नैव वाचा न
मनसा
प्राप्तुं
शक्यो न
चक्षुषा।
अस्तीति
ब्रुवतोsन्यत्र
कथं
तदुपलभ्यते।।
12।।
अस्तीत्येवोपलब्धव्यस्तत्वभावेन
चोभयो:।
अस्तीत्येवोपलब्धस्य
तत्वभाव:
प्रसीदति।। 13।।
यदा सर्वे
प्रमुव्यन्ते
कामा येष्स्य
हृदि श्रिता।
अथ मर्त्योsमृतो
भवत्यत्र
ब्रह्म
समश्नुते।। 14।।
यदा सर्वे
प्रभिद्यन्ते
हृदयस्येह
ग्रन्धय:।
अथ
मत्योंऽमृतो
भवत्येतावद्धयनुशासनम्।।
15।।
वह
परब्रह्म
परमेश्वर न तो
वाणी से न मन
से ( और) न
नेत्रों से ही
प्राप्त किया
जा सकता है।
वह है ऐसा
कहने वालों से
अन्यत्र
भिन्न पुरुषों
को वह किस
प्रकार
उपलब्ध हो
सकता है। 12।।
(अत: उस
परमात्मा को
पहले तो) है इस
प्रकार निश्चयपूर्वक
ग्रहण करना
चाहिए अर्थात
पहले उसके
अस्तित्व का
दृढ़ निश्चय
करना चाहिए।
तदनंतर
तत्वभाव से भी
उसे प्राप्त
करना चाहिए।
इन दोनों
प्रकारों में
से वह है इस
प्रकार निश्चयपूर्वक
परमात्मा की
सत्ता को
स्वीकार करने
वाले साधक के
लिए परमात्मा
का तात्विक स्वरूप
(अपने आप
शुद्ध हृदय
में)
प्रत्यक्ष हो
जाता है।। 13।।
इस (साधक) के
हृदय में
स्थित जो
कामनाएं ( हैं), जब ( वे) सब
की सब समूल
नष्ट हो जाती
हैं तब मरणधर्मा
मनुष्य अमर हो
जाता है (और)
यहीं ब्रह्म
का भलीभांति
अनुभव कर लेता
है। 14।।
जब हृदय की
संपूर्ण
ग्रंथियां
भलीभांति खुल जाती
हैं तब वह
मरणधर्मा
मनुष्य इसी
शरीर में अमर
हो जाता है।
बस इतना ही
सनातन उपदेश
है। 15।।
कामना का
विसर्जन ही
मृत्युका
विसर्जन--
परमात्मा
के संबंध में
यह सूत्र अत्यंत
सूक्ष्म और अत्यंत
गहन है ।यह स्वाभाविक
भी है, क्योंकि
परमात्मा का
अस्तित्व
स्वयं आत्यंतिकगहराई
है। उससे गहरा
फिर कुछ और
नहीं।उससे
अंत हीन फिर
कुछ और नहीं।
उसे फिर कुछ
और लांघ नहीं
पाता, अतिक्रमण
नही कर पाता।
स्वभावत: उस
सत्य के संबंध
में जो भी कहा
जाएगा वह उतना
ही गहरा उतना
ही अंतहीन, उतना ही अनंत
होगा, जैसा
परमात्मा है।
एक
बहुत अदभुत
ईसाई फकीर हुआ
है, तर्तूलियन।
तर्तूलियन का
एक वक्तव्य
समझने जैसा है,
फिर हम इस
सूत्र में
प्रवेश करें।
तर्तूलियन
ने कहा है कि
मैं ईश्वर में
भरोसा इसलिए
करता हूं कि
ईश्वर किसी भी
तर्क से सिद्ध
नहीं होता।
बड़ा उलटा वक्तव्य
है। हम भरोसा
करते हैं उस
बात में, जो किसी
तर्क से सिद्ध
होती हो।
तर्तूलियन
कहता है, ईश्वर
में मेरा
भरोसा है, क्योंकि
वह अतर्क्य है,
वह किसी
तर्क से सिद्ध
नहीं होता।
सच
तो यह है कि
ईश्वर से
ज्यादा
अविश्वसनीय
और कुछ भी
नहीं हो सकता।
क्योंकि
ईश्वर की धारणा
असंभव है।
ईश्वर की
कल्पना ही
असंभव है। उस
दिशा में
सोचने के सब
प्रयास
व्यर्थ हो जाते
हैं। उसकी खोज
करते—करते
खोजनेवाला ही
मिट जाता है।
वह असंभव में
प्रवेश है।
तर्तूलियन
कहता है, आई बिलीव इन
गाड बिकाज गाड
इज एब्सर्ड।
तर्कहीन है।
बेबूझ है।
किसी तरह
सिद्ध नहीं
किया जा सकता,
इसीलिए ही
विश्वास करता
हूं। तब
विश्वास का
फिर और क्या
आधार होगा? विश्वास का
आधार अगर तर्क
न हो, विचार
न हो, मनन न
हो, चिंतन
न हो, तो
फिर विश्वास
का आधार सिर्फ
हृदय ही हो
सकता है।
जैसे
आप किसी के
प्रेम में पड़
जाते हैं, कोई तर्क
नहीं होता। और
अगर कोई तर्क
करने चले, तो
आप सिद्ध न कर
पाएंगे कि
आपके प्रेम का
कारण क्या है।
और जो भी
बातें आप
कहेंगे, वस्तुत:
असार होंगी।
जैसे आप
कहेंगे कि जिस
व्यक्ति को
मैं प्रेम करता
हूं वह बहुत
सुंदर है।
लेकिन किसी और
को वह सुंदर
मालूम नहीं
पड़ता, बस
आपको ही मालूम
पड़ता है। सचाई
कुछ उलटी है।
आप, सुंदर
है इसलिए
प्रेम करते
हैं, ऐसा
नहीं है। आप
प्रेम करते
हैं, इसलिए
वह व्यक्ति
सुंदर दिखाई
पड़ता है। आपके
प्रेम ने ही
उसे सुंदर बना
दिया है।
सौंदर्य कोई
वस्तुगत घटना
नहीं है, आपके
हृदय का भाव
है। हम सुंदर
को प्रेम नहीं
करते हम जिसे
प्रेम करते
हैं, वह
सुंदर हो जाता
है। प्रेम हर
चीज को सुंदर
कर देता है।
प्रेम
जिसको भी घेर
लेता है, उसे सुंदर
कर जाता है।
इसलिए प्रेमी
को प्रेयसी
सुंदर दिखाई
पड़ती है। शेष
किसी को न भी
दिखाई पड़े।
कोई तर्क
सिद्ध न कर
पाएगा कि
प्रेम क्यों
है। और जो भी
बातें अज़ा
कहेंगे, वे
पीछे से सोची
गई होंगी।
प्रेम की घटना
पहले घट जाएगी,
फिर आप
सोचेंगे, रेशनलाइज
करेंगे तर्क
खोजेंगे कि
क्यों मैं प्रेम
में हूं।
लेकिन क्या
गणित की तरह
किसी ने कभी
कोई प्रेम
किया है कि
पहले सब सोचा
हो, सब
तर्क बिठाया
हो, निष्पत्ति
निकाली हो, निष्कर्ष
हाथ में लिया
हो, फिर
प्रेम किया
हो! आदमी
प्रेम पहले
करता है, कारण
पीछे खोजता
हैं। तो जो
कारण पीछे
खोजे जाते हैं,
वे कारण हो
ही नहीं सकइrते। कारण तो
पहले खोजे
जाने चाहिए।
प्रेम
तर्क से
निष्पन्न
नहीं होता, प्रेम
हार्दिक घटना
है। और
हार्दिक घटना का
अर्थ होता है,
जिसे हम
अनुभव करते
हैं कि है, और
जिसके लिए हम
कोई उत्तर
नहीं दे सकते।
जिसे हमारे
पूरे प्राण
कहते हैं कि
है, लेकिन
जिसे हम किसी
दूसरे को समझा
नहीं सकते कि
क्यों। जिसके
लिए कोई उत्तर
नहीं दिया जा
सकता, और
फिर भी जिसके
लिए हम मरने
को तैयार हो
सकतै हैं।
हार्दिक घटना
का अर्थ यह है
जिसके लिए हम
मरने को तैयार
हो सकते हैं
और जिसके लिए
कोई तर्क पास
में नहीं होता।
निश्चित
ही, जिसके
लिए हम अपना
जीवन खो सकते
हैं, वह
हमारे जीवन से
बड़ा होगा। वह
हमारे पूरे
जीवन को घेर
लेता होगा, लेकिन उसके
लिए हम कोई
तर्क नहीं दे
पाते।
तार्किक
किसी चीज के
लिए कभी जीवन
नहीं दे सकता।
तर्क के किसी
सिलोजिज्य
में, तर्क
की किसी
प्रक्रिया
में कभी कोई
जीवन नहीं दे
सकता।
गैलेलियो
ने पहली दफा
कहा कि पृथ्वी
सूरज का चक्कर
लगाती है, सूरज
पृथ्वी का
नहीं। यह एक
तर्क
निष्पत्ति थी
और बिलकुल सही
थी। लेकिन
ईसाइयत ने
विरोध किया।
रोम खिलाफ हो
गया। सारा
ईसाइयों का
फैला हुआ जाल
गैलेलियो की
बात स्वीकार
करने को राजी
नहीं था।
क्योंकि
बाइबिल में
कहा है कि
सूरज पृथ्वी
का चक्कर
त्यग़ता है।
सारी दुनिया
के लोग मानते
रहे हैं कि
सूरज पृथ्वी
का चक्कर
लगाता है।
दिखाई भी यही
पड़ता है। सुबह
ऊगता है पूरब,
सांझ डूबता
है पश्चिम, फिर पूरब
ऊगता है, चक्कर
लगाता हुआ
मालूम पडता है।
गैलेलियो के
बाद भी सारी
दुनिया की
भाषाओं में
शब्द तो वही
हैं—सूर्योदय,
सूर्यास्त।
न तो सूर्य का
कोई उदय होता
है, न अस्त
होता है; सिर्फ
पृथ्वी चक्कर
लगाती है।
सूर्य अपनी
जगह है। न
ऊगता है, न
डूबता है।
पृथ्वी ही
उसके आसपास
घूमती है।
गैलेलियो
ने जब पहली
दफा यह बात
कही, तो
उसने तर्क से
पूरी तरह
सिद्ध कर दी।
लेकिन पोप ने
उसे बुलाया और
कहा कि तुम
क्षमा मांग लो,
अन्यथा
तुम्हारा
जीवन...
तुम्हारे
जीवन को खतरा
है। गैलेलियो
ने घुटने
टेककर क्षमा
मांग ली।
यह
बड़ी कठिन बात
रही है और
विचारशील लोग
सोचते रहे हैं
कि गैलेलियो
जैसा
प्रतिभासंपन्न
आदमी क्या
अपने जीवन के
लिए डर गया?
लेकिन
मैं सोचता हूं
कि जीवन के
लिए गैलेलियो
नहीं डरा। वह
अपना जीवन दे
सकता था, लेकिन एक
छोटे से तर्क
के लिए कौन
जीवन देने को
तैयार होता
है! इससे क्या
फर्क पड़ता है
कि पृथ्वी
सूरज का चक्कर
लगाती है कि
सूरज पृथ्वी का
चक्कर लगाता
है! गैलेलियो
क्यों जीवन दे
इस व्यर्थ की
बकवास के लिए?
