विवेक रक्षा।
करुणैव केलि:।
आनंद माला।
एकासन गुहायाम् मुक्तासन सुख गोष्ठी।
अकल्पित भिक्षाशी।
हंसाचार:।
सर्वभूतान्तर्वर्तीम् हंस इति प्रतिपादनम्।
विवेक ही उनकी रक्षा है।
करुणा ही उनकी क्रीड़ा, खेल है।
आनंद उनकी माला है।
अपने लिए नहीं बनाई गई भिक्षा उनका भोजन है।
हंस जैसा उनका आचार होता है।
सर्व प्राणियों के भीतर रहने वाला एक आत्मा ही हंस है—इसी को वे प्रतिपादित करते हैं।
संन्यासी अर्थात जो जाग्रत है, आत्मरत है, आनंदमय है, परमात्म—आश्रित है
सुना है मैंने कि एक अंधे आदमी ने किसी फकीर को कहा, मुझे
रास्ते बता दें इस गांव के ताकि मैं भटक न जाऊं। मुझे ऐसी विधि बता दें
ताकि मैं किसी से टकरा न जाऊं। मुझे ऐसे उपाय सुझा दें जिससे कि आंख वाले
लोगों की दुनिया में मैं अंधा भी जीने में सफल हो सकूं। उस फकीर ने कहा, न हम कोई विधि बताएंगे, न कोई उपाय बताएंगे और न हम कोई मार्ग बताएंगे।
स्वभावत:, अंधा
दुखी और पीड़ित हुआ। और सोचा भी नहीं था कि फकीर—करुणा जिनका स्वभाव है—ऐसा
व्यवहार करेगा। कहा उसने कि मुझ पर कोई करुणा नहीं आती?
फकीर ने कहा, करुणा आती है, इसीलिए न तो बताऊंगा मार्ग, न बताऊंगा उपाय, न
बताऊंगा ऐसी विधि जिससे तू अंधा रहकर आंख वाले लोगों की दुनिया में जी
सके। मैं तुझे आंख खोलने का उपाय ही बता देता हूं। और फिर उस फकीर ने कहा
कि सीख लेगा इस गांव के रास्ते, लेकिन गांव रोज बदल जाते हैं। सीख लेगा इन आंख वालों के बीच रहना, लेकिन कल दूसरी आंख वालों के बीच रहना पड़ेगा। सीख लेगा विधियां, लेकिन विधियां सीमित परिस्थितियों में काम करती हैं, सदा नहीं। मैं तुझे आंख ही खोलने का उपाय बता देता हूं।
उपनिषद का यह ऋषि कहता है, विवेक रक्षा।
संन्यासी के पास और कुछ भी नहीं है सिवाय उसके विवेक के। वही उसकी रक्षा है। न कोई नीति है, न कोई नियम है, न कोई मर्यादा है, न कोई भय है, न नर्क के दंड का कारण है, न स्वर्ग के प्रलोभन की आकांक्षा है। बस, एक ही रक्षा है संन्यासी की—उसका विवेक, उसकी अवेयरनेस, उसकी आंखें। इसे समझें।
विवेक रक्षा।
इन दो छोटे शब्दों में बहुत कुछ छिपा है। सब साधना का सार छिपा है। एक ढंग तो है व्यवस्था से जीने का। क्या करना है, यह हम पहले ही तय कर लेते हैं। कहां से जाना है, कैसे गुजरना है, यह
हम पहले ही तय कर लेते हैं। क्योंकि हमारा अपनी ही चेतना पर कोई भरोसा
नहीं। इसलिए हम सदा ही भविष्य का चिंतन करते रहते हैं और इसीलिए हम सदा ही
अतीत की पुनरुक्ति करते रहते हैं। क्योंकि जो हमने कल किया था, उसी को आज करना सुगम पड़ता है, क्योंकि उसे हम जानते हैं, परिचित हैं, पहचाना हुआ है।
लेकिन संन्यासी जीता है क्षण में—अभी और यहीं। अतीत को दोहराता नहीं, क्योंकि अतीत को केवल मुर्दे दोहराते हैं। भविष्य की योजना नहीं करता, क्योंकि भविष्य की योजना केवल अंधे करते हैं। इस क्षण में उसकी चेतना जो उसे कहती है, वही उसका कृत्य बन जाता है। इस क्षण के साथ ही सहज जीता है। खतरनाक है यह।
इसलिए उपनिषद कहता है, विवेक ही उसकी रक्षा है।
होशपूर्वक जीता है, बस
इतनी ही उसकी रक्षा है। और उसके पास कोई उपाय नहीं है। होशपूर्वक जीता है।
पहले से तय नहीं करता कि कसम खाता हूं क्रोध नहीं करूंगा।
जो आदमी ऐसी कसम खाता है, पक्का
ही क्रोधी है। एक तो तय है बात कि वह क्रोधी है। यह भी तय है कि वह जानता
है कि मैं क्रोध कर सकता हूं। यह भी वह जानता है कि अगर कसमों का कोई आवरण
खड़ा न किया जाए, तो क्रोध की धारा कभी भी फूट सकती है। इसलिए अपने ही खिलाफ इंतजाम करता है—कसम खाता है, क्रोध नहीं करूंगा। फिर कल कोई गाली देता है और क्रोध फूट पड़ता है। फिर और गहरी कसमें खाता है, नियम बांधता है, संयम के उपाय करता है, लेकिन क्रोध से छुटकारा नहीं होता। क्योंकि जिस मन ने नियम लिया था और मर्यादा बांधी थी और जिस मन ने कसम खाई थी उतना ही मन नहीं है; मन और बड़ा है, बहुत बड़ा है।
तो जो मन तय करता है कि क्रोध नहीं करेंगे, जब गाली दी जाती है तो मन के दूसरे हिस्से क्रोध करने के लिए बाहर आ जाते हैं। वह छोटा सा हिस्सा जिसने कसम खाई थी, पीछे फेंक दिया जाता है। थोड़ी देर बाद जब क्रोध जा चुका होगा, वह हिस्सा, जिसने कसम खाई थी, फिर दरवाजे पर आ जाएगा मन के। पछताएगा, पश्चात्ताप करेगा, कहेगा, बहुत बुरा हुआ। कसम खाई थी, फिर कैसे किया क्रोध! लेकिन क्रोध के क्षण में इस हिस्से का कोई भी पता नहीं था।
मन
का बहुत छोटा सा हिस्सा हमारा जागा हुआ है। शेष सोया हुआ है। क्रोध आता है
सोए हुए हिस्से से और कसम ली जाती है जागे हुए हिस्से से। जागे हुए मन की
कोई खबर सोए हुए मन को नहीं होती। सांझ आप तय कर लेते हैं, सुबह चार बजे उठ आना है। और चार बजे आप ही करवट लेते हैं और कहते हैं, आज न उठें तो हर्ज क्या है! कल से शुरू कर देंगे। छह बजे उठकर आप ही पछताते हैं कि मैंने तो तय किया था चार बजे उठने का, उठा क्यों नहीं। निश्चित ही आपके भीतर एक मन होता, तो ऐसी दुविधा पैदा न होती।
लगता है, बहुत मन हैं। मल्टी साइकिक है आदमी। ऐसा भी कह सकते हैं कि एक आदमी एक आदमी नहीं, बहुत आदमी हैं एक साथ, भीड़ है, क्राउड़ है। उसमें एक आदमी भीतर कसम खा लेता है सुबह चार बजे उठने की, बाकी पूरी भीड़ को पता ही नहीं चलता। सुबह उस भीड़ में से जो भी निकट होता है, वह कह देता है, सो जाओ, कहो की बातों में पड़े हो! ऐसी हमारी जिंदगी नष्ट होती है।
