निस्त्रैगुण्य
स्वरूपानुसंधानम्
समय भ्रांति
हरणम्।
कामादि
वृत्ति
दहनम्।
काठिन्य
दृढ़ कौपीनम्।
चिराजिनवास:।
अनाहत
मंत्रम्
अक्रिययैव
जुष्टम्।
स्वेच्छाचार
स्वस्वभावो
मोक्ष:।
इति
स्मृते:।
परब्रह्म
प्लव
वदाचरणम्।
त्रयगुणरहित
स्वरूप के
अनुसंधान में
तथा भ्रांति
के भंजन में
समय व्यतीत
करना।
कामवासना
आदि
वृत्तियों का
दहन करना।
सभी
कठिनाइयों
में दृढ़ता ही
उनका कौपीन
है।
अनाहत जिनका
मंत्र और
अक्रिया
जिनकी प्रतिष्ठा
है।
ऐसा
स्वेच्छाचार
रूप
आत्मस्वभाव
रखना—यही
मोक्ष है।
और
यही स्मृति का
अंत है।
परब्रह्म
में बहना
जिनका आचरण
है।
भ्रांति
भंजन, कामादि
वृत्ति दहन, अक्रिर्या
में प्रतिमा और
अक्रिया में
प्रतिष्ठा
संन्यासी
करता क्या है? गृहस्थ तो
संसार बसाता
है, निर्माण
करता है
स्वभों का, आरोपण करता
है विचारों का,
माया का, मोह का, ममता
का। संन्यासी
क्या करता है?
गृहस्थ को
तो ऐसा दिखाई
पड़ता है कि
संन्यासी कुछ
भी नहीं करता,
भगोड़ा है, एस्केपिस्ट
है। क्योंकि
जो—जो गृहस्थ
करता है, वह
तो संन्यासी
नहीं करता है।
संन्यासी भी
कुछ करता है।
इस
सूत्र में ऋषि
कहता है, त्रयगुणों
से रहित
स्वरूप के
अनुसंधान में
तथा भ्रांति
के भंजन में
समय व्यतीत
करता है।
गृहस्थ
से ठीक उलटी
यात्रा है
संन्यासी की।
गृहस्थ, तीन
गुणों का जो
फैलाव है, उसमें
ही डूबा रहता
है। कभी रज
में, कभी
तम में, कभी
सत्व में। कभी
अच्छे में, कभी बुरे
में, कभी
आलस्य में।
संन्यासी उन
तीनों के पार
चौथे में चलने
की चेष्टा में
संलग्न होता
है।
यहा एक
बात समझ लेनी
जरूरी है।
सत्व, शुभ
जिसे हम कहें,
संन्यासी
उसके भी पार
चलने में लगा
रहता है। अशुभ
जिसे हम कहते
हैं, उसके
पार तो वह
जाता ही है, लेकिन जिसे
हम शुभ कहते
है, संन्यासी
उसके भी पार
जाने में लगा
रहता है। यह
थोड़ा समझना
कठिन मालूम
पड़ेगा।
यह तो
ठीक है कि
अशुभ के हम
पार जाएं, यह तो ठीक है
कि बुराई का
त्याग हो, लेकिन
संन्यासी
भलाई का भी
त्याग करता है।
क्योंकि ऋषि
की दृष्टि यह
है कि जब तक
भला भी न छूट
जाए, तब तब,
बुरा पूरी
तरह नहीं
छूटता, क्योंकि
बुरा और भला
एक ही चीज के
दो पहलू हैं।
ऋषि की यह
दृष्टि है कि
अगर भले आदमी
को यह भी याद
रह जाए कि मैं
भला आदमी हूं तो
उसके भीतर
बुराई दबी पड़ी
रह जाती है।
वस्तुत: भला
आदमी वह है, जिसे यह भी
पता नहीं रह
जाता कि मैं
भला आदमी हूं।
भलाई छूट जाती
है। भलाई छूट
जाती है, इसका
यह अर्थ नहीं
है कि वह भला
करना बंद कर
देता है। भलाई
छूट जाती है, इसका अर्थ
यह है कि भलाई
वह अपनी तरफ
से नहीं करता,
उससे जो भी
होता है, वह
भला है। सत्व
के भी पार चला
जाना सन्यास
है।
यह
बहुत मौलिक क्रांति
की बात है।
जगत में बहुत
तरह के विचार
पैदा हुए, लेकिन सत्व
के पार ले
जाने वाला
विचार सिर्फ इस
भूमि पर पैदा
हुआ है। जगत
में जो भी
विचार पैदा
हुए हैं, वे
सब सत्य तक ले
जाने की आकांक्षा
रखते हैं कि
आदमी अच्छा हो
जाए। लेकिन
भारतीय मनीषा
की यह समझ है
कि आदमी अच्छा
हो जाए, यह
अंत नहीं है।
आदमी अच्छे के
भी पार हो जाए,
यही अंत है।
क्योंकि इस
बात की स्मृति
भी कि मैं
अच्छा हूं
अच्छा कर रहा
हूं अस्मिता
है, अहंकार
है, इगो है
और
ध्यान रहे, जहर कितना
ही शुद्ध हो
जाए; इससे
जहर नहीं रह
जाता, ऐसा
समझने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। सच तो यह
है—सच उलटा है—कि
शुद्ध होकर
जहर और जहरीला
हो जाता है।
बुरे
आदमी का भी
अहंकार होता
है, अशुद्ध
होता है। बुरा
आदमी अपने
अहंकार से
परेशान भी
होता है, बुरा
आदमी अपने
अहंकार को
बुरा भी समझता
है। किन्हीं
क्षणों में
पश्चात्ताप
भी करता है।
किन्हीं
क्षणों में
उसके पार जाने
की चेष्टा भी
करता है।
लेकिन भला
आदमी अपने
अहंकार को
बुरा भी नहीं समझता।
पश्चात्ताप
का तो सवाल ही
नहीं है।
अहकार उसका
भला है।
कृष्णमूर्ति
एक शब्द का
प्रयोग करते
हैं, वह ठीक
शब्द है, पायस
इगोइस्ट, पवित्र
अहंकारी।
दोनों उलटे
मालूम पड़ते
हैं—पवित्र
अहंकारी।
अहंकारी और
पवित्र कैसे
होगा? और
जो पवित्र है
वह अहंकारी
कैसे होगा? लेकिन होता
है। जिनको
अच्छे होने की
भ्रांति पैदा
हो जाती है,' वे पवित्र
अहंकारी हैं।
लेकिन
ध्यान रखें, अहंकार
पवित्र होकर
शुद्ध जहर हो
जाता है—प्योर
पायजन। बुरा
आदमी तो थोड़ी
सी पीड़ा भी
पाता है, कांटे
की तरह चुभता
भी है कि मैं
बुरा आदमी हूं।
इसलिए बुरा
आदमी अपने
अहंकार को
उसकी पूरी शुद्धता
में खड़ा नहीं
कर सकता। उसकी
अकड़ में एक
कमी रह ही
जाती है, भीतर
ही उसके कोई
कहे चला जाता
है कि तुम
बुरे आदमी हो।
तो बुराई के
आधार पर
अहंकार का
पूरा विस्तार नहीं
हो सकता।
आधारशिला में
ही कमी रह
जाती है।
लेकिन मैं भला
आदमी हूं तब
तो अहंकार के
फैलाव की पूरी
सुविधा और
गुंजाइश है।
तब अहंकार
छतरी की तरह
छा जाता है।
बड़े सुदृढ़
आधार पर खड़ा
होता है।
भले
आदमी का जो
अहंकार है, संन्यासी के
लिए वह भी
नहीं है।
लेकिन समाज
इसका उपयोग
करता है, क्योंकि
समाज को पता
है कि आदमी को
अहंकार के पार
ले जाना अति
कठिन है।
इसलिए समाज के
पास एक ही
उपाय है कि वह
भलाई के लिए
प्रेरित करने
को आदमी के
अहंकार का
उपयोग करे।
इसलिए हम आदमी
से कहते हैं
कि ऐसा मत करो,
लोग क्या
कहेंगे! काम
बुरा है, यह
नहीं कहते।
बाप अपने बेटे
को समझाता है
कि झूठ मत
बोलना; पकड़
जाओगे, तो
बड़ी बदनामी
होगी। झूठ मत
बोलना, लोग
क्या कहेंगे!
झूठ मत बोलना,
चोरी मत
करना। हमारे
कुल में कभी
किसी ने चोरी
नहीं की।
यह सब
अहंकार को
उकसाया जा रहा
है। एक बीमारी
को दबाने के
लिए दूसरी
बीमारी को उठाया
जा रहा है।
लेकिन समाज की
अपनी कठिनाई
है। समाज अब
तक ऐसे सूत्र
नहीं खोज पाया
है कि आदमी
में भलाई का
जन्म हो सके
बिना अहंकार
के। इसलिए हम
अहंकार का
उपयोग करते
हैं और अहंकार
को भलाई के
साथ जोड़ते हैं।
इससे जो घटना
घटती है, वह
यह नहीं है कि
अहंकार भलाई
के साथ जुड़कर
भला हो जाता
हो। घटना यह
घटती है कि
अहंकार के साथ
भलाई जुड़कर बुरी
हो जाती है।
जहर की एक
खूबी है कि वह
एक बूंद भी
काफी है, सब
जहरीला हो
जाएगा।
जब हम
अहंकार को जोड़
देते हैं भलाई
से, क्योंकि
हमें दिखता ही
नहीं कि और
कोई उपाय है..।
अगर किसी आदमी
से मंदिर
बनवाना है, तो पत्थर पर
उसका नाम
खोदना ही
पड़ेगा। कोई
आदमी ऐसा
मंदिर बनाने
को राजी नहीं
है, जिस पर
उसका नाम ही न
लगे। वह कहेगा,
फिर
प्रयोजन ही
क्या रहा!
