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रविवार, 6 अक्तूबर 2013

निर्वाण-उपनिषद--(प्रवचन-05)

पांचवां—प्रवचन

संन्‍यासी अर्थात जो जाग्रत है, आत्‍मरत है, आनंदमय है, परमात्‍म—आश्रित है



                         विवेक रक्षा।
                        करुणैव केलि:।
                         आनंद माला।
              एकासन गुहायाम् मुक्‍तासन सुख गोष्ठी।
                        अकल्पित भिक्षाशी।
                           हंसाचार:।
              सर्वभूतान्तर्वर्तीम् हंस इति प्रतिपादनम्।



                     विवेक ही उनकी रक्षा है।
                  करुणा ही उनकी क्रीड़ाखेल है।
                     आनंद उनकी माला है।
      गुह्य एकांत ही उनका आसन है और मुक्त आनंद ही उनकी गोष्ठी है।
            अपने लिए नहीं बनाई गई भिक्षा उनका भोजन है।
                   हंस जैसा उनका आचार होता है।
सर्व प्राणियों के भीतर रहने वाला एक आत्मा ही हंस है—इसी को वे प्रतिपादित करते हैं।


संन्यासी अर्थात जो जाग्रत है, आत्‍मरत है, आनंदमय है, परमात्‍म—आश्रित है

सुना है मैंने कि एक अंधे आदमी ने किसी फकीर को कहामुझे रास्ते बता दें इस गांव के ताकि मैं भटक न जाऊं। मुझे ऐसी विधि बता दें ताकि मैं किसी से टकरा न जाऊं। मुझे ऐसे उपाय सुझा दें जिससे कि आंख वाले लोगों की दुनिया में मैं अंधा भी जीने में सफल हो सकूं। उस फकीर ने कहान हम कोई विधि बताएंगेन कोई उपाय बताएंगे और न हम कोई मार्ग बताएंगे।
स्वभावत:अंधा दुखी और पीड़ित हुआ। और सोचा भी नहीं था कि फकीर—करुणा जिनका स्वभाव है—ऐसा व्यवहार करेगा। कहा उसने कि मुझ पर कोई करुणा नहीं आती?

