ध्यान
योग शिविर,
2
अप्रैल1972, रात्रि।
माऊंट
आबू,
राजस्थान।
सूत्र :
न
भूमिरापो न च
वह्निरस्ति न
चानिलो मेsस्ति न
चाम्बरं च।
एवं
विदित्वा
परमात्मरूपं
गुहाशयं
निष्कलमद्वितीयम्।।
23।।
समस्त
साक्षिं सद्
असद्विहीनं
प्रयाति
शुद्धं
परमात्यरूपं।।
24।।
अथ
कैवल्योपनिषइसमाप्त।
ऊँ
शांति: शांति:
शांति।
मेरे लिए
भूमि, जल, अग्रि,
वायु आकाश
कुछ नहीं है।
वही मनुष्य
मेरे शुद्ध
परमात्मस्वरूप
का
साक्षात्कार
करता है, जो
मायिक
प्रपंचों से
परे, सब के
साक्षी,
सत—असत
अर्थात अस्तित्व—अनस्तित्व
से परे, निराकार, हृदय की
गुहा में
स्थित मुझ
परमात्मा को
जान जाता है।।
23 — 24।।
इस
प्रकार
कैवल्य
उपनिषद
समाप्त होता
है।
इस
सूत्र में सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
बात समझने की
है— 'हृदय
की गुहा में
स्थित मुझ
परमात्मा को'
वही
व्यक्ति
उपलब्ध होता
है जो निराकार
को, सबके
साक्षी को, —सत—असत से
परे जो है उसे,
अस्तित्व—अनस्तित्व
से पार जो है
उसे जानने में
समर्थ हो जाता
है। सबसे पहले
या तो कोई
व्यक्ति उस
परम साक्षी को
जानने में समर्थ
हो जाए, तो
हृदय की गुहा
में प्रविष्ट
हो जाता है।
और या हृदय की
गुहा में
प्रविष्ट हो
जाए, तो उस
परम साक्षी को
जानने में
समर्थ हो जाता
है। उस परम
सत्ता को
जाननेवाला
हृदय की गुहा
में प्रवेश
पाता है, या
फिर हृदय की
गुहा में
प्रवेश
करनेवाला उस
परम सत्ता को जान
लेता है। ये
दो ही उपाय है।
इसलिए
दो ही
निष्ठाएं हैं
मनुष्य की
साधना की।
इस
देश में हमने
जीवन के सत्य
को जानने की
दो निष्ठाएं
मानी हैं। एक
का नाम है
सांख्य।
सांख्य का
अर्थ है, जो जान लेता
है उस परम
सत्ता को वह
हृदय की गुहा
में प्रविष्ट
हो जाता है।
दूसरे का नाम
है योग। योग
का अर्थ है, जो प्रविष्ट
हो जाता है
हृदय की गुहा
में वह जान
लेता है उस
परम सत्ता को।
सांख्य
शुद्ध ज्ञान
है। योग साधना
है। सांख्य
कहता है—करना
कुछ भी नहीं
है, सिर्फ
जानना है। योग
कहता है—करना
बहुत कुछ है
और तभी जानना
फलित होगा। और
यह दोनों ही
सही हैं। और
यह दोनों ही
गलत भी हो
सकते हैं। ये
निर्भर करेगा
आप पर। ये
निर्भर करेगा
साधक पर। अगर
कोई साधक
ज्ञान की
अग्रि इतनी
जलाने में समर्थ
हो कि उस
अग्रि में
उसका अहंकार
जल जाए, सिर्फ
ज्ञान की
अग्रि ही रह जाए
ज्ञान ही रह
जाए, ज्ञाता
न रहे; भीतर
कोई अहंकार का
केंद्र न रह
जाए, सिर्फ
जानना मात्र
रह जाए, बोध
रह जाए, ' अवेयरनेस'
रह जाए, चैतन्य
रह जाए, तो
कुछ भी करने
की जरूरत नहीं
है। जानने की
इस अग्रि से
ही सब कुछ हो
जाएगा। जानने
की ही चेष्टा
को करना काफी
है। जानने की
ही स्थिति को
बढ़ा लेना काफी
है। जानने में
रोज—रोज
अग्रसर होते
जाना काफी है।
होश बढ़ जाए, जागृति आ
जाए, तो
पर्याप्त है।
लेकिन
यह कभी करोड़
में एकाध आदमी
को घटना घटती
है। और जिस
आदमी को करोड़
में भी यह
घटना घटती है, वह भी न—मालूम
कितने जन्मों
की चेष्टाओं का
फल होता है।
लेकिन जब भी
सांख्य की
घटना किसी को
घटती है तो
वैसे व्यक्ति
को प्रतीत
होता है कि
सिर्फ जानना
काफी है।
जानने से ही
सब कुछ हो गया।
लेकिन उसके भी
अनंत—अनंत
जन्म पीछे हैं।
और अनंत
जन्मों में
करने की अनंत
धाराएं बही हैं।
सांख्य
योग के विपरीत
बातें करता
रहा है। करेगा।
क्योंकि
जिसको भी
सांख्य की
अवस्था उत्पन्न
होगी, उसे
लगेगा कि कुछ
और तो करना ही
नहीं पड़ता है।
सिर्फ होश से
भर जाना काफी
है। लेकिन जो
बेहोश पड़ा है, उसे होश से
भर जाना ही तो
सबसे बड़ी उलझन
की बात है।
जिसकी नींद
खुल गयी, वह
कह सकता है कि कुछ
और मुझे करना
नहीं पड़ा, नींद
खुल गयी और
मैंने प्रकाश
का दर्शन कर
लिया। लेकिन
जो सोया पड़ा
है, और
सोया ही नहीं
शराब पीकर
बेहोश पड़ा है,
जहर खाकर
बेहोश पड़ा है,
मुर्च्छित
है, उससे
हम चिल्ला—चिल्लाकर
कहते रहें कि
जागो, सिर्फ
जागना काफी है,
नींद का टूट
जाना काफी है,
कुछ करने की
जरूरत नहीं और
सत्य उपलब्ध
हो जाएगा—ये
बातें भी उसे
सुनायी नहीं
पड़ती। जो शराब
पीकर पड़ा है, पहले तो
उसके पूरे
संस्थान से
शराब को अलग
करना पड़ेगा।
जो अभी
मूर्छित है, पहले तो
उसकी मूर्छा
तोड़नी पड़ेगी,
ताकि वह सुन
सके। आंख
खोलने की बात
भी तो उसके
भीतर पहुंचनी
चाहिए।
इसलिए
सांख्य की
मान्यता
बिलकुल सही
होकर भी काम
नहीं पड़ती है।
कभी—कभी
सांख्य का कोई
एकाध
व्यक्तित्व
होता है, वह सांख्य
की बातें कहे
चला जाता है।
मेरी खुद की
मनोदशा वैसी
रही है—सांख्य
की। पंद्रह
वर्षों तक मैं
निरंतर कहा
कहता रहा कि
कुछ भी करना
जरूरी नहीं है।
सिर्फ होश से
भर जाना काफी
है। निरंतर
लोगों से कहने
के बाद मुझे
खयाल हुआ कि
उन्हें
सुनायी ही
नहीं पड़ता है।
वे सोए हुए
नहीं हैं, वे
मुर्च्छित
हैं। और उनकी
समझ में भी आ
जाता है, तब
वह समझ मात्र
बौद्धिक होती
है, ऊपर—ऊपर
होती है। शब्द
पकड़ लेते हैं,
सिद्धांत
पकड लेते हैं।
फिर उन्हीं सब
शब्दों और
सिद्धांतों
को दोहराने भी
लगते हैं।
लेकिन उनके
जीवन में कहीं
कोई रूपांतरण
नहीं होता।
तब
मुझे दिखायी
पड़ा कि सांख्य
फूल है। और जब
फूल खिलता है, तब हमें
खयाल भी नहीं
आता जड़ों का।
जड़ें छिपी पड़ी
होती हैं
अंधेरे गर्त
में, पृथ्वी
में। उसका कोई
खयाल भी नहीं
आता। लेकिन
वर्षों तक
जड़ें निर्मित
होती हैं, पौधा
निर्मित होता
है और तब कहीं
फूल खिलता है।
शायद फूल यह
कह सके कि खिल
जाना काफी है।
बस खिल ही
जाना है, और
क्या करना है!
