो उस सवाल को पूछता है, जिसके जवाब को अभी वह, अभीसमझा सकेगा। और शायद उसे समझ ले तो दूसरी बात भी समझ में आ जाए।
इसलिए पहला सवाल है : बंधन क्या? कहां मैं बंधा हूँ? क्योंकि जो आदमी सदा से बंधा है उसे यह भी पता नहीं होता कि बंधन क्या है! बंधन को पहचानने के लिए भी स्वतंत्र होने का कोई अनुभव चाहिए। आपके हाथों में जंजीरें डाल दी जाएं, आप पहचान जाएंगे कि जंजीरें डाल दी गईं। लेकिन अगर एक बच्चा पैदाइश के साथ जंजीरों को लेकर पैदा हो, तो क्या कभी पहचान पाएगा कि ये जंजीरें हैं? वह उसके शरीर का हिस्सा होगा। और अगर आप उसकी जंजीरें तोड़ने लगें तो वह चीखेगा, चिल्लाएगा कि मुझे मिटाना चाहते हो! ये जंजीरें उसका प्राण हैं, ये जंजीरें अलग नहीं हैं, ये जंजीरें उसका होना हैं।
और हम ऐसे ही हैं। जब से हम हैं, जब से हमने जाना है कि हम हैं, हमारे होने का बोध और हमारा कारागृह एक साथ हैं। हमें स्वतंत्रता का कोई अनुभव ही नहीं; हमने कभी आकाश में उड़ कर देखा ही नहीं; हमारे पंख कभी खुले आकाश में खुले नहीं; हमने उन्हें सदा बंद ही जाना है। हमारे पंख उड़ने के काम में भी आ सकते हैं, इसका भी हमें कोई पता नही। हम कारागृह में ही पैदा हुए और बड़े हुए हैं; कारा गृह ही हमारा जीवन है।
तो जो सम्यक जिज्ञासा है, वह शुरू होगी कि बंधन क्या? अभी तो हमें यह भी पता नहीं कि गुलामी क्या है? इतने गहरे हैं हम गुलामी में--गुलामी ही हैं हम--कैसे पहचानें कि गुलामी क्या है? एक व्यक्ति पैदा हुआ है और उसके सिर में दर्द रहा है जीवन भर, तो सिरदर्द ओर सिर में वह फर्क नहीं कर सकता, उसने सिर को सदा दर्द के साथ ही जाना है।
पश्चिम को एक बहुत विचारशील महिला सिमोन वेल ने लिखा है कि तीस साल की उम्र तक उसे पता ही नहीं था कि सिरदर्द क्या है? इसलिए नहीं कि उसे कभी सिरदर्द नहीं हुआ, इसलिए कि उसे सदा ही सिरदर्द रहा; उसने कभी जाना ही नहीं कि सिर भी बिना दर्द के हाता है। तो दर्द और सिर में कोई फर्क नहीं हो सका। तीस साल की उम्र में जब पहली दफा उसका सिरदर्द ठीक हुआ, तब उसे पता चला कि वह सिरदर्द था, सिर नहीं था।
जिसके साथ हम बड़े होते हैं, उसे हम अलग नहीं जान पाते। इसीलिए तो हम शरीर को भी अलग नहीं जान पाते, क्योंकि हम उसी के साथ बड़े होते हैं। इसलिए तादात्म्य हो जाता है, आइडेंटिटी हो जाती है; उसी के साथ एक हो जाते हैं। इसलिए हम मन के साथ अपने को पृथक नहीं जान पाते, क्योंकि हम उसी के साथ बड़े होते हैं, तादात्म्य हो जाता ऋषि पहला सवाल इस उपनिषद में उठा रहा है, वह यह कि 'बंधन क्या है?'
ऐसा समझें : कि ऋषि से पूछा जा रहा है, शिष्य पूछ रहा है कि बंधन क्या है? यह उपनिषद एक बहुत गहरा डायलॉग है, एक संवाद है। बंधन समझ में आ जाए तो ही जो सदा से बंधा है उसे स्वतंत्रता के संबंध में कोई, कोई दर्शन, कोई स्वप्न, कोई आकार पैदा हो सकता है।
जो आदमी सदा बीमार रहा है उसके स्वास्थ्य की परिभाषा नकारात्मक ही हो सकती है। वह यही समझ सकता है कि स्वास्थ्य का अर्थ होगा जहां यह बीमारी नहीं है। जो आदमी कारागृह में रहा है, जंजीरों में रहा है, वह स्वतंत्रता की कोई पाजिटिव, विधायक परिभाषा नहीं समझ सकता। वह इतना ही समझ सकता है कि स्वतंत्रता का अर्थ है जहां ये जंजीरें नही होंगी; जहां ये कारागृह की दीवालें नहीं होंगी, जहां मुझे रोकने वाला द्वार पर कोई संगीन लिए पहरेदार नहीं होगा; जहां मैं जहां जाना चाहूं जो करना चाहूं कर सकूंगा। यह नकारात्मक परिभाषा ही उसकी समझ में आ सकती है। लेकिन इस परिभाषा के पहले जेलों की दीवाल को, कारागृह को, द्वार पर खड़े संतरी की व्यवस्था को, हाथ में पडी जंजीरो को ठीक से समझ लेना जरूरी है।
कॉकेसस का एक बहुत अदभुत फकीर गुरजिएफ कहा करता था कि मैंने सुना है एक जादूगर के संबंध में कि उसने बहुत सी भेड़ें पाल रखी थीं। और रोज एक भेड़ को वह काटता और अपना भोजन तैयार करवाता। सैकड़ों भेड़ें यह देखती रहती, लेकिन फिर भी भेड़ों को याद न आती यह बात कि आज नहीं कल हम भी काटे जाने को हैं। उस जादूगर के पास एक मेहमान ठहरा हुआ था, उस मेहमान ने कहा कि ये भेड़ें बड़ी अदभुत मालूम होती हैं। इनके सामने ही तुम रोज भेड़ों को काटते रहते हो, फिर भी ये भेड़ें मस्त घूमती रहती हैं; इन्हें खयाल नहीं आताक्या कि हम भी कल काटे जाने को है? किसी भी दिन यह छुरी हमारी गर्दन पर भी पड़ेगी?
