प्रथम
खंड
अँ
केनेषितं
पतति
प्रेषितं मन:
केन प्राण:
प्रथम: प्रैति
युक्ति:।
केनेषितां
वाचमिमां
वदंति चक्षु:
श्रोत्रं क उ
देवो युनीक्ति।।
१।।
श्रोत्रस्य
श्रोत्र मनसो
मनो यद्वाचो ह
वाचं स उ
प्राणस्य
प्राण:।
चक्षुषश्चक्षुरतिमुव्यधीरा:
प्रेत्यास्माल्लोकादमृता
भवन्ति। 1२।।
केनोपनिषद
प्रथम अध्याय
किसकी
इच्छा पर और
किसके द्वारा
उत्पे्ररित होकर
मन अपने
विषयों पर
नीचे उतरता है? किसके
द्वारा उत्प्रेरित
होकर मुख्य
प्राण
संचारित होता
है? किसके
द्वारा उत्प्रेरित
होकर मनुष्य
यह वाणी बोलते
हैं? कौन—सा
देव आंखों तथा
कानों को
निर्दोंषित
करता है?
वह आत्मा
कान का भी कान
है मन का भी मन? है वाणी
की भी वाणी है, प्राण का भी
प्राण है,
और आंख की भी
आंख है। और
ज्ञानीजन
अपनी आत्मा को
इन
ज्ञानेंद्रियों
से अलग कर
ज्ञानेंद्रियों
से ऊपर उठ
जाते हैं और
अमरता को
उपलब्ध होते
हैं।
जब
तुम पैदा होते
हो तब जीवन
अपनी पराकाष्ठा
पर नहीं होता
है। वह अपने
न्यूनतम पर
होता है। और
यदि तुम वहीं
पर रूक जाते
हो तो वह करीब—करीब
मृत्यु के
निकट ही होता—करीब, करीब
जीवन की सीमा
पर होता है।
जन्म से
सिर्फ एक अवसर
मिलता है,
केवल प्रवेश
प्राप्त हाता
है।
जीवन
तो उपलब्ध
करना होता है।
जन्म तो उसकी
सिर्फ शुरूआत
है, न कि
अंत। लेकिन
सामान्यतया
हम जन्म के
बिंदू पर ही
रूक जाते है।
इसीलिए मृत्यु
घटित होती हे।
यदि तुम जन्म
के बिंदु पर
ही ठहर गए तो
फिर तुम
मरोगे। यदि तुम
जन्म के पार
जा सके तो ही
तुम मृत्यु
के भी पार जा
सकोगे। इसे
बड़ी गहराई से
ख्याल में ले
लो। मृत्यु
जीवन के
विरूद्ध नहीं
है। मृत्यु
तो जन्म के
विरोध में है।
जीवन तो कुछ
और ही है।
मृत्यु में
केवल जन्म
समाप्त होता
है। और जन्म
में केवल मृत्यु
की शुरूआत
होती है। जीवन
तो एक बिलकुल
ही अलग बात है;
उसे तो तुम्हें
पाना होगा,उपलब्ध
करना होगा, वास्तविक
बनाना होगा।
बह तो तुम्हें
एक बीज की
भांति,एक प्रसुप्त
संभावना की भांति
दिया जाता है—कुछ
जो कि हो सकता
है। किंतु जो
अभी है नहीं।
तुम उसे खो भी
सकते हो। इस
बात की पूरी
संभावना है।
तुम जीवित हो
क्योंकि तुम
जन्मे हो,लेकिन
वह जीवनमय
होने का
पर्यायवाची
नहीं है।
जीवन
तो एक प्रयास
है उस संभावना
को वास्तविक
बनाने का, यथार्थ
में बदलनें का; इसीलिए
धर्म का इतना
अर्थ है,
अन्यथा धर्म
का कुछ अर्थ
नहीं। जीवन
यदि जन्म के
साथ शुरू होता
हो और मृत्यु
के साथ समाप्त
होता हो तो
धर्म का कोई
मतलब नहीं। तब
तो धर्म व्यर्थ
है, बकवास
है। यदि जन्म
के साथ जीवन
का प्रारंभ
नहीं हो तो
धर्म का कुछ
अर्थ है। तब
वह विज्ञान हो
जाता है कि
कैसे जन्म से
जीवन को
विकसित करें!
और जितना जीवन
में तुम जन्म
से दूर चले
जाते हो, उतने
ही तुम मृत्यु
से भी दूर चले
जाते हो।
क्योंकि जन्म
और मृत्यु
समानांतर हैं,
एक ही हैं, एक ही समान
हैं, एक ही
प्रक्रिया के
दो छोर हैं।
यदि तुम एक से
दूर चले जाते
हो, तो साथ
ही साथ तुम
दूसरे से भी
दूर चले जाते
हो।
धर्म
जीवन को
उपलब्ध करने
का विज्ञान है।
जीवन मृत्यु
के पार है।
केवल जन्म की
ही मृत्यु
होती है, जीवन की तो
कभी कोई
मृत्यु नहीं
होती।
इस
जीवन को पाने
के लिए
तुम्हें कुछ
करना होगा।
जन्म तो
तुम्हें मिला
है। तुम्हारे
माता—पिता ने
कुछ किया, उन्होंने
एक—दूसरे को
प्रेम किया, वे एक—दूसरे
में पिघले। और
उनकी जीवन—ऊर्जा
से, उनके
एक—दूसरे में
पिघलने से, एक नई घटना, एक नया बीज—तुम
पैदा हुए।
परंतु तुमने
इसके लिए कुछ
भी नहीं किया;
यह तो एक
भेंट है।
स्मरण रहे कि
जन्म एक भेंट
है। इसीलिए
सारी
संस्कृतियां
माता—पिता को
इतना आदर देती
हैं। जन्म एक भेंट
है और तुम
उसका ऋण चुका
नहीं सकते।
कर्ज चुकता
नहीं किया जा
सकता। क्या कर
सकते हो तुम
उसे चुकाने के
लिए? जीवन
तुम्हें
प्रदान किया
गया है, किंतु
तुमने उसके
लिए कुछ भी—नहीं
किया।
धर्म
तुम्हें एक
नया जन्म दे
सकता है—दुबारा
जन्म दे सकता
है। तुम द्विज
हो सकते हो।
लेकिन यह जन्म
किसी कीमिया
के द्वारा
तुम्हारे
अंदर ही घटित
हो सकता है।
जैसे कि पहले —दो
जीवन शक्तियों
के मिलन से
हुआ था। किंतु
वह मिलन
तुम्हारे
बाहर हुआ था।
उन्होंने एक
अवसर पैदा
किया ताकि तुम
भीतर प्रवेश
कर सको। यह एक
गहरी कीमिया
है। ऐसी ही
कीमिया अब
तुम्हारे
भीतर होनी
चाहिए।
तुम्हारे
माता—पिता
मिले, दो
ऊर्जाएं, स्त्रैण
और पुरुष मिल
रही थीं ताकि
एक नई चीज को
पैदा होने के
लिए अवसर
निर्मित हो
सके। दो
विरोधी
शक्तियां मिल
रही थीं, दो
ध्रुवों का
मिलन हो रहा
था। और जब भी
दो ध्रुव
मिलते है, कुछ
नया जन्मता है,
एक नया
समन्वय
उपलब्ध होता
है। ऐसा ही
तुम्हारे
भीतर भी घटित
होना चाहिए।
तुम्हारे
भीतर भी ये
दोनों श्रुव
मौजूद हैं—स्त्रैण
और पुरुष।
मुझे इसे
विस्तार से
समझाने दो।
चूंकि
तुम्हारा
शरीर दो
ध्रुवों से
पैदा हुआ है
तुम्हारी मां
के कोषों से
तथा तुम्हारे
पिता कैं
कोषों सै। उन
दोनों ने
तुम्हारे
भीतर दोनों
प्रकार —के—
कोष निर्मित
किये हैं—वे
कोष जो
तुम्हारी मा
से आए और वे जो
तुम्हारे
पिता से आए।
तुम्हारे
शरीर में
दोनों ध्रुव
उपस्थित हैं—स्त्रैण
तथा पुरुष।
तुम दोनों हो।
प्रत्येक
व्यक्ति
दोनों है। चाहे
तुम स्त्री हो, चाहे तुम
पुरुष हो, इससे
कुछ भेद नहीं
पड़ता। यदि तुम
पुरुष हो तो
तुम्हारे
भीतर स्त्री
मौजूद है; तुम्हारी
मां वहां उपस्थित
है। यदि दुम
स्त्री हो, तो तुम्हारे
भीतर पुरुष
मौजूद हैं, तुम्हारे
पिता वहां
मौजूद हैं। वे
फिर से
तुम्हारे
भीतर मिल सकते
हैं। और सारा
योग, सारा
तंत्र, सारी
कीमिया, सारे
धर्म की
प्रक्रिया ही
इसलिए है कि
किस तरह वह
परम संभोग, वह गहनतम
संभोग उन
ध्रुवों में
पैदा हो जो कि तुम्हारे
भीतर मौजूद
हैं। और जब वे
तुम्हारे
भीतर मिलते
हैं तो एक नये
ही प्रकार के
स्वरूप का
जन्म होता है,
एक नये ही
जीवन का
प्रादुर्भाव
होता है।
यदि
तुम पुरुष हो
तो तुम्हारा
चेतन मन पुरुष
का है और
तुम्हारा
अचेतन मन
स्त्री का है।
यदि तुम एक
स्त्री हो तो
तुम्हारा
चेतन मन स्त्री
का है और
अचेतन पुरुष
का। तुम्हारे
चेतन तथा
अचेतन मिलने
चाहिए ताकि एक
नया जन्म संभव
हो सके। उसके
मिलने के लिए क्या
करें? उन्हें
निकट लाओ।
तुमने एक दूरी
निर्मित कर दी
है। तुमने सब
प्रकार की
बाहगएं पैदा
कर दी हैं।
तुम उन्हें
मिलने नहीं
देते। तुम
चेतन के साथ
ही तालमेल
बिठाना चाहते
हो और तुम
अचेतन को
दबाते चले
जाते हो। तुम
उसे आगे आने
ही नहीं देते।
यदि
एक आदमी रोना
और चिल्लाना.
