निर्वाण
उपनिषद
पहला—प्रवचन
शांति पाठ का द्वार, विराट सत्य और प्रभु का आसरा:
शांति
पाठ :
ओम
वाङ्गमे मनसि
प्रतिष्ठता, मनो
मे वाचि
प्रतिष्ठितम्
आविरा: वीर्म
एधिं वेदस्य म
आणीस्थ:
श्रुतम् मे
माप्रहासीरनेन्
आधीनेन
अहोरात्रात्
संदधामि।
ओम
मेरी वाणी मन
में स्थिर हो, मन
वणी में स्थिर
हो, हे
स्वयंप्रकाश
आत्मा! मेरे
सम्मुख तुम
प्रकट होओ। हे
वाणी और मन!
तुम दोनों
मेरे वेद—ज्ञान
के आधार हो, इसलिए मेरे
वेदाभ्यास का
नाश न करो। इस
वेदाभ्यास
में ही मैं
रात्रि—दिन
व्यतीत करता
हूं।
बूंद
चाहे भी कि
सागर को बिना
स्मरण किए
सागर की खोज
कर ले, तो भी वह
खोज हो न
सकेगी। और कोई
दीया सोचता हो
कि सूर्य को
स्मरण किए बिना
सूर्य को खोज
लेगा, तो
नासमझी है।
आत्मा भी
परमात्मा की
खोज पर निकली
हो, तो
सिर्फ अपने पर
भरोसा करके
चले तो पहुंच
न सकेगी। अपने
पर भरोसा काफी
नहीं है।
परमात्मा का
स्मरण जरूरी
है—उस
परमात्मा का
स्मरण, जिसका
हमें कोई भी
पता नहीं है।
यही कठिनाई है।
जिस
परमात्मा का
हमें कोई भी
पता नहीं है, उसका
स्मरण बड़ी
कठिन और असंभव
बात है। और
अगर हम यह जिद
करें कि पता
होगा तभी
स्मरण करेंगे,
तो भी बड़ी
कठिनाई है।
क्योंकि पता
हो जाने पर
स्मरण की कोई
जरूरत ही नहीं
रह जाती। जो
जानते हैं, उन्हें
प्रभु का नाम
लेने की भी
कोई जरूरत नहीं
है। जो
पहचानते हैं,
उनके लिए
प्रार्थना
व्यर्थ है। और
जिन्हें पता
नहीं है, वे
कैसे
प्रार्थना
करें! वे कैसे
पुकारें उसे!
वे कैसे स्मरण
करें! जिन्हें
उसकी कोई खबर
ही नहीं है, उसकी तरफ वे
हाथ भी कैसे
जोड़े और सिर
भी कैसे झुकाएं!
बूंद
को सागर का
कोई भी पता
नहीं है, लेकिन
फिर भी बूंद
जब तक सागर न
हो जाए तब तक
तृप्त नहीं हो
सकती। और
अंधेरी रात
में जलते हुए
एक छोटे से
दीए को क्या पता
होगा कि सूरज
के बिना वह न
जल सकेगा।
लेकिन सूर्य
कितना ही दूर
हो, वह जो
छोटा सा
अंधेरे में
जलने वाला
दीया है, उसकी
रोशनी भी
सूर्य की ही
रोशनी है। और
आपके गांव में
आपके घर के
पास छोटा सा
जो झरना बहता
है, उसे
क्या पता होगा
कि दूर के
सागरों से
जुड़ा है! और अगर
सागर सूख जाएं
और रिक्त हो
जाएं तो यह
झरना भी
तत्काल सूखकर
समाप्त हो
जाएगा! झरने को
देखकर आपको भी
खयाल नहीं आता
कि सागरों से
उसका संबंध है।
आदमी
भी ठीक ऐसी ही
स्थिति में है।
वह भी एक छोटा
सा चेतना का
झरना है। और
उसमें अगर
चेतना प्रकट
हो सकी है तो
सिर्फ इसीलिए
कि कहीं चेतना
का कोई
महासागर भी
निकट में है—जुड़ा
हुआ,
संयुक्त, चाहे ज्ञात
हो, चाहे
ज्ञात न हो।
तो ऋषि
एक यात्रा पर
निकल रहा है
इस सूत्र के साथ।
लेकिन यह
सूत्र बहुत
अदभुत है और
बहुत अजीब भी, एब्सर्ड
भी, बहुत
बेमानी भी।
क्योंकि
जिसकी खोज पर
जा रहा है, उसी
से प्रार्थना
कर रहा है।
जिसका पता
नहीं है अभी, उसी के
चरणों में सिर
रख रहा है। यह
कैसे संभव हो
पाएगा? इसे
समझ लें, क्योंकि
जिसे भी साधना
के जगत में
प्रवेश करना
है उसे इस
असंभव को संभव
बनाना पड़ता है।
एक बात तय है
कि बूंद को
सागर का कोई
भी पता नहीं
है, लेकिन
दूसरी बात भी
इतनी ही तय है
कि बूंद सागर
होना चाहती है।
जो हम होना
चाहते हैं, उसके समक्ष
ही हमें
प्रणाम करना
होगा—हमें, वे जो हम हैं।
जो हम हैं, उसे
उसके समक्ष
प्रार्थना
करनी होगी, जो हम हो
सकते हैं।
जैसे बीज उस
संभावित फूल
के सामने
प्रार्थना
करे, जो वह
हो सकता है।
इस
प्रार्थना से
परमात्मा को
कुछ लाभ हो
जाता हो, ऐसा
नहीं है। लेकिन
इस प्रार्थना
से हमारे
पैरों। बड़ा बल
आ जाता है। यह
प्रार्थना
परमात्मा के
लिए नहीं है, अपने ही लिए
है। परमात्मा
के प्रति है, अपने ही लिए
है।
अगर
बूंद ठीक से
प्रार्थना कर
पाए सागर की, तो
उसके प्राणों
में कहीं सागर
से संपर्क होना
शुरू तो जाता
है। और बूंद
जब सागर को
पुकारती है, तो किसी
अज्ञात मार्ग
से सागर होने
की क्षमता और
पात्रता पैदा
होती है। और
जब बूंद कहती
है सागर से कि
मुझे सहायता
करना कि मैं
तुझ तक पहुंच
सकुं, तो
आधी मंजिल
पूरी हो जाती
है। क्योंकि
जिस बूंद ने...
श्रद्धा और आस्था
और निष्ठा से
कह सकी जो
बूंदू कि
परमात्मा
मुझे सहायता
करना, यह
श्रद्धा, यह
निष्ठा, यह
आस्था बूंद की
जो संकीर्णता
है उसे तोड़
देती है और जो
विराटता है
उससे जोड़ देती
है।
प्रार्थना
के क्षण में
प्रार्थना
करने वाला वही
नहीं रह जाता, जो
प्रार्थना के
करने के पहले
था। जैसे कोई
द्वार खुल
जाता है, जो
बंद था। जैसे
कोई झरोखा खुल
जाता है, जो
ढंका था। एक
नया आयाम,
एक नई यात्रा
और एक नए आकाश
का दर्शन होना
शुरू हो जाता
है। नहीं यह
कि आप आकाश तक
पहुंच जाते
हैं, बल्कि
अपने घर के
भीतर ही खड़े
होते हैं, फिर
भी एक द्वार
खुल जाता है
और दूर अनंत
आकाश दिखाई
पड़ने लगता है।
आप वहीं होते
हैं, जहां
थे। आप कुछ
दूसरे नहीं हो
गए होते हैं।
अंधेरे
में खड़ा है एक
आदमी अपने ही
मकान में और
फिर अपने
द्वार को खोल
लेता है। वही
आदमी हे, वही
मकान है, वही
जगह है। कहीं
कोई परिवर्तन
नहीं हो गया
है, लेकिन
अब बहुत दूर
का आकाश दिखाई
पड़ने लगता है।
और मार्ग अगर
दूर तक दिखाई
न पड़े तो चलना
बहुत मुश्किल
है। और मंजिल
हम जहां खड़े
हैं, अगर
वहीं से दिखाई
पड़नी न शुरू हो
जाए तो यात्रा
असंभव है।
ऋषि
ऐसी
प्रार्थना से
शुरू करता है
इस निर्वाण
उपनिषद को, जिसमें
निर्वाण की
खोज की जाएगी —उस
परम सत्य की, जहां
व्यक्ति
विलीन हो जाता
है और सिर्फ
विराट शून्य
ही रह जाता है।
जहा ज्योति खो
जाती है अनंत
में, जहां
सीमाएं गिर
जाती हैं असीम
में, जहां
मैं खो जाता
हूं और प्रभु
ही रह जाता है।
यह
निर्वाण शब्द
बहुत अदभुत है।
बुद्ध ने तो
परमात्मा
शब्द भी छोड़
दिया था, आत्मा
शब्द भी छोड़
दिया था।
क्योंकि
बुद्ध ने कहा
कि ये सब शब्द
बहुत ओंठों पर
गुजरकर जूठे
हो गए हैं। पर
निर्वाण शब्द
को वे भी न छोड़ पाए।
और बुद्ध ने
तो सारी की
सारी खोज
निर्वाण के सत्य
पर केंद्रित
कर दी। शायद
निर्वाण का
आपको खयाल भी
न हो कि अर्थ
क्या होता है।
निर्वाण का
अर्थ होता है,
दीए का बुझ
जाना। जैसे
दीए को कोई
फूंककर बुझा
दे। कहां चली
जाती है
ज्योति?