मंदिर में
किसी को रस
नहीं है। वह
जो मंदिर के
भीतर की
प्रतिमा है, उसमें किसी
को रस नहीं है,
वह जो मंदिर
के बाहर पत्थर
लगता है नाम
का, उसमें
रस है। ऐसा
नहीं है कि
मंदिर बनाए
जाते हैं और
फिर पत्थर
लगाए जाते हों।
पत्थर के लिए
मंदिर बनाए
जाते हैं।
पत्थर पहले बन
जाता है।
लेकिन मंदिर
बनवाना हो, तो वह पत्थर
लगवाना पड़ता
है, नहीं
तो मंदिर बन
नहीं सकता।
मंदिर
भी अगर हम
बनाएंगे, तो
अहंकार के लिए
हो बनाते हैं।
लेकिन कठिनाई
तो यह है कि जो
मंदिर अहंकार
के लिए बनता
है, वह मंदिर
नहीं रह जाता।
इसलिए सारी
दुनिया में
मंदिर और
मस्जिद उपद्रव
के कारण बने
हैं। क्योंकि
जहां अहंकार
है वहां सिर्फ
उपद्रव ही
पैदा हो सकता
है। होना उलटा
चाहिए था कि
मंदिर और
मस्जिद जगत में
प्रेम की
वर्षा बन जाते,
अमृत के
द्वार खोलते,
लेकिन बहुत
जहर के द्वार
उन्होंने
खोले हैं।
नास्तिकों के
ऊपर इतने
पापों का
जिम्मा नहीं है,
जितना
तथाकथित
आस्तिकों के
ऊपर है।
वोल्लेयर
ने कहीं कहा
है कि हे
परमात्मा, अगर तू कहीं
है, तो कम
से कम मंदिर
और मस्जिद तो
गिरवा दे।
तेरे होने से
हमें कोई अड़चन
नहीं, लेकिन
तेरे मंदिर और
मस्जिद बहुत
दिक्कतें दे
रहे हैं।
ठीक ही
है यह बात।
भलाई में अगर
एक बूंद भी
अहंकार का पड़
गया, तो भलाई
बुराई हो जाती
है। और समाज
जो तरकीब
जानता है, वह
एक ही है कि
अगर आपको भला
बनाना है, तो
आपके अहंकार
को परसुएड
करना पड़ता है।
आपसे कहना
पड़ता है कि
कैसे महान हो
आप, दिव्य
हो, तय
आपके भीतर रस
जन्मता है। यह
रस उसी अहंकार
में जन्म रहा
है।
इसलिए
मनोवैज्ञानिक
एक बहुत अनूठी
बात कहते हैं।
वे कहते हैं
कि जिनको हम
अपराधी कहत
हैं और जिनको
हम तथाकथित
अच्छे आदमी
कहते हैं, सज्जन कहते
हैं, इनमें
बुनियादी
फर्क नहीं
होता। दोनों
ही अटेंशन
चाहते हैं।
समाज का ध्यान
उन पर जाए, इसकी
आकांक्षा में
जीते हैं। एक
आदमी भला होकर
सड़क पर चलने
लगता है, लोगों
का ध्यान उस
पर जाए। एक
आदमी को कोई
रास्ता नहीं
दिखाई पड़ता
भला होने का, वह बुरा हो
जाता है।
अभी एक
मुकदमा था
बेल्जियम में।
एक आदमी ने
चार हत्याएं
की थीं। और
चारों अजनबी
थे, जिनकी
हत्याएं की
थीं। उन्हें
उसने हत्या
करने के पहले
कभी देखा भी नहीं
था। बस, समुद्र
के किनारे
लेटे हुए चार
आदमियों की
हत्या कर दी।
अदालत में
उसने कहा कि
मैं अखबार में
मेन हेडिंग्स
में नाम देखना
चाहता था। और
मुझे कोई उपाय
नहीं दिखता था।
महात्मा
होने में बहुत
देर लगे, और
महात्मा होना
पक्का भी नहीं
है। और कितना
ही बड़ा
महात्मा हो
जाए, सभी
लोग उसे
महात्मा कभी
स्वीकार नहीं
कर पाते। और
फिर
महात्माओं को
भी सूली लग
जाती है, इसलिए
सुरक्षित
मार्ग वह भी
नहीं है। जब
जीसस को सूली
लग जाती है और
सुकरात को जहर
मिल जाता है, तो उसने कहा,
वह भी कोई
बहुत
सुरक्षित तो
दिखता नहीं
रास्ता। समय
ज्यादा लेता
हे। भारी
कठिनाई झेलो।
बामुश्किल! और
अक्सर ऐसा
होता है कि
जिंदगीभर
मेहनत करो, मरकर ही
आदमी महात्मा
हो पाता है।
क्योंकि
जिंदा आदमी को
कोई महात्मा
कहे, तो
कहने वाले के
भी अहंकार को
चोट लगती है, सुनने वाले
के अहंकार को
पूरी चोट लगती
है। जब कोई मर
जाए, मुर्दे
को जो जी चाहे
कहो, किसी
को कोई अड़चन
नहीं होती।
नसरुद्दीन
कहता था कि
कब्रिस्तानों
में देखकर
मुझे ऐसा लगा
कि नर्क में
अब तक कोई भी
आदमी नहीं गया
होगा। क्योंकि
कब्रों पर जो
वचन लिखे हैं, प्रशस्तिया
लिखी हैं, वे
बताती हैं कि
सभी लोग
स्वर्ग गए
होंगे। मरते
ही आदमी भला
हो जाता है।
पैदा होते ही
बुरा हो जाता
है।
वोल्तेयर
का एक शत्रु
था जिंदगीभर
का। हर चीज
में मतभेद था
वोल्तेयर से
उसका। वह मर
गया। स्वभावत:, उसके शत्रु
के मित्रों ने
वोलेयर के पास
जाकर कहा कि
तुम्हारे
जिंदगीभर के
संबंध थे, कोई
वक्तव्य तुम
दोगे, तो
अच्छा होगा।
माना कि
शत्रुता थी।
वोलेयर ने
लिखकर एक पत्र
दिया, जिसमें
उसने लिखा कि
ही वाजू ए
ग्रेट मैन, ए वेरी रेयर
जीनियस, बट
प्रोवाइडेड
ही इज रिअली
डेड। बहुत
महापुरुष था
वह, बड़ा
प्रतिभाशाली
था, लेकिन
अगर मर गया हो
तो। अगर जिंदा
हो, तो यह
वक्तव्य मैं
नहीं दे सकता
हूं।
मर जाए
आदमी, तो
फिर अच्छा हो
जाता है। यही
तो दुख है
दुनिया का कि
मरा हुआ आदमी
अच्छा होता है
और जिंदा आदमी
बुरा होता है।
यह जो हम भलाई
का जाल खड़ा
किए हुए हैं, उसके भीतर
हम अहंकार को
ही पोषण करके
खड़ा कर पाते
हैं। अगर
बच्चे को
शिक्षित करना
है, तो उसे
प्रथम लाना
पड़ता है, गोल्ड
मेडल देना
पड़ता है। अगर
शिक्षित करना
है, तो
उसके अहंकार
को तृप्त करना
पड़ता है, उसे
विशेषता देनी
पड़ती है। फिर
उपद्रव होते
हैं। लेकिन
समाज अब तक
इससे बेहतर
कोई रास्ता
नहीं खोज पाया
है। और यह
बहुत बदतर
रास्ता है।
ऋषि
कहता है कि
संन्यासी तो
शुभ के भी पार
चला जाता है।
अशुभ के पार
तो चला ही
जाता है, शुभ
के भी पार चला
जाता है।
अंग्रेजी में
तीन शब्द हैं—एक
शब्द है
इम्मारल, अनैतिक;
एक शब्द है
मारल, नैतिक,
एक शब्द है
एमारल, नीति—मुक्त
या अतिनैतिक।
संन्यासी
इम्मारल तो
होता ही नहीं,
मारल भी
नहीं होता; एमारल होता
है। वह न तो
नैतिक होता है,
न अनैतिक
होता है, वह
नीति—मुक्त
होता है।
लेकिन इस
तीसरी सीढ़ी तक
पहुंचने के
लिए अनीति को
छोड्कर नीति
में और नीति
को छोड्कर
अतिनीति में
प्रवेश करना होता
है।
इसलिए
ऋषि बहुत इंच—इंच
आगे बढ़ रहा है।
पीछे की सब
बातें खयाल
रखेंगे, तो
ही ये सूत्र
समझ में आएंगे,
जो आगे आ
रहे हैं, अन्यथा
समझ में नहीं
आएंगे। ये
सूत्र अलग—
अलग नहीं हैं,
पीछे की
पूरी
श्रृंखला से
बंधे हुए हैं।
तो ऋषि
कहता है, वह
दो काम में
लगा रहता है, एक तो तीन
गुणों के पार
जाने की सतत
चेष्टा करता
रहता है। और
दूसरी, भांति
के भंजन में
समय लगाता है।
ये दोनों एक
ही प्रक्रिया
के अंग हैं।
हम सब
भ्रांति के
सृजन में जीवन
व्यतीत करते हैं।
नीत्से ने कहा
है, मैन कैन
नाट लिव
विदाउट
इन्यूजन्स।
जरूरी हैं
भ्रातिया, उन्हीं
के सहारे आदमी
जीता है, नहीं
तो नहीं जी
सकता। नीत्से
दूर तक ठीक
कहता है। जहां
तक हमारा
संबंध है, नीत्से
सौ प्रतिशत
ठीक कहता है, आदमी बिना
भ्रांतियों
के नहीं जी
सकता। हजार
तरह की
भ्रांतियां
उसके चारों
तरफ चाहिए।
उन्हीं के बीच
वह जी सकता है।
तो
नीत्से ने कहा
है, इन्यूजन्स
आर नेसेसरी।
भ्रम भी जरूरी
हैं, और
झूठ भी उपयोगी
हैं। नीत्से
ने तो बहुत
बढ़िया बात कही
है। उसने तो
यह कहा है कि
सत्य का कोई
अर्थ ही नहीं है।
जो असत्य काम
पड़ जाए, वही
सत्य है। और
असत्य काम
पड़ते हैं, चौबीस
घंटे काम पड़
रहे हैं। थोडा
सा हम देख लें
कि किस भांति
काम पड़ते हैं।
हमें
कोई पता नहीं
है कि आत्मा
अमर है, लेकिन
अब जिंदा रहना
है, तो मन
में यह खयाल
लेकर चलना
चाहिए कि
आत्मा अमर है,
नहीं तो
जिंदा रहना
मुश्किल हो
जाएगा। हमें
कोई पता नहीं
है कि प्रेम
शाश्वत होता है।
चारों तरफ
देखें तो
क्षणिक होता
है, शाश्वत
नहीं होता है।
सब क्षण में
बिखर जाता है।
लेकिन अगर
जिंदा रहना है,
तो मानकर
चलना चाहिए कि
प्रेम शाश्वत
चीज है।
कविताएं बड़ी
जरूरी हैं
आदमी के आसपास
जीने के लिए।
उनके सहारे वह
अपने को भुलाए
रखता है।
कल
होगा, इसका
कोई निश्चय
नहीं है।
लेकिन हम कल
का इंतजाम
करके सोते हैं।
नहीं तो रात
सोना ही
मुश्किल हो
जाएगा। यह
सवाल कल के
इंतजाम का
इतना
महत्वपूर्ण
नहीं है, आज
की रात सोने
का सवाल है।
कल का इंतजाम
कर लेते हैं, और कल होगा
ही, ऐसी
मान्यता मन
में रख लेते
ज्ञैं, तो
रात नींद
आसानी से आ
जाती है। अगर
पक्का हो जाए
कि कल सुबह
नहीं होगी, कल सुबह मौत
है, तो कल
सुबह मौत होगी
कि नहीं होगी,
यह बड़ा सवाल
नहीं है, आज
की नींद खराब
हो जाएगी। फिर
आज सोया नहीं
जा सकता।
तो
सोना हो, तो
कल का भ्रम
बनाए रखना
जरूरी है। अगर
जिंदगी के
दुखों को
गुजारना हो, ते। भविष्य
की आशा को
जिलाए रखना
जरूरी है कि कोई
बात नहीं, सुख
मिलेगा। अगर
इस मकान में
नही मिला, दूसरे
मकान में
मिलेगा। अगर
इस व्यक्ति से
नहीं मिला, दूसरे
व्यक्ति से
मिलेगा। आज न
ही मिला, कल
मिलेगा।
फ्यूचर
ओरिएंटेशन, भविष्य की
तरफ आशाओं को
दौड़ाए रखना
जरूरी है।
मनोवैज्ञानिक
एक बहुत कीमती
बात कहते हैं, जो बहुत नई
खोज है एक
अर्थों में, पहले कभी
किसी ने नहीं
खयाल किया था।
रात आप सपने
देखते हैं, तो आप सोचते
होंगे कि
सपनों से नींद
में बाधा पड़ती
है। ऐसा सदा
सोचा जाता रहा
है। कई आदमी
मेरे पास भी
आते हैं। वे
कहते हैं, रात
बहुत सपने आते
हैं, तो
नींद ठीक से
नहीं हो पाती।
सभी का यह
खयाल है।
लेकिन
मनोवैज्ञानिक
ज्यादा अनुभव
पर हैं। और वे
कहते हैं कि
अगर सपने न
हों, तो आप सो
ही न पाएं। वे
बहुत उलटी बात
कहते हैं। वे
कहते हैं, सपने
जो हैं, वे
नींद में बाधा
नहीं हैं, सहयोगी
है। नींद टूट
ही जाए, अगर
सपने न हों तो।
नींद को सतत
जारी रखने के
लिए सपने काम
करते है। स्मझ
लें, तो
खयाल में आ
जाएगा।
आपको
प्यास लगी है
जोर से नींद
में। आप एक
सपना देखना
शुरू कर देंगे
कि पानी पी
रहे है। झरना
बह रहा है, झरने के पास
बैठे पानी पी
रहे हैं। अगर
यह सपना न आए, तो प्यास
आपकी नींद तोड़
देगी। आपको
उठकर पानी
पीने जाना
पड़ेगा। नींद
में बाधा पड़
जाएगी। यह
सपना जो है, एक इल्यूजन
पैदा करता है।
कहता है, कहां
जाने की जरूरत
है, नींद
टूटने का तो
कोई सवाल ही
नहीं। झरना यह
रहा, पीयो।
भूख लगी है, राजमहल में
निमंत्रण मिल
जाता है। नहीं
तो भूख नींद
को तोड़ देगी।
सपना
सञ्जीट्यूट
है और नींद को
सम्हालने का उपाय
है। ठीक ऐसे
ही जिंदगी में
भी भ्रांति
जागरण को सम्हालने
का उपाय है।
जिसे हम जागरण
कहते हैं, उसके आसपास
भ्रांति
चाहिए, नहीं
तो नींद
मुश्किल में
पड़ जाएंगे।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
स्त्री के
प्रेम में पड़ गया
है। वह सम्राट
की पत्नी है।
मुल्ला उससे
बिदा हो रहा
है। रात चार
बजे उसने उससे
कहा कि तुझसे
सुंदर स्त्री
मैंने अपने
जीवन में न
देखी और न मैं
सोच भी सकता
हूं कि तुझसे
सुंदर स्त्री
हो सकती है।
तू अनूठी है।
तू परमात्मा
की अदभुत कृति
है। स्त्री
फूल गई, जैसा
कि सभी
स्त्रियां
फूल जाती हैं।
उस क्षण जमीन
पर उसके पैर न
रहे। लेकिन
मुल्ला मुल्ला
ही था। जब
उसने उसे इतना
फूला देखा, उसने कहा, लेकिन एक
बात और, जस्ट
फार योर
इकामेंशन न, यह बात मैं
और स्त्रियों
से भी पहले कह
चुका हूं। और
वायदा नहीं कर
सकता कि आगे
और स्त्रियों
से नहीं
कहूंगा।
वह
स्त्री, जो
एकदम आनंद की
मूर्ति हो गई
थी, कुरूप
हो गई। प्रेम
एकदम सूखा हुआ
मालूम पड़ा। सब
नष्ट हो गया।
सपने खंडहर
होकर गिर गए।
मुल्ला ने एक
सत्य कह दिया।
सभी प्रेमी
यही कहते हैं,
लेकिन जब
कहते हैं, तब
इतने भाव से
कहते हैं कि
वे भी भूल
जाते हैं कि
यह बात हम
पहले भी कह
चुके हैं।
मुल्ला
एक स्त्री के
प्रेम में है, लेकिन शादी
को टालता चला
जाता है। आखिर
उस स्त्री ने
कहा कि अंतिम
निर्णय हो जाना
चाहिए। आज
आखिरी बात।
शादी करनी है
या नहीं? अब
टालना नहीं हो
सकता। मुल्ला
ने कहा, भ्रम
जब बहुत ताजे
थे, तभी
शादी हो जाती,
तो हो जाती।
अब तो भ्रम
बहुत बासे पड़
गए हैं। अब तो
हम उस हालत
में हैं कि
अगर शादी हो
गई होती, तो
तलाक का
इंतजाम हो रहा
होता। उस
स्त्री ने कहा,
दरवाजे से
बाहर निकल जाओ।
मुल्ला ने कहा,
जाता हूं
लेकिन मेरे
प्रेम—पत्र
लौटा दो।
स्त्री ने कहा
कि क्या मतलब,
क्या करोगे
प्रेम—पत्रों
का? मुल्ला
ने कहा, फिर
भी जरूरत
पड़ेगी ही। तो
दुबारा लिखने
की झंझट कौन करे।
और फिर मैंने
ये एक
प्रोफेशनल
राइटर से
लिखवाए थे, पैसा खर्च
किया था!