यह
गैलेलियो के
लिए हार्दिक
नहीं था, बुद्धिगत
था। और उसने
देखा कि इतनी—
सी बात के लिए
कि पृथ्वी
चक्कर लगाती
है कि नहीं
लगाती है, मैं
क्यों जीवन
दूं!
मैं
मानता हूं
गैलेलियो
बुद्धिमान
आदमी था। कोई
बुद्ध होता तो
शायद मरने को
तैयार हो जाता।
क्योंकि तर्क
के लिए कोई
बुद्ध ही मर
सकता है।
तर्क! तर्क का
इतना मूल्य ही
नहीं है। गणित
की एक
निष्पत्ति के
लिए कौन अपना
जीवन देने को
तैयार होगा!
आखिर जीवन का
मूल्य बहुत ज्यादा
है।
लेकिन
एक छोटे से
प्रेम के लिए
आदमी पूरे
जीवन को दे
सकता है।
प्रेम पूरे
जीवन को घेर
लेता है; पूरे
अस्तित्व को
पकड़ लेता है।
तर्क तो केवल
बुद्धि के एक
कोने को पकड़ता
है। आज तक
बुद्धि के लिए
किसी ने जीवन
नहीं दिया है।
और जिस चीज के
लिए आप जीवन
नहीं दे सकते,
वस्तुत:
उसका जीवन से
ज्यादा मूल्य
नहीं हो सकता।
मनुष्य
के अनुभव में
प्रेम
एकमात्र
अनुभव है, जिसके
लिए वह जीवन
दे सकता है।
जो जीवन से
ज्यादा
मूल्यवान है।
लेकिन प्रेम
अतर्क्य है।
लोगों ने
परमात्मा के
लिए जीवन दिया
है। न मालूम
कितने लोग
शहीद हुए हैं
परमात्मा के लिए,
जिन्होंने
जीवन को
चुपचाप खो
दिया है।
जिन्होंने
रत्तीभर भी
शिकायत नहीं
की कि जोवन जा
रहा है।
परमात्मा कुछ
प्रेम जैसा
मामला है।
इसलिए
तर्तूलियन
ठीक कहता है
कि मानने का
कोई कारण नहीं
है, मानना
असंभव है, फिर
भी मैं
परमात्मा को
मानता हूं। यह
कुछ हार्दिक
घटना है। यह
कुछ प्रेम का
नाता है। यह
संबंध बुद्धि
से कहीं बहुत
गहराई से आ
रहा है।
अब
हम इस सूत्र
में प्रवेश
करें।
वह
परब्रह्म
परमेश्वर न तो
वाणी से न मन
से और न
नेत्रों से ही
प्राप्त किया
जा सकता है
वह
परमात्मा न तो
वाणी से... कोई
कितना ही
समझाए, उसकी समझ
नहीं आ सकती
है। कोई कितनी
ही कुश्लता से
समझाए, कोई
बिलकुल मन में
बिठा दे, ऐसा
बिठा दे कि आप
जवाब भी न दे
पाएं, आप
उत्तर भी न दे
पाएं; आपको
मानने को राजी
भी होना पड़े, क्योंकि
तर्क आपके पास
न हो, तो भी
ध्यान रहे, जब आप अतर्क
हो जाते हैं, जब आप उत्तर
नहीं दे पाते,
तब भी हृदय
अनकनविंस्ट
ही रहता है।
तब भी हृदय
राजी नहीं
होता। एक
व्यक्ति आपकी
बुद्धि को खंडित
कर सकता है, लेकिन आपके
हृदय को नहीं
छू सकता।
एक
बड़ा तार्किक
आपकी सारी
मान्यताएं
तोड़ दे, आप पराजित
भी हो जाएं, तो भी आप
राजी नहीं हो
पाते। भीतर तो
हृदय कहता ही
रहता है कि
मैं राजी नहीं
हूं। तर्क से
कभी कोई राजी
नहीं हो सकता।
हार सकता है, जीत सकता है,
लेकिन
कनविक्यान, हृदय की
आस्था तर्क से
पैदा नहीं
होती।
इंगर
सोल ने कहीं
लिखा है अपने
पत्रों में, कि आप उसी
आदमी को तर्क
से राजी कर
सकते हैं, जो
पहले से ही
राजी हो।
व्यर्थ है
तर्क। उसको ही
राजी कर सकते
हैं, जो
पहले से ही
राजी था। वह
राजी होने को
तैयार ही था।
लेकिन जौ राजी
नहीं है, उसे
तर्क से आप छू
भी नहीं सकते।
तर्क ऊपर —ऊपर
चला जाता है, वह जीवन के
गहन में
प्रवेश नहीं
करता।
वाणी
कर क्या सकती
है? ज्यादा
से ज्यादा
तर्क कर सकती
है। वाणी
मनोरंजन कर
सकती है। वाणी
प्रीतिकर लग
सकती है; काव्यात्मक
हो सकती है, सुखद मालूम
पड़ सकती है।
लेकिन वाणी के
काराग उस
अस्तित्व के
प्रति छलाँग
नहीं लग सकती।
वाणी के धनी
तो बहुत हुए
हैं। और ऐसा
भी नहीं कि
उन्होंने
नहीं जाना था।
उन्होंने
जाना हो तो भी,
तो भी वाणी
से वे किसी को
भी राजी नहीं
कर पाते।
मृद्ध की भी
सामर्थ्य
नहीं है कि
आपको शब्दों
के द्वारा
राजी कर पाएं।
बुद्ध
भी जब आपको
राजी करते हैं, तो आपको
मौन के लिए
पहले तैयारी
करवाते हैं।
वे भी समझाने
के पहले आपको शांत
और मौन कर
देते हैं। वे
भी वाणी से हल
नहीं कर पाते।
इसलिए बुद्ध
तो इस सलहा
में बहुत ही
स्पष्ट थे। वे
लोगों के
प्रश्नों के
उत्तर ही नहीं
देते थे। वे
कहते थे, इसके
पहले कि तुम्हें
उतर दू, तुम्हें
चुप होना
सीखना पड़ेगा।
एक वर्ष, दो
वर्ष, तीन
वर्ष, तुम
मेरे पास चुप
होकर रहो। जब
तूम्हारी
चूप्पी
बिलकुल पूरी
हो जाएगी, तब
मैं तुम्हें
उत्तर दे
दूंगा। लेकिन
निरंतर यह
होता कि जिस
आदमी का मौन
पूरा हो जाता,
वह फिर
प्रश्न ही न
उठाता। मौन
में ही बुद्ध
वस्तुत: उसे
उत्तर दे देते।
जो
वाणी से नहीं
कहा जा सकता, वह मौन से
कहा जा सकता
है। क्योंकि
मौन मस्तिष्क
में प्रवेश
नहीं करता, सीधे हृदय
में चला जाता
है। शब्द तो
सिर में
टकराकर लौट
जाते हैं। मौन,
मौन से बहती
हुई जीवन—
धारा अबाधरूप
से आपके हृदय
में प्रवेश कर
जाती है।
शब्द
का ज्यादा से
ज्यादा इतना
ही उपयोग हो
सकता है कि
कोई आपको मौन
करने के लिए
राजी कर ले, बस। इतना
ही शब्द से हो
जाए कि आप
निशब्द होने
को राजी हो
जाएं, तो
शब्द का काम
पूरा हो जाता
है।
लेकिन
परमात्मा
वाणी से नहीं
पाया जा सकता।
न मन से पाया
जा सकता है, न
नेत्रों से ही
प्राप्त किया
जा सकता है।
मन
सोचता है। मनन
की प्रक्रिया
का नाम मन है। जहां
हम विचार करते
हैं, सोचते
हैं, चिंतन
करते हैं मनन
करते हैं, उस
प्रक्रिया का
नाम मन है।
लेकिन सोचने
का एक तत्व
ठीक से समझ
लें कि आप उसी
को सोच सकते
हैं, जिसे
आप जानते हों।
जिसे आप जानते
ही नहीं, उसे
सोचेंगे कैसे?
ज्ञात
को ही सोचा जा
सकता है। द
नोन, वह
जो पहले से
पता है, उसको
आप सोच सकते
हैं; जो
पता ही नहीं
है, उसको
सोचेंगे कैसे?
सोचना
जुगाली की तरह
है। जैसे गाय—
भैंस पहले तो
भोजन ले लेती
हैं आहार ले
लेती हैं, फिर
उसी आहार को
निकाल—निकालकर
बैठकर जुगाली
करती रहती हैं।
मन जुगाली
करता है। जो
पहले डाल लिया
गया है, जो
ज्ञात हो गया
है, बस उसी
को बार—बार
सोचता रहता है।
अशांत
से, अननोन
से मन का कोई
संबंध नहीं है।
हो भी नहीं
सकता। जो शांत
ही नहीं है, उसमें सोचना
शुरू कैसे
होगा? एक
अर्थ में
सोचना
पुनरुक्ति है।
सोचना सदा
बासा है। वह
कभी ताजा नहीं
होता। और
सोचना हमेशा
पीछे की तरफ
लौटना है, अतीत
की तरफ। सोचना
स्मृति की ही
पुनरुक्ति है।
वह जो स्मृति
में पड़ा है, उसी की
जुगाली है। और
परमेश्वर तो
अज्ञात है।
उसका हमें कोई
भी पता नहीं।
उसे हम
सोचेंगे कैसे?
इसलिए मन से
परमात्मा का
कोई संबंध
नहीं जुडता।
और जब तक मन
मौजूद है, तब
तक आप उससे
टूटे रहेंगे।
जिस दिन मन खो
जाएगा, उस
दिन आप उससे
जुड़ जाएंगे।
मन ही आपके और
उसके बीच
दीवार है।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं कि
मन ही नहीं
होता कि ध्यान
करें। मैं
उनको कहता हूं
कि मन तो कभी
भी नहीं होगा
कि ध्यान करें।
क्योंकि मन तो
ध्यान का
दुश्मन है। मन
तो हजार
तरकीबें
समझाएगा कि मत
करो। कि यह
तुम क्या कर
रहे हो? यह
पागलपन है! कि
चुप होने से
क्या होगा?