इस जगत
में जो भी
अस्तित्व में
है,
वह
अस्तित्व के
बाहर नहीं जा
सकता है।
वैज्ञानिक भी
अब वैसा ही
कहते हैं। जो
है उसे मिटाया
नहीं जा सकता,
और जो नहीं
है उसे बनाया
नहीं जा सकता।
सिर्फ
रूपांतरण
होता है, परिवर्तन
होता है। न
कुछ नष्ट होता
है, न कोई
सृजन होता है।
एक दीए
को फूंक मार
दी और ज्योति
बुझ गई—कहा
चली जाती है? मिट
तो नहीं सकती
है, मिटने
का कोई उपाय
नहीं है।
चाहें तो भी
मिटने का कोई
उपाय नहीं है।
सिर्फ वही मिट
सकता है जो था
ही नहीं, सिर्फ
दिखाई पड़ता था।
वह नहीं मिट
सकता, जो
था। जो है, वह
नहीं मिट सकता।
यह
बहुत मजेदार
बात है, सिर्फ
वही मिट सकता
है जो नहीं था।
जो है, वह
नहीं मिट सकता।
वह रहेगा ही, वह रहेगा ही
किसी भी रूप
में, और
आकार में। और
कहीं भी रहेगा
ही। उसके
मिटने की कोई
संभावना नहीं।
दीए की
ज्योति बुझ
जाती है, मिट
नहीं जाती।
दीए की ज्योति
खो जाती है, समाप्त नहीं
हो जाती।
हमारी तरफ से
जो खोना है, वह किसी
दूसरी तरफ
कहीं मिलन बन
जाता है। वह
ज्योति आई थी
किसी विराट से
और फिर विराट
में लीन हो
जाती है। असीम
से आती है और
फिर असीम में
चली जाती है।
सागर से ही
आती हैं वे
बूंदें, जो
आपके घर पर
बरसती हैं और
आपके खेत और
बाग और बगीचे
में, और फिर
सागर में लीन
हो जाती हैं।
यह भी
ध्यान रखें, एक
शाश्वत सूत्र,
कि जो चीज
जहां लीन होती
है, वह लीन
होने का स्थान
वही है जो
उदगम का है।
उदगम और अंत
सदा एक हैं।
जहां से कुछ
जन्म पाता है,
वहीं
समाप्त, वहीं
लीन, वहीं
विदा हो जाता
है। आने का
द्वार और जाने
का द्वार इस
जगत में एक ही
है। जन्म और
मृत्यु उसी
द्वार के नाम
हैं, वह
द्वार एक ही
है। ज्योति खो
जाती है वहीं,
जहा से आती 'है।
बुद्ध
कहते थे :
ज्योति के इस
खो जाने को
मैं कहता हूं
दीए का
निर्वाण।
किसी दिन जब
अहंकार भी इसी
तरह खो जाता है, महाविराट
में, महत
में, तब
उसे मैं
व्यक्ति का
निर्वाण कहता
हूं।
इस
उपनिषद का नाम
है निर्वाण
उपनिषद। यह भी
थोड़ा सोचने
जैसा है कि
उपनिषद की
वाणी तो बुद्ध
से बहुत
पुरानी है।
बुद्ध ने जो
कहा है वह वही
है,
जो
उपनिषदों में
छिपा है। जो
गहरे उतरेगा,
वह जानेगा
कि बुद्ध ने
उपनिषदों की
जीवंत
व्याख्या की
है।
लेकिन
कैसा आश्चर्य
है कि
उपनिषदों को
सर्वाधिक
अपने जीवन में
जीने वाला
आदमी ही
हिंदुस्तान
में
ब्राह्मणों
को अपना शत्रु
मालूम पड़ा।
उपनिषद की
अमृतधारा को
अपने जीवन से
हजार—हजार
रूपों में
प्रकट करने
वाला गौतम
बुद्ध ही, उपनिषद
के जो मालिक
बने बैठे हुए
पंडित थे, उन्हें
अपना दुश्मन
मालूम पड़ा।
बुद्ध के
विचार को
पंडितों ने
भारत से हटाने
की अथक चेष्टा
की। और बुद्ध
वही कह रहे थे,
जो
उपनिषदों ने
कहा है। पर
ऐसा होता है।
ऐसा
इसलिए होता है
कि जब उपनिषद
का ऋषि कुछ कहता
है... ऋषि कोई
पंडित नहीं है, पुरोहित
नहीं है। वह
कोई पुजारी
नहीं है। उसने
कुछ जाना है।
और ज्ञान की
अग्नि को सभी
नहीं झेल पाते।
शास्त्र की
राख को सभी
सम्हाल पाते
हैं। ज्ञान की
अग्नि को सभी
नहीं झेल पाते।
और जब ज्ञान
बुझ जाता है
और राख रह
जाती है, तो
शास्त्र बन
जाते हैं।
पंडितों के
हाथ में ज्ञान
नहीं होता, शास्त्र
होते हैं।
निश्चित ही जो
आज राख है, कभी
वह अंगार थी।
और उस अंगार
होने के कारण
ही हम राख को
भी सम्हाले
चले जाते हैं।
पर जो आज राख
है, वह
अंगार नहीं है,
यह भी जानना
जरूरी है।
बुद्ध
के समय तक
उपनिषद राख हो
गए थे, अंगार
नहीं। असल में
जब भी पंडितों
के, पुरोहितों
के, उनके
हाथ में—जो
जानते नहीं, लेकिन जानने
के भ्रम में
होते हैं—ज्ञान
पड़ता है, तो
राख हो जाता
है। ज्ञान की
हत्या करवानी
हो, तो
पंडितों के
हाथ में दे
देने से
ज्यादा सुगम
और कोई उपाय
नहीं। पंडित
इतने कुशल हैं
ज्ञान की
हत्या कर देने
में जिसका कोई
हिसाब नहीं।
राख के
आप मालिक हो
सकते हैं। आग
के साथ खेलना
खतरनाक है।
राख की आप
पूजा कर सकते
हैं। आग के
साथ जूझना
खतरनाक है।
राख को आप बदल
सकते हैं, आग
आपको बदल देगी,
मिटा देगी।
तो
उपनिषद के ऋषि
तो आग से खेल
रहे थे। लेकिन
बुद्ध के समय
तक आते—आते
राख रह गई। और
जब बुद्ध ने
फिर आग की बात
की,
तो
स्वाभाविक कि
जो राख की
रक्षा कर रहे
थे और जो राख
को ही आग कह
रहे थे, उनको
बुद्ध दुश्मन
मालूम पड़े हों।
यह स्वाभाविक
है। क्योंकि
जब फिर आग जला
दी जाए, तो
राख के मालिक
बड़ी कठिनाई में
पड़ जाते हैं।
जीसस
ने वही कहा, जो
यहूदी
ज्ञाताओं ने
कहा था। लेकिन
जीसस को यहूदी
पंडितों ने ही
सूली पर लटका
दिया।
यह भी
जानकर हैरानी
होगी कि आज तक
धर्म का विरोध
करने वाले
अधार्मिक लोग
नहीं हैं।
धर्म का विरोध
तो सदा ही
तथाकथित
धार्मिक, सो—काल्ड
रिलीजस लोग करते
हैं। धर्म का
विरोध
अधार्मिक
नहीं करते हैं,
धर्म का
विरोध
तथाकथित
धार्मिक लोग
करते हैं।
बुद्ध का
विरोध भारत के
नास्तिकों ने
नहीं किया, बुद्ध का
विरोध भारत के
तथाकथित
आस्तिकों ने किया।
कब हम
यह समझ पाएंगे, कहना
कठिन है। कब
हमें यह समझ
में बात आएगी
कि सत्य सदा
एक है, नई —नई
अभिव्यक्तियां
होती हैं उसकी,
लेकिन सत्य
के प्राण सदा
एक हैं। इस
निर्वाण
उपनिषद में, जिसका बुद्ध
से कुछ लेना—देना
नहीं है, बुद्ध
ने जो भी कहा
है, उसका
सब सार है।
मेरे
एक मित्र अभी
चीन होकर वापस
लौटे हैं। इधर
मैं लाओत्से
के ऊपर कुछ
चर्चा कर रहा
था। तो उन
मित्र ने मुझे
आकर कहा कि आप
लाओत्से पर चर्चा
कर रहे हैं।
मैं चीन गया
था तो मैंने
चीन के एक
पंडित से पूछा
कि लाओत्से के
संबंध में
तुम्हारा
क्या खयाल है? तो
उसने कहा कि
ही वाज़
करप्टेड़ बाई
योर उपनिषद्स।
तुम्हारे
उपनिषदों ने
हमारे
लाओत्से को
खराब किया।
यह बात
बड़ी
अर्थपूर्ण है।
सच तो यह है कि
जिस अर्थ में
उसने कहा है
खराब किया, उस
अर्थ में कि
हम सब अच्छे
लोग हैं। इस
दुनिया में जब
भी कोई आदमी
खराब हुआ है, तो उपनिषदों
का हाथ रहा है।
खराब उसी अर्थ
में, जिस
अर्थ में
बुद्ध खराब
होते हैं, महावीर
खराब होते हैं,
सुकरात
खराब होता है,
जीसस खराब
होते हैं। इस
जमीन पर जब भी
कोई आदमी खराब
हुआ है, तो
ही वाज़
करप्टेड बाई
उपनिषद्स।
मैंने
उन मित्र से
कहा कि
लाओत्से
अकेला, तो आप
गलती में हैं।
जब भी कोई
आदमी जमीन पर
खराब हुआ है, इधर कोई
पांच हजार
वर्षों के
ज्ञात. इतिहास
में, तो
उपनिषद ही
उसका कारण थे।
असल
में उपनिषदों
ने जो भी
शाश्वत है, उसे
इतने गढ़ता से
कह दिया है कि
कई बार ऐसा
लगता है कि
क्या
उपनिषदों से
इंचभर भी यहां—वहां
हटकर कुछ और
कहा जा सकता
है 2: क्या
उपनिषदों का
किसी तरह परिष्कार
हो सकता है? कैन दे बी
इंपूब्द? तो
शक होता है, होना बहुत
मुश्किल
मालूम होता है।
संदिग्ध
मालूम होता है।
कोई उपाय नहीं
मालूम पड़ता।
और यह एक बड़ा
भारी कारण बना
भारत की
परेशानी का।
उपनिषदों
ने सत्य को
इतनी शुद्धतम
भाषा में कह
दिया कि उसमें
परिष्कार करना
मुश्किल पडा। और
इसलिए
उपनिषदों के
बाद भारत में
बौद्धिक विकास
मुश्किल हो
गया,
क्योंकि
विकास के लिए
कुछ उपाय
चाहिए।
उपनिषदों में
ऐसी चरम बात
कह दी गई कि
उसके आगे कहने
जैसा नहीं रहा।
सत्य की जो
परम घोषणाएं
हैं, वे
उपनिषदों में
हैं।
और
निर्वाण बहुत
अदभुत उपनिषद
है। इस पर हम
यात्रा शुरू
करते हैं और
यह यात्रा दोहरी
होगी। एक तरफ
मैं आपको
उपनिषद
समझाता
चलूंगा और दूसरी
तरफ आपको
उपनिषद कराता
भी चलूंगा।
क्योंकि
समझाने से कभी
कुछ समझ में
नहीं आता, करने
से ही कुछ समझ
में आता है।
करेंगे तो ही
समझ पाएंगे।
इस जीवन में
जो भी
महत्वपूर्ण
है, उसका
स्वाद चाहिए,
अर्थ नहीं।
उसका स्वाद
चाहिए, उसकी
व्याख्या
नहीं। उसकी
प्रतीति
चाहिए। आग
क्या है, इतने
से काफी न
होगा, वह
आग जलानी
पड़ेगी। उस आग
से गुजरना
पड़ेगा। उस आग
में जलना
पड़ेगा और
बुझना पड़ेगा,
तो निर्वाण
की प्रतीति
होगी कि निर्वाण
क्या है। और
कठिन नहीं है
यह।
अहंकार
को बनाना कठिन
है,'
मिटाना
कठिन नहीं है।
क्योंकि
अहंकार
वस्तुत: है
नहीं, मिट
सकता है सरलता
से। असल में
जिंदगीभर बड़ी
मेहनत करके
हमें उसे सम्हालना
पड़ता है। सब
तरफ से टेक और
सहारे लगाकर
उसे बनाना
पड़ता है। उसे
गिराना तो जरा
भी कठिन नहीं
है। इन सात
दिनों में अगर
आपका अहंकार
क्षणभर को भी
गिर गया, तो
आपको निर्वाण
की प्रतीति हो
सकेगी कि निर्वाण
क्या है।
तो हम
समझेंगे।
समझेंगे
सिर्फ इसीलिए
कि कर सकें।
तो मैं जो भी
कहूंगा, उसे
आप अपनी
जानकारी नहीं
बना लेंगे, उसे आप अपनी
प्रतीति
बनाने की
कोशिश करेंगे।
जो मैं कहूंगा,
उसे अनुभव
में लाने की
चेष्टा
करेंगे। तो
ही! अन्यथा
पांच हजार
सालों में
उपनिषद की बहुत
टीकाएं हुई
हैं, और
परिणाम तो कुछ
भी हाथ नहीं।
शब्द, और
शब्द, और
शब्द का ढेर
लग जाता है।
आखिर में बहुत
शब्द आपके पास
होते हैं, ज्ञान
बिलकुल नहीं
होता। और जिस
दिन ज्ञान
होता है, उस
दिन अचानक आप
पाते हैं कि
भीतर सब
निःशब्द हो
गया, मौन
हो गया। यह
प्रार्थना है
ऋषि की।
ऋषि ने
कहा है, इसे
कहा है, शांति
पाठ,
परमात्मा
से प्रार्थना
करनी हो, तो
कुछ और कहना
चाहिए।
परमात्मा के
लिए शांति के
पाठ का क्या
अर्थ हो सकता
है? परमात्मा
शांत है।
लेकिन इसे कहा
है, शांति
पाठ। जानकर
कहा है, बहुत
सोच—समझकर। वह
इसीलिए कहा है
कि प्रार्थना
तो करते हैं परमात्मा
से, करते
अपने ही लिए
हैं। और हम
अशांत हैं और
अशांत रहते
हुए यात्रा नहीं
हो सकती। अशांत
रहते हुए हम
जहां भी
जाएंगे वह
परमात्मा से विपरीत
होगा। अशांति
का अर्थ है, परमात्मा की
तरफ पीठ करके
चलना।
असल
में जितना
अशांत मन, उतना
परमात्मा से
दूर। अशांति
ही डिस्टेंस
है, दूरी
है। जितने आप
अशांत हैं, उतना ही
फासला है। अगर
पूरे शांत हैं
तो कोई भी
फासला नहीं है,
देन देअर इज
नो डिस्टेंस।
तब ऐसा भी
कहना ठीक नहीं
कि आप
परमात्मा के
पास हैं, क्योंकि
पास होना भी
एक फासला है।
नहीं, तब
आप परमात्मा
में, परमात्मा
में ही हैं।
लेकिन शायद यह
कहना भी ठीक
नहीं, क्योंकि
परमात्मा में
होना भी एक
फासला है। तब
कहना यही ठीक
है कि आप
परमात्मा हैं।
या तो फिर आप
हैं, और या
परमात्मा है।
फिर दो नहीं
हैं, क्योंकि
जहां तक दो
हैं, वहां
तक कोई न कोई
तल पर फासला
कायम बना रहता
है।
इसलिए
ऋषि शुरू करता
है शांति पाठ
से। शांति पाठ
के शब्द सोचने
जैसे हैं, सोचने
जैसे इसीलिए
ताकि किए जा
सकें।
ऋषि
कहता है, ओम।
ओम
प्रतीक है उस
सब का, जिसे
कहा नहीं जा
सकता। ओम शब्द
में कोई भी
अर्थ नहीं है।
यह मीनिगलेस
है। इसमें कोई
भी अर्थ नहीं
है। और अगर
कोई आपको अर्थ
बताता हो, तो
उससे कहना कि
अनर्थ मत करो।
ओम में कोई भी
अर्थ नहीं है।
वह मात्र
ध्वनि है।
ध्यान
रहे,
जहा भी अर्थ
होता है, वहां
सीमा आ जाती
है। अर्थ का
अर्थ ही होता
है सीमा। जब
भी अर्थ होता
है, तो
उससे विपरीत
भी हो सकता है।
सभी शब्दों के
विपरीत शब्द
हो सकते हैं।
ओम के विपरीत
शब्द बताइएगा?