वही
भ्रम बार—बार
खड़ा करना पड़ता
है। जीना
मुश्किल है।
एक कदम चलना
मुश्किल है।
इसलिए गृहस्थ
उसे कहें हम, जो बिना
भ्रम के नहीं
जी सकता। अगर
इसकी ठीक
मनोवैज्ञानिक
परिभाषा करनी
हो, तो गृहस्थ
वह है, द वन
हू कैन नाट
लिव विदाउट
इन्यूजन्स।
उसे भ्रमों के
घर बनाने ही
पडेंगे, उसे
कदम—कदम पर
भ्रम की
सीढ़ियां
निर्मित करनी
पड़ेगी।
संन्यासी
वह है, जो
बिना भ्रम के
रहने के लिए
तैयार हो गया।
जो कहता है, सत्य के साथ
ही रहेंगे, चाहे सत्य
जार—जार कर दे,
तोड़ दे, खंड—खंड
कर दे, मिटा
दे, नष्ट
कर दे, लेकिन
अब हम सत्य
जैसा है, उसके
साथ ही रहेंगे।
अब हम भ्रम
खड़े न करेंगे।
इसलिए
संन्यासी
भ्रमों को
तोड़ने में लगा
रहता है, भ्रांतियों
को तोड़ने में
लगा रहता है।
जहां—जहां उसे
लगता है, भ्रातिया
खड़ी की जा रही
हैं, वहा—वहां
वह तोड़ता है।
मन के प्रति
सजग होता है
कि मन कहा—कहा
भ्रांतियां
खड़ी करवाता है।
देखता है अपने
चारों तरफ कि
मैं कोई सपने
तो नहीं रच
रहा हूं जागने
में या सोने
में। मैं बिना
सपने के
जीऊंगा।
बिना
सपने के जीने
की बात बड़ा
दुस्साहस है।
साधारण साहस
नहीं है यह, दुस्साहस है,
क्योंकि
इंचभर सरकना
मुश्किल है
बिना सपने के।
बिना सपने के
इंचभर भी
सरकना
मुश्किल है।
एक कदम न
उठेगा। अगर
सपने आपसे छीन
लिए जाएं, आप
यहीं गिर
जाएंगे।
मिट्टी के ढेर
हो जाएंगे।
संन्यासी
फिर भी चलता
है, उठता है,
बैठता है, सारे भ्रम
को तोड़कर। और
जैसे ही
भ्रमों को तोड़
देता है पूरे,
वैसे ही
उसकी सत्य में
गति हो जाती
है। टु नो द
अनदू ऐज अनदू
इज द ओनली वे
टुवर्ड्स दुथ।
असत्य को
असत्य की
भांति जान
लेना सत्य की
ओर एकमात्र
मार्ग है। आति
को भ्रांति की
भांति पहचान
लेना सत्य की अनुभूति
का द्वार है।
इसलिए
प्राथमिक रूप
से संन्यासी
को
भ्रांतियां तोड़नी
पड़ती हैं।
इसलिए
संन्यासी के
पास अगर कोई
रहे, तो बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाता है।
संन्यासी तो
मुश्किल में
होता है अपने
ढंग की, लेकिन
उसकी मुश्किल
तो ठीक है, उसके
पास कोई रहे, तो बहुत
मुश्किल में
पड़ जाता है।
क्योंकि संन्यासी
भ्रम नहीं
पोसना चाहता
और जो भी उसके
पास रहेगा, वह भ्रम
पोसना चाहता
है। अगर
संन्यासी
सत्य के ही
साथ सीधा जीता
है, तो जो
भी उसके निकट
है, वह
अड़चन में पड़ना
शुरू हो जाता
है। क्योंकि
संन्यासी ऐसी
बातें कहेगा,
इस ढंग से
जीएगा कि आप
अपने भ्रमों
को न पोस पाएंगे।
इसलिए एक बहुत
दुर्घटना इस
जमीन पर घटती
रही है और वह
यह है कि इस
जमीन पर जिन
लोगों ने भी
सत्ये की खोज
की है, उनके
आसपास के लोग
कभी भी उनको
प्रेम भी नहीं
कर पाए और कभी
उनको समझ भी
नहीं पाए।
सुकरात
की पत्नी तक, जो निकटतम
थी उसके, उसको
नहीं समझ पाई,
क्योंकि
सुकरात कोई
भ्रम में
सहायता न देगा,
किसी भ्रम
में सहायता न
देगा। तो
सुकरात और
उसकी पत्नी की
कलह अनिवार्य
हो गई, क्योंकि
पत्नी चौबीस
घंटे भ्रमों
की मांग कर रही
है और सुकरात
कोई भ्रम नहीं
दे सकता।
पत्नी के मन
में कहीं तो
आकांक्षा
होती है कि कभी
सुकरात कहे कि
तुम सुंदर हो।
लेकिन सुकरात
कहता है, सौंदर्य
तो मन का भाव
है। शरीर से
उसका कोई
संबंध नहीं है।
खयाल है। उसका
कोई अर्थ नहीं
है। अब यह
पत्नी बड़ी
मुश्किल में
पड़ेगी। पत्नी
चाहती है कि
सुकरात कभी
कहे कि
तुम्हारे
बिना मैं न जी
सकूंगा।
सुकरात कहता
है, सब
सबके बिना जी
सकते हैं।
बल्कि अगर
सुकरात से सच
पूछो, तो
वह कहेगा कि
तुम्हारे
बिना मैं
ज्यादा आसानी
से जी सकूंगा।
लेकिन यह
पत्नी के मन
को तो बड़ी
तकलीफ होगी, बड़ी पीड़ादाई
हो जाएगी बात।
बहुत कठिन हो
जाएगा, क्योंकि
उसके कोई सपने
खडे न हो
पारांगे और वह
तैयारी में
नहीं है तोड़ने
की।
इसलिए
जब जीसस ने
अपनी मां को
कहा कि कोई
मेरी मां नहीं
है, कोई मेरा
पिता नहीं है,
तो हम समझ
सकते हैं कि
मां को कैसी
पीड़ा हुई होगी।
बेटा चोर होता,
बेईमान
होता और कह
देता कि कोई
मेरी मां नहीं,
तो मां
प्रसन्न भी हो
सकती थी कि
झंझट मिटी।
बदनामी अपने
सिर न आएगी।
बेटा हो गया
है पैगंबर।
हजारों लोग
उसे भगवान का
बेटा मानने
लगे हैं। मां
बहुत आतुरता
से आई होगी कि
भीड़ के सामने
जीसस कह देगा
कि तू मेरी
मां है। और
जीसस ने कह
दिया कि नहीं,
कौन किसकी
मां! कौन
किसका बेटा!
कोई किसी का
कोई भी नहीं
है। तो हम समझ
सकते हैं कि
मां को, मां
के भ्रम को
कैसा धक्का
लगा होगा।
जब
बुद्ध ने अपने
पिता को कहा
कि आप नहीं
जानते कि मैं
कौन हूं आप
मुझे नहीं
पहचानते। तो
बुद्धू के
पिता तो क्रोध
से भर गए।
उन्होंने कहा, मैं तुझे नहीं
पहचानता? मैंने
तुझे पैदा
किया! ये तेरी
हट्टियां, और
तेरा खून, और
तेरा मास मेरा
है। तेरी रगों
में जो बह रही
है ताकत, वह
मेरी है। और
मैं तुझे नहीं
पहचानता? तू
नहीं था, उसके
पहले मैं था।
बुद्ध ने कहा,
वह सब ठीक
है। वह खून भी
आपका होगा, हड्डिया भी
आपकी होंगी, वह शरीर भी
आपका होगा, लेकिन मेरा
उससे कुछ लेना—देना
नहीं, मैं
और ही हूं।
बुद्ध के बाप
ने कहा, तू
मुझ से पैदा
हुआ है! बुद्ध
ने कहा, वह
भी ठीक है।
लेकिन आप एक
चौरात्ने की
तरह थे, जिस
पर से मैं आया,
लेकिन मेरी
यात्रा आपके
मिलने के बहुत
पहले से चल
रही है। आप एक
रास्ता थे, जस्ट ए
पैसेज, जिससे
मैं आया, वह
ठीक है। लेकिन
अगर दरवाजा यह
कहने लगे कि
चूंकि मैं उसमें
से निकला, इसलिए
वह मुझे जानता
है, तो आति
हो जाएगी। बाप
तो आग—बबूला
हो गया।
उन्होंने कहा,
तू मुझे
सिखाता है? सभी बाप आग—बबूला
हो जाएंगे कि
तू मुझे सिखाता
है? बुद्ध
सत्य की बात
कर रहे हैं, कठिनाई वहीं
है और बाप अभी
भ्रमों के बीच
जीना चाहता है।
बुद्ध
की पत्नी ने
अपने बेटे को
कहा कि राहुल, अपने बाप से
वसीयत मांग ले।
ये तेरे बाप
खड़े हैं।
व्यंग्य गहन
था। बुद्ध के
पास तो कुछ भी
न था देने को।
लेकिन पत्नी
रोष में थी।
यह आदमी
छोड्कर भाग
गया था। बेटे
ने तो पहली
दफा ही बुद्ध
को होश में
देखा था, क्योंकि
बेटा तो पहले
ही दिन का था, पैदा ही हुआ
था, तब
बुद्ध घर से
निकल गए थे।
बारह साल बाद
लौटे हैं। तो
राहुल को
सामने खड़ा
करके उनकी
पत्नी ने कहा
कि ये रहे
तुम्हारे
पिता, जिन्होंने
तुम्हे जन्म
दिया। भाग गए
जन्म देकर। अब
मिले हैं, मौका
मत चूकना।
फिएर भाग
जाएंगे। इनसे
ले लो वसीयत
कि मेरे लिए
क्या देते हो
जगत में! मुझे
पैदा कर दिया,
तो है क्या?