कि सोचोगे
नहीं तो भटक
जाओगे। कि
अपनी बुद्धि
को सम्हालो, अपने तर्क
को बचाओ। ऐसा
किसी की बात
में पड़ जाना
ठीक नहीं।
मन
तो हजार तर्क
देगा कि ध्यान
मत करो।
क्योंकि
ध्यान मन की
मृत्यु है।
ध्यान किया कि
मन मरा। इसलिए
मन अपनी
सुरक्षा
करेगा, सब तरह से
सुरक्षा
करेगा। और
आपका भी मन
वही करता है।
पच्चीस कारण
खोज लेता है।
और उन कारणों
की वजह से फिर
ध्यान करने से
रुक जाता है।
और कभी—कभी
इतने क्षुद्र
कारण खोज लेता
है कि कोई
देखेगा, क्या
कहेगा! ऐसे
क्षुद्र कारण
सोचकर भी रुक
जाता है।
यह
जो मन के
रुकने की
वृत्ति है, यह
स्वाभाविक है
मन के लिए।
क्योंकि मन
जानता है कि
ध्यान का मतलब
है, खाई
में उतर जाना।
फिर वहां से
मन अछूता नहीं
लौटेगा, मन
बचेगा नहीं।
झेन फकीर
ध्यान को कहते
हैं, स्टेट
आफ नो माइंड—मन
के खो जाने की
अवस्था, अ—मन
की अवस्था।
उपनिषद
का यह सूत्र
भी वही कह रहा
है कि न तो वाणी
से मिलेगा और
न मन से
मिलेगा, न नेत्रों
से ही।
इंद्रियों
से कोई कितना
ही खोजता रहे, इंद्रियों
से केवल
पदार्थ का
संपर्क होता
है। प्रत्येक
वरन्। को सीमा
है। जैसे आप आंख
से सुन नहीं
सकते, देख
सकते हैं। कान
से आप देख
नहीं सकते, सुन सकते ते।
लेकिन कोई
आदमी आंख से
सुनने की
कोशिश करे, तो मुश्किल
में पड़ जाएगा।
आंख की सीमा
है कि वह देख
सकती है। कान
की सीमा है कि
वह सुन सकता
है। हाथ की
सीमा है कि वह
छू सकता है।
नाक की सीमा
है कि वह गंध
ले सकती है।
लेकिन एक
इंद्रिय एक ही
काम कर सकती
है। वह काम आप
दूसरी
इंद्रिय से
नहीं ले सकते,
वह दूसरी
इंद्रिय की
क्षमता नहीं
है।
मन
का काम है, वह मनन कर
सकता है। मनन
का अर्थ है, स्मृति में
पड़ा हो तो उसे
वह दोहरा सकता
है। मन एक
कंप्यूटर की
तरह है। उसे
पहले फीड करना
होता है। उसे
पहले आप दे
दें भोजन, फिर
वह उसकी
जुगाली करता
रहता है।
अब
तो बड़े अदभुत
कंप्यूटर बने
हैं जो आदमी
के मन से भी
ज्यादा काम कर
सकते हैं। बड़े
से बड़ा
वैज्ञानिक जो
काम वर्षों
में करेगा, वह
कंप्यूटर
सेकेंड में कर
सकता है।
लेकिन एक बड़ी
मुश्किल है
कम्यूटर के
साथ कि पहले
उसमें डालना
पड़ता है, जो
उसे सोचने के
लिए आपको देना
है। उसको फीड
करना पड़ता है।
अगर आप कुछ भी
न डालें, तो
कंप्यूटर कुछ
भी नहीं कर
सकता।
मन
में भी पहले
डालना पड़ता है।
समझें कि आप
हिंदू हैं।
हिंदू होने का
क्या मतलब है? कि हिंदू —
धर्म फीड किया
गया है। और तो
कुछ मतलब नहीं।
कि आप मुसलमान
हैं, कि आप
जैन हैं, कि
बौद्ध हैं—इसका
मतलब क्या
होता है? इसका
मतलब होता है,
आपके
कंप्यूटर को
बचपन से ही
जैन— धर्म
डाला गया है, तो वह वही—वही
सोचता रहता है।
किसी के
कंप्यूटर में
हिंदू— धर्म
है। किसी के
कंप्यूटर मैं
मुसलमान— धर्म
है; वह वही—वही
सोचता रहता है।
बस उसकी
जुगाली चलती
रहती है। और
आप भूल से
समझते हैं कि
आप हिंदू हैं,
मुसलमान
हैं, ईसाई
हैं। आप कुछ
भी नहीं हैं।
आदमी सिर्फ
आदमी की तरह
पैदा होता है,
बाकी तो सब
व्यवस्थाएं
डाली जाती हैं।
मन तो समाज के
द्वारा पैदा
किया जाता है।
अगर
आप हिंदू—घर
में पैदा हुए
और बचपन में
ही उठाकर आपको
मुसलमान के घर
में रख दिया
जाता, तो
आप मुसलमान
होते, हिंदू
नहीं। और आप
कुरान को
नमस्कार करते
और गीता को
जला देने की
इच्छा रखते।
आप ही! ये सब
इच्छाएं कहां
से आती हैं? ये दूसरे
आपको सिखा रहे
हैं। इसलिए
सभी धर्मो के
लोग बच्चों को
पकड लेते हैं
पहले ही।
सभी
धर्म उत्सुक
होते हैं कि
बच्चों को
धर्म की
शिक्षा दी
जानी चाहिए।
एक बार बच्चा
धर्म की
शिक्षा से बच
गया, तो
फिर बहुत
मुश्किल हो
जाएगा। सात
साल के पहले
ही, जब कि
बोध सजग नहीं
हो होता,
बच्चे की
खोपड़ी में सब
भर देना चाहिए।
फिर वह जिंदगी
भर उसकी
जुगाली करता
रहेगा।
हिंदू
अगर आप हैं, तो हिंदू—मंदिर
के सामने हाथ
उठ जाएंगे। यह
यांत्रिक है।
यह कंप्यूटर
का काम है। यह
आपको सिखाया
गया है कि
भगवान यहां
रहता है।
मस्जिद के
सामने से आप
अकड़कर निकल
जाएंगे।
मस्जिद का
खयाल ही नहीं
आएगा कि वहां
भी भगवान रहता
है। वहां किसी
और को खयाल आता
है, जिसके
कंप्यूटर में
वह बात डाली
गई है कि इस्लाम
ही असली धर्म
है।
हमें
सिखाया जा रहा
है। जो हमें
सिखाया जाता
है, वही
हम सोचते रहते
हैं। और
परमात्मा
सिखाया नहीं
जा सकता। उसके
सिखाने का कोई
उपाय ही नहीं।
इसलिए
परमात्मा
सोचा भी नहीं
जा सकता।
लेकिन आप
कहेंगे कि हम
परमात्मा के
संबंध में
सोचते हैं।
नहीं, आप
हिंदू
परमात्मा के
संबंध मे
सोचते है।
मुसलमान
परमात्मा के
संबंध में
सोचते हैं, ईसाई
परमात्मा के
संबंध में
सोचते हैं —परमात्मा
के संबंध में नहीं।
और ईसाई
परमात्मा, मुसलमान—हिंदू
परमात्मा, परमात्मा
हैं ही नहीं।
वे केवल शब्द
हैं जो आपके
मन में डाल
दिए गए हैं।
परमात्मा
तो निशब्द है।
वह अस्तित्व है।
उसे कोई आपको
सिखा नहीं
सकता।
परमात्मा का
कोई शिक्षण
नहीं हो सकता, इसलिए
कोई विद्यालय
नहीं हो सकता
जहां हम बच्चों
को परमात्मा
के लिए
प्रशिक्षित
कर दें। काश
इतना आसान
होता, तो
सारी दुनिया
परमात्मा से
भर जाती!
विशान सिखाया
जा सकता है, धर्म सिखाया
नहीं जा सकता।
यही अड़चन है।
इसलिए हम
वैज्ञानिक
पैदा कर सकते
हैं।
केमिस्ट्री, फिजिक्स, गणित सिखाए
जा सकते हैं।
प्रार्थना
सिखाई नहीं जा
सकती। मगर हम
सिखाते हैं
प्रार्थना भी।
इसलिए सब
प्रार्थनाएं
झूठी हो जाती
हैं।
प्रेम
सिखाया नहीं
जा सकता। आप
कोई विद्यालय
खोल दें और लोगों
को प्रेम करना
लिखा दें। अगर
आपने सिखा
दिया, तो
एक बात पक्की
है कि जो भी उस
विद्यालय से
निकलेंगे, कभी
प्रेम न कर
पाएंगे।
क्योंकि
प्रेम इतनी
हार्दिक बात
है, और
सीखना
मस्तिष्क में
घटता है।
इसलिए
अक्सर यह होता
है कि अभिनेता, जो प्रेम
का ही धंधा
करते हैं, कभी
प्रेम नहीं कर
पाते।
अभिनेताओं का
खुद का प्रेम—जीवन
अत्यंत दुखद
है। मैं जानता
हूं उनको बहुत
निकट से। जब
भी अभिनेता
मेरे पास आते
हैं, तो
उनकी तकलीफ
प्रेम की है।
और सारी
दुनिया उनसे
प्रेम करना
सीख रही है!
वे
अभिनय में
कुशल हो गए
हैं। वे जानते
हैं, क्या—क्या
करना चाहिए।
और वही—वही वे
अपनी
प्रेयसियों
के साथ या
अपने प्रेमियों
के साथ भी
करते हैं, लेकिन
वह अभिनय ही
होता है, भीतर
कोई हृदय नहीं
होता। वे कुशल
हैं। क्या
कहना है, क्या
बोलना है, कैसे
उठना—बैठना है,
कैसे किसी
को हृदय से
लगाना है, वे
सब जानते हैं।
जहां तक
प्रक्रिया का
टेक्यिकल अंग
है, वे सब
जानते हैं।
लेकिन प्रेम
कोई टेक्यीक
नहीं है।
प्रेम तो
बिलकुल नान—टेक्यिकल
है। वह तो
हृदय का
आविर्भाव है।
टालस्टाय
ने एक छोटी—सी
कहानी लिखी है।
टालस्टाय ने
लिखा है कि एक
झील के किनारे
तीन फकीर थे।
तीनों बेपढ़े—लिखे
थे। लेकिन
उनकी बड़ी
ख्याति हो गई, और दूर—दूर
से लोग उनके
दर्शन करने को
आने लगे। तो
रूस का जो
सबसे बड़ा
पुरोहित था, उसके कानों
में भी खबर
पहुंची कि तीन
पवित्र पुरुष
झील के उस पार
हैं। पर उसने
कहा कि मुझे
उनका पता ही
नहीं! और उन्होंने
कभी चर्च में
दीक्षा भी
नहीं ली, वे
पवित्र हो
कैसे सकते
हैं! और
हजारों लोग वहां
जा रहे हैं और
दर्शन करके
कृतार्थ हो
रहे हैं! तो वह
भी देखने गया
कि मामला क्या
है?
नाव
पर सवार हुआ, झील के उस
पर पहुंचा। वे
तीनों तो
बिलकुल बेपढ़े—लिखे
गंवार थे। वे
अपने झाडू के
नीचे बैठे थे।
जब
महापुरोहित
उनके सामने
गया तो उन
तीनों ने
झुककर उसको
प्रणाम किया।
महापुरोहित
तभी आश्वस्त
हो गया कि कोई
डर की बात
नहीं है। जब
तीनों चरण छू
रहे हैं, इनसे
कोई ईसाई—धर्म
को खतरा नहीं
है। उस महापुरोहित
ने कहा कि तुम
क्या करते हो?
क्या है
तुम्हारी
साधना? तुम्हारी
पद्धति क्या
है? उन्होंने
कहा, पद्धति?
वे एक—दूसरे
की तरफ देखने
लगे।
पुरोहित
ने कहा, बोलो, तुम
करते क्या हो?
तुमने साधा
क्या है? उन्होंने
कहा कि हम
ज्यादा तो कुछ
भी जानते नहीं।
पढ़े—लिखे हम हैं
नहीं। किसी ने
हमें सिखाया
नहीं। हमारी
तो एक छोटी—सी
प्रार्थना है,
वही हम करते
हैं। पर वे
बड़े संकोच में
भर गए कि इतने
बड़े पुरोहित
को कैसे...!
उन्होंने कहा,
फिर
प्रार्थना भी
हमारी खुद की
ही गढ़ी हुई है,
क्योंकि
हमने किसी से
सीखा नहीं और
किसी ने हमें
कभी बताया
नहीं। क्या है
तुम्हारी
प्रार्थना? पुरोहित तो
अकड़ता चला गया।
उसने कहा कि
बिलकुल ही
गंवार हैं!