शुरू कर दे, तो कोई
तुरंत उससे
कहेगा, '' अरे,
यह तुम क्या
कर रहे हो? स्त्रियों
की तरह
व्यवहार कर
रहे हो? '' आदमी
फौरन रुक जाता
है। पुरुष से
यह आशा नहीं
की जाती कि वह
रोए और चिल्लाए।
किंतु
तुम्हारे
भीतर संभावना
है, अचेतन
वहां मौजूद है।
तुम्हारे
स्त्री होने
के भी क्षण
होते हैं, तुम्हारे
पुरुष होने के
भी क्षण होते
हैं। हर एक के
होते हैं।
एक
स्त्री है, वह
विकराल हो
सकती है—किसी
वक्त पुरुष हो
सकती है किसी
मनस्थिति में।
लेकिन तब वह
दबायेगी। वह
कहेगी, ''यह
तो स्त्री की
भांति होना नहीं
है। '' हम
दबाते चले
जाते हैं, एक
दूरी निर्मित
करते चले जाते
हैं। उस दूरी
को हटा देना
है; तुम्हारे
चेतन और अचेतन
को निकट आ
जाना है। तभी
केवल वे मिल
सकते हैं, तभी
उनमें गहरा आंतरिक
संभोग घटित हो
सकता है। एक
महासंभोग, परमसंभोग
तुम्हारे
भीतर घट सकता
है। इस
महासंभोग को
ही
आध्यात्मिक
आनंद कहा जाता
है।
एक
प्रकार का
आनंद एक तो तब
संभव होता है
जब तुम्हारे
शरीर का
तुम्हारे
विपरीत
ध्रुवीय शरीर
से मिलन होता
है। लेकिन वह
क्षण भर के
लिए ही हो
सकता है
क्योंकि तुम
परिधि पर ही
मिलते हो।
केवल परिधियां
ही मिलती हैं, और फिर
अलग हो जाती
हैं। एक दूसरे
प्रकार के
संभोग का आनंद,
परम—आनंद
तुम्हारे
भीतर घटित हो
सकता है, किंतु
तब तुम केंद्र
पर मिलते हो, और फिर अलग
होने की
आवश्यकता
नहीं होती।
काम का आनंद
केवल क्षण भर
को ही हो सकता
है; आध्यात्मिक
आनंद ही
शाश्वत हो
सकता है। एक
बार उपलब्ध हो
जाए, तो
फिर तुम्हें
उसे खोने की
जरूरत नहीं।
वस्तुत: एक
बार उपलब्ध हो
जाने पर उसका
खोना कठिन है,
असंभव है
फिर उसका खोना।
वह एक ऐसी
एकात्मता है
कि उसमें अंश
पूर्णत: खो
जाते हैं।
इसीलिए
जब बुद्ध से
किसी ने पूछा
कि आप कौन हैं? क्या कोई
देवता हैं? कोई देवलोक
के वासी हैं? तो
उन्होंने कहा
कि नहीं। और
तब
प्रश्नकर्त्ता
पूछता ही चला
गया। फिर वह
प्रश्नकर्त्ता
हताश हो गया
क्योंकि जब भी
उसने बुद्ध से
पूछा कि आप यह
हैं कि आप वह हैं,
बुद्ध कहते
चले गए, नहीं!
तब
अंत में उसने
पूछा, ''कम
से कम आपको यह
कहना ही पड़ेगा
कि आप एक
पुरुष हैं।
इसके लिए तो
आपको हां कहना
ही पड़ेगा। ''
बुद्ध
ने कहा, ''नहीं! ''
''तब क्या आप
स्त्री हैं? '' उस व्यक्ति
ने बड़ी निराशा
से पूछा!
बुद्ध ने फिर
भी कहा, ''नहीं।
''क्योंकि
एक नया एकात्म
अस्तित्व में
आ गया था जो न तो
पुरुष था और न
स्त्री।
जब
तुम्हारे
भीतर पुरुष
तथा स्त्री
मिलते हैं तो
तुम दोनों ही
नहीं रहते; तब तुम
यौन का
अतिक्रमण कर
जाते हो। यही
अर्थ है
पुरानी से
पुरानी
भारतीय शिव की
प्रतिमा का :
अर्धनारीश्वर—आधा
पुरुष, आधी
नारी। यह आंतरिक
मिलन का चिह्न
है। शिव अब
दोनों ही नहीं
हैं। वे आधे
पुरुष हैं और
आधे नारी है—दोनों
हैं या फिर
दोनों नहीं
हैं। वे यौन
का अतिक्रमण
कर जाते हैं।
इसे
याद रखो कि जब
तक तुम यौन के
पार नहीं चले
जाते, तुम
द्वैत का
अतिक्रमण
नहीं कर सकते।
मल एक गहनतम
मनोवैज्ञानिक
समस्या है—केवल
मनोवैज्ञानिक
ही नहीं बल्कि
आध्यात्मिक
भी। यदि तुम
पुरुष अथवा
स्त्री बने
रहोगे तो फिर तुम
अस्तित्व
के एक होने की
कल्पना कैसे
कर सकते हो? तुम नहीं कर
सकते! पुरुष
होकर तुम
कल्पना भी
नहीं कर सकते
कि तुम स्त्री
के साथ एक हो।
स्त्री रहकर,
तुम अपने
लिए कल्पना
कैसे कर सकते
हो कि तुम
पुरुष के साथ
एक हो? एक
द्वैत चलता
चला जाता है।
यौन
एक बुनियादी
द्वैत है, और हम
शताब्दियों
से तर्क करते
रहते हैं और
विवाद करते
रहते हैं कि
तैसे उस
अद्वैत को
उपलब्ध हो
जाएं। किंतु
हम उसके बारे
में तर्क करते
रहते हैं जैसे
कि वह कोई
बौद्धिक मामला
हो ''कैसे
उस अद्वैत को
प्राप्त करें?