फकीर ने कहाकरुणा आती हैइसीलिए न तो बताऊंगा मार्गन बताऊंगा उपायन बताऊंगा ऐसी विधि जिससे तू अंधा रहकर आंख वाले लोगों की दुनिया में जी सके। मैं तुझे आंख खोलने का उपाय ही बता देता हूं। और फिर उस फकीर ने कहा कि सीख लेगा इस गांव के रास्तेलेकिन गांव रोज बदल जाते हैं। सीख लेगा इन आंख वालों के बीच रहनालेकिन कल दूसरी आंख वालों के बीच रहना पड़ेगा। सीख लेगा विधियांलेकिन विधियां सीमित परिस्थितियों में काम करती हैंसदा नहीं। मैं तुझे आंख ही खोलने का उपाय बता देता हूं।
उपनिषद का यह ऋषि कहता हैविवेक रक्षा।
संन्यासी के पास और कुछ भी नहीं है सिवाय उसके विवेक के। वही उसकी रक्षा है। न कोई नीति हैन कोई नियम हैन कोई मर्यादा हैन कोई भय हैन नर्क के दंड का कारण हैन स्वर्ग के प्रलोभन की आकांक्षा  है। बसएक ही रक्षा है संन्यासी की—उसका विवेकउसकी अवेयरनेसउसकी आंखें। इसे समझें।
विवेक रक्षा।
इन दो छोटे शब्दों में बहुत कुछ छिपा है। सब साधना का सार छिपा है। एक ढंग तो है व्यवस्था से जीने का। क्या करना हैयह हम पहले ही तय कर लेते हैं। कहां से जाना हैकैसे गुजरना हैयह हम पहले ही तय कर लेते हैं। क्योंकि हमारा अपनी ही चेतना पर कोई भरोसा नहीं। इसलिए हम सदा ही भविष्य का चिंतन करते रहते हैं और इसीलिए हम सदा ही अतीत की पुनरुक्ति करते रहते हैं। क्योंकि जो हमने कल किया थाउसी को आज करना सुगम पड़ता हैक्योंकि उसे हम जानते हैंपरिचित हैंपहचाना हुआ है।
लेकिन संन्यासी जीता है क्षण में—अभी और यहीं। अतीत को दोहराता नहींक्योंकि अतीत को केवल मुर्दे दोहराते हैं। भविष्य की योजना नहीं करताक्योंकि भविष्य की योजना केवल अंधे करते हैं। इस क्षण में उसकी चेतना जो उसे कहती हैवही उसका कृत्य बन जाता है। इस क्षण के साथ ही सहज जीता है। खतरनाक है यह।
इसलिए उपनिषद कहता हैविवेक ही उसकी रक्षा है।
होशपूर्वक जीता हैबस इतनी ही उसकी रक्षा है। और उसके पास कोई उपाय नहीं है। होशपूर्वक जीता है। पहले से तय नहीं करता कि कसम खाता हूं क्रोध नहीं करूंगा।
जो आदमी ऐसी कसम खाता हैपक्का ही क्रोधी है। एक तो तय है बात कि वह क्रोधी है। यह भी तय है कि वह जानता है कि मैं क्रोध कर सकता हूं। यह भी वह जानता है कि अगर कसमों का कोई आवरण खड़ा न किया जाएतो क्रोध की धारा कभी भी फूट सकती है। इसलिए अपने ही खिलाफ इंतजाम करता है—कसम खाता हैक्रोध नहीं करूंगा। फिर कल कोई गाली देता है और क्रोध फूट पड़ता है। फिर और गहरी कसमें खाता हैनियम बांधता हैसंयम के उपाय करता हैलेकिन क्रोध से छुटकारा नहीं होता। क्योंकि जिस मन ने नियम लिया था और मर्यादा बांधी थी और जिस मन ने कसम खाई थी उतना ही मन नहीं हैमन और बड़ा हैबहुत बड़ा है।
तो जो मन तय करता है कि क्रोध नहीं करेंगेजब गाली दी जाती है तो मन के दूसरे हिस्से क्रोध करने के लिए बाहर आ जाते हैं। वह छोटा सा हिस्सा जिसने कसम खाई थीपीछे फेंक दिया जाता है। थोड़ी देर बाद जब क्रोध जा चुका होगावह हिस्साजिसने कसम खाई थीफिर दरवाजे पर आ जाएगा मन के। पछताएगापश्चात्ताप करेगाकहेगाबहुत बुरा हुआ। कसम खाई थीफिर कैसे किया क्रोध! लेकिन क्रोध के क्षण में इस हिस्से का कोई भी पता नहीं था।
मन का बहुत छोटा सा हिस्सा हमारा जागा हुआ है। शेष सोया हुआ है। क्रोध आता है सोए हुए हिस्से से और कसम ली जाती है जागे हुए हिस्से से। जागे हुए मन की कोई खबर सोए हुए मन को नहीं होती। सांझ आप तय कर लेते हैंसुबह चार बजे उठ आना है। और चार बजे आप ही करवट लेते हैं और कहते हैंआज न उठें तो हर्ज क्या है! कल से शुरू कर देंगे। छह बजे उठकर आप ही पछताते हैं कि मैंने तो तय किया था चार बजे उठने काउठा क्यों नहीं। निश्चित ही आपके भीतर एक मन होतातो ऐसी दुविधा पैदा न होती।
लगता हैबहुत मन हैं। मल्टी साइकिक है आदमी। ऐसा भी कह सकते हैं कि एक आदमी एक आदमी नहींबहुत आदमी हैं एक साथभीड़ हैक्राउड़ है। उसमें एक आदमी भीतर कसम खा लेता है सुबह चार बजे उठने कीबाकी पूरी भीड़ को पता ही नहीं चलता। सुबह उस भीड़ में से जो भी निकट होता हैवह कह देता हैसो जाओकहो की बातों में पड़े हो! ऐसी हमारी जिंदगी नष्ट होती है।
नियम से बंधकर जीने वाला व्यक्ति कभी भीकभी भी परम सत्य के जीवन की तरफ कदम नहीं उठा पाता है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि नियम तोड़कर जीएं। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि मर्यादाएं छोड़ दें। उस फकीर ने भी उस अंधे को नहीं कहा था कि जब तक आंख ठीक न हो जाएतो तू अपनी लकड़ी फेंक दे। मैं भी नहीं कहता हूं। लकड़ी रखनी ही पड़ेगीजब तक आंख फूटी हैलेकिन लकडी को ही आंख समझ लेना नासमझी है। और यह जिद करना कि आंख खुल जाएगीतब भी हम लकड़ी को सम्हालकर ही चलेंगेपागलपन है।
संन्यासी वह हैजो अपने को जगाने में लगा है। और इतना जगा लेता है अपने भीतर सारे सोए हुए अंगों कोअपने सारे खंडों को जगाकर एक कर लेता है। उस अखंड चेतना का नाम विवेक है इंटीग्रेटेड कांशसनेस। जब मन टुकड़े—टुकड़े नहीं रह जाताइकट्ठा हो जाता है और एक ही व्यक्ति भीतर हो जाता हैही का मतलब हो और न का मतलब न होने लगता है। उस एक सुर से बंध गई चेतना का नाम विवेक है। जागी हुई चेतना का नाम विवेक है। होश से भर गई चेतना का नाम विवेक है।
ऋषि कहता हैविवेक ही रक्षा है और कोई रक्षा नहीं। अदभुत है रक्षा लेकिन। क्योंकि विवेक जगा होतो भूल नहीं होती। ऐसा नहीं कि भूल नहीं करनी पड़ती। ऐसा नहीं कि भूल को रोकना पड़ता है। ऐसा भी नहीं कि भूल से लड़ना पड़ता है। बसऐसा कि भूल नहीं होती। जैसे आंखें  खुली होंतो आदमी दीवार से नहीं टकराता और दरवाजे से निकल जाता है। ऐसे ही भीतर विवेक की आंख जगी होतो आदमी गलत को नहीं चुनता और ठीक ही उसका मार्ग बन जाता है।
विवेक रक्षा।
जागा हुआ होना ही इस जगत में एकमात्र रक्षा है। सोया हुआ होना इस जगत में हजार तरह की विक्षिप्तताओं कोहजार तरह की रूग्‍णताओं को निमंत्रण देना है। हजार तरह के शत्रु प्रवेश कर जाएंगे और जीवन को नष्ट कर देंगेछिद्र—छिद्र कर देंगेखंड—खंड कर देंगे। तो जागना ही सूत्र है।
संन्यासी का अर्थ है : जो निरंतर जागा हुआ जी रहा हैहोशपूर्वक जी रहा है। कदम भी उठाता हैतो जानते हुए कि कदम उठाया जा रहा है। श्वास भी लेता हैतो जानते हुए कि श्वास ली जा रही है। श्वास बाहर जाती हैतो जानता है कि बाहर गईश्वास भीतर जाती हैतो जानता है कि भीतर गई। एक विचार मन में उठता हैतो जानता है कि उठागिरता हैतो जानता है कि गिरा। मन खाली होता हैतो जानता है मन खाली है। मन भरा होता हैतो जानता है कि मन भरा है। एक बात पक्की है कि जानने की सतत धारा भीतर चलती रहती है। और कुछ भी होजानने का सूत्र भीतर चलता रहता है।
यही रक्षा हैक्योंकि जानकर कोई गलत नहीं कर सकता। सब गलती अज्ञान है या सब गलती मूर्च्छा है। अगर किसी दिन...।
अभी तो कभी—कभी कोई व्यक्ति जागता है—कभी कोई बुद्धबुद्ध का अर्थ है जागा हुआकभी कोई महावीरजिन का अर्थ है जीता हुआजिसने अपने को जीत लियाकभी कोई क्राइस्ट—कभी—कभी एकाध व्यक्ति जागता है हम सोए हुए लोगों की दुनिया में। हम उस पर बहुत नाराज भी होते हैं। क्योंकि जहां बहुत लोग सोए होंवहा एक आदमी का जगना नींद में दूसरों की बाधा बनता है। और वह जागा हुआ उत्सुक हो जाता है कि सोए हुओं को भी जगाए। और सोए हुए नाराज होते हैंबहुत नाराज होते हैं। उनकी नींद में दखल होती है। और यह जागा हुआ इस तरह की बातें करने लगता है कि उनके सपनों का खंडन होता है। इसलिए हम सब सोए हुए लोग जागे हुए आदमी को समाप्त कर देते हैं। जब वह समाप्त हो जाता हैतब हम उसकी पूजा करते हैं। पूजा नींद में चल सकती है। जागे हुए आदमी की दोस्ती नहीं चल सकती।
जागे हुए आदमी के साथ जीना होतो दो ही उपाय हैं : या तो वह आपकी माने और सो जाएया आप उसकी मानें और जग जाएं। पहले का तो उपाय है नहीं। जो जाग गयावह सोने को राजी नहीं हो सकता है। जिसके हाथ में हीरे आ गएवह कंकड़—पत्थर रखने को राजी नहीं हो सकता। जिसको अमृत दिखाई पड़ गयाउसको आप डबरे का पानी पीने को कहेंमुश्किल हैअसंभव है। आपको ही जगना पड़े उसके साथ।
सत्संग का यही अर्थ था। यही अर्थ थाकिसी जागे हुए पुरुष के पास होना। उस जागे हुए के पास होने से शायद आपकी नींद भी टूट जाए। शायद नींद का एकाध कण भी टूटेकरवट बदलते वक्त जरा सी आंख भी खुले और जागे हुए व्यक्तित्व का दर्शन हो जाएतो शायद आकांक्षाप्यास जगेअभीप्सा पैदा हो और आप भी जागने की यात्रा पर निकल जाएं।
अगर क१री ऐसा हुआ कि बहुत लोग जाग सके और जागे लोगों का समाज बन सकातो निश्चित ही हम यह बात उस दिन कहेंगे कि हमारे पूरे इतिहास में हमने जिन लोगों को जुर्मी ठहरायाअपराधी ठहरायावह गलती हो गई। वे सोए हुए लोग थे। सोए हुए लोग अपराध करेंगे ही।
अदालतें माफ कर देती हैंअगर नाबालिग होव्यक्ति अपराध करे। क्योंकि वे कहती हैंअभी समझ कहां! लेकिन बालिग के पास समझ हैअदालतें क्षमा कर देती हैं अपराधों को या कम कर देती हैंन्यून कर देती हैंअगर आदमी ने नशे में किया हो। क्योंकि वे कहते हैंजो होश में नहीं थाउसके ऊपर जिम्मेवारी क्या! लेकिन हम होश में हैं?
सच तो यह है कि हमारा पूरा इतिहास सोए हुए आदमियों के कृत्यों का इतिहास है। इसीलिए तो तीन हजार वर्षों में हमको सिवाय युद्धों के और कुछ नहीं। युद्ध और युद्ध। तीन हजार वर्ष मेंचौदह हजार सात सौ युद्ध हुए जमीन पर! सिवाय लड़ने के. और ये तो बड़े युद्ध हैंजिनका इतिहास उल्लेख करता है। दिनभर जो छोटी—मोटी लड़ाइयां हम लड़ते हैंपरायों से और अपनों सेउनका तो कोई हिसाब नहींलेखा—जोखा नहीं। पूरी जिंदगी हमारी कलह के अतिरिक्त और क्या है! और पूरी जिंदगी हम सिवाय दुख के क्या अर्जित कर पाते है! यह सोए हुए होने की अनिवार्य परिणति है।
ऋषि कहता हैसंन्यासी का तो विवेक ही रक्षा है।
हिम्मतवर लोग थेबड़े साहसी लोग थेजिन्होंने यह कहा। नहीं कहा कि नीति में रक्षा हैनियम में रक्षा है। नहीं कहा मर्यादा में रक्षा हैनहीं कहा शास्त्र में रक्षा हैनहीं कहा गुरु में रक्षा है। कहा विवेक में रक्षा हैहोश में रक्षा है। होश के अतिरिक्त कोई रक्षा नहीं हो सकती। भूल होकर ही रहेगी।
करुणा ही उनकी क्रीड़ा है। करुणैव केलि:।
एक ही उनका खेल हैजागे हुओं का—करुणा। कहें कि एक ही उनका रस बाकी रह गयाकहें कि बस एक ही बात उन्हें और करने 'योग्य रह गई है—करुणा।
बुद्ध को ज्ञान हुआ। फिर वे चालीस वर्ष जीवित थे। हम पूछ सकते हैं कि जब ज्ञान हो गयाअब चालीस वर्ष जीवित रहने का कारण क्या हैकरुणा! महावीर को ज्ञान हुआउसके बाद वे भी इतने ही समय जीवित थे। जब ज्ञान ही हो गया और परम अनुभूति हो गईतो अब इस शरीर को ढोने की और क्या जरूरत हैकरुणा! जो भी जान लेता हैजानने के साथ ही उसके भीतर वासना तिरोहित हो जाती है और करुणा का जन्म होता है। वासना में जो शक्ति काम आती हैवही ट्रांसफार्मवही रूपांतरित होकर करुणा बन जाती है।
हम वासना में जीते हैं। वासना ही हमारा जीवन है। वासना का अर्थ है : हम कुछ पाने को जीते हैं। जब वासना रूपांतरित होती हैकरुणा बनती हैतो उलटी हो जाती है। करुणा का अर्थ है : हम कुछ देने को जीते हैं।