उस जादूगर ने कहा कि मैंने इन भेड़ों को बेहोश करके सभी को एक सुझाव दे रखा है, और वह यह : प्रत्येक के कान में मैंने उसकी बेहोशी में कह दिया है कि तुम भेड़ नहीं हो, बाकी सब हैं--तुम भेड़ नहीं हो, बाकी सब भेड़ें हैं सब कटेगी, तुम भर नहीं कटोगी। इसलिए ये निश्चित हैं; और ये किसी को कटते देख कर भागती नहीं हैं।
उस मेहमान ने पूछा : और भी हैरानी की बात है कि तुम इन्हें कभी बांधते नहीं! ये कभी भटक नहीं जातीं, खो नहीं जातीं?
उसने कहा. मैंने इन्हें यह भी कह रखा है कि तुम परम स्वतंत्र हो, तुम बंधी हुई नहीं हो; क्योंकि बंधन से तो कोई भागता है, जब कोई स्वतंत्र ही हो तो भागने का कोई सवाल ही नहीं। बंधन हो तो भागने का खयाल भी पैदा होता है-- भाग जाओ, लेकिन बंधन हो ही न, परम स्वतंत्र हो, भागने की जरूरत ही नहीं।
गुरजिएफ कहा करता था कि आदमी करीब-करीब ऐसी ही स्थिति में है; वह अपने कारागृह को अपना महल मानता है। तो उससे छूटने का सवाल ही नहीं है, बल्कि कोई छुड़ाने आ जाए तो वह सुरक्षा का इंतजाम करेगा कि तुम हमारे दुश्मन हो, महल से छुड़ाना चाहते हो! आदमी अपनी जंजीरों को आभूषण मानता है; वह उसका श्रंगार हैं। अगर उसके आभूषण छीनने जाओगे तो वह तलवार निकाल कर खड़ा ही हो जाएगा।
तो हम जीसस को ऐसे ही थोड़े ही सूली पर लटका देते हैं! और सुकरात को हम ऐसे ही बेकार थोड़े ही जहर पिला देते हैं! इसीलिए कि हमारे आभूषण ये लोग छीनने की कोशिश करते हैं, ये हमारे दुश्मन हैं। जिसे वे हमारी जंजीरें कहते हैं, वे हमारे श्रंगार हैं। और जिसे वे कहते हैं, तुम्हारा कारागृह, वह हमारा राजभवन है, और जिसे वे कहते हैं, तुम्हारी गुलामी, वह हमारा जीवन है; जिसे वे कहते हैं, दुख, उनमें ही हमारा सारा सुख छिपा है।
इसलिए पहली बात, गुरजिएफ कहता था, जान लेनी जरूरी है--अगर किसी कैदी को मुक्त होना हो, तो पहली बात जाननी जरूरी है कि वह कैदी है; बाकी नंबर दो की बातें हैं। किसी गुलाम को मुक्त होना हो, तो उसे पहली बात जाननी जरूरी है कि वह गुलाम है। यह उसकी चेतना में इतनी गहराई से घुस जानी चाहिए, प्रवेश कर जानी चाहिए कि उसके प्राण पीड़ित हो उठें और मुक्त होने की आकांक्षा से भर जाएं।

क्या है बंधन? दूसरा प्रश्न.. ठीक दूसरा तब उठ सकता है '' क्या हैं मोक्ष?''
''कथं बंध:--क्या है बंधन? कथं मोक्ष:--क्या है मोक्ष?''
बुद्ध के पास जाकर यदि आप पूछते कि क्या है मोक्ष, तो बुद्ध कभी उत्तर नहीं देते थे; अगर आप पूछते. क्या है बंधन, क्या है मोक्ष, तो उत्तर मिल सकता था, क्योंकि जिसने अभी ठीक सवाल ही नहीं पूछा उसे ठीक जवाब नहीं दिया जा सकता। गलत सवालों के ठीक जवाब नहीं होते। और आप क्या पूछते हैं, यह आपकी मनोदशा की खबर देते हैं।

बंधन को समझ कर ही मोक्ष को समझा जा सकता है।

और तब प्रश्न है ''विद्या क्या, अविद्या क्या? ''
बंधन क्या, मोक्ष क्या? विद्या क्या? क्या है ज्ञान? ठीक होता कि जैसा पहला प्रश्न है : बंधन क्या, मोक्ष क्या; हमें लगेगा, पूछना था-- अविद्या क्या, विद्या क्या? लेकिन वैसा नहीं पूछा है। और यह सांयोगिक नहीं है। पहले पूछना था, अज्ञान क्या, शान क्या? वैसा नहीं पूछा है; क्योंकि यहां विद्या से प्रयोजन ही दूसरा है। यहां विद्या से मतलब है... बंधन क्या, मोक्ष क्या? और जब पूछता है उपनिषद, विद्या क्या? तो उसका मतलब है. मुक्त होने का उपाय क्या? विद्या का मतलब ही यह होता है। विद्या का मतलब होता है. मुक्त होने का उपाय क्या? विद्या का अर्थ कभी भी यह नहीं होता जैसा हम समझते हैं। साधन क्या? समझ लिया, समझा कि बंधन क्या, और समझा कि मोक्ष क्या? लेकिन साधन क्या?
मान लिया कि कारागृह में पड़े हैं, और मान लिया कि इस कारागृह के बाहर एक मुक्त गगन है, और गगन में उड़ा जा सकता है; और माना कि अंधेरे की दीवालों के पार एक सूर्य भी है, और उस सूर्य के साथ एक हुआ जा सकता है, और माना कि इस देह के पार अमृत का वास है--लेकिन मार्ग क्या? विधि क्या?
यह भी पता चल जाए कि बंधन क्या है, और मोक्ष क्या है, और यह पता न हो कि द्वार कहां, मार्ग कहां--निकलेंगे कैसे, पहुंचेंगे कैसे--क्या करें? तो कुछ भी नहीं हो सकेगा।
बुद्ध ने चार आर्य सत्य कहे हैं, दि फोर फाउंडेशनल टूथ्‍स, चार बुनियादी सत्य। और बुद्ध ने कहा है, चार को जो जान ले वह सबको जान लेता है।
पहला कि आदमी दुख में है; पहला आर्य सत्य : दुख। दूसरा कि आदमी के दुख में होने के कारण हैं-- अकारण दुख में नहीं है; क्योंकि अगर अकारण दुख में हो तो छुटकारे का कोई उपाय नहीं हो सकता। और तीसरा... क्योंकि कारण भी हो, आदमी दुख में भी हो, लेकिन अगर कोई मार्ग और विधि न हो, तो भी दुख के बाहर नहीं हो सकता।
तो बुद्ध ने कहा : पहला सत्य, 'दुख', दूसरा सत्य, 'दुख के कारण', और तीसरा सत्य, 'दुख-मुक्ति का उपाय। '
लेकिन दुख भी हो, दुख के कारण भी हों, दुख-मुक्ति का उपाय भी हो, लेकिन दुख- मुक्ति से छूटने की संभावना न हो... ऐसी कोई अवस्था ही न होती हो जहां आदमी दुख के बाहर हो जाए, तो हम एक दुख से छूट कर दूसरे दुख में पहुंच जाएंगे। तो बुद्ध ने चौथा आर्य सत्य कहा है : 'दुख मुक्ति की अवस्था है। 'बुद्ध ने कहा : बस, ये चार काफी हैं।
यहां विद्या से... जब पूछा जा रहा है, विद्या क्या? कैसे मुक्त हो जाएं? इसका मार्ग क्या, इसकी विधि क्या, इसका उपाय क्या?