क्या है तुम्हारी
प्रार्थना? उन्होंने
कहा कि अब
आपसे हम कैसे
कहें, बड़ी
छोटी—सी है।
हमने सुन रखा
है कि
परमात्मा तीन
हैं, ट्रिनिटि,
त्रिमूर्ति।
ईसाई
मानते हैं, तीन हैं
परमात्मा—परम
पिता, उसका
बेटा जीसस और
दोनों के बीच
में एक पवित्र
आत्मा, होली
घोस्ट—इन तीन
के जोड़ से
परमात्मा बना
है, ट्रिनिटि।
जैसा हम
त्रिमूर्ति
मानते हैं —शंकर
विष्णु, ब्रह्मा।
तो
उन्होंने कहा
कि हमने एक
प्रार्थना
बना ली सोच—सोचकर
तीनों ने।
हमारी प्रार्थना
यह है कि यू आर
थी, वी
आर आल्मो थी, हैव मर्सी
ऑन अस। तुम भी
तीन हो, हम
भी तीन हैं, हम पर कृपा
करो।
उस
पुरोहित ने
कहा कि बंद
करो यह। यह
कोई
प्रार्थना है!
प्रार्थना तो
ऑथराइब्द होती
है। चर्च के
द्वारा उसके
लिए स्वीकृति
और प्रमाण होना
चाहिए। तो मैं
तुम्हें
प्रार्थना
बताता हूं।
इसको याद करो
और आज से यह
प्रार्थना
शुरू करो।
उन्होंने कहा, आपकी
कृपा, बता
दें।
महापुरोहित
ने, लंबी
प्रार्थना थी
चर्च की, वह
बताई।
उन
लोगों ने कहा
कि क्षमा करें, हम
बिलकुल गंवार
हैं, इतनी
लंबी याद न
रहेगी। आप
थोड़ा
संक्षिप्त क़र
दें, कुछ
थोड़ा सरल!
पुरोहित ने
कहा कि न तो यह
सरल हो सकती
है और न
संक्षिप्त।
यह प्रमाणित
प्रार्थना है।
और जो इसको
नहीं करेगा, उसके लिए
स्वर्ग के
द्वार बंद हैं।
तो उन्होंने
कहा कि एक दफा
आप फिर से
दोहरा दें, ताकि हम याद
कर लें।
दुबारा कही।
फिर भी
उन्होंने कहा,
एक बार और
सिर्फ दोहरा
दें। और तीनों
ने दोहराने की
भी कोशिश की
और उन्होंने
धन्यवाद दिया
पुरोहित को, फिर चरण छुए।
पुरोहित
प्रसन्न नाव
पर वापस लौटा।
आधी
झील में आया
था कि देखा कि
पीछे से एक
बवंडर चला आ
रहा है पानी
पर। वह तो
घबड़ाया कि यह
क्या चला आ
रहा है? थोड़ी देर
में साफ हुआ
कि वे तीनों
पानी पर दौड़ते
चले आ रहे हैं!
पुरोहित के तो
प्राण निकल गए।
वे पानी पर चल
रहे हैं! और
तीनों आकर पास,
पकड़कर बोले
कि एक बार और
दोहरा दें। वह
हम भूल गए। हम
गरीब बेपढ़े—लिखे
लोग। उस
पुरोहित ने
कहा कि क्षमा
करो।
तुम्हारी
प्रार्थना
काम कर रही है।
तुम अपनी वही
जारी रखो कि
वी आर श्री, यू आर श्री, हैव मर्सी
ऑन अस।
प्रेम
एक हार्दिक
घटना है। न तो
उसकी कोई
प्रामाणिक
व्यवस्था है; न कोई
विधि है, न
कोई तंत्र है
न कोई मंत्र
है। प्रेम एक
हार्दिक भाव
है।
प्रार्थना एक
हार्दिक भाव
है। उसे
सिखाने का कोई
भी उपाय नहीं
है। और पृथ्वी
पर चूंकि सभी
धर्म सिखाने
की कोशिश कर
रहे हैं, इसलिए
लोग अधार्मिक
हो गए हैं।
सिखाने से कभी
भी कोई आदमी
धार्मिक नहीं
हो सकता।
इसलिए
यह सूत्र कहता
है : न मन से, न
नेत्रों से
उसे प्राप्त
किया जा सकता
है।
इंद्रियों
की क्षमता
नहीं अदृश्य
को देखने की।
वे दृश्य को
देखने के लिए
बनाई गई हैं।
और परमात्मा
अदृश्य है। मन
की क्षमता
नहीं अज्ञात
को समझने की; ज्ञात
उसकी सीमा है।
और परमात्मा
अज्ञात है। और
वाणी की
क्षमता नहीं
उसको प्रगट
करनें की, जो
मौन में
उपलब्ध होता
है। वाणी उसे
ही प्रगट कर
सकती है, जो
वाणी से
निष्पन्न है।
और परमात्मा
मौन में
उपलब्ध होता
है।
दूसरा
हिस्सा इस
सूत्र का बड़ा
अदभुत है।
वह
है ऐसा कहने
वालों से
अन्यत्र
भिन्न पुरुशें
को वह किस
प्रकार
उपलब्ध हो
सकता है।
जो
सरलता से कहता
है, वह
है। कहता ही
नहीं, जो
अनुभव करता है
कि वह है।
बिना किसी
कारण के, बिना
किसी तर्क के,
बिना
इंद्रियों की
गवाही के, बिना
मन के मनन के, और बिना
वाणी से लिए
गए उपदेशों के
जिसका हृदय
कहता है—वह है,
बस ऐसे
पुरुषों के
अतिरिक्त वह
और किसको उपलब्ध
हो सकता है!
पर
ऐसी अवस्था
कैसे आएगी? यह तो
बहुत जटिल बात
हो गई। अगर हो
तो ठीक, और
न हो तो? अगर
ऐसा लगे तो
ठीक कि वह है।
लेकिन ऐसा न
लगे, तो
फिर करने को
क्या बचता है?
विधायक
रूप से करने
को कुछ भी
नहीं बचता।
सिर्फ
निषेधात्मक
रूप से करने
को कुछ बचता
है। अगर आपको
लगता है, वह है, ऐसी
श्रद्धा
जन्मती है, ऐसे उसके
अस्तित्व की
प्रतीति आपको
होती है, ऐसी
आपके हृदय में
स्फुरणा होती
है कि वह है, तब तो ठीक, तब तो मार्ग
बहुत सुगम है।
अगर
नहीं होती.. और
कभी लाख में
एकाध को ऐसी
सहज प्रतीति
होती है।
अधिकांश को तो
प्रतीति नहीं
होती कि वह है, इसीलिए
तो वे तर्क खोजते
हैं, प्रमाण
खोजते हैं कि
कोई सिद्ध कर
दे, कोई
बता दे, कोई
इशारा कर दे, कोई दर्शन
करवा दे; कोई
गुरु मिल जाए,
कोई
मार्गदर्शक
हो—जो दिखा दे।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं कि
हमें
परमात्मा को
दिखा दें! जैसे
कि परमात्मा
कोई चीज है, उनको मैं
बता दूं कि यह
रही; कि
उनके हाथ में
दे दूं कि लो
सम्हालो और
देख लो। वे
कहते हैं, हमें
तो जब तक दिखा
न देंगे, तब
तक हम मानेंगे
नहीं! बड़ी
मुसीबत है। वे
कहते हैं, जब
तक दिखा न
देंगे, तब
तक हम मानेंगे
नहीं। और सब
शास्त्र कहते
हैं कि जब तक
मानेंगेनही, तब तक देख न
पाएंगे। और
मानना भी
सिर्फ बुद्धि
से नहीं।
क्योंकि
बुद्धि के
मानने से कोई
नहीं देख पाता।
बड़े पंडित हैं
जगत में, जो
बुद्धि से
मानते हैं, उनको भी कुछ
दिखाई नहीं
पड़ा। हृदय से
जो मानेगा.!
तो
क्या करें? क्योंकि
जो मान सकता
है, वह मान
सकता है। उसको
हम छोड़ दें।
उसको हिसाब
में लेने की
कोई जरूरत
नहीं। वह
अपवाद है।
अधिक लोग तो
नहीं मान सकते
हैं, इनके
लिए क्या किया
जाए? क्या
इनको तर्क दिए
जाएं, जिनसे
सिद्ध हो जाए
कि वह है!
जितने तर्क आज
तक दिए गए हैं,
सब फिजूल
हैं। क्योंकि
किसी तर्क से
कुछ सिद्ध
नहीं होता। और
नास्तिक सभी
तर्कों का
खंडन कर देंगे।
अगर तर्क में
ही लड़ना हो, तो नास्तिक
हमेशा जीतेगा,
आस्तिक
हमेशा हारेगा।
जीवन
में आस्तिक
जीत जाता है, लेकिन
तर्क में सदा
नास्तिक
जीतता है। आज
तक कोई भी
आस्तिक
नास्तिक से
जीत नहीं सका है।
यह सुनकर आपको
हैरानी होगी।
आस्तिक कभी
ऐसा कहते नहीं,
लेकिन मैं
आपसे कहता हूं
कि कोई आस्तिक
कभी नास्तिक
से तर्क में
जीता नहीं है।
जीत ही नहीं
सकता।
क्योंकि जो
उसका आधार है,
वह अतर्क्य
है। वह जीतेगा
कैसे? नास्तिक
सिद्ध कर सकता
है कि नहीं है।
क्योंकि आपके
सब तर्क तोड़े
जा सकते हैं।
आस्तिक
ने जितने तर्क
दिए हैं सारी
जमीन पर, वे बंधे—बंधाए
हैं, पिटे—पिटाए
हैं, उनमें
कुछ नया नहीं
है। या तो
तर्क यह है कि
जगत का कोई
बनावे वाला
होना चाहिए।
लेकिन
नास्तिक
पूछता है कि
अगर हर चीज को
बनाने वाले की
जरूरत है, तो
परमात्मा को
बनाने वाला
कौन? मुसीबत
खड़ी हो जाती
है। फिर
परमात्मा पर
भी और कोई
परमात्मा।
फिर उसके पीछे
कोई और
परमात्मा।
इनफिनिट
रिग्रेस—फिर
अंतहीन खड्ड
हो जाता है।
उसमें कोई हल
नहीं है।
कहीं
भी जाओ, नास्तिक
पूछेगा, फिर
इसको किसने
बनाया? और
अगर आप कहो कि
नहीं, जगत
को बनाने वाले
की जरूरत है
और परमात्मा
को बनाने वाले
की कोई जरूरत
नहीं। तो
नास्तिक कहता
है, जब
बिना बनाए
परमात्मा हो
सकता है, तो
जगत बिना बनाए
क्यों नहीं हो
सकता? सीधी
बात है, साफ
बात है। जब आप
मानते ही हो
कि कोई चीज
बिना बनाई हो
सकती है, तो
फिर कोई
कठिनाई नहीं
रही; जगत
बिना बनाया
हुआ है। तो
आस्तिक बेईमान
मालूम पड़ता है
कि जगत के लिए
वह यह नियम नही
छोड़ता—बिना
बनाया, और
परमात्मा के
लिए यही नियम
छोड़ता है।
फिर
नास्तिक कहता
है कि जगत
दिखाई पड़ता है।
अगर नियम ही
बनाना है तो
यही नियम ठीक
है कि जगत
बिना बनाया, अनक्रिएटेड
है। परमात्मा
तो तुम्हारा
दिखाई नहीं
पड़ता। इसको
व्यर्थ बीच
में लाने की
क्या जरूरत है?