संन्यासी अर्थात जो जाग्रत हैआत्मरत हैआनंदमय हैपरमात्म—आश्रित है

लेकिन उलटी है हमारी यह दुनियाबड़े कंट्राडिक्यांस सेबड़े विरोधाभासों से भरी। वासना से जो भरे हैंउन्हें हम सम्राट कहते हैं! और करुणा से जो भरे हैंउन्हें हम भिक्षु कहते हैं! जो दे रहे हैं सिर्फवे भिखारी हैं! और जो ले रहे हैं सिर्फवे सम्राट हैं!
गहरा व्यंग्य है बुद्ध का इसमें कि बुद्ध अपने को भिक्षु कहते हैंकि मैं भिखारी हूं। और हम सब भी राजी हो जाते हैं कि ठीक हैदो रोटी तो बुद्ध हमसे मांगते ही हैंतो भिखारी तो हो ही गए।
बुद्ध हमें क्या देते हैंउसकी कोई कीमत आकी जा सकती है! लेकिन हमें यह भी पता न चले कि वे हमें दे रहे हैंइसकी भी वे चेष्टा करते हैं। इसलिए दो रोटी हमसे लेकर भिखारी बन जाते हैकहीं हमें ऐसा न लगे कि वे हमें देकर हम पर कोई एहसान कर रहे हैं। करुणा इतना भी नहीं चाहती।
और हम ऐसे नासमझ हैं कि अगर हमें यहू पता चल जाए कि बुद्ध हमें कुछ दे रहे हैंतो हमारे अहंकार को चोट लगे। शायद हम लेने का दरवाजा ही बंद कर दें। इसलिए बुद्ध हमसे दो रोटी ले लेते हैं। हमारे अहंकार को बडा रस आता है। लेकिन हमें पता नहीं कि हम एक बहुत हारती हुई बाजी लड़ रहे हैं। बुद्ध दो रोटी लेते हैंऔर जो देते हैंउसका हमें पता भी नहीं चलता। दो रोटी में बुद्ध को कुछ भी नहीं मिलेगालेकिन वे जो हमें दे रहे हैंवह हमारे अहंकार को पूरी तरह भस्मीभूत कर देगा। वह राख कर देगा हमारे भीतर वह जो अस्मिता हैउसे मिटा देगा।
करुणा का अर्थ है. देने के लिए जीना। वासना का अर्थ है. लेने के लिए जीना। वासना भिखारी हैकरुणा सम्राट है। लेकिन दे कौन सकता हैदे वही सकता हैजिसके पास हो। और वही दिया जा सकता हैजो हमारे पास हो। वह तो नहीं दिया जा सकताजो हमारे पास न हो। वही दिया जा सकता हैजो हमारे पास हो।
हम तो मांगकर ही जीते हैं पूरे जीवन में। हमारे पास कुछ भी नहीं है। प्रेम भी हम मांगते हैंकोई दे। धन भी हम मांगते हैंकोई दे। यश भी हम मांगते हैं कि कोई दे। बड़े से बडा राजनेता भी भिखारी ही होता हैक्योंकि वह आप सबसे मांगकर जीता है। आप देते हो यश तो मिलता है उसेआप खींच लेते हो तो खो जाता है। दो दिन अखबार में उसका नाम नहीं छपतातो बात खतम हो गई। लोग भूल जाते हैंकहा गयाकौन थाथा भी या नहीं था।
1917 में लेनिन जब सत्ता में आया रूस मेंतो उसके पहले जो प्रधानमंत्री था रूस काकरेंस्कीवह 1960 तक जिंदा था। जब मरातभी लोगों को पता चला कि वह अब तक जिंदा था। क्योंकि वह एक किराने की दुकान कर रहा था अमरीका में। लोग भूल ही चुके थेबात ही खतम हो चुकी थी। वह तो मरातब पता चला कि यह आदमी जिंदा था। कभी वह रूस में सर्वाधिक शक्तिशाली आदमी था। लेनिन के पहले वह सर्वाधिक शक्तिशाली आदमी था। फिर वह ना—कुछ हो गया।
राजनेता भी हमसे यश मांगकर जीता है। जो भी हमसे मांगकर जीता हैवह संन्यासी नहीं है। संन्यासी तो वह हैजो हमें देकर जीता है। और देने की बात भी नहीं करता कभी कि आपको कुछ दिया है। ऐसे उपाय करता है कि आपको लगे कि आपने ही उसे कुछ दिया।
करुणा ही उसकी क्रीड़ा है
बस एक हीवह भी क्रीड़ा है। यह बहुत मजेदार बात है। यह नहीं कहा कि करुणा ही उसका काम है। इट इज नाट ए वर्कबट ए प्ले। काम नहीं है करुणाखेल हैक्रीडा है।
क्रीड़ा और काम में क्या फर्क हैकुछ बुनियादी फर्क है। एक तो यह कि काम अपने आप में मूल्यवान नहीं होताक्रीड़ा अपने आप में मूल्यवान होती है।
अगर आप सुबह घूमने निकले हैं और कोई पूछे कि किसलिए घूमने निकले हैंतो आप कहेंगे कि घूमने में आनंद हैकिसलिए नहीं। कहीं पहुंचने के लिए नहीं निकले हैं। कोई मंजिल नहीं हैकोई गंतव्य नहीं है। फिर उसी रास्ते से आप अपने दफ्तर जाते हैं। तो कोई आदमी पूछता हैबड़े आनंद से टहल रहे हैं! तो आप कहते हैंटहल नहीं रहा हूं र दफ्तर जा रहा हूं। और कभी आपने खयाल किया कि रास्ता वही होता हैआप वही होते हैं। सुबह जब टहलने निकलते हैंतब पैरों का आनंद और हैऔर जब उसी रास्ते से दफ्तर की तरफ जाते हैंतब छाती पुर पत्थर और है। रास्ता वहीपैर वहीचलना वहीआप वहीसब वही। सिर्फ एक बात बदल गई कि अब चलना काम हैऔर तब चलना खेल था।
जो बुद्धिहीन हैंवे अपने खेल को भी काम बना लेते हैंजो बुद्धिमान हैंवे अपने काम को भी खेल बना लेते हैं।
ऋषि कहता हैक्रीड़ा है करुणा उनकी।
वह भी काम नहीं है। वह भी कोई बोझ नहीं है। वह भी कुछ ऐसा नहीं है कि बुद्ध ने तय ही कर रखा है कि इतने लोगों का निर्वाण करवाकर रहेंगे। अगर न हुआतो बड़े दुखी होंगेबड़े पीडित होंगेबड़े पछताएंगे। बुद्ध ने कुछ तय नहीं कर रखा है कि आपका अज्ञान तोड़कर ही रहेंगेनहीं टूटा तो छाती पीटकर रोके। खेल हैआनंद है कि आप जग जाएं। न जगेंआपकी मर्जीबात समाप्त हो गई। खेल पूरा हो गया।
तो एक व्यक्ति भी न जगे बुद्ध के प्रयासों सेतो भी बुद्ध उसी आनंद से परिभ्रमण करते विदा हो जाएंगे। उस आनंद में कोई फर्क न पड़ेगा। बुद्ध का आनंद था कि वे बांट दें। नहीं लियावह जिम्मा आपका है। उसके लिए उन्हें पीड़ित होने का कोई भी कारण नहीं।
इसलिए कहाक्रीड़ा। खेल बन जाए तो फिर आनंद है और काम बन जाए तो बोझ है। तो फिर बुद्ध मरते वक्त हिसाब रखेंगे कि इतने लोगों से कहाकिसी ने लियानहीं लिया! इतने लोगों को समझायाकोई समझानहीं समझा! नहीं तो मेरा श्रम व्यर्थ गया।
ध्यान रखिएकाम अगर पूरा न होफल न लाएतो श्रम व्यर्थ चला जाता है। लेकिन क्रीड़ा का श्रम कभी व्यर्थ नहीं जातावह तो क्रीड़ा में ही पूर्ण हो गया। कोई फल का सवाल नहीं। और इसलिए भी क्रीड़ा कहा कि सिर्फ क्रीड़ा ही फलाकांक्षा से मुक्त हो सकती है। काम कभी भी फलाकांक्षा से मुक्त नहीं हो सकता।