और हवाओं में
सुगंध बिखरनी
शुरू हो जाती
है। लेकिन फूल
का खिल जाना
एक लंबी
शृंखला का हिस्सा
है। जब फूल
खिलता है तो
सारी शृंखला
भूल जाती है।
जब फूल खिलता
है तब सारी
शृंखला छिप
जाती है।
अंतिम फल जब
आता है तो उस
फल के आच्छादन
में सब कुछ
विस्मृत हो
जाता है, जो
लंबी यात्रा
है।
तब
मुझे लगना
शुरू हुआ कि
फूल खिल गया
हो, तब
तो ठीक है यह
कहना कि फूल
खिल जाना काफी
है। लेकिन फूल
न खिला हो, तो
किसी से यह
कहे चले जाना
कि फूल खिलना
काफी है, खतरनाक
भी हो सकता है।
क्योंकि वह
व्यक्ति जड़ों
को संभालने के
लिए जो कर
सकता था वह भी
नहीं करेगा।
और पौधे को
बड़ा करने के
लिए जो कर
सकता था वह भी नहीं
करेगा। और
पौधे की संभाल
जो रखनी थी वह
भी नहीं रखेगा।
अब तो वह भी यह
सोचेगा, उसकी
बुद्धि में भी
यही विचार
चक्कर काटेगा
कि खिल जाना
काफी है, खिल
जाएंगे। और
खिल भी नहीं
पाएगा।
क्योंकि
खिलना एक लंबी
शृंखला का
हिस्सा है।
वह
लंबी शृंखला
योग है।
कृष्णमूर्ति
के साथ यही
भूल पूरे जीवन
से चल रही है।
वह लोगों से
कह रहे हैं—कुछ
करने की जरूरत
नहीं है। लोग
समझ भी लेते
हैं। वैसी ही
समझ जिससे
नासमझी मिटती
नहीं। सिर्फ
छिप जाती है।
लोग समझ भी
लेते हैं कि
कुछ करना नहीं
है। तो जो कर
रहे थे वह भी
छोड़ देते हैं।
और
कृष्णमूर्ति
जिस फूल के
खिलने की बात
कर रहे हैं वह
फूल भी नहीं
खिलता। तो बड़ी
दुविधा में पड़
जाते हैं।
मेरे
पास न—मालूम
कितने लोग
उन्हें
सुननेवाले, जो
वर्षों से—चालीस
वर्ष से, तीस
वर्ष से सुनते
हैं, उन्होंने
मुझे आकर कहा कि
हम बडी मुसीबत
में हैं।
मुसीबत यह है
कि हमारी समझ
में यह बात
बिलकुल आ गयी
कि करना कुछ
भी नहीं है, यह हमारी
समझ में इतनी
आ गयी है कि अब
हम कुछ कर भी
नहीं सकते; कुछ करते
हैं, फौरन
खयाल आता है
कि करना तो
बेकार है, वह
फूल तो बिना
किये ही खिल
जाता है, वह
तो निष्प्रयास
से खिलता है, अप्रयत्न
से खिलता है, 'एफर्टलेस' है, उसमें
कोई साधना की
जरूरत नहीं है,
यह हमारी
समझ में बहुत
गहराई से आ
गयी है, अब
हम कुछ कर भी
नहीं सकते हैं,
जो करते थे
वह भी छूट गया
है, और न
करने से
कृष्णमूर्ति
जो कहते हैं
होगा उसकी कोई
झलक भी नहीं
मिलती, वह
फूल कहीं
खिलता हुआ
दिखायी भी
नहीं पड़ता। दुविधा
उनके चित्त
में घनी हो
गयी है।
क्योंकि अभी
वे उस जगह
नहीं पहुंचे
थे वृक्ष की
जहां फूल अपने—आप
खिलता है।
शायद
वे अभी जड़ें
ही हैं सिर्फ, या शायद
अंकुरित ही
हुए थे। या
सिर्फ शाखाएं
निकली थीं, पत्ते आने
शुरू हुए थे।
और अब वे कुछ
भी करने को
राजी नहीं हैं,
पानी भी
सींचने को
राजी नहीं हैं,
एक बाछ का
घेरा भी लगाने
को राजी नहीं
हैं कि पौधे
की रक्षा हो
सके, अब वे
सूरज की तरफ
उठकर सूरज को
पीने की भी
आकांक्षा
नहीं रखते हैं,
और प्राण
बेचैन हैं, फूल खिलता
नहीं, फूल
खिलने के लिए
आतुर होना
चाहता है, भीतर—प्राणों
में फूल की
पीड़ा है प्रगट
होने की—
लेकिन कुछ
करना नहीं है।
तो
एक तरफ सांख्य
की यह दुविधा
है कि सांख्य
फूल की बात
करता है और
कठिनाई खड़ी
होती है।
दूसरी तरफ योग
है। योग जड़ों
की, भूमि
की, पानी
की, सूरज
की गहन खोज
करता है।
लेकिन तब एक
खतरा वहां भी
घटित होता
दिखायी पड़ता
है। और वह
खतरा यह कि
आदमी
क्रियाओं में
ही लीन हो जाता
है। जिस फूल
के खिलने के
लिए क्रियाएं
शुरू की थीं
वह फूल तो भूल
ही जाता है, क्रियाएं
इतनी संलग्न
कर लेती हैं
कि ऐसा लगता
है इन
क्रियाओं को
करते जाना ही
जीवन है।
क्रियाएं पकड़
लेती हैं।
पतंजलि
ने योग के आठ
अंग कहे हैं, जिनमें
अंतिम तीन अंग
धारणा, ध्यान,
समाधि हैं।
महत्वपूर्ण
हैं। बाकी
पांच उनकी तरफ
ले जानेवाले
प्राथमिक चरण
हैं। समाधि
फूल है। शेष
सात उसका
वृक्ष है।
लेकिन अक्सर
योगी आसन—प्राणायाम
ही जीवन भर
करते रहते हैं।
जीवन भर वही
करते रहते हैं।
समाधि का फूल
तो भूल ही
जाता है, ये
क्रियाएं
अपने—आप में
महत्त्वपूर्ण
हो जाती हैं।
साधन साध्य बन
जाते हैं।
मार्ग ही
मंजिल मालूम
होने लगता है।
सांख्य की
भ्रांति यहां
खड़ी होती है
कि मंजिल ही
इतनी
महत्वपूर्ण
बन जाती है कि
मार्ग की कोई
जरूरत ही नहीं।
और योग की
भांति यहां
खड़ी होती है
कि मार्ग इतना
महत्त्वपूर्ण
हो जाता है कि
अगर मंजिल भी
छोड़नी पड़े
मार्ग के लिए
तो हम मार्ग
को ही पकड़ेंगे,
मंजिल को
नहीं पकड़ सकते।
क्रियाओं से
पस्त आदमी के
सामने अगर परमात्मा
भी खड़ा हो तो
वह कहेगा थोड़ी
देर रुको, मैं
पहले पूजा—पाठ
कर लूं।
योग
की एक भ्रांति
भी, यह
भ्रांति भी
हजारों लोगों
को भटकाती है—क्रियाएं
ही। सांख्य की
भांति तो कभी—कभी
पैदा होती है,
क्योंकि
सांख्य का
व्यक्तित्व
कभी—कभी पैदा
होता है।
इसलिए बहुत
लोग उस झंझट
में नहीं पड़ते।
कृष्णमूर्ति
जिंदगी भर से
बोलते हैं, लेकिन
हिंदुस्तान
में मैं नहीं
समझता कि पांच
हजार लौगों से
ज्यादा उनको
सुनने व समझने
वाले लोग हैं।
और ये पांच
हजार भी वे ही
लोग हैं जो
तीस साल से निरंतर
उनको सुने जा
रहे हैं। इनकी
जिंदगी में
कहीं कोई
क्रांति घटित
होती मालूम
नहीं होती।
हां, शब्द
इनके पास आ
जाते हैं।
क्रांतिकारी
शब्द इनके पास
आ जाते हैं।
और ये उन को
दोहराकर, दोहरा—दोहराकर
जीने लगते हैं।
और रोज—रोज
इनको खटका भी
लगा रहता है
कि वह बात
भीतर घटित
नहीं हुई है, वह फूल खिला
नहीं है।
लेकिन
योगी की
भ्रांति
ज्यादा
व्यापक है।
क्योंकि
पृथ्वी के
अधिकतम लोग जब
भी धर्म में
उत्सुक होते
हैं, तो
तत्काल
क्रिया में
उत्सुक हो
जाते हैं।
स्वाभाविक है।
क्योंकि बिना
क्रिया के
आदमी जिंदगी
में कुछ भी तो
नहीं पाता, तो धर्म को
भी पाएगा तो
क्रिया से ही
पाएगा। जैसे
धन पाया जाता
है प्रयास से,
वैसा ही
धर्म भी पाया
जाएगा। परमात्मा
को भी पाना है
तो कुछ करके
ही तो पाना
होगा। यह तर्क
सामान्यत: समझ
में आता है।
लेकिन खतरा
इसका, दूसरा
अधूरा हिस्सा
इसका खतरा है।
और वह यह कि ये
सब क्रियाएं
इतने जोर से
मन को यसित कर
लेती हैं और मन
क्रियाओं में
इतना रस लेता
है कि फिर
छोड़ना मुश्किल
हो जाता है।
मंजिल खो जाती
है, मार्ग
पकड़ जाता है।
इस
हृदय की गुहा
में पहुंचने
के लिए किया
क्या जाए?
तो
मैं आपसे कहता
हूं—सांख्य और
योग को दो
निष्ठाएं न
समझकर एक ही निष्ठा
के दो अंग
समझें। योग को
प्राथमिक और
सांख्य को
अंतिम समझें।
योग को वृक्ष
और सांख्य को
फूल समझें।
इसलिए मैं
आपको इन दोनों
को इकट्ठा जोड
देता हूं—सांख्य—योग।
करना
तो पड़ेगा कुछ।
क्योंकि जैसे
हम हैं, वहां बिना
किये नहीं हो
सकता। लेकिन
यह भी ध्यान
रखना कि अगर
करना—ही—करना
रह गया तो भी
वह घटना नहीं
घटेगी। करना
बहुत कुछ
पड़ेगा और एक
क्षण सब करना
छोड़ भी देना
पड़ेगा। जैसे
कोई सीढ़ी पर
चढ़ता है तो
चढ़ता भी है और
फिर छोड़ भी
देता है। जैसे
कोई दवा लेता
है तो बीमारी
ठीक हो जाती है
तो दवा छोड़ भी
देता है। जैसे
कोई मार्ग पर
चलता है और
मंजिल आ जाती
है तो मार्ग
छोड़ ही देता
है। छोड़ क्या
देता है, मार्ग
का मतलब ही
होता है कि
जिसको हमें
प्रतिपल
छोड़ते चलना है।
मार्ग का मतलब
ही यह होता है।
मंजिल की तरफ
बढ़ने का मतलब
है, मार्ग
को छोड़ते चलना।
रोज—रोज मार्ग
को छोडते चलना
है ताकि मंजिल
करीब आती चली
जाए। मंजिल
मार्ग पर चलकर
करीब आती है, उसका मतलब
ही यह है कि
मार्ग को
छोड्कर करीब आती
है। एक कदम
मैं चला, एक
कदम मार्ग
मैंने छोड़
दिया। तो एक
कदम मंजिल
करीब आ गयी।
मार्ग पर चलना
भी पड़ता है, मार्ग को
पकड़ना भी पड़ता
है, मार्ग
को छोडना भी
पडता है, तो
ही मंजिल आती
है।
लेकिन
हमें दो में
से एक आसान
लगती है बात
कि अगर मार्ग
को छोड़ना ही
है तो पकड़ना
क्यों? यही सांख्य
की भूल बन
जाती है। और
या फिर हमारी
समझ में आता
है कि जिसको
एक बार पकड़
लिया उसको
क्या छोड़ना!