और आखिर में
तुम्हें भी
स्वीकार करना
पड़ता है कि
परमात्मा
बिना बनाया
हुआ है, तो
बिना बनाई हुई
घटना घट सकती
है, तो जगत
बिना बनाए
क्यों नहीं घट
सकता?
आस्तिक
के पास कोई
उत्तर नहीं है।
सच तो यह है कि
आस्तिक तर्क
देता ही नहीं।
ये पंडित हैं, जो तर्क
देते रहते हैं
कि है। और
पंडित
नास्तिकों से
हारते रहते
हैं। नास्तिक
से कोई आस्तिक
पंडित जीत
नहीं सकता।
नास्तिक जिस
भूइम पर चल
रहा है, वहां
तर्क सार्थक
है। आस्तिक
जिस भूमि पर
चल रहा है, वहां
तर्क का कोई
संयोग ही नहीं,
संबंध ही
नहीं है। आप
दूसरे की भूमि
पर लड़ने
जाएंगे—हारेंगे।
लेकिन जीवन
में आस्तिक
जीतता है, नास्तिक
हारता है।
एक
भी नास्तिक
बुद्ध के जीवन
को नहीं पा
सका। एक भी
नास्तिक
महावीर की
गरिमा नहीं पा
सका। एक भी
नास्तिक जीसस
की करुणा नहीं
पा सका। एक भी
नास्तिक
कृष्ण जैसा
नृत्य से भरा
हुआ नहीं देखा
गया है।
नास्तिक जीवन
में तो बुरी
तरह हारता है।
लेकिन बुद्धि
में नास्तिक
की बड़ी गति है।
वहा उससे
जीतने का कोई
उपाय नहीं है।
अब
सवाल यह है कि
तर्क में
जीतकर भी होगा
क्या? मेरे
पास लोग आते
हैं। तो मैं उनसे
कहता हुं कि
मुझे कोई अड़चन
नहीं है, तुम
नास्तिक रहो,
लेकिन तुम
नास्तिकता से
पा क्या रहे
हो? वही
मैं जानना
चाहता हूं।
अगर तुम्हें
कोई महाशाति,
कोई महान
आनंद, कोई
अपूर्व घटना
घट रही है, तो
तुम्हारी
नास्तिकता
बढ़े, ऐसी
मैं प्रभु से
प्रार्थना
करूं; तुम
ठीक रास्ते पर
हो। तुम
बिलकुल बढ़े
चले जाओ।
पर
वे कहते हैं
कि कहीं कोई
आनंद भी नहीं
बढ़ रहा है, कोई शाति
भी नहीं बढ़
रही है, जीवन
दुख से भरा है।
लेकिन ईश्वर
नहीं है। उनको
मैं कहता हूं
तुम फिर से
सोचो। कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि ईश्वर
को अस्वीकार
करने के कारण
ही जीवन दुख
से भरा है? क्योंकि
जिन्होंने
उसे स्वीकार
किया है, उनका
जीवन आनंद से
भर गया है।
तो
अब यह तुम सोच
लो कि तुम्हें
तर्क की निष्पत्तिया
ज्यादा प्रिय
हैं, या
जीवन का आनंद
ज्यादा प्रिय
है? तुम्हें
जीवन में एक
अहोभाव चाहिए,
या सिर्फ एक
गणित का हिसाब
चाहिए ओं अगर
तम गणित के
हिसाब से
तृप्त हो, तो
ठीक है, ईश्वर
नहीं है। और
अगर तुम जीवन
के हिसाब से
अतृप्त हो, तो तूम्हें
ईश्यर को
खोजना ही
पड़ेगा।
तुम्हें अपने
को किसी भांति
बदलना ही
पड़ेगा कि तुम
उसके अस्तित्व
को एहसास कर
सको।
क्या
रास्ता है फिर? जो लोग
सहज उसके
अनुभव को
उपलब्ध नहीं
होते, उनके
लिए का मार्ग
है?
उनके
लिए पहली तो
यह बात समझ
लेने जैसी है
कि ध्यान
बुद्धि और
तर्क पर न दें, ध्यान
जीवन पर दें।
इस बात की
फिक्र करें कि
मेरे जीवन की
उपलब्धि क्या
है ई
एक
आदमी प्यासा
नदी के किनारे
खड़ा हो और हम
उसे कहें कि
तू पानी पी ले, नदी बह
रही है, तेरी
प्यास मिट
जाएगी। वह कहे
कि कैसे प्यास
पानी से मिट
सकती है, इसका
तर्क चाहिए।
क्यों प्यास पानी
से मिटेगी? इसका क्या
प्रमाण है? पानी बना है
हाइड्रोजन और
आक्सीजन से। न
तो हाइड्रोजन
पीने से प्यास
मिटती है, न
आक्सीजन पीने
से प्यास
मिटती है। तो
जब दोनों में
ही प्यास
मिटाने का कोई
गुण नहीं है, तो दोनों के
जोड़ से प्यास
कैसे मिट सकती
है?
वह
तर्क में आपको
हरा देगा। वह
कहेगा, पानी का
विश्लेषण करो।
इसमें प्यास
मिटाने वाली
कौन—सी चीज है?
न तो
हाइड्रोजन से
प्यास मिटती
है, न
आक्सीजन से
प्यास मिटती
है। दोनों से
मिलकर पानी
बना है। और जब
दोनों से नहीं
मिटती, तो
दोनों के जोड़
से कैसे मिट
सकती है? प्यास
को मिटाने
वाला 'गुण
कहां से आ
सकता है? तुम
गलती में हो।
तुम कुछ
भ्रांति में
पड़ गए हो।
लेकिन
वह आदमी नदी
के किनारे खड़ा
हुआ प्यासा मरेगा।
तर्क तो वह
ठीक दे रहा है।
और अगर लोगों
ने तर्क करके
ही पानी पीया
होता, तो
सारे लोग कभी
के मर गए होते।
लेकिन लोग
तर्क करते
नहीं, पानी
पीते हैं और
प्यास बुझा
लेते हैं।
क्योंकि लोग
कहते हैं, तर्क
से हमें प्रयोजन
नहीं; प्रयोजन
प्यास के
बुझने से है।
प्यास कैसे
बुझती है, यह
भी व्यर्थ है।
प्यास को
बुझाने वाला
पानी में कौन—सा
तत्व है, यह
भी सार्थक
नहीं है। हम
इतना ही जानते
हैं कि पानी
पीते हैं और
प्यास बुझती
है।
आप
अपने जीवन की
फिक्र करें कि
आपका जीवन दुख, संताप, गहन पीड़ा से
भरा है। वह जो
परमात्मा के
जीवन में जीने
वाला व्यक्ति
है, वह दुख.
पीड़ा और संताप
से मुक्त हो
गया। उसके
जीवन में एक
नृत्य, एक
संगीत, एक
सुगंध है। वही
सुगंध, वही
संगीत अगर
आपके लिए
आकर्षण बन जाए,
खिंचाव बन
जाए, तो
आपके जीवन से
नास्तिकता
गिरेगी। और उसके
होने के भाव
का उदय होगा।
नास्तिक
को मैं मानता
हूं कि वह
आत्मघाती है।
आत्मघाती
इसलिए कि वह
उस सबसे अपने
को वंचित कर
रहा है, जिसके बिना
जीवन का फूल
पूरा खिल ही
नहीं सकता। और
मनुष्य—जाति
का इतिहास
इसका प्रमाण
है। बड़े से
बड़ा नास्तिक
भी छोटे से
छोटे आस्तिक
के मुकाबले भी
जीवन का फूल
नहीं खिला
पाया। बड़े से
बड़ा नास्तिक
छोटे से छोटे
आस्तिक से भी
जीवन में हार
जाता है।
बर्ट्रेंड
रसेल जैसा बड़े
से बड़ा
विचारशील नास्तिक
भी रामकृष्ण
परमहंस के
मुकाबले क्या
है? तर्क
में रामकृष्ण
परमहंस रसेल
से जीत नहीं सकते;
बुरी तरह हारेंगे।
रसेल के सामने
चारों खाने
चित्त
रामकृष्ण पड़ेंगे।
कोई तर्क रसेल
को राजी नहीं
कर सकता। और
रामकृष्ण जो
भी कहेंगे, रसेल सभी
कुछ खंडित कर
सकता है।
लेकिन यह बात
ही मूल्यवान
नहीं है। रसेल
और रामकृष्ण
आमने—सामने
खड़े होंगे, तो रसेल का
जीवन फीका है।
उसमें कोई रस,
स्निग्ध—
धार नहीं है।
एक गहन उदासी
है। रामकृष्ण
के जीवन में
एक आभा है, एक
पुलक है, एक
ऊर्जा है, जो
किसी
महास्रोत से
आती हुई मालूम
पड़ती है।
हम
अगर बुद्धि का
ही विचार कर
रहे हैं, तो
नास्तिकता
सार्थक मालूम
पड़ेगी। अगर हम
जीवन का चिंतन
कर रहे हैं, तो बहुत जल्दी
हम प्रभु है, परमात्मा है,
ऐसे आभास को
उपलब्ध हो
जाएंगे। जीवन
पर ध्यान रखें।
एक
युवती ने
संन्यास लेना
चाहा, अभी
दो दिन पहले।
वह बड़ी
डांवाडोल है
कि संन्यास
लूं या न लूं? सभी का मन
डांवाडोल
होता है। कोई
भी नया कदम
उठाते वक्त
चिंता पकड़ती
है। मैंने उस
युवती को कहा
कि तू एक बात
समझ। बिना
संन्यास के तो
तू पच्चीस साल
रह चुकी है।
नहीं लेती है
संन्यास,? तो
जैसी तू थी
वैसी ही तू
होगी। पच्चीस
साल का अनुभव
है तुझे गैर—संन्यास
का। संन्यास
का तुझे कोई
अनुभव नहीं है।
संन्यास का
द्वार नया है।
वहा कुछ हो
सकता है, कोई
संभावना।
ज्यादा से
ज्यादा इतना
ही होगा कि
कुछ न होगा।
तो कुछ अभी भी
नहीं हो रहा
है। ज्यादा से
ज्यादा इतना
ही होगा कि
कुछ न होगा।
बुरा से बुरा
जो हम सोच
सकते हैं, वह
इतना ही होगा
कि कुछ न होगा।
तो कुछ हुआ
नहीं है, पच्चीस
साल हो गए।
कुछ खोने का
डर नहीं है।
लेकिन कुछ
संभावना
खुलती है। कुछ
होने की आशा
बंधती है। कुछ
नया कदम लिया
जा रहा है।
पुराने
रास्ते को
बदलने में, जिस पर
कुछ भी न हुआ
हो, क्षणभर
भी संकोच करना
निपट अइगन है।
कुछ हुआ हो, तब तो नए को
चुनने का कोई
सवाल नहीं है,
तो उस पर
बढ़ते जाना
चाहिए। कुछ न
हुआ हो, तो
नए को चुनने
की हिम्मत
रखनी चाहिए।
बंधी—बंधाई
लीक पेर चलते
जाते हैं, बिना यह
सोचे हुए कि
इस पर कुछ भी
नहीं हुआ।
पच्चीस सारन
से, पच्चीस
जन्मों से इस
पर चल रहे हैं,
कुछ भी नहीं
हुआ। आप
बुद्धि के
सहारे कितने
जन्मों से चल
रहे हैं? यह
जिंदगी भी
आपने तर्क और
बुद्धि के
सहारे गंवाई
है।
थोड़ा—सा
रास्ते से
उतरकर उस घने
जंगल में भी
उतरना चाहिए, जो
बुद्धि का
नहीं है।
बुद्धि के
रास्ते ठीक
पटे—पटाए हैं।
ठीक साफ—सुथरे
हैं। सिमेंट
ने उनको पत्थर
की तरह बना
दिया है। उन
पर मील के
पत्थर लगे हैं।
आप कहां हैं, पक्का पता
चलता है। कहां
जा रहे हैं, पक्का पता
चलता है। कहा
से आ रहे हैं, पक्का पता
चलता है।
लेकिन
रास्तों के
किनारे घने
जंगल भी हैं
जीवन के, जहा छिपे
झरने हैं और
जहां सुगंधित
फूल हैं और
जहां
पक्षियों के
गीत हैं। वे
रास्ते साफ
नहीं हैं।
वहां भय भी है।
वहां खतरा भी
है। रास्ते की
सुरक्षा भी
नहीं है।
रास्ते की भीड़
भी नहीं है, जो सदा साथ
थी। वहा
अकेलापन है।
लेकिन वहां
जीवन की गहनता
के खुलने की
संभावना भी है।
वहा भटकने का
डर है, लेकिन
वहां पहुंचने
का उपाय भी है।
क्योंकि
इस बंधे हुए
रास्ते से कोई
कहीं नहीं पहुंचता।
रास्ता तो साफ—सुथरा
है, चलना
भी
सुविधापूर्ण
है; भीड़
सदा साथ में
होती है, भय
भी नहीं लगता,
अकेलापन भी
कभी नहीं आता।
लेकिन यह
रास्ता कहीं
ले जाता नहीं।
यह रास्ता
कहीं
पहुंचाता
नहीं। बस यह
रास्ता साफ—सुथरा
है, गोल—गोल
घूमकर वापस
अपनी जगह आ
जाता है। यह
वर्तुलाकार
है। इससे कोई
निष्पत्ति
जीवन में फलित
नहीं होती।
जिस
व्यक्ति को
ऐसा जीवन का
बोध आने लगे, वह बहुत
शीघ्र उस जगह
पहुंच जाएगा
जहा वह बिना
तर्क और बिना
प्रमाण और
बिना कारण के
कहेगा—परमात्मा
है।
वह
है ऐसा कहने
वालों से
अन्यत्र
भिन्न पुरुषों
को किस प्रकार
वह उपलब्ध हो सकता
है!