कृष्ण ने गीता में फलाकांक्षारहित कर्म की बात कही है। यह उपनिषद का ऋषि ज्यादा ठीक शब्द का प्रयोग कर रहा हैकृष्ण से भी ज्यादा ठीक शब्द का। क्योंकि फलाकांक्षारहित कर्म...। कर्म होगा तो उसमें फलाकांक्षा हो जाएगीया फिर कर्म का अर्थ क्रीड़ा करना पड़ेगा।
इसलिए इस ऋषि ने राह नहीं कहा कि करुणा उनका कर्म है। कहाकरुणा उनकी केलिउनका खेल है। कहीं कोई आकांक्षा  उससे तृप्त होने को नहीं है। कहीं कोई इच्छा भविष्य में पूरी होने के लिए यात्रा पर नहीं निकली है। किसी वासना का तीर प्रत्यंचा पर नहीं चढ़ा है। कोई लक्ष्य नहीं हैजिसे वेध डालना है। नहींबस यह मौज है। यह भीतर आनंद भर गया हैयह बाहर बिखरना चाहता हैलुटना चाहता है।
जैसे फूल खिल गए हैं वृक्ष पर और उनकी सुगंध रास्ते पर गिरती हैयह क्रीड़ा है। वृक्ष इसकी चिंता में नहीं है कि कौन निकलता है नीचे से। और जो निकलता है वह वी आई पी है या नहींकोई प्रतिष्ठित आदमी निकलता है कि कोई गरीब मजदूर निकलता हैकि आदमी निकलता है कि गधा निकलता है। वृक्ष को कोई मतलब नहीं है। गधे को भी वृक्ष अपने फूल की सुगंध वैसे ही दे देता हैजैसा (रक राजनैतिक नेता नीचे से निकले तो उसको भी दे। कोई भेद नहीं करता। और कोई नहीं निकलतानिर्जन हो जाता है रास्तातो भी फूल की सुगंध गिरती रहती है। क्योंकि यह फूल का अंतर—आनंद हैयह किसी के प्रति प्रेरित नहीं हैइट इज नाट एड्रेस्ट। यह जो सुगंध हैइस पर किसी का पता नहीं लिखा है कि इसके पास पहुंचे। अनएड्रेस्टयह किसी के प्रति नहीं है। यह तो फूल का अंतर—आविर्भाव है। यह तो भीतर उसके प्राणों में जो सुगंध बढ़ गई हैउसे वह लुटा दे रहा है। हवाएं ले जाएंगी। खाली खेतों में पड़ जाएगीनिर्जन रास्तों पर लुट जाएगी। आनंद इसे लुटा देने में है।
एक बहुत अदभुत घटना मैंने सुनी है। सुना है मैंनेएक बहुत बड़ा मनोचिकित्सकविल्हेम रेकअभी पश्चिम में जो थोड़े से कीमती आदमी इस आधी सदी में हुए उनमें से एक। और जो होता है कीमती आदमियों के साथ—विल्हेम रेक को दो साल तो आखिर में जेलखाने में रहना पड़ा। और जो आदमी कम से कम पागल थाअमरीका के समाज और कानून ने उसे पागल करार देकर अंतत: पागलखाने में डाल दिया। हमारे ढंग नहीं बदलते। हजारों साल बीत जाएंहम वही करते हैं। उसमें कोई फर्क नहीं होता। विल्हेम रेक एक मरीज का इलाज कर रहा था—एक बीमारमानसिक बीमार का। उसका मनोविश्लेषण कर रहा था। तीन बजे का उसे वक्त दिया थातीन बजे नहीं आया मरीज। सवा तीन बज गएघड़ी देखी। ठीक सवा तीन बजे मरीज भागा हुआ अंदर आया। उसने कहाक्षमा करनामुझे थोड़ी देर हो गई। विल्हेम रेक ने कहायू केम जस्ट इन टाइमअदरवाइज आई वाजू टु बिगिन माई वर्क। इसका इलाज कर रहा हैइसकी मनोचिकित्सा कर रहा है। विल्हेम रेक ने कहा कि तुम ठीक वक्त पर आ गएसमय के भीतर आ गए नहीं तो मैं अपना काम शुरू करने वाला था।
उस मरीज ने कहालेकिन जब मैं आता ही नहींतो आप काम कैसे शुरू करतेमेरा ही तो मनोविश्लेषण होना है! फूल निर्जन में सुगंध डाले तो हमारी समझ में आ सकता हैलेकिन विल्हेम रेक अगर बिना मरीज के मनोविश्लेषण शुरू कर देतो हम भी कहेंगेपागल है। विल्हेम रेक ने कहा कि तू तो सिर्फ निमित्त है। तू नहीं भी आतातो काम तो हम शुरू कर ही देते। वह हमारा आनंद है।
यह समझना कठिन होगा। फूल को समझ लेना आसान हैक्योंकि फूल को हम पागल नहीं सोच सकते। आदमी को समझना कठिन है। ऐसा हो सकता हैऐसा हुआ है कि फूल की तरह निर्जन में भी जागे हुए पुरुषों की वाणी गंजी है।
लाओत्से के बाबत सुना है मैंने कि कई बार ऐसा हुआ कि वह किसी वृक्ष के नीचे बैठा है और बोल रहा है। राहगीर कोई निकलाठिठककर खड़ा हो गया। चौंककर उसने देखासुनने वाला कोई भी नहीं है। पास जाकर राहगीरों ने पूछा कि यहां कोई दिखाई नहीं पड़ता सुनने वालाआप बोल रहे हैं किससेलाओत्से कहतायह अंतर्भाव है। कोई चीज भीतर जन्म गई हैउसे बाहर डाले दे रहा हूं। अभी सुनने वाला नहीं हैशायद कभी कोई सुन ले। आज मौजूद नहीं है सुनने वालालेकिन आज बोलने की बात पैदा हो गई है। कहीं ऐसा न हो कि कल सुनने वाला हो और कहने वाला न रहेतो मैं बात छोड़े जा रहा हूं। हवाएं इसे सम्हाले रखेंगीआकाश इसका स्मरण रखेगा और कभी कोई जब सुनने को तैयार होगातो सुन लेगा।
यह कठिन होगा समझना हमें। लेकिन यही है। अब ऐसे लोग काम से नहीं जीतेऐसे लोग क्रीड़ा से जीते हैं। इन्हें जीवन एक बोझ नहींएक नृत्य है।
ऋषि कहता हैआनंद ही उनकी माला है।
आनंद ही उनकी माला। वे और कुछ नहीं पहनतेआनंद की ही माला पहने रहते हैं। उसमें आनंद के ही गुरिए हैंउसमें आनंद का ही धागा पिरोया हुआ है। वे प्रतिक्षण अहोभाव में जीते हैं—प्रतिपल। कोई ऐसी परिस्थिति नहीं हैजो उन्हें दुख में डाल सके।
हम परिस्थिति से दुखी होते हैंपरिस्थिति से सुखी होते हैं। कारण होता है हुमारे दुख का और कारण होता है हमारे सुख का।
ध्यान रहेजब तक कारण होता है हमारे सुख का और दुख कातब तक हमें आनंद का कोई भी पता नहींक्योंकि आनंद अकारण है। कारण सब बाहर होते हैंइसलिए सुख भी बाहर होता हैदुख भी बाहर होता है। अकारण जो अवस्था हैवह भीतर होती है। इसलिए आनंद भीतर होता है।
और ध्यान रहेजो परिस्थिति पर निर्भर होकर जीता हैवह गुलाम है। वह गुलाम होगा ही। गुलाम इसलिए होगा कि परिस्थिति कभी भी बदल सकती है और उसका सुख दुख हो सकता है। और परिस्थिति कभी भी बदल सकती है और उसका दुख सुख हो सकता है। परिस्थिति उसके हाथ में नहीं। परिस्थिति मेरे हाथ में नहीं है।
आनंद ही उनकी माला है।
संन्यास में जो गए गहरेवे परिस्थिति पर निर्भर होकर नहीं जीते। उनके सुख—दुख का कोई कारण बाहर नहीं होता। बसवे आनंदित होते हैं अकारण। तब फिर परिस्थिति कुछ भी नहीं कर सकती। आग लगा दें उनमेंतो भी वे उसी आनंद में होते हैं। फूल बरसा दें उनके ऊपरतो भी वे उसी आनंद में होते हैं। भीतर उनके कोई रंच मात्र फर्क नहीं पड़ता। और जब भीतर रंच मात्र फर्क नहीं पड़ता परिस्थिति सेतभी हम बाहर सेपदार्थ से मुक्त हुएऐसा समझेंउसके पहले नहीं।