जीवन है तो
मृत्यु है, अंधेरा है
तो प्रकाश है,
अद्वैत है
तो द्वैत है, और मोक्ष है
तो संसार है।
लेकिन ओम के
विपरीत शब्द
कभी सुना? अगर
अर्थ हो तो
विपरीत शब्द
निर्मित हो
जाएगा। लेकिन
ओम में कोई
अर्थ ही नहीं।
यही उसकी
महत्ता है।
अजीब लगेगा, क्योंकि
हमारा मन होता
है, खूब—खूब
अर्थ बताया
जाए। ओम में
तो जरा भी
अर्थ नहीं है।
जस्ट ए साउंड,
सिर्फ
ध्वनि। लेकिन
बडी
अर्थपूर्ण।
अर्थपूर्ण, अर्थ बिलकुल
नहीं।
अर्थपूर्ण, सिग्नीफिकेंट।
ओम
प्रतीक है
सिर्फ उस सब
का,
जो नहीं कहा
जा सकता। हम
सब कुछ कह
सकते हैं, सिर्फ
परमात्मा को
नहीं कह सकते।
और जब भी हम
कहते हैं, तभी
कठिनाई शुरू
हो जाती है।
अगर आस्तिकों
ने ईश्वर न
कहा होता, तो
इस जमीन पर
नास्तिक पैदा
न होते। आपको
पता है, नास्तिक
आस्तिक के
पहले कभी पैदा
नहीं हो सकता।
अगर आस्तिक न
हो तो नास्तिक
पैदा नहीं हो
सकता।
क्योंकि
नास्तिक तो
सिर्फ एक
रिएक्यान है,
सिर्फ एक
प्रतिक्रिया
है। सिर्फ
आस्तिक का
विरोध है।
तो अगर
दुनिया से
नास्तिक
मिटाने हों तो
आस्तिक को कुछ
बदलाहट स्वयं
में करनी
पड़ेगी, नहीं
तो नास्तिक
नहीं मिट सकते।
असल में सच्चा
आस्तिक, आस्तिक
होने का दावा
भी नहीं करता,
क्योंकि उस
दावे से
नास्तिक पैदा
होते हैं।
बुद्ध
ऐसे ही आस्तिक
हैं जो आस्तिक
होने का दावा
नहीं करते।
महावीर ऐसे ही
आस्तिक हैं जो
आस्तिक होने
का दावा नहीं
करते। जो परम
आस्तिक है वह
इतना भी न
कहेगा कि
ईश्वर है, क्योंकि
इतना कहने से
किसी को भी हम
मौका देते हैं
कि वह कह सके
कि ईश्वर नहीं
है। फिर
जिम्मेवारी
किसकी है? जैसे
ही हम किसी
चीज को कहते
हैं, है, तो हम नहीं
को निमंत्रण
देते हैं। परम
आस्तिक तो, अगर कोई
कहेगा, ईश्वर
नहीं है, तो
उसमें भी ही
भर देगा।
उसमें भी
विवाद खड़ा
नहीं करेगा।
सुना
है मैंने कि
मुल्ला
नसरुद्दीन को
जीवन के आखिरी
दिनों में
वृद्ध और
अनुभवी जानकर
गांव के लोगों
ने न्यायाधीश
बना दिया, गांव
का काजी बना
दिया। पहले ही
दिन, जिसने
अपराध किया था,
नसरुद्दीन
ने उससे सवाल
पूछा। जो भी
उसने कहा, नसरुद्दीन
ने शांति से
सुना। फिर
बहुत आनंदित
होकर कहा, राइट,
परफेक्टली
राइट। ठीक, बिलकुल ठीक।
अदालत
का मुंशी थोड़ा
घबड़ाया। वकील
थोड़े चिंतित
हुए। अभी
दूसरा पक्ष तो
सुना ही नहीं
गया! लेकिन न्यायाधीश
को बीच में
टोकना उचित भी
न था।
नसरुद्दीन
ने दूसरे पक्ष
को बोलने के
लिए कहा। सुना
शांति से। जब
पूरी बात हो
गई तो कहा, ठीक, बिलकुल ठीक।
राइट, परफेक्टली
राइट।
तब तो
वकील और
मुश्किल में
पड़े। मुंशी ने
पास सरककर
नसरुद्दीन के
कान में कहा
कि शायद
मुल्ला आपको
पता नहीं। यह
आप क्या कर
रहे हैं? अगर
दोनों ही
बिलकुल ठीक
हैं, तो
फिर ठीक कौन!
नसरुद्दीन ने
मुंशी से कहा,
राइट, परफेक्टली
राइट। तुम भी
ठीक, बिलकुल
ठीक।
नसरुद्दीन
उठ गया। उसने
कहा कि अदालत
अपने काम की
नहीं, क्योंकि
हम कोई ऐसी
बात न कहेंगे
जिसका कोई विरोध
कर सके। हम
कोई ऐसी बात
ही न कहेंगे
जिसका कोई
विरोध कर सके।
अदालत अपने
काम की नहीं।
आस्तिक
इतना भी नहीं
कहेगा कि
नास्तिक गलत।
आस्तिक यह तो
कहेगा ही नहीं
कि ईश्वर है
और मैं सही, क्योंकि
यह गलत कहे
जाने के लिए
निमंत्रण है।
और जितने जोर
से लोग ईश्वर
को सिद्ध करने
की कोशिश करते
हैं, उतने
ही जोर से
ईश्वर को
असिद्ध करने
की कोशिश की
जाती है।
ओम
अर्थहीन है।
यहां कुछ कहा
नहीं गया है।
ओम का अर्थ
ईश्वर भी नहीं
है। इस ओम में
कोई अर्थ ही
नहीं है। यह
उसके लिए
प्रतीक शब्द
है जिसको. कहा
ही नहीं जा सकता।
क्योंकि
जिसको भी हम
कहें, उसे
बांटना पड़ता
है टुकड़ों मैं।
लेकिन कुछ है
अस्तित्व, जो
बंटता नहीं, जो अनबंटा
है, अनडिवाइडेड।
वह जो
अनडिवाइडेड
एक्सिस्टेंस
है, वह जो
अस्तित्व है
अनबंटा, एक
वही है। उसके
लिए ही कहा है
ओम। इससे ही
शुरू होती है
प्रार्थना
ऋषि की। ईश्वर
से भी नहीं की
जा रही है यह
प्रार्थना।
यह तो
अस्तित्व से
की जा रही है।
ध्यान रहे, जब आप ईश्वर
से प्रार्थना
करते हैं, तब
आप बड़े फर्क
करते हैं।
एक
सज्जन ने अभी—अभी
मुझे पत्र
लिखा है। वह
पत्र बहुत
मजेदार है। उन्होंने
मुझे लिखा कि
आप में जो—जो
ईश्वरीय अंश
है,
उसको मैं
नमस्कार करता
हूं।
उन्होंने
सोचा कि कहीं
पूरे आदमी को
नमस्कार करें
और उसमें कहीं
कोई गैर—ईश्वरीय
अंश हो तो
अपनी नमस्कार!
लेकिन
ऋषि जब कहता
है ओम, तो
सामने पड़ा हुआ
पत्थर भी ओम
का हिस्सा है।
आकाश में फैले
हुए तारे भी
ओम के हिस्से
हैं। ओम शब्द
सर्वग्रासी
है, सभी को
अपने में लिए
हुए है। तो ये
प्रणाम में
कोई च्वाइस
नहीं है, ओम
की तरफ जो
निवेदन है, इसमें कोई
चुनाव नहीं है
कि किसे।
समस्त
अस्तित्व को,
जो भी है, उस सबको।
और शांति
पाठ भी अगर
चुनाव करता हो, तो
अशांति पाठ बन
जाएगा। लेकिन
हम इतना ही
चुनाव नहीं
करते कि जितने
ईश्वर अंश हों,
उसको। हम तो
और भी चुनाव
करते हैं। हम
कहते हैं, कौन
सा ईश्वर? हिंदुओं
का? फिर भी
मैंने सोचा कि
जिस आदमी ने
पत्र लिखा है,
काफी
व्यापक हृदय
वाला होगा।
उसने यह तो
नहीं लिखा कि
आपके भीतर
जितना हिंदू
ईश्वरीय अंश
है या जितना
मुसलमानी
ईश्वरीय अंश
है! फिर भी
काफी व्यापक!
हम तो उसमें
भी चुनाव करते
हैं। धीरे—धीरे
हमारे हाथ में
जो बचता है वह
हम ही हैं, और
कुछ नहीं है।
सुना
है मैंने कि
एक आदमी का
कुत्ता मर गया।
उसे बहुत
प्रेम था उससे।
आदमी—आदमी के
बीच तो प्रेम
बहुत मुश्किल
हो गया है, इसलिए
हमें कहीं और
रास्ते खोजने
पड़ते हैं। बड़ा
आदमी था। उसने
सोचा कि इस
कुत्ते को ठीक
मनुष्य जैसा सम्मान
मिलना चाहिए।
हालाकि उसे
खयाल ही न रहा
कि आदमी तक को
कुत्ते जितना
सम्मान नहीं
मिलता! पर
खयाल नहीं रहता,
प्रेमी
अंधे होते हैं।
वह गया।
बड़ा कैथोलिक
चर्च था गाव
में। जाकर
उसने पुरोहित
को कहा कि
मेरा कुत्ता
मर गया है और
मैं ठीक आदमी
जैसा सम्मान
उसे देना चाहता
हूं। उस
पुरोहित ने
कहा,
तुम पागल हो
गए हो। 'कुत्ता!
और आदमी जैसा
सम्मान! मैं
कुत्तों का पुरोहित
नहीं हूं।
भागो यहां से।
लेकिन ही, मैं
तुम्हें एक
सलाह देता हूं
कि यहां से
नीचे हटकर जो
प्रोटेस्टेंट
चर्च है—यह
कैथोलिक चर्च
था—तुम वहां
चले जाओ। शायद
वह पुरोहित
राजी हो जाए, क्योंकि
आदमी तो वहां
कम ही जाते
हैं। और फिर
प्रोटेस्टेंट
है, हो
सकता है। जाओ।
मजबूरी
में था आदमी, बेचारा
वहा गया। उसने
कहा, तुमने
समझा क्या है?
तुम हमारा
अपमान करने आए
हो? कुत्ते
को! नहीं, यह
नहीं हो सकता।
लेकिन पास में
ही एक मस्जिद
है, तुम
वहा चले जाओ।
और उसका जो, मस्जिद का
जो मौलवी है, मुल्ला
नसरुद्दीन, वह आदमी कुछ
तिरछा है, उसके
बाबत प्रेडिक्यान
नहीं किया जा
सकता। वह शायद
राजी हो जाए।
वह गया।
उसने
नसरुद्दीन को
कहा।
नसरुद्दीन ने
सारी बात सुनी।
बहुत नाराज
हुआ
नसरुद्दीन।
उसने कहा, तुमने
समझा क्या है?
हम आदमी को
भी चुनाव करके
और सम्मान
देते हैं, तुम
कुत्ते को लाए
हो? बाहर
निकल जाओ!
सोचा
उस आदमी ने कि
शायद वह आगे
किसी मंदिर या
किसी की सलाह
देगा। लेकिन
उसने कोई सलाह
न दी,
तो उसने कहा
कि ठीक है, जाता
हूं। कहीं और
तो सलाह नहीं
देते? उसने
कहा, नहीं,
मैं कोई
सलाह नहीं
देता। तो उस
आदमी ने कहा
कि जाते वक्त
इतना मैं बता
दूं कि मैंने
सोचा था कि
पचास हजार
रुपया उस
पुरोहित के
मंदिर को दान
कर दूंगा, जो
मेरे कुत्ते
को आदमी के
जैसा सम्मान
देकर दफना दे।
नसरुद्दीन
ने कहा, ठहरो
एक मिनट, क्या
कुत्ता
मुसलमान था, तो फिर हम
विचार करें।
उस आदमी ने
कहा कि नहीं, कुत्ता
मुसलमान नहीं
था। वह जाने
लगा।
नसरुद्दीन ने
कहा, ठहरो,
एक क्षण और
ठहरो। क्या
कुत्ता
धार्मिक था? उस आदमी ने
कहा, पूछने
का कोई मौका
नहीं आया। तो
नसरुद्दीन ने
कहा, आखिरी
बार, एक
मिनट और ठहरो।
क्या कुत्ता,
कुत्ता था?
तो फिर हम
तैयार हैं।
मुल्ला
की बात ठीक ही
है। अविभाजित
अस्तित्व के
लिए हमारे मन
में कोई भाव
ही नहीं है।
विभाजित, और
विभाजित, और
विभाजित। ओम
है अविभाज्य
अस्तित्व।
तो ऋषि
कहता है, ओम
मेरी वाणी मन
में स्थिर हो।
मेरी वाणी मन
में स्थिर हो।
मेरा मन मेरी
वाणी में
स्थिर हो जाए।
हमारा
रोग,
हमारी
अशांति, हमारे
शब्द, हमारे
विचार, हमारी
वाणी, हमारे
जीवन का तनाव
निन्यानबे
प्रतिशत हमारी
वाणी से बंधा
हुआ है।
अमरीका
का एक
प्रेसिडेंट
था,
कूलरिज।
इतना कम बोलता
था कि कहा
जाता है कि
दुनिया में
किसी
राजनीतिज्ञ
को इतनी कम
गालियां नहीं
मिलीं, जितनी
कूलरिज को
मिलीं, कम।
क्योंकि गाली
देने का भी
उपाय नहीं था
उसको। उसका
खंडन भी नहीं
हो सकता था।
जब वह
पहली दफा
प्रेसिडेंट
हुआ तो
पत्रकारों के
एक सम्मेलन
में एक
पत्रकार ने
पूछा कि क्या आप
अपनी भविष्य
की योजना के
संबंध में
बताएंगे? उसने
कहा, नहीं।
पूछा कि इस
मसले के संबंध
में आपका क्या
उत्तर है? उसने
कहा, मेरा
कोई उत्तर
नहीं है। पूछा
कि आप किस
राजनीतिज्ञ
विचारसे
सर्वाधिक
प्रभावित हैं?