'' यह कोई
बौद्धिक
मामला नहीं है।
यह एक
आध्यात्मिक, आस्तित्वगत
मामला है। तुम
अद्वैत को तभी
उपलब्ध कर
सकते हो जब कि तुम्हारे
भीतर से द्वैत
मिट जाए। यह
कोई अद्वैत पर
सोचने—विचारने
का सवाल नहीं
है या ध्यान
करने का प्रश्न
नहीं है कि ''मैं ही
ब्रह्म हूं। ''
इससे कुछ भी
नहीं होगा, तुम सिर्फ
अपने को ही
धोखा दे रहे
हो।
अद्वैत
को तुम तब तक
नहीं पा सकते
जब तक कि तुम्हारे
भीतर से वह जो
बुनियादी काम
का द्वैत है। वह
विलीन नहीं हो
जाता, जब
तक कि तुम उस
जगह नहीं आ
जाते जहां कि
तुम यह नहीं
कह सकते कि तुम
कौन हो—स्त्री
या पुरुष। और
यह तभी होता
है जबकि
तुम्हारे
भीतर के स्त्री
और पुरुष एक
दूसरे में
पिघल कर एक
दूसरे में मिल
जाते हैं और
सारी सीमाएं
खो जाती हैं, सारे भेद
मिट जाते है
और वे दोनों
एक हो जाते हैं।
जब एक आंतरिक
महासंभोग, एक
आध्यात्मिक
आनंद घटित
होता है तब
तुम दोनों
नहीं रहते। और
जब तुम दोनों
नहीं रहते तभी
जीवन का आविर्भाव
होता है।
तुम्हारे
माता—पिता के
एक क्षण के
मिलन से तुम
पैदा हुए—एक
क्षण के मिलन
से! स्मरण रहे
जीवन सदा मिलन
से जन्मता है, न कि दमन
से। जीवन आता
है केवल एक
गहरे मिलन से,
गहरे एक हो
जाने से। एक
क्षण के लिए
तुम्हारे
पिता और
तुम्हारी माता
एक हुए थे, वे
दो नहीं थे।
वे एक
अस्तित्व की
तरह काम कर
रहे थे। उस
एकता में तुम
जन्मे थे।
जीवन
सदा एकता से
आता है। और
जिस जीवन की
मैं बात कर
रहा हूं या
जीसस बात करते
हैं अथवा
बुद्ध बात
करते हैं, वह वह
जीवन है जो कि
तुम्हारे
भीतर घटित
होता है—तुम्हारे
अंतर में। फिर
से एक एकता, एक पिघलना
घटित होता है
और तुम्हारे
भीतर जो दो
काम—ऊर्जाएं
हैं, घुलमिल
जाती हैं।
याद
रहे, मै
बार—बार कहता
हूं कि यौन, काम ही
आधारभूत
द्वैत है, और
जब तक तुम काम
का अतिक्रमण
नहीं करते, ब्रह्म को
नहीं पाया जा
सकता। और बाकी
जितने भी
द्वैत हैं, वे सब उसी
आधारभूत
द्वैत की
परछाइयां हैं।
जन्म और
मृत्यु भी एक
द्वैत ही है।
वे विलीन हो
जायेंगे यदि
तुम स्त्री या
पुरुष नहीं हो।
यदि तुम्हारे
पास ऐसी चेतना
है जो दोनों
के पार चली
जाती है तो
जन्म और
मृत्यु विलीन
हो जाते हैं, पदार्थ और
मन विलीन हो
जाते हैं, यह
जगत और वह जगत
मिट जाता है, स्वर्ग और
नर्क खो जाते
हैं। सारे
द्वैत खो जाते
हैं जब
तुम्हारे
भीतर से बुनियादी
द्वैत मिट
जाता है, क्योंकि
सारे द्वैत
सिर्फ उसी
बुनियादी भीतरी
विभाजन की
प्रतिध्वनियां
हैं, जो कि
बार—बार
गूंजती रहती
हैं।
इसीलिए
पुराने, प्राचीन
भारत के
मनीषियों ने
ब्रह्म को
तीसरी श्रेणी
में रखा हैं।
वह न तो
स्त्री है और
न पुरुष है।
वे उसे नपुंसक
कहते हैं। वे
उसे तृतीय
लिंग कहते हैं—यौन
की अंतिम
वास्तविकता।
ब्रह्म शब्द
नपुंसक लिंग
का है; वह
दोनों नहीं है
या फिर दोनों
है। लेकिन यह
सुनिश्चित है
कि वह द्वैत
का अतिक्रमण
कर जाता है।
इसलिए
परमात्मा की
दूसरी सब
धारणाएं बड़ी
बचकानी लगती
हैं। ईसाई उसे
पिता कहकर
पुकारते हैं।
यह बचकानी बात
है क्योंकि तब
मां कहा है? और यह बेटा
जीसस तब कहां
से पैदा हुआ? और वे कहते
हैं कि जीसस
इकलौता बेटा
है, लेकिन
मां कहां है? क्या पिता
अकेले ही पैदा
कर रहे हैं? यदि पिता
अकेले ही जन्म
दे रहे हैं तो
फिर वे दोनों
हैं—मां और
बाप। तब उसे
सिर्फ पिता न
कहो, अन्यथा
द्वैत आ जाता
है।
या
फिर, कुछ
धर्मों ने उस
आत्यंतिक
सत्ता को मा
कहा है। तब
फिर पिता कहां
है? ये सब
की सब मानव
केंद्रित
भावनाएं हैं।
मनुष्य —परमात्मा
की कल्पना
सिवाय मानव
स्वरूप के नहीं
कर सकता, इसलिए
वह उसे माता
या पिता कहकर
पुकारता है।
परंतु
जिन्होंने भी
जाना है, और
जो भी इस मानव केंद्रित
अवस्था के पार
गए हैं—मनुष्य
के भाव के पार
गए हैं—वे
कहते हैं कि
वह दोनों नहीं
है। वह दोनों
के पार है, वह
दोनों का मिलन
है।
उस
आत्यंतिक में
मां और पिता
दोनों ही
समाविष्ट हो
जाते हैं।
अथवा, यदि
तुम मुझे यह
कहने दो तो
मैं कहना
चाहूंगा कि
ब्रह्म, मां
तथा पिता का
गहरे संभोग
में डूबे होना
है; मिलन के
शाश्वत आनंद
में एकाकार हो
जाना है। और
उस महामिलन से
ही सारी
सृष्टि का
जन्म होता है,
उसी मिलन से
सारा खेल पैदा
होता है, उसी
महामिलन से जो
भी है, वह
सब जन्मता है।
यहां
इस ध्यान
शिविर में हम
प्रयास
करेंगे कि तुम्हारे
चेतन और अचेतन
निकट आ जायें।
तुम्हारे स्त्री—पुरुष
तत्व निकट आ
जायें।
तुम्हें मेरी
सहायता करनी
पड़ेगी और मेरे
साथ सहयोग
करना पड़ेगा।
ध्यान में
तुम्हें अपने
चेतन मन और
अचेतन मन के
बीच जितने भी
अवरोध हैं
उन्हें नष्ट
कर देना होगा।
और जितने अधिक
तुम मुक्त हो
सको, खुल
सकी, उतना
तुम्हें
खुलना होगा क्योंकि
दमन के कारण
ही ये अवरोध
पैदा हो गए
हैं।
अत:
दमन न करो।
यदि तुम्हारा
चिल्लाने का
मन हो तो
चिल्लाओ।
तुम्हारा
चिल्लाना
तुम्हारे
चेतन। तथा
अचेतन को निकट
ले आयेगा। यदि
तुम्हारा
नाचने का मन
हो तो नाचो।
वह नृत्य
तुम्हारे
चेतन तथा अचेतन
को निकट ले
आएगा। वस्तुत:
नृत्य बहुत
सहयोगी हो
सकता है
क्योंकि नृत्य
में तुम्हारा
शरीर और तुम्हारा
मन एक गहरे
मिलन में होते
हैं। केवल
शरीर ही नहीं
नाच रहा होता
है, शरीर
के भीतर
तुम्हारी
चेतना भी नाच
रही होती है।
वास्तव में, नृत्य तभी
नृत्य होता है
जब तुम्हारा
शरीर तुम्हारे
चैतन्य की आभा
से भर जाता है,
जब
तुम्हारी
चेतना
तुम्हारे
शरीर से बाहर
बह रही होती
है, जब
तुम्हारी
चेतना
तुम्हारे
शरीर के साथ लयबद्ध
हो जाती है।
सारे
पुराने धर्म
नाचते हुए
धर्म थे। वे
ज्यादा
प्रामाणिक थे।
हमारे धर्म के
सारे नए रूप
झूठे हैं। तुम
मंदिर जाते हो
या चर्च जाते
हो या
गुरुद्वारे
जाते हो, वहां तुम
सिर्फ बातचीत
करते हो। कोई
उपदेश देता है
और तुम सुनते
हो। वह सिर्फ
मानसिक हो गया
है। अथवा तुम
प्रार्थना
करते हो और
परमात्मा से बात
करते हो।
परमात्मा के
साथ भी तुम
भाषा का उपयोग
करते हो। तुम
उसके साथ भी
मौन नहीं हो
सकते। तुम विश्वास
ही नहीं कर
सकते कि वह
तुम्हें
तुम्हारी
भाषा के बिना
भी समझ सकता
है। तुम्हें
कोई भरोसा
नहीं है।
तुम्हारी उस
पर कोई
श्रद्धा नहीं
है। तुम उसको
सब कुछ समझाना
चाहते हो।
मैंने
सुना है :
एक
मां ने अपने
बच्चे को रात
में परमात्मा
से प्रार्थना
करते हुए सुना।
वह कह रहा था, ''प्यारे।
परमात्मा, प्यारे
प्रभु! टामी
को मुझ पर
चीजें फेंकने
से रोको। और
यह बात मैंने
तुम्हें पहले
भी कही है।''
लेकिन
यही तो हम भी
कर रहे हैं, ''टामी को
मुझ पर चीजें
फेंकने से
रोको। ''यदि
तुम वेदों के
ऋषियों के पास
जाओ तो वे भी
यही कर रहे