अत:
उस परमात्मा
को पहले तो है
इस प्रकार
निश्चयपूर्वक
ग्रहण करना
चाहिए अर्थात
पहत्ने नमहे
अस्तित्व का
दृढ़ निश्चय हो
जाना चाहिए तदनंतर
तत्वभाव से
उसे प्राप्त
करना चाहिए।
पहले
तो यह प्रतीति
हार्दिक हो
जाए कि वह है।
और उसके होने
की सुगंध
हमारे जीवन को
बदलने लगे। वह
हमें खींचने
लगे। वह हमारा
प्रेम बन जाए।
फिर, फिर
कुछ हो सकता
है। फिर रूपांतरण हो सकता
है। फिर हम
अपने पूरे
जीवन को दांव
पर लगा सकते
हैं। फिर वह
हल्की—सी झलक।
फिर हम जूआ
खेल सकते हैं।
फिर हम चुनौती
स्वीकार कर
सकते हैं। फिर
हम पूरे जीवन
को उसमें
ढालने, उसके
साथ एकरूप
करने, उसमें
पिघला देने के
लिए राजी हो
सकते हैं। पर
वह पहला है का
भाव, उसके
अस्तित्व की
पहली झलक केवल
उन्हें ही मिल
सकती है जो
बुद्धि को नहीं,
जो जीवन को
उसकी पूर्णता में
सोचने के लिए
तैयार हों, जीवन को
उसकी समग्रता
में विचारने
के लिए तैयार
हों। और जो
जीवन को
देखें— दुख या
आनंद?
दूख
या आनंद को आप
कसौटी समझ लें—निकष।
इस पर कसते
रहें। अगर
आपके जीवन में
दुःख है, तो जो भी आप
सोचते हैं, वह गलत है।
वह तर्क के
लिहाज से सही
है या गलत, यह
सवाल नहीं है।
अगर जीवन में
दुख है, तो
आप जो भी
सोचते हैं, आपके सोचने
का ढाचा गलत
है। आपका आयाम
गलत है। और
अगर आपके जीवन
में आनंद है, तो मैं आपसे
कहता हूं कि
आप जो भी
सोचते हैं वह
सही है—बिना पूछे
कि आप क्या
सोचते हैं।
क्योंकि ठीक
सोचने का फल
आनंद है। गलत
सोचने का फल
दुख है।
सार्त्र
जैसे पश्चिम
के विचारक हैं, जो कहते
हैं, दुख
ही जीवन है।
बुद्ध ने भी
कहा है कि
जीवन दुख है।
लेकिन बुद्ध
ने इसलिए कहा
है कि जीवन
दुख है—तुम्हारा
जीवन, जैसा
जीवन जीया
जाता है वैसा
जीवन। और कहा
है कि जीवन
दुख है, ताकि
तुम जाग सको
और वहां पहुंच
सको, जहां
जीवन दुख नही
रह जाता है।
लेकिन
सार्त्र का
वचन बिलकुल
बुद्ध जैसा है
कि जीवन दुख
है, लेकिन
प्रयोजन
बिलकुल भिन्न
है।
सार्त्र
कहता है, जीवन दुख ही
है। अतिक्रमण
का कोई उपाय
ही नहीं; इसके
पार जाने का
कोई उपाय ही
नहीं। यही
जीवन की
समग्रता है, पूर्णता है।
इसके पार कुछ
भी नहीं है।
दुख ही अस्तित्व
है, लेकिन
सार्त्र
क्यों दुख
अस्तित्व है,
इस बात पर
इतने जोर से
जकड़ जाता है? खुद का जीवन
ही आखिरी
प्रमाण होता
है। हम दूसरे
के जीवन में
तो प्रवेश भी
नहीं कर सकते,
अपने ही
जीवन में
प्रवेश करते
हैं। अगर मेरा
जीवन दुख है, तो मैं इसी
को फैलाकर
सारे जीवन का
सत्य बना देता
हूं कि जीवन
दुख है।
सब
सत्य
व्यक्तिगत
होते हैं। फिर
हम फैलाकर
उनको
सार्वभौम बना
देते हैं।
मेरा जीवन दुख
है, तो
सारे जगत को
मैं दुख मान
लेता हूं।
दुखी आदमी को
सब तरफ दुख
दिखाई देता है।
आकाश में चांद
भी निकले तो
उदास मालूम
पड़ता है। सब
तरफ उपद्रव, सब तरफ
चिंता, पीड़ा
पकड़ती है।
भीतर दुख है।
लेकिन
सार्त्र यह
कभी भी नहीं
सोचता कि यह
मेरे होने का
गलत ढंग भी हो
सकता है कि
जीवन दुख है।
क्योंकि हमने
कृष्ण का जीवन
भी देखा है, जो दुख
नहीं है। हमने
बुद्ध का जीवन
भी देखा है, जो दुख नहीं
है। हमने
लाओत्से का भी
जीवन देखा है,
जो दूर की
भी भनक जिसमें
दुख की नहीं
है, जो कि
परम आनंद है।
हमारे ही बीच
ऐसे लोग रहे
हैं, हैं, जो परम आनंद
में हैं।
लेकिन
सार्त्र
कहेगा कि वे
भ्रांति में
हैं। यह बड़े
मजे की बात है
कि सार्त्र यह
मानने को राजी
नहीं है कि
मेरा दुख मेरी
भांति हो सकती
है, लेकिन
कृष्ण का आनंद
भांति है।
मैं
आपसे कहता हूं
कि दुख सत्य
भी हो, तो
भी भ्रांत
आनंद से बदल
लेने जैसा है।
सत्य दुख को
भी रखकर क्या
करिएगा? आनंद
भ्रांत भी हो,
तो भी चुनने
जैसा है। और
जो भी एक बार
चुन लेता है, उसे पता
चलना शुरू हो
जाता है कि
भ्रांत दुख था,
आनंद
भ्रांत नहीं
है। लेकिन
अनुभव से ही
पता चलता है।
अनुभव के
अतिरिक्त और
कोई उपाय नहीं
है।
पहली
प्रतीति—परमात्मा
है। फिर दूसरा
चरण—तत्व—रूप
से उसकी
उपलब्धि।
इन
दोनों
प्रकारों में
से वह है इस
प्रकार
निश्चयपूर्वक
परमात्मा की
सत्ता को
स्वीकार करने
वाले साधक के
लिए परमात्मा
का तात्विक
स्वरूप अपने
आप शुद्ध हृदय
में
प्रत्यक्ष हो
जाता है।
पहली
घटना घट जाए, तो दूसरी
घटना धीरे—धीरे
अपने आप घट
जाती है। मगर
बीज ही न हो तो
वृक्ष कहौ से
आए? बिना
बीज बोए लोग
बैठे हैं, रास्ता
देख रहे हैं
कि अंकुरित हो,
वृक्ष बने,
फूल आएं, फल लगें! वे
नहीं लगते, तो वे
चिल्लाकर
कहते हैं कि
कोई वृक्ष है
ही नहीं।
लेकिन बीज
उन्होंने कभी
बोया नहीं।
बीज बिना बोए
प्रतीक्षा चल
रही है!