उसने कहा, नहीं, उत्तर
नहीं दूंगा।
और बातें पूछी,
नहीं के
सिवाय उसने
कोई उत्तर न
दिया। और जब
सब जाने लगे, तो उसने कहा,
ठहरना, डोंट
टेक दिस ऑन
रिकार्ड, यह
जो कुछ मैंने
कहा है, इसको
रिकार्ड पर मत
लेना। और कहा
तो उसने कुछ
है ही नहीं।
रिकार्ड पर मत
लेना! एंड
डोंट रिपोर्ट
इट। हाट सो
स्मर आई हैव
सेड, डोंट
रिपोर्ट इट।
जो भी मैंने
कहा है, अखबार
में मत
निकालना। और
रिकार्ड पर
नहीं। दिस
वाजू आल
अनआफिशियल।
यह जो मैंने
कहा, वह सब
गैर—आधिकारिक
ढंग से कहा है।
मित्रों की
तरह बातचीत की
है, कुछ
कहा नहीं है।
और कहा उसने
कुछ था नहीं।
मरते
वक्त किसी ने
कूलरिज से
पूछा कि तुम
इतना कम क्यों
बोलते हो? तो
उसने कहा कि
बोला तब, तभी
मैं फंसा। और
फिर मैंने
देखा कि नहीं
बोलने से कोई
मुसीबत कभी
नहीं_ आती।
एक
बहुत बड़े जलसे
में
निमंत्रित था।
नगर की
सर्वाधिक, राजधानी
की सर्वाधिक
सुंदरी और धनी
महिला उसके
बगल में, पड़ोस
में थी। उस
महिला ने कहा
कि
प्रेसिडेंट
कूलरिज, मैंने
एक शर्त लगाई
है कि आज घंटे भर
आप यहां
रहेंगे तो मैं
कम से कम तीन
शब्द आपसे
बुलवाकर
रहूंगी।
कूलरिज ने कहा,
यू लूज। दो
ही शब्द बोले
उसने। उसने
कहा, तुम
हारी। फिर
नहीं बोला
घंटे भर। फिर
बोला ही नहीं।
फिर वह सिर्फ
हाथ हिलाता
रहा।
ऋषि
कहता है, मेरी
वाणी मेरे मन
में स्थिर हो
जाए।
पहले
वह कहता है, मेरी
वाणी मेरे मन
में स्थिर हो
जाए। कभी आपने
सोचा, आप
बहुत सी बातें
कहते हैं, जो
आप कहना ही
नहीं चाहते थे।
यह बड़ी अजीब
बात है। जो
आपने कभी नहीं
कहनी चाही थीं,
वे भी आप
कहते हैं, आप
खुद ही कहते
हैं। और पीछे
यह भी कहते
सुने जाते हैं
कि मैं इन्हें
कहना नहीं
चाहता था, इनस्पाइट
आफ मी, मेरे
बावजूद ऐसा हो
गया। यह वाणी
आपकी है! आप
बोलते हैं
वाणी से कि
कुछ और चलता
है!
सौ में
निन्यानबे
मौकों पर
दूसरे लोग
आपसे बुलवा
लेते हैं, आप
बोलते नहीं।
पत्नी
भलीभांति
जानती है कि
वह आज घर पति
से कौन सा
प्रश्न पूछे
तो कौन सा
उत्तर
निकलेगा। पति
भी भलीभांति
जानता है कि
वह क्या कहे
कि पत्नी क्या
बोलेगी। सब
आटोमेटा, यंत्रवत
चलते हैं।
हमारे
मन—मन का अर्थ
है,
हमारे मनन
की, चिंतन
की क्षमता—का
भी हमारी वाणी
से कोई संबंध
नहीं है, वाणी
हमारी
यांत्रिक हो
गई है। हम
बोले चले जाते
हैं, जैसे
यंत्र बोल रहा
हो। एक शब्द
भी शायद ही
आपने बोला हो
जो मन से एक हो।
कई बार तो ऐसा
ही होता है कि
मन में ठीक
विपरीत चलता
होता है और
वाणी में ठीक
विपरीत होता
है। किसी से
आप कह रहे
होते हैं कि
मुझे बहुत
प्रेम है आपसे,
और भीतर उसी
आदमी की जेब
काटने का
विचार कर रहे
हैं या गर्दन
काटने' का।
जेब काटना
मैंने कहा कि
बहुत
अतिशयोक्ति न
हो जाए। मन
में घृणा चल
रही होती है, क्रोध चल
रहा होता है
और आप प्रेम
की बात भी चलाते
रहते हैं। आप
मित्रता की
बातें भी
चलाते रहते
हैं और भीतर
शत्रुता चलती
रहती है। तो
ऐसा आदमी अपने
को कभी न जान
पाएगा। ऐसा
आदमी दूसरों
को धोखा नहीं
दे रहा है, अंततः
अपने को धोखा
दे रहा है।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
रास्ते से
गुजर रहा था।
बहुत सर्द थी
रात,
बर्फ पड़ती
थी। कपड़े कम
थे, वह गिर
पड़ा सर्दी के
कारण। उठ न
सका, बर्फ
में ठंडा होने
लगा। तो उसने
सोचा कि लगता
है, मैं मर
जाऊंगा। एक
बार उसने अपनी
पत्नी से पूछा
था कि मरते वक्त
क्या होता है?
तो उसने कहा
था कि सब हाथ—पैर
ठंडे हो जाते
हैं, और
क्या होता है।
देखा हाथ—पैर
ठंडे हो रहे
हैं, तो
उसने सोचा कि
मैं मर रहा
हूं। चार लोग
पीछे से आए, तब तक वह सोच
चुका था कि
मैं मर चुका
हूं क्योंकि
हाथ—पैर उसने
देखे बिलकुल
ठंडे हो चुके
थे।
उन चार
आदमियों ने
उसे कंधे पर
उठाया, सोचा
कि पास के
किसी मरघट में
पहुंचा दें।
लेकिन अजनबी
थे, और
उन्हें गांव
का रास्ता पता
न था, तो
चौराहे पर आकर
खड़े हो गए।
रात गहरी होने
लगी, बर्फ
ज्यादा पड़ने
लगी। सोचने
लगे कि चौराहे
पर से किस तरफ
चलें, जहां
गांव हो तो
इसको कहीं
गांव में
पहुंचा दें।
दफना दिया जाए।
जब बड़ी
देर हो गई।
मुल्ला मन में
सोचता रहा।
उसे रास्ता
मालूम था। पर
उसने सोचा कि
मरे हुए
आदमियों का
बोलना पता
नहीं नियम
युक्त है या
नहीं, क्योंकि
पत्नी से पूछा
नहीं कि मरा
हुआ आदमी बोलता
है कि नहीं
बोलता है। जब
बहुत देर हो
गई, उसने
सोचा, अब
नियम युक्त हो
या न हो, कहीं
ऐसा न हो कि ये
भी ठंडे होकर
मर जाएं। तो
उसने कहा, भाइयो,
इफ यू डोंट
माइंड, अगर
आप नाराज न
हों और एक मरे
हुए आदमी की
बात सुनने में
कोई नियम का
उल्लंघन न
समझें, तो
मैं आपको
रास्ता बता
सकता हूं कि
जब मैं जिंदा
था तो यह बाएं
तरफ का रास्ता
मेरे गांव को जाता
था।
उन
आदमियों ने
कहा,
तू कैसा
आदमी है! तू
पूरी तरह जिंदा
है, बोल
रहा है, तो
भी आंख बंद
करके हाथ—पैर
अकड़ाकर क्यों
पड़ा था? उसने
कहा, यह तो
मुझे भी मालूम
हो रहा था कि
व्याख्या तो यही
की थी मेरी
पत्नी ने कि
हाथ—पैर ठंडे
हो जाते हैं, जब आदमी मर
जाता है। हाथ—पैर
जरूर ठंडे हो
गए, लेकिन
मुझे पता भी
चल रहा है, तो
किसी न किसी
तरह मुझे होना
चाहिए। तो
उन्होंने कहा
कि जब तुझे यह
पता चल रहा था
तो तूने अपने
से क्यों न
कहा कि मैं
जिंदा हूं और
उठकर खड़ा हो
जाता।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा,
उसका कारण
है। आई एम सच ए
लायर, मैं
ऐसा झूठ बोलने
वाला हूं कि
मैं खुद ही
विश्वास नहीं
कर सकता अपनी
बात पर। अगर
मैं अपने से
कहूं कि मैं
जिंदा हूं तो
मुझे दो गवाह
चाहिए। आई एम
सच ए लायर, ऐसा
झूठ बोलने
वाला आदमी हूं
मैं कि मुझे
कभी पक्का
नहीं आता कि
जो मैं बोल
रहा हूं वह सच
है या झूठ।
जो हम
चारों तरफ
बोलते रहते
हैं,
वह धीरे—
धीरे हमारा
व्यक्तित्व
बन जाता है।
आपको भी बिना
गवाह के पक्का
नहीं हो सकता
कि आप जो बोल
रहे हैं वह
सही है या झूठ।
ऋषि
कहता है, मेरी
वाणी मेरे मन
में स्थिर हो
जाए मेरी वाणी
मेरे मन के
अनुकूल हो जाए,
मेरे मन से
अन्यथा मेरी
वाणी में कुछ
न बचे। जो
मेरे मन में हो,
वही मेरी
वाणी में हो।
मेरी वाणी
मेरी
अभिव्यक्ति
बन जाए। मैं
जैसा हूं र
भला और बुरा।
मैं जो भी हूं
वही मेरी वाणी
से प्रकट हो।
मेरी तस्वीर
मेरी ही
तस्वीर हो, किसी और की
नहीं। मेरा
चेहरा मेरा ही
चेहरा हो, किसी
और का नहीं।
मैं आथेंटिक,
प्रामाणिक
हो जाऊं। मेरे
शब्द मेरे मन
के प्रतीक बन
जाएं।
बहुत
कठिन बात है।
अपने को
छिपाना हमारी
जीवनभर कोशिश
है,
प्रकट करना
नहीं। और जब
हम बोलते हैं
तो जरूरी नहीं
कि कुछ बताने
को बोलते हों।
बहुत बार तो
हम कुछ छिपाने
को बोलते हैं,
क्योंकि
चुप रहने में
कई बातें
प्रकट हो जाती
हैं। अगर आप
किसी के पास
बैठे हैं और
आपको उस पर
क्रोध आ रहा
है, अगर आप
चुप बैठे रहें
तो प्रकट हो
जाएगा। अगर आप
पूछने लगें, मौसम कैसा
है? तो वह
आदमी आपकी
बातचीत में लग
जाएगा और आप
भीतर सरक
जाएंगे। अगर
आप चुपचाप
बैठे हैं, तो
आपकी असली शकल
ज्यादा देर
छिपी नहीं रह
सकती।
अगर आप
बातचीत कर रहे
हैं,
तो आप धोखा
दे सकते हैं।
बातचीत एक बड़ा
पर्दा बन जाती
है। और जब हम
बातचीत मै
कुशल हो जाते
हैं, जब हम
दूसरे को धोखा
देने में कुशल
हो जाते हैं, तो अंतत: हम
अपने को धोखा
देने में सफल
हो जाते हैं।
ऋषि
कहता है, मेरी
वाणी मेरे मन में
ठहर जाए।
मैं जो
हूं वही मेरी
वाणी में हो, अन्यथा
नहीं। कठिन
होगी साधना।
इसीलिए तो
प्रार्थना
करता है; क्योंकि
वह भी जानता
है, यह
साधना कठिन है।
परमात्मा साथ
दे तो शायद हो
जाए।
अस्तित्व साथ
दे तो शायद हो
जाए। समस्त
शक्तियां अगर
साथ दें तो
शायद हो जाए।
अन्यथा कठिन
है।
फिर
दूसरी बात
कहता है कि...