हैं। ''यह
करो, वह मत
करो। '' तुम
उसे उसकी
मर्जी के
अनुसार करने
के लिए छोड़ ही
नहीं सकते।
तुम उसे अपना
कार्यक्रम
बतला देते हो,
और यदि वह
तुम्हारे
अनुसार चले तो
तुम उसमें
विश्वास कर
सकते हो, और
यदि वह
तुम्हारे
अनुसार न चले
तो तुम कह
देते हो कि वह
है ही नहीं।
तुम्हारा
अनुयायी होकर
ही वह हो सकता
है।
अस्तित्व
तुम्हारा
अनुयायी नहीं
हो सकता।
अस्तित्व
तुमसे बड़ा है।
अस्तित्व
सर्व है, तुम उसमें
एक छोटे से
टुकड़े हो और
एक टुकड़े का
अनुकरण नहीं
हो सकता—टुकड़े
को सर्व का
अनुकरण करना
पड़ता है। ऐसा
ही मन वास्तव
में एक
धार्मिक मन
होता है—टुकड़ा
सर्व का
अनुकरण करता
हुआ,
टुकड़ा सर्व
को समर्पण
करता हुआ, टुकड़ा
संघर्ष—रत
नहीं बल्कि
टुकड़ा
समर्पित, अपने
को छोड़े हुए
होते है।
धर्म
भी बातचीत की, भाषा की
बात हो गया है।
यहां हम
प्रामाणिक
धर्म के निकट
आने का प्रयत्न
करेंगे
सर्वाधिक
रहस्य की बात
यह है कि तुम
उसमें पूर्णरूप
से संलग्न हो
जाओ—अपने मन, अपने शरीर अपना
भाव, अपना
सब कुछ लगा दो,
कुछ भी
दबाना नहीं है।
तुम रोओ और
चिल्लाओ, तुम
हंसो और नाचो
और तुम मौन
होकर बैठ जाओ।
तुम वह सब कुछ
करो जो कि
तुम्हारे
अंतर का स्वरूप
तुम्हें करने
के लिए कहे।
तुम उसे कुछ
भी करने के
लिए जबरदस्ती
मत करो। तुम
मत कहो कि यह
अच्छी बात
नहीं है, मुझे
यह नहीं करना
चाहिए। तुम एक
स्वत: स्फूर्त
बहाव को बहने
दो। तभी अचेतन
धीरे— धीरे
चेतन के निकट,
और अधिक
निकट आता
जाएगा।
हमने
दमन करके
अंतराल पैदा
कर लिए हैं : ''यह मत करो,
वह मत करो,'' और हम दमन
करते चले जाते
हैं। तब फिर
अचेतन दमित कर
लिया जाता है।
वह
अंधकारपूर्ण
हो जाता है।
वह हमारे घर
का एक ऐसा
हिस्सा हो
जाता है जिसमें
हम कभी प्रवेश
नहीं करते। तब
फिर हम
विभाजित हो
जाते हैं। और
याद रहे, तब
फिर
विकृतियां
पैदा होती हैं।
यदि
तुम अपने
अचेतन को, चेतन के
और——और निकट
आने दो तो काम
के साथ जो
अत्यधिक ग्रसित
मन है वह
विलीन हो जाता
है। यदि तुम
पुरुष हो और
अपने अचेतन को
मना कर देते
हो तो तुम
अपने भीतर की
स्त्री को मना
कर देते हो, तब फिर तुम
बाहर की
स्त्री की ओर
ज्यादा आकर्षित
होंगे। वह एक
प्रकार की
कुंठा हो
जाएगी
क्योंकि तब वह
उसकी परिपूरक
है। अंतर की
स्त्रैणता को
मना कर दिया
गया है, इसलिए
अब बाहर की
स्त्री
तुम्हारे मन
को ग्रसने लगी
है। तुम उसी
उसी के बारे में
सोचते रहोगे;
अब
तुम्हारा
सारा मन
कामुकता से भर
जाएगा।
यदि
तुम एक स्त्री
हो और तुमने
पुरुष को मना
कर दिया है तो
पुरुष
तुम्हारे पर
अधिकार कर लेगा।
तब फिर जो भा
तुम करोगे
उसमें
आधारभूत रंग
कामुकता का
होगा।
काम
के प्रति इतनी
कल्पना इसलिए
है कि तुमने अपने
भीतर के दूसरे
हिस्से को मना
कर दिया है।
इसलिए यह एक
तरह से उसकी
पुर्ति है। अब
तुम उसकी
पूर्ति कर रहे
हो जो कि
तुमने अपने ही
भीतर मना कर
दिया है। और
इस व्यर्थता
को देखो—कि
जितना तुम काम
से ग्रसित
होते हो, उतना ही तुम
उससे डरने लग
जाते हो।
जितना अधिक
तुम भीतर के
स्त्री—पुरुष
को मना करते हो,
उतना ही तुम
उसे दबाते हो;
जितना अधिक
तुम उसे दबाते
हो उतना ही
तुम उससे
ग्रसित होने
लगते हो।
तुम्हारे
तथाकथित
ब्रह्मचारी
काम से पूर्णत:
ग्रसित होते
हैं, चौबीस
घंटे काम से
ही ग्रसित
रहते हैं; वे
होंगे ही। यह
प्राकृतिक है।
प्रकृति बदला
लेती है। मेरे
लिए
ब्रह्मचर्य
का अर्थ है कि
तुम अपने भीतर
के स्त्री या
पुरुष के इतने
निकट आ गए हो कि
अब उसके लिए
परिपूरक की
आवश्यकता
नहीं है। तुम
अब उससे
ग्रसित नहीं
हो। तुम उसके
बारे में
चिंतन नहीं
करते। वह
विलीन हो गया
है।
जब
तुम्हारा
अचेतन तुम्हारे
निकट होता है
तो तुम्हें
उसे किसी और
से परिपूर्ण
करने की
आवश्यकता
नहीं है। और
तब एक चमत्कार
घटित होता है।
यदि तुम्हारा
अचेतन इतना
निकट है तो
फिर तुम जिसे
भी बाहर—चाहे
स्त्री हो
चाहे पुरुष—प्रेम
करते हो तो वह
प्रेम रुग्ण
नहीं होता।
यदि तुम्हारा
अचेतन बहुत
निकट है तो
तुम्हारा
प्रेम रुग्ण
नहीं होता। वह
मालकियत नहीं
करता, वह
विक्षिप्त
नहीं होता। वह
बहुत शांत, मौन और ठंडा
होता है। तब
फिर दूसरा
परिपूरक नहीं
होता है और
तुम दूसरे पर
निर्भर नहीं
होते हो, वरन
दूसरा सिर्फ
एक दर्पण हो
जाता है।
इस
भेद को स्मरण
रखो : कि दूसरा
परिपूरक नहीं
है; वह
ऐसा नहीं है
जिसे कि तुमने
मना किया हो।
दूसरा एक
दर्पण बन जाता
है तुम्हारे
भीतरी हिस्से
का, तुम्हारे
अचेतन का।
तुम्हारी
पत्नी, तुम्हारी
प्रेमिका
सिर्फ दर्पण
हो जाती है।
उस दर्पण में
तुम अपने
अचेतन को
देखते हो।
तुम्हारा
प्रेमी, तुम्हारा
पति, तुम्हारा
मित्र सिर्फ
एक दर्पण बन
जाता है, और
उस दर्पण में
तुम अपने
अचेतन को
स्पष्ट प्रतिबिंबित
होते देख सकते
हो, प्रक्षेपित
होते देख सकते
हो। तब पति और
पत्नी एक—दूसरे
के अचेतन को
और—और अधिक निकट
लाने में एक—दूसरे
की सहायता कर
सकते हैं।
और
एक क्षण आता
है, और
वह आना ही
चाहिए यदि
जीवन एक सफल
प्रयास है, जब पत्नी और
पति ज्यादा
समय तक पति—पत्नी
नहीं रह जाते,
वे इस
शाश्वत
यात्रा में एक—दूसरे
के साथी हो
जाते हैं। वे
एक दूसरे की
सहायता करते
हैं, वे एक—दूसरे
के लिए दर्पण
हो जाते हैं।
दोनों एक—दूसरे
के अचेतन को
प्रकट करते
हैं और दोनों
एक—दूसरे की
सहायता करते
हैं कि वे
स्वयं को जान सकें।
अब कोई
रुग्णता नहीं
है, कोई
निर्भरता
नहीं है।
एक
बात और याद
रहे : यदि तुम
अपने अचेतन को
मना करते हो, यदि तुम
अपने अचेतन से
घृणा करते हो,
यदि तुम
अपने भीतर की
स्त्री या
पुरुष को मना
करते हो, तो
तुम कहे चले
जाओगे कि तुम
बाहरी स्त्री
को प्रेम करते
हो लेकिन भीतर
गहरे में तुम
उससे भी घृणा
करोगे। यदि
तुम अपने ही
भीतर की स्त्री
मना करोगे तो
तुम जिस
स्त्री से
प्रेम करोगे उसे
घृणा भी करोगे।
यदि तुम अपने
ही भीतर के
पुरुष को मना
करते हो तो
तुम जिस पुरुष
को प्रेम
करोगे उससे
घृणा भी करोगे।
तुम्हारा
प्रेम बाहर
सतह पर होगा।
भीतर गहरे में
घृणा होगी।
ऐसा होगा ही, ऐसा होना ही
पड़ेगा, क्योंकि
तुम दूसरे को
अपने अचेतन का
दर्पण नहीं
बनने दोगे। और
तुम डरोगे भी।
पुरुष स्त्री
से डरा हुआ है।
जाओ और पूछो
तुम्हारे
तथाकथित
साधुओं से। वे
स्त्री से
इतने डरे हुए
हैं। क्यों 7
वे अपने अचेतन
से डरे हुए
हैं, और
स्त्री दर्पण
बन जाती है।
जो भी
उन्होंने
छुपा रखा है, वह उसे
प्रगट कर देगी।
यदि
तुमने कुछ दबा
रखा है तो वह
जो विरोधी
ध्रुव है वह
उसे तुरंत
प्रगट कर देगा।
यदि तुम काम
को दबाते रहे
हो तो तुम
ध्यान के लिए
किसी एकांत
स्थान में गए