जब पकड़ ही
लिया, तो
पकड़ ही लिया। फिर
निष्ठापूर्वक
उसको पकड़े ही
रहेंगे, फिर
छोड़ेंगे नहीं।
इससे योग की
भूल पैदा होती
है।
सांख्य, योग, दोनों
निष्ठाएं
साधक को ध्यान
में रहें, तो
हृदय की गुफा
बहुत शीघ्रता
से मिल जाती
है।
जो
भी ध्यान के
हम प्रयोग कर
रहे हैं, उनमें दोनों
का संयोग है।
सुबह के चार
चरणों में तीन
चरण योग के
हैं, चौथा
चरण सांख्य का
है। और तीन
चरण इसलिए योग
के हैं और एक
सांख्य का है,
क्योंकि
हमारा
व्यक्तित्व
का तीन चौथाई
हिस्सा सोया
पड़ा है, और
एक चौथाई ही
मुश्किल से
थोड़ा—सा चेतन
है। तो तीन
चौथाई तो हमें
श्रम करना
पड़ेगा और एक
चौथाई हमें
विश्राम करना
पड़ेगा। तीन
चौथाई मार्ग
के लिए और एक
चौथाई मंजिल
के लिए।
ध्यान
रखना, तीन
चरण ध्यान के,
प्राथमिक
तीन चरण, पहले
तीन चरण
वस्तुत: ध्यान
नहीं हैं, केवल
मूर्छा को
तोड़ने की
तैयारी हैं।
मूर्छा टूट
जाए तो चौथा
चरण ध्यान का
फलित हो सकता
है। और खयाल
रखना कि तीन
तो आपने किये
और चौथा आप
करेंगे नहीं।
चौथा होगा।
चौथे में आप
सिर्फ
विश्राम कर
रहे हैं। चौथे
का अर्थ है कि
आप अपने को
खुला छोड़ रहे
हैं; कुछ
घटता हो, तो
हम द्वार बंद
नहीं रखेंगे।
कुछ घटता हो, तो हम तत्पर
हैं। कुछ
उतरता हो, तो
हमारे भिक्षापात्र
उसे झेलने को
राजी हैं। कुछ
आता हो, तो
हम बाधा न
डालेंगे। हम
गाहक हैं चौथे
में। सब तरफ
से खुले। जो
भी बरसेगा, हमारी तरफ
से कोई रुकावट
न होगी। अगर
उसकी किरण
आएगी तो हमारे
दरवाजे बंद
नहीं पाएगी।
स्वागत का भाव
लिये हम द्वार
पर खड़े हैं, यह चौथे का
मतलब है। तीन
में हमने कुछ
किया है; चौथे
में कुछ हो, इसकी
प्रतीक्षा है।
तीन में
प्रयास है, चौथे में
प्रतीक्षा।
चौथा सांख्य
का हिस्सा है।
भूल
यह होती है कि
कुछ लोग चारों
को सांख्य का हिस्सा
बना लेते हैं, कुछ लोग
चारों को योग
का हिस्सा बना
लेते हैं। तब
हृदय की गुहा
का खुलना बहुत
मुश्किल हो
जाता है।
इस
सूत्र में दो
बात है—जो उस
शान को उपलब्ध
हो जाए उसकी
हृदय की गुहा खुल
जाती है, जिसके हृदय
की गुहा खुल
जाए वह उस शान
को उपलब्ध हो
जाता है। तो
हम दोनों को
दोनों तरफ से
ठीक से समझ
लें।
उसके
ज्ञान को हम कैसे
उपलब्ध हो
जाएं? उसका
ज्ञान कैसे
घटिता होगा? इस पूरे
कैवल्य
उपनिषद में
जगह—जगह मैंने
आपसे बात की
है कि शान को
बढ़ाने का एक
ही उपाय है कि
आपकी
प्रत्येक
क्रिया
सजगतापूर्वक
होने लगे, अमृर्छित
होने लगे।
ज्ञान को
बढ़ाने का और
कोई उपाय नहीं
है। आमतौर से
शान को बढ़ाने
का उपाय हमें
दिखता है शाख,
सिद्धांत, शब्द। वह
शान को बढ़ाने
का उपाय नहीं
है, वह
सिर्फ स्मृति
को बढ़ाने का
उपाय है। और
स्मृति और शान
में फर्क है।
स्मृति
का अर्थ है
दूसरे का जाना
हुआ, उधार।
शान का अर्थ
है अपना जाना
हुआ, निजी।
निज। जिसको हम
शान का बढ़ना
कहते हैं—हम
कहते हैं फलां
व्यक्ति के
पास बहुत
ज्ञान है—तो
अक्सर हमारा
मतलब होता है
बहुत जानकारी
है, बहुत
बड़ी स्मृति है।
शास्त्र
कंठस्थ हैं।
गीता कंठ में
है। वेद
मुखाग्र हैं।
यह शान नहीं
है। यह स्मृति
है। और स्मृति
कोई बहुत
बहुमूल्य चीज
नहीं है।
यांत्रिक है।
यंत्र भी
स्मृति रख
लेते हैं। और
जल्दी ही
यंत्र ही
स्मृति
रखेंगे, आदमी
यह बोझ
यंत्रों पर
छोड़ देगा। शान
बड़ी दूसरी
घटना है। मेरा
जाना हुआ।
मेरी प्रतीति,
मेरा अनुभव।
मेरा दर्शन।
जिसे मैंने ही
जिआ और चखा है।
मेरा स्वाद।
किसी और की दी
गयी खबर नहीं।
ज्ञान
आत्म—साक्षात्कार
है—सीधा। न
बीच में
शास्त्र हैं, न
सिद्धांत। तो ज्ञान
को बढ़ाने के
लिए अध्ययन
मार्ग नहीं है।
ज्ञान को
बढ़ाने का
मार्ग जागरण
है। जितना ही
मैं जाग अपनी
क्रियाओं में,
उतना मेरा
ज्ञान बढ़ेगा,
जगेगा।
जागने का अर्थ
है, जो: भी
कुछ मैं करूं
वह इतनी
तीव्रता से
ध्यानपूर्वक
हो कि उसमें
मूर्छा जरा भी
न रहे। कभी एक
छोटा—सा
प्रयोग करें
तब आपको पता
चलेगा कि
मूर्छा कितनी
गहरी है। कभी
अपनी घड़ी को
देखें, उसमें
सेकेंड़ का
कांटा है। तय
कर लें कि एक
मिनट तक
सेकेंड के कांटे
को होशपूर्वक
देखेंगे। एक
मिनट, ज्यादा
बड़ी बात नहीं
है। एक चक्कर
सेक्लें का
कांटा पूरा
लगाएगा।
होशपूर्वक
देखेंगे।
होशपूर्वक का
मतलब आपको
समझा दूं ताकि
आपको प्रयोग
आसान हो जाए।
यह
जो कांटा
सेक्कें का
घूम रहा है, इसको
भूलेंगे नहीं
एक मिनट तक, याद
रखेंगे-यह
सेक्लें का
कांटा जा रहा
है, जा रहा
है, जा रहा
है। साठ
सेक्कें पूरे
करेगा एक
मिनट। आप चकित
हो जाएंगे कि
साठ सेक्कें
में कम-से-कम
तीन बार आप चूक
जाएंगे। भूल
जाएंगे कि
क्या देख रहे
हैं। कोई और
ख्याल आ
जाएगा। कोई और
बात आ जाएगी।
मन कहीं एक
क्षण को छिटक
जाएगा।
कम-से-कम तीन
बार। बीस
सेक्कें भी
खींचना
मुश्किल है
जाग्रतभाव
को। तब आपको
पता चलेगा
कैसी मूर्छा
है यह! मैं साठ
सेक्तें तक एक
कांटे के
घूमने को भी
स्मरणपूर्वक
नहीं देख सकता
हूं कि देखते
वक्त मुझे याद
बनी रहे कि
मैं देख रहा
हूं कांटा घूम
रहा है। कांटा
घूमता रहेगा,
एक सेक्तें
को आप चूक
जाएंगे, तब
आपको फिर से याद
आएगा कि अरे, मैं भूल गया!