नियम से बंधकर जीने वाला व्यक्ति कभी भी, कभी
भी परम सत्य के जीवन की तरफ कदम नहीं उठा पाता है। मैं यह नहीं कह रहा हूं
कि नियम तोड़कर जीएं। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि मर्यादाएं छोड़ दें। उस
फकीर ने भी उस अंधे को नहीं कहा था कि जब तक आंख ठीक न हो जाए, तो तू अपनी लकड़ी फेंक दे। मैं भी नहीं कहता हूं। लकड़ी रखनी ही पड़ेगी, जब तक आंख फूटी है; लेकिन लकडी को ही आंख समझ लेना नासमझी है। और यह जिद करना कि आंख खुल जाएगी, तब भी हम लकड़ी को सम्हालकर ही चलेंगे, पागलपन है।
संन्यासी वह है, जो अपने को जगाने में लगा है। और इतना जगा लेता है अपने भीतर सारे सोए हुए अंगों को, अपने सारे खंडों को जगाकर एक कर लेता है। उस अखंड चेतना का नाम विवेक है इंटीग्रेटेड कांशसनेस। जब मन टुकड़े—टुकड़े नहीं रह जाता, इकट्ठा हो जाता है और एक ही व्यक्ति भीतर हो जाता है, ही
का मतलब हो और न का मतलब न होने लगता है। उस एक सुर से बंध गई चेतना का
नाम विवेक है। जागी हुई चेतना का नाम विवेक है। होश से भर गई चेतना का नाम
विवेक है।
ऋषि कहता है, विवेक ही रक्षा है और कोई रक्षा नहीं। अदभुत है रक्षा लेकिन। क्योंकि विवेक जगा हो, तो भूल नहीं होती। ऐसा नहीं कि भूल नहीं करनी पड़ती। ऐसा नहीं कि भूल को रोकना पड़ता है। ऐसा भी नहीं कि भूल से लड़ना पड़ता है। बस, ऐसा कि भूल नहीं होती। जैसे आंखें खुली हों, तो आदमी दीवार से नहीं टकराता और दरवाजे से निकल जाता है। ऐसे ही भीतर विवेक की आंख जगी हो, तो आदमी गलत को नहीं चुनता और ठीक ही उसका मार्ग बन जाता है।
विवेक रक्षा।
जागा हुआ होना ही इस जगत में एकमात्र रक्षा है। सोया हुआ होना इस जगत में हजार तरह की विक्षिप्तताओं को, हजार तरह की रूग्णताओं को निमंत्रण देना है। हजार तरह के शत्रु प्रवेश कर जाएंगे और जीवन को नष्ट कर देंगे, छिद्र—छिद्र कर देंगे, खंड—खंड कर देंगे। तो जागना ही सूत्र है।
संन्यासी का अर्थ है : जो निरंतर जागा हुआ जी रहा है, होशपूर्वक जी रहा है। कदम भी उठाता है, तो जानते हुए कि कदम उठाया जा रहा है। श्वास भी लेता है, तो जानते हुए कि श्वास ली जा रही है। श्वास बाहर जाती है, तो जानता है कि बाहर गई; श्वास भीतर जाती है, तो जानता है कि भीतर गई। एक विचार मन में उठता है, तो जानता है कि उठा; गिरता है, तो जानता है कि गिरा। मन खाली होता है, तो जानता है मन खाली है। मन भरा होता है, तो जानता है कि मन भरा है। एक बात पक्की है कि जानने की सतत धारा भीतर चलती रहती है। और कुछ भी हो, जानने का सूत्र भीतर चलता रहता है।
यही रक्षा है, क्योंकि जानकर कोई गलत नहीं कर सकता। सब गलती अज्ञान है या सब गलती मूर्च्छा है। अगर किसी दिन...।
अभी तो कभी—कभी कोई व्यक्ति जागता है—कभी कोई बुद्ध, बुद्ध का अर्थ है जागा हुआ; कभी कोई महावीर, जिन का अर्थ है जीता हुआ, जिसने अपने को जीत लिया; कभी
कोई क्राइस्ट—कभी—कभी एकाध व्यक्ति जागता है हम सोए हुए लोगों की दुनिया
में। हम उस पर बहुत नाराज भी होते हैं। क्योंकि जहां बहुत लोग सोए हों, वहा
एक आदमी का जगना नींद में दूसरों की बाधा बनता है। और वह जागा हुआ उत्सुक
हो जाता है कि सोए हुओं को भी जगाए। और सोए हुए नाराज होते हैं, बहुत
नाराज होते हैं। उनकी नींद में दखल होती है। और यह जागा हुआ इस तरह की
बातें करने लगता है कि उनके सपनों का खंडन होता है। इसलिए हम सब सोए हुए
लोग जागे हुए आदमी को समाप्त कर देते हैं। जब वह समाप्त हो जाता है, तब हम उसकी पूजा करते हैं। पूजा नींद में चल सकती है। जागे हुए आदमी की दोस्ती नहीं चल सकती।
जागे हुए आदमी के साथ जीना हो, तो दो ही उपाय हैं : या तो वह आपकी माने और सो जाए, या आप उसकी मानें और जग जाएं। पहले का तो उपाय है नहीं। जो जाग गया, वह सोने को राजी नहीं हो सकता है। जिसके हाथ में हीरे आ गए, वह कंकड़—पत्थर रखने को राजी नहीं हो सकता। जिसको अमृत दिखाई पड़ गया, उसको आप डबरे का पानी पीने को कहें, मुश्किल है, असंभव है। आपको ही जगना पड़े उसके साथ।
सत्संग का यही अर्थ था। यही अर्थ था, किसी जागे हुए पुरुष के पास होना। उस जागे हुए के पास होने से शायद आपकी नींद भी टूट जाए। शायद नींद का एकाध कण भी टूटे, करवट बदलते वक्त जरा सी आंख भी खुले और जागे हुए व्यक्तित्व का दर्शन हो जाए, तो शायद आकांक्षा, प्यास जगे, अभीप्सा पैदा हो और आप भी जागने की यात्रा पर निकल जाएं।
अगर क१री ऐसा हुआ कि बहुत लोग जाग सके और जागे लोगों का समाज बन सका, तो निश्चित ही हम यह बात उस दिन कहेंगे कि हमारे पूरे इतिहास में हमने जिन लोगों को जुर्मी ठहराया, अपराधी ठहराया, वह गलती हो गई। वे सोए हुए लोग थे। सोए हुए लोग अपराध करेंगे ही।
अदालतें माफ कर देती हैं, अगर नाबालिग हो, व्यक्ति अपराध करे। क्योंकि वे कहती हैं, अभी समझ कहां! लेकिन बालिग के पास समझ है? अदालतें क्षमा कर देती हैं अपराधों को या कम कर देती हैं, न्यून कर देती हैं, अगर आदमी ने नशे में किया हो। क्योंकि वे कहते हैं, जो होश में नहीं था, उसके ऊपर जिम्मेवारी क्या! लेकिन हम होश में हैं?