मेरी वाणी
मेरे मन में
ठहर जाए; दूसरी
बात कहता है, मेरा मन
मेरी वाणी में
ठहर जाए।
यह और
भी कठिन है।
मन का वाणी
में ठहरने का
अर्थ यह है कि
जब मैं बोलूं
तभी मेरे भीतर
मन हो! और जब
मैं न बोलूं
तो मन भी न रह
जाए। ठीक भी
यही है। जब आप
चलते हैं तभी
आपके पास पैर
होते हैं। आप
कहेंगे, नहीं,
जब नहीं
चलते हैं तब
भी पैर होते
हैं। लेकिन
उनको पैर कहना
सिर्फ
कामचलाऊ है।
पैर तो वही है
जो चलता है। आंख
तो वही है जो
देखती है। कान
तो वही है जो
सुनता है। तो
जब हम कहते
हैं अंधी आंख,
तो हम बड़ा
गलत शब्द कहते
हैं, क्योंकि
अंधी आंख का
कोई मतलब ही
नहीं होता।
अंधे का मतलब
होता है, आंख
नहीं। आंख का
मतलब होता है आंख,
अंधे का
मतलब होता है आंख
नहीं। लेकिन
जब आप आंख बंद
किए होते हैं
तब भी—आप आंख
का उपयोग अगर
न कर रहे हों
तो—आप बिलकुल
अंधे होते हैं।
आंख का जब
उपयोग होता है
तभी आंख आंख
है। फंक्यानल
हैं, सब
नाम फंक्यानल
हैं, उनकी
क्रियाओं से
जुड़े हुए हैं।
एक
पंखा रखा हुआ
है,
तब भी हम
उसे पंखा कहते
हैं। कहना
नहीं चाहिए।
पंखा हमें उसे
तभी कहना
चाहिए जब वह
हवा करता हो।
नहीं तो पंखा
नहीं कहना
चाहिए। तब वह
सिर्फ बीज रूप
से पंखा है।
उसका मतलब यह
है पंखा कहने
का कि हम
चाहें तो उससे
हवा कर सकते
हैं। बस इतना
ही। लेकिन अगर
आप एक पुट्ठे
की दस्ती
उठाकर हवा करने
लगें तो दस्ती
पंखा हो जाती
है। अगर आप एक
किताब से हवा
करने लगें तो
किताब पंखा हो
जाती है। और
अगर मैं किताब
फेंककर आपके
सिर में मार
दूं तो किताब
पत्थर हो जाती
है। सब चीजों
का नाम
फैक्यानल है।
लेकिन अगर हम
इस तरह नाम
चलाएं तो बहुत
मुश्किल हो
जाए। इसलिए हम
फिक्स, स्थिर
नाम रख लेते
हैं।
जब
वाणी के लिए
जरूरत हो
बोलने की, तभी
मन को होना
चाहिए बाकी
समय नहीं होना
चाहिए। पर हम
तो ऐसे हैं कि
कुर्सी पर
बैठे रहते हैं
तो टांगें
हिलाते रहते
हैं। कोई पूछे
कि क्या कर
रहे हैं आप, तो रुक जाते
हैं। क्या
करते थे आप? बैठे—बैठे
चलने की कोशिश
कर रहे थे या
टागें आपकी पागल
हो गई हैं? ठीक
ऐसे ही हम
बोलते रहते
हैं। ठीक ऐसे
ही, बाहर कोई
जरूरत नहीं
रहती है वाणी
की तो वाणी
भीतर चलती
रहती है। बाहर
नहीं बोलते तो
भीतर बोलते
हैं। दूसरे से
नहीं बोलते, तो अपने से
बोलते रहते
हैं।
ऋषि
कहता है, मेरा
मन भी वाणी
में स्थिर हो
जाए।
यह
पहली बात से
ज्यादा कठिन
बात है। इसका
अर्थ है, जब
मैं बोलूं तभी
मन हो, जब
मैं न बोलूं
तो मन भी न हो
जाए, मन भी
न हो। जैसे, जब बैठूं तो
पैर न चलें, जब सोऊं तब
शरीर खड़ा न हो, ऐसे ही जब
चुप हो जाऊं
तो मन भी शांत
और शून्य हो
जाए।
पहले
से शुरू करना
पड़ेगा। जिसने
पहला नहीं
किया, वह
दूसरा न कर
पाएगा। पहले
तो वाणी को मन
में ठहराना
पड़े। उतना ही
रह जाने दें
वाणी को जितना
मन के, स्वभाव
के अनुकूल है,
बाकी हट
जाने दें।
बाकी सब झूठ
गिर जाने दें।
बहुत
कम बचेगी वाणी।
अगर आप मन में
वाणी को घिर
करें तो नब्बे
प्रतिशत वाणी
विलीन हो
जाएगी, विदा
हो जाएगी।
नब्बे प्रतिशत
तो व्यर्थ है।
और उस व्यर्थ
से कितना
उपद्रव पैदा
होता है और
जीवन कैसा
उलझता चला
जाता है, उसका
हिसाब लगाना
कठिन है। दस
प्रतिशत
बचेगी, टेलीग्रैफिक
बच जाएगी।
आदमी
चिट्ठी लिखता
है तो लंबी
लिखता चला
जाता है। वही
आदमी
टेलीग्राम
करने जाता है
तो दस शब्दों
में लिख देता
है,
अब आठ में
ही लिखने लगा
वह। और आठ में
उतना कह देता
है जितना पूरे
पत्र में नहीं
कह पाता।
इसलिए
टेलीग्राम का
प्रभाव होता
है, वह
पत्र का नहीं
होता। असल में
लंबा पत्र वही
लिखता है जिसे
पत्र लिखना
नहीं आता। असल
में लंबी बात
वही कहता है
जिसे कहना
नहीं आता।
लिंकन
से कोई पूछ
रहा था कि जब
आप घंटाभर
व्याख्यान
देते हैं तो
आपको कितना
सोचना पड़ता है?
तो लिंकन ने
कहा, बिलकुल
नहीं। जब
घंटाभर ही
बोलना है तो
सोचने की
जरूरत क्या!
उसने पूछा, जब आपको दस
मिनट बोलना
पड़ता है? तो
लिंकन ने कहा,
काफी मेहनत
उठानी पड़ती है,
सोचना पड़ता
है। और जब दो
ही मिनट बोलना
होता है, तब
तो मैं रातभर
सो नहीं पाता।
क्योंकि उस
कचरे को हटाना
पड़ता है, हीरे
को छांटना
पड़ता है।
जब
वाणी मन में
ठहरती है तो
टेलीग्रैफिक
हो जाती है, तो
वह संक्षिप्त
हो जाती है।
ये उपनिषद ऐसे
ही लोगों ने
लिखे हैं।
इसलिए बड़े
छोटे में हो
जाते हैं।
संक्षिप्त हो
जाता है सब।
सारभूत रह
जाता है —निचोड़।
जो भी
अनावश्यक है,
वह हट जाता
है। यह पहले
करना जरूरी है,
अगर दूसरी
बात करनी हो।
पहले वाणी
काटनी पड़ेगी
व्यर्थ। जब
सार्थक वाणी
रह जाएगी तो
व्यर्थ मन के
रहने की कोई
जरूरत नहीं।
जब जरूरत होगी,
तब आप बोल
देंगे।
फिर आप
सोचते क्यों
हैं?
इतना सोचते
क्यों हैं? सोचते
इसीलिए हैं कि
आपको भरोसा
नहीं है कि आपकी
वाणी और आपके
मन के बीच में
कोई मेल है।
इसलिए पहले से
तैयारी करते
हैं कि क्या
बोलूं क्या न
बोलूं। सब
सोचते हैं।
छोटी—छोटी
बात आदमी
सोचकर जाता है।
अगर वह दफ्तर
में जा रहा है
और उसे अपने
अधिकारी से
छुट्टी लेनी
है,
तो भी वह दस
दफे रिहर्सल
कर लेता है मन
में कि क्या
कहूंगा। फिर
वह क्या कहेगा,
फिर मैं
क्या जवाब
दूंगा। वह सब
सोचकर जाता है।
अपने पर इतना
भी भरोसा नहीं
है कि वह क्या
कहेगा तो उसका
मैं जवाब दे
सकूंगा। और जब
वही जवाब न दे
सकेंगे तो आप
ही तो रिहर्सल
कर रहे हैं।
बड़े मजे की
बात यह है। आप
ही रिहर्सल कर
रहे हैं। और
खतरा यह है...।
सुना
है मैंने कि
एक नाटक का
रिहर्सल चल
रहा है। वह जो
नाटक का आयोजन
करने वाला है, वह
बड़ा परेशान है।
रिहर्सल में
कभी एक मौजूद
नहीं रहता
अभिनेता, तो
कभी
अभिनेत्री
नहीं आती, कभी
संगीतज्ञ
नहीं आता। कभी
यह नहीं आता, कभी वह नहीं
आता। वह
रिहर्सल..
सिर्फ एक
व्यक्ति
पर्दा उठाने वाला,
नियमित आया,
बाकी कोई भी
नियमित नहीं
आया। आखिरी
ग्रैडं
रिहर्सल। तो
उसने कहा, आज
मुझसे कहे
बिना नहीं रहा
जाता कि इस
पर्दा उठाने
वाले का मैं
धन्यवाद करूं।
क्योंकि आप सब
में से कोई भी
ऐसा नहीं है
जो चूका न हो, सिर्फ यह एक
आदमी है।
तो
उसने कहा, क्षमा
करें धन्यवाद
देने के पहले।
मुझे आना
मजबूरी थी, क्योंकि आज
जब नाटक होगा
तो मैं न आ
पाऊंगा।
इसलिए मैंने
कहा, कम से
कम जितना मैं
कर सकता हूं
उतना तो करूं।
आज मैं न आ
पाऊंगा, जब
नाटक आज होने
वाला है।
तो
मैंने कहा कि
आज तो मैं आ ही
नहीं पाऊंगा, वह
तो पक्का ही
है, तो कम
से कम रिहर्सल
में तो मौजूद
मैं रह ही जाऊं,
ताकि कहने
को बात न रहे।
तो वह जो रिहर्सल
आप कर रहे हैं
न जिस आदमी पर
भरोसा करके, ध्यान रखना
कि ठीक नाटक
के वक्त वह
गड़बड़ हो जाएंगे।
वहा वह न पाए
जाएंगे।
क्योंकि अगर
वह वहां पाए
जा सकते तो
रिहर्सल की
कोई जरूरत न
थी। और जब
मुझे ही कुछ
कहना है तो
तैयारी का
क्या सवाल है।
जब मैं ही
तैयारी करने
वाला, मैं
ही कहने वाला,
तो ठीक है, मैं ही कह
लूंगा। लेकिन
तैयारी इसलिए
कर रहा हूं कि
भरोसा नहीं है।
मन और
वाणी में कोई
संयोग नहीं है।
पता नहीं कि
सोचूं कुछ, कहूं
कुछ, निकल
जाए कुछ। कुछ
भी पक्का पता
नहीं है।
इसलिए ठीक सब
तैयार कर लेना
है और वाणी पर
व्यवस्था
बिठा लेनी है।
क्योंकि कहीं
शुद्ध मन, सही
मन, बीच
में प्रकट हो
जाए वाणी के, तो सब
अस्तव्यस्त
हो जाएगा।
ऋषि
कहता है, वाणी
छंट जाए, उतनी
ही रह जाए
जितनी मेरे मन
के साथ ताल—मेल
है। सच—सच, आथेंटिक,
प्रामाणिक।
और फिर प्रभु,
मेरा मन भी
मेरी वाणी में
थिर हो जाए।
मैं तभी मन का
उपयोग करूं, जब वाणी की
जरूरत हो। मैं
तूलिका तभी
उठाऊं, जब
चित्र बनाना
हो। और मैं
वीणा का तार
तभी छेडुं जब
गीत गाना हो।
मैं मन का काम
तभी करूं, जब
कुछ प्रकट
करना हो।
मन
अभिव्यक्ति
का माध्यम है, जस्ट
ए मीडियम आफ एक्सप्रेशन।
तो जब आप बोल
नहीं रहे, प्रकट
नहीं कर रहे, तब मन की कोई
भी जरूरत नहीं
है। लेकिन
हमारी आदत!