तब तक आप
देखेंगे
कांटा दो-चार
सेक्कें आगे
जा चुका। उतने
'गैप', उतने
अंतराल में आप
कहीं और चले
गये! होश यहां न
रहा।
ऐसे
कोई भी काम कर
रहे हों तो
होशपूर्वक
करने की कोशिश
करें। अलग से
समय देने की
कोई जरूरत नहीं
है। भोजन कर
रहे है तो
होशपूर्वक
करें। भोजन
चबा रहे हैं
तो होशपूर्वक
चबाएं। किसी
को पता भी
नहीं चलेगा कि
आप कोई साधना
में लगे हैं।
सांख्य की
साधना का पता
भी नहीं चलता।
सांख्य की
साधना का कोई
पता नहीं चलता
कि कोई साधना
कर रहा है कि
नहीं कर रहा
है। योग की
साधना का पता
चलता है, क्योंकि
उसमें बाहर की
क्रियाओं से
प्रयोग करना
होता है।
सांख्य की तो
अंतर्क्रिया
है। श्वास चल
रही है, इसका
ही खयाल रखें।
बुद्ध ने इस
पर बहुत जोर दिया।
बुद्ध
ने बहुत जोर
दिया है इस पर
कि आदमी चल रहा
है,
बैठा है, उठा है, लेटा
है, एक चीज
तो सतत चल रही
है, घड़ी के
कांटे की
तरह-श्वास-उसको
देखते रहें।
श्वास भीतर
गयी, तो
होशपूर्वक
भीतर ले जाएं।
श्वास बाहर
गयी तो
होशपूर्वक
बाहर ले जाएं।
चूके न मौका।
एक भी श्वास
बिना जाने न
चले। थोड़े ही
दिन में आप पाएंगे
कि आपका शान
बढ़ने लगा। ये
श्वास पर
जितना आपका
ध्यान सजग
होने लगेगा, उतना आपके
भीतर ज्ञान
बढ़ने लगेगा।
अगर आप घंटे
भर भी ऐसी
स्थिति बना
लें कि जब
चाहें घंटे भर
खास को
आते-जाते देख
लें और कोई
बाधा न पड़े, तो सांख्य
का दरवाजा
बिलकुल निकट
है। धक्का ही
देने की बात
है और खुल
जाएगा
बुद्ध
ने आस
पर-अनापानसतीयोग, श्वास
के आने-जाने
का
स्मृतियोग-इस
पर सारी, सारी
दृष्टि बुद्ध
ने इस पर खड़ी
की है। बुद्ध कहते
थे, इतना
ही कर ले
भिक्षु तो और
कुछ करने की
जरूरत नहीं
है। यह बहुत
छोटा काम
लगेगा मालूम
आपको। लेकिन
जब घड़ी के
कांटे को
देखेंगे और
साठ सेक्कें
में तीन दफे
चूक जाएंगे, तब पता
चलेगा कि आस
की इस
प्रक्रिया
में कितनी चूक
हो जाएगी। लेकिन,
शुरू करें,
तो कभी अंत
भी होता है।
प्रारंभ करें,
तो कभी
प्राप्ति भी
होती है। यह
अंतर्क्रिया है।
यह राम-राम
जपने से
ज्यादा कठिन
है। क्योंकि
राम-राम जपने
में होश रखना
आवश्यक नहीं
है। आदमी
राम-राम जपता
रहता है-यंत्रवत।
होश रखना
आवश्यक नहीं
है। और तब ऐसी हालत
बन जाती है कि
वह काम भी
करता रहता है,
राम-राम भी
जपता रहता है।
उसे न राम-राम
का पता रहता
है कि मैं जप
रहा हूं-जप
चलता रहता है,
यंत्रवत हो
जाता है।
इसलिए अगर राम-राम
भी जपना हो, तो राम-राम
जपने में
दोहरे काम करने
जरूरी हैं-जप
भी रहे, और
जप का होश भी
रहे, तो ही
फायदा है।
नहीं तो बेकार
है।
तो
बहुत लोग जप
कर रहे हैं और
व्यर्थ है।
उनके जप ने
उनकी बुद्धि
को और मंदा कर
दिया है, तीव्र
नहीं किया। और
उनके जान को
बढ़ाया नहीं, और घटाया
है। इसलिए
अक्सर आप
देखेंगे कि
राम-राम
जपनेवाले
राम-चदरिया
ओढ़े हुए लोग
बुद्धि के मामले
में थोड़े कम
ही नजर आएंगे।
शान उनका जगता
हुआ नहीं
मालूम पड़ता, और जंग खा
गया हुआ मालूम
पड़ता है। जंग
खा ही जाएगी
बुद्धि।
क्योंकि
बुद्धि का वह
जो बोध है, वह
जो ज्ञान है, वह सिर्फ
जागरण से बढ़ता
है। कोई भी
क्रिया अगर
मूर्छित की
जाए, तो
घटता है। और
हम सब
क्रियाएं
मुर्च्छित
कर रहे हैं।
उसी में हम
राम-जप भी जोड़
लेते हैं। वह
भी एक मूर्छित
क्रिया हो
जाती है।
बजाय
एक नयी क्रिया
जोड़ने के, जो
क्रियाएं चल
रही हैं उनमें
ही जागरण
बढ़ाना उचित
है। और अगर
राम की क्रिया
भी चलानी शुरू
कर दी हो, तो
उसमें भी
जागरण ले आएं।
कुछ भी करें, एक बात तय कर
लें कि उसे
जागकर करने की
सतत चेष्टा
जारी रखेंगे।
आज असफलता
होगी, कल
असफलता
होगी-कोई
चिंता नहीं
है-लेकिन हर
असफलता से
सफलता का जन्म
होता है। और
अगर अब खयाल
जारी रहा और
सतत चोट पड़ती
रही, तो एक
दिन आप अचानक
पाएंगे कि आप
किसी भी
क्रिया को
समग्र चैतन्य
में करने में
सफल हो गये
हैं। जिस दिन
आप इस चैतन्य
में सफल हो
जाएंगे, उसी
दिन सांख्य का
द्वार खुल
गया। और कुछ
भी जरूरी नहीं
है। और कोई
बाहरी क्रिया
जरूरी नहीं
है।
अंतर्गुहा
में प्रवेश हो
जाता है।
तब, तब
हम जान लेते
हैं अपने भीतर
के साक्षी को,
क्योंकि यह
जागरण की
क्रिया
साक्षी की
क्रिया है। जब
मैं जागकर कुछ
करता हूं तो
मैं साक्षी हो
जाता हूं
कर्ता नहीं
होता। जब भी
मैं सोकर कुछ
करता हूं तभी
मैं कर्ता
होता हूं और
साक्षी नहीं
होता। कुछ भी
जागकर करें-भोजन
कर रहे हैं, जागकर करें,
तब आप भोजन
करनेवाले
नहीं रह
जाएंगे। भोजन
की क्रिया को
देखनेवाले हो
जाएंगे।
रास्ते पर चल
रहे हैं, जागकर
चलें, तो
आप चलनेवाले
नहीं रह
जाएंगे; जो
चल रहा है, उसके
आप द्रष्टा और
साक्षी हो
जाएंगे।
तो
जागरण की
क्रिया बढ़ती
जाए तो आपके
भीतर साक्षी
विकसित होता
जाएगा। जिस
दिन आपके भीतर
साक्षी पूरी
तरह कर्ता से
मुक्त हो
जाएगा, कर्ता
की खोल बिलकुल
टूट जाएगी और
साक्षी का अंकुर
पूरा बाहर
निकल आएगा, उसी दिन इस
सूत्र का जो
एक हिस्सा है
वह आपके खयाल
में आ जाएगा।
'मेरे लिए
भूमि, जल, अग्रि, वायु
आकाश कुछ भी
नहीं है। वही
मनुष्य मेरे
शुद्ध परमात्मास्वरूप
का
साक्षात्कार
करता है, जो
मायिक
प्रपंचों से
परे, सबके
साक्षी, सत-असत
से परे, निराकार,
हृदय की
गुहा में
स्थित मुझ
परमात्मा को
जान लेता है। '
यह
सांख्य का, शान
का, मात्र
ध्यान का
मार्ग है।
भीतर का साक्षी
खयाल में आ
जाए, तो वह
परम साक्षी
कक्का खयाल
में आ जाता
है। क्योंकि
हमारे भीतर का
साक्षी उस परम
साक्षी का ही
फैला हुआ हाथ
है। जैसे कोई
एक छोटी-सी
पत्ती वृक्ष
पर होश से भर
जाए कि मैं
कौन हूं तो क्या
आप सोचते हैं
उसी क्षण उसे
पता नहीं चल
जाएगा कि पूरा
वृक्ष भी वही
है। क्योंकि
पत्ती सिर्फ
वृक्ष का फैला
हुआ एक
छोटा-सा अंग
है। अगर पत्ती
जग जाए और उसे
पता चल जाए
मैं कौन हूं
तो उसे यह भी
पता चल जाएगा
कि वृक्ष कौन
है। क्योंकि
मैं और वृक्ष
में तब कोई
फासला नहीं
होगा। यह मेरे
भीतर जो छिपा
हुआ प्रगट हो
रहा है, यह
उसी विराट का
फैला हुआ हिस्सा है, उसी का एक
हाथ है। अगर
मैं भीतर जाग
जाऊं अपने
साक्षी के
प्रति, तो
तत्क्षण मेरे
लिए वह विराट
साक्षी भी
अनुभव का
हिस्सा हो
जाता है।
तो
हृदय की' गुहा में
जाने का एक तो
मार्ग है ज्ञान
प्रगाढ़ होता
जाए, प्रखर
होता जाए, तीव्र
होता जाए और
ऐसा क्षण आ
जाए कि ज्ञान
की अग्रि जागरण