इसका यह मतलब नहीं है कि बुद्ध की छाती में छुरा आप मारेंगेतो बुद्ध के प्राण न निकल जाएंगे। बिलकुल निकल जाएंगेशायद आपसे ज्यादा जल्दी निकल जाएंगे। यह भी मतलब नहीं है कि बुद्ध के पैर में काटा गड़ेगातो खून न बहेगा। जरूर बहेगाशायद आपसे ज्यादा ही बहेगाक्योंकि बुद्ध काटे रार भी कठोर नहीं हो सकते। और छुरा भी छाती में जाएगा तो बुद्ध उसके साथ भी कोआपरेट करेंगेसहयोग करेंगे। वह और भीतर चला जाएगा। बुद्ध को जहर देंगेतो बुद्ध भी मर जाएंगे। लेकिन फिर भी भीतर कोई अंतर नहीं पड़ेगा। बुद्ध जहर से ही मरे। भूल से दिया था जहरजानकर नहीं था।
एक गरीब आदमी ने बुद्ध को निमंत्रण दिया था भोजन के लिए। और बिहार में लोग कुकुरमुत्ते को इकट्ठा कर लेते हैं। वह जो बरसात में गीली जगह मेंलकड़ी परकहीं भी पैदा हो जाता हैछतरी वर्षा कीकुकुरमुत्ताउसे इकट्ठा कर लेते हैं और सुखा लेते हैंतो वह वर्ष भर सब्जी का काम देता है। लेकिन वह कभी—कभी पायजनस हो जाता है। ऐसी गलत जगह में होतो उसमें कभी—कभी जहर हो जाता है।
एक गरीब आदमी ने बुद्ध को निमंत्रण दे दिया। बहुत रोका लोगों ने। सम्राट भी उस गांव का निमंत्रण देने आयालेकिन थोड़ी देर हो गई थी। बुद्ध ने कहाथोड़ी देर हो गईनिमंत्रण तो मैं स्वीकार कर लिया। उसने कुकुरमुत्ते की सब्जी बनाई थी। और तो उसके पास कुछ था नहीं—रोटी थीनमक थाकुकुरमुत्ते की सब्जी थी। वह जहरीली थी। कड़वा जहर था। लेकिन बुद्ध उसे खाए चले गए और उसकी सब्जी का गुणगान करते रहे। और उससे कहते रहे कि तूने कितने प्रेम से बनाई है! और कितने आनंद से बनाई है! मैंने भोजन तो बहुत जगह किएआहार बहुत सम्राटों के यहां किएलेकिन तेरे जैसा प्रेम कहीं भी नहीं था।
लेकिन घर आते हीजहां ठहरे थेनिवास पर लौटते ही पता चला कि जहर फैलना शुरू हो गया है। चिकित्सक बुलाए गएलेकिन देर हो गई थी। बुद्ध की मृत्यु उसी जहर से हुई।
मरने के पहले बुद्ध ने आनंद को पास बुलाकर उसके कान में कहा कि आनंदगांव में जाकर डुंडी पीट देना कि जिस व्यक्ति के घर मैंने अंतिम भोजन किया हैवह महाभाग्यवान है। क्योंकि एक तो भाग्यवान वह मां थी मेरीजिसके साथ मैंने अपना पहला भोजन लिया थाऔर उसी मां की कीमत का यह आदमी हैजिसके साथ मैंने अंतिम भोजन लिया। तो बुद्धपुरुष जिसके यहां अंतिम भोजन लेते हैंवह महाभाग्यवान है—गांव में डुंडी पीट देना।
आनंद ने कहाआप यह क्या कहते हैं! हमारे प्राण खौल रहे हैं उस आदमी के खिलाफत से। बुद्ध ने कहाइसीलिए कहता हूं र डुंडी पीट देना। नहीं तो मेरे मरने के बाद वह गरीब मुसीबत में न पड़ जाए। लोग कहीं उस पर न टूट पड़े कि तेरे भोजन से मृत्यु हो गई।
मृत्यु तो हो जाएगी जहर सेलेकिन भीतर! भीतर वही करुणावही आनंद कि वह आदमी मुसीबत में न पड़ जाए। मरते हुए बुद्ध को फिक्र यही है कि कहीं उसके नाम के साथ निंदा का स्वर न जुड़ जाए। कहीं इतिहास ऐसा न लिख दे कि उस गरीब आदमी पर ही पाप चला जाए कि उसी ने हत्या करवा दी। भीतर अंतर नहीं पड़ता। आनंद ही उनकी माला है। आनंद ही उनका अस्तित्व है।
गुह्य एकांत ही उनका आसन है— एकासन गुहायाम्।
इसमें दो शब्द समझ लेने जैसे हैंगुह्य और स्वात। अगर सच में ही एकांत खोजना हैतो स्वयं के भीतर खोजे बिना नहीं मिलेगा। कहीं भी चले जाए—पहाड़ पर जाएंकैलाश पर जाएंजंगलों में जाएंगुफाओं में जाएं—कहीं भी जाएंस्वात नहीं मिलेगा। जो बाहर एकांत को खोजता हैवह एकांत को पा ही नहीं सकेगा। जाएं कहीं भीदूसरा सदा मौजूद होगा। आदमी न होंगेपशु—पक्षी होंगे। पशु—पक्षी न होंगेपौधे—वृक्षपत्थर की चट्टानें होंगी। लेकिन दूसरा मौजूद होगा। दूसरे से बचने का बाहर कोई उपाय नहीं। एक ही जगह हैअंतर—गुहा। भीतर एक गुह्य स्थान हैजहां स्वयं के अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। वहीं एकांत है।
ऋषि कहता हैएकासन गुहायाम्।
वह जो अंतर की गुहा हैउस एकांत में ही प्रवेश कर जाना उनका आसन है। वे इसी आसन को खोजते हैं।
हम आसन जानते हैंयोगासन हम जानते हैं। कोई सिर के बल खड़ा हैकोई शीर्षासन कर रहा हैकोई सिद्धासन कर रहा है। लेकिन ऋषि कहता हैये आसन उनके आसन नहीं हैं। ये भी बाहर की क्रियाएं हैं। उपयोगी हैंहितकर हैंउनसे लाभ ही होता है। लेकिन ये उनका आसन नहीं हैं जो परम गति में प्रवेश करना चाहते हैं। उनका आसन तो एक ही हैस्वयं की ही गुहा में अकेले बच रहना। वही एकासनवही एकांतजहां मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
और ध्यान रहेयह बहुत मजे की बात हैजहां मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं हैवहां मैं भी नहीं बचता हूं। मुझे बचने के लिए दूसरे का होना जरूरी है। क्योंकि मैं दूसरे का ही छोर हूं। अगर तू न बचे तो मैं के बचने के कोई उपाय नहीं हैं। तू को देखकर ही मैं जन्मता है।
इसीलिए तो आप भीड़ को खोजते हैं। हर आदमी भीड़ को खोजता है। क्योंकि भीड़ में जितना मैं मालूम पड़ता हैउतना अकेले में... अकेले में बिखर जाता है। बड़ी भीड़ आपके ऊपर नजर रखेतो आपका मैं बहुत संगठित हो जाता हैबहुत क्रिस्टलाइब्दमजबूत हो जाता है। नेतृत्व का रस यही है कि लाखों लोगों की आंखें  मुझ पर हैं। तो मेरा मैं मजबूत हो जाता है। कोई देखने वाला नहींकोई तू नहींतो मैं के बचने का कोई उपाय नहीं।
मैं एक रिएक्यान हैएक प्रतिक्रिया हैतू के सामने प्रतिध्वनि है। तो जहां मेरे भीतर मैं पहुंचूं अकेले मेंनितांत एकांत मेंकोई भी न बचेदूसरा रहे ही नदुई हो ही नद्वैत का पता ही न चलेदूसरा मिट ही जाएभूल ही जाएतो ध्यान रखनावहा मैं भी न बचूँगा।