बैठे हैं, सोए
हैं, मन चल
रहा है। पागल
मन है हमारे
भीतर।
महात्मा
गांधी को
जापान से किसी
ने तीन बंदर की
मूर्तियां
भेजी थीं।
गांधी जी उनका
अर्थ
जिंदगीभर
नहीं समझ पाए।
या जो समझे वह
गलत था। और
जिन्होंने—भेजी
थीं,
उनसे भी
पुछवाया
उन्होंने
अर्थ, उनको
भी पता नहीं
था। आपने भी
वह तीन बंदर
की मूर्तियां
देखीं चित्र
में, मूर्तियां
भी देखी होंगी।
एक बंदर आंख
पर हाथ लगाए
बैठा है, एक
कान पर हाथ
लगाए बैठा है,
एक मुंह पर
हाथ लगाए बैठा
है।
गांधी
जी ने जो
व्याख्या की, वह
वही थी, जो
गांधी जी कर
सकते थे।
उन्होंने
व्याख्या की
कि बुरी बात
मत सुनो, तो
यह बंदर जो
कान पर हाथ
लगाए बैठा है,
यह बुरी बात
मत सुनो। मुंह
पर लगाए बैठा
है, बुरी
बात मत बोलो। आंख
पर लगाए बैठा
है, बुरी
बात मत देखो।
लेकिन
इससे गलत कोई
व्याख्या
नहीं हो सकती।
क्योंकि जो
आदमी बुरी बात
मत देखो, ऐसा
सोचकर आंख पर
हाथ रखेगा, उसे पहले तो
बुरी बात
देखनी पड़ेगी।
नहीं तो पता
नहीं चलेगा कि
यह बूरी बात
हो रही है, मत
देखो। तो देख
ही ली तब तक
आपने। और बुरी
बात की एक
खराबी है कि आंख
अगर थोड़ी देख
ले और फिर आंख
बंद की तो
भीतर दिखाई
पड़ती है। वह
बंदर बहुत
मुश्किल में
पड़ जाएगा।
बुरी बात मत
सुनो, सुन
लोगे तभी पता
चलेगा कि बुरी
है। फिर कान
बंद कर लेना, तो वह बाहर
भी न जा सकेगी
अब। अब वह
भीतर घूमेगी।
नहीं, यह
मतलब नहीं है।
मतलब यह है, देखो ही मत, जब तक भीतर
देखने की कोई
जरूरत न उम्र
जाए। सुनो ही
मत, जब तक
भीतर सुनना
अनिवार्य न हो
जाए। बोलो ही
मत, जब तक
भीतर बोलना
लनिवार्य न हो।
यह बाहर से
संबंधित नहीं
है। लेकिन
गांधी जी जैसे
लोग सारी
चीजें बाहर से
ही समझते हैं।
यह भीतर से
संबंधित है।
बुरी बात
को अगर मुझे
सुनने के लिए
रुकना पड़े, यह
तो बाहर वाले
पर निर्भर है,
वह कब बोल
देगा। हो सकता
है संगीत
बजाना शुरू
करे, फिर
गाली दे दे।
क्या करिएगा?
और अक्सर
गाली देना हो
तो संगीत से
शुरू करना सुविधापूर्ण
होता है। बंद
करते—करते तो
बात पहुंच
जाएगी। और यह
तो बड़ी कमजोरी
है कि बुरी
बात सुनने से
इतनी घबडाहट
हो। अगर बुरी
बात सुनने से
आप बुरे हो
जाते हैं, तो
बिना सुने आप
पक्के बुरे
हैं। इस तरह
बचाव न होगा।
लेकिन
यह मत सोचना
कि यह बात
बंदरों के लिए
है। असल में
वह जापान में
परंपरागत
बंदरों की मूर्ति
बनाई जाती है, क्योंकि
जापान में कहा
जाता रहा है
कि आदमी का मन
बंदर है। और
जो भी थोड़ा सा
मन को समझते
हैं, वे
समझते हैं कि
मन बंदर है।
डार्विन तो
बहुत बाद में
समझा कि आदमी
बंदर से ही
पैदा हुआ है।
लेकिन मन को
समझने वाले
सदा से ही
जानते रहे हैं
कि मन आदमी का
बिलकुल बंदर
है।
आपने
बंदर को उछलते—कूदते, बेचैन
हालत में देखा
है? आपका
मन उससे
ज्यादा बेचैन
हालत में, उससे
ज्यादा उछलता—कूदता
है पूरे वक्त।
अगर आपके मन
का कोई इंतजाम
हो सके और
आपकी खोपड़ी
में कुछ
खिड़कियां
बनाई जा सकें,
और बाहर से
लोग देखें तो
बहुत हैरान हो
जाएंगे कि यह
भीतर आदमी
क्या कर रहा
है! हम तो
देखते थे कि
पद्यासन लगाए शांत
बैठा है, भीतर
तो यह बड़ी
यात्राएं कर
रहा है, बड़ी
छलांगें मार
रहा है—इस
झाडू से उस
झाडू पर। और
यह भीतर चल
रहा है। यह
भीतर आदमी का
मन बंदर है।
उन
मूर्तियों का
अर्थ आपके लिए
उपयोगी होगा इस
सात दिन के
लिए। वह मत
देखो जिसे
देखने की कोई
अनिवार्यता
नहीं है। और
कैसा हम अजीब
काम कर रहे
हैं। रास्ते
पर चले जा रहे
हैं,
तो दंतमंजन
का विज्ञापन
है वह भी पढ़
रहे हैं, सिगरेट
का विज्ञापन
है वह भी पढ़
रहे हैं, साबुन
का विज्ञापन
है वह भी पढ़
रहे हैं। जैसे
पढ़ाई—लिखाई
आपकी इसीलिए
हुई थी।
अमरीका
का एक बहुत
विचारशील
व्यक्ति एक
रास्ते से
गुजर रहा है, चौराहे
से। वह आदमी.
सोच—विचार की
गहराइयों में
जा सके...।
चौराहे पर
देखा उसने
इतना प्रकाश
और इतने प्रकाश
से जले हुए
विज्ञापन कि
उसने कहा, हे
परमात्मा, अगर
मैं गैर पढ़ा—लिखा
होता तो रंगों
का मजा ले
सकता। अगर गैर
पढ़ा—लिखा होता
तो रंगों का
मजा ले सकता, इतना रंग—बिरंगापन,
लेकिन पढ़
क्या गया, खोपड़ी
पकी जा रही है।
जलते हुए
विज्ञापन और
लक्स टायलेट
सोप और पनामा
सिगरेट सरस
सिगरेट छे, सब पढ़े जा
रहे हैं वह, खोपड़ी में
कुछ भी कचरा
डाला जा रहा
है।
आप
अपने मालिक
नहीं इतने भी, अपनी
आंख के भी कि
कचरे को भीतर
न जाने दें।
अनिवार्य हो
उसे देखें, तो आपकी आंख
का जादू बढ़
जाएगा। देखने
की दृष्टि बदल
जाएगी।
क्षमता और
शक्ति आ जाएगी।
अनिवार्य हो
उसे सुनें, तो आप सुन
पाएंगे।
सुना
है मैंने
फ्रायड के
संबंध में।
क्योंकि
फ्रायड का जो
मनोविश्लेषण
है,
उसमें तो
मरीज घंटों
बोलता है और
मनोवैज्ञानिक
को उसके पीछे
बैठकर सुनना
पड़ता है।
फ्रायड का हो
गया और एक
जवान
मनोवैज्ञानिक
उसके पास
शिक्षा पा रहा
है। वह तीन
घंटे में एक
मरीज उसको
हलाकान कर
देता है—जवान
मनोचिकित्सक
को। और फ्रायड
सुबह से लेकर
रात, आधी
रात तक सुनता
रहता है दस—दस
घंटे, लेकिन
ताजा का ताजा
बाहर निकलता
है।
एक दिन
दोनों रास्ते
पर सीढ़ियों पर
मिल गए तो जवान
शिष्य ने कहा
कि मैं हैरान
हूं। एक मरीज
मुझे पस्त कर
देता है। तीन
घंटे फालों को
सुनना, खोपड़ी
पक जाती है। और
आप हैं कि
सुबह से रात
तक सुन लेते
हैं और इस उम्र
में, और जब
देखो तब ताजे
बाहर निकलते
हैं। तो
फ्रायड ने कहा,
हू लिसेन्स?
सुनता कौन
है? वे
बोलते हैं, हम अपना कान...
सुनता कौन है!
नहीं तो थक ही
जाओगे। तो
उसने कहा, आप
कह क्या रहे
हैं! अगर
सुनते नहीं तो
उससे बकवास
करवाते क्यों
हैं? उसको
बकवास करने से
राहत मिल
जाएगी। निकाल
लेगा कचरा
दिमाग का।
क्योंकि
अब तो आपको
प्रोफेशनल
सुनने वाले खोजने
पड़ेंगे।
ट्रेडीशनल
सुनने वाले गए।
न पत्नी सुनने
को राजी है, न
बेटा सुनने को
राजी है, न
पति सुनने को
राजी है, न
बाप सुनने को।
कोई बकवास
सुनने को राजी
नहीं है।
प्रोफेशनल!
इसलिए सारे
पश्चिम में, यूरोप में, अमरीका में
प्रोफेशनल्स...
यह
मनोवैज्ञानिक
जो है बेचारा,
उसका कुल
धंधा इतना है
कि आपकी बकवास
सुनता है, उसके
पैसे लेता है।
बकवास सुनाकर
आपको राहत
मिलती है। आप
घर आ जाते हैं।
आप समझते हैं
चिकित्सा हो
रही है। दो—तीन
साल बकवास
करके आप थक
जाते हैं, शांत
हो जाते हैं।
बस, और कोई
शांति नहीं
मिलती। लेकिन
तीन साल अगर
कचरा निकालने
का मौका मिले,
और कोई आदमी
सहानुभूति से
सुने, इसकी
बड़ी इच्छा
रहती है।
इसलिए तो हम
एक—दूसरे को
पकड़ते रहते हैं।
मिला कोई कि
हमने शुरू
किया, अपने
दुख रोने।
जैसे दूसरे के
दुख कुछ कम
हैं।
अभी एक
बुढ़िया ने
मुझसे आकर कहा—वह
राजस्थान की
बुढ़िया है—उसने
मुझे आकर कहा, आखा
इंडिया में, की है सत्तर
साल की, शब्द
उसके, उसने
कहा, आखा
इंडिया में
मुझसे ज्यादा
दुखी कोई नहीं
है। फिर उसने
मेरी तरफ देखा।
आखा इंडिया
सुनकर मैं भी
थोड़ा चौंका।
तो उसने कहा
कि अगर आप न
मानें, तो
कम से कम आखा
राजस्थान में
मुझसे अधिक
दुखी कोई भी
नहीं है।
हर
आदमी यही सोच
रहा है कि
उससे अधिक
दुखी कोई भी
नहीं है। तो
जो मिल जाए
उसे सुना देने
की उत्सुकता
है,
तत्परता है।
यह सुनना, यह
बोलना, यह
देखना—यह सब
का सब शक्ति
का अपव्यय है।
तो ऋषि
कहता है, मेरी
वाणी में मेरा
मन थिर हो जाए
और हे स्वयं प्रकाश
आत्मा मेरे
समुख तुम
प्रकट होओ
हे
स्वयं प्रकाश
आत्मा मेरे
सम्मुख तुम
प्रकट होओ।
लेकिन तभी, जब
मेरी वाणी
शांत हो जाए, मेरा मन मौन
हो जाए।
क्योंकि उससे
पहले अगर
परमात्मा
आपके सामने प्रकट
हो, तो आप
पहचान न
पाएंगे। और
ध्यान रहे, परमात्मा
चौबीस घंटे
आपके सामने
प्रकट है, लेकिन
आप पहचान नहीं
पाते हैं। वह
तो पहचान आप
तभी पाएंगे जब
शांत, निर्मल
दर्पण की तरह
आप हो जाएंगे।
जब मन मौन होगा
और वाणी शून्य
होगी, तब
आप अचानक
पाएंगे कि
परमात्मा तो
सदा से मौजूद
था, मैं ही
मौजूद नहीं था
कि उसे देख
पाऊं, पहचान
पाऊं; देख
पाऊं, अनुभव
कर पाऊँ। वह
सब तरफ मौजूद
था।
इसलिए
ऋषि कहता है, जब
ऐसा हो जाए
तभी तुम प्रकट
होना, क्योंकि
तुम अगर अभी
प्रकट भी हो
जाओ तो मैं
अभी नहीं हूं।
उस प्रकट होने
का कोई अर्थ न
होगा। हम सब
उलटे लोग हैं।
इस ऋषि से जरा
अपने को तौल
लेना।
कल
स्टेशन पर जब
मुझे बंबई से
मित्र विदा दे
रहे थे। एक
मित्र ने मेरे
हाथ पकड़कर
बहुत भाव से
कहा कि हम तो
बुरे हैं, हम
तो बेचैन हैं,
हम तो
परेशान हैं, लेकिन
परमात्मा खुद
क्यों प्रकट
नहीं हो जाता।
उसको क्या
तकलीफ हो रही
है! माना कि हम
बुरे हैं और
हमसे कुछ नहीं
हो सकता, लेकिन
उसका क्या
बिगड़ जाएगा, वह प्रकट हो
जाए। हम जैसे
हैं उसी के
सामने प्रकट
हो जाए।
उन
मित्र को
समझाना
मुश्किल
पड़ेगा कि वह
प्रकट है। यह
सवाल नहीं है
कि वह प्रकट
हो जाए। वह
प्रकट है।
लेकिन आप ऐसी
बात कह रहे
हैं कि एक
अंधा आदमी या
एक आदमी जो आंख
बंद किए खड़ा
है,
वह कहता है
कि मैं तो आंख
बंद किए हुए
हूं वह तो ठीक
है, लेकिन
प्रकाश को
क्या अड़चन हो
रही है।
प्रकाश तो
प्रकट हो जाए।
हम आंख बंद किए
हैं, किए
रहें। हमारी आंख
बंद करने से
प्रकाश को
क्या लेना—देना
है! यह प्रकाश
जिद क्यों
करता है कि
तुम जब आंख
खोलोगे तब मैं
प्रकट होऊंगा!