और वहां से एक
सुंदर स्त्री
निकलती है और
तुम्हारा
अचेतन फौरन
मालिक हो
जाएगा। जो
छुपा हुआ है
वह प्रगट हो
जाएगा उस
स्त्री के उधर
से गुजरने से, और तुम उस
स्त्री के
विरुद्ध हो
जाओगे। तुम
मूर्ख हो
क्योंकि वह
स्त्री तो कुछ
भी नहीं कर
रही वह सिर्फ
वहा से गुजर
रही है, उसे
हो सकता है कि
पता भी नहीं
हो कि तुम भी
वहां हो। वह
कुछ भी नहीं कर
रही है। वह
सिर्फ एक
दर्पण है।
दर्पण गुजर
रहा है और उस
दर्पण में
तुम्हारा अचेतन
प्रगट होने
लगा है।
सारी
की सारी
तथाकथित
आध्यात्मिकता
भय पर खड़ी है।
क्या है भय? भय यह है
कि दूसरा
तुम्हारे
अचेतन को
प्रगट कर सकता
है और तुम
नहीं चाहते कि
उसको जानो।
लेकिन नहीं
जानना कुछ काम
न आएगा। दमन
से कुछ भी न
होगा। वह वहीं
रहेगा, वह
एक कैंसर हो
जाएगा। और ऐसा
होगा कि वह और—और
अधिक अपने को
आरोपित करेगा,
और अंततः
तुम अनुभव
करोगे कि तुम
असफल ही हुए हो।
और जो भी
तुमने दबाया
है वह जीत गया
है और तुम हार
गये हो।
मेरा
पूरा प्रयास
यह है कि
तुम्हारे
अचेतन को तुम्हारे
चेतन के निकट
ले आया जाए, ताकि तुम
उससे परिचित
हो सको—ताकि
वह तुमसे अज्ञात
न रहे। जब तुम
उससे मित्रता
कर लोगे तो
उसका भय विलीन
हो जाता है—विपरीत
ध्रुव का भय
चला जाता है।
और तब घृणा भी
विलीन हो जाती
है क्योंकि तब
दूसरा सिर्फ एक
दर्पण है, सहायक
है। तुम
कृतज्ञता का
अनुभव करते हो।
प्रेमी एक—दूसरे
के प्रति
कृतज्ञता का
अनुभव करते
हैं यदि उनका
अचेतन दमित
नहीं किया गया
हो। और वे एक—दूसरे
के प्रति घृणा
का अनुभव
करेंगे यदि
अचेतन को
दबाया गया हो।
अपने
पूरे स्वरूप
को काम करने
दो। तुम्हारे
भाव, तुम्हारी
वृत्तियां
कैद हैं, कैपसूल
में बंद हैं।
तुम्हारे
शरीर की
गतिविधियां
भी कारागृह
में बंद हैं।
तुम्हारा
शरीर, तुम्हारा
हृदय कुछ ऐसे
हो गए हैं
जैसे वे तुम्हारे
हिस्से नहीं
हैं। तुम
उन्हें एक बोझ
की तरह से
ढोते रहते हो।
अपने भावों को
पूरी तरह से
खेलने दो। हम
जो ध्यान करने
वाले हैं
उनमें अपने
भावों को पूरी
तरह से खेलने
दो और खेल का
आनंद लो। तब
बहुत—सी बातें
तुम्हें
प्रकट होंगी।
तुम
कभी चिल्लाये
नहीं हो। तुम
चिल्लाये
नहीं हो, तुम्हें याद
नहीं है कि
तुम आखिरी बार
कब चिल्लाये
थे। जब
चिल्लाना
आएगा और
तुम्हारे ऊपर
अपना अधिकार
कर लेगा तो
तुम डर जाओगे
कि यह क्या हो
रहा है
क्योंकि
तुम्हारा
नियंत्रण खो
रहा है। लेकिन
नियंत्रण को
खोने दो; तुम्हारा
नियंत्रण ही
जहर है। अपना
नियंत्रण
पूरी तरह खो
जाने दो। अपने
भावों को
ज्वालामुखी
की भांति
विस्फोटित
होने दो। तुम
चकित हो जाओगे
कि भीतर क्या
छुपा पड़ा है।
तुम पहचान भी
नहीं सकोगे कि
यह तुम्हारा
ही चेहरा है।
अपने
शरीर को भी
पूरी तरह
खुलकर खेलने
दो ताकि उसका
कण—कण जीवंत
हो जाये। जैसे
कि कोई चिड़िया
किसी शाखा पर
बैठे और शाखा
कंपने लगे—जीवंत
हो जाए उसी
तरह तुम्हारे
स्वरूप को तुम्हारे
शरीर पर बैठने
दो और
तुम्हारा
शरीर पूरी तरह
जीवंत हो उठे—भीतर
की शक्ति से
जीवंत हो जाए।
और अचानक तुम
एक नये आयाम
में प्रवेश
करोगे जो कि
अब तक अनजाना
ही था, और
वही आयाम
तुम्हें उस
आत्यंतिक की
ओर, उस
दिव्य की ओर
ले जाएगा।
अब
हम सूत्र को
लें :
किसकी
इच्छा पर और
किसके द्वारा
उत्प्रेरित
होकर मन अपने
विषयों पर
नीचे उतरता है? किसके
द्वारा उत्प्रेरित
होकर मुख्य
प्राण
संचारित होता
है? किसके
द्वारा उत्प्रेरित
होकर मनुष्य
यह वाणी बोलते
हैं? कौन—सा
देव आंखों व
कानों को
निर्दोषित
करता है?
गुरु
पूछ रहा है :
तुम्हारे
भीतर वह
बुनियादी स्रोत
कौन—सा है? कौन—सा है
तुम्हारे
सारे जीवन का
स्रोत, तुम्हारी
सारी
गतिविधियों
का, तुम्हारे
सारे हाव—
भावों का? कौन—सी
शक्ति
तुम्हारी
इच्छाओं को
पैदा करती है।
कौन—सी शक्ति
तुम्हें
जिंदा रहने के
लिए उत्प्रेरित
करती है? कौन—सी
शक्ति
तुम्हें
जीवेषणा
प्रदान करती
है; जरूर
कोई छिपी हुई
शक्ति होनी
चाहिए, और
फिर वह कभी
समाप्त न होने
वाली भी होनी
चाहिए
क्योंकि वह
चलती ही चली
जाती है, वह
कभी भी थकती
ही नहीं।
किसकी
इच्छा पर और
किसके द्वारा उत्प्रेरित
होकर मन अपने
विषयों पर
नीचे उतरता है?
जब
तुम किसी
सुंदर स्त्री
की ओर देखते
हो, अथवा
किसी सुंदर
फूल को, अथवा
सुंदर
सूर्यास्त को
देखते हो तो कौन
तुम्हें उत्प्रेरित
करता है? कौन
तुम्हें बाहर
की ओर ले जाता
है? कौन—सा
वह भीतरी
स्रोत है जो
कि तुम्हारी
सब क्रियाओं
का मूल
कर्त्ता है?
उपनिषद
कहते हैं कि
चाहे तुम कुछ
भी करो, कर्त्ता
सदैव ही
ब्रह्म है—तुम
चाहे कुछ भी
करो, तुम
करने वाले
नहीं हो। करने
वाला सदा
ब्रह्म है।
यदि तुम किसी
स्त्री की ओर
काम—लोलुप
होकर भागते हो
तो भी उपनिषद
कहते हैं वह
ब्रह्म ही है।
इसी कारण ईसाई
मिशनरी कभी
नहीं समझ सके
कि यह हिंदू
धर्म किस तरह
का धर्म है।
यहां काम—लोलुपता
भी
आध्यात्मिक
है, क्योंकि
मूल स्रोत तो
ब्रह्म ही है।
तुम अपनी
ऊर्जा से जो
भी कर रहे हो, उसमें भी
करने वाला वह
है।
एक
कहानी है
ब्रह्मा
ने सृष्टि
बनायी तो वह
उसके प्रेम
में पड़ गया।
ईसाई
धर्मशास्त्री
इस बात को
नहीं समझ सकते।
स्वभावत: यह
जरा मुश्किल
है समझना।
ब्रह्मा
दूसरे
स्वरूपों को
बनाता गया और
फिर वह उन्हीं
के प्रेम में
पड़ता गया।
उसने गाय को
बनाया और वह
उसी के प्रेम
में पड़ गया और
सांड हो गया।
और इस तरह
होता ही चला
गया जब तक कि
सारी सृष्टि
का निर्माण
नहीं हो गया।
वह गाय को
बनाता है और
वह सांड हो
जाता है। वह
अपने को
विपरीत
शक्तियों में
विभाजित करता
चला जाता है।
यह
कहानी बड़ी
सुंदर है यदि
तुम इसको समझ
सको। वह अपने
को दो विपरीत
ध्रुवों में
बांटता चला
जाता है। और
याद रहे, इसकी उल्टी
प्रक्रिया ही
उस तक वापस
पहुंचने का
मार्ग है। तुम
अविभाजित
होना। शुरू कर
दो, अपने
विपरीत से
मिलते चले जाओ।
वह विपरीत
ध्रुवों से
संसार बनाता
है। वह गाय को
बनाता हे
लेकिन वह
स्वयं भी गाय
है क्योंकि वह
गाय अपने से
ही बनाता है।
तब फिर वह
सांड हो जाता
है, लेकिन
वह खुद ही
सांड है। वह
दोनों है, स्त्रीलिंग
और पुल्लिंग।
फिर
वह गाय के
पीछे भागता है
और गाय उससे
बचकर भागती है।
गाय छुप जाती
है और अपने
छिपने से सांड
को निमंत्रण
देती है। यह
एक आंख—मिचौनी
का खेल हो गया।
इसीलिए हिंदू
कहते हैं कि
सारा सर्जन
सिर्फ एक खेल
है, लीला
है—एक खेल है
उसी एक ऊर्जा
का जो कि
विपरीत
ध्रुवों में बंट
गई है और आंख—मिचौनी
खेल रही है।
तुम
ब्रह्म हो।
तुम्हारा पति
भी ब्रह्म है, तुम्हारी
पत्नी भी
ब्रह्म है, और ब्रह्म आंख—मिचौनी
खेल रहा है।
यह धारणा ही
कितनी सुंदर
है!