बुद्ध
की पत्नी जो
व्यंग्य कर
रही है, वह
भ्रमों की
दुनिया का
व्यंग्य है।
लेकिन बुद्ध
ने कहा कि
मेरे निकट आ, बड़ी संपदा
मेरे पास है, वह मैं तुझे
देता हूं। और
जो दिया, वह
भिक्षा—पात्र
था। और आनंद
को कहा, आनंद
संन्यास में
दाक्षित करो
राहुल को।
पत्नी तो कैप
गई, रोने
लगी, लेकिन
राहुल
दीक्षित हो
चुका था।
बुद्ध ने कहा,
जो मेरे पास
श्रेष्ठ है, वही तो मैं
दूं। जो संपदा
है, वही
मैं दूं।
जिसको छोड गया
था, वह
विपदा थी। अब
मैं संपदा
लेकर आया हू।
वही मैं देता
हूं।
बुद्ध
के बाप रोने
लगे और
उन्होंने कहा
कि तू बर्बाद
करके रहेगा।
अकेला तू मेरा
बेटा था। तेरे
जाने से भारी
उपद्रव हुआ।
अब तेरा बेटा
ही मालिक है
सारे
साम्राज्य का।
इसको भी तू
संन्यासी कर
रहा है! बुद्ध
ने कहा, आप
भी राजी हो
जाएं।
क्योंकि यह
साम्राज्य
पाकर आपको
क्या मिला? मुझे छोड्कर
क्या खो गया? और यह मेरा
बेटा भी इसी
चक्की में
पिसता रहे, तो क्या मिल
जाएगा? मैं
इसे संपदा
देता हूं। लेकिन
सबको लगा कि
बुद्ध भारी
अन्याय कर रहे
हैं। सारे
गांव में दुख
की लहर फैल गई
कि बारह साल के
लड़के को
दीक्षा दे दी।
हद अन्याय है।
लेकिन बुद्ध
जहां जीते हैं,
वहा भ्रमों
का जगत नहीं
है। संन्यासी
चौबीस घंटे
भ्रम तोड़ने
में लगा रहता
है। और भ्रम
टूटते हैं, तो ही तीन
गुणों के पार
यात्रा शुरू
होती है।
कामवासना
आदि
वृत्तियों का
दहन करना—
कामादि
वृत्ति दहनम्।
यह दहन
शब्द बहुत
अदभुत है। दमन
नहीं, दहन।
दबाना नहीं, जला डालना, राख कर देना।
जैसे एक बीज
है, बीज को
दबाने से बीज
नष्ट नहीं
होता। आपको
पता है, दबाने
से ही अंकुरित
होता है। न
दबाओ, तो
बीज ही रह जाए।
दबा दो जमीन
में, अंकुर
बन जाए। और जब
बीज अंकुरित
होता है, तो
एक बीज से
हजार—लाख बीज
पैदा हो सकते
हैं। जब तक
बीज बीज रहता
है, एक बीज
है। जब
अंकुरित होता
है, तो लाख
हो सकते हैं।
बीज को दबाने
की भूल भर मत
करना, नहीं
तो एक बीज के
लाख बीज हो
जाएंगे।
संन्यासी
दबाने में
नहीं लगता, नाट इन
सप्रेशन।
फ्रायड ने तो
अभी इस सदी
में आकर कहा
कि सप्रेशन, दमन जो है, वह रोग है।
ऋषि सदा से
कहते रहे हैं
कि दमन रोग है।
दमन से कुछ
होगा नहीं।
दबाकर क्या
होगा? जिसे
मैं दबाऊंगा,
वह मेरे
भीतर घुस जाएगा,
और गहरे में
उतर जाएगा और
अचेतन में जकड़
जाएगा। जिसे
मैं दबाऊंगा,
वह मेरी
गर्दन को और
जोर से पकड़
लेगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन के
घर कोई मेहमान
भोजन करने को
आने को है।
मेहमान बड़ा
आदमी है। राजनीतिज्ञ, नेता है, भूतपूर्व
मंत्री है। और
एक और खूबी है
कि उसकी नाक
इतनी बड़ी है
कि उसक। मुंह
दिखाई नहीं
पड़ता, दब
जाता है। तो
पत्नी ने
मुल्ला से कहा
कि देखो, एक
बात का ध्यान
रखना। जो
अतिथि आ रहे
हैं, उनकी
नाक की चर्चा
मत चलाना। बात
ही मत उठाना।
कसम खा लो।
नहीं तो कोई
गड़बड़ कर दोगे।
मुल्ला ने कहा,
क्यों
उठाएंगे? अपने
को दबाकर
रखेंगे। संयम
रखेंगे।
बोलेंगे ही
नहीं, पहली
बात तो। लेकिन
नाक इतनी बड़ी
थी कि मुल्ला
बड़ी मुश्किल
में पड़ गया।
देखे तो नाक
दिखाई पड़े, आंख बंद करे
तो नाक दिखाई
पड़े। मुंह तो
दिखता ही नहीं
था, नाक
बहुत बड़ी थी।
उन सज्जन की
तरफ देखे तो
नाक दिखाई पडे,
उनकी तरफ
मुंह न करे तो
नाक दिखाई पड़े।
बहुत परेशानी
हो गई। और दमन—दबाता
रहा, दबाता
रहा, दबाता
रहा।
अतिथि
ने आखिर पूछा
कि नसरुद्दीन, बोलते
बिलकुल नहीं
हो? नसरुद्दीन
ने कहा कि न ही
बोलूं उसी में
सार है। नहीं,
ऐसी क्या
बात है? पत्नी
भी बड़ी हैरान
थी कि बहुत
संयम रखा।
भोजन पूरा
होने के ही
करीब था।
पत्नी ने कहा,
ऐसी कोई बात
नहीं है।
इशारा किया
हाथ से कि
थोड़ा—बहुत बोल
सकते हो।
नसरुद्दीन ने
भी सोचा, क्या
बोलूं। थोड़ी
सी मिठाई
उठाकर मेहमान
को देने लगा।
मेहमान ने कहा
कि नहीं। तो
नसरुद्दीन ने
कहा, आपकी
नाक में डाल
दूं! क्योंकि
मुंह तो दिखाई
नहीं पड़ता था।
बस। भूल हो गई।
वह नाक ही नाक
तो चल रही थी
भीतर। मुंह तो
दिखाई पड़ता
नहीं था, नाक
ही पित्त। लप
पड़ती थी। लगता
था कि सज्जन
नाक से ही
भोजन कर रहे
हैं।
जो भी
हम दबाते हैं, वह जाता
नहीं। दमन से
इस जगत में
कोई चीज कभी
नहीं जाती, सिर्फ इक्रठ।
होती है, और
फूटती है, विस्फोट
होते हैं।
ऋषि
कहते हैं, कामादि
वृत्ति दहनम्।
जैसे
बीज को कोई
जला दे, तो
फिर वह कभी भी
अंकुरित न हो
सकेगा। दबा दे,
तो अंकुरित
होगा। जला दे,
दग्ध कर दे,
तो फिर कभी
अंकुरित न हो
सकेगा। तो
संन्यासी
अपनी काम की
वृत्ति के दहन
में लगे रहते
हैं, जलाने
में लगे रहते
हैं। किस आग
में जलेगी काम
की वृत्ति? तो समझना
पड़े। काम को
वृत्ति किस
पानी से
पल्लवित होती
है? ठीक
उसके विपरीत
करने से जल
जाएगी।
कभी
आपने खयाल
किया कि जब
कामना, वासना
पकड़ती है मन
को, तो
चित्त बिलकुल
मूच्छित हो
जाता है, बेहोश
हो जाता है।
ऐसा पकड़ लेता
है भीतर से
जैसे कि नशे
में हो गए।
वैज्ञानिक
कहते हैं, शरीर—शास्त्री
कहते हैं कि
शरीर के पास
भीतरी ग्रंथियां
हैं, जिनके
पास विषाक्त
द्रव्य हैं, जहरीले
द्रव्य हैं।
और अब नवीनतम
खोजें कहती
हैं कि शरीर
के पास ऐसी
ग्रंथियां भी
हैं, जिनमें
सम्मोहन पैदा
करने वाले रस
हैं, ड्रग्स
हैं। तो जब एक
स्त्री आपको
सुंदर दिखाई
पड़ती है या एक
पुरुष सुंदर
दिखाई पड़ता है,
तब आपके
शरीर में नए
रासायनिक
द्रव्य छूटने
शुरू हो जाते
हैं, जो कि हेत्थूसिनेशन
पैदा कर देते
हैं, जो कि
सौंदर्य का
भ्रम पैदा कर
देते हैं। और
जब आप
कामवासना से
भरे होते हैं,
तब आप होश
में नहीं होते,
आप करीब—करीब
बेहोश होते
हैं, नशे
में होते हैं।
नशे में कुछ
भी हो सकता है।
होश आते ही
पछताते हैं।
ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है, जो अपनी
वासना—पूर्ति
के बाद पछताता
न हो।
पश्चात्ताप करता
है, रोता
है, सोचता
है, क्या
किया! क्या
पागलपन! क्या
नासमझी! लेकिन
फिर थोड़े ही
घंटे बीते है
कि फिर वासना
पकड़ लेती है, फिर रस बन गए।
फिर शरीर में
हेल्युइसनेशन
के द्रव्य
इकट्ठे हो गए।
अब वे फिर
भ्रम पैदा
करवा देंगे।
फिर वही
मूर्च्छा, फिर
वही मूर्च्छा।
मूर्च्छा
कामवासना के
लिए पानी का
काम करती है।
इसलिए
कामातुर जो
व्यक्ति है, वह बहुत
जल्दी शराब की
तलाश में निकल
जाता है। अगर
ऋषियों ने
शराब और नशे
का विरोध किया
है, तो
इसलिए नहीं कि
शराब अपने आप
में कुछ बुरी है,
बल्कि
इसलिए कि वह
उस आदमी की
तलाश है जो
अपनी कामवासना
को सींचना
चाहता है। जिन
लोगों की
कामवासना
शिथिल हो गई
होती है, शरीर
शिथिल हो गया
होता है, वे
लोग शराब पी—पीकर
अपनी वासना को
सजग करने की
चेष्टा में लगे
रहते हैं।
मूर्च्छा, बेहोशी, तंद्रा,
कामवासना
के लिए जल का
काम करती है, सींचती है; तो होश, जागरण,
विवेक, ध्यान,
कामवासना
को दग्ध करने
का काम करता
है। जिस क्षण
आप पूरे होश
में होते हैं,
उस क्षण
कामवासना
नहीं रह सकती
भीतर। जिस दिन
भीतर होश की
पूरी अग्नि
जलती है, कामवासना
जल जाती है।
इसे थोड़ा और
तरफ से भी देखना
जरूरी है।
पशुओं
के जगत में
बहुत से राज
छिपे हैं। और
आदमी अपने को
समझना चाहे, तो पशुओं को
समझना जरूरी
है, क्योंकि
आदमी के भीतर
बहुत कुछ
हिस्सा पशुओं का
है।
अफ्रीका
में एक मकोड़ा
होता है। जब
भी नर मकोड़ा
मादा मकोड़े के
साथ संभोग में
जाता है, इधर
मकोड़ा संभोग
शुरू करता है,
उधर मादा उस
मकोड़े के शरीर
को खाना शुरू
कर देती है।
एक ही संभोग
कर पाता है वह
मकोड़ा, क्योंकि
वह संभोग करता
रहता है और
मादा उसके शरीर
को खाती चली
जाती है।
वैज्ञानिक
जब उसके
अध्ययन में थे, तब बड़े
हैरान हुए कि
क्या उस मकोड़े
को यह भी पता
नहीं चलता कि
मैं मारा जा
रहा हूं खाया
जा रहा हूं र नष्ट
किया जा रहा
हूं! मकोड़ा
संभोग के बाद
मुर्दा ही
गिरता है।
उसकी लाश को
मादा खा जाती
है पूरा। बस, एक ही संभोग
कर पाता है।
दूसरे मकोड़े
यह देखते रहते
हैं, लेकिन
जब उनकी संभोग
की वृत्ति
जगती है तब वे भूल
जाते हैं कि
मौत में उतर
रहे हैं। तो
शरीर—शास्त्रियों
ने उस मकोड़े
का बहुत
अध्ययन करके
पता लगाया कि
उसके शरीर में
बड़ी गहरी
विषाक्तता है।
जब कामवासना
पकड़ती है उसको,
तो उसे इतना
भी होश नहीं
रह जाता कि
मैं काटा जा
रहा हूं मारा
जा रहा हूं
खाया जा रहा
हूं। यह भी
भूल जाता है।
आश्चर्यजनक
है। लेकिन अगर
हम अपने को भी
समझें, तो
आश्चर्यजनक
नहीं मालूम
होगा। वह कीड़ा
है, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। वही
स्थिति
मनुष्य की है।
वह जानता है, भलीभांति
पहचानता है।
फिर वासना पकड़
लेती है, फिर
वासना पकड़
लेती है।
वासना के बाद
अनुभव भी होता
है कि व्यर्थ
है, कोई
अर्थ नहीं है।
लेकिन उस
व्यर्थता के
बोध का कोई
लाभ नहीं होने
वाला है, क्योंकि
जब तक बेहोशी
न टूटे, वह
फिर आ जाएगा; जिसको
व्यर्थ कहा, वह फिर
सार्थक हो
जाएगा। इसलिए
ऋषि यह नहीं
कहते कि उसे
दबाओ। वे कहते
हैं, इतने
जागो, होश
की इतनी अग्नि
पैदा करो, द
फायर आफ
अवेकनिंग, कि
उसमें सब दग्ध
हो जाए। और जब
कामवासना
दग्ध हो जाती
है, तो और
शेष वासनाएं
अपने आप दग्ध
हो जाती हैं।
यह कोई फ्रायड
की नई खोज
नहीं है कि
कामवासना सब
वासनाओं का
केंद्र है। यह
तो ऋषि सदा से
जानते रहे हैं।
यह जिन्होंने
भी खोज की है
मनुष्य की अंतरात्मा
में, वे
सदा से जानते
रहे हैं कि
बाकी सारी
वासनाएं
कामवासना से
ही पैदा होती
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
मरकर स्वर्ग
के द्वार पर पहुंचा।
सेंट पीटर ने, जो कि
स्वर्ग के
द्वारपाल हैं,
उन्होंने
मुल्ला
नसरुद्दीन से
पूछा कि जमीन
पर काफी देर
रहे—क्योंकि
वह एक सौ दस
वर्ष का होकर
मरा—नसरुद्दीन
से पूछा कि
काफी देर जमीन
पर रहे, कभी
चोरी की, बेईमानी
की g: नसरुद्दीन
ने कहा, कभी
नहीं। कभी
शराब पी, नशा
किया? नसरुद्दीन
ने कहा, इन
बातों से सदा
दूर रहे।
स्त्रियों के
पीछे भागते
रहे? नसरुद्दीन
ने कहा, कैसी
बातें करते
हैं आप! तो
सेंट पीटर ने
कहा, देन
व्हाट यू वेयर
ड़इंग देअर फॉर
सच ए लीग टाइम?
एक सौ दस
वर्ष तक तुम
वहा कर क्या
रहे थे जमीन पर?
इतना तब।
वक्त! अगर
स्त्रियों के
पीछे भी नहीं
दौड़ रहे थे, तो गुजारा
कैसे?