सच
तो यह है कि हमारा पूरा इतिहास सोए हुए आदमियों के कृत्यों का इतिहास है।
इसीलिए तो तीन हजार वर्षों में हमको सिवाय युद्धों के और कुछ नहीं। युद्ध
और युद्ध। तीन हजार वर्ष में, चौदह हजार सात सौ युद्ध हुए जमीन पर! सिवाय लड़ने के. और ये तो बड़े युद्ध हैं, जिनका इतिहास उल्लेख करता है। दिनभर जो छोटी—मोटी लड़ाइयां हम लड़ते हैं, परायों से और अपनों से, उनका तो कोई हिसाब नहीं, लेखा—जोखा
नहीं। पूरी जिंदगी हमारी कलह के अतिरिक्त और क्या है! और पूरी जिंदगी हम
सिवाय दुख के क्या अर्जित कर पाते है! यह सोए हुए होने की अनिवार्य परिणति
है।
ऋषि कहता है, संन्यासी का तो विवेक ही रक्षा है।
हिम्मतवर लोग थे, बड़े साहसी लोग थे, जिन्होंने यह कहा। नहीं कहा कि नीति में रक्षा है, नियम में रक्षा है। नहीं कहा मर्यादा में रक्षा है, नहीं कहा शास्त्र में रक्षा है, नहीं कहा गुरु में रक्षा है। कहा विवेक में रक्षा है, होश में रक्षा है। होश के अतिरिक्त कोई रक्षा नहीं हो सकती। भूल होकर ही रहेगी।
करुणा ही उनकी क्रीड़ा है। करुणैव केलि:।
एक ही उनका खेल है, जागे हुओं का—करुणा। कहें कि एक ही उनका रस बाकी रह गया, कहें कि बस एक ही बात उन्हें और करने 'योग्य रह गई है—करुणा।
बुद्ध को ज्ञान हुआ। फिर वे चालीस वर्ष जीवित थे। हम पूछ सकते हैं कि जब ज्ञान हो गया, अब चालीस वर्ष जीवित रहने का कारण क्या है? करुणा! महावीर को ज्ञान हुआ, उसके बाद वे भी इतने ही समय जीवित थे। जब ज्ञान ही हो गया और परम अनुभूति हो गई, तो अब इस शरीर को ढोने की और क्या जरूरत है? करुणा! जो भी जान लेता है, जानने के साथ ही उसके भीतर वासना तिरोहित हो जाती है और करुणा का जन्म होता है। वासना में जो शक्ति काम आती है, वही ट्रांसफार्म, वही रूपांतरित होकर करुणा बन जाती है।
हम वासना में जीते हैं। वासना ही हमारा जीवन है। वासना का अर्थ है : हम कुछ पाने को जीते हैं। जब वासना रूपांतरित होती है, करुणा बनती है, तो उलटी हो जाती है। करुणा का अर्थ है : हम कुछ देने को जीते हैं।
संन्यासी अर्थात जो जाग्रत है, आत्मरत है, आनंदमय है, परमात्म—आश्रित है
लेकिन उलटी है हमारी यह दुनिया, बड़े कंट्राडिक्यांस से, बड़े विरोधाभासों से भरी। वासना से जो भरे हैं, उन्हें हम सम्राट कहते हैं! और करुणा से जो भरे हैं, उन्हें हम भिक्षु कहते हैं! जो दे रहे हैं सिर्फ, वे भिखारी हैं! और जो ले रहे हैं सिर्फ, वे सम्राट हैं!
गहरा व्यंग्य है बुद्ध का इसमें कि बुद्ध अपने को भिक्षु कहते हैं, कि मैं भिखारी हूं। और हम सब भी राजी हो जाते हैं कि ठीक है, दो रोटी तो बुद्ध हमसे मांगते ही हैं, तो भिखारी तो हो ही गए।
बुद्ध हमें क्या देते हैं, उसकी कोई कीमत आकी जा सकती है! लेकिन हमें यह भी पता न चले कि वे हमें दे रहे हैं, इसकी भी वे चेष्टा करते हैं। इसलिए दो रोटी हमसे लेकर भिखारी बन जाते है, कहीं हमें ऐसा न लगे कि वे हमें देकर हम पर कोई एहसान कर रहे हैं। करुणा इतना भी नहीं चाहती।
और हम ऐसे नासमझ हैं कि अगर हमें यहू पता चल जाए कि बुद्ध हमें कुछ दे रहे हैं, तो
हमारे अहंकार को चोट लगे। शायद हम लेने का दरवाजा ही बंद कर दें। इसलिए
बुद्ध हमसे दो रोटी ले लेते हैं। हमारे अहंकार को बडा रस आता है। लेकिन
हमें पता नहीं कि हम एक बहुत हारती हुई बाजी लड़ रहे हैं। बुद्ध दो रोटी
लेते हैं, और जो देते हैं, उसका हमें पता भी नहीं चलता। दो रोटी में बुद्ध को कुछ भी नहीं मिलेगा, लेकिन वे जो हमें दे रहे हैं, वह हमारे अहंकार को पूरी तरह भस्मीभूत कर देगा। वह राख कर देगा हमारे भीतर वह जो अस्मिता है, उसे मिटा देगा।
करुणा का अर्थ है. देने के लिए जीना। वासना का अर्थ है. लेने के लिए जीना। वासना भिखारी है, करुणा सम्राट है। लेकिन दे कौन सकता है? दे वही सकता है, जिसके पास हो। और वही दिया जा सकता है, जो हमारे पास हो। वह तो नहीं दिया जा सकता, जो हमारे पास न हो। वही दिया जा सकता है, जो हमारे पास हो।
हम तो मांगकर ही जीते हैं पूरे जीवन में। हमारे पास कुछ भी नहीं है। प्रेम भी हम मांगते हैं, कोई दे। धन भी हम मांगते हैं, कोई दे। यश भी हम मांगते हैं कि कोई दे। बड़े से बडा राजनेता भी भिखारी ही होता है, क्योंकि वह आप सबसे मांगकर जीता है। आप देते हो यश तो मिलता है उसे, आप खींच लेते हो तो खो जाता है। दो दिन अखबार में उसका नाम नहीं छपता, तो बात खतम हो गई। लोग भूल जाते हैं, कहा गया, कौन था, था भी या नहीं था।
1917 में लेनिन जब सत्ता में आया रूस में, तो उसके पहले जो प्रधानमंत्री था रूस का, करेंस्की, वह 1960 तक जिंदा था। जब मरा, तभी लोगों को पता चला कि वह अब तक जिंदा था। क्योंकि वह एक किराने की दुकान कर रहा था अमरीका में। लोग भूल ही चुके थे, बात ही खतम हो चुकी थी। वह तो मरा, तब
पता चला कि यह आदमी जिंदा था। कभी वह रूस में सर्वाधिक शक्तिशाली आदमी था।
लेनिन के पहले वह सर्वाधिक शक्तिशाली आदमी था। फिर वह ना—कुछ हो गया।
राजनेता भी हमसे यश मांगकर जीता है। जो भी हमसे मांगकर जीता है, वह संन्यासी नहीं है। संन्यासी तो वह है, जो हमें देकर जीता है। और देने की बात भी नहीं करता कभी कि आपको कुछ दिया है। ऐसे उपाय करता है कि आपको लगे कि आपने ही उसे कुछ दिया।
करुणा ही उसकी क्रीड़ा है
बस एक ही, वह भी क्रीड़ा है। यह बहुत मजेदार बात है। यह नहीं कहा कि करुणा ही उसका काम है। इट इज नाट ए वर्क, बट ए प्ले। काम नहीं है करुणा; खेल है, क्रीडा है।
क्रीड़ा और काम में क्या फर्क है? कुछ बुनियादी फर्क है। एक तो यह कि काम अपने आप में मूल्यवान नहीं होता, क्रीड़ा अपने आप में मूल्यवान होती है।