ही रह जाए और
भीतर इस जागरण
का कोई अहंकार
केंद्र न हो।
दूसरी
बात खयाल ले
लें इस संबंध
में। जितनी
मूर्छा होती
है उतना बड़ा
अहंकार होता है।
जितना जागरण
होता है उतना
बड़ा साक्षी
होता है। और
साक्षी और
अहंकार में
कोई संबंध
नहीं है।
साक्षी होता
है, तो
अहंकार नहीं
होता। अहंकार
होता है, तो
साक्षी नहीं
होता। वे
दोनों साथ—साथ
कभी मौजूद
नहीं होते।
इसलिए एक और
मजे का अनुभव
आप करेंगे, जब किसी
क्रिया के
प्रति आप
जागकर साक्षी
बन जाएंगे, तो उस क्षण
में आप पाएंगे
कि आप नहीं
हैं। 'मैं'
नहीं है।
अहंकार उस
क्षण अनुभव
नहीं हो सकता।
इसलिए
बुद्ध ने तो
बहुत अद्भुत
हिम्मत की बात
कही। बुद्ध ने
तो कहा है कि न
अहंकार है
वहां और न आत्मा।
क्योंकि मैं
का कोई भाव ही
नहीं रह जाता
तो किसे आत्मा
कहें? आत्मा
का मतलब होता
है, मैं।
तो बुद्ध ने
तो कहा कि जब
पूर्ण जागरण
होता है, तो
वहां कोई
आत्मा भी नहीं
है। वहां
सिर्फ जागरण
ही रह गया, जागा
हुआ कोई भी
नहीं है। यह
बहुत कीमत की
बात है।
क्योंकि जागा
हुआ अगर अभी
है वहां और
जागरण है, तब
भी अभी दो
चीजें मौजूद
रहीं। अगर
वहां अभी कोई
केन्द्र भी है
जागा हुआ तो अभी
दो चीजें
मौजूद रहीं।
तो बुद्ध ने
कहा वहां कोई
जागा हुआ नहीं
है। बस जागरण
है।
बुद्ध
का कहने का
मतलब यह है कि
जब कोई व्यक्ति
जागता है तो
बुद्ध नहीं
होता वहां कोई, बुद्धत्व
होता है।
सिर्फ जागापन
होता है।
इस
साक्षी की
अवस्था में
हृदय की गुहा
खुल जाती है।
क्योंकि हृदय
की गुहा पर जो
पत्थर है, वह
अहंकार का है।
हृदय की गुहा
पर जो बंद है
द्वार वह
अहंकार का है।
जितना सघन
मेरा 'मैं'
है, उतना
ही हृदय सिकुड़
जाता है।
इसलिए कभी
आपने खयाल
किया, साधारण
जीवन में भी
जिनका जितना 'मैं' सघन
होता है, उनके
पास हृदय उतना
ही छोटा होता
है। साधारण
जीवन में भी।
उस परम अवस्था
को हम छोड़ दें,
बुद्ध की
अवस्था को छोड़
दें, जहां
अहंकार
बिलकुल ही
नहीं होता; शायद वह
हमारी समझ में
भी न आए।
लेकिन
रोजमर्रा के
जीवन में, दैनंदिन,
हम अनुभव
करते हैं कि जिस
आदमी का 'मैं'
जितना बड़ा
होता है, उसका
हृदय उतना ही
छोटा होता है।
और जिस आदमी
का हृदय जितना
बड़ा होता है, 'मैं' उतना
ही छोटा होता
है।
इसलिए
अहंकारियों
को हृदय अपना
काटकर अलग ही कर
देना पड़ता है।
हृदय के साथ
अहंकार की
तृप्ति नहीं
हो सकती। और
जिसको ह्दय की
तृप्ति करनी
है, उसे
सारी
महत्वाकांक्षाएं
छोड़ देनी पड़ती
हैं। और सब
अहंकार की
यात्राएं बंद
कर देनी पड़ती
हैं। हृदय के
मार्ग पर
जानेवाला
आदमी
महत्वाकांक्षा
के मार्ग पर
नहीं जा सकता।
इसलिए इस जगत
में बड़ी
दुर्घटना
घटती है कि जिन
लोगों के हाथ
में शक्ति हो
तो लाभ हो, वे
लोग शक्ति के
मार्ग पर नहीं
जाते। और
जिनके हाथ में
शक्ति होने से
खतरा ही होगा,
वे ही लोग
शक्ति के
मार्ग पर जाते
हैं। जहां—जहां
शक्ति है, अहंकार
वहां—वहां
जाता है। जहां—जहां
प्रेम है, हृदय
वहां—वहां
जाता है।
प्रेम और
शक्ति का कोई
लेना—देना
नहीं है।
अहंकार
सिकोड़ देता
है हृदय को, बंद कर
देता है सब
तरफ से। क्यों?
क्या कारण
है? अहंकार
को हृदय से
क्या डर है?
अहंकार
को हृदय से डर
है। क्योंकि
हृदय दूसरे से
जुड़ने का
द्वार है। और
अहंकार दूसरे
से टूटने की
प्रक्रिया है।
मैं अलग, मैं भिन्न, यह अहंकार
की आधारशिला
है। और हृदय
दूसरे से
जोड़ता है। तू
से जोड़ता है।
अन्य से जोड़ता
है। और अगर हम
हृदय की ही
मानते चले
जाएं तो समग्र
से जोड़ देता
है। अगर हम
अहंकार की
मानते चले
जाएं तो समग्र
से तो तोड़ता
ही है, अंततः
किसी से भी
जोड़ने की हालत
नहीं रह जाती।
आदमी बिलकुल
अलग। फिर
भयंकर पीड़ा भी
होती है।
क्योंकि
जितना ही आदमी
दूसरे से टूट
जाता है, उतना
ही जीवन से
टूट जाता है।
जितना ही
दूसरे से टूट
जाता है, उतना
ही जड़ें कट
जाती हैं।
इसलिए अहंकार
अपनी पूर्ति
में ही जीवन
को दुख और नरक
से भर लेता है।
हृदय
जितना दूसरों
से जुड़ता है, उतना
आनंद से भरता
चला जाता है।
क्योंकि
दूसरों से
जुड़ना जीवन से
जुडना है और
नयी जड़ें
खोजना है। और
जिस दिन हृदय
परमात्मा से
जुड़ जाता है
अर्थात सबसे
जुड़ जाता है, उस दिन परम
जीवन से जुड़
जाता है। परम
स्रोत जीवन का
उस दिन उपलब्ध
हो जाता है।
उस स्रोत को
दुख का कोई
पता ही नहीं
है, पीडा
का कोई पता ही
नहीं है। अपने
को तोड़ लेना
ही पीड़ा है
अस्तित्व से।
और अपने को
जोड़ देना ही
आनंद है।
यह
अहंकार की
पर्त या पत्थर
या दीवाल—सजग
होते चले जाएं—बिखर
जाती है। एक
उपाय है
सांख्य की तरफ
से। कठिन है
यह। सुनने में
सरल, समझने
में सरल, उतरने
में बहुत कठिन
है। क्योंकि
मूर्छा हमारी
बीमारी है और
जागरण का उपाय
है यह। और
मूर्छा हमारा
अभ्यास है।
इसलिए कठिन है।
इसलिए कठिन है
कि हमारी
बीमारी ही
मूर्छा है। और
पद्धति है यह
जागरण की। जाग
हम सकते नहीं,
यही तो
हमारी तकलीफ
है। और जागना
इसमें उपाय है।
इसलिए बहुत
मुश्किल है।
बहुत कठिन है।
तो
दूसरे हिस्से
से भी हम समझ
लें। योग की
तरफ से क्या
मार्ग है?
योग
आपको जागने को
नहीं कहता।
योग आपको कुछ
क्रियाएं
करने को कहता
है; जिनसे
जागरण फलित
होता है। योग
आपसे सीधा
नहीं कहता जाग
जाओ, योग
आपसे कहता है
यह करो, यह
करो, यह
करो। लेकिन वे
क्रियाएं ऐसी
हैं कि उनके
करने से जागरण
पैदा होगा।
जैसे बुद्ध ने
कहा श्वास पर
ध्यान रखो। यह
सांख्य की
प्रक्रिया
हुई। योग कहता
है ध्यान की
फिकिर छोड़ो, पहले श्वास
को ही
व्यवस्थित
करो। वह
प्राणायाम है।
ध्यान की
फिकिर मत करो,
क्योंकि
ध्यान की
तुमसे आशा
नहीं है।
लेकिन तुन
तीव्र श्वास
तो ले ही सकते
हो। तो तीव्र
श्वास लो। अब
यह बहुत मजे
की बात है कि
जितनी धीमी
श्वास हो, उतना
इस पर ध्यान
रखना मुश्किल
होगा और जितनी
तीव्र श्वास
हो, ध्यान
रखना आसान
होगा। असल में
मूर्छा के लिए,
तोड़ने के
लिए कुछ इतने
तीव्र उपाय
चाहिए कि आप
चाहें तो भी
सो न सकें। आप
चाहें तो भी
सो न सकें।
इतनी गहरी चोट
आप पर होनी
चाहिए।
तो
योग कहता है
आस की तीव्र
चोट करो। इतनी
तीव्र चोट करो
कि सोना मुश्किल
हो जाए।
मूर्छा मुश्किल
हो जाए। यह
जानकर आप
हैरान होंगे
कि प्राणायाम
करनेवाले की
नींद भी कम
होती चली जाती
है। साधारण
नींद भी कम हो
जाती है, वह गहरी
मूर्छा पर चोट
लगेगी—लगेगी—साधारण
नींद भी कम हो