दूसरे के गिरते ही मैं भी गिर जाता है। तब सिर्फ गुह्य एकांत रह जाता है। वहा न तू होता हैन मैं होता है। वहा न कोई अपना होता हैन पराया होता है। स्वयं भी होना नहीं होता। अहंकार भी वहा नहीं है। ऐसे गुह्य एकांत को ऋषि कहता है आसन। यही है आसन लगाने जैसा। यही है जिसमें बैठें और जिसमें डूबे और जिसमें जीएं और जिसके साथ एक हो जाएं।
मुक्तासन सुख गोष्ठी— मुक्त आनंद ही उनकी सुख गोष्ठी है।
मुक्त आनंद ही उनकी चर्चा हैमुक्त आनंद ही उनका उपदेश हैमुक्त आनंद ही उनकी चर्या है। मुक्त आनंद तभी संभव हैजब मैं इतना अकेला हो जाऊं कि मैं भी न बचूं। अगर दूसरा मौजूद हैतो बंधन जारी रहेगा। अगर मैं भी मौजूद हूं तो बंधन जारी रहेगा। न तू बचेन मैं बचूं र तो वहां चेतना मुक्त हो जाती है, सब बंधन से बाहर हो जाती है। उस मुक्त आनंद को ऋषि ने कहा हैवही उनकी गोष्ठी है। वही उनका सत्संग है। उस आनंद के साथ ही उनकी चर्चाउस आनंद के साथ बिहरना ही उनकी चर्याउस आनंद में जीना ही उनका जीवन। इतना अकेला हो जाना कि जहां मैं भी न बचूं।
अपना भी साथ होता है। कभी आपने खयाल किया कि जब कोई और बात करने को नहीं मिलता है तो आप अपने से ही बात करते हैंकभी आपने खयाल किया कि लोग ताश के पत्तों का खेल तक खेलते हैंजिसमें दोनों तरफ से चालें वे ही चलते हैंकोई खेलने वाला न मिलेतो क्या करिएगा! तो ताश के पत्ते बिछाकर आदमी दोनों तरफ की चालें चलता है—अकेला खुद ही।
आप भी चौबीस घंटे इस तरह की चालें चलते हैं। आपके भीतर निरंतर डायलाग चलता है। दो तो नहीं हैं वहांइसलिए डायलाग होना नहीं चाहिए। दूसरा हो तो बातचीत चलनी चाहिएआप अपने से ही बातचीत चलाते हैं। आप ही चोर बन जाते हैंआप ही मजिस्ट्रेट भी बन जाते हैं। भीतर बड़ा नाटक चलता है। करीब—करीब आप सभी का अभिनय भीतर कर लेते हैं। आप वह भी कहते हैंजो आप कहना चाहते हैं। आप वह भी कहते हैंजिससे आप कहना चाहते हैंउसकी तरफ से जवाब भी देते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक ट्रेन में यात्रा कर रहा है। बीच —बीच में अकारण खिलखिलाकर हंस पड़ता है। फिर चुप हो जाता है। आसपास के लोग चौकन्ने हो गए हैं कि आदमी कुछ अजीब है। कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। खाली बैठा हैआंखें बंद किए है। फिर एकदम से खिलखिलाकर हंसता है। फिर चुप हो जाता है। सम्हलकर फिर बैठ जाता है। आखिर नहीं रहा गया। जिज्ञासा बढ़ी। एक आदमी ने हिम्मत कीजरा हिलाया और कहामहानुभाव! मामला क्या हैअचानक खिलखिला पड़ते हैंनसरुद्दीन ने कहाबाधा मत डालो। आई एम टेलिग जोक्स टु माइसेल्फ। मैं अपने आपसे जरा कुछ मजाक की बातें कर रहा हूं।
फिर उसने आंख बंद कर ली। फिर वह बीच—बीच में खिलखिलाकर हंसता रहा। फिर कभी—कभी ऐसा भी होता कि हंसता तो नहींऐसा झिड़कता—हे। आखिर फिर उनकी जिज्ञासा बढ़ी कि बात क्या है! फिर उसने पूछा बगल के आदमी ने कि महानुभावहंसते थेठीक थायह कोई चीज झिड़क देते हैं बीच—बीच में! तो उसने कहासम ओल्ड जोक। सुन चुके कई दफाकह चुके कई दफावह बीच में आ जाता है।
पूरे समय हमारे भीतर भी यही चल रहा है। अकेले नहीं हैं हम अकेले होकर भी। अपने को बांट लेते हैं। बड़ा मजा हैबांट—बांटकर बातचीत चलती रहती है। जरा इस भीतर की चर्चा पर खयाल करना। ऋषि की—इतना अकेला हो जाता हैइतना अकेला कि—अपने से भी बात नहीं हो सकती अब। अब तो आनंद ही चर्चा है। अब तो आनंद ही भीतर स्पंदित होता रहता है। कोई नहीं बचा। आनंद अकेला बच गया। वही नृत्य करता हैवही नाचता है। बस वही गोष्ठी है।
अकल्पित भिक्षाशी।
यह बहुत जरूरी बात हैसमझने जैसी।
अकल्पित भिक्षाशी।
संन्यासी जो हैवह परमात्मा पर छोड्कर जीता है अपने को। योजना करके नहीं जीता। अनप्लैंडअनायोजित उसका जीवन है। सुबह उठता हैभूख लगती है तो भिक्षा मांगने निकल जाता है। यह भी पता नहीं कि भिक्षा मिलेगी! यह भी पता नहींभिक्षा में क्या मिलेगा! यह भी पता नहींकौन देगा! अकल्पितउसकी कोई कल्पना भी नहीं करता। अगर कल्पना भी करेतो फिर वह संन्यासी की भिक्षा न रही। अगर वह सुबह से यह भी सोच ले कि आज फलां चीज खाने में मिल जाएतो वह भिक्षा न रही फिर संन्यासी की। वह भिखारी की भिक्षा हो गई।
अकल्पित...।
भूख लगती हैनिकल पड़ता है। किसी के द्वार पर खड़ा हो जाता है। कोई दे देता है ठीकअन्यथा आगे बढ़ जाता है। जो दे देता हैठीक। जो मिल जाता हैले लेता हैस्वीकार कर लेता है। न कोई कल्पना हैन कोई योजना है। नहींपहले से खबर भी नहीं देता कि कल आपके घर भोजन करने आऊंगा। क्योंकि अगर ऐसी खबर देतो वह आयोजित हो जाएगी। अनायोजित जीता है। मानना यह है कि यदि अस्तित्व को जिलाना हैतो जिलाएगा। हम अपनी तरफ से कौन हैं!
मोहम्मद सांझ को जो भी उन्हें मिलता थाबंटवा देते थे। दिनभर लोग चढ़ा जातेभेंट दे जातेवह सांझ सब बांट देते। फिर भिखारी हो जाते। रात भिखारी ही सोते। सुबह फिर कोई दे जाता।
मोहम्मद बीमार थेतो पत्नी ने सोचा मोहम्मद की कि रात दवा की जरूरत पड़ सकती हैवैद्य बुलाना पड़ सकता हैतो पांच दीनारपांच रुपएछिपाकर रख लिए।
आधी रात मोहम्मद करवट बदलने लगे। और मोहम्मद ने कहासुन—अपनी पत्नी को कहा —मुझे ऐसा लगता है कि इस मरते क्षण में मैं भिखारी नहीं हूं।
पत्नी तो बहुत घबरा गई। उसने कहाआपको कैसे पता चला?
मोहम्मद ने कहाजिंदगीभर का भिखारीरात बिना कुछ के सोया हूं सदा। आदत बिगड़ गई। लगता हैघर में कुछ आज बचा हुआ है। तू निकाल लाउसे बांट दे। अन्यथा मैं परमात्मा के सामने क्या जवाब दूंगा कि आखिरी दिन भरोसा खो दिया! और जिसने जिंदगीभर बचायावह रात को वैद्य नहीं भेज सकता थाऔर जिसने जिंदगीभर भोजन दियावह रात को दवा नहीं दे सकता थाआखिरी वक्त मुझे परेशानी में मत डाल। अब मरने के वक्त जब मैं उसके सामने जाऊंगा तो क्या मुंह लेकर जाऊंगावह मुझसे पूछेगामुझे छोड्कर पांच रुपए पर भरोसा कियातो मैं तुझे कमजोर और पांच रुपए ज्यादा ताकतवर मालूम पड़ेजब जरूरत न थीतब मैं तुझे सहयोगी लगता था और जब जरूरत पड़ीतो रुपया सहयोगी हुआ! वह निकाल ले।