अगर आप सुबह घूमने निकले हैं और कोई पूछे कि किसलिए घूमने निकले हैं; तो आप कहेंगे कि घूमने में आनंद है, किसलिए नहीं। कहीं पहुंचने के लिए नहीं निकले हैं। कोई मंजिल नहीं है, कोई गंतव्य नहीं है। फिर उसी रास्ते से आप अपने दफ्तर जाते हैं। तो कोई आदमी पूछता है, बड़े आनंद से टहल रहे हैं! तो आप कहते हैं, टहल नहीं रहा हूं र दफ्तर जा रहा हूं। और कभी आपने खयाल किया कि रास्ता वही होता है, आप वही होते हैं। सुबह जब टहलने निकलते हैं, तब पैरों का आनंद और है, और जब उसी रास्ते से दफ्तर की तरफ जाते हैं, तब छाती पुर पत्थर और है। रास्ता वही, पैर वही, चलना वही, आप वही, सब वही। सिर्फ एक बात बदल गई कि अब चलना काम है, और तब चलना खेल था।
जो बुद्धिहीन हैं, वे अपने खेल को भी काम बना लेते हैं; जो बुद्धिमान हैं, वे अपने काम को भी खेल बना लेते हैं।
ऋषि कहता है, क्रीड़ा है करुणा उनकी।
वह
भी काम नहीं है। वह भी कोई बोझ नहीं है। वह भी कुछ ऐसा नहीं है कि बुद्ध
ने तय ही कर रखा है कि इतने लोगों का निर्वाण करवाकर रहेंगे। अगर न हुआ, तो बड़े दुखी होंगे, बड़े पीडित होंगे, बड़े पछताएंगे। बुद्ध ने कुछ तय नहीं कर रखा है कि आपका अज्ञान तोड़कर ही रहेंगे, नहीं टूटा तो छाती पीटकर रोके। खेल है, आनंद है कि आप जग जाएं। न जगें, आपकी मर्जी, बात समाप्त हो गई। खेल पूरा हो गया।
तो एक व्यक्ति भी न जगे बुद्ध के प्रयासों से, तो भी बुद्ध उसी आनंद से परिभ्रमण करते विदा हो जाएंगे। उस आनंद में कोई फर्क न पड़ेगा। बुद्ध का आनंद था कि वे बांट दें। नहीं लिया, वह जिम्मा आपका है। उसके लिए उन्हें पीड़ित होने का कोई भी कारण नहीं।
इसलिए कहा, क्रीड़ा। खेल बन जाए तो फिर आनंद है और काम बन जाए तो बोझ है। तो फिर बुद्ध मरते वक्त हिसाब रखेंगे कि इतने लोगों से कहा, किसी ने लिया, नहीं लिया! इतने लोगों को समझाया, कोई समझा, नहीं समझा! नहीं तो मेरा श्रम व्यर्थ गया।
ध्यान रखिए, काम अगर पूरा न हो, फल न लाए, तो श्रम व्यर्थ चला जाता है। लेकिन क्रीड़ा का श्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता, वह
तो क्रीड़ा में ही पूर्ण हो गया। कोई फल का सवाल नहीं। और इसलिए भी क्रीड़ा
कहा कि सिर्फ क्रीड़ा ही फलाकांक्षा से मुक्त हो सकती है। काम कभी भी
फलाकांक्षा से मुक्त नहीं हो सकता।
कृष्ण ने गीता में फलाकांक्षारहित कर्म की बात कही है। यह उपनिषद का ऋषि ज्यादा ठीक शब्द का प्रयोग कर रहा है, कृष्ण से भी ज्यादा ठीक शब्द का। क्योंकि फलाकांक्षारहित कर्म...। कर्म होगा तो उसमें फलाकांक्षा हो जाएगी, या फिर कर्म का अर्थ क्रीड़ा करना पड़ेगा।
इसलिए इस ऋषि ने राह नहीं कहा कि करुणा उनका कर्म है। कहा, करुणा उनकी केलि, उनका खेल है। कहीं कोई आकांक्षा उससे
तृप्त होने को नहीं है। कहीं कोई इच्छा भविष्य में पूरी होने के लिए
यात्रा पर नहीं निकली है। किसी वासना का तीर प्रत्यंचा पर नहीं चढ़ा है। कोई
लक्ष्य नहीं है, जिसे वेध डालना है। नहीं, बस यह मौज है। यह भीतर आनंद भर गया है, यह बाहर बिखरना चाहता है, लुटना चाहता है।
जैसे फूल खिल गए हैं वृक्ष पर और उनकी सुगंध रास्ते पर गिरती है, यह क्रीड़ा है। वृक्ष इसकी चिंता में नहीं है कि कौन निकलता है नीचे से। और जो निकलता है वह वी आई पी है या नहीं, कोई प्रतिष्ठित आदमी निकलता है कि कोई गरीब मजदूर निकलता है, कि आदमी निकलता है कि गधा निकलता है। वृक्ष को कोई मतलब नहीं है। गधे को भी वृक्ष अपने फूल की सुगंध वैसे ही दे देता है, जैसा (रक राजनैतिक नेता नीचे से निकले तो उसको भी दे। कोई भेद नहीं करता। और कोई नहीं निकलता, निर्जन हो जाता है रास्ता, तो भी फूल की सुगंध गिरती रहती है। क्योंकि यह फूल का अंतर—आनंद है, यह किसी के प्रति प्रेरित नहीं है, इट इज नाट एड्रेस्ट। यह जो सुगंध है, इस पर किसी का पता नहीं लिखा है कि इसके पास पहुंचे। अनएड्रेस्ट, यह किसी के प्रति नहीं है। यह तो फूल का अंतर—आविर्भाव है। यह तो भीतर उसके प्राणों में जो सुगंध बढ़ गई है, उसे वह लुटा दे रहा है। हवाएं ले जाएंगी। खाली खेतों में पड़ जाएगी, निर्जन रास्तों पर लुट जाएगी। आनंद इसे लुटा देने में है।
एक बहुत अदभुत घटना मैंने सुनी है। सुना है मैंने, एक बहुत बड़ा मनोचिकित्सक, विल्हेम रेक, अभी
पश्चिम में जो थोड़े से कीमती आदमी इस आधी सदी में हुए उनमें से एक। और जो
होता है कीमती आदमियों के साथ—विल्हेम रेक को दो साल तो आखिर में जेलखाने
में रहना पड़ा। और जो आदमी कम से कम पागल था, अमरीका के समाज और कानून ने उसे पागल करार देकर अंतत: पागलखाने में डाल दिया। हमारे ढंग नहीं बदलते। हजारों साल बीत जाएं, हम वही करते हैं। उसमें कोई फर्क नहीं होता। विल्हेम रेक एक मरीज का इलाज कर रहा था—एक बीमार, मानसिक बीमार का। उसका मनोविश्लेषण कर रहा था। तीन बजे का उसे वक्त दिया था, तीन बजे नहीं आया मरीज। सवा तीन बज गए, घड़ी देखी। ठीक सवा तीन बजे मरीज भागा हुआ अंदर आया। उसने कहा, क्षमा करना, मुझे थोड़ी देर हो गई। विल्हेम रेक ने कहा, यू केम जस्ट इन टाइम, अदरवाइज आई वाजू टु बिगिन माई वर्क। इसका इलाज कर रहा है, इसकी मनोचिकित्सा कर रहा है। विल्हेम रेक ने कहा कि तुम ठीक वक्त पर आ गए, समय के भीतर आ गए नहीं तो मैं अपना काम शुरू करने वाला था।
उस मरीज ने कहा, लेकिन जब मैं आता ही नहीं, तो आप काम कैसे शुरू करते? मेरा ही तो मनोविश्लेषण होना है! फूल निर्जन में सुगंध डाले तो हमारी समझ में आ सकता है, लेकिन विल्हेम रेक अगर बिना मरीज के मनोविश्लेषण शुरू कर दे, तो हम भी कहेंगे, पागल है। विल्हेम रेक ने कहा कि तू तो सिर्फ निमित्त है। तू नहीं भी आता, तो काम तो हम शुरू कर ही देते। वह हमारा आनंद है।
यह समझना कठिन होगा। फूल को समझ लेना आसान है, क्योंकि फूल को हम पागल नहीं सोच सकते। आदमी को समझना कठिन है। ऐसा हो सकता है, ऐसा हुआ है कि फूल की तरह निर्जन में भी जागे हुए पुरुषों की वाणी गंजी है।
लाओत्से के बाबत सुना है मैंने कि कई बार ऐसा हुआ कि वह किसी वृक्ष के नीचे बैठा है और बोल रहा है। राहगीर कोई निकला, ठिठककर खड़ा हो गया। चौंककर उसने देखा, सुनने वाला कोई भी नहीं है। पास जाकर राहगीरों ने पूछा कि यहां कोई दिखाई नहीं पड़ता सुनने वाला, आप बोल रहे हैं किससे? लाओत्से कहता, यह अंतर्भाव है। कोई चीज भीतर जन्म गई है, उसे बाहर डाले दे रहा हूं। अभी सुनने वाला नहीं है, शायद कभी कोई सुन ले। आज मौजूद नहीं है सुनने वाला, लेकिन आज बोलने की बात पैदा हो गई है। कहीं ऐसा न हो कि कल सुनने वाला हो और कहने वाला न रहे, तो मैं बात छोड़े जा रहा हूं। हवाएं इसे सम्हाले रखेंगी, आकाश इसका स्मरण रखेगा और कभी कोई जब सुनने को तैयार होगा, तो सुन लेगा।
यह कठिन होगा समझना हमें। लेकिन यही है। अब ऐसे लोग काम से नहीं जीते, ऐसे लोग क्रीड़ा से जीते हैं। इन्हें जीवन एक बोझ नहीं, एक नृत्य है।
ऋषि कहता है, आनंद ही उनकी माला है।
आनंद ही उनकी माला। वे और कुछ नहीं पहनते, आनंद की ही माला पहने रहते हैं। उसमें आनंद के ही गुरिए हैं, उसमें आनंद का ही धागा पिरोया हुआ है। वे प्रतिक्षण अहोभाव में जीते हैं—प्रतिपल। कोई ऐसी परिस्थिति नहीं है, जो उन्हें दुख में डाल सके।
हम परिस्थिति से दुखी होते हैं, परिस्थिति से सुखी होते हैं। कारण होता है हुमारे दुख का और कारण होता है हमारे सुख का।
ध्यान रहे, जब तक कारण होता है हमारे सुख का और दुख का, तब तक हमें आनंद का कोई भी पता नहीं, क्योंकि आनंद अकारण है। कारण सब बाहर होते हैं, इसलिए सुख भी बाहर होता है, दुख भी बाहर होता है। अकारण जो अवस्था है, वह भीतर होती है। इसलिए आनंद भीतर होता है।
और ध्यान रहे, जो परिस्थिति पर निर्भर होकर जीता है, वह
गुलाम है। वह गुलाम होगा ही। गुलाम इसलिए होगा कि परिस्थिति कभी भी बदल
सकती है और उसका सुख दुख हो सकता है। और परिस्थिति कभी भी बदल सकती है और
उसका दुख सुख हो सकता है। परिस्थिति उसके हाथ में नहीं। परिस्थिति मेरे हाथ
में नहीं है।
आनंद ही उनकी माला है।
संन्यास में जो गए गहरे, वे परिस्थिति पर निर्भर होकर नहीं जीते। उनके सुख—दुख का कोई कारण बाहर नहीं होता। बस, वे आनंदित होते हैं अकारण। तब फिर परिस्थिति कुछ भी नहीं कर सकती। आग लगा दें उनमें, तो भी वे उसी आनंद में होते हैं। फूल बरसा दें उनके ऊपर, तो भी वे उसी आनंद में होते हैं। भीतर उनके कोई रंच मात्र फर्क नहीं पड़ता। और जब भीतर रंच मात्र फर्क नहीं पड़ता परिस्थिति से, तभी हम बाहर से, पदार्थ से मुक्त हुए, ऐसा समझें; उसके पहले नहीं।
इसका यह मतलब नहीं है कि बुद्ध की छाती में छुरा आप मारेंगे, तो बुद्ध के प्राण न निकल जाएंगे। बिलकुल निकल जाएंगे, शायद आपसे ज्यादा जल्दी निकल जाएंगे। यह भी मतलब नहीं है कि बुद्ध के पैर में काटा गड़ेगा, तो खून न बहेगा। जरूर बहेगा, शायद आपसे ज्यादा ही बहेगा, क्योंकि बुद्ध काटे रार भी कठोर नहीं हो सकते। और छुरा भी छाती में जाएगा तो बुद्ध उसके साथ भी कोआपरेट करेंगे, सहयोग करेंगे। वह और भीतर चला जाएगा। बुद्ध को जहर देंगे, तो बुद्ध भी मर जाएंगे। लेकिन फिर भी भीतर कोई अंतर नहीं पड़ेगा। बुद्ध जहर से ही मरे। भूल से दिया था जहर, जानकर नहीं था।
एक
गरीब आदमी ने बुद्ध को निमंत्रण दिया था भोजन के लिए। और बिहार में लोग
कुकुरमुत्ते को इकट्ठा कर लेते हैं। वह जो बरसात में गीली जगह में, लकड़ी पर, कहीं भी पैदा हो जाता है, छतरी वर्षा की, कुकुरमुत्ता, उसे इकट्ठा कर लेते हैं और सुखा लेते हैं, तो वह वर्ष भर सब्जी का काम देता है। लेकिन वह कभी—कभी पायजनस हो जाता है। ऐसी गलत जगह में हो, तो उसमें कभी—कभी जहर हो जाता है।
एक गरीब आदमी ने बुद्ध को निमंत्रण दे दिया। बहुत रोका लोगों ने। सम्राट भी उस गांव का निमंत्रण देने आया, लेकिन थोड़ी देर हो गई थी। बुद्ध ने कहा, थोड़ी देर हो गई, निमंत्रण तो मैं स्वीकार कर लिया। उसने कुकुरमुत्ते की सब्जी बनाई थी। और तो उसके पास कुछ था नहीं—रोटी थी, नमक था, कुकुरमुत्ते
की सब्जी थी। वह जहरीली थी। कड़वा जहर था। लेकिन बुद्ध उसे खाए चले गए और
उसकी सब्जी का गुणगान करते रहे। और उससे कहते रहे कि तूने कितने प्रेम से
बनाई है! और कितने आनंद से बनाई है! मैंने भोजन तो बहुत जगह किए, आहार बहुत सम्राटों के यहां किए, लेकिन तेरे जैसा प्रेम कहीं भी नहीं था।
लेकिन घर आते ही, जहां ठहरे थे, निवास पर लौटते ही पता चला कि जहर फैलना शुरू हो गया है। चिकित्सक बुलाए गए, लेकिन देर हो गई थी। बुद्ध की मृत्यु उसी जहर से हुई।
मरने के पहले बुद्ध ने आनंद को पास बुलाकर उसके कान में कहा कि आनंद, गांव में जाकर डुंडी पीट देना कि जिस व्यक्ति के घर मैंने अंतिम भोजन किया है, वह महाभाग्यवान है। क्योंकि एक तो भाग्यवान वह मां थी मेरी, जिसके साथ मैंने अपना पहला भोजन लिया था, और उसी मां की कीमत का यह आदमी है, जिसके साथ मैंने अंतिम भोजन लिया। तो बुद्धपुरुष जिसके यहां अंतिम भोजन लेते हैं, वह महाभाग्यवान है—गांव में डुंडी पीट देना।
आनंद ने कहा, आप यह क्या कहते हैं! हमारे प्राण खौल रहे हैं उस आदमी के खिलाफत से। बुद्ध ने कहा, इसीलिए
कहता हूं र डुंडी पीट देना। नहीं तो मेरे मरने के बाद वह गरीब मुसीबत में न
पड़ जाए। लोग कहीं उस पर न टूट पड़े कि तेरे भोजन से मृत्यु हो गई।
मृत्यु तो हो जाएगी जहर से, लेकिन भीतर! भीतर वही करुणा, वही