जाती है। और
अगर आप सतत
प्राणायाम का
प्रयोग करें
तो नींद
बिलकुल भी
समाप्त हो
सकती है।
मेरे
पास लंका से
एक भिक्षु को
लाया गया था।
उसके बहुत
इलाज किये
लेकिन कोई
उपाय नहीं बना-उसकी
नींद खो गयी
थी एक-डेढ़
वर्ष से, बिलकुल
खो गयी थी। और
कोई 'ट्रैकुलाइजर',
कोई नींद की
दवा नींद लाने
में समर्थ
नहीं होती थी,
सिर्फ वह
सुस्त पड़ जाता
था। नींद तो
नहीं आती थी
और सुस्ती
उलटे आ जाती
थी। तो नींद न
आने की तकलीफ
अलग थी और
दवाओं की
तकलीफ अलग थी।
सुबह वह
बिलकुल
लुंज-पुंज
उठता था, और
नींद तो आती
ही नहीं थी।
तो
मैने उससे
पूछा कि तुम
साधना क्या कर
रहे हो? उसने
कहा कि साधना
छोड़िये, मुझे
नींद के लिए
कुछ बताइये।
मैंने उससे
कहा कि नींद
के लिए मैं
तभी कुछ
बताऊंगा जब
मैं जान लूं
कि तुम साधना
क्या कर रहे
हो। तो उसने
कहा कि मैं ' अनापानसतीयोग'
का प्रयोग
कर रहा हूं
तीन साल से।
तो मैने उसे कहा,
उसे तुम एक
पंद्रह दिन के
लिए बंद कर
दो। उसने कहा
कि यह कैसे
मैं कर सकता
हूं! तो मैंने
कहा कि उसकी
वजह से ही
तेरी नींद
बिलकुल खो गयी
है। वह इतनी
चेष्टापूर्वक
कर रहा था और इतनी
तीव्र श्वास
लेकर अनापान'
का प्रयोग
कर रहा
था-क्योंकि
धीमी श्वास
में मुश्किल
होता है, झटके
से जाएगी, तेजी
से जाएगी, तो
खयाल रहेगा।
उसने इतनी तेज
श्वास लेनी
शुरू कर दी कि
उसकी वजह से
नींद खो गयी।
क्योंकि शरीर में
कार्बन की
मात्रा कम हो
जाए, तो
नींद खो
जाएगी।
आक्सीजन की
मात्रा बढ़ जाए
तो नींद खो
जाएगी।
योग
कहता है कि
अगर यह साधारण
नींद पर चोट
पहुंचती है, तो
उस भीतरी नींद
पर भी इससे
चोट पहुंचती
है। इसलिए
कहता है-तुम
ध्यान की
फिकिर न करो, पहले प्राण
को शुद्ध कर
लो। इतना
शुद्ध कर लो
कि प्राण के
द्वारा
मूर्छा में
जितना सहयोग
मिलता है, वह
न मिले। योग
कहता है कि
हमें आशा कम
है कि तुम
जूता सकोगे
अपनी
कामवासना की
तरफ, हम
तुम्हें ऐसे
आसन सिखाते
हैं जिनसे
तुम्हारी
कामवासना की
ऊर्जा नीचे की
तरफ बहना बंद
हो जाए। और
अगर तुम्हारी
काम-ऊर्जा ऊपर
की तरफ बहने
लगे, तो
जागना आसन हो
जाएगा।
क्या
आपने कभी खयाल
किया है कि
दुनिया में
अधिकतर लोग 'सेक्स'
का उपयोग
नींद की दवा
की तरह करते
है, कम-से-कम
पुरुष। संभोग
के बाद उनको
तत्क्षण नींद
आ जाती है।
क्योंकि
संभोग के साथ
ही शरीर की
शक्ति क्षीण हो
जाती है। उस
क्षीण अवस्था
में निद्रा
जल्दी पकड़
लेती है।
अगर
कोई व्यक्ति
अपनी
काम-ऊर्जा को
संभोग से व्यर्थ
न करे, तो उसकी
नींद कम हो
जाएगी। अगर
उसकी यह नींद
कम हो जाए तो
उसकी भीतरी
नींद को भी
चोट पहुंचना
शुरू हो
जाएगी। इसलिए
ब्रह्मचर्य
का जो उपयोग
योग ने किया
है, उसका
कोई कामवासना
से विरोध नहीं
है, उसका
केवल
काम-ऊर्जा का
एक अन्यथा
उपयोग करना है;
एक विधायक
उपयोग करना
है। लेकिन अगर
कोई सिर्फ
ब्रह्मचर्य
साधने लगे और
उस ऊर्जा का
अन्यथा उपयोग
न जानता हो, तो वह विकृत
हो जाएगा, विक्षिप्त
हो जाएगा। यही
मै कह रहा था
कि कुछ लोग
क्रियाओं से
बंध जाते है, ब्रह्मचर्य
उनके लिए
साध्य हो गया।
लक्ष्य हो गया
कि अगर
ब्रह्मचारी
हो गये तो
बहुत कुछ हो
गये।
ब्रह्मचारी
होने से कुछ
होने वाला नहीं
है।
ब्रह्मचर्य
सिर्फ प्रयोग
है एक, किसी
और प्रयोग में
प्रवेश करने
का। ऊर्जा ज्यादा
हो तो व्यक्ति
जाग सकेगा
आसानी से।
ऊर्जा कम हो
तो जल्दी सो
जाएगा और
मूर्छित हो
जाएगा।
तो
योग कहता है
कि इस ऊर्जा
पर हम सीधा
काम करें, जागरण
की हम फिकिर न
करें। ऊर्जा
बढ़ जाएगी तो आप
जागेंगे।
आपको यह अभी
घड़ी के लिए
मैंने कहा, जिस रात्रि
आप संभोग में
गये हों, उस
संभोग के बाद
इस कांटे पर
ध्यान रखने की
कोशिश करें, तो मैंने
कहा तीन दफे
तो आप छ: दफे
चूकेंगे। तब आपको
पता चलेगा कि
शरीर की ऊर्जा
का जागरण से कोई
संबंध है। आप
दो-चार-दस दिन,
पंद्रह दिन
काम-ऊर्जा को
नष्ट न किये
हों, फिर
इस घड़ी पर
ध्यान रखें।
तो हो सकता है
आप एक बार भी न
चूके। आपका
जागरण आपके
भीतर ऊर्जा की
मात्रा पर
निर्भर करता
है।
तो
योग कहता है
जागरण को हम
सीधा नहीं
छूते, हम आपकी
ऊर्जा को
बचाने की
चेष्टा करते
हैं। आसन से, प्राणायाम
से, प्रत्याहार
से। योग कहता
है कि ऊर्जा
प्रतिक्षण
नष्ट हो रही
है इंद्रियों
से। आप चौबीस
घंटे देखते
रहते है, व्यर्थ
भी देखते रहते
हैं। जब देखने
को कुछ नहीं
होता, तब
भी देखते है।
तब भी आपको
नहीं सूझता है
कि आंख बंद कर
लें। बैठे है
दरवाजे पर, सड़क चल रही
है उसी को देख
रहे हैं। लोग
आ-जा रहे हैं, उन्हीं को
देख रहे हैं।
जिस अखबार को
दो दफे पढ
चुके हैं, उसको
फिर तीसरी दफे
पढ़ रहे है।
जिन बातों को
हजार दफे कर
चुके, फिर
उन्हीं को कर
रहे है। वही
बात रोज। आप
अपनी शक्ति खो
रहे हैं।
तो
योग कहता है, प्रत्याहार।
अपनी शक्ति को
बाहर मत जाने
दो, भीतर
ले जाओ। इसके
दोहरे अंग है।
एक तो अपनी शक्ति
को व्यर्थ मत
खोओ। आंख
खोलने की
जरूरत हो तो
ही खोलो। ओंठ
खोलने की
जरूरत हो तो
ही खोलो।
सुनने की जरूरत
हो तो ही
सुनो। बोलने
की जरूरत हो
तो ही बोलो।
अन्यथा शक्ति
को बचाओ। और
अगर एक दफे
आपको खयाल आ
जाए, तो आप
खुद ही हैरान
होंगे कि
कम-से-कम आपके
सौ में से
नब्बे कृत्य
व्यर्थ थे, जिनको करने
की कोई भी
जरूरत न थी।
सौ में से नब्बे
मै कह रहा हूं
इससे ज्यादा
ही निकलेंगे।
एक दिन भी अगर
आप खयाल रखकर
चलें कि जो
जरूरी है वही
बोलूंगा, तो
आप पाएंगे कि
दिन भर में
कितना कम
बोलने की आवश्यकता
रह जाती है।
और एक और
दूसरी मजे की
बात पाएंगे कि
जो-जो आप
व्यर्थ बोलते
थे उससे और
नयी झंझटें
निकलती थीं, उनका हिसाब
लगाना
मुश्किल है।
आदमी
की नब्बे
प्रतिशत
मुसीबतें वह
जो व्यर्थ की
बातें कर लेता
है,
उससे
निकलती हैं।
किसी से कुछ
कह दिया, फिर
उसने कुछ कह
दिया, फिर
सिलसिला जारी
है, फिर
उसका अंत नहीं
होता।
व्यर्थ
की बातें हम
सुनते हैं।
अगर एक आदमी
मुझसे आकर
कहता है कि
फलां आदमी ने
आपको गाली दी, तो
मैं एकदम पूरी
आत्मा को
जगाकर सुनने
लगता हूं।
क्या जरूरत थी?
गाली ही दी
थी न। तो उससे
कहना था कि
तुमने सुन लिया
यह भी बुरा
किया।
तुम्हें उसी
वक्त कान बंद
कर लेने थे।
क्योंकि गाली
को भीतर क्यों
जाने देना! और
तुम मुझे
किसलिए
सुनाने चले आए
हो? तुम पर
किसी ने कचरा
फेंक दिया, अब तुम मुझे
और क्यों फेंक
रहे हो उस पर!