वह ठीक
है बात। जिसको
हम जिंदगी
कहते हैं, वह ऐसी ही
दौड़ है।
स्त्री
पुरुषों के
पीछे, पुरूष
स्त्रियों के
पीछे। और यह
कोई आदमी ही
कर रहा है, ऐसा
नहीं; वृक्ष,
पौधे, पशु,
पक्षी सभी
वही कर रहे
हैं। लेकिन हौ,
आदमी होश से
भर सकता है।
यह उसके लिए
एक अवसर है।
इसलिए
पशुओं को हम
दोषी नहीं
ठहरा सकते कि
वे कामुक हैं।
कामुकता के
पार जाने का
उनके पास
फिलहाल कोई
उपाय नहीं है।
जिस जगह उनकी
चेतना है, उस जगह से
कोई रास्ता
कामवासना के
पार जाने के
लिए नहीं
निकलता।
लेकिन आदमी को
दोषी ठहराया
जा सकता है, दोषी है, क्योंकि
वह पार जा
सकता है। और
जब तक पार न
जाए, तब तक
कोई तृप्ति, कोई संतोष, कोई आनंद
उसे उपलब्ध
होने को नहीं
है।
ऋषि
कहते हैं, संन्यासी
क्या करते
रहते हैं—
कामादि
वृत्ति दहनम्।
जलाते
रहते हैं, दग्ध करते
रहते हैं काम
की वृत्ति को।
क्योंकि काम
की वृत्ति ही
संसार के
फैत्ना व का
मूल स्रोत है।
सभी कठिनाइयों
में दृढ़ता ही
उनका कौपीन है।
एक ही
उनकी सुरक्षा
है, एक ही
उनका वस्त्र
है—सभी
कठिनाइयों
में दृढ़ता।
सभी
कठिनाइयों
में! कठिनाइया
होंगी ही, बढ़
ही जाएंगी।
क्योंकि
गृहस्थ तो और
तरह के इंतजाम
कर लेता है—तिजोरी
है, बैंक
बैलेंस है, मकान है, मित्र
हैं, प्रियजन
हैं, सगे—संबंधी
हैं—बहुत
इंतजाम कर
लेता है।
संन्यासी के
पास तो कोई भी
नहीं है, कुछ
भी नहीं है।
उसकी आतरिक
दृढ़ता के
अतिरिक्त
उसके पास और
कोई उपाय नहीं
है। जब
कठिनाइयां
आती हैं, तो
गृहस्थ
कठिनाइयों से
लड़ने के लिए
बाहर इंतजाम
कर लेता है।
संन्यासी के
पास तो सिर्फ
भीतरी ऊर्जा
और शक्ति है।
जब कठिनाइयां
आती हैं, तब
वह भीतर से ही
अपनी ऊर्जा को
दृढ़ करके कठिनाइयों
से लड़ सकता है।
और तो कोई
उपाय नहीं।
संन्यासी
अकेला है।
पर एक
मजे की बात है
कि जितना आप
भीतर की शक्ति
का उपयोग करते
हैं
कठिनाइयों
में, उतने ही
क्रमश: दृढ़
होते चले जाते
हैं। और एक
दिन ऐसा आ
जाता है कि
कठिनाइया
कठिनाइयां
नहीं मालूम
पड़ती; बड़ी
सरलताएं, बड़ी
सुगमताएं हो
जाती हैं।
क्योंकि वह तो
तुलनात्मक है;
जब आप भीतर
चट्टान की तरह
दृढ़ हो जाते
हैं, तो
बाहर की
कठिनाइयों का
कोई मूल्य
नहीं रह जाता।
इसलिए
एक बड़े मजे की
घटना घटती है।
गृहस्थ बहुत
इंतजाम करता
है बाहर
कठिनाइयों से
लड़ने का, कठिनाइयां
बढ़ती चली जाती
हैं, क्योंकि
भीतर गृहस्थ
दुर्बल होता
चला जाता है।
उसका
रेजिस्टेंस कम
होता चला जाता
है।
अगर आप
धूप में
बिलकुल नहीं
बैठते, छाया
में ही बैठते
हैं, तो
जरा सी धूप भी
तकलीफ दे देगी,
क्योंकि
रेजिस्टेंस
कम हो जाएगा, आपकी
प्रतिरोधक
शक्ति कम हो
जाएगी। लेकिन
एक दूसरा आदमी
गड्डे खोद रहा
है धूप में, छाया में
बैठने का उसे
कोई अवसर ही
नहीं मिलता।
वह घंटों; दिनभर
धूप में गड्डे
खोद रहा है और
धूप उसका कुछ
नहीं बिगाड़
पाती है। कारण
क्या है? उसके
पास
प्रतिरोधक
शक्ति, रेजिस्टेंस,
इनर फोर्स
खड़ी हो जाती
है।
इसलिए
आदमी को जितनी
दवाइयां
मिलती जाती
हैं, उतनी
बीमारियां
बढ़ती चली जाती
हैं। क्योंकि
रेजिस्टेंस
तो टूटता चला
जाता है। आदमी
को जितनी
सुविधाएं
मिलती जाती
हैं, उतनी
असुविधाएं
बढ़ती चली जाती
हैं। आदमी
जितना इंतजाम
कर लेता है, उतना ही
पाता है कि
मुश्किल में
पड़ गया है।
क्योंकि सब
इंतजाम बाहर
होता है और
भीतर से जो
इंतजाम हो
सकता था, उसका
इंतजाम टूट
जाता है। जब
उसकी जरूरत ही
नहीं रह जाती,
बात समाप्त
हो जाती है।
बायजीद
नग्न घूम रहा
था रेगिस्तान
में। एक सूफी
फकीर था। कुछ
राहगीरों ने
उसे देखा और
उन्होंने कहा
कि जलती धूप
में, आग पड़ते
रेगिस्तान
में तुम नग्न
घूम रहे हो? फिर रात
रेगिस्तान
बर्फीला हो
जाता है, ठंडा,
तब भी तुम
नग्न ही पड़े
रहते हो। बात
क्या है? राज
क्या है? तो
बायजीद ने कहा
कि अपने चेहरे
से पूछो।
तुम्हारे
चेहरे पर भी
वही चमड़ी है, जो तुम्हारे
हाथ में, तुम्हारे
पैर में, तुम्हारी
छाती में है।
लेकिन चेहरा
धूप में भी
परेशान नहीं
होता, सर्दी
में भी परेशान
नहीं होता।
उसका कुल कारण
इतना है कि
चेहरा सदा से
खुला है, उसका
रेजिस्टेंस
ज्यादा है।
बाकी सारा
शरीर ढंका है,
उसका
रेजिस्टेंस
कम है। बायजीद
ने कहा कि
हमने पूरे
शरीर को ही
चेहरे की तरह
कर लिया, तब
से धूप और
सर्दी का पता
नहीं चलता।
संन्यासी
के पास जब
बाहर कोई
इंतजाम नहीं, तो भीतर
इंतजाम है।
इस
दिशा में एक
बात और समझ
लेनी जरूरी है
जो कि पूरब और
पश्चिम का
बुनियादी
फर्क है।
पश्चिम ने सब
इंतजाम बाहर
किए, इसलिए
भीतर पश्चिम
बिलकुल
दुर्बल और
इंपोटेंट हो
गया, बिलकुल
नपुंसक हो गया।
इंतजाम
उन्होंने
बहुत बढ़िया कर
लिए बाहर।
रेगिस्तान
में भी हो, तो
भी शीतल
इंतजाम हो
सकता है।
बीमारी हो, तो तत्काल
दवाइयां
पहुंचाकर
बीमारी से लड़ा
जा सकता है।
अगर एक तरह के
जर्म्स शरीर
को पकड़ लिए
हैं, तो
उनसे विपरीत
जर्म्स फौरन
शरीर में
डालकर उनको
मिटाया जा
सकता है। सब
इंतजाम कर
लिया है।
लेकिन आतरिक
शक्ति रोज दीन
होतो चली गई।
पूरब ने एक
दूसरा प्रयोग
किया था। वह
प्रयोग यह था
कि हम बाहर से
सहायता न
लेंगे लड़ने के
लिए, हम
भीतर की शक्ति
से ही लड़ेंगे।
इसका फायदा
हुआ। एक फायदा
हुआ कि पूरब
भीतर से
समृद्ध हुआ, लेकिन एक
नुकसान हुआ कि
बाहर से
दरिद्र हो गया,
बाहर से
गरीब होता चला
गया। और बाहर
की गरीबी
दिखाई पडती है
और भीतर की
समृद्धि
दिखाई नहीं
पड़ती। इसलिए
पश्चिम से जब
कोई आता है, तो पूरब की
बाहर की
दरिद्रता को
देखकर कहता है,
क्या बुरी
हालत है! भीतर
का तो कुछ
दिखाई नहीं पड़ता।
भीतर का दिखाई
पड़ नहीं सकता।
पूरब
ने एक प्रयोग
किया था। वह
यह था कि हम
व्यक्ति की
चेतना को ही
दृढ़ करते
रहेंगे, ताकि
सब
परिस्थितियों
में वह स्वयं
इतना दृढ़ हो
कि पार हो जाए।
पश्चिम ने एक
प्रयोग किया
कि हम बाहर की
परिस्थितियों
को ऐसा बना
देंगे कि
व्यक्ति को
लड़ने की जरूरत
ही न रह जाए।
लेकिन जो लड़ता
नहीं, वह
लड़ने की
क्षमता खो
देता है। लड़ने
की क्षमता
कायम रखनी हो,
तो लड़ना
जारी रखना
पड़ता है।
पर
निर्भर इस पर
करता है कि आप
किस शक्ति को
जगाना चाहते
हैं। अगर भीतर
की शक्ति को
जगाना चाहते
हैं, तो ऋषि
ठीक कहता है
कि सभी
कठिनाइयों
में दृढ़ता।
अरक्षित, इनसिक्योर्ड,
बिना
इंतजाम के
सारी
कठिनाइयों को
झेल लेने की
जो बात है, उससे
भीतर की
प्रतिरोधक
शक्ति इतनी बढ़
जाती है कि
कठिनाइयां
नीचे पड़ी रह
जाती हैं और
चेतना पार
निकल जाती है।
सदैव
संघर्षों में
ही उनका वास
है—चिराजिनवास:।
संघर्ष
ही उनका घर है।
संघर्ष ही
उनका आवास है।
इसे थोड़ा सा
समझ लेना
जरूरी है।
संघर्ष
ही उनका आवास
है। एक तो
संघर्ष है
दूसरों से, परायों से।
वह हिंसा है।
एक संघर्ष है
स्मये से, अपने
से। वह संघर्ष
हिंसा नहीं है।
एक संघर्ष है,
जब हम किसी
को जीतने जाते
हैं, वह
पाप है। यह
संघर्ष है, जब हम स्वयं
को अपराजेय बनाने
जाते हैं, वह
संघर्ष पुण्य
है।
ऋषि
कहता है, संघर्ष
उनका वास है।
वे
चौबीस घंटे
स्ट्रगल में
हैं, किसी और
से नहीं।
असुरक्षित
हैं, कोई
उनके पास
व्यवस्था
नहीं, अनजाने
भविष्य में
कदम रख देते
हैं बिना योजना
के। सुबह उठते
हैं, तभी
जानते हैं कि
सुबह ने का।
मौजूद किया, उससे गुजरते
हैं। रात आती
है, तब
जानते हैं कि
रात ने क्या
मौजूद किया, तब उससे
गजरते हैं।
लिविंग
मोमेंट टु
मोमेंट—एक—एक
क्षण जीते हैं।
निश्चित ही
संघर्ष होगा।
एक —एक क्षण जौ
जीएगा, संघर्ष
होगा।
हम तो
भविष्य को
व्यवस्थित
करके जीते हैं।
व्यवस्था का
अर्थ ही है, संघर्ष को
कम कर लेना।
कल क्या करना
है, कैसे
करना है, उसका
हमने पूर्व
इंतजाम कर
लिया, तो
कल संघर्ष
न्यून हो
जाएगा, कम
हो जाएगा। कल
अनजान, अपरिचित,
अननोन में
उतर जाना है, ऐसे ही जैसे
कोई सागर में
रूतर जाए, जिसकी
गहराइयों का
पता न हो।
जैसे कोई सागर
में उतर जाए, जिसके
किनारों का
पता न हो।
जैसे कोई सागर
में उतर जाए, जिसके
तूफानों का
कोई पता न हो।
बिना किसी
इंतजाम के!
संन्यासी
ऐसे ही जीवन
में चलता है
बिना किसी इंतजाम
के। क्यों? इस संघर्ष
की जरूरत क्या
है? क्योंकि
संन्यासी
जानता है कि
इसी संघर्ष से
निखार है। इसी
रोज—रोज के
संघर्ष से, क्षण— क्षण
के संघर्ष से
निखार पैदा
होता है। वह
जो निखार है
व्यक्तित्व
का, वह जो
प्रतिभा पर
धार आती है, वह इसी
संघर्ष से आती
है। यह संघर्ष
किसी और से
नहीं है। यह
किसी दूसरे से
नहीं है। यह
संघर्ष सहज
जीवन की धारा
से है। और इस
संघर्ष में
कोई दुख भी
नहीं है, कोई
पीड़ा भी नहीं
है।
इसलिए
ऋषि कहता है, संघर्ष उनका
घर है। संघर्ष
से कोई
शत्रुता भी
नहीं है। यही
उनका आवास है।
इससे कोई
दुश्मनी नहीं
है, यही
उनका आसरा, यही उनकी
छाया, इसी
के नीचे वे विश्राम
करते हैं।
ध्यान रखें, संघर्ष को
घर कहना बड़ी
उलटी बात
मालूम पड़ती है।
संघर्ष ही
उनकी छाया, उनका
विश्राम, उनका
बिछौना। इसका
अर्थ हुआ कि
संघर्ष के
प्रति कोई
शत्रुता का
भाव नहीं।
इसका अर्थ हुआ
कि वे संघर्ष
को संघर्ष
नहीं मानते, वे उसे जीवन
का सहज क्रम
मानते हैं। वे
मानते हैं कि
ऐसा होगा ही।
सिकंदर
हिंदुस्तान
से लौटता है।
एक संन्यासी
को ले जाना
चाहता है
यूनान। नंगी
तलवारों से उस
संन्यासी को
घेर लिया जाता
है और कहा
जाता है कि
तुम यूनान की
तरफ चलो। वह
संन्यासी
कहता है कि
मैंने जिस दिन
संन्यास लिया, उसी दिन से
मैंने किसी की
आज्ञा माननी
बंद कर दी है।
तो सिकंदर
कहता है, ये
नंगी तलवारें
देखते हो, ये
अभी काटकर
तुम्हें
टुकड़े—टुकड़े
कर देंगी। वह
संन्यासी
कहता है, जिस
दिन मैंने
संन्यास लिया,
उस दिन जो
काटा जा सकता
था, उससे
मैंने संबंध
विच्छिन्न कर
लिया। तुम
काटोगे जरूर,
लेकिन मुझे
नहीं। तुम उसी
को काटोगे, जिसे हम खुद
ही अपने से
काट चुके हैं।
सिकंदर
का इतिहास
लिखने वाले
लोगों ने लिखा
है कि सिकंदर
की तलवार और
हाथ पहली दफे
कंपा हुआ
दिखाई पड़ा।
हाथ उठाया भी
और रुक गया।
सामने एक
हंसता हुआ
आदमी खड़ा था!