पत्नी घबराकर रुपए बाहर निकाल लाई। मोहम्मद ने कहाजा बाहर देख।
बड़ी हैरान हुई पत्नी कि सामने एक भिखारी खड़ा था। उस भिखारी ने कहा कि मैं तो सोचता था —बहुत जरूरत पड़ गई हैसाथी मेरा बीमार पड़ा है और दवा की जरूरत है—तो मैं सोचता थाआधी रात कौन देगाअपने आप दरवाजा खुल गया और ये पाच रुपए तू दे रही है! मोहम्मद ने अपनी पत्नी को कहादेखउसके रास्ते अनूठे हैं। जिसको जरूरत थीउसको मिल गईऔर जिसने बचायाउसके हाथ से जा रही है।
और जैसे ही वे रुपए दे दिए गएमोहम्मद ने चादर ओढ़ ली और अपनी पत्नी से कहाअब मैं निश्चित मर सकता हूं। और चादर ओढ़कर तत्क्षण उनकी श्वास निकल गई। जो जानते हैंवे कहते हैंवह श्वास अटकी ही इसलिए रही। वे पांच रुपए बहुत भारी पड़े। वे बहुत वजनी थे।
अकल्पित भिक्षाशी।
संन्यासी कल्पना नहीं करता—भिक्षा की ही नहींकिसी चीज की कल्पना नहीं करता। किसी चीज की योजना नहीं बनाकर चलता। यह मिल जाएऐसा कोई सवाल नहीं है। जो मिल जाएउसके लिए धन्यवाद। और जो न मिलेउसके लिए भी उतना ही धन्यवाद। इतना अर्थ है कि अपने से नहीं जीता, परमात्मा पर छोड्कर जीता है। परमात्मा जहां ले जाएवहीं चला जाता है। दुख में तो दुख मेंसुख में तो सुख में। महलों में तो महलों में सही और झोपड़ों में तो झोपड़ों में सही। परमात्मा जहां ले जाएउसके हाथ में छोड़ देता है अपने को।
छोटे बच्चे को देखा कभीबाप का हाथ पकड़कर रास्ते पर चलता होता हैतो फिर बिलकुल फिक्र नहीं करता वह—कहां जा रहा हैकहा ले जाया जा रहा हैजब बाप के हाथ में हाथ हैतो बात खतम हो गई।
अकल्पित भिक्षाशी।
जब परमात्मा के हाथ में छोड़ दिया सबतो अब बात खतम हो गई। वह जो करवाएवही ठीक है। उसी के लिए मन राजी हैउसकी स्वीकृति है।
हंस जैसा उसका आचार है। हंसाचार।
हंस जैसा उसका आचरण है। हंस के आचरण की दो खूबियां हैंवह खयाल में ले लें। तो वह संन्यासी के आचरण की खूबियां हैं।
एक तो मैंने आपसे पीछे कहा कि हंस की यह कल्पित क्षमता है—वैज्ञानिक न भी हो—काव्य क्षमता है कि वह पानी और दूध को अलग कर लेता है। असार और सार को अलग कर लेता है। वह जो विवेक है संन्यासी का जागा हुआवह तलवार की तरह असार को और सार को काटकर अलग कर देता है। जस्ट लाइक ए सोर्ड—तलवार की तरह दो टुकड़े में कर देता है।
हंस की एक दूसरी क्षमता हैवह भी काव्य क्षमता है। वह है कि हंस मोती के अतिरिक्त और कुछ आहार नहीं लेता। मर जाए मोती ही चुनता है। तो संन्यासी भी मर जाए पदार्थ नहीं चुनतापरमात्मा ही चुनता हैहर हालत में। हर हालत में चुनाव उसका मोतियों का हैकंकड़—पत्थरों का नहीं है। मौत के लिए राजी हो जाएगालेकिन कंकड़—पत्थरों के लिए राजी नहीं होगा। श्रेष्ठ का ही उसका चुनाव है। शभ कासुंदर कासत्य का ही उसका चुनाव है। यह जो हंस की क्षमता हैयही संन्यासी का आचरण है।
और अंतिमसर्व प्राणियों के भीतर रहने वाला एक आत्मा ही हंस है— इसको ही वे प्रतिपादित करते हैं।
और जीवन सेशब्दों सेवाणी सेआचरण से एक ही बात वे प्रतिपादित करते हैंसबके भीतर जो बसा हैवह ऐसा ही परमहंस है। सबके भीतर ऐसी ही आत्मा का आवास है। सबके भीतर ऐसी ही चेतना की धारा प्रवाहित हो रही है। जो जानते हैंउनके भीतर भी और जो नहीं जानते हैं उनके भीतर भी। जो अपने आप आंख बंद किए खड़े हैंउनके भीतर भी वही परमात्मा हैजो द्वार बंद किए हैंउनके भीतर भीजो खोलकर आंख देखते हैंउनके भीतर भी। फर्क भीतर के परमात्मा का नहीं हैफर्क भीतर के परमात्मा से परिचित या अपरिचित होने का है।
परम ज्ञानी में और परम अज्ञानी में जो फर्क हैवह स्वभाव का नहीं हैवह फर्क केवल बोध का हैअवेयरनेस का है।
मैं हूं खीसे में हीरे पड़े हैं और मुझे पता नहीं। आप हैंआपके खीसे में हीरे पड़े हैं और आपको पता है। जहा तक संपदा का संबंध हैहम दोनों में कोई भी भेद नहीं है। लेकिन फिर भी मैं निर्धन रहूंगाक्योंकि मुझे अपनी संपदा का कोई पता ही नहीं है। और आप धनवान रहेंगेक्योंकि आपको अपनी संपदा का पता है। और फिर भी संपदा मेरे पास उतनी ही हैजितनी आपके पास है।
लेकिन उस संपदा का क्या मूल्यजिसका हमें पता ही न हो! उस तिजोरी का क्या मूल्यहमें मालूम ही न हो कि वह तिजोरी है! उस हीरे का क्या करिएगाजिसको हम पत्थर समझकर और घर के एक कोने में डाल रखे हैं! पर इससे फर्क नहीं पडता। वह संपदा हमारी है।
यही ऋषि उपदेश करते हैं। यही वे समझाते रहते हैं—अहर्निशसब रूपों मेंसब भांतिसब प्रकार से एक ही बात समझाते रहते हैं कि जो उनके भीतर हैवही तुम्हारे भीतर भी है। और सबके भीतर वही है। यह भरोसा एक बार आ जाएयह ट्रस्ट एक बार आ जाए कि मेरे भीतर भी वही हैतो शायद मैं छलांग लगाने के लिए तैयार हो जाऊं।
शायद यह स्मरण एक बार आ जाए कि वही मेरे भीतर भी हैतो शायद मैं खोज पर निकल जाऊं। खोदने के लिए तैयार हो जाऊं। कोई कह दे कि वह खजाना मेरे घर के नीचे भी गड़ा हैतो शायद मैं कुदाली उठा लूं। आलसी आदमी हूं सोया पड़ा रहता हूं लेकिन खजाने की याददाश्त कोई दिला देतो शायद मैं आलसीपड़ा रहने वालासोने वाला भी उठ आऊं। दो—चार हाथ चलाऊतो शायद नीचे के घड़ों की आवाज आने लगे। और थोड़ा आगे बढुं तो शायद घड़े मिल जाएं। घड़ों को फोडु तो शायद खजाना मिल जाए।
तो ऋषि निरंतर कहते रहते हैं। उनकी श्वास—श्वास एक ही बात बन जाती है कि वह याद दिलाते रहें लोगों को कि वह परमहंस सबके भीतर छिपा हुआ है।