कहीं ऐसा तो नहीं है कि बंधन हैं, कारागृह है, दुख है, और आदमी निरुपाय है-- कोई उपाय नहीं! तो फिर संघर्ष व्यर्थ है; फिर हम जहां हैं वही संतुष्ट हो जाना उचित है; फिर जो है उसी को नियति मान लेना चाहिए--वही भाग्य है; उससे बाहर होने का कोई कारण नहीं है। इसलिए फिर कारागृह को महल मानना ही उचित है--जिसमें रहना ही हो, और जिसके बाहर जाना हो ही न सकता हो, फिर उसको कारागृह मान कर अकारण दुख पाना व्यर्थ है।
ऐसे विचारक हुए हैं, जो कहते हैं. मानते हैं कि दुख है, लेकिन दुख-मुक्ति का कोई उपाय नहीं; दुख ही जीवन का स्वभाव है; इसके पार जाया ही नहीं जा सकता।
यूनानी विचारक हुआ है, डायोजनीज। यूनान के सम्राट ने डायोजनीज से मुलाकात ली है, और डायोजनीज से पूछा है--कहो मुझे, जीवन का सबसे श्रेष्ठ सत्य क्या है? टेल मी अबाउट दि हाईष्ट, दि सुप्रीम मोस्ट टूथ? सबसे श्रेष्ठ, सबसे महान सत्य क्या है? डायोजनीज ने कहा : अब उस सर्वश्रेष्ठ सत्य को पाने का, जानने का कोई उपाय नहीं, उसे छोड़ो; और नंबर दो का सत्य पूछो।
सम्राट थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहा : फिर भी नंबर एक का कहो तो।
उसने कहा. नहीं, उसको जानने का कोई उपाय नहीं--बिकॉज़ दि सुप्रीम मोस्ट टूथ इज नॉट टु बी बॉर्न एट ऑल। और अब तो तुम पैदा हो ही गए! श्रेष्ठतम सत्य यह है, पैदा होना ही नहीं। यह पहला सत्य है। लेकिन अब उसका तो कोई उपाय नहीं, तुम पैदा हो ही गए--निरुपाय है। तो नंबर दो का सत्य तुमसे कहता हूं वह यह है. पैदा होकर मर जाना।... पैदा होकर मर जाना! क्यों? सम्राट ने पूछा।
डायोजनीज ने कहा. जीवन और दुख एक ही हैं; मिटे बिना, बिलकुल मिटे बिना दुख रहेगा ही। होना ही दुख है। इसके बाहर जाने का उपाय नहीं। स्वभावत:, ऐसी अगर स्थिति हो तो सिवाय आत्मघात के कोई साधना नहीं। ऐसे विचारक हुए हैं, जो मानते हैं, दुख के बाहर जाने का उपाय नहीं, कारागृह के बाहर जाने का उपाय नहीं, क्योंकि अस्तित्व कारागृह है; इसके बाहर कोई जगह ही नहीं है।
इसलिए प्रश्न सार्थक है, 'विद्या क्या?'
मार्ग है कोई, उपाय है कोई? निरुपाय तो नहीं हैं हम? अन्यथा उचित है कि हम स्वप्न ही देखते रहें, सोए रहें, कारागृह को महल समझें, जंजीरों को आभूषण समझें। यही बुद्धिमानी है। बहुत लोग इसी बुद्धिमानी में जीते भी हैं-- भुलाए रखते हैं अपने को, ताकि कारागृह का और दुख का पता न चले; क्योंकि बाहर जाने का कोई उपाय तो दिखाई नहीं पड़ता है।

''विद्या क्या और अविद्या क्या?''
अविद्या का अर्थ यहां अज्ञान नहीं है। अगर विद्या का अर्थ है विधि, उस तक पहुंचने का मार्ग, तो अविद्या का अर्थ क्या होगा? अविद्या का अर्थ है : ऐसी विधि जो विधि मालूम पड़ती है और पहुंचाती नहीं--फील्स मेथड्स। निश्चित ही, फील्स मेथड्स भी हैं, मिथ्या विधियां भी हैं; ऐसे दरवाजे भी है, जो हैं नहीं और दिखाई पड़ते हैं कि दरवाजे हैं; और ऐसी चाबियां भी हैं, जो बिलकुल चाबियां मालूम पड़ती हैं लेकिन कोई ताला नहीं है जिनमें वे लगें; वे लगने वाली चाबियां नहीं हैं--उनसे आदमी जिंदगी भर खेल सकता है लेकिन कुछ खुलता नहीं।
जहां भी खोज होगी वहां झूठी तालियां और कुंजियां भी खोज ली जाती हैं; क्योंकि वे मुफ्त मिलती हैं, सस्ती मिलती हैं, आसानी से मिल जाती हैं, बाजार में खरीदी जा सकती हैं। जिसे हम धर्म कहते हैं, आमतौर से निन्यानबे प्रतिशत अविद्या है; क्योंकि सस्ती खोज और सस्ती चीजें पा लेने की आकांक्षा बाजार में झूठे मार्गों को पैदा करवा देती है।
बहुत मार्ग हैं। सबसे अधिक जो भ्रांत मार्ग हैं, वे विस्मृति के हैं.. किसी भी तरह आदमी अपने को भूल जाए; तो कारागृह भी नहीं रह जाता। अगर कारागृह में एक आदमी को शराब पिला दें, तो कारागृह बचता है? नहीं, वह आदमी शराब पीकर.. कारागृह भी नहीं रह जाता, वह आदमी भी नहीं रह जाता; बेहोशी में सब मिट जाता है। और शराब पीआ हुआ आदमी कारागृह में सम्राट हो जाता है। और शराब पीआ हुआ आदमी कारागृह के भीतर ही सोचता है, आकाश में उड़ रहा है। अब वह कुछ भी सोच सकता है, क्योंकि शराब के साथ ही स्वप्न की क्षमता मिल जाती है और सत्य का बोध खो जाता है। तो वह भगवान के दर्शन कर सकता है--जिसे अपना भी दर्शन नहीं हुआ, वह भी भगवान के दर्शन कर लेता है, जिसे अपना भी पता नहीं, वह भी परम का पता लगा लेता है। तरकीब हैं धोखा देने की।
और इस जगत में अज्ञानियों से उतना नुकसान नहीं होता, लेकिन उन ज्ञानियों से भारी नुकसान हो जाता है जो आपको झूठी चाबियां पकड़ा देते हैं। उन्हें भी चाबियां पकडाने का सुख है। आपको भी बड़ा सुख है। आपको भी बड़ा सुख है; क्योंकि आपको मुफ्त में कुछ मिलता मालूम पड़ता है, जिसके लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं। और अधिक लोग बिना कुछ किए पाना चाहते हैं।