सिकंदर ने पूछा
उस संन्यासी
कों—उसका नाम
था ददामि—उससे
पूछा कि क्या
तुम्हारे मन
में ऐसा नहीं
लगता कि कैसा
दुर्भाग्य
तुम्हारे ऊपर
आ गया? उस
संन्यासी ने
कहा, सौभाग्य
की अपेक्षा ही
हम नहीं रखते।
जो आ जाए हम
उसके लिए राजी
हैं।
संघर्ष
ही उनका आवास
है। इस संघर्ष
के प्रति कोई
भी विरोध नहीं
है, तो ही
आवास बनेगा
संघर्ष। अगर
विरोध है, तो
आवास नहीं
बनेगा।
संघर्ष का
स्वीकार है, तभी तो वह
आवास बनेगा।
उसका विरोध भी
नहीं है।
क्योंकि
संन्यासी
मानता है, जीवन
एक पाठशाला है,
जहा संघर्ष
शिक्षण की
पद्धति है। जो
जितना अपने को
संघर्ष से बचा
लेगा, वह
उतना ही अपने
को शिक्षित
होने से बचा
लेता है।
सुना
है मैंने कि
एक अरबपति
महिला एक
समुद्र तट पर
विश्राम करने
के लिए उतरी।
होटल के सामने
उसकी कार रुकी।
जितने कुली
वहां खड़े थे, उसने कहा, सब आ जाओ!
कुली भी थोड़े
चकित हुए।
इतना सामान तो
गाड़ी में नहीं
होगा। एक—एक सामान
एक—एक कुली को
पकड़ा दिया। और
फिर एक छोटा
बच्चा बचा। उस
महिला का एक
मोटा—तगड़ा
बच्चा अभी
आराम से बैठा
था गाड़ी में।
उसने उस कुली
लड़के से कहा, तुम इसको
कंधे पर उठा
लो। उस लड़के
ने कहा, लेकिन
क्या इसके पैर
खराब हैं? उस
की औरत ने कहा,
थैंक गॉड, हिज लेग्स
आर आलराइट, बट थैंक गॉड
ही विल हैव
नेवर टु यूज
देम। उसके पैर
बिलकुल ठीक
हैं, लेकिन
भगवान की कृपा
कि उसको कभी
उनके उपयोग करने
की जरूरत न
पड़ेगी। उठाओ
कंधे पर।
अब अगर
पैरों को
उठाने की भी
जरूरत न पड़े, तो पैर
शक्ति खो
देंगे। धीरे—
धीरे शक्ति खो
जाएगी। चलते
रहें, तो
ही उनकी शक्ति
है। न चलें, उनकी शक्ति
तिरोहित हो
जाएगी। हम
जिसका उपयोग
करते हैं, वह
सक्रिय हो
जाता है।
संन्यासी
अपनी पूरी
चेतना का
उपयोग करता है
जीवन के
संघर्ष में।
कहीं बचाव
नहीं करता।
कहीं आडू नहीं
लेता। कहीं
छिपता नहीं।
नसरुद्दीन
सेना में
भर्ती हुआ था।
युद्ध चल रहा
था जोर से।
सभी जवान
भर्ती कर लिए
गए थे।
नसरुद्दीन भी
भर्ती हो गया
था। जो जनरल
था, वह
नसरुद्दीन से
बहुत
प्रभावित हुआ।
क्योंकि कैसी
भी हालत हो, नसरुद्दीन
सदा जनरल के
पीछे खड़ा रहता।
कितना ही
संघर्ष हो, कितना ही
उपद्रव हो, बम गिरते
हों, तलवारें
चलती हों, तीर
आते हों, कुछ
भी हो, आगजनी
हो, नसरुद्दीन
कभी जनरल का
पीछा न छोड़ता।
युद्ध समाप्त
हुआ, तो
जनरल ने कहा, नसरुद्दीन
तुम बहुत
बहादुर आदमी
हो। इतना
बहादुर आदमी
मैंने नहीं
देखा। हर हालत
में तुम मेरे
साथ रहे।
नसरुद्दीन ने
कहा, सच्चाई
बताएं? जब
मैं घर से चलने
लगा, तो
मेरी पत्नी ने
कहा, सदा
जनरल के पीछे
रहना, क्योंकि
जनरल कभी मारे
नहीं जाते।
उसी कारण से
आपके पीछे
तकलीफें
उठाकर भी लगा रहा।
घर लौट
आए नसरुद्दीन, लेकिन तलवार
पकड़ना भी सीख
न पाए थे, क्योंकि
आड़ में ही समय
बीता। लेकिन
गाव में खबर
फैल गई कि
नसरुद्दीन
लौट आए हैं
युद्ध से। तो
काफी हाउस में
भीड़ इकट्ठी हो
गई और लोग
नसरुद्दीन से
पूछने लगे कि
कुछ सुनाओ।
नसरुद्दीन
क्या सुनाएं!
उन्होंने कुल
एक ही काम
किया था। फिर
भी कुछ सुनाना
जरूरी था, सोचने
लगे। तभी एक
और सैनिक काफी
हाउस में बैठा
था। उसने कहा,
कुछ बताते
नहीं! इतना
भयंकर युद्ध
हुआ, मैंने
अकेले सैकड़ों
आदमियों की
गर्दनें काट
दीं। और
नसरुद्दीन, तुम तो तमगा
लेकर लौटे हो
जनरल का कि
तुम बड़े बहादुर
आदमी हो!
नसरुद्दीन ने
कहा कि
गर्दनें? ऐसा
हुआ एक बार कि
तीन—चार
आदमियों के
पैर मैंने काट
दिए।
उस
सैनिक ने कहा, पर यह
बहादुरी हमने
पहले कभी नहीं
सुनी। आदमी
काटता है तो
गर्दन।
नसरुद्दीन ने
कहा, गर्दन
तो कोई पहले
ही काट चुका
था। गर्दन तो
कोई पहले ही
काट चुका था, नो
अपर्चुनिटी, तो मैंने
उठाई तलवार और
चार—छह
आदमियों के
पैर धड़ल्ले से
काट दिए।
इतनी
ही बहादुरी
करके वह लौटे
थे।
स्वाभाविक है।
आडू, और आडू, और आडू, तो
जिंदगी ऐसी ही
हो जाती है—लोच—पोच।
उसमें कुछ
बचता नहीं।
भीतर का सत्व
गिर जाता है, नीचे गिर
जाता है।
संघर्ष
ही उनका आवास
है। आडू में
वे नहीं जीते।
खुले, वलनरेबल,
ओपन, जो
भी हो, राज़ी।
तूफान आए, आधिया
आएं, दुख
आएं, पीड़ा
आएं, मौत
आए—वलनरेबल—सदा
खुले।
अनाहत
जिनका मंत्र
अक्रिया
जिनकी
प्रतिष्ठा।
अनाहत
मंत्रम्।
इन
संन्यासियों
का मंत्र क्या
है? इनकी
साधना क्या है?
तो ऋषि कहता
है, अनाहत
मंत्र। इसे
थोड़। जाना पड़े
भीतर। मनुष्य
के भीतर, हमारे
शरीर के भीतर
सात चक्र हैं।
उनमें एक चक्र
है अनाहत।
प्रत्येक
चक्र से साधना
हो सकती है।
इसलिए
प्रत्येक
चक्र की साधना
अलग—अलग है।
और प्रत्येक
चक्र का मंत्र
भी अलग—अलग है।
और उस मंत्र
के द्वारा उस
चक्र पर चोट
की जाती है।
वह चक्र
सक्रिय हो
जाता हे तो
उसमें छिपी
हुई ऊर्जा ऊपर
की तरफ यात्रा
पर निकल जाती
है।
यह ऋषि
कहता है कि
संन्यासी का
मंत्र तो
अनाहत है। वह
जो अनाहत चक्र
है, वहीं वह
चोट करता है।
उस चोट की
अपनी
ध्वनियां हैं,
जिनसे
अनाहत पर चोट
की जाती है।
जैसे सोहम्, अनाहत पर
चोट करने का
ध्वनि—सूत्र
है।
आपने
कभी खयाल न
किया होगा कि
जब भी आप कोई
शब्द बोलते
हैं, तो उसकी
चोट आपके शरीर
के अलग—अलग
हिस्सों में
पड़ती है। अगर
आप भीतर कहें
ओम, तो
हृदय से नीचे
तक ओम की
ध्वनि नहीं
जाएगी। ओम का
अधिक गुंजार
मस्तिष्क में
होगा। जैसे आप
यहां उच्चारण
कर रहे हैं हु,
तो हू ठीक
सेक्स सेंटर
तक जाएगा।
इसलिए बहुत से
मित्र मुझे
आकर कहते हैं
कि अजीब बात
है, इस हू
के प्रयोग
करने से हमारी
तो कामवासना
उठती हुई
मालूम पड़ती है।
पड़ेगी।
क्योंकि उसकी
चोट ठीक सेक्स
सेंटर तक जाती
है, काम—केंद्र
तक जाती है।
हर
शब्द की गहराई
है आपके भीतर।
हर ध्वनि आपके
भीतर अलग
गहराइयों तक
प्रवेश करती
है। इसलिए
मंत्र गुरु के
द्वारा दिया
जाता रहा।
उसका और कोई
कारण नहीं था।
और जब गुरु
मंत्र देता है, तो कई दफे
लेने वाले को
लगता है कि
अरे, यह
मंत्र! यह तो
हमें पहले ही
मालूम था। और
गुरु के पास
गए, उन्होंने
बड़े प्राइवेट
में, और
बड़े कान में
कहा कि राम—राम्
बोलना। हद हो
गई, यह भी
कोई मंत्र हुआ?