इसकी
उल्टी
प्रक्रिया ही
मार्ग है उस
तक वापस पहुंचने
का। आंख—मिचौनी
मत खेलो। जो
भाग बंट गए हैं
एक—दूसरे के
साथ मिलने दो।
उन्हें एक—दूसरे
में मिल जाने
दो और ब्रह्म
फिर प्रगट हो
जाएगा—जो कि
एक है।
यह
गुरु पूछता है
:
किसकी
इच्छा पर और
किसके द्वारा उत्प्रेरित
होकर मन अपने
विषयों पर
नीचे उतरता है? किसके
द्वारा
प्रेरित होकर
मुख्य प्राण
संचारित होता है?
कौन है जो
तुम में श्वास
लेता है? किसके
द्वारा
उत्प्रेरित
होकर मनुष्य
यह वाणी बोलते
हैं? कौन
है जो तुममें
बोलता है? कौन—सा
देवता आंखों
और कानों को निर्दोषित
करता है? कौन
तुम्हारी
ज्ञानेंद्रियों
को निर्देशन
दे रहा है?
उपनिषद
इंद्रियों के
विरोध में
नहीं है। वे
आध्यात्मिक
रूप से
ऐंद्रिक—संवेदी
हैं, वे
उन्हें मना
नहीं करते।
निषद उनका
नारा नहीं है,
नकार उनका
रुख नहीं है।
वे स्वीकार
करते हैं और
वे कहते हैं
कि इंद्रियों
में भी दिव्य
ही गतिमान हो
रहा है
क्योंकि उसके
सिवाय तो कुछ
है नहीं
गतिमान होने
को। वे हर चीज
को पवित्र बना
देते हैं, हर
बात को पवित्र
बना देते हैं।
वे निंदा नहीं
करते, वे
यह नहीं कहते
कि यह पाप है।
उपनिषद पाप
नहीं जानते
हैं—बिलकुल
नहीं जानते
हैं। वे कहते
हैं कि पाप जैसा
कुछ है ही
नहीं—सब कुछ
सिर्फ खेल है।
पाप में भी, यहां तक कि
पापी में भी
वही ऊर्जा
गतिमान हो रही
है।
प्रत्येक
चीज पवित्र हो
जाती है। और
यदि तुम अपने
पूरे हृदय से
प्रत्येक चीज
को कह दो कि
पवित्र है, पवित्र
है, तो तुम
उसी वक्त
पवित्र हो
जाते हो।
क्योंकि यह
भाव ही कि सभी
कुछ पवित्र है, सब पाप को
विलीन कर देता
है। पाप पैदा
ही निंदा से
होता है। और
जितना अधिक
तुम निंदित
करते हो, उतने
ही अधिक तुम
पापी पैदा
करते चले जाते
हो।
सारा
संसार
पापियों की
भीड़ से भर गया
है, क्योंकि
हर बात निंदित
की जा चुकी है—हर
चीज। ऐसी एक
भी बात नहीं
है जो कि तुम
कह सको जिसे
किसी न किसी
ने निंदित न
किया हो। जब
सभी कुछ
निंदित हो
चुका हो तो
तुम भी पापी हो
जाते हो। तब
अपराध का भाव
पैदा होता है,
और तब उस
अपराध के भाव
के कारण तुम
प्रार्थना करते
हो। किंतु तब
वह प्रार्थना
भी विषाक्त हो
जाती है—क्योंकि
वह तुम्हारे
अपराध के भाव
से निकलती है।
जब तुम अपराधी
महसूस करते हो
तो तुम
प्रार्थना
करते हो, लेकिन
तब वह
प्रार्थना भय
पर आधारित है।
वह प्रार्थना
प्रेम नहीं है,
वह हो भी
नहीं सकती।
अपराध भाव के
साथ प्रेम
संभव हो ही
नहीं सकता।
अपने आपको
पापी समझते
हुए तुम प्रेम
कैसे कर सकते
हो?
उपनिषद
कहते हैं कि
हर चीज पवित्र
है, क्योंकि
वह हर चीज का
स्रोत है।
चाहे तुम्हें
सरिता गंदी ही
क्यों न दिखाई
पड़ती हो, उससे
कुछ लेना देना
नहीं है।
लेकिन स्रोत
तो वही है—गंदी
नदी और पवित्र
गंगा दोनों का।
दोनों को ही
ऊर्जा तो वही
देता है। पापी
को भी और साधु
को भी ऊर्जा
तो वही देता
है। वस्तुत:
ऐसी कोई कहानी
नहीं है, लेकिन
मैं चाहूंगा
कि ऐसी भी
कहानी हो कि
पहले उसने एक
पापी को बनाया,
और फिर वह
स्वयं साधु बन
गया। जैसे कि
गाय और सांड
की बात है, और
आंख—मिचौनी का
खेल। वैसे ही
उसने एक साधु
को बनाया, और
फिर वह स्वयं
पापी बन गया
और फिर वही आंख—मिचौनी
का खेल।
जो
भी है, उसको
पूर्णरूप से
स्वीकार करो।
अस्तित्व में
होने के कारण
ही वह पवित्र
है।
वह—आत्मा
या ब्रह्म—
कान का भी कान
है मन का भी मन
है वाणी की भी
वाणी है प्राण
का भी प्राण
है और आंख की
भी आंख है
ज्ञानीजन
अपनी आत्मा को
इन ज्ञानेंद्रियों
से अलग कर
ज्ञानेंद्रियों
से ऊपर उठ
जाते हैं और
अमरता को
उपलब्ध होते
हैं
जो
भी तुम करते
हो वह सब उसी
का कृत्य है, सर्व का
करना है। सर्व
ही तुम्हारे
भीतर काम करता
है। जब तुम
श्वास लेते हो
तो तुम क्या
करते हो? तुम
कुछ भी नहीं
करते। श्वास
भीतर आती है
और बाहर जाती
है। वस्तुत:
वही तुममें
श्वास लेता है,
तुम कुछ भी
नहीं कर सकते।
यदि श्वास
तुम्हारा
परित्याग कर
दे तो तुम क्या
कर सकते हो? यदि वह वापस
लौटकर नहीं आए
तो तुम क्या
कर सकते हो g यदि वह छोड़
कर चली गई तो
चली गयी और
यदि वह फिर वापस
नहीं आती तो
तुम कुछ भी
नहीं कर सकते।
वास्तव में, यदि वह नहीं
आती तो तुम
नहीं बचते। कौन
है फिर कुछ भी
करने वाला? वही श्वास
लेता है, न
कि तुम। जोर
सर्व पर है, न कि
व्यक्ति पर।
इसे
सतत याद रखना
पड़ेगा
क्योंकि हम इस
बात को बार—बार
भूल जाते हैं।
हमारा जोर
व्यक्ति पर है, मैं पर है
: ''मैं
श्वास ले रहा
हूं मैं जीवित
हूं। मैं देख
रहा हूं
तुम्हें।'' नहीं! गुरु
कहता है वही आंखों
के भीतर से
देख रहा है।
वही आंख की आंख
है। जब मैं
बोलता हूं तो
मैं नहीं बोल
रहा हूं। वही
बोल रहा है।
और जब तुम सुन
रहे हो तो तुम
नहीं सुन रहे
हो, वही
सुन रहा है।
वही गाय हो जाता
है, वही
सांड हो जाता
है। वही बोलने
वाला हो जाता
है, वही
सुनने वाला हो
जाता है। यह
एक बडा
रहस्यमय खेल
चल रहा है आंख—मिचौनी
का—एक महान
लीला चल रही
है, एक
नाटक खेला जा
रहा है। और
बड़ा सुंदर है
यह अगर तुम
इसे समझ सको।
वही है सब जगह,
सुनने वाले
में भी, बोलने
वाले में भी।
वही है सब जगह।
और जब तुम मौन
हो जाते हो तो
वही मौन हो
जाता है तुम्हारे
भीतर, जब
तुम बोलते हो
तो वही बोल
रहा होता है
तुम्हारे
भीतर।
यह
कोई
दर्शनशास्त्र
की बात नहीं
है, न यह
कोई सिद्धात
है—सिद्धात की
भांति भी यह
श्रेष्ठ है—लेकिन यह
तुम्हें एक नई
अनुभूति की ओर
ले जाने के
लिए है। बोलते
समय यदि
तुम्हें यह
प्रतीति हो
सके कि वही
बोल रहा है तो
बोलने में जो
ज्वर है वह विलीन
हो जाएगा।
लड़ते समय यदि
तुम यह स्मरण
रख सको कि वही
लड़ रहा है तो
लड़ना एक नाटक
हो जायेगा।
मौन होते समय
महसूस करो कि
वही मौन हो
रहा है
तुम्हारे
भीतर... और यदि
मौन भंग हो
जाए और विचार
आने लगें, तो
तुम जानो कि
वही आंदोलित
हुआ है न कि
तुम। और वही
विचार हो गया
है और अब
तुम्हारे
अंतर के आकाश
में बादल बनकर
वही विचर रहा
है। वह दोनों
है, फिर
कैसी चिंता? वह दोनों है।
जब
तुम स्वस्थ
होते हो तो
वही तुम्हारे
भीतर स्वस्थ
होता है : और जब
तुम रुग्ण
होते हो तो
तुम्हारे भीतर
वही रुग्ण
होता है। तुम
बिलकुल
निश्चित रहो।
तुम्हें बीच
में आने की
जरूरत ही नहीं
है। तुम्हारा
सारा बोझ उस
पर पड़ गया है।
इसी कारण मैं
कहता हूं कि
यह कोरी
दर्शनशास्त्र
की बात नहीं
है, यह एक
गहनतम विधि है
तुम्हें
रूपांतरित
करने की, तुम्हारे
समूचे स्वरूप
को बदलने की
विधि है।
यदि
वही सब कुछ कर
रहा है तो फिर
तुम व्यर्थ में
क्यों अपने को
लादे चले जा
रहे हो? वही श्वास
लेता है, वही
जन्मता है और
वही मरता है।
जब तुम मरोगे
तो वही मरता
है न कि तुम। फिर
मृत्यु से भय
कैसा? तुम
बिलकुल अलग हो
जाते हो। वह
अलग छूट जाना
तुम्हें सारे
बोझ से मुक्त
कर देता है।
और वही
वास्तविकता
है। यह कोई
मान लेने की
बात नहीं है।
यही सत्य है.