आदमी का जो बड़े से बड़ा रोग है वह आलस्य है, बड़े से बड़ा रोग जो है वह प्रमाद है; बिना कुछ किए मिल जाए, बिना चले मंजिल आ जाए--एक कदम भी न उठाना पड़े मंजिल ही चलती हुई आ जाए, तो इससे शुभ और क्या होगा? तो ऐसे लोगों के पास भीड़ इकट्ठी हो ही जाएगी। वह भीड़ उन्हें भी सुख देती है, क्योंकि अहंकार की तृप्ति होती है। तो एक म्युचुअल एक्सप्लायटेशन होता है, एक पारस्परिक शोषण चलता है। गुरु मिल जाते हैं, जिनके बास चाबियां हैं; शिष्य मिल जाते हैं जो इन चाबियों को खरीदने को तैयार हैं। और तब एक व्यवसाय चलता है।
अविद्या का अर्थ है ऐसी सब विधियां, जिनसे द्वार खुलता नहीं लेकिन द्वार के खुले होने का भ्रम पैदा हो जाता है। इसीलिए पूछता है जिज्ञासु--विद्या क्या? अविद्या क्या?

''जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय--ये चार अवस्थाएं क्या हैं?''
वस्तुत: विद्या और अविद्या का फर्क न समझा जा सकेगा, यदि जाग्रत, स्वप्न सुषुप्ति और तुरीय की चार अवस्थाओं को न समझा जा सके।
भारत इस पृथ्वी पर पहला, पहला खोजी है जिसने मनुष्य के चित्त की चार दशाओं का, सर्वप्रथम, मनुष्य के चेतना के इतिहास में उल्लेख किया है। पश्चिम का मनसशास्त्र तो अभी तक जाग्रत के आस-पास ही घूमता था--केवल पचास वर्ष पहले तक भी उन्नीस सौ तक, जाग्रत के आस-पास सारा मनोविज्ञान था। स्वप्न की बात नासमझी थी। स्वप्न की जो बात करे वह पागल था। स्वप्न में क्या रखा है? स्वप्न यानी स्वप्न ही है उसमें रखा क्या है? लेकिन पिछले पचास वर्षों में जैसे-जैसे मनस्विद मनुष्य के मन को समझने में गहरे उतरे, उसके मानसिक रोगों की खोज में गहरे उतरे, वैसे-वैसे उन्हें पता चला कि जाग्रत के नीचे एक पर्त है स्वप्न की, जो जाग्रत से ज्यादा महत्वपूर्ण है, कम महत्वपूर्ण नहीं। ज्यादा! तब तक सदा यही खयाल था कि स्वप्न यानी स्वप्न, व्यर्थ की बात है, आदमी की कल्पनाएं हैं; उन पर ध्यान देने की कोई भी जरूरत नहीं है। और पश्चिम के विचारशील लोग हंसते रहे थे पूरब पर कि ये नासमझ स्वप्नों के संबंध में भी बातें करते हैं! लेकिन फ्रायड, जुग और एडलर के प्रयासों का परिणाम पचास वर्षों में यह हुआ कि अब मनोवैज्ञानिक स्वप्न के अतिरिक्त और किसी की बात ही नहीं कर रहा है।
अगर आप मनस्विद के पास जाते हैं, तो वह पहले आपके स्वप्नों के संबंध में जानना चाहता है; क्योंकि वह कहता है कि आपके जाग्रत में जो घटित होता है वह बहुत ऊपरी है, उससे आपके बाबत सचाई का पता नहीं चलता; आपके स्वप्न से ही आपकी सचाई का पता चलता है। स्वप्न से और सचाई का पता! क्योंकि स्वप्न में आप धोखा नहीं दे पाते। आदमी धोखे में निष्णात हो गया है। दिन भर आप ब्रह्मचर्य की बातें कर सकते हैं, लेकिन स्वप्न आपका बता देगा कि ब्रह्मचर्य कितना गहरा है, दिन भर आप उपवास रख सकते हैं मजे से, लेकिन स्वप्न में पता चल जाएगा कि भोजन करने की वासना कितनी गहरी है।
अभी तक आदमी उपाय नहीं कर पाया कि स्वप्न में धोखा दे पाए। तो स्वप्न सचाई प्रकट कर देता है. स्वप्न में चोर चोर होता है, साधु साधु होता है। जागरण का भरोसा नहीं है. यहां चोर भी साधु होते हैं, और कभी-कभी साधु भी चोर मालूम पड़ते हैं। जागरण का भरोसा नहीं है। जागरण का कोई भरोसा नहीं, क्योंकि आदमी ने जागरण को सब भांति रंग दिया है, पोत दिया है।
तो आप जाग्रत में अपने को क्या बताते हैं, उससे ज्यादा झूठी और सपने जैसी बात दूसरी नहीं है। और सपने जैसा कोई सच नहीं है, क्योंकि अभी तक आपको कोई तरकीब नहीं मिली जिससे आप सपने में धोखा दे पाएं। मिल जाए किसी दिन तो आदमी सपने भी झूठे देखने लगेगा, अभी तक मिली नहीं आपको। किसी दिन तरकीब मिल जाए तो आप सपने में भी साधु हो सकते हैं। लेकिन अभी तक आप सपने में प्रवेश नहीं कर पाते, अभी तक सपने को आप मैनेज नहीं कर पाते; अभी तक आप उसमें घुस ही नहीं पाते, आप बाहर ही खड़े रह जाते हैं। इसलिए सपना अगर आपका पकड़ा जा सके तो आपकी ज्यादा गहरी सच्चाई का पता लगता है, वह दूसरी गहरी पर्त है।
आपके ऊपर एक पर्त है, वह जाग्रत है। सुबह से सांझ तक जो हम जाग कर दुनिया में करते हैं वह-- भजन करते, पूजा करते, प्रार्थना करते। नहीं, वह उतनी गहरी बात नहीं है। स्वप्न में क्या करते हैं आप, वह ज्यादा गहरी बात है, और आपके अंतस की स्थिति को प्रकट करती है। तो मनस्विद ने अभी माना कि स्वप्न भी एकदम स्वप्न नहीं है बल्कि जाग्रत से ज्यादा सच है।
प्रश्न है, क्या हैं ये चार? क्योंकि इन्हें समझे बिना भीतर प्रवेश असंभव है। लोग कहते हैं, आत्मा को जानना है। वे शायद सोचते हैं कि आत्मा को जान लेना सीधी कोई बात होगी। नहीं, पहले जानना पड़ेगा, जाग्रत क्या? जानना पड़ेगा, स्वप्न क्या? जानना पड़ेगा, सुषुप्ति क्या? जानना पड़ेगा, तुरीय क्या? तब... तब आत्मा में प्रवेश संभव हो सकेगा।

तुरीय ही आत्मा है।