यह राम—राम
किसको पता
नहीं है? यह
तो हम पहले ही
से बोल रहे थे।
तो गुरु ने
ऐसा कौन सा
खूबी का काम
कर दिया कि कान
में कह दिया, राम—राम
बोलना। उसके
कारण और हैं।
राम—राम तो
आपको परिचित
है, लेकिन
आपके उपयोग का
है या नहीं, यह आपको पता
नहीं है।
और कई
बार गलत
मंत्रों का
उपयोग लोग
करते रहते हैं, जो उन्हें
नहीं करना
चाहिए।
क्योंकि हो
सकता है, उन
मंत्रों के
उपयोग से उनके
भीतर जहां चोट
पड़ती हो, वह
उन्हें
कठिनाई में
डाले। जैसे कि
मैं हू पर
आग्रह करता
हूं। क्योंकि
मेरा मानना है
कि हमारा युग
कामातुर युग
है। सेक्स
सेंटर इज द
मोस्ट
सिग्नीफिकेंट
टुडे। आज की
अधिकतम
बीमारियां, आज की
अधिकतम चिंता,
आज की
अधिकतम
परेशानी, काम—केंद्र
से जुड़ी है।
तो अगर इस युग
में कोई भी
रूपांतरण
करना है, तो
एक ऐसी ध्वनि
का उपयोग करना
पड़ेगा, जो
काम—ऊर्जा को
जगाए और
कुंडलिनी की
तरफ प्रवाहित
कर दे।
संन्यासी
का मंत्र
अनाहत है, क्योंकि
संन्यासी वह
है जिसकी काम—ऊर्जा
कुंडलिनी की
तरफ चल पड़ी।
उसे वहां चोट
करने का सवाल
नहीं है। अब
वह अनाहत पर
चोट करे।
अनाहत, सोहम्।
अनाहत
का अर्थ होता
है, जो बिना
चोट के पैदा
हो—बिना आहत, बिना किसी
चोट के। अगर
हम दोनों
तालियां
बजाएं तो यह
आहत ध्वनि है।
क्योंकि दो
चीजों की चोट
हुई, तब यह
पैदा हुई। जो
भी ध्वनि चोट
से पैदा होगी,
वह आहत
ध्वनि है। वह
अनाहत चक्र तक
नहीं
पहुंचेगी।
अनाहत तक एक
ही ध्वनि
पहुंच सकती है,
जो बिना चोट
के पैदा होती
है।
झेन
फकीर जापान
में कहते हैं
अपने साधक को
कि जाओ और
खोजो उस ध्वनि
को, जो एक ही
हाथ से पैदा
होती है। एक
ही हाथ से कोई
ध्वनि पैदा
नहीं होती। एक
ध्वनि है जो
अनाहत है, जैसे
सोहम्। सोहम्
आपको पैदा
नहीं करना
पड़ता। अगर आप
शांत बैठ जाएं
और केवल अपनी
श्वासों को
देखते रहें
आते और जाते, कमिंग इन, गोइंग आउट, सिर्फ श्वास
को देखते रहें।
थोड़ी ही देर
में श्वासों
में सोहम् का
उच्चार शुरू
हो जाएगा बिना
आपके।
श्वासों की
गति ही सोहम्
के उच्चार को
पैदा करती है।
श्वास के होने
में ही सोहम्
की ध्वनि छिपी
हुई है। इसलिए
सोहम् न तो
संस्कृत है, न किसी और
भाषा का है।
सोहम्? कहें,
निसर्ग की
ध्वनि है, जो
आपके भीतर
श्वास से पैदा
होती रहती है।
यह
अनाहत ध्वनि
है। इस ध्वनि
की चोट अनाहत
चक्र पर होती
है। और इस
ध्वनि की चोट
बड़ी गहरी और
बड़ी बारीक और
बड़ी सूक्ष्म
है। और अनाहत
चक्र में वह
सारी शक्ति
छिपी है, जो
ऊर्ध्वगमन के
लिए साधन बनती
है।
संन्यासी
का मंत्र
अनाहत है। वह
ऐसे मंत्र का
उपयोग नहीं
करता जो ओंठों
से बोला जाए।
क्योंकि जो
अप्तौं से
बोला जाएगा, वह ओंठों से
गहरा नहीं
जाता। वह ऐसे
मंत्र का उपयोग
नहीं करता, जो कंठ से
बोला जाए।
क्योंकि जो
कंठ से बोला
जाएगा, वह
कंठ तक ही रह
जाता है। वह
ऐसे मंत्र का
उपयोग नहीं
करता, जो
मन से बोला
जाए। क्योंकि
जो मन से बोला
जाएगा, वह
मन के पार
नहीं ले जा
सकता।
ऋषियों
ने एक ऐसे
मंत्र को खोजा
है, जो अनाहत
है। जो न कंठ से
बोला जाता है,
न ओंठ से बोl
ग़ जाता—जों
बोला ही नहीं
जाता, अबोला
है, अजपा
है। उसका जप
नहीं होता।
उसका जप चल ही
रहा है, सिर्फ
हमने सुना
नहीं है। जैसे
कभी अंधेरी
रात में
सन्नाटा होता
है। आप गपशप
में लगे हैं, सुनाई नही' पड़ता है।
फिर गपशप बंद
हो गई, आप
अकेले बैठे
हैं, अचानक
चारों तरफ
सन्नाटे की
आवाज गंजने
लगती है। वह
जब आप बोल रहे
थे, तब भी
गज रही थी, लेकिन
आपके बोलने
में इतनी दबी
थी।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
संगीतज्ञ को
सुनने गया है।
साथ में उसकी
पत्नी है।
संगीतज्ञ बड़े
जोर से आलाप
भर रहा है।
शास्त्रीय
संगीतज्ञ है।
नसरुद्दीन
बड़ा बेचैन हो
रहा है। पत्नी
बड़ी आनंदित हो
रही है। पत्नी
ने आखिर में
पूछा, कैसा
लग रहा है
संगीत? अदभुत
है! पत्नी ने
कहा, अदभुत
है! कैसा लग
रहा है संगीत?
नसरुद्दीन
ने कहा, जरा
जोर से बोलो, इस दुष्ट की
वजह से कुछ
सुनाई नहीं पड़
रहा है। यह
इतने जोर से
चिल्ल—पों मचा
रहा है कि तू
क्या कहती है,
कुछ सुनाई
नहीं पड़ता। तो
उसकी पली ने
कहा कि तुम
बड़े डोल रहे
थे, हिल
रहे थे, तो
मैं समझी कि
तुम बड़े
आनंदित हो रहे
हो।
नसरुद्दीन
ने कहा, मैं
बड़ा बेचैन हो
रहा हूं। अपने
घर जो बकरा
मरा था, वह
भी इसी हालत
में मरा था।
इसी तरह आलाप
भर रहा था। तो
मैं यह देख
रहा हूं कि यह
आदमी अब मरा, अब मरा। यह
बिलकुल आखिरी
घड़ी में है।
इस्टको बचाना
बिलकुल
मुश्किल है।
बकरे को भी
अपन बचा नहीं पाए
थे। तो मैं
इसलिए हिल—डुल
रहा हूं कि
कोई उपाय हो
सकता है इसको
बचाने का कि
नहीं। यह दुष्ट
बोलना बंद करे,
तो मैं सुन
पाऊं कि तू
क्या कहती है,
नसरुद्दीन
कह रहा है। और
वह पूछ रही है।
ना अदभुत है
यह संगीत!
हम जब
बंद हों, यह
हमारा
शास्त्रीय
संगीत जो चल
रहा है चौबीस घंटे,
यह जब बंद
हो तो हमें
अनाहत नाद का
पता चले। वह
चल रहा है
पूरे वक्त।
कहना चाहिए वह
बायोलाजिकल
है, बिल्ट —इन
बायोलाजिकल
है। वह हमारे
होने में ही
है।
एग्झिस्टेंशियल
है। जब कुछ भी
ध्वनि नहीं रह
जाती भीतर, तब भी एक
ध्वनि रह जाती
है, जो
हमारी पैदा की
हुई नहीं है, अनाहत है।
अपने आप हो
रही है, स्व—आविर्भूत
है। उस ध्वनि
का नाम अनाहत
है। और वह
ध्वनि जहां
चोट करती है, उस चोट के
स्थान का नाम
अनाहत चक्र है।
और
अनाहत की वह
ध्वनि ही
संन्यासी का
मंत्र है, क्योंकि
संन्यासी
उसकी ही खोज
पर निकला है, जो असृष्ट
है, अनक्रिएटेड
है। संसारी
उसकी खोज पर
निकला है,
जो बनाया हुआ
है, बनाया
गया है।
संन्यासी उसकी
खोज पर निकला
है, जो
अनबना है, अनक्रिएटेड
है। अगर अनबने
को खोजना है, अनबना ही
ब्रह्म है, तो फिर
अनबने साधन से
ही खोजना
पड़ेगा।
अनाहत
उसका मंत्र है।
अक्रिया उसकी
प्रतिष्ठा है
वह
क्रिया में
नहीं जीता, वह अक्रिया
में ही
प्रतिष्ठित
रहता है क्रिया
करते हुए भी।
इसलिए कहा, अक्रिया
उसकी
प्रतिष्ठा है।
ऐसा नहीं कहा
कि वह क्रिया
नहीं करता है।
अक्रिय हो
जाता है, ऐसा
भी नहीं कहा।
अक्रिया उसकी
प्रतिष्ठा है।
चलता है, लेकिन
चलते समय भी
उसमें
प्रतिष्ठित
रहता है, जो
कभी नहीं चला
है। बोलता है,
लेकिन
बोलते समय भी
उसमें प्रतिष्ठित
रहता खै, जो
मौन है। भोजन
करता है, लेकिन
भोजन करते
वक्त भी उसमें
प्रतिष्ठित रहता
है, जिसके
लिए भोजन की
कोई भी जरूरत
नहीं है।
अक्रिया
उसकी
प्रतिष्ठा है
क्रिया
तो संन्यासी
भी करेगा।
चलेगा, उठेगा,
बैठेगा, सोएगा,
भोजन करेगा,
थकेगा, विश्राम
करेगा। क्रिया
तो संन्यासी
को भी करनी ही
पड़ेगी। इस जगत
में क्रिया तो
अनिवार्य है।
इसलिए अगर कोई
सोचता हो कि
अक्रिया कर
लूंगा, तो
संन्यासी हो
जाऊंगा, तो
गलती है।
अक्रिया तो
सिर्फ मरने से
ही होती है।
जीवन में
क्रिया
अनिवार्य है।
जीवन
क्रियाओं का 'नाम है। फिर
संन्यासी
क्या करेगा? गृहस्थ भी
क्रिया करता
है, संन्यासी
भी क्रिया
करता है, फिर
फर्क क्या रहा?
गृहस्थ भी
चलता है, संन्यासी
भी चलता है, फिर फर्क
क्या रहा? प्रतिष्ठा
का फर्क है।
चलते
वक्त गृहस्थ
चलने में ही
प्रतिष्ठित
हो जाता है, बोलते वक्त
बोलने में ही प्रतिष्ठित
हो जाता है, भोजन करते
वक्त भोजन
करने में ही
प्रतिष्ठित हो
जाता है।
संन्यासी दूर
खड़ा देखता
रहता है। उसकी
प्रतिष्ठा
अक्रिया में
बनी रहती है।
ही प्ल बट
रिमेंस इन द
इम्पूवेबल।
वह गति करता
है, लेकिन
गति—मुक्त में
ठहरा रहता है।
चलता है, पूरी
पृथ्वी घूम
लेता है, और
फिर भी कहता
है, हम
वहीं हैं जहां
थे। हम चले ही
नहीं।
बुद्ध
के संबंध में
बौद्ध भिक्षु, सिर्फ जापान
के बौद्ध
भिक्षु, एक
मजाक करते
रहते हैं कि
बुद्ध कभी हुए
ही नहीं। और
रोज पूजा करते
हैं।
हिम्मतवर लोग
हैं। और जब
कोई धर्म
हिम्मत खो
देता है, तभी
अपने गुरु के
प्रति हंसने
की हिम्मत भी
खो देता है।
वे कहते हैं, बुद्ध कभी
हुए ही नहीं।
लिंची
एक बहुत बड़ा
फकीर हुआ। रोज
सुबह बुद्ध की
मूर्ति पर फूल
चढ़ाता है और रोज
प्रवचन देता
है कि बुद्ध
कभी हुए ही
नहीं। झूठ है
यह बात। कहानी
है यह। एक दिन
एक आदमी ने
कहा, यह बर्दाश्त
के बाहर हो
गया। रोज
तुम्हें
देखते हैं, फूल चढ़ाते
हो। और रोज
तुम्हारा
प्रवचन सुनते
हैं। बड़ी
हैरानी होती
है। बड़े
कंट्राडिक्ट्री
मालूम पड़ते हो,
बड़े
विरोधाभासी
हो। आदमी कैसे
हो तुम! सुबह
जिसको फूल
चढ़ाते हो, सांझ
कहते हो, वह
कभी हुआ ही
नहीं।
लिंची
ने कहा, निश्चित
ही, क्योंकि
मैंने भी कभी
फूल चढ़ाए नहीं।
प्रतिष्ठा
हमारी
अक्रिया में
है। वह जो फूल
चढ़ाता हूं
सुबह, उसमें
मेरी
प्रतिष्ठा
नहीं है। मैं
खड़ा देखता
रहता हूं कि
लिंची फूल चढ़ा
रहा है। ऐसे
ही बुद्ध भी
खड़े देखते रहे
कि बुद्ध पैदा
हुए, कि
बुद्ध चले, कि बुद्ध
बोले, कि
बुद्ध मरे।
लेकिन
प्रतिष्ठा
अक्रिया में
है। संन्यासी
की प्रतिष्ठा
अक्रिया है।
करते
हुए न करने
में ठहरा रहना
संन्यास है।
करते हुए न
करने में ठहरा
रहना संन्यास
है—करने से
भाग जाना नहीं।
क्योंकि करने
से कोई भाग
नहीं सकता। एक
करने को दूसरे
करने से बदल
सकता है, बस!
और कुछ नहीं
कर सकता है।
तो जब करने से
हम भाग ही
नहीं सकते, तो एक करने
को दूसरे करने
से भी क्या
बदलना है! इसलिए
मैं गृहस्थ को
भी संन्यासी
बना देता हूं।
प्रतिष्ठा
बदल लो! काम
बदलने से क्या
होगा? दुकान
न चलाओगे, आश्रम
चलाओगे, क्या
फर्क पड़ेगा? ग्राहक न
आएंगे, शिष्य—शिष्याएं
आएंगी, क्या
फर्क पड़ेगा? वे भी
कस्टमर्स हैं।
इसलिए
गुरुओं में
झगड़ा हो जाता
है, किसी का
कस्टमर किसी
दूसरे के पास
चला जाए, तो
बड़ी झंझट होती
है कि ग्राहक
छीन लिया
हमारा। सब
धंधा हो जाता
है।
तो जब
कस्टमर्स में
ही जीना है, तो हर्ज
क्या है? दुकान
पर बैठकर
सामान ही बेचा,
तो क्या
हर्ज है? प्रतिष्ठा
बदल जानी
चाहिए। दुकान
पर बेचते हुए
दुकानदार न रह
जाएं, बस!