नास्तिक
वैसा ही
व्यक्ति है, जो बिना
बीज बोए जीवन
के अस्तित्व
का दर्शन करना
चाहता है।
आस्तिक इस
अर्थ में
ज्यादा
वैज्ञानिक है।
वह पहले बीज
बोता है, फिर
प्रतीक्षा
करता है। साज—सम्हाल
भी करता है।
प्रतीक्षा
उसकी एक दिन
फलवती होती है।
समय लगेगा।
बीज टूटेगा, अंकुरित
होगा, बड़ा
होगा। लेकिन
बीज जिसने
बोया है, वह
रास्ता देख
सकता है—कितनी
ही देर लगे।
अगर बीज सच
में ही बोया
गया है,तो
वृक्ष के होने
की संभावना और
आशा बांधी जा सकती
है।
बीज
है—ईश्वर है, ऐसा भाव।
यह भाव आप बो
दें, इसकी
साज—सम्हाल
करें।
क्योंकि इस पर
बहुत उपद्रव
हैं चारों तरफ
से। बीज के
ऊपर कोई पत्थर
रख जाएगा, तो
ऊगना मुश्किल
हो जाएगा। बीज
पा, कोई
पानी नहीं
डालने देगा, तो ऊगना
मुश्किल हो
जाएगा। बीज ऊग
भी जाए, तो
चारों तरफ
जानवर मौजूद
हैं, जो चर
जा सकते हैं।
तो बागुडू
लगानी पड़ेगी।
और
जैसे बीज की
साज—सम्हाल
करनी पड़ती है, वैसी ही साज—सम्हाल
इस भाव की
करनी पड़ती है।
चारों तरफ
बहुत उपद्रव
हैं। कोई भी
मिल जाएगा जो
कहेगा, क्या
कर रहे हो? कोई
ईश्वर वगैरह
नहीं है! पता
तो आपको भी
नहीं है। भाव
अभी बहुत
नन्हा है, बहुत
छोटा है। उसे
कोई भी तोड़
सकता है। जरा
ही जोर से कोई
बोल दे, तो
आपको लगता है कि
इतनी जोर से
बोल रहा है, जरूर सही
बोल रहा होगा।
मैं
जिस
विश्वविद्यालय
में पढ़ता था, उसके
संस्थापक थे
एक बहुत बड़े
वकील, विश्वविख्यात
वकील डा
हरिसिंह गौर।
वे अपने
विद्यार्थियों
को कहा करते
थे कि सदा
कानून की
किताबें लेकर
अदालत में
पहुंचो। उनको
देखकर ही मजिस्ट्रेट
थोड़ा भयभीत हो
जाता है।
दूसरा वकील भी
थोड़ा डरता है।
तुम्हारी
हिम्मत भी, शास्त्र साथ
में है, इससे
बढ़ जाती है।
और अगर
तुम्हारा
मुवक्किल
कानून के
अनुसार हो, तो जितना
ज्यादा कानून
की बातें तुम
निकालकर किताबों
में से प्रगट
कर सको, उतनी
करने की कोशिश
करो। बजाय
मुवक्किल को
सही साबित
करने के, उसमें
ज्यादा चिंता
लगाने के, तुम
शास्त्र के
उद्धरण
ज्यादा दो।
उनके
विद्यार्थी
कभी उनसे
पूछते, और कभी ऐसा
होगा कि हम
जिस आदमी के
पक्ष में हैं,
वह गलत ही
है। तो वे
कहते कि तब
तुम इतनी जोर
से बोलो और
इतनी जोर से
टेबल पीटो, जितनी
तुम्हारी
ताकत हो।
क्योंकि
तुम्हारा जोश—खरोश
और तुम्हारा
टेबल का पीटना
बताता है कि तुम
जरूर सही
होओगे। गलत
आदमी डरकर
बोलता है, भयभीत
होता है; पहले
से ही उसकी
वाणी कंपती है।
आप
ध्यान रखना।
जिंदगी में
ऐसे बहुत से
लोग हैं जो
टेबल पीटकर
बोलते हैं। वे
इतने जोर से
बोलते हैं कि
आप सदमे में आ
जाते हैं।
आपको लगता है
कि बात सही ही
होगी, तभी
इतनी जोर से
बोल रहा है।
और आपका अंकुर
बहुत छोटा है।
शायद अभी आपने
बीज रखा ही था
जमीन में कि
कोई आदमी कह
देता है कि
कोई परमात्मा
नहीं है। तो
आप उखाड़कर बीज
देखते हैं कि
है भी बीज, कि
मैं किसी
भ्रांति में
पड़ा हूं!
लेकिन जो बीज
को उखाड़—उखाड़कर
बार—बार देखता
है, वह
उसके अंकुरण
होने की
क्षमता को
गंवा देता है।
फिर वह बीज जड़
हो जाएगा।
चारों
तरफ लोग हैं।
आप, वे
क्या कहते हैं,
यह मत देखना।
आप यह देखना
कि वे क्या
हैं। फिर आपको
कोई नुकसान
नहीं पहुंचा
सकेगा। आप यह
सुनना ही मत
कि वे क्या
कहते हैं। आप
सिर्फ इतना
देखना कि वे
क्या हैं।
उनके जीवन पर
ध्यान रखना, उनके शब्दों
पर नहीं। फिर
आपको कोई
नुकसान नहीं
पहुंचा सकेगा।
आपका बीज
सुरक्षित
रहेगा।
निश्चित
ही, जिन्होंने
बीज बोया नहीं
है, उन्हें
कोई डर नहीं
है। वे
निर्भीक
घूमते हैं।
उन्हें कोई
कारण ही नहीं
है। उन्हें
कुछ बचाना
नहीं, कोई
सुरक्षा नहीं
करनी। लेकिन
जिसने बीज
बोया है, उसे
थोड़ा—सा भयभीत
भी होना पड़ेगा।
उसे थोड़ा
बंधकर उस बीज
के आसपास
बैठना भी पड़ेगा।
वह थोड़ी—सी
परतंत्रता भी
अनुभव करेगा
शुरू में, क्योंकि
उसने बीज बोया
है, उसे
उसकी
प्रतीक्षा भी
करनी है, साज—सम्हाल
भी करनी है।
आपके
आसपास जो
निर्भीकता से
कुछ भी कहते
हुए घूमते हैं, उनसे
सावधान रहना।
क्योंकि उन्होंने
कुछ बोया नहीं
है। वे घूम
सकते हैं।
उनके पास
बचाने को कुछ
भी नहीं है; उनके पास
खोने को भी
कुछ भी नहीं
है। आपके पास
अगर खोने को
कुछ है, तो
बचाने को कुछ
है।
आस्तिक
को निरंतर
सावधान रहना
चाहिए कि उसकी
भूमि में
अंकुरित होती
जो अभी कोमल—सी
जीवन—धारा है, वह नष्ट न
हो जाए।
क्षुद्र
बातें भी, व्यर्थ
के पत्थर भी, उसे नष्ट कर
दे सकते हैं।
और ऐसे लोग
हैं चारों तरफ,
जो विनाश
में रस लेते
हैं। जो कोई
भी चीज को तोड़
दें, तो
अपने को
ताकतवर समझते
हैं।
जिन्हें
किसी बात का
कोई भी पता
नहीँ है, वे भी कुछ
कहे चले जाते
हैं। कोई
व्यक्ति
ध्यान करना
शुरू करता है,
तो कोई भी
व्यक्ति
दूसरा—मित्र,
परिवार के,
साथी—संगी,
परिचित, अजनबी—कोई
भी कह देता है,
ध्यान
वगैरह में कुछ
भी नहीं है!
जैसे कि इन्होंने
ध्यान कभी
किया हो। जैसे
ये ध्यान के
कोई अनुभवी
हैं। जब कोई
ध्यान के
संबंध में कुछ
कहे, तो
पहले यह फिकर
करना कि इस
आदमी ने कितना
ध्यान किया है।
आप हर किसी की
बात नहीं मान
लेते हैं और
दूसरे मामलों
में, लेकिन
इस मामले में
बड़ी जल्दी मान
लेते हैं।
अगर
एक आदमी कहता
है कि नहीं, यह दवा
बीमारी के लिए
ठीक नहीं है।
तो आप उससे
पूछते हैं कि
डिग्री क्या
है आपके पास? एम. डी. हैं? एम बी बी एस
हैं? आयुर्वेद
जानते हैं? हकीम हैं? क्या हैं? कुछ नहीं तो
कम से कम
होमियोपैथ
हैं? कुछ, क्या हैं
क्या आप? वह
आदमी कहता है,
नहीं, मैं
भरोसा ही नहीं
करता इन सब बातो
में। इन सबको
पढ़ने—वढ़ने की
कोई आवश्यकता
नहीं। दवा से
कुछ होने वाला
नहीं। तब आप
समझ जाते हैं
कि इस आदमी की
बात सुनने की
कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन
ध्यान के
संबंध में कोई
भी नासमझ कुछ
भी कह दे, आप फौरन
डावाडोल हो
जाते हैं कि
पता नहीं, कुछ
गलती तो नहीं
कर बैठे! आप
पूछते ही नहीं
कि यह आदमी
ध्यानी है?
बुद्ध
ने अपने
भिक्षुओं को
बार—बार कहा
है कि ध्यान
के संबंध में
केवल
ध्यानियों से
पूछना, नहीं तो तुम
भटक जाओगे।
क्योंकि इस
जगत में
अहंकार इतना
घना है कि कोई
आदमी यह तो
मानने को राजी
नहीं है कि
मैं जानता
नहीं हूं। हर
आदमी सलाह
देने को राजी
है।
इस
पृथ्वी पर
सिर्फ एक चीज
मुफ्त मिलती
है, वह
सलाह है। और
इतनी मिलती है
कि जिसका
हिसाब नहीं।
और हर आदमी
तैयार है, आप
मांगो भर। न
भी मांगो, तो
भी देने को
लोग तैयार हैं।
आपके घर आकर
दरवाजा
खटखटाते हैं
सलाह देने के
लिए। आप कभी
सोचते भी नहीं
कि जो आदमी
सलाह दे रहा है,
वह कहां से
दे रहा है।
उसकी कितनी
पहुंच है ध्यान
में? उसने
प्रार्थना
कितनी की है? उसने कितना
प्रभु—प्रेम
में अपने को
डुबाया है? कितना
अस्तित्व का
अनुभव किया है?
तो
आप लोगों की
बात मत सुनना, लोग कहां
हैं, इस पर
ध्यान देना।
साधक
के हृदय में
स्थित जो
कामनाएं हैं
जब वे सब की सब
समूल नष्ट हो
जाती हैं तब मरणधर्मा
मनुष्य अमर हो
जाता है। और
यहीं ब्रह्म
का भलीभांति
अनुभव कर लेता
है।
जब
हृदय को
संपूर्ण
ग्रंथियाँ
भलीभांति खुल जाती
हैं तब वह
मरणधर्मा
मनुष्य इसी
शरीर में अमर
हो जाता है।
बस इतना ही
सनातन उपदेश
है।
दो
बातें। पहली, साधक के
हृदय में
स्थित
कामनाएं हैं जो,
जब वे सब
समूल नष्ट हो
जाती हैं, तब
मरणधर्मा
मनुष्य अमर हो
जाता है।
क्यों? आखिर
कामनाओं के
नष्ट होने से
मरणधर्मा
मनुष्य अमर
क्यों हो
जाएगा? कारण
है।
मनुष्य
तो अमर है ही, सिर्फ
वासनाएं
मरणधर्मा हैं।
सिर्फ कामनाएं
मरती हैं।
आदमी तो कभी
मरता ही नहीं,
सिर्फ
कामनाएं मरती
हैं। और हम
कामनाओं से
इतने भरे हैं
कि हमें पता
ही नहीं कि
कामनाओं के
अतिरिक्त भी
हम कुछ हैं।
और जब कामनाएं
मरती हैं, तो
हमे लगता है.
हम मर रहे हैं,
हम नष्ट हो
रहे हैं, हम
समाप्त हो रहे
हैं।
बंगाल
के एक बहुत
बड़े विचारक
हुए
ईश्वरचंद्र विद्यासागर।
उन्होंने एक
संस्मरण लिखा
है। उन्हें
वाइसराय की
कौंसिल
सम्मानित
करने वाली थी, महा
पंडित होने के
कारण। लेकिन
ईश्वरचंद्र
पहनते थे गरीब
बंगाली का वेश—कुर्ता—
धोती; साधारण
गरीब आदमी का
वेश। सीधे—सादे
आदमी थे।
मित्रों ने
कहा कि
वाइसराय की
कौंसिल में इन
कपड़ों को
पहनकर जाओगे,
बड़ी भद्द
होगी और अच्छा
भी नहीं लगेगा।
तो हम
तुम्हारे लिए
अच्छे वेश का
इंतजाम किए देते
हैं, तुम
चिंता भी मत
करो। शानदार
चीज चाहिए, वाइसराय के
सामने जब तुम
मौजूद होओ।
ईश्वरचंद्र
राजी हो गए।
बात उनको भी
जंची। मगर मन
में थोड़ी
चिंता रही कि
क्या सिर्फ पद
पाने के लिए
उपाधि पाने के
लिए, सम्मान
पाने के लिए
मैं सदा का
अपना भेष
बदलूं? और
नाहक अच्छा 'भी नहीं
लगेगा, बचकाना
लगेगा—सजा—संवारा
हुआ वहां खड़ा
हो जाऊंगा।
मगर हिम्मत भी
नहीं जुटती थी
यह कहने की।
जिस
दिन यह
वाइसराय की
कौंसिल में
जाना था, उसके एक दिन
पहले सांझ को
घूमने निकले
थे। बड़ी चिंता
मन में थी।
सामने ही एक
मुसलमान उनके
पास से चला जा
रहा था, अपनी
छड़ी लिए हुए, आहिस्ता से,
अपनी
शेरवानी में।
एक
नौकर भागा हुआ
आया और उसने
कहा कि मीर
साहब—उस
मुसलमान को
कहा—आपके घर
में आग लग गई
है। जल्दी
चलिए। उसने कहा, ठीक!