यह बड़ी मनोवैज्ञानिक बात है। पश्चिम ने स्वीकार कर लिया कि स्वप्न महत्वपूर्ण हैं; और फ्रायड जैसे मनीषी का पूरा जीवन लोगों के स्वप्न अध्ययन करने में बीता। लेकिन अभी पश्चिम ने और तीसरी पर्त को स्वीकार नहीं किया है। अभी पश्चिम ने नहीं पूछा है, वॉट इज ड्रीमलेस स्लीप? क्योंकि उनका खयाल है, नींद सिर्फ नींद है, जैसे उनका पहले खयाल था कि स्वप्न सिर्फ स्वर्ण है; अभी उनका खयाल है, नींद तो सिर्फ नींद है; एक विश्राम की बात है- -आदमी थक गया और सो गया। लेकिन शक पैदा होने शुरू हो गए हैं।
उन्नीस सौ पचास के बाद इन बीस वर्षों में शक पैदा हुए हैं और खयाल में आना शुरू हुआ है कि नींद भी सिर्फ नींद नहीं है। आज अमरीका में कोई दस बड़ी प्रयोगशालाएं काम कर रही हैं कि यह गहरी नींद क्या है?
इधर बीस वर्षों में उनको यह बात साफ हो गई कि जब तक हम आदमी की नींद को नहीं समझ लेते तब तक आदमी को समझना मुश्किल है; क्योंकि एक आदमी साठ साल जीता है तो बीस साल सोता है। यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं है- -बीस साल सोना, साठ साल जीने में! एक तिहाई हिस्सा सोना! तो सोने की कोई बहुत गहरी स्थिति होनी चाहिए। इसका उपयोग होगा। जीवन में यह अनिवार्य है। एक आदमी तीन महीने तक बिना भोजन के रह सकता है, लेकिन बिना नींद के नहीं; एक आदमी तीन महीने तक उपवास कर सकता है, लेकिन नींद का उपवास नहीं कर सकता।
और भी एक मजेदार बात अभी पश्चिम में उनको खयाल में आनी शुरू हुई कि आदमी बिना स्वप्न के भी पागल हो जाएगा, बिना स्वप्न के भी नहीं रह सकता, अगर आदमी को स्वप्न न देखने दिए जाएं, सिर्फ नींद ही लेने दी जाए... तो अभी उन्होंने प्रयोग किए, क्योंकि अब यंत्र हैं उपलब्ध जिनसे पता चल जाता है कि भीतर आप कब स्वप्न देख रहे हैं, और कब गहरी नींद में हैं; वे बता देते हैं यंत्र। उनका कांटा जोर से घूमने लगता है जब आपके भीतर स्वप्न चलते हैं; क्योंकि मस्तिष्क काम करता है जब स्वप्न चलते हैं। आपकी आख पर भी हाथ रख कर जाना जा सकता है रात में कि आप स्वप्न ले रहे हैं कि नहीं ले रहे इस वक्त, क्योंकि जब आप स्वप्न लेते हैं तो पुतली चलती है- -ठीक वैसे ही चलती है जैसे कि देखने में चलती है, क्योंकि स्वप्न को देखना पड़ता है।
और धीरे- धीरे अब तो पकड़ में आता जा रहा है कि आख की चलने की गति से तय हो जाएगा कि आप किस तरह का स्वप्न देख रहे हैं। जब आप कोई सेक्सअल ड्रीम देखते हैं' कामवासना का, तो आपकी आख की पुतली बहुत जोर से चलती है। तो उसके वाइब्रेशंस अब खयाल में आने शुरू हो गए कि वह कितने तेजी से चलती है। तो बाहर बैठा आदमी भी... अब आप निश्चित न रहें कि आपके सपने का बाहर पता नहीं चल सकता; आपके कमरे में बैठा आदमी जान सकता है कि यह आदमी भीतर क्या कर रहा है? आज नहीं कल हम तय कर लेंगे कि क्या... आख की गति क्या-क्या होती है और आपके मस्तिष्क की नसों में कितने वाइब्रेशंस कब होते हैं। तो पता चल जाएगा कि इस वक्त महात्मा किस तरह का सपना देख रहा है।
तो अभी उन्हें पता चला है कि अगर आपको सपने न लेने दिए जाएं, तो आदमी रात में कोई आठ-दस सपने लेता है--बीच-बीच में नींद होती है गहरी, फिर सपने आ जाते हैं। तो यंत्र बता देता है कि आप कब सपना ले रहे हैं, तभी आदमी को उठा दिया जाता है-- जैसे ही सपना लेना शुरू किया कि उसको जगा देते हैं, सपना टूट जाता है, उसे फिर सुला देते हैं--जब तक वह सपना नहीं लेता तब तक सोने देते हैं, जैसे ही सपना उसने फिर शुरू किया उसे फिर जगा देते हैं। तो बड़ी हैरानी हुई कि उसे कितना ही सोने दिया जाए, लेकिन सपना न लेने दिया जाए, तो पंद्रह दिन के बाद पागलपन शुरू हो जाता है।
सपना भी इतना अनिवार्य है; नहीं तो आदमी पागल हो जाए। आप सोचते होंगे कि सपना आपको बड़ी तकलीफ दे रहा है, आपके पागलपन का निकास है। अगर सपना रोक दिया जाए, आप पागल हो ही जाएंगे; क्योंकि वह जो भीतर रह जाएगा, फिर वह दिन में घूमने लगेगा; रात नहीं निकल पाया तो दिन में घूमेगा। अभी तो उचित है कि रात के अंधेरे में स्वप्न में निकल जाता है, अगर दिन में निकला तो फिर अड़चन आएगी।
जो क्रोध आप रात स्वप्न में किसी की हत्या करके निकाल लेते हैं, अगर पंद्रह दिन न निकालने दिया जाए तो हत्या कर गुजरेंगे--वह इतना इकट्ठा हो जाएगा भीतर कि फिर हत्या करनी पड़ेगी।
स्वप्न अनिवार्य है--जब तक जीवन तुरीय तक न पहुंच जाए तब तक स्वप्न अनिवार्य है। सिर्फ तुरीय पर पहुंचे हुए व्यक्ति के लिए न स्वप्न जरूरी रह जाता है, न निद्रा जरूरी रह जाती है, न जागृति जरूरी रह जाती है--वह तीनों से गुजरता है, लेकिन जरूरी कुछ भी नहीं रह जाता; वह स्वप्न में भी जागा रहता है, वह गहरी निद्रा में भी जागा रहता है; वह जाग्रत में भी जागा रहता है। हम जाग्रत में भी स्वप्न देखते रहते हैं, और जाग्रत में भी बीच-बीच में झपकियां लेते रहते हैं।
क्या हैं ये अवस्थाएं?