प्रकाश की कोई
जिद नहीं है, प्रकाश
प्रकट है। जिद
आपकी है कि आप आंख
बंद किए हुए
हैं। और
प्रकाश आपको
इतना
स्वतंत्र किए
हुए है कि
आपकी आंख को
जबरदस्ती
नहीं खोलेगा।
प्रकाश अनंत
प्रतीक्षा कर
सकता है।
परमात्मा
तो प्रकट है, हम
सब तरफ से बंद
हैं। इसलिए
ऋषि ने एकदम
से नहीं कहा
कि हे प्रभु, तू प्रकट हो
जा। उसने पहले
प्राथना की, मेरी वाणी, मेरा मन! और
तब भी वह कह
रहा है, हे
स्वयं प्रकाशवान—वह
परमात्मा तो
प्रकाशवान है
ही, वह तो
स्वयं प्रकाश
है ही—मेरे
सम्मुख तुम
प्रकट होओ। उस
क्षण में, उसी
क्षण में
प्रकट होने का
कोई अर्थ है।
लेकिन वह
प्रकट होना भी
हमारी तरफ से
है, उसकी
तरफ से नहीं।
हमें तब भी जब
कोई आंख
खोलेगा तो उसे
ऐसा ही लगेगा
कि प्रकाश
प्रकट हुआ।
उसके लिए तो
हुआ ही।
प्रकाश था।
सिर्फ आंख बंद
थी।.
ऋषि
आगे कहता है, हे
वाणी और मन!
थोड़ा
सोचने जैसा है, बहुत
प्रायोगिक है।
परमात्मा से
प्रार्थना की
है, सत्ता
से प्रार्थना
की है कि मेरी
वाणी को क्षीण
कर दो, न्यून
कर दो, कम
कर दो और मन
में थिर कर दो,
और मेरे मन
को मेरी वाणी
में थिर कर दो।
लेकिन वाणी और
मन को भी कोई
चोट न पहुंच
जाए।
तो ऋषि
कहता है, हे
वाणी और मन।
तुम दोनों
मेरे ज्ञान के
आधार हो इसलिए
मेरे ज्ञान का
नाश न करो।
मैं इस ज्ञान
के अभ्यास में
ही दिन—रात
व्यतीत करता
हूं
मन और
वाणी के प्रति
भी वैमनस्य
नहीं है, शत्रुता
नहीं है, ऐसा
भाव नहीं है
कि वे दुश्मन
हैं।
इस जगत
में
जिन्होंने सच
में ही गहरी
यात्राएं की
हैं,
उन्होंने
उस सब को भी, जो मार्ग
में बाधा बनता
है, अपनी
सीडी बना लिया
है। यह हम पर
निर्भर है।
रास्ते से मैं
गुजर रहा हूं
एक पत्थर पड़ा
है। मैं छाती
पीटकर
चिल्लाता हूं
रोता हूं कि
यह अवरोध है, हिंड्रेस है।
लेकिन जो
जानता है, वह
उस पत्थर पर
पैर रखकर पार
हो जाता है।
और जब पत्थर
पर पैर रखता
है, तो जो
उसे पत्थर के
नीचे से कभी
भी दिखाई नहीं
पड़ा था, वह
पत्थर के ऊपर
चढ़कर दिखाई पड़
जाता है। तल
बदलता है।
तो मन
को गाली देने
वाले साधु—संत
बहुत ज्यादा
मिलेंगे।
लेकिन हे वाणी
और मन! ऐसे आदर
से वाणी और मन
को भी संबोधन
करने वाले ऋषि
को खोजना थोड़ा
कठिन पड़ेगा।
गांव—गांव मिल
जाएंगे वे लोग
जो कहेंगे कि
मन,
यही शैतान,
यही शत्रु!
लेकिन
ऋषि कहता है, हे
वाणी और मन!
संत
फ्रांसिस जिस
दिन मरा, तो
लोग हैरान हुए
कि उसने
परमात्मा से
प्रार्थना न
की मरते वक्त।
आंखें खोलीं
आखिरी क्षण
में। शिष्य
सोचते थे, वह
प्रभु की
प्रार्थना
करेगा। जिसने
जीवनभर
प्रार्थना
में बिताया, उसने अंतिम
क्षण में अपने
शरीर से कहा, हे मेरे प्यारे
शरीर, तूने
मुझे पूरा साथ
दिया। मैंने
तेरी अनेक बार
उपेक्षा भी की
और अनेक बार
तुझसे लड़ा भी,
फिर भी तूने
मेरा साथ न
छोड़ा। नहीं
जानता था, तब
समझता था कि
तू मेरा
दुश्मन है, जब जाना तो
पाया कि तू
मेरा साथी है।
तू मुझे
शराबघर भी
पहुंचा सकता
है, मंदिर
भी। और सदा
निर्णय मैं
लेता हूं कि
कहां जाना है,
तू सदा साथ
हो जाता है।
ऋषि कहता है, हे मेरी
वाणी!
इस जगत
में सभी कुछ
परमात्मा का
है। और जो ठीक
उपयोग करना
जानते हैं, राइट
यूज, वे
प्रत्येक चीज
को साधन बना
लेते हैं। तो
मन और वाणी भी
साधन बन सकते
हैं। तो ऋषि
कहता है, हे
वाणी और मन!
तुम दोनों
मेरे ज्ञान के
आधार हो।
इधर एक
बात और खयाल
में ले लेनी
जरूरी है। मूल—सूत्र
में शब्द
उपयोग हुआ है
वेद। हिंदी
में भी अनुवाद
किया है, तुम
मेरे वेद—ज्ञान
के आधार हो।
लेकिन मैं दो
में से एक ही
कोई शब्द
उपयोग कर सकता
हूं। क्योंकि
वेद का भी
अर्थ ज्ञान
होता है और
ज्ञान का अर्थ
भी वेद होता
है। तो वेद—ज्ञान
जैसा कोई अर्थ
नहीं होता।
वेद—ज्ञान
पुनरुक्ति है,
रिपिटीशन
है। वेद—ज्ञान
पुनरुक्ति है।
वेद का अर्थ
ज्ञान ही होता
है और ज्ञान
का अर्थ तो
वेद है। वेद
उसी से बनता
है जिससे हमारा
विद्वान बनता
है, विद्।
विद् का अर्थ
होता है जानना।
लेकिन
शास्त्रों को
जो लिखते हैं
और अनुवाद करते
हैं,
उन्हें उस
ज्ञान का बहुत
कम पता होता
है। उनका अर्थ
वेद से होता
है—वेद—संहिता,
वह किताब, वह संगृहीत
स्क्रिप्चर,
शास्त्र।
वेद का अर्थ
शास्त्र
से नहीं है।
सब शास्त्र
वेद से ही
निकलते हैं, ज्ञान
से ही निकलते
हैं। हिंदुओं
के वेद की बात
नहीं कर रहा
हूं। क्योंकि
वेद किसका हो
सकता है!
ज्ञान किसका हो
सकता है! सब
जान वेद से
निकलता है।
लेकिन कोई
शास्त्र वेद
को सीमित नहीं
कर पाते, ज्ञान
को सीमित नहीं
कर पाते।
तो मैं
न कहूंगा, वेद—ज्ञान।
ज्ञान काफी है।
और वेद इसलिए
नहीं कहता कि
वेद से तत्काल
हमें खयाल आता
है उस संहिता
का, उस
संग्रह का, जिसे हम वेद
कहते रहे हैं।
ऋषि कह
रहा है, तुम
दोनों मेरे
ज्ञान के आधार
हो।
साधारण
साधु—संन्यासी
तो लोगों को
समझाते हैं कि
मन अज्ञान का
आधार है। यह
वेद का आधार, ज्ञान
का आधार मन!
निश्चित ही।
लेकिन इसका यह
अर्थ नहीं है
कि मन से जो
ज्ञान मिलता
है, उस पर
जो रुक जाए, वह ज्ञानी
है। मन सिर्फ
एक जंपिंग
बोर्ड, एक
आधार है, जहां
से छलांग लगानी
पड़ती है अ—मन
में। उसकी हम
आगे बात
करेंगे। नो—माइंड
में। लेकिन
जिसे अ—मन में
जाना है, उसे
भी मन को ही
आधार बनाकर
जाना पड़ता है।
यहां
बड़ी भूलें
होती हैं।
भूलें ऐसी हो
जाती हैं कि
एक आदमी सीढ़ी
चढ़ता हो मकान
की,
तो हम उससे
कहें कि तू
सीढ़ी क्यों चढ़
रहा है, क्योंकि
चढ़ जाने के
बाद सीढ़ी
छोड़नी पड़ेगी।
और अगर आदमी
तर्कवादी हो,
बुद्धिवादी
हो, अपने
को
इंटलेक्यूअल
समझने की भूल
में पड़ा हो, जैसा कि
अधिक लोग पड़े
होते हैं, तो
वह राजी भी हो
सकता है। वह
कहेगा, ठीक
है, जो
सीढ़ी छोड़ ही
देनी है उसे
पकड़नी ही
क्यों, उसे
यहीं छोड़ दें।
छोड दें, लेकिन
आप नीचे ही रह
जाएंगे।
लेकिन
तर्कवादी
दूसरा रुख भी
ले सकता है।
तर्क हमेशा
डबल एजड है, दोहरी
धार है। तर्क
दूसरा रूप भी
ले सकता है।
वह यह भी कह
सकता है कि
अच्छा, तो
हम सीढ़ियां
छोड़ेंगे ही
नहीं। चढ़ेंगे
जरूर, छोड़ेंगे
नहीं। चढ़ जाए,
छत आ जाए और
वह कहे कि जिन
सीढ़ियों पर
इतनी मुश्किल से
चढ़े है, अब
उनको छोड़ देना
उचित है क्या?
और जिन
सीढ़ियों ने
इतना साथ दिया,
उनको छोड़
देना उचित है
क्या? अब
हम न छोड़ेंगे,
अब तो इन पर
ही खड़े रह
जाएंगे।
नहीं, जो
जानता है वह
सीढ़ियों पर
चढ़ता भी है और
सीढ़ियों को
छोड़ता भी है।
इस जगत में
सभी साधन
पकड़ने पड़ते
हैं और छोड़ने
पड़ते हैं।
साधन का अर्थ
ही है, जिसे
किसी स्थिति
में पकड़ना
पड़ता है और
फिर किसी
स्थिति में
छोड़ देना पड़ता
है। ध्यान भी
पकड़ेंगे और
छोड़ेंगे।
प्रार्थना भी
पकड़ेंगे और
छोड़ेंगे।
परमात्मा भी
पकड़ेंगे और
छोड़ेंगे।
अंततः उस जगह
पहुंच जाएंगे
जहां कुछ
छोड़ने को भी
नहीं बचता और
पकड़ने को भी
नहीं बचता।
वही निर्वाण
है।
तो ऋषि
कहता है, हे मन
और वाणी! तुम
मेरे ज्ञान के
आधार हो।
जो अभी
मैं जानता हूं
तुम्हारे
द्वारा ही जानता
हूं। अगर मैं
यह भी जानता
हूं कि अभी
मैं नहीं जान
पाया हूं तो
भी तुम्हारे
ही द्वारा
जानता हूं।
अगर मुझे यह
भी पता चल रहा
है कि
तुम्हारे द्वारा
मैं सब कुछ न
जान पाऊंगा, तो
यह भी
तुम्हारे
द्वारा ही
जानता हूं।
यहां
बड़ी भूलें
होती हैं, जैसे
कृष्णमूर्ति
जो कहते हैं, वह इसी
सूत्र से
संबंधित है।
इसके विपरीत
जो भूल हो
जाती है, वही
है। अगर
कृष्णमूर्ति
से पूछें कि
ध्यान करें? तो वे
कहेंगे, ध्यान!
ध्यान किसलिए?
तो आप
कहेंगे, ताकि
मन के पार चला
जाऊं।
कृष्णमूर्ति
पूछेंगे, ध्यान
करोगे किससे,
मन से? मन
से करोगे तो
मन के पार कैसे
जाओगे? तो
मन और मजबूत
हो जाएगा। तो
ध्यान मत करना।
अगर मन के पार
जाना है तो
ध्यान मत करना।
और न मालूम
कितने नासमझ
यह सोचकर
ध्यान नहीं करते
कि मन के पार
जाना है, ध्यान
कैसे करें। और
कभी भी यह
नहीं सोचते कि
न करने से मन
के पार चले गए?