जो भी हो रहा
है, सर्व
के साथ हो रहा
है, व्यक्ति
तो मात्र एक
भ्रम है।
न
मैं कभी
अहंकार की
भांति रहा हूं
और न मैं
अहंकार की तरह
से हूं और न
मैं हो सकता
हूं,
केवल वही है।
और जब मैं
कहता हूं 'वह'
तो मेरा
मतलब 'सर्व'
से है। उसे
कभी भी किसी
व्यक्ति की भांति
समझने की
चेष्टा मत करो।
वह कोई
व्यक्ति नहीं
है, वह तो 'सर्व' है,
समष्टि है।
वह जो तुम्हारे
भीतर श्वास
लेता है, वही
वृक्षों में
श्वास लेता है,
और वह जो
तुम्हारे
भीतर गीत गाता
है, वही
पक्षियों में
भी गीत गाता
है, और वह
जो तुम्हारे
भीतर नाचता है,
वही
सरिताओं में,
नहरों में,
झरनों में
नृत्य करता है, ओर वह जो
तुम्हारे
भीतर बोलता है,
वही
वृक्षों की सरसराती
हवाओं में
बोलता है। वही
समग्र है, सर्व
है।
केवल
देखने का ढंग
बदलो, केवल
ढांचे को
परिवर्तित
करो। व्यक्ति
पर जोर मत दो, सर्व की और
चलो। तब फिर
क्या समस्या
है? फिर तो
कोई भी समस्या
नहीं है।
तुम्हारे
रहते सारी
समस्याएं
प्रवेश कर
जाती हैं।
तुम्हारे
रहते, सारे
दुखों और सारी
चिंताओं का
आगमन हो जाता
है। तुम पर
कोई बोझ न हो
तो तुम मुक्त
हो सकते हो।
तुम चाहो तो
इसी क्षण
मुक्त हो सकते
हो, इसी
क्षण सिद्ध हो
सकते हो। केवल
इतनी सी बात
जानकर, महसूस
करके कि ''मैं
नहीं हूं वही
है, '' अतीत
खो जाता है, और भविष्य
मिट जाता हे।
क्योंकि
भविष्य का
जन्म ही
तुम्हारी
चिंताओं, तुम्हारी
कल्पनाओं, तुम्हारे
प्रक्षेपणों
के कारण होता
है। फिर तो
वही जाने, वही
चिंता ले। फिर
जो भी होता है
हुआ करे। और
फिर जो भी
होता है सब
शुभ है, क्योंकि
वह उसी से आया
है।
यही
अर्थ है श्रद्धा
का। श्रद्धा
परमात्मा में
विश्वास नहीं
है कि वह कहीं
स्वर्ग में
ऊंचे सिंहासन
पर विराजमान है
और प्रत्येक
को वहा से
निर्देश दे
रहा है, कि वह कोई
बड़ा नियंता है
कि कोई
इंजीनियर है, या ऐसा कोई
है—नहीं। वह
कोई मैनेजिंग
डायरेक्टर
नहीं है। वह
ऐसा कुछ नहीं
है! न तो कहीं
कोई सिंहासन
ही है, और न
ही कोई उस पर
विराजमान है।
और श्रद्धा का
यह अर्थ भी
नहीं है कि
तुम किसी फिलासफी
अथवा किसी
धारणा पर
विश्वास करो।
श्रद्धा का
इतना ही अर्थ
है कि तुम उस
सर्व पर भरोसा
करो। फिर सभी
कुछ आनंदपूर्ण
है। फिर कुछ
और हो भी कैसे
सकता है?
फिर सिवाय
आनंद के और रह
भी क्या जाता
है. तुम ही दुख
पैदा करते हो
क्योंकि तुम
बीच में आ जाते
हो। बीच से हट
जाओ—ऐसे ही
जैसे कि दीये
को बुझा दिया
गया हो। हटो
एक तरफ... और तब
वही है।
वह
कान का भी कान
है मन का भी मन
है वाणी की भी
वाणी है प्राण
का भी प्राण
है आंख की भी आंख
है
जो
भी सतह पर
दिखाई पड़ता है
उससे कुछ अंतर
नहीं पड़ता, सदैव
भीतर छिपा हुआ
वही है। मेरी
तरफ इसके पूरे
स्मरण से भरकर
देखो कि वही
तुम्हारे
भीतर से देख
रहा है और
तुरंत चेतना
का गुण बदल
जाता है। अभी,
देखो मेरी
ओर! जैसे कि
वही देख रहा
है, वही आंख
की आंख है, और
तत्क्षण तुम
पाओगे कि तुम
वहां नहीं हो
और एक प्रगाढ़
शांति की घटना
घटेगी।
तुम्हारे
होने का सारा
गुणधर्म ही
भिन्न हो जाएगा
जब तुम मुझे
ऐसे देखोगे
जैसे वही देख
रहा है।
तुम
मुझे सुन रहे
हो, भूल
जाओ कि मैं
यहां हूं। वही
यहां पर है, सर्व ही है।
सर्व ने ही
मुझ पर अधिकार
कर लिया है, सर्व ही
मुझमें जीवंत
हो गया है, सर्व
ने ही मुझे
अपना एक साधन
बना लिया है।
मेरी तरफ ऐसे
देखो जैसे कि
वही बोल रहा
है, मुझे
ऐसे सुनो जैसे
कि वही बोल
रहा है। और तब
सब कुछ बदल
जाता है, तब
तुम नहीं रह
जाते। अचानक
एक बिजली सी
कौंधती है. और
सब कुछ बदल
जाता है।
यह
कोई समय का
सवाल नहीं है।
इसका तुम्हें
अभ्यास नहीं
करना है, इसे तुम इसी
क्षण देख सकते
हो। देखो मेरी
ओर! तुम वहां
नहीं हो; सर्व,
समग्र ही आंखें
बन गया है।
सर्व ही
तुम्हारे
भीतर आंखें हो
गया है। तुम
सिर्फ उस
समग्र की मरजी
की मात्र
अभिव्यक्ति
रह गए हो।
महसूस करो कि
समग्र ही मेरे
भीतर शब्द बन
गया है, वही
मुझे चला रहा
है, वही
मुझे बुला रहा
है, वही
मेरा उपयोग कर
रहा है। और तब
इस कमरे में
वही रह गया है,
सिर्फ वही
है।
और
तब समग्रता
अखंड हो जाती
है। तब टुकड़े
खो जाते हैं
और खंड कहीं
भी नहीं बचते।
और तब बोलने
वाले और सुनने
वाले के बीच
एक महासंभोग
घटित होता है।
तभी तुम्हें
उसकी
उपस्थिति की
प्रतीति होगी, लेकिन वह
उपस्थिति
तुम्हें तभी
अनुभव होगी जब
तुम अपने को
भूल जाओ।
परमात्मा का
स्मरण कोई
उसका नाम लेने
से नहीं होता
कि तुम उसका
नाम जपते रहो— ''राम—राम, कृष्ण—कृष्ण।
'' वह सब
बेकार है, अर्थहीन
है। उसके
स्मरण का अर्थ
है अपने को
भूल जाना। यदि
तुम नहीं हो, यदि तुम
स्वयं को भूल
गए हो, पूरी
तरह मिट गए हो,
तो फिर वही
है। जब तुम
नहीं होते हो
तो अचानक वही
होता हे। और यह
बात एक क्षण
में घट सकती
है।
मुझे
दूसरे
विश्वयुद्ध
की एक घटना
याद आती है :
इंग्लैंड
के एक छोटे—से
गांव में एक
चौराहे पर
जीसस की
मूर्ति लगी हुई
थी। मूर्ति
सुंदर थी : ऊपर
हाथ उठाए हुए।
और उस मूर्ति
पर एक प्लेट
लगी हुई थी
जिस पर लिखा
हुआ था, ''कम अनटू मी''——मेरे पास
चले आओ। दूसरे
विश्वयुद्ध
में वह मूर्ति
नष्ट हो गई थी,