इधर बीस वर्षों में उनको भी खयाल में आना शुरू हुआ कि हमें गहरी सुषुप्ति को भी खोजना ही पड़ेगा। काश, हम आदमी की नींद को ठीक से समझ लें तो आदमी के व्यक्तित्व को और स्वभाव को समझना आसान हो जाए। नींद के भी गुण हैं, क्वालिटीज है। और सब आदमी एक सी गहरी नींद में नहीं सोते। लेकिन अभी उन्हें तुरीय का कोई ख्‍याल नहीं है। लेकिन जुंग ने कहा है कि हमें पूरब की सलाह माननी पड़ी कि स्वप्न मूल्यवान हैं, पूछने जैसे हैं। नहीं तो पहले पश्चिम में जब पहली दफा उपनिषदों का अनुवाद हुआ, तो लोगों ने कहा : ये उपनिषद भी क्या हैं? स्वप्न क्या है, यह कोई अध्यात्म की बात है पूछना! पूछो--ईश्वर क्या है, मोक्ष क्या है, समझ में आता है... स्वप्न क्या है! यह क्या पूछ रहे हो? और यह वे हिंदू पूछ रहे हैं जो कहते हैं, जगत एक स्वप्न है! वे पूछ रहे हैं कि स्वप्न क्या है! पर दा ने कहा कि अब हमें स्वीकार कर लेना पड़ा है... नतमस्तक होकर... कि स्वप्न मूल्यवान हैं जागरण से भी ज्यादा।
लेकिन जुग मर गया उसके पहले, उसे पता नहीं कि अब उनको स्वीकार करना पड़ रहा है कि सुषुप्ति और भी मूल्यवान है। जो जितना गहरा है उतना मूल्यवान है। लेकिन अभी तुरीय का उन्हें कोई भी खयाल नहीं है कि सुषुप्ति के पीछे भी एक अवस्था है--जो अवस्था नहीं है; जो स्वभाव है।
ये तीन अवस्थाएं हैं : जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति; और चौथी अवस्था नहीं है--हमारा स्वभाव है, हमारा होना है।
तो पूछना कीमती है। इसके उत्तर फिर उपनिषद में हम एक-एक करके खोजेंगे।

''अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय--ये पांच कोष क्या हैं?''
क्योंकि हम सुनते हैं कि आत्मा क्या है, खोजें--लेकिन जब तक हम यह न जान लें कि यह शरीर क्या है, तब तक हम आत्मा को न खोज पाएंगे। यह बड़ी वैज्ञानिक खोज है।
यह शरीर क्या है? और शरीर अगर एक ही होता तो आसान था, हमारे भीतर पांच शरीर हैं। उपनिषदों ने हमारे शरीर की पर्तों को पांच हिस्सों में विभाजित किया है। ऊपर जो दिखाई पड़ता है वह ' अन्नमय ' शरीर है, उसके पीछे छिपा हुआ--जिसे पश्चिम के वैज्ञानिक अब ' बायो-एनर्जी ' कहते हैं--जीव-ऊर्जा; उसे पूरब ने ' प्राण ' कहा है... शक्ति- शरीर है, ऊर्जा का शरीर है--इस शरीर के ठीक भीतर दूसरी पर्त पर। उसके पीछे  ' मनोमय ' शरीर है--मन का। जिन्होंने भीतर प्रवेश-यात्रा की है, वे जानते हैं कि मन भी एक शरीर है। शरीर का कुल मतलब इतना होता है कि उसकी भी एक पर्त से हम घिरे हैं, इम्बॉडिडु; उसकी भी एक पर्त हमें घेरे हुए है। मन के भी पीछे एक और शरीर है, जिसे  ' विज्ञानमय ' शरीर कहा है। जिसको हम कांशसनेस कहते हैं, विज्ञान कहते हैं। वह जो शान की क्षमता है भीतर, वह भी एक शरीर है। उसके पीछे और एक शरीर उपनिषद मानते हैं, उसे वे ' आनंदमय ' शरीर कहते हैं--ब्लिस बॉडी। तो वह जो हमें इस जीवन में सुख की झलकें कहीं से मिलती हैं, वह हमारे आनंदमय शरीर की घटनाएं हैं।
ये पांच शरीर हैं, इन पांच के पीछे हमारी अशरीरी आत्मा है। ये पांच घेरे हैं हमारे कारागृह के। ये पांच हमारा बंदीगृह है। ये पांच दीवालें हैं। इन पांच दीवालों के बाहर परमात्मा है और इन पांच दीवालों के भीतर भी परमात्मा है। ये पांच दीवालें गिर गईं तो दोनों परमात्मा एक हो जाते हैं। इन पांच दीवालों के भीतर से प्रवेश करके भी हमको कभी- कभी बाहर के परमात्मा का संस्पर्श हो जाता है। और इन पांच दीवालों के भीतर प्रवेश करके भी कभी-कभी बाहर का परमात्मा हम तक भीतर अपनी किरण को पहुंचा देता है। 
पर यह कभी-कभी घटता है; यह घटना कभी-कभी घट जाती है। कभी किसी के गहरे प्रेम में अचानक इन पांचों दीवालों को पार करके किसी के भीतर परमात्मा दिखाई पड़ जाता है। पर यह झलक की बात है। झलक आती है, खो जाती है। इसलिए जब हम किसी के प्रेम में होते हैं, दूसरा व्यक्ति व्यक्ति नहीं मालूम पड़ता, एकदम परमात्मा मालूम पड़ने लगता है। इसमें कहीं कोई भूल-चूक नहीं है, यह एक झलक है। लेकिन यह झलक ही है। यह पांच दीवालों को पार करके घटना घट गई; एक थोड़ी सी सुगंध भीतर प्रवेश कर गई। यह रोज-रोज नहीं होगी घटना। इसलिए प्रेमी पीछे बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं, क्योंकि पीछे मालूम पड़ता है, यह तो बिलकुल साधारण आदमी है; यह तो बिलकुल एक साधारण स्त्री है। कहां गई वह झलक? खो गई। वह एक क्षण की बात थी। वह कभी किसी बहुत संवेदनशील क्षण में वह झलक मिल जाती है--कभी-कभी किसी फूल को खिलते देख कर वह झलक मिल सकती है, कभी आकाश में उड़ते हुए किसी बादल को देख कर एक क्षण को आदमी पांचों शरीरों के पार झांक लेता है; कभी सुबह सूरज उगता है, और उसकी किरण शरीर को ही नहीं छूती, पांचों शरीरों को पार करके भीतर छू जाती है।  