काम करते हुए
करने वाले न
रह जाएं।
अक्रिया में
प्रतिष्ठा हो
जाए, तो
संन्यास है।
ऐसा
स्वेच्छाचार
रूप आत्म—स्वभाव
रखना—यही
मोक्ष है।
यह वचन
तो अपूर्व है।
अद्वितीय है, इनकम्पेरेबल
है। मनुष्य
जाति के
साहित्य में,
किसी भी
साहित्य में,
ऐसा वचन
खोजना असंभव
है।
स्वेच्छाचार
स्वस्वभावो
मोक्ष:
स्वेच्छाचार
जिनका स्वभाव
है! बड़ी कठिन
बात है।
स्वेच्छाचार
तो बड़ा गलत
शब्द है हम सब
की नजरों में।
जब किसी आदमी
की हमें निंदा
करनी होती है, तो हम कहते
हैं, स्वेच्छाचारी
है।
स्वेच्छाचारी
का मतलब यह
होता है कि
गया, भटक
गया, न
किसी की सुनता,
न किसी की
मानता, न
कोई नियम, न
कोई संयम, न
कोई मर्यादा—स्वेच्छाचारी
है।
स्वेच्छाचार
तो हमारे लिए
गाली जैसा है।
और ऋषि कहता
है, स्वेच्छाचार
स्वस्वभावो
मोक्ष:। ऐसे
स्वेच्छाचार
में जिसने
अपने स्वभाव
को जाना, वही
मोक्ष है।
लेकिन
यह सूत्र आता
है बहुत अंत
में। इसके
पहले सब
विसर्जित हो
चुका। वह
अहंकार जा चुका, जो
स्वेच्छाचार
कर सकता था।
वह अहंकार अब
नहीं बचा, जो
स्वेच्छाचार
में उतरने में
रस लेता, वह
जा चुका।
अक्रिया में
प्रतिष्ठा हो
गई है। क्रिया
में रस होता, तो
स्वेच्छाचार
खतरे कर सकता
था।
नेपोलियन
से कोई पूछ
रहा था कि
आपकी दृष्टि
में कानून की
परिभाषा क्या
है? हाउ डू यू
डिफाइन द ला? नेपोलियन ने
कहा, यह
काम साधारण
लोगों पर छोड़ो।
जहा तक मेरा
संबंध है, आई
एम द ला। मैं
कानून हूं। यह
छोड़ो बेकार
लोगों पर, कानूनविदों
पर, वे
इसका हिसाब
लगाते रहेंगे
कि परिभाषा कग
है। ऐज फार
प्ले आई एम
कंसर्न्द, आई
एम द ला।
स्वेच्छाचार
का यही मतलब
होता है।
लेकिन
नेपोलियन का
स्वेच्छाचार
और संन्यासी
के
स्वेच्छाचार
में नर्क और
स्वर्ग का
फर्क है।
नेपोलियन
जब
स्वेच्छाचारी
होता है, तो
सिर्फ इसीलिए
कि वह दूसरे
की इच्छाओं का
खंडन कर दे, तोड़ दे, मिटा
दे; और जो
अहंकार कहे, जो मन कहे, जो वासना
कहे, जो
कामना कहे, वृत्तिया
कहें, वही
करे। तो
नेपोलियन का
स्वेच्छाचार
पाशविक हो
जाता है, पशुओं
जैसा हो जाता
है। पशुओं से
भी बदतर हो
जाएगा।
क्योंकि पशु
की क्षमता
आदमी से
ज्यादा नीचे गिरने
की नहीं है, क्योंकि पशु
की क्षमता
आदमी से
ज्यादा ऊपर उठने
की नहीं है।
आदमी जितना
ऊपर उठ सकता
है, उतना
ही नीचे जा
सकता है। नीचे
और ऊपर जाना
समानुपाती
होता है।
जो
वृक्ष जितने
ऊपर जाता है, उसकी जड़ें
उतनी ही नीचे
जाती हैं। जो
वृक्ष थोड़ा ही
ऊपर जाता है, उसकी जड़ें
उतनी ही नीचे
जाती हैं।
वृक्ष की
ऊंचाई देखकर
आप कह सकते
हैं कि जड़ों को
कितने नीचे
जाना पड़ा होगा।
वे अनुपात में
होती हैं। ऊपर
और नीचे जाने
की क्षमता
समान होती है।
चूंकि पशु ऊपर
नहीं जा सकते,
पशु नीचे
नहीं जा सकते।
आदमी ही जा
सकता है ऊपर
और नीचे।
तो जब
आदमी में
वासना होती है, कामना होती
है, वृत्तियां
होती हैं, अहंकार
होता है, मोह
होता है, माया
होती है; तो
स्वेच्छाचार
पाप है, नर्क
है। और जब
आदमी इन सबसे
मुक्त हो जाता
है, तब
स्वेच्छाचार
ही मोक्ष है।
तब कोई नियम
नहीं बांधते,
तब कोई नियम
अनिवार्य
नहीं रह जाते,
तब कोई
मर्यादा नहीं
बचती। तब तो
जो भीतर से
उठता है, स्पाटेनियस,
सहज, वही
आचरण बन जाता
है। तब स्वभाव
ही आचरण है।
संन्यासी
का उठना, बैठना,
बोलना, करना
सोचा—विचारा
नहीं है, सहज
है। जैसे
हवाएं बहती
हैं और पानी
दौडता है सागर
की तरफ और आग
की लपटें
दौड़ती हैं
आकाश की तरफ, ऐसा ही
स्वभाव में
रहता है
संन्यासी।
स्वेच्छाचारी
हो जाता है।
पर यह
स्वेच्छाचार
बहुत और, अन्य
है। अपराधी भी
स्वेच्छाचारी
होता है, संन्यासी
भी
स्वेच्छाचारी
होता है। फर्क
एक ही है कि
अपराधी
स्वेच्छाचारी
होता है
वासनाओं के
साथ, संन्यासी
स्वेच्छाचारी
होता है
वासनाओं से रिक्त।
वासनाओं के
साथ जिसने
स्वेच्छाचार
किया, वह
नर्क की
यात्रा पर
निकलेगा।
वासनाओं से
छूटकर जो
स्वेच्छाचार
में उतरा है, वह मोक्ष को
उपलब्ध हो
जाता है।
ऋषि
कहता है, स्वेच्छाचार
स्वस्वभावो
मोक्ष:।
इससे
ज्यादा रेवल्यूशनरि, इससे ज्यादा
क्रांतिकारी
मंत्र नहीं
खोजा जा सकता।
इति
स्मृते:। और
यही स्मृति का
अंत है।
बड़ी
अदभुत बात है—यही।
इसके आगे
स्मृति की कोई
भी जरूरत न
रही। इसके आगे
कुछ स्मरण
करने योग्य न
रहा। क्योंकि
स्मरण रखने
पड़ते हैं नियम, मर्यादाएं,
सीमाएं; स्मरण
रखने पडते हैं
अनुशासन; स्मरण
रखनी पड़ती हैं
व्यवस्थाएं।
जो
स्वेच्छाचार
को उपलब्ध हो
गया, स्व—स्वभाव
को उपलब्ध हो
गया, अब
स्मृति की कोई
जरूरत न रही।
जब तक शान
नहीं, तब
तक स्मृति की
जरूरत है।
मेमोरी इज ए
सबग्टीट्यूट
फार नोइंग। जो
जानता है, उसे
स्मृति की
जरूरत नहीं रह
जाती। जो नहीं
जानता है, उसे
स्मृति की
जरूरत रहती है।
हमें
वही याद करना
पड़ता है, जिसे
हम भूल— भूल
जाते हैं।
लेकिन जिसका
हमें ज्ञान ही
हो गया, उसे
क्या याद रखना
पड़ता है? चोर
को याद रखना
पड़ता है कि
चोरी करना ठीक
नहीं, लेकिन
जिसकी चोरी ही
खो गई, क्या
उसे यह याद
रखना पड़ेगा कि
चोरी करना पाप
है? इसलिए
कई दफे बड़ी
मजेदार
घटनाएं घट
जाती हैं।
कबीर
के घर बहुत
लोग आते थे और
कबीर सबको
कहते, भोजन
करके जाना।
कबीर का लड़का
कमाल मुश्किल
में पड़ गया।
उसने कहा, हम
कितना ऋण लें?
हम थक गए, आगे नहीं चल
सकता! आप यह
बंद करो। कबीर
कहते, अच्छा।
कल
सुबह फिर वही
होता। लोग आते, कबीर कहते, भोजन के लिए
रुककर जाना।
कमाल सिर ठोंक
लेता कि फिर
वही। इति
स्मृते। ऐसे
आदमी स्मरण से
नहीं जीते, तत्काल जीते
हैं, वहीं
जीते हैं, फिर
भूल गए।
आखिर
कमाल एक दिन
बहुत क्रोध
में आ गया।
उसने कहा कि
अब यह आगे एक
क्षण नहीं चल
सकता। क्या
मैं चोरी करने
लगूं? कबीर
ने कहा, यह
तूने पहले
क्यों न सोचा?
अदभुत
घटना है यह।
इतनी अदभुत
घटना है कि
कबीरपंथी
इसका उल्लेख नहीं
करते, क्योंकि
इसमें
तो बड़ा गडबड
हो जाए।
कबीर
बोले, पागल,
पहले क्यों
न सोचा? अगर
ऐसा कोई उपाय
हो सकता है, तो कर। कमाल
ने कहा, क्या
कह रहे हैं? चोरी! चोरी
कह रहा हूं!
कबीर
को स्मरण अब
कहा कि चोरी
बुरी है, कि
चोरी पाप है।
इति स्मृतेः।
ऐसी जगह जाकर
तो सब स्मृति
खो जाती है।
अब तो कबीर को
याद दिलानी
पड़ेगी उस जगत
की, जिस
जगत को, समय
हुआ, वे
छोड़ चुके, जहा
चोरी पाप थी; उस लोक की, जहा चोरी
पाप थी और
चोरी ही नियम
थी, जहा
समझाया जाता
था, चोरी
मत करना और
चोरी चलती थी;
जहां चोर तो
चोर था ही, जहां
मजिस्ट्रेट
भा चोर था। उस
जगत से कबीर
का अब कोई
नाता न रहा, वह आयाम न
रहा, वह
यात्रा और हो गई।
कबीर को पता
ही नहीं कि
चोरी भी पाप
है।
कबीर
ने पूछा कमाल
से कि तू कुछ
ऐसा बेचैन दिखता
कि क्या कोई
गलती बात हो
रही है? कमाल
ने कहा, हद
हो गई। चोरी
के लिए कह रहे
हैं! दूसरों
का सामान उठा
लाऊं? कबीर
ने कहा, इसमें
मुइ। कुछ हर्ज
नहीं दिखाई
पड़ता। दूसरा,
यानी कौन? एक ही तो बचा
है। सामान
किसका? कौन
उठा लाएगा?
कमाल
ने सोचा कि
परीक्षा लेनी
ही पड़ेगी।
कमाल लड़का गजब
का था। उसने
कहा, ऐसे न दी
चलेगा। रात
उसने कहा कि
चलिए, मैं
चोरी को जा
रहा हूं आप भी
साथ चलिए।
कबीर उठे और
साथ हो लिए।
कमाल तब तो
बहुत घबराया।
उसने कहा कि
क्या चोरी
करवाकर ही
रहेंगे? हद
हो गई, अब
तो सीमा के
बाहर बात चली
जा रही है।
होश में हैं
कि बेहोश हैं!
मगर उनका ही
तो बेटा था।
उस ने कहा, ऐसे
न छोडूंगा, आखिरी क्षण
तक जांच ही कर
लेनी जरूरी है।
जाकर
सेंध खोदी।
कबीर खड़े रहे।
सेंध खोदकर
कमाल मकान के
भीतर घुसा। एक
गेहूं का बोर।
खींचकर बाहर
लाया। कबीर
खड़े रहे। कमाल
ने कहा, आप
सहारा दें
उठाने में, मुझ अकेले
से न उठेगी।
कबीर सहारा
देने लगे।
कमाल
ने सोचा, हद
हो गई। अब और कहां
तक? अब तो
यह चोरी हुई
ही जा रही है।
कमाल नें कहा,
ले चलें घर?
कबीर ने कहा,
घर के लोगों
को कह दिया न
कि ले जा रहे
हैं? लौटकर
जा, घर के
लोगों को कह आ।
सुबह नाहक
खोजेंगे, परेशानी
में पड़ेंगे।
कह दे कि हम एक
बोरा गेहूं
चोरी करके ले जा
रहे हैं। इति
स्मृते। ऐसी
जगह जाकर सब
स्मृति खो
जाती है।
परब्रह्म
में बहना ही
उनका आचरण है।
जस्ट
फ्लोटिंग इन द
डिवाइन। चलते
भी नहीं, तैरते
भी नहीं, बस
उस दिव्य
परमात्मा में
बहते है। यही
उनका आचरण है।
आज
इतना ही।
फिर
रात हम शेष
बात करेंगे।
अब हम बहे—जस्ट
फ्लोटिंग।
आज आंख
पर पट्टियां
नहीं बांधनी
हैं, लेकिन आंख
बंद रखनी है।
क्योंकि इन
सात दिन के
प्रयोग
में आंख
अगर अपने आप
बंद न रहे, तो ठीक नहीं।
पट्टी का
सहारा आखिरी
दिन छोड़ देना
है। आंख पर
पट्टी नहीं
बांधनी, अलग
रख दें पट्टी
तो भी चलेगा।
दूर—दूर
फैल जाएं। आज
तो बहुत गति
आएगी, इसलिए
फासले पर हो
जाएं।
thank you guruji
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