तुम्ही समझो।
हो गयी बात, समाप्त हो
गयी। व्यर्थ
सुनकर हम भीतर,
फिर काम भी
तो करना
पड़ेगा। एक
किसी ने गाली
दी है, उसको
सुन लेने से
तो निपटारा
नहीं होता।
फिर भीतर
सिलसिला चलता
है। फिर शक्ति
व्यय होती है।
और हम चौबीस
घंटे अपनी
शक्ति को इसी
तरह व्यर्थ
करते हैं।
तो
प्रत्याहार
का पहला तो
नियम यह है कि
हम शक्ति को
व्यर्थ न
करें। और
दूसरा नियम यह
है कि जहां-जहां
शक्ति मिल
सकती हो, वहां-वहां
से लें। अभी
हम जहां-जहां
खो सकते हैं, वहां-वहां
खोते हैं। आप
वृक्ष के पास
बैठे हैं, अगर
आप वृक्ष की
तरफ आंखें
एकाग्र कर लें
और अनुभव करें
कि वृक्ष से
शक्ति आपकी
तरफ प्रवाहित
हो रही है, तो
आप अपनी आंखों
को ताजा करके
वापिस
लौटेंगे।
आपकी आंखें
ताजगी, नई
जिंदगी और नया रस
लेकर वापिस आ
जाएंगी। आकाश
के नीचे लेटे
हैं, अगर
धारणा करें कि
आकाश से शक्ति
आप में प्रवाहित
हो रही है, तो
शक्ति आप में
प्रवाहित
होगी।
अब
वैज्ञानिक भी
इसको स्वीकार
कर रहे है कि
प्राण जैसी
ऊर्जा चारों
तरफ व्याप्त
है, वृक्षों
में भी, पौधों
में भी, चट्टानों
में भी, आकाश
में, तारों
में, सब
तरफ प्राण—ऊर्जा
व्याप्त है।
अगर हम गाहक
हो सकें, तो
वह प्राण—ऊर्जा
कहीं से भी
भीतर ले जायी
जा सकती है।
योग
की प्रक्रिया
यह थी कि सारा
जगत प्राण का एक
सागर है। और
हम उस प्राण
से जितना
प्राण ले सकें, वह हमें
लेते चलना
चाहिए। कभी—कभी
तो ऐसी घटनाएं
घटी हैं कि यह
प्राण लेने की
प्रक्रिया
इतनी आखिरी
सीमा पर पहुंच
गयी कि फिर
किसी और चीज
की लेने की
जरूरत ही न
रही। महावीर
ने बारह वर्ष
में केवल तीन
सौ पैंसठ दिन
खाना लिया है।
बारह वर्ष में
तीन सौ पैंसठ
दिन का मतलब
हुआ एक वर्ष।
कभी पंद्रह
दिन खाना न
लेंगे, फिर
एक दिन खाना
ले लेंगे। कभी
महीने भर खाना
न लेंगे, फिर
एक दिन खाना
ले लेंगे।
लेकिन
महावीर की
प्रतिमा आपने
देखी? वह
कोई जैनी
मुइनयों जैसे
नहीं हैं। उन
जैसी सुंदर
काया खोजनी
मुश्किल है।
उन जैसी
स्वस्थ काया
खोजनी
मुश्किल है।
वैसी काया न
बुद्ध के पास
है, न
कृष्ण के पास
है, न
क्राइस्ट के
पास है, न
राम के पास है।
असल में काया
का पूरा
सौदर्य तो तभी
पता चलता है
जब वस्त्रहीन
काया नग्र खड़ी
होती है।
हमारी काया का
सौंदर्य तो
वस्त्र का ही
होता है।
चेहरे को
देखकर हम आदमी
का पूरा अंदाज
लगाते हैं। वह
सिर्फ अंदाज
है। तो महावीर
इतना कम भोजन
लेकर इतने
स्वस्थ, इतने
ताजे क्यों
हुए? योग
की प्रक्रिया
है। महावीर की
सारी साधना
योग की है, बुद्ध
की सारी साधना
सांख्य की है।
इसलिए बुद्ध
और महावीर में
बड़ा विवाद है।
और बुद्ध और
महावीर के
अनुयायियों
में भारी संघर्ष
है। महावीर
महायोगी हैं।
उन्होंने
प्राण को सीधा
आत्मसात करना
शुरू कर दिया।
कुछ
लोग जमीन पर
कभी—कभी अचानक
ऐसे हो जाते
है। बंगाल में
एक महिला थी, प्यारी बाई।
वह उन्नीस सौ
तीस में मरी।
उसने पचास
वर्ष तक कोई
भोजन नहीं
लिया और कोई
पानी नहीं
पिया। उसका तो
सोर
चिकित्सकों
ने अध्ययन
किया।
विश्वविद्यालयों
ने उसकी फिकिर
की, उस पर
शोध हुए। उसके
पति की मृत्यु
हुई पचास साल
पहले। बस उस
दिन के बाद
उसने खाना—पानी
नहीं लिया।
आकस्मिक थी यह
घटना लेकिन वह
परिपूर्ण
स्वस्थ थी। न
केवल स्वस्थ
थी, बल्कि
उसका वजन कभी
नहीं घटा।
जितना वजन था
उसका खाना बंद
करने के दिन, उतना ही वजन
सदा रहा। और
चिकित्सक
कहते थे कि वह
पचास साल
इसीलिए जी सकी,
अन्यथा कभी
की मर जाती।
और कभी बीमार
नहीं पड़ी। हुआ
क्या उसे? चिकित्सक
भी मुसीबत में
थे कि हुआ
क्या? हो तो
जरूर कुछ रहा
है। लेकिन
क्या हो रहा
है? किसी
अशात स्रोत से
कोई जीवन—ऊर्जा
उसे उपलब्ध हो
रही है, नहीं
तो जीने का
कोई उपाय तो
है नहीं। अगर
हम देखें कि
दीये में बाती
तो जल रही है
और तेल है ही
नहीं, तो
एक ही अर्थ रह
जाता है कि
किसी अज्ञात
स्रोत से ईंधन
उपलब्ध हो रहा
है, जो
उन्हें
दिखायी नहीं
देता।
जहां
से हम ईंधन पा
रहे हैं जीवन
के लिए, वह भी अगर हम
गौर से देखें
तो हमें समझ
में आ जाएगा।
सूरज की किरण
पौधे पर पड़ती
हैं। पौधा 'फोटो
सिंथेसिस' के
द्वारा सूरज
की किरणों को
आत्मसात करता
है। पौधे के
भीतर वह सूरज
की किरण
आत्मसात होकर
विटामिन बनती
है। फल से हम
उसे लेते हैं।
तब हम उसे पचा
पाते हैं।
लेकिन अब वैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर पौधा पचा
पाता है सीधी
सूरज की किरण
को... पौधा बीच
के एजेंट का
काम करता है।
प्राण—ऊर्जा
को पौधे पचाते
हैं फिर हमारे
पचाने के
योग्य बनाते
हैं, फिर
हम उसको पचा
पाते हैं।
इसलिए हमें
वनस्पति का या
मांसाहार का
उपयोग करना
पड़ता है। कोई
पहले इसे
पचाकर
निर्मित करता
है। और इसीलिए
मांसाहार में
हमें दो एजेंट
लेने पड़ते हैं।
पहले पौधा
पचाता है, फिर
पशु उसे खाता
है, फिर
पशु के पचाए हुए
को हम पचाते
हैं।
शाकाहारी
ज्यादा
वैज्ञानिक है।
वह कहता है, जब सीधा
पौधे से पचाया
जा सकता है, तो पशु को
बीच से हटा दो।
और योग कहता
है आज नहीं कल,
अगर हम सीधे
प्राण को
पचाना सीख
जाएं तो पौधे को
भी हटा दें।
सीधी ऊर्जा को
हम ले सकें।
प्रत्याहार
के दो अंग हैं—शक्ति
को हम खोए न, और जहां—जहां
से शक्ति मिल
सकती हो उसको
लेते चले जाएं।
ऐसे योग हमारे
भीतर ऊर्जा का
इतना संघट
निर्मित कर
देता है कि
उसके भीतर
जागरण के
सिवाय उपाय
नहीं रह जाता।
फिर जागरण
घटता है। और
यह जागरण वहीं
पहुंचा देता
है, जहां
सांख्य
पहुंचाता है।
लेकिन
मैं आपसे
कहूंगा—योग और
सांख्य को
संयुक्त
व्यवस्था
मानकर चलें।
दोनों जारी
रखें। हृदय की
गुहा खोलनी है, दोनों
जारी रखें।
ज्यादा गहरे
परिणाम हणै, जल्दी
परिणाम हणै, समय कम
लगेगा, शक्ति
कम व्यय होगी।
एक तरफ ध्यान
रखें कि जागरण
बढ़ता जाए, दूसरी
तरफ ध्यान
रखें कि ऊर्जा
संगृहीत होती
चली जाए।
योग
का प्रयोग
करें, सांख्य
पर ध्यान रखें,
तो एक दिन
वह द्वार खुल
जाएगा जिसे
हृदय की गुहा
कहा है।
'इस प्रकार
कैवल्य
उपनिषद
समाप्त होता
है '।
कैवल्य
उपनिषद तो
समाप्त हो
जाना बहुत
आसान है, लेकिन
जीवन का
उपनिषद जब तक
समाप्त न हो
तब तक कैवल्य
उपनिषद के
समाप्त होने से
क्या होगा? कैवल्य
उपनिषद जहां
समाप्त होता
है, वहीं
से आपको जीवन
की एक यात्रा
शुरू करनी चाहिए।
समझने
की हमने कोशिश
की, पर
मैं आपको
समझाऊं तो वह
आपकी स्मृति
ही बनेगी।
ज्ञान नहीं हो
सकता। इसलिए
जो भी मैंने
यहां कहा है
उसे भूलकर भी
आप अपना ज्ञान
मत समझना।
सुना हुआ
समझना। उधार
समझना। किसी
ने कहा है, ऐसा
समझना।
स्मृति समझना।
यहां जो भी
मैंने कहा है,
वह आपके जान
को बढ़ाने के
लिए नहीं कहा
है। बढ़ा भी
नहीं सकता हूं
कोई नहीं बढ़ा
सकता है। यहां
जो मैंने कहा
है वह आपकी
प्यास बढ़ाने
के लिए कहा है,
ज्ञान
बढ़ाने के लिए
नहीं।
अगर
प्यास बढ़े, तो ज्ञान
की घटना किसी
दिन घट सकती
है। और अगर
जान बढ़ जाए तो
फिर घटना वह
कभी भी नहीं घटेगी।
तो आप यहां से
जान बढ़ाकर मत
लौटना। आपने
कैवल्य
उपनिषद समझ
लिया, ऐसा
सोचकर मत
लौटना। सुना,
स्मृति भी
बन गयी, लेकिन
एक दुख, एक
घाव लेकर मन
में लौटना :
इसे अभी जाना
नहीं। एक
प्यास लेकर
लौटना कि कि
कब वह क्षण
आएगा, जब
जो सुना है वह
हम भी जान
सकेंगे। और वह
क्षण ऐसे ही
बैठे—बैठे
नहीं आ जाएगा।
उसके लिए कुछ
करना होगा।
इसलिए
यहां मैं
कैवल्य
उपनिषद एक तरफ
आपको समझा रहा
था, दूसरी
तरफ आपको कुछ
करने के लिए
कह रहा था। वह
करना ही
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है। क्योंकि
वह करना बढ़ता
चला जाए, तो
किसी दिन ज्ञान
का दीया जल
सकता है। हां,
जिस दिन
ज्ञान का दीया
जलेगा उस दिन
जो मैंने कहा
है, उसकी
सार्थकता खयाल
में आएगी। अभी
तो ज्यादा—से—ज्यादा
मनोरंजन होगा।
अच्छा लगेगा।
सुखद मालूम
होगा। लेकिन
यह क्षण की
बात है।
उतरेंगे आबू
पर्वत से और
भूल जाएगा।
कहीं कोई थोड़ी—सी
गज रह जाएगी—कुछ
अच्छी बात है,
सुनी थी—उसका
कोई भी मूल्य
नहीं है।
प्यास, जलती
हुई प्यास
जगनी चाहिए।
और
ऐसा लगना
चाहिए कि अगर
यह कैवल्य
उपनिषद को
कहनेवाले ने
जाना, अगर
यह कैवल्य
उपनिषद को
बोलनेवाले ने
जाना, इस
परम गुह्य
आनंद की जो यह
खबर दी, यह
जो सुसमाचार
है, इसे
मैं भी जान
सकता हूं। इसे
जानने की मेरी
भी क्षमता है।
मैं भी मनुष्य
हूं। मेरी भी
वही संभावना
है जो किसी और
मनुष्य की है।
और इसे न
जानने से मैं
पीड़ा और दुख
और न—मालूम
कितने अनंत
नरक भोग रहा
हूं उनसे भी मुक्ति
हो सकती है।
इसे न जानने
से मैं बंधन
में पडा हूं
एक कारागृह है,
इसे जानने
से मैं भी
स्वतंत्र हो
सकता हूं। मैं
भी उड़ सकता
हूं मुक्ति
के आकाश में।
इसे न जानने
से मैं आड़ी—तिरछी
जड़ें भर रह
गया हूं कहीं
कोई फूल खिलता
नहीं मालूम
पड़ता। कहीं
कोई सुगंध
नहीं उठती। और
प्राण रिक्त
हैं, रीते
हैं। इसे
जानने से मेरे
भीतर भी वह
फूल खिल सकता
है, जिसका
नाम परमात्मा
है। वह सुगंध
बह सकती है, जिसका नाम
स्वतंत्रता
है।
यह
कैवल्य
उपनिषद उस
स्वतंत्रता
की केवल खबर है।
संकेत है, इशारा है।
यह कैवल्य
उपनिषद तो
समाप्त हुआ, यह संकेत तो
समाप्त हुआ, लेकिन
संकेतों की
सार्थकता
क्या है जब तक
कोई उन
संकेतों पर चल
न पड़े! यात्रा
पर न निकल जाए!