आज इतना ही।

अब हम उस खजाने की खोज पर निकलेंगे। उस परमहंस को थोड़ा खोजें—सच में छिपा हैनहीं छिपा है?
दो —तीन बातें खयाल में ले लें। फिर उठें। दो—तीन बातें समझ लें।
कल का रात का प्रयोग तो ठीक हुआलेकिन दों—तीन छोटी—छोटी भूलें थींवे आज न होंइसका खयाल रखें। एक तो जिन लोगों को भी खड़ा रहना होजिन्हें ऐसा लगता हो कि उनसे कूदना नहीं हो सकेगा—लगना तो नहीं चाहिएथोड़ी कुदाली चलाएंथोड़ा कूदेथोड़ा श्रम करें—फिर भी जिन्हें लगता हो कि वे खड़े ही रहेंगेतो. मेरे सामने खड़े न हों। क्योंकि उनकी वजह से आसपास जो लोग हैंउनकी गति भी क्षीण होती है। फिर वे पीछे चले जाएं। जिनको ऐसा लगता हो कि कुछ भी करके हमसे नाचना न हो सकेगावे पीछे खड़े हों।
मेरे सामने और चारों तरफ—मेरे पीछे और मेरे दोनों तरफ—तों वे लोग होंजो पूरी शक्ति से कूदने वाले हैं। उनका कूदना संक्रामक हो जाना चाहिएलहरें बन जानी चाहिएतो जो पीछे खड़े हैं उनको भी शायद थोड़ी हिम्मत आ जाए। वे भी शायद इंफेक्यान में आ जाएं और उनसे भी शायद दौड़ शुरू हो जाए।
लेकिन मेरे सामने कोई व्यक्ति ऐसा न खड़ा रहे। क्योंकि उसके कारण अवरोध पैदा होता है। अगर एक व्यक्ति खड़ा हैतो चार—पांच व्यक्तियों के आसपास के घेरे को वह खराब करता है। जिनको खड़ा होना हैवे पीछे चले जाएं। जब खड़ा ही होना हैतो पीछे खड़ा होना बेहतर है। यहां तो खड़े हों जिनकी पागल होने की पूरी इच्छा हो।
दूसरी बाततीस मिनट तक तो मेरी तरफ अपलक आंख रखनी हैं। पलक झपानी ही नहीं है। साथ में कूदना हैचिल्लाना हैआनंदित होना है और हू की आवाज करनी है—पूरे तीस मिनट। पहले दो मिनट तो गहरी श्वास ले लेंताकि शक्ति जग जाए। पहले जोर से श्वास ले लेंफिर हम प्रयोग शुरू करें।
ओशो

3 टिप्‍पणियां:

  1. स्वामी जी ,
    नमस्कार

    आपको पढ़ते पढ़ते तो मैं आपका मुरीद हो गया हूँ। एक कहानी " आसक्ति से विरक्ति की ओर " लिख दी। अब पिछले तीन दिनों से ओशो पर कुछ लिखने की चाह मन में आ रही है। लेकिन उन पर लिखूं तो क्या लिखूं। वो एक युग-पुरुष है।
    आप ही मुझे कुछ गाइडेंस दीजिये।
    आपका आभारी रहूँगा

    आपका
    स्वामी प्रेम विजय

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  2. कृपया मुझे ईमेल भेजियेंगा : vksappatti@gmail.com
    आपका धन्यवाद.
    विजय

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