दुनिया में धर्मों की धारणाएं ऐसी ही झलकों में पैदा हुईं। कोई सुबह स्नान कर रहा है ऋषि नदी के तट पर--उगा सूरज, ताजा नहाया हुआ खड़ा है, और कोई किरण भीतर प्रवेश कर गई.. सूर्य देवता हो गया, सूर्य परमात्मा हो गया। उसके अनुभव में जरा भी कमी न थी। लेकिन अब कोई आदमी जाकर हाथ जोड़ कर खड़ा है क्योंकि सूर्य देवता है, उसे कुछ समझ में नहीं आता। विज्ञान की किताब में पढ़ता है कि सिर्फ एक आग का तपता हुआ गोला है और कुछ भी नहीं। यह समझ में आता है, यह देवता बिलकुल समझ में नहीं आता।
तो समाजशास्त्री कहते हैं कि जो लोग सूरज को देख कर डर गए होंगे, उन्होंने समझ लिया होगा कि सूरज देवता है। ये सब धर्म भय से पैदा हो गए। आग को देख कर कोई डरा होगा, भयभीत हुआ होगा, तो उसको फुसलाने के लिए, आदर देने के लिए कि आग नुकसान न करे, सूरज नुकसान न करे, लोग हाथ जोड़ कर, घुटने टेक कर खड़े हो गए। गलत है यह खयाल।
ये पांच शरीर जाने जाएं तो अंतर्यात्रा है।

''कर्ता क्या? जीव क्या? पंचवर्ग क्या? क्षेत्रज्ञ क्या? साक्षी क्या? कूटस्थ क्या? अंतर्यामी क्या? इनके क्या अर्थ हैं? इसी प्रकार, जीवात्मा परमात्मा और माया--ये तत्व क्या हैं? ''





ये प्रश्न उपस्थित किए हैं प्राक्कथन में, फिर उपनिषद इनके उत्तरों में प्रवेश करेगा।
सुबह की इस चर्चा में तो हम प्रश्नों को ही ठीक से समझ लें; प्रश्न करने वाले मन को समझ लें; प्रश्न की सम्यक दिशा को समझ लें। उत्तर इतने कठिन नहीं, असली बात प्रश्न है; क्योंकि प्रश्न करने वाले में ही उत्तर को जन्म लेना होता है। उत्तर कहीं बाहर से नहीं आता; उत्तर कहीं बाहर नहीं है, उत्तर आपके भीतर है। अगर ठीक प्रश्न आप पूछ सकते हैं, तो आपके भीतर का उत्तर जगना शुरू हो जाता है। ठीक प्रश्न का अर्थ है कि आप अपने भीतर उत्तर को चोट देने लगते हैं। गलत प्रश्न का अर्थ है कि आपके भीतर उससे कोई चोट नहीं पड़ती; उत्तर कभी पैदा नहीं होता। और बाहर से वे ही उत्तर दिए जा सकते हैं, लेकिन वे कभी आपके भीतर तक नहीं पहुंचते। एक संयोग चाहिए--आपके भीतर उत्तर जगे और बाहर से उत्तर दिया जाए, तो ही उत्तर आपको मिलता है, नहीं तो नहीं मिलता। जब तक आपके भीतर एक गहरा रिस्पांस, एक प्रतिसवेदन न हो, बाहर से छेड़े गए तार और आपके भीतर तक तार न हिल जाएं, आपकी वीणा भीतर न बजने लगे, तो बाहर वीणा बजती रहे, कुछ प्रयोजन नहीं है।
उपनिषद में हम बाहर से उत्तर देंगे, लेकिन वह काफी नहीं है; आपको भीतर एक संवेदना पैदा करनी पड़ेगी, तो वे उत्तर आप पर ठीक जगह पड़ने लगेंगे। और ठीक जगह पड़ना ही सब-कुछ है। आपके भीतर संवेदनशील तरंगें हों, तो बाहर के उत्तर भी सहयोगी हो सकते हैं; दोनों के मिलन-बिंदु पर उत्तर उपलब्ध होता है। और ऐसा तो हो सकता है कि बाहर की जरूरत न पड़े और भीतर उपलब्ध हो जाए, ऐसा नहीं हो सकता कि बाहर से उपलब्ध हो जाए और भीतर की जरूरत न पड़े। बाहर गौण है बात--उपयोगी है, पर गौण है; आवश्यक है, अनिवार्य नहीं।
तो ऐसा हो सकता है कि बाहर के बिना किसी उत्तर के भी उत्तर मिल जाए। अगर प्रश्न इतना अचूक हो, इतना हृदयपूर्ण हो, इतना गहरा हो कि सारे प्राण दांव पर लगे हों, तो बाहर के बिना उत्तर के भी उत्तर मिल सकता है। लेकिन इससे विपरीत कोई उपाय नहीं। ऐसा नहीं हो सकता--बाहर बुद्ध भी खड़े हों, महावीर भी खड़े हों, और कृष्‍ण भी खड़े हों, और क्राइस्ट भी खड़े हों, और सब चिल्ला-चिल्ला कर उत्तर दें, लेकिन भीतर अगर संवेदना जागी न हो, भीतर अगर प्यासा प्राण न हो, भीतर अगर कोई पुकार न हो, भीतर अगर कोई अभीप्सा न हो, तो कोई उपाय नहीं है... कोई उपाय नहीं है--वे सब प्रश्न, वे सब उत्तर व्यर्थ चले जाते हैं।