न करने से
पार गए नहीं, करेंगे तो
पार जा न
सकेंगे, तब
बड़ी मुश्किल
खड़ी हो जाती
है।
तो
चालीस—चालीस
साल से
कृष्णमूर्ति
को सुनने
वालेंलोग हैं।
पता नहीं अब
वे क्या सुनते
हैं,
अब भी क्या
सुनते हैं
उनसे! वह वही
कह रहे हैं चालीस
साल से। इधर
पचास सालों
में एक ही बात
को चालीस साल
तक अगर कोई
आदमी कह रहा
है तो वे
कृष्णमूर्ति
हैं—एक ही बात
को सतत। चालीस
साल से लोग
बैठकर उनको
सुन रहे हैं
और वे के हो गए
हैं बैठे—बैठे।
ऐसे लोग हैं, जिनकी जगह
बंधी हुई है
उनकी सभा में
कि वह वहीं
खंभे के पास, तो खंभे के
पास चालीस साल
से बैठ रहा है
वह आदमी।
मेरे एक
मित्र ने कहा
कि वह एक आदमी
को देखते हैं, जो
हरी टोपी
लगाकर आता है।
अस्सी साल का
बूढ़ा है। दस
साल से तो वही
देख रहे हैं
कि उसी जगह पर
वह आकर बैठ
जाता है। फिर
वही सुनकर चला
जाता है।
अगर मन
के पार जाना
है,
तो
कृष्णमूर्ति कहते
हैं, मन से
कैसे जाओगे? ध्यान किससे
करोगे? मन
से ही करोगे, तो मन के पार
कैसे जाओगे? इसलिए ध्यान
नहीं करना। मन
के पार चले
जाओ।
लेकिन
वह सुनने वाला
कभी नहीं
पूछता कि
कृष्णमूर्ति
को किससे सुन
रहा है, मन से?
तो अगर मन
से ही सुनना
है, तो मन
के पार कैसे
जाओगे? सुनते
रहो चालीस साल,
वही बने रहोगे।
सुनोगे तो मन
से ही। सुनने
का तो और कोई
उपाय ही नहीं
है। यह मन से
ही सुनना
पड़ेगा। फिर
बड़ी हैरानी
होती है कि
अगर मन से
सुनकर कोई पार
जा सकता है, तो मन से
गुनकर क्यों
नहीं पार जा
सकता! और अगर मन
से शब्दों को
लेकर पार जा
सकता है, तो
मन से फिर
प्रयोगों को
लेकर पार
क्यों नहीं जा
सकता!
कृष्णमूर्ति
कहते हैं कि
अगर ध्यान
किया, तो मन की
कंडीशनिंग हो
जाएगी। लेकिन
चालीस साल से
एक आदमी बैठकर
तुम्हारी ये
बातें सुन रहा
है, तो
उसका मन
कंडीशंड नहीं
हो गया? यही
बातें वह
दोहराने लगा
है।
सच यह
है कि जब तक हम
मन में खड़े हैं, तब
तक मन के पार
जाने के लिए
भी मन का ही
उपयोग करना
पड़ेगा। अगर
मैं एक कमरे
में हूं माना
कि जब कमरे
में आया था तो
चलकर कमरे में
आया था, अब
मैं सोच सकता
हूं कि अगर
मुझे कमरे के
बाहर जाना है
तो कमरे में
कभी नहीं चलना
चाहिए, क्योंकि
चलकर मैं कमरे
के भीतर आया
था। लेकिन अगर
कमरे के बाहर
जाना हो तो
थोड़ा तो कमरे
में फिर से
चलना पड़ेगा।
उतना चलना
पड़ेगा, जितना
आप चलकर भीतर
आए थे। कमरे
में ही चलना पड़ेगा
उतना। फर्क एक
ही होगा कि
चेहरा दूसरी
तरफ होगा। जब
आए थे तो
दरवाजे की तरफ
पीठ कर ली थी, दीवार की
तरफ चेहरा था।
अब जाते वक्त
दरवाजे की तरफ
चेहरा होगा, दीवार की
तरफ पीठ होगी।
चलना उतना ही
पड़ेगा जितना
चलकर भीतर आए
थे।
मन के
बाहर जाने के
लिए भी मन का
उतना ही उपयोग
करना पड़ता है
जितना मन के
भीतर आने के
लिए किया था।
जो मन के भीतर
आने के लिए
करता है उसके
लिए मन अज्ञान
का आधार बन
जाता है, और जो
मन के बाहर
जाने के लिए
उपयोग करता है
उसके लिए मन
ज्ञान का आधार
बन जाता है।
इसलिए
ऋषि कहता है, तुम
दोनों मेरे
ज्ञान के आधार
हो। इसलिए
मेरे ज्ञान का
नाश न करो।
यद्यपि जब
भीतर आने का
अभ्यास मजबूत
होता है, तो
मन कहता है, बाहर जाने
की क्या जरूरत?
इसमें मन का
कोई कसूर नहीं
है। हमने ही
उसका अभ्यास
करवाया है—हमने
ही। तो मन तो
सिर्फ
यात्रिक हो
जाता है।
हम ही
रोज अपने मुंह
में सिगरेट
रखकर पीते रहे
हैं। और बड़ी
मुश्किल से
अभ्यास
करवाया, पहले
दिन पीना शुरू
किया था तो
खासी आ गई थी, तकलीफ हुई
थी। तिक्त
कड़वाहट फैल गई
थी मुंह में, सिगरेट जहर
मालूम पड़ी थी।
मन को अभ्यास
करवाते चले गए।
फ्रि सिगरेट
का अभ्यास
मजबूत हो गया।
अब हम कहते
हैं, छोड़ना
है, तो मन
कहता है, नहीं।
अब तो मजा आने
लगा। और यह
मजा हमने ही
लाया है। यह
मजा हमने ही
लाया है। मन
ने तो पहले ही
दिन कहा था कि
क्या कर रहे
हो? यह
क्या कर रहे
हो? हमने
सुना नहीं, पीए चले गए।
अब मन फिर
कहेगा कि यह
क्या कर रहे
हो? छोड़
रहे हो? अब
तो रस आने लगा,
अब मत छोड़ो।
तो मन
बाधा डालेगा
बाहर जाने में।
इसलिए ऋषि
उससे भी
प्रार्थना
करता है कि
मेरे ज्ञान का
नाश न करो। यह
भी प्रार्थना
है मन से। यह
बड़ी अदभुत है।
कभी आपने की न
होगी, पर
करेंगे तो
अदभुत अनुभव
होंगे।
जब
आपके ओंठ
सिगरेट
मांगने लगें
तो प्रयोग करके
देखना। अपने
ओंठ से
प्रार्थना
करना कि मेरे
ओंठ,
प्रार्थना
करता हूं कि
सिगरेट मत
मांगो। और अगर
यह प्रार्थना
हार्दिक है तो
ओंठ तत्काल
शिथिल हो
जाएंगे और
मांग बंद कर
देंगे।
कामवासना उठे
तो अपनी
कामवासना के
केंद्र से कहना
कि मेरे
कामवासना के
केंद्र, कामवासना
मत मांगो।
मुझे सहायता
दो। और आप
तत्काल हैरान
होंगे कि आपकी
प्रार्थना के
साथ ही काम—केंद्र
शिथिल हो
जाएगा।
पर
हमने
प्रार्थना तो
की नहीं। और
अपने ही शरीर
से प्रार्थना
करेंगे तो
अहंकार को बड़ी
पीड़ा होगी, कि
मै, और
अपने ही शरीर
से प्रार्थना
करूं! संकोच
लगेगा। लेकिन
शरीर की
गुलामी करने
में कभी संकोच
नहीं लगता! और
शरीर के पीछे—पीछे
चलने में कभी
संकोच नहीं
लगता! और शरीर
की मानकर सब
तरह की
मूढ़ताएं करने
में कभी संकोच
नहीं लगता!
लेकिन जिस
शरीर को आपने
मालिक बना लिया
है, अब आप
उसको
प्रार्थना से
ही परसुएड कर
सकते हैं।
मन तो
बन गया है
मालिक। तो ऋषि
उसे परसुएड
करता है, फुसलाता
है कि मेरे मन,
बाधा मत डाल।
मेरे ज्ञान को
नाश मत कर।
मैं रात—दिन
इसी ज्ञान में
ही तो अभ्यास
कर रहा हूं व्यतीत
कर रहा हूं तू
मुझे साथ देना।
इसका इतना ही
अर्थ है कि
जिस व्यक्ति
को परम सत्य
की खोज में
जाना हो, उसको
अपनी सारी
इंद्रियां, अपना मन, अपना
शरीर, सबके
साथ
प्रार्थना
करके सहयोग
निर्मित कर लेना
चाहिए। वह
सहयोग
निर्मित हो
जाए तो वे सब
साथी, सहयोगी,
संगी हो
जाते हैं।
अन्यथा, अकारण
ही उनसे विरोध
आएगा और बाधा
पड़ेगी।
इतना
इस सूत्र के
संबंध में। एक
दों—तीन बातें
सुबह के ध्यान
के संबंध में, क्योंकि
कल सुबह से हम
यात्रा पर
करने की
निकलेंगे। तो
तीन बातें
आपको कह देनी
हैं।
एक, जो
मैंने इस
सूत्र के
संबंध में कहा,
उसे याद
रखेंगे तो ये
तीनों बातें
एकदम समझ में
आ जाएंगी। एक,
इंद्रिय—निग्रह।
जितना कम देख
सकें, उतना
ध्यान में
गहराई आ जाएगी।
जितना कम
सुनें, जितना
कम बोलें, जितना
कम छुए, जितना
कम खाएं—इसका
खयाल करें सात
दिन। जिन
मित्रों में
समझ हो, वे
पूर्ण मौन ले
लें सात दिन
के लिए।
जिनमें
नासमझी की
मात्रा काफी
हो, वे भी
इतनी समझदारी
करें कि
अल्पतम, मिनिमम
बोलने का
संकल्प कर लें।
एकदम जरूरी
होगा, कि
मुझे प्यास
लगी, इतना
न कहकर, प्यास,
इतना ही कह
दूंगा। कागज
पर लिखकर बता
दें। गूंगे बन
जाएं, बहरे
बन जाएं, अंधे
बन जाएं—सात
दिन के लिए।
आंख के
लिए पट्टियां
सुबह आपको मिल
जाएंगी, वह आप आंख
पर पट्टियां
बांध लें।
उनको जितना बन
सके उतना
ज्यादा से
ज्यादा उपयोग
करें। राह पर
चलते वक्त
थोड़ी सी सरका
लें, चार
फीट से ज्यादा
दिखाई न पड़े।
बस, उतने
से चलने का
काम पूरा हो
जाएगा। बस्ती
में भी जाएं, तो वैसे ही
जाएं। लोग
हंसेंगे, उससे
बहुत फायदा
होगा।
हम
सबको दूसरों
पर हंसने की
आदत होती है।
हम सब कोशिश
में रहते हैं
कि किसी पर हम
हंसें। कभी इससे
उलटा करना
चाहिए।
दूसरों को भी
मौका देना
चाहिए। और ऐसी
कोशिश करनी
चाहिए कि
दूसरे आप पर
हंसें।
और
ध्यान रहे, जब
आप दूसरे पर
हंसते हैं, तो बिलकुल
मूच्छि्रत
होते हैं। और
जब दूसरे आप
पर हंसते हैं
और आप चुपचाप
बीच में खड़े
होते हैं, तो
बड़ा जागरण और
चैतन्य पैदा
होता है।
आंख पर
पट्टी बांध
लेनी है। रूई
के फोहे कल
आपको मिल
जाएंगे, वे
कान में लगा
लेने हैं। जब
यहं। मैं
बोलूंगा, तब
आपको आंख पर
पट्टी और फोहे
नहीं रखने।
ध्यान में
सुबह आपको आंख
पर पट्टी और
कान में फोहे
रखने हैं।
दोपहर
में चार से
पाच बजे तक जो
दोपहर की बैठक
होगी, उसमें
आधा घंटा
कीर्तन होगा।
सबको
सम्मिलित
होना है। आधा
घंटा कीर्तन
चलेगा, उस
कीर्तन में
बिलकुल
दीवाने और
पागल होकर नाच
और गा लेना है।
फिर आधा घंटा
मौन होगा।
कीर्तन के बाद
आधा घंटा मौन
हो जाएगा।
कीर्तन के बाद
आंख पर पट्टी
बांध लेनी है,
कान अपना
बंद कर लेना
है और मौन बैठ
जाना है।
उस आधा
घंटा मौन में
फिर कोई
अभिव्यक्ति, कोई
मैनिफेस्टेशन
नहीं। कुछ भी
नहीं। न आवाज
करनी है, न
रोना है, न
चिल्लाना है,
न हंसना है।
बिलकुल चुप, मुर्दे की
तरह पड़े रह
जाना है। वह
हंसना, चिल्लाना,
गाना, रोना—आधा
घंटा कीर्तन में
पूरा निकाल
लेना है। जो
पूरा निकाल
लेगा, वही
आधा घंटा मौन
हो पाएगा। अगर
आपने बचाया, तो वह आधा
घंटे में
निकलेगा, फिर
वह आपकी
जिम्मेवारी
है।
आधा
घंटा कीर्तन
में पूरी तरह
नाच—कूदकर
कैथार्सिस कर
लेनी है, सब
फेंक देना है
बाहर। फिर आधा
घंटा बिलकुल
मुर्दे की तरह
पड़ जाना है, बैठ जाना है।
जैसा आपका मन
हो, बैठना
हो बैठें...। उस
आधा घंटे में
कोई
अभिव्यक्ति
नहीं। कोई
आवाज नहीं, कोई हिलना—डुलना
नहीं, शरीर
का कंपन नहीं।
सब शांत कर
देना है—शरीर
भी, मन भी, वाणी भी—सब शांत
कर देना है।
thank you guruji
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