यहां
से एक प्यास
लेकर लौटें।
लेकिन प्यास
भी काफी नहीं
है। क्योंकि
कुछ लोग
प्यासे भी
रहें तो भी
बैठे रहते हैं।
प्रतीक्षा
करते हैं कोई
पिला दे, कोई पानी ले
आए। प्यास
काफी नहीं है,
अकेली
प्यास तो दीन
भी कर सकती है,
और उदास कर
सकती है—उससे
तो बेहतर था
प्यास ही न
होती—संकल्प
भी चाहिए। यह
जो प्यास जगे,
तो इसकी खोज
के लिए शक्ति
को लगाने का
संकल्प भी
चाहिए। एक दृढ़
इरादा भी
चाहिए। एक
श्रद्धा और एक
निष्ठा भी
चाहिए।
तो
एक संकल्प
लेकर लौटें।
और ध्यान रखें, संकल्प
को जब पूरा
करते हैं तभी
पता चलता है कि
कितनी शक्ति
मेरे भीतर
पूरा करने की
थी। जब तक
पूरा नहीं
करते, तब
तक शक्ति का
भी कोई पता
नहीं होता।
शक्ति भी, अपनी
शक्ति भी तभी
पता चलती है
जब सक्रिय
होती है। खुद
की शक्ति का
भी हमें कोई
अंदाज नहीं
होता कि हम
कितना कर सकते
हैं, और
जितना ज्यादा
हम करते हैं
उतना ही पता
चलता है कि और
भी ज्यादा कर
सकते हैं।
हर
एक कदम उठते
ही दूसरे कदम
को उठने की
शक्ति उपलब्ध
हो जाती है।
और एक—एक कदम
चलकर आदमी
हजारों मील का
रास्ता तय कर लेता
है। तो संकल्प
करके लौटें।
और संकल्प को
सक्रिय बनाएं
छोटा ही सही।
यहां से बहुत
से मित्र
संन्यास लेकर
लौट रहे हैं।
यह संन्यास का
लेना एक
संकल्प बने।
संकल्प का
अर्थ है, यह संन्यास
चौबीस घंटे
स्मरण रहने
लगे। उठते—बैठते,
चलते—बोलते,
बात करते
स्मरण रहने
लगे। इसका
स्मरण अंतर ला
देगा।
अगर
कोई गाली दे, तो पहले
स्मरण करना कि
मैं संन्यासी
हूं फिर उत्तर
देना। उत्तर
दूसरा होगा।
सिनेमा की खिड़की
के पास टिकिट
की कतार में
खड़े हों, खीसे
में हाथ डालने
के पहले—पहले
स्मरण करना
मैं संन्यासी
हूं फिर खीसे
में हाथ डालकर
टिकिट खरीदना।
सिगरेट हाथ
में आ जाए और
जलाने का मन
हो, तब
पहले सोच लेना
मैं संन्यासी
हूं फिर पीना।
पीने की मनाही
नहीं करता।
सिनेमा जाने
की मनाही नहीं
करता। शराब
पीने की मनाही
नहीं करता।
गाली देने की
मनाही नहीं
करता, चोरी
करने की मनाही
नहीं करता, बेईमानी की
मनाही नहीं
करता, सिर्फ
एक आपको बात
कहता हूं कि
कुछ भी करना
पहले याद करना
कि मैं
संन्यासी हूं
फिर करना! फिर
न हो सके तो
मेरा उसमें
कोई हाथ नहीं।
इसलिए आपको
रंग बदलने के
लिए जोर देता
हूं कि वह
आपको स्मरण
दिलाएगा।
आपका नाम
बदलता हूं कि
आपकी पुरानी
शृंखला से
संबंध टूटेगा,
एक नये
केंद्र के
आसपास नया
व्यक्तित्व
निर्मित होगा।
तो
लौटकर कुछ
करना। वह करना
ही आपको योगी
बना देगा।
ध्यान सीखा
है... बहुत मित्र
हैं यहां
ध्यान कर जाते
हैं, यहां
अनुभव भी होता
है, प्रीतिकर
भी लगता है, कहीं ऊर्जा
जाती हुई भी
मालूम पड़ती है,
फिर शिविर
के बाद शृंखला
टूट जाती है।
तो दुबारा जब
शिविर में फिर
आते हैं, फिर
अ, ब, स, से शुरू
होता है। ऐसे
तो जन्मों—जन्मों
तक शिविर में
आ—जा सकते हैं,
परिणाम
नहीं होंगें।
यहां तो हम
सीखते हैं
सिर्फ, इस
सीखे हुए को
करना है लौटकर।
करेंगे, तो
दूसरे शिविर
में आप दूसरे
आदमी आएंगे।
यह गहराई अनंत
है। छोटे—मोटे
अनुभव से
तृप्त मत हो
जाना।
प्रकाश
दिखायी पड़ जाए, सुखद है
अनुभव, लेकिन
तृप्त नहीं हो
जाना है। आनंद
भी मालूम होने
लगे, तो भी
सुखद है, तृप्त
नहीं हो जाना
है। परमात्मा
की उपस्थिति
भी मालूम होने
लगे, कीमती
है, लेकिन
तृप्त नहीं हो
जाना है। उस
समय तक तृप्त
होना ही नहीं
है जबतक कि
स्वय और
परमात्मा में
रत्तीभर का भी
फासला है, तब
तक तृप्त नहीं
होना हैं। जिस
दिन स्वयं का
होना
परमात्मा का
होना हो जाए या
परमात्मा का
होना स्वयं का
होना हो जाए, जिस दिन
हृदय की गुहा
में छिपे हुए
परमात्मा का
उद्घाटन हो
जाए, अनावरण
हो जाए, उस
समय तक तृप्त
नहीं होना है।
तब तक खोदते
ही जाना है
ध्यान से
स्वयं को, तब
तक साधते ही
जाना है योग
से स्वयं को, तब तक
निखारते ही
जाना है
सांख्य से
स्वयं को, तो
एक दिन जरूर
घटना घटती है।
वह घटना
बिलकुल ही
सुलभ है। हाथ
के भीतर है।
पर हाथ बढ़ाना
चाहिए। जीसस
ने कहा है—खटखटाओ
और द्वार खुल
जाएंगे।
लेकिन हम ऐसे
अभागे हैं कि
जन्मों—जन्मों
तक द्वार पर
बैठकर
खटखटाते भी
नहीं। जीसस ने
कहा है—मांगों
और मिल जाएगा।
लेकिन हम ऐसे
अभागे हैं कि
उसके सामने ही
खड़े रहते हैं
और मांगते भी
नहीं।
यहां
से उसके द्वार
को सतत
खटखटाने का
संकल्प लेकर
लौटना। तो जो
कैवल्य
उपनिषद आज
शब्दों में
समाप्त हो गया
है, वह
एक दिन, किसी
दिन आपके जीवन
में भी समाप्त
हो सकता है।
अब
हम रात्रि के
ध्यान के लिए
तैयार हो जाएं।
कोई
मित्र देखने आ
गये हों तो वे
चट्टान पर बैठ
जाएं। यहां
आसपास न आएं।
ध्यान
करनेवाले
मित्रों के
पास न आएं।
कैवल्य
उपनिषद समाप्त।
ओशो
ध्यान योग
शिविर,
माउंट टाबू, राजस्थान।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं