ध्यान और आंतरिक आँख—सातवां—प्रवचन
दिनांक 11 जुलाई 1973; संध्या,
माउंट आबू राजस्थान।
प्रश्न सार :
*क्यों सदगुरुओं को ईश्वर की भांति पूजा जाता रहा है?
*अराजकतापूर्ण श्वास से पुराने ढांचों के टूट जाने के बाद नया कैसे निर्मित होगा?
*क्या यह कहना कि प्रार्थना मूर्तिपूजा मंदिर और चर्च सब झूठ पर आधारित हैं निषेध नहीं है?
पहला प्रश्न :
सुबह
आपने कहा कि पूजा के द्वारा ब्रह्मको नहीं पाया जा सकता। वरन वह पूजा करने
वाले के भीतर ही पाया जाता है। लेकिन सदगुरूओं को उनके शिष्यों ने सदा ही
ईश्वर की भांति पूजा है। कृपया इसका महत्व समझायें।
सदगुरूओं को ईश्वर की भांति पूजा गया है। किंतु यह सिर्फ प्रारंभ है, न
कि अंत। सदगुरू तभी वास्तव में सदगुरू है यदि वह अपने शिष्यों को अंत
में सब पूजा से मुक्त कर दे। परंतु प्रारंभ में ऐसा ही होगा। क्योंकि
प्रारंभ में सदगुरू तथा शिष्य के बीच एक प्रेम का संबंध होता है। और वह
बड़ा गहन होता है। और जब भी तुम किसी के प्रेम में होते हो तो दूसरा
तुम्हें दिव्य दिखाई पड़ता है।
सामान्य
प्रेम में भी प्रेमी हमें परमात्मा दिखाई पड़ताहै। सदगुरू तथा शिष्य के
बीच जो संबंध होता है वह बहुत ही गहरा प्रेम—संबंध होता है। असल में, तुम
गुरु के प्रेम में पड़ जाते हो। और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। और जब तुम
गुरु के प्रेम में पड़ जाते हो तो तुम पुजा करने लग जाते हो। लेकिन सदगुरू
उसे एक खेल की भांति ही लेता है। यदि वह भी उसे गंभीरता से ले और उसमें रस
लेने लगे, और महत्व देने लगे, तो वह फिर सदगुरू नहीं हे। उसके लिए वह सिर्फ एक खेल है—लेकिन खेल अच्छा है, क्योंकि इससे शिष्य की सहायता की जा सकती है।
इससे शिष्य की सहायता कैसे होगी? जितना अधिक शिष्य गुरु की पूजा करता हे उतना ही वह गुरु के निकट आता जाता है। उतना ही वह घनिष्ठ होता जाता है, उसनाही वह सर्मिपित होता जाता है। ग्राहक, निष्कि्रय
होता जाता है। और जितना अधिक वह ग्राहक निष्क्रिय तथा समर्पित होता है
उतना ही वह गुरु जो भी कहने की कोशिश कर रहा है उसको समझ पाता है। और जब यह
घनिष्ठता आखिरी बिंदु पर आ जाती है, केवल एक इंच की दूरी भर रह जाती है, एक जरा सा ही अंतराल शेष रह जाता है, जब निकटता इतनी गहरी हो जाती है कि सदगुरु शिष्य को उसकी ओर ही वापस मोड़ सकता है, तब सदगुरु शिष्य की सहायता करता है कि वह उससे भी मुक्त हो जाए।
प्रारंभ
में यह असंभव है। तुम समझ न सकोगे। यदि गुरु तुम्हें अपने से मुक्त करने
की कोशिश करे पो तुम नहीं समझ पाओगे। प्रारंभ में तो तुम चाहोगे कि कोई हो
जिसका तुम सहारा ले सको। प्रारंभ में तुम किसी पर निर्भर होना चाहोगे।
प्रारंभ में तुम चाहोगे कि तुम किसी के ऊपर पूरी तरह निर्भर हो जाओ। यह
आंतरिक आवश्यकता है। और तुम्हें प्रारंभ से मालिक बनाया नहीं जा सकता।
प्रारंभ तो एक आध्यात्मिक निर्भरता की भाति ही होगा।
लेकिन यदि सदगुरु भी इससे संतुष्ट हो जाए कि तुम उस पर निर्भर हो तो वह सदगुरु नहीं है। वह नुकसानदायक है, वह खतरनाक है; तब
उसे कुछ भी पता नहीं है। यदि वह भी तृप्ति अनुभव करता हो तो फिर यह
निर्भरता आपसी हो गई। तुम उस पर निर्भर करते हो और वह तुम पर निर्भर करता
है। और यदि गुरु तुम पर किसी भी बात के लिए निर्भर करता हो तो फिर वह किसी
काम का नहीं है। किंतु यदि वह तुम्हें प्रारंभ से ही मना कर दे तो कोई
निकटता नहीं बन पाएगी। और यदि कोई निकटता ही न बनेगी तो अंतिम कदम नहीं
उठाया जा सकता।
जब तुम गुरु में इतनी श्रद्धा करो कि जब वह तुम्हें कहे, ''अब मुझे भी छोड़ दो, ''तो तुम उसे भी छोड़ दो, तभी तुम मुक्त होने में समर्थ हो सकोगे। यदि तुम अपने गुरु पर इतनी अधिक श्रद्धा करते हो कि यदि गुरु कहे, ''तुम मुझे मार डालो, ''तो तुम उसको मार भी सकी, केवल तभी तुम मुक्त हो सकोगे, उसके पहले नहीं। और यह स्थिति धीरे— धीरे ही लानी पड़ेगी। यह एक लंबी प्रक्रिया है। इसमें कभी पूरा जीवन निकल जाता है, और कभी—कभी कितने ही जीवन बीत जाते हैं, गुरु शिष्य पर काम करता रहता है।
शिष्य को कुछ भी पता नहीं है। वह नहीं जानता, वह अंधेरे में चलता जाता है। गुरु शिष्य को उस बिंदु पर ले जा रहा है जहां शिष्य—शिष्य नहीं रहेगा, बल्कि वह भी अपने आप में एक गुरु हो जाएगा। जब तुम भी गुरु हो जाते हो, जब गुरु पर निर्भर होने की जरूरत नहीं रहती, जब तुम अकेले भी हो सकते हो, और जब तुम अकेले हो तो भी कोई दुख नहीं है, कोई पीड़ा, कोई क्रोध नहीं है, जब तुम अकेले में भी आनंदित हो, तभी तुम मुक्त हो।
और वास्तव में, जब शिष्य गुरु के पास होता है तो गुरु उसको ईश्वर दिखाई पड़ता है।
शिष्य के लिए यह बात तथ्य है क्योंकि इतना प्रेम गुरु की ओर से बहता है, इतनी
तीव्र ऊर्जा—तरंगें गुरु के माध्यम से बहती हैं कि गुरु स्रोत हो जाता है।
और सिर्फ गुरु की उपस्थिति से ही तुम ऊपर उठ जाते हो। सिर्फ उसके स्पर्श
से ही तुम बदल जाते हो। सिर्फ उसके निकट होने मात्र से ही तुम एक दूसरे ही
आयाम में तरंगायित हो जाते हो।
इसलिए यदि गुरु ईश्वर दिखाई पड़ता है तो यह बात शिष्य के लिए एक तथ्य है, और
इसमें कुछ भी गलत नहीं है। गुरु परमात्मा ही है। गलती सिर्फ इतनी ही है कि
शिष्य को अभी पता नहीं है कि वह भी परमात्मा है। वह गुरु के संबंध में गलत
नहीं है, वह अपने संबंध में गलत है। और यदि गुरु कहता है, ''मैं परमात्मा नहीं हूं '' तो वह इस संभावना का द्वार ही बंद कर रहा है कि एक दिन वह शिष्य को कह सके कि ''तुम भी परमात्मा हो। '' गुरु ऐसा नहीं कहेगा क्योंकि यही तो प्रगट करना है।
यदि
शिष्य को इतनी प्रतीति भी हो जाये कि गुरु परमात्मा है तो यह भी बड़ा कदम
है। अब दूसरा कदम यह होगा कि शिष्य यह अनुभव कर ले कि वह स्वयं भी परमात्मा
है। और जब शिष्य यह अनुभव कर ले कि वह भी परमात्मा ही है तो सारा अस्तित्व
ही फिर परमात्मामय हो जाता है। तब यह भी कहने की जरूरत नहीं रह जाती कि
गुरु परमात्मा है। यह बात फिर असंगत है। सारा अस्तित्व ही परमात्मा है, अत: फिर गुरु को ही परमात्मा पुकारने का क्या अर्थ है? लेकिन प्रारंभ में यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है।
स्मरण रहे, शिष्य के लिए सत्य को कई चरणों में प्रगट करना है। उसे एकबारगी प्रगट नहीं किया जा सकता, क्योंकि तुम उसे बर्दाश्त करने में समर्थ नहीं होओगे, तुम उसे सहन करने के योग्य नहीं हो, वह बहुत ज्यादा विनष्टकारी होगा। उसे धीरे—धीरे ही प्रगट करना होगा, टुकड़ों —टुकड़ों में। केवल उतना ही प्रगट किया जाएगा जितना तुम जज्ब कर सको, जितना तुम्हारा खून, तुम्हारी हड्डी बन सके, तुम्हारा ह्रदय बन सके, जो कि तुम्हारे लिए विनाशक सिद्ध न हो।
अत: बहुत—सी बातें बाद में कही जायेंगी। गुरु बहुत—सी बातें कहता जाएगा। जितने तुम समर्थ होते जाओगे, उतना अधिक गुरु कहता जायेगा। और जब तुम इतने समर्थ हो जाओगे कि अब तुम अनिर्भर हो सकते हो तो आखिरी बात जो गुरु कहेगा, वह होगी, ''मैं तुम्हारे लिए एक बंधन हूं अब इस आखिरी जंजीर को भी छोड़ दो, अब इस अंतिम दासता को भी त्याग दो। ''
जब जरथुस्त्र अपने शिष्यों से दूर जा रहा था, पहाड़ियों में सदा—सदा के लिए विलीन होने जा रहा था, तो उसने अपने शिष्यों से कहा, ''अब यह आखिरी संदेश। और आखिरी संदेश यह है—मेरे से सावधान रहो; मैं खतरनाक हूं। तुम मुझ पर निर्भर हो सकते हो, और मेरी सारी कोशिश तुम्हें स्वतंत्र करने की है। तुम मेरे शब्द को सत्य समझ सकते हो, और मेरी सारी कोशिश यह है कि कोई भी शब्द सत्य नहीं है। अत: अब मुझ से सावधान रहो। ''
किसी भी सदगुरु का आखिरी संदेश यही होगा, ''मेरे से सावधान! '' लेकिन
यह बात प्रारंभ में नहीं कहीं जा सकती। इसलिए सदगुरुओं ने स्वयं को
शिष्यों के द्वारा पूजे जाने दिया है। वे अपने भीतर तो हंसते रहे होंगे
क्योंकि वे जानते हैं कि क्या खेल चल रहा है! शिष्य तो बहुत गंभीर है। वह
सोचता है कि वह जो भी कर रहा है बड़ा महत्वपूर्ण है। लेकिन गुरु सिर्फ खेल
खेल रहा है।
यह ऐसे ही है जैसे तुम छोटे बच्चों के साथ खेलते हो, तुम
उनके खिलौनों से खेलते हो और तुम गंभीर होने का नाटक करते हो। गुरु सचमुच
बच्चों के बीच में होता है। वे दोनों इतने अलग— अलग तलों पर होते हैं कि
यदि गुरु को कुछ भी कहना हो तो उसे बच्चों की भाषा में बोलना पड़ता है।
धीरे—धीरे वह बच्चों को एक भिन्न जगत में ले जाएगा, जहा की भाषा भिन्न है। यह एक लंबी प्रक्रिया होने वाली है।
लेकिन उपनिषद तो आखिरी बात कह रहे हैं; वे संपूर्ण धर्म का सारभूत हैं। वास्तव में, वे प्रारंभिक लोगों के लिए नहीं हैं। वे उनके लिए हैं, जिन्होंने प्रारंभ को बहुत पीछे छोड़ दिया है। वास्तव में, वे उनके लिए हैं जो बहुत समय से संघर्ष कर रहे हैं— ध्यान कर रहे हैं, खोज रहे हैं, पूछताछ कर रहे हैं। केवल तभी उपनिषद सहायक हो सकते हैं।
मैं
उपनिषदों पर बोल रहा हूं क्योंकि तुम ध्यान कर रहे हो। तुम्हारे ध्यान के
द्वारा तुम्हें एक झलक मिल सकती है जिसमें उपनिषद को समझना सरल हो जाएगा।
लेकिन यदि तुम ध्यान नहीं कर रहे हो तो उपनिषद तुम्हारे सिर के ऊपर से निकल
जाएगा। उसका कुछ भी अर्थ तुम्हारे लिए नहीं होगा। केवल एक ध्यानपूर्ण हृदय
से ही तुम उसके संदेश के साथ संपर्क स्थापित कर सकोगे।
उपनिषदों का संदेश सर्वाधिक सरल है, लेकिन परम है, सर्वोच्च है। भाषा भी बड़ी सरल उपयोग की गई है। सरलतम भाषा है, लेकिन उस भाषा के द्वारा जो बात कही गई है वह अंतिम है; उसे
और आगे नहीं सुधारा जा सकता है। कुछ भी और नहीं कहा जा सकता है जो कि
उपनिषदों ने पहले से नहीं कह दिया है। यदि सब धर्मों के सारे ग्रंथों को भी
जला दिया जाए, और सिर्फ एक उपनिषद को बचा लिया जाए तो कुछ भी नहीं खोएगा, क्योंकि सारे बीज वहा मौजूद हैं। इन बीजों को फिर से बो दो, और तुम उससे पूरी धार्मिकता वापस प्राप्त कर सकते हो। लेकिन ऐसा तुम तभी कर सकते हो जब कि तुम गहन ध्यान कर रहे हो, साथ—साथ भीतर हृदय में उतरते जा रहे हो, अपने आंतरिक केंद्र पर पहुंच रहे हो, केवल तभी तुम समझ सकोगे, खाली बौद्धिक कोशिश से कुछ भी न समझ सकोगे।
किसी ने कहा है कि उपनिषद बहुत पुनरुक्ति करते प्रतीत होते हैं, वे वही—वही बात बार—बार वहीं कहे चले हैं, इन इंद्रियों के बारे में और उन इंद्रियों के बारे में कहते हैं—आंखों के बारे में कहते हैं, और कानों के बारे में कहते हैं। क्यों वे बार—बार पुनरुक्ति करते हैं? क्या इसमें कोई बड़े महत्व की बात छिपी है?
हां, छिपी है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि गुरु बच्चों से बोल रहा है। तुम्हारी स्मृति पर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता, इसलिए सत्य को सतत दोहराना पड़ता है। फिर भी यह मात्र आशा ही है कि वह समझा जा सकेगा।
बुद्ध
वही—वही बात बार—बार दोहराते थे। उपनिषद भी उसी बात को पुनरुक्त करते चले
जाते हैं। वे बच्चों से बातें कर रहे हैं—बच्चे जो कि ध्यान नहीं दे पा
रहे हैं। इसलिए वे बहुत बार चूक जायेंगे। ऐसी आशा की जाती है कि कभी न कभी
उनका ध्यान पकड़ लिया जाएगा, इसलिए बातों को दोहराया जाता है। चूंकि तुम सजग नहीं हो, इसलिए। अन्यथा, उस
आत्यंतिक को एक शब्द में भी कहा जा सकता है। और वह भी ज्यादा है। उसे मौन
से भी कहा जा सकता है। एक शब्द की भी र्जरूरत नहीं है उसे कहने के लिए।
लेकिन तब तुम उस मौन को नहीं समझ सकोगे।
कोई आदमी एक झेन रहस्यदर्शी रिंझाई के पास आया। उसने रिंझाई से कहा, ''मुझे केवल जो सारभूत हो वही कहो, क्योंकि मैं जल्दी में हूं मैं एक बहुत बड़ा सरकारी अफसर हूं और मेरे पास समय नहीं है। मैं इस रास्ते से गुजर रहा था तो मैंने सोचा, चलें, पता करें क्योंकि यह बात मेरे दिल में बहुत दिनों से थी। इसलिए मुझे सार में कहें कि धर्म मूलरूप से क्या है? ''
रिंझाई मौन रहा। उस बड़े अफसर को बड़ी बैचेनी हुई। उसने कहा, ''आपने मेरी बात सुनी या नहीं? लगता है कि आप बहरे हैं। मैं आपसे धर्म के बारे में जो सार शब्द है उसे कहने के लिए कह रहा हूं। ''
रिंझाई ने कहा, ''मैंने वह बता दिया है। अब तुम जा सकते हो। ''
उस अफसर ने कहा, ''लेकिन मैंने तो सुना ही नहीं। ''
रिंझाई ने कहा, ''जो सुना जा सके वह सारभूत नहीं होगा। मैंने तुम्हें कुंजी दे दी है। मौन कुंजी है। अब तुम जाओ। तुम जल्दी में हो। ''
लेकिन अब उस अफसर को भी दिलचस्पी होने लगी। यह आदमी अदभुत है। उसने कहा, ''कृपया थोड़ा समझा कर कहें। यह तो बहुत संक्षिप्त हुआ; बड़ा छोटा—सा, बीज रूप हुआ। थोड़ा विस्तार से कहें तो अच्छा होगा। ''
रिंझाई ने कहा, ''लेकिन वह बात को दोहराना होगा, क्योंकि जो भी मैं कहना चाहता था, कह दिया है। अब तुम मुझे दोहराने के लिए बाध्य कर रहे हो। ''
अफसर ने कहा, '' भले ही पुनरुक्ति हो, लेकिन थोड़ा विस्तार से कहिए। ''
तो रिंझाई ने कहा, '' ध्यान। '' यह फिर वही बात हुई, क्योंकि ध्यान का अर्थ होता है मौन। इसके अलावा और क्या अर्थ हो सकता है? अब यह एक शब्द है। पहले वह खाली मौन था, वह ज्यादा वास्तविक था। अब यह शब्द हो गया—ध्यान।
उस आदंमी ने कहा, ''यह बात अभी भी मेरे लिए कठिन है। मैं संसारी आदमी हूं। इसे आप कृपया समझायें। यह अभी भी मेरे लिए एक पहेली ही है। ''
रिंझाई ने कहा, ''यदि मैं इसे और विस्तार में कहता हूं तो यह झूठ हो जाएगा। सत्य तो पहले ही दे दिया गया था, अब तो सिर्फ यह शब्दों में पुनरुक्ति है। यह आधा झूठ तो हो ही गया है, और यदि मैं इसके आगे विस्तृत करूंगा तो यह पूरा का पूरा ही झूठ हो जाएगा। अत: मुझे पाप में पड़ने के लिए बाध्य मत करो। अब तुम जाओ, तुम जल्दी में हो। ''
उपनिषद तुम्हारे लिये दोहराये चले जाते हैं, क्योंकि तुम्हारे ध्यान पर कोई भरोसा नहीं है। बुद्ध का ढंग बहुत कठिन था : वे प्रत्येक वाक्य 'को तीन बार दोहराते थे—केवल करुणावश। हो सकता है तुमने पहली बार में न सुना हो; दूसरी बार में भी न सुना हो। आशा की जाती थी कि तीसरी बार में तो तुम सुन ही लोगे।
जीसस लोगों को कहानियां सुनाये चले जाते हैं। मैं भी कहानियां, किस्से, बोध—कथाएं सुनाता रहता हूं। उनकी कोई अनिवार्यता नहीं है; वह समय को बरबाद करना है, लेकिन
मैं तुम्हारे कारण उनका उपयोग करता हूं क्योंकि बच्चे कहानियों को जल्दी
समझ लेते हैं बजाय किसी और चीज के। इतनी तो उम्मीद की जा सकती है कि कम से
कम कहानियां तो तुम्हारे दिमाग में चली ही जायेंगी, और
उनके इर्द—गिर्द कुछ सार की बात की सुगंध भी भीतर अनजाने में चली जाएगी।
तुम कहानी को नहीं भूल सकते। और यदि तुम कहानी को याद रख सकते हो तो उसके
संग—साथ में कुछ और बात भी स्मृति में चली आएगी। जीसस इतनी कहानियां सुनाते
थे, क्योंकि बच्चों के साथ कोई और तरीका संभव नहीं है। बुद्ध भी कहानियां सुनाते रहे हैं।
यह
सिर्फ तुम्हारे कारण ही उपनिषद बार—बार पुनरुक्ति करते हैं। इसके अलावा
कोई मतलब नहीं है। सारी बात एक वाक्य में कही जा सकती है कि इंद्रियां उस
आत्यंतिक तक नहीं पहुंचा सकेगी। किंतु उपनिषद कहे चले जाते हैं कि दृष्टि
उस तरफ नहीं ले जाएगी, श्रवण भी नहीं ले जाएगा, हाथ भी वहां तक नहीं पहुचायेंगे...।
एक ही बात को तुम्हारी खातिर दोहराना पड़ता है और फिर भी तुम नहीं समझते हो, यही रहस्य है। तुम सुनते हो, और तुम केवल सुनते ही नहीं, तुम्हें ऐसा भी लगता है कि यह पुनरुक्ति है। लेकिन फिर भी समझ पैदा नहीं होती है। समझने की कोशिश करो, विश्लेषण
मत करो। ऋषि के मन को समझने का प्रयत्न मत करो कि वह क्यों दोहरा रहा है।
अपने मन को समझो और सजग हो जाओ ताकि ऋषि को दोहराना न पड़े।
मैंने सुना है कि एक बार ऐसा हुआ:
एक झेन फकीर ने अपना पहला प्रवचन दिया, और फिर दूसरे सप्ताह भी उसने वही प्रवचन दिया, और फिर तीसरे सप्ताह भी उसने उसी प्रवचन को पुनरुक्त किया, ज्यों का त्यों दोहरा दिया। सभा के लोग बड़े बेचैन हो गये, यह तो बात कुछ ज्यादा हो गई। धार्मिक प्रवचन तो पहले ही काफी उबाने वाले होते हैं, किंतु उसने फिर दूसरी बार भी वही दोहरा दिया और तीसरी बार भी वही दोहरा दिया, उन्हीं शब्दों को ज्यों का त्यों रख दिया। यह तो हद हो गई, अत: सभा ने सोचा कि कुछ करना चाहिए।
एक आदमी को चुना गया कि वह उनकी ओर से बोले। वह उस फकीर के पास गया और बोला, ''बात क्या है? क्या तुम्हारे पास एक ही प्रवचन है?''
उस फकीर ने कहा, ''नहीं, मेरे पास और भी हैं।''
तो उस प्रतिनिधि ने कहा, ''फिर आपने वही—वही प्रवचन तीन बार क्यों दोहराया? हम तो उससे तंग चुके हैं। ''
उस झेन फकीर ने कहा, ''लेकिन तुमने अभी पहले के संबंध में कुछ भी नहीं किया है। जब तक तुम उसके लिए कुछ करते नहीं, मैं दूसरे पर नहीं जा सकता। मेरे पास बहुत सारे प्रवचन हैं, लेकिन तुमने पहले के विषय में क्या किया अब तक? मैं तीन बार उसे दे चुका हूं। तुमने क्या किया? तुमने कुछ भी तो नहीं किया। और जब तक तुम पहले प्रवचन के लिए कुछ न करो, मैं दूसरे पर नहीं जा सकता।''
कहते हैं लोग सभा में धीरे—धीरे आना बंद हो गये। और यह भी कहते हैं कि वह फकीर वही उपदेश देता रहा। जबकि वहां कोई भी नहीं होता, फिर भी वह वही उपदेश सूने मंदिर में पुन: दोहराता। तब तो लोगों ने उस रास्ते से गुजरना भी छोड़ दिया, क्योंकि उधर से गुजरते वक्त वे लोग वही प्रवचन फिर। फिर सुनते तो लोग उससे डरने लगे, दूर
भागने लगे। वे उस फकीर से सड़क पर या कहीं भी मिलने से बचने लगे। क्योंकि
वह कहीं मिल जाए और पूछे कि तुमने इस प्रवचन का क्या किया? वह फकीर सारे गांव के खयालों में मंडराने लगा।
इसलिए
उपनिषद बार—बार दोहराये चले जाते हैं क्योंकि तुमने अभी पहली बात के लिए
ही कुछ भी नहीं किया है। तुमने पहली बात के बारे में ही कुछ नहीं किया है, इसलिए वे उसे दूसरी बार, तीसरी बार दोहरते हैं। एक सौ आठ उपनिषद हैं; और वे कोई नई बात नहीं कहते, वे उसी बात को' बार—बार
दोहराते रहते हैं। एक ही उपनिषद एक सौ आठ बार पुनरुक्त किया गया है। लेकिन
फिर भी उसके बारे में कुछ नहीं किया जाता। तुम्हें और और उपनिषदों की
आवश्यकता है।
गुरु के मन के बारे में विचार मत करो। अपने ही मन के बारे में विचार करो।
दूसरा प्रश्न :
आपने
कहा कि अराजकतापूर्ण श्वास से आप हमारे पुराने गलत ढांचों को नष्ट करना
चाहते हैं ताकि हमें पुन: एक नए आयाम में निर्मित किया जा सके। कृपया
बतायें कि पुराना ढांचा नष्ट हो जाने के नये आयाम में यह पुनर्निर्माण कैसे
घटित होता है?
तुमने मुझे गलत समझ लिया। अराजक विधि पुराने ढांचों को नष्ट करने के लिए है, न कि नए को के लिए। कोई भी ढांचा बनाना नहीं है। केवल पुराने को नष्ट कर देना है। विधियां, सारी ध्यान की विधियां तुम्हारे संस्कारों को नष्ट करने के लिए हैं, नए संस्कार निर्मित करने के लिए नहीं। वरना तो सिर्फ जंजीरें बदल जायेंगी, कारागृह बदल जायेगा। नया कारागृह थोड़ा अच्छा प्रतीत होगा, लेकिन वह भी कारागृह ही है।
एक असंस्कारित मन लक्ष्य है—एक ऐसा मन जिसके चारों तरफ कोई ढांचा नहीं है। पुराने ढांचे को नष्ट कर देना है, और नये को निर्मित नहीं करना है, क्योंकि नया थोड़े ही दिनों में पुराना हो जायेगा। पुराने की जगह में कुछ नहीं बनाना है; तुम्हें
बिलकुल अकेला छोड़ देना है बिना किसी ढाचे के। लेकिन तुम ढांचों में रहने
के इतने आदी हो गये हो कि तुम सोच ही नहीं सकते कि तुम बिना ढांचों के कैसे
जी सकते हो? बिना संस्कारों के तुम जी कैसे सकते हो? बिना किसी अनुशासन के तुम कैसे रह सकते हो? बिना जंजीरों के तुम कैसे रहोगे? तुम दासता में इतने लंबे समय तक रहे हो, तुम संस्कारों के वशीभूत इतने समय तक रहे हो कि तुम स्वतंत्रता के बारे में सोच भी नहीं सकते। लेकिन तुम जी सकते हो! वास्तव में, तभी तुम जी सकते हो।
एक संस्कारित मन जीवंत नहीं है। उदाहरण के लिए, मेरे पास लोग आते हैं और कहते हैं, ''आप हमें कोई अनुशासन, कोई नियम तो देते नहीं, कि हम क्या खायें और क्या न खायें; कि
क्या करें और क्या नहीं करें। आप हमें सिर्फ ध्यान बतलाते हैं और हमें एक
अराजकता में ले जाते हैं। आप हमें कुछ भी ऐसा नहीं बताते कि कैसे रहें। आप
हमें सिर्फ अराजकता में धक्का दे देते हैं, और कोई अनुशासन नहीं देते। '' मैं तुम्हें कोई भी अनुशासन नहीं देता, क्योंकि
केवल तुम्हारे शत्रु ही तुम्हें अनुशासन दे सकते हैं। मैं तुम्हें सजगता
देता हूं न कि अनुशासन। और सजगता से तुम्हें एक स्वतःस्फूर्त प्रकाश मिलेगा
कि क्या करें और क्या नहीं करें। और पहले से कौन तय कर सकता है, और उसकी जरूरत भी क्या है? जब क्षण आएगा, जब जैसी परिस्थिति होगी तो तुम सजग होओगे उसके अनुसार करने के लिए—जो भी तुम्हारी सजगता को प्रतीत होगा, वही हो जाएगा।
यदि तुम सजग हो, तो तुम्हें किसी भी अनुशासन की जरूरत नहीं है। केवल सोये हुए लोगों को ही अनुशासन की जरूरत होती है, क्योंकि
उनको पता नहीं है कि क्या करें। उन्हें एक ढांचे की जरूरत है अनुसरण करने
के लिए। उनका सारा जीवन एक दुख हो जाता है क्योंकि कोई भी ढांचा काम नहीं आ
सकता इस परिवर्तनशील जीवन में।
प्रत्येक ढांचा एक कारागृह हो जाएगा, क्योंकि जीवन सतत बदल रहा है। इस क्षण एक कृत्य शुभ हो सकता है, लेकिन दूसरे क्षण में वही बात अशुभ हो सकती है क्योंकि परिस्थिति बदल गई। और तुम एक मृत ढांचे का अनुगमन करते रहते हो; तुम कहीं भी तो ठीक नहीं बैठते।
तुम अपने ही जीवन को देखो : प्रत्येक आदमी मिसफिट है। कोई भी उपयुक्त नहीं है, कोई भी कहीं ठीक नहीं बैठता। और क्या है कारण? ढांचा, अनुशासन, संस्कार। तुम उन्हें सब जगह ले जाते हो। जो भी परिस्थिति हो, तुम्हारे चारों ओर एक ढांचा होता है। तुम कभी भी ठीक नहीं बैठ सकते। जीवन बदल रहा है, जीवन बहता हुआ है। वह नदी की भांति है; वह वैसा ही कभी भी नहीं है। एक क्षण के लिए भी जीवन वही नहीं है। वह सतत बहता जाता है और तुम्हारा ढांचा स्थिर है, जो कि बदलता नहीं है। तुम उसमें फिट नहीं हो सकते।
सारे संसार में प्रत्येक आदमी अनफिट हो गया है, वह कहीं भी ठीक नहीं बैठता। और जब तुम्हें प्रतीत होता है कि तुम ठीक नहीं बैठ रहे हो, तो तुम्हें लगता है कि जैसे तुम्हें निंदित किया जा रहा है, तुम्हें बेकार समझा जा रहा है—जैसे कि जीवन तुम्हारे प्रतिकूल हो। बात इससे बिलकुल उल्टी है; तुम्हारे
संस्कार जीवन—विरोधी हैं। एक ऐसा आदमी जो बिना किसी संस्कारों के है वही
इस परिवर्तनशील जीवन के प्रति ठीक से प्रतिसंवेदन कर सकता है, क्योंकि उसका कोई ढांचा नहीं है। जीवन एक परिस्थिति पैदा करता है; वह सिर्फ सजग है। जो भी उस समय घटता है उसी के अनुसार वह बर्ताव करता है। ऐसा आदमी कभी भी नहीं पछतायेगा; तुम सदैव पछताते रहोगे—चाहे तुम कुछ भी करो।
तुम एक लड़की से प्रेम करते हो; अब यह विकल्प है कि उससे विवाह करो या नहीं। तुम चाहे कुछ भी करो, तुम
पछताओगे। यदि तुम उससे विवाह कर लो तो तुम सारी जिंदगी पछताते रहोगे कि
दूसरा विकल्प अच्छा था। यदि तुम विवाह नहीं करो तो भी वही बात होगी, तब भी तुम सोचोगे कि दूसरा विकल्प ज्यादा ठीक था। क्योंकि तुम सजग नहीं हो। केवल एक सजग आदमी ही पूरी तरह, समग्रता से प्रतिसंवेदन करेगा।
तुम केवल टुकड़ों में, हिस्सों
में ही प्रतिसंवेदन करते हो। और जब भी तुम प्रतिसवेदन करते हो तो वह
टुकड़ों में ही होता है। तुम्हारे भीतर दूसरे हिस्से भी होते हैं जो कि उसके
लिए मना करते होते हैं। देर—अबेर वे बदला लेंगे। वे कहेंगे, हम कह रहे थे कि ऐसा मत करो। पश्चात्ताप का अर्थ क्या होता है? पश्चात्ताप
का अर्थ होता है कि तुम विभाजित हो। तुम कुछ करते हो और उसी समय तुम्हारे
भीतर कोई हिस्सा उसके खिलाफ होता है। वह हिस्सा तुम्हें देख रहा होता है और
वह हिस्सा कह रहा होता है कि यह मत करो, यह गलत है। दूसरा हिस्सा कहे चला जाता है, यह बात ठीक है, करो। और तुम करते हो।
तुम कहीं ठीक नहीं बैठोगे क्योंकि तुम तभी ठीक बैठ सकते हो, जबकि तुम प्रवाह की तरह हो, बहते हुए हो। कोई जमी हुई चीज, एक सरिता जैसे अस्तित्व में ठीक नहीं बैठ सकती 1 तुम्हें बहते हुए, तरल होना चाहिए। यदि तुम तरल, बहते हुए, बदलते हुए, सजग, जागरूक हो, तभी
तुम कभी पश्चात्ताप नहीं करतो। तब तुम कभी अपराधी महसूस नहीं करोगे। तब
तुम्हें कभी ऐसा नहीं लगेगा कि जो तुमने किया उससे बेहतर भी कुछ था। नहीं, उससे ज्यादा अच्छा कुछ भी नहीं हो सकता, क्योंकि तुमने समग्रता से प्रतिसवेदन किया। वही सब कुछ था जो कि किया जा सकता था। उससे अन्यथा कुछ भी संभव नहीं था।
मेरी ध्यान की विधि तुम्हें कोई नया ढांचा देने के लिए नहीं है, यह सिर्फ पुराने ढांचे को गिराने के लिए है। उसे नष्ट करने के लिए और तुम्हें एकदम मुक्त छोड़ देने के लिए है, ताकि तुम्हारे चारों ओर कोई कारागृह नहीं हो। निश्चित ही तुम्हें कुछ कठिनाई होगी, क्योंकि कारागृह में एक सुरक्षा भी थी। अब वर्षा होगी और कोई जगह शरण लेने को न होगी, आधिया चलेंगी और कोई ऐसा स्थान नहीं होगा जहा कि शरण ली जा सके; और
सूर्य चमकेगा पूरी गर्मी और ताप से भरकर और सिर छिपाने को कोई भी जगह न
होगी। और तुम्हारी आंखें अंधेरे की इतनी अभ्यस्त हो गई हैं कि रोशनी में
तुम्हें बड़ी बेचैनी महसूस होगी। लेकिन यही तुम्हें मुक्ति प्रदान करेगी।
तुम्हें खुले आकाश में नई जिंदगी को महसूस करना होगा।
एक बार तुम स्वतंत्रता और इसके सौंदर्य को जान लो, एक बार तुम सजग हो जाओ, एक बार तुम कारागृह के बाहर आ जाओ, अपनी पुरानी आदत के बाहर आ जाओ, तो तुम फिर किसी पुराने ढांचे अथवा अनुशासन के लिए माग नहीं करोगे।
लेकिन
इसका यह अर्थ भी नहीं है कि तुम्हारा जीवन एक अराजकता हो जाएगा। नहीं!
तुम्हारा जीवन ही वास्तव में एक सुव्यवस्थित जीवन होगा। अभी जो जिंदगी तुम
जी रहे हो वही अराजकतापूर्ण है। केवल सतह पर ही वह अनुशासित दिखाई पड़ती है।
उसके पीछे, उसके नीचे, बहुत अनुशासनहीनता, बहुत तूफान छिपा पड़ा है। केवल ऊपर सतह पर तुमने एक व्यवस्था निर्मित की हुई है। अपने भीतर देखो, बहुत गड़बड़ है वहां। ऊपर से अनुशासित जीवन और भीतर वहां बिलकुल गड़बड़ है; वहां एक भारी अराजकता है। यह बात बड़ी विरोधभासी मालूम पड़ती है, लेकिन ऐसा है, यह सत्य है। एक होशपूर्ण जीवन में ही सुव्यवस्था हो सकती है—जबरदस्ती नहीं, बल्कि स्वतःस्फूर्त, जीवंत। वह अनुशासन जीवन के साथ बदलता जाएगा और उसे बदलना ही चाहिए।
सहज जीवन तुम्हारी आंखों के समान है। क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारी आंखें लगातार बदलती रहती हैं? और जब वे बदलना बंद हो जाती हैं, तो
फिर तुम्हें किसी तकनीकी मदद की आवश्यकता पड़ती है। जब मैं तुम्हारी ओर
देखता हूं और तुम मुझसे दस फीट की दूरी पर हो तो मेरी आंखों का फोकस एक
प्रकार का होता है। जब मैं पहाड़ियों को देखता हूं जो कि बहुत दूर हैं तो
मेरी आंखें तुरंत बदल जाती है। आंखों के लेंस फौरन बदल जाते हैं। केवल तभी
मैं पहाड़ियों को देख सकता हूं। और जब मैं चाँद को देख रहा होता हूं तो मेरी
आंखें एकदम बदल जाती हैं।
तुम घर में प्रवेश करते हो, वहां अंधेरा है; तुम्हारी आंखें बदल जाती हैं। तुम घर से बाहर आते हो, वहां प्रकाश है, तुम्हारी आंखें बदल जाती हैं। और जब तुम्हारी आंखें बदलना बंद कर देती हैं, तो फिर वे रुग्ण हैं। वे बहती हुई होनी चाहिए, केवल तभी वे देखने में समर्थ हो सकती हैं। तुम्हारी चेतना आख की भांति जितना अधिक बहती हुई, जितना अधिक तरल, बिना किसी ढांचे के, स्थिति के अनुसार बदलती हुई होगी, उतना ही अधिक तुम्हारी चेतना सजग होगी।
ध्यान से तुम्हें एक आंतरिक आख उपलब्ध होगी जो कि निरंतर बदलती रहेगी, नई परिस्थिति के प्रति निरंतर सजग होगी, लगातार प्रतिसंवेदन करती हुई होगी। किंतु जो भी प्रतिसंवेदन होगा, वह तुम्हारी समग्रता से होगा, न कि किसी ढांचे से; वह प्रतिसंवेदन तुमसे आएगा, न कि तुम्हारे संस्कारों से।
अभी तो जो भी तुम करते हो, जो भी प्रतिक्रिया तुम करते हो, वह
तुम्हारे संस्कारों से आता है। यदि तम एक जैन परिवार में पैदा हुए हो तो
सिर्फ मांसाहारी भोजन को देखकर ही तुम्हें जुगुप्सा पैदा हो जाएगी, तुम्हें मितली आने लगेगी। वह मितली तुम्हारे भीतर से नहीं आ रही है, वह मितली तुम्हारे संस्कारों से आ रही है। क्योंकि वह किसी मुसलमान को नहीं आती; वह किसी ईसाई को नहीं आती। ऐसा नहीं है कि तुम बहुत अहिंसक हो, और वे लोग हिंसक हैं, यह सिर्फ बचपन के संस्कारों के कारण है। और वे ही संस्कार काम करने लग जाते हैं जैसे ही तुम मांस को देखते हो।
सिर्फ 'मांस' शब्द से ही तुम्हें एक सूक्ष्म मितली उठने लगेगी। सिर्फ एक शब्द, और तुम्हें मितली का भाव होने लगेगा। क्या वह तुमसे से आ रही है? यदि
वह तुमसे आ रही है तो फिर तुम्हारा सारा जीवन प्रेम का जीवन होना चाहिए।
लेकिन वह नहीं है। तुम भी उतने ही निर्दयी हो जितना कोई भी हो सकता है। जैन
भी उतना ही निर्दयी है जितना कोई मुसलमान है, और
कभी—कभी तो ज्यादा ही होता है। उसे ज्यादा निर्दयी होना ही पड़ेगा क्योंकि
वह अपनी हिंसा भोजन से नहीं निकाल सकता। उसे कहीं दूसरी जगह से व्यक्त
करना होगा।
जब तुम खाते हो तो तुम अपनी हिंसा व्यक्त करते हो। यदि तुम मांस खाते हो तो तुम्हारी हिंसा ''गजन के द्वारा निकल जाती है। ऐसा सामान्यत: देखने में आया है कि मांसाहारी लोग शाकाहारी लोगों से ? लादा प्रेमपूर्ण होते हैं। क्यों? ऐसा होना तो नहीं चाहिए। उनकी हिंसा भोजन के द्वारा निकल जाती है।
तुम्हारे
शरीर में तुम्हारे दांत सर्वाधिक हिंसक अंग हैं। हिंसक लोग ज्यादा भोजन
करते हैं बजाय अहिंसक व्यक्तियों के। भोजन को दांतों से कुचलने में बहुत—सी
हिंसा, क्रोध, घृणा
निकल जाती है। जो लोग मांस और इस तरह के सामिष भोजन करते हैं तो उनकी
हिंसा के लिए एक प्राकृतिक द्वार मिल जाता है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि
जाओ और मांस खाओ। लेकिन यदि तुम मांसाहारी भोजन नहीं करते हो, सर्फ
संस्कारवश यदि तुम मांस आदि नहीं खाते हो तो इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम
ज्यादा प्रेमपूर्ण तथा अहिंसक हो। तुम्हारी हिंसा दूसरे अधिक सूक्ष्म
रास्ते खोजेगी। तुम्हारे दूसरों के साथ संबंध ज्यादा निर्दयी होगे, विषैले होंगे।
लेकिन यदि तुम वस्तुत: ही किसी ढांचे के अनुसार व्यवहार नहीं कर रहे हो, और यह इसलिए है कि तुम्हारे भीतर प्रेम पैदा हो गया है, यदि तुम पशु का मांस खाने में जो हिंसा है उसके प्रति सजग हो गये हो, यदि तुम अपने आप ही सजग हो गये हो, किसी परंपरा के कारण नहीं, न कि जन्म के कारण, न किसी शिक्षा के कारण, न किसी शास्त्र के कारण बल्कि अपने ही ध्यान के अनुभव के कारण तुम सजग हो गये हो, कि यह मूढ़ता है, किसी
जानवर को अपने भोजन के लिए मारना बड़ी भारी मूढ़ता है—यदि ऐसा तुम्हें अपने
ध्यान के अनुभव में प्रतीत हुआ है—तों फिर बात बिलकुल भिन्न है। तब
तुम्हारी सारी जिंदगी बड़ी प्रेम—पूर्ण तथा अहिंसक होगी। तब तुम भोजन से
ग्रसित नहीं होंगे, बल्कि
भोजन को जीवन के लिए एक अनिवार्यता की भांति स्वीकार कर लोगे। और तुम किसी
भी बंधे—बंधाये नियम के पीछे पागल नहीं होओगे। वास्तव में कोई बंधे—बंधाये
नियम नहीं होंगे। केवल एक सतत जीवंत जागरूकता होगी।
अत:
मैं तुम्हारे लिए कोई नया ढांचा नहीं निर्मित कर रहा हूं। मैं विनाशक हूं।
मैं वास्तव में कुछ भी निर्मित नहीं कर रहा हूं। मैं तो सिर्फ नष्ट करने
वाला हूं क्योंकि कुछ भी निर्मित करने की आवश्यकता नहीं है। तुम पहले ही
ढांचे के पीछे मौजूद हो। जब ढांचा नष्ट हो जाएगा तो तुम मुक्त हो जाओगे।
यदि वह ढांचा जिसने कि तुम्हें बाधा है, नहीं होगा, तो तुम होओगे।
तुम्हें निर्मित करने का सवाल ही पैदा नहीं होता, तुम तो पहले से ही हो। केवल कारागृह की दीवारों को गिरा देना है, और तुम खुले आकाश के नीचे होओगे।
इसलिए तुमने मुझे गलत समझ लिया है। मैंने तुमसे कहा कि यह अराजकतापूर्ण ध्यान तुम्हारे संस्कारों, तुम्हारी दासता, तुम्हारे मन, तुम्हारे
अहंकार को नष्ट करने के लिए है—गहरे अर्थों में तुम्हें ही नष्ट करने के
लिए है। ताकि नया जन्म सके। मैं नहीं कह रहा हूं कि इसे मैं निर्मित
करूंगा। कोई भी निर्मित नहीं कर सकता है; और उसकी कोई भी जरूरत नहीं है; वह तो पहले से ही है!। वह वहा मौजूद ही है। केवल खोल को तोड़ देना है, और वह बाहर आ जाएगा।
सारा धर्म इस अर्थ में विनाशकारी है। समाज निर्माता है, धर्म विनाशकारी है। समाज संस्कारों को निर्मित करता है। समाज तुम्हें हिंदू ईसाई, जैन बनाता है। समाज तुम्हें वही नहीं रहने देता जो तुम हो। वह तुम्हें एक ढांचा देता है, क्योंकि समाज एक संगठन है। समाज चाहता है कि तुम उसके संगठन में ठीक बैठ जाओ, उसके नियमों के अनुसार हो जाओ। समाज तुम्हें नहीं चाहता। समाज को केवल तुम्हारी कुशलता चाहिए। तुम महत्वपूर्ण नहीं हो, तुम लक्ष्य नहीं हो। तुम एक यांत्रिक चीज की तरह होने चाहिए। जितने यांत्रिक तुम हो जाओ, समाज उतनी ही तुम्हारी प्रशंसा करेगा, क्योंकि तब तुम कम खतरनाक होओगे। कोई भी यंत्र खतरनाक नहीं होता। वह कभी भी रास्ते से इधर—उधर नहीं जाता; वह कभी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता, वह कभी विद्रोह नहीं करता; वह विद्रोही नहीं है।
कोई भी यंत्र विद्रोही नहीं है; वह हो भी नहीं सकता। सारे यंत्र रूढ़िवादी हैं। वे आज्ञाकारी हैं, वे अनुगामी हैं। समाज तुम्हें एक यांत्रिक वस्तु में बदलना चाहता है। तब तुम ज्यादा कुशल, कम खतरनाक, विश्वसनीय, जिम्मेवार होते हो और कोई भय नहीं होता, कोई खतरा नहीं होता। तुम पर भरोसा किया जा सकता है।
समाज तुम्हारे चारों ओर एक यांत्रिक संरचना खड़ी कर देता है, वही संस्कार है। और वह तुम्हें थोड़े—से द्वार दे देता है, और कुछ द्वारों को पूरी तरह बंद कर देता है। वह तुम्हारे भीतर से कुछ हिस्से चुन लेता है, बाकी सबको इंकार कर देता है। वह कहता है कि केवल एक हिस्सा ही तुम्हारा अच्छा है, और बाकी हिस्से बुरे हैं, अत: उन्हें इंकार कर दो। समाज तुम्हें समग्रता में, एक इकाई में स्वीकार नहीं करता, वह केवल थोड़े—से हिस्से को स्वीकार करता है। इसलिए संस्कार होते हैं।
धर्म सदैव विनाशक है। एक तरह से धर्म सदा समाज—विरोधी है।
किंतु समाज बड़ा चालाक है। वह धर्म को भी एक प्रशासकीय संस्था में बदल देता है। वह धर्म क् भी अपना एक हिस्सा बना लेना चाहता है।
जीसस विद्रोही थे, चर्च विद्रोही नहीं है। जीसस समाज के विद्रोह में थे, क्योंकि वे यात्रिक हिस्से को नष्ट करना चाहते थे, और वे तुम्हारी स्वतस्फूर्तता को मुक्त करना चाहते थे। उन्हें समाज के विरोध में होना ही पड़ेगा; समाज उन्हें क्रास पर लटकायेगा ही। लेकिन जीसस को क्रास पर लटकाने मात्र से तुम जीसस को नष्ट नहीं कर सकते। वास्तव में, यदि
तुम जीसस को नष्ट ही करना चाहते हो तो क्रास पर लटकाने से कुछ भी न होगा।
तुम्हें उनके चारों ओर एक चर्च खड़ा करना होगा तभी उनको नष्ट किया जा सकता
है।
कहा जाता है कि एक बार ऐसा हुआ कि शैतान बहुत परेशान हो गया, क्योंकि एक आदमी जमींन पर बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया था। उसने अपने मंत्रियों को बुलाया और पूछा, '' अब क्या किया जाए? एक आदमी ने फिर सत्य को पा लिया है, वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया है, और हमारा धंधा खतरे में है। क्या करें? लोगों को उसके पास जाने से कैसे रोकें? ''
शैतान के एक पुराने से पुराने अनुयायी ने कहा, ''कोई चिंता न करें। हम जाते हैं और हम उसके चारों ओर एक चर्च संगठित कर देंगे। आप चिंता न करें। तब चर्च बाधा हो जाएगा, और लोग उसके पास सीधे नहीं पहुंच सकेंगे। चर्च बीच में होगा, तब जो भी वह कहेगा वह नहीं सुना जाएगा, लोग उसको सीधे नहीं सुनेंगे। चर्च पहले उसकी व्याख्या करेगा, और व्याख्या से तुम जो चाहो नष्ट कर सकते हो।''
सत्य को बहुत आसानी से नष्ट किया जा सकता है यदि तुम उसे एक व्यवस्था दे दो, एक संगठन प्रदान कर दो। जब धर्म एक संप्रदाय हो जाता है तो वह समाज का हिस्सा हो जाता है। जब कभी धर्म जीवंत होता है, और संप्रदाय नहीं होता तो वह समाज का विरोधी होता है। जीसस समाज के विरोध में है, महावीर समाज के विरोध में हैं, बुद्ध समाज के विरोध में हैं। किंतु बौद्ध धर्म, जैन धर्म तथा ईसाई धर्म ये सब समाज के हिस्से हैं। ये सब धर्म नहीं हैं।
धर्म तो विद्रोही होता है, और विद्रोह यही होता है कि धर्म यात्रिकता को तोड़ने की कोशिश करता है, क्योंकि यांत्रिकता ही तुम्हारा नर्क है। सहजता ही तुम्हारा स्वर्ग है, यांत्रिकता ही नर्क है।
मैं
तुम्हें कोई नया ढांचा नहीं दे रहा हूं—न तो नया और न पुराना। मैं तो
सिर्फ ढांचे को नष्ट कर रहा हूं और तुम्हें अकेला छोड़ देना चाहता हूं बिना
किसी ढाचें के। बिना किसी ढांचे का जीवन ही धार्मिक जीवन होता है। बिना
किसी आरोपित व्यवस्था का जीवन ही धार्मिक जीवन होता है। बिना किसी अनुशासन
का, किंतु एक आंतरिक जागरूकता का जीवन ही धार्मिक जीवन होता है।
अंतिम प्रश्न :
केनोपनिषद
ने प्रारंभ में हमें कहा कि किसी भी चीज का निषेध नहीं करना है और एक
समग्ररूपेण स्वीकार होना चाहिए। लेकिन सुबह आपने कहा कि प्रार्थना
मूर्तिपूजा मंदिर चर्च आदि सब झूठ खड़े हैं मन के प्रक्षेपण पर आधारित हैं
यह तो निषेध की बात प्रतीत होती है।
ऐसा नहीं है। यह सिर्फ तथ्य को कहना है। यह कहना कि सपना सिर्फ एक सपना है, उसका निषेध नहीं है। यह कहना कि प्रक्षेपण सिर्फ एक प्रक्षेपण है, यह उसका निषेध नहीं है। यह कहना कि झूठ बात एक झूठ बात है, सिर्फ तथ्य की घोषणा है। यह उसे इंकार करना नहीं है। समग्र स्वीकार का यह अर्थ नहीं है कि असत्य को भी सत्य की तरह कहा जाये, कि स्वप्न को भी वास्तविकता बताया जाए।
समग्र
स्वीकार का अर्थ है कि जो भी है वह स्वीकृत है। यदि पूजा करने वाले का मन
देवी—देवताओं का प्रक्षेपण कर रहा है तो इसे भी स्वीकार करना है। यह तथ्य
है कि पूजा करने वाले वैसा कर रहे हैं। और तुमसे यह नहीं कहा गया है कि तुम
जाओ और उनके प्रक्षेपणों को नष्ट करो; तुमसे यह नहीं कहा गया है कि तुम जाओ और उनकी मूर्तियों को, उनके
मंदिरों को नष्ट करो। यदि तुम समझ गये हो तो वह समझ ही तुम्हें बदल देगी।
तुम वे प्रक्षेपण पैदा नहीं करोगे। और यदि तुम उन्हें पैदा करना चाहते हो, तो भी तुम जानोगे कि वे प्रक्षेपण हैं, और मैं उनका आनंद ले रहा हूं।
ऐसा कहा जाता है कि नरोपा जो कि तिब्बत का एक महानतम रहस्यदर्शी हुआ है, वह
एक बहुत ही अजीब तरह का व्यक्ति था। मैं अजीब कह रहा हूं क्योंकि वह
ऐसे—ऐसे काम करता था जो कि कभी किसी गुरु से अपेक्षित नहीं हैं। उसे शराबघर
में शराब पीते हुए पाया गया। किसी ने उससे कहा, ''नरोपा, यह तुम क्या कर रहे हो? तुम बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति हो, तुमने उस लक्ष्य को पा लिया है, और तुम शराब पी रहे हो?''
नरोपा ने कहा, ''यह
एक खेल है। और जब खेल ही है तो मुझे परवाह नहीं कि इसे ऐसे खेला जाए या
वैसे। एक बार मुझे पता हो गया कि मैं भीतर शाश्वत हूं तो फिर इस शराब से
डरना क्या? क्या डर है? ''मैंने
कहा कि वह एक बेबूझ व्यक्तित्व है। लेकिन वह कह रहा है कि यह शराब है और
जो भी इससे घटता है वह एक सपना है। वह यह नहीं कह रहा है कि यह वास्तविकता
है; वह कह रहा है कि यह एक सपना है।
उसने कहा, ''मेरा कोई आग्रह नहीं है, पक्ष में अथवा विपक्ष में। ऐसा हुआ कि एक मित्र ने मुझे निमंत्रण दिया था और मैंने उसे मना नहीं किया। एक मित्र का निमंत्रण था, उसके लिए यह सत्य है; मेरे लिए यह सिर्फ सपना है। लेकिन यह सपना मेरे लिए ही है, उसके लिए नहीं। फिर चिंता क्या? उसके लिए यह मुश्किल होगा।''
मैं तुम्हें एक दूसरी बात कहता हूं जो कि इस बात से जरा ज्यादा करीब होगी—कम बेबूझ होगी।
ऐसा हुआ कि कबीर के परिवार के लोग परेशान हो गए। परिवार गरीब था, और जो भी कबीर के घर आता, कबीर
उसे भोजन के लिए निमंत्रित कर देते। और कम से कम दो सौ आदमी कबीर के दर्शन
के लिए रोज आते थे। और वह हर एक को खाने के लिए निमंत्रित कर देते थे।
तो उनके पुत्र कमाल ने एक दिन कहा, ''बंद करिये यह सब। हम गरीब लोग हैं। हम भीख मांग कर लाते रहे हैं। हम उधार लाते रहे हैं, अब तो कोई उधार भी नहीं देता। आप यह कर क्या रहे हैं? आप तो हमें चोर बनाकर रहेंगे।''
कमाल बहुत क्रोध में था। लेकिन कबीर हंसने लगे और उन्होंने कहा, ''तुमने पहले यह बात क्यों नहीं सोची? चोरी करनी पड़ेगी? यह तो अच्छा खयाल है।''
लेकिन कमाल भी आखिर कबीर का ही पुत्र था, उसने कबीर की ओर देखा, ''कबीर एक रहस्यवादी संत, और ऐसा कह रहे हैं—चोरी करो, चोर हो जाओ द् जरूर इनकी बुद्धि ठिकाने नहीं है। या फिर ये समझ नहीं रहे हैं कि ये क्या कह रहे हैं। ''लेकिन कमाल ने कहा, ''तो फिर ठीक है। मैं जाऊंगा, और मैं चोरी करूंगा, लेकिन आपको भी मेरे साथ आना पड़ेगा। ''कमाल सोच रहा था कि अब कबीर जरूर होश में आ जायेंगे। कबीर और चोरी करें?
कबीर उसी समय खड़े हो गये और बोले, ''ठीक है, मैं चलता हूं।''
कमाल
ने भी सोचा कि आज फैसला हो ही जाना चाहिए। उसने सोचा कि कहीं पर जाकर कबीर
रुक जायेंगे और हंसकर कहेंगे कि मैं तो यूं ही मजाक कर रहा था। लेकिन नहीं, कमाल एक घर में घुस गया, वह घर के मालिक का कुछ धन बाहर निकाल कर ले आया, और कबीर वहा पर तैयार खड़े थे। यह तो हइ हो गई। इसके आगे तो बात को बदलने की कोई संभावना नहीं थी। कमाल ने पूछा, '' अब क्या किया जाये ई क्या हम यह सब सामान अपने घर ले चलें?''
कबीर ने कहा, ''ठीक है, लेकिन पहले तुम जाकर घर के लोगों को जगा दो, और उन्हें बता दो। ''कमाल ने पूछा, ''यह चोरी करने का कौन—सा ढंग है?''
कंबीर ने कहा, ''कम से कम उन्हें बता तो दो, वरना वे व्यर्थ ही चिंता करेंगे। ''
जो लोग कबीर के अनुयायी हैं, उन्होंने बाद में इस कहानी को कहना बंद कर दिया क्योंकि यह बड़ी बेतुकी बात है कि कबीर चोरी के लिए सम्मति दें। लेकिन बात क्या थी? सुबह कमाल ने पूछा, ''मामला क्या है? अब मुझे पूरी बात बताओ। क्या आप चोरी के पक्ष में हैं?''
कबीर ने कहा, ''सभी कुछ उसी का है। कोई भी अन्य मालिक नहीं है।''
जरा इस चित्त को देखो। ऐसे चित्त के लिए सभी स्वीकार है। समग्र स्वीकार है। चोरी भी स्वीकृत है। लेकिन वे कहते हैं, ''जाओ और घर के लोगों को बता दो ताकि वे व्यर्थ में चिंता न करें।''
कमाल ने उनसे कहा, ''वे लोग सोचेंगे कि हम चोर हैं।''
कबीर ने कहा, ''वे ठीक ही साचेंगे। हम चोर हैं।''
कमाल बोला, ''तो कल आपकी जितनी इज्जत है मिट्टी में मिल जायेगी। कोई भी आपका सम्मान नहीं करेगा?''
कबीर ने कहा, ''बिलकुल ठीक है। लोग चोरों का सम्मान करें भी क्यों?''
समग्र
स्वीकार का अर्थ है किसी भी बात के लिए निषेध नहीं। जब तुम स्वीकार करते
हो तो तुम कुछ शर्तों के साथ स्वीकार करते हो। तुम कहते हो, ''अच्छा ठीक है, मैं
यह करूंगा लेकिन यदि ऐसा न हुआ तो। मैं चोरी करूंगा यदि परमात्मा मुझे
नर्क में न गिराये तो। मैं चोरी कर सकता हूं यदि उसमें कोई पाप न हो तो।
मैं चोरी कर सकता हूं यदि लोग मेरा अपमान नहीं करें तो।'' लोग
जो करेंगे उसे भी स्वीकार करना है। समग्र स्वीकार एक बहुत ही जीवंत ढंग है
जीने का। लेकिन तब सभी कुछ स्वीकार होता है। जो भी फिर परिणामस्वरूप होता
है उसका भी स्वीकार है। किसी भी बात के लिए किसी भी बिंदु पर निषेध नहीं
है। यह अंतिम बात है, आत्यंतिक मार्ग है जीवन का। वस्तुत: ऐसा ही संन्यासी होना चाहिए। संन्यासी के पास समग्र स्वीकार होना चाहिए।
लेकिन
जब हम कहते हैं कि तुम सपने निर्मित कर सकते हो तो हम निषेध नहीं कर रहे
हैं। हम सिर्फ एक तथ्य की घोषणा कर रहे हैं। यदि तुम चाहो तो सपने निर्मित
कर सकते हो। मैं उन्हें सरलता से निर्मित करने में तुम्हारी सहायता कर सकता
हूं। लेकिन स्मरण रहे कि वे सपने ही हैं।
समस्या तो तब खड़ी होती है जब सपना सत्य हो जाता है। तुम अपने कृष्ण के साथ खेल सकते हो, तुम उनके साथ नृत्य कर सकते हो। उसमें क्या बुरा है? नृत्य अपने आप में अच्छा ही है, उसमें गलत क्या है? तुम अपने कृष्ण के साथ खेल ही तो रहे हो, उसमें तुम किसी का कुछ नुकसान तो नहीं कर रहे हो। नाचो और खेलो। तुम्हारे लिए ठीक होगी यह बात। लेकिन याद रहे कि यह बात सत्य नहीं है, वास्तविक नहीं है। यह एक प्रक्षेपण है, तुमने ही निर्मित किया है।
यदि तुम इसे स्मरण रख सको तो तुम खेल—खेल सकते हो, लेकिन
तुम कभी भी उससे तादात्म्य नहीं जोड़ोगे। तुम इसके प्रति जागते चले जाओगे
कि यह एक खेल है। एक खेल सिर्फ एक खेल ही है यदि तुम उससे तादात्म्य नहीं
जोड़ते हो तो। यदि तुम तादात्म्य निर्मित कर लेते हो, तो वह एक गंभीर बात हो जाती है। वह एक समस्या हो जाती है। अब तुम उससे ग्रसित रहोगे।
दिनांक 11 जुलाई 1973; संध्या,
माउंट आबू राजस्थान।
दिनांक 11 जुलाई 1973; संध्या,
माउंट आबू राजस्थान।
प्रश्न सार :
*क्यों सदगुरुओं को ईश्वर की भांति पूजा जाता रहा है?
*अराजकतापूर्ण श्वास से पुराने ढांचों के टूट जाने के बाद नया कैसे निर्मित होगा?
*क्या यह कहना कि प्रार्थना मूर्तिपूजा मंदिर और चर्च सब झूठ पर आधारित हैं निषेध नहीं है?
पहला प्रश्न :
सुबह
आपने कहा कि पूजा के द्वारा ब्रह्मको नहीं पाया जा सकता। वरन वह पूजा करने
वाले के भीतर ही पाया जाता है। लेकिन सदगुरूओं को उनके शिष्यों ने सदा ही
ईश्वर की भांति पूजा है। कृपया इसका महत्व समझायें।
सदगुरूओं को ईश्वर की भांति पूजा गया है। किंतु यह सिर्फ प्रारंभ है, न
कि अंत। सदगुरू तभी वास्तव में सदगुरू है यदि वह अपने शिष्यों को अंत
में सब पूजा से मुक्त कर दे। परंतु प्रारंभ में ऐसा ही होगा। क्योंकि
प्रारंभ में सदगुरू तथा शिष्य के बीच एक प्रेम का संबंध होता है। और वह
बड़ा गहन होता है। और जब भी तुम किसी के प्रेम में होते हो तो दूसरा
तुम्हें दिव्य दिखाई पड़ता है।
सामान्य
प्रेम में भी प्रेमी हमें परमात्मा दिखाई पड़ताहै। सदगुरू तथा शिष्य के
बीच जो संबंध होता है वह बहुत ही गहरा प्रेम—संबंध होता है। असल में, तुम
गुरु के प्रेम में पड़ जाते हो। और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। और जब तुम
गुरु के प्रेम में पड़ जाते हो तो तुम पुजा करने लग जाते हो। लेकिन सदगुरू
उसे एक खेल की भांति ही लेता है। यदि वह भी उसे गंभीरता से ले और उसमें रस
लेने लगे, और महत्व देने लगे, तो वह फिर सदगुरू नहीं हे। उसके लिए वह सिर्फ एक खेल है—लेकिन खेल अच्छा है, क्योंकि इससे शिष्य की सहायता की जा सकती है।
इससे शिष्य की सहायता कैसे होगी? जितना अधिक शिष्य गुरु की पूजा करता हे उतना ही वह गुरु के निकट आता जाता है। उतना ही वह घनिष्ठ होता जाता है, उसनाही वह सर्मिपित होता जाता है। ग्राहक, निष्कि्रय
होता जाता है। और जितना अधिक वह ग्राहक निष्क्रिय तथा समर्पित होता है
उतना ही वह गुरु जो भी कहने की कोशिश कर रहा है उसको समझ पाता है। और जब यह
घनिष्ठता आखिरी बिंदु पर आ जाती है, केवल एक इंच की दूरी भर रह जाती है, एक जरा सा ही अंतराल शेष रह जाता है, जब निकटता इतनी गहरी हो जाती है कि सदगुरु शिष्य को उसकी ओर ही वापस मोड़ सकता है, तब सदगुरु शिष्य की सहायता करता है कि वह उससे भी मुक्त हो जाए।
प्रारंभ
में यह असंभव है। तुम समझ न सकोगे। यदि गुरु तुम्हें अपने से मुक्त करने
की कोशिश करे पो तुम नहीं समझ पाओगे। प्रारंभ में तो तुम चाहोगे कि कोई हो
जिसका तुम सहारा ले सको। प्रारंभ में तुम किसी पर निर्भर होना चाहोगे।
प्रारंभ में तुम चाहोगे कि तुम किसी के ऊपर पूरी तरह निर्भर हो जाओ। यह
आंतरिक आवश्यकता है। और तुम्हें प्रारंभ से मालिक बनाया नहीं जा सकता।
प्रारंभ तो एक आध्यात्मिक निर्भरता की भाति ही होगा।
लेकिन यदि सदगुरु भी इससे संतुष्ट हो जाए कि तुम उस पर निर्भर हो तो वह सदगुरु नहीं है। वह नुकसानदायक है, वह खतरनाक है; तब
उसे कुछ भी पता नहीं है। यदि वह भी तृप्ति अनुभव करता हो तो फिर यह
निर्भरता आपसी हो गई। तुम उस पर निर्भर करते हो और वह तुम पर निर्भर करता
है। और यदि गुरु तुम पर किसी भी बात के लिए निर्भर करता हो तो फिर वह किसी
काम का नहीं है। किंतु यदि वह तुम्हें प्रारंभ से ही मना कर दे तो कोई
निकटता नहीं बन पाएगी। और यदि कोई निकटता ही न बनेगी तो अंतिम कदम नहीं
उठाया जा सकता।
जब तुम गुरु में इतनी श्रद्धा करो कि जब वह तुम्हें कहे, ''अब मुझे भी छोड़ दो, ''तो तुम उसे भी छोड़ दो, तभी तुम मुक्त होने में समर्थ हो सकोगे। यदि तुम अपने गुरु पर इतनी अधिक श्रद्धा करते हो कि यदि गुरु कहे, ''तुम मुझे मार डालो, ''तो तुम उसको मार भी सकी, केवल तभी तुम मुक्त हो सकोगे, उसके पहले नहीं। और यह स्थिति धीरे— धीरे ही लानी पड़ेगी। यह एक लंबी प्रक्रिया है। इसमें कभी पूरा जीवन निकल जाता है, और कभी—कभी कितने ही जीवन बीत जाते हैं, गुरु शिष्य पर काम करता रहता है।
शिष्य को कुछ भी पता नहीं है। वह नहीं जानता, वह अंधेरे में चलता जाता है। गुरु शिष्य को उस बिंदु पर ले जा रहा है जहां शिष्य—शिष्य नहीं रहेगा, बल्कि वह भी अपने आप में एक गुरु हो जाएगा। जब तुम भी गुरु हो जाते हो, जब गुरु पर निर्भर होने की जरूरत नहीं रहती, जब तुम अकेले भी हो सकते हो, और जब तुम अकेले हो तो भी कोई दुख नहीं है, कोई पीड़ा, कोई क्रोध नहीं है, जब तुम अकेले में भी आनंदित हो, तभी तुम मुक्त हो।
और वास्तव में, जब शिष्य गुरु के पास होता है तो गुरु उसको ईश्वर दिखाई पड़ता है।
शिष्य के लिए यह बात तथ्य है क्योंकि इतना प्रेम गुरु की ओर से बहता है, इतनी
तीव्र ऊर्जा—तरंगें गुरु के माध्यम से बहती हैं कि गुरु स्रोत हो जाता है।
और सिर्फ गुरु की उपस्थिति से ही तुम ऊपर उठ जाते हो। सिर्फ उसके स्पर्श
से ही तुम बदल जाते हो। सिर्फ उसके निकट होने मात्र से ही तुम एक दूसरे ही
आयाम में तरंगायित हो जाते हो।
इसलिए यदि गुरु ईश्वर दिखाई पड़ता है तो यह बात शिष्य के लिए एक तथ्य है, और
इसमें कुछ भी गलत नहीं है। गुरु परमात्मा ही है। गलती सिर्फ इतनी ही है कि
शिष्य को अभी पता नहीं है कि वह भी परमात्मा है। वह गुरु के संबंध में गलत
नहीं है, वह अपने संबंध में गलत है। और यदि गुरु कहता है, ''मैं परमात्मा नहीं हूं '' तो वह इस संभावना का द्वार ही बंद कर रहा है कि एक दिन वह शिष्य को कह सके कि ''तुम भी परमात्मा हो। '' गुरु ऐसा नहीं कहेगा क्योंकि यही तो प्रगट करना है।
यदि
शिष्य को इतनी प्रतीति भी हो जाये कि गुरु परमात्मा है तो यह भी बड़ा कदम
है। अब दूसरा कदम यह होगा कि शिष्य यह अनुभव कर ले कि वह स्वयं भी परमात्मा
है। और जब शिष्य यह अनुभव कर ले कि वह भी परमात्मा ही है तो सारा अस्तित्व
ही फिर परमात्मामय हो जाता है। तब यह भी कहने की जरूरत नहीं रह जाती कि
गुरु परमात्मा है। यह बात फिर असंगत है। सारा अस्तित्व ही परमात्मा है, अत: फिर गुरु को ही परमात्मा पुकारने का क्या अर्थ है? लेकिन प्रारंभ में यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है।
स्मरण रहे, शिष्य के लिए सत्य को कई चरणों में प्रगट करना है। उसे एकबारगी प्रगट नहीं किया जा सकता, क्योंकि तुम उसे बर्दाश्त करने में समर्थ नहीं होओगे, तुम उसे सहन करने के योग्य नहीं हो, वह बहुत ज्यादा विनष्टकारी होगा। उसे धीरे—धीरे ही प्रगट करना होगा, टुकड़ों —टुकड़ों में। केवल उतना ही प्रगट किया जाएगा जितना तुम जज्ब कर सको, जितना तुम्हारा खून, तुम्हारी हड्डी बन सके, तुम्हारा ह्रदय बन सके, जो कि तुम्हारे लिए विनाशक सिद्ध न हो।
अत: बहुत—सी बातें बाद में कही जायेंगी। गुरु बहुत—सी बातें कहता जाएगा। जितने तुम समर्थ होते जाओगे, उतना अधिक गुरु कहता जायेगा। और जब तुम इतने समर्थ हो जाओगे कि अब तुम अनिर्भर हो सकते हो तो आखिरी बात जो गुरु कहेगा, वह होगी, ''मैं तुम्हारे लिए एक बंधन हूं अब इस आखिरी जंजीर को भी छोड़ दो, अब इस अंतिम दासता को भी त्याग दो। ''
जब जरथुस्त्र अपने शिष्यों से दूर जा रहा था, पहाड़ियों में सदा—सदा के लिए विलीन होने जा रहा था, तो उसने अपने शिष्यों से कहा, ''अब यह आखिरी संदेश। और आखिरी संदेश यह है—मेरे से सावधान रहो; मैं खतरनाक हूं। तुम मुझ पर निर्भर हो सकते हो, और मेरी सारी कोशिश तुम्हें स्वतंत्र करने की है। तुम मेरे शब्द को सत्य समझ सकते हो, और मेरी सारी कोशिश यह है कि कोई भी शब्द सत्य नहीं है। अत: अब मुझ से सावधान रहो। ''
किसी भी सदगुरु का आखिरी संदेश यही होगा, ''मेरे से सावधान! '' लेकिन
यह बात प्रारंभ में नहीं कहीं जा सकती। इसलिए सदगुरुओं ने स्वयं को
शिष्यों के द्वारा पूजे जाने दिया है। वे अपने भीतर तो हंसते रहे होंगे
क्योंकि वे जानते हैं कि क्या खेल चल रहा है! शिष्य तो बहुत गंभीर है। वह
सोचता है कि वह जो भी कर रहा है बड़ा महत्वपूर्ण है। लेकिन गुरु सिर्फ खेल
खेल रहा है।
यह ऐसे ही है जैसे तुम छोटे बच्चों के साथ खेलते हो, तुम
उनके खिलौनों से खेलते हो और तुम गंभीर होने का नाटक करते हो। गुरु सचमुच
बच्चों के बीच में होता है। वे दोनों इतने अलग— अलग तलों पर होते हैं कि
यदि गुरु को कुछ भी कहना हो तो उसे बच्चों की भाषा में बोलना पड़ता है।
धीरे—धीरे वह बच्चों को एक भिन्न जगत में ले जाएगा, जहा की भाषा भिन्न है। यह एक लंबी प्रक्रिया होने वाली है।
लेकिन उपनिषद तो आखिरी बात कह रहे हैं; वे संपूर्ण धर्म का सारभूत हैं। वास्तव में, वे प्रारंभिक लोगों के लिए नहीं हैं। वे उनके लिए हैं, जिन्होंने प्रारंभ को बहुत पीछे छोड़ दिया है। वास्तव में, वे उनके लिए हैं जो बहुत समय से संघर्ष कर रहे हैं— ध्यान कर रहे हैं, खोज रहे हैं, पूछताछ कर रहे हैं। केवल तभी उपनिषद सहायक हो सकते हैं।
मैं
उपनिषदों पर बोल रहा हूं क्योंकि तुम ध्यान कर रहे हो। तुम्हारे ध्यान के
द्वारा तुम्हें एक झलक मिल सकती है जिसमें उपनिषद को समझना सरल हो जाएगा।
लेकिन यदि तुम ध्यान नहीं कर रहे हो तो उपनिषद तुम्हारे सिर के ऊपर से निकल
जाएगा। उसका कुछ भी अर्थ तुम्हारे लिए नहीं होगा। केवल एक ध्यानपूर्ण हृदय
से ही तुम उसके संदेश के साथ संपर्क स्थापित कर सकोगे।
उपनिषदों का संदेश सर्वाधिक सरल है, लेकिन परम है, सर्वोच्च है। भाषा भी बड़ी सरल उपयोग की गई है। सरलतम भाषा है, लेकिन उस भाषा के द्वारा जो बात कही गई है वह अंतिम है; उसे
और आगे नहीं सुधारा जा सकता है। कुछ भी और नहीं कहा जा सकता है जो कि
उपनिषदों ने पहले से नहीं कह दिया है। यदि सब धर्मों के सारे ग्रंथों को भी
जला दिया जाए, और सिर्फ एक उपनिषद को बचा लिया जाए तो कुछ भी नहीं खोएगा, क्योंकि सारे बीज वहा मौजूद हैं। इन बीजों को फिर से बो दो, और तुम उससे पूरी धार्मिकता वापस प्राप्त कर सकते हो। लेकिन ऐसा तुम तभी कर सकते हो जब कि तुम गहन ध्यान कर रहे हो, साथ—साथ भीतर हृदय में उतरते जा रहे हो, अपने आंतरिक केंद्र पर पहुंच रहे हो, केवल तभी तुम समझ सकोगे, खाली बौद्धिक कोशिश से कुछ भी न समझ सकोगे।
किसी ने कहा है कि उपनिषद बहुत पुनरुक्ति करते प्रतीत होते हैं, वे वही—वही बात बार—बार वहीं कहे चले हैं, इन इंद्रियों के बारे में और उन इंद्रियों के बारे में कहते हैं—आंखों के बारे में कहते हैं, और कानों के बारे में कहते हैं। क्यों वे बार—बार पुनरुक्ति करते हैं? क्या इसमें कोई बड़े महत्व की बात छिपी है?
हां, छिपी है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि गुरु बच्चों से बोल रहा है। तुम्हारी स्मृति पर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता, इसलिए सत्य को सतत दोहराना पड़ता है। फिर भी यह मात्र आशा ही है कि वह समझा जा सकेगा।
बुद्ध
वही—वही बात बार—बार दोहराते थे। उपनिषद भी उसी बात को पुनरुक्त करते चले
जाते हैं। वे बच्चों से बातें कर रहे हैं—बच्चे जो कि ध्यान नहीं दे पा
रहे हैं। इसलिए वे बहुत बार चूक जायेंगे। ऐसी आशा की जाती है कि कभी न कभी
उनका ध्यान पकड़ लिया जाएगा, इसलिए बातों को दोहराया जाता है। चूंकि तुम सजग नहीं हो, इसलिए। अन्यथा, उस
आत्यंतिक को एक शब्द में भी कहा जा सकता है। और वह भी ज्यादा है। उसे मौन
से भी कहा जा सकता है। एक शब्द की भी र्जरूरत नहीं है उसे कहने के लिए।
लेकिन तब तुम उस मौन को नहीं समझ सकोगे।
कोई आदमी एक झेन रहस्यदर्शी रिंझाई के पास आया। उसने रिंझाई से कहा, ''मुझे केवल जो सारभूत हो वही कहो, क्योंकि मैं जल्दी में हूं मैं एक बहुत बड़ा सरकारी अफसर हूं और मेरे पास समय नहीं है। मैं इस रास्ते से गुजर रहा था तो मैंने सोचा, चलें, पता करें क्योंकि यह बात मेरे दिल में बहुत दिनों से थी। इसलिए मुझे सार में कहें कि धर्म मूलरूप से क्या है? ''
रिंझाई मौन रहा। उस बड़े अफसर को बड़ी बैचेनी हुई। उसने कहा, ''आपने मेरी बात सुनी या नहीं? लगता है कि आप बहरे हैं। मैं आपसे धर्म के बारे में जो सार शब्द है उसे कहने के लिए कह रहा हूं। ''
रिंझाई ने कहा, ''मैंने वह बता दिया है। अब तुम जा सकते हो। ''
उस अफसर ने कहा, ''लेकिन मैंने तो सुना ही नहीं। ''
रिंझाई ने कहा, ''जो सुना जा सके वह सारभूत नहीं होगा। मैंने तुम्हें कुंजी दे दी है। मौन कुंजी है। अब तुम जाओ। तुम जल्दी में हो। ''
लेकिन अब उस अफसर को भी दिलचस्पी होने लगी। यह आदमी अदभुत है। उसने कहा, ''कृपया थोड़ा समझा कर कहें। यह तो बहुत संक्षिप्त हुआ; बड़ा छोटा—सा, बीज रूप हुआ। थोड़ा विस्तार से कहें तो अच्छा होगा। ''
रिंझाई ने कहा, ''लेकिन वह बात को दोहराना होगा, क्योंकि जो भी मैं कहना चाहता था, कह दिया है। अब तुम मुझे दोहराने के लिए बाध्य कर रहे हो। ''
अफसर ने कहा, '' भले ही पुनरुक्ति हो, लेकिन थोड़ा विस्तार से कहिए। ''
तो रिंझाई ने कहा, '' ध्यान। '' यह फिर वही बात हुई, क्योंकि ध्यान का अर्थ होता है मौन। इसके अलावा और क्या अर्थ हो सकता है? अब यह एक शब्द है। पहले वह खाली मौन था, वह ज्यादा वास्तविक था। अब यह शब्द हो गया—ध्यान।
उस आदंमी ने कहा, ''यह बात अभी भी मेरे लिए कठिन है। मैं संसारी आदमी हूं। इसे आप कृपया समझायें। यह अभी भी मेरे लिए एक पहेली ही है। ''
रिंझाई ने कहा, ''यदि मैं इसे और विस्तार में कहता हूं तो यह झूठ हो जाएगा। सत्य तो पहले ही दे दिया गया था, अब तो सिर्फ यह शब्दों में पुनरुक्ति है। यह आधा झूठ तो हो ही गया है, और यदि मैं इसके आगे विस्तृत करूंगा तो यह पूरा का पूरा ही झूठ हो जाएगा। अत: मुझे पाप में पड़ने के लिए बाध्य मत करो। अब तुम जाओ, तुम जल्दी में हो। ''
उपनिषद तुम्हारे लिये दोहराये चले जाते हैं, क्योंकि तुम्हारे ध्यान पर कोई भरोसा नहीं है। बुद्ध का ढंग बहुत कठिन था : वे प्रत्येक वाक्य 'को तीन बार दोहराते थे—केवल करुणावश। हो सकता है तुमने पहली बार में न सुना हो; दूसरी बार में भी न सुना हो। आशा की जाती थी कि तीसरी बार में तो तुम सुन ही लोगे।
जीसस लोगों को कहानियां सुनाये चले जाते हैं। मैं भी कहानियां, किस्से, बोध—कथाएं सुनाता रहता हूं। उनकी कोई अनिवार्यता नहीं है; वह समय को बरबाद करना है, लेकिन
मैं तुम्हारे कारण उनका उपयोग करता हूं क्योंकि बच्चे कहानियों को जल्दी
समझ लेते हैं बजाय किसी और चीज के। इतनी तो उम्मीद की जा सकती है कि कम से
कम कहानियां तो तुम्हारे दिमाग में चली ही जायेंगी, और
उनके इर्द—गिर्द कुछ सार की बात की सुगंध भी भीतर अनजाने में चली जाएगी।
तुम कहानी को नहीं भूल सकते। और यदि तुम कहानी को याद रख सकते हो तो उसके
संग—साथ में कुछ और बात भी स्मृति में चली आएगी। जीसस इतनी कहानियां सुनाते
थे, क्योंकि बच्चों के साथ कोई और तरीका संभव नहीं है। बुद्ध भी कहानियां सुनाते रहे हैं।
यह
सिर्फ तुम्हारे कारण ही उपनिषद बार—बार पुनरुक्ति करते हैं। इसके अलावा
कोई मतलब नहीं है। सारी बात एक वाक्य में कही जा सकती है कि इंद्रियां उस
आत्यंतिक तक नहीं पहुंचा सकेगी। किंतु उपनिषद कहे चले जाते हैं कि दृष्टि
उस तरफ नहीं ले जाएगी, श्रवण भी नहीं ले जाएगा, हाथ भी वहां तक नहीं पहुचायेंगे...।
एक ही बात को तुम्हारी खातिर दोहराना पड़ता है और फिर भी तुम नहीं समझते हो, यही रहस्य है। तुम सुनते हो, और तुम केवल सुनते ही नहीं, तुम्हें ऐसा भी लगता है कि यह पुनरुक्ति है। लेकिन फिर भी समझ पैदा नहीं होती है। समझने की कोशिश करो, विश्लेषण
मत करो। ऋषि के मन को समझने का प्रयत्न मत करो कि वह क्यों दोहरा रहा है।
अपने मन को समझो और सजग हो जाओ ताकि ऋषि को दोहराना न पड़े।
मैंने सुना है कि एक बार ऐसा हुआ:
एक झेन फकीर ने अपना पहला प्रवचन दिया, और फिर दूसरे सप्ताह भी उसने वही प्रवचन दिया, और फिर तीसरे सप्ताह भी उसने उसी प्रवचन को पुनरुक्त किया, ज्यों का त्यों दोहरा दिया। सभा के लोग बड़े बेचैन हो गये, यह तो बात कुछ ज्यादा हो गई। धार्मिक प्रवचन तो पहले ही काफी उबाने वाले होते हैं, किंतु उसने फिर दूसरी बार भी वही दोहरा दिया और तीसरी बार भी वही दोहरा दिया, उन्हीं शब्दों को ज्यों का त्यों रख दिया। यह तो हद हो गई, अत: सभा ने सोचा कि कुछ करना चाहिए।
एक आदमी को चुना गया कि वह उनकी ओर से बोले। वह उस फकीर के पास गया और बोला, ''बात क्या है? क्या तुम्हारे पास एक ही प्रवचन है?''
उस फकीर ने कहा, ''नहीं, मेरे पास और भी हैं।''
तो उस प्रतिनिधि ने कहा, ''फिर आपने वही—वही प्रवचन तीन बार क्यों दोहराया? हम तो उससे तंग चुके हैं। ''
उस झेन फकीर ने कहा, ''लेकिन तुमने अभी पहले के संबंध में कुछ भी नहीं किया है। जब तक तुम उसके लिए कुछ करते नहीं, मैं दूसरे पर नहीं जा सकता। मेरे पास बहुत सारे प्रवचन हैं, लेकिन तुमने पहले के विषय में क्या किया अब तक? मैं तीन बार उसे दे चुका हूं। तुमने क्या किया? तुमने कुछ भी तो नहीं किया। और जब तक तुम पहले प्रवचन के लिए कुछ न करो, मैं दूसरे पर नहीं जा सकता।''
कहते हैं लोग सभा में धीरे—धीरे आना बंद हो गये। और यह भी कहते हैं कि वह फकीर वही उपदेश देता रहा। जबकि वहां कोई भी नहीं होता, फिर भी वह वही उपदेश सूने मंदिर में पुन: दोहराता। तब तो लोगों ने उस रास्ते से गुजरना भी छोड़ दिया, क्योंकि उधर से गुजरते वक्त वे लोग वही प्रवचन फिर। फिर सुनते तो लोग उससे डरने लगे, दूर
भागने लगे। वे उस फकीर से सड़क पर या कहीं भी मिलने से बचने लगे। क्योंकि
वह कहीं मिल जाए और पूछे कि तुमने इस प्रवचन का क्या किया? वह फकीर सारे गांव के खयालों में मंडराने लगा।
इसलिए
उपनिषद बार—बार दोहराये चले जाते हैं क्योंकि तुमने अभी पहली बात के लिए
ही कुछ भी नहीं किया है। तुमने पहली बात के बारे में ही कुछ नहीं किया है, इसलिए वे उसे दूसरी बार, तीसरी बार दोहरते हैं। एक सौ आठ उपनिषद हैं; और वे कोई नई बात नहीं कहते, वे उसी बात को' बार—बार
दोहराते रहते हैं। एक ही उपनिषद एक सौ आठ बार पुनरुक्त किया गया है। लेकिन
फिर भी उसके बारे में कुछ नहीं किया जाता। तुम्हें और और उपनिषदों की
आवश्यकता है।
गुरु के मन के बारे में विचार मत करो। अपने ही मन के बारे में विचार करो।
दूसरा प्रश्न :
आपने
कहा कि अराजकतापूर्ण श्वास से आप हमारे पुराने गलत ढांचों को नष्ट करना
चाहते हैं ताकि हमें पुन: एक नए आयाम में निर्मित किया जा सके। कृपया
बतायें कि पुराना ढांचा नष्ट हो जाने के नये आयाम में यह पुनर्निर्माण कैसे
घटित होता है?
तुमने मुझे गलत समझ लिया। अराजक विधि पुराने ढांचों को नष्ट करने के लिए है, न कि नए को के लिए। कोई भी ढांचा बनाना नहीं है। केवल पुराने को नष्ट कर देना है। विधियां, सारी ध्यान की विधियां तुम्हारे संस्कारों को नष्ट करने के लिए हैं, नए संस्कार निर्मित करने के लिए नहीं। वरना तो सिर्फ जंजीरें बदल जायेंगी, कारागृह बदल जायेगा। नया कारागृह थोड़ा अच्छा प्रतीत होगा, लेकिन वह भी कारागृह ही है।
एक असंस्कारित मन लक्ष्य है—एक ऐसा मन जिसके चारों तरफ कोई ढांचा नहीं है। पुराने ढांचे को नष्ट कर देना है, और नये को निर्मित नहीं करना है, क्योंकि नया थोड़े ही दिनों में पुराना हो जायेगा। पुराने की जगह में कुछ नहीं बनाना है; तुम्हें
बिलकुल अकेला छोड़ देना है बिना किसी ढाचे के। लेकिन तुम ढांचों में रहने
के इतने आदी हो गये हो कि तुम सोच ही नहीं सकते कि तुम बिना ढांचों के कैसे
जी सकते हो? बिना संस्कारों के तुम जी कैसे सकते हो? बिना किसी अनुशासन के तुम कैसे रह सकते हो? बिना जंजीरों के तुम कैसे रहोगे? तुम दासता में इतने लंबे समय तक रहे हो, तुम संस्कारों के वशीभूत इतने समय तक रहे हो कि तुम स्वतंत्रता के बारे में सोच भी नहीं सकते। लेकिन तुम जी सकते हो! वास्तव में, तभी तुम जी सकते हो।
एक संस्कारित मन जीवंत नहीं है। उदाहरण के लिए, मेरे पास लोग आते हैं और कहते हैं, ''आप हमें कोई अनुशासन, कोई नियम तो देते नहीं, कि हम क्या खायें और क्या न खायें; कि
क्या करें और क्या नहीं करें। आप हमें सिर्फ ध्यान बतलाते हैं और हमें एक
अराजकता में ले जाते हैं। आप हमें कुछ भी ऐसा नहीं बताते कि कैसे रहें। आप
हमें सिर्फ अराजकता में धक्का दे देते हैं, और कोई अनुशासन नहीं देते। '' मैं तुम्हें कोई भी अनुशासन नहीं देता, क्योंकि
केवल तुम्हारे शत्रु ही तुम्हें अनुशासन दे सकते हैं। मैं तुम्हें सजगता
देता हूं न कि अनुशासन। और सजगता से तुम्हें एक स्वतःस्फूर्त प्रकाश मिलेगा
कि क्या करें और क्या नहीं करें। और पहले से कौन तय कर सकता है, और उसकी जरूरत भी क्या है? जब क्षण आएगा, जब जैसी परिस्थिति होगी तो तुम सजग होओगे उसके अनुसार करने के लिए—जो भी तुम्हारी सजगता को प्रतीत होगा, वही हो जाएगा।
यदि तुम सजग हो, तो तुम्हें किसी भी अनुशासन की जरूरत नहीं है। केवल सोये हुए लोगों को ही अनुशासन की जरूरत होती है, क्योंकि
उनको पता नहीं है कि क्या करें। उन्हें एक ढांचे की जरूरत है अनुसरण करने
के लिए। उनका सारा जीवन एक दुख हो जाता है क्योंकि कोई भी ढांचा काम नहीं आ
सकता इस परिवर्तनशील जीवन में।
प्रत्येक ढांचा एक कारागृह हो जाएगा, क्योंकि जीवन सतत बदल रहा है। इस क्षण एक कृत्य शुभ हो सकता है, लेकिन दूसरे क्षण में वही बात अशुभ हो सकती है क्योंकि परिस्थिति बदल गई। और तुम एक मृत ढांचे का अनुगमन करते रहते हो; तुम कहीं भी तो ठीक नहीं बैठते।
तुम अपने ही जीवन को देखो : प्रत्येक आदमी मिसफिट है। कोई भी उपयुक्त नहीं है, कोई भी कहीं ठीक नहीं बैठता। और क्या है कारण? ढांचा, अनुशासन, संस्कार। तुम उन्हें सब जगह ले जाते हो। जो भी परिस्थिति हो, तुम्हारे चारों ओर एक ढांचा होता है। तुम कभी भी ठीक नहीं बैठ सकते। जीवन बदल रहा है, जीवन बहता हुआ है। वह नदी की भांति है; वह वैसा ही कभी भी नहीं है। एक क्षण के लिए भी जीवन वही नहीं है। वह सतत बहता जाता है और तुम्हारा ढांचा स्थिर है, जो कि बदलता नहीं है। तुम उसमें फिट नहीं हो सकते।
सारे संसार में प्रत्येक आदमी अनफिट हो गया है, वह कहीं भी ठीक नहीं बैठता। और जब तुम्हें प्रतीत होता है कि तुम ठीक नहीं बैठ रहे हो, तो तुम्हें लगता है कि जैसे तुम्हें निंदित किया जा रहा है, तुम्हें बेकार समझा जा रहा है—जैसे कि जीवन तुम्हारे प्रतिकूल हो। बात इससे बिलकुल उल्टी है; तुम्हारे
संस्कार जीवन—विरोधी हैं। एक ऐसा आदमी जो बिना किसी संस्कारों के है वही
इस परिवर्तनशील जीवन के प्रति ठीक से प्रतिसंवेदन कर सकता है, क्योंकि उसका कोई ढांचा नहीं है। जीवन एक परिस्थिति पैदा करता है; वह सिर्फ सजग है। जो भी उस समय घटता है उसी के अनुसार वह बर्ताव करता है। ऐसा आदमी कभी भी नहीं पछतायेगा; तुम सदैव पछताते रहोगे—चाहे तुम कुछ भी करो।
तुम एक लड़की से प्रेम करते हो; अब यह विकल्प है कि उससे विवाह करो या नहीं। तुम चाहे कुछ भी करो, तुम
पछताओगे। यदि तुम उससे विवाह कर लो तो तुम सारी जिंदगी पछताते रहोगे कि
दूसरा विकल्प अच्छा था। यदि तुम विवाह नहीं करो तो भी वही बात होगी, तब भी तुम सोचोगे कि दूसरा विकल्प ज्यादा ठीक था। क्योंकि तुम सजग नहीं हो। केवल एक सजग आदमी ही पूरी तरह, समग्रता से प्रतिसंवेदन करेगा।
तुम केवल टुकड़ों में, हिस्सों
में ही प्रतिसंवेदन करते हो। और जब भी तुम प्रतिसवेदन करते हो तो वह
टुकड़ों में ही होता है। तुम्हारे भीतर दूसरे हिस्से भी होते हैं जो कि उसके
लिए मना करते होते हैं। देर—अबेर वे बदला लेंगे। वे कहेंगे, हम कह रहे थे कि ऐसा मत करो। पश्चात्ताप का अर्थ क्या होता है? पश्चात्ताप
का अर्थ होता है कि तुम विभाजित हो। तुम कुछ करते हो और उसी समय तुम्हारे
भीतर कोई हिस्सा उसके खिलाफ होता है। वह हिस्सा तुम्हें देख रहा होता है और
वह हिस्सा कह रहा होता है कि यह मत करो, यह गलत है। दूसरा हिस्सा कहे चला जाता है, यह बात ठीक है, करो। और तुम करते हो।
तुम कहीं ठीक नहीं बैठोगे क्योंकि तुम तभी ठीक बैठ सकते हो, जबकि तुम प्रवाह की तरह हो, बहते हुए हो। कोई जमी हुई चीज, एक सरिता जैसे अस्तित्व में ठीक नहीं बैठ सकती 1 तुम्हें बहते हुए, तरल होना चाहिए। यदि तुम तरल, बहते हुए, बदलते हुए, सजग, जागरूक हो, तभी
तुम कभी पश्चात्ताप नहीं करतो। तब तुम कभी अपराधी महसूस नहीं करोगे। तब
तुम्हें कभी ऐसा नहीं लगेगा कि जो तुमने किया उससे बेहतर भी कुछ था। नहीं, उससे ज्यादा अच्छा कुछ भी नहीं हो सकता, क्योंकि तुमने समग्रता से प्रतिसवेदन किया। वही सब कुछ था जो कि किया जा सकता था। उससे अन्यथा कुछ भी संभव नहीं था।
मेरी ध्यान की विधि तुम्हें कोई नया ढांचा देने के लिए नहीं है, यह सिर्फ पुराने ढांचे को गिराने के लिए है। उसे नष्ट करने के लिए और तुम्हें एकदम मुक्त छोड़ देने के लिए है, ताकि तुम्हारे चारों ओर कोई कारागृह नहीं हो। निश्चित ही तुम्हें कुछ कठिनाई होगी, क्योंकि कारागृह में एक सुरक्षा भी थी। अब वर्षा होगी और कोई जगह शरण लेने को न होगी, आधिया चलेंगी और कोई ऐसा स्थान नहीं होगा जहा कि शरण ली जा सके; और
सूर्य चमकेगा पूरी गर्मी और ताप से भरकर और सिर छिपाने को कोई भी जगह न
होगी। और तुम्हारी आंखें अंधेरे की इतनी अभ्यस्त हो गई हैं कि रोशनी में
तुम्हें बड़ी बेचैनी महसूस होगी। लेकिन यही तुम्हें मुक्ति प्रदान करेगी।
तुम्हें खुले आकाश में नई जिंदगी को महसूस करना होगा।
एक बार तुम स्वतंत्रता और इसके सौंदर्य को जान लो, एक बार तुम सजग हो जाओ, एक बार तुम कारागृह के बाहर आ जाओ, अपनी पुरानी आदत के बाहर आ जाओ, तो तुम फिर किसी पुराने ढांचे अथवा अनुशासन के लिए माग नहीं करोगे।
लेकिन
इसका यह अर्थ भी नहीं है कि तुम्हारा जीवन एक अराजकता हो जाएगा। नहीं!
तुम्हारा जीवन ही वास्तव में एक सुव्यवस्थित जीवन होगा। अभी जो जिंदगी तुम
जी रहे हो वही अराजकतापूर्ण है। केवल सतह पर ही वह अनुशासित दिखाई पड़ती है।
उसके पीछे, उसके नीचे, बहुत अनुशासनहीनता, बहुत तूफान छिपा पड़ा है। केवल ऊपर सतह पर तुमने एक व्यवस्था निर्मित की हुई है। अपने भीतर देखो, बहुत गड़बड़ है वहां। ऊपर से अनुशासित जीवन और भीतर वहां बिलकुल गड़बड़ है; वहां एक भारी अराजकता है। यह बात बड़ी विरोधभासी मालूम पड़ती है, लेकिन ऐसा है, यह सत्य है। एक होशपूर्ण जीवन में ही सुव्यवस्था हो सकती है—जबरदस्ती नहीं, बल्कि स्वतःस्फूर्त, जीवंत। वह अनुशासन जीवन के साथ बदलता जाएगा और उसे बदलना ही चाहिए।
सहज जीवन तुम्हारी आंखों के समान है। क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारी आंखें लगातार बदलती रहती हैं? और जब वे बदलना बंद हो जाती हैं, तो
फिर तुम्हें किसी तकनीकी मदद की आवश्यकता पड़ती है। जब मैं तुम्हारी ओर
देखता हूं और तुम मुझसे दस फीट की दूरी पर हो तो मेरी आंखों का फोकस एक
प्रकार का होता है। जब मैं पहाड़ियों को देखता हूं जो कि बहुत दूर हैं तो
मेरी आंखें तुरंत बदल जाती है। आंखों के लेंस फौरन बदल जाते हैं। केवल तभी
मैं पहाड़ियों को देख सकता हूं। और जब मैं चाँद को देख रहा होता हूं तो मेरी
आंखें एकदम बदल जाती हैं।
तुम घर में प्रवेश करते हो, वहां अंधेरा है; तुम्हारी आंखें बदल जाती हैं। तुम घर से बाहर आते हो, वहां प्रकाश है, तुम्हारी आंखें बदल जाती हैं। और जब तुम्हारी आंखें बदलना बंद कर देती हैं, तो फिर वे रुग्ण हैं। वे बहती हुई होनी चाहिए, केवल तभी वे देखने में समर्थ हो सकती हैं। तुम्हारी चेतना आख की भांति जितना अधिक बहती हुई, जितना अधिक तरल, बिना किसी ढांचे के, स्थिति के अनुसार बदलती हुई होगी, उतना ही अधिक तुम्हारी चेतना सजग होगी।
ध्यान से तुम्हें एक आंतरिक आख उपलब्ध होगी जो कि निरंतर बदलती रहेगी, नई परिस्थिति के प्रति निरंतर सजग होगी, लगातार प्रतिसंवेदन करती हुई होगी। किंतु जो भी प्रतिसंवेदन होगा, वह तुम्हारी समग्रता से होगा, न कि किसी ढांचे से; वह प्रतिसंवेदन तुमसे आएगा, न कि तुम्हारे संस्कारों से।
अभी तो जो भी तुम करते हो, जो भी प्रतिक्रिया तुम करते हो, वह
तुम्हारे संस्कारों से आता है। यदि तम एक जैन परिवार में पैदा हुए हो तो
सिर्फ मांसाहारी भोजन को देखकर ही तुम्हें जुगुप्सा पैदा हो जाएगी, तुम्हें मितली आने लगेगी। वह मितली तुम्हारे भीतर से नहीं आ रही है, वह मितली तुम्हारे संस्कारों से आ रही है। क्योंकि वह किसी मुसलमान को नहीं आती; वह किसी ईसाई को नहीं आती। ऐसा नहीं है कि तुम बहुत अहिंसक हो, और वे लोग हिंसक हैं, यह सिर्फ बचपन के संस्कारों के कारण है। और वे ही संस्कार काम करने लग जाते हैं जैसे ही तुम मांस को देखते हो।
सिर्फ 'मांस' शब्द से ही तुम्हें एक सूक्ष्म मितली उठने लगेगी। सिर्फ एक शब्द, और तुम्हें मितली का भाव होने लगेगा। क्या वह तुमसे से आ रही है? यदि
वह तुमसे आ रही है तो फिर तुम्हारा सारा जीवन प्रेम का जीवन होना चाहिए।
लेकिन वह नहीं है। तुम भी उतने ही निर्दयी हो जितना कोई भी हो सकता है। जैन
भी उतना ही निर्दयी है जितना कोई मुसलमान है, और
कभी—कभी तो ज्यादा ही होता है। उसे ज्यादा निर्दयी होना ही पड़ेगा क्योंकि
वह अपनी हिंसा भोजन से नहीं निकाल सकता। उसे कहीं दूसरी जगह से व्यक्त
करना होगा।
जब तुम खाते हो तो तुम अपनी हिंसा व्यक्त करते हो। यदि तुम मांस खाते हो तो तुम्हारी हिंसा ''गजन के द्वारा निकल जाती है। ऐसा सामान्यत: देखने में आया है कि मांसाहारी लोग शाकाहारी लोगों से ? लादा प्रेमपूर्ण होते हैं। क्यों? ऐसा होना तो नहीं चाहिए। उनकी हिंसा भोजन के द्वारा निकल जाती है।
तुम्हारे
शरीर में तुम्हारे दांत सर्वाधिक हिंसक अंग हैं। हिंसक लोग ज्यादा भोजन
करते हैं बजाय अहिंसक व्यक्तियों के। भोजन को दांतों से कुचलने में बहुत—सी
हिंसा, क्रोध, घृणा
निकल जाती है। जो लोग मांस और इस तरह के सामिष भोजन करते हैं तो उनकी
हिंसा के लिए एक प्राकृतिक द्वार मिल जाता है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि
जाओ और मांस खाओ। लेकिन यदि तुम मांसाहारी भोजन नहीं करते हो, सर्फ
संस्कारवश यदि तुम मांस आदि नहीं खाते हो तो इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम
ज्यादा प्रेमपूर्ण तथा अहिंसक हो। तुम्हारी हिंसा दूसरे अधिक सूक्ष्म
रास्ते खोजेगी। तुम्हारे दूसरों के साथ संबंध ज्यादा निर्दयी होगे, विषैले होंगे।
लेकिन यदि तुम वस्तुत: ही किसी ढांचे के अनुसार व्यवहार नहीं कर रहे हो, और यह इसलिए है कि तुम्हारे भीतर प्रेम पैदा हो गया है, यदि तुम पशु का मांस खाने में जो हिंसा है उसके प्रति सजग हो गये हो, यदि तुम अपने आप ही सजग हो गये हो, किसी परंपरा के कारण नहीं, न कि जन्म के कारण, न किसी शिक्षा के कारण, न किसी शास्त्र के कारण बल्कि अपने ही ध्यान के अनुभव के कारण तुम सजग हो गये हो, कि यह मूढ़ता है, किसी
जानवर को अपने भोजन के लिए मारना बड़ी भारी मूढ़ता है—यदि ऐसा तुम्हें अपने
ध्यान के अनुभव में प्रतीत हुआ है—तों फिर बात बिलकुल भिन्न है। तब
तुम्हारी सारी जिंदगी बड़ी प्रेम—पूर्ण तथा अहिंसक होगी। तब तुम भोजन से
ग्रसित नहीं होंगे, बल्कि
भोजन को जीवन के लिए एक अनिवार्यता की भांति स्वीकार कर लोगे। और तुम किसी
भी बंधे—बंधाये नियम के पीछे पागल नहीं होओगे। वास्तव में कोई बंधे—बंधाये
नियम नहीं होंगे। केवल एक सतत जीवंत जागरूकता होगी।
अत:
मैं तुम्हारे लिए कोई नया ढांचा नहीं निर्मित कर रहा हूं। मैं विनाशक हूं।
मैं वास्तव में कुछ भी निर्मित नहीं कर रहा हूं। मैं तो सिर्फ नष्ट करने
वाला हूं क्योंकि कुछ भी निर्मित करने की आवश्यकता नहीं है। तुम पहले ही
ढांचे के पीछे मौजूद हो। जब ढांचा नष्ट हो जाएगा तो तुम मुक्त हो जाओगे।
यदि वह ढांचा जिसने कि तुम्हें बाधा है, नहीं होगा, तो तुम होओगे।
तुम्हें निर्मित करने का सवाल ही पैदा नहीं होता, तुम तो पहले से ही हो। केवल कारागृह की दीवारों को गिरा देना है, और तुम खुले आकाश के नीचे होओगे।
इसलिए तुमने मुझे गलत समझ लिया है। मैंने तुमसे कहा कि यह अराजकतापूर्ण ध्यान तुम्हारे संस्कारों, तुम्हारी दासता, तुम्हारे मन, तुम्हारे
अहंकार को नष्ट करने के लिए है—गहरे अर्थों में तुम्हें ही नष्ट करने के
लिए है। ताकि नया जन्म सके। मैं नहीं कह रहा हूं कि इसे मैं निर्मित
करूंगा। कोई भी निर्मित नहीं कर सकता है; और उसकी कोई भी जरूरत नहीं है; वह तो पहले से ही है!। वह वहा मौजूद ही है। केवल खोल को तोड़ देना है, और वह बाहर आ जाएगा।
सारा धर्म इस अर्थ में विनाशकारी है। समाज निर्माता है, धर्म विनाशकारी है। समाज संस्कारों को निर्मित करता है। समाज तुम्हें हिंदू ईसाई, जैन बनाता है। समाज तुम्हें वही नहीं रहने देता जो तुम हो। वह तुम्हें एक ढांचा देता है, क्योंकि समाज एक संगठन है। समाज चाहता है कि तुम उसके संगठन में ठीक बैठ जाओ, उसके नियमों के अनुसार हो जाओ। समाज तुम्हें नहीं चाहता। समाज को केवल तुम्हारी कुशलता चाहिए। तुम महत्वपूर्ण नहीं हो, तुम लक्ष्य नहीं हो। तुम एक यांत्रिक चीज की तरह होने चाहिए। जितने यांत्रिक तुम हो जाओ, समाज उतनी ही तुम्हारी प्रशंसा करेगा, क्योंकि तब तुम कम खतरनाक होओगे। कोई भी यंत्र खतरनाक नहीं होता। वह कभी भी रास्ते से इधर—उधर नहीं जाता; वह कभी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता, वह कभी विद्रोह नहीं करता; वह विद्रोही नहीं है।
कोई भी यंत्र विद्रोही नहीं है; वह हो भी नहीं सकता। सारे यंत्र रूढ़िवादी हैं। वे आज्ञाकारी हैं, वे अनुगामी हैं। समाज तुम्हें एक यांत्रिक वस्तु में बदलना चाहता है। तब तुम ज्यादा कुशल, कम खतरनाक, विश्वसनीय, जिम्मेवार होते हो और कोई भय नहीं होता, कोई खतरा नहीं होता। तुम पर भरोसा किया जा सकता है।
समाज तुम्हारे चारों ओर एक यांत्रिक संरचना खड़ी कर देता है, वही संस्कार है। और वह तुम्हें थोड़े—से द्वार दे देता है, और कुछ द्वारों को पूरी तरह बंद कर देता है। वह तुम्हारे भीतर से कुछ हिस्से चुन लेता है, बाकी सबको इंकार कर देता है। वह कहता है कि केवल एक हिस्सा ही तुम्हारा अच्छा है, और बाकी हिस्से बुरे हैं, अत: उन्हें इंकार कर दो। समाज तुम्हें समग्रता में, एक इकाई में स्वीकार नहीं करता, वह केवल थोड़े—से हिस्से को स्वीकार करता है। इसलिए संस्कार होते हैं।
धर्म सदैव विनाशक है। एक तरह से धर्म सदा समाज—विरोधी है।
किंतु समाज बड़ा चालाक है। वह धर्म को भी एक प्रशासकीय संस्था में बदल देता है। वह धर्म क् भी अपना एक हिस्सा बना लेना चाहता है।
जीसस विद्रोही थे, चर्च विद्रोही नहीं है। जीसस समाज के विद्रोह में थे, क्योंकि वे यात्रिक हिस्से को नष्ट करना चाहते थे, और वे तुम्हारी स्वतस्फूर्तता को मुक्त करना चाहते थे। उन्हें समाज के विरोध में होना ही पड़ेगा; समाज उन्हें क्रास पर लटकायेगा ही। लेकिन जीसस को क्रास पर लटकाने मात्र से तुम जीसस को नष्ट नहीं कर सकते। वास्तव में, यदि
तुम जीसस को नष्ट ही करना चाहते हो तो क्रास पर लटकाने से कुछ भी न होगा।
तुम्हें उनके चारों ओर एक चर्च खड़ा करना होगा तभी उनको नष्ट किया जा सकता
है।
कहा जाता है कि एक बार ऐसा हुआ कि शैतान बहुत परेशान हो गया, क्योंकि एक आदमी जमींन पर बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया था। उसने अपने मंत्रियों को बुलाया और पूछा, '' अब क्या किया जाए? एक आदमी ने फिर सत्य को पा लिया है, वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया है, और हमारा धंधा खतरे में है। क्या करें? लोगों को उसके पास जाने से कैसे रोकें? ''
शैतान के एक पुराने से पुराने अनुयायी ने कहा, ''कोई चिंता न करें। हम जाते हैं और हम उसके चारों ओर एक चर्च संगठित कर देंगे। आप चिंता न करें। तब चर्च बाधा हो जाएगा, और लोग उसके पास सीधे नहीं पहुंच सकेंगे। चर्च बीच में होगा, तब जो भी वह कहेगा वह नहीं सुना जाएगा, लोग उसको सीधे नहीं सुनेंगे। चर्च पहले उसकी व्याख्या करेगा, और व्याख्या से तुम जो चाहो नष्ट कर सकते हो।''
सत्य को बहुत आसानी से नष्ट किया जा सकता है यदि तुम उसे एक व्यवस्था दे दो, एक संगठन प्रदान कर दो। जब धर्म एक संप्रदाय हो जाता है तो वह समाज का हिस्सा हो जाता है। जब कभी धर्म जीवंत होता है, और संप्रदाय नहीं होता तो वह समाज का विरोधी होता है। जीसस समाज के विरोध में है, महावीर समाज के विरोध में हैं, बुद्ध समाज के विरोध में हैं। किंतु बौद्ध धर्म, जैन धर्म तथा ईसाई धर्म ये सब समाज के हिस्से हैं। ये सब धर्म नहीं हैं।
धर्म तो विद्रोही होता है, और विद्रोह यही होता है कि धर्म यात्रिकता को तोड़ने की कोशिश करता है, क्योंकि यांत्रिकता ही तुम्हारा नर्क है। सहजता ही तुम्हारा स्वर्ग है, यांत्रिकता ही नर्क है।
मैं
तुम्हें कोई नया ढांचा नहीं दे रहा हूं—न तो नया और न पुराना। मैं तो
सिर्फ ढांचे को नष्ट कर रहा हूं और तुम्हें अकेला छोड़ देना चाहता हूं बिना
किसी ढाचें के। बिना किसी ढांचे का जीवन ही धार्मिक जीवन होता है। बिना
किसी आरोपित व्यवस्था का जीवन ही धार्मिक जीवन होता है। बिना किसी अनुशासन
का, किंतु एक आंतरिक जागरूकता का जीवन ही धार्मिक जीवन होता है।
अंतिम प्रश्न :
केनोपनिषद
ने प्रारंभ में हमें कहा कि किसी भी चीज का निषेध नहीं करना है और एक
समग्ररूपेण स्वीकार होना चाहिए। लेकिन सुबह आपने कहा कि प्रार्थना
मूर्तिपूजा मंदिर चर्च आदि सब झूठ खड़े हैं मन के प्रक्षेपण पर आधारित हैं
यह तो निषेध की बात प्रतीत होती है।
ऐसा नहीं है। यह सिर्फ तथ्य को कहना है। यह कहना कि सपना सिर्फ एक सपना है, उसका निषेध नहीं है। यह कहना कि प्रक्षेपण सिर्फ एक प्रक्षेपण है, यह उसका निषेध नहीं है। यह कहना कि झूठ बात एक झूठ बात है, सिर्फ तथ्य की घोषणा है। यह उसे इंकार करना नहीं है। समग्र स्वीकार का यह अर्थ नहीं है कि असत्य को भी सत्य की तरह कहा जाये, कि स्वप्न को भी वास्तविकता बताया जाए।
समग्र
स्वीकार का अर्थ है कि जो भी है वह स्वीकृत है। यदि पूजा करने वाले का मन
देवी—देवताओं का प्रक्षेपण कर रहा है तो इसे भी स्वीकार करना है। यह तथ्य
है कि पूजा करने वाले वैसा कर रहे हैं। और तुमसे यह नहीं कहा गया है कि तुम
जाओ और उनके प्रक्षेपणों को नष्ट करो; तुमसे यह नहीं कहा गया है कि तुम जाओ और उनकी मूर्तियों को, उनके
मंदिरों को नष्ट करो। यदि तुम समझ गये हो तो वह समझ ही तुम्हें बदल देगी।
तुम वे प्रक्षेपण पैदा नहीं करोगे। और यदि तुम उन्हें पैदा करना चाहते हो, तो भी तुम जानोगे कि वे प्रक्षेपण हैं, और मैं उनका आनंद ले रहा हूं।
ऐसा कहा जाता है कि नरोपा जो कि तिब्बत का एक महानतम रहस्यदर्शी हुआ है, वह
एक बहुत ही अजीब तरह का व्यक्ति था। मैं अजीब कह रहा हूं क्योंकि वह
ऐसे—ऐसे काम करता था जो कि कभी किसी गुरु से अपेक्षित नहीं हैं। उसे शराबघर
में शराब पीते हुए पाया गया। किसी ने उससे कहा, ''नरोपा, यह तुम क्या कर रहे हो? तुम बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति हो, तुमने उस लक्ष्य को पा लिया है, और तुम शराब पी रहे हो?''
नरोपा ने कहा, ''यह
एक खेल है। और जब खेल ही है तो मुझे परवाह नहीं कि इसे ऐसे खेला जाए या
वैसे। एक बार मुझे पता हो गया कि मैं भीतर शाश्वत हूं तो फिर इस शराब से
डरना क्या? क्या डर है? ''मैंने
कहा कि वह एक बेबूझ व्यक्तित्व है। लेकिन वह कह रहा है कि यह शराब है और
जो भी इससे घटता है वह एक सपना है। वह यह नहीं कह रहा है कि यह वास्तविकता
है; वह कह रहा है कि यह एक सपना है।
उसने कहा, ''मेरा कोई आग्रह नहीं है, पक्ष में अथवा विपक्ष में। ऐसा हुआ कि एक मित्र ने मुझे निमंत्रण दिया था और मैंने उसे मना नहीं किया। एक मित्र का निमंत्रण था, उसके लिए यह सत्य है; मेरे लिए यह सिर्फ सपना है। लेकिन यह सपना मेरे लिए ही है, उसके लिए नहीं। फिर चिंता क्या? उसके लिए यह मुश्किल होगा।''
मैं तुम्हें एक दूसरी बात कहता हूं जो कि इस बात से जरा ज्यादा करीब होगी—कम बेबूझ होगी।
ऐसा हुआ कि कबीर के परिवार के लोग परेशान हो गए। परिवार गरीब था, और जो भी कबीर के घर आता, कबीर
उसे भोजन के लिए निमंत्रित कर देते। और कम से कम दो सौ आदमी कबीर के दर्शन
के लिए रोज आते थे। और वह हर एक को खाने के लिए निमंत्रित कर देते थे।
तो उनके पुत्र कमाल ने एक दिन कहा, ''बंद करिये यह सब। हम गरीब लोग हैं। हम भीख मांग कर लाते रहे हैं। हम उधार लाते रहे हैं, अब तो कोई उधार भी नहीं देता। आप यह कर क्या रहे हैं? आप तो हमें चोर बनाकर रहेंगे।''
कमाल बहुत क्रोध में था। लेकिन कबीर हंसने लगे और उन्होंने कहा, ''तुमने पहले यह बात क्यों नहीं सोची? चोरी करनी पड़ेगी? यह तो अच्छा खयाल है।''
लेकिन कमाल भी आखिर कबीर का ही पुत्र था, उसने कबीर की ओर देखा, ''कबीर एक रहस्यवादी संत, और ऐसा कह रहे हैं—चोरी करो, चोर हो जाओ द् जरूर इनकी बुद्धि ठिकाने नहीं है। या फिर ये समझ नहीं रहे हैं कि ये क्या कह रहे हैं। ''लेकिन कमाल ने कहा, ''तो फिर ठीक है। मैं जाऊंगा, और मैं चोरी करूंगा, लेकिन आपको भी मेरे साथ आना पड़ेगा। ''कमाल सोच रहा था कि अब कबीर जरूर होश में आ जायेंगे। कबीर और चोरी करें?
कबीर उसी समय खड़े हो गये और बोले, ''ठीक है, मैं चलता हूं।''
कमाल
ने भी सोचा कि आज फैसला हो ही जाना चाहिए। उसने सोचा कि कहीं पर जाकर कबीर
रुक जायेंगे और हंसकर कहेंगे कि मैं तो यूं ही मजाक कर रहा था। लेकिन नहीं, कमाल एक घर में घुस गया, वह घर के मालिक का कुछ धन बाहर निकाल कर ले आया, और कबीर वहा पर तैयार खड़े थे। यह तो हइ हो गई। इसके आगे तो बात को बदलने की कोई संभावना नहीं थी। कमाल ने पूछा, '' अब क्या किया जाये ई क्या हम यह सब सामान अपने घर ले चलें?''
कबीर ने कहा, ''ठीक है, लेकिन पहले तुम जाकर घर के लोगों को जगा दो, और उन्हें बता दो। ''कमाल ने पूछा, ''यह चोरी करने का कौन—सा ढंग है?''
कंबीर ने कहा, ''कम से कम उन्हें बता तो दो, वरना वे व्यर्थ ही चिंता करेंगे। ''
जो लोग कबीर के अनुयायी हैं, उन्होंने बाद में इस कहानी को कहना बंद कर दिया क्योंकि यह बड़ी बेतुकी बात है कि कबीर चोरी के लिए सम्मति दें। लेकिन बात क्या थी? सुबह कमाल ने पूछा, ''मामला क्या है? अब मुझे पूरी बात बताओ। क्या आप चोरी के पक्ष में हैं?''
कबीर ने कहा, ''सभी कुछ उसी का है। कोई भी अन्य मालिक नहीं है।''
जरा इस चित्त को देखो। ऐसे चित्त के लिए सभी स्वीकार है। समग्र स्वीकार है। चोरी भी स्वीकृत है। लेकिन वे कहते हैं, ''जाओ और घर के लोगों को बता दो ताकि वे व्यर्थ में चिंता न करें।''
कमाल ने उनसे कहा, ''वे लोग सोचेंगे कि हम चोर हैं।''
कबीर ने कहा, ''वे ठीक ही साचेंगे। हम चोर हैं।''
कमाल बोला, ''तो कल आपकी जितनी इज्जत है मिट्टी में मिल जायेगी। कोई भी आपका सम्मान नहीं करेगा?''
कबीर ने कहा, ''बिलकुल ठीक है। लोग चोरों का सम्मान करें भी क्यों?''
समग्र
स्वीकार का अर्थ है किसी भी बात के लिए निषेध नहीं। जब तुम स्वीकार करते
हो तो तुम कुछ शर्तों के साथ स्वीकार करते हो। तुम कहते हो, ''अच्छा ठीक है, मैं
यह करूंगा लेकिन यदि ऐसा न हुआ तो। मैं चोरी करूंगा यदि परमात्मा मुझे
नर्क में न गिराये तो। मैं चोरी कर सकता हूं यदि उसमें कोई पाप न हो तो।
मैं चोरी कर सकता हूं यदि लोग मेरा अपमान नहीं करें तो।'' लोग
जो करेंगे उसे भी स्वीकार करना है। समग्र स्वीकार एक बहुत ही जीवंत ढंग है
जीने का। लेकिन तब सभी कुछ स्वीकार होता है। जो भी फिर परिणामस्वरूप होता
है उसका भी स्वीकार है। किसी भी बात के लिए किसी भी बिंदु पर निषेध नहीं
है। यह अंतिम बात है, आत्यंतिक मार्ग है जीवन का। वस्तुत: ऐसा ही संन्यासी होना चाहिए। संन्यासी के पास समग्र स्वीकार होना चाहिए।
लेकिन
जब हम कहते हैं कि तुम सपने निर्मित कर सकते हो तो हम निषेध नहीं कर रहे
हैं। हम सिर्फ एक तथ्य की घोषणा कर रहे हैं। यदि तुम चाहो तो सपने निर्मित
कर सकते हो। मैं उन्हें सरलता से निर्मित करने में तुम्हारी सहायता कर सकता
हूं। लेकिन स्मरण रहे कि वे सपने ही हैं।
समस्या तो तब खड़ी होती है जब सपना सत्य हो जाता है। तुम अपने कृष्ण के साथ खेल सकते हो, तुम उनके साथ नृत्य कर सकते हो। उसमें क्या बुरा है? नृत्य अपने आप में अच्छा ही है, उसमें गलत क्या है? तुम अपने कृष्ण के साथ खेल ही तो रहे हो, उसमें तुम किसी का कुछ नुकसान तो नहीं कर रहे हो। नाचो और खेलो। तुम्हारे लिए ठीक होगी यह बात। लेकिन याद रहे कि यह बात सत्य नहीं है, वास्तविक नहीं है। यह एक प्रक्षेपण है, तुमने ही निर्मित किया है।
यदि तुम इसे स्मरण रख सको तो तुम खेल—खेल सकते हो, लेकिन
तुम कभी भी उससे तादात्म्य नहीं जोड़ोगे। तुम इसके प्रति जागते चले जाओगे
कि यह एक खेल है। एक खेल सिर्फ एक खेल ही है यदि तुम उससे तादात्म्य नहीं
जोड़ते हो तो। यदि तुम तादात्म्य निर्मित कर लेते हो, तो वह एक गंभीर बात हो जाती है। वह एक समस्या हो जाती है। अब तुम उससे ग्रसित रहोगे।
दिनांक 11 जुलाई 1973; संध्या,
माउंट आबू राजस्थान।
THANK YOU GURUJI
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