तो उत्तर हम सांझ से समझना शुरू करेंगे।
अभी हम ध्यान का प्रयोग करेंगे, उस भीतर की संवेदना को जगाने के लिए--वह हो तो हम उत्तर में उतर सकेंगे।
तो दों-तीन बातें ध्यान के प्रयोग के संबंध में समझ लें।
एक तो... अभी बैठे रहें, पहले समझ लें, फिर हम दूर-दूर हट जाएंगे। एक : ध्यान की पूरी प्रक्रिया के पंद्रह मिनट कीर्तन होगा, उसमें डूबना है पूरी तरह। उसमें अगर जरा भी अपने को बचाया, तो पहला कदम ही नहीं उठेगा, दूसरे का सवाल ही नहीं है। तो जिसने थोड़ी सी भी कृपणता बताई, वह बिलकुल नासमझ है। उससे तो बेहतर है कि वह बाहर ही हो जाए; वह बेकार मेहनत कर रहा है। यहां तो दांव पूरा या बिलकुल नहीं; इसे खयाल मैं ले लें। इससे बीच में नहीं चलेगा। या तो पूरा अपने को लगा दें, या लगाएं ही मत, नाहक मेहनत न करें; क्योंकि कम मेहनत करने का दुष्परिणाम होता है-- आपको लगता है, मेहनत भी की और कुछ न हुआ। इससे एक निराशा पैदा होती है। नहीं, फिर करें ही मत। तो कम से कम आशा तो बनी रहेगी। किसी जन्म में कभी करने की हिम्मत तो होगी। कुनकुने-कुनकुने नहीं, ल्‍यूकवॉर्म बिलकुल नहीं। उबलना है तो सौ डिग्री पर, तो भाप बनती है। ऐसा कुनकुने होकर फिर ठंडे हो गए, फिर कुनकुने हुए, फिर ठंडे हो गए--तो जिंदगी भर होते रहें। धीरे-धीरे आशा ही मिट जाएगी कि हम भी कभी उबल कर और भाप बन सकते।
तो पहली तो बात ध्यान में ले लें कि पहला पंद्रह मिनट जो कीर्तन है, उसमें पूरी तरह लग जाना है--पूरी तरह लगने का मतलब है, पागल की तरह; उससे कम में नहीं चलता। आंख पर पट्टी रहेगी, आंखें  बंद रहेंगी, लोग दूर-दूर रहेंगे। यहां तो काफी जगह है इसलिए इतने दूर फैल जाना है कि आप पूरे मुक्त भाव से नाच सकें।
तो पंद्रह मिनट कीर्तन में नाचते रहना है, फिर कीर्तन बंद हो जाएगा लेकिन धुन चलेगी। फिर उस पंद्रह मिनट धुन में आपको व्यक्तिगत रूप से नाचना है--जितनी भी आपके पास शक्ति हो, पूरी लगा देनी है। शक्ति का एक प्रवाह हो जाना है--नर्तक मिट जाए और नृत्य रह जाए; धुन सब-कुछ हो जाए। उसी धुन पर नाचने लगें। अगर आप इतनी तीव्रता से कर सकें तो आपको तत्काल पता चलेगा कि आप शरीर से अलग हो गए हैं। शरीर से अलग हो जाने में कठिनाई नहीं है। शरीर से अलग हो जाना एकदम आसान है। पूरी शक्ति लगी हो तो शरीर से आदमी तत्क्षण अलग हो जाता है; यह उसका विज्ञान है। 
तो पूरी तरह... पंद्रह मिनट तो सामूहिक कीर्तन चलेगा, फिर कीर्तन बंद हो जाएगा, फिर सिर्फ धुन रह जाएगी--फिर आपको मुंह से कुछ नहीं करना है, सिर्फ नाचना है, कूदना है, पूरी शक्ति लगा देनी है। पंद्रह मिनट दूसरा स्टेप चलेगा। चिल्लाने का मन हो तो आप चिल्ला सकते हैं, लेकिन कीर्तन नहीं चलाना है; जो आपकी मौज में आए वह करना है। किसी को अगर मौज में कीर्तन ही आए तो वह अपना जारी रख सकता है, लेकिन सामूहिक कीर्तन छूट जाएगा--व्यक्तिगत आपको जो करना हो; लेकिन रुकना नहीं है, पंद्रह मिनट आपको पूरी ताकत लगा देनी है।
फिर तीस मिनट हम विश्राम करेंगे,। तीस मिनट मुर्दे की भांति जमीन पर पड़ जाना है। आपको सीधे लेटना अच्छा लगे, सीधा; उलटा लेटना अच्छा लगे, उलटा--जैसा आपको लगे। किसी को खड़े रहना ही अच्छा लगे, तो खड़ा रहे; बैठना अच्छा लगे, तो बैठा रहे--लेकिन हो जाए मुर्दे की भांति। खड़ा ऐसा रहे कि अगर बीच में मुर्दा गिर जाए तो रुकावट नहीं डालनी है फिर, गिर जाने देना है।
उस तीस मिनट में मैं कुछ सुझाव आपको दूंगा। जब मैं आपको सुझाव दूं माथे पर हाथ फेरने का तब आपको पट्टी नीचे सरका लेनी है या ऊपर सरका देनी है, एक मिनट, दो मिनट के लिए--जब मैं आपको माथे पर हाथ से लड़ने को कहूंगा। वह मैं सब सुझाव दूंगा, तीस मिनट में आपको क्या करना है। तीस मिनट आप कर लें पूरा, तो फिर तीस मिनट में क्या करना है, वह मैं आपको कहता जाऊंगा और आपकी यात्रा भीतर हो जाएगी। यह यात्रा हो सके तो ही उपनिषद के उत्तर समझ में आ सकेंगे, नहीं तो चूक जाएंगे। हां, ऊपर किसी को नहीं आना है, मैदान में ही फैल जाएं।...


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