उस पर एक बम
गिर गया था। और
युद्ध के बाद
जब वापस
निर्माण
कार्य चल रहा
था और गांव
में वापस जीवन
लौट रहा था, तो लोगों।
ने उस मूर्ति
की याद आई, अत:
उन्होंने
उसके टुकड़े
खोजने शुरू
किए। इधर—उधर खंडहरों
में उसके टुकड़े
मिल गए और उस
मूर्ति को
वापस स्थापित
कर दिया गया।
परंतु वे हाथ
कहीं भी नहीं
मिले। वे खो
गए थे।
गाव
की सभा ने
फैसला किया कि
किसी
मूर्तिकार को
नए हाथ बनाने
के लिए कहा
जाए। परंतु एक
वृद्ध आदमी ने
जो कि सदा उस
मूर्ति के पास
बैठा रहता था—जब
वह मूर्ति
वहां लगी हुई
थी तब भी, ओर जब वह
नहीं थी तब भी—उसने
कहा, ''नहीं,
जीसस को
बिना हाथों के
ही रहने दो।''
सभा
ने कहा, ''हम उस प्लेट
के लिए क्या
करें? उस
पर लिखा हुआ
था कि 'कम
अनटू मी'—मेरे
पास दूसरे चले
आओ; और
उसके हाथ ऊपर
उठे हुए थे।''
उस
वृद्ध आदमी ने
कहा, ''प्लेट
भी बदल डालो
और उस पर लिख
दो : मेरे पास
चले आओ। मेरे
पास दूसरे कोई
हाथ नहीं हैं
सिवाए
तुम्हारे
हाथों के।''
और
अब वहां बिना
हाथों की
मूर्ति खड़ी है, और उसके
नीचे लिखा हुआ
है, ''मेरे
पास चले आओ।
मेरे पास
दूसरे कोई हाथ
नहीं हैं, सिवाय
तुम्हारे हाथों
के।''
तुम्हारे
हाथों में वही
चल रहा है, तुम्हारी
आंखों में वही
घूम रहा है, और तुम्हारे
हृदय में वही
धड़क रहा है—वही
समग्र। और याद
रहे, उसके
कोई दूसरे हाथ
नहीं हैं।
उसके पास
दूसरी कोई आंखें
नहीं हैं, उसके
से पास दूसरा
कोई हृदय नहीं
है। वही धड़क
रहा है; वही
सब जगह जीवंत
है। यही संदेश
है।
वह
कान का भी कान
है मन का भी मन
है वाणी की भी
वाणी है प्राण
का भी प्राण
है आंख की भी
आंख है
ज्ञानीजन
अपनी आत्मा को
इन ज्ञानेंद्रियों
से अलग कर
ज्ञानेंद्रियों
से ऊपर उठ
जाते हैं और
अमरता को
उपलब्ध होते
हैं।
ये
सारी ज्ञानेंद्रियाँ
तो सिर्फ साधन
हैं, भीतर
तो वही है काम
करने वाला। यह
बात जानकर तुम
जानेंद्रियों
के विरुद्ध
नहीं होते। इस
बात को जानकर
सारा जोर बदल
जाता है। तब
तुम इन
इंद्रियों से
ग्रसित नहीं
होते। तुम सदा
फिर भीतर के
केंद्र को
देखने में लगे
रहते हो। और
ऋषि कहता है
कि इस अतिक्रमण
को जानकर ही
उन्होंने
अमरत्व को पा
लिया है। याद
रहे कि केवल
तुम्हीं मरते
हो; जीवन
कभी मरता नहीं।
चूंकि तुम
पैदा होते हो,
तुम मरते भी
हो। यह
स्वाभाविक
अंत है
प्रत्येक
जन्म का। जीवन
तो शाश्वत
चलता जाता है,
जीवन कभी
नहीं मरता।
लहरें उसमें
उत्पन्न होती
हैं और विलीन
हो जाती हैं।
सरित की भांति
जीवन तो चलता
ही चला जाता
है, चलता
ही चला जाता
है।
एक
बार तुम अपनी
तरंगों के
भीतर इस सरिता
को महसूस कर
लो तो फिर तुम
अमर हो गए।
यदि तुम उसे
अनुभव कर सको
कि वही
तुम्हारे
भीतर से देख
रहा है, वही श्वास
ले रहा है, तो
फिर तुम अमर
हो। केवल यह
खोल, यह
शरीर का वाहन
ही मिटेगा।
तुम कभी भी
नहीं मिटोगे।
तुम तो सदा—सदा
से हो।
कभी
तुम वृक्ष थे
क्योंकि तब
वृक्ष वाहन था, क्योंकि
उसने ही
तुम्हारे
द्वारा वृक्ष
होना चाहा था।
कभी तुम गाय
थे, क्योंकि
उसने ही तुम्हारे
द्वारा गाय
होना चाहा था।
कभी तुम तितली
थे, कभी
फूल थे, कभी
चट्टान थे....लेकिन
तुम सदा—सदा
से यहां हो।
तुम सदा से
यहां हो। तुम
कोई नए मेहमान
नहीं हो। कोई
यहां नया
मेहमान नहीं
है, कोई यहां
अजनबी नहीं है।
तुम सदा से ही
यहां हो, लेकिन
भिन्न—भिन्न
वाहनों
के
रूप में। कभी
चट्टान वाहन
थी, अभी
तुम स्त्री या
पुरुष हो; अभी
यह एक वाहन है।
यदि
तुम इसे समझ
सको और जान
सको कि वाहन
सिर्फ वाहन ही
है, और
वाहन बदला जा
सकता है उसे
बदलना ही
पड़ेगा। लेकिन
वह आतंरिक
स्वरूप जो कि
चेहरे बदलता
रहता है, वह
तो वैसा का
वैसा ही रहता
है। वह अमर है।
जीवन अमर है।
तुम मरणधर्मा
हो, और तुम
क्यों
मरणधर्मा हो?
क्योंकि
तुमने अपना
तादात्म्य
वाहन से जोड़ लिया
है। बैलगाड़ी
पर चलते हुए
तुम बैलगाड़ी
ही हो जाते हो।
रेलगाड़ी में
यात्रा करते
हुए तुम
रेलगाड़ी ही हो
जाते हो। हवाई—जहाज
में उड़ते हुए
तुम हवाई—जहाज
ही हो जाते हो।
तुम भूल ही
जाते हो कि
बैलगाड़ी, रेलगाड़ी,
हवाई—जहाज
आदि सब वाहन
हैं।
तुम
वाहन नहीं हो।
तुम समग्र हो, तुम एक
समग्रता हो जो
कि वाहन बदलती
जाती है। तब
तुम अमर हो
जाते हो।
स्मरण रहे, तुम कभी अमर
नहीं हो सकते
यदि तुम शरीर
से अपना
तादात्म्य
कर लो। तुम
अमर हो यदि
तुम शरीर के
पार चले जाऔ।
चेतना अमर है,
जीवंतता
अमर है।
सूत्र
कहता है :
ज्ञानीजन
ज्ञानेंद्रियों
का अतिक्रमण
कर इनसे ऊपर
उठ जाते हैं
और अमरता को
उपलब्ध होते
हैं। और जितना
अधिक तुम उस आतंरिक, उस
सारभूत, उस
शाश्वत, उस
अमरत्व को
महसूस करते हो,
उतना ही कम
तुम
इंद्रियों के
जीवन से
ग्रसित होते
हो। तुम उनके
साथ खेल कर
सकते हो, लेकिन
तब तुम उनसे
ग्रसित नहीं
होते।
कृष्ण
अपनी बांसुरी
बजाते हुए
बांसुरी से ग्रसित
नहीं हैं, कृष्ण
गोपियों के
साथ नाचते हुए
उनसे ग्रसित नहीं
होते। वह
सिर्फ एक खेल
है, लीला।
यदि तुम
अमरत्व को
जानते हो तो
जीवन एक खेल
हो जाता है, न कि
ग्रसितता।
दिनांक 9
जुलाई 1973, प्रात:,
माउंट आबू
राजस्थान।
thank you guruji
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