लेकिन चाल
उसकी वही की
वही रही।
ईश्वरचंद्र
भी थोड़े चौंके
कि क्या यह
आदमी समझ नहीं
पाया या बात
में कुछ भूल—चूक
हो गई? नौकर
भी थोड़ा
घबड़ाया, और
उसने कहा कि
मीर साहब, ऐसे
नहीं चलेगा।
मकान जल रहा
है। तेजी से
चलिए।
उस
मुसलमान ने
कहा कि मैं जब
तक न जलूं मैं
जब तक न जल रहा
होऊं, तब
तक तेजी से
चलने का कोई
कारण नहीं।
मकान जल रहा
है, मैं
नहीं जल रहा
हूं। और फिर
जिंदगीभर की
चाल मकान जलने
की वजह से बदल
दूं? और तू
इतना परेशान
क्यों है? तेरा
क्या जल रहा
है?
परेशान
तो
ईश्वरचंद्र
तक थे, उनका
तो बिलकुल कुछ
नहीं जल रहा
था। वह तो कम
से कम नौकर भी
था। उनके भी
हृदय की धड़कन
बढ़ गई थी। वे
बड़े हैरान हुए
कि यह आदमी
कैसा है! घबड़ा
तो वे भी गए थे,
मकान जल रहा
है यही सुनकर।
कोई संबंध भी
न था उस मकान
से। तभी उनको
खयाल आया कि
यह आदमी अपनी
चाल बदलने को
राजी नहीं, मकान जल रहा
है! और मैं
नाहक ही अपने
कपड़े' बदलने
को राजी हो
गया हूं।
दूसरे
दिन वे अपने
गरीब वेश में
ही उपस्थित हो
गए। मित्र तो
बड़े चौंके
वहां. देखकर।
बाद में
निकलकर पूछा
कि यह तुमने
क्या किया?
उन्होंने कहा
कि छोड़ो, वह
एक आदमी ने
मेरी जिंदगी
बदल दी। वह
कहने लगा, जब
तक मैं' ही न
जल रहा होऊं, तब तक कुछ
नहीं जल रहा
है। कुछ तेज
जाने की जरूरत
नहीं है।
आपकी
कामनाएं मरती
हैं, आप
नहीं मरते।
लेकिन कामनाओं
से आप इतने
संयुक्त हैं!
आपका घर जलता
है, आप
नहीं जलते।
लेकिन मेरा घर,
इतना ममत्व
है कि जलते
हुए घर में
आपको लगता है,
आप जल रहे
हैं। आप जलने
ही लगते हैं।
कामनाएं
ही मरणधर्मा
हैं। मरता हुआ
आदमी जब
घबड़ाता है
मृत्यु से, तो इसलिए
नहीं घबड़ाता
कि मैं मर रहा
हूं क्योंकि
मैं तो कभी
मरा ही नहीं।
घबड़ाता है
इसलिए कि अब
सब कामनाएं
मरी। जो—जो
आशाएं बांधी
थीं, सब सी।
जो—जो भविष्य
में करने का
सोचा था, वह
सब विनष्ट हुआ।
जो—जो अतीत
में किया था
इंतजाम कि
भविष्य में
कुछ फल लगेंगे,
वे सब वृक्ष
गिर गए। अब सब
नष्ट हो रहा
है।
यह
सूत्र बड़ी ठीक
बात कहता है
कि जब साधक की
सब कामनाएं
छूट जाती हैं, तब साधक
अमृत हो जाता
है। अमृत साधक
है ही।
कामनाओं का
संग मरणधर्मा
होने की भांति
देता है। हम
जिसके साथ
होते हैं, उसकी
भ्रांति हमें
पकड़ जाती है।
और
कामनाएं कब
नष्ट होती हैं? तब तक
कामनाएं नष्ट
नहीं हो सकतीं,
जब तक ईश्वर
के होने का
भाव उदय न हो।
क्योंकि
कामनाएं
इसीलिए हैं कि
हम आनंद चाहते
हैं और जीवन
में आनंद नहीं
है। कामनाएं हैं
क्या? हमारे
आनंद की खोज, हमारे आनंद
को पाने की आकांक्षा
एं, स्वप्न।
और जीवन दुख
से भरा है, इसलिए
कामनाएं हैं।
इस
दुख को मिटाना
है। यह दुख दो
तरह से मिट
सकता है। एक
तरह से मिट
सकने का आभास
होता है, वस्तुत:
मिटता नहीं—कि
हम कामनाओं को
पूरा करें तो
दुख मिट जाए।
यह नास्तिक की
यात्रा है।
भौतिकवादी की
यात्रा है कि
कामनाएं सब
पूरी हो
जाएंगी, तब
दुख मिटेगा।
आस्तिक की
यात्रा है कि
कामनाएं तब
मिटेगी, जब
आनंद उपलब्ध
हो जाएगा।
इस
तर्क को ठीक
से समझ लें।
नास्तिक का
तर्क है, कामनाओं की
पूर्ति पर
आनंद है।
आस्तिक का
तर्क है, आनंद
की पूर्ति पर
कामनाओं का
विसर्जन है।
आनंद भीतर हो,
कामनाएं
समाप्त हो
जाती हैं। दुख
के कारण थीं।
जिसे चाहते थे
कामनाओं के
कारण, वह
भीतर उपस्थित
हो जाए
कामनाएं गिर
जाती हैं।
जब
मंजिल भीतर
मिल जाए तो आप
रास्तों पर
किसलिए
दौड़ेंगे? रास्तों पर
दौड़ते हैं, क्योंकि
मंजिल कहीं और
है, जहा
पहुंचना है।
लेकिन
वासनाओं के
रास्तों से
कोई भी कभी
किसी मंजिल पर
पहुंचा नहीं
है। और जब भी
कोई कभी किसी
मंजिल पर
पहुंचा है, वह मंजिल
भीतर है।
प्रभु
का स्मरण, प्रभु—अस्तित्व
की प्रतीति, परमेश्वर है,
ऐसा बोध
जैसे—जैसे घना
होता है, जैसे—जैसे
आनंद बनता है,
कामनाएं
गिरती चली
जाती हैं।
कामनाओं के
गिरते ही
मृत्यु गिर
जाती है।
जब
हृदय की
संपूर्ण
ग्रंथियां
भलीभांति खुल जाती
हैं तब वह
मरणधर्मा
मनुष्य इसी
शरीर में अमर
हो जाता है बस
इतना ही सनातन
उपदेश है
यह
दूसरी बात है :
जब हृदय की
संपूर्ण
ग्रंथियां
भलीभांति खुल
जाती हैं.।
हृदय
को भारतीय
मनीषा ने सदा
फूल की तरह
समझा है। अभी
जैसा है आपका
हृदय, वह
एक बंद कली है,
जो खुली
नहीं। और जैसा
हम जी रहे हैं,
शायद वैसे
में वह कभी
खुलेगी भी
नहीं। जड़ हो
गई है, पखुडियों
ने क्षमता शायद
खो दी है। या
इतना रस ही
नहीं बहता उस
फूल के भीतर
कि पखुडियां
खुल सकें। या
शायद इतना
प्रकाश नहीं
पड़ता फूल पर
कि पखुडियां
खुल सकें।
निर्जीव, कुम्हलाया
हुआ।
योग
में तो हमारे
सभी चक्रों की
दो स्थितियां बताई
हैं। साधारण
मनुष्य, जो वासनाओं
से भरा है, उसके
चक्र
कुम्हलाई हुई
कलियों की
भांति उलटे
लटके हैं।
शाखा भी झुक
गई है
कुम्हलाई कली
के कारण; कली
नीचे की तरफ
झुक गई है। यह
अवस्था है
साधारण
संसारी
मनुष्य के
चक्रों की।
जैसे—जैसे
ऊर्जा ऊपर
उठती है, जैसे—जैसे
प्राण का
संचार होता है
आपके जीवन—वृक्ष
में, ये
कलियां सतेज
हो जाती हैं।
ये ऊपर उठती
हैं, ये
सीधी खड़ी हो
जाती हैं। फूल
का रुख बदल
जाता है और
रूप, भागती
हुई ऊर्जा इन
पखुडियों को
खोलने लगती है।
एक दिन जीवन
के सारे फूल
भीतर खुल जाते
हैं।
जब
तक आपकी ऊर्जा
नीचे की तरफ
बह रही है, तब तक
कलियां
कलियां ही बनी
रहेंगी। जब
ऊर्जा ऊपर की
तरफ बहेगी, तब कलिया
फूल बनेंगी।
ऊर्जा नीचे की
तरफ बहती है, जब तक
वासनाएं और
कामनाएं हैं।
क्योंकि
कामनाएं नीचे
का पथ है।
ऊर्जा ऊपर की
तरफ बहने लगती
है जब कामनाएं
गिर जाती हैं।
हृदय की सारी
ग्रंथियां
टूट जाती हैं,
सारे
कांप्लेक्स, सारे बंधन, सारी जकड़ता
मिट जाती है।
हृदय एक खुला
हुआ फूल बन
जाता है।
यह
जो खुला हुआ
फूल है, इसकी
प्रतीति होते
ही, इसकी
सुगंध के
फैलते ही, इसी
शरीर में
मनुष्य अमर हो
जाता है। इसका
यह मतलब नहीं
है कि यह शरीर
फिर मरेगा नहीं।
फिर यह शरीर
ही मरेगा; फिर
वह जो भीतर है,
कभी नहीं
मरेगा। इस
अमृत की
उपलब्धि के
लिए मरना
आवश्यक नहीं है।
शरीर में रहते
हुए ही इस
अमृत का बोध
हो जाता है।
बस
इतना ही सनातन
उपदेश है।
यम
ने नचिकेता को
कहा कि बस
इतनी—सी बात
ही सनातन
उपदेश है। यही
सदा से
ज्ञानियों ने
कहा है।
जिन्होंने
जाना है, उन्होंने
दूसरों को
जतलाया है।
लेकिन न तो
वाणी से, न
मन से, न
इंद्रियों से
इस सत्य को
जाना जा सकता
है। इस सत्य
को तो हृदय के
भाव से कि
ईश्वर है, इस
प्रतीति में
गहरा उतर जाने
से...। इस गहराई
में उतरने का
नाम ही आस्था,
आस्तिकता
है।
जो
इस गहराई को
समझ लेता है
और इसमें
उतरने लगता है, जैसे—जैसे
घनी होती है
यह आस्था, जैसे—जैसे
यह श्रद्धा
प्रगाढ़ होती
है और जैसे—जैसे
यात्रा भीतर
की तरफ मुड़ती
है, वैसे—वैसे
ही इसी शरीर
में अमृत की
प्रतीति सघन
होती चली जाती
है।
वासनाओं
के गिरते ही
मनुष्य इसी
शरीर में अमृत
हो जाता है।
ध्यान
के लिए तैयार
हों।
ध्यान
योग शिवर
माऊंट
आबू,
राजस्थान।
THANK YOU GURUJI
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