आनंद कि वह आदमी मुसीबत में न पड़ जाए। मरते हुए बुद्ध को फिक्र यही है कि
कहीं उसके नाम के साथ निंदा का स्वर न जुड़ जाए। कहीं इतिहास ऐसा न लिख दे
कि उस गरीब आदमी पर ही पाप चला जाए कि उसी ने हत्या करवा दी। भीतर अंतर
नहीं पड़ता। आनंद ही उनकी माला है। आनंद ही उनका अस्तित्व है।
गुह्य एकांत ही उनका आसन है— एकासन गुहायाम्।
इसमें दो शब्द समझ लेने जैसे हैं, गुह्य और स्वात। अगर सच में ही एकांत खोजना है, तो स्वयं के भीतर खोजे बिना नहीं मिलेगा। कहीं भी चले जाए—पहाड़ पर जाएं, कैलाश पर जाएं, जंगलों में जाएं, गुफाओं में जाएं—कहीं भी जाएं, स्वात नहीं मिलेगा। जो बाहर एकांत को खोजता है, वह एकांत को पा ही नहीं सकेगा। जाएं कहीं भी, दूसरा सदा मौजूद होगा। आदमी न होंगे, पशु—पक्षी होंगे। पशु—पक्षी न होंगे, पौधे—वृक्ष, पत्थर की चट्टानें होंगी। लेकिन दूसरा मौजूद होगा। दूसरे से बचने का बाहर कोई उपाय नहीं। एक ही जगह है, अंतर—गुहा। भीतर एक गुह्य स्थान है, जहां स्वयं के अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। वहीं एकांत है।
ऋषि कहता है, एकासन गुहायाम्।
वह जो अंतर की गुहा है, उस एकांत में ही प्रवेश कर जाना उनका आसन है। वे इसी आसन को खोजते हैं।
हम आसन जानते हैं, योगासन हम जानते हैं। कोई सिर के बल खड़ा है, कोई शीर्षासन कर रहा है, कोई सिद्धासन कर रहा है। लेकिन ऋषि कहता है, ये आसन उनके आसन नहीं हैं। ये भी बाहर की क्रियाएं हैं। उपयोगी हैं, हितकर हैं, उनसे लाभ ही होता है। लेकिन ये उनका आसन नहीं हैं जो परम गति में प्रवेश करना चाहते हैं। उनका आसन तो एक ही है, स्वयं की ही गुहा में अकेले बच रहना। वही एकासन, वही एकांत, जहां मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
और ध्यान रहे, यह बहुत मजे की बात है, जहां मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं है, वहां
मैं भी नहीं बचता हूं। मुझे बचने के लिए दूसरे का होना जरूरी है। क्योंकि
मैं दूसरे का ही छोर हूं। अगर तू न बचे तो मैं के बचने के कोई उपाय नहीं
हैं। तू को देखकर ही मैं जन्मता है।
इसीलिए तो आप भीड़ को खोजते हैं। हर आदमी भीड़ को खोजता है। क्योंकि भीड़ में जितना मैं मालूम पड़ता है, उतना अकेले में... अकेले में बिखर जाता है। बड़ी भीड़ आपके ऊपर नजर रखे, तो आपका मैं बहुत संगठित हो जाता है, बहुत क्रिस्टलाइब्द, मजबूत हो जाता है। नेतृत्व का रस यही है कि लाखों लोगों की आंखें मुझ पर हैं। तो मेरा मैं मजबूत हो जाता है। कोई देखने वाला नहीं, कोई तू नहीं, तो मैं के बचने का कोई उपाय नहीं।
मैं एक रिएक्यान है, एक प्रतिक्रिया है, तू के सामने प्रतिध्वनि है। तो जहां मेरे भीतर मैं पहुंचूं अकेले में, नितांत एकांत में, कोई भी न बचे, दूसरा रहे ही न, दुई हो ही न, द्वैत का पता ही न चले, दूसरा मिट ही जाए, भूल ही जाए; तो ध्यान रखना, वहा मैं भी न बचूँगा।
दूसरे के गिरते ही मैं भी गिर जाता है। तब सिर्फ गुह्य एकांत रह जाता है। वहा न तू होता है, न मैं होता है। वहा न कोई अपना होता है, न
पराया होता है। स्वयं भी होना नहीं होता। अहंकार भी वहा नहीं है। ऐसे
गुह्य एकांत को ऋषि कहता है आसन। यही है आसन लगाने जैसा। यही है जिसमें
बैठें और जिसमें डूबे और जिसमें जीएं और जिसके साथ एक हो जाएं।
मुक्तासन सुख गोष्ठी— मुक्त आनंद ही उनकी सुख गोष्ठी है।
मुक्त आनंद ही उनकी चर्चा है, मुक्त आनंद ही उनका उपदेश है, मुक्त आनंद ही उनकी चर्या है। मुक्त आनंद तभी संभव है, जब मैं इतना अकेला हो जाऊं कि मैं भी न बचूं। अगर दूसरा मौजूद है, तो बंधन जारी रहेगा। अगर मैं भी मौजूद हूं तो बंधन जारी रहेगा। न तू बचे, न मैं बचूं र तो वहां चेतना मुक्त हो जाती है, सब बंधन से बाहर हो जाती है। उस मुक्त आनंद को ऋषि ने कहा है, वही उनकी गोष्ठी है। वही उनका सत्संग है। उस आनंद के साथ ही उनकी चर्चा, उस आनंद के साथ बिहरना ही उनकी चर्या, उस आनंद में जीना ही उनका जीवन। इतना अकेला हो जाना कि जहां मैं भी न बचूं।
अपना भी साथ होता है। कभी आपने खयाल किया कि जब कोई और बात करने को नहीं मिलता है तो आप अपने से ही बात करते हैं? कभी आपने खयाल किया कि लोग ताश के पत्तों का खेल तक खेलते हैं, जिसमें दोनों तरफ से चालें वे ही चलते हैं? कोई खेलने वाला न मिले, तो क्या करिएगा! तो ताश के पत्ते बिछाकर आदमी दोनों तरफ की चालें चलता है—अकेला खुद ही।
आप भी चौबीस घंटे इस तरह की चालें चलते हैं। आपके भीतर निरंतर डायलाग चलता है। दो तो नहीं हैं वहां, इसलिए डायलाग होना नहीं चाहिए। दूसरा हो तो बातचीत चलनी चाहिए; आप अपने से ही बातचीत चलाते हैं। आप ही चोर बन जाते हैं, आप ही मजिस्ट्रेट भी बन जाते हैं। भीतर बड़ा नाटक चलता है। करीब—करीब आप सभी का अभिनय भीतर कर लेते हैं। आप वह भी कहते हैं, जो आप कहना चाहते हैं। आप वह भी कहते हैं, जिससे आप कहना चाहते हैं, उसकी तरफ से जवाब भी देते हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक ट्रेन में यात्रा कर रहा है। बीच —बीच में अकारण खिलखिलाकर
हंस पड़ता है। फिर चुप हो जाता है। आसपास के लोग चौकन्ने हो गए हैं कि आदमी
कुछ अजीब है। कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। खाली बैठा है, आंखें
बंद किए है। फिर एकदम से खिलखिलाकर हंसता है। फिर चुप हो जाता है। सम्हलकर
फिर बैठ जाता है। आखिर नहीं रहा गया। जिज्ञासा बढ़ी। एक आदमी ने हिम्मत की, जरा हिलाया और कहा, महानुभाव! मामला क्या है, अचानक खिलखिला पड़ते हैं? नसरुद्दीन ने कहा, बाधा मत डालो। आई एम टेलिग जोक्स टु माइसेल्फ। मैं अपने आपसे जरा कुछ मजाक की बातें कर रहा हूं।
फिर उसने आंख बंद कर ली। फिर वह बीच—बीच में खिलखिलाकर हंसता रहा। फिर कभी—कभी ऐसा भी होता कि हंसता तो नहीं, ऐसा झिड़कता—हे। आखिर फिर उनकी जिज्ञासा बढ़ी कि बात क्या है! फिर उसने पूछा बगल के आदमी ने कि महानुभाव, हंसते थे, ठीक था; यह कोई चीज झिड़क देते हैं बीच—बीच में! तो उसने कहा, सम ओल्ड जोक। सुन चुके कई दफा, कह चुके कई दफा, वह बीच में आ जाता है।
पूरे समय हमारे भीतर भी यही चल रहा है। अकेले नहीं हैं हम अकेले होकर भी। अपने को बांट लेते हैं। बड़ा मजा है, बांट—बांटकर बातचीत चलती रहती है। जरा इस भीतर की चर्चा पर खयाल करना। ऋषि की—इतना अकेला हो जाता है, इतना
अकेला कि—अपने से भी बात नहीं हो सकती अब। अब तो आनंद ही चर्चा है। अब तो
आनंद ही भीतर स्पंदित होता रहता है। कोई नहीं बचा। आनंद अकेला बच गया। वही
नृत्य करता है, वही नाचता है। बस वही गोष्ठी है।
अकल्पित भिक्षाशी।
यह बहुत जरूरी बात है, समझने जैसी।
अकल्पित भिक्षाशी।
संन्यासी जो है, वह परमात्मा पर छोड्कर जीता है अपने को। योजना करके नहीं जीता। अनप्लैंड, अनायोजित उसका जीवन है। सुबह उठता है, भूख लगती है तो भिक्षा मांगने निकल जाता है। यह भी पता नहीं कि भिक्षा मिलेगी! यह भी पता नहीं, भिक्षा में क्या मिलेगा! यह भी पता नहीं, कौन देगा! अकल्पित, उसकी कोई कल्पना भी नहीं करता। अगर कल्पना भी करे, तो फिर वह संन्यासी की भिक्षा न रही। अगर वह सुबह से यह भी सोच ले कि आज फलां चीज खाने में मिल जाए, तो वह भिक्षा न रही फिर संन्यासी की। वह भिखारी की भिक्षा हो गई।
अकल्पित...।
भूख लगती है, निकल पड़ता है। किसी के द्वार पर खड़ा हो जाता है। कोई दे देता है ठीक, अन्यथा आगे बढ़ जाता है। जो दे देता है, ठीक। जो मिल जाता है, ले लेता है, स्वीकार कर लेता है। न कोई कल्पना है, न कोई योजना है। नहीं, पहले से खबर भी नहीं देता कि कल आपके घर भोजन करने आऊंगा। क्योंकि अगर ऐसी खबर दे, तो वह आयोजित हो जाएगी। अनायोजित जीता है। मानना यह है कि यदि अस्तित्व को जिलाना है, तो जिलाएगा। हम अपनी तरफ से कौन हैं!
मोहम्मद सांझ को जो भी उन्हें मिलता था, बंटवा देते थे। दिनभर लोग चढ़ा जाते, भेंट दे जाते, वह सांझ सब बांट देते। फिर भिखारी हो जाते। रात भिखारी ही सोते। सुबह फिर कोई दे जाता।
मोहम्मद बीमार थे, तो पत्नी ने सोचा मोहम्मद की कि रात दवा की जरूरत पड़ सकती है, वैद्य बुलाना पड़ सकता है, तो पांच दीनार, पांच रुपए, छिपाकर रख लिए।
आधी रात मोहम्मद करवट बदलने लगे। और मोहम्मद ने कहा, सुन—अपनी पत्नी को कहा —मुझे ऐसा लगता है कि इस मरते क्षण में मैं भिखारी नहीं हूं।
पत्नी तो बहुत घबरा गई। उसने कहा, आपको कैसे पता चला?
मोहम्मद ने कहा, जिंदगीभर का भिखारी, रात बिना कुछ के सोया हूं सदा। आदत बिगड़ गई। लगता है, घर में कुछ आज बचा हुआ है। तू निकाल ला, उसे बांट दे। अन्यथा मैं परमात्मा के सामने क्या जवाब दूंगा कि आखिरी दिन भरोसा खो दिया! और जिसने जिंदगीभर बचाया, वह रात को वैद्य नहीं भेज सकता था? और जिसने जिंदगीभर भोजन दिया, वह रात को दवा नहीं दे सकता था? आखिरी वक्त मुझे परेशानी में मत डाल। अब मरने के वक्त जब मैं उसके सामने जाऊंगा तो क्या मुंह लेकर जाऊंगा? वह मुझसे पूछेगा, मुझे छोड्कर पांच रुपए पर भरोसा किया? तो मैं तुझे कमजोर और पांच रुपए ज्यादा ताकतवर मालूम पड़े? जब जरूरत न थी, तब मैं तुझे सहयोगी लगता था और जब जरूरत पड़ी, तो रुपया सहयोगी हुआ! वह निकाल ले।
पत्नी घबराकर रुपए बाहर निकाल लाई। मोहम्मद ने कहा, जा बाहर देख।
बड़ी हैरान हुई पत्नी कि सामने एक भिखारी खड़ा था। उस भिखारी ने कहा कि मैं तो सोचता था —बहुत जरूरत पड़ गई है, साथी मेरा बीमार पड़ा है और दवा की जरूरत है—तो मैं सोचता था, आधी रात कौन देगा? अपने आप दरवाजा खुल गया और ये पाच रुपए तू दे रही है! मोहम्मद ने अपनी पत्नी को कहा, देख, उसके रास्ते अनूठे हैं। जिसको जरूरत थी, उसको मिल गई; और जिसने बचाया, उसके हाथ से जा रही है।
और जैसे ही वे रुपए दे दिए गए, मोहम्मद ने चादर ओढ़ ली और अपनी पत्नी से कहा, अब मैं निश्चित मर सकता हूं। और चादर ओढ़कर तत्क्षण उनकी श्वास निकल गई। जो जानते हैं, वे कहते हैं, वह श्वास अटकी ही इसलिए रही। वे पांच रुपए बहुत भारी पड़े। वे बहुत वजनी थे।
अकल्पित भिक्षाशी।
संन्यासी कल्पना नहीं करता—भिक्षा की ही नहीं, किसी चीज की कल्पना नहीं करता। किसी चीज की योजना नहीं बनाकर चलता। यह मिल जाए, ऐसा कोई सवाल नहीं है। जो मिल जाए, उसके लिए धन्यवाद। और जो न मिले, उसके लिए भी उतना ही धन्यवाद। इतना अर्थ है कि अपने से नहीं जीता, परमात्मा पर छोड्कर जीता है। परमात्मा जहां ले जाए, वहीं चला जाता है। दुख में तो दुख में, सुख में तो सुख में। महलों में तो महलों में सही और झोपड़ों में तो झोपड़ों में सही। परमात्मा जहां ले जाए, उसके हाथ में छोड़ देता है अपने को।
छोटे बच्चे को देखा कभी? बाप का हाथ पकड़कर रास्ते पर चलता होता है, तो फिर बिलकुल फिक्र नहीं करता वह—कहां जा रहा है? कहा ले जाया जा रहा है? जब बाप के हाथ में हाथ है, तो बात खतम हो गई।
अकल्पित भिक्षाशी।
जब परमात्मा के हाथ में छोड़ दिया सब, तो अब बात खतम हो गई। वह जो करवाए, वही ठीक है। उसी के लिए मन राजी है, उसकी स्वीकृति है।
हंस जैसा उसका आचार है। हंसाचार।
हंस जैसा उसका आचरण है। हंस के आचरण की दो खूबियां हैं, वह खयाल में ले लें। तो वह संन्यासी के आचरण की खूबियां हैं।
एक
तो मैंने आपसे पीछे कहा कि हंस की यह कल्पित क्षमता है—वैज्ञानिक न भी
हो—काव्य क्षमता है कि वह पानी और दूध को अलग कर लेता है। असार और सार को
अलग कर लेता है। वह जो विवेक है संन्यासी का जागा हुआ, वह तलवार की तरह असार को और सार को काटकर अलग कर देता है। जस्ट लाइक ए सोर्ड—तलवार की तरह दो टुकड़े में कर देता है।
हंस की एक दूसरी क्षमता है, वह
भी काव्य क्षमता है। वह है कि हंस मोती के अतिरिक्त और कुछ आहार नहीं
लेता। मर जाए मोती ही चुनता है। तो संन्यासी भी मर जाए पदार्थ नहीं चुनता, परमात्मा ही चुनता है, हर हालत में। हर हालत में चुनाव उसका मोतियों का है, कंकड़—पत्थरों का नहीं है। मौत के लिए राजी हो जाएगा, लेकिन कंकड़—पत्थरों के लिए राजी नहीं होगा। श्रेष्ठ का ही उसका चुनाव है। शभ का, सुंदर का, सत्य का ही उसका चुनाव है। यह जो हंस की क्षमता है, यही संन्यासी का आचरण है।
और अंतिम, सर्व प्राणियों के भीतर रहने वाला एक आत्मा ही हंस है— इसको ही वे प्रतिपादित करते हैं।
और जीवन से, शब्दों से, वाणी से, आचरण से एक ही बात वे प्रतिपादित करते हैं; सबके भीतर जो बसा है, वह ऐसा ही परमहंस है। सबके भीतर ऐसी ही आत्मा का आवास है। सबके भीतर ऐसी ही चेतना की धारा प्रवाहित हो रही है। जो जानते हैं, उनके भीतर भी और जो नहीं जानते हैं उनके भीतर भी। जो अपने आप आंख बंद किए खड़े हैं, उनके भीतर भी वही परमात्मा है; जो द्वार बंद किए हैं, उनके भीतर भी; जो खोलकर आंख देखते हैं, उनके भीतर भी। फर्क भीतर के परमात्मा का नहीं है, फर्क भीतर के परमात्मा से परिचित या अपरिचित होने का है।
परम ज्ञानी में और परम अज्ञानी में जो फर्क है, वह स्वभाव का नहीं है, वह फर्क केवल बोध का है, अवेयरनेस का है।
मैं हूं खीसे में हीरे पड़े हैं और मुझे पता नहीं। आप हैं, आपके खीसे में हीरे पड़े हैं और आपको पता है। जहा तक संपदा का संबंध है, हम दोनों में कोई भी भेद नहीं है। लेकिन फिर भी मैं निर्धन रहूंगा, क्योंकि मुझे अपनी संपदा का कोई पता ही नहीं है। और आप धनवान रहेंगे, क्योंकि आपको अपनी संपदा का पता है। और फिर भी संपदा मेरे पास उतनी ही है, जितनी आपके पास है।
लेकिन उस संपदा का क्या मूल्य, जिसका हमें पता ही न हो! उस तिजोरी का क्या मूल्य, हमें मालूम ही न हो कि वह तिजोरी है! उस हीरे का क्या करिएगा, जिसको हम पत्थर समझकर और घर के एक कोने में डाल रखे हैं! पर इससे फर्क नहीं पडता। वह संपदा हमारी है।
यही ऋषि उपदेश करते हैं। यही वे समझाते रहते हैं—अहर्निश, सब रूपों में, सब भांति, सब प्रकार से एक ही बात समझाते रहते हैं कि जो उनके भीतर है, वही तुम्हारे भीतर भी है। और सबके भीतर वही है। यह भरोसा एक बार आ जाए, यह ट्रस्ट एक बार आ जाए कि मेरे भीतर भी वही है, तो शायद मैं छलांग लगाने के लिए तैयार हो जाऊं।
शायद यह स्मरण एक बार आ जाए कि वही मेरे भीतर भी है, तो शायद मैं खोज पर निकल जाऊं। खोदने के लिए तैयार हो जाऊं। कोई कह दे कि वह खजाना मेरे घर के नीचे भी गड़ा है, तो शायद मैं कुदाली उठा लूं। आलसी आदमी हूं सोया पड़ा रहता हूं लेकिन खजाने की याददाश्त कोई दिला दे, तो शायद मैं आलसी, पड़ा रहने वाला, सोने वाला भी उठ आऊं। दो—चार हाथ चलाऊ, तो शायद नीचे के घड़ों की आवाज आने लगे। और थोड़ा आगे बढुं तो शायद घड़े मिल जाएं। घड़ों को फोडु तो शायद खजाना मिल जाए।
तो
ऋषि निरंतर कहते रहते हैं। उनकी श्वास—श्वास एक ही बात बन जाती है कि वह
याद दिलाते रहें लोगों को कि वह परमहंस सबके भीतर छिपा हुआ है।
आज इतना ही।
अब हम उस खजाने की खोज पर निकलेंगे। उस परमहंस को थोड़ा खोजें—सच में छिपा है, नहीं छिपा है?
दो —तीन बातें खयाल में ले लें। फिर उठें। दो—तीन बातें समझ लें।
कल का रात का प्रयोग तो ठीक हुआ, लेकिन दों—तीन छोटी—छोटी भूलें थीं, वे आज न हों, इसका खयाल रखें। एक तो जिन लोगों को भी खड़ा रहना हो, जिन्हें ऐसा लगता हो कि उनसे कूदना नहीं हो सकेगा—लगना तो नहीं चाहिए, थोड़ी कुदाली चलाएं, थोड़ा कूदे, थोड़ा श्रम करें—फिर भी जिन्हें लगता हो कि वे खड़े ही रहेंगे, तो. मेरे सामने खड़े न हों। क्योंकि उनकी वजह से आसपास जो लोग हैं, उनकी गति भी क्षीण होती है। फिर वे पीछे चले जाएं। जिनको ऐसा लगता हो कि कुछ भी करके हमसे नाचना न हो सकेगा, वे पीछे खड़े हों।
मेरे सामने और चारों तरफ—मेरे पीछे और मेरे दोनों तरफ—तों वे लोग हों, जो पूरी शक्ति से कूदने वाले हैं। उनका कूदना संक्रामक हो जाना चाहिए, लहरें बन जानी चाहिए, तो जो पीछे खड़े हैं उनको भी शायद थोड़ी हिम्मत आ जाए। वे भी शायद इंफेक्यान में आ जाएं और उनसे भी शायद दौड़ शुरू हो जाए।
लेकिन मेरे सामने कोई व्यक्ति ऐसा न खड़ा रहे। क्योंकि उसके कारण अवरोध पैदा होता है। अगर एक व्यक्ति खड़ा है, तो चार—पांच व्यक्तियों के आसपास के घेरे को वह खराब करता है। जिनको खड़ा होना है, वे पीछे चले जाएं। जब खड़ा ही होना है, तो पीछे खड़ा होना बेहतर है। यहां तो खड़े हों जिनकी पागल होने की पूरी इच्छा हो।
दूसरी बात, तीस मिनट तक तो मेरी तरफ अपलक आंख रखनी हैं। पलक झपानी ही नहीं है। साथ में कूदना है, चिल्लाना है, आनंदित होना है और हू की आवाज करनी है—पूरे तीस मिनट। पहले दो मिनट तो गहरी श्वास ले लें, ताकि शक्ति जग जाए। पहले जोर से श्वास ले लें, फिर हम प्रयोग शुरू करें।
ओशो
स्वामी जी ,
जवाब देंहटाएंनमस्कार
आपको पढ़ते पढ़ते तो मैं आपका मुरीद हो गया हूँ। एक कहानी " आसक्ति से विरक्ति की ओर " लिख दी। अब पिछले तीन दिनों से ओशो पर कुछ लिखने की चाह मन में आ रही है। लेकिन उन पर लिखूं तो क्या लिखूं। वो एक युग-पुरुष है।
आप ही मुझे कुछ गाइडेंस दीजिये।
आपका आभारी रहूँगा
आपका
स्वामी प्रेम विजय
कृपया मुझे ईमेल भेजियेंगा : vksappatti@gmail.com
जवाब देंहटाएंआपका धन्यवाद.
विजय
THANK YOU